रविवार, 21 मई 2017

भोला-(कहानी्-मनसा



भोला


      भोला ये केवल एक नाम ही नहीं है। ये उस चलते-फिरते हाड़ मांस के शरीर मैं झलकती एक व्‍यक्‍ति के व्यक्तित्व कि कोमलता, गरिमा, उसका  माधुर्य उसके पोर-पोर से टपकती ही नहीं झरता हुआ आप देख सकते थे। भोला की मनुष्यता, मनस्विता, महिमा या गरिमा उसके दैनिक छोटे बड़े कार्यो मे देखी जा सकती थी। उसकी विशालता को मैने उसके अंतिम चरण मे एक बूढे होते वृक्ष के रूप में जाना था। उसका क्षीण होता शरीर भी बढ़ते उस अपूर सौन्दर्य को कम नहीं कर पर रहा था। परन्‍तु उसकी सुकोमल व पारदर्शी स्फटिक गहरी झील में प्रतिबिम्बित देख सकते थे। उसका शरीर जरूर झुरियां से भर गया था। पर अब भी उसमें एक सुकोमल ताजगी, एक जीवन्तता साफ दिखाई दे रही थी। मानों एक विशाल वृक्ष का खुरदरापन और उबड़-खाबड, रूखा पन भी अपने में एक आकर्षणता लिए हुये था।  जिस तरह से एक वृक्ष  का सौन्दर्य  केवल उसकी कोमलता ही नहीं बखानती, उसकी पूर्णता उसके पल्लव-पल्लव से टपक कर, झूमती लता पर इठलाते हुये पत्ते उसके रूप और आकरशण की कहानी कह रहे थे।

       रंग का साँवला, साधारण फूली नाक, परंतु मुहँ के हिसाब से कान अधिक बड़े और लंबे थे। उसकी बोलती काली गहरी आँख, सफ़ेद कंधे तक लहराते केश, जो माथे के काफ़ी ऊपर तक काफी कम हो गए थे। उन्‍हें देख कर ऐसा लगता किसी हिमछादित पर्वत के सौन्दर्य को पूर्णता देने के लिए ही ऐसा हुआ है। कई बार ऐसा भ्रम होता पर्वत की सुंदरता उसकी विशाल ऊंची चोटियों के कारण थी, या उसपर बिखरी धवलता के कारण गर्वित हो रही थी। कभी आप उसे खेतों में हल चलाते हुए, मंद्र लय से आगे चलते बैल, पीछे चलती बगुलों की कतार, जैसे बादलों को कोई धरा पर संग साथ लिए चल रहा हो। और कभी रोझ की छाँव मैं होठों पर लगी मुरली से छिटकती तानें सारे वातावरण को मदहोश कर रही होती। क्‍या पक्षी, क्‍या पशु, क्‍या मनुष्‍य और दूर क्षितिज पर चमकते चाँद तारे हो या सूर्य। सब उसकी बाँसुरी की तान सुन क्षण भर को अपना चलना ही भूल जाते थे। श्‍याम के समय, सूर्य तो मानों विदा ले रहा होता परन्‍तु उसकी किरणें  दादा भोला की बांसुरी की तान सुन कर यही पेड़ पत्‍ते पर अटक-सिमट कर ठहर जाना चाहती थी। मानो वह दिन भर की थकान को बाँसुरी के सुरों में समेट कर अपने को ही ताज़ा नहीं कर रहा, पूरी प्रकृति को ही सहला-सुला रहा था। भोला दादा कि उन तानों को सुनने के लिए मानों क्षणिक समय की गति रूक गई हो, औरते-बहुँये सर के बोझ को भूल विमुग्ध सी, मुहँ मैं पल्लू दबाए खड़ी की खड़ी रह जाती थी। गायें-भैंसे ऐसे मूर्तिवत अवाक खड़ी हो जाती कि मुहँ की घास को चबाना ही भूल जाती, पक्षियों का चहकना, बहते पानी का कलरव, या हवा की गति कुछ देर के लिए विषमय, विमुग्ध हो ठहर जाती थी। उस समय मैने देखा कैसे चारो तरफ़ एक नीरव शान्ति गहरा जाती, जिससे फूल-पत्ते भी कुछ देर के लिए अपनी अठखेलियाँ  करना भूल जाते थे।
         बचपन मे जो छवि, मेरे बाल मन ने भोला दादा की देखी थी। वो मेरे अवचेतन के गहरे मे कहीं मूर्ति रूप बन बैठ गई थी। समझ बढ़ने के साथ-साथ वो महान से महानतम होती गई। उसकी गरिमा, गौरव इस विशालता नीले आसमान मे इतना बड़ी हो गई, की चाह कर भी उस के अंतिम अदृश्य छोर को ना जान सका और न ही उसे छू सका। छोटा सा गाँव, गिनती के घर, थोडे से आदमियों से भला कोई काम चलता है। सोचते थे भई गाँव तो तभी पूर्ण होगा जब प्रत्येक जाती धर्म का इसकी शोभा बढ़ायेगा। दूर-दराज कहीं से अन्य जाती का आ जाये बसने के लिये, उसे रहने को घर, बोने जोतने को खेते देते,  पूरा गाँव उसके दुख-दर्द मे हमेशा तैयार रहता था। आज भी गाँव का पहला मकान नम्बर(डब्‍लू-जेड़-01) वह एक बाल्मीकी परिवार का है। आज आबादी की भीड़ ने अपनत्व और प्रेम को किसी कोने मे धकेल दिया लगता है। पहले कैसे प्रेम टपकता था, लोगो की आँखो और जबान से, जैसे महुआ से झरता रस जिसके अतिशय को रोकना चाह कर भी नहीं रोक पा रहा हो।  फूल खिलनें के बाद क्या अपनी गंध को रोक-समेट सकता है अब फैलने से, ठीक ऐसे ही खीला हुआ मनुष्य कैसे रोके अपने प्रेम को। आज गज़ भर लम्बे लटकते सपाट चेहरे, निर्जीव पथराई आंखे, सुकड़ा सिमटा जीवन एक सड़े हुए पोखरे की तरह हो गया है मनुष्‍य का चित। नींद और तमस मे चलते आदमी को देखो तो आप भयभीत हुये बिना नहीं रह सकोगे। गोया ये मुर्दा लोगे चार कंधों पर न चल कर अपने दो पैरो पर चल नहीं रहे है, सारे जीवन के दैनिक कार्य भी बड़ी सहजता से उसी तंद्रा मे किए चले जाते है।
            गाँव की जमीन सालों पहले अंग्रेंजी ने अधिग्रहण कर ली थी। उस पर फ़ायरिंग रेंज बनाने के बाद मीलों खाली जगह पड़ी रह गई थी।  उसको बोने जोतने के लिये गाँव वालो को बटाई पर दे दिया जाता था। इस कारण सालों तक गाँव के लोगो को ये भान तक नहीं हुआ की हमारी जमीन नहीं रही। गोलियां चलती तब फौजी लाल झंडी लगा कर बैठे रहते परन्तु ये सब फर्ज अदायगी ही समझो, गोलियां चलती रहती बच्चे बेर खा रहे होते, जिसने खेतों मे काम करना हो काम करता, न गोली से कोई डरता था, न गोली किसी को कोई नुकसान पहुँचाती थी। समतल जमीन के पास जो उँची पहाड़ी थी, उस पर गाँव बसा था। जहाँ तक नजर दौडाओं सपाट मैदान, दूर दराज खेतों के किनारे उगते नीम, शीशम, पीपल के विशाल पेड़ छाँव और आराम के लिए थे। खेती की जमीन के बीच से काट कर गुजरता गहरा बरसाती नाला था। जिसके दोनो किनारों पर खूब घनी डाब, शीशम और रोझ के पेड़ उगे हुए थे। बरसात के दिनो मे उसका ऊफ़ान और बेग़ देख ह्रदय दहल जाता, पूरी पहाड़ी ढलान के रिसाव का पानी नाले से होकर जमना नदी मे लीन होता था। अगर बरसात के समय आप नाले के उस किनारे पर रह गये मजबूरन आपको घण्टों वही इन्तजार करना पड़ेगा। चरते जानवर भी जब उस पार रह जाते तो हिम्मत नहीं करते थे उसमे उतरने की आदमियों की क्या बिसात। आस पास ऊगी घास-पात, झाड़-झक्काड़़ ही मिट्टी के कटाव को बचाये हुऐ है, वरना तो अब कितनी खेती की जमीन को निगल गया होता। पहाड़ी पर खड़े हो कर खेतों के बीच से गुजरते नाले की आड़ी-तिरछी हरियाली की छोटी होती लकीर मन को मुग्ध कर देती थी। खेतों के उस छोर पर घने पेड़-पौधों का जंगल शुरू हो जाता था। वहीं गाँव की पुरानी खंडर नुमा टूटी-फूटी हवेली थी, वहीं मीठे पानी का कुआँ था, जो आज भी गांव के पीने के पानी का एकमात्र सहारा है। एक ज़र-ज़र बाँध की दीवार जिस पर जंगली पेड़ पौधों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है, कभी खेतों की सिचाई के लिये बनवाया होगा उस बाँध के टूटे बिखरे पड़े वो खण्डहर ही विशालता की गवाही दे रहे थे। कितना संपन्‍न  और खुशहाल होगा ये गाँव  जो बाँध बनाने मे भी सक्षम था। दादा-भाईयाँ (ये नाम सून कर आप को कुछ अजीब लगेगा (दादा-भैया) किताना सूंदर ओर मधुर्य पूर्ण शबद चूना गांव वालों ने-जो गाँव के पूज्य देवता थे, उनके लिए बना वो मन्दिर, जो मन्दिर ने कह कर अगर शिवालय कहे तो ज्यादा ठीक होगा, उसमे कोई मूर्ति स्थपित नहीं थी, आज भी अपनी भव्यता और शान को दर्श रहा था। चारो तरफ़ उगे पेड़-पौधों के घने झुरमुट की छाँव, जंगली पक्षियों का चहचहाना वहाँ की शान्ति को और भी नीरव कर गहरा देता था। न जाने किस आपदा-मुसीबत मे गाँव वालो ने ये जगह छोड़ मीलों दूर पहाड़ी पर जा बसे, शायद जंगली जानवरों का भय या बाढ़ की मार रहीं होगी। गहरी खाई उबड़ खाबड़ पगडंडी, कटिली जंगली झाड़ी और सीधे खड़े चिकने पत्थर के कष्ट कारक रास्ते थे गाँव मे पहुचने के लिये। कहते है हमारे पूर्वज दूर दरज से 700 साल पहले यहां आकर बसे थे। ममन नाम। जो हमारे गांव का पिर्त तुल्य है। क्योंकि दादा भैया ही नहीं एक गांव का कुआ ओर उसका शिवाला भी था। शिव जमा आल्य यानि शिव का घर। वहां पर भी कोई मूर्ति नहीं थी। शायद हमारे पूर्वज कहीं जिस धर्म ओर धारणा को मानते थे यहां आस पास के किसी भी जाट समुदय में ऐसा प्रचलन नहीं है। न ही तुसिड गौत्र ही हमारे जाटों में पाया जाता है। ओर वह दिन जब पूरा गांव एक उत्सव बन जाता था। बुद्ध पूर्णीमा का दिन होता है....यानि भगवन बुद्ध से हमारे गांव का कही जरूर कुछ तार जूड़ा है....समय पाकर सब सत्य अपनी विकृति का रूप ले कर मृत पार्य हो जाते है।
आज हम भूल गये कि क्यों हमारे पूर्वजों ने जिस प्रथा को जिवित रखा ओर क्यों? आज के कुछ नौजवनों ने वहां पर धोड़े पर बैठे दादा भैया की मूर्ति बना कर उस पर अधुनिकता का गर्व कर रहे है। परंतु उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि सालों हमारे पर्वज जिस जीवित जवाला को लेकर यहां आये थे क्या वो इस मूर्ति को उन शिवालों में नहीं रख सकते थे। परंतु हम विवेक का इस्तेमान नही करते एक भैड चाल है जिस के पीछे चलते रहते है।
पहाडी इलाके के सूख के साथ कुछ विकटता भी होती है। इसके कारण हमारी दिल्ली तो वैसे भी अरावली पर्वत श्रृंखला पर बसी है। इस इंद्रपस्थ भी कहा जाता था। कितनी सूंदर होगी ये हजारों साल पहले इसके प्रत्येक माह में ऋतुए बदलती होगी। एक हमारे यहां सांप भी बहुत पाये जाते थे। परंतु कोबरा होने पर भी वह अति शितल स्वभाव के होते है। बहुत ही मजबुरी में आप पर हमला करेंगे। आप जंगल में जाओ ओर आपको सांप न मिले तब समझो की ये चमत्कार है। सालों से रोजाना आने-जाने के कारण ये रास्ते, बच्चे, बूढ़े, औरतों और पशुओं के आदि हो गये थे, लेकिन जब कोई मेहमान आता तो यहीं रास्ते उसके लिये दुर्गम हो जाते थे।    
            बरसाती पानी के बहाव से जब मिट्टी का कटाव होता, तब रास्तों मे नुकीले पत्थर निकल आते थे। आते-जाते बच्चे ही नहीं बड़े-बूढ़े भी उन से ठोकर खा उन्हे कोस-कास कर आगे बढ़ जाते, अगर नहीं बढ़ते केवल वह थे दादा भोला। सालों से उनका ये नियम था, घण्टों बैठ कर रास्ते का एक-एक पत्थर निकालते रहते थे। श्याम को खेतों से लोटते हुये किस तन्मयता और लगन से वो ये काम करते हुए जब मैं उन्हें देखता तो अभिभूत हो निहारता रहता था। एक दिन में भी छुपा कर घर से एक छोटी सी हथौड़ी ले उनके साथ काम करने लगा, परन्तु मेरे मन मे झिझक, लाज चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी, की कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। आते जाते लोगो की राम-राम चलती रहती दादा भोला के चेहरे पर ना कभी कोई शिकन न शिकायत, केवल एक उत्सव भाव झरता गीतों की तान से। और हाथ अपना काम करते रहते। उस सहजता से, वो जब भी कोई काम कर रहे होते, हमेशा मधुर गीत-गाते रहते थे। पत्थर वो मुझे नहीं निकालने देते थे,  कहते--’’ बैटा उँगली अभी कच्‍ची है इसमें चोट लग जायेगी, तुम्हारी उंगलियां  अभी कोमल है कच्ची है।‘’  मैं उनके निकाले पत्थर उठा-उठा कर रास्ते से हटाता रहता था। इतने छोटे बच्चे के मन में भी अंहकार है, जबकि अभी तो वो ना कुछ ही है, फिर दादा भोला के मन मे क्यों नहीं। मेरे मन में यही विचार चलते रहते थे। दादा भोला किस उत्सव, लगन, तन्मयता के भाव से आनन्द विभोर हो काम करते थे, सालों उलझी इस गुत्थी को मैं सुलझा पाया, जब बुलाकि राम (बुल्ला शाह) को जाना। उसकी मस्ती, गीत, आनन्द, बुल्ला शाह  का ही बीज़ रूप भोला दादा में वक्ष बनने की तैयार कर रहा था। उसका काम करना ऐसा लगता जैसे कोई कलाकार अपनी पूर्णता को पृथ्वी पर उकेर रहा हो। शायद यहीं प्रक्रिया प्रकृति आईना बन प्रतिध्वनि की तरह लोटती सी प्रतीत नही होती हम सभी के साथ, जो हमारा है हम पर नहीं लौट आता है। प्रकीर्ति केवल कर्ता भाव लिए खड़ी रहती है,मूक, मुस्कराती हुई।
            पृथ्वी, जल, प्रकाश के सान्निध्य मे एक पेड़ अपने को पुर्ण करता है, इठलाते पत्ते, मुसकुराते फूल, लद्दे फल, चहकते हुऐ पक्षी क्या इसकी पूर्ण होने के साक्षी नहीं है। पूछो इन तत्वों से तो कैसे कन्धे मचका कर अवाक, विस्मय, अनजान भोले बालक की तरह कहेंगे भला हमने क्या किया है, हम तो मात्र केवल थे। यही है होने का भाव, पूरी सृष्टि मे जहाँ तक आप देखेंगे, कण-कण मे यही पूर्णता पाओगें। भोला दादा न किसी के हँसने की परवाह करते थे, और न किसी की शाबासी का इन्तजार। यही मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा है वो करता होना चाहता है, लेकिन वो है नहीं, एक मूर्ति कैसे रचयिता हो सकती है, जबकि वो खूद ही एक रचना है, किसी अदृष्य हाथों की।
            मैं जब उनके संग-साथ होता तब मुझे लगता कि कुछ ज्यादा जीवित, अधिक प्राणवान हूँ, मेरे मन का जल स्तर कुछ ऊचां हो जाता, जैसे भरे बर्तन मे कोई होश का ढ़ेला डाल दे, तब बर्तन को यकीन न आये कि कैसे वो किनारों तक भर कर छलक गया। मेरे मन मे प्रश्नों की एक रेल दौड़ने लग जाती थी। कैसे एक बुद्ध पुरूष हमारे पूरी उम्र अर्थहीन प्रश्नों के ऊत्तर देते रहते है। शायद ये प्रश्न भी उन्ही के सान्निध्य मे उगते होंगे, बरसाती कुकर मूतों की तरह। या उनकी स्तरीय चेतना का प्रभाव हो, जो हमारे गहरे तल तक के प्रश्नों को बहार निकाल देते है। ओर उनके संग साथ हम उन प्रशनों के उत्तरों में ऐसे खोये रहते है कि अपने को ही भूल जाये या वह हमें इतना उलझा लेता है उस मधुर गहराई में से उठती अवाज में की हम चेतना के उस तल को छू जाते है जो जनमों-जन्मों की साधना में भी संभव नहीं हो सकता । शायद इसी का नाम सतसंग है। गुरू ऊपर खड़े बालटी डाल झिकझौंड़ते ही रहते है। हम एक कंजूस कुएँ की तरह कूड़े-करकट को ही अपना सर्व सब समझ सम्हालते रहता है, फिर सड़ना तो उसकी नियति है ही। 
            मैं--’’दादा आप इन पत्थरों को क्यों निकालते रहते है, कोई और तो नहीं निकालता आपके साथ। कितने लोग आते जाते है। सब देखते है। असुविधा तो सब को होती है। फिर आप ही......( और मेरे प्रश्न के पूरा होने से पहले ही दादा...बोल उठे)‘’
            दादा--’’बैटा आते जाते को ठोकर लगती है, पशुऔ के पैरो मे चुभते है। बोझा लेकर आती बहू-बेटियों, को कितनी तकलीफ होती है। एक तो चढ़ाई उपर से अगर उन्हे ठोकर लग गई तो कितनी चोट लग जायेगी। फिर मैं भी तो बूढ़ा हूँ, मुझे भी तो ठोकर लग जाती है। जिस गांव के रास्ते जितने साफ-सुथरे होगें,  वहाँ आने वाले लोग जान जाएँगे कि यहाँ किस तरह के लोग रहते है। जैसे औरत के पेर की फटी बिवाईयाँ ही उसके सूहड़-फूहड़ पन का राज खोल देगी,  उनका चेहरा या और कार्य देखने-सुनने की जरूरत ही नहीं है।’’   
             मैं--’’दादा आपको झिझक नहीं आती,  ये काम तो पूरे गांव का है। और ठोकर तो पूरे गाँव भर को लगती है। आप अकेले कोही थोड़ी है?(मैरा चेहरा लाल हो गया गुस्से के)
             दादा--’’अब तुमने कह दिया है अकेला नहीं निकलूंगा (मुस्कुराए कर) फिर अकेला मैं हुँ भी नहीं मेरा शेर है। ( उन्‍होंने शाबाशी से मेरे कंघों को थपथपाना) उन लोगो के पास समय नहीं होगा, फिर जो काम आपको अच्छा लगे उस के लिए किसी का इन्तजार मत करो, न देर करो वरना उसे कभी कर नहीं पाओगे। फिर आप करता का भाव मन में रखेंगे तो वो काम हो गया। इस एक खोल एक उत्सव की तहर लोगे तो यह आनंद हो गया। काम करने का एक आनंद है यही जीवन का एक सत्य है। बस काम हो और तुम हो उसमें दूसरा कुछ भी नहीं आये। तो ये हो गई सबसे बड़ी पूजा। फिर तुम्‍हें किसी मंदिर जाने की जरूरत नहीं होगा। तुम खुद ही एक मंदिर बने होगें। और देखना जब हम जिसे काम समझ कर करते है तो उसमें कितनी जल्दी हमें थकान महसूस होती है। क्‍यों काम के पीछे एक लक्ष्‍य है और तुम करता। इससे आपकी जीवन धारा की लय को छिन्न-भिन्न कर देगी, और खेल भव उसमे ताजगी, जीवन्तता तुम्हारे खालीपन को भर प्राणवान बना देगा। देखो ये संसार का विस्तार क्या कोई रच सकता हैं इस रचना को, जब तक खुद रचयिता ही रचना मे एक न हो जाये। जब हम करता होते है तो हम दुर.....(और वो हँस पेड़) तू भी कैसा ज्ञानी बान हाँ-हुँ कर रहा है और दादा भोला मुझे बच्‍चा समझ कर हंस दिये....।’’
           मैं--’’दादा ये सब आपकी बातें मुझे बहुत अच्छा लगता है, आपकी वाणी अन्दर तक छूती हुई चली जाती है। फिर शब्दों को चाहे पकड़ न पाऊँ, इनका गुढ़ अर्थ मेरी समझ से परे हो पर इनमें कुछ ऐसा है। जो मुझे लगता है ये सब मैं जानता हुँ।’’
            दादा भोला की वाणी मुझे अन्दर तक तृप्त कर जाती थी। चाहे बुद्धि उसका विवेचन न कर पाये परन्तु ह्रदय उससे सराबोर हो जाता था। आदि काल में जब भाषा का विकास नहीं हुआ था, तब कैसे मनुष्य अपने भावों, विचारों, का आदान प्रदान करता रहा होगा। क्या आपने देखा जब आप कुछ उड़ेलना चाहते हो तो शब्द कभी अधूरे नहीं रह जाते। शब्‍दों की थाह छोटी नहीं पड़ जाते। आप जब सब कहे चुके होते हो तो आपको नहीं लगेगा, कि  जो कहना चाहा वो तो अभी अन्दर ही कैसे छटपटा ही रह गया। और बेजान शब्द  केवल निकल रहे है जो आपके भाव को नहीं समेट पाये। एक बुद्ध पुरूष भी इन्ही शब्दों का इस्तेमाल करता है, निर्जीव, प्राणहीन शब्द उसके अन्तस की गहराई को छू के कैसे चेतन-अचेतन की दीवारों को धकेल कर तुम्हारे रोएं-रोएं मे समा जाते है। उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा होता था। इस स्थूल शरीर का भी भार है हमारे होने मे, कभी नितान्त अकेले अन्तस मे पहली बार जब कोई जाता है। वह अपने शारीर को दूर क्षितिज के पार  देख रहा होता है, और आपको अपने पुर्ण होने का अहसास भी  साथ-साथ  हो रहा होता है। तब पहली बार शारीर के बिना भी , कैसे खाली पन में गहरे उतरते हुए, बिना किसी बन्धन के कैसा निर्भरता महसूस होती है। मानो आपको क्षण भर के लिए इस पृथ्‍वी ने अपने गुरुत्वाकर्षण से छोड़ दिया हो। वो अनुभव पहली बार इस काया की पकड़ उसकी भार तत्त्वता का बौध तुम्हारी जीवन शेली अमूल परिर्वतन भर देता है।
            दादा भोला के संग-साथ होना कैसे न होने जैसा लगता था। मेरे हम उम्र भी मुझे दादा भोला कह कर चिढ़ाते थे। मुझे अपने हम उम्र बच्चो की न तो बातें रुचिकर लगती थी,  न उनके साथ खेलना ही,  वह उथला और छिछोरा स्तरहीन सा लगता था, उनकी बातें मुझे बिना सर पैर कि लगती थी।  खेतों में जब काम नहीं होता जब भी दादा भोला जंगल में ही रहते ओर एक दो भैंसे, दो एक बैल, तीन-चार गायें,  तो उनकी थी ही इसके अलावा और भी  कोई उन्हे खेतों मे चराती गाय भैंसों के साथ अपनी मिला देता था। कोई भी बहती गंगा में हाथ धो लो सब के लिए छुट थी, जब कोई कहता दादा ये भेस उसकी है, ये गायें इसकी है, वो केवल मुसकुराते आँखो में एक भाव होता की मैं जताता हुँ, कभी किसी को मना नहीं करते थे। गर्मी के मारे भैंसे तो तलाव में घुस जाती, परन्तु गायें या बैल पानी से बहुत बिदकते थे। वो चरते हुए आगे बढ़ जाते थे। तब दादा भोला को मेरी उपयोगिता का पता तब चलता था,  और वो मुझे  पानी में धूस कर भैंसों को बहार निकालने को कहते थे। मुझे तो बस पानी में घुसने का बहाना चाहिए था। तब मैं दादा भोला की भेस के साथ अपनी भेस को मलमल के खूब नहलाता,  हमारी भैंसे भी तो उन्हीं भैंसों के साथ चरने आ जाती थी। फिर वो किसी छाँव दार वृक्ष के तने की टेक लगा बाँसुरी बजाने लग जाते थे। एक चैन की मधुर बांसुरी....जैसे भेस और में समझ नहीं पाते थे...परंतु मधुरता तो कानों में चली ही जाती थी। अब भेस की मैं कह नह सकता उसके वो जाने या उसका राम......जब मैं उन भैंसों का मुँह पानी से रगड़ कर धोता कैसे लम्बी-लम्बी उसास छोड़ती,  हवा के साथ पानी की महीन बुंदे कैसे मेरे मुँह को भिगो जाती थी। दुर बाँसुरी की मधुर तान के साथ भेस कैसे गर्दन हिलाती मानो प्रत्येक सुरों का ही नहीं राग बौध भी है, नाहक तुमने मुहावरा बनाया ’’भेस के आगे बीन.....’’ बीन की बात ही मत करो हम तो बाँसुरी पर ही नहीं अटके कहो तो सितार के सुरों को बता दे, कौन, कण, मीड़, मुर्की.. लगाई है, कौन सुर विवादी है जिससे बचना है। पर मैं देखता भेस की अकल में तो क्या आना था, उनपर कोई असर भी नहीं हो रहा था। बांसुरी की तान तालाब की लहरों से टकरा कर,  पूरे वातावरण को संगीत मय कर देती थी। क्या राग बजाते थे दादा भोला बजाते मेध मल्हार , जयजयवंती, या भगवान कृष्‍ण का प्रिय राग केदार........, आज  पक्का नहीं कहा सकता,  शायद राग केदार  की जरूर याद है क्‍योंकि उसे मैंने दादा भोला की बांसुरी पर हजारों बार सुना है, और वह था भी भगवान कृष्ण का प्रिय राग। जिसे बाद में हेमंत दा का केदार में भजन ’’ दर्शन दो धन श्याम नाथ मोरी अँखियाँ......’’की धुन रह-रह भोला दादा के सुरों की याद दिला जाती है।
            फागुन का मद मस्त माहौल सरदी गर्मी की रस्साकशी से शरीर मे मादकता के साथ उन्माद भर लाती थी। आप सावन की छुअन नन्हे चमकदार पत्तों पर ही नहीं, पलाश और सेमल के फूलों तक पे महसूस कर की मादकता सकते है। औरतों मे तो सावन ऐसे सिहर-सिहर कर हिलोरे मारता था,  और वह उम्र के बन्घनों के साथ सभी तट बन्द तोड़ देना चाहते है। श्याम का झुटपुटा होते न होते गाँव की औरतें चौपाल के बड़े चौक में इकट्ठी होने लगती थी। साठ से लेकर सात बरस कि औरतें लड़कियों में बस शरीर का ही भेद रह जाता था, वरना उनके अन्दर से छलक़ता बचपन, अल्हड़पन, अठहास,  हंसी मजाक उस छदम अंधकार में एक हो जाता था। मैं देखता किसी ६० वर्ष की प्रौढ़ में भी उसका बालपन कैसे रौएं-रेसे से रिस-रिस के बह रहा होता था। फिर न उसे पोती -पड़पोती का ही अहसास होता और न लडकपन का। दोनों इस प्रकार समतुल्य हो जाते की भेद जानने के लिए ध्यान से आपको उनका चेहरे देखने की जरूरत पड़ती। कि कौन जाने दादी है और कौन पोती है। उनका आपस में एक दूसरे को छेड़ना हंसी ठिठोली करना एक दूसरे को छैड़ कर किलकारी मार-मार कर भागना अस्मरणीय है। अगर इस बीच दादा भोला के बीना भी कोई महफिल मानो बीन सूर के साज, बीन तान के नाच हो सकता हे, दादा भोला के आने से महफिल मे शबाब ही नहीं फूलों मे सुगन्ध भर जाती थी। दादा भोला का उन बाल योवनाऔ के बीच मदमस्त हो कर नाचना, ढोल मंजीरों के साथ ताली बजा के गाना इस लोक का दृश्य नहीं लगता था। सब बहु-बेटियाँ अपनी उम्र नाता, घूंघट को भूल इस नृत्‍य में विलीन हो जाती थी। कुछ ही देर में ऐसा शमा बँधता न नृत्य और नृत्‍यकार एक हो जाते, शायद यहीं है वो रस जो अतिशय होते-होते रास बन जाता है।
      दादा भोला के इस तरह गाँव की बहु-बेटियों के साथ नाचना, घूंघट पर्था, जहाँ बहु ससुर-जेठ के सामने बोलती तक नहीं घूँघट के अंदर ६०-७० साल की औरतें छुपी रहेगी। मनुष्य की चेतना के उतंग आयामों को उन भोले-भाले देहाती से दिखने वालो के अन्दर कहीं छीपा होगा। गाँव के बुर्जग केवल गर्दन मचका कर हंस देते और पगला, या दीवाना की उपाधी दे आगे बढ़ जाते। न कोई बूरा मानता न नाराज होता, आप अपने अन्तस की गहराई से ही सामने वाले की गहराई को समझ सकते हो, और तो कोई पैमाना नहीं, क्या चरित्र है, क्या सोच हे आपकी, सौ बातों की एक बात ’’चौरों को सारे नजर आते है चौर’’। आज मनुष्य का मन कितना जटिल है, वो लोग कितने सरल और महान थे । दादा भोला न जब अपनी घर गृहस्थी नहीं बसाई तो फिर वो एक परिवार की सीमा में कैसे समाता, पूरा गाँव ही उसकी घर परिवार इस लिए कहूँगा दिल्ली से बहार कभी गया ही नहीं, वरना तो ऐसे इंसान के लिए देश क्या ये पृथ्वी भी छोटी पड़ती। जब कोई गाँव में त्योहार होता तो सब नम्बर से दादा भोला को निमंत्रण करते थे, किसी की हारी बिमारी हो, खेत क्यार का कोई काम, किसी का मकान गिर गया हो, भेस, गाय चरानी हो दादा भोला बिन बुलाए हाजिर। एक दीपावली पर हमारे घर भोजन करने आया था दादा भोला, मैं कैसे फूला नहीं समा रहा था दादा भोला हमारे घर आज आयेगा, यहाँ बैठेंगे, माँ क्या खाने को बनाएगी, मैने अपनी माँ के सार दिन कान खा लिए। रात जब खाना खान के लिए दादा भोला आया तो माँ ऐसे खाना परोस रही थी मानों कोई भगवान को भोग लगा रहा हो। उनका किस तन्मयता और मधुर रस ले-ले कर खाते देखना मेरा सौभाग्य ही समझो कि में बात तक उन्‍हीं की नकल कर खाने लगा। जो आज मुझे होश ओर प्रेम की उतंग गहराइयों में लिए चला जा रहा है। साल मे त्योहार-बार को छोड़ कर दादा भोला अपने छोटे भाई के घर ही खाना खाता था जिसके साथ वो रहता था।
            उस दिन जेष्ठ की बुद्ध पुर्ण मासी थी। गाँव के लिए विशेष दिन होता, अब बुद्ध भगवान से क्या सम्बन्ध है, इस गांव का कोई नहीं जानता न ही समझने की कोशिश करता है। क्‍योंकि आस पास किसी गांव में बुद्ध पूर्णिमा नहीं मनाई जाती केवल हमारा गांव ही इसे बडी धूम धाम से मनाता आ रहा है। परन्तु गाँव जब से बसा है ये दिन विशेष उत्सव की तरह होता था। एक तो गाँव का वो शिवाला जिसमे कोई मूर्ति नहीं, दूसरा ये पूर्णिमा,जो भगवान बुद्ध के मानने वालों के लिए महोत्सव है, इसी दिन भगवान का जन्म, ज्ञान और मृत्यु तीनों एक ही साथ घटे थे। उस दिन पुरा गाँव, गाँव न रह कर मेले, उत्सव में बदल जाता था। उस दिन प्रत्येक गाँव का पुरूष, स्त्री, बच्चे कहीं मीलों दूर से भी गाँव पहुँच जायेंगे, यानि गाँव की एक-एक संतान जो भी इस मिट्टी से कोई भी सम्बन्ध है इस दिन यहाँ आप उसे देख सकते है। गांव की बहु, बेटियाँ,  नए कपड़े पहन ऐसे छम-छम कर इठलाती चलती, कोई शादी विवाहा में भी क्या चलती होती हाँगी। रंगी पोशाकें पहने जवान होती लकडियां गलियों मे भागती ऐसे लगती तितली याँ उड़ रही हो। माँ लाख शोर मचाती पूरियाँ सहज कर रख ली है ना, दादा भैया के प्रसाद का सब सामान परात में रख लिया, वहां से उत्‍तर आता  हाँ, हुँ, भर, पास पड़ोस की सहेलियाँ, भौजाइयों को अपने गहने कपड़े दिखाती इठलाता किलोल करती वह लड़कियां कैसा घर एक कोने से दूसरे कोने तक उत्‍सव भर रही होती।  उनके टीका, गल सरी, कोनों के कर्णफूल... आज बहुएं भी शादी मे मिले सारे गहने पहनती। यही तो औरतों के जीवन मे दो चार दिन आते पहनने औढ़ने के वरना तो वहीं चक्की चुल्हा ही नही साँस लेने की फुर्सत देता। घर-घर पकवान बन रहे होते, गरीबों का कोई उत्सव मेला हो वो कैसे सुन्दर पकवान बनाते, सामर्थ्यवान व्रत, उपवास रखते है। अजीब विरोधाभास लगेगा, परन्तु यही है जीवन की जटिलता आप इसे देखो, इसकी नीव में गए नहीं की आप गये काम से। गाँव से दादा भैया की मढ़ी करीब दो कोस तो होगी ही। गहने, कपड़े, सर पर प्रसाद की परात, गीत गाती औरतों को मानो गर्मी से कोई लेना देना ही न हो, तपती रेत पर दौड़ते बच्चे पसीने से सराबोर हो रहे होते, कबूली कीकर की हरा रंग इस बरसती आग में भी आँखो में ही नही अन्तस तक को शान्त कर जाता था। दादा भैया के पास बड़े-बड़े पीतल के कनाल भर कर ठंडा शरबत बनाया होता था। मील भर की तपती आग के बाद बही अमृत तुल्य जीवन दायिनी लगता। गुड़-गुलगुलो का प्रसाद चढ़ता, घर के बने भोजन का भोग चढ़ाया जाता। सब हंसते गाते घर की तरफ़ चल देते, अब घर बने पकवानों की खुशबु ही नहीं मुँह स्वाद के इन्तजार में पानी से भर-भर जाता, बच्चो को लाख मना करो मत दौड़ो जब तक एक आध बच्चा रेत में गिर कर धूलिया-धमाल न हो जाता तब तक चेन नहीं लेते। पसीने से सराबोर कपड़े पर जब बालू का महीन रेत, मुँह और कपड़ो पे लिपट जाता न कपड़े की पहचान न चेहरे की बच्चा न हो कोई भूत, दूसरे बच्चे मुँह छुपा कर हँसते। अब कोन उठाये इस भूत को न उठाए तो चुप न हो। झाड़ पोंछ कर किसी तरह राजी किया जाता घर के पकवानों की याद दिलाई जाती तब कहीं शाही सवारी चलने को राजी होती थी।
            दोपहर ढल गई थी, सुर्य का उफान कुछ कम होने लगा था,अचानक खबर आई दादा भोला को गोली लग गई। पुरा गाँव एक दम सन्‍न रह गया,  अरे इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। सालों से गोलियों में सब आते जाते है...काम करते है, चील वाली खाल के पार एक शीशम के पेड़ के नीचे बैठे दादा भोला बांसुरी बजा रहे, गोली आई और पेट के आर पार निकल गई थी। मैं जब वहां पहुंचा दादा भोला आदमियों से धीरे थे, सारे कपड़े और जमीन खून से सराबोर थी। मैं लोगों को हटा कर किसी तरह से अन्दर पहुँचा, पेट के आस पास किसी ने कपडा लपेट कर खून बन्द करने की कोशिश भी कर रखी थी। दादा भोला ने मुझे देख अपने पास बुलाया  उनकी आँखो में जीवन निर्मल झील की तरह भर था, आज चालीस साल बाद भी वो आँखें मैं भूल नहीं पाया। चेहरे पर वहीं माधुर्य, टपकती हँसी ,इतना शान्त की पीड़ा संताप की कोई लहर नहीं। शायद जीवन की झील आज अपनी पूर्णता पे अपने सौम्यता के उत्तुंग पर पहुँच स्फटिक दर्पण बन गई हो। उन्‍होंने अपने हाथ की बांसुरी मेरे हाथ में देते हुऐ बस इतना ही कहाँ ’’बजाना एक दिन बजेगी’’ सब लोग दादा भोला को एक बेल-गाडी में लाद कर हास्पिटल ले जाना चाहते थे। दादा भोला ने हंसते हुए सब को मना कर दिया ’’अब मेरे पास समय नहीं है, आप लोग नाहक परेशान हो रहे है, अब मैं जाऊँगा, कोई भूल चूक हो गई हो अंजाने में माफ़ कर देना। आपके गांव में जिस आनंद से मेरा जीवन बिता वह मेरा सौभाग्य ही है। कि आप जैसे प्‍यारे लोग मुझे मिले....जिन्‍होंने मुझे प्‍यार और सम्‍मान ही नहीं दिया मुझे समझा भी.....’’ दोनो हाथ जोड़ और आंखे बन्द कर ली मानों सो गये। चारों और एक नीरव शांति पसर गई। मानों क्षण भर के लिए ये पृथ्‍वी रूक गई हो, और जमीन का गुरुत्वाकर्षण इतना सधन हो गया, सब कुछ देर लिए पत्थर हो गए, रोना हीलना सब जड़ वत हो गया कुछ क्षणों के लिए। बस खुली रह गई सब की विषमित आंखे जैसे वो पूछना चाहती हो कि पल में ये क्‍या हो गया.....
            दादा भोला चले गए, उन पेड़ पौधों, पहाड़ी रास्तों, तालाबों, गाँव की गलियों,पशु पक्षियों से अब कहने की कोन हिम्मत किसी में नहीं थी। सब जानते थे वह आज भी राह तक रहे है उस दादा भोला का जो हंस था पूरे गांव-खेड़े का।  जब भी इन से गाँव के किसी प्राणी का इन पेड़ पौधों से सामना होता तो वह ड़ब-ड़बाई आँखो को छुपाए हुए अपना मुँह फेर लेता है। कैसे कहें ये बात की दादा भोला नहीं रहे......परंतु समय के साथ आदमी बदले, आज बच्चे जानते भी नहीं कोई दादा भोला नाम का प्राणी भी यहाँ हुआ ही नहीं, प्रेम, श्रद्धा की सांस-सांस जिया था। दादा भोला की वो बांसुरी आज भी उस शीशम, पीपल के पास बैठ कर जब मैं बजाता हो तो लगता है हाथों पर पानी की कोई बूंद गिरी,  आँख खोल जब उपर देखता हुँ तो वो सजल नेत्रों से पूछने की कोशिश कर रहा है,  कि कहां है वो जो इसे बजाता था......ओर मैं निरुत्तर हो जाता हूं......ओर अपनी को लाख छुपाने और भुलाने की कोशिश करता हूं......क्या प्रकृति इतनी संवेदनशील है, कैसे निरूत्तर सा,  अविचल,  थिर, यादों को अपने अन्दर समेटे, सरदी, गरमी, बरसात, में अड़ी खड़े पूर्णता से जीती रहती है। शायद मनुष्य ने अपनी जड़े प्रकृति से काट ली है, अब उसकी नियति केवल सूखने की है। वो विज्ञान के लहलहाते फलो,पत्तों रूपी सुविधा से अभी भूत है, वो इतना भी शायद नहीं जानता पत्तों को सींचने से वक्ष में जीवन लहलहाते नहीं होता उन अदृष्य जड़ के अन्धकार में कहीं जीवन छुपा है।
            जब-जब बूल्लाशाह की काफिया को सुना, उनके जीवन को उन तरंगों, ध्वनियों, एक अटूट कड़ी की तरह बहते पाया, जिसका न आदि है न कोई अंत।
     
मनसा आनंद ‘मानस’

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