सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
स्वयं का बोध मुक्ति है—प्रवचन-दूसरा
दिनांक 22 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार
है--
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः
क्व सर्वथा
नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्यं परं किम् निजमूर्खतेव
के के
हयुपास्या गुरुदेववृद्धाः।।
किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही। किसमें सर्वथा भय नहीं है? मोक्ष
में। सबसे बड़ा कांटा कौन है? अपनी मूर्खता ही। कौन-कौन
उपासना के योग्य हैं? गुरु, देवता और
वृद्ध।
भगवान, इन प्रश्नों पर आप
क्या कहते हैं?
अभयानंद, यह सूत्र प्यारा
है--सोचने योग्य। ध्याने योग्य।
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः।
"किसके नाश में मोक्ष है? मन
के नाश में ही।'
मन ही बंधन है। और बंधन भी ऐसा, जो केवल हमारी
प्रतीति में है। नाश करने को वस्तुतः कुछ भी नहीं है, सिर्फ
आंख खोल कर देखने की बात है और मन नष्ट हो जाता है। आंख बंद है तो मन है; आंख खुली कि मन गया।
यूं है जैसे सांझ के धुंधलके में राह पर पड़ी रस्सी को देख कर तुम सांप
समझ बैठे; फिर लगे भागने; फिर घबड़ाए बहुत।
फिर यूं भी हो सकता है कि फिसल जाए भागने में पैर, तोड़ लो
हड्डी-पसली। यूं भी हो सकता है कि इतने घबड़ा जाओ कि हृदय का दौरा पड़ जाए। और वहां
कुछ भी न था, बस रस्सी थी। सांप तुम्हारा प्रक्षेपण था।
तुमने जरूर देख लिया था; तुम्हारी भ्रांति थी। तुमने रस्सी
के ऊपर अपने भय को आच्छादित कर दिया था। सांप था नहीं, फिर
भी तुम्हारी हड्डी तो टूट गई, जो थी। और तुम्हारा हृदय तो
हानि को पहुंच गया, जो था।
जो नहीं है, उसके भी परिणाम हो सकते हैं। अंधेरा भी नहीं है,
मगर उसके भी परिणाम तो होते हैं। अंधेरे में चलोगे तो दीवारों से
टकरा जाओगे; दरवाजे से निकलना आवश्यक तो नहीं; निकल जाओ, संयोग है। ज्यादा संभावना यही है कि
दीवारों से टकराओगे। अंधेरे में चलोगे, फर्नीचर से टकरा कर
गिर पड़ो, कुछ भी हो सकता है। और अंधेरा नहीं है। अंधेरे की
कोई सत्ता नहीं है। अंधेरा केवल प्रकाश का अभाव है। इसीलिए तो दीए के जलाते ही
अंधेरा नहीं पाया जाता है। और ऐसे ही बोध के जगते ही मन नहीं पाया जाता है। जैसे
कोई ले आए रोशनी तो रस्सी मिलेगी, सांप नहीं। फिर क्या पूछोगे,
सांप कहां गया? फिर तो प्रश्न भी व्यर्थ हो
जाएगा। था ही नहीं, तो जाएगा कैसे?
इसलिए एक बात खयाल रखना: मन के नाश का ऐसा अर्थ मत ले लेना कि मन है
और उसका नाश करना है। क्योंकि जो है उसका तो नाश हो ही नहीं सकता। थोड़ी तुम्हें
असुविधा होगी, जो मैं कह रहा हूं उसे समझने में। इसलिए ठीक-ठीक उसे
दोहरा दूं: जो है उसका नाश नहीं है; और जो नहीं है, बस केवल उसका नाश है। एक छोटे-से रेत के कण को भी मिटा न सकोगे। विज्ञान
की सारी सामर्थ्य भी, जो पूरी मनुष्य-जाति को नष्ट कर सकती
है, जो इस तरह की सात सौ पृथ्वियों को जीवन से विहीन कर सकती
है--आज इतने उदजन बम, एटम बम इकट्ठे हो गए हैं--लेकिन
विज्ञान भी एक छोटे-से रेत के कण को मिटा नहीं सकता। जो है, उसे
मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है। वह रहेगा। रूप बदल सकता है, आकृति
बदल सकती है; रहेगा--नए रूपों में, नई
आकृतियों में। और जो नहीं है, केवल वही मिटाया जा सकता है।
इसलिए मैं अपने संन्यासियों से कहता हूं: मैं तुमसे वही छीन लूंगा जो
तुम्हारे पास नहीं है और तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है ही। न मुझे कुछ
छीनना है; न मुझे कुछ देना है। जो है उसका तुम्हें होश आ जाए और
जो नहीं है उसकी तुम्हारी भ्रांति टूट जाए।
मन आभास मात्र है: रस्सी में देखा गया सांप। जरा-सी रोशनी ध्यान
की--और मन नहीं पाया जाता है।
शंकराचार्य का यह सूत्र ठीक है: कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः।
मोक्ष क्या है? किसमें मोक्ष है? कहां मोक्ष है?
छोड़ दो धारणाएं कि कहीं दूर सात आसमानों के पार मोक्ष है। मोक्ष
तुम्हारे भीतर है। मन की भ्रांति में उलझे हो, इसलिए दिखाई
नहीं पड़ता। सांप में अटक गए, इसलिए रस्सी दिखाई नहीं पड़ती।
जैसे ही मन की भ्रांति से जगे--और मन सच में एक तंद्रा है, एक
मूर्च्छा है--जैसे ही मन का ऊहापोह गया, मन के विचारों का
तांता टूटा, ये मन के रास्ते पर दौड़ते हुए सपने, स्मृतियां, कल्पनाएं, वासनाएं,
एष्णाएं, तृष्णाएं, ये
ठहरीं, एक क्षण को भी ठहर जाएं तो तत्क्षण तुम्हें यह दिखाई
पड़ जाएगा कि मैं कौन हूं। मन के ठहरते ही स्वयं का बोध है। और स्वयं का बोध ही
मुक्ति है।
मोक्ष से फिर कहीं भूल न कर लेना। मोक्ष शब्द में ऐसा लगता है जैसे
कुछ भौगोलिक है, कहीं। मैं पसंद करता हूं मुक्ति बजाय मोक्ष के।
क्योंकि मुक्ति में आंतरिकता है। मोक्ष में हमने मुक्ति को बाह्य रूप दे दिया। जो
भेद मैं भगवत्ता और भगवान में करता हूं, जो भेद मैं धर्म और धार्मिकता
में करता हूं, वही भेद मैं मुक्ति और मोक्ष में करता हूं।
मेरा जोर मुक्ति पर है, मोक्ष पर नहीं। मोक्ष में खतरा है।
उस शब्द में ऐसा इशारा मालूम होता है--कहीं और, किसी और समय
में, किसी और लोक में।
और अगर कहीं और है मोक्ष तो मन फिर मिटेगा नहीं। धन को छोड़ देगा, पद को छोड़ देगा, फिर मोक्ष की आकांक्षा से भर जाएगा।
और आकांक्षाएं सब एक जैसी हैं। हर आकांक्षा मन को जिलाए रखने के लिए काफी है,
मन को बनाए रखने के लिए काफी है। हर आकांक्षा मन का पोषण है।
आकांक्षा मन की जड़ है। तुमने कुछ भी चाहा तो मन बना रहेगा। और तुमने चाहा ही नहीं,
तुमने चाह को ही जाने दिया, कि मन गया। मन
यानी चाह। मन यानी एष्णा, तृष्णा, महत्वाकांक्षा।
इसलिए खयाल रहे, तुम्हारे साधु हैं, संत हैं, महात्मा हैं, अगर तुम
उन्हें गौर से जांचोगे, परखोगे, तो
पाओगे उनके जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी है। हां, आकांक्षा
के विषय बदल गए, लेकिन आकांक्षा पूर्ववत है। कणमात्र भी भेद
नहीं पड़ा है। वे वहीं के वहीं खड़े हैं। धन चाहते थे, अब धर्म
चाहते हैं। पद चाहते थे, अब परमात्मा चाहते हैं। संसार चाहते
थे, अब कैवल्य चाहते हैं। और सारी आकांक्षाओं से अपने मन को
सिकोड़ लिया और सारी आकांक्षाओं को एक ही आकांक्षा पर आरोपित कर दिया है।
खयाल रहे, जब आकांक्षाएं बहुत बंटी होती हैं तो मन कमजोर होता
है, क्योंकि विभाजित होता है। धन भी चाहिए, पद भी चाहिए, प्रतिष्ठा भी चाहिए, यह भी चाहिए, वह भी चाहिए, हजार
चीजें चाहिए, तो मन बंटा होता है, कटा
होता है, खंड-खंड होता है। खंड-खंड होता है तो उसकी शक्ति भी
कम होती है। लेकिन जिसने अपनी सारी आकांक्षाओं को एक ही बिंदु पर केंद्रित कर
दिया--मोक्ष चाहिए! पद की आकांक्षा को भी लगा दिया वहीं, धन
की आकांक्षा को भी लगा दिया वहीं, प्रतिष्ठा की आकांक्षा को
भी लगा दिया वहीं, सारे तीर एक ही दिशा में चलने लगे--उसका
मन और भी मजबूत हो जाता है।
इसलिए मेरा अनुभव यह है कि सांसारिक लोगों के पास कमजोर मन होता है और
तुम्हारे तथाकथित आध्यात्मिक लोगों के पास बहुत मजबूत मन होता है। उनके बंधन कम न
हुए। तुम्हारे बंधन पतले धागों जैसे हैं; उनके बंधन मोटे रस्से
हो गए, सब धागों से बुन कर बन गए, सब
धागों ने एक ही रस्सा बना दिया। तुम्हारी जंजीरें क्षीण हैं, क्योंकि बहुत हैं। आसानी से तोड़ी जा सकती हैं। उनकी जंजीर को तोड़ना बहुत
मुश्किल है। उनकी महाजंजीर हो गई है। सब जंजीरों को ढाल लिया उन्होंने एक जंजीर
में।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: साधु मत बनना, महात्मा मत बनना, संत मत बनना। भागना मत संसार को
छोड़ कर, क्योंकि अगर भागोगे संसार को छोड़ कर तो आगे कुछ
लक्ष्य रखना पड़ेगा। भागोगे किसके लिए? भागना केवल नकारात्मक
नहीं हो सकता। भागने में विधायकता होगी। सामने कोई गंतव्य चाहिए, तब कोई भाग सकता है। तुम जब भागते हो तो किसी चीज से नहीं भागते, किसी चीज के लिए भागते हो। और तुम जिस चीज के लिए भाग रहे हो संसार छोड़ कर,
वह और भी कठिन है, वह और भी मुश्किल है। मन
मजबूत हो जाएगा। मन जितना था, उससे कहीं ज्यादा सबल हो
जाएगा।
इसलिए तुम्हारे महात्माओं में जितना अहंकार होगा उतना सांसारिकों में
नहीं होता। सांसारिक आदमी तो बेचारा कहता है, हम दीन-हीन, संसार के बंधनों में पड़े! महात्मा की अकड़ ही और! लात मार दी है धन पर,
पद पर, प्रतिष्ठा पर! अरे, मोक्ष के लिए सब कुछ छोड़ दिया! मगर मोक्ष के लिए। तो यह मोक्ष अब आखिरी
फांसी बनी।
ऐसे मन नहीं जाता। यह मन के जाने का ढंग नहीं है। मन के जाने का तो एक
ही ढंग है और वह है: जाग कर मन के स्वरूप को समझ लेना। मन का स्वरूप क्या है? मन का स्वरूप है: और मिले, और मिले, और मिले! मन का स्वरूप यही है: जितना है काफी नहीं, जो
है काफी नहीं, जहां हूं वह ठीक जगह नहीं, जैसा हूं वह ठीक होना नहीं। कहीं और होना है, कुछ और
होना है, कुछ और पाना है--बस यही मन का स्वरूप है। और की दौड़
मन का दूसरा नाम। जिस क्षण तुमने जाना कि जहां हूं, जैसा हूं,
जो हूं, मस्त हूं, आनंदित
हूं, न कहीं जाना है, न कुछ होना है,
न कुछ पाना है--उसी बोध के क्षण में वह ज्योति तुम्हारे भीतर जगमगा
उठती है जिसमें मन नहीं पाया जाता; वह दीया जल उठता है
जिसमें मन का अंधेरा खो जाता है।
लेकिन शंकराचार्य का सूत्र सुंदर है: "किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।'
पर सावधान तुम्हें कर देना चाहता हूं कि मोक्ष पाने के लिए मन का नाश
करना मत सोचने लगना, नहीं तो चूक गए; बात आई-आई हाथ
में और निकल गई। शंकराचार्य यह नहीं कह रहे हैं कि मन का नाश करो तो मोक्ष पा
लोगे। वे यह कह रहे हैं कि मन का नाश जहां हो जाता है वहां जो बचता है वही मोक्ष
है। मोक्ष तुम्हारे भीतर है, मन के पर्दे उसके ऊपर पड़े हैं।
मन के पर्दे हटा दिए, मोक्ष प्रकट हो गया। मोक्ष तुम्हारी
नग्नता है, तुम्हारा स्वरूप है, तुम्हारा
स्वभाव है, तुम्हारी निजता है। और मन? मन
है तुम्हारा भटकाव; अपने से च्युत हो जाना, अपने केंद्र से कहीं और चले जाना। मन है समय--अतीत, भविष्य।
और मोक्ष है वर्तमान--अभी और यहीं। इस क्षण के पार देखना ही नहीं; न पीछे, न आगे। इस क्षण में ही ठहर जाओ और तुम्हें
मोक्ष मिल गया, क्योंकि इस क्षण में ठहर जाना ही मोक्ष है।
और उन्होंने कहा: क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
"किसमें सर्वथा भय नहीं है?' अभयानंद ने फिर अनुवाद किया है, "मोक्ष में।'
मैं कहना चाहूंगा, शंकराचार्य का शब्द बिलकुल
साफ है। क्यों उसका तुमने मोक्ष में अनुवाद कर दिया? हमारा
मन कितनी जल्दी गलतियों में उतर जाता है!
क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
विमुक्तौ! उसको तुम कैसे मोक्ष कह रहे हो? विमुक्तता में! विमुक्ति में! तुम्हारे विमुक्त होने में ही भय का नाश है।
तुमने उसको भी तत्क्षण मोक्ष कर दिया। हम भीतर की बात को बड़ी जल्दी बाहर की बना
देते हैं। हम भीतर टिकने ही नहीं देते, जल्दी बाहर की बना
देते हैं। क्योंकि बाहर बनाते से ही फिर हमारे लिए गंतव्य मिल जाता है, लक्ष्य मिल जाता है--अब पाकर रहेंगे। अहंकार के लिए नए आयोजन हो जाते
हैं--तो अब विमुक्ति पानी है, मोक्ष पाना है। मगर बाहर का
कुछ कर लिया। बात सदा भीतर की है; तुम सुनते हो और तुम्हारे
सुनने में ही तत्क्षण भूल हो जाती है, रूपांतरण हो जाता है।
अभयानंद ने अनुवाद किया है, "किसमें सर्वथा
भय नहीं है? मोक्ष में।'
इसका मतलब हुआ कि जब मोक्ष पहुंचेंगे तब भय मिटेगा।
कल ही मुझे पत्र मिला है अमरीका से। हरे कृष्ण आंदोलन के प्रधान ने
धमकी दी है--धार्मिक धमकी है, जैसा कि धार्मिक लोग सदा से देते
रहे, कुछ नई नहीं--धमकी दी है कि अगर आपने हरे कृष्ण आंदोलन
के खिलाफ कुछ भी कहा तो आप गोलोक में कभी नहीं पहुंच सकेंगे। और आपको सातवें नर्क
में पड़ना पड़ेगा।
गोलोक जाना किसको है? कोई सांड हो तो गोलोक जाना चाहे।
गोलोक किसको जाना है? अजीब लोग हैं! पहले पूछ भी तो लेना
चाहिए कि मुझे गोलोक जाना भी है या नहीं। क्या-क्या लोक बना रखे हैं। महात्मा
गांधी बकरी-लोक में गए होंगे, क्योंकि वे बकरी का ही दूध
पीते रहे जिंदगी भर; गोलोक में तो उनको कौन घुसने देगा! और
भैंस का दूध सम्हल कर पीना! मगर गोलोक में तुम करोगे क्या और गोलोक में तुम होओगे
क्या?
इससे मैं चौंका बहुत। चौंका इसलिए कि बेचारे भक्ति वेदांत प्रभुपाद चल
बसे, गोलोक में सांड हो गए होंगे।
एक आदमी मरा। उसकी पत्नी एक ज्ञानी के पास गई, जिसके संबंध में यह खबर थी कि वह प्रेतात्माओं से संबंध जोड़ लेता है। उसकी
पत्नी ने कहा, बस एक बार मुझे मेरे पति से बात करवा दो। इतना
मुझे भरोसा आ जाए कि वे ठीक जगह पहुंच गए, तो मेरा दुख हलका
हो जाए। उस प्रेतात्मविद ने जंतर-मंतर पढ़े, कुछ धूप-दीप जलाए,
लोभान चढ़ाया, हिला-डुला, कुछ अल्ल-बल्ल बका, आंखें ऊपर चढ़ाईं--और फिर एकदम
आवाज बदल कर बोला कि मैं आ गया। पत्नी ने पूछा कि आप कैसे हैं? उसने कहा, बहुत मजे में हूं, बहुत
आनंद में हूं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है, घास ही घास
उगा है, फूल खिल रहे हैं, गउएं चर रही
हैं।
तो पत्नी ने कहा, अरे! यह घास और गउएं, इनकी बात पीछे करना, पहले स्वर्ग के संबंध में और
कुछ तो बताओ।
उसने कहा, अरे यह पास में ही जो गाय खड़ी है, ऐसी सुंदर, हेमामालिनी को मात दे रही है। पत्नी बोली
कि तुम भ्रष्ट तो नहीं हो गए, तुम्हारा दिमाग कैसा हो गया?
अरे स्वर्ग में पहुंच कर और कहां की बातें कर रहे हो!
पति ने कहा, कौन कहता है कि मैं स्वर्ग में आया? अरे मैं यहीं पूना में एक सांड हो गया हूं। और क्या प्यारी गऊमाता खड़ी है!
लार टपकी जा रही है मेरी! और तू कहां की स्वर्ग की बातें कर रही है! स्वर्ग जाए
भाड़ में, मैं चला गऊमाता के पीछे।
गोलोक में जाना किसको है? गोलोक छोड़ कर और कहीं
भी मैं जाने को तैयार हूं। गोलोक में करना क्या है? सातवें
नर्क में भेजने की मुझे धमकी दी है। मुझे कोई अड़चन नहीं है। सातवां हो कि चौदहवां
हो, कोई भी नर्क हो, मैं जाने को राजी
हूं। क्योंकि मैं जहां हूं, जैसा हूं, वहीं
आनंदित हूं, तो वहीं आनंदित होंगे। सातवें नर्क में क्या
बिगड़ जाएगा? मेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं। वहीं संन्यासियों को
इकट्ठा कर लेंगे, वहीं सत्संग जमेगा। और ऐसे भी जब मुझे
सातवें नर्क जाना पड़ेगा तो मेरे संन्यासी भी वहीं जाएंगे, और
कहां जाएंगे! वहीं फिर बसा लेंगे।
ये जो पार की कल्पनाएं हैं--गोलोक, बैकुंठ, स्वर्ग, मोक्ष--सब पागलपन है। न तो कहीं कोई स्वर्ग
है, न कहीं कोई नर्क। जब तुम अपने में नहीं हो तो नर्क में
हो और जब तुम अपने में हो तो स्वर्ग में हो। ये धमकियां किन्हीं और पागलों को
देना। जो अपने में है, वह अपना स्वर्ग अपने साथ लिए चलता है।
और जो अपने में नहीं है वह कहीं भी पहुंच जाए, नर्क में ही
रहेगा; वह अपना नर्क अपने साथ लिए चलता है।
अभयानंद, शंकर ठीक कहते हैं, "किसमें
सर्वथा भय नहीं है?' मोक्ष अनुवाद न करो। "विमुक्ति
में।' और विमुक्ति का अर्थ हुआ: मन से मुक्ति। विमुक्ति का
अर्थ हुआ: समाधि, ध्यान की परम अवस्था।
शल्यं परं किम् निजमूर्खतेव।
और सबसे बड़ा कांटा कौन है? सबसे बड़ा अवरोध क्या
है? शल्य क्या है, रुकावट क्या है?
"अपनी मूढ़ता ही।'
और तो किसकी मूर्खता तुम्हें बाधा देगी! अपनी मूढ़ता ही। क्या है हमारी
मूढ़ता? हमारी सबसे बड़ी मूढ़ता यही है कि हम अज्ञानी हैं और
अपने को ज्ञानी समझे बैठे हैं। पता कुछ भी नहीं है और शास्त्रों को अपने चारों तरफ
लपेट लिया है, शास्त्रों के वस्त्र बना लिए हैं, राम-नाम की चदरिया ओढ़े बैठे हैं। भीतर राम-रस बहता नहीं, भीतर कुछ राम का अनुभव नहीं, भीतर तो काम ही काम भरा
हुआ है, लेकिन बाहर राम-नाम की चदरिया ओढ़े हुए हैं, वेद पढ़ रहे हैं, कुरान पढ़ रहे हैं, बाइबिल पढ़ रहे हैं, गुरुग्रंथ साहब पढ़ रहे हैं।
लेकिन पढ़ने वाला कहां है? किस अवस्था में है? मूर्च्छित है या होश में है?
एक बात खयाल रहे, अगर मूर्च्छा में हो तो वेद भी
पढ़ोगे तो क्या खाक पढ़ोगे! तुम्हारा वेद भी कोकशास्त्र हो जाएगा, और कुछ भी नहीं। तुम कुरान भी पढ़ोगे तो कचरा कर दोगे, तुम ही तो पढ़ोगे न! तुम ही तो अर्थ निकालोगे! कुरान में तो शब्द होंगे,
अर्थ कौन देगा? उन शब्दों को भाव-भंगिमा कौन
देगा? उन शब्दों को रूप-रंग कौन देगा? तुम्हारे
भीतर जाते-जाते वे तुम्हारे रंग में रंग जाएंगे; तुम जैसे ही
मूर्च्छित हो जाएंगे।
लेकिन अगर तुम होश में हो, अगर तुम ध्यान में हो,
अगर तुम शांत हो, मौन हो, तो फिर वेद को पढ़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि तुम्हारे
भीतर के वेदों का द्वार खुल गया। फिर कुरान दोहराने की जरूरत नहीं; तुम्हारे भीतर खुद ही आयतें उतरने लगीं। तुम्हारे भीतर वही होने लगा जो
मोहम्मद के भीतर हुआ था। फिर क्या तुम उधार और बासे में अटकोगे!
मूढ़ता क्या है? मूढ़ता एक ही है। हम सब अज्ञानी पैदा होते हैं। अज्ञान
में कोई खतरा नहीं है। अज्ञानी हम सभी पैदा होते हैं। खतरा तब शुरू होता है जब हम
अज्ञान को उधार ज्ञान से ढांक लेते हैं। उधार ज्ञान से ढंका हुआ अज्ञान--यह
मूर्खता है। मूर्खता का दूसरा नाम पांडित्य, तोतापन।
कितने तोते हैं! कोई इमाम है, कोई अयातुल्ला है,
कोई पोप है। कितने पुरोहित, कितने पंडित,
कितने शास्त्री! और ये सब दोहरा रहे हैं--यंत्रवत, मशीन की तरह। इन्हें कुछ भी पता नहीं कि ये क्या दोहरा रहे हैं। इन्हें यह
भी पता नहीं कि ये क्यों दोहरा रहे हैं। इन्हें यह भी पता नहीं कि इनके भीतर ही
शास्त्रों का शास्त्र पड़ा हुआ है, जिसे इन्होंने अभी खोला भी
नहीं, जिस पर सदियों की गर्त जम गई है। इनके भीतर वह दर्पण
है, जिसमें सत्य की छवि बने। मगर वह दर्पण ऐसा धूल में दब
गया है कि इन्हें उसका कुछ पता ही नहीं। और धूल इनके ज्ञान की है। इनके शास्त्रों
का कचरा ही इनके दर्पण को ढांक लिया है। आच्छादित हो गए हैं ये।
अज्ञान में खतरा नहीं है। अज्ञान तो निर्दोषता है। हर बच्चा अज्ञानी
पैदा होता है। लेकिन उसका दर्पण साफ होता है। बच्चा मूर्ख नहीं होता। मूर्ख होने
के लिए तो यूनिवर्सिटी जाना पड़ता है। मूर्ख होने के लिए तो कम से कम पीएच.डी., डी.लिट. होना ही चाहिए। मूर्ख होने के लिए उपाधियां चाहिए।
उपाधि शब्द बड़ा प्यारा है, कम से कम हमारी भाषा
में तो बड़ा प्यारा है। उपाधि का एक अर्थ बीमारी भी होता है और उपाधि का एक अर्थ
सम्मानित डिग्री भी होता है। बीमारियां ही हैं, लेकिन अपनी
बीमारियों को लोग लगाए फिरते हैं। आदमी को बंदरों जैसी पूंछ नहीं है, तो बेचारा अपनी उपाधियों की पूंछ लगा लेता है; एम.ए.,
पीएच.डी., डी.लिट, यह
पूंछ बन जाती है उसकी। इससे उसकी पूछ होने लगती है। पूंछ बढ़ जाती है तो पूछ होने
लगती है। जितनी लंबी पूंछ...देखा न हनुमान जी अपनी पूंछ को बड़ा करते गए, बड़ा करते गए, मतलब यह कि वे होते गए पंडित, होते गए पंडित। अपनी पूंछ का ही उन्होंने सिंहासन बना लिया, उस पर बैठ गए। सभी यही कर रहे हैं: पूंछ को बड़ी करते जा रहे हैं।
मूढ़ता, तुम्हारा तथाकथित जो शास्त्रीय ज्ञान है, उसका ही नाम है। इससे तुम्हारा अज्ञान तो मिटता नहीं, सिर्फ अज्ञान ढंक जाता है। काश तुम अपने अज्ञान को पहचान लो तो मिटाना
बहुत आसान है। मगर ढांक लो तो फिर तो पहचानना ही मुश्किल हो गया। जैसे किसी को घाव
हो जाए, वह उसको ढांक ले, गुलाब का फूल
उसके ऊपर चिपका ले। फिर तो घाव का इलाज कौन करेगा? भीतर मवाद
इकट्ठी होती रहेगी, ऊपर फूल सुगंध देता रहेगा। बस ऐसी ही
अवस्था है।
शल्यं परं किम् निजमूर्खतेव।
एक ही शल्य है। एक ही कांटा है कि तुमने अपने अज्ञान को ढांक लिया।
उघाड़ो। अज्ञान को पहचानो। अज्ञान को पहचानने से ही ज्ञान की वर्षा होनी शुरू होती
है। जिसने अज्ञान को पहचाना, उस पहचानने में ही वह ज्ञानी हो
गया। जिसने अपने अज्ञान को गौर से देखा, उस गौर से देखने में
ही वह अज्ञान से अलग हो गया। देखने वाला हमेशा दृश्य से अलग हो जाता है, दृश्य से मुक्त हो जाता है।
और तीसरी बात शंकराचार्य ने कही: के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धाः।
"कौन-कौन उपासना के योग्य हैं? गुरु, देवता और वृद्ध।'
अभयानंद, शंकराचार्य का वचन तो बहुत प्यारा है, मगर उसके जो अर्थ लोगों ने किए हैं, बड़े ही नासमझी
से भरे हुए हैं। गुरु कौन? जो ज्ञान दे। और ज्ञान दिया नहीं
जा सकता। सत्य दिया नहीं जा सकता। मगर लोगों का अर्थ यही है कि गुरु वह जो तुम्हें
कुछ सिखाए--वेद सिखाए, कुरान सिखाए, बाइबिल
सिखाए, सिद्धांत सिखाए--वही गुरु। जो तुम्हें सिखावन दे,
वह गुरु। और देवता कौन? इंद्र और वे सारे लोग
जो खूब पुण्य अर्जन करके--धर्मशालाएं बना कर, प्याऊएं खुलवा
कर, मंदिर खड़े करवा कर--स्वर्ग पहुंच गए हैं, वे सब देवता। यहां उन्होंने धर्मशाला खुलवाई, अब
वहां गुलछर्रे कर रहे हैं। अरे धर्मशाला खुलवाओगे तो गुलछर्रे तो होने ही वाले हैं
फिर। नहीं तो कोई धर्मशाला ही किस लिए खुलवाए! यहां झाड़ लगवाए, वहां कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं। कल्पवृक्ष के नीचे क्या बैठे हैं,
मजा कर रहे हैं। जो चाहिए, यहां चाहा और वहां
चीज मौजूद हुई। दुनिया में तो ऐसा है: चाहो आज, वर्षों मेहनत
करो, घुटो-पिटो, भारी भीड़-भड़क्का है,
सौ-सौ जूते खाओ तब कहीं तमाशा देख पाओ! पहले खुद तमाशा बनो। और जब
तक तमाशा देखने की हालत आए, तब तक तुम्हारी हालत देखने योग्य
न रह जाए। लेकिन कल्पवृक्ष के नीचे तत्क्षण घटना घटती है।
तो देवता कौन हैं? जैसे जुगलकिशोर बिड़ला। कितने
बिड़ला मंदिर बनवाए! वे देवता हो गए। कहते हैं उनका स्वर्ग के द्वार पर स्वागत किया
गया, खूब शहनाई बजी, खूब देवी-देवताओं
ने घंटाल पीटे, खूब भजन-कीर्तन हुआ। थोड़े तो जुगलकिशोर बिड़ला
भी हैरान हुए। मेरे परिचित थे। परिचित थे सो उनके संबंध में सच्ची-सच्ची बात ही
कहे देता हूं। थोड़ा संकोच भी हुआ; सोचा तो था कि स्वर्ग
मिलेगा, मगर ऐसा स्वागत-समारंभ भी होगा, रेड कार्पेट वाला स्वागत, एकदम लाल मखमली दरी बिछा
कर स्वर्ग के द्वार पर, फूलों की मालाएं--फूल जो कभी
कुम्हलाते नहीं; अप्सराएं, उर्वशी,
मेनका फूलों के हार लिए। जुगलकिशोर जरा चौंके। मंदिर तो उन्होंने
बनवाए थे; स्वर्ग जाएंगे, यह भी
आश्वासन था। मुझसे पूछा भी था उन्होंने कि मैंने इतने मंदिर बनवाए, इतना पुण्य किया, इतना दान किया, इतने ट्रस्ट, इस सबका क्या लाभ होगा? मन में कहीं संकोच तो रहा ही होगा, तभी आदमी पूछता
है। कहीं भय भी रहा होगा कि कहीं यूं ही तो हाथ से सब पैसा बेकार नहीं जा रहा,
कि इधर भी गए और उधर भी गए, न रहे घर के न घाट
के, हो गए धोबी के गधे।
मैं तो हंस कर टाल गया था, क्योंकि सच्ची बात
कहूं तो बूढ़े आदमी, मरने के करीब, अब
नाहक इनको क्या दुख देना! मरण-शय्या पर ही पड़े हैं। सच बात इनसे अब क्या कहो,
बहुत देर हो गई। और झूठ तो मैं कह सकता नहीं, चाहे
कोई मरण-शय्या पर ही पड़ा हो। सो मैं तो हंस कर टाल गया था। मगर जब उन्होंने देखा,
तो पूछा उन्होंने द्वारपाल से, क्या इसी तरह
सभी का स्वागत होता है? उन्होंने कहा कि नहीं, आपका स्वागत इसलिए हो रहा है कि आपने एंबेसेडर कार बनवाई। जुगलकिशोर और
चौंके कि हद हो गई, मंदिर बनवाए, धर्मशालाएं
खुलवाईं, यज्ञ-हवन करवाए, उनके कारण
स्वर्ग नहीं मिल रहा है; एंबेसेडर कार बनवाई, उसके कारण स्वर्ग मिल रहा है! उन्होंने कहा, मैं कुछ
समझा नहीं।
उन्होंने कहा, समझे नहीं, आप समझो। आपकी कार
के कारण जितने लोगों को राम का स्मरण आया, और किसी के कारण
नहीं आया। जो भीतर बैठते हैं, वे राम-राम कहते रहते हैं। जो
उसको सड़क से निकलते देखते हैं, वे एकदम राम-राम कह कर बगल
में हट जाते हैं। क्या गजब की चीज आपने बनवाई, जिसमें हर चीज
बजती है, सिवाय हार्न को छोड़कर! मीलों तक एकदम राम-राम जप
जाता है। जहां से निकल जाती है एंबेसेडर कार, दूर-दूर तक
सन्नाटा हो जाता है। एकदम लोग ध्यानस्थ हो जाते हैं। उसी के कारण आपका स्वागत हो
रहा है।
अब बैठे होंगे कल्पवृक्ष के नीचे, हालांकि करेंगे क्या
कल्पवृक्ष के नीचे! यही सोच रहे होंगे कि अब यहां कैसे एंबेसेडर कार का कारखाना
खोलें। खुल जाएगा एकदम कारखाना। यहां सोचा कि वहां खुला।
यहां वृक्ष लगवाओ, वहां कल्पवृक्ष मिलेंगे। शास्त्र
कहते हैं: यहां एक रुपया दान दो, वहां करोड़ गुना पाओ। देखा,
लाटरी बहुत पुरानी चीज है! यह कोई नई बात नहीं। भारतीय सरकारों को
नाहक गालियां मत दो कि ये लाटरी खिलाना सिखाती हैं लोगों को। ये तो शास्त्रीय हैं
बातें। ये तो धार्मिक हैं। यह तो महात्मा पहले से ही खिलाते रहे। और कम से कम यहां
लाटरी है तो यहीं पैसा मिलता है; वह लाटरी तो ऐसी है कि पता
नहीं आगे मिले कि न मिले, यह रुपया भी गया। मगर
पंडित-पुरोहित धंधा ही अदृश्य का करते हैं; नगद रुपया लेते
हैं और उधार आश्वासन देते हैं। वह मिलेगा मरने के बाद। चिट्ठियां लिख देते हैं।
हुंडियां लिखी जाती हैं। हुंडी लिखी जाती है और मुर्दे के साथ रख दी जाती है कि
दिखा देना, भंजा लेना।
तो देवता वे हैं जो पुण्य करके धर्मशालाएं वगैरह बना कर स्वर्ग में
पहुंच गए हैं। यह तुम्हारी धारणा है। फिर स्वभावतः वहां भी वही राजनीति चलेगी, क्योंकि एक पहुंच गया स्वर्ग में, इंद्र हो गया,
तो वह दूसरे महात्मा को इंद्र नहीं होने देता। क्योंकि अब दूसरा
महात्मा तैयारी कर रहा है, तो इंद्रासन डोलता रहता है।
इंद्रासन डोलता ही रहता है, शास्त्रों में जब देखो तब ज्यादा
काम यही होता है कि इंद्रासन डोल रहा है। कोई बेचारा ऋषि-मुनि...बस भेज दी
अप्सराएं। और ऋषि-मुनि एकदम अप्सराओं के कारण भ्रष्ट हो जाते हैं, देर नहीं लगती।
सिर्फ मेरे संन्यासियों को कोई अप्सराएं भ्रष्ट नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे अप्सराओं को पहले ही भ्रष्ट कर चुके हैं। अब क्या अप्सराएं
उनको भ्रष्ट करेंगी! अगर मेरे संन्यासी के पास उर्वशी वगैरह आए, तो वह कहेगा: बाई, जा, आगे बढ़।
किसी पुराने ढंग के ऋषि-मुनि को खोज। मेरे संन्यासी से तो इंद्र की छाती कंपती
होगी कि अगर ये संन्यासी यहां आ गए तो इन पर कोई पुराने दांव-पेंच चलेंगे नहीं।
पुराने दांव-पेंच चल जाते थे बेचारे ऋषि-मुनियों पर, भूखे
बैठे हैं, दबाए बैठे हैं वासना को, पत्नियों
को छोड़ आए हैं, तो वही-वही उबल रहा है भीतर। और यहीं आ गई
इसी बीच उर्वशी, अब करें भी तो क्या करें! अब एकदम से भ्रष्ट
न हों तो और क्या करें! तो योग-भ्रष्ट होते थे। देवताओं का धंधा यह कि दूसरों को
भ्रष्ट करें। यह भी खूब देवता हुए।
ऐसा अर्थ मत करना, नहीं तो शंकराचार्य का पूरा पद
व्यर्थ हो जाएगा। और वृद्ध से ऐसा अर्थ मत करना कि जिनकी उम्र ज्यादा है। वृद्ध से
उम्र का कोई लेना-देना नहीं। नहीं तो बूढ़े गधे बहुत हैं। एक से एक पहुंचे हुए गधे
हैं। उम्र ही उनकी बस एकमात्र काफी प्रमाण है कि वे जो कहते हैं सो ठीक कहते हैं।
उम्र से कुछ भी नहीं होता। अनुभव ही प्रौढ़ता लाता है। और अगर उम्र से
ही शंकराचार्य का मतलब हो, तो खुद शंकराचार्य को कोई सम्मान नहीं दिया जा सकता,
क्योंकि वे तो तैंतीस साल में चल ही बसे। बूढ़े तो हुए ही नहीं,
तैंतीस साल में ही तो खातमा हो गया। तो उनका अर्थ वृद्ध से उम्र
नहीं है, प्रौढ़ता है, अनुभव की
परिपक्वता है।
और उपासना से भी अर्थ तुम पूजा का मत लेना, नहीं तो सब खराब कर दोगे। मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो।
"कौन-कौन उपासना के योग्य हैं?'
उपासना शब्द बहुत सीधा है। वे कौन-कौन हैं, जिनके पास बैठने के योग्य हो। उपासना का अर्थ होता है: पास बैठना, उप-आसन। जैसे तुम मेरे पास बैठे हो, यह उपासना है।
पास किसके बैठा जा सकता है? पूजा का कोई सवाल नहीं है। पूजा
तो मूढ़ करते हैं, लोभी करते हैं, किसी
लोभ के कारण करते हैं।
उपासना का अर्थ है सत्संग। सत्संग के कौन योग्य है? किसके पास बैठें? वह कौन है जिसके पास बैठने से
क्रांति हो जाएगी? जले हुए दीए के पास अगर बुझा हुआ दीया
बिठा सको, तो एक निकटता का क्षण है, एक
फासला है, जिस फासले की सीमा को पार करते ही बुझा दीया भी
जला हुआ दीया हो जाता है।
तुमने हजारों बार जले दीए से बुझे दीए जलाए हैं, हर दीपावली को जलाते हो। वही प्रक्रिया उपासना की है। किसी जले हुए दीए के
पास बैठो, और पास से पास आते जाओ। ऐसे पास आ जाओ कि तुम्हारा
बुझा दीया भी जल उठे। अर्थ है इसका सत्संग।
उनको देखा है...।
उनको इक बार फिर से देखा है।
यूं तो देखा है पहले भी उन्हें,
आज जानो-जिगर से देखा है।
खुद को देखा है उनकी आंखों से,
उनको उनकी नजर से देखा है।
जहां खो जाते हैं राहो-मंजिल,
उनको उस रहगुजर से देखा है।
इधर से देखी है सीढ़ियों पर धूप
चांदनी को उधर से देखा है।
उनमें देखा है इक शब्दों का सनम,
एक चुप्पी को मुखर देखा है।
एक खुशबू जो इस जहां की नहीं,
उनका गुल उस खुशबू से तर देखा है।
सम्हाले चलते हैं वो इक छलकता सागर,
ये उनके पांवों-सर से देखा है।
आंखों से पी है उनके रूप की मय,
और शायद अधर से देखा है।
आंखें ये जब लगीं होने खाली,
तब उन्हें आंख भर के देखा है।
उनको देखा था शहर में इक दिन
अब उन्हें उनके घर से देखा है।
चांद को देखा है जमीं से बहुत
जमीं को चांद पर से देखा है।
हसीं है वादियों का अंधेरा भी,
रोशनी के शिखर से देखा है।
डुबोने वाले हैं अक्सर साहिल ही,
ये नजारा लहर से देखा है।
कितने नाजुक हैं हकीकतों के महल,
ख्वाब के कांचघर से देखा है।
यूं तो देखा है घड़ी भर को उन्हें,
पर लगे उम्र भर से देखा है।
लंबी पहचान भी है कुछ यूं ताजी,
ज्यूं प्यार की पहली नजर से देखा है।
जले हैं उस तरफ चिरागों पे चिराग,
उनका जलवा जिधर से देखा है।
इश्क में बुझके भी जलने की अदा,
इन पतंगों के पर से देखा है।
लफ्जों के दायरे हैं कितने छोटे,
ये लफ्जों से गुजर के देखा है।
हम भला देखते उन्हें कैसे?
उनके मेहरो-असर से देखा है।
उनको एक बार फिर से देखा है।
उपासना का अर्थ है: किसी बुद्ध पुरुष के पास बैठना। और बैठने में ही
पीना शुरू हो जाता है। बैठना भर आ जाए--मौन, शून्य, खाली, निर्विचार, निर्विकल्प--और
पीना शुरू हो जाता है।
दीवानगी से काम लिया और पी गए
बेइख्तियार जाम लिया और पी गए।
दैरो-हरम के नाम पे पीना हराम है
हमने तुम्हारा नाम लिया और पी गए।
दीवानगी से काम लिया और पी गए
बेइख्तियार जाम लिया और पी गए।
याद आ गईं किसी की निगाहें झुकी हुई
नजरों से इक सलाम लिया और पी गए।
दीवानगी से काम लिया और पी गए
बेइख्तियार जाम लिया और पी गए।
दुनिया की बेवफाई पे हंस कर उठाया जाम
दुनिया से इंतकाम लिया और पी गए।
दीवानगी से काम लिया और पी गए
बेइख्तियार जाम लिया और पी गए।
बैठो भर, उपासना भर हो जाए कि पीना भी हो जाता है। क्योंकि
किसी भी सदगुरु का सत्संग मयकदा है। कोई भी सदगुरु शराब से भरी हुई सुराही है। तुम
जाम बनो, तुम पास आओ कि शराब छलकने को राजी है, तुम्हारे जाम को भर देने को राजी है। दूर-दूर नहीं, पास-पास,
करीब से करीब, निकट से निकट--उस सामीप्य का
नाम है उपासना।
"कौन-कौन उपासना के योग्य हैं?'
के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धाः।
गुरु उपासना के योग्य है। गुरु कौन है? वह नहीं जो तुम्हें
सत्य दे देता है; वरन वह जो तुम्हें सत्य की प्यास दे देता
है; जो तुम्हें तिश्नाकाम बना देता है; जो तुम्हें प्यास से भर देता है। सत्य तो नहीं दिया जा सकता।
सत्य के संबंध में एक बात, एक शाश्वत नियम: सत्य
दिया नहीं जा सकता, मगर लिया जा सकता है। जब एक जलते हुए दीए
से दूसरे बुझे हुए दीए में ज्योति जाती है, तो क्या तुम
सोचते हो जलते हुए दीए का कुछ खो जाता है, कुछ कम हो जाता है?
नहीं, बिलकुल नहीं। न कुछ खोता, न कुछ
कम होता। इसलिए जले हुए दीए ने कुछ भी दिया नहीं, लेकिन बुझे
हुए दीए ने कुछ लिया जरूर, बहुत कुछ लिया, सब कुछ लिया। कहां बुझा था, कहां जला हो गया! असल
में दीया न कह कर लिया कहना चाहिए, क्योंकि दीया देता तो कुछ
भी नहीं, जब भी लेता है तो लेता ही है।
मगर हमारी भाषा अजीब तरह के लोग बनाते हैं। चलती हुई चीज को गाड़ी कहते
हैं। गाड़ी कहना चाहिए गड़ी हुई चीज को। क्या गजब के लोग हैं, चलती को गाड़ी कहते हैं। कहते हैं--चलती का नाम गाड़ी! अरे तो फिर गाड़ी का
नाम क्या? ऐसे ही लिए का नाम दीया रख छोड़ा है।
सदगुरु देता नहीं, लेकिन शिष्य लेता है। यही उपासना
का जादू है। गुरु का कुछ खोता नहीं, शिष्य को सब मिल जाता
है। गुरु कौन है? जिसके पास बैठने से मिल जाए। जो दे नहीं और
तुम्हें मिल जाए। जिसका कुछ घटे नहीं और तुम्हारा सब भर जाए। जो जितना भरा था उतना
ही रहे।
ईशावास्य का प्रसिद्ध वचन है: वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष
रह जाता है। पूर्ण में पूर्ण को जोड़ भी दें तो भी पूर्ण में कुछ बढ़ती नहीं होती,
उतना ही पूर्ण।
सदगुरु उस पूर्ण अवस्था को उपलब्ध है, जिससे तुम जितना चाहो
ले लो, पीछे फिर भी पूर्ण शेष ही रहेगा।
और देवता कौन है? इस शब्द को भी हम समझने की कोशिश
करें। देवता शब्द बनता है दिव से। दिव से ही बनता है दिव्य। दिव से ही बनता है
दिवस। दिव से ही बनता है अंग्रेजी का डिवाइन। दिव से ही बनता है अंग्रेजी का डे।
और तुम चकित होओगे, दिव से ही बनता है अंग्रेजी का डेविल भी।
दिव का अर्थ होता है: प्रकाश। जो प्रकाशवान है। इसलिए दिवस कहते हैं हम, डे कहते हैं। जो प्रकाशवान है वही दिव्य है। जो ज्योतिर्मय है।
उपनिषद के ऋषियों ने गाया है: तमसो मा ज्योतिर्गमय। अंधेरे से मुझे
ज्योति की तरफ ले चलो। मृत्योर्मा अमृतंगमय। मृत्यु से मुझे अमृत की ओर ले चलो।
असतो मा सदगमय। असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चलो। मगर सारी बात आ गई है एक ही
सूत्र में--तमसो मा ज्योतिर्गमय। मुझे अंधेरे से रोशनी की तरफ ले चलो।
जो भी ज्योतिर्मय है, वह देवता। सच में इसीलिए चांद को
भी देवता कहा, सूरज को भी देवता कहा, अग्नि
को भी देवता कहा, क्योंकि वे सब ज्योतिर्मय हैं। और इसीलिए
गुरु को भी देवता कहा, क्योंकि वह भी ज्योतिर्मय है। और चांद
से, सूरज से, अग्नि से ज्यादा
ज्योतिर्मय है, क्योंकि चांद एक दिन बुझ जाएगा और सूरज भी एक
दिन बुझ जाएगा। कभी नहीं था, कभी नहीं हो जाएगा। एक दिन उसका
तेल चुक जाएगा। रोज चुक रहा है। चौबीस घंटे जलेगा तो तेल तो चुकता ही रहेगा।
वैज्ञानिक कहते हैं कि संभवतः चार हजार सालों में सूरज बुझ जाएगा। अगर उसके पहले
आदमी ने पृथ्वी से किसी और पृथ्वी पर अपना आवास कर लिया तो ठीक, अन्यथा पृथ्वी बरबाद हो जाएगी, अपने आप बरबाद हो
जाएगी। सूरज बुझा कि सब बुझ जाएगा, जीवन समाप्त हो जाएगा।
कुछ आश्चर्य की बात न होगी कि शायद इसीलिए ही एक गहन आकांक्षा आदमी के
किसी अचेतन तल से उठी है कि चलो चांद पर चलें, कि चलो मंगल पर चलें,
कि चलो दूर चांदत्तारों की खोज करें। आज उसका कोई व्यावहारिक उपयोग
नहीं है, लेकिन अचेतन में कहीं यह प्रतीति भीतर मनुष्य के उठ
रही है कि यह पृथ्वी के दिन अब थोड़े ही बचे हैं, इस पृथ्वी
को छोड़ना ही पड़ेगा। साफ नहीं है यह सब, धुंधला-धुंधला है;
लेकिन प्रकृति और जीवन बड़े धुंधलके में काम करता है।
तुमने देखा सेमर में बीज लगते हैं। तो बीज के चारों तरफ सेमर की रुई
लपटी रहती है। वह क्यों लपटी रहती है? सेमर बड़ा वृक्ष है।
अगर बीज उसमें से गिरें, और वृक्ष के नीचे ही गिरेंगे,
तो उनमें से कभी पौधे पैदा न हो सकेंगे। इसलिए सेमर का अचेतन चित्त
अपने बीजों के पास रुई को पैदा करता है, ताकि बीज नीचे न गिर
सकें। रुई लगी रहेगी तो हवा में उड़ जाएंगे। दूर-दूर निकल जाएंगे। नीचे गिरेंगे तो
मर जाएंगे। दूर निकल जाना जरूरी है।
कोई सेमर इसलिए अपने बीजों में रुई नहीं चिपकाता कि तुम्हारे तकिए
बनें और गद्दे बनें। तुम्हारे तकिए-गद्दों से सेमर को क्या लेना! अपनी संतति को
बचाना है, अपने बीजों को बचाना है। मगर सेमर को इसका कुछ पता
नहीं, यह सब अचेतन है।
जिन लोगों ने लोगों को सूलियां लगते देखा, उन्होंने एक अजीब बात देखी कि जब किसी व्यक्ति को सूली लगाई जाती है तो
तत्क्षण उसकी जननेंद्रिय से वीर्य निकल भागता है--तत्क्षण, सूली
लगते ही! वैज्ञानिक कहते हैं, इसका एक ही कारण है कि वे जो
वीर्य-कण हैं, वे घबड़ा उठते हैं कि यह आदमी तो मरा, हम कोई राह खोज लें, कहीं जीवन मिल जाए, हम किसी ठीक गर्भ को पा लें! मिलता नहीं उन्हें कोई गर्भ, यह और बात है। मगर निकल भागते हैं, तेजी से निकल
भागते हैं। इधर सूली लग रही है, उधर वीर्य-कण एकदम निकल
भागते हैं।
शायद पृथ्वी के दिन लद गए हैं, यह प्रकृति के अचेतन
में साफ है। सूरज के ढलने के दिन करीब आ गए हैं। कोई चार अरब वर्ष से रोशनी दे रहा
है, बहुत हो चुका। चुका जा रहा है। जल्दी ही एक दिन बुझ
जाएगा। सूरज भी बुझ जाता है और चांद तो बेचारा बिलकुल उधार है; वह तो सूरज की ही रोशनी लेकर दोहराता रहता है। उसका धंधा तो बिचवइए का है,
दलाल का है। वह तो फली भाई जहां काम करते हैं शेयर मार्केट में,
वहीं काम करता है। इधर से लेना, उधर देना।
उसके पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज की रोशनी ले लेता है और लौटा देता है। जैसे
दर्पण पर तुम टार्च से रोशनी डालो तो दर्पण लौटा देता है, ऐसे
ही चांद लौटाता है। सूरज बुझेगा तो चांद बुझ जाएगा।
लेकिन सदगुरु की रोशनी कभी नहीं बुझती, क्योंकि वह बिना ईंधन
के जलती है। वह अकेली रोशनी है जो बिना ईंधन के जलती है। ईंधन ही नहीं है, इसलिए बुझने का कोई सवाल नहीं। इसलिए सदगुरु को ही देवता कहा है। वह
सदगुरु का ही दूसरा नाम है, दिव्यता का ही दूसरा नाम है। और
सदगुरु को ही वृद्ध कहा है, उसकी उम्र कुछ भी हो।
शंकराचार्य की उम्र तैंतीस ही वर्ष थी, लेकिन वे वृद्ध थे।
जीसस की उम्र तैंतीस ही वर्ष थी, लेकिन वे वृद्ध थे। और
मोरारजी देसाई की उम्र पचासी वर्ष है, वे वृद्ध नहीं हैं,
अभी बाल-बुद्धि से भरे हुए हैं। बाल-बुद्धि मूढ़ता के लिए अच्छा शब्द
है। उम्र इनकी तेरह-चौदह साल से ज्यादा नहीं मानी जा सकती मानसिक रूप से। इससे
ज्यादा बुद्धिमत्ता नहीं है। इससे ज्यादा औसत मानसिक उम्र नहीं है।
क्या गजब की बातें करते हैं! ब्रेजनेव आया तो कह दिया कि मुझसे कहा था
ब्रेजनेव ने कि पाकिस्तान को खतम करो, इसको सबक सिखाओ।
अब ये गांधीवादी, सत्यवादी। एक हो गया राजा
हरिश्चंद्र सत्यवादी, एक हुए मोरारजी देसाई सत्यवादी। दो ही
तो सत्यवादी हुए दुनिया में! क्योंकि राजा हरिश्चंद्र ने सपने में देखा था कि किसी
ब्राह्मण को दान कर दिया; इन्होंने पता नहीं किस सपने में
सुन लिया कि ब्रेजनेव ने इनसे कहा है। सपने में ही सुना होगा।
ब्रेजनेव भी चौंका, सारा रूस चौंका कि यह बात तो कभी
कही नहीं गई। मगर वे जिद पर रहे कि नहीं, कही है। और अब बदल
गए, क्योंकि वे कोई प्रमाण तो दे नहीं पाए। अब कहने लगे,
ब्रेजनेव ने नहीं कही थी, किसी और ने कही थी।
उसका नाम मैं बताना नहीं चाहता।
अब नाम बताएं भी कैसे उसका! पहले तो यह कि ब्रेजनेव ने कही थी, यह कहा; अब कहने लगे ब्रेजनेव ने नहीं कही थी,
किसी और ने कही थी। अब उसका नाम नहीं बताना चाहते, क्योंकि नाम बताएंगे तो फिर सवाल उठेगा कि प्रमाण देना पड़ेगा।
ये बचकानी बातें हैं। अभी रोज कहते फिरते हैं वे जगह-जगह कि आसाम की
समस्या का हल मेरे पास है। तो तुम जब प्रधानमंत्री थे तो भाड़ झोंकते रहे? आसाम की समस्या कोई नई समस्या है? तब तुम क्या करते
रहे? तब तुम शिवांबुपान करते रहे और अब तुम्हारे पास आसाम की
समस्या का हल है! लेकिन वह भी मैं तब तक नहीं बताऊंगा, जब तक
सरकार मुझसे खुद न पूछे। तो ज्ञानी जैलसिंह ने उनको पत्र लिखा कि मैं पूछता हूं,
आप आ जाइए। तो कल मैंने देखा उन्होंने कहा है कि पहले टिकट भेजिए।
किस तरह के लोग हैं! इन पर टिकट भी नहीं है दिल्ली जाने की! तो इनको
मदर टेरेसा के किसी अनाथालय में भरती क्यों नहीं कर देते! दोनों का बड़ा सत्संग
रहेगा। क्या बातें करते हैं लोग!
और मैं कहे देता हूं, इनको टिकट मैं देने को राजी हूं
और जो हल निकलेगा वह वही निकलेगा जो मैं तुम्हें कई दफा कह चुका हूं।
एक गांव में चोरी हो गई थी। कोई बता न सके हल; गांव में एक शेखचिल्ली था, उसने कहा मैं बता सकता
हूं। पुलिस इंस्पेक्टर बहुत खुश हुआ। अधिकारियों ने कहा कि भई बता दो, हम यही तो परेशान हैं, कोई नहीं बता पा रहा।
गांव के लोगों ने कहा कि भाई, हो न हो यह शायद बता
दे। क्योंकि एक दफा गांव में से हाथी निकला था, कोई न बता
सका, क्योंकि रात को निकल गया और सुबह हमने उसके पैर रेत में
बने देखे। किसी ने हाथी देखा नहीं था, सो इसी ने बताया था।
कोई न बता सका, इसने तत्क्षण कह दिया, अरे
यह कुछ भी नहीं। पांव में चक्की बांध के हरिणा कूदा होय! कुछ भी नहीं, पैर में चक्की बांध कर कोई हरिण कूदा है। इसमें कुछ चिंता की बात नहीं। यह
है तो बड़ा ज्ञानी। हम सब रह गए थे, कि इसने बता दिया। तो
शायद बता दे।
तो पुलिस अधिकारी ने कहा कि भाई, बता दो। उसने कहा कि
यहां नहीं बताऊंगा; एकांत, बिलकुल
अकेले में बताऊंगा। उसने कहा कि चलो भाई अकेले में...। ले चला गांव के बाहर। काफी
दूर निकल गया। अधिकारी भी घबड़ाने लगा कि भई, यहां कोई भी नहीं
दिखाई पड़ता। आदमी क्या जानवर भी नहीं हैं। कोई गऊमाता भी नहीं चर रही है आस-पास,
गोलोक भी पीछे छूट चुका। अब तो बता दे।
उसने कहा, पास आओ, कान में कहूंगा। मजबूरी
में उसने कान इसके पास कर दिया। कान में फुसफुसाया कि हो न हो, किसी चोर ने चोरी की है।
टिकट मोरारजी देसाई को मैं दे दूंगा। तुम जाकर ज्ञानी जैलसिंह के कान
में इतना बता दो।
ये शेखचिल्लियों की बातें हैं। ये बचकानी बातें हैं। अब इनको टिकट
चाहिए! टिकट मिल जाए तो शायद कुछ और, कि लेने के लिए
ज्ञानी जैलसिंह को आना चाहिए।
उम्र हो जाने से ही कोई वृद्ध नहीं होता। केवल सदगुरु को ही वृद्ध कहा
जा सकता है। वृद्ध का अर्थ होता है: जिसने जीवन को देख लिया, पहचान लिया कि व्यर्थ है; जिसने जीवन की असारता देख
ली; जिसने जीवन की क्षणभंगुरता पहचान ली; जिसने जीवन में कुछ भी सार न पाया और जीवन में सार न देख कर जिसने मन की
सारी दौड़ को समाप्त कर दिया। जो समाधिस्थ है वही सदगुरु है; वही
देवता है, क्योंकि वही दिव्य है, वही
ज्योतिर्मय है। और वही है उपासना के योग्य। शंकराचार्य का सूत्र यह प्यारा है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप कहते हैं कि जाग गए पुरुषों से गलती होती ही
नहीं; वे जो भी करते हैं, वह सही ही
होता है। और जो सोए हैं वे कुछ भी करें, गलत ही होता है। फिर
दूसरी ओर आप जिन्हें जाग्रत पुरुष कहते हैं, उनकी गलतियों की
ओर इशारा भी करते हैं।
भगवान, यह कैसा विरोधाभास
है? कृपया समझाने की अनुकंपा करें!
इसी तरह का प्रश्न एक
मित्र ने और पूछा है कि मैं शंकराचार्य के एक सूत्र का खंडन किया और मैं
शंकराचार्य पर बोला हूं और मैंने शंकराचार्य को बुद्ध पुरुष कहा है। और अभी बोला
है और शंकराचार्य के इस सूत्र की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तो तुम्हारे मन में इस तरह
के प्रश्न उठेंगे, कृष्णतीर्थ भारती।
मगर मामला बहुत आसान है। कोई शंकराचार्य के सभी सूत्र उनके बुद्धत्व
के बाद नहीं कहे गए हैं बहुत-से सूत्र उन्होंने बुद्धत्व के पहले कहे हैं। जो
सूत्र उन्होंने बुद्धत्व के पहले कहे हैं, उनकी तो मैं ठीक से
खबर लूंगा। और जो उन्होंने बुद्धत्व के बाद कहे हैं, उनकी
जितनी प्रशंसा कर सकता हूं उतनी जरूर करूंगा।
फिर दोहराता हूं कि बुद्ध पुरुषों से कभी कोई गलती नहीं होती। मगर
बुद्ध पुरुष कभी कोई होता है; उसके पहले तो उससे बहुत गलतियां
हो जाती हैं। जैसे मैं कहता हूं कि जीसस सूली पर बुद्ध पुरुष हुए; उसके पहले उनसे बहुत गलतियां हो गईं। बुद्ध उनतीस वर्ष की उम्र में घर
छोड़े, छह वर्ष बाद जब पैंतीस वर्ष के थे, तब बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। तो उन पैंतीस वर्षों में उन्होंने जो भी कहा
हो, जो भी सुना हो, जो भी किया हो,
उसका कोई मूल्य नहीं है। महावीर को चालीस वर्ष की उम्र में बुद्धत्व
मिला। उसके पहले उन्होंने जो भी कहा हो, जो भी किया हो,
जो भी सुना हो, सब गलत है।
मैं तो जिस सूत्र का समर्थन कर रहा हूं, वह सूत्र निश्चित ही
बुद्धत्व की अवस्था में कहा गया होगा। और जिस सूत्र का मैं समर्थन नहीं कर रहा हूं,
निश्चित ही वह बुद्ध होने के पहले कही गई बात होगी। इसमें कुछ
विरोधाभास नहीं है। क्रांति घट जाती है व्यक्ति के भीतर। बुझा हुआ दीया एक ढंग से
व्यवहार करता है, उसमें रोशनी नहीं होती। और जला हुआ दीया
दूसरे ढंग से व्यवहार करता है, उसमें रोशनी होती है। वही
दीया कभी जला था, कभी बुझा हो जाता है। एक ही दीया, कभी बुझा है, कभी जला हो जाता है। बुद्धत्व तो फिर
नहीं बुझता, सौभाग्य से, यह अच्छा है।
एक बार जला सो जला।
तो बुद्धत्व के पहले जो भी वक्तव्य दिए गए होंगे उनका कोई मूल्य नहीं
है। हां, कभी कोई वक्तव्य शायद सत्य के करीब आ गया हो, संयोगवशात, तो उसकी उतनी प्रशंसा मैं जरूर करूंगा।
कल ही मैं रवींद्रनाथ के वचन की प्रशंसा कर रहा था; लेकिन
उतनी ही प्रशंसा, उसी अनुपात में, जिस
अनुपात में सत्य की उसमें छवि होगी, झलक होगी।
मैं किसी का अनुयायी नहीं हूं और न मेरी किसी के साथ दुश्मनी है।
इसलिए मोहम्मद का जो वचन मुझे बुद्धत्व की कसौटी पर सही मालूम होगा, जरूर समर्थन करूंगा। और अगर कृष्ण का भी कोई वचन बुद्धत्व की कसौटी पर
नहीं उतरेगा तो मैं उतना ही विरोध करूंगा जितना कि कर सकता हूं, उसमें फिर जरा भी रंचमात्र संकोच नहीं करूंगा।
इससे तुम्हें अड़चनें आती हैं। तुम्हारी अड़चनें भी मैं समझता हूं, क्योंकि तुम चाहते हो सीधी-सीधी बात। तुम चाहते हो या तो मैं कहूं कि
बुद्ध हैं ये, तो सब ठीक; कूड़ा-कचरा
कुछ भी हो, सब ठीक। और या कहूं कि ये बुद्ध नहीं हैं,
तो फिर हीरे-जवाहरात हों, वे भी गलत।
इसी तरह का एक प्रश्न--
तीसरा प्रश्न: भगवान,
वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण की कथा और उसके
पात्र राम-सीता आदि के आप काफी विरोध में हैं और दूसरी तरफ आप बताते हैं कि
वाल्मीकि मरा-मरा जप कर भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए। यह विरोधाभास कैसा? क्या एक बुद्ध पुरुष से ऐसी कथा की संभावना है जिसका दूसरा बुद्ध पुरुष
विरोध करे?
* ऋषिराज त्रिवेदी,
पहले तो तुम जरा यही सोचो कि बाल्या भील, जो ठीक से राम-राम भी नहीं जप सकता था, वह रामायण की
कथा लिख सकेगा? जो राम-राम जपते-जपते मरा-मरा जपने लगा,
ऐसा व्यक्ति राम की कथा लिख सकेगा? इसकी कोई
संभावना है? इसकी कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती। राम भी याद न
रख सका पूरा-पूरा, केवल दो अक्षर, छोटे
से छोटा शब्द, उसको भी भूल गया और मरा-मरा कहने लगा--वह
व्यक्ति रामायण लिख सकेगा? पढ़ा-लिखा तो था नहीं। और अगर उसने
रामायण लिखी होगी तो बेपढ़ा-लिखा आदमी, असंस्कृत आदमी जो
लिखेगा, उस लिखने में उसके सारे असंस्कारों की छाप होगी;
उसका सारा बेपढ़ा-लिखापन उसमें छाया डालेगा।
तो पहली तो बात यह है कि बाल्या भील इतना बेपढ़ा-लिखा आदमी है, हत्यारा है, कि उससे राम की कथा की संभावना नहीं है।
राम की कथा किसी और ने लिखी होगी; हां, वाल्मीकि के नाम से जड़ दी होगी। यह भारत की पुरानी धारा है। यहां व्यास के
नाम पर इतनी किताबें हैं कि एक व्यक्ति लिख ही नहीं सकता। और कोई किताब तीन हजार
साल पुरानी है, कोई दो हजार साल पुरानी है, कोई हजार साल पुरानी, कोई पांच हजार साल पुरानी। तो
व्यास लगता है मरे ही नहीं, वे यही गोरखधंधा करते रहे!
लेकिन व्यास केवल प्रतीक शब्द हो गया। जिसको भी अपनी चीज चलानी होती
वह व्यास के नाम से लिख देता। व्यास का नाम जुड़ जाता कि इज्जत मिल जाती उस चीज को।
कचरा भी होता तो हीरा हो जाता। इसलिए न मालूम कितने लोगों ने व्यास के नाम से
किताबें लिख कर चला दीं। कोई कापीराइट तो था नहीं। कोई कानून नहीं था, कोई अदालत नहीं थी, कोई छापेखाने नहीं थे। आदमी हाथ
से लिख लेता था। तो तुम भी लिख सकते थे किताब उन दिनों और व्यास का नाम लिख देते।
चल पड़ती किताब।
वाल्मीकि से संभावना कम है कि उन्होंने रामायण लिखी हो। राम भी न जप
सके पूरा, क्या रामायण लिखेंगे! हां, किसी
ब्राह्मण ने लिख दी होगी और वाल्मीकि के नाम का उपयोग कर लिया होगा। क्योंकि
बाल्या भील मरा-मरा जप कर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया था। शांत हो गया, मौन हो गया। उसकी कीर्ति फैल गई होगी। वह ज्योतिर्मय हो गया था। किसी
पंडित-पुरोहित ने लिख दिया होगा।
और सच तो यह है कि आज तक किसी बुद्ध पुरुष ने कोई किताब नहीं लिखी।
बुद्ध पुरुष केवल बोलते हैं, लिखते तो ब्राह्मण हैं। न बुद्ध
ने लिखी कोई किताब, न महावीर ने लिखी कोई किताब, न कृष्ण ने लिखी कोई किताब, न जीसस ने, न मोहम्मद ने। किसी ने कोई किताब नहीं लिखी। बोले। लिखा किसी और ने। अब
जिसने लिखा है, वह भी प्रविष्ट हो जाएगा; वह अपनी धारणाएं डाल देगा, अपनी मान्यताएं डाल देगा।
इसलिए ऋषिराज त्रिवेदी, मैं तो सीधा-सीधा
देखता हूं। अगर कथा में कहीं कोई भूल है तो मैं उसका विरोध करूंगा--किसी ने लिखी
हो, किसी के नाम से चलती हो। और राम और सीता की कथा में
बहुत-सी बातें हैं जो कूड़ा-करकट हैं, जिनका कोई भी मूल्य
नहीं है।
आज इतना ही।
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