सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो
जीवन एक तिलिस्म है—प्रवचन-तीसरा
दिनांक 23 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
अर्थात हजारों वर्षों की यात्रा में मैंने कितने
ही नदी और वन-प्रांतर पार किए, लेकिन फिर भी इस चलने
का अर्थ अब तक नहीं समझ पाया। अब तो मैं हार गया, हार ही
गया!
भगवान, एक बंगला गीत का यह
अंश मेरे भीतर अक्सर गूंज उठता है। मैं भी अपनी वासनाओं से हारा हुआ हूं। वासनाओं
की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं?
अनिल
भारती,
जीवन का जो अर्थ खोजने चलेगा वह निश्चित ही हारेगा, असफल होगा। जीवन का अर्थ खोजने का अर्थ होगा कि जीवन रहस्य नहीं है,
एक गणित है। जीवन फिर एक पहेली है, जो सुलझाई
जा सकती है। और जीवन एक पहेली नहीं है। पहेली और रहस्य का यही भेद है: जो सुलझाया
न जा सके, जान-जान कर भी जो अनजाना रह जाए, कितना ही ज्ञात हो फिर भी अज्ञात शेष रहे।
विज्ञान और धर्म का यही भेद है। विज्ञान अस्तित्व को दो खंडों में
बांटता है--ज्ञात और अज्ञात। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात हो गया है।
जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा। ज्ञात और अज्ञात में
कोई मौलिक भेद नहीं, कोई गुणात्मक अंतर नहीं। वे दोनों एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं। और विज्ञान कहता है उन दोनों के पार और कुछ भी नहीं। यही
है उसकी अस्वीकृति चैतन्य के लिए।
धर्म अस्तित्व को तीन श्रेणियों में बांटता है--ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय। अज्ञेय का अर्थ है, जो कभी भी
ज्ञेय नहीं होगा; जो रहस्य है और रहस्य था और रहस्य रहेगा।
उसी रहस्य को तो हम भगवत्ता कहते हैं।
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
हजार वर्षों से, हजार जन्मों से यात्रा कर रहे हो,
लेकिन हार तो हाथ लगेगी, क्योंकि बात ही जो
तुमने चाही है वह अस्तित्व पूरी नहीं कर सकता। बात तुमने चाही है कि जीवन का अर्थ
पता चल जाए, कि हम खोल लें जीवन की किताब। और जीवन कोई किताब
नहीं। और अगर किताब भी है तो ऐसी किताब जैसी सूफियों के पास है--कोरे कागज हैं
उसमें। खोलोगे भी तो कुछ पाओगे न। कोई अक्षर न मिलेंगे, कोई
सूत्र न मिलेगा। खाली कोरे कागज को पढ़ोगे भी तो क्या पढ़ सकोगे? एक ही बात हो सकती है: कोरे कागज को देखते रहो, देखते
रहो, देखते रहो, तो एक दिन तुम भी कोरे
कागज हो जाओ।
जीवन के रहस्य को अनुभव किया जाता है, खोला नहीं जाता। यह
कोई ताला नहीं कि जिसकी कोई चाबी हो। यूं तो जीवन के दरवाजे पर कोई ताला ही नहीं,
सब खुला है, लेकिन अनंत तक खुला है। खोजते जाओ,
कोई थाह न पाओगे। अथाह है, अगम्य है। दुर्गम
नहीं; दुर्गम होता तो आदमी कभी का पार कर लेता। अगम्य है।
गहरा नहीं; गहरा होता तो हमने नाप-जोख कर ली होती। अथाह है।
इसलिए हजार क्या, करोड़ जन्मों तक भी इस आकांक्षा को लेकर चले
अगर तो हार ही हाथ लगेगी।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
लेकिन हार के लिए अस्तित्व जिम्मेवार नहीं। तुम्हारी आकांक्षा गलत है।
तुम्हारी आकांक्षा जीवन के नियम के अनुकूल नहीं। फिर, जरूरत क्या है जीवन का अर्थ जानने की? यह व्यवसायी
बुद्धि है जो हर चीज का प्रयोजन जानना चाहती है। थोड़ा जीवन को काव्य की तरह भी
देखो। थोड़ा जीवन को प्रेम की तरह भी देखो, प्रीति में पगा भी
देखो। तब आनंद है, अर्थ की कोई चिंता नहीं; उत्सव है। पागल करें अर्थ की खोजबीन। बुद्धिमान नाचेंगे, वीणा बजाएंगे, बांसुरी पर सुर छेड़ेंगे, पैरों में घुंघरू बजेंगे। उनका जीवन अर्थ की चिंता नहीं करता। यह क्षण
काफी है। अर्थ का जो हमारे मन पर बहुत प्रभाव है, वह इसलिए
कि हम गणित में रचे-पचे हैं। हम हर बात को हिसाब में बिठा लेना चाहते हैं--क्यों?
हर क्यों का उत्तर चाहते हैं। जहां हम निरुत्तर होते हैं वहीं हताशा
हाथ लगती है।
और मैं तुमसे कह दूं, जिन प्रश्नों के उत्तर हैं वे
कोई कीमत के ही नहीं। वे प्रश्न दो कौड़ी के हैं जिनके उत्तर हैं। वही प्रश्न कीमती
हैं जिनके कोई उत्तर नहीं हैं, न हो सकते हैं, क्योंकि वहीं तुम जीवन के तिलिस्म के करीब आते हो, जीवन
के जादू को छूते हो।
जीवन एक जादू है, एक तिलिस्म है। इसको जीओ। इसको
जानने की चेष्टा ही क्यों? धन का अर्थ होता है, पद का अर्थ होता है, प्रयोजन होता है, क्योंकि ये सब साधन हैं, इनके द्वारा कोई साध्य
उपलब्ध हो सकता है। जो साध्य है, वही तो अर्थ है। लेकिन जीवन
तो स्वयं साध्य है, किसी और का साधन नहीं। इसलिए इसका कैसे
कोई अर्थ हो सकता है?
मैं यह भी नहीं कह सकता कि जीवन अनर्थ है, अर्थहीन है। यह भी नहीं कह सकता, क्योंकि यह भी तब
कहा जा सकता है जब हम अर्थ को खोजने चलें। अस्तित्ववादी दार्शनिक पश्चिम में कहते
हैं: जीवन अर्थहीन है। सार्त्र, कामू, कीर्कगार्ड,
इस तरह के विचारक कहते हैं कि जीवन अर्थहीन है। उनसे मैं कहना चाहता
हूं कि अर्थहीन जीवन मालूम पड़ेगा अगर तुम अर्थ खोजने चलोगे। अर्थहीनता तुम्हारे
अर्थ की खोज का ही परिणाम है, अन्यथा जीवन न तो अर्थपूर्ण है
न अर्थहीन है। जीवन बस है। इसके होने में डुबकी मारो। इसके होने में डूबो।
उस डूबने की कला का नाम ध्यान है। दर्शन अर्थ खोजता है, ध्यान डुबकी मारता है। प्यास है तो पीओ, क्या करोगे
जान कर कि प्यास का क्या अर्थ है और पानी का क्या अर्थ है? और
यूं सोचते रहे अर्थ, तो प्यास मार ही डालेगी। नहीं तुम पूछते
कि भोजन का क्या अर्थ है और नहीं तुम पूछते कि श्वास लेने का क्या अर्थ है। पूछो
और मुश्किल में पड़ोगे। फूल खिले हैं और पक्षी गीत गा रहे हैं और वृक्ष हरे हैं और
नदियां सागर की तरफ भागी चली जा रही हैं, चांदत्तारों में
रोशनी है--ऐसा बस है। इस है-पन को जीओ--समग्रता से, संपूर्णता
से।
लेकिन अनिल भारती, तुम अर्थ की खोज में लगे कि बस
अनर्थ हाथ लगा। कारण तुम हो। फिर तुम कहते हो कि मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं।
तुमसे कहा किसने कि वासनाओं को जीतो? जीतोगे तो नहीं,
जीतने की चेष्टा में हार जरूर हो जाएगी। मैं तुमसे कहता हूं वासनाओं
को जीओ, पहचानो, परखो, साक्षी बनो। जीतने की भाषा छोड़ दो। यह पहलवानी छोड़ो। यह कोई लड़ाई-झगड़े का
मामला नहीं है। और लड़ाई-झगड़े में ज्यादा से ज्यादा दमन होगा। और जो दबाया गया है
वह उभर-उभर कर प्रकट होगा। और फिर कहोगे कि अब मैं क्या करूं, मैं तो हार गया, मैं तो बुरी तरह हार गया!
एच.जी.वेल्स ने ऐसे यंत्रों की कल्पना की थी, जिनमें एक यंत्र ऐसा भी था कि आप उसके द्वारा अपने सामने खड़े व्यक्ति के
मन के विचार पढ़ सकते थे। आश्चर्यजनक रूप से एक दिन वह यंत्र मुल्ला नसरुद्दीन को
मिल गया। मुल्ला मुझे बता रहा था--
ठोकर खाकर हमने जैसे ही यंत्र को उठाया
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई, कुछ घरघराया
झटके से गर्दन घुमाई, पत्नी को देखा
अब यंत्र से पत्नी की आवाज आई,
मैं तो बाज आई इनसे,
सड़क पर चलने का तरीका नहीं आता,
कोई भी मैनर या सलीका नहीं आता,
बीबी साथ है यह तक भूल जाते हैं
और भिखमंगों की तरह सड़क पर से चीजें उठाते हैं,
इनसे तो वह पूना वाला इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बैठा कर मुझे शापिंग कराता,
इस तरह राह चलते ठोकर तो न खाता।
मुल्ला कहने लगा--
हमने सोचा, यहां तक तो गनीमत है
लेकिन अगर रात में सोते वक्त
इसे फिर पूना वाले की याद आई
तो कैसे निभेगी?
यंत्र खतरनाक है,
और यह भी एक इत्तफाक है कि हमको मिला है
और मिलते ही पूना वाला गुल खिला है।
और भी देखते हैं, क्या-क्या गुल खिलते हैं,
अब जरा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का दरवाजा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया
दिमाग में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं घरघराहट
यंत्र से आवाज आई,
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी गुलबदन को नहीं लाया है?
प्रकट में बोला,
ओ हो, कमीज तो बड़ी फैंसी है।
और सब ठीक है? भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा,
भाभीजी या छप्पनछुरी गुलबदन?
वह बोला,
होश की दवा करो श्रीमान, क्या अंट-संट बकते हो?
भाभीजी के लिए कैसे-कैसे शब्दों का प्रयोग करते हो?
तो हमने सोचा, कैसा नट रहा है
अपनी सोची हुई बात से ही हट रहा है!
तो फैसला किया कि अब से बस सुन लिया करेंगे।
कोई भी अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।
एक दिन बी.ए. फाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी खिड़की के पास में
लग रहा था हमारा लेक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में कुछ और ही गुन रही है
तो यंत्र को ऑन कर हमने जो देखा
खिंच गई हृदय पर हर्ष की रेखा
यंत्र से आवाज आई,
सर जी यूं तो बहुत अच्छे हैं
लंबे और होते तो कितने स्मार्ट होते!
एक लड़का जो सड़क पर जा रहा था
हेमामालिनी से अवैध संबंध बना रहा था।
तो हमने सोचा कि फ्रायड ने सारी बातें ठीक ही कही हैं
कि इंसान की खोपड़ी में सेक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो इतनी घिनौनी हैं
कि जिन्हें बतलाने में भाषा भी बौनी है।
दबाओगे तो जाएगा कहां, भीतर पड़ा ही रहेगा।
शूं-शूं करेगा, घर्र-घर्र करेगा। भगवतगीता पढ़ोगे, बीच-बीच में बोलने लगेगा। कुरान की आयतें दोहराओगे, बीच-बीच
में उचक-उचक कर छलांगें मारेगा। जिसको दबाओगे वही तुम्हें सताएगा, वही तुम्हारे सपनों में आएगा। और फिर तुम सोचोगे कि हार हो गई। फिर जीवन
को विषाद पकड़ लेगा। फिर जीवन में दुख घना होगा।
सदियों-सदियों तक धर्मों ने जो मनुष्य को दमन की प्रक्रिया सिखाई है, उस प्रक्रिया का यह परिणाम है कि यह सारी मनुष्य-जाति दुख की एक अंधेरी
रात में खो गई है--एक ऐसी अमावस, लगता है जिसकी कोई सुबह ही
नहीं; एक ऐसी रात, लगता है जिसका कोई
अंत ही नहीं। तुम्हारे धर्मगुरु जिम्मेवार हैं।
अनिल भारती, मेरे पास आकर भी तुम वासनाओं से लड़ रहे हो? मैं शिक्षा दे रहा हूं साक्षी होने की। जीतने का सवाल ही नहीं है, जो भी है हमारे भीतर और हमारे बाहर, उसका सम्यक
दर्शन करना है। न जीतना है, न हारना है--देखना है। दृष्टि को
निखारना है। आंख साफ करो। और पहले से ही यह पक्षपात क्यों लिए बैठे हो कि वासनाओं
को जीतना है? ये सदियां जो तुम्हारे ऊपर धूल छोड़ गई हैं,
वह छूटती ही नहीं; वह ऐसी जम गई है। मेरे पास
भी आकर बैठे हो, मगर गुनते अपनी ही हो। सुनते मुझे क्या खाक
हो!
तुम कहते हो, "मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं। वासनाओं की
व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं?'
वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें हुआ है? या कि सुन लिया है, या कि संतों-महात्माओं ने जो
बकवास छेड़ रखी है वही तुम्हारे भीतर शूं-शूं कर रही है? जिस
दिन वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें होगा उस दिन न जीत है न हार है। बोध के
साथ ही वासनाओं का अतिक्रमण है। बोध के साथ तो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता
है, फिर बचता क्या है? बोध यानी
बुद्धत्व। और वासनाओं का बोध, बस आ गई पूर्णिमा की रात,
आ गई वह रात जब गौतम सिद्धार्थ बुद्ध बने! तुम्हारे जीवन में भी
बुद्धत्वता का, भगवत्ता का आनंद बरस उठेगा, अमृत झलक उठेगा।
लेकिन बोध तुम्हें नहीं है। इसे बोध न कहो। सुनी-सुनाई बातें हैं।
तुम्हारे भीतर घुस गई हैं, दोहर रही हैं, ग्रामोफोन
रिकार्ड की तरह दोहर रही हैं। सदियों से कहा जा रहा है, सुना
जा रहा है कि वासनाएं गलत हैं, उनसे जीत करनी है, उनको हराना है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं वासनाओं
को जीतना है। मैं उनसे कहता हूं, जीत हो सकती है अगर तुम यह
जीत की भावना छोड़ दो। वे कहते हैं, अच्छी बात है। तो हम जीत
की भावना छोड़ देंगे, फिर तो जीत होगी न? यह कैसी भावना छोड़ना हुआ? जीत की आकांक्षा ऐसी गहन
हो गई है, इस बात तक के लिए बेचारे राजी हैं कि चलो जीत की
आकांक्षा भी छोड़ देते हैं, मगर जीत होगी न? जीत होनी ही चाहिए। अगर जीत पक्की हो, अगर गारंटी हो,
तो हम यह भी कर लेंगे--यह वासना भी छोड़ देंगे कि वासना को जीतना है।
और मैं तुमसे कहूं, यह बड़ी से बड़ी वासना है--वासनाओं को
जीतने की वासना। और सब वासनाएं तो बहुत छोटी-छोटी हैं; यह
वासना तो बड़ी महत वासना है।
इस सब झंझट में न पड़ो। जो भी भीतर है, जो भी बाहर है,
स्वीकार करो। निंदा नहीं। अभी बोध कहां! बोध को ही जगाने का तो मैं
उपाय कर रहा हूं। क्रमशः बोध को जगाओ। पहले शरीर के साक्षी बनो।
बुद्ध एक सांझ बोल रहे थे। सम्राट सुनने आया था। सामने ही बैठा था और
अपना पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध ने बीच में ही बोलना बंद कर दिया और उस
सम्राट के अंगूठे की तरफ गौर से देखने लगे। सम्राट सकुचाया, घबड़ाया, बेचैन हुआ। और भी लोग देखने लगे कि बात क्या
है! बुद्ध के देखने को देख कर सम्राट ने जल्दी से अपना अंगूठा, जो अब तक हिल रहा था, उसे रोक लिया। बुद्ध ने फिर
बोलना शुरू कर दिया। थोड़ी देर बाद फिर सम्राट का अंगूठा हिलने लगा।
कुछ लोग ऐसे होते हैं न, कुर्सी पर बैठे
रहेंगे, टांगे ही हिलाते रहेंगे, यहां-वहां
खुजाते रहेंगे, कुछ न कुछ करते रहेंगे। होश ही नहीं, क्या कर रहे हैं।
बुद्ध ने फिर बोलना बंद कर दिया। सम्राट को बेचैनी होने लगी। उसका
वजीर भी पास बैठा है, उसकी रानी भी पास बैठी है, उनको
भी लगा कि यह तो बड़ी भद्द की बात है। सम्राट ने कहा, आप
बोलना बंद क्यों कर देते हैं? और मेरे अंगूठे की तरफ क्यों
देखने लगते हैं?
बुद्ध ने कहा, मैं इसलिए देखता हूं अंगूठे की तरफ कि क्यों तेरा
अंगूठा हिल रहा है! तू मुझे उत्तर दे दे।
सम्राट ने कहा कि मुझे होश ही कहां? जब आप रुकते हो,
मेरे अंगूठे की तरफ देखते हो, तब मुझे खयाल
आता है कि अंगूठा हिल रहा है। तब मैं तत्क्षण रोक लेता हूं; फिर
भूल जाता हूं, फिर अंगूठा हिलने लगता है। तो बुद्ध ने कहा,
यह अंगूठा तेरा है या किसी और का है? तेरा
अंगूठा हिले और तुझे पता न चले, तब तो फिर किसी दिन तू किसी
की गर्दन भी काट सकता है, क्योंकि तेरा हाथ है और तुझे पता न
चले।
और यह मजाक ही नहीं, बहुत-सी हत्याएं होती हैं जिनमें
हत्यारे को पता ही नहीं चलता कि उसने हत्या कर दी, करने के
बाद ही पता चलता है कि अरे यह मैं क्या कर गुजरा, यह क्या हो
गया! और ऐसी भी हत्याएं हुई हैं कि हत्यारों ने अदालतों में वक्तव्य दिए हैं कि
हमने की ही नहीं। पहले तो यही समझा जाता था कि ये लोग झूठ बोल रहे हैं। लेकिन अब
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जरूरी नहीं कि वे झूठ बोल रहे हों; हो सकता है वे ठीक ही कह रहे हों; उन्हें पता ही न
हो, इतनी मूर्च्छा में हत्या की गई हो। क्योंकि जब आदमी
क्रोध में उन्मत्त हो जाता है तो करीब-करीब मूर्च्छित हो जाता है। क्रोध की गहन
अवस्था में तुम्हारे शरीर में ऐसी ग्रंथियां हैं, जिनसे जहर
तुम्हारे खून में दौड़ जाता है और उस जहर के कारण एक मूर्च्छा छा जाती है। उस
मूर्च्छा की स्थिति में कोई हत्या भी कर सकता है, आत्महत्या
भी कर सकता है।
और यूं ही तुम जी रहे हो--यंत्रवत। पहले शरीर के प्रति सजग होना शुरू
करो। चलो तो जानते हुए, होशपूर्वक। बैठो तो जानते हुए, होशपूर्वक।
लेटो तो जानते हुए, होशपूर्वक। इतनी गहनता को लाना है होश
में कि एक ऐसी घड़ी भी आ जाए कि रात करवट भी बदलो, तो भी
होशपूर्वक। और अंततः सोए रहो तब भी तुम्हें यह होश रहे कि शरीर सोया है, मैं जागा हूं। जिस दिन यह घटना घट जाती है उस दिन एक पड़ाव पूरा हुआ,
एक तिहाई यात्रा पूरी हो गई।
फिर दूसरा प्रयोग मन पर करना है। फिर मन के विचार, कामनाएं, इच्छाएं, एषणाएं
स्मृतियां, कल्पनाएं, सपने, इनको देखना है। यह मन की सारी कामनाओं का जाल तभी संभव है देखना, जब पहले शरीर की स्थूल प्रक्रियाओं पर तुम्हारी जागृति जम गई हो। तब
सूक्ष्म पर उतरा जा सकता है। एक-एक कदम बढ़ना होगा। जो शरीर पर सफल हो गया वह मन पर
भी सफल हो जाएगा; उसके हाथ में राज लग गया।
और जब तुम्हारे मन पर तुम्हारा होश गहन हो जाएगा तो तुम चकित होओगे।
जब शरीर पर होश गहन होता है तो शरीर में एक कमनीयता, एक कोमलता, एक सौंदर्य, एक प्रसाद उतर आता है; एक संगीत, एक लयबद्धता, एक छंद
छा जाता है। शरीर के उठने-बैठने में एक अदभुत लालित्य आ जाता है, सारी भाव-भंगिमा में एक भगवत्ता छा जाती है--एक गहन शांति, एक मौन, एक उत्फुल्लता। रोएं-रोएं में एक उत्सव! और
जब मन पर बोध गहन हो जाता है तो वासनाएं, विचार अपने आप विदा
हो जाते हैं, लड़ना नहीं पड़ता। जो लड़ा वह तो हारा। जो जागा वह
जीता।
इस सूत्र को खूब याद कर लेना: जो लड़ा वह हारा। फिर तुम्हें यह कहना ही
पड़ेगा--
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
हार गया, हार गया, बुरी तरह हार गया!
हजारों वर्षों की यात्रा में कितनी नदियां, कितने वन-प्रांतर
पार किए, फिर भी चलने का अर्थ पता न लगा। हार गया, बुरी तरह हार गया!
पराजय तुम्हारी गलत प्रक्रिया का परिणाम है। जो मन को जाग कर देखेगा
उसका मन विदा हो जाता है। तुम जागे कि मन गया। जिस मात्रा में जागे, उस मात्रा में मन गया। तुम अगर दस प्रतिशत जागे हो तो नब्बे प्रतिशत मन
होगा। तुम अगर नब्बे प्रतिशत जाग गए तो दस प्रतिशत मन होगा। और तुम अगर निन्यानबे
प्रतिशत जाग गए तो एक प्रतिशत मन होगा। और तुम अगर सौ प्रतिशत जाग गए तो मन शून्य
प्रतिशत हो जाएगा। और तब एक अपूर्व घटना घटती है। जैसे शरीर में एक प्रसाद छा जाता
है, ऐसे ही मन में एक अपूर्व आह्लाद, अकारण
आनंद--कोई कारण नहीं, कोई वजह नहीं, कोई
हेतु नहीं, कोई लक्ष्य नहीं--बस अकारण झरने फूटने लगते हैं,
आनंद की रसधार बहने लगती है! और जब मन में यह घटना घट जाए तो फिर
तीसरा कदम बाकी रह गया, जो सर्वाधिक सूक्ष्म है--वह है हृदय
की भावनाओं के प्रति सजगता। वह सबसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हमारा जगत है।
भाव विचार से भी गहरे हैं। और भाव विचार से भी नाजुक हैं। फिर आखिरी
प्रयोग करना है: अपनी भावनाओं को देखना है। विचार पर जो जीत गया वह भावनाओं पर भी
जीत जाएगा। राज तो वही है, कीमिया तो वही है, कला तो वही
है; सिर्फ अब गहराई बढ़ाए जाना है। तैरना आ गया तो अब क्या
फर्क पड़ता है उथले में तैरे कि गहरे में तैरे। भावना का जगत सर्वाधिक गहरा है। जब
भावनाओं के प्रति तुम जागोगे, जिस मात्रा में जागोगे उस
मात्रा में भावनाएं भी विदा हो जाएंगी।
और जब सारी भावनाएं विदा हो जाती हैं तो उस अपूर्व घटना की घड़ी आ गई
जब ऋषियों ने कहा है: रसो वै सः! रस आखिरी परिभाषा है परमात्मा की। रस बह उठता है।
रस अदभुत शब्द है। दुनिया की किसी भाषा में वैसा कोई शब्द नहीं। परमात्मा रसरूप
है।
और ये तीन कदम हैं; इन तीन कदम के बाद चौथा प्रसाद
है। चौथा भी है, लेकिन वह तुम्हारा कदम नहीं है। तीन तुम
उठाओ, चौथा कदम परमात्मा उठाता है। उस चौथे को हमने कहा
है--तुरीय, समाधि। तुमने तीन पूरे कर लिए, तुम अधिकारी हो गए, पात्र हो गए चौथे को पाने के।
चौथा तुम नहीं उठा सकते। चौथा तो परमात्मा उठाएगा। यह पूरा अस्तित्व तुम्हारे
सहयोग में खड़ा हो जाता है। और जब चौथा कदम भी उठ जाता है और समाधि सघन हो जाती है,
समाधि के मेघ घिर जाते हैं, आ गया आषाढ़ का
महीना, होने लगी रिमझिम--तब जीवन में जीत है। उसको तुम कह
सकते हो जिन अवस्था, विजेता की अवस्था। उसके पहले तो हार ही
हार है।
अनिल भारती, लड़ो मत, जागो!
दूसरा प्रश्न: भगवान,
गत पंद्रह साल से मैं आपके सत्संग में उठता-बैठता
रहा हूं और आपके प्रति बिलकुल शुरू से समर्पित भी। लेकिन आज तक संन्यास में उतरने
का साहस नहीं जुटा पाया। जब से आपने संन्यास देना शुरू किया, तब से ही मन में संन्यास की अभीप्सा जगी रही। उस समय जिन मित्रों को कहा
चलो संन्यास में उतरेंगे, तब उन मित्रों की तैयारी नहीं थी।
लेकिन उनमें से कुछ बाद में संन्यस्त हुए और आप में डूब गए और मैं ऐसा ही रह गया।
मेरे कपड़े भी सी कर तैयार हैं, लेकिन साहस की कमी है। आपके
प्रति मेरे समर्पण में भी कमी नहीं। अगर आपके संबंध में कोई कुछ बकने लगे तो तुरंत
मैं उससे जूझ पड़ता हूं, या मेरी आंखें आंसुओं से भर जाती
हैं। जो आपके प्रेम में डूब गए हैं उन्हीं का संग-साथ मन को भाता है। आपके प्रति
मेरा यह लगाव देख कर कभी-कभी आपके आलोचक भी अचंभा करते हैं कि मैं अब तक संन्यस्त
कैसे नहीं! जिस परिवार व समाज के भय के कारण रुका हूं, उससे
कोई सुख पा रहा हूं, ऐसा भी नहीं।
भगवान, अब आप ही एक आखिरी
धक्का दें और आपके रंग में रंग लें।
अजित
कुमार जैन,
भैया, ऐसी भी क्या जल्दी है? मजे से
सत्संग चल रहा है, चलने दो। मजे से समर्पण चल रहा है,
चलने दो। समर्पण भी तुम कहते हो पूरा है, सत्संग
भी पूरा है, अब साहस की कमी कैसे रह सकती है? तुम कहते हो मेरी कोई आलोचना करता है, मेरे संबंध
में कुछ बकझक करता है तो तुम जूझ पड़ते हो या तुम्हारी आंखें आंसुओं से भर जाती
हैं। इससे तुम्हें इस बात का एहसास होता है कि समर्पण पूरा है, लगाव पूरा है। स्वभावतः तुमने तर्क खोजा, विचार किया
होगा कि फिर कमी कहां है? साहस की कमी है, तुम कहते हो।
नहीं, अजित कुमार जैन, समर्पण अभी
पूरा नहीं। समर्पण पूरा हो तो फिर कोई कमी नहीं रह जाती। हां, जरूर कोई मेरी आलोचना करता है तो तुम जूझ जाते हो। वह जूझना भी तुम अपने
अहंकार के कारण करते हो, मेरे प्रति समर्पण के कारण नहीं।
मेरी आलोचना की जा रही है, इसलिए नहीं जूझते हो। तुम जिसे
मानते हो, उसकी आलोचना की जा रही है, इसलिए
जूझ जाते हो।
और कभी तुम्हारी आंखें भी आंसुओं से भर जाती हैं, वह इसलिए नहीं कि कोई मेरे संबंध में गलत-सलत कह रहा है, बल्कि इसलिए कि तुम सोचते हो जिसके प्रति तुम्हारा समर्पण है और समग्र
समर्पण है, उसके संबंध में कोई गलत कहे तो तुम्हारे ही संबंध
में गलत हुआ न! चोट तुम्हारे अहंकार को लगती है, तो कभी
आंसुओं में प्रकट हो सकती है और कभी जूझने में। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। और सिक्का अहंकार का है।
यह भी तुम कहते हो कि जिन परिवार वालों के कारण मैं संन्यास लेने से
रुका हूं, उनके कारण मुझे कोई सुख मिल रहा हो ऐसा भी नहीं। सभी
बातें पूरी हैं, सिर्फ तुम सोचते हो साहस की कमी है। यह नहीं
हो सकता। समर्पण पूरा हो तो साहस की कमी हो ही नहीं सकती। समर्पण पूरा होने का
अर्थ हुआ कि अगर मैं कहूं कि ले लो संन्यास, फिर क्या करोगे?
फिर क्या मुझसे कहोगे साहस की कमी है, कैसे
लूं? फिर कैसा समर्पण पूरा हुआ? और मैं
रोज यही तो कह रहा हूं कि डूबो। अब भी तुम कहते हो कि एक और आखिरी धक्का दे दें।
मैं तो दे दूं आखिरी धक्का, मगर तुम किस तरफ
भागोगे, सवाल यह है। बहुत संभावना है कि घर की तरफ भागोगे।
बहुत संभावना है कि ज्यादा धक्का दे दूं तो यहां शायद आना ही बंद कर दो। इसलिए
धक्का नहीं दूंगा। यही कहूंगा, क्या जल्दी पड़ी है। अरे,
जन्म पड़ा है! और कोई एक जन्म! इस देश में तो सुविधा ही सुविधा है।
अनंत जन्म पड़े हुए हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन बड़ा ही आलसी किस्म का व्यक्ति है। उसका एक तकिया
कलाम है--ऐसी जल्दी भी क्या है! वह बात-बात में यही दोहराता है कि ऐसी जल्दी भी
क्या है! एक बार उसके मित्र चंदूलाल ने देखा कि नसरुद्दीन बड़ी तेजी से कार चलाता
हुआ कहीं जा रहा है। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि मुल्ला को
उसने कभी भी इतनी तेज कार चलाते देखा ही नहीं था। जब जल्दी ही नहीं तो कार क्या
तेज चलानी! कार नसरुद्दीन ऐसे चलाता है जैसे कोई बैलगाड़ी चलाता है। शाम को उसने
मुल्ला से पूछा कि क्या बात थी मुल्ला, आज तुम बड़ी ही तेज
कार चला रहे थे, आखिर ऐसी क्या बात हो गई थी?
मुल्ला नसरुद्दीन बोला, बता देंगे भाई,
ऐसी जल्दी भी क्या है!
चंदूलाल ने दूसरे दिन फिर पूछा कि भई, अब तो बता दो कि क्या
बात थी! कल तेज गाड़ी क्यों चला रहे थे?
नसरुद्दीन का उत्तर वही था पूर्ववत, कि बता देंगे भाई,
आखिर ऐसी जल्दी भी क्या है! जब पूछते-पूछते काफी दिन हो गए तो एक
दिन नसरुद्दीन ने उसे सारा किस्सा बताया, जो इस प्रकार था।
कहा, मैं उस दिन आराम से अपने आफिस जा रहा था--वही चाल,
पुरानी बैलगाड़ी वाली--कि मैंने देखा कि सामने सड़क पर एक बुढ़िया सड़क
पार करती हुई चली जा रही है। मैंने देखा कि वह सड़क के बीचों-बीच आ गई है। मैंने
चाहा कि एकदम ब्रेक लगाऊं, लेकिन सोचा कि ऐसी जल्दी भी क्या
है! और इतने में वह बुढ़िया कार के नीचे आ गई। फिर भी सोचा कि अब भी ब्रेक लगा लूं,
लेकिन तुम तो जानते ही हो मेरा तकिया कलाम, सोचा
ऐसी जल्दी भी क्या है! कि बुढ़िया को पार भी कर गया। तब तक भीड़ भी इकट्ठी होने लगी।
सोचा कि अब तो कार रोक लूं, लेकिन वही पुराना तकिया कलाम कि
ऐसी जल्दी भी क्या है! और इसी घबड़ाहट में ब्रेक पर पैर न लगा, एक्सीलेटर पर पैर लग गया। और जब एक्सीलेटर पर पैर लग गया तो कई दफा सोचा
भी कि अरे भाई यह क्या कर रहा हूं! मगर वही पुराना तकिया कलाम कि ऐसी जल्दी भी
क्या है! इसलिए उस दिन तेजी से चला जा रहा था, दफ्तर भी पीछे
छूट गया।
तुमसे भी मैं यही कहूंगा--ऐसी क्या जल्दी है! हो जाएगा--आज नहीं कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, और नहीं तो और
अगले जन्म में। कोई बुद्ध पुरुष चुक तो न जाएंगे। आते ही रहेंगे। उनका धंधा यही कि
आएं और सोए हुओं को जगाएं। और सोने वालों का धंधा यही कि जगाने वाले जगाते रहें और
वे सोए ही रहें।
अब तुम अगर संन्यासी ही हो गए, तो अजित कुमार जैन,
यह भी तो सोचो, फिर आने वाले बुद्ध पुरुष क्या
करेंगे? कुछ उनका भी खयाल करो। फिर किसका उद्धार करेंगे?
सबको बिलकुल ही बेकाम कर देना है? कुछ लोगों
को तो छोड़ जाना ही पड़ेगा। तुम भी उन्हीं में रहो। अभी कुछ जल्दी नहीं है। और तय मत
करना, सोचना ही मत कि कल ले लेंगे कि परसों ले लेंगे।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी अपनी कंजूसी के लिए पूरे गांव में मशहूर थे। गांव
के किसी भी व्यक्ति को उन्होंने कभी चाय तक के लिए निमंत्रित नहीं किया था। एक बार
गांव में किसी ने खबर फैला दी कि चंदूलाल एक बहुत बड़ा भोज देने वाले हैं, जिसमें वे सारे गांव को निमंत्रित करेंगे। लोगों ने सुना और अनसुना कर गए।
लेकिन जब खबर ने जोर पकड़ा तो सारे गांव वाले मिल कर चंदूलाल के घर जा पहुंचे। बाहर
ही चंदूलाल के सुपुत्र टिल्लू गुरु खेल रहे थे। गांव वालों ने उनसे पूछा कि सुना
है कि तुम्हारे पिता एक बहुत बड़ा भोज देने वाले हैं!
टिल्लू गुरु ने हंसते हुए उत्तर दिया, आपने बिलकुल ठीक सुना
भाइयो। मेरे पिता प्रलय के दिन एक बहुत बड़ा भोज देने वाले हैं!
टिल्लू गुरु अपने बाप को जानते हैं कि कयामत के पहले तो वे दे नहीं
सकते, सो कयामत के दिन, आखिरी दिन जब
आएगा, तब वे भोज देने वाले हैं। गांव के लोग यह सुन कर लौट
गए। उन्होंने कहा, हमें पहले ही पता था। उनके बीच होने वाला
वार्तालाप चंदूलाल भी घर के भीतर से सुन रहे थे। जब गांव के लोग चले गए तो
उन्होंने टिल्लू गुरु को भीतर बुलाया और लगे उसे चपत पर चपत रसीद करने। बोले,
अबे नालायक! भोज का दिन अभी से निश्चित करने की क्या आवश्यकता थी?
क्यों जल्दी करते हो अजित कुमार जैन? हो जाएगा कयामत के
दिन तक। और क्या दिन तय करना! चलने दो सत्संग, मजे से चल रहा
है, सुविधा से चल रहा है, बिना किसी
झंझट के चल रहा है।
यह साहस की कमी नहीं है, यह समर्पण की ही कमी
है। तुम समर्पण की बात समझे ही नहीं। और तुम सोचते हो कि जिनसे मैं कोई सुख नहीं
पा रहा, उसी समाज, उसी परिवार के कारण
रुका हूं, ऐसा क्यों?
हम अपने दुख को भी पकड़ते हैं। हमारी पकड़ ऐसी है। हमें तो जो मिल जाए
उसी को पकड़ लेते हैं। दुख को भी पकड़ लेते हैं, उसको भी हमसे छोड़ते
नहीं बनता। पता नहीं यह दुख छूट जाए तो कहीं कोई और बड़ा दुख मिल जाए! इसलिए कम से
कम जाना-माना है।
जिस समाज से तुम्हें कोई सुख नहीं मिल रहा, जिस परिवार से तुम्हें कोई सुख नहीं मिल रहा, फिर
क्या भय है? जिनसे कांटे ही मिल रहे हैं और गालियां ही मिल
रही हैं--और थोड़े कांटे सही, और थोड़ी गालियां सही।
और जब इतने दिन से यह अभीप्सा तुम्हारे मन में छाई हुई है, तो इसे टालना क्यों? शुभ कुछ करना हो तो तत्क्षण कर
लेना चाहिए, क्योंकि मन बहुत चालबाज है। अगर कल पर छोड़ा तो
हो सकता है हमेशा के लिए ही छूट जाए। और अशुभ कुछ करना हो तो थोड़ा ठहर जाना चाहिए,
क्योंकि आज छूट गया तो शायद सदा के लिए छूट जाए।
लेकिन हम बड़े उलटे लोग हैं। झगड़ा करना हो तो अभी कर लेते हैं, ध्यान करना हो तो कहते हैं कल करेंगे। गाली देनी हो तो अभी दे लेते हैं और
किसी को एक फूल भेंट करना हो तो न मालूम कितना गणित बिठाते हैं, कितना समय गंवाते हैं। दो प्रीतिकर शब्द कहने के लिए स्थगन करते हैं और
अप्रीतिकर शब्द एकदम नगद! अभी, यहीं के यहीं! कल पर नहीं
छोड़ते।
गुरजिएफ के पिता ने मरते समय गुरजिएफ को कहा था...गुरजिएफ की उम्र नौ
ही वर्ष थी और गुरजिएफ ने बाद में कहा कि उस एक छोटी-सी सिखावन ने मेरी पूरी
जिंदगी बदल दी। एक छोटी-सी बात कही थी। नौ साल के बच्चे से और कहा भी क्या जा सकता
था। पास बुला कर इतना ही कहा था कि तुझे और तो मैं क्या कहूं, और कुछ मेरे पास देने को नहीं, लेकिन जो मेरे पिता
ने मुझे दिया था और जिसके कारण मेरी पूरी जिंदगी बदली, वही
मैं तुझे देता हूं। एक बात का खयाल रखना, कभी भी क्रोध करना
हो तो चौबीस घंटे के बाद करना। अभी कोई गाली दे तो ठीक चौबीस घंटे के बाद उसको
जवाब देना। अभी तो उससे कहना कि भई, चौबीस घंटे मुझे सोचने
का अवसर चाहिए, फिर आऊंगा और जवाब दे दूंगा।
और गुरजिएफ कहता था कि इस छोटे-से सूत्र ने मेरे पूरे जीवन को बदल
दिया, क्योंकि चौबीस घंटे कोई रुक जाए तो फिर क्या गाली
देगा? फिर क्या बुरा काम कर सकेगा? रुका,
फिर चाहे अच्छा हो या बुरा, होता ही नहीं।
इसलिए अगर संन्यास तुम्हें लेना ही है, तो आज ही! कल पर टाला
अर्थात कयामत पर टाला। कल कभी आता ही नहीं; जो आया है वह आज
है। और इतने दिन हो गए प्रतीक्षा करते, अब कब तक प्रतीक्षा
करोगे! क्या तुम्हें भी आखिरी में यही बंगाली गीत दोहराना है?
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
हजारों वर्षों की यात्रा में मैंने कितने ही नदी और वन-प्रांतर पार
किए और फिर भी संन्यास न लिया! और फिर भी संन्यास न लिया! और हार ही हाथ लगी! और
हार ही हाथ लगी!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आज ही! या आज ही ले लो या सदा के लिए बात ही छोड़ दो। फिर यह सवाल
दोबारा उठाना भी मत। फिर क्या बार-बार उठाना?
तीसरा प्रश्न: भगवान,
मैं राजनीति छोड़ने को राजी हूं और राजी हूं काव्य
को ही जीवन समर्पित कर देने को। अब तो कुछ कहिए कि कवि का धर्म क्या है?
राजेंद्र
आग्नेय,
राजनीति इतनी आसानी से छोड़ी जा सकती है? कवि हो जाओगे,
फिर भी राजनीति ही करोगे। राजनीति छोड़ना तभी संभव है, जब अहंकार मिट जाए। अहंकार में ही सारी राजनीति छिपी है। अहंकार बीज है
राजनीति का। इसलिए तुम कवियों को भी राजनीति में पड़ा देखोगे। एक कवि दूसरे की टांग
घसीट रहा है। एक कवि दूसरे को पटकनी मारने की कोशिश कर रहा है। कोई किसी की छाती
पर चढ़ा है, कोई किसी की छाती पर चढ़ा है। कवियों के भी झुंड
हैं, दल हैं, दादा हैं। कवियों में भी
सब उपद्रव हैं। कुछ भेद नहीं।
राजनीति इतनी आसान नहीं है, राजेंद्र आग्नेय,
कि तुमने कहा और छोड़ दी। यह तो ध्यान की गहराई में उतरो तो छूटेगी।
तुम्हारे कहने से नहीं छूटने वाली।
और कविता भी तुम क्या करते हो? कुछ नमूने तो मुझे
भेजो। देखूं भी तो कविता क्या करते हो! क्योंकि कविता के नाम पर जो सड़ा-गला हो रहा
है, अगर वैसी ही कविता करते हो, उससे
तो बेहतर राजनीति ही करो।
पेट में शराब
हाथ में सिगरेट
सिगरेट में हशीश है
ये गीतकार
पहुंचा हुआ चार सौ बीस है
भाव साहित्यकारों से
उधार लेता है
कुछ यहां से तो कुछ वहां से
मार देता है!
होलसेल में लिखता है,
सस्ता होते हुए महंगा
बिकता है!
धुआंधार धांसू है
पापुलर हिट है
साहित्य में पिटा हुआ
फिल्मों में फिट है
गीतों के नाम पर
चूं-चूं का मुरब्बा है
समीक्षक कहते हैं--
"बदनुमा धब्बा है!'
बुद्धिजीवी कहते हैं--
"निराला के सपनों की खाट
खड़ी कर रहा है।'
वे मूर्ख हैं,
ये अपनी बिल्डिंग
बड़ी कर रहा है!
नोटों में खेलता है
साहित्य की छाती पर
सरेआम डंड पेलता है!
साहित्य के शाश्वत मूल्यों से
उसे क्या लेना है
सोने की नदी में
चांदी की नाव खेना है!
राजनीति और काव्य का क्या लेना-देना? और तुम इतनी जल्दी
कैसे छोड़ सकोगे? लेकिन माने लेता हूं कि तुम अगर कहते हो कि
छोड़ सकोगे, तो जरूर छोड़ दो। मुझे तो लगता नहीं कि इतनी जल्दी
कोई छोड़ सकता है। राजनीति छोड़ना तो सिर्फ बुद्धपुरुषों को ही संभव है। नहीं तो वे
जहां रहेंगे वहीं राजनीति करेंगे।
धन की भी राजनीति होती है, साहित्य की भी
राजनीति होती है। विश्वविद्यालयों में आचार्यगणों की राजनीति होती है। साधु-संतों
के, महंतों के अड्डों पर, अखाड़े उनका
नाम है, वहां भारी राजनीति होती है। सब तरफ राजनीति है।
राजनीति के बहुत रंग हैं, बहुत पहलू हैं। लेकिन तुम अगर कहते
हो तो मैं मान लेता हूं, मुझे कोई अड़चन नहीं। इतनी आसानी से
छोड़ सको तो बड़ी शुभ बात है। हालांकि यह हो नहीं सकता है।
अगर राजनीति छोड़नी हो तो ध्यान में डूबो। ध्यान से दोनों काम हो
जाएंगे; राजनीति भी छूट जाएगी और अगर काव्य की तुम्हारी नैसर्गिक
प्रतिभा होगी तो प्रकट हो जाएगी, अगर नहीं नैसर्गिक प्रतिभा
होगी तो कम से कम कचरा कविताएं लिखने से बच जाओगे।
मगर तुम पूछते हो कि क्या कवि का धर्म है?
पुराने जमाने में एक धर्म था, वह साफ था कि मुहब्बत
की बातें करे, प्रेम की बातें करे! प्रेम दूसरे करते;
जो प्रेम न कर पाते वे प्रेम की बातें करते।
गुल हुई जाती है अफसुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
और मुश्ताक निगाहों से सुनी जाएगी
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ
उनका आंचल है कि रुख्सार कि पैराहन है
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस जुल्फ की मौहूम घनी छांव में
टिमटिमाता है वो आवेजा अभी तक कि नहीं
आज फिर हुस्ने-दिलारा की वही धज होगी
वही ख्वाबीदा-सी आंखें, वही काजल की लकीर
रंगे-रुख्सार पे हल्का-सा वो गाजे का गुबार
संदली हाथ पे धुंदली-सी हिना की तहरीर
अपने अफ्कार की अशआर की दुनिया है यही
जाने-मजमूं है यही, शाहिदे-मानी है यही
आज तक सुर्खी-सियाह सदियों के साये के तले
आदमो-हव्वा की औलाद पे क्या गुजरी है
मौत और जीस्त की रोजाना सफआराई में
हम पे क्या गुजरेगी, अजदाद पे क्या गुजरी है
इन दमकते हुए शहरों की फरावां मखलूक
क्यों फकत मरने की हसरत में जिया करती है
ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फकत भूख उगा करती है
ये हर इक सिम्त पुरअसरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिन में हजारों की जवानी के चिराग
ये हर इक गाम पे उन ख्वाबों की मकतल-गाहें
जिनके परतौ से चिरागां हैं हजारों के दिमाग
ये भी हैं, ऐसे कई और भी मजमूं होंगे
लेकिन उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख्त दिलावेज खुतूत
आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफसूं होंगे
अपना मौजू-ए-सुखन इनके सिवा और नहीं
तबअ-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नहीं
यह पुराना धर्म था कवि का। अपने अफ्कार की--अपनी रचनाओं की--अपने
अफ्कार की अशआर की दुनिया है यही। अपनी रचनाओं की, अपनी काव्य की यही
दुनिया है। जाने-मजमूं है यही, विषय की जान है यही।
शाहिदे-मानी है यही, अर्थों का साक्षी है यही। क्या?
अपना मौजू-ए-सुखन इनके सिवा और नहीं
तबअ-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नहीं
शायर की प्रकृति यही थी। यह पुरानी परिभाषा थी। यह पिट गई परिभाषा।
इसका जमाना लद गया। वे दिन बीत गए। अब हालात बदल गए हैं। अब इतनी ही बात से काम
नहीं हो सकता। ये तो प्रेम जिनको नहीं मिला था उन्होंने प्रेम के गीत गाकर अपनी पूर्ति
कर ली थी।
मेरी दृष्टि में तो वही कवि हो सकता है जिसने प्रेम को अनुभव किया हो; अकेले प्रेम को ही नहीं, प्रेम के साथ-साथ जागरूकता
को भी। प्रेम और ध्यान, दो शब्द मेरे आधार हैं। भीतर ध्यान,
बाहर प्रेम। स्वयं के भीतर ध्यान, संबंधों में
प्रेम। ध्यान का फूल खिले, प्रेम की गंध उड़े; फिर अगर तुम्हारी नैसर्गिक क्षमता होगी काव्य की, तो
कवि हो जाओगे। अगर नैसर्गिक क्षमता होगी संगीत की, संगीतज्ञ
हो जाओगे; नर्तक की, तो नर्तक हो जाओगे;
मूर्तिकार की, तो मूर्तिकार हो जाओगे। फिर कुछ
चेष्टा करके थोपना न होगा। क्योंकि सब थोपा हुआ झूठा और मिथ्या होता है। फिर
तुम्हारी जो नैसर्गिक क्षमता होगी, उसका ही आविर्भाव होगा।
और जब भी कोई व्यक्ति अपनी स्वस्फुरणा से जीता है, कवि हो,
चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, नर्तक हो, या इनमें से कुछ भी न हो, दुनिया पहचान सके ऐसा कुछ भी न हो, बिलकुल साधारण-सा
व्यक्ति हो, फिर भी उसके जीवन में काव्य होता है, सौंदर्य होता है, संवेदनशीलता होती है, क्योंकि उसके भीतर समाधि होती है।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
आपके आश्रम को देख कर मैं भाव-विभोर हो गया। ऐसा
लगता है कि खजुराहो के मंदिर यहां जीवंत हो गए हैं। मंदिर के बाहर नृत्य, संगीत, उत्सव; मंदिर के भीतर
अपूर्व मौन, घनी शांति। बाहर काम से राम, संभोग से समाधि; भीतर राम से काम, समाधि से संभोग--तंत्र की ऐसी अनूठी अभिव्यक्ति न मैंने कभी सुनी, न मैंने कभी देखी। आपके इस उत्सवी आश्रम में प्रवेश की क्या शर्तें हैं,
बताएं!
तपन चौधरी,
एक ही शर्त है। ज्यादा शर्तें नहीं हैं। सरल-सी शर्त है। उसे मैं
ध्यान कहता हूं, मौन कहता हूं, शून्य कहता हूं,
समाधि कहता हूं। इस महोत्सव में सम्मिलित होना हो तो ध्यान के बीज
बोओ, ताकि समाधि के फूल खिलें, ताकि
भगवत्ता के फल लगें। फिर कुछ भेद नहीं है काम में और राम में, संभोग में और समाधि में। फिर तो तुम जो करो, वही
समाधि है। जैसे जीओ, वही सत्य है। तब तुम्हारी श्वास-श्वास
में परमात्मा ही आंदोलित होगा। तुम्हारी हृदय की धड़कन तुम्हारी न रह जाएगी,
इस सारे अस्तित्व की धड़कन हो जाएगी।
और जब तक यह नहीं हुआ है तब तक तुम चाहे उछलो-कूदो, मगर उत्सव पैदा नहीं होगा। यह तो तुम ठीक कहते हो कि तंत्र की ऐसी अनूठी
अभिव्यक्ति न मैंने कभी सुनी, न मैंने कभी देखी। सदियां हो
गईं, तंत्र का अदभुत लोक विनष्ट ही कर दिया गया। खजुराहो के
मंदिर तो मिट्टी में दबे पड़े रहे, बच गए। ऐसे बहुत मंदिर थे,
वे सब नष्ट कर डाले गए।
खजुराहो के मंदिर तो बच गए, लेकिन खजुराहो के
मंदिरों के पुजारियों का कोई पता नहीं। खजुराहो के मंदिर तो बच गए, लेकिन मंदिरों के रखे शास्त्रों का कोई पता नहीं। खजुराहो के मंदिर तो बच
गए, क्योंकि कुछ संवेदनशील लोगों में उनको बचाने की, कलाकृतियों की तरह बचाने की अभीप्सा थी।
इन संवेदनशील लोगों में रवींद्रनाथ ठाकुर का नाम प्रमुख है। उनको ही
यह गौरव जाता है कि उन्होंने खजुराहो के मंदिर बचा लिए। क्योंकि महात्मा गांधी और
उनके एक बड़े शिष्य पुरुषोत्तमदास टंडन खजुराहो के मंदिरों को फिर मिट्टी में दबा
देने के लिए आयोजन कर रहे थे। उनका कहना था कि ये मंदिर दबा दिए जाने चाहिए। कभी
अगर पुरातत्व की किसी खोज-बीन के लिए जरूरत हो तो मंदिर की मिट्टी हटा कर उनका
अध्ययन किया जा सकता है। बस उस अध्ययन के काम के लिए कभी सौ, दो सौ वर्ष में एक बार इनको उघाड़ा जा सकता है, अन्यथा
ये दबा दिए जाने चाहिए।
और जब महात्मा गांधी और पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे लोग प्रस्तावना कर
रहे हों तो कौन इनकार करता? मैं तो उस वक्त था नहीं इनकार करने को। लेकिन
रवींद्रनाथ ने बड़ी हिम्मत की, बड़ा साहस किया। हालांकि उस
साहस में भी, मैं जो कहता हूं वह बात नहीं थी। उन्होंने तो
इतना ही कहा कि ये सुंदर मूर्तियां हैं, कलाकृतियां हैं,
इनको मिट्टी में दबाना अशोभन होगा।
ये सिर्फ सुंदर कलाकृतियां ही नहीं हैं, ये सुंदर मूर्तियां
ही नहीं हैं, इनके पीछे एक पूरी जीवन-दर्शन की प्रक्रिया थी।
इनके पीछे काम को राम में बदलने का पूरा विज्ञान था। वही तंत्र था।
तुम जो कहते हो यही मेरी आकांक्षा है कि यह मेरी मधुशाला जीवंत
खजुराहो हो। इसलिए तो मुझे इतनी गालियां पड़ रही हैं। जब मंदिर, मुर्दा मंदिर, पत्थर की मूर्तियों तक को महात्मा
गांधी मिट्टी में दबा देने को राजी थे, इच्छुक थे, तैयार ही थे...और रवींद्रनाथ ने बाधा न डाली होती तो यह घटना घट ही गई
होती। रवींद्रनाथ के विरोध में महात्मा गांधी हिम्मत न जुटा सके। लेकिन मंदिरों को
बचाने से क्या होगा? मंदिरों की पूरी जीवन-दृष्टि भी तो बचनी
चाहिए। मैं उसी जीवन-दृष्टि को बचाने की कोशिश में लगा हूं। पुनर-आविष्कार कर रहा
हूं।
भारत में तंत्र के विनाश के साथ ही धर्म की गरिमा खो गई। फिर धर्म हो
गया पाखंड, झूठ, दमन, एक मानसिक रुग्णता। और धर्म के नाम पर फैला घना पाखंड। मेरी लड़ाई उसी
पाखंड से है।
तपन चौधरी, तुम भी अगर इस महत क्रांति में सम्मिलित होना चाहते
हो तो जरूर सम्मिलित हो जाओ। कोई और शर्त नहीं है, बस एक ही
शर्त है--ध्यान। क्योंकि ध्यान करोगे तो ही समझ पाओगे, तो ही
समझ पाओगे, नहीं तो मेरी हर बात गलत समझी जाएगी। मेरी हर बात
गलत समझी जा रही है। मैं कुछ कहता हूं, कुछ उसके अर्थ निकाले
जाते हैं। उनका भी कोई कसूर नहीं है। कसूर मेरा ही है कि मैं कुछ ऐसी बातें कह रहा
हूं जो सदियों से नहीं कही गई हैं। मैं कुछ ऐसी बातें कह रहा हूं जिन बातों को
बिलकुल हमने दबा दिया था, जिन स्वरों को हमने दबा दिया था,
जिन तारों को तोड़ डाला था, जिनसे यह संगीत उठ
सकता था। मैं कुछ भूले-बिसरे सुर फिर से छेड़ रहा हूं। उनको सुनने वाले खो गए हैं।
उनको समझने वाले खो गए हैं। मुझे न केवल नए स्वर छेड़ने हैं, फिर
से नए उनको समझने वाले भी पैदा करने हैं।
तपन चौधरी, तुम्हारा स्वागत है। उन सबका स्वागत है जो इस उत्सव को
समझ सकते हैं। कम से कम इतना तो तुमने किया कि तुमने इस उत्सव को देख कर अपने को
भाव-विभोर पाया। ऐसे ही थोड़े-से लोग भी अगर भारत में बने रहे तो वह जो आग राख में
दब गई है, उसे फिर उभारा जा सकता है। ऐसे ही थोड़े-से लोग तो
भारत में जिंदा लोग हैं, बाकी तो मुर्दों की कतार। बाकी तो
यह देश क्या है, मोहनजोदड़ो है। मोहनजोदड़ो का मतलब होता है:
मुर्दों का टीला। इसमें कभी कोई एकाध जिंदा आदमी कहीं निकल आता है। उन्हीं जिंदा
आदमियों को मैं इकट्ठा करने में लगा हूं।
मगर जिंदा होना भर काफी नहीं है; उस जिंदगी में ध्यान
की सुगंध भी होनी चाहिए, तो ही मैं जो कह रहा हूं, वह समझ में आ सकेगा। और तब तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा कि शाश्वत धर्म की यह
नई अभिव्यक्ति है। जीवन को प्रेम करने वाला धर्म, जीवन का
निषेध करने वाला नहीं। जीवन के राग और जीवन के रंग को स्वीकार करने वाला धर्म;
जीवन का दुश्मन नहीं, जीवन के प्रति घृणा से
भरा हुआ नहीं, निंदा से भरा हुआ नहीं।
नहीं ऐसी अभिव्यक्ति कहीं है आज, इसलिए तुम देखते कैसे,
सुनते कैसे? इसलिए तो मैं अकेला पड़ गया हूं।
इस बड़े बीहड़ जंगल में मैं अकेला पड़ गया हूं। मेरा साथ देने के लिए बस कुछ थोड़े-से
हिम्मतवर लोग हैं। कभी मुश्किल से कोई हिम्मतवर आदमी धार्मिक जगत से साथ दे पाता
है।
जैसे कुछ दिन पहले सूरत के कबीरपंथी मठ के महंत खेमदासजी साहब ने पत्र
लिखा कि हरि के मुझे अभी दर्शन नहीं हुए, लेकिन हरिदर्शन के
लिए आंखें प्यासी हैं, आना चाहता हूं। यह हिम्मत कोई महंत कर
सके, नई बात है। उसके थोड़े दिन पहले स्वामी विष्णुदास ने
बड़ौदा में एक वक्तव्य में कहा था--कोई हिंदू संन्यासी यह कह सके, यह हिम्मत की बात है--कि अगर कहीं भी पाना हो धर्म को तो मेरी तरफ
उन्होंने इशारा किया कि वहां चले जाओ; अगर कहीं कोई जीवित
सूत्र पाना हो तो उस जगह पाया जा सकता है। ऐसा मुश्किल से कभी कोई...इस देश में
जहां पचास लाख हिंदुओं के संन्यासी हैं, जहां हजारों जैनों
के मुनि हैं, जहां हजारों मुसलमानों के फकीर हैं, पीर हैं, औलिया हैं, कभी कोई
एकाध व्यक्ति...।
ठीक ऐसी ही एक खबर--पत्र स्वयं उन्होंने लिखा था अजमेर से--मुइनुद्दीन
चिश्ती की दरगाह के जो प्रमुख हैं, एक मुसलमान, उन्होंने चाहा था कि आना चाहता हूं। मैंने उन्हें खबर भी भेजी कि आओ!
लेकिन फिर उनका उत्तर भी नहीं आया। मैंने अजमेर के संन्यासियों को भी खबर भेजी कि
उनसे जाकर पूछना कि क्या हुआ! संन्यासियों ने खबर दी कि वे तो आना चाहते हैं,
लेकिन अनुयायी रुकावट डाल रहे हैं। वे कहते हैं कि अगर गए तो यह ठीक
नहीं होगा। क्योंकि चिश्ती की दरगाह का प्रधान जाए तो यह तो बड़ी लांछन की बात हो
जाएगी। तब उनको राजनीति आ गई होगी, खयाल आया होगा, कहीं पद न छिन जाए, बदनामी न हो जाए। मेरे पास आना
हो तो बदनामी तो सुनिश्चित है।
तपन चौधरी, शर्त सिर्फ एक है और कोई शर्त नहीं--ध्यान में डूबो।
ध्यान में डूबे तो प्रेम में भी अपने आप डूब जाओगे। और उस प्रेम में, जो प्रेम साधारण प्रेम नहीं; जो व्यक्तियों पर नहीं
चुक जाता, वरन जो अनंत तक फैलता चला जाता है। व्यक्तियों से
निश्चित शुरुआत होती है, लेकिन अनंत पर उसका फैलाव होता है।
व्यक्ति द्वार बन जाते हैं--लेकिन द्वार आकाश के। और तब जो मैं कह रहा हूं और जो
मैं कर रहा हूं, उसको ठीक-ठीक तुम समझ पाओगे। न केवल समझ
पाओगे, बल्कि जी भी पाओगे, क्योंकि
बिना जीए समझा नहीं जा सकता। और जिसने समझा वह बिना जीए रुक नहीं सकता है।
सबका स्वागत है। मगर सिर्फ साहसी ही प्रवेश कर सकेंगे। किसी को रुकावट
नहीं है। लेकिन कमजोरों को, अंधों को, पक्षपातियों को
इकट्ठा कर लेकर क्या करना है? उन तक मेरी बात पहुंच ही न
पाएगी। उनके हृदय के चारों तरफ इतनी सख्त दीवारें हैं कि उनको पार करना बहुत
मुश्किल हो जाएगा। उन्हीं दीवारों को पिघलाने के लिए ध्यान की शर्त लगाता हूं,
क्योंकि ध्यान तुम्हारे विचारों को समाप्त कर देता है, तुम्हारे पक्षपातों का अंत कर देता है, राख कर देता
है जला कर। रह जाता है शुद्ध चैतन्य। और उस शुद्ध चैतन्य का एक ही परिणाम होता है
कि तुम्हारे बाहर के जगत में प्रेम की किरणें फूटने लगती हैं। जैसे दीया जले
तुम्हारे घर में और तुम्हारे खिड़की, द्वार-दरवाजों से उसकी
रोशनी बाहर जाने लगे। ऐसा ही ध्यान का जब दीया जलता है तो तुम्हारे खिड़की, द्वार-दरवाजों से, तुम्हारी आंखों से, तुम्हारे हाथों से, तुम्हारे कानों से, तुम्हारी वाणी से, तुम्हारी श्वासों से प्रेम बहने
लगता है--सहस्र धाराओं में।
प्रेम और ध्यान, इन दोनों की संयुक्त कीमिया का
नाम तंत्र है। और तंत्र धर्म की अलौकिक अभिव्यक्ति है। पुराने तरह के दकियानूसी
धर्मों का वक्त तो जा चुका। अब एक भविष्य आ रहा है, जिसमें
सिर्फ तंत्र की आधारशिला पर कोई मंदिर बनेगा तो बचेगा। सिर्फ खजुराहो के मंदिर ही
बचेंगे, बाकी मंदिरों के दिन लद चुके। मस्जिदों के, गिरजों के दिन लद चुके। लेकिन उतने दूर की दृष्टि तो बहुत कम लोगों की
होती है। जो उतने दूर देख सके वही तो पैगंबर है, वही तो
प्रोफेट है। जो भविष्य को आज देख सके, जो कल होने वाला है
उसको आज पहचान सके--वही तो तीर्थंकर है।
मैं यहां तीर्थंकर खड़े कर रहा हूं, पैगंबर खड? कर रहा हूं, प्रोफेट्स खड़े कर रहा हूं। जैसे ही
तुम्हारा ध्यान गहरा होगा और तुम्हारे प्रेम की ऊर्जा बहेगी, तुम भविष्य को स्पष्ट देख सकोगे। पुराने धर्म अतीत-निर्भर थे। मेरा धर्म
वर्तमान में जड़ें गड़ाता है और भविष्य में उसकी शाखाएं उठेंगी। यह धर्म है, जिसमें फूल खिलेंगे आनंद के, उत्सव के--रस से भरे
हुए, सुगंध से भरे हुए, रंग भरे हुए।
यह धर्म है इंद्रधनुषों का।
इंद्रधनुष प्रतीक है पृथ्वी को आकाश से जोड़ देने का। मैं पृथ्वी के भी
प्रेम में हूं और आकाश के भी प्रेम में। मैं पदार्थ के भी प्रेम में हूं और
परमात्मा के भी प्रेम में। मैं प्रेम के सेतु से परमात्मा और पदार्थ को जोड़ देना
चाहता हूं। मैं पदार्थवादी ही नहीं हूं, मैं अध्यात्मवादी ही
नहीं हूं; मैं दोनों एक साथ हूं। अगर तुम समझ सको पदार्थवाद
+ अध्यात्मवाद, तो तुम तंत्र को समझ लोगे। और जो तंत्र को
समझेगा वही मुझे समझ सकता है।
आज इतना ही।
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