राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
मौलिक क्रांति: ध्यान-प्रवचन-चौथा
प्रश्न-सार
1—क्या मेरी हस्ती को मिटाने की अनुकंपा करेंगे, ताकि मेरा अंतर्बीज प्रस्फुटित होकर पुष्पित एवं फलित हो सके।
2—कृष्ण की हिंसा को आपने हिटलर की हिंसा से भी
ज्यादा खतरनाक बताया। दूसरी ओर कृष्ण के बहुत से वचनों को आप अदभुत कहते हैं। क्या
हिंसा का इतना अनुमोदन करने वाला भी अदभुत सत्य-वचन कह सकता है?
पहला प्रश्न: भगवान,
किसी सूफी शायर ने कहा है--
मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे,
कि दाना खाक में मिल कर गुलो-गुलजार होता है।
भगवान, क्या मेरी हस्ती को
मिटाने की अनुकंपा करेंगे, ताकि मेरा अंतर्बीज प्रस्फुटित
होकर पुष्पित एवं फलित हो सके।
प्रेममूर्ति,
यह प्रश्न निश्चय ही बहुत विचारणीय है। इस प्रश्न में बहुत कुछ छिपा
है जो दिखाई नहीं देता। इस प्रश्न की जो मौलिक धारणा है, सदियों से धर्म उससे आच्छादित रहा है। और उस मौलिक धारणा के कारण ही
पृथ्वी पर धर्म घटित नहीं हो पाया। यह वक्तव्य किसी ने भी दिया हो, उसे जीवन की आधारभूत आधारशिलाओं का कोई बोध नहीं है। यह वक्तव्य
विरोधाभासी है। और ऐसे वक्तव्यों से नरक का रास्ता पटा हुआ पड़ा है। लेकिन चूंकि हम
इस तरह के विचार अनंत काल से सुनते रहे हैं, हम उन्हें
सुन-सुन कर बहरे हो गए हैं। हमने उन पर सोचना ही छोड़ दिया है। हम सम्मोहित हो गए
हैं। एक तरह की तंद्रा ने मनुष्य-जाति को पकड़ लिया है।
एडोल्फ हिटलर अपनी आत्म-कथा में कहता है कि झूठ और सत्य में मैंने
इतना ही फर्क देखा कि झूठ बार-बार दोहराया गया है तो सत्य बन गया है; और सत्य जब पहली दफे कहा जाता है तो झूठ मालूम पड़ता है।
एडोल्फ हिटलर की बात सौ प्रतिशत सही न हो, मगर निन्यानबे प्रतिशत तो सही है। पुनरुक्ति, झूठी
से झूठी बात को भी सत्य का आभास दे देती है।
जैसे यही सूत्र: "मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे।'
अब थोड़ा सोचो इस पर। अगर मर्तबा चाहते हो, तो अपनी हस्ती को मिटा दो। मगर मर्तबा किसलिए चाहते हो? मर्तबा किसके लिए चाहते हो? मर्तबा क्या है? अहंकार का नया नाम! अस्मिता की नयी घोषणा! एक तरफ कहा जा रहा है कि मिटा
दो अपनी हस्ती को, और दूसरी तरफ प्रलोभन दिया जा रहा
है--तत्क्षण--अगर मर्तबा चाहे। कोई अपनी हस्ती को मिटाने के लिए राजी भी होगा तो
सिर्फ इसलिए कि मर्तबा चाहता है।
ऐसे कहीं हस्ती मिटेगी? यह हस्ती मिटाने का
ढंग हुआ? यह तो हस्ती बचाने का ढंग हुआ। यह तो हस्ती को और
मर्तबा देने की प्रक्रिया हुई। यह तो हस्ती को सिंहासन देना है, सूली नहीं। यह तो हस्ती को नया शृंगार, नये
आभूषण...यह तो हस्ती को दुल्हन बना दिया। मगर दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि बहुत बार दोहराई गई हैं ये बातें।
जीसस के बहुत से वचन ऐसे हैं। जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो दरिद्र
हैं, क्योंकि प्रभु के राज्य में वे ही महान संपदा के
अधिकारी होंगे। तो हो जाओ दरिद्र, ताकि प्रभु के राज्य में
महान संपदा के अधिकारी हो सको! जीसस कहते हैं: धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि वे ही प्रभु के राज्य में सम्मानित होंगे। अगर सम्मान चाहते
हो--और कोई साधारण सम्मान नहीं, परमात्मा से सम्मान चाहते हो,
प्रभु के राज्य में सम्मान चाहते हो--तो हो जाओ विनम्र। जीसस कहते
हैं: जो इस जगत में अंतिम है, वही मेरे प्रभु के राज्य में
प्रथम होगा। तो हो जाओ अंतिम, अगर प्रथम होने की आकांक्षा
है।
इस विरोधाभास को ठीक से समझो। इस विरोधाभास ने ही सदियों से आदमी को
एक द्वंद्व में उलझाया हुआ है--एक ऐसे द्वंद्व में जिसमें आदमी खंडित हो गया, टुकड़े-टुकड़े हो गया। यह बात विरोधाभासी है, इसलिए
अनिवार्य रूप से तुम्हें विभाजित कर देगी। एक तरफ तुम विनम्र बनने में लग जाओगे और
दूसरी तरफ आकांक्षा को पोसोगे, पालोगे कि बस अब देर नहीं,
या कि देर भी है तो अंधेर नहीं। थोड़े ही दिन की बात और। जरा थोड़ी
प्रतीक्षा और। यूं भी जिंदगी कुछ बहुत लंबी नहीं। फिर अनंत काल तक प्रभु के राज्य
में मर्तबा मिलेगा, सम्मान मिलेगा, सत्कार
मिलेगा। तो झेल लो थोड़ी दरिद्रता, कर लो थोड़ा त्याग, ओढ़ लो विनम्रता की चादर।
मगर इस विनम्रता की चादर के पीछे कौन खेल खेल रहा है? वही अहंकार। इसलिए आमतौर से साधारण आदमी इतना अहंकारी नहीं होता जितने
तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनि, साधु-संत, महात्मा
अहंकारी होते हैं। साधारण आदमी का अहंकार भी बेचारे का साधारण होता है। एक मकान
बना लिया, कि थोड़ा दुकान में लाभ कर लिया, कि थोड़े अच्छे वस्त्र खरीद लिए। इन पर कोई बहुत बड़ा अहंकार टिक भी नहीं
सकता; ये आधारशिलाएं छोटी हैं। और फिर कोई मकान तुम्हारे ही
पास थोड़े ही है, करोड़ों लोगों के पास मकान हैं। और कितने ही
कीमती वस्त्र तुम पहन लो, करोड़ों लोग वही वस्त्र पहन रहे
हैं। यह अहंकार बहुत बड़ा नहीं हो सकता।
लेकिन साधु-संतों का अहंकार पारलौकिक है; इस जगत की बात नहीं, बड़ी तपश्चर्या से मिलता है,
बड़ी कठोर साधना से मिलता है, बहुत अप्राकृतिक
होने से और विकृत होने से मिलता है। इसलिए स्वभावतः ज्यादा बड़ा होता है, और ज्यादा भयंकर होता है।
तुम्हारा अहंकार सर्दी-जुकाम जैसा है, उनका अहंकार कैंसर
समझो। मगर सर्दी-जुकाम दिखाई पड़ता है, और कैंसर छिपा होता है
भीतर गहरे में। सिर्फ कोई चिकित्सक ही खोज सकता है। सर्दी-जुकाम को खोजने के लिए
किसी बहुत बड़े निदान की जरूरत नहीं है; तुम खुद ही जान जाते
हो। और सर्दी-जुकाम का कोई बहुत इलाज भी नहीं। कहते हैं कि अगर दवा लो तो सात दिन
में ठीक हो जाता है, और अगर दवा न लो तो एक सप्ताह में ठीक
हो जाता है। बीमारी ही इतनी छोटी है कि दवा और न दवा से क्या फर्क पड़ता है!
बीमारी जितनी गहरी हो, जितनी छुपी हो,
जितनी अप्रकट हो, उतनी ही मुश्किल हो जाती है।
और जब अहंकार विनम्रता के वस्त्र पहन लेता है, तब तो बड़ी
अड़चन हो जाती है। जब क्रोध दया का आवरण ओढ़ लेता है, फिर तो
कैसे खोजोगे! फिर तो बहुत पैनी आंख चाहिए। साधारणजन तो धोखे में आ ही जाएंगे। और
साधारणजन सदियों से धोखे में रहे हैं। तुमने जिनको पूजा है, उनको
पहचाना भी नहीं। तुमने उनको नहीं पूजा, उनके ढोंग को पूजा है,
उनके पाखंड को पूजा है। उन्होंने अपने चारों तरफ जो ओट खड़ी कर रखी
थी, उस ओट को पूजा है। उस ओट के पीछे छिपे हुए आदमी से तो
तुम्हारी पहचान भी नहीं हुई।
काश, तुम अपने साधु-संतों के अंतरतम में झांक सको तो तुम
बहुत हैरान हो जाओगे। तुम्हारे अपराधी भी उनसे कहीं ज्यादा निर्दोष पाए जाएंगे।
तुम्हारे पापी भी उनसे कहीं ज्यादा सरल-चित्त और ज्यादा सहज पाए जाएंगे। साधु-संत
बहुत तिरछे हो जाते हैं। सबसे बड़ा तिरछापन तो यह हो जाता है कि वे जो होते हैं,
उससे उलटा उनका आचरण होता है। और आचरण दिखाई पड़ता है, आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं। आत्मा तो छिपी होती है।
और इसीलिए मेरी बातें इतनी कठिन मालूम पड़ती हैं; क्योंकि मैं परदों के धोखे में नहीं आता। मैं परदे उघाड़ने में भरोसा करता
हूं। मैं घूंघट उठा देना चाहता हूं। घूंघटों के पीछे बड़े कुरूप चेहरे छिपे हुए
हैं। मगर तुमने देखा, अगर कोई स्त्री घूंघट मार कर रास्ते से
निकल जाए तो जो भी रास्ते पर उस घूंघट वाली स्त्री को मिलता है, उसी का मन होता है कि घूंघट के पीछे न मालूम कितना सौंदर्य छिपा हो! मेरे
हिसाब में घूंघट कुरूप स्त्रियों ने खोजा होगा। सुंदर स्त्री को घूंघट की क्या
जरूरत? लेकिन कितनी ही सुंदर स्त्री हो बिना घूंघट के,
देख ली तुमने, बात खत्म हो गई। घूंघट रहस्य
पैदा कर देता है।
और तुम्हारे साधु-संतों के घूंघट बड़े लंबे हैं। लाख मीरा कहे, घूंघट के पट खोल! वे नहीं खोलते। वे तो घूंघट को और बड़ा करते चले जाते
हैं।
तुम पूछते हो प्रेममूर्ति--
"मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे,
कि दाना खाक में मिल कर गुलो-गुलजार होता है।'
वह जो मर्तबा पाने की चाह है, वही तो मिटने न देगी;
वही तो बाधा है। वह जो गुलो-गुलजार हो जाने की आकांक्षा है, वह मिटने कैसे देगी? मिटना संभव तभी है जब उसके पीछे
कोई हेतु न हो। जब तक हेतु है तब तक अड़चन है।
मैं जिस स्कूल में विद्यार्थी था उसके प्रिंसिपल के आफिस में एक
सुभाषित बड़ी तख्ती पर लगा हुआ था। पहली ही बार जब मैं प्रिंसिपल के आफिस में
प्रविष्ट हुआ तो मैंने उनसे प्रार्थना की, इस तख्ती को यहां से
हटा दें।
वे चौंके। उन्होंने कहा कि इस तख्ती को जो भी देखा है, वही पसंद किया है। तुम्हें इसमें क्या एतराज है?
मैंने कहा, यह तख्ती पाखंड का आधार है।
उन्होंने कहा, क्या कहते हो! इतना प्यारा सुभाषित!
विवेकानंद का वचन था। वचन था: आदर चाहते हो यदि तो विनम्रता सीखो।
मैंने उनसे पूछा, जो आदर चाहता है, जिसकी चाह आदर की है, वह कैसे विनम्रता सीख सकता है?
और सीख भी लेगा तो ऊपर ही ऊपर होगी। चाह तो भीतर होगी। चाह तो यही
होगी कि अब मिले आदर, अब मिले आदर। बड़ी देर हुई जा रही है।
अब तक आदर क्यों नहीं मिला?
मैंने कहा, इस तख्ती को अलग कर दें।
इस तरह की तख्तियां ही आधारशिलाएं बन गई हैं। हमारे जीवन की पूरी की
पूरी सड़ांध इसी तरह के विरोधाभासी वक्तव्यों से भरी हुई है।
मिटना है प्रेममूर्ति; इसलिए नहीं कि मिटोगे
तो मर्तबा मिलेगा। मिटना है इसलिए कि तुमने जो अपने को अभी समझ रखा है, वह तुम हो ही नहीं। मिटना है इसलिए ताकि तुम जो नहीं हो वह समाप्त हो जाए,
और तुम जो हो वह प्रकट हो जाए। मर्तबा की बात ही नहीं है। आदर और
सम्मान का सवाल ही नहीं है। स्वर्ग के राज्य का अधिकार--ये सब प्रलोभन हैं। अहंकार
तुम्हारी भ्रांति है।
क्या तुम सोचते हो कि सांझ के अंधेरे में जब धुंधलका उतरता होता है, राह पर चलते हुए अगर तुमको रस्सी ऐसी भास जाए कि सांप है, और मैं तुमसे कहूं कि सांप नहीं है, रस्सी है;
यह लो दीया और जाकर देख लो; तो क्या तुम सोचते
हो जब तुम देख लोगे कि रस्सी है सांप नहीं, तो तुम्हें बड़ा
मर्तबा मिलेगा? बड़ा सम्मान मिलेगा? स्वर्ग
के राज्य में विशेष स्थान मिलेगा? जब तुम मर कर स्वर्ग
पहुंचोगे, क्या तुम सोचते हो बिस्मिल्ला खान शहनाई बजाएंगे?
कि आओ, पधारो! पलक-पांवड़े बिछाएंगे? देवी-देवता नाचेंगे? रस्सी रस्सी है, ऐसा दिखाई पड़ जाने में क्या मर्तबा? सिर्फ मूढ़ता मिट
गई, बस। सिर्फ एक भ्रांति थी, टूट गई,
बस।
जिस दिन जीसस पकड़े गए, जिस रात, उनके तथाकथित शिष्यों ने उनसे जो आखिरी बात पूछी वह बड़ी सोचने जैसी है।
अभद्र, और इस बात की सूचक कि जीसस के पास बुद्धुओं का जमाव
था। और बुद्धू किस कारण इकट्ठे थे वह भी साफ होता है उस बात से। वे जीसस की इन्हीं
बातों को सुन कर इकट्ठे हो गए थे, कि धन्य हैं गरीब, धन्य हैं दीन, क्योंकि वे ही समृद्धिशाली होंगे। जो
अंतिम हैं वही प्रथम होंगे।
जो यहां प्रथम नहीं हो सकते, उन्होंने सोचा होगा
यह मौका चूकने जैसा नहीं है। यहां तो प्रथम होना बड़ा कठिन है, बड़ा संघर्ष है, बड़ी प्रतियोगिता है--गलाघोंट
प्रतियोगिता है। प्रथम होना कुछ आसान नहीं। इधर तो प्रथम होने का मतलब है कि कुछ
मर्तबा हो भी थोड़ा-बहुत तो वह भी गया। यहां तो सौ-सौ जूते खाओ तब तमाशा घुस कर देख
सकोगे। यूं नहीं देख सकते। यहां तो बड़ी कुश्तमकुश्ती होगी। हर कोई दचकेगा-पटकेगा।
राजनेताओं की गति देखते हो! कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है, कोई टोपी ले भागा, कोई जाकिट उतार रहा है।
इसीलिए तो राजनेता चूड़ीदार पाजामा पहनते हैं, कि सब छिन जाए मगर उनका पाजामा नहीं निकाल सकते। चूड़ीदार पाजामा निकालने
के लिए पहलवान चाहिए दो। और कम से कम वक्त लगेगा, तब तक वे
शोरगुल मचा देंगे। चूड़ीदार पाजामा कुछ यूं ही नहीं चुना, बड़ी
होशियारी से चुना। मगर न सही चूड़ीदार पाजामा उतरे, लोग नाड़ा
ही ले भागते हैं।
जो कुर्सी पर बैठे हैं उनसे पूछो, किस तरह उनको जकड़ कर
बैठना पड़ता है कुर्सी को! पकड़ कर बैठना पड़ता है कुर्सी को! कुर्सी बैठने का स्थान
थोड़े ही है, पकड़ने का स्थान है। बैठने वगैरह की फुर्सत कहां
है! जरा आराम किया कि गए। बैठे ही हैं लोग चारों तरफ इसी प्रतीक्षा में कि जरा
झपकी लो कि वे तुम्हें धक्का दे दें। जो बैठ गया है, वह भी
तो इसी तरह बैठा है--किसी और को धक्का देकर बैठा है, किसी और
को चारों खाने चित्त कर दिया है, तब बैठा है। यह तो
मल्लयुद्ध है यहां।
तो स्वभावतः जिन्होंने देखा कि यहां तो कोई उपाय नहीं।...जीसस के
अनुयायी कौन थे? कोई मछुआ, कोई बढ़ई--गैर
पढ़े-लिखे लोग, साधारण लोग। उन्होंने सोचा यह मौका चूकने जैसा
नहीं है। यहां तो हम अंतिम हैं ही, अब और क्या अंतिम होना
है! क्यों मौका चूकें, वहां प्रथम हो लेंगे। उस आखिरी रात यह
बात जाहिर हो गई।
जरा सोचो! सदगुरु विदा हो रहा हो और शिष्य ऐसी बेहूदी बातें पूछें!
जीसस ने कहा कि कुछ पूछना है? ठीक वैसे ही कहा जैसे बुद्ध ने
कहा था अपने शिष्यों से, अंतिम विदा के क्षण में, कि बस आज यह आखिरी सूरज का उगना है। इसके बाद अब मैं कभी इस सूरज को उगते
नहीं देखूंगा। तो कुछ पूछना हो तो पूछ लो।
लेकिन बुद्ध के पास अदभुत लोग थे। बुद्ध मनुष्य-जाति के इतिहास में
इसीलिए महत्वपूर्ण हैं कि उनके पास शिष्यों का एक अपूर्व जमाव था। एक भी प्रश्न
नहीं उठा, एक सन्नाटा छा गया। लोगों ने कहा कि हमें जो पूछना था,
उसके भी आपने उत्तर दे दिए हैं; और जो कभी
हमने सोचा भी नहीं था कि पूछना है, उसके भी उत्तर दे दिए
हैं। हमारे कोई प्रश्न नहीं हैं। हम निष्प्रश्न हो गए हैं। हमारा सब मन और मन की
उलझनें, जमाना हुआ समाप्त हो गई हैं। कोई समस्या नहीं है। आप
चिंता न करें। आप निश्चिंत विदा हों। हम तृप्त हैं।
यह एक दृश्य।
और जीसस पकड़े जाने वाले हैं, खबर आ गई है कि
दुश्मन आ रहा है। आवाजें आ रही हैं पास के ही रास्ते से। लोग मशालें लिए हुए आधी
रात में जीसस को पकड़ने आ रहे हैं। तो जीसस पूछते हैं, कुछ
पूछना है, क्योंकि शायद दुबारा अब मेरात्तुम्हारा मिलना न हो
सके!
तो तुम कल्पना कर सकते हो क्या पूछा शिष्यों ने?
शिष्यों ने पूछा, एक ही बात पूछनी है कि प्रभु के
राज्य में निश्चय ही आप तो परमात्मा के दाएं हाथ होंगे, आप
तो उनके दाएं हाथ के पास खड़े होंगे। परमात्मा के राज्य में परमात्मा प्रथम,
आप नंबर दो होंगे। मगर नंबर तीन हममें से कौन होगा? नंबर चार कौन होगा? बारह शिष्य थे। तो हमारी क्या
स्थिति होगी, यह बताते जाएं; फिर मिलना
हो, न हो!
यह सोचते हो! ये प्रश्न कैसे उठे? और मैं यह नहीं
कहूंगा कि इसके लिए सिर्फ शिष्य जिम्मेवार थे। जीसस भी जिम्मेवार हैं। क्योंकि यही
जिंदगी भर वे सिखा रहे थे लोगों को कि अगर तुम यहां अंतिम हो तो वहां प्रथम होओगे;
अगर यहां दरिद्र हो तो वहां संपत्ति के मालिक होओगे; अगर यहां विनम्र हो तो वहां मर्तबा मिलेगा। इसलिए मैं यह नहीं कह सकता कि
सिर्फ शिष्य जिम्मेवार हैं। जीसस कहीं ज्यादा जिम्मेवार हैं।
यह बात ही व्यर्थ है। यह वही लोभ, वही वासना--नये आयाम
में, लेकिन कुछ भेद नहीं। वासना वासना है, चाहे धन यहां चाहो और चाहे धन परलोक में चाहो। लोभ लोभ है, चाहे यहां इकट्ठा करना चाहो और चाहे परलोक में पुण्य इकट्ठा करना चाहो।
मैं दिल्ली में था। जुगल किशोर बिड़ला मिलना चाहते थे। मेरी कुछ बहुत
उत्सुकता नहीं थी, लेकिन जिनके घर मेहमान था, सेठ
गोविंददास, उनके बहुत संबंध थे जुगल किशोर बिड़ला से। दोनों
गांधीवादी, दोनों गांधी के पुराने अनुयायी। उन्होंने बहुत
आग्रह किया कि इनकार करना ठीक नहीं। वृद्ध हैं वे और मिलने को खुद उत्सुक हैं,
तो मिल लेने में क्या हर्ज है! मैंने कहा, ठीक।
जुगल किशोर बिड़ला ने मुझसे जो पूछा वह यह कि मैंने इतने मंदिर बनवाए, इतनी धर्मशालाएं बनवाईं, इतना दान-पुण्य किया--इस
सबका मुझे क्या फल मिलेगा परलोक में?
मैंने उनसे कहा, यहां भी लोभ, वहां भी लोभ! यहां भी मारवाड़ी रहे, वहां भी मारवाड़ी!
मर कर भी सिलसिला तुम अपना ही जारी रखोगे? इसलिए मंदिर बनवाए
हैं? तो फिर वे मंदिर न रहे। इसलिए धर्मशालाएं बनवाई हैं?
तो वे धर्मशालाएं न रहीं। यह तो एक तरह की रिश्वत हुई। यह तो एक तरह
का सौदा हुआ। यह तो सीधे धंधे की बात हुई। अब भीतर इरादा होगा कि मूल तो वसूल करना
ही है, चक्रवृद्धि ब्याज भी लेना है। मैंने उनसे कहा,
कुछ इसका फल नहीं होगा। पहली तो बात यह कि मैं सोचता ही नहीं कि आप
स्वर्ग जा सकते हैं। अगर गए भी तो मंदिरों, धर्मशालाओं और
इत्यादि जो तुम सोचते हो कि पुण्य-कार्य किए हैं, उनके कारण
न जाओगे। अगर जाओगे, तो एम्बेसेडर कार जो बनाई, उसके कारण जाओगे।
वे कहने लगे, मतलब? एम्बेसेडर कार का इससे
क्या संबंध?
मैंने कहा, इसका संबंध है। एम्बेसेडर कार में जो भी लोग बैठते
हैं, राम-राम करके यात्रा करनी पड़ती है। दचके पर दचके आते
हैं। तो जितने लोगों को तुमने राम-राम करवा दिया है--रामनाम सत्य! रामनाम जान्यो
नहीं, तुमने जनवा दिया। तुमने जो यह अदभुत चीज बनाई है
एम्बेसेडर कार, जिसमें हर चीज आवाज करती है सिर्फ हार्न को
छोड़ कर! इस चमत्कार के कारण तुम अगर चले जाओ स्वर्ग तो बात अलग, अन्यथा और तो मैं कोई कारण नहीं देखता हूं।
मैंने उनसे कहा, सच बात तो यह है कि न कोई स्वर्ग
है, न कोई नर्क है। ये पंडित-पुरोहितों की ईजादें हैं। ये
तुम्हारे भीतर वासना की अग्नि में ईंधन डालना है। पंडित-पुरोहित भलीभांति जानते
हैं कि तुम्हारे भीतर सबसे महत्वपूर्ण बातें दो हैं--लोभ और भय। अगर मनुष्य का
शोषण करना है तो बस इन दो ही के आधार पर हो सकता है। भयभीत करो--नर्क का भय दिखाओ;
और प्रलोभित करो--स्वर्ग का प्रलोभन दिखाओ।
लेकिन, सुन ली उन्होंने बात, रुची
नहीं। कैसे रुचे! कहने लगे, तो सब मंदिर जो बनाए व्यर्थ गए?
मैंने कहा, बिलकुल व्यर्थ गए।
कहने लगे, आप अजीब आदमी हैं। अब तक मैंने न मालूम कितने
साधु-संतों से यह बात पूछी, सबने कहा कि नहीं, आपने महान कार्य किया है! मैंने कहा, वे साधु-संत
नहीं हैं। वे उसी लंबे धोखे और षडयंत्र के भागीदार हैं और हिस्सेदार हैं, जो दोहरे काम करते रहे हैं; जिसने अमीरों को चूसा
दान के नाम पर और गरीबों को सांत्वना दी कि मत घबड़ाओ, तुम्हारी
गरीबी बड़े फल लाएगी, तुम दरिद्रनारायण हो!
अब यह बड़े मजे की बात है। महात्मा गांधी के बड़े से बड़े शिष्य थे
जमनालाल बजाज। महात्मा गांधी को साबरमती से सेवाग्राम वर्धा ले आने वाले वही थे।
उन्होंने ही गांधी का आश्रम निर्मित किया, धन लगाया। गांधी
उन्हें अपना पुत्रवत मानते थे। और जब उन्होंने मंदिर बनाया--मंदिर तो बनाना ही
पड़ता है, नहीं तो स्वर्ग जाओगे कैसे--तो मंदिर का नाम रखा:
लक्ष्मीनारायण मंदिर!
मैं उनके घर मेहमान था। जमनालाल बजाज तो चल चुके थे, लेकिन उनकी पत्नी, जानकी देवी बजाज जिंदा थीं। मैंने
उनसे पूछा कि गांधी के बड़े भक्त थे, इतने भक्त कि गांधी उनको
अपना बेटा कहते थे। और गांधी जिंदगी भर यह बकवास लगाए रखे दरिद्रनारायण की;
कम से कम मंदिर का नाम दरिद्रनारायण मंदिर रखना था। लक्ष्मीनारायण
मंदिर! यह शोभा देता है? यह उचित है? और
न गांधी ने एतराज उठाया और न विनोबा ने एतराज उठाया। ये सब लक्ष्मीनारायण के मंदिर
के समर्थन में रहे आए!
ये पंडित-पुरोहित और साधु-संतों की तथाकथित जमात बड़ी होशियार है।
धनपति को कहती है कि लक्ष्मीनारायण, गरीब को कहती है
दरिद्रनारायण। धनपति को कहती है कि तुम्हें धन मिला है तुम्हारे पिछले जन्मों के
पुण्यों के कारण। और गरीब को कहते हैं कि घबड़ाओ मत, गरीबी को
शांति से, संतोष से झेल लो; आगे बड़ा
मर्तबा मिलेगा।
इसीलिए तो इस देश में पांच हजार वर्षों में कोई क्रांति नहीं हो सकी।
क्रांति हो कैसे? गरीब को सांत्वना दी जा रही है कि स्वर्ग में तू
प्रथम होगा, मत घबड़ा। वह स्वर्ग की आशा में बैठा हुआ है। वह
कल की आशा में बैठा हुआ है। कल, जो कि कभी आता नहीं। कल,
जो कि सरासर झूठ है।
प्रेममूर्ति, पहली तो बात यह है--मर्तबा चाहो ही मत। मर्तबे का
क्या करोगे? मर्तबे का मतलब क्या होता है? और लोग तुम्हें सम्मान दें! और लोगों से सम्मान हम चाहते क्यों हैं?
इसीलिए चाहते हैं कि हम स्वयं में अपने भीतर एक हीनता की ग्रंथि
अनुभव करते हैं।
यह हमारा मनोविज्ञान है जिसको ठीक-ठीक समझ लेना चाहिए। जो व्यक्ति
अपने भीतर हीनता की ग्रंथि अनुभव करता है, उस हीनता के बोध के
कारण ही वह दूसरों से सम्मान चाहता है, ताकि किसी तरह भीतर
का गङ्ढा भर जाए। मगर भरता नहीं यह गङ्ढा, क्योंकि बाहर का
सम्मान भीतर के गङ्ढे को भरेगा कैसे? कोई उपाय नहीं इस तरह
भरने का। बाहर की संपत्ति भीतर की दरिद्रता को नहीं मिटा सकती है। न बाहर का यश,
न बाहर की प्रतिष्ठा भीतर किसी तरह के अंतर ला सकती है। भीतर और
बाहर के जगत विपरीत आयामों में फैले हुए हैं।
इसलिए जो लोग बाहर धन की दौड़ में लगे हैं, उनका कारण भी एक है--भीतर निर्धनता अनुभव करते हैं। अब कैसे इस निर्धनता
को झुठलाएं? बाहर धन का ढेर इकट्ठा कर दें, दुनिया के सामने प्रमाणित कर दें कि मैं गरीब नहीं हूं।
यह हो सकता है, दुनिया के सामने प्रमाणित हो जाए कि तुम गरीब नहीं
हो। मगर क्या तुम स्वयं अपने भीतर अमीर हो जाओगे? धन तो बाहर
है, बाहर ही रहेगा। भीतर तुम जितने खाली थे, शायद उससे भी ज्यादा खाली मालूम पड़ोगे, क्योंकि बाहर
के धन की पृष्ठभूमि में, तुलना में...।
और जीवन में तुलना बड़ी महत्वपूर्ण है, चीजें छोटी या बड़ी
तुलना में दिखाई पड़ती हैं।
प्रसिद्ध कहानी है कि अकबर ने एक दिन दरबार में आकर एक लकीर खींच दी
और अपने दरबारियों से कहा कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। कोई न कर सका। बिना छुए!
सीधा गणित यही था कि छुएं तो छोटी कर दें, मिटा दें लकीर का एक
हिस्सा; आधी लकीर मिटा दें तो आधी छोटी हो गई। मगर छूना मत
लकीर को और छोटी कर देना। बीरबल उठा अंत में और उसने एक बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे
खींच दी। उस लकीर को छुआ नहीं और लकीर छोटी हो गई।
अलबर्ट आइंस्टीन ने सापेक्षवाद का जो सिद्धांत खोजा, बीरबल ने उसका ही प्रयोग लकीर के पास एक बड़ी लकीर खींच कर कर दिया।
तुम्हारे बाहर जब धन का ढेर लग जाएगा, धन का गौरीशंकर तुम
अपने चारों तरफ खड़ा कर लोगे, पहाड़, तब
तुम्हें अपनी दरिद्रता और खलेगी। तुम्हें भीतर का खालीपन और भारी लगेगा। बाहर की
पहाड़ियां तुम्हारे भीतर की खाई को और गहरा करके दिखलाएंगी।
बाहर प्रतिष्ठा मिल सकती है, सम्मान मिल सकता है,
सस्ता है मामला, जरा सी शर्तें पूरी करनी हैं;
लोगों की अपेक्षाएं पूरी कर दो, और कोई बहुत
मंहगा मामला नहीं है। न मालूम कितने मूढ़ कर लेते हैं। सच तो यह है कि बुद्धिमानी
की कोई जरूरत ही नहीं। अगर लोग कहते हैं उपवास करो, तो उपवास
कर लो। अगर लोग कहते हैं कि सिर के बल खड़े हो जाओ तो सिर के बल खड़े हो जाओ। और
सम्मान मिलना शुरू हो जाएगा।
मैं एक गांव से गुजरा। गांव के लोगों ने कहा कि बड़े संयोग की बात है
कि खड़े श्री बाबा भी आज गांव में हैं।
मैंने कहा, उनकी खूबी क्या है?
उन्होंने कहा, खूबी! वे आज वर्षों से खड़े हुए हैं।
मैंने कहा, और भी कोई खूबी है?
आप भी क्या बातें करते हैं, वे कहने लगे, यही क्या कोई कम खूबी है कि वे सिर्फ खड़े ही रहते हैं, बैठते ही नहीं!
रात में भी वे बैसाखियों पर खड़े रहते थे, छप्पर से रस्सी बांध कर उसको पकड़े रखते थे। और दो आदमी उनको सम्हाले रखते
थे कि कहीं गिर न जाएं।
जब मैं उस रास्ते से गुजरा जहां वे खड़े हुए थे, तो मैंने देखा कि अब वे बैठना भी चाहें तो बैठ नहीं सकते; क्योंकि पैर उनके सूज गए हैं, हाथी-पांव हो गए हैं।
सारा शरीर तो ऊपर सूख गया है, सूख ही जाएगा। सारा खून पैरों
में ही आ गया है। उनकी दयनीय दशा मैंने देखी। आंखें निस्तेज हो गई हैं, चेहरा मुर्दा है, सिर्फ पैर जिंदा रह गए हैं। और
सम्मान चल रहा है! भीड़ लगी है चरण छूने वालों की, फूल चढ़ाने
वालों की! रुपये चढ़ाए जा रहे हैं, गहने चढ़ाए जा रहे हैं।
खड़े रहने के लिए कोई बुद्धिमत्ता की जरूरत है? सिर के बल खड़े होने के लिए कोई बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है? योगासन साधने के लिए कोई बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है? जितनी कम बुद्धि हो उतनी आसानी से हो जाएंगे ये काम। बुद्धिमान आदमी थोड़ा
विचारेगा भी। बुद्धू इन कामों को जल्दी कर लेगा।
मर्तबा मिल सकता है, आदर मिल सकता है, अहंकार को खूब पोषण मिल सकता है, बस समाज की मूढ़
अपेक्षाओं को पूरा कर दो। जिस समाज के भीतर जीते हो, उस समाज
की जो आकांक्षा है, उसको पूरी कर दो। मगर इससे तुम्हारे भीतर
की हीनता नहीं मिटेगी। वह तो बनी ही रहेगी।
भीतर की हीनता मिटती है सिर्फ भीतर प्रवेश करने से। वह जो भीतर का
खालीपन है, उसको भरना नहीं है, क्योंकि वही
तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। वह जो तुम्हारे भीतर शून्य है, उसको
पहचानो। उसी शून्य में सब राज छिपा है। वही शून्य ध्यान है। उसी शून्य का
साक्षात्कार समाधि है।
तुम्हें मिटना नहीं है; तुमने जो अपने को समझ
रखा है, वह तुम नहीं हो, इतना जानना
है। बस इसी जानने में मिटना हो गया। और तब यह सवाल उठता ही नहीं कि मर्तबा मिलेगा।
सत्य का अनुभव पर्याप्त है। सत्य का अनुभव परम संतुष्टि ले आता है।
लेकिन पहले से ही ये इरादे रख कर मत चलो--
"मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे।'
अगर तू मर्तबा चाहे! बस भूल हो गई। फिर तुम मिटाओगे भी हस्ती को तो भी
भीतर तो मर्तबा चाहोगे, इसीलिए मिटा रहे हो। कैसे मिटा पाओगे? सब झूठ हो जाएगा।
मैं तुमसे कहता हूं कि पहचान लो अपनी हस्ती को, तो जो नहीं है वह मिट जाएगी और जो है वह प्रकट हो जाएगी। और जो है वह
प्रकट हो जाए, तो ही असली बहार आती है, वसंत आता है।
"कि दाना खाक में मिल कर गुलो-गुलजार होता है।'
निश्चित ही बीज जब मिट्टी में मिल जाता है तो ही अंकुरित होता है, तो ही उसमें फूल खिलते हैं, पल्लवित होता है,
फल लगते हैं। मगर एक बात खयाल रखना कि तुम्हारा जीवन बीज और वृक्ष
के जीवन से बहुत भिन्न है। तुम्हारे भीतर बीज को नहीं मिटना है। अहंकार तुम्हारा
बीज नहीं है, सिर्फ भ्रांति है, आभास
है, रस्सी में देखा गया सांप है।
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे--साहबदास। साधु-संत शंकराचार्य के
बाद इस प्रतीक का बहुत उपयोग करते रहे हैं--रस्सी में सांप। यह संसार सब माया है।
साहबदास जी यह निरंतर समझाते थे कि यह संसार माया है। यह तो रस्सी में जैसे सांप।
बहुत मैंने सुना उनको। मैं उनका खास सुनने वाला था। क्योंकि वे
ऐसी-ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें कहते थे। और मैं उनसे ऐसे प्रश्न पूछता था कि वे हर
प्रश्न का जवाब देने को तैयार रहते थे। और हर चीज को सिद्ध करते थे कि उसका उदगम
वेद में है। ऐसी-ऐसी चीजों का उदगम वेद में है कि जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर
सकते। जैसे मैंने उनसे पूछा कि रेलगाड़ी, इसका उदगम वेद में
कहां है? कई दिन खोजबीन करने के बाद उन्होंने कहा, इसका वेद में उदगम है, क्योंकि यह कहा गया है कि
परमात्मा ने सब सरकती हुई चीजें बनाईं। रेलगाड़ी यानी सरकती हुई चीज। बड़े खोजी थे!
वेद में सब होना ही चाहिए।
उनकी यह सुनते-सुनते बकवास कि यह संसार सब माया है...। और उनके जीवन
को मैं देखता था और उनकी बातें सुनता था। बड़ा मठ था कबीरपंथियों का और उसके वे
महंत थे। उनका बड़ा बगीचा था। मैं उनके बगीचे में अक्सर पहुंच जाता था उनके फल
चुराने। एक दिन उन्होंने मुझे पकड़ लिया। मैंने कहा, सब माया है, साहबदास जी! जैसे रस्सी में सांप का भ्रम। कहां फल! कहां वृक्ष! कहां मैं!
कहां आप!
कहने लगे, ये ज्ञान की बातें यहां न करो।
मैंने कहा, आपसे ही सुनी हैं।
मैं उनके कुएं में स्नान करता था, उससे वे बहुत नाराज
होते थे। उनका कुआं प्यारा था, काफी बड़ा था और ज्यादा गहरा
भी नहीं था, इसलिए सीधे ऊपर से छलांग लगाई जा सकती थी। और
उसकी सफाई के लिए उन्होंने लोहे की सीढ़ियां लगा रखी थीं, इसलिए
लौटने में कोई अड़चन न थी। एक दिन उन्होंने मुझे पकड़ लिया कुएं के भीतर। वे एक बांस
ले आए और मुझे बांस से मारें।
मैंने उनसे कहा, साहबदास जी, भूल गए आप, यह सब संसार माया है! अब माया कुआं,
माया जल, माया मैं।
उन्होंने कहा कि आज तुझे ठीक करके रहूंगा। आज तुझे निकलने नहीं दूंगा।
और अपने एक शिष्य को कहा कि जाकर इनके पिता को बुला कर लाओ--पिता मेरे उनके दोस्त
थे--क्योंकि आज रंगे हाथ इसे पकड़ लिया है। मेरा कुआं बरबाद किए दे रहा है।
मैंने कहा, आप भेज तो रहे हैं वह ठीक, मगर
मुझे बहुत जोर से पेशाब लगी है। अगर एक सेकेंड और मुझे कुएं के भीतर रहना पड़ा,
फिर मैं आपको भरोसा नहीं देता। रोको उस आदमी को, नहीं तो पछताओगे।
जल्दी से मुझे बाहर निकाला और कहने लगे कि भइया तू माफ कर, यह काम अब मत करना कम से कम, यही हम पानी पीते हैं।
मैंने कहा, क्या फर्क पड़ता है, सब माया है।
उनकी बातें सुन-सुन कर कि यह सब रज्जु में सांप...। वे मेरी गली से
निकलते थे, पड़ोस से, क्योंकि पीछे मेरे
मकान के उनका मठ था। तो रोज सांझ को प्रवचन देने के बाद वे गली से गुजरते थे।
मैंने देखा कि प्रयोग कर लेना ठीक है। अगर ये कहते हैं सच में ही तो इतना बोध तो
इनको होगा। तो बाजार में एक आदमी सांप बेच रहा था--कागज के सांप--वह मैं खरीद लाया
और एक पतले धागे में बांध कर अपने घर के भीतर छिप रहा।
वे निकले कोई नौ बजे रात। मैंने उस सांप को धीरे-धीरे रस्सी से खींचना
शुरू किया। जैसे ही उन्होंने सांप देखा, क्या भागे! घबड़ाहट
में गिर पड़े, फ्रैक्चर हो गया।
मैं पकड़ा गया। लेकिन मैंने कहा कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। ये रोज
समझाते हैं कि सारा संसार रस्सी में सांप जैसा है, तो मैंने सोचा कम से
कम इतना बोध तो इनको होगा ही कि झूठे सांप से ये धोखा न खाएंगे। ये झूठे सांप से
धोखा खा गए! अब इन्होंने अगर अपनी हड्डी तोड़ ली है तो मेरा कोई जिम्मा नहीं। मेरा
क्या कसूर है? मैं तो सिर्फ एक झूठे सांप को चला रहा था। यह
संयोग की बात है कि ये निकल आए, कोई इनके लिए ही नहीं बैठा
था। और कम से कम इनको तो सिद्ध करना था कि बेफिक्री से निकल जाते। मगर भागे क्यों?
घबड़ाए क्यों?
वह आखिरी दिन था, फिर उन्होंने संसार रस्सी में
सांपवत है, ऐसा कहना बंद कर दिया। कम से कम जब मैं उनकी सभा
में जाता, तब वे नहीं कहते थे। क्योंकि जैसे ही मैंने देखा
कि अब ये कहने जा रहे हैं, कि मैं हाथ ऊपर कर देता कि खयाल रखना;
सारी बात खोल दूंगा।
मनुष्य और उसके सहस्रदल कमल के खुलने के बीच ठीक वैसा ही नाता नहीं है
जैसा बीज और वृक्ष के बीच। बीज तो यथार्थ है, सत्य है; लेकिन मनुष्य का अहंकार तो बिलकुल अयथार्थ है, असत्य
है।
मैं तुमसे कहता हूं संसार सत्य है। मैं नहीं कहता कि संसार माया है।
इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें तुम्हारे जीवन को विकृत करने का कारण बनी हैं। संसार
परिपूर्ण सत्य है। लेकिन अगर कोई चीज असत्य है, तो तुम्हारा अहंकार
है। अहंकार केवल आभास है।
इसलिए मिटाना नहीं है प्रेममूर्ति, सिर्फ देखना है।
देखते ही मिट जाता है। सिर्फ भीतर रोशनी जलानी है ध्यान की। ध्यान का दीया जला कि
अहंकार विदा हुआ। और तब आ जाता है वसंत। तब खिल उठते हैं फूल। तब जीवन सुगंध से भर
जाता है।
मैं अहंकार मिटाने को नहीं कहता। क्योंकि जब भी किसी चीज को मिटाने को
कहा जाएगा, तो आदमी पूछेगा--क्यों? कोई
हेतु तो होना चाहिए। मिटाने का श्रम करना है; बनी-बनाई चीज
को गिराना है; जिंदगी भर जिसको सजाया है, संवारा है, उसको समाप्त करना है, अरथी पर चढ़ाना है--क्यों? उसी क्यों का उत्तर ये
तुम्हारे धर्मगुरु दे रहे हैं--मर्तबा मिलेगा, इसलिए;
स्वर्ग का राज्य मिलेगा, इसलिए; स्वर्ग में पुण्यों का लाभ मिलेगा, इसलिए। फिर हेतु
देना जरूरी हो जाता है।
मैं तुमसे मिटाने को नहीं कहता।
और मिटाने की बात में यह तुमने मान ही लिया कि अहंकार सत्य है। और
सत्य को क्या मिटाया जा सकता है? मिटाने की बात में तुमने यह
स्वीकृति ही दे दी कि अहंकार एक तथ्य है जिसको मिटाना है। तुम्हारी स्वीकृति उसे
और मजबूत करेगी। तुम जितना मिटाने की कोशिश करोगे, वह उतना
मजबूत होगा। क्योंकि भ्रांति तुम्हारी कायम है।
इसलिए तुम देखोगे तथाकथित विनम्र लोग, जो हमेशा कहते हैं कि
हम तो आपके पैर की धूल हैं, जरा इनके चेहरों पर देखो। यूं तो
कहते हैं पैर की धूल हैं, जरा इनकी नाक पर पढ़ो तो अहंकार
लिखा हुआ है। ये कह ही इसीलिए रहे हैं कि हम आपके पैर की धूल हैं कि ताकि मर्तबा
मिले। इनके कहने के पीछे इरादे कुछ और हैं।
ये विनम्रता के धोखे अहंकार का बचाव हैं। यह अहंकार को और भी सौंदर्य
देना है। एक झूठ को और सौंदर्य देना है, और रंग देना है।
नहीं, मैं तुमसे मिटाने को नहीं कहता। मिटाने की बात तो तब
उठती है जब कुछ हो। अहंकार है ही नहीं।
बोधिधर्म से सम्राट वू ने पूछा था कि मैं अहंकार से बहुत पीड़ित हूं।
लाख उपाय किए मिटाने के, यह मिटता नहीं। आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। अब आप आ गए
हैं भारत से यात्रा करके चीन। और मैंने बड़ी प्यारी कहानियां आपके संबंध में सुनी
हैं। क्या आप मेरे अहंकार को मिटा सकते हैं? मैं तो हार गया,
मैं तो जो कर सकता था किया। जो मुझसे कहा गया किया। जो साधनाएं,
जो तपश्चर्या मुझसे कही गई मैंने की। लेकिन मैं पाता हूं कि अहंकार
तो बच ही जाता है; कहीं न कहीं, किसी
कोने-कातर में छिप ही जाता है; फिर-फिर लौट आता है, पीछे के दरवाजे से लौट आता है। यहां से फेंको, पीछे
के दरवाजे से आ जाता है। दरवाजे बंद करो, खिड़कियों से आ जाता
है। खिड़कियां बंद करो, रंध्रों से आ जाता है। मगर जरूर आ
जाता है; अनिवार्यरूपेण आ जाता है। अब मैं हार गया।
कम से कम एक बात तो वू ने ठीक कही। ईमानदार आदमी था। इतनी परख उसने
रखी कि मेरे मिटाने के सारे क्रम व्यर्थ हो गए हैं। सारे उपक्रम असार गए हैं।
बोधिधर्म ने कहा, फिर यूं करो, तुम नहीं मिटा सके, मैं मिटा दूंगा। सुबह तीन बजे
तुम आ जाओ, मैं जहां ठहरा हूं पहाड़ी पर। मगर अकेले आना।
सम्राट वू ने कहा, ठीक।
और जब वह सीढ़ियां उतर रहा था उस मंदिर की जिसमें बोधिधर्म ठहरे थे, तो बोधिधर्म ने चिल्ला कर कहा कि एक बात और खयाल रखना, अपने अहंकार को साथ ले आना, नहीं तो मैं खत्म कैसे
करूंगा! ऐसा न हो कि अहंकार को घर ही छोड़ आओ। अकेले आना, इसका
यह मतलब नहीं है कि अहंकार को घर छोड़ आना। अकेले आना, मतलब
यह भीड़-भाड़ दरबारियों की, ये खुशामदियों की, यह चमचों का जुलूस साथ मत लाना, अकेले आना। मगर
अहंकार को जरूर ले आना, भूल-चूक न करना; क्योंकि तुम लाओगे तो ही तो मैं उसको खत्म कर सकूंगा।
सम्राट वू थोड़ा हैरान हुआ कि यह आदमी होश में है या विक्षिप्त है!
आदमी देखने में तो अदभुत मालूम होता है। इसके पास की आभा, इसकी ज्योति, इसकी आंखों की धार, इसके वचनों की चोट! मगर यह क्या बात कि अहंकार को भूल मत आना। अरे अहंकार
तो भीतर है, भूल कहां से आऊंगा! अगर अहंकार को बाहर ही रख
सकता तो मैं खुद ही छुटकारा न पा लेता! रख कर बाहर, निकाल कर
तलवार खंड-खंड कर देता कभी का। अहंकार को पकड़ ही नहीं पाता हूं, भूल कैसे आऊंगा? अहंकार तो भीतर है, सो मेरे साथ आएगा। यह क्या बात कही!
सो न सका रात। सोचने लगा, जाऊं या न जाऊं! तीन
बजे रात, अंधेरी रात, बिना किसी को साथ
लिए जाना, और यह आदमी पता नहीं क्या करेगा! और आज तक किसी ने
मुझसे नहीं कहा कि आओ मैं तुम्हारा अहंकार खत्म कर दूं। कुछ मार-पीट न करने लगे।
और डंडा रखता था बोधिधर्म। और बोधिधर्म की आंखें बड़ी थीं। और उसकी
आंखें देख कर कोई डर जाए। और उसके हाथ का डंडा। और उसके शब्द भी बड़े धार वाले थे।
तलवारें थीं उसके शब्द, चोट बेरहमी से करता था।
थोड़ा संकोच में था--जाऊं न जाऊं, जाऊं न जाऊं। रात भर
सो न सका। लेकिन आकर्षण भी लगता था कि एक आदमी ने तो पहली दफे जीवन में कहा है कि
मिटा दूंगा। फिर दुबारा ऐसा आदमी मिले न मिले। खतरा लेने जैसा है। अरे बहुत से
बहुत डंडे मारेगा और क्या करेगा! कोई मार ही न डालेगा।
सम्राट आया। पहली बात बोधिधर्म ने पूछी, अहंकार ले आए कि नहीं?
सम्राट ने कहा, आप भी कैसी बातें करते हैं! रात भर मैं सो न सका इसी
बात के कारण, अब फिर वही बात। अरे अहंकार मेरे भीतर है;
छोड़ना भी चाहूं तो छूटता नहीं। भूल कहां आऊंगा? एक क्षण को नहीं भूलता। हर घड़ी पकड़े है मुझे, जकड़े
है मुझे।
बोधिधर्म ने कहा, तो तुम कहते हो भीतर है।
सम्राट ने कहा, निश्चित।
तो बोधिधर्म ने कहा, आंख बंद कर। मैं यह डंडा लिए
तेरे सामने बैठा हूं, तू भीतर खोज। और जब तुझे भीतर मिल जाए
तो बता देना कि मिल गया। एक ही हाथ में सफाया कर दूंगा।
सम्राट बहुत घबड़ाया कि यह सफाया किसका करेगा! यह सफाया मेरा करेगा या
मेरे अहंकार का करेगा? और यह डंडा लिए सामने बैठा है। यह कहीं खोपड़ी वगैरह न
खोल दे!
लेकिन बोधिधर्म की मौजूदगी, उसके हाथ में डंडे का
होना और यह स्पष्ट सूचना कि तू पकड़ भर पाए, पहचान भर पाए कि
यह रहा, बस मुझे कह देना कि यह रहा, इशारा
भर कर देना।
एक परिणाम यह हुआ कि बोधिधर्म की मौजूदगी ने सम्राट वू को सोने न दिया, नहीं तो झपकी लग जाती; रात भर का जागा था, तीन बजे बैठता आंख बंद करके, झपकी खा जाता। मगर वह
आदमी सामने बैठा, डंडा मारेगा। खोजने चला--पहली दफा खोजने
चला। पहली दफा भीतर खोजने चला--है कहां?
जितना खोजा उतना हैरान हुआ। जितना खोजा उतना ही नहीं पाया। खोज-खोज कर
थक गया, सब तरफ भीतर जांच-पड़ताल की; कहीं
भी न था। सुबह होने लगी, सूरज उगने लगा। और बोधिधर्म ने देखा
एक अपूर्व शांति, एक अपूर्व मौन, एक
अदभुत प्रसाद सम्राट के ऊपर उतरना शुरू हो गया। इधर सुबह के सूरज का उगना, ताजीत्ताजी किरणें; जैसे कि सम्राट के भीतर भी एक
नया सूरज उगा है; जैसे बाहर भी सुबह हो गई, भीतर भी सुबह हो गई।
बोधिधर्म ने कहा कि अब आंख खोलो। और अब अपनी बात कह दो। मिला?
सम्राट वू कुछ बोला नहीं, सिर्फ बोधिधर्म के चरणों
पर गिर पड़ा। और उसने कहा कि नहीं मिला। और बात साफ हो गई कि मैं जिसे मिटाने में
लगा था, वह है ही नहीं। इसलिए कैसे मिटा सकता था। मैं एक झूठ
से लड़ रहा था।
और जब भी तुम झूठ से लड़ोगे तो हारोगे। इसलिए नहीं कि झूठ मजबूत होता
है; झूठ होता ही नहीं, इसलिए हारोगे। अंधेरे से लड़ोगे तो
जीत नहीं सकते। इसलिए नहीं कि अंधेरा महा शक्तिशाली है। अंधेरा है ही नहीं। सिर्फ
रोशनी का अभाव है।
अहंकार ध्यान का अभाव है, जैसे अंधेरा प्रकाश
का अभाव है। इसलिए फिक्र ही मत करो अहंकार की। वह गलत फिक्र है। ध्यान का दीया
जलाओ। अगर तुम्हें अपने घर के अंधेरे को हटाना है तो सिर्फ दीया जलाओ। तुम्हारी
दृष्टि दीये जलाने पर लगनी चाहिए। तुम्हारी दृष्टि अंधेरे को हटाने में लग गई तो
तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। क्या करोगे? धक्के मारोगे?
अंधेरे से लड़ोगे? तलवार चलाओगे? कुछ भी करोगे, अंधेरा नहीं कटेगा, अंधेरा नहीं हटेगा। तुम खुद ही हार जाओगे, थक जाओगे,
गिर पड़ोगे। और स्वभावतः, तर्क कहेगा कि अंधेरा
बड़ा मजबूत है, मिटता ही नहीं। कितने ही दंड-बैठक लगाओ और
कितनी ही ताकत बढ़ाओ, कुछ अंतर न पड़ेगा। कितनी ही पहलवानी करो,
हार निश्चित है।
और खयाल रखें, फिर से दोहरा दूं--हार इसलिए निश्चित नहीं है कि
अंधेरा शक्तिशाली है; हार इसलिए निश्चित है कि अंधेरे का
अभाव है, अंधेरा है ही नहीं। तुम किससे लड़ रहे हो? जो नहीं है! जो नहीं है उसको कैसे काटोगे, कैसे
हटाओगे?
हजारों साल से धर्मों ने यही शिक्षा दी है--अहंकार मिटाओ, अहंकार हटाओ, अहंकार गलाओ। और उसका परिणाम यह हुआ है
कि लोग व्यर्थ के संघर्ष में लीन हैं। यही ऊर्जा, जो तुम
अंधेरे या अहंकार से लड़ने में लगा रहे हो, रोशनी बन सकती है।
मैं तुमसे नहीं कहता कि अहंकार को मिटाना है। मैं तो कहता हूं, ध्यान को जगाना है। तुम्हारे भीतर सोई हुई क्षमता है ध्यान की, बस उसको जगाओ। जैसे-जैसे तुम शांत होओगे, मौन होओगे,
तुम्हारे भीतर रोशनी फैल जाएगी, सुबह हो
जाएगी। और तब तुम देखोगे कि अंधकार सिर्फ अभाव था। अहंकार था नहीं, सिर्फ एक सपना था। संसार सत्य है, आत्मा सत्य है,
शरीर सत्य है, पदार्थ सत्य है--अहंकार असत्य
है। अहंकार के अतिरिक्त और कोई चीज असत्य नहीं है।
प्रेममूर्ति, मगर ये तथाकथित सूफी वचनों के आधार से मत जीना--
"मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे।'
यह जिसने भी कहा होगा, अज्ञानी है; उसे ध्यान का कोई अनुभव नहीं। सूफी नहीं है वह। उसने तसव्वुफ नहीं जाना,
क्या खाक सूफी होगा! तुकबंद होगा कोई।
"कि दाना खाक में मिल कर गुलो-गुलजार होता है।'
दाना के संबंध में तो सच है, बीज के संबंध में सच
है, लेकिन तुम्हारे संबंध में सच नहीं है। और इस तरह के वचन
तुम्हारी दिशा को गलत तरफ मोड़ देते हैं।
मेरी बात सीधी-साफ है, दो टूक है। ध्यान पर
सारी ऊर्जा को केंद्रित करो। ध्यान के अतिरिक्त अपनी ऊर्जा को और किसी दिशा में
प्रवाहित मत होने दो। सारी ऊर्जा ध्यान पर ही बरस जाए तो क्रांति अपने आप हो जाती
है। अहंकार भी नहीं पाया जाएगा,र् ईष्या भी नहीं पाई जाएगी,
लोभ भी नहीं पाया जाएगा, मद-मत्सर--ये सब
अंधेरे के ही खेल हैं, अंधेरे की ही तरंगें हैं--ये सब एक
साथ विदा हो जाएंगे।
लेकिन तथाकथित धर्मों ने तुमसे अलग-अलग लड़ाई करने को कहा है--अहंकार
से लड़ो, लोभ से लड़ो, मोह से लड़ो। लड़ते
ही रहो। जन्मों-जन्मों लड़ोगे और कुछ भी न पाओगे।
लड़ो मत। मैं कहता हूं--जागो!
दूसरा प्रश्न: भगवान,
कल आपने कहा कि मोहम्मद और कृष्ण की बहुत सी
बातों से आप राजी नहीं हैं। और कृष्ण की हिंसा को आपने हिटलर आदि की हिंसा से भी
ज्यादा खतरनाक बताया। दूसरी ओर कृष्ण के बहुत से वचनों को आप अदभुत कहते हैं। क्या
हिंसा का इतना अनुमोदन करने वाला भी अदभुत सत्य-वचन कह सकता है? कृपया समझाने की अनुकंपा करें।
श्याम तलरेजा,
पहली बात, कृष्ण ने जो भी कहा है, वह एक
ही चित्त की दिशा में नहीं कहा गया है। कुछ वचन हैं जो कृष्ण ने तब कहे होंगे जब
वे बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं थे, जब ऐसे ही सोए थे जैसे तुम
सोए हो। कुछ वचन हैं जो उन्होंने तब कहे होंगे जब बुद्धत्व के करीब आ रहे थे। रात
टूटने के करीब थी, आखिरी तारे डूबने लगे थे। हालांकि अभी
सुबह नहीं गई थी, मगर फिर भी अंधेरा जा चुका था; वह संध्याकाल आ गया था, वह बीच का अंतराल, जब कि सूरज अब उगा तब उगा, कि बस उगा ही। कुछ वचन तब
कहे होंगे जब पूरब पर सूरज की लाली फैल गई होगी; जब कि सूरज
के आगमन की घोषणा हो गई होगी। और कुछ वचन तब कहे होंगे जब सूरज उग गया होगा। कुछ
वचन तब कहे होंगे जब सूरज शिखर पर आ गया होगा, मध्य आकाश में
होगा। और कुछ वचन तब कहे होंगे जब सूरज अपनी परिपूर्ण प्रौढ़ता को पा लिया
होगा--सांझ को, सूर्यास्त के पहले, जब
सूरज ने सारे आकाश का अनुभव कर लिया, जब कि सूरज पूरी यात्रा
कर चुका।
इसलिए अड़चन होती है। शास्त्रों में तो सारे वचन संगृहीत कर लिए गए
हैं। जैसे गीता। तुम कहोगे कि गीता तो एक ही समय में कही गई। युद्ध के प्रथम दिन, जब कि कौरव और पांडव इकट्ठे हो गए हैं और अर्जुन युद्ध की हिंसा देख कर,
भयानक रक्तपात की संभावना देख कर विरक्त हुआ जा रहा है--तब गीता कही
गई है। तो तुम कहोगे, गीता तो एक ही अवस्था में कही गई है।
सचाई कुछ और है। यह बात ही बहुत बेहूदी मालूम होती है, असंगत मालूम होती है, कि जब युद्ध के शंख बज चुके
हों, योद्धा एक-दूसरे के सामने युद्ध के लिए तत्पर हो चुके
हों, तब यह अठारह अध्याय वाली गीता कही जाए। यह तो बहुत समय
लेगी। यह तो सिर्फ कथानक है। यह तो कृष्ण के सारे वचनों को एक जगह इकट्ठा करके एक
नाटकीय प्रारंभ देना है। गीता में कृष्ण के जीवन के अलग-अलग अनुभवों, अलग-अलग मनोदशाओं, अलग-अलग अनुभूतियों और अलग-अलग
भाव-स्तर के सारे वचन संगृहीत हैं। यह कौरव-पांडवों का युद्ध, यह युद्ध के साथ गीता को जोड़ना एक प्यारा नाटकीय उपक्रम है; इसे एक कथा का रूप देना है; इसे एक निश्चित ढांचा
देना है। मगर ये वचन अलग-अलग स्तर में कहे गए हैं।
और इसलिए मैं किन्हीं वचनों से राजी होऊंगा और किन्हीं वचनों का विरोध
करूंगा। किन्हीं वचनों से थोड़ा राजी होऊंगा, किन्हीं वचनों से
पूर्ण राजी होऊंगा। किन्हीं से आंशिक, किन्हीं से समग्र। और
मेरे राजी होने या न राजी होने के पीछे मेरी अपनी अनुभूति ही आधारशिला है; वही मापदंड है, वही कसौटी है।
तुम्हारी अड़चन मैं समझ सकता हूं। तुम कहते हो, यह कैसे हो सकता है कि एक ही व्यक्ति ने हिंसा का भी समर्थन किया हो इतना
भयंकर और साथ ही वह अदभुत सत्य-वचन भी बोला हो?
यह हो सकता है। आखिर अज्ञानी ही तो ज्ञान को उपलब्ध होते हैं। आखिर
सोए हुए ही लोग तो जागते हैं। सपनों में भटके हुए ही लोग तो एक दिन सत्य को उपलब्ध
होते हैं। और आमतौर से रेखा खींचनी मुश्किल होती है कि कब क्रांति घटी। खास कर
कृष्ण के संबंध में हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि कब क्रांति घटी; वह कौन सा क्षण था जिसके बाद कृष्ण को बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। हिंदुओं की
मौलिक धारणा की भूल के कारण यह रेखा नहीं खींची जा सकी, क्योंकि
वे मानते हैं कि कृष्ण तो परमात्मा के अवतार हैं। इसलिए वे तो पहले से ही बुद्धत्व
को उपलब्ध हैं। वे जन्मे ही बुद्धत्व को लेकर हैं। उन्होंने बुद्धत्व पाया नहीं,
लेकर ही आए हैं। इसलिए सारा जीवन स्वीकार करना पड़ेगा उन्हें।
मेरी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। मैं कोई हिंदू नहीं हूं। मैं कोई जैन
नहीं हूं। मैं कोई बौद्ध नहीं हूं। मैं किसी का अनुयायी नहीं हूं। इसलिए मेरी एक
स्वतंत्रता है, जो अनुयायी की नहीं हो सकती। मैं सरलता से निर्णय कर
सकता हूं। और मेरा अनुभव मेरी कसौटी है। मेरे अनुभव पर जो बात सच उतरती है,
उसे मैं सच कहूंगा; वह किसी ने भी कही हो। और
जो मेरे अनुभव पर सच नहीं उतरती, वह मैं गलत कहूंगा; वह किसी ने भी कही हो। जीसस ने कही हो, कृष्ण ने कही
हो, बुद्ध ने कही हो--कुछ भेद नहीं पड़ता।
मैं कृष्ण की हिंसात्मक दृष्टि से राजी नहीं हूं। कृष्ण की हिंसात्मक
दृष्टि को मैं निश्चित ही हिटलर, स्टैलिन जैसे लोगों की हिंसा से
बहुत ज्यादा खतरनाक मानता हूं। क्योंकि ये सारे लोग भला हिंसा किए हों, लेकिन इनके पास हिंसा का कोई दार्शनिक समर्थन नहीं है। इनके पास हिंसा की
कोई तर्क-प्रक्रिया नहीं है। और कृष्ण ने हिंसा के लिए तर्क-प्रक्रिया दी, एक दार्शनिक पृष्ठभूमि दी। वही खतरनाक बात है। दार्शनिक जो आधारशिला कृष्ण
ने दी है, वह महाभारत में हुई हिंसा को ही सही नहीं कर देती,
वह तो सभी तरह की हिंसा को सही कर देती है।
कृष्ण यह कहते हैं कि शरीर तो मरा ही हुआ है। संक्षिप्त में तर्क इतना
है कि शरीर तो मरा ही हुआ है, क्योंकि मिट्टी से बना हुआ है।
और आत्मा अमृत है, इसलिए आत्मा मर नहीं सकती। तो जब तुम किसी
को मारते हो तो तुम इतना ही कर रहे हो कि उसके शरीर और आत्मा को अलग कर रहे हो।
इसमें मृत्यु जैसा कुछ भी नहीं है। शरीर मरा ही हुआ है, पहले
भी मरा हुआ था, इसलिए मरे हुए को तो क्या मारोगे! आत्मा पहले
भी अमर थी, अब भी अमर है; अमर को क्या
मारोगे!
तो यह तो यूं ही है जैसे कोई किसी के वस्त्र उतार दे। वह आदमी
वस्त्रों के भीतर तो नंगा था ही; कोई वस्त्र उतारने से नंगा हो
गया, ऐसा नहीं। नंगा तो वस्त्र के भीतर था ही, वस्त्र उतारने से सिर्फ नग्नता प्रकट हो गई। तो कृष्ण कहते हैं कि हिंसा
में कोई पाप नहीं है। क्योंकि कोई मरता ही नहीं तो पाप कैसे लगेगा?
अगर यह बात सच है, तो इस दुनिया में जितने हिंसक
हुए हैं--फिर चाहे वह तैमूर लंगड़ा हो, कि चाहे चंगीजखान हो,
चाहे नादिरशाह हो--उन्होंने कुछ हर्जा नहीं किया। धार्मिक कार्य कर
रहे थे, अच्छा ही कार्य कर रहे थे, शरीर
को आत्मा से अलग कर रहे थे, नीर-क्षीर-विवेक कर रहे थे,
परमहंस थे!
दूसरा तर्क कृष्ण ने हिंसा के लिए दिया है कि मृत्यु तो सुनिश्चित है, श्वास-श्वास सुनिश्चित है। जिसको जब मरना है, तभी
मरना है। तू अर्जुन, इस भूल में मत पड़ कि तू मारने वाला है।
अरे मारने वाला परमात्मा है! वह तो पहले ही मार चुका है। तू निमित्त मात्र है।
अगर यह बात सच है तो सभी हत्यारों के संबंध में यह बात सच है। फिर
नाथूराम गोडसे को फांसी देने की क्या जरूरत? महात्मा गांधी को
भगवान पहले ही मार चुका होगा। नाथूराम राम ही समझो, जरा
नक-कटे हैं इसलिए नाथूराम! काम तो राम का ही कर रहे हैं। तो नाथूराम को तो महात्मा
कहना चाहिए; परमात्मा के निमित्त बने। इनको फांसी देने की
क्या जरूरत?
फिर तो सभी हत्याएं, सभी पाप अंगीकृत हो जाते हैं।
तुम्हारी चोरी होनी है, तो ही होगी। तुम्हारे भाग्य में बदी
थी। इसमें चोर का क्या कसूर है! तुम्हारी पत्नी को कोई भगा ले जाए, इसमें वह क्या कर सकता है भगाने वाला, परमात्मा पहले
ही भगा चुका था!
जरा इस तर्क की बेहूदगी देखो। इस तर्क के आधार पर तो जीवन असंभव हो
जाएगा। और कृष्ण खुद भी इस तर्क के आधार पर जीते नहीं, इसलिए मैं बेईमान कहता हूं। क्योंकि जब दुर्योधन द्रौपदी के वस्त्र खींचने
लगा, तो बेचारा उसका क्या कसूर, भगवान
पहले ही खींच चुका हो। सीधी-साफ बात है। जब मृत्यु जैसी बड़ी चीज को भी भगवान पर
छोड़ा जा रहा है, भाग्य पर छोड़ा जा रहा है, तो यह द्रौपदी का वस्त्र खींचना कोई बहुत बड़ी बात हो रही है! फिर उसे पूरा
नैतिक अधिकार था, क्योंकि जुए में उसने जीता था। वह अगर
वस्त्र छीन रहा है, तो कृष्ण को उसकी साड़ी बढ़ाने की क्या
जरूरत है? ये परमात्मा के काम में बाधा डाल रहे हैं।
दुर्योधन परमात्मा का काम कर रहा है, और ये भइया बाधा डाल
रहे हैं!
और बाधा डालने का कुल कारण इतना है कि द्रौपदी इनकी बहन है। और ये खुद
दूसरी स्त्रियों के वस्त्र चुरा-चुरा कर झाड़ों पर चढ़ कर बैठते रहे, मगर वे इनकी बहनें नहीं थीं, सो वह रासलीला थी।
बेचारे दुर्योधन ने सोचा होगा मैं भी थोड़ी रासलीला करूं। जब रासलीला ऐसी रसभरी चीज
है तो कुछ मैं भी करूं। कृष्ण से ही प्रेरणा मिली होगी। वह भी रासलीला कर रहा था,
तो उसको रासलीला क्यों नहीं करने देते? खुद
दूसरी स्त्रियों के वस्त्र चुरा कर झाड़ों पर बैठ जाते हो, तब
यह बात नैतिक है, तब यह बात धार्मिक है, तब यह बड़े गजब का काम हो रहा है, तब इसका गुणगान
होना चाहिए। और जब दुर्योधन को भी ऐसी ही आध्यात्मिक प्रेरणा उठी, तो पाप होने लगा!
कृष्ण ने इस तरह के जो वचन कहे हैं, वे वचन शुद्ध
राजनैतिक हैं और फैसिस्ट हैं। और उनकी जितनी निंदा की जाए ठीक है। लेकिन कृष्ण ने
बहुत से प्यारे वचन भी कहे हैं, उनका मैं समर्थन करता हूं;
उनसे मेरा कोई विरोध नहीं है। मगर ये अलग-अलग भाव-दशाओं में कहे गए
होंगे, यह बात सुनिश्चित है।
और यही सत्य है मोहम्मद के संबंध में। यही सत्य है बुद्ध के संबंध
में।
मेरा चुनाव आणविक है, यह तुम्हें समझ लेना चाहिए। मैं
तो एक-एक चीज को कसौटी पर कसता हूं। मैं कोई सारी बातों को अंगीकार नहीं करता,
चाहे कितने ही सम्मानित शास्त्रों में वे क्यों न हों। अगर मेरे लिए
गलत दिखाई पड़ती हैं, तो मैं उन्हें गलत कहूंगा, चाहे जो परिणाम हो। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जब मुझे कोई चीज सही
दिखाई पड़ती है तो मैं अपने को रोकूं यह कहने से कि वह बात सही है, क्योंकि कहीं लोग यह न समझें कि मैं असंगतियां कर रहा हूं--कभी कहता हूं
सही किसी बात को, कभी कहता हूं गलत किसी बात को। मेरी दृष्टि
आणविक है।
जैसे श्रीमद्भागवत का यह वचन: सुखदुःखो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृत्भूवपुमान्।
अर्थात सुख और दुख का देने वाला कोई दूसरा नहीं होता, क्योंकि मनुष्य अपने किए का ही फल पाता है।
यह बात एक दृष्टि से सही और दूसरी दृष्टि से गलत। इस दृष्टि से सही है
कि यह प्रत्येक व्यक्ति को अपना उत्तरदायित्व समझने की प्रेरणा देती है। प्रत्येक
व्यक्ति को अपना मालिक बनाती है, कि तुम अपने दुखों के खुद कारण
हो और तुम अपने सुखों के भी खुद कारण हो। यह तुम्हारा चुनाव है। तुम ऐसी जीवन-शैली
चुन सकते हो जो स्वर्ग बन जाए और तुम ऐसी जीवन-शैली जी सकते हो जो नर्क बन जाए।
अगर इस बात का यह अर्थ लिया जाए, तो मैं इसका समर्थन करूंगा।
मैं तुम्हें उदाहरण दे रहा हूं कि कभी यह भी हो सकता है कि मैं किसी
एक बात का, एक वक्तव्य का, किसी खास अर्थ
में समर्थन करूं और खास अर्थ में विरोध भी करूं।
इसका दूसरा जो अर्थ है, उसका मैं विरोधी हूं।
और वही दूसरा अर्थ भारत की छाती पर पत्थर की तरह बैठा हुआ है। दूसरा अर्थ इसका यह
हुआ कि फिर समाज को रूपांतरित करने का कोई उपाय न बचा। अगर तुम गरीब हो, तो अपने पापों के कारण--नहीं उन लोगों के कारण जो चूस रहे हैं। अगर तुम
दुख भोग रहे हो, तो अपने पापों के कारण--नहीं इसलिए कि समाज
की एक ऐसी व्यवस्था में तुम जी रहे हो जहां सुख से जीने की कोई सुविधा नहीं है,
जहां चारों तरफ दुख पैदा करने के उपाय हैं।
इससे एक तरह की सामाजिक दासता पैदा होती है। हजारों साल हो गए भारत
में गरीब हैं, लेकिन गरीबों ने कोई बगावत नहीं की। क्यों? कैसे बगावत करें! यह श्रीमद्भागवत का वचन उनसे यह कह रहा है कि तुम गरीब
हो अपने कर्मों के कारण। पिछले जन्मों में किए कर्म, अब उनका
तुम करोगे भी क्या! सिवाय सहने के और क्या उपाय है! सह लो शांति से, धैर्य से। अपने किए को भोग लो, ताकि कर्म कट जाएं।
इससे सामाजिक उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। और यही समाज के शोषक चाहते हैं।
अगर यह बात समझ में आनी शुरू हो जाए कि गरीबी का कोई संबंध तुम्हारे
अतीत के पाप-कर्मों से नहीं है...और मैं तुमसे कहता हूं नहीं है, कोई संबंध नहीं है। गरीबी सामाजिक व्यवस्था है। गुलामी सामाजिक व्यवस्था
है।
भारत बाईस सौ साल गुलाम रहा, श्रीमद्भागवत के इस
तरह के वचनों के ही कारण। क्योंकि क्या कर सकते हो, गुलामी
हमारे भाग्य में बदी है। छोटे-छोटे कबीले इस देश पर आए--जिनकी कोई ताकत न थी,
कोई हैसियत न थी--इस विराट देश को गुलाम बना सके बड़ी सुगमता से,
क्योंकि इस देश के भीतर एक आध्यात्मिक गुलामी का षडयंत्र सदियों से
चल रहा था। लोगों ने अंगीकार कर लिया, दासता को अंगीकार कर
लिया। भाग्य है, किया क्या जा सकता है! अपने हाथ में कुछ भी
नहीं। परमात्मा के बिना हिलाए पत्ता नहीं हिलता, सो गुलामी
कैसे हटेगी! जब वह हटाना चाहेगा, तब हटेगी। जब हमारे कर्म
बदलेंगे, तब हटेगी।
इसका मतलब यह हुआ कि जो लुटेरे आए, उनका कोई जिम्मा नहीं
है। जिन्होंने इस मुल्क को दलित किया, शोषित किया, इसकी छाती पर घूंघर मूती, उनका कोई दायित्व नहीं है।
हम ही जिम्मेवार हैं। यह मामला ऐसा हो गया कि चार आदमी एक स्त्री को पकड़ कर बलात्कार
करें, तो स्त्री जिम्मेवार है; पिछले
जन्मों का फल भोग रही है। और ये चार सज्जन जो कर रहे हैं, ये
शायद पिछले जन्मों का पुण्य भोग रहे हैं। ये क्या कर रहे हैं? इन्होंने पिछले जन्मों में पुण्य किए होंगे, सो इनको
पुरस्कार मिला है कि बलात्कार करो एक स्त्री से। और स्त्री अपना पाप भोग रही है।
अगर इस तरह के सूत्रों का ऐसा अर्थ लिया जाए, तो मैं विरोध करूंगा। इसलिए यह भी तुमसे कह दूं कि जरूरी नहीं है कि मैं
किसी वक्तव्य का उसके सब अर्थों में समर्थन करूं। एक-एक वक्तव्य के कई आयाम हो
सकते हैं। आयाम भी चुनने होंगे।
यह मैं मानता हूं कि तुम अगर दुखी हो तो तुम्हारी जीवन-दृष्टि में
कहीं भूल है। और तुम्हारी जीवन-दृष्टि में अगर भूल है तो तुम गरीब होकर भी दुखी
रहोगे, तुम धनी होकर भी दुखी रहोगे। लेकिन तुम्हारी
जीवन-दृष्टि तुम्हारे गरीब होने और अमीर होने का कारण नहीं है। उसके कारण अलग हैं।
समाज की व्यवस्था; आर्थिक व्यवस्था; वैज्ञानिक,
तकनीकी, औद्योगिक व्यवस्था; उसके हजार कारण हैं। लेकिन एक बात तय है कि अगर तुम्हारी जीवन-दृष्टि का
कहीं मौलिक रूप गलत है, तो तुम धनी भी हो जाओ तो भी दुखी
रहोगे। तुम धन का उपयोग अपने दुख को बढ़ाने के लिए ही करोगे, और
क्या करोगे!
एक आदमी को, जो कि एक साधारण दर्जी था, शौक
था, हर महीने एक रुपये की लाटरी खरीद लेता था। तीस वर्ष से
खरीद रहा था। न कभी उसे पुरस्कार मिला था, न कोई आशा थी
मिलने की; पर आदतन हर महीने की एक तारीख को एक रुपया लगा
देता। हर्ज भी क्या था!
मगर यूं हुआ कि एक दिन एक बड़ी कार दरवाजे पर आकर रुकी, और थैलों में भर कर रुपये लाए गए। उसकी तो आंखें फटी की फटी रह गईं। उसने
कहा, क्या हो रहा है?
उन लोगों ने कहा कि तुम धन्यभागी हो, लाटरी तुम्हारे नाम
खुली है। प्रथम पुरस्कार तुम्हें मिला है। ये दस लाख रुपये हम तुम्हें देने आए
हैं।
स्वभावतः दर्जी तो बहक गया। अरे, कोई भी बहक जाता। दस
लाख रुपये! दस रुपये इकट्ठे उसने नहीं देखे थे कभी। उसने तो दुकान पर ताला लगाया
और चाबी कुएं में फेंक दी। मामला खत्म, अब करना क्या है! और
दस लाख रुपये पा लिए तो शराब पीने लगा, वेश्यागमन करने लगा।
सब तरह के उपद्रवों में पड़ गया। जुआ खेलने लगा। और लोग भी मिल गए, जब दस लाख रुपये आए तो जुआरियों की भी नजर आई, शराबियों
की भी नजर आई, वेश्याओं के दलालों की भी नजर आई, राजनेता भी आए। किसी ने कहा कि चुनाव में खड़ा हो जा भैया। ऐसा मौका मत
चूक!
सब तरह के उपद्रव में साल भर में दस लाख रुपये खत्म हो गए। रुपये ही
खत्म नहीं हुए दस साल में सारा स्वास्थ्य भी बरबाद हो गया।
साल भर बाद लौटा अपनी दुकान पर, क्योंकि अब एक पैसा
पास नहीं। तब याद आया है कि चाबी तो कुएं में फेंक दी! सो कुएं में
उतरा--बामुश्किल चाबी खोज पाया। तब सोचा-विचारा कि मैंने क्या किया यह साल भर! ये
दस लाख रुपये मेरे लिए सौभाग्य नहीं हुए, यह तो दुर्भाग्य हो
गया। पहले ही मैं भला-चंगा था--न चिंता थी, न फिक्र थी,
न परेशानी थी, स्वस्थ भी था। भगवान न करे अब
कभी दुबारा लाटरी खुले।
मगर पुरानी आदत, हर महीने वह फिर एक रुपये से
टिकट खरीदने लगा। यूं भी सोचता चला जाए--ये तुम आदमी के द्वंद्व समझो--कि अब नहीं
मिले, अरे अब कहीं मिलने वाली है! तीस साल नहीं मिली,
यह तो एक संयोग की बात, मिल गई। मगर टिकट
खरीदता रहा।
और संयोग कुछ यूं घटा कि दूसरे साल फिर मिली। जब कार आकर उसके सामने
रुकी, उसने अपनी छाती पीट ली कि नहीं भैया, अब नहीं! कहे कि अब नहीं, लेकिन ताला बंद करता जाए।
कहे कि अब नहीं, लेकिन चाबी फिर फेंक दी। आदमी की
विक्षिप्तताएं! इनकार कर रहा है और थैली सम्हाल भी रहा है, और
फिर वही दौर शुरू हुआ।
मगर दूसरे दौर में खात्मा ही हो गया। फिर चाबी निकालने का मौका ही
नहीं आया। प्राण ही निकल गए।
आदमी की जीवन-शैली, उसके भीतर की आंतरिक दशा,
निर्णायक तो है--धन हो तो, गरीबी हो तो;
सुविधा हो तो, असुविधा हो तो। इसलिए एक आयाम
में यह वचन सत्य है, मगर और आयामों में यह वचन असत्य हो जाता
है।
श्याम तलरेजा, मेरी बातें तुम जब सुन रहे हो, तो
तुम किसी साधारण धर्मगुरु की बातें नहीं सुन रहे हो। मैं किसी शास्त्र का अनुमोदन
या समर्थन करने को यहां नहीं बैठा हूं। मुझे शास्त्रों से क्या लेना-देना! मेरे
पास अपनी जीवन-दृष्टि है; देखने का अपना ढंग है; अपना सलीका है। और उस जीवन-दृष्टि से मैं आनंदित हुआ हूं--परम आनंदित हुआ
हूं। इसलिए अपनी जीवन-दृष्टि तुम्हें बांटना चाहता हूं। शायद किसी के भीतर का दीया
जल जाए। शायद किसी के भीतर रोशनी हो उठे। शायद किसी के भीतर का फूल खिल जाए।
इसलिए मैं जो भी कह रहा हूं उसका कोई प्रयोजन न कृष्ण से है, न बुद्ध से है, न क्राइस्ट से है, न मोहम्मद से है। लेकिन चूंकि ये नाम सदियों से तुम्हारे दिमाग में रहे
हैं, इनका मैं उपयोग कर लेता हूं। सिर्फ बात तुम तक पहुंच
जाए, यह भाषा तुम्हारी है, इसलिए इनका
उपयोग कर लेता हूं। अन्यथा मैं सीधी-सीधी अपनी बात कह सकता हूं; किसी का भी नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन तब तुम्हें समझना थोड़ा
मुश्किल हो जाएगा।
और मैं तुम्हें एक अवसर भी देना चाहता हूं कि तुम भी सीख सको कि किसी
शास्त्र को पूरा का पूरा स्वीकार कर लेना सिर्फ बुद्धूपन है। या पूरा इनकार कर
देना, वह भी बुद्धूपन है। और ये दो तरह के बुद्धूपन प्रचलित
बुद्धूपन हैं। या तो कोई मानता है तो पूरी किताब को मानता है, और या कोई नहीं मानता तो पूरी किताब को नहीं मानता।
यह बात गलत है। तुम्हारे पास विवेक है। और तुम्हें चुनाव करने की
क्षमता आनी चाहिए। तुम स्वतंत्र हो चुनने को। और जिस दिन तुममें इतना साहस आ जाएगा
कि तुम कृष्ण की किसी बात को भी गलत कह सको और कृष्ण की किसी बात को सही भी कह सको, उस दिन तुम्हारे भीतर एक गरिमा पैदा होगी; तुम्हारा
व्यक्तित्व निखरेगा। उस दिन तुम्हारे भीतर भी कृष्ण और क्राइस्ट और बुद्ध जैसी
क्षमता की पहली शुरुआत होगी।
मैं तुम्हें तुम्हारे भीतर छिपी हुई क्षमताओं का धीरे-धीरे आभास कराना
चाहता हूं। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर परम विवेक छिपा है, परम ज्ञान छिपा है; सिर्फ उसे प्रकट करने के लिए,
उसे अभिव्यक्ति देने के लिए--कुछ बाधाएं हैं बीच में जो हटानी हैं,
कुछ पत्थर हैं, चट्टानें हैं, जो तुम्हारी चेतना के झरने को नहीं बहने देती हैं--उन चट्टानों को हटाने
के लिए मुझे यह चर्चा करनी पड़ती है। तुम्हें मुश्किल भी होती है, कठिनाई भी होती है। मगर मेरी भी मजबूरी है।
अगर मेरे साथ चलना है तो तुम्हें तैयारी रखनी होगी सब तरह की चोटें
झेलने की। अगर तुम्हें मेरे पास बैठना है, तो तुम्हें याद रखना
होगा--जिस ढंग से सम्राट वू बैठा था बोधिधर्म के सामने। मेरा लट्ठ तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ता, यह और बात है।
कबीर कहते हैं--
कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारे आपना, चलै हमारे साथ।।
आज इतना ही।
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