मैं धर्म नहीं, धार्मिकता दे रहा हूं—प्रवचन-पांचवां
प्रश्न-सार:
1—जो इतनी नींद में हैं कि उन्हें अपनी प्यास का
पता ही नहीं या स्वप्न के पानी को पीकर ही वे जागने का आभास पा रहे हैं, वे कैसे वास्तविक प्यास का अनुभव कर सकेंगे? क्या
आपका आनंद का झरना उनकी प्यास को जगा कर उन्हें तृप्त नहीं कर देगा?
क्या आपका सामर्थ्यवान प्रकाश उन अंधेरे कमरों को
भी प्रकाशित नहीं कर देगा जिनके कि दरवाजे बंद हैं?
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने कहा प्यासा ही कुएं के पास जाता है, न कि कुआं प्यासे के पास। जो प्यासे हैं वे तो आ ही गए हैं, आ ही रहे हैं, आ ही जाएंगे; परंतु
जो इतनी नींद में हैं कि उन्हें अपनी प्यास का पता ही नहीं या स्वप्न के पानी को
पीकर ही वे जागने का आभास पा रहे हैं, वे कैसे वास्तविक
प्यास का अनुभव कर सकेंगे? क्या आपका आनंद का झरना सब जगह
बहता हुआ उनकी प्यास को जगा कर उन्हें तृप्त नहीं कर देगा?
भगवान बुद्ध की परम करुणा की अभिव्यक्ति थी कि जब
तक संसार के समस्त जीव निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेते हैं, वे भी निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे। पता नहीं वे कितने सामर्थ्यवान थे।
निरपेक्ष परम तत्व की अनुभूति में आप सभी बुद्ध पुरुषों के एक समान होने पर भी सभी
की अभिव्यक्ति और अन्यों को परम तत्व की अनुभूति कराने का सामर्थ्य तो भिन्न ही
होता है। आप जैसा सामर्थ्यवान बुद्ध पुरुष विश्व में न कभी पैदा हुआ है और न कभी
हो सकेगा। क्या आपका सामर्थ्यवान प्रकाश उन अंधेरे कमरों को भी प्रकाशित नहीं कर
देगा जिनके कि दरवाजे बंद हैं?
प्रेम प्रमोद,
पहली तो बात यह कि गौतम बुद्ध की यह घोषणा--कि जब तक सभी जीव निर्वाण
को उपलब्ध नहीं हो जाते हैं तब तक वे निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे--कपोल-कल्पित
है। एक कहानी मात्र। और बुद्ध की मृत्यु के कोई हजार साल बाद गढ़ी गई कहानी। प्रीतिकर
लगती है, सुंदर भासती है, सोए हुए लोगों
के हृदय को सांत्वना देती मालूम पड़ती है, पर सत्य नहीं है।
निर्वाण में कोई अपने प्रवेश को रोक नहीं सकता है। आंख खुली कि प्रकाश हुआ। फिर
तुम चाहे आंख भी बंद कर लो तो भी तुम जानते हो कि प्रकाश है। निर्वाण का अनुभव ऐसा
कोई अनुभव नहीं है कि कोई चाहे तो प्रवेश करे और चाहे तो ठहर जाए।
और यह कहानी बुद्ध की जीवन-धारणाओं से मेल भी नहीं खाती। बुद्ध का
अंतिम वचन था...जब उनके शिष्य रोने लगे, जो कि स्वाभाविक था,
चालीस वर्षों तक सतत जिन्होंने बुद्ध का सत्संग किया था, उस अमृत को पीया था, काश उनकी आंखें आंसुओं से भर
गईं तो आश्चर्य कुछ भी नहीं। वे भी रोने लगे जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए थे;
उनके हृदय भी आंसुओं से भर गए। यह विदाई कठिन थी। जब बुद्ध ने कहा
अब मैं विदा होता हूं और मेरी अंतिम घड़ी आ गई, तो आनंद भी
रोने लगा।
बुद्ध ने कहा, आनंद, रो मत। औरों से भी कहा कि
रोओ मत।
आनंद ने कहा, कैसे न रोएं? कैसे रोने को
रोकें? यह हमारे बस की बात नहीं है। यह अनिवार्य है। इतना
प्रेम पाया, इतना अमृत पीया--यह कृतज्ञता स्वाभाविक है। यह
धन्यवाद है। ये हमारे आंसू हमारे हृदय की भावनाओं के प्रतीक हैं। और इसलिए भी हम
रोते हैं कि आपके रहते भी, आपके सत्संग में जीते भी हममें से
कितने ही अभी भी जागे नहीं। मैं भी उनमें से हूं--आनंद ने कहा--जो अभी जागा नहीं।
रोऊं न तो क्या करूं? क्योंकि आपकी मौजूदगी में न जाग सका,
तो आपके विदा हो जाने पर मेरे जागने की क्या संभावना है! फिर तो
अनंत काल में भी आप जैसे सदगुरु को पा सकूंगा, इसकी आशा भी
नहीं रख सकता। ऐसा महान अवसर मैंने खोया है। आपकी विदाई के लिए रोता हूं, अपनी मूढ़ता के लिए रोता हूं।
बुद्ध ने कहा, तू पागल है। तू मेरी शिक्षा का सूत्र ही नहीं समझा।
मैं चाहूं भी तो तुझे मुक्त नहीं कर सकता हूं। बंधन भी तूने निर्मित किए हैं और तू
ही काटेगा। इसलिए स्मरण रखना--बुद्ध ने आनंद को कहा--यह मेरा अंतिम वक्तव्य है
पृथ्वी पर: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो, क्योंकि कोई और
किसी का दीया काम नहीं आ सकता है। मेरे होने न होने से कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम्हें
स्वयं ही अपने प्रकाश की तलाश करनी होगी।
धर्म उधार नहीं होता; न शास्त्र से मिलता है, न शास्ता से मिलता है। धर्म तो स्वयं की अनुभूति है; कोई दूसरा देना भी चाहे तो भी दिया नहीं जा सकता। धर्म का सत्य
हस्तांतरणीय नहीं है। सत्य हस्तांतरणीय हो भी नहीं सकता। सत्य कोई वस्तु नहीं है
कि कोई किसी को दे दे, कि कोई खरीद ले, कि कोई बेच दे। यही तो सत्य की गरिमा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी
निजता में ही उसे खोजना होता है।
सदगुरु इशारा दे सकता है, लेकिन इशारे पर चलना
तो तुम्हें ही होगा। और तुम अगर न चलना चाहो तो कोई तुम्हें जबरदस्ती नहीं चला
सकता है।
यह कहानी कि बुद्ध मृत्यु के बाद जब मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, उनके स्वागत में द्वार खुला, फूलमालाएं लिए हुए
मोक्ष उनका स्वागत करने को तैयार है, लेकिन बुद्ध पीठ करके
खड़े हो गए और उन्होंने कहा, मैं मोक्ष में तब तक प्रवेश नहीं
करूंगा जब तक कि समस्त जीव मुक्त नहीं हो जाते। यह कहानी एक हजार साल बाद गढ़ी गई।
और इस कहानी के पीछे बुद्ध की करुणा नहीं है, इस कहानी के
पीछे राज कुछ और है।
बुद्ध ने व्यक्ति को इतनी महत्ता दी थी जितनी कभी किसी ने नहीं दी; इतनी गरिमा दी जितनी कभी किसी ने नहीं दी। लेकिन बुद्ध की व्यक्ति को दी
गई गरिमा को समझा नहीं जा सका। पंडित और पुरोहित चाहते भी न थे कि व्यक्ति को इतनी
गरिमा मिले, क्योंकि व्यक्ति अगर इतना गरिमावान है तो
पंडित-पुरोहित की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सत्य स्वयं पाना है तो फिर मध्यस्थों
की और दलालों की क्या जरूरत है? फिर पुजारियों की और महंतों
की क्या आवश्यकता है?
बुद्ध के धर्म को उखाड़ फेंका गया भारत से। जब बुद्ध-धर्म भारत से उखड़
गया, तिब्बत, बर्मा, लंका, चीन और दूर कोरिया तक फैला, तब उसने अपनी आधारशिलाएं बदल लीं। एक बात जाहिर हो गई थी कि बुद्ध का सत्य
इतना शुद्धतम सत्य है कि लोग उसे पचा नहीं सकते। बौद्ध भिक्षु अब सत्य में उतने
उत्सुक नहीं थे जितने बुद्ध-धर्म के प्रचार में उत्सुक थे। इसलिए उन्होंने समझौते
किए। उन्होंने समझौते किए लोकमानस से। बुद्ध ने कभी कोई समझौता नहीं किया लोकमानस से।
कोई बुद्ध पुरुष लोकमानस से समझौता नहीं करता--कर नहीं सकता। लोकमानस से समझौता
करने का अर्थ है: सत्य झुक रहा है असत्य के सामने। लेकिन पंडित और पुरोहित तो
हमेशा समझौता करने को राजी होते हैं।
जो लोग बुद्ध के धर्म को सारे एशिया में ले गए वे पंडित-पुरोहित थे। अब
उनका यह न्यस्त स्वार्थ था, उन्होंने आधारशिलाएं बदल दीं। फिर चीन और जापान और
कोरिया के लोगों को पता भी न था कि बुद्ध का मौलिक उपदेश क्या है। वे धोखे में आ
गए। इन पंडित-पुरोहितों ने यह कथा गढ़ी कि बुद्ध मनुष्य-जाति के कल्याण के लिए पैदा
हुए थे।
और बुद्ध ने कहा है कि कोई दूसरा किसी का कल्याण नहीं कर सकता।
इन्होंने कहा कि तुम चिंता न करो, तुम सिर्फ बुद्ध की
पूजा करो, इतना काफी है; बुद्ध का
स्मरण करो, इतना पर्याप्त है; और बुद्ध
की करुणा तुम्हें पार ले जाएगी। बुद्ध की करुणा की जो नाव है, उसमें सवार हो जाओ। तुम्हें न ध्यान करना है, न
समाधि साधनी है। एकमात्र तुम्हें काम करना है वह यह कि बुद्ध की नाव में सवार हो
जाओ।
इन पंडित-पुरोहितों ने यह कथा गढ़ी कि बुद्ध अभी मोक्ष के द्वार पर खड़े
हैं, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे तब तक प्रवेश न
करेंगे जब तक कि तुम्हें प्रवेश न करवा दें। वे समस्त प्राणियों को मोक्ष में ले
जाएंगे। तब अंततः अंतिम व्यक्ति की तरह मोक्ष में प्रवेश करेंगे।
लोकमानस को यह बात प्रीतिकर लगती है कि बुद्ध हमारे लिए रुके हैं, कि हमें कुछ करना नहीं है, सिर्फ बुद्ध का गुणगान
करना है, स्तुति गानी है।
बुद्ध का धर्म प्रार्थना का धर्म नहीं था। लेकिन बुद्ध के अनुयायियों
ने उसे प्रार्थना का धर्म बना दिया। बुद्ध के धर्म में भगवान का कोई स्थान ही न
था। बुद्ध का धर्म निरीश्वरवादी धर्म है; उसमें कोई स्रष्टा
नहीं है, कोई भगवान नहीं है। लेकिन बुद्ध के पंडित-पुरोहितों
ने बुद्ध को ही, बुद्ध की प्रतिमा को ही मंदिर में विराजित
कर दिया।
बुद्ध की सुनी होती तो बुद्ध के नाम से कोई मंदिर नहीं बन सकता था, कोई मूर्ति नहीं बन सकती थी, पूजा का कोई आधार न था,
प्रार्थना का कोई उपाय न था। लेकिन यह लोकमानस से समझौता किया,
झूठ से समझौता किया।
और जब भी तुम झूठ से समझौता करोगे तो निश्चित ही, इस बात को स्मरण रखना, सत्य पूरी तरह तिरोहित हो
जाएगा। सत्य आंशिक रूप से नहीं बचता है; या तो पूरा या
बिलकुल नहीं। और जब भी तुम सत्य के साथ असत्य को मिलाओगे तो जीत असत्य की हो
जाएगी। सत्य तो तिरोहित हो जाएगा। सत्य को तुम थोड़ा-बहुत नहीं बचा सकते।
इसलिए मैं इस कहानी से राजी नहीं हूं। ये बातें छोड़ो कि किसी की करुणा
से तुम बच सकोगे। यह बेईमानी है। यह अपने साथ बेईमानी है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि
तुम्हारी कोई स्वतंत्रता नहीं है। बंधे हो, शायद यह भी किसी और
के कारण; छूटोगे, यह भी किसी और के
कारण। तो तुम कौन हो? तुम हो या नहीं? तुम्हारी
कोई सत्ता है या नहीं? तुम्हारा कोई गौरव, तुम्हारी कोई गरिमा है या नहीं? तुम्हारी कोई निजता
है या नहीं? तुम्हारे पास आत्मा भी है या नहीं? कोई तुम्हें बांध देता है तो बंध जाते हो और कोई तुम्हें छुड़ा देता है तो
छूट जाते हो। और फिर किसी ने बांध दिया तो क्या करोगे? फिर
बंध जाओगे।
मैं व्यक्ति की परम स्वतंत्रता में भरोसा करता हूं। इसलिए मैं यह नहीं
कह सकता कि मैं तुम्हें मुक्त करा दूंगा। यह बात ही बेमानी है। हां, मैंने जिस सत्य को जाना है उसे निवेदन कर सकता हूं। लेना न लेना, स्वीकार करना न स्वीकार करना तुम्हारे हाथ है। तुम्हारी मालकियत है
तुम्हारे ऊपर।
सूरज ऊगता है। तुम दरवाजा खोलो तो सूरज की किरणें तुम्हारे भीतर
प्रवेश कर जाएं। और तुम दरवाजा बंद रखो तो क्या तुम सोचते हो सूरज धक्के देकर दरवाजे
तोड़ेगा? सूरज की किरणें धक्के तो दूर, थपकी
भी न देंगी तुम्हारे द्वार पर, तुम्हारे द्वार की सांकल भी न
खटखटाएंगी। और इसलिए नहीं कि अस्तित्व में करुणा नहीं है।
मेरे हिसाब में तो व्यक्ति को परिपूर्ण स्वतंत्रता देना ही सबसे बड़ी
करुणा है। यह अपेक्षा--कि जब तक सभी मुक्त न हो जाएंगे मैं भी मोक्ष को स्वीकार न
करूंगा--जबरदस्ती मालूम होती है, करुणा नहीं। क्या दूसरों को
अमुक्त रहने का अधिकार नहीं है? फिर स्वतंत्रता का अर्थ क्या
है? और यह कैसा मोक्ष जो एक आदमी की जबरदस्ती से लेना ही
पड़ेगा? करुणा कौन किस पर कर रहा है--बुद्ध तुम पर करुणा कर
रहे हैं या तुम उन पर करुणा कर रहे हो कि चलो भई, तुम्हारे
मोक्ष-प्रवेश के लिए हम भी प्रवेश किए जाते हैं, क्या करें!
नहीं तो तुम प्रवेश करोगे नहीं, तुम द्वार पर ही खड़े रहोगे।
थक गए होंगे बुद्ध खड़े-खड़े। करुणा कौन किस पर कर रहा है? तुम्हीं
को दया आने लगेगी कि अब ठीक है, बंद करो संसार, बंद करो दुकान, बंद करो यह उपद्रव। बेचारे गौतम
बुद्ध अभी तक खड़े हैं! निश्चित खड़े होंगे, क्योंकि अभी यह
सारा जगत वैसा का वैसा अमुक्त है।
सच तो यह है, जितने प्राणी बुद्ध के समय थे, उससे
प्राणी अब ज्यादा हैं। यह मामला तो बिगड़ता जा रहा है। बुद्ध के समय में भारत की
कुल आबादी दो करोड़ थी। अगर सिर्फ भारत को ही हिसाब में लें तो अब सत्तर करोड़ आबादी
है। सारी दुनिया की आबादी को अगर हिसाब में लें तो वह अब साढ़े चार अरब से ऊपर
पहुंच रही है।
और बुद्ध को तो कुछ पता न था। यह पृथ्वी अकेली नहीं है। अब वैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसी कम से कम पचास हजार पृथ्वियां हैं जिन पर जीवन
है। बुद्ध तो बड़ी झंझट में पड़ गए! ये पचास हजार पृथ्वियां और इन पर जीवन। और बुद्ध
ने यह नहीं कहा है कि सभी मनुष्य जब तक मुक्त हो जाएंगे मैं रुकूंगा; वरन सभी जीव। इसमें मनुष्य भी सम्मिलित हैं, हाथी-घोड़े,
गधे भी सम्मिलित हैं, इसमें बंदर-भालू,
तोते-कौवे, इसमें मक्खी-मच्छर...।
मैं नहीं सोचता कि बुद्ध कभी भी प्रवेश कर पाएंगे। असंभव! यह कब घटना
घटेगी? यह कब होगा जब कि सारा अस्तित्व मुक्त हो जाए?
करुणा तुम को उन पर करनी पड़ेगी।
मगर तुम्हारी करुणा से भी कुछ होगा नहीं। मच्छर वगैरह इतने करुणावान
नहीं हैं। मैं सारनाथ में बौद्ध भिक्षु जगदीश काश्यप के घर मेहमान था। सारनाथ में
इतने बड़े मच्छर! मैंने कहीं देखे नहीं। धार्मिक मच्छर होंगे। सारनाथ जैसे पवित्र
स्थान पर, जैसे काशी के पंडे ऐसे सारनाथ के मच्छर! दिन में भी
मच्छरदानी के भीतर बैठना पड़े। एक मच्छरदानी में मैं बैठूं, एक
में भिक्षु जगदीश काश्यप बैठें। चर्चा यूं दो मच्छरदानियों के आर-पार हो।
मैंने जगदीश काश्यप को कहा कि अब मैं समझा एक राज की बात।
उन्होंने कहा, कौन सी राज की बात?
मैंने कहा, बुद्ध बयालीस वर्ष तक यात्रा किए बिहार की। कई
स्थानों पर बीस बार गए, कई स्थानों पर तीस बार गए, कई स्थानों पर चालीस बार गए, सारनाथ सिर्फ एक ही बार
आए। मैं सदा सोचता था कि बात क्या है। एक ही बार आए और एक ही दिन रुके। अब मैं समझ
गया राज--मैंने उनसे कहा--ये मच्छर! और मैं भी अब दुबारा आने वाला नहीं हूं।
और मैं दुबारा गया भी नहीं। दिन भर मच्छरदानी में बैठना पड़े। मच्छर
जिंदा बुद्ध पर दया नहीं किए, तो तुम सोचते हो मरे बुद्ध पर
दया करेंगे? मच्छर फिक्र करेंगे इसकी कि यह बेचारा रुका है?
वे तो कहेंगे, अच्छा ही है रुका है, और थोड़ा चूस लो। और फिर बुद्ध का रक्त भी तो मीठा होता है। कहीं से भी चखो,
बुद्ध मीठे हैं।
इस तरह की कहानियां लोकमानस को भरमाने के लिए गढ़ी गई हैं। और सभी
धर्मों ने गढ़ी हैं। बुद्ध के धर्म में तो यह बात बिलकुल अप्रासंगिक है, बिलकुल ही बुद्ध की जीवन-दृष्टि से मेल नहीं खाती।
करुणा का अर्थ एक ही हो सकता है कि जो मिला है जिसे वह निवेदन कर दे।
नहीं कि थोपे। नहीं कि जबरदस्ती करे। अच्छे आदमियों के भीतर भी जबरदस्ती करने का
गुण होता है, ज्यादा ही होता है। बुरा आदमी तो थोड़ा डरा होता है,
थोड़ा भयभीत होता है कि यह बात बुराई की है। थोड़ा अपराध-भाव होता है।
अच्छे आदमी का अहंकार तो खूब प्रगाढ़ हो जाता है। वह तो एकदम किसी की भी गर्दन
पकड़ने को तैयार रहता है।
साधु-संत, तथाकथित जिनको तुम अच्छे आदमी कहते हो, ये मौका भर पा जाएं कि तुम्हारी गर्दन दबा सकते हों तो फौरन दबाएंगे।
तुम्हारी निंदा कर सकते हों तो फौरन करेंगे। तुम नारकीय हो, पापी
हो, यह बताने का अवसर ये न छोड़ेंगे। क्योंकि वही बताने से
इनके पुण्यात्मा होने का और स्वर्गीय होने का निर्णय होता है। ये सारे के सारे
तथाकथित धर्मगुरु, तुम्हारे संत और तुम्हारे महात्मा करुणा के
नाम पर गुलामी थोप रहे हैं। मगर गुलामी का उनका थोपने का ढंग सूक्ष्म है।
महात्मा गांधी के आश्रम में चाय तक पीने की मनाही थी। कभी कोई अगर चाय
पीता हुआ पकड़ लिया जाता तो महात्मा गांधी अपनी आत्मशुद्धि के लिए...चाय उसने पी
है! अब तुम स्वभावतः कहोगे कि महाकरुणा की बात हो गई। चाय उसने पी है; आत्मा उसकी अशुद्ध हुई। पहले तो यह सवाल कि चाय क्या आत्मा में जाती है?
चमत्कार कि चाय और आत्मा में चली जाए! शरीर में जाएगी और निकल
जाएगी। आत्मा तो अछूती ही रहेगी। मगर नहीं, उसकी आत्मा की
शुद्धि के लिए महात्मा गांधी उपवास करेंगे।
अब यह सताने का खूब सुंदर ढंग हुआ। अब उस आदमी की तुम दशा सोचो। सारा
आश्रम उसको यूं देखेगा जैसे यह कोई महापापी। सारा आश्रम उस पर टूट पड़ेगा कि तेरे
कारण महात्मा गांधी को भूखे मरना पड़ रहा है। वह आदमी रोएगा, गिड़गिड़ाएगा, पैरों पर गिरेगा कि आप भोजन करें,
अब कभी ऐसी भूल न करूंगा, मुझे क्षमा करें।
चाय की तो बात ही छूट गई। चाय का तो सवाल ही न उठा कि ऐसा क्या कसूर
हो गया था! वह तो गौण हो गई बात। असली सवाल अब यह हो गया कि महात्मा गांधी को कैसे
भोजन कराया जाए, कहीं ये मर न जाएं। अगर ये मर जाएं, तो उस चाय पीने वाले को जीवन भर के लिए यह भाव रहेगा कि मैं हिंसक हूं,
कि मैंने हत्या कर दी।
यह भी खूब तरकीब हुई दूसरे आदमी को शुद्ध करने की। मगर खूब जबरदस्ती
हुई। अहिंसा के नाम पर खूब हिंसा हुई। और स्वभावतः अब वह क्या दलील करे और क्या
तर्क करे? दलील और तर्क का कोई सवाल न रहा। विचार-विमर्श का कोई
उपाय न रहा। महात्मा गांधी मरने को तत्पर हैं। और वे यह भी नहीं कहते कि मैं तेरे
लिए यह कर रहा हूं। वे कहते यह हैं कि अगर मेरे आश्रम में इस तरह के पाप हो सकते
हैं तो उसका अर्थ है कि मेरी आत्मा अभी अशुद्ध है, मैं तो
अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए कर रहा हूं।
उनकी आत्मा की शुद्धि के लिए वे उपवास कर रहे हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि अगर सारा आश्रम उनके अनुसार चले तो ही उनकी आत्मा
शुद्ध है। उनकी आत्म-शुद्धि एक तरह का अधिकार बन गया, एक तरह
की तानाशाही बन गई। मगर ये सूक्ष्म बातें हैं। परदे की ओट में कुछ और चल रहा है।
यह दूसरे की आत्मा पर कब्जा करने की चेष्टा करुणा नहीं है। मैं इस तरह की करुणा
में भरोसा नहीं रखता।
करुणा का मेरे लिए एक ही अर्थ है, प्रेम का मेरे लिए एक
ही अर्थ है कि तुम्हें स्वतंत्रता दूं; निवेदन कर दूं कि राह
यह रही और फिर तुम्हें पूरी स्वतंत्रता दूं कि तुम चुनाव करो। और अगर तुम्हें
प्रीतिकर लगता है बंधन में रहना, तो मैं कौन हूं जो बाधा
बनूं? अगर तुम निर्णय करते हो कि मुझे बंधन में रहना ही सुखद
है, तो जबरदस्ती तुम्हें छुड़वाने का क्या सवाल है?
रवींद्रनाथ ठाकुर का एक गीत है, अंतिम दिनों में लिखा
हुआ गीत, जिसमें उन्होंने कहा है: हे प्रभु, मैं आवागमन से मुक्ति नहीं चाहता हूं। मैं चाहता हूं वापस-वापस मुझे
भेजना। तेरा जगत बहुत प्यारा है। तेरा सूरज, तेरे चांद,
तेरे तारे, तेरे फूल, तेरे
इंद्रधनुष, तेरे लोग, यह पृथ्वी इतनी
मनमोहक है कि मुझे कोई स्वर्ग नहीं चाहिए, मुझे कोई मोक्ष
नहीं चाहिए। तू इतनी ही कृपा करना कि मुझे बार-बार यहीं भेज देना, कि मैं तेरे गीत गाऊं, कि मेरी बांसुरी पर तेरे स्वर
उठाऊं।
अब बड़ी मुश्किल खड़ी होगी। बुद्ध खड़े हुए हैं मोक्ष के द्वार पर।
रवींद्रनाथ कहते हैं, मुझे वापस यहीं भेजना। अब संघर्ष छिड़ेगा रवींद्रनाथ
में और बुद्ध में। बुद्ध कहेंगे, मुक्त होना ही पड़ेगा! नहीं
तो मैं यहां खड़ा हूं दरवाजे पर, कुछ मेरी सोचो। और तुम यह
क्या प्रार्थना कर रहे हो कि वापस-वापस
मुझे भेजना।
माना कि--रवींद्रनाथ ने कहा है--माना कि मैं इस योग्य नहीं कि तू मुझे
बार-बार भेजे, मगर तेरी करुणा अपार है। माना कि मैं जीवन का वैसा
सदुपयोग नहीं कर पाया जैसा कि मुझे करना था, मगर तेरी करुणा
अपार है। भेजना। कितना ही अयोग्य होऊं, अब की बार और भी
चेष्टा करूंगा कि गीत थोड़े सुंदर रचूं, कि साज और ठीक से
बिठाऊं।
अंतिम दिन जिस दिन उनका देहांत हुआ, आखिरी गीत जो
रवींद्रनाथ ने लिखा है, उसमें उन्होंने लिखा है कि यह भी
क्या बात हुई! जब बामुश्किल मैं साज बिठा पाया था...।
तुमने देखा न, शास्त्रीय संगीतज्ञ साज ही बिठाते हैं आधा घंटा तक।
कोई तबला ठोंक रहा है, कोई सितार कस रहा है। आधा घंटे तक तो
यही ठोंक-पीट चलती है।
लखनऊ के एक नवाब ने वाइसराय को निमंत्रण दिया था। स्वागत में, रात महफिल बैठी। शास्त्रीय संगीत शुरू हुआ। आधा घंटे तक तो खटखट, हथौड़ी चली तबलों पर, तार बिठाए गए। वाइसराय समझा कि
यही शास्त्रीय संगीत है। सो उसने नवाब से कहा, बहुत आनंद आ
रहा है, चलने दो। यही संगीत चलने दो। नवाब चौंका, मगर करे भी क्या! सो रात भर यही चला। संगीतज्ञों से कहा, आगे मत बढ़ना। साज ही बिठाओ, क्योंकि वाइसराय को बहुत
जंच रहा है। और वाइसराय बड़ा आनंदित लौटा कि ऐसा शास्त्रीय संगीत...।
रवींद्रनाथ ने अपने अंतिम गीत में कहा है कि हे प्रभु, यह कैसा तेरा ढंग! अभी तो मैं साज ही बिठा पाया था। अभी गीत गाया कहां,
और विदा का क्षण आ गया! इतनी क्या जल्दी थी? थोड़ा
समय और दे देता, गीत तो गा लेता, बांसुरी
तो बजा लेता।
क्या तुम सोचते हो रवींद्रनाथ को जबरदस्ती मोक्ष भिजवाने की कोशिश
करनी चाहिए? क्या यह करुणा होगी? क्या यह
उचित होगा? अगर रवींद्रनाथ को यही प्रीतिकर है तो यही उनके
लिए मोक्ष है। इनको जबरदस्ती मोक्ष में भेज देने से मोक्ष भी नरक जैसा मालूम
पड़ेगा।
इस सूत्र को याद रखो कि जबरदस्ती अगर तुम्हें स्वर्ग में भी भेज दिया
जाए तो स्वर्ग कारागृह हो जाएगा। और अगर तुम अपनी मौज से, अपनी स्वेच्छा से, अपने चुनाव से नरक में भी जाओ तो
नरक भी स्वर्ग हो जाएगा। सवाल स्वर्ग और नरक का है ही नहीं। सवाल है स्वतंत्र
चुनाव का।
इसलिए सदगुरु स्वतंत्रता सिखाता है।
तुमने कहा कि आप कहते हैं प्यासा ही कुएं के पास आता है, न कि कुआं प्यासे के पास।
यही उचित है। क्योंकि कुआं प्यासे के पास जाने लगे, प्यासे के पीछे-पीछे दौड़ने लगे, तो प्यासे को भी दया
आए कि बेचारा कुआं कब से भटक रहा है! प्यासा जा रहा है दफ्तर, कुआं जा रहा है प्यासे के पीछे। प्यासा जा रहा है सब्जी खरीदने, कुआं जा रहा है प्यासे के पीछे। प्यासा अपनी पत्नी को प्रेम कर रहा है,
कुआं वहीं खड़ा हुआ है। यह कुछ भलमनसाहत होगी? इसमें
कुछ करुणा होगी? यह तो कुआं न हुआ, कोई
पुलिसवाला हो गया।
नहीं, उचित यही है कि कुआं प्यासे के पास न जाए। हां,
कुआं अपनी खबर भेज दे। कुआं इस बात की घोषणा कर दे कि यहां जल
उपलब्ध है और जिसको प्यास हो वह आ जाए।
और जिसको प्यास नहीं है अभी, वह क्यों आए? क्या कारण है उसके आने का? और जो अभी स्वप्न के जल
से ही तृप्त है, उसको भी आने की कोई जरूरत नहीं। सच तो यह है,
किसी को किसी के स्वप्न को तोड़ने का भी अधिकार नहीं है। मैं व्यक्ति
की स्वतंत्रता को परम मानता हूं। तुम अच्छा प्यारा सपना देख रहे हो, मैं कौन हूं जो तुम्हारे सपने को तोड़ दूं? मेरा क्या
हक है? मैं तुम्हें झकझोर दूं और तुम्हारे सपने को तोड़ दूं,
इससे सिर्फ तुम मुझ पर नाराज होओगे। और तुम फिर वापस अपने सपने में
गिर जाओगे।
जबरदस्ती नहीं की जा सकती। धर्म कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर धर्म के
नाम पर बहुत जबरदस्ती चली है। और उन सबने यही सोचा है कि करुणा की जा रही है।
मोहम्मद तलवार लेकर चलते थे। मोहम्मद की तलवार पर एक वचन लिखा हुआ था
कि शांति ही मेरा धर्म है। यह गजब का मामला हुआ! तलवार पर लिखा हुआ है: शांति मेरा
धर्म है। इसलाम शब्द का अर्थ शांति होता है। मगर जितनी अशांति इसलाम से दुनिया में
फैली, शायद किसी धर्म से नहीं फैली।
मगर खयाल रखना तुम, तुम्हारी जो करुणा की धारणा है,
प्रेम प्रमोद, वही धारणा इसलाम की है। इसलाम
की मान्यता है कि जो मुसलमान नहीं है वह कभी भी स्वर्ग में प्रवेश न पा सकेगा। तो
हर एक को मुसलमान बनाना ही है--करुणावश। फिर चाहे तलवार ही क्यों न उठानी पड़े।
चाहे जोर-जबरदस्ती ही क्यों न करनी पड़े। हर हाल आदमी को स्वर्ग भेजना है। आज
दुनिया में तुम्हें जितने मुसलमान दिखाई पड़ते हैं। इनमें से अधिकतम जबरदस्ती
मुसलमान बनाए गए हैं।
ईसाइयों की धारणा है कि जो ईसाई नहीं हैं, अंतिम निर्णय के दिन जीसस परमात्मा के साथ खड़े होंगे और अपनी भेड़ों को
छांट कर अलग कर लेंगे। वे अपनी भेड़ें छांट लेंगे कि ये हैं ईसाई। और जो ईसाई नहीं
हैं वे नरक में गिरेंगे। स्वभावतः, ईसाई करुणावश सभी को ईसाई
बनाने की कोशिश में लगे हैं। फिर जैसे भी हो, येन केन
प्रकारेण, तलवार के जमाने तो चले गए, अब
तलवार उठाना बेहूदा मालूम होगा, असभ्य मालूम होगा, लेकिन अब दूसरे ढंग उपयोग में लाए जाते हैं। भूखे, दीनऱ्हीन,
गरीब लोगों को रोटी दो, दवा दो, अस्पताल खोलो, स्कूल बनाओ, अनाथालय
चलाओ, विधवा आश्रम बनाओ। यह प्रलोभन, यह
रिश्वत उनके ईसाई हो जाने के लिए। क्योंकि बिना ईसाई हुए उनका कोई भविष्य नहीं है।
और इस सबके पीछे धारणा यही है कि करुणावश यह महान कार्य किया जा रहा है।
हमें यह करुणा की धारणा तोड़नी पड़ेगी, क्योंकि इस धारणा ने
पूरी मनुष्य-जाति को लहूलुहान कर दिया है। पिछले पांच हजार सालों का इतिहास इस बात
का गवाह है कि धर्म के नाम पर जितनी हत्याएं हुईं, जितने
बलात्कार हुए, जितने लोग जलाए गए जिंदा, उतने किसी और चीज के नाम पर नहीं। धर्म के नाम पर भारी कलंक है। धर्म
मनुष्य के लिए वरदान सिद्ध नहीं हुआ, अभिशाप सिद्ध हुआ है।
कारण क्या था?
कारण यही था कि प्रत्येक व्यक्ति की चेष्टा यही थी कि मेरी जो धारणा
है स्वर्ग की, मेरी जो अवधारणा है स्वर्ग पहुंचने की, सभी को उसी मार्ग पर ले आऊं, क्योंकि यही सच्चा
रास्ता है, और सब रास्ते गलत हैं। स्वभावतः अगर और सब रास्ते
गलत हैं तो सच्चे रास्ते पर लाना करुणा की बात है। यह सब करुणा के नाम पर हुआ है।
इसलिए, प्रेम प्रमोद, मैं करुणा की
धारणा को ही बदलना चाहता हूं। नहीं तो यह मूर्खता जारी रहेगी; यह पाप जारी रहेगा; यह धर्म के नाम पर अधर्म जारी
रहेगा। मेरी करुणा की धारणा स्वतंत्रता की है। तुम स्वतंत्र हो। मैं अपनी बात कहने
को स्वतंत्र हूं, लेकिन मानो या न मानो यह तुम्हारी
स्वतंत्रता है। मेरी मौज कि मैंने कहा। तुम्हारी मौज कि तुमने माना या न माना।
जिसने माना उससे मैं प्रसन्न हूं; जिसने नहीं माना उससे मैं
प्रसन्न हूं। मैं दोनों की स्वतंत्रता का समादर करता हूं। ऐसा नहीं कि जिसने माना
उससे मैं ज्यादा प्रसन्न हूं और जिसने नहीं माना उससे थोड़ा कम प्रसन्न हूं। उतना
भी फर्क अगर मैंने किया तो मैंने तुम्हारी स्वतंत्रता को समादर नहीं दिया; मैंने तुम्हारी निजता को गौरव नहीं दिया। यह मेरी मौज थी कि मैंने कहा। यह
तुम्हारी मौज थी कि तुमने सुना। यह तुम्हारी मौज कि तुमने माना या नहीं माना। मेरी
कोई अपेक्षा नहीं। और मेरा कोई दावा नहीं।
कृष्ण का दावा है कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म का ह्रास होगा, धर्म की ग्लानि होगी, तबत्तब मैं आऊंगा और लोगों को
अधर्म से मुक्त करूंगा और धर्म की दिशा में लगाऊंगा।
इस तरह की दावेदारी व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा है। इस तरह की
दावेदारी अलोकतांत्रिक है। और फिर मजा यह है कि इस दावे को पूरा भी तो नहीं कर
पाए। जब आए थे तब कौन सा लोगों को अधर्म से मुक्त करवा दिया? और अगर कृष्ण लोगों को अधर्म से मुक्त करवा चुके थे, तो फिर कृष्ण के बाद दुनिया में अधर्म होना नहीं चाहिए था। अधर्म बढ़ा,
घटा नहीं। सच तो यह है, कृष्ण के कारण बढ़ा,
घटा नहीं। अर्जुन ही ज्यादा धार्मिक आदमी मालूम पड़ता है, ज्यादा संवेदनशील। देखा उसने कि इतने लोगों को काट डालना...और कितने लोग
थे तुम सोचो! अठारह अक्षौहिणी सेनाएं इकट्ठी थीं। इसको ठीक आज के हिसाब में
अनुवादित करो तो सवा अरब लोग इकट्ठे थे। सोचने जैसा था कि इस छोटे से राज्य के लिए,
धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा
के लिए क्या एक अरब, सवा अरब लोगों की हत्या का आयोजन उचित
है?
अर्जुन को कुछ थोड़ी सदबुद्धि उठी थी, थोड़ा सदभाव उठा था।
उसके हाथ से गांडीव छूट गया था। वह निढाल होकर अपने रथ में बैठ गया। और उसने कहा
कि यह युद्ध करने जैसा नहीं मालूम होता। क्या करूंगा यह युद्ध करके? इतने लोगों को मार कर? और ये सब अपने ही लोग। सभी
अपने भाई-बंधु, अपने मित्र। क्योंकि झगड़ा ही भाइयों के बीच
था, तो सभी संबंधी बंट गए थे। खुद कृष्ण अर्जुन की तरफ थे और
कृष्ण की फौजें कौरवों की तरफ थीं। कोई भाई इस तरफ था, कोई
भतीजा उस तरफ था। कोई चाचा उस तरफ थे, कोई दादा इस तरफ थे।
अपना ही परिवार था, वह बंटा हुआ था। और अपने ही मित्र थे,
वे बंटे हुए थे। भीष्म पितामह, जिनके प्रति
अर्जुन को उतना ही समादर था जितना किसी और को, वे उस तरफ थे,
दुश्मनों की भीड़ में खड़े थे। कृष्ण इस तरफ थे। अर्जुन को सीधी बात
दिखाई पड़ी कि यह अपने ही लोगों को मारना है। इतनी महान हिंसा करना, परिणाम क्या है? यही कि कुछ दिन सिंहासन पर बैठेंगे,
फिर मर जाना है। यह चार दिन की चांदनी के लिए इतने लोगों की जिंदगी
से खिलवाड़, उचित नहीं मालूम होता।
कृष्ण ने लेकिन समझा-बुझा कर, हर उपाय करके,
हर तरह के गलत और सही तर्क देकर...पूरी गीता इस बात का सबूत
है--सिर्फ एक बात का सबूत--कि कृष्ण तर्क की दृष्टि से अर्जुन से ज्यादा कुशल थे,
और किसी बात का सबूत नहीं है।
मगर तर्क की कुशलता कोई कुशलता नहीं है। तर्क से तो कुछ भी सिद्ध किया
जा सकता है। तर्क तो वेश्या है, किसी के भी साथ हो ले। तर्क तो
वकील है। तुम वकील के पास जाओ, कैसा ही मुकदमा हो, वह तुमसे कहेगा: बेफिक्र रहो, तुम जीतोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक वकील के पास गया। उसने अपनी पूरी कहानी बताई।
वकील ने कहा, बेफिक्र रहो! हालांकि तुमने काम बहुत बुरा किया है,
लेकिन तुम बच जाओगे। कोई कानून तुम्हें फंसा नहीं सकता। तुम
सुनिश्चित छूट जाओगे। इसका मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं।
मुल्ला उठ कर खड़ा हो गया। चलने लगा तो वकील ने पूछा, कहां जाते हो? मुकदमे की तैयारी नहीं करनी?
मुल्ला ने कहा, अब क्या फायदा! क्योंकि मैंने कहानी अपने विपरीत आदमी
की सुनाई थी। अगर उसकी जीत निश्चित ही है तो नाहक तुम्हें फीस देने से क्या फायदा?
मुल्ला भी होशियार आदमी है।
कृष्ण ने सब तरह के तर्क-जाल से अर्जुन को युद्ध में उतार दिया और यह
समझाया कि इससे धर्म की रक्षा होगी। हत्या हुई धर्म की, रक्षा कहां हुई? सवा अरब आदमी मरे। लाशों से पट गया
देश। और धर्म का कौन सा अभिनव रूप प्रकट हुआ? कौन सी क्रांति
हो गई? न तब हो सकी, लेकिन फिर भी
हिंदू हैं कि अभी भी विश्वास किए हैं कि आएंगे कृष्ण। संभवामि युगे युगे। आएंगे और
बचाएंगे।
यही धारणाएं औरों की हैं, यही दावे औरों के
हैं।
जीसस का दावा है कि वे दुनिया को पाप से मुक्त कराने के लिए आए हैं।
और ईसाई मानते हैं कि यह दावा सच है। मगर दुनिया पाप से मुक्त कहां हुई? दावा सच है तो दुनिया पाप से मुक्त हो जानी चाहिए। किसको पाप से मुक्त करवा
पाए? पाप अपनी जगह है। जीसस को सूली लग गई, पाप को सूली नहीं लगी। पाप तो सिंहासन पर बैठा है; अब
भी बैठा है, तब भी बैठा था। दावेदारी की बात ही गलत है।
मैं कोई दावा नहीं करता कि मैं तुम्हें मुक्त कराऊं, कि मैं तुम्हें स्वर्ग ले चलूं, कि मैं तुम्हें
मोक्ष की गारंटी दे दूं। नहीं, मेरा कोई दावा नहीं। मेरी तो
सिर्फ इतनी उदघोषणा है कि मैंने जीवन को आनंद से जीने का सूत्र पा लिया है,
उस सूत्र को तुम्हें निवेदन कर देता हूं। और मैं तुम्हारे पीछे नहीं
आऊंगा। जिसको प्यास हो उसी को आना पड़ेगा। और जिसको प्यास नहीं है, तो ऐसी जल्दी भी क्या है? जब प्यास होगी तब आएगा।
मैं नहीं तो किसी और के पास आएगा। कोई मैंने ही थोड़े ठेका लिया है। मैं नहीं
रहूंगा तो कोई और रहेगा। बुद्धों की शृंखला तो जारी रहेगी।
तुम कहते हो: "क्या आपका आनंद का झरना सब जगह बहता हुआ उनकी
प्यास को जगा कर उन्हें तृप्त नहीं कर देगा?'
आनंद सूर्य की किरणों की भांति है। द्वार पर दस्तक भी नहीं देता।
सिर्फ प्रतीक्षा करता है, आहट भी नहीं करता--किसी की नींद टूट जाए, किसी के सपने में भंग पड़ जाए। आनंद जबरदस्ती किसी के घर में प्रवेश नहीं
करता। और जिसको प्यास नहीं है, तो क्या जरूरत है कि जबरदस्ती
उसको प्यास का बोध करवाया जाए? और क्या तुम सोचते हो कभी कोई
भी आज तक पूरी पृथ्वी पर किसी में प्यास जगाने में समर्थ हो सका है? यह तो जीवन का अनुभव ही क्रमशः व्यक्ति को उस जगह ले आता है जहां प्यास
पैदा होती है--देर-अबेर, कोई आज, कोई
कल। मगर अनंत काल पड़ा है, जल्दी भी क्या है? ऐसी घबड़ाहट क्या है? मुझे कोई जल्दी नहीं है।
तुम कहते हो: "भगवान बुद्ध की परम करुणा की अभिव्यक्ति थी कि जब
तक संसार के समस्त जीव निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेते हैं, वे भी निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे।'
यह तो शर्तबंदी हो गई। यह तो एक शर्त हो गई कि यह शर्त जब पूरी होगी
तब मैं निर्वाण में प्रवेश करूंगा। और शर्तें काम नहीं आतीं। शर्तें छोड़ दे कोई तो
ही तो निर्वाण उपलब्ध होता है। निर्वाण का अर्थ ही यह है कि अब मेरे जीवन पर कोई
शर्त नहीं है, कोई अपेक्षा नहीं है; ऐसा होना
चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए--ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है।
निराग्रह व्यक्ति ही तो निर्वाण को उपलब्ध होता है।
अगर बुद्ध की यह शर्त थी, तो तुम गलती में हो,
अगर यह उनकी शर्त थी तो वे चाहें तो भी निर्वाण में प्रवेश नहीं कर
सकते हैं। यूं नहीं है कि वे निर्वाण के द्वार पर रुके हुए हैं अपनी शर्त के कारण
कि जब तक सभी प्रवेश न कर लेंगे, मैं प्रवेश नहीं करूंगा।
अगर यह शर्त है तो वे प्रवेश भी करना चाहें तो द्वार बंद है, प्रवेश नहीं हो सकता। शर्त ही द्वार बंद कर देती है। फिर शर्त चाहे कितनी
ही सुंदर क्यों न हो, शर्त आखिर शर्त है।
अस्तित्व के साथ सौदा नहीं किया जा सकता। अस्तित्व के साथ बेशर्त ही
हुआ जा सकता है। सारी शर्तों का गिर जाना ही निर्वाण है।
यह भी तो वासना ही हुई न! यह भी तो आकांक्षा ही हुई न!
थोड़ा समझने की कोशिश करो! यह करुणा नहीं है, वासना है। वासना का अर्थ यही होता है: ऐसा होना चाहिए; अगर ऐसा होगा तो मैं सुखी; अगर ऐसा नहीं होगा तो मैं
दुखी; इतना धन मिले तो मैं सुखी; इतना
पद मिले तो मैं सुखी। हम समझ लेते हैं कि यह वासना है। लेकिन कोई आदमी अगर निर्वाण
के द्वार पर भी इस तरह का दावा करे कि ऐसा हो--और छोटी-मोटी शर्त भी नहीं, ऐसी शर्त कि सारे प्राणी, अनंत प्राणी हैं, इन अनंत प्राणियों की मुक्ति पर ही मैं प्रवेश करूंगा--यह शर्त ही काफी
है। अगर बुद्ध ने ऐसा किया होगा तो वे किसी और द्वार पर खड़े हैं, वह द्वार निर्वाण का नहीं है। वे भ्रांति में हैं। निर्वाण का द्वार तो
खुलता ही तब है जब तुम्हारे जीवन में कोई वासना नहीं रह जाती। यह भी वासना है।
दूसरे को मुक्त करने की वासना भी वासना है।
आनंद को उपलब्ध व्यक्ति अपना गीत गाता है, अपनी धुन में मस्त होता है। जरूर उसके पास एक महफिल इकट्ठी हो जाती है।
जरूर उसके पास दीवाने आ जाते हैं। जरूर उसके पास एक मधुशाला खड़ी हो जाती है। मगर
यह सब सहज होता है। इसकी कोई शर्त नहीं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा
नहीं। ऐसा हो जाता है। जरूर बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के पास बहुत से लोग
बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। मगर बुद्ध उन्हें बुद्धत्व को उपलब्ध करवा नहीं
देते। वे खुद ही अपनी प्यास से बुद्धत्व के जल को पीते हैं; खुद
अपनी प्यास से, अपने हृदय को पात्र बनाते हैं। खुद अपने बुझे
हुए दीये को बुद्ध के दीये के पास लाते हैं; ताकि ज्योति से
ज्योति जल उठे।
अगर तुम मेरी बात समझना चाहते हो, प्रेम प्रमोद,
तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति कुछ भी
नहीं करता। बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया व्यक्ति पर्याप्त है; उसकी
मौजूदगी में चीजें घटती हैं; वह कुछ करता नहीं। जैसे वसंत
आता है और फूल खिल जाते हैं; यूं नहीं है कि एक-एक फूल को और
पंखुरी-पंखुरी को खींच-खींच कर खोलना पड़ता है। सुबह होती है और पक्षी गीत गाने
लगते हैं; यूं नहीं है कि सूरज आकर एक-एक पक्षी के गले को
दबाता है कि गा, सुबह हो गई! यह स्वाभाविक घटता है।
लेकिन सभी फूल नहीं खिलते। कुछ फूल रात को खिलते हैं। और सभी पक्षी
नहीं गाते। उल्लू भी हैं, उल्लू के पट्ठे भी हैं; वे सूरज
को देखते ही से आंख बंद कर लेते हैं। मगर यह उनकी स्वतंत्रता है। अब जबरदस्ती
उल्लुओं की आंखें खोलो तो नाराज ही होंगे। यह उनकी मौज! उनको रात में ही मजा आता
है, तो कोई हर्ज नहीं। जिसको जैसे मजा आता है।
मेरे मन में किसी की निंदा नहीं--किसी की भी! अगर किसी को शराब पीने
में मजा आ रहा है, तो भी मेरे मन में उसकी कोई निंदा नहीं। यह उसकी
स्वतंत्रता है। जरूर निवेदन कर दूंगा कि तू व्यर्थ की शराब में उलझा है, और भी बेहतर शराब है! भीतर की भी शराब है, जो
अंगूरों से नहीं ढलती, आत्मा से ढलती है। मगर फिर तेरी मौज।
तुझे अगर अंगूर से ढली शराब में ही रस आ रहा है, तो तू
अधिकारी है अपने रास्ते पर जाने का। जबरदस्ती खींच कर तुझे भीतर की शराब पिलाने का
आयोजन नहीं किया जा सकता। जबरदस्ती मेरे जीवन-दृष्टिकोण में कहीं आती नहीं।
इसलिए मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि आप अपने संन्यासियों को कोई
अनुशासन क्यों नहीं देते?
अनुशासन मैं नहीं दे सकता हूं। महावीर ने दिया; इसलिए महावीर को जैन कहते हैं अनुशास्ता। और जैन धर्म को कहते हैं जैन
शासन। यह राजनीति की भाषा है। बुद्ध ने दिया। मगर अब तुम बुद्ध का अनुशासन पढ़ने
बैठो तो घबड़ा जाओगे। तैंतीस हजार नियम, जिनको याद रखना भी
मुश्किल, पालने की तो बात छोड़ दो। हर छोटी-छोटी बात के नियम।
कैसे उठना, कैसे बैठना, कौन सा पैर किस
पैर के ऊपर रख कर बैठना, कौन से हाथ पर कौन सा हाथ होना--हर
छोटी-छोटी बात के नियम, तैंतीस हजार नियम--क्या खाना,
क्या नहीं खाना; कब खाना, कब नहीं खाना; कब पीना, कब
नहीं पीना; कब यात्रा करनी, कब नहीं
यात्रा करनी। तैंतीस हजार नियमों में बंधा हुआ आदमी मोक्ष को उपलब्ध हो सकेगा?
तैंतीस हजार जंजीरों में बंधा हुआ आदमी है यह। जंजीरें ही जंजीरें
हैं, आदमी तो वह न मालूम कहां खो जाएगा!
और फिर, बुद्ध को क्या अधिकार है? किसी
को क्या अधिकार है कि दूसरे के जीवन पर नियमन करे, शासन करे?
और प्रत्येक व्यक्ति इतना अनूठा और भिन्न है कि कोई भी सार्वलौकिक
नियम बनाए नहीं जा सकते।
जैसे कि हिंदू मानते हैं ब्रह्ममुहूर्त में उठना बड़ा धार्मिक कार्य है; जो ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठता वह न तो साधु है, न
संत है; साधु-संतों को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना ही चाहिए।
यह नियम कैसे बना? क्यों बना?
हिंदू व्यवस्था यह थी कि पच्चीस वर्ष तक व्यक्ति ब्रह्मचर्य वास करे, गुरुकुल में रहे, विद्या-अध्ययन करे। वह ब्रह्मचर्य
का काल था। फिर पच्चीस वर्ष गृहस्थी बसाए, बाल-बच्चे पैदा
करे, दुकान चलाए, संसार में रहे। वह
गृहस्थाश्रम था। पहला ब्रह्मचर्य आश्रम, दूसरा गृहस्थ आश्रम।
फिर पच्चीस वर्ष, तीसरे चरण में, वानप्रस्थ
हो जाए। वानप्रस्थ का अर्थ होता है: मुंह जंगल की तरफ हो जाए। जंगल अभी जाए नहीं,
सिर्फ टाइम-टेबल देखे, नक्शा अध्ययन करे,
तैयारी करे, बिस्तर बांधे, मगर जाए नहीं। पच्चीस साल बिस्तर बांधे और खोले, नक्शा
खोले और बंद करे, तैयारी करे, अभ्यास
करे, तब वह हो जाएगा पचहत्तर वर्ष का, तब
जाकर वह संन्यासी हो। वह चौथा आश्रम। ये पचहत्तर साल के बाद जो लोग संन्यासी हुए,
साधु हुए, संत हुए, ऋषि-मुनि
हुए, ये कहते हैं ब्रह्ममुहूर्त में उठ आना चाहिए।
असल में बूढ़ों को नींद नहीं आती। पचहत्तर साल के बाद ब्रह्ममुहूर्त
में तुम सोना भी चाहो तो नहीं सो सकते। बूढ़ों ने नियम बनाया, बूढ़ों को नींद ही आती है कम। यह स्वाभाविक है। मां के पेट में बच्चा चौबीस
घंटे सोता है, क्योंकि नौ महीने में जितना काम होता है बच्चे
के जीवन में उतना फिर पूरे जीवन में नहीं होता। नौ महीने में इतना काम चलता है कि
अगर बच्चा जाग जाए तो काम में बाधा पड़ जाए। सारी ऊर्जा उसकी देह के निर्माण में
लगी होती है। अभी जागने लायक न तो समय है, न सुविधा है।
बच्चा सोया रहता है। नौ महीने मां के पेट में बच्चा सोता है।
फिर जब बच्चा पैदा होता है तो तेईस घंटे सोता है, बाईस घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है, अठारह घंटे सोता है। धीरे-धीरे-धीरे जवान होतेऱ्होते करीब सात-आठ घंटे
सोता है। क्योंकि अब जीवन का जो कार्य था, शरीर के निर्माण
का जो कार्य था, वह पूर्ण हो चुका, अब
ज्यादा नींद की जरूरत नहीं है। नींद बड़ी अपरिहार्य है। नींद जीवन के लिए बहुत
जरूरी है। जवान आदमी को सात-आठ घंटे पर्याप्त है, ताकि जितनी
थकान, जो ऊर्जा काम में व्यय हुई है, वह
सात-आठ घंटे में वापस लौट आती है। लेकिन बूढ़ा आदमी चार घंटे, तीन घंटे, दो घंटे, यूं सोने
लगता है। क्योंकि बूढ़े आदमी को अब मरना है। अब शरीर में निर्माण का काम बंद हो
चुका। अब नींद की ज्यादा जरूरत न रही।
पचहत्तर साल की उम्र के बाद जिन लोगों ने शास्त्र रचे हैं, इनकी बातें अगर जवानों को माननी पड़ें तो झंझट खड़ी होगी। अगर कोई जवान आदमी
दोत्तीन घंटे सोए और ब्रह्ममुहूर्त में उठ आए, तो दिन भर
झपकी खाएगा। फिर वह इन्हीं बूढ़ों से जाकर पूछेगा कि बात क्या है? तो वे कहेंगे कि तुम्हारी वृत्ति तामसिक है, इसलिए
झपकी आती है। हमको क्यों नहीं आती? तो तुम अपना भोजन बदलो।
तुम्हारा भोजन तामसिक है। तो शुद्ध भोजन क्या है? शुद्ध भोजन
है दूध, दुग्धाहार करो।
अब सिर्फ आदमी अकेला जानवर है दुनिया में जो बचपन के बाद भी दूध पीता
है। सभी जानवर बचपन में दूध पीते हैं, सदा दुग्धाहार नहीं
करते। आदमी अजीब है! दुग्धाहार बच्चों के लिए ठीक है, क्योंकि
वे केवल दूध ही पचा सकते हैं। लेकिन जवान आदमी से कहना कि सिर्फ दूध पर जीओ,
दूध पर जीएगा तो सदा भूखा अनुभव करेगा। बच्चे का भोजन जवान आदमी के
काम का नहीं है। फिर वहीं पहुंचेगा, उन्हीं ऋषि-मुनियों से
पूछने, क्योंकि उन्हीं ने सिलसिला शुरू करवा दिया। तो वे और
तरकीबें बताएंगे उसको कि सिर के बल खड़े होओ, आसन-व्यायाम
करो। मतलब यह कि वह जाल में उलझता जाएगा--एक छोटी सी भूल के कारण। भूल सिर्फ इतनी
थी कि जो नियम बूढ़ों ने बनाए हैं, वे जवानों के काम के नहीं
हैं।
फिर प्रत्येक व्यक्ति में भी अंतर है। किसी को छह घंटे नींद काफी है, किसी को आठ घंटे नींद और किसी को दस घंटे की जरूरत है। और प्रत्येक को
अपनी ही व्यवस्था को समझ कर जीना चाहिए। इसलिए मैं कोई सार्वलौकिक नियम नहीं दे
सकता, कि मैं तुमसे कह दूं कि ठीक छह घंटे सोना चाहिए। बूढ़े
दिक्कत में पड़ जाएंगे, क्योंकि वे छह घंटे नहीं सो सकते।
जवान दिक्कत में पड़ जाएंगे, क्योंकि उनको आठ घंटे की नींद की
जरूरत है। बच्चे मुसीबत में पड़ जाएंगे, क्योंकि उनको दस-बारह
घंटे की नींद की जरूरत है। और अगर गर्भस्थ बच्चों को पता चल जाए कि ब्रह्ममुहूर्त
में उठना है, तो वे पागल ही पैदा होंगे। और वे पागल पैदा
होंगे ही होंगे, उनकी मां भी पागल हो जाएगी। क्योंकि
ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर वे करेंगे क्या? कहीं भजन-कीर्तन
शुरू कर दिया गर्भ में, या आसन-व्यायाम इत्यादि करने लगे,
तो मां पगला जाएगी।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने बोध से जीना चाहिए। तो मैं, सिर्फ बोध कैसे पैदा हो, इसकी प्रक्रिया तुम्हें
देता हूं। फिर जीवन का अनुशासन तुम्हें तय करना है। तुम्हारा जीवन है, तुम नियंता हो। कोई और नियंता नहीं।
लेकिन ये सारे धर्मगुरु इस चेष्टा में लगे रहते हैं--किस तरह तुम्हारे
पर कब्जा करें! हर तरह से तुम्हारी गर्दन पर फंदा डाल देने की आकांक्षा! यह कोई
अच्छी आकांक्षा नहीं है। यह करुणा नहीं है। यह करुणा से ठीक उलटी बात है।
और अंततः, प्रेम प्रमोद, तुम कहते हो:
"आप जैसा सामर्थ्यवान बुद्ध पुरुष विश्व में न कभी पैदा हुआ है और न कभी हो
सकेगा।'
यह तुम्हें कैसे पता लगा? तुम्हारा मुझसे प्रेम
है, यह और बात। प्रेम में इस तरह की बातें सूझती हैं। किसी
स्त्री से प्रेम हो जाए तो लोग कहते हैं कि तुझसे ज्यादा सुंदर न कभी कोई स्त्री
थी, न कभी होगी। अरे क्लिओपैट्रा भी कुछ न थी! लैला भी कुछ न
थी! हीर भी कुछ न थी! तू तो क्लिओपैट्रा और लैला और हीर, सबकी
मिली-जुली खीर है! और तेरे जैसी स्त्री अब कभी पैदा नहीं होगी।
यह पागलपन प्रेम में पकड़ता है। बुद्ध को प्रेम करने वाले यही कहते हैं
कि ऐसा बुद्ध पुरुष कभी नहीं हुआ और कभी नहीं होगा। महावीर को मानने वाले भी यही
कहते हैं। और मोहम्मद को मानने वाले भी यही कहते हैं। और जीसस को मानने वाले भी
यही कहते हैं। यह पागलपन है। जहां तक प्रेम का और कविता का सवाल है, क्षम्य है, मगर इस तरह की घोषणाएं नहीं करनी हैं।
इस तरह की घोषणाओं के कारण मनुष्य-जाति की बहुत हानि हुई है। कोई कारण
नहीं है। जब भी कोई जागता है तो जागने का स्वाद एक जैसा है। वह चाहे पांच हजार साल
पहले जागा हो, चाहे आज जागे; चाहे इस देह में
जागा हो, चाहे किसी और देह में जागा हो या पांच हजार साल बाद
किसी देह में जागे, जागरण का स्वाद एक है, जागरण की अनुभूति एक है।
मगर प्रेम प्रमोद, मैं समझता हूं, तुम्हारा मुझसे प्रेम है। मेरे संन्यासियों का मुझसे प्रेम है। लेकिन मैं
तुम्हें आगाह करता हूं कि यह भूल बार-बार हुई है, मेरे साथ
नहीं होनी चाहिए। अगर ईसाइयों से कहो कि बुद्ध जीसस से महान, झगड़ा खड़ा हो जाए! जैनों से कहो कि बुद्ध महावीर से महान, झगड़ा खड़ा हो जाए! यह झगड़ा आगे खड़ा नहीं होना चाहिए। यह तुम्हारे प्रेम का
प्रतीक है, मगर ये प्रेम के प्रतीक मंहगे साबित हुए हैं।
इसलिए मेरे संबंध में तुम स्पष्ट समझ लो। मेरे जैसे लोग बहुत हुए हैं
और बहुत होंगे। असल में बहुत होने चाहिए। इतने होने चाहिए कि पृथ्वी इस तरह के
लोगों से ही भर जाए। मैं तो चाहूंगा कि ऐसी घड़ी आनी चाहिए जब हमें बुद्ध पुरुषों
को अलग से गिनती करने की जरूरत न रह जाए। आखिर हम क्यों गिनते हैं अंगुलियों
पर--बुद्ध, महावीर, कृष्ण, जरथुस्त्र, लाओत्सु--क्यों अंगुलियों पर गिनते हैं?
इसीलिए कि बहुत न्यून संख्या में लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं।
यह बात बदलनी चाहिए।
किसी बगीचे में हजारों पौधे हों और एक पौधे पर फूल खिल जाए--एक
फूल--तो स्वभावतः नजर उस पर अटक जाएगी। हम सदियों तक याद रखेंगे। मगर यह कोई शोभा
की बात नहीं है। हर पौधे पर फूल होने चाहिए। और एक ही क्यों, हजारों होने चाहिए। स्वभावतः फिर हमें कृष्ण और बुद्ध और मोहम्मद और जीसस
को अलग-अलग गिनने की कोई जरूरत न रह जाएगी। बुद्धत्व जीवन की सामान्य सहज स्थिति
होनी चाहिए। वक्त ऐसा आना चाहिए कि बुद्धुओं की गिनती अलग की जा सके, कि फलां-फलां बुद्धू हैं, और बुद्धों की गिनती की
कोई जरूरत न रह जाए। बात कुछ बदलनी चाहिए। और यह बदलाहट तभी हो सकती है जब हम बहुत
सजग हों; अन्यथा प्रेम हमें मूर्च्छित कर देता है।
सामवेद का एक प्यारा वचन है--
यो जागार तमृचः कामयन्ते।
यो जागार तमु सामानि यन्ते।
"जो जागता है, उसी को ऋचाएं
चाहती हैं। जो जागता है, सामवेद के मंत्र भी उसी के पास आते
हैं।'
जहां जागरण है वहां वेद अपने आप प्रकट होने लगते हैं। जहां जागरण है
वहां शब्द-शब्द ऋचा हो जाता है। जहां जागरण है वहां जो बोलो वही अमृत है। वहां मौन
भी अमृत है। न बोलो, सन्नाटा हो, तो भी अमृत है।
बोलना भी ऋचा है, न बोलना भी ऋचा है। जहां जागरण है वहां
जीवन की सारी संपदा है।
और जागरण का कोई संबंध समय से नहीं है, किसी काल से नहीं है।
लेकिन सारे धर्मों ने इस बात की कोशिश की है, जैसे ईसाई कहते
हैं कि जीसस ईश्वर के इकलौते बेटे हैं। क्यों इकलौते? डर है
कि कहीं दूसरा आदमी न कह दे कि हम भी ईश्वर के बेटे हैं! कोई यह भी कह सकता है कि
हम जुड़वां हैं। कोई यह भी कह सकता है कि हम जीसस के बड़े भाई हैं। फिर क्या करोगे?
पहले ही से तय कर दिया--इकलौते। झंझट ही मिटा दी। घबड़ाहट है कि कहीं
और कोई व्यक्ति जीसस की गरिमा का, जीसस के साथ तौला न जाने
लगे। अन्यथा हमारे ईसाई धर्म का क्या होगा! वह उसी आधार पर तो खड़ा है कि जीसस का
मुकाबला कोई और दूसरा नहीं कर सकता।
जैन कहते हैं, महावीर अंतिम तीर्थंकर हैं, अब
कोई तीर्थंकर नहीं होगा। दरवाजा बंद। यह भी खूब रही! अब अनंत काल कोई जागेगा नहीं।
यह दरवाजा बंद करने की चेष्टा सभी धर्मों में है।
सिक्ख कहते हैं, दसवें गुरु हो चुके। दस यानी बस।
अब गुरुग्रंथ साहिब पढ़ो। अब कोई सदगुरु नहीं हो सकता। या कोई अगर सदगुरु होने की
बात करेगा तो ठीक नहीं, कृपाणें निकल आएंगी। अब यह हो ही
नहीं सकता, दरवाजा बंद कर दिया।
बौद्धों की भी यही धारणा है। सारे धर्मों की यही धारणा है।
मोहम्मद--मुसलमान कहते हैं--आखिरी पैगंबर हैं। अब कोई और पैगाम परमात्मा की तरफ से
नहीं आएगा। आखिरी संशोधित संस्करण आ चुका कुरान का। अब इसमें कोई तरमीम, कोई संशोधन आवश्यक नहीं है। पहले जो किताबें आई थीं, उनमें कुछ भूल-चूकें थीं। पहले जो किताबें आई थीं, वे
कुछ अधूरी थीं। कुरान में सब पूरा हो गया। कुरान पूर्ण है। और हजरत मोहम्मद आखिरी
पैगंबर हैं।
यह क्या आग्रह है? मनुष्य-जाति जीएगी, क्यों उसे तुम यह आभास दे रहे हो कि अब अंधेरा ही अंधेरा रहेगा? सच तो यह है कि अब और ज्यादा बुद्ध पुरुष होंगे, और
ज्यादा पैगंबर होंगे, और ज्यादा जीसस की हैसियत के लोग
होंगे। क्योंकि आदमी विकासमान है। आदमी ज्यादा प्रतिभाशाली होता जा रहा है। आदमी
के जीवन में निखार आ रहा है। आदमी की प्रतिभा और मेधा नयी-नयी ज्योतियों से जगमगा
रही है।
गंगोत्री से गंगा निकलती है, तब पतली धार होती है।
गऊमुख से गिरती है, इतनी पतली होती है। फिर बढ़ती जाती है,
बड़ी होती जाती है। यूं ही मनुष्य की चेतना है। कुछ लोग उसे गंगोत्री
पर ही रोक देना चाहते हैं। मनुष्य की चेतना बढ़ती जाती है, गंगोत्री
से गंगासागर तक पहुंचना है। और यह रोज धारा बड़ी हो रही है।
इसलिए मेरे संन्यासी इसे सदा स्मरण रखें कि मैं कोई आखिरी पैगंबर नहीं
हूं, न ही कोई आखिरी तीर्थंकर हूं, न
ही कोई आखिरी अवतार हूं, न ही कोई आखिरी बुद्ध हूं। न आखिरी
हूं, न प्रथम हूं। पहले भी अपूर्व फूल खिले हैं और आगे भी
अपूर्व फूल खिलेंगे। और तुम अगर सच में मुझे प्रेम करते हो तो तुम उन सब फूलों को
प्रेम करोगे। क्योंकि तुमने अगर एक फूल को प्रेम किया और उस एक फूल से बंध गए तो
तुमने फूल को प्रेम किया ही नहीं।
फूल को प्रेम करने का अर्थ होता है कि तुमने खिलने को प्रेम किया, तुमने फूल की पंखुड़ियों के खुल जाने को और गंध के उड़ जाने को प्रेम किया।
इसलिए गंध कहीं भी उड़ी हो, किसी फूल से उड़ी हो, अतीत में या भविष्य में, अगर तुमने सच में ही एक फूल
को चाहा है, तो उस चाहत में सारे फूलों की चाहत सम्मिलित हो
जानी चाहिए।
मैं तुम्हें कोई एक धर्म नहीं दे रहा हूं, बस एक धार्मिकता दे रहा हूं। इसलिए मुझ पर तुम्हें रुक नहीं जाना है। मेरा
उपयोग करो, ताकि तुम पहचान सको अतीत के सारे बुद्धों को और
भविष्य के सारे बुद्धों को। मैं तुम्हें विराट करना चाहता हूं, तुम्हारे हृदय को बहु-आयाम देना चाहता हूं। क्या बंध कर बैठ जाना?
हर बुद्ध की अपनी एक अभिव्यक्ति होती है। जैसे कि चंपा का फूल है, उसका एक ढंग है। और जैसे गुलाब का फूल है, उसका एक
ढंग है। और जैसे जूही का फूल है और जैसे कमल का फूल है, सब
के अपने ढंग हैं। मगर खिलना एक ही घटना है। सब खिलते हैं। सब सुगंध को बिखेर देते
हैं। जो आदमी जूही के फूल से ही बंधा रह गया, वह चंपाओं से
वंचित रह जाएगा, कमलों के प्रति अंधा हो जाएगा, गुलाबों से बच कर निकलेगा। उसके जीवन में एकांगिता पैदा हो जाएगी। जब कि
सभी फूल उसके हो सकते थे, जब कि सारी बगिया उसकी हो सकती थी।
तो क्यों कंजूसी? प्रेम में क्या कंजूसी? कम से कम प्रेम को तो उदार करो।
अब निश्चित ही बुद्ध का एक ढंग है, जैसे कि जूही के फूल।
महावीर का और ढंग है, जैसे चंपा के फूल। जरथुस्त्र का और ही
ढंग है, जैसे टेसू के फूल। और लाओत्सु का और ही ढंग है,
जैसे गुलाब के फूल। तुम्हारी बगिया, तुम्हारे
हृदय की बगिया में इन सारे फूलों की जगह होनी चाहिए। अगर तुमने सच में मुझे चाहा
है तो ये सारे फूल तुम्हारे हैं। वे फूल जो खिले और वे फूल जो कभी खिलेंगे,
वे भी तुम्हारे हैं। मैं तुम्हें अतीत ही नहीं दे रहा हूं, तुम्हें भविष्य भी दे रहा हूं। जब तुम्हारी चेतना सभी आयामों को छूती है,
तभी तुम सच में मुक्त हो।
जो जैन हो गया वह मुक्त नहीं। जो बौद्ध हो गया वह मुक्त नहीं। जो
मुसलमान हो गया वह मुक्त नहीं। जो ईसाई हो गया वह मुक्त नहीं।
सिर्फ धार्मिक होना पर्याप्त है। जीवन में सत्य की खोज, सौंदर्य की खोज पर्याप्त है। जीवन में अपने स्वयं के केंद्र को अनुभव कर
लेना पर्याप्त है। न किसी मंदिर में जाने की जरूरत है, न
किसी मस्जिद में, क्योंकि असली मंदिर तुम्हारे भीतर है। जिस
दिन तुम अपने मंदिर में विराजमान हो जाओगे उस दिन तुम अचानक पाओगे कि चारों तरफ
मंदिर ही मंदिर हैं, क्योंकि हर चेतना मंदिर है। चारों तरफ
परमात्मा ही परमात्मा है, क्योंकि हर व्यक्ति के भीतर वही
विराजमान है।
ऋग्वेद का एक वचन है: ऋतस्य शृंगमुर्विया विपप्रथे।
"ऋत की सत्ता सर्वत्र फैली हुई है।'
ऋत वेद का बहुमूल्य शब्द है। उसी से हमारा शब्द ऋतु बना। ऋतु प्राचीन
समय में बहुत नियमबद्ध थी। ठीक समय पर, ठीक दिन पर वर्षा आती
थी; ठीक दिन पर गर्मी शुरू होती थी; ठीक
क्षण में सर्दी आती थी। वह वर्तुल ऋतुओं का एक नियम से घूमता था। धीरे-धीरे ऋतुएं
डगमगा गईं। आदमी ने डगमगा दीं। आणविक विस्फोटों ने ऋतुओं को डगमगा दिया। जैसे
ऋतुओं का वर्तुल था, ऐसे ही जीवन में और भी गहरा एक ऋत है,
जिसके अनुसार चेतना चलती है। चेतना का जो नियम है उसका नाम धर्म है।
उसी को वेद ऋत कहते हैं।
"ऋत की सत्ता सर्वत्र फैली हुई है।'
जिस दिन तुम अपने भीतर ऋत की सत्ता का अनुभव कर लोगे, तुम धार्मिक हुए। जिस दिन तुमने जीवन का परम नियम अपने भीतर पहचान लिया,
उस दिन तुम्हें सबके भीतर उसी नियम के दर्शन होने शुरू हो जाएंगे।
सारा अस्तित्व तब एक दर्पण हो जाता है।
और तब तुम पाओगे कि जो सोए हैं वे भी बुद्ध हैं। जागे--जब जागे--तब
बुद्ध हो जाएंगे। कुछ हानि भी नहीं हो जा रही है अगर सोए हैं तो। कुछ खो नहीं रहे
हैं। हमारा जो स्वभाव है उसे हम खो ही नहीं सकते। ज्यादा से ज्यादा भूल सकते हैं।
भूलने में क्या हानि है? आज भूल गए, कल याद कर लेंगे। और
प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, जब याद करना चाहे तब।
इसलिए मैं किसी के द्वार पर दस्तक नहीं दूंगा। यह कुआं किसी की तलाश
में नहीं जाएगा। जिन्हें आना है, जिन्हें प्यास है, उन्हें आना होगा। और बहुतों को प्यास है। सारी पृथ्वी प्यासी है। और ऐसा
भी नहीं है कि लोगों को अपनी प्यास का आभास नहीं है। आभास भी है। मगर अपने को
भुलाए रखते हैं। प्यास को भी छिपाए रखते हैं। डरते हैं कि कहीं प्यास का पता चल
गया तो फिर कुछ करना पड़ेगा। फिर किसी कुएं की तलाश करनी पड़ेगी।
और कुएं की तलाश कुछ आसान मामला नहीं। और कुएं से पानी पीना कोई सस्ता
सौदा नहीं। क्योंकि सत्य के कुएं से वही पानी पी सकता है, जो अहंकार को उतार कर रख दे। सत्य के कुएं से वही पानी पी सकता है,
जो ध्यान की अंजुली बना ले।
उतनी तैयारी न होने से लोग कल पर टालते जाते हैं कि खोजेंगे, कभी खोजेंगे। अगर कुआं पास भी हो तो वे हजार बहाने खोज लेते हैं कुएं से
बच कर निकलने के। डर है, क्योंकि यह कुआं, सत्य का कुआं, इसके नियम बड़े उलटे हैं--उलटबांसियों
जैसे हैं। यहां वही उबरता है जो डूबता है। यहां वही पाता है जो मिटता है। खोज उसी
की पूरी होती है जो खो जाने को राजी है।
आज इतना ही।
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