मंगलवार, 4 जुलाई 2017

राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06



राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मेरा एकमात्र प्रयोजन : तुम जागो-प्रवचन-छटवां
प्रश्न-सार:

1—यजुर्वेद का सूत्र है: व्रत से दीक्षा, दीक्षा से दक्षिणा, दक्षिणा से श्रद्धा और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।
सत्य-प्राप्ति के ये चार चरण समझाने की अनुकंपा करें।

2—बुद्ध, महावीर और कृष्ण की प्रतिमाओं में आपने मनोहारी रंग भरे थे। और अब आप उन्हीं प्रतिमाओं का बड़ी बेरहमी से खंडन कर रहे हैं। क्या इन मूर्तियों द्वारा अमूर्त की यात्रा अब असंभव हो गई है या कि आप हमें अपने आप के प्रति लौटने पर मजबूर कर रहे हैं?


पहला प्रश्न: भगवान,
यजुर्वेद का सूत्र है--
व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति;
      दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति;
      श्रद्धया सत्यम् आप्यते।।
अर्थात व्रत से दीक्षा, दीक्षा से दक्षिणा, दक्षिणा से श्रद्धा और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।
भगवान, सत्य-प्राप्ति के चार चरण समझाने की अनुकंपा करें।

आनंद किरण,
धर्म सदियों से पुरोहितों के षडयंत्र से पीड़ित रहा है। धर्म के अमृत में पुरोहित ने सब भांति जहर घोला है। मगर ढंग से घोला है, व्यवस्था से, तर्क से--यूं कि पहचान में न आए। ऐसा ही यह सूत्र है। इसे समझना उपयोगी है।
"व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति। व्रत से दीक्षा।'
यहीं से पहला कदम ही गलत दिशा में शुरू हुआ। व्रत से दीक्षा का कोई संबंध नहीं है। दीक्षा से भला व्रत पैदा हो जाए, लेकिन व्रत से कैसे दीक्षा पैदा हो सकती है! फिर व्रत कहां से आएगा? व्रत का अर्थ होता है: अनुशासित जीवन; वस्तुतः आत्म-अनुशासित जीवन। व्रत का अर्थ होता है: बोधपूर्वक जीना; मूर्च्छा से न जीना।
व्रत का अर्थ कसम खाकर जीना नहीं होता, जैसा कि तुम्हें समझाया गया है। क्योंकि कसमें तो वे ही लोग खाते हैं, जिनमें बोध की कमी है।
जैसे, जो आदमी यह व्रत लेता है कि मैं कभी झूठ न बोलूंगा, वह इस बात की घोषणा कर रहा है कि उसके भीतर झूठ बोलने की आकांक्षा है, प्रबल आकांक्षा है, महत आकांक्षा है, गहरा आकर्षण है। डरा है उस आकांक्षा से, भयभीत है अपने ही भीतर बैठे हुए झूठ के आकर्षण से। तो कसम खाता है--कसम खाता है भीड़ के सामने, समाज के सामने; मंदिर में, मस्जिद में, चर्च में; पंडित-पुरोहित के समक्ष, साक्षी बना कर; मुनि, साधु, महात्मा के सामने--ताकि लोगों की आंखें उसके भीतर छिपे हुए झूठ को प्रकट होने से रोक सकें। व्रत लिया है, लोगों के सामने लिया है; अब उसके विपरीत चलना समादर खोना हो जाएगा। और समाज व्रती को बहुत सम्मान देता है। सम्मान इसीलिए देता है, ताकि व्रती सम्मान के आधार से अपने व्रत पर टिका रहे। वह रिश्वत है समाज की। समाज साफ कर देता है कि जब तक व्रती हो तब तक सम्मान है। और जैसे ही व्रत टूटा कि सम्मान अपमान में बदल जाएगा।
इस प्रक्रिया को ठीक से समझो। इस तरह का व्रत तो मूलतः अहंकार की ही अभिव्यक्ति है, क्योंकि सम्मान अहंकार का पोषण है। जब कोई व्रत लेता है तो समाज में बड़ी प्रशंसा होती है। जब कोई त्याग करता है, समाज में बड़ा आदर होता है। यह आदर अहंकार के लिए सहारा बन रहा है। और यह बात भी साफ हो जाती है कि जिस दिन व्रत गया, त्याग गया, यह जो फूल गया है अहंकार, यह गुब्बारे की तरह, यही लोग तोड़ देंगे, जिन्होंने हवा भरी है इस गुब्बारे में। ये खींच लेंगे उस पोषण को।
समाज उन चीजों को आदर देता है जिनसे समाज के न्यस्त स्वार्थ लाभान्वित होते हैं। समाज अकारण आदर नहीं देता। समाज के आदर के पीछे भी हेतु है। समाज अपने हेतु से आदर देता है। और व्रती अहंकार के पोषण से आनंदित होता है। फिर लौटना मुश्किल होने लगता है। जितना बड़ा आदर उतना ही पीछे लौट कर देखना भी मुश्किल हो जाता है।
व्रत से जो यात्रा शुरू होगी, वह अहंकार से ही शुरू हो रही है। और अहंकार से शुरू हुई यात्रा कभी सत्य तक नहीं पहुंचती, पहुंच ही नहीं सकती। अहंकार का विसर्जन ही सत्य का आगमन बनता है। और यह तो अहंकार का पोषण है।
तुम साधुओं को, मुनियों को, महात्माओं को इतना जो आदर दे रहे हो, तुम्हें शायद पता भी नहीं कि तुम्हारे आदर के कारण तुम उनके जीवन में सत्य के आगमन की सारी संभावनाएं समाप्त कर रहे हो। वे तुम्हारा आदर ले रहे हैं; उन्हें पता नहीं कि अपने ही हाथों वे उसी शाखा को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं। कोई मूढ़ ही इस षडयंत्र में फंस सकता है। मगर मूढ़ों की जमात है, मूढ़ों की भीड़ है।
व्रत से दीक्षा का कोई संबंध नहीं। फिर दीक्षा का किस बात से संबंध है?
आनंद किरण, मुझसे पूछते हो तो मैं कहूंगा: बोध से दीक्षा।
जीवन दुख है--जैसा जीवन तुम जीते हो। जीवन अर्थहीन है--जैसा जीवन तुम जीते हो। तुम्हारा जीवन एक बोझ है। तुम्हारे जीवन में न कोई काव्य है, न कोई फूल खिलते हैं, न कोई दीया जलता है। तुम्हारे जीवन में न कोई संगीत है, न कोई नृत्य। न कभी पैरों में घूंघर बंधते हैं, न ओंठों पर बांसुरी है। तुम्हारा जीवन एक रेगिस्तान है; एक व्यर्थ की आपाधापी है; एक विक्षिप्त कथा है, जिसमें कोई तुक नहीं, संगति नहीं। क्यों तुम जी रहे हो, इसका भी तुम जवाब नहीं दे सकते हो। क्या तुमने जीवन से पाया है? गौर करोगे तो हाथ खाली हैं, प्राण भी खाली हैं।
जैसे ही कोई व्यक्ति जीवन की अपनी इस गलत शैली को देख पाता है...और देखना कठिन नहीं है। यह सत्य है तुम्हारा। प्रतिपल तुम्हारे सामने खड़ा है। सुबह उठते हो, दिन भर आपाधापी करते हो, सांझ बिस्तर पर गिर पड़ते हो, फिर सुबह उठते हो--यूं ही झूले से लेकर कब्र तक, क्या है इसमें सार? क्या है उपलब्धि? कौन सी गरिमा है इसमें? कौन सा गौरव है? कौन सी महिमा है? इसको देख कर, इसको पहचान कर, इस बोध से कि मेरे जीवन की शैली गलत है, कि मैं जिस ढंग से जी रहा हूं, वह ढंग नहीं है जीने का; वह ढंग है केवल क्रमशः मरने का--इस बोध से दीक्षा पैदा होती है। इस बोध से ही सम्यक दीक्षा पैदा होती है। इस बोध के अतिरिक्त और कोई दीक्षा का उपाय नहीं है।
दीक्षा का क्या अर्थ है? दीक्षा का अर्थ है: अपने जीवन की व्यर्थता को देख कर, अपने जीवन की असारता को देख कर उसकी तलाश, जिसके जीवन में फूल खिले हों और सुगंध हो; उसकी तलाश, जिसके जीवन में अंधेरा न हो और ज्योति हो; उसकी तलाश, जहां रेगिस्तान एक बगिया बन गया हो; उसकी तलाश, जिसका सहस्रदल कमल खिला हो। गुरु की तलाश। और मिल जाए जब कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके सामने तुम साफ-साफ देख सको कि मैं अमावस की रात हूं और यह पूर्णिमा की रात, उसके सामने झुक जाना, उसके सत्संग में बैठ जाना दीक्षा है। उसके सामने नतमस्तक हो जाना दीक्षा है। उससे प्रार्थना करना कि मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लो! ले चलो मुझे भी अपनी राह पर! मोड़ दे दो मेरे जीवन को भी! दिशा नहीं है मेरे पास; मैं भटका हूं। चौराहे पर क्या चुनाव करूं, इसकी मेरे पास समझ नहीं है। और जो मैंने अब तक चुना है, गलत सिद्ध हुआ है। और गलत को ही चुनने की मेरी आदत हो गई है। इसलिए मैं जो भी चुनूंगा, उसकी फिर गलत होने की संभावना है। इसलिए मैं राजी हूं अपने को बदलने को, अपने को रूपांतरित करने को।
अपने अतीत को पोंछ डालने की तैयारी दीक्षा है। अपने अतीत से स्वयं को विच्छिन्न कर लेने की तैयारी दीक्षा है। एक नयी शुरुआत, एक नया जन्म दीक्षा है।
और दीक्षा उसके पास ही घटित हो सकती है जिसके भीतर चेतना का सूर्य ऊगा हो। उसके संग-साथ में ही, उसके पास उठते-बैठते ही, उसकी आग तुम्हारे भीतर भी आग को प्रज्वलित कर दे सकती है। उसका संगीत तुम्हारी हृदयतंत्री को भी झंकार दे सकता है।
यह एक संगीत का, ध्वनिशास्त्र का जाना-माना नियम है कि अगर एक खाली कमरे में, एक कोने में सितार रख दी जाए और दूसरे कोने में सितारवादक बैठ कर दूसरी सितार बजाए, तो जो सितार कोने में रखी है जहां कोई सितारवादक भी नहीं, एक सितार के बजने पर दूसरे सितार के तार भी झनझनाने लगते हैं। जैसे ही कमरे में एक सितार की गूंज भरनी शुरू होती है, वह गूंज पर्याप्त है, उसकी अनुगूंज दूसरे सितार में उठनी शुरू हो जाती है, उसकी प्रतिध्वनि जगनी शुरू हो जाती है।
पश्चिम के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग ने इसके लिए एक प्यारा नाम दिया है, एक नये ही नियम का नाम दिया है।
विज्ञान में एक नियम स्वीकृत है कार्य-कारण का। जैसे सौ डिग्री तक पानी को गरम करो, तो यह कारण है; और सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाएगा, यह कार्य है। यह अपरिहार्य है। जब भी सौ डिग्री तक पानी गर्म होगा, भाप बनेगा ही बनेगा। विज्ञान की सारी खोज कार्य-कारण की खोज है। जिस दिन हम कारण को खोज लेते हैं, हम कार्य के भी मालिक हो जाते हैं।
कार्ल गुस्ताव जुंग ने कहा कि एक और भी नियम है, जो चेतना के जगत में लागू होता है। पदार्थ के जगत में कार्य-कारण का नियम सही है, चेतना के जगत में सही नहीं है। उसने उसे नाम दिया: लॉ ऑफ सिनक्रानिसिटी; समस्वरता का नियम। एक सितार बजे तो यह कोई कारण नहीं है दूसरे सितार के बजने के लिए। लेकिन दूसरा सितार झंकार देने लगता है।
सदगुरु के पास बैठना उपासना है। उपासना का अर्थ ही यही होता है: पास बैठना, उप-आसन। सदगुरु के पास बैठ कर ही उपनिषद पैदा होता है। उपनिषद का भी यही अर्थ होता है: पास बैठना। और उपवास का भी यही अर्थ होता है: सदगुरु के पास बैठना। उपवास, उपासना, उपनिषद--इनके वे अर्थ नहीं होते जो तुमने समझे हैं।
उपवास का अर्थ अनशन नहीं होता। भूखे मरने से क्या संबंध है? भूखे मर कर अगर लोग आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हों तो दुनिया से भूखे मरते हुए लोगों को समाप्त करना ठीक नहीं है। तब तो दीन और दरिद्र और भिखमंगे आत्मज्ञान के ज्यादा करीब हैं। भूखे मरने से कोई संबंध नहीं है। उपवास का अर्थ है: पास बैठना। उस शब्द को ही देखो।
उपासना का भी वही अर्थ है। मंदिर में तुम जो पूजा के थाल उतार रहे हो और फूल चढ़ा रहे हो, वह उपासना नहीं है। यह पत्थर की मूर्ति के पास क्या खाक बैठोगे! तुम खुद ही पत्थर हो और पत्थर की मूर्ति के पास बैठ-बैठ कर और पत्थर हो जाओगे। किसी जीवंत संगीत के पास बैठो। मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे साथ नहीं दे सकते। किसी जीवंत बुद्ध को तलाशो।
और निश्चित ही उसके पास बैठने का अर्थ एक ही हो सकता है: समर्पित होकर बैठना। नहीं तो अकड़ कर बैठे रहे, समझ लो कि दूसरा सितार कोने में अकड़ा बैठा रहे, अहंकारी हो, दंभी हो, जकड़ा बैठा रहे अपने अहंकार में, तो लाख पहली सितार बजती रहे, उस दूसरे सितार के तारों में झंकार पैदा नहीं होगी। लेकिन सितार ऐसे अहंकारी नहीं होते। यह आदमी की ही मूढ़ता है। सितार इतने मूढ़ नहीं होते; सरल होते हैं। गुरु के पास भी बैठ जाओ अगर अकड़ कर, तो तुम पास बैठे ही नहीं। फिर उपनिषद पैदा नहीं होगा। फिर तुम्हारे भीतर प्रतिगूंज पैदा नहीं होगी। इसलिए दीक्षा।
दीक्षा का इतना ही अर्थ है: निवेदन, कि मुझे स्वीकार कर लो। प्रार्थना, कि मेरा हाथ अपने हाथ में ले लो। अनुरोध, कि मुझे आज्ञा दो कि तुम्हारे साथ बैठ सकूं, सत्संग हो सके।
बोध से दीक्षा। जीवन की व्यर्थता की अनुभूति मूल आधार है सत्य की खोज का। और जब तुम अपने जीवन की व्यर्थता समझ पाते हो, तभी तुम किसी के जीवन की सार्थकता को समझ सकोगे। जब तक तुम कांटों को न पहचान लो, फूल को पहचानना असंभव है। अगर तुम अंधेरे को ही रोशनी समझते हो, तो क्या तुम रोशनी की तलाश करोगे? क्यों करोगे?
इसलिए तथाकथित पंडित और थोथे ज्ञानी कभी दीक्षा को उपलब्ध नहीं होते। उनको तो यह भ्रांति है कि वे जानते ही हैं, पहचानते ही हैं। उन्होंने तो पा ही लिया है। क्योंकि तोतों की तरह वे वेदों के वचन दोहरा सकते हैं।
आनंद किरण, अगर तुमने यही यजुर्वेद का सूत्र किसी पंडित से पूछा होता तो वह कहता: अहा! क्या अदभुत सूत्र है! सारी सत्य की बात आ गई।
सूत्र बिलकुल गलत है। सूत्र किसी थोथे पंडित ने खोजा होगा। यह किसी ज्ञानी, किसी प्रबुद्ध चेतना से निकला हुआ झरना नहीं है। हां, किसी नल की टोंटी से निकला होगा।
"व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति। व्रत से दीक्षा।'
यह तो बैलों को गाड़ी के पीछे बांधना हुआ।
मैं तुमसे कहता हूं: दीक्षा से व्रत। बोध से दीक्षा, और जब दीक्षा से व्रत आता है तो व्रत का सौंदर्य ही और। तब व्रत लेना नहीं पड़ता--आता है। और उस भेद को स्मरण में रखना। जो व्रत लिया जाता है, थोथा है, दो कौड़ी का है। भूल कर कोई व्रत मत लेना।
मैं कलकत्ता में सोहनलाल दूगड़ के घर अक्सर मेहमान होता था। वे प्यारे आदमी थे। यूं तो इस देश में उनके मुकाबले कोई सटोरिया नहीं था। वे सब से बड़े सटोरिया थे। लेकिन अक्सर यूं होता है कि तुम्हारे तथाकथित संतों से सटोरिए भी ज्यादा सच्चे और ईमानदार आदमी होते हैं। सीधे और साफ आदमी थे। मैं उनके घर पहली बार मेहमान हुआ तो उन्होंने मुझसे कहा...।
जन्म से वे तेरापंथी जैन थे, तो आचार्य तुलसी के शिष्य थे। और आचार्य तुलसी का यही गोरखधंधा है--व्रत दिलाना। और चूंकि लोग बड़े-बड़े व्रत नहीं ले सकते, जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा, इसलिए उन्होंने अणुव्रत की ईजाद की है। अणुव्रत का अर्थ है: छोटा-मोटा व्रत, जिसको कोई भी साध ले। तो व्रतों को भी उन्होंने बाजार के योग्य बना दिया है। थोक नहीं खरीद सकते, कोई बात नहीं, फुटकर खरीद लो! आचार्य तुलसी मारवाड़ी हैं। चलो पूरा थान नहीं खरीद सकते तो गज भर ही ले लो। गज भर नहीं तो चिंदी ही सही। अरे भागते भूत की लंगोटी ही भली! इस लंगोटी को वे कहते हैं: अणुव्रत। नाम तो प्यारा चुन लिया है। जितना बन सके, जितनी औकात हो उतना ले लो।
सोहनलाल दूगड़ मुझसे कहे कि मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत आचार्य तुलसी से लिया। मैंने उनकी तरफ गौर से देखा और देखता ही रहा। वे थोड़े घबड़ाए, थोड़े बेचैन हुए। कहने लगे कि आप इस तरह घूर-घूर कर क्यों देख रहे हैं? मैंने उनसे पूछा कि अब सच-सच बताओ, व्रत कितनी बार लिया? आदमी ईमानदार थे, उन्होंने कहा कि तीन बार लिया।
मेरे साथ एक मूरख जैन बैठे हुए थे, वे बड़े प्रभावित हुए। मूर्खता का अपना गणित होता है। अरे जब एक बार की जगह तीन बार व्रत लिया! वे तो मुझसे कहने लगे कि मैंने कभी सोचा नहीं था कि सोहनलाल दूगड़ और ऐसे व्रती हैं! मैंने कहा, तुम अपने बुद्धूपन को अपने पास रखो। जरा यह तो सोचो कि ब्रह्मचर्य का व्रत तीन बार कैसे लिया जा सकता है! और मैंने सोहनलाल से पूछा कि तुम अब मुझे यह बताओ, चौथी बार क्यों नहीं लिया?
वे आदमी सच्चे थे। उन्होंने कहा, अब आपसे क्या छिपाऊं, किसी ने मुझसे यह पूछा ही नहीं! पहले तो किसी ने मुझसे यही नहीं पूछा कि कितनी बार लिया। ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, इतना ही कहता हूं कि लोग आह्लादित हो जाते हैं। आपने पहले तो मुझे घूर कर यह पूछा कि मुझे पसीना छूट गया। तो मुझे सच्ची बात कहनी पड़ी कि तीन बार लिया। और अब आप यह पूछते हैं, यह और अजीब बात है।
मैंने कहा, तुम सच-सच ही मुझसे कह दो।
उन्होंने कहा कि नहीं, चौथी बार नहीं लिया। क्योंकि हिम्मत ही टूट गई लेने की। तीन बार लेकर देख लिया कि सधता तो है ही नहीं, किसको धोखा देना है?
व्रत लिए नहीं जाते। जो लिए जाते हैं, थोथे होते हैं, ढोंग होते हैं, पाखंड होते हैं। क्योंकि लेने का मतलब ही यह है कि तुम अपने विपरीत ले रहे हो। तुम अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहे हो। तुम्हारे भीतर कामवासना भरी है और व्रत तुम ब्रह्मचर्य का ले रहे हो। लोगे ही ब्रह्मचर्य का व्रत तभी न, जब भीतर कामवासना भरी हो। जिसके भीतर कामवासना नहीं है वह क्या ब्रह्मचर्य का व्रत लेगा? क्यों लेगा? किस कारण लेगा?
व्रत इस बात का सबूत है कि उससे विपरीत तुम्हारे भीतर की अवस्था है। लेकिन व्रत लेकर क्या तुम अपने भीतर की अवस्था को बदल सकोगे? ज्यादा से ज्यादा दबा सकते हो। तुम दोहरे हो जाओगे, तुम्हारे दो चेहरे हो जाएंगे--एक दिखाने का मुखौटा और एक जीने का। और तब तुम्हारे भीतर ग्लानि पैदा होगी, अपराध-भाव पैदा होगा। और ये सारे धर्मों ने पृथ्वी को ग्लानि और अपराध से भर दिया है। हर आदमी अपराधी है। हर आदमी को लगता है मैं गलत कर रहा हूं। क्योंकि हर आदमी को समझाया गया है कि सही क्या है। और सही तो उससे हो नहीं रहा है; जो हो रहा है वह गलत हो रहा है। इसमें जो बेईमान हैं, जो चालबाज हैं, वे तो अपने ढोंग को साधे रखते हैं। मगर जो सीधे-सादे लोग हैं, सरल चित्त हैं, उनकी बड़ी मुश्किल हो जाती है।
तुम्हारे तथाकथित धर्मों के व्रतों के आग्रह ने दो तरह के लोग पैदा किए हैं: बेईमान और चालबाज और पाखंडी, ये बन जाते हैं तुम्हारे महात्मा, मुनि, साधु, संत; और दूसरे अपराधी लोग; ये सीधे-सादे लोग, जो नाहक नरक की अग्नि में जलने लगते हैं। या तो तुम पाखंडी पैदा करते हो और या तुम अपराधी पैदा करते हो। ये दोनों बातें विकृत हैं। तुम आदमी को रूपांतरित नहीं करते।
इसलिए मैं नहीं कहता कि कोई व्रत ले। व्रत लिया नहीं जाता। दीक्षा से व्रत फलित होते हैं। जब तुम सदगुरु के पास बैठते हो, जब धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय की वीणा बजने लगती है, जब धीरे-धीरे सदगुरु का शून्य तुम्हारे भीतर प्रवेश करने लगता है, जब धीरे-धीरे उसका गीत तुम्हारी समझ में आने लगता है--तो बिना किसी चेष्टा के, बिना किसी प्रयास के क्रांति शुरू हो जाती है।
एक चिनगारी, और काफी है कि तुम्हारे पूरे जीवन में यूं आग लग जाए जैसे जंगल में आग लग जाती है। उस आग में, जो भी व्यर्थ है, सब खाक हो जाता है; और जो सार्थक है, निखर कर आता है, कुंदन हो जाता है, खालिस सोना बचता है। जो राख होना है वह राख हो जाना चाहिए। जो आग से गुजर कर बच जाए वही सोना है। बस यही कसौटी है।
सदगुरु के पास होना आग के पास होना है। इसलिए लोग मुर्दा गुरुओं को पूजते हैं, क्योंकि मुर्दा गुरु से क्या डर? मुर्दा गुरु यानी राख। राख को चाहो तो विभूति कहो। चालबाज इसको विभूति कहते हैं। मुर्दा गुरुओं को पूजते हैं। पांच हजार साल पहले कोई गुरु मर चुका है, पूजा अब तक चल रही है। अब पांच हजार साल में आग तो कहां बची? अंगार कहां बचे? अरे राख भी न मालूम कितनी बार बदली जा चुकी होगी।
मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को देखा, छाता लगाए बड़ी शान से चला आ रहा था। मैंने पूछा, नसरुद्दीन, छाता बिलकुल नया है, अभी-अभी खरीदा क्या? उसने कहा कि नहीं, तीस साल पुराना है। मैंने कहा, यह छाता तीस साल पुराना होकर इतना ताजा, इतना नया, यूं लगता है अभी-अभी कारखाने से तैयार होकर आ रहा हो!
नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, तीस साल पुराना है। खरीदा तो मेरे दादा ने था, फिर मेरे पिता ने भी उपयोग किया, अब मैं उपयोग कर रहा हूं। मगर छाता गजब का है, मेरे बच्चे भी उपयोग करेंगे।
मैंने कहा, इसका राज तो तुम बताओ कि कैसे उपयोग करते हो?
उसने कहा, राज क्या है! राज यह है कि कई दफे बदला जा चुका है। कल ही मस्जिद में फिर बदल गया। तीस साल पुराना है, कई दफे बदला जा चुका है।
पांच हजार साल में राख भी कई दफे बदली जा चुकी होगी।
लंका में कैंडी का मंदिर है, जहां बुद्ध के एक दांत को बचा कर रखा गया है। वैज्ञानिकों के हिसाब से यह दांत आदमी का है ही नहीं। बुद्ध की तो बात छोड़ो, आदमी का भी नहीं है, किसी जानवर का है। मगर पूजा जारी है, अब भी जारी है। कोई वैज्ञानिक राजी नहीं है कि यह आदमी का दांत है। ऐसा दांत आदमी का होता ही नहीं। उसका सब वैज्ञानिक रासायनिक परीक्षण हो चुका है। मगर कैंडी का मंदिर हजारों यात्रियों से भरा रहता है प्रतिदिन। बुद्ध के दांत की पूजा चल रही है। और दांत बुद्ध का है ही नहीं।
श्रीनगर में हजरतबाल मस्जिद है, मोहम्मद का एक बाल रखा हुआ है। तुम्हें कहानी भूली नहीं होगी, कुछ ही साल पहले वह बाल चोरी चला गया, फिर प्रकट भी हो गया। अब यह कोई भी नहीं पूछता कि जो बाल प्रकट हुआ है, यह वही है जो चोरी गया था? चौदह सौ साल में न मालूम यह बाल कितनी दफे बदला गया होगा। अभी-अभी आठ-दस साल पहले ही बदला गया है। चोरी भी चला गया, दंगे-फसाद भी हो गए, हिंदू-मुसलमान जूझ भी गए, कत्लेआम भी हो गया, और फिर बाल मिल भी गया। मगर यह राज खोला ही नहीं गया कि यह बाल मिला कैसे, किसके पास मिला, किसने चुराया था? कोई पता नहीं चला किसने चुराया, कैसे पाया गया, मगर बाल मिल गया।
यह बाल बिलकुल झूठा है। लेकिन अब कोई उपाय भी तो नहीं है तय करने का कि यह बाल झूठा है या सच्चा है। कैसे तय करोगे कि यह मोहम्मद का बाल है? हो सकता है किसी मोहम्मद नाम के आदमी का हो। मगर हजरत मोहम्मद का बाल, यह फिर मिला कैसे? और जिसने चोरी की थी और जिसके कारण इतना उपद्रव मचा, वह आदमी पकड़ा क्यों नहीं गया?
लेकिन एक साजिश है। बाल तो होना ही चाहिए। क्योंकि वह मस्जिद और उस मस्जिद के पुजारी इसी बाल के आधार पर जीते हैं। खो गया होगा असली तो खो गया, मगर कोई भी बाल काम देगा। कम से कम मस्जिद का धंधा तो जारी रहे।
मुर्दा गुरु को पूजना हमेशा आसान है। लेकिन मुर्दा गुरु को पूजने वाले मुर्दे लोग होते हैं। मुर्दे हैं, इसलिए मुर्दे को पूजते हैं। तुम्हारी पूजा तुम्हारे संबंध में खबर देती है। कृष्ण को पूजो, कि मोहम्मद को, कि राम को, कि बुद्ध को, कि महावीर को, किसी न किसी बहाने तुम मुर्दों को पूज रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर महावीर जिंदा होते, तुम उनके पास नहीं जाते। क्योंकि तब खतरा था। तब आग थी। तब तो केवल वे ही लोग जाएंगे जो जल मिटने को तैयार हैं। परवाने जाएंगे।
जब शमा जल रही है, तब परवाने जाते हैं। जब शमा बुझ जाती है, तब फिर सब तरह के कीड़े-मकोड़े पहुंचने लगते हैं। शमा जब जलती है, तब परवाना। शमा जब बुझ जाती है, तब भीड़-भाड़ आती है। वही भीड़-भाड़ जो परवानों को पागल समझती है। कीड़े-मकोड़ों की भीड़-भाड़। खटमल, मच्छर सब आते हैं। लेकिन परवाने नहीं आते। परवाने तो हमेशा जीवित को तलाशते हैं। मरने की तैयारी चाहिए।
पत्थर की मूर्तियां किनने ईजाद की हैं? पथरीले लोगों ने। जिनकी आंखें पथरा गई हैं और जिनके हृदय भी पत्थर हो गए हैं, उन्होंने पत्थर की मूर्तियां ईजाद की हैं, उन्होंने पत्थर के मंदिर बना लिए हैं। अपने ही अनुरूप। अपने ही हिसाब से। अपनी ही सुविधा के लिए।
बोध से दीक्षा और दीक्षा से क्रांति। दीक्षा से फिर तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू होता है। बहुत सी बातें गिर जाती हैं। गिरानी नहीं पड़तीं, सिर्फ सत्संग से गिर जाती हैं।
मौलुंकपुत्त नाम का एक दार्शनिक बुद्ध के पास आया। और उसने बुद्ध से पूछा कि मैं बड़े-बड़े दार्शनिकों के पास गया हूं--वह खुद भी प्रसिद्ध दार्शनिक था--लेकिन मेरे प्रश्नों का उत्तर कोई भी नहीं दे पाता। क्या आप तैयार हैं मेरे प्रश्नों के उत्तर देने को?
बुद्ध ने जो कहा, उसने सोचा भी न था। क्योंकि बुद्ध कोई दार्शनिक नहीं हैं, द्रष्टा हैं। दार्शनिक तो वे लोग हैं जो अंधे हैं और विचार कर रहे हैं प्रकाश के संबंध में। द्रष्टा वह है जिसकी आंख खुली है और जो प्रकाश को देख रहा है, विचार नहीं कर रहा है। दार्शनिक होते हैं विचारक; द्रष्टा होता है निर्विचार। सोचा न था मौलुंकपुत्त ने कि यह घटना यूं घट जाएगी। मगर सदगुरु के पास भी पहुंच जाना खतरनाक है।
बुद्ध ने कहा, अच्छा हुआ तुम आ गए। तुम्हारा कोई भी उत्तर नहीं दे सका न?
मौलुंकपुत्त ने कहा कि निश्चय ही कोई भी उत्तर नहीं दे सका।
बुद्ध ने कहा, मैं उत्तर दे सकता हूं, लेकिन तुम लेने को राजी हो?
मौलुंकपुत्त से यह किसी ने पूछा ही नहीं था। जिससे भी उसने प्रश्न पूछे थे, उसने उत्तर दिया था। यह सवाल ही किसी ने नहीं पूछा था कि क्या तुम लेने को राजी हो?
मौलुंकपुत्त ने पूछा, क्या शर्त पूरी करनी पड़ेगी लेने के लिए?
बुद्ध ने कहा, दो साल मेरे पास बैठना पड़ेगा--चुपचाप, बिना कुछ पूछे। बस बैठना पड़ेगा, कुछ भी नहीं करना है। बैठते-बैठते शांत होते जाओ। दो साल बाद, जब तुम्हारा चित्त बिलकुल शांत हो गया हो, पूछ लेना जो पूछना है। और मैं वायदा करता हूं कि हर प्रश्न का उत्तर दूंगा। और आश्वासन दिलाता हूं कि तुम्हारे सारे प्रश्न हल हो जाएंगे। समाधान का मैं तुम्हें वायदा करता हूं। लेकिन इतनी तैयारी तुम्हें दिखानी पड़ेगी। मुफ्त नहीं हो सकती यह बात। दो साल मेरे पास बैठो।
मौलुंकपुत्त ने कहा, ठीक।
जैसे ही उसने कहा ठीक, महाकाश्यप नाम का एक बौद्ध शिष्य हंसने लगा, खिलखिलाने लगा। मौलुंकपुत्त को जरा चोट लगी। पूछा कि यह महाकाश्यप हंसता क्यों है?
बुद्ध ने कहा, तू ही पूछ ले। हंसता है तो कोई कारण होगा।
महाकाश्यप से पूछा कि आप हंसते क्यों हैं?
महाकाश्यप ने कहा, भले आदमी, पूछना हो तो अभी पूछ ले। यूं ही मैं भी एक दिन आया था। और यूं ही चुप बैठे-बैठे प्रश्न ही गिर गए। अब बुद्ध मुझे बार-बार, जहां मिल जाता हूं मुझसे पूछते हैं: पूछ! पूछने को कुछ बचा नहीं। ये चिकोटी लेते हैं। कहीं भी मिल जाता हूं, कहते हैं: महाकाश्यप, कुछ पूछना नहीं है? कहां गई तेरी पूछ?
तो महाकाश्यप ने कहा, इसलिए मैं हंसता हूं कि यह फिर हुआ जा रहा है धोखा। तू बातों में न आ। पूछना हो, पूछ ही ले। मैं भी जरा सुन लूं कि क्या उत्तर देते हैं।
बुद्ध ने कहा, मैं अपने वचन पर दृढ़ रहूंगा। मगर पूछना तू दो ही साल बाद।
दो साल बीत गए। और ठीक दो साल बाद बुद्ध ने मौलुंकपुत्त को कहा कि अब तू खड़ा हो जा और पूछ ले। वह खिलखिला कर हंसा। उसने कहा, अब मैं समझा राज महाकाश्यप के हंसने का। इस दो साल में तो सब गिर ही गया। पूछने वाला मन ही न रहा। पूछने वाला ही जा चुका। यह दो साल का सन्नाटा, यूं जैसे कि बाढ़ आई और सब कूड़ा-करकट बहा ले गई। मुझे कुछ पूछना नहीं है। और बिना पूछे आपने सब समाधान दे दिया। समाधि दे दी तो समाधान हो गया।
सदगुरु के पास बैठ कर क्रांति घटती है। जीवन रूपांतरित होता है। व्रत आते हैं, लिए नहीं जाते। गलत छूट जाता है; सही जीवन का उपक्रम हो जाता है। सत्संग में मृत्यु भी घटती है, क्योंकि अतीत तुम्हारा मर जाता है; और पुनर्जीवन भी उपलब्ध होता है।
इसलिए मैं यजुर्वेद के इस सूत्र से राजी नहीं हो सकता।
"व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति। व्रत से दीक्षा।'
नहीं, बिलकुल नहीं। दीक्षा से व्रत! और व्रत भी--मेरा अर्थ ध्यान में रखना--लिया हुआ नहीं, कसम खाया हुआ नहीं; सहज, स्वस्फूर्त।
दूसरा सूत्र है: "दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।'
तब तुम समझ सकते हो कि पुरोहित किस चालबाजी से भीतर आ रहा है।
"दीक्षा से दक्षिणा।'
दक्षिणा का क्या संबंध? यह दक्षिणा कहां से आ गई? मगर पुरोहित अपना हिसाब तो रखेगा ही, अपना इंतजाम तो रखेगा ही।
"दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।'
दीक्षा जब होगी तो फिर दक्षिणा देनी होगी। फिर पुरोहित को कुछ देना पड़ेगा।
सदगुरु दक्षिणा नहीं मांगता। सदगुरु कुछ भी नहीं मांगता। सदगुरु तो इतना ही कहता है, तुम चुप हो जाओ, मौन हो जाओ। लेकिन पुरोहित कुछ मांगने बैठा है। दक्षिणा पर उसकी नजर है। और क्या-क्या पुरोहितों ने जाल रचे हैं! जैन शास्त्र कहते हैं: सिर्फ जैन मुनि को ही दक्षिणा देना, सिर्फ जैन मुनि को ही भोजन देना; क्योंकि वही सुगुरु है, बाकी सब कुगुरु हैं।
और बौद्ध भिक्षु कहते हैं कि सिर्फ बौद्ध भिक्षु को ही दक्षिणा और दान, वस्त्र, भोजन, वर्षा में आवास। सिर्फ बौद्ध भिक्षु को! क्योंकि वही एकमात्र सुगुरु है, बाकी तो सब कुगुरु हैं।
और ब्राह्मण कहते हैं: ब्राह्मण को दक्षिणा और ब्राह्मण को दान। ब्राह्मण के दान की महिमा से शास्त्र भरे पड़े हैं। दान देना तो ब्राह्मण को, तो ही फल मिलेगा स्वर्ग में। कोई शास्त्र नहीं कहता कि शूद्र को दान देना, कि शूद्र को दक्षिणा देना। शूद्र की तो छाया भी पड़ जाए तो तुम भ्रष्ट हो जाओगे। ब्राह्मण को देना। शूद्र चाहे सच्चरित्र ही क्यों न हो तो भी पात्र नहीं है। और ब्राह्मण अगर दुश्चरित्र भी हो तो भी पात्र है।
ये जालसाजियां तुम देखते हो! ये बेईमानियां तुम देखते हो!
यजुर्वेद के इस सूत्र में भी वही बात घुस गई: "दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्। और दीक्षा से दक्षिणा।'
दीक्षा से दक्षिणा का कोई भी संबंध नहीं। सदगुरु कुछ भी नहीं मांगता। सदगुरु देता है, मांगेगा क्या! तुम्हारे पास है क्या जो तुम सदगुरु को दे सकते हो? काश, तुम्हारे पास कुछ होता! तुम्हारे पास कुछ भी तो नहीं। तुम एकदम खाली हो। तुम भिखारी हो। तुम क्या दोगे?
सदगुरु देता है। सदगुरु के पास देने को है। सदगुरु के पास परमात्मा है देने को। सदगुरु के पास जीवन की परम संपदा है देने को, प्रकाश है देने को, आनंद है देने को, सौंदर्य है देने को, सत्य है देने को। सदगुरु के पास सारी अलौकिक संपदा है देने को। तुम्हारे पास क्या है?
मगर बड़े चालबाजों ने धर्मों की छाती पर घूंघर मूता है। धर्मों की छाती पर ऐसी दाल घोंटी है, आदमी को इस तरह चूसा है, जिसका हिसाब नहीं। एक तरफ तो कहते हैं कि धन मिट्टी है और दूसरी तरफ कहते हैं कि ब्राह्मण को धन दान दो। शर्म नहीं आती! मिट्टी दान कोई देगा, अच्छी यह बात हुई? यही समझाते हैं कि धन मिट्टी है। समझाते इसीलिए हैं। अरे क्या पकड़ रहा है मिट्टी को! छोड़, दान दे! और यहां दान देगा तो वहां परलोक में करोड़ गुना पाएगा।
मिट्टी दोगे तो करोड़ गुनी मिट्टी पाओगे! कब्र बन जाएगी। करोड़ गुनी मिट्टी जब ऊपर गिरेगी परलोक में तो कहां खो जाओगे पता नहीं चलेगा। भूल कर दान मत देना, दक्षिणा मत देना।
दक्षिणा का कोई संबंध दीक्षा से नहीं है। इसलिए मैं कहूंगा: दीक्षा से संन्यास। संन्यास का अर्थ होता है: जीवन को सम्यक ढंग से जीने की कला; जीवन को बोधपूर्वक जीना; अंधे की तरह नहीं, आंख वाले की तरह जीना। भीतर के दीये को जला कर जीना। बोध से दीक्षा, दीक्षा से संन्यास। संन्यास में सब व्रत आ गए। सम्यक जीवन में सब कुछ आ गया।
लेकिन संन्यास के नाम से कुछ अजीब ही बात चलती रही है।
एक मित्र यहां भूल-चूक से आ गए हैं। नाम है उनका: महंत गरीबदास झोलीवाले। जरा उनसे सावधान रहना, क्योंकि झोली लिए हुए हैं और गरीबदास हैं, दक्षिणा लेकर रहेंगे।
उन्होंने पूछा है: संन्यास की पवित्रता सदियों से इस महान देश भारत में सुरक्षित रही। पर न जाने क्यों आप और आपके संन्यासी संन्यास की पवित्रता को नष्ट करने में लगे हैं। इससे आप लोगों को क्या मिल जाएगा? क्या इस पवित्र संन्यास का कुछ भी योगदान नहीं रहा, ऐसा आप लोग सोचते हैं? स्पष्ट करने का आपसे अनुरोध है।
संन्यास के नाम से जो धोखा और पाखंड इस देश में चला है, पवित्रता से उसका कोई भी संबंध नहीं, पाखंड से संबंध है। संन्यास के नाम से सिखाया क्या है सदियों से तुमने? यही सिखाया है कि जीवन को छोड़ कर भागो। भगोड़ापन सिखाया है। पलायनवाद सिखाया है।
युद्ध से कोई भाग जाता है तो हम उसको कायर कहते हैं। और जीवन के युद्ध से जो भाग जाता है उसको तुम महात्मा कहते हो! शर्म भी नहीं आती महात्मा कहते! भगोड़ा है, कायर है, डरपोक है, जीवन का साक्षात्कार नहीं कर सका।
और एक तरफ तुम कहते हो कि परमात्मा ने सृष्टि बनाई, जीवन दिया। यह बड़े मजे की बात हुई। परमात्मा सृष्टि बनाता है, जीवन देता है और तुम जीवन छोड़ कर भागते हो और इसको धर्म मानते हो! तो परमात्मा गलती कर रहा है। तुम सुधार कर रहे हो परमात्मा की गलती में। अगर परमात्मा में थोड़ी भी अकल हो तो उसे जीवन को बनाना बंद कर देना चाहिए। जिस जीवन को छोड़ना पड़ता है, जो जीवन केवल छोड़ने योग्य है, यह परमात्मा विक्षिप्त है क्या, क्यों इस जीवन को बनाए चला जाता है? क्यों नये बच्चे पैदा किए चला जाता है? क्यों नये बीज और नये अंकुर? क्यों नये तारे और नये सूरज? महात्मा ज्यादा समझदार हैं परमात्मा से! अगर इन महात्माओं को परमात्मा मिल जाए तो ये उसका गला घोंट दें।
मगर इनको मिलता ही नहीं। इनको मिल सकता ही नहीं, क्योंकि जिन्होंने परमात्मा के जीवन को इनकार कर दिया, जो जीवन को छोड़ कर भाग गए, वे परमात्मा को पाएंगे कहां? परमात्मा जीवन में छिपा है। परमात्मा जीवन ही है। जीवन और परमात्मा पर्यायवाची हैं।
गरीबदास, तुम कहते हो: "संन्यास की पवित्रता...।'
किस संन्यास की तुम बातें कर रहे हो? कौन सी पवित्रता तुम्हारे संन्यास में रही है? भगोड़ेपन को पवित्रता कहते हो? कमजोरों, नपुंसकों को पवित्रता का नाम देते हो? जो जीवन की चुनौती को झेल न सके, जिनमें बुद्धि न थी जीवन की चुनौती को झेलने की, जो भागे, जो छिप रहे गुफाओं में, परमात्मा ने गलती की जो इनको आदमी बनाया, चमगादड़ बनाना था! इनको पैदा ही क्यों किया? ये परमात्मा की भूल को सुधार करने में लगे हैं!
और जो आदमी भागता है, वह सिर्फ अपने भय को जाहिर कर रहा है। वह जानता है कि अगर जीवन में मैं रहा तो मैं अपने पर काबू न रख सकूंगा।
बुद्ध का एक शिष्य धर्म-प्रचार के लिए जा रहा है। उसने बुद्ध से पूछा कि मेरे लिए कोई आदेश? तो बुद्ध ने कहा, एक बात खयाल रखना, किसी स्त्री को देखना मत।
किस बात का डर है? किस बात का भय है? इस आदमी के भीतर अभी स्त्री के प्रति बहुत वासना भरी होगी। और यह धर्म-प्रचार को चला! अभी वासना तो मिटी नहीं, अभी काम तो मिटा नहीं, तो राम से पहचान कैसे होगी? रामनाम जान्यो नहीं! जब तक काम से भरा है, तब तक राम को कोई जान सका है?
अब बुद्ध का यह कहना कि स्त्री को मत देखना, इससे क्या फर्क पड़ेगा? क्या तुम सोचते हो कि आंख बंद करके स्त्री के पास से निकल जाओगे तो स्त्री दिखाई नहीं पड़ेगी? आंख बंद करके स्त्री और भी सुंदर मालूम होती है। आंख बंद करके स्त्री को देखने का मजा ही और है। स्त्री इतनी सुंदर नहीं होती खुली आंख से अगर देखो। और अगर पूरे बोधपूर्वक आंख से देखो तो स्त्री में कुछ भी नहीं बच रहता। और जरा एक्स-रे अगर तुम्हारी आंख में हो, जो कि ध्यानी की आंख में होता ही है, तो हड्डी-मांस-मज्जा, मवाद, मल-मूत्र सब दिखाई पड़ने लगता है। जरा गहरी पैनी आंख होनी चाहिए। मगर यह कोई स्त्री में ही नहीं, तुममें भी यही भरा हुआ है। सब में यही भरा हुआ है। पैनी आंख हो तो सब जगह यही दिखाई पड़ेगा। इसमें घबड़ाने की क्या जरूरत है?
अब समझ लो कि कोई तुमसे कहे कि भैया जा तो रहे हो रास्ते पर, लेकिन म्युनिसिपल कमेटी की कूड़ा-कचरा, मल-मूत्तर से भरी गाड़ी अगर निकले तो देखना मत। इसका मतलब क्या होगा? इसका मतलब यही होगा कि तुम मोरारजी देसाई हो, कि अगर मल-मूत्तर दिखाई पड़ा तो फिर तुम अपने पर काबू न रख सकोगे। जीवन-जल ऐसा तुम्हारे भीतर हड़कंप मचा देगा कि फिर तुम भूल ही जाओगे कि अपना है कि दूसरे का है। अरे क्या भेदभाव, अद्वैत भाव रखना चाहिए! ऐसी प्यास जगेगी कि फिर तुमसे न रहा जाएगा।
यह बुद्ध का कहना, स्त्री को मत देखना, पलायनवाद का सूत्र है। और अगर यह बात सच थी कि यह आदमी स्त्री को देख कर डांवाडोल होने वाला है तो इसको धर्म-प्रचार के लिए किसलिए भेज रहे हो? यह क्या खाक धर्म-प्रचार करेगा! यह अधर्म प्रचार करेगा।
मगर वह आदमी भी इतने जल्दी राजी हो जाने वाला नहीं था। क्योंकि जब भी कानून बनाए जाते हैं, जब भी नियम बनाए जाते हैं, तो आदमी उनसे निकलने की कोशिश भी करता है। आदमी होशियार है। आदमी बड़ा होशियार है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और जब तुम किसी चीज को दबाते हो तो वह दबी हुई चीज कहीं से निकलने की कोशिश करती है।
उसने पूछा--उस भिक्षु ने पूछा--कि भंते, आप ठीक कहते हैं। मगर कभी ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि स्त्री को देखना ही पड़े।
ऐसी दुर्घटना घट सकती है। सच तो यह है कि स्त्री को मत देखना, यह तुम तय ही कैसे करोगे जब तक स्त्री को देखोगे नहीं? यह सीधी सी बात है कि स्त्री है कि पुरुष है, पहले तो देखना ही पड़ेगा! या फिर आंख पर पट्टी ही बांधे रखो, फिर चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष हो, चाहे गधा हो, घोड़ा हो, कोई भी हो। मगर पुरुषों को देखने के लिए कोई इनकार नहीं कर रहे हैं बुद्ध, तो फिर आंख तो खुली रखनी ही पड़ेगी--कि यह पुरुष है, कोई बात नहीं, देखो; और यह स्त्री है, नहीं देखेंगे! मगर देख तो लिया। अब क्या होता है? चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत का! अब लाख नीची नजरें करो, मगर जो दिख गई है दिख गई। और भीतर तो झंकार पैदा कर ही गई। और भीतर तो पुकार उठ ही गई।
तो पहले तो सूत्र ही बुनियादी गलत है कि देखना मत, स्त्री को मत देखना। और फिर उस आदमी ने पूछा, मगर कोई ऐसी हालत हो सकती है कि देखना ही पड़े। समझ लो कि मैं रास्ते से जा रहा हूं, कोई स्त्री गङ्ढे में गिर जाए। तो इतना तो मुझे करना ही चाहिए कि चार आदमियों को पुकार दूं कि भई, यह स्त्री गिर गई, इसको निकालो।
बुद्ध ने कहा, ऐसी विशेष अवस्थाओं में देखने में कोई हर्ज नहीं।
अब ये विशेष अवस्थाएं कौन तय करेगा? यह तो यह आदमी ही तय करेगा कि कौन सी विशेष अवस्था है।
तो बुद्ध ने कहा, अगर देखना भी पड़े तो कोई बात नहीं, देख लेना, मगर छूना मत।
अब छूने में क्या अड़चन आ रही है? चमड़ी चमड़ी को छुए, इसमें कौन सी अड़चन हुई जा रही है? छूना मत! अब यह उन्होंने दूसरा दरवाजा बंद करने की कोशिश की कि चलो देख ली, कोई बात नहीं, मगर छूना मत। क्योंकि देख ली तो फिर छूने की इच्छा पैदा होगी।
और भारतीयों में बहुत छूने की इच्छा पैदा होती है! स्त्री देखी कि छूने की इच्छा पैदा हुई। फिर कोई न कोई मौका देख कर धक्का मार देंगे। हालांकि इस ढंग से मारेंगे कि धक्का धार्मिक मालूम पड़े। यूं मारेंगे कि जैसे अनायास लग गया। भीड़-भड़क्का में घुस जाएंगे, जहां कि धक्का मारना आसान हो। च्यूंटी ले देंगे। क्या-क्या, धार्मिक लोगों ने भी क्या-क्या चीजें खोजी हैं! अब यह भी धार्मिक आविष्कार समझो कि स्त्री चली जा रही है, उसको च्यूंटी लेना। अगर पास से न छू सकेंगे तो कंकड़ ही मार देंगे। अरे लोग चुंबन तक फेंक कर मारते हैं, कंकड़ का क्या है! दूर से ही सीटी मार देते हैं, उतने में ही प्रसन्न हो जाते हैं।
यह तुम्हारे तथाकथित पवित्र संन्यास का परिणाम है!
बुद्ध ने कहा, छूना मत।
मगर वह आदमी भी पक्का था। उसने कहा कि भंते, आप कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं। मगर कभी ऐसा भी अवसर आ सकता है कि छूना पड़े, फिर? जैसे कि सामने ही स्त्री गिर पड़ जाए और कोई आस-पास हो ही न, उठाना पड़े। आप ही ने समझाया है--दया-भाव, करुणा, सेवा। स्त्री सामने पड़ी हो, घुटना टूट गया हो, तो क्या बच कर निकल जाना चाहिए? यह तो करुणा के विपरीत होगा।
तुम देखते हो, आदमी को कैसी तरकीबें खोजने की...हर कानून से तरकीब तो निकाल लेनी ही पड़ती है। क्योंकि कानून आंतरिक तो है नहीं, ऊपर से कोई थोप रहा है। यह बुद्ध थोप रहे हैं। वह बेचारा अपना बचाव कर रहा है, रास्ता निकाल रहा है कि ठीक है, आप कहते हैं तो ठीक है, मगर छूना पड़े किसी मजबूरी में।
बुद्ध ने कहा कि चलो, कोई बात नहीं। अगर छूना भी पड़े तो छू लेना, मगर होश रखना।
उस आदमी ने कहा, यह बात बिलकुल ठीक है। क्योंकि होश की तो कोई बाहर से पहचान हो नहीं सकती। इसमें से उसने फिर और सवाल नहीं उठाया। यह जरा सोचने की बात है। उसने यह नहीं कहा कि ऐसा भी हो सकता है कि कभी होश खो जाए। अब क्या चिंता है? अब अदृश्य मामला हो गया। अब जी भर कर छुओ। च्यूंटी लो! रही होश की बात सो वह भीतरी बात है, उसका किसी और से क्या लेना-देना! होशपूर्वक च्यूंटी लो। होशपूर्वक धक्का मारो! होशपूर्वक घूर-घूर कर देखो! फिर उसने सवाल नहीं उठाया। उसने कहा, भंते, अब मैं जाता हूं।
तुम जिसको पवित्रता कहते हो उसमें क्या पवित्रता है? पाखंड है। आदमियों को मिथ्या होना सिखाया गया है।
और तुम यह भी कहते हो कि सदियों से इस महान देश भारत में...।
क्या खाक महान है! सभी देशों को यह भ्रांति है जो तुमको है। तुम सोचते हो चीन सोचता है कि तुम महान हो और चीन महान नहीं है? चीन महान देश है। तुम सोचते हो कि कोई और दूसरे देश, इंग्लैंड या जर्मनी या जापान सोचते हैं कि तुम महान हो और वे महान नहीं हैं?
हर देश को यह भ्रांति है। यह मूढ़ता, यह अहंकार सभी देशों को है। यह कोई नयी तो बात नहीं। यह हर जाति को अहंकार है, हर राष्ट्र को अहंकार है, हर समाज को, हर सभ्यता को, हर संस्कृति को, सभी को यह दंभ है कि हम महान! जरा गौर से देखो, जब हम कहते हैं हम महान, तो वस्तुतः तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि मैं जिस देश में पैदा हुआ हूं, गरीबदास झोलीवाले जहां पैदा हुए, वह देश महान होना ही चाहिए! अरे नहीं तो वे और कहीं पैदा न होते।
जार्ज बर्नार्ड शा कहा करता था कि मैं इस सिद्धांत को नहीं मानता कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। मैं गैलीलियो से राजी नहीं, कोपरनिकस से राजी नहीं। मैं तो बाइबिल के इस सिद्धांत से राजी हूं कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है।
लोगों ने कहा कि आप हद कर रहे हैं। अब तो यह सिद्ध हो चुका है। अब तो खुद पोप भी हिम्मत नहीं कर सकता कहने की यह कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अब तो यह सब तरह से प्रमाणित हो चुका है कि पृथ्वी चक्कर लगाती है।
बर्नार्ड शा ने कहा कि मुझे प्रमाण से क्या लेना-देना? सवाल यह है कि मैं पृथ्वी पर पैदा हुआ हूं! मेरी पृथ्वी सूरज का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज को ही पृथ्वी का चक्कर लगाना होगा। बर्नार्ड शा जहां पैदा हुआ है!
यह वह मजाक कर रहा है। वह मजाक कर रहा है गरीबदास झोलीवाले से। जहां तुम पैदा हुए हो...अब यही गरीबदास झोलीवाले अगर मुसलमान होते तो इसलाम धर्म महान धर्म! अभी हिंदू धर्म महान धर्म। तब अरब महान देश।
कल रात मैं एक गीत सुन रहा था। गीत में एक कड़ी आती है जिसमें गायक परमात्मा से कह रहा है कि अभी मुझे बहिश्त देखने की कोई आकांक्षा नहीं। अभी तो मेरी आंखें मदीने की तरफ लगी हैं। अभी स्वर्ग के तमाशे देखने की मुझे कोई इच्छा नहीं। अभी तो मेरी आंखें मदीने की तरफ लगी हैं। मदीना! दूसरी पंक्ति उस गीत में आती है कि इस पृथ्वी पर केवल वही भूमि पवित्र है जहां परमात्मा के प्यारे मोहम्मद का घर है। स्वभावतः मुसलमान को यही खयाल है--मक्का और मदीना। यही मोहम्मद के निवास स्थान रहे। तो जहां परमात्मा के प्यारे का घर है, उस मिट्टी का जर्रा-जर्रा भी बहिश्त से बेहतर है, स्वर्ग से बेहतर है।
यह अहंकार! अब समय आ गया कि हम समझें--पृथ्वी एक है। यह भारत महान देश, जहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! यह मक्का-मदीना, जहां परमात्मा के प्यारे का घर है! और यह जेरुसलम, जहां जीसस चले, उठे-बैठे, शिक्षा दी। यह बोधगया, जहां बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ। और यह काशी, त्रिलोक से न्यारी! है भी निराली। ऐसी गंदी कोई जगह खोजना मुश्किल। और जिस तरह का तमाशा काशी में इकट्ठा है, कहीं और है भी नहीं। रांड, भांड और सांड इकट्ठे हैं। और तो वहां क्या है? है त्रिलोक से न्यारी। सड़कों से गुजरना मुश्किल! सांड विश्राम करते हैं बीच सड़कों पर। एक तो सड़कें काशी की कोई सड़कें नहीं, गलियों से गई-बीती। और फिर सांड विराजमान हैं! सांड यानी नंदी बाबा। उनको हटा भी नहीं सकते। हटाओ, झगड़ा हो जाए। गौमाता विराजमान हैं बीच रास्ते पर।
मैं तो एक बार काशी गया और मैंने कहा अब दुबारा नहीं आना है। यह क्या बेहूदगी है? गौमाता बैठी है, हार्न बजाते रहो, वह हट ही नहीं रही। और काशी की गौएं, वे कोई साधारण गौएं हैं! और सांडों को क्या फिक्र पड़ी कि तुम्हारी कार को निकलना चाहिए।
लेकिन ये भ्रांतियां कहां टिकी हैं? सबकी भ्रांतियां। इनका टिकाव अहंकार पर है। कोई देश महान नहीं है और कोई देश हीन नहीं है। कोई जाति महान नहीं है, कोई जाति हीन नहीं है।
महंत गरीबदास पूछते हैं: "पर न जाने क्यों आप और आपके संन्यासी संन्यास की पवित्रता को नष्ट करने में लगे हैं।'
संन्यास के पाखंड को नष्ट करने में लगे हैं, पवित्रता को नहीं। संन्यास को पवित्रता दे रहे हैं। मुर्दा सड़ी लाश को जीवन दे रहे हैं। दुर्गंध उठती लाश को रूपांतरित कर रहे हैं। क्योंकि मेरे संन्यास का अर्थ है: जीवन को जीने की कला। जीवन का त्याग नहीं, बल्कि जीवन में अहोभाव। परमात्मा की यह जो अदभुत अनुकंपा तुम पर हुई है कि जीवन दिया, इस अनुकंपा के लिए धन्यवाद।
जीवन पाठशाला है। पाठशाला में कठिनाइयां हैं, सवाल हैं, समस्याएं हैं। मगर वे इसलिए हैं, ताकि तुम उन समस्याओं को पार करना सीख सको; ताकि तुम उन समस्याओं की सीढ़ियां बना सको और उनका अतिक्रमण कर सको। जीवन को ठीक से जीकर ही कोई मुक्त हो सकता है। जीवन को परिपूर्णता से जीने वाला ही केवल मुक्त होता है। भगोड़े कभी मुक्त नहीं होते। भगोड़े बंधे ही रह जाते हैं। फिर तुम्हारी मर्जी, चाहो भगोड़ों को रणछोड़दास जी कहो।
क्या-क्या मजा है! मेरे गांव में एक मंदिर है, जिसका नाम रणछोड़दास जी का मंदिर है। मैंने उसके महंत को कहा कि कम से कम यह नाम तो बदल दो। रणछोड़दास जी का मतलब क्या होता है? कि जो रण को छोड़ भागे!
उसने कहा, आपके दिमाग में भी न मालूम कहां-कहां की बातें आ जाती हैं। मुझे जिंदगी हो गई यह रणछोड़दास जी की सेवा करते-करते, मुझे कभी यह सवाल ही नहीं आया। अब आपने एक अड़चन कर दी खड़ी। अब जब भी मैं रणछोड़दास जी शब्द को सुनूंगा--और वह मंदिर की प्रतिमा भी कृष्ण की है, मगर रणछोड़दास जी की प्रतिमा कही जाती है; क्योंकि कृष्ण एक दफा भाग खड़े हुए थे रण छोड़ कर--तो अब मुझे अड़चन खड़ी कर दी।
उसने कहा कि तुम भैया यहां आया ही मत करो। तुम जब आते हो, कोई झंझट खड़ी कर जाते हो। अब मैं पूजा भी करूंगा तो मुझे लगेगा, यह मैं क्या कर रहा हूं--रणछोड़दास जी!
अच्छे-अच्छे नाम देकर हम थोथी-थोथी बातों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं नहीं मानता हूं यह बात कि महावीर और बुद्ध ने और शंकराचार्य ने और नागार्जुन ने जीवन को छोड़ कर अच्छा किया। काश, बुद्ध-महावीर, शंकराचार्य, नागार्जुन जैसे लोग जीवन में समग्रता से जीते, तो इस देश के जीवन में आज गरिमा होती, गौरव होता! इस जीवन में ज्यादा सुगंध होती, ज्यादा संगीत होता! स्वभावतः अगर हमने बुद्ध को जीवन जीते देखा होता तो हम कला सीखते जीवन की। मगर ये सब भाग गए।
भगोड़ेपन में मैं कोई पवित्रता नहीं देखता हूं। एक तरह की कमजोरी और एक तरह की भीरुता जरूर देखता हूं। इसलिए, गरीबदास, यह मत कहो कि मेरे संन्यासी संन्यास की पवित्रता नष्ट कर रहे हैं। मेरे संन्यासी संन्यास को पहली दफा पवित्रता दे रहे हैं, क्योंकि जीवन दे रहे हैं। और जीवन से ज्यादा पवित्र क्या है? मौत को तुम समझते हो पवित्रता?
त्याग नहीं है पवित्रता। जीवन को आनंद से, रस से जीना पवित्रता है। यही हमारी असली परिभाषा है: रसो वै सः! परमात्मा रस-रूप है। तो जीवन को जो रसिक भाव से जीता है, उसके सारे सौंदर्य को संवेदना से जीता है, वही संन्यासी है।
पूछ रहे हैं गरीबदास: "इससे आप लोगों को क्या मिल जाएगा?'
सब कुछ मिल जाएगा--परमात्मा, सत्य, आनंद, मोक्ष। खोएगा तो पाखंड खोएगा, जो कि खोना चाहिए। खोएगा तो भगोड़ापन खोएगा, जो कि खोना ही चाहिए। काफी समय हो गया। बहुत हो चुकी यह बकवास संन्यास के नाम पर। यह बंद होनी चाहिए। खोने को कुछ भी नहीं है, पाने को सब कुछ है।
धर्म को मैं नयी परिभाषा देना चाहता हूं। क्योंकि पुराने धर्म की परिभाषा ने दस हजार साल में किया क्या? आखिर हिसाब तो लगा कर देखो। आदमी अब भी विक्षिप्त है। आदमी अब भी हिंसक है। आदमी अब भी उन्हीं उपद्रवों में जड़ा हुआ है जिनमें पहले जड़ा हुआ था। कोई फर्क नहीं हुआ।
बुद्ध और महावीर लोगों को समझाते हैं: चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ न बोलो, व्यभिचार न करो। जाहिर है कि लोग व्यभिचार कर रहे थे, झूठ बोल रहे थे, बेईमानी कर रहे थे। नहीं तो शिक्षा देने की क्या जरूरत? पुराने से पुराने शास्त्र यही कहते हैं। और वही आज भी जारी है। जिसको तुम सतयुग समझते हो, उस सतयुग के शास्त्र भी लोगों को यही समझाते हैं जो आज समझाने की जरूरत है। अगर तब भी दवा यही बांटी जा रही थी जो अभी बांटी जा रही है, तो एक बात साफ है कि बीमारी तब भी यही थी, बीमारी अब भी वही है। यह सतयुग में और कलियुग में कोई खास फर्क नहीं पड़ गया है।
कुछ करने का वक्त आ गया, काफी हो गया। प्रयोग तुमने करके देख लिया तुम्हारे संन्यास का। मेरे संन्यास का प्रयोग भी होने दो। मेरे संन्यास से इतनी घबड़ाहट क्यों पैदा हो रही है? अगर तुम सत्य हो तो तुम जीतोगे। इतनी घबड़ाहट क्या है? इतनी बेचैनी क्या है? सारा मुल्क इतना परेशान क्यों हुआ जा रहा है? सारे संत-महंत-महात्मा इतने क्यों डांवाडोल हुए जा रहे हैं? अगर मैं गलत हूं तो गलत तो हार ही जाएगा। तुम्हारे शास्त्र कहते हैं: सत्यमेव जयते।
लेकिन तुम्हें डर पैदा हो रहा है कि सत्य तुम्हारे साथ नहीं है। मुझे कोई डर नहीं है। तुम्हारे संतों-महंतों की तो भीड़ बड़ी है, पुरानी है। परंपरा का सहारा है, शास्त्रों का सहारा है। मेरे संन्यासी तो नये हैं, अभी-अभी खिले हुए फूल जैसे हैं, कोमल हैं। भय होना चाहिए मुझे। उनकी तो कोई सुरक्षा नहीं है। लेकिन मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि मैं मानता हूं कि सत्य को भय का कोई कारण नहीं। असत्य हारने ही वाला है।
और तुम अंततः पूछते हो: "क्या इस पवित्र संन्यास का कुछ भी योगदान नहीं रहा, ऐसा आप लोग समझते हैं?'
नहीं, योगदान तो बहुत रहा। नहीं तो इस देश की इतनी दरिद्रता, भुखमरी, गुलामी, मूढ़ता, अंधविश्वास, ये कहां से आते? योगदान तो बड़ा रहा! गजब का रहा! क्या-क्या नहीं दिया तुम्हारे संन्यास ने और तुम्हारे धर्म ने! इस देश को सब तरह की सड़ांध दी, गंदगी दी। तुमने समझाया लोगों को कि यह भाग्य है अगर तुम गरीब हो। तुमने समझाया लोगों को कि अगर तुम गुलाम हो तो यह तुम्हारी नियति है, कुछ भी किया नहीं जा सकता; भोग लो, संतोष से भोग लो जो कुछ भी हो रहा है। जब कि यह बात बिलकुल गलत है।
अमरीका तीन सौ वर्षों में--केवल तीन सौ वर्षों में--समृद्धि के शिखर पर पहुंच गया। और तुम दस हजार वर्षों में रोज-रोज गरीबी के गर्त में गिरते चले गए। जरूर तुम्हारे तथाकथित पवित्र संन्यास ने और तुम्हारे तथाकथित धर्म ने बड़ा दान दिया। गङ्ढा खोदते ही गए तुम, कि भैया, और नीचे उतरो! कब्र खोदते ही गए तुम इस देश की। आदमियों को तुम गड़ाते ही गए। दस हजार साल में भारत विज्ञान के शिखरों को छू सकता था। हम पहले आदमी हो सकते थे जो चांद पर पहुंचते। हम पहले व्यक्ति होते दुनिया में जिन्होंने अणु का और उदजन बम का राज खोजा होता। क्योंकि दस हजार साल की प्रतिभा! लेकिन तीन सौ साल की केवल छोटी सी परंपरा, अमरीका ने चांद पर आदमी को खड़ा कर दिया, समृद्धि के शिखर छू लिए।
और फिर भी तुम पूछते हो कि तुम्हारा योगदान नहीं रहा?
जरूर रहा। विज्ञान को तुमने पैदा नहीं होने दिया। क्योंकि जब संसार माया है तो विज्ञान खड़ा कैसे हो सकता है? कोई संसार में यथार्थ ही नहीं है, सब झूठ ही झूठ है, तो विज्ञान का प्रयोजन ही क्या है? विज्ञान तब ही खड़ा हो सकता है, जब संसार सत्य हो। लेकिन तुम्हारे शंकराचार्य समझाते हैं: ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या। ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। ये आधारशिलाएं बन गईं अवैज्ञानिकता की। अब जब मिथ्या ही है तो इसमें खोजना क्या है? जब है ही नहीं, मृग-मरीचिका है, तो खोज कर भी क्या पाओगे?
संसार सत्य है, ब्रह्म भी सत्य है--यह मेरी उदघोषणा है। और संसार और ब्रह्म पृथक नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ब्रह्म संसार की ही गहराई है। ब्रह्म संसार की ही अंतरात्मा है। जैसे तुम्हारी देह में आत्मा छिपी है, ऐसे ही इस विराट विश्व के अंतरतम में ब्रह्म छिपा है। यह विराट ब्रह्म उसका ही विस्तार है। यह ब्रह्मांड ब्रह्म का ही विस्तार है।
कौन है जिम्मेवार इस देश में विज्ञान की हत्या के लिए?
शंकराचार्य जैसे लोग जिम्मेवार हैं। ये सब अदालत में खड़े किए जाने वाले लोग हैं, जिनको अदालत के सामने जवाब देना चाहिए। बहुत हो चुकी पूजा।
अगर हमें इस देश को रूपांतरित करना हो तो हमें सारे आधार बदलने होंगे। जितने भी प्रतिभाशाली लोग इस देश में पैदा हुए उन सारे प्रतिभाशाली लोगों को हमने भगोड़ापन सिखाया। तो प्रतिभा तो भाग गई। प्रतिभा तो जंगलों में चली गई। प्रतिभा तो बांझ रह गई। और बुद्धुओं के हाथ में देश पड़ गया। बुद्ध जंगल चले गए। महावीर जंगल चले गए। शंकराचार्य भाग गए। माया है तो भागना ही पड़ेगा, करना क्या माया में रह कर! ये ही प्रतिभा थे। ये नवनीत थे। इनकी ही प्रतिभा से आइंस्टीन और रदरफोर्ड और एडीसन और न्यूटन पैदा हो सकते थे। लेकिन यह नहीं हो सका। और जब तुम गरीबी में सड़ते हो और भुखमरी में दबे हो, तब भी होश नहीं आ रहा है। तब भी वही बकवास जारी है। गरीबों को वही अफीम पिलाए जा रहे हो कि यह तुम्हारा भाग्य है, झेल लो, शांति से झेल लो, संतोष से झेल लो। यह मनुष्य को दीन बनाने की प्रक्रिया है।
नहीं, यह मैं नहीं कहता, गरीबदास, कि योगदान नहीं रहा तुम्हारे तथाकथित पवित्र संन्यास का। बड़ा योगदान रहा। दस हजार साल में तुमने इस देश की हत्या कर डाली। और अब भी बैठे हो, अपनी-अपनी छुरी पर धार रख रहे हो और गर्दन काट रहे हो। मगर गर्दन इस तरकीब से काटी जा रही है कि जिसकी गर्दन काटी जाती है वह भी सोच रहा है कि बड़ा पवित्र कार्य हो रहा है! क्योंकि हजारों साल से उसने यही सुना है कि यह पवित्र कार्य है।
बोध से दीक्षा, आनंद किरण, दीक्षा से संन्यास। संन्यास का अर्थ है: जीवन जीने की कला--समग्रता में, पूर्णता में। संन्यास से श्रद्धा। नहीं यजुर्वेद के इस सूत्र के अनुसार। यह सूत्र तो बड़ा चालबाजी का है। किसी बेईमान ने गढ़ा होगा।
"दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति। दक्षिणा से श्रद्धा पैदा होती है।'
क्या गजब की बात! दक्षिणा से अश्रद्धा भला पैदा हो जाए, श्रद्धा पैदा नहीं हो सकती। लेकिन लोगों को समझाना पड़ेगा कि दक्षिणा से श्रद्धा पैदा होगी, तभी तो लोग देंगे, तभी तो दान करेंगे। नहीं तो ब्राह्मण को देगा कौन? पुरोहित को देगा कौन? उसको लोभ देना पड़ेगा कि देख, अगर तूने दक्षिणा दी तो श्रद्धा पैदा होगी। और फिर श्रद्धा से सत्य मिलता है। तो अगर सत्य पाना हो तो दक्षिणा तो बिलकुल जरूरी है। यह दक्षिणा इसका केंद्र है इस पूरे सूत्र का, क्योंकि दक्षिणा से श्रद्धा।
लाख उपाय करो, दक्षिणा से श्रद्धा को जोड़ न सकोगे। श्रद्धा संन्यास से पैदा होती है। संन्यास का अर्थ है: जीओ! कलात्मक ढंग से जीओ! ताकि जीवन तुम्हारा आनंद बन जाए, ताकि जीवन तुम्हारा उल्लास बन जाए। और जब तुम्हारा जीवन आनंद होगा, उल्लास होगा, तो श्रद्धा पैदा होगी, कि निश्चित ही परमात्मा है। उत्सव और आनंद के अतिरिक्त कोई और प्रमाण नहीं है परमात्मा का। जब तुम्हारे भीतर रसधार बहेगी, तभी तुम राजी हो सकोगे--रसो वै सः!
तुम्हारे तथाकथित साधु-संत सूखे-साखे हैं। न कोई रस, न कोई काव्य, न कोई संगीत, न कोई उल्लास, न कोई आनंद। मुर्दों की तरह सिकोड़ कर अपने को बैठे हैं। बस उनकी कुल कला इतनी है कि अपने को ही रस्सियों में बांध लिया और जंजीरों में बांध लिया है। अपनी आंखें फोड़ ली हैं कि कहीं स्त्री न दिखाई पड़ जाए; कान फोड़ लिए हैं कि कहीं संगीत न सुनाई पड़ जाए; हाथ काट लिए हैं कि कहीं किसी स्त्री को छूने की इच्छा पैदा न हो जाए। सब तरह अपंग होकर बैठे हैं। इन अपंगों को श्रद्धा पैदा होगी?
लेकिन पुरोहित समझा रहा है कि दान करो, दक्षिणा करो--और मुझे करो--तो श्रद्धा पैदा होगी! और ध्यान रखना, अगर श्रद्धा पैदा नहीं हुई, सत्य से चूक जाओगे।
मैं नहीं राजी हो सकता इस बात से। यही तो सारा का सारा जाल है--सारे पुरोहितों का। हिंदुओं का ही नहीं, जैन हों पुरोहित कि बौद्ध हों कि ईसाई हों कि मुसलमान हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। सारे धर्मों का मौलिक शोषण एक जैसा है। तरकीब वही है।
मैं कहूंगा: संन्यास से श्रद्धा। जब तुम्हारे जीवन में आनंद की किरण उतरेगी, तब स्वभावतः इस अस्तित्व के प्रति तुम्हारे मन में कृतज्ञता का बोध पैदा होगा। तुम अनुग्रह अनुभव करोगे कि मेरी कोई पात्रता न थी और मुझे इतना अपूर्व जीवन मिला! मैंने कुछ कमाया न था, फिर भी अस्तित्व ने मुझे कितना दिया! मेरी कोई पात्रता न थी, फिर भी मुझ पर स्वर्ण की वर्षा हुई! हीरे-जवाहरात गिरे! मैं ना-कुछ था, लेकिन अस्तित्व ने मुझे सब कुछ दिया! इस अनुभव से ही श्रद्धा पैदा होती है--अस्तित्व के प्रति श्रद्धा।
और निश्चित ही श्रद्धा से सत्य उपलब्ध होता है। उस आखिरी वचन से मैं राजी हूं। लेकिन वे तीन वचन उस आखिरी वचन तक नहीं ले जाते।
"श्रद्धया सत्यम् आप्यते।'
यह बात सत्य है। मगर वे तीन चरण इस मंदिर तक नहीं आते हैं। वे तीन सीढ़ियां इस द्वार तक नहीं पहुंचती हैं। ये सीढ़ियां चाहिए--बोध से दीक्षा, दीक्षा से संन्यास, संन्यास से श्रद्धा और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति।


दूसरा प्रश्न: भगवान,
हमारे सामने ही आपने बुद्ध, महावीर और कृष्ण की प्रतिमाओं में मनोहारी रंग भरे थे। उनके प्रति अहोभाव से हमें भर दिया था। और अभी-अभी आप उन्हीं प्रतिमाओं का बड़ी बेरहमी से खंडन कर रहे हैं। मूर्तियां बनाने एवं तोड़ने के दोनों कृत्य आप क्यों कर रहे हैं? क्या इन मूर्तियों द्वारा अमूर्त की यात्रा अब असंभव हो गई है या कि आप हमें अपने आप के प्रति लौटने पर मजबूर कर रहे हैं?

आनंद वीतराग,
यह सत्य है कि मैंने बुद्ध, महावीर और कृष्ण की प्रतिमाओं में मनोहारी रंग भरे थे। इस आशा में कि तुम्हारे भीतर अहोभाव पैदा होगा।
तुम भी कहते हो: "उनके प्रति अहोभाव से हमें भर दिया था।'
मगर मेरी आकांक्षा कुछ और थी। मेरी आकांक्षा थी: तुम्हें अपनी संभावनाओं के प्रति अहोभाव पैदा होगा। हुआ उलटा। तुम्हारे मन में अहोभाव पैदा हुआ बुद्ध, महावीर और कृष्ण के प्रति। और जब मैंने देखा यह कि मैं कुछ कर रहा हूं, तुम कुछ समझ रहे हो; मैं कुछ कह रहा हूं, तुम कुछ और अर्थ ले रहे हो--तो जरूरी हो गया कि मैं किसी और आयाम से काम शुरू करूं।
चाहा था मैंने कि तुम अपनी संभावनाओं के प्रति सजग हो जाओ। क्योंकि चाहा था मैंने तुम्हारे भीतर बुद्धत्व की संभावना है, इसलिए बुद्ध का बहाना लिया था और बुद्ध में मनोहारी रंग भरे थे। इसलिए कृष्ण को निमित्त बनाया था। इसलिए महावीर को बहाना...। ये खूंटियां थीं। मुझे कुछ इन खूंटियों से प्रयोजन न था। चाहा था मैंने यह कि तुम यह देख सको कि जो बुद्ध हो सके हैं, महावीर हो सके हैं, कृष्ण हो सके हैं, वह तुम भी हो सकते हो। तुम्हारे भीतर तुम्हारी साधारणता में असाधारणता छिपी है। कोई बुद्ध की विशिष्टता नहीं है। बुद्ध होना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह मेरी आकांक्षा थी।
लेकिन तुम्हारे भीतर उलटा हुआ। जब मैंने कृष्ण में रंग भरे तो हिंदू मन ने दो काम लिए। एक काम तो यह किया कि उसने कहा, अहा! हमारे कृष्ण कैसे अदभुत! नहीं कोई इनका मुकाबला! अद्वितीय! तो हम ठीक ही मानते थे सदियों से कि वे पूर्ण अवतार हैं।
मैंने देखा कि तुम्हारी नजर अपने पर नहीं गई; तुम्हारी नजर परंपरा पर गई, अतीत पर गई। और मैंने यह भी देखा कि बजाय तुम अपने भीतर झांकते, तुम्हारा अहंकार मजबूत हुआ कि मैं हिंदू हूं, कि मैं जैन हूं, कि मैं बौद्ध हूं, कि मैं सिक्ख हूं--और देखो हमारे गुरु महावीर ऐसे महान, हमारे गुरु नानक ऐसे महान, हमारे गुरु कृष्ण ऐसे महान। तुम्हारा अहंकार बढ़ा और मुर्दा अतीत के प्रति तुम्हारा सम्मान बढ़ा। जब मैंने देखा कि तुम्हारी तंद्रा में, तुम्हारी निद्रा में तुम कुछ का कुछ सुन रहे हो, तो मुझे अपनी प्रक्रिया बदल देनी पड़ी।
मुझे न कृष्ण से कुछ लेना है, न बुद्ध से कुछ लेना है, न महावीर से। और यह भी मैं तुमसे कह दूं कि वे जो रंग मैंने कृष्ण में भरे थे, वे जरूरी नहीं है कि कृष्ण का अंग रहे हों। वे रंग मैंने भरे थे। रंग भरने का प्रयोजन और था, कृष्ण से कुछ संबंध न था। कृष्ण तो केवल कैनवास थे, रंग मेरे थे। इसलिए जब चाहूं अपने रंग विदा कर सकता हूं। वे जो रंग मैंने बुद्ध में भरे थे, मैंने भरे थे। बुद्ध का उससे कुछ लेना-देना नहीं है। रंग भरने का प्रयोजन था--बुद्ध की महानता सिद्ध करना नहीं, वरन तुम्हारी संभावना के प्रति तुम्हें सचेत करना। जब देखा कि वह तो नहीं हो रहा है, तुम उलटा ही कर रहे हो। लोग ऐसे ही उलटे हैं। अजीब-अजीब तरह का आदमी का मन है।
मुल्ला नसरुद्दीन घर आया डाक्टर के घर से दवा लेकर। दिन में छह दफे दवा लेनी थी। सांझ होतेऱ्होते उसे चक्कर आने लगा। सिर घूमता मालूम पड़े। दुनिया घूमती हुई मालूम पड़े। वह डाक्टर के पास गया कि यह हद हो गई, मेरी बीमारी तो वैसी की वैसी है और एक नयी बीमारी मुझ पर आ गई कि दुनिया घूमती मालूम पड़ती है, सिर चकरा रहा है, खड़ा नहीं हो सकता।
डाक्टर ने कहा, यह कभी मैंने सुना ही नहीं कि इस दवा से इस तरह की कोई संभावना है। मैंने जैसा कहा था, उस ढंग से लिया या नहीं?
नसरुद्दीन ने कहा कि जिस ढंग से कहा था, बिलकुल अक्षर-अक्षर वैसा ही अनुगमन किया है।
डाक्टर ने कहा, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। फिर सिर क्यों घूम रहा है? दुनिया क्यों घूमती मालूम हो रही है? इस दवा में ऐसा कोई गुण ही नहीं है।
नसरुद्दीन ने कहा, गुण क्यों नहीं है! इस दवा की बोतल पर साफ लिखा है कि दवा लेने के पहले हिलाओ।
डाक्टर ने कहा, इससे इसका क्या संबंध है?
उसने कहा, इसका संबंध है। दवा लेने के पहले मैं अपने शरीर को ऐसा हिलाता हूं कि बिलकुल चक्कर आने लगते हैं। और दिन में छह दफे हिलाना, कभी आधा घंटा, कभी घंटा भर हिलाता हूं, हिलाता ही चला जाता हूं। उलटी करने का मन होता है। यह दवा तो एक झंझट है।
दिन में छह घंटे अपने को हिलाओ, हलाकान करो, तो स्वभावतः दुनिया घूमती हुई मालूम पड़ेगी। दवा लेने के पहले हिलाना--अब इसका मतलब मुल्ला नसरुद्दीन ने क्या लिया!
मतलब तो तुम लोगे। और तुम्हारे मतलबों ने मुझे बदलाहट के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए अब मैंने रंग खींचने शुरू कर दिए, क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम्हें साफ हो जाए कि बुद्ध पर नजर नहीं गड़ानी, अपने पर नजर लानी है। कृष्ण पर बहुत चढ़ चुके पूजा के फूल और महावीर के चरणों में बहुत सिर झुकाए जा चुके। मगर ये सब मुर्दा अतीत हैं। तुम्हें अपने भीतर के जीवनत्तत्व को पहचानना है।
इसलिए जैसे मैंने रंग भरे थे, वापस निकालने शुरू कर दिए। रंग भरने में भी यही प्रयोजन था। मेरा प्रयोजन नहीं बदला है। मेरा लक्ष्य वही का वही है। लेकिन प्रक्रिया बदल गई। रंग भी इसलिए भरे थे कि तुम अपने को देखो। नहीं तुम देख सके तो अब रंग निकाल रहा हूं, ताकि कैनवास खाली हो जाए और तुम्हें मजबूरी में अपने को देखना ही पड़े। कुछ और देखने को बचने ही नहीं दूंगा। कहीं और तुम्हारी पूजा के फूल चढ़ें, इसका उपाय नहीं छोडूंगा; ताकि तुम्हें कोई भी अपने से भाग निकलने का रास्ता न मिले। अपने में ही बिठा देना है तुम्हें।
इसलिए मूर्तियां मैंने बनाईं और मूर्तियां तोड़ रहा हूं। जिस प्रयोजन से बनाई थीं उसी प्रयोजन से तोड़ रहा हूं। निश्चित ही अमूर्त की यात्रा करनी है। मूर्तियां यूं थीं जैसे अंगुलियां चांद की तरफ इशारा करती हों। लेकिन जब मैंने देखा तुम अंगुलियां ही पकड़ लिए, और कुछ जो बहुत नासमझ थे वे अंगुलियों को चूसने भी लगे, तो मुझे अंगुलियां वापस लेनी पड़ीं।
चांद दिखाना है, अंगुलियों से कुछ प्रयोजन नहीं। बुद्ध भी अंगुली हैं, महावीर भी अंगुली हैं, कृष्ण भी अंगुली हैं। गीता भी, कुरान भी, बाइबिल भी। मैंने चाहा था कि ये सब अंगुलियां तुम्हें चांद दिखाने के काम में आ जाएं। लेकिन तुम अंगुलियों को पकड़ते हो।
ईसाई प्रसन्न होता है, अगर मैं बाइबिल के किसी सूत्र का समर्थन कर देता हूं, आह्लादित हो जाता है। मैं कुछ इसके ईसाई अहंकार को आह्लादित करने के लिए यहां नहीं बैठा हूं। अगर मैंने देखा कि इसका ईसाई अहंकार आह्लादित हो रहा है तो मैं जीसस पर चोट करूंगा। क्योंकि उसके सिवाय इसका गुब्बारा फूटेगा नहीं। असल में मैं इसकी ही पिटाई कर रहा हूं। मगर इसकी पिटाई का एक ही उपाय है कि किसी तरह, इसके मन में जो जीसस की प्रतिमा बन गई है, वह खंडित कर दी जाए। मैं कोई जीसस का दुश्मन नहीं।
न मेरी किसी से मैत्री है और न मेरी किसी से दुश्मनी है। प्रयोजन साफ है: तुम जागो। जिस भांति भी होगा तुम्हें जगाऊंगा। अगर मूर्तियों से जग सकते हो तो ठीक, मुझे कुछ एतराज नहीं। और अगर मूर्तियों से नहीं जग सकते तो मूर्तियों को हथौड़ी से लेकर तोड़ ही देना पड़ेगा, खंड-खंड बिखेर देना होगा। शायद मूर्ति के टूटने से तुम जागो। मगर मेरा प्रयोजन सुनिश्चित एक है। मेरी विधियां कितनी ही बदल जाएं, मंडन करूं कि खंडन, समर्थन करूं कि विरोध, मगर लक्ष्य सुनिश्चित रूप से एक है: तुम्हारे भीतर जो सोई हुई आत्मा है, वह जागनी चाहिए। तुम्हारे भीतर जो प्रसुप्त अग्नि है, प्रज्वलित होनी चाहिए। तुम्हारे भीतर जो परमात्मा छिपा है, अभी आच्छादित है, उसे अनाच्छादित करना है।

आज इतना ही।


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