शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07



राम नाम जान्यो नहीं-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

धर्म-अधर्म के पार : कोरा आकाश—प्रवचन-सातवां

प्रश्न-सार-

1—आपने अपने संन्यासियों के लिए एक से एक सुंदर नाम चुने हैं। लेकिन पिछले दिन मैं एक नाम देख कर चकित रह गया--स्वामी वीत धर्म। क्या धर्म का भी अतिक्रमण करना है? यदि हां, तो कृपया बताएं कि उसके पार क्या है?

2—आप कहते हैं कि जगत सत्य है, जीवन सत्य है; उन्हें स्वीकार कर अहोभाव के साथ जीओ। लेकिन भौतिकवादी तो यही मान कर जी रहे हैं, लेकिन उनके जीवन में भी उत्सव कहां है?

3—आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों?


पहला प्रश्न: भगवान,
आपने अपने संन्यासियों के लिए हजारों-हजार नाम चुने हैं--एक से एक सुंदर नाम। लेकिन पिछले दिन मैं एक नाम देख कर चकित रह गया, वह नाम है: स्वामी वीत धर्म। अब तक तो यही समझा जाता था कि धर्म को उपलब्ध होना है। अब क्या धर्म का भी अतिक्रमण करना है? यदि हां, तो कृपया बताएं कि उसके पार क्या है?

आनंद मैत्रेय,
धर्म औषधि है। औषधि का उपयोग तब तक है जब तक रोग है। रोग गया, औषधि व्यर्थ हुई। लेकिन यह खतरा है कि रोग तो छूट जाए और औषधि से हमारा बंधन हो जाए; औषधि को हम पकड़ लें; औषधि की ही पूजा करने लगें। और तर्कयुक्त भी मालूम होगा, क्योंकि जिस औषधि के कारण रोग गया उस औषधि के प्रति स्वभावतः कृतज्ञता का बोध पैदा होता है। इसलिए औषधि को पकड़ रखने का खतरा सदा है और उससे सचेत होना आवश्यक है। रोग तो छोड़ना ही है, औषधि भी छोड़नी है।
धर्म है मार्ग। मंजिल मिल गई, फिर मार्ग का क्या प्रयोजन? मंजिल को पा लेने के बाद भी क्या मार्ग को सिर पर ढोना है?
गौतम बुद्ध एक प्रीतिपूर्ण कथा कहते थे। वे कहते थे: पांच मूढ़ों ने नाव में सवार होकर नदी पार की। खतरा था अगर उस पार रह जाते तो। रात उतर रही थी। जंगली जानवरों का भय था। जीवन-मृत्यु का सवाल था। नाव बड?े काम आई। नाव ने जीवन बचाया। मूढ़ों ने सोचा, जिस नाव ने जीवन बचाया, क्या अब उस नाव को यूं ही छोड़ कर चल पड़ें? यह बात उचित न लगी। उन पांचों मूढ़ों ने नाव को अपने कंधों पर उठाया। लोगों ने देखा तो पूछा, यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, जिस नाव ने हमारे जीवन को बचाया, उस नाव को हम कभी नहीं छोड़ सकते। अब तो इस नाव को हम सदा ढोएंगे। अब तो यह नाव हमारे सिर पर रहेगी।
माना कि नाव से नदी पार हुई और यह भी माना कि धन्यवाद दे दो नाव को, मगर नाव को कंधों पर ढोते रहोगे तो बात मूढ़तापूर्ण हो जाएगी।
और बुद्ध की कथा करीब-करीब पूरी मनुष्य-जाति के संबंध में सत्य है। लोग नाव को ढो रहे हैं। और मजा तो ऐसा है, उन नावों को भी ढो रहे हैं जिन्होंने तुम्हें पार भी नहीं किया। वे मूढ़ तो फिर भी तुमसे कम मूढ़ थे, कम से कम नाव ने पार तो किया था। लेकिन तुम हिंदू हो या मुसलमान हो या ईसाई हो या जैन हो, इन नावों ने तुम्हें पार किया है? सिर्फ पार करने का आश्वासन दिया है। और ये नावें तुम्हें पार कर सकेंगी? क्योंकि ये कागज की नावें हैं, शास्त्रों की नावें हैं, सिद्धांतों और शब्दों की नावें हैं। इनसे कोई कभी पार हुआ है?
क्या तुम सोचते हो महावीर जैन धर्म के कारण पार हुए? क्या तुम सोचते हो जीसस ईसाई धर्म के कारण पार हुए? जीसस को तो ईसाई धर्म का पता भी नहीं था, नाम भी नहीं सुना था। क्या तुम सोचते हो कि बुद्ध बौद्ध धर्म के कारण पार हुए? लेकिन जो धर्म बुद्ध के पीछे बना, जो धर्म जीसस के पीछे बना, ये बुद्ध और जीसस ने नहीं बनाए धर्म, ये पंडित और पुरोहितों ने बनाए।
जीसस का धर्म-संस्थापक था पीटर--जीसस का एक शिष्य। मगर यह पीटर जब जीसस को सूली लगी तो भाग गया था। सिंहासन मिलता तो साथ होता, सूली लगी तो भाग गया, छिप रहा। और इसी पीटर ने--यह पहला पोप था--इसी पीटर ने जीसस धर्म की आधारशिला रखी।
महावीर ने जैन धर्म की आधारशिला नहीं रखी, महावीर के ग्यारह गणधरों ने। और जान कर तुम चकित होओगे कि महावीर क्षत्रिय थे और जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। जैन धर्म वस्तुतः ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मण धर्म से हो रहे शोषण के विद्रोह में एक बगावत थी, उनके खिलाफ एक क्रांति थी। लेकिन महावीर के ग्यारह ही गणधर ब्राह्मण पंडित थे। उन्होंने बगावत पर पानी फेर दिया। उन्होंने क्रांति की आग बुझा दी। जहां अंगारे थे वहां राख रह गई। उसी राख से जैन धर्म बना।
ऐसे ही बुद्ध धर्म बना। ऐसे ही सारे धर्म बने। जिन्होंने जाना उन्होंने इन्हें नहीं बनाया। इन्हें बनाने वाले और ही लोग थे--जिन्होंने अवसर न चूका; जिन्होंने देखा कि बुद्ध की साख के आधार पर करोड़ों लोगों को चूसा जा सकता है; जिन्होंने देखा कि महावीर के नाम की आड़ में बड़ा मौका है, बड़ा अवसर है पांडित्य का, पौरोहित्य का; जिन्होंने देखा कि जीसस के कंधे पर बंदूक रख कर खूब शिकार की जा सकती है--इन लोगों ने धर्म निर्मित किए। अंधों ने धर्म निर्मित किए हैं।
निश्चित ही इन धर्मों के पार जाना है। ये कागजी नावें हैं। तुम्हें पार भी नहीं ले जा सकतीं। ये तुम्हें पार ले भी नहीं गई हैं। सच तो यह है, इन्होंने तुम्हारी जंजीरें ढाली हैं। इन्होंने तुम्हारे कारागृह निर्मित किए हैं। हिंदू होना कोई गौरव की बात नहीं, न मुसलमान होना कोई गौरव की बात है। यह तो सिर्फ इस बात की घोषणा है कि तुम परतंत्र हो, कि तुम एक मानसिक गुलामी में हो, कि तुम्हें इतना भी आत्म-गौरव नहीं है कि कह सको कि मैं सत्य को स्वयं खोजूंगा। सत्य भी तुम्हारा उधार है, बासा है, सदियों पुराना है। कब का सड़ गया है, कब का मर गया है। तुम मुर्दों के पूजक हो। तुम मुर्दों के ढेर हो। तुम कब्रों पर दीये जला रहे हो। तुम मजारों पर फूल चढ़ा रहे हो।
तो पहला तो धर्म का जो सामान्य अर्थ है, मजहब, उसके पार जाना है। निश्चित ही सत्य के खोजी को जब तक सत्य न मिल जाए तब तक किसी भी धर्म में अपने को बांधना सत्य के मार्ग में अवरोध खड़ा करना है। सत्य को खोजने की पहली शर्त है: पक्षपातरहित होना। और जब तुमने पहले से ही किसी धारणा, किसी सिद्धांत, किसी शास्त्र, किसी धर्म को अंगीकार कर लिया तो तुम पक्षपात से मुक्त कैसे रहोगे? तुमने विश्वास कर लिया तो तुम सत्य को खोजोगे कैसे? खोजने के पहले ही मान लिया, तब खोजने को बचा क्या?
जिसे सत्य को खोजना है उसके लिए किसी धर्म को मानने का कोई उपाय नहीं है। उसे समस्त धर्मों का त्याग करना पड़ेगा। उसे तो कोरे कागज की तरह शुरुआत करनी पड़ेगी। तुम्हारे चित्त के कागज पर कुछ भी लिखा हो, उस सबको पोंछ डालना पड़ेगा। क्योंकि लिखा औरों ने है, जिन्होंने लिखा है उन्हें भी पता नहीं है। तुम्हारे मां-बाप ने लिखा होगा। तुम्हारे शिक्षकों ने लिखा होगा। तुम्हारे राजनेताओं ने लिखा होगा। तुम्हारे धर्मगुरुओं ने लिखा होगा। उनके अपने न्यस्त स्वार्थ हैं।
बच्चा पैदा नहीं हुआ कि धर्मगुरु उसकी गर्दन दबाने को तैयार हो जाते हैं। इधर बच्चा पैदा हुआ कि उधर धार्मिक क्रियाकांड शुरू हुए। पैदा होने से लेकर मरने तक! तुम तो चकित होओगे यह जान कर कि कुछ धर्मों ने तो इतनी भी देर नहीं की, पैदा होने तक का भी मौका नहीं आने दिया, उसके पहले ही धर्म की शुरुआत हो जाती है।
वैदिक धर्म गर्भाधारण से शुरू होता है। दयानंद ने उसकी बड़ी प्रशस्ति की है। बात बिलकुल बेहूदी है, अश्लील है, अभद्र है। मगर धर्म के नाम पर सब चलता है। वैदिक धर्म की पुरानी इस प्रथा को दयानंद ने बहुत समर्थन दिया है, कि जब पति और पत्नी संभोग कर रहे हों और गर्भाधारण हो रहा हो, उसी समय धर्म का बीजारोपण हो जाना चाहिए। यह बीजारोपण कैसे होगा? पति-पत्नी संभोग कर रहे होंगे और चार पंडित चारों दिशाओं में खड़े होकर वेदोच्चार करेंगे। बेहूदगी की भी कोई सीमा होती है! यह वेदोच्चार के साथ ही गर्भाधारण होगा। कैसी जालसाजी है!
गर्भाधारण से लेकर मर जाने के बाद तक, बाप-दादे तुम्हारे मर चुके कब के, लेकिन पितृपक्ष में पंडित अभी भी तुम्हें चूस रहा है। मरों के नाम से भी चूस रहा है। पैदा जो नहीं हुए हैं उनके नाम से भी चूस रहा है। पैदा होने के पहले से मर जाने के बाद तक उसने सब तरफ से जंजीरें खड़ी कर रखी हैं। इन जंजीरों में बंधा हुआ आदमी सत्य को खोज सकता है?
सत्य की खोज की प्राथमिक शर्त एक है कि तुम्हारा कोई पक्षपात न हो, तुम्हारी कोई धारणा न हो। धारणा-शून्य होकर ही कोई सत्य की खोज में जा सकता है। सारे पक्षपातों को जला कर राख कर देना है। सारे शास्त्रों से मुक्त हो जाना है। तभी तुम अपने भीतर के शास्त्र को खोज पाओगे। तभी--केवल तभी--तुम्हारे निर्दोष चित्त में, तुम्हारे पक्षपात-शून्य चेतना के आकाश में सत्य का सूर्य उदय होगा। अगर तुम पहले से ही किसी धारणा में बंधे हो तो तुम वही देखोगे जो तुम्हारी धारणा तुम्हें दिखा सकती है। तुम वह नहीं देखोगे जो है; तुम वह देखोगे जैसा तुम चाहते हो कि होता। तुम्हारी आंखें सत्य के दर्शन करने में असमर्थ हो जाएंगी। तुम्हारी आंखें प्रक्षेपण करेंगी। तुम्हारी धारणा को ही तुम हर जगह खोजने निकल पड़ोगे।
और खयाल रखना कि अगर तुम्हारी कोई धारणा है तो तुम निश्चय ही अपनी धारणा का समर्थन पा लोगे। जीवन विराट है। जो यहां कांटे खोजने निकलता है उसे कांटे भी मिल जाते हैं। और जो यहां फूल खोजने निकलता है उसे फूल भी मिल जाते हैं। जो यहां झूठ खोजने निकलता है उसे झूठ भी मिल जाता है। मान कर भर चलो। मान कर भर चलना जरूरी है। जो भी तुम मानोगे वही मिल जाएगा। मनुष्य का मन स्वप्नों को भी सत्य का आभास दे सकता है।
मेरे एक शिक्षक थे। पहले ही दिन वे कक्षा में आए। मैं मैट्रिक की कक्षा का विद्यार्थी था। और उन्होंने जो प्रस्तावना दी--पहले ही दिन, नये-नये शिक्षक नियुक्त हुए थे--उसमें उन्होंने बार-बार यह दोहराया कि मैं बहुत अभय, निर्भय, भय-मुक्त व्यक्ति हूं। उन्होंने इतनी बार दोहराया कि मुझे खड़े होकर उनसे कहना पड़ा कि आपका इतनी बार दोहराना कि आप बड़े निर्भीक हैं, भय-मुक्त हैं, अभय को उपलब्ध हो गए हैं, सिर्फ एक बात की खबर देता है कि आपके भीतर गहरा भय छिपा हुआ है। अन्यथा इस बात को बार-बार दोहराने की क्या जरूरत है? जैसे कि कोई आदमी बाजार में खड़े होकर कहे कि मैं मर्द हूं, मैं नपुंसक नहीं हूं--इसका क्या मतलब होगा?
वे बहुत नाराज हो गए। नाराज इतने हो गए कि गुस्से में कंपने लगे। मैंने कहा, देखिए, इतनी सी बात से आप कंप रहे हैं। आप जरूर डरते होंगे। आप भूत-प्रेत से डरते हैं?
उन्होंने कहा, कभी नहीं! भूत-प्रेत को मैं मानता ही नहीं।
तो मैंने कहा, फिर एक छोटा सा प्रयोग कर लेना जरूरी है। मैं वह जगह जानता हूं जहां भूत-प्रेत हैं। आप राजी हैं रात भर वहां टिकने को?
उनका चेहरा फक्क हो गया, एकदम पीला पड़ गया। मगर इनकार भी न कर सके। खुद ही अपने मुंह से कह कर फंस गए थे। बोले कि हां, मैं राजी हूं।
देखता था उनके हाथ कंप रहे हैं, चेहरा पीला पड़ गया है। तो मैंने कहा, कोई बात नहीं। देर की कोई जरूरत नहीं। आज ही रात परीक्षण हो जाए।
मेरे पड़ोस में ही एक सज्जन मिट्टी का तेल बेचने का धंधा करते थे। उनके सामने ही उनकी गोडाउन थी। एक दो-मंजिला मकान था, जिसमें खाली पीपे इकट्ठे कर रखे थे। गर्मी के दिनों में टीन के खाली पीपे गर्मी के कारण दिन भर में फैल जाते हैं और रात में सिकुड़ते हैं ठंड के कारण। सो उस घर में बड़ी आवाज होती थी। पीपों पर पीपे रखे हुए थे। तो जब पीपे सिकुड़ते तो एक पीपा सिकुड़ता, दूसरा सिकुड़ता, तीसरा सिकुड़ता--यूं आवाज सरकती चली जाती।
तो मैंने उनको कहा कि आपको पूरी व्यवस्था समझा दूं। इस घर में भूत हैं और भूत एक पीपे में से दूसरे पीपे में जाते हैं। रात भर यह क्रम चलता है। आप इसमें दूसरे मंजिल पर सो जाएं। अगर आप रात भर इसमें बच गए तो हम मान लेंगे कि आप निर्भीक हैं।
प्राण तो उनके कंप रहे थे। मैंने मोहल्ले वालों को भी समझा दिया था कि ये पूछताछ करें तो बताना कि भैया, बात तो सच है, भूत-प्रेत हैं। वैसे तुम्हारी मर्जी। आज तक किसी ने हिम्मत नहीं की है इस घर में सोने की। एक बार एक आदमी सोया था, फिर लौटा ही नहीं, फिर उसका पता ही नहीं चला। सुबह बहुत खोजा। कहते हैं कि वह भी भूत हो गया। वैसे आपकी मर्जी।
गांव में उन्होंने इधर-उधर भी तलाश की। जहां-जहां वे तलाश कर सकते थे, जहां-जहां उनकी पहचान थी थोड़ी-बहुत, वहां-वहां मैं पहले ही जाकर प्रचार कर आया था। जिससे भी पूछा उसी ने कहा, क्यों झंझट में पड़ते हो? अरे अपनी जान प्यारी नहीं? अपने पत्नी-बच्चों का कुछ विचार करो! बच्चे अनाथ हो जाएंगे, पत्नी विधवा हो जाएगी। कह दो कि मैं नहीं सोता। अरे ज्यादा से ज्यादा इतना सा होगा न कि बदनामी होगी कि इतने निर्भीक नहीं जितना तुम समझते हो, और क्या बिगड़ जाएगा? और इस छोकरे को समझा लो। अपनी जान इतने सस्ते में गंवानी ठीक नहीं है।
मगर वे जिद्दी आदमी थे और स्वीकार नहीं कर सकते थे। फंस गए थे। रात उन्हें मैं ले गया। उन्हें दूसरी मंजिल पर बिस्तर लगा कर सुला दिया।
और वही हुआ जो होना था। बारह बजे रात उन्होंने चिल्लाना शुरू किया, घिग्घी बंध गई, अल्ल-बल्ल बकने लगे। जीने पर आकर...किसी की समझ में ही न आए वे क्या कह रहे हैं, कौन सी भाषा बोल रहे हैं! घिग्घी जो बंध गई थी। भीड़ इकट्ठी हो गई।
मैंने उन्हें बहुत समझाया कि आप जीने से उतर कर आ जाएं! भीतर से आपने ही तो सांकल चढ़ाई है, खोल कर बाहर निकल आएं। मगर जीने से उतरने की उनकी हिम्मत नहीं, क्योंकि जीने से उतरने के लिए उस कमरे से गुजरना जरूरी था जिसमें कि भूत-प्रेत एक कनस्तर से दूसरे कनस्तर में आ-जा रहे थे। वे हाथ जोड़ें कि यहीं से उतार लो।
सारा गांव इकट्ठा हो गया। लोग ताली पीटें, हो-हल्ला मचाएं। एक सीढ़ी लगानी पड़ी और जीने से उनको उतारना पड़ा। उतरते-उतरते ही सीढ़ी से वे गिर पड़े, बेहोश हो गए, अस्पताल ले जाना पड़ा। बामुश्किल होश में आए। मैंने कहा, देखा! भूत-प्रेत देखे? मैंने उनसे कहा कि मैं तुमसे सच कहूं, वहां कोई भूत-प्रेत नहीं है।
वे कहने लगे, मैं मान ही नहीं सकता। हैं! मुझे कभी भरोसा नहीं था, लेकिन अब मुझे पक्का भरोसा है कि भूत-प्रेत होते हैं। मेरी जो गति बनाई उन्होंने! तुम तो कहते थे कि पीपों में सरकते हैं, वे मेरी छाती पर कूदते थे, मेरी गर्दन दबाते थे। इसीलिए तो मेरी घिग्घी बंध गई थी। मैं नहीं बोल रहा था, मेरे भीतर से भूत-प्रेत अल्ल-बल्ल बोल रहे थे। मैं कुछ कहना चाहता था और कुछ निकल जाता था। अब मैं कैसे मानूं कि भूत-प्रेत नहीं हैं! भूत-प्रेत होते हैं। और मैं क्षमा मांगता हूं कि अब मैं कोई और प्रयोग करने को राजी नहीं हूं।
मजा तो यह हुआ कि सारा पड़ोस जानता था कि वहां कोई भूत-प्रेत नहीं हैं, यह सब मैंने प्रचार किया था, जिसका मकान था, जिसके वे कनस्तर थे, उस तक ने रात उस मकान में जाना बंद कर दिया। मैंने पूछा कि तुम्हें तो लालाजी अच्छी तरह पता है!
उन्होंने कहा, अब पता का क्या करना जब प्रत्यक्ष देख लिया! अब मैं कभी इस मकान में रात में तो नहीं जा सकता। और दिन में भी जाता हूं तो मुनीम, नौकर-चाकरों को लेकर जाता हूं। अरे भूत-प्रेतों का क्या!
जिनको मैं पड़ोस में समझा आया था कि तुम कह देना कि भूत-प्रेत हैं, वे मुझसे पूछने लगे, तुम्हें पता कैसे चला? क्योंकि हमें यहां जिंदगी हो गई रहते, हमें कभी भूत-प्रेतों का पता नहीं चला, तुमने ही बताया। मैंने कहा, कोई भूत-प्रेत नहीं। अरे, वे कहने लगे, छोड़ो। अपनी आंख से देखा। कोई कान से नहीं सुना है। कान की सुनी बात झूठ हो सकती है, आंख की देखी बात तो झूठ नहीं हो सकती। उस बेचारे गरीब आदमी पर जो गुजरी, सारे गांव ने देख लिया।
उस मकान का नाम भूत-बंगला हो गया। उस मकान का बिकना मुश्किल हो गया। उसका कोई खरीदने वाला न रहा। उस मकान के मालिक लालाजी मुझसे कहने लगे, अब तुम ही इस मकान को ले लो। मुफ्त ले लो। और कुछ पैसा चाहिए हो तो ऊपर से वह ले लो। मगर मैं इस मकान से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता।
वह भुतहा मकान अब भी खाली है। अब उसमें कनस्तर भी नहीं हैं। उसमें कनस्तर रखने कौन जाए! निकालने कौन जाए!
आदमी के मन की यह संभावना है कि वह जो मान ले, चाहे ऊपर-ऊपर से इनकार करे, अगर भीतर से भी मान ले, तो सच हो जाएगा। यूं ही तुम्हें कृष्ण के दर्शन होते हैं और यूं ही तुम्हें क्राइस्ट के दर्शन होते हैं। और यूं ही तुम्हारे सामने काली मां प्रकट होती हैं और गणेश जी प्रकट होते हैं। सब तुम्हारी मन की धारणाएं हैं। सब तुम्हारा आत्म-सम्मोहन है।
सत्य की खोज के लिए पहली बुनियादी शर्त है कि तुम मन के प्रक्षेपण की सारी संभावना को बंद कर दो। मन में कोई धारणा नहीं होनी चाहिए, कोई मान्यता नहीं होनी चाहिए।
इसलिए वीत धर्म का पहला तो अर्थ है, आनंद मैत्रेय: हिंदू न रहो, ईसाई न रहो, जैन न रहो, बौद्ध न रहो। तो संभावना है कि एक दिन तुम महावीर हो सको और एक दिन तुम बुद्ध हो सको और एक दिन तुम जीसस की चेतना को उपलब्ध हो सको। ईसाई कभी भी जीसस की चेतना को उपलब्ध नहीं हो सकता और जैन कभी महावीर की वीतरागता को उपलब्ध नहीं हो सकता। असंभव है। महावीर ने किसी धारणा से शुरुआत नहीं की। महावीर ने मौन से यात्रा शुरू की।
मौन का क्या अर्थ होता है? मौन का अर्थ होता है: इतना ही नहीं कि बोलो मत। मौन का, बोलो मत, यह तो बाहरी सिक्का है। मौन का भीतरी अंग है: सोचो मत। क्योंकि सोचोगे तो भीतर तो बोलोगे ही; और से नहीं तो अपने से बोलोगे। और से बोले कि अपने से बोले, क्या फर्क पड़ता है? मन ही मन बोलोगे। खुद ही जवाब दोगे, खुद ही प्रश्न उठाओगे। विचार तो जारी रहेगा।
बाह्य अंग है मौन का: दूसरे से न बोलना; आंतरिक आत्मा है मौन की: अपने से भी न बोलना। जब निःशब्द कोई हो जाए तो मौन। महावीर को बारह वर्ष तक निःशब्द होने में लगे। निःशब्द होने का अर्थ क्या? सब शास्त्रों को विदा किया। सब शब्दों और सिद्धांतों को तिलांजलि दी। जैसे पतझड़ में वृक्ष से पत्ते गिर जाते हैं, ऐसे ही मौन में शब्द गिर जाने चाहिए--सब शब्द, निरपेक्ष भाव से। जब तुम भीतर बिलकुल शून्य हो जाते हो, उसी शून्य में, उसी शून्य के दर्पण में सत्य की प्रतिछवि बनती है।
एक तो होती है लहर से भरी हुई झील--लहरें और लहरें, तरंगें और तरंगें, सारी झील की छाती कंपती हुई। चांद का प्रतिबिंब उसमें भी बनता है। लेकिन बन नहीं पाता, बिखर-बिखर जाता है। पूर्णिमा का चांद हो और झील में लहरें हों, तो चांद का प्रतिबिंब नहीं बनता। हां, लहरों पर चांदी बिखर जाती है चांद की, छिन्न-भिन्न, खंड-खंड। लेकिन अगर झील शांत हो, अगर झील मौन हो, अगर झील में कोई तरंगें न हों, कोई लहरें न हों, तो फिर चांद वैसा का वैसा उतर आता है झील में, जैसा है।
चेतना जब मौन को उपलब्ध होती है, निस्तरंग होती है। उस अवस्था को तुम चाहे मौन कहो, चाहे ध्यान कहो, लेकिन एक बात सुनिश्चित है: विचार वहां नहीं होने चाहिए। और जहां विचार नहीं हैं वहां तुम कैसे हिंदू हो सकते हो? हिंदू होने का अर्थ है: किन्हीं विचारों का चुनाव, किन्हीं विचारों को पकड़ रखना। जैन कैसे हो सकते हो? ईसाई कैसे हो सकते हो? कम्युनिस्ट कैसे हो सकते हो? आस्तिक कैसे हो सकते हो? नास्तिक कैसे हो सकते हो?
ध्यानी तो इतना ही कह सकता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं शून्य हूं। यह शून्यता ही वीत धर्म है। यह पहला अंग है, पहला चरण है वीत धर्मता का।
दूसरा चरण और भी गहरा है। क्योंकि यह ऊपरी बात है; मजहब धर्म का ऊपरी अर्थ है। धर्म का एक गहरा अर्थ है: स्वभाव, जैसे अग्नि का धर्म: उत्ताप। जैसे बर्फ का धर्म: शीतलता। वैसा स्वधर्म, स्वभाव, वह धर्म का गहरा अर्थ है। पहली बात तो जल्दी समझ में आ सकती है, दूसरी बात थोड़ी कठिन होगी, क्योंकि यह सूक्ष्म होगी।
स्वभाव से भी मुक्त होना है, क्योंकि स्व से भी मुक्त होना है। जब तक स्व है तब तक अहंकार की कोई न कोई रूप-रेखा मौजूद है। स्व का अर्थ ही है: मैं किसी न किसी सूक्ष्म तल पर अभी जिंदा है। न रहा होगा स्थूल रूप में, नहीं होगी धन की अकड़, नहीं होगी ज्ञान की अकड़, नहीं होगी त्याग की अकड़, ऊपरी अकड़ें चली गई होंगी; मगर मैं भिन्न हूं, मैं व्यक्ति हूं, मेरी निजता है, मैं पृथक हूं अस्तित्व से--कहीं न कहीं बारीक तल पर यह भाव अभी भी मौजूद होगा। मुझे मुक्त होना है, मुझे आनंद को उपलब्ध होना है, मुझे मोक्ष पाना है--लेकिन यह मैं अभी मौजूद है। और जहां मैं है वहां कैसा मोक्ष? मैं ही तो नरक है।
इस स्व का भी विसर्जन करना है। इस स्व को भी यूं उड़ जाने देना है, जैसे पानी भाप बन कर उड़ जाता है। इस स्व को भी यूं बुझा देना है, जैसा बुद्ध ने कहा कि कोई दीये को बुझा दे। बुद्ध ने उस अवस्था का नाम निर्वाण दिया है। प्यारा नाम दिया है। निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझा देना। फूंक मार दी, दीया बुझ गया। अभी था, अभी नहीं है। कहां गई ज्योति? खो गई विराट में!
सूफी फकीर हसन के जीवन में यह उल्लेख है, और प्यारा उल्लेख है, पुनः-पुनः स्मरणीय उल्लेख है। हसन एक गांव में आया। दिन भर से कोई उसे मिला न था। और हसन के मन में गुरु होने का भाव था। कोई न मिला, किसी को उपदेश न दे सका। कोई न मिला, किसी को सलाह न दे सका।
हर आदमी के मन में सलाह देने की इच्छा होती है। कहावत है कि दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज दी जाती है वह सलाह है और सबसे कम जो ली जाती है वह भी सलाह है। लेने को कोई राजी नहीं है, देने को सब राजी हैं। मुक्त हाथों से बांटते हैं लोग सलाह। सलाह में कोई कंजूसी नहीं करता। और मजा यह है कि लोग ऐसी सलाहें भी बांटते हैं जिनको खुद भी नहीं मानते; जिनकी जिंदगी में उन सलाहों के लिए कोई समर्थन नहीं होता। लेकिन अगर मौका मिल जाए किसी को सलाह देने का, तो चूकते नहीं। सलाह देने का बड़ा मजा है। क्योंकि जब तुम सलाह देते हो तब तुम गुरु हो जाते हो। जब तुम सलाह देते हो, तुम ऊपर हो जाते हो। सलाह लेने वाला भिखमंगे की तरह हो जाता है। और किसी को भी नीचा दिखाने का मजा बहुत गहरा है--किसी भी भांति। और यह बड़ा सस्ता नुस्खा है किसी को नीचा दिखाने का।
हसन को दिन भर कोई न मिला था। बोलने का मौका ही न आया था, समझाने का अवसर न मिला था, सलाह न दे सका था। एक गांव में प्रविष्ट हुआ। सांझ थी, सूरज ढल रहा था, रात उतरने को थी, और एक छोटा सा बच्चा एक दीये को अपने हाथ की ओट दिए मजार पर चढ़ाने ले जा रहा था। हसन को कोई तो मिला न था, यही मौका, उसने सोचा, चूकने जैसा नहीं है। उस बच्चे से पूछा कि प्यारे बेटे, क्या एक बात का तू उत्तर दे सकता है? दीया तूने ही जलाया?
उस बच्चे ने कहा, हां, मैंने ही जलाया।
तो हसन ने पूछा, फिर एक सवाल। जब तूने दीया जलाया तो ज्योति कहां से आई? तूने ही जलाया, तो जरूर तू बता सकता है, ज्योति कहां से आई?
हसन सोचता था, यह क्या जवाब देगा! तो फिर मैं कुछ सलाह दूंगा, तो फिर मैं जवाब दूंगा। मगर कभी-कभी बच्चे बूढ़ों को बुरी तरह हरा देते हैं। बच्चों के पास एक सूझ-बूझ होती है जो बूढ़ों के पास कभी की मर चुकी होती है। समय की धूल इतनी जम जाती है कि बूढ़ों का दर्पण दर्पण ही नहीं रह जाता। बच्चे सीधा-सीधा देख पाते हैं। बच्चों का अपना गणित होता है, अपना तर्क होता है।
उसने कहा, आपने सवाल तो बड़ा गहरा पूछा। अब एक काम करें, गौर से देखें!
और उसने फूंक मार कर दीया बुझा दिया। और हसन से पूछा कि तुम्हारे सामने दीया बुझा है, तुम बताओ कि ज्योति कहां चली गई? मुझसे पूछते हो कि तुमने दीया जलाया, ज्योति कहां से आई! अभी तुम्हारे सामने ज्योति थी, फूंक कर बुझा दी, अब ज्योति कहां चली गई, तुम ही बता दो।
हसन हक्का-बक्का रह गया। अपनी मृत्यु के क्षण में, जब उसके शिष्यों ने उससे पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन था? तो उसने कहा, मेरे बहुत गुरु थे। उनमें उसने उस एक बच्चे का नाम भी गिनाया कि एक बच्चा भी मेरा गुरु था, जिसने मुझे खूब झकझोरा था; जिसने मुझे मेरी नींद से चौंका दिया था। उस छोटे से बच्चे ने मुझे चारों खाने चित्त कर दिया था। मुझसे कुछ कहते न बन पड़ा था। मेरे सामने ज्योति खो गई थी और मैं बता न सका था कहां चली गई।
बुद्ध ने ऐसे ही अहंकार को दीये की तरह फूंक मार कर बुझा देने का नाम निर्वाण कहा है। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है: दीये का बुझा देना।
स्व बुझ जाए तो फिर कैसा स्वभाव? जब तक स्व है तब तक पर है। जब तक स्व है तब तक अस्तित्व से भेद है। और जब तक भेद है तब तक द्वैत है। और जब तक द्वैत है तब तक संघर्ष है। इसलिए बुद्ध ने एक अपूर्व घोषणा की है, जो दुनिया के किसी सदगुरु ने नहीं की। इस संबंध में बुद्ध अद्वितीय हैं। उन्होंने आत्मा को स्वीकारा नहीं। बुद्ध आत्मवादी नहीं हैं। यही नाराजगी रही हिंदुओं की उनसे। यही नाराजगी रही जैनों की उनसे। यही नाराजगी रही पूरे भारत की उनसे। क्योंकि बुद्ध ने आत्मा को स्वीकारा नहीं। बुद्ध ने कहा, आत्मा अहंकार का ही दूसरा नाम है। अच्छा नाम रख लेने से कुछ भी नहीं होता। जहर को तुम अमृत भी कहो तो क्या फर्क पड़ता है?
और बात सत्य है, कितनी ही कड़वी लगती हो। आत्मा का अर्थ क्या होता है? मैं अलग हूं। जो आत्मा को मानते हैं, वे किसी न किसी रूप में अहंकार को बचा ही रहे हैं। वे चाहते हैं कि हमारी आत्माएं मुक्त हो जाएं। मेरी आत्मा मुक्त हो। मेरी आत्मा मोक्ष को उपलब्ध हो! और बुद्ध कहते हैं, जब तक यह मेरे का भाव है, तब तक कैसा मोक्ष?
बुद्ध ने मोक्ष की नयी परिभाषा दी। बुद्ध के पहले और बुद्ध के बाद भी दूसरे धर्मों ने जो परिभाषा दी है, वह है: आत्मा का मोक्ष, आत्मा की मुक्ति। और बुद्ध ने कहा, मोक्ष का अर्थ है: आत्मा से मुक्ति। आत्मा की मुक्ति नहीं; आत्मा से मुक्ति। जिस दिन आत्मा विसर्जित हो जाती है, आत्म-भाव चला जाता है, जैसे बूंद सागर में गिर जाए, सागर हो जाए, फिर कहां बूंद? फिर क्या बूंद की आत्मा? लेकिन शंकराचार्य जैसे लोग भी, जो ब्रह्म की बातें करते हैं, वे भी आत्मा को स्वीकार करते हैं, मानते हैं। वे भी, आत्मा विलीन हो जाएगी परिपूर्णतः, इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते। कहीं न कहीं ब्रह्म में भी आत्मा को बचा लेते हैं। बुद्ध ने धर्म को उसकी आत्यंतिक पराकाष्ठा पर पहुंचाया--आत्मा को भी जाने दो। मैं भी नहीं हूं।
तब वीत धर्म का दूसरा गहरा अर्थ प्रकट होगा। न रहा स्व, न रहा स्वभाव।
आनंद मैत्रेय, तुम पूछते हो: "अब तक तो यही समझा जाता था कि धर्म को उपलब्ध होना है।'
धर्म को उपलब्ध होना है, लेकिन वह पहला कदम है। और जब धर्म को उपलब्ध हो जाओ तो धर्म का अतिक्रमण करना है, वह दूसरा कदम है। और यह पूरी यात्रा दो कदमों में समाहित है। धर्म को इसीलिए उपलब्ध होना है कि धर्म के पार हुआ जा सके। धर्म की उपलब्धि अधर्म के पार ले जाएगी। अधर्म बीमारी है, धर्म उसकी औषधि है। जब अधर्म के पार चले गए तो अब औषधि को मत ढोते फिरना। अब नाव को कंधे पर लेकर मत चलना। अब औषधि से भी मुक्त हो जाना।
और तुम पूछते हो कि "अब क्या धर्म का भी अतिक्रमण करना है? यदि हां, तो कृपया बताएं कि उसके पार क्या है?'
उसके पार जो है, बताया नहीं जा सकता। क्योंकि उसके पार जो है उसे बताया कि वह पार न रहा, फिर शब्द में आ जाएगा। उसके पार तो अनुभव है। उसके पार तो अनुभूति है। उसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं। उसे कहने का कोई उपाय नहीं। उसे कभी नहीं कहा गया और कभी नहीं कहा जाएगा।
लाओत्सु से जीवन भर कहा गया कि तुमने जो जाना है उसे लिख दो, ताकि आने वाली सदियों में, आने वाले वंशजों को तुम्हारी अनुभूति का लाभ मिलता रहे, ज्योति मिलती रहे। लेकिन लाओत्सु जीवन भर टालता रहा। हंसता और टाल देता। उसने न लिखा सो न लिखा। और अंतिम समय में उसने अपने शिष्यों से विदा ली और कहा कि अब मैं जाता हूं हिमालय की तरफ, क्योंकि हिमालय से ज्यादा सुरम्य, शांत और मौन मरने के लिए और क्या सुंदर स्थान हो सकता है! और ऐसी जगह मरना चाहता हूं जहां किसी को पता भी न चले, मजार भी न बने, कोई मंदिर न उठे; ऐसी जगह मिट जाना चाहता हूं कि मेरे कोई पद-चिह्न भी न छूट जाएं, ताकि किसी को मेरे पद-चिह्नों पर चलने का खयाल न उठे। क्योंकि लोग दूसरों के पद-चिह्नों पर चल कर ही भटक गए हैं। मैं कोई पद-चिह्न नहीं छोड़ना चाहता। मैंने कुछ लिखा नहीं, शब्द मैंने छोड़े नहीं। मैं मरना भी ऐसी जगह चाहता हूं जहां कोई देखने वाला भी न हो। मेरी लाश भी कहीं पूजा का आधार न बन जाए। कहीं मेरी मजार ही एक धर्म की शुरुआत न हो जाए। कहीं पंडित-पुजारी इकट्ठे न हो जाएं।
और निश्चित वे इकट्ठे हो जाते। लाओत्सु हिमालय की तरफ चला। लेकिन चीन के सम्राट को खबर लग गई और उसने सारी सीमाओं पर तैनात पहरेदारों को खबर कर दी कि लाओत्सु को देश के बाहर निकलने मत देना। और जहां से भी वह निकलने की कोशिश करे, उसे रोकना और कहना कि जब तक तुम अपना अनुभव लिख न दोगे तब तक हम देश के बाहर न जाने देंगे। क्योंकि एक महान संपदा अलिखित छूट जाए, यह उचित नहीं है।
लाओत्सु को सीमा पर रोक लिया गया। और इसी शर्त पर, उससे कहा गया कि तुम बाहर जा सकते हो, अगर तुम अपने अनुभव को लिख दो। मजबूरी में तीन दिन तक पहरेदार की कोठरी में बैठ कर उसने अपने अनुभव लिखे। वही अनुभव की किताब है: ताओत्तेह-किंग। लेकिन उसने पहला ही वचन जो लिखा वह स्मरणीय है। पहले ही वचन में उसने कहा: सत्य को कहा नहीं जा सकता, न लिखा जा सकता है। इसलिए जो भी मैं लिख रहा हूं, जो भी मैं कह रहा हूं, स्मरण रखना, लिखने के कारण ही, कहने के कारण ही वह असत्य हो गया है। सत्य को कहा कि असत्य हुआ। इसलिए उस संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। हां, द्वार बता सकता हूं, जिस द्वार से तुम भी उस अनुभव को उपलब्ध हो जाओ।
पंडित, सत्य क्या है, यह समझाते हैं। सदगुरु, सत्य किस दिशा में है, इशारा करते हैं। सिर्फ अंगुली बताते हैं। जाना तो तुम्हें होगा। पाना तो तुम्हें होगा। जीना तो तुम्हें होगा।
सत्य तो स्वाद है। जिसने मिठास कभी चखी नहीं, उसे कैसे कहो? सत्य तो संगीत है। जो बहरा है, उसे कैसे समझाओ? सत्य तो प्रकाश है। जो अंधा है--या अंधा नहीं है, आंख बंद किए बैठा है--उसे कैसे बताओ? आंख खोलने की कला बताई जा सकती है। वही मैं यहां कर रहा हूं। उस कला का नाम ही ध्यान है।
ध्यान से तुम्हारी संवेदनशीलता अपने शिखर पर पहुंच जाती है। और जैसे-जैसे तुम्हारी संवेदनशीलता प्रखर होती है, प्रज्वलित होती है, वैसे-वैसे पहले थोथे धर्म जल जाते हैं और फिर अंततः जिसको तुम स्वभाव कहते हो, स्वधर्म, वह भी जल जाता है। फिर कुछ भी नहीं बचता। तुम्हारे भीतर एक कोरा आकाश रह जाता है। लेकिन वही कोरा आकाश चांदत्तारों से भरा है। वही कोरा आकाश हजार-हजार फूलों से भरा है। वही कोरा आकाश सुवासित है, सुगंधित है। वही कोरा आकाश निर्वाण है, मोक्ष है। उस कोरे आकाश को पा लेना अधर्म के तो पार है ही, धर्म के भी पार है।


दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप कहते हैं कि जगत सत्य है, जीवन सत्य है; उन्हें स्वीकार कर अहोभाव के साथ जीओ। आप यह भी कहते हैं कि जगत और जीवन को अस्वीकार करने के कारण ही पूर्व की इतनी दुर्दशा हुई। और यह सच है। लेकिन भौतिकवादी तो यही मान कर जी रहे हैं, लेकिन उनके जीवन में भी उत्सव कहां है?

दिव्यानंद,
अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति सभी जगह वर्जित है। अध्यात्मवाद एक अति है और भौतिकवाद दूसरी अति है। दोनों अतियां गलत हैं। अति मात्र गलत है। अति पर गए कि तुमने संतुलन खोया। संतुलन खोया कि संगीत खोया। अति पर गए कि तुम लड़खड़ाए।
जीवन यूं है जैसे तुमने किसी नट को रस्सी पर चलते देखा हो। न तो बाएं झुकता है, न दाएं झुकता है, अपने को बीच में सम्हालता है। हालांकि सम्हालने के लिए कभी-कभी बाएं झुकना पड़ता है, मगर सम्हालने के लिए। और यह खयाल रखना, नट जब बाएं झुकता है तो वह इसलिए झुकता है, क्योंकि दाएं गिरने का डर पैदा हो रहा था। दाएं न गिर जाए, इसलिए बाएं झुकता है। फिर जब बाएं गिरने का डर पैदा होने लगता है तो दाएं झुकता है। लेकिन दोनों झुकने के बीच अपने को साधने की चेष्टा कर रहा है। दाएं और बाएं को संतुलन साधने के लिए उपयोग में लाता है।
जीवन मध्य में है--परम मध्य में है।
एक अति हुई अध्यात्मवाद की; मैं उसका विरोधी हूं। क्योंकि पूरब उसका दुष्परिणाम भोग रहा है। अध्यात्मवाद का मौलिक सूत्र दिया है आदि शंकराचार्य ने: ब्रह्म सत्य, जगन्मिथ्या। ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। यह एक अति हुई। इस अति के कारण पूरब बुरी तरह गिरा। गिरना अनिवार्य था। एक तरफ झुक गया। जगत की तरफ झुकना ही भूल गया, ब्रह्म की तरफ ही झुक गया। पूरा-पूरा झुक गया। तो गरीबी पैदा हुई, गुलामी पैदा हुई, दीनता पैदा हुई। पूरा पूरब इस अति के कारण अपने को गंवा बैठा, लुटा बैठा।
और ध्यान रहे कि जब इतनी दरिद्रता होगी, इतनी दीनता होगी, इतनी दासता होगी, तो अध्यात्म क्या खाक साधोगे! जब पेट भूखा होगा तो क्या तुम ध्यान साधोगे! भूखे भजन न होहिं गोपाला। जब हाथों में जंजीरें होंगी, पैरों में बेड़ियां होंगी, तो क्या तुम आशा करते हो मोक्ष की! तुम साधारण जीवन की स्वतंत्रता भी नहीं बचा पा रहे हो, तुम उस असाधारण स्वतंत्रता को पाने के सपने मत देखो। वे सिर्फ सपने हैं।
हां, यह हो सकता है कि उन सपनों के कारण तुम्हें सांत्वना मिले कि कोई बात नहीं, अगर यहां जंजीरें हैं तो दो दिन के लिए हैं; यह चार दिन की तो जिंदगी ही है; दो दिन तो कट ही गए, दो दिन और कट जाएंगे; फिर मोक्ष है और मोक्ष की परम स्वतंत्रता है; गुजार लो ये दो दिन।
मगर यह मोक्ष सिर्फ अफीम है। यह मोक्ष वास्तविक मोक्ष नहीं है। यह सिर्फ गुलामी को काट लेने के लिए एक सांत्वना है। दरिद्रता है, तो लोग कल्पवृक्ष निर्मित कर रहे हैं स्वर्ग में। यह दरिद्र आदमी की खबर दे रहे हैं ये कल्पवृक्ष। यह दरिद्र आदमी सोच रहा है कि यहां भूख है, बीमारी है, सिर पर छप्पर नहीं है, कोई बात नहीं, जल्दी ही वह परम क्षण आएगा...मृत्यु के बाद आएगा वह परम क्षण। और आएगा अगर तुमने इस दासता को, गुलामी को, गरीबी को संतोषपूर्वक झेला। अगर बगावत न की तो आएगा। अगर जूझे नहीं तो आएगा। अगर लड़े नहीं तो आएगा। अगर क्रांति नहीं की तो आएगा। अगर शांत रहे तो आएगा।
इसलिए भारत में कोई क्रांति नहीं हो सकी। पूरब क्रांति-शून्य रहा। सदियां बीत गईं, लेकिन हमने सांत्वना सिखाई। सांत्वना में क्रांति हो कैसे? हमने धैर्य सिखाया कि धीरज रखो। हमने लोगों को समझाया कि परमात्मा के राज्य में देर है, मगर अंधेर नहीं। तो थोड़ी देर सही, धीरज रखो, अंधेर नहीं है, भरपूर पाओगे। और फिर हमने कल्पवृक्ष निर्मित किए; उनके नीचे बैठ कर तुम जो भी इच्छा करोगे वह पूरी हो जाएगी। इच्छा करते ही पूरी हो जाएगी।
यहां इच्छाओं से मरे जा रहे हो, कोई इच्छा पूरी नहीं होती; और वहां सारी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी! यह गरीब आदमी का सपना है। यह भूखे आदमी का सपना है। यह दरिद्रता का ही प्रक्षेपण है। यह भूखा आदमी रात सपना देख रहा है कि इसे राजा के घर भोजन का निमंत्रण मिला है और वहां छत्तीसों व्यंजन सोने की थालियों में सजे हुए हैं! भूखे आदमी ऐसे सपने देखेंगे ही। ये सारे स्वर्ग, ये सारे स्वर्ग में मिलने वाले सुखों की आकांक्षाएं इस बात के सबूत हैं सिर्फ कि जो तुम यहां पूरा नहीं कर पाए हो, उसकी आशा को तुमने आगे के लिए स्थगित कर दिया। आशा तो चाहिए ही चाहिए, नहीं तो जीना मुश्किल हो जाएगा।
शंकराचार्य एक अति हैं और दूसरी अति है भौतिकवाद की। भौतिकवाद कहेगा: जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। कार्ल माक्र्स यही कहता है कि सिर्फ पदार्थ सत्य है और चेतना मिथ्या है; चेतना केवल एक आभास है पदार्थ के जोड़ से पैदा हुआ। चार्वाकों ने जो बहुत प्राचीन काल में कहा था, उसको ही पुनरुक्त किया है कार्ल माक्र्स ने और आधुनिक भौतिकवादियों ने।
चार्वाक का पुराना उदाहरण उपयोगी है। चार्वाक कहता है, तुम पान चबाते हो, ओंठ लाल हो जाते हैं। पान जिन-जिन चीजों से बनता है...पान का पत्ता अलग से चबाओ, ओंठ लाल नहीं होंगे। सुपारी अलग से चबाओ, ओंठ लाल नहीं होंगे। चूना अलग से चबाओ, लाल होना तो दूर और ओंठ फट जाएंगे। कत्था अलग से चबाओ, लाल होना तो दूर और मुंह कड़वा हो जाएगा। सब चीजें अलग-अलग चबाओ, लेकिन ओंठ लाल नहीं होंगे। इन सबको मिला कर पान बनाओ, और ओंठ लाल हो जाते हैं। लाली कहां से आती है? चार्वाक कहता है, पान की सब चीजों के मिलने से लाली उत्पन्न होती है। लेकिन लाली कुछ अलग अस्तित्व नहीं रखती; वह उप-उत्पत्ति है।
ठीक यही बात सारे दुनिया के भौतिकवादी कहते हैं, कि चेतना तुम्हारे शरीर में जुड़े हुए भौतिक और रासायनिक परमाणुओं की उप-उत्पत्ति है; लाली है पान की बस, और कुछ भी नहीं। यह मत सोचना कि कत्था निकाल लिया, चूना निकाल लिया, पान निकाल लिया, सुपारी निकाल ली और सब चीजें निकाल लीं, और लाली फिर पीछे बच रहेगी। कुछ भी नहीं बचेगा। लाली तो केवल जोड़ थी।
इसलिए भौतिकवादी कहता है कि शरीर से अगर सारी चीजें निकाल लो तो कोई आत्मा नहीं बचेगी, कोई चेतना नहीं बचेगी, कोई ब्रह्म नहीं बचेगा।
यह दूसरी अति है; यह जगत के सत्य की घोषणा कर रही है और ब्रह्म के सत्य को इंकार कर रही है। इस अति का भी दुष्परिणाम हुआ। पश्चिम विक्षिप्त हो गया है। धन है, सुविधा है, वैभव है, सुंदर मकान हैं, सुंदर रास्ते हैं; विज्ञान ने सारी सुख की सुविधाएं इकट्ठी कर दी हैं, अंबार लगा दिया है; लेकिन आदमी जितना दुखी है, पश्चिम में जितना दुखी है उतना पूरब में भी नहीं। हालांकि पूरब में सब तरह के दुख हैं, मगर आदमी उतना दुखी नहीं। और पश्चिम में सब तरह के सुख हैं, लेकिन आदमी बहुत दुखी है। जीवन अर्थहीन है। लोग जी रहे हैं, लेकिन यूं जैसे कोई अपनी ही लाश को ढोता हो। पश्चिम के विचारक एक ही धारणा के आस-पास चक्कर काट रहे हैं कि जीवन का अर्थ क्या है? और उनमें से अधिकतम इस बात पर राजी हो गए हैं कि जीवन में कोई अर्थ नहीं है, जीवन एक दुर्घटना है। सौभाग्य का सवाल ही कहां? उत्सव कैसे पैदा होगा?
तुम पूछते हो, दिव्यानंद, कि भौतिकवादी भी तो यही मान कर जी रहे हैं, लेकिन उनके जीवन में उत्सव कहां है?
नहीं, मैं जो कह रहा हूं वह न तो भौतिकवादी मान कर जी रहे हैं और न अध्यात्मवादी मान कर जी रहे हैं। वे एक-दूसरे के दुश्मन हैं। उन्होंने जीवन के आधे सत्य को स्वीकार किया है। और जो भी आधे सत्य को स्वीकार करेगा, वह परम आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता। परम आनंद पूर्णता की छाया है, समग्रता का फूल है, समग्रता की सुगंध है, सुवास है। और आज तक पृथ्वी पर जीवन की समग्रता को अंगीकार नहीं किया गया। हमेशा आधे को अंगीकार किया गया। कारण साफ है। क्योंकि आधे को अंगीकार करने में तर्कयुक्त हुआ जा सकता है; पूरे को अंगीकार करने के लिए तर्कातीत होना जरूरी है।
शंकराचार्य भी तर्कपूर्ण हैं, बहुत तर्कपूर्ण हैं। तर्कातीत नहीं, निपट तर्कशास्त्री हैं। इसीलिए तो झंडा लेकर भारत भर में घूमते रहे--विवाद करते, लोगों को हराते। यह विवाद क्या था? यह सिर्फ तार्किकता थी और कुछ भी न था। इस विवाद में यह सिद्ध नहीं होता कि सत्य क्या है। इस विवाद में यही सिद्ध होता है कि किसके पास कितना प्रबल तर्क है। और तर्क कोई सत्य को पाने का साधन नहीं है; बाधा तो है, लेकिन साधन नहीं है।
कार्ल माक्र्स भी तर्कशास्त्री है। और अगर तर्क से ही तय करना हो तो एक बात समझ लेना कि भौतिकवादी ज्यादा तार्किक है, क्योंकि उसने जिस बात को स्वीकार किया है वह प्रत्यक्ष है। ब्रह्म को सिद्ध करना आसान नहीं है; पदार्थ को असिद्ध करना आसान नहीं है।
पश्चिम में जो आदमी शंकराचार्य के करीब-करीब पहुंचता है, वह है बर्कले। बर्कले कहता है, संसार मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है। बर्कले का मित्र था डाक्टर जानसन। वे दोनों एक रास्ते पर घूमने सुबह गए थे और बर्कले अपनी बकवास लगाए हुए था कि संसार सिर्फ स्वप्नवत है। डाक्टर जानसन सुनता रहा, सुनता रहा। जब बहुत परेशान हो गया तो उसने उठाया एक पत्थर और बर्कले के पैर पर पटक दिया। चीख निकल गई, खून का फव्वारा छूट पड़ा। डाक्टर जानसन ने कहा कि जगत असत्य है तो ऐसी चीख-पुकार क्या मचा रहे हो? यह पत्थर केवल सपना है। आंखों में आंसू क्यों? पैर को पकड़ कर क्यों बैठे हो? एक असत्य कैसे तुम्हें चोट पहुंचा सकता है?
अगर तर्क से ही तय होना है, तो नास्तिक जीतेगा, आस्तिक नहीं जीत सकता। आस्तिक जिस चीज को सिद्ध करने चला है, वह तर्क से सिद्ध हो ही नहीं सकती। इसीलिए सदियां बीत गईं, नास्तिक को कोई आस्तिक हरा नहीं पाया है। नास्तिकता को कोई जवाब आस्तिक दे नहीं पाया है।
ये शंकराचार्य भी जिनको हराते हुए घूमते रहे, वे दूसरे तरह के आस्तिक ही थे। इनमें से एक भी नास्तिक नहीं था। नहीं तो यह दिग्विजय कभी भी रुक जाती। जिनको उन्होंने हराया, उनमें कोई मंडन मिश्र थे, मगर वे भी आस्तिक थे। उनकी आस्तिकता की एक धारणा थी, शंकराचार्य की दूसरी धारणा थी, मगर दोनों आस्तिक थे। यह जो शंकर-दिग्विजय का बड़ा शोरगुल मचाया जाता है, इसमें एक भी नास्तिक होता तो शंकर को चारों खाने चित्त कर सकता था, इसमें कोई अड़चन न थी। यह बहुत आसान है, क्योंकि पदार्थ बिलकुल प्रत्यक्ष है, परमात्मा अप्रत्यक्ष है। पदार्थ दृश्य है, परमात्मा अदृश्य है।
भौतिकवादी तार्किक रूप से सिद्ध कर सकता है कि केवल मात्र अस्तित्व पदार्थ का है। लेकिन इसको सिद्ध कर लेने से कुछ हल नहीं होता। इसको सिद्ध करने से एक नयी कठिनाई खड़ी होती है: अगर पदार्थ ही सत्य है तो फिर जीवन में जो भी महिमायुक्त है, वह सब असत्य हो जाता है। फिर फूल में सौंदर्य असत्य हो जाता है। फिर फूल केवल एक रासायनिक वस्तु रह जाती है। फिर सूर्यास्त में सौंदर्य असत्य हो जाता है। फिर संगीत में आनंद असत्य हो जाता है; संगीत केवल ध्वनियों का जोड़ रह जाता है। फिर जीवन में प्रेम असत्य हो जाता है। क्योंकि प्रेम क्या है? वही पान की लाली, और कुछ भी नहीं! जीवन में काव्य असत्य हो जाता है। और जब जीवन के सारे महिमायुक्त तत्व असत्य हो जाएं--न प्रेम हो, न काव्य हो, न सौंदर्य हो, न संगीत हो, न कोई अर्थ हो, क्योंकि पदार्थ में क्या अर्थ हो सकता है? पत्थरों में क्या अर्थ हो सकता है? अर्थ तो चेतना की अभिव्यक्ति में है--तो स्वभावतः जीवन अर्थहीन हो जाता है।
इसलिए पश्चिम के अधिकतम विचारक इस निष्पत्ति के करीब पहुंच गए हैं कि जीवन अर्थहीन है। मगर अर्थहीन जीवन को जीओगे कैसे? माना कि धन है, और माना कि सुंदर भवन है, संगमरमर का महल है, और सारे प्रसाधन विज्ञान के हैं, मगर जीवन अर्थहीन है। मशीनें सब हैं, लेकिन आदमी कहां? आदमी के प्राण ही खो गए। अर्थ खोया कि आदमी के प्राण खो गए। अर्थ खोया कि आदमी के जीवन की अर्थवत्ता शेष न रही। अर्थहीन कैसे जीओगे? अर्थहीनता विक्षिप्तता लाएगी।
इसलिए पश्चिम में अधिकतम लोग पागल हुए जा रहे हैं। या तो आत्महत्या कर लेते हैं या दूसरों की हत्या कर देते हैं। या शराब पीकर किसी तरह अपने जीवन की अर्थहीनता को भुलाते हैं। और अब नये-नये अपने को भुलाने के वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो रहे हैं, जो कि शराब से भी ज्यादा गहरे हैं, जैसे एल एस डी है, सिलो साइबिन है। अब विज्ञान ने और भी नयी खोजें की हैं, जिनसे कि तुम अपने जीवन की अर्थवत्ता को बिलकुल भूल सकते हो, अर्थहीनता को भी भूल सकते हो। यह सवाल ही मिट जाए।
पश्चिम भौतिकवाद से पीड़ित है, पूरब अध्यात्मवाद से पीड़ित है। पूरब ने शरीर खो दिया, पश्चिम ने आत्मा खो दी। पूरब ने बाह्य खो दिया, पश्चिम ने आंतरिकता खो दी। दोनों गंवा बैठे। और अब एक नयी ऊर्जा की जरूरत है, एक नये उदघोष की, कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। यही मेरा उदघोष है। दोनों सत्य हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि संन्यासी को भागना नहीं है संसार से, क्योंकि भागना, वह शंकराचार्य की प्रक्रिया होगी। और मैं यह भी कहता हूं कि मेरे संन्यासी को संसार में डूब ही नहीं जाना है, फिर वह कार्ल माक्र्स की प्रक्रिया होगी। मैं कहता हूं, संन्यासी को संसार में जीना है और ऐसे जीना है कि संसार चारों तरफ रहे, मगर छुए नहीं। कमलवत जीना है। पानी में हो, मगर पानी छुए न।
इसलिए दिव्यानंद, मैं जो कह रहा हूं उसे न तो अध्यात्मवादी ने पूरा किया है और न भौतिकवादी ने पूरा किया है। इसलिए तुम इस भ्रांति में मत रहो कि मैं जो कह रहा हूं वही भौतिकवादी कहता है। वह तो भौतिकवादी कैसे कह सकता है? मैं भौतिकवादी नहीं हूं। मैं अध्यात्मवादी नहीं हूं। मैं वादी ही नहीं हूं। मैं किसी वाद में भरोसा नहीं करता। मैं जीवन की सर्वांगीणता को स्वीकार करता हूं। इसलिए वाद का कोई सवाल नहीं, विवाद का कोई सवाल नहीं। मैं जीवन के सारे पहलुओं को स्वीकार करता हूं।
भौतिकवादी के जीवन में भी उत्सव नहीं हो सकता, अध्यात्मवादी के जीवन में भी उत्सव नहीं हो सकता। दोनों अपंग हैं। दोनों लंगड़े हैं। एक ने एक पैर चुन लिया है, दूसरे ने दूसरा पैर चुन लिया है। लंगड़े तो दोनों हैं। उत्सव कहां होगा? लंगड़े नाचेंगे कैसे? और जब नाच नहीं सकते तो वे कहते हैं--आंगन टेढ़ा है। भौतिकवादी सोचता है, और भौतिकवाद चाहिए, तब नाचेंगे, जरा आंगन को ठीक कर लें। अध्यात्मवादी कहता है, और अध्यात्मवाद चाहिए, तब नाच पाएंगे, आंगन को ठीक करना है। मगर बात कुछ और है। आंगन टेढ़ा भी हो, तो जिसे नाच आता है और जिसके दोनों पैर स्वस्थ हैं, बराबर नाच सकता है। आंगन के टेढ़े होने से नाचने में कोई बाधा नहीं पड़ती। नाचने से आंगन के टेढ़े होने का क्या संबंध? जिसे नाच आता है वह कहीं भी नाच सकता है। लेकिन नाच के लिए दोनों पैर स्वस्थ होने चाहिए। आकाश में उड़ने के लिए दोनों पंख होने चाहिए।
पूरब ने कोशिश की है एक पंख से उड़ने की, और बुरी तरह गिरा। और पश्चिम ने कोशिश की है एक पंख से उड़ने की, बुरी तरह गिरा। दोनों यूं तो दिखाई पड़ते हैं बड़े विपरीत हैं, मगर एक बात में दोनों राजी हैं कि एक ही पंख से उड़ना है। इस जिद ने सारी मनुष्यता को दुख से भर दिया है।
दोनों पंख प्यारे हैं। पदार्थ में कुछ बुरा नहीं। पदार्थ भी परमात्मा की अभिव्यक्ति है। पदार्थ असत्य नहीं है और परमात्मा भी असत्य नहीं है। परमात्मा पदार्थ में ही छुपा है। जैसे बीज में फूल छिपे होते हैं। बीज को तोड़ो तो फूलों को नहीं पा सकोगे। यह कोई ढंग न हुआ फूलों को पाने का। बीज को जमीन दो, भूमि दो, जल दो, तब ठीक समय पर, ठीक मौसम में आएगा वसंत और फूल खिलेंगे, झर-झर झरेंगे। बीज को काट कर फूल नहीं पाए जाते। बीज को उगाना होता है।
मेरे हिसाब में, ध्यान की पूरी कला तुम्हारे भीतर जो छिपी हुई संभावना है, उसको वास्तविक बनाने की कला है; तुम्हारी संभावनाओं को यथार्थ बनाने की कला है; तुम्हारे बीज को फूल तक ले जाने की कला है।
इसलिए न तो मैं आस्तिक हूं, न मैं नास्तिक हूं। न तो मैं अध्यात्मवादी हूं, न भौतिकवादी हूं। और स्वभावतः मुझे दोनों तरफ से गालियां पड़ेंगी। और दोनों तरफ से गालियां पड़ रही हैं। मगर मैं मानता हूं कि यह स्वाभाविक है। भौतिकवादी मुझसे नाराज हैं। वे नाराज हैं, क्योंकि मैं लोगों से कह रहा हूं, अध्यात्म की खोज करो। अध्यात्मवादी मुझसे नाराज हैं। क्योंकि मैं लोगों से कह रहा हूं कि भौतिकता को छोड़ना नहीं है। बीज को ही छोड़ दिया तो फूल कहां से पाओगे!
इसी संसार में छिपा है फूल। जैसे तुम्हारे इसी शरीर में तुम्हारी चेतना छिपी है, ऐसे ही इस ब्रह्मांड में ब्रह्म छिपा है। तुम एक छोटे से प्रतीक हो इस पूरे ब्रह्मांड के। शरीर ब्रह्मांड है तुम्हारा और भीतर ब्रह्म है। ऐसे ही इस पूरे ब्रह्मांड में, इसकी आंतरिकता में, इसके अंतरस्थ बिंदु पर ब्रह्म है। मेरे पास इनकार नहीं है, स्वीकार है--समग्र का स्वीकार है। और समग्र की स्वीकृति में ही उत्सव हो सकता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि गरीब रहो, दरिद्र रहो। कोई आवश्यकता नहीं है। बाहर की समृद्धि भीतर की समृद्धि में बाधा नहीं है, सहयोगी है।
और तुम जरा गौर तो करो, तुम्हारे सारे अवतार राजपुत्र थे और तुम्हारे सारे तीर्थंकर जैनों के राजपुत्र थे और बुद्ध राजपुत्र थे। बाहर की समृद्धि ने कुछ इनके भीतर के आयाम को खंडित नहीं किया। सच तो यह है कि बाहर की समृद्धि ने ही इन्हें भीतर की समृद्धि की तरफ जाने का सूत्र दिया। जब बाहर भी समृद्धि हो तो सवाल उठना शुरू होता है कि जब बाहर समृद्धि इतनी सुविधा और सुखपूर्ण हो सकती है, तो भीतर की समृद्धि कितनी न होगी! इसलिए मैं गरीबी का पक्षपाती नहीं हूं। मैं महात्मा गांधी के दरिद्रनारायण के सिद्धांत को नहीं मानता। यह धोखेबाजी बहुत हो चुकी। गरीब को बहुत तरह से हमने समझाने की कोशिश की है कि तेरी गरीबी बड़ी सुंदर, तेरी गरीबी में बड़ा अध्यात्म है, तू तो दरिद्रनारायण है, तू तो स्वयं परमात्मा है!
अच्छे-अच्छे शब्द खोजने में हम बड़े कुशल हो गए हैं। अछूत को हरिजन कह दिया, और समझे कि बस बात हो गई, काम खत्म हो गया। पहले अछूत जलाए जाते थे, अब हरिजन जलाए जाते हैं। पहले अछूतों के साथ बलात्कार होता था, अब हरिजनों के साथ बलात्कार होता है। पहले अछूतों के खिलाफ आंदोलन चलते थे, अब हरिजनों के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। सब वही का वही। खुद गांधी के प्रदेश गुजरात में जो भयंकर उपद्रव मचा है कि हरिजनों को जो आरक्षित सुविधा मिलती है वह नहीं मिलनी चाहिए। गांधीवादियों का प्रदेश, गांधी की जन्मभूमि!
मगर ये सब शब्द धोखे के हैं। दरिद्र को दरिद्रनारायण कहने से कुछ हल नहीं होता और न अछूत को हरिजन कहने से कुछ हल होता है। हां, थोड़ी राहत मिलती है, मलहम-पट्टी होती है। मगर बीमारी अपनी जगह। बीमारी ढंक जाती है, मिटती नहीं।
मैं दरिद्रता का पक्षपाती नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति समृद्ध होना चाहिए। और आज विज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को समृद्ध करने में कुशल है। इसलिए कोई जरूरत नहीं है कि हम चरखे लिए बैठे रहें। अब यह मूढ़ता की हद है, यह जड़ता की आखिरी सीमा है कि लोग चरखे चला रहे हैं। जैसे दरिद्र होने की हमने कसम खा ली है। किसी को दरिद्र होने की अब कोई जरूरत नहीं। दरिद्रता इस पृथ्वी से यूं मिट सकती है जैसे कभी थी ही नहीं। आज इस बात की संभावना है, पहले इस बात की संभावना नहीं थी। संभावना नहीं थी, इसलिए न मालूम कैसे-कैसे झूठे सिद्धांत लोगों ने गढ़े। क्योंकि आखिर कुछ तो समझाना पड़ेगा। सवाल सामने था कि लोग गरीब क्यों हैं? तो सिद्धांत गढ़े कि पिछले जन्मों के पापों के कारण गरीब हैं। या सिद्धांत गढ़े कि भाग्य में ही इनके गरीबी लिखी है। परमात्मा ने, विधाता ने पहले ही इनको गरीबी दे दी।
यह विधाता भी गजब का, कि किसी की खोपड़ी में गरीबी लिखता है और किसी की खोपड़ी में अमीरी लिखता है। यह नशे में है! होश में है? आखिर क्यों किसी की खोपड़ी में गरीबी लिखता है? किसी ने इसका क्या बिगाड़ा है?
और या फिर पिछले जन्म! पिछले जन्म का सिद्धांत और भी जहरीला है, क्योंकि उसका जाल लंबा है। अनंत जन्म! स्वभावतः न मालूम कितने पाप किए होंगे। अब न मालूम कितने अनंत जन्मों तक पापों का फल भोगना पड़ेगा! और मुश्किल यह है कि अब अनंत जन्मों तक तुम पुराने पापों का फल ही थोड़े भोगते रहोगे, कुछ और भी तो करोगे कि नहीं, कि बस सिर्फ पापों का फल ही भोगोगे? पापों के फल भोगने में फिर पाप हो जाएंगे। तो छुटकारे का कोई उपाय ही न रहा।
एक ऐसा दुष्टचक्र पैदा कर दिया कि उसमें गरीब को गरीब ही रहना पड़ेगा। और अमीर को भी सुरक्षा दे दी इन सिद्धांतवादियों ने कि पिछले जन्मों में पुण्य-कर्म किए थे, उससे वे अमीर हुए हैं। इससे अमीरों को एक कवच मिल गया। गरीब इशारा नहीं उठा सकता कि हमें चूसा गया है, कि हमें चूसा जा रहा है। चूसने का सवाल ही नहीं; वे अपने पुण्यों का फल भोग रहे हैं, तुम अपने पापों का फल भोग रहे हो।
ये सब थोथी धारणाएं पैदा की गईं--सिर्फ इसलिए कि कोई और उपाय न था। लेकिन आज इन सब धारणाओं की कोई जरूरत नहीं है। न तो भाग्य में कुछ लिखा है, न कोई विधाता है कहीं जो लिख रहा है और न तुम्हारे पिछले जन्मों के कर्मों का कोई सवाल है। असल में तुम जब कर्म करते हो तब उसका फल भोग लेते हो। इतनी देर लगेगी क्या? पिछले जन्म में आग में हाथ डाला और इस जन्म में जलोगे? जरा मूढ़ता भी तो देखो! कुछ हिसाब भी तो सोचो! पिछले जन्म में आग में हाथ डाला होगा तो तभी जल गए होओगे। अब जलोगे? इतनी देर की जरूरत क्या है? कार्य-कारण इतनी देर तक नहीं ठहरते। अगर पिछले जन्म में क्रोध किया होगा तो क्रोध करने में ही तो आदमी जल-भुनता है, खूब भोग लेता है दुख। किसी की हत्या की होगी तो अपराध की पीड़ा, ग्लानि। अब और क्या चाहिए! उतनी लपटें काफी हैं, बहुत हैं। हर जन्म का निपटारा उसी जन्म में हो जाता है। तुम जब भी पैदा होते हो, कोरी स्लेट लेकर पैदा होते हो।
और आज इन सब बकवासों की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञान इस पूरी पृथ्वी को समृद्ध कर सकता है। मगर चरखों को जलाना पड़ेगा। कुछ मूढ़ तो और भी आगे बढ़ गए हैं, वे तकलियां चला रहे हैं। इन्होंने तय ही कर लिया है कि बाबा आदम से आगे नहीं जाना है।
गरीबी का मैं पक्षपाती नहीं हूं--न बाहरी गरीबी का और न भीतरी गरीबी का। इसलिए पूरब को विज्ञान चाहिए और पश्चिम को धर्म चाहिए। दोनों को दोनों पंख मिल जाएं तो मनुष्य आनंद के आकाश में उड़ानें भर सकता है। वह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है।


तीसरा प्रश्न: भगवान,
आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है, तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों? अच्छा और सुख से भरा शरीर धारण कर सकती है, क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता है।
भगवान, आशीर्वचन का पान कराएं।

गुणवंतराय पारिख,
आत्मा निश्चय ही स्वतंत्र है, लेकिन तुम्हें अभी अपनी आत्मा का पता भी कहां! तुम्हें आत्मा का बोध भी कहां, होश भी कहां! आत्मा स्वतंत्र है, लेकिन आत्मा होनी भी तो चाहिए न। और जब पता ही नहीं है तो न होने के बराबर समझो।
जार्ज गुरजिएफ कहा करता था, सभी के पास आत्मा नहीं है। और उसकी बात में एक सचाई है, चोट है। वह यह कह रहा है कि जिसको अपनी आत्मा का जागरूकता से बोध नहीं हुआ है, जिसको अपनी चेतना का साक्षात्कार नहीं हुआ है, उसके भीतर आत्मा के होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है।
तुम्हारी जेब में कोहिनूर हीरा पड़ा है, मगर तुम्हें पता ही नहीं है, तो क्या तुम समृद्ध हो गए? तो क्या तुम धनी हो गए? पड़ा रहे कोहिनूर हीरा। कोहिनूर हीरे की कहानी यही है। कोहिनूर हीरा मिला था एक किसान को गोलकोंडा के--एक गरीब किसान को। उसके खेत से एक छोटा सा झरना बहता था, जिस झरने में उसे एक दिन यह चमकता हुआ पत्थर मिल गया। उसने सोचा बच्चों के खेलने के काम आएगा। उठा लाया।
तीन साल तक यह हीरा उसके आंगन में पड़ा रहा। बच्चे कभी खेलते, इधर फेंक देते, उधर फेंक देते। लेकिन किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा। कोहिनूर उसके आंगन में पड़ा था। और आज कोहिनूर संसार का सबसे बहुमूल्य हीरा है। तब भी था। सच तो यह है कि आज कोहिनूर केवल पुराने कोहिनूर का एक तिहाई हिस्सा बचा है। उस किसान के घर में यह तीन गुना बड़ा था। फिर इसको काटा गया है, इस पर पहलू रखे गए हैं, इसको निखारा गया है, साफ किया गया है। एक तिहाई वजन बचा है। तब भी दुनिया का सर्वाधिक बहुमूल्य हीरा है। तब तो तीन गुना था! मगर वह किसान तो गरीब था सो गरीब ही रहा।
वह तो संयोग की बात थी कि एक घुमक्कड़ साधु उसके घर रात मेहमान हो गया। और उस साधु ने यह हीरा देखा। वह साधु साधु होने के पहले जौहरी था। उसने कहा कि मैंने जीवन में बहुत हीरे देखे, मगर इससे बड़ा हीरा नहीं देखा। इसको आंगन में डाल रखा है, पागल है तू? कोई चुरा ले जाएगा।
उसने कहा, यह तो तीन साल से पड़ा है, कोई चुरा नहीं ले गया। गांव के गरीब किसानों को किसी को भी पता नहीं था कि यह हीरा है, चुरा कर कोई ले जाता किसलिए? जब बोध हुआ कि हीरा है, उठा लाया जल्दी से। घबड़ाहट से बाहर गया कि कहीं कोई उठा न ले गया हो। रात थी। आधी रात को। फिर सुबह तक भी प्रतीक्षा नहीं की। रात भर सो भी न सका कि कहीं कोई चोर इत्यादि न आ जाए। तीन साल से पड़ा था, कोई चिंता न थी, कोई फिक्र न थी।
सुबह ही उठ कर हैदराबाद के नवाब निजाम के यहां पहुंच गया। बहुत धन मिला उसे पुरस्कार में। हालांकि वह धन कुछ भी न था हीरे के मुकाबले। मगर किसान तो समझा कि बहुत मिला, अपूर्व मिला, इससे ज्यादा क्या मिल सकता है! उसको क्या पता था कि हीरे की कितनी कीमत है।
तुम्हारी आत्मा भी यूं है कि तुम्हें उसका पता नहीं। और जब पता ही नहीं तो गुरजिएफ ठीक कहता है कि है या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ उन्हीं के पास है जिन्हें पता है। सिर्फ ध्यानी के पास आत्मा है, अगर ठीक से समझो। क्योंकि वही जौहरी है। गैर-ध्यानी के पास कोई आत्मा नहीं है! गैर-ध्यानी तो खोका समझो। आत्मा आंगन में पड़ी है माना, मगर उसको न उसकी कोई कीमत है, न कोई मूल्य है। और जब तुम्हें पता ही नहीं तो तुम क्या खाक आत्मा की स्वतंत्रता का उपयोग करोगे!
तुम पूछते हो, गुणवंतराय: "आत्मा शरीर धारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है...।'
लेकिन तुम्हारी आत्मा नहीं, किसी प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा। लेकिन तब एक मुश्किल खड़ी होती है। प्रबुद्ध व्यक्ति की आत्मा किसी भी शरीर में प्रवेश करने को स्वतंत्र है, लेकिन वह प्रवेश ही क्यों करे? आखिर सभी शरीर छोटे-छोटे कारागृह हैं। तुम यह कह रहे हो कि आत्मा किसी भी कारागृह में प्रवेश करने के लिए स्वतंत्र है। मगर जब तुम स्वतंत्रता का बोध करोगे तो तुम किसी भी कारागृह में क्यों प्रवेश करोगे?
इसलिए जो जाग जाता है वह तो फिर किसी शरीर में प्रवेश नहीं करता। वह तो विश्व-आत्मा में प्रवेश कर जाता है। वह तो अपनी आत्मा को विराट के साथ लीन कर देता है। वह तो एक हो जाता है अनंत के साथ। जो शरीरों में प्रवेश करते हैं, उनको आत्मा का कोई पता नहीं, वे तो मूर्च्छित लोग हैं। और मूर्च्छित व्यक्ति क्या चुनेगा? मूर्च्छित व्यक्ति अपनी मूर्च्छा के अनुसार ही चुनेगा न!
इसलिए तुम पूछ रहे हो: "तो फिर अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों?'
मूर्च्छित व्यक्ति की धारणाएं हैं। अब समझ लो कि महात्मा गांधी, अब ये समझते हैं कि दरिद्र नारायण हैं। अगर ईमानदारी से यह मानते हैं कि दरिद्र नारायण हैं, तो मर कर ये दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे, स्वभावतः। अमीर में प्रवेश करके क्या नारायण से दूर जाना है? ये तो दरिद्र में ही प्रवेश करेंगे। इनकी धारणा इनको दरिद्र में ले जाएगी।
अगर अछूत हरिजन हैं...हरिजन की पहले कुछ और व्याख्या थी। हरिजन की बड़ी प्यारी व्याख्या थी। नरसी मेहता ने हरिजन की ठीक-ठीक व्याख्या की है: हरिजन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे। कहां तो हरिजन की यह व्याख्या और कहां जगजीवनराम हरिजन! चमार हो गए कि हरिजन हो गए! भंगी हो गए कि हरिजन हो गए!
महात्मा गांधी खुद भी अपने आश्रम में पाखाना साफ करते थे, औरों से भी करवाते थे। अब तुम पूछ रहे हो गुणवंतराय पारिख कि अपंग, अंधे और लाचार बच्चों के पीड़ा से पूर्ण शरीर का चयन क्यों? अगर महात्मा गांधी को चुनना ही होगा कोई शरीर तो भंगी का चुनेंगे। पाखाना साफ करेंगे। सिर पर पाखाना ढोएंगे। तभी उनके चित्त को शांति मिलेगी, नहीं तो चित्त को शांति नहीं मिल सकती। धारणाएं तो दिक्कत देंगी न! आखिर तुम्हारी धारणाओं के अनुसार ही तो तुम चुनाव करोगे!
जीवन भर तुम अंधे की तरह जीते हो, आंख खोलते ही नहीं। आंख खोलने से डरते हो कि कहीं आंख खोलने से वह न दिखाई पड? जाए जो तुम्हारी मान्यता के विपरीत है।
तुमने घंटाकर्ण की कहानी सुनी न, जो अपने कानों में घंटे अटकाए रखता था! घंटे बजते रहते, ताकि कोई ऐसी बात सुनाई न पड़ जाए जो उसके सिद्धांत के खिलाफ जाती है।
जापान में एक कहानी है। एक बौद्ध साध्वी अपने साथ माणिक की बनी हुई छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा रखती थी। और मंदिरों में ठहरती, साध्वी थी, तो मंदिरों में बुद्धों की और भी बहुत प्रतिमाएं होती थीं। सब माना बुद्ध की प्रतिमाएं हैं, मगर अपनी प्रतिमा की बात ही और! अहंकार कैसे-कैसे रूप लेता है! वह रोज पूजा करती अपनी माणिक की प्रतिमा की। पूजा में धूप जलाती, दीप जलाती। मगर उसको यह डर भी लगा रहता कि धूप तो उड़ेगी! उड़ेगी, और दूसरे बुद्ध बैठे हैं न मालूम कितने! बुद्ध मंदिरों में बहुत बुद्ध होते हैं। और दूसरे बुद्धों की नाक तक पहुंच गई तो अपने बुद्ध वंचित हुए। सो उसने एक पोंगरी बना रखी थी, सो बुद्ध के नाक से जोड़ देती थी।
उसका कुल परिणाम इतना हुआ कि बुद्ध की नाक काली पड़ गई। खुद की नाक कटी, बुद्ध की भी कट गई! नासमझों के हाथ में बुद्ध भी पड़ जाएं तो उनकी भी दुर्गति हो जाएगी।
अब ये तुम्हारे जीवन के जो आधार हैं, अगर गलत हैं, तो तुम ऐसा ही चयन करोगे। स्वतंत्रता तो तुम्हें हो भी नहीं सकती। तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी मान्यताएं, तुम्हारे विश्वास तुम्हें अटकाएंगे।
महंत गरीबदास झोलीवाले ने पूछा है...।
अब देखते हो, इन्हें कोई और नाम न मिला--गरीबदास! और उतने से भी चित्त नहीं भरा--झोलीवाले! अब ये अगर मरें भी तो झोली तो साथ ले ही जाएंगे, पक्का समझना। ये झोली लटकाए ही पैदा होंगे। यह खोपड़ी देखते हो! मगर ऐसी खोपड़ियां इस देश में बहुत हैं।
अब उन्होंने पूछा है कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं, जिससे सामान्य व्यक्ति में हमारे प्रति श्रद्धा खंडित होती है। और संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है। और आप लोगों की श्रद्धा डगमगा कर उनके नरक का इंतजाम कर रहे हैं। क्या यह आपको शोभा देता है?
अब जरा सोचो, गरीबदास झोलीवाले स्वयं को सोचते हैं कि आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं!
कौन सा आचरण और कैसे साधु-संत? और जो स्वयं को साधु-संत मानते हों, एक बात तो निश्चित है कि उन्हें साधुता का और संतत्व का कोई भी पता नहीं। गरीबदास, जरा उपनिषद पढ़ो। उपनिषद कहते हैं: जो सोचता है कि मैं जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। उपनिषद यह भी कहते हैं कि अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अब क्या तुम यह कहोगे कि उपनिषद ज्ञानियों की आलोचना में लगे हुए हैं, लोगों की श्रद्धा ज्ञानियों में खंडित कर रहे हैं, और अज्ञानियों की प्रशंसा कर रहे हैं? क्योंकि उपनिषद कहता है: अज्ञानी अंधकार में ही भटकते हैं, मगर ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। और जो कहता है मैं जानता हूं, वह निश्चित नहीं जानता। और जो कहता है कि मैं नहीं जानता हूं, वह जानता है।
यह तो अज्ञान की प्रशंसा हो गई और ज्ञान की आलोचना हो गई।
यहां भी उपनिषद घटित हो रहा है। और आलोचना साधु-संतों की नहीं हो रही। साधु-संतों के नाम से जो हजार तरह के ढोंग-धतूरे चल रहे हैं, उनकी आलोचना हो रही है। और उनकी आलोचना होनी चाहिए। गलत की तो आलोचना होनी चाहिए।
और इतनी घबड़ाहट क्या है? अगर मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं, तो इतने साधु-संत हैं, वे लोगों को समझाएं कि मैं सत्य की आलोचना कर रहा हूं और मेरी आलोचना गलत है। लेकिन मेरी आलोचना का एक भी उत्तर नहीं मिलता, सिर्फ गालियां देते हैं साधु-संत। उत्तर देने चाहिए। और मैं जब भी किसी चीज की आलोचना करता हूं तो अकारण नहीं करता। फिर मैं इसकी कोई चिंता नहीं करता कि वह शास्त्र में है, सिद्धांत में है। अगर गलत है तो गलत है।
ऋग्वेद में यह वचन है: सत्योनत तभीता भूमिः। पृथ्वी सत्य से ठहरी हुई है।
अब इसकी कैसे आलोचना न की जाए? पृथ्वी ठहरी हुई ही नहीं है। पृथ्वी घूम रही है। अब ऋग्वेद कहे चाहे कोई कहे, मैं क्या कर सकता हूं? इसमें मेरा क्या कसूर? पृथ्वी घूम रही है। पृथ्वी दोहरे घुमाव में है: अपनी कील पर घूम रही है--एक घुमाव; और फिर दूसरा घुमाव, पूरा परिभ्रमण कर रही है सूर्य का। और एक तीसरा भी घुमाव अभी-अभी वैज्ञानिक खोज पा रहे हैं, क्योंकि सूर्य भी पृथ्वी के साथ किसी महासूर्य का परिभ्रमण कर रहा है। तो तिहरा घुमाव हो गया। अपनी कील पर घूम रही है, फिर सूरज का चक्कर लगा रही है, फिर सूरज के साथ किसी महासूर्य का चक्कर लगा रही है। और कौन जाने वह महासूर्य भी किसी और महासूर्य का चक्कर लगा रहा हो! यहां चक्कर में चक्कर हैं, घनचक्कर! अब ऋग्वेद का वचन बिलकुल गलत है। पृथ्वी ठहरी हुई ही नहीं है। और सत्य पर ठहरी हुई है, वे कह रहे हैं।
सत्य पर पृथ्वी नहीं ठहरती। वस्तुएं सत्य पर नहीं ठहरतीं। चैतन्य सत्य पर ठहरता है। वस्तुएं तथ्य पर ठहरती हैं, सत्य पर नहीं। विज्ञान तथ्य की खोज करता है, धर्म सत्य की खोज करता है।
लेकिन जवाब नहीं हैं!
अब गरीबदास झोलीवाले इसका जवाब दें। निकालें झोली में से कुछ जवाब! टटोलें झोली में, शायद कहीं जवाब हो।
और किन साधु-संतों की मैं आलोचना कर रहा हूं? तुम्हारे पुराणों को जरा पढ़ो और तुम्हारे साधु-संतों का आचरण जरा देखो। तुम तो दुर्वासा को भी ऋषि कहते हो! अगर दुर्वासा ऋषि है तो फिर इस दुनिया में किसी को भी ऋषि भूल कर नहीं होना चाहिए। जरा-जरा सी बात पर जो अभिशाप दे दे! ऋषि तो वह जिसका जीवन ही वरदान हो; जिसके पास भी बैठ जाओ तो वरदानों की वर्षा हो जाए। लेकिन यह दुर्वासा को भी ऋषि कहते हो--जो महाक्रोधी, अत्यंत दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति, जो छोटी-मोटी बात के लिए अगले जन्मों तक को बिगाड़ दे! और इनको तुम ऋषि कहोगे?
विनोबा भावे एक ऋषि की चर्चा करते हैं। उस ऋषि का नाम है: गाड़ीवाले रैक्व। गरीबदास झोलीवाले जैसे कोई सज्जन रहे--गाड़ीवाले रैक्व। वे गाड़ी में ही चलते थे। गाड़ी में ही उनका अड्डा था। और विनोबा ने उनकी बड़ी प्रशंसा की है। लेकिन आधी कहानी कही है। इसको मैं बेईमानी कहता हूं।
देश का सम्राट अपने स्वर्ण-रथों में हीरे-जवाहरात भर कर गाड़ीवाले रैक्व के पास आया। हीरे-जवाहरात उनके चरणों में उसने ढेर लगा दिए और चरणों में झुक कर कहा कि मुझे ब्रह्मज्ञान दें! तो रैक्व ने कहा, अरे शूद्र! तू सोचता है कि धन से, हीरे-जवाहरातों से ज्ञान पाया जा सकता है!
बस विनोबा इतनी ही कहानी कहते हैं। यह कहानी पूरी नहीं है, यह कहानी अधूरी है, छांट कर निकाली गई है। पूरी कहानी मैं तुम्हें कहता हूं, तब तुम समझोगे कि क्या राज था गाड़ीवाले रैक्व का। क्योंकि इतनी कहानी तो बड़ी ऊंची लगती है, क्योंकि बात गहरी लगती है कि गाड़ीवाले रैक्व ने कहा कि तू शूद्र है। हालांकि सम्राट शूद्र नहीं था, मगर शूद्र उसे कहा, क्योंकि तेरी आस्था धन में है। तू सोचता है हीरे-जवाहरात से ज्ञान पाया जा सकता है, सत्य पाया जा सकता है। कोई भी इतनी कहानी पढ़ेगा तो लगेगा कि रैक्व ने बात तो पते की कही। कोई धन से सत्य तो नहीं खरीदा जा सकता। सत्य कोई वस्तु तो नहीं है कि खरीदी जा सके।
लेकिन पूरी कहानी यों है कि गाड़ीवाले रैक्व...। उन जमानों में बाजारों में गुलाम बिकते थे और अधिकतर सुंदर स्त्रियां बिकती थीं। जिनको तुम स्वर्णऱ्युग कहते हो, सतयुग कहते हो, बड़े गजब के स्वर्णऱ्युग थे, बड़े सतयुग थे! स्त्रियां बाजारों में वस्तुओं की तरह बिकती थीं। और एक बहुत सुंदर स्त्री बाजार में बिकने आई थी, तो गाड़ीवाले रैक्व भी उसको खरीदने गए थे। ऋषि-मुनि भी स्त्रियां खरीद कर रखते थे!
तुम जान कर यह चकित होओगे कि अब हम जो शब्द का उपयोग करते हैं, वह उचित नहीं है। हम शब्द का उपयोग करते हैं: वर-वधू। वधू का जो वैदिक अर्थ है, वह खरीदी हुई औरत, पत्नी नहीं। तो ऋषियों की पत्नियां होती थीं और अनेक वधुएं होती थीं। वधुएं यानी खरीदी गईं जो, उप-पत्नियां। तो हर ऋषि पत्नी भी रखता था और खरीदी हुई वधुएं भी रखता था। ये गजब के ऋषि थे! मगर कोई हैरानी की बात नहीं, जब अवतारी पुरुष कृष्ण सोलह हजार स्त्रियां रख सकते हैं, और बिना खरीदे, दूसरों की छीन कर ला सकते हैं, चुरा कर ला सकते हैं, झपट कर ला सकते हैं, जबरदस्ती ला सकते हैं, तो ये बेचारे कम से कम खरीद कर लाते थे!
मगर आदमी बिकें, स्त्रियां बिकें--यह बात अशोभन। और ऋषि खरीद कर लाएं!
ये ऋषि गए थे खरीदने और वह सम्राट भी गया था खरीदने, क्योंकि उस सुंदर स्त्री पर सबकी नजर थी। भाव बढ़ते गए। ऋषि के पास भी धन की कमी न थी। लेकिन सम्राट से कैसे जीतता? अंततः सम्राट बाजी मार ले गया, स्त्री को खरीद कर चला गया। रैक्व के अहंकार को चोट लगी।
यही सम्राट वर्षों बाद सत्य को सीखने के लिए रैक्व के चरणों में आया हीरे-जवाहरात लेकर। तो रैक्व ने कहा, अरे शूद्र! ले जा अपना धन! धन से कोई सत्य नहीं खरीदा जाता।
तब उस सम्राट के वजीरों ने कहा कि आपको याद है कि आपने उस स्त्री को खरीद लिया था जिस पर रैक्व की नजर थी? वह यह कह रहा है कि उस स्त्री को ला, अरे शूद्र! धन से सत्य नहीं खरीदा जाता।
तो सम्राट उस स्त्री को लेकर पहुंचा और तब रैक्व ने सम्राट को धर्म की शिक्षा दी।
यह कहानी पूरी है। धन से नहीं खरीदा जाता, लेकिन स्त्री ले आओ तो खरीदा जा सकता है! अब ये गजब के ऋषि-मुनि! और यह कोई एक ऋषि की बात नहीं है, तुम अपने सारे ऋषि-मुनियों को जरा गौर से देखो, तो तुम बहुत चकित होओगे। इनके जीवन में तुम कुछ ऐसा खास न देखोगे जिसको मूल्यवान कहा जा सके।
तुम्हारे ऋषि-मुनि तो दूर, तुम्हारे देवी-देवता भी सब लंपट! स्वर्ग से उतर आते हैं, दूसरों की स्त्रियों को भ्रष्ट करते हैं। और देवी-देवता हैं! और तुमको शर्म भी नहीं आती इनको देवी-देवता कहने में! और ये तुम्हारे पुराण इनकी कहानियों से भरे हुए हैं।
अब तुम मुझसे कह रहे हो कि "आप हम जैसे आचरणशील साधु-संतों की आलोचना में सदा संलग्न रहते हैं।'
मैं साधु और संत की ठीक-ठीक व्याख्या निर्धारित करना चाहता हूं। इसलिए जो गलत हैं उनकी आलोचना करूंगा, ताकि सत्य की ठीक-ठीक व्याख्या हो सके।
और तुम यह भी कहते हो कि "जिससे सामान्य व्यक्ति में हमारे प्रति श्रद्धा खंडित होती है।'
जो श्रद्धा खंडित हो जाए वह श्रद्धा ही नहीं। जिनकी मुझमें श्रद्धा है उनकी तुम खंडित करके तो दिखाओ! मैं तुम्हें निमंत्रण देता हूं, गरीबदास झोलीवाले, यहीं रहो! जिनकी मुझमें श्रद्धा है, किसी की खंडित करके दिखाओ। उसकी श्रद्धा खंडित करने में तुम्हारी झोली भी चली जाएगी, तुम्हारा आचरण भी चला जाएगा, तुम्हारी साधुता भी खो जाएगी।
श्रद्धा खंडित होती ही नहीं, उसी का नाम श्रद्धा है। जो खंडित हो जाए वह झूठी श्रद्धा है। अगर श्रद्धा भी खंडित हो जाए तो इस जगत में फिर अखंड क्या बचेगा? श्रद्धा कभी खंडित नहीं होती। मगर हां, झूठी श्रद्धा तो खंडित होगी। इसीलिए तुम्हें डर पैदा होता है।
और तुम दूसरों को सामान्य व्यक्ति कह रहे हो, अपने को आचरणशील साधु-संत! तुम असामान्य और दूसरे सामान्य। दूसरे तुच्छ, तुम पवित्र! यह भाव ही अधार्मिक है। यह धारणा ही हीन है। सच्ची साधुता सबके प्रति सम्मान से भरी होती है। सच्ची साधुता में कोई सामान्य नहीं होता।
मेरे लिए तो सभी के भीतर परमात्मा विराजमान है। परमात्मा सामान्य कैसे हो सकता है? सभी के भीतर भगवत्ता है। चाहे तुम्हें पता हो या न हो, मगर मुझे तो पता है। तुम्हें न भी पता हो तो कोई हर्ज नहीं। इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे पता है कि तुम्हारे भीतर भगवान उतना ही विराजमान है जितना मेरे भीतर विराजमान है। इसलिए मैं तुमसे कोई ऊंचा नहीं, तुम मुझसे कुछ नीचे नहीं। मैं कुछ विशिष्ट नहीं, तुम कुछ सामान्य नहीं।
यह कोटियों में बांटना अहंकार की भाषा है। और अहंकार से साधुता का क्या संबंध हो सकता है? निरहंकारिता साधुता का नाम है।
और गरीबदास कहते हैं कि "संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है।'
यह किसने कहा? अपने में श्रद्धा जीवन का आधार है, संतों में श्रद्धा नहीं। संत कौन है? इन्होंने कोई ठेका लिया है? फिर जो एक के लिए संत है, दूसरे के लिए संत नहीं है। दिगंबर जैन के लिए दिगंबर मुनि ही केवल संत है। औरों की तो बात छोड़ दो, श्वेतांबर जो मुनि है, जो सफेद वस्त्र पहने होता है, वह भी संत नहीं। क्योंकि जब तक नग्न न हो, तब तक कैसे संत?
अब किसी जैन से पूछो कि झोलीवाला कोई संत हो सकता है? कभी नहीं हो सकता। अभी झोली भी रखे हुए है, तो अभी संत कैसा? संत को तो सबका त्याग करना होता है। झोली का तो मतलब ही है--इरादे कुछ खराब हैं, नीयत अच्छी नहीं है। किसी की जेब काटोगे, किसी के जूते झोली में रख लोगे, कुछ न कुछ करोगे। झोली किसलिए रखे हो? कोई यूं ही तो झोली टांगे नहीं फिरता। कुछ मतलब होता है, झोली भरना है। कोई जैन तुम्हें संत नहीं मानेगा।
जैनों के संत दूसरों को संत मालूम नहीं होते। किसी मुसलमान से पूछो, किसी ईसाई से पूछो कि नग्न हो जाने से संतत्व का क्या संबंध है? वह कहेगा, कोढ़ियों की सेवा करो, तब संत होते हो। और जैन मुनि कोढ़ी की सेवा करे, कभी नहीं! उसने कोई पाप थोड़े ही किए पिछले जन्म में जो कोढ़ी की सेवा करे! अरे कोढ़ी की सेवा वे करें जिन्होंने पिछले जन्म में पाप किए हों। जिन्होंने बहुत किए, वे कोढ़ी हुए; जिन्होंने कुछ कम किए, वे कोढ़ी की सेवा कर रहे हैं। सीधा गणित है। जैन मुनि क्यों किसी की सेवा करे? सेवा लेता है जैन मुनि, करता नहीं।
जैन श्रावक जब मुनि के दर्शन को जाते हैं, तो उनसे पूछो, कहां जा रहे हो? वे कहते हैं कि संत की सेवा को जा रहे हैं। संत की सेवा करनी होती है, संत सेवा नहीं करता।
मगर ईसाई की धारणा और है। वह कहता है, संत सेवा करता है, तो ही संत है।
संत कौन है? और तुम कहते हो, संतों में श्रद्धा ही जीवन का आधार है। किसकी परिभाषा को मानें? रामकृष्ण परमहंस हिंदुओं के लिए संत हैं, पर जैनियों से पूछो। फौरन कहेंगे, यह मछलीखाऊ संत कैसे हो सकता है? मछली तो खाते रहे वे। बंगाली और मछली-भात न खाए, यह असंभव है। यह तो परमहंस की कृपा है कि मछलियों को पचा गए, वे भी परमहंस हो गईं।
लेकिन कोई जैन यह मानने को राजी नहीं होगा। जैन संत तो आलू भी नहीं खा सकता। अब आलू बेचारा बिलकुल गरीबदास! न कभी कोई पाप किया आलुओं ने, न किसी को कभी सताया। मगर आलू भी नहीं खा सकता, क्योंकि आलू जमीन में नीचे दबा हुआ पलता है अंधेरे में, अंधेरे की वजह से तमस पैदा हो जाता है। तामसी भोजन। मछली तो बात ही दूर की हो गई। टमाटर नहीं खाता, क्योंकि टमाटर देखने में मांस जैसा मालूम पड़ता है। सिर्फ देखने में। नहीं तो टमाटर बिलकुल भोले-भाले लोग! और हमेशा पद्मासन में बैठे रहते हैं, हमेशा ध्यान-मग्न। और देखने में कैसे प्यारे लगते हैं--बिलकुल साधु-संत! मगर जैन मुनि नहीं खाएगा।
कौन पर श्रद्धा करनी?
नहीं, मैं कहता हूं, किसी और पर श्रद्धा नहीं करनी है, स्वयं पर श्रद्धा करनी है। जीवन का आधार है: स्वयं पर श्रद्धा।
और तुम पूछते हो गरीबदास कि "आप लोगों की श्रद्धा डगमगा कर उनके नरक का इंतजाम कर रहे हैं।'
अरे नरक में तुम हो! और कहीं नरक है? अब यहां से और गिरने का कोई उपाय है? अब यहां से और कहीं नहीं गिर सकते। यही है नरक, और कहीं कोई नरक नहीं है। और इस नरक को बनाने में तुम्हारे तथाकथित साधु-संतों का हाथ है।
मैं इस नरक को स्वर्ग बनाने की कोशिश कर रहा हूं। मेरे संन्यासियों को देखो। मेरे संन्यासी नरक भी पहुंच जाएंगे तो नरक को स्वर्ग बना लेंगे। क्या अंतर पड़ता है? वहां भी गीत, वहां भी संगीत, वहां भी नाच, वहां भी उत्सव शुरू हो जाएगा। और मुझे कोई अड़चन नहीं है, शैतान को भी संन्यास दे दूंगा! शैतान को कोई दूसरा आदमी संन्यास दे भी नहीं सकता। शैतान सिवाय मेरे और किसी से संन्यास ले भी नहीं सकता।
और गरीबदास झोलीवाले, तुम अगर स्वर्ग भी चले गए, वहां जो इकट्ठे हो गए हैं तुम जैसे लोग, मैंने तो सुना है कि परमात्मा अब वहां नहीं रहता। ये उदासीन सूरतें, ये मुर्दे चेहरे, ये सड़े-गले लोग, ये उलटे-सीधे काम वहां भी कर रहे होंगे--कोई शीर्षासन कर रहा होगा, कोई खड़ेश्री बाबा खड़े ही होंगे, कोई उपवास करके अपने को मार रहा होगा। पुरानी आदतें छूट तो नहीं जाएंगी। कोई नंग-धड़ंग खड़े होंगे। क्या-क्या सर्कस नहीं हो रहा होगा स्वर्ग में! मैंने तो सुना है कि परमात्मा ने बहुत पहले स्वर्ग छोड़ दिया। वह वहां नहीं रहता अब। उसने जगह बदल ली है।
तो कोई हर्जा नहीं, मुझे कोई चिंता नहीं। मैं नरक जाऊं, मेरे संन्यासी नरक जाएं, कोई चिंता नहीं। हमें स्वर्ग की कोई आकांक्षा भी नहीं। हम तो जहां जाएंगे वहां स्वर्ग बना लेंगे।

आज इतना ही।


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