सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो
अब प्रेम के मंदिर हों—प्रवचन-पांचवां
दिनांक 05 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न: भगवान,
प्रेम यदि मनुष्य का स्वभाव है, तो उसे सहज ही होना चाहिए। तब संत पलटू
क्यों कहते हैं कि सहज आसिकी नाहिं?
प्रेमानंद,
प्रेम तो निश्चित ही स्वभाव है, स्वरूप है। हम उसे
लेकर ही जन्मे हैं, हम उससे ही बने हैं। हमारा रोआं-रोआं,
कण-कण, श्वास-श्वास, प्रेम
के अतिरिक्त और किसी चीज से अनुप्राणित नहीं है। यह सारा अस्तित्व ही प्रेम का
विस्तार है--या कहो परमात्मा का, क्योंकि प्रेम और परमात्मा
एक ही सत्य के दो नाम हैं।
जीसस ने कहा है: परमात्मा प्रेम है। जब उन्होंने यह कहा, आज से दो हजार साल पहले, तब बात बड़ी क्रांति की थी,
महाक्रांति की थी। जीसस के पहले किसी ने कभी यह बात कही न थी।
वस्तुतः परमात्मा के संबंध में ठीक इससे विपरीत बातें बहुत बार कही गई थीं।
जीसस जिस वातावरण में पैदा हुए थे--यहूदियों के--उनकी धारणा थी कि
परमात्मा बड़ा कठोर है। तालमुद में यहूदियों का परमात्मा घोषणा करता है कि मुझसे
ज्यादार् ईष्यालु और कोई भी नहीं। जो मेरी दुश्मनी करेगा, उसे मैं कभी क्षमा न करूंगा; मैं उसे विनष्ट कर
दूंगा, जड़-मूल से नष्ट कर दूंगा। तालमुद का एक दूसरा सूत्र
कहता है कि परमात्मा बहुत कड़वा है, मीठा नहीं है। परमात्मा
से सावधान और सम्हल कर चलना; उसके नियम बहुत कठोर हैं। और जो
चूका उस पर परमात्मा भयंकर आघात करता है।
उस वातावरण में जीसस की यह घोषणा कि परमात्मा प्रेम है, महत्वपूर्ण क्रांति थी; एक पड़ाव था मनुष्य की चेतना
के इतिहास में। लेकिन अब वक्त आ गया है कि बात और थोड़ी गहरी की जाए। इसलिए मैं
इतना ही नहीं कहता कि परमात्मा प्रेम है; मैं तो कहता हूं:
प्रेम परमात्मा है। ऊपर से देखने पर तो दोनों एक जैसी बातें लगेंगी, मगर बस ऊपर से देखने पर, भीतर आमूल भेद पड़ गया।
परमात्मा प्रेम है, इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा का प्रेम एक
गुण है, और भी गुण होंगे--ज्ञान होगा, प्रकाश
होगा, सृजन की शक्ति होगी, और भी अनंत
गुण होंगे; उनमें प्रेम भी एक गुण है। लेकिन मैं कहता हूं:
प्रेम ही परमात्मा है। परमात्मा के और कोई गुण नहीं हैं, प्रेम
में सब आ गया। प्रेम के बाहर कुछ भी बचता नहीं है।
इसलिए मेरे लिए प्रेम और परमात्मा पर्यायवाची हैं। प्रेम कहो या
परमात्मा कहो, कुछ भेद नहीं है। और प्रेम कहना ज्यादा उचित है,
क्योंकि परमात्मा के नाम से इतनी गंदगी हो चुकी है, परमात्मा के नाम से इतनी कीचड़ मच चुकी है, इतना
उपद्रव, इतना खून-खराबा हो चुका है, इतनी
लाशों से पट गई है पृथ्वी कि वह नाम भी लहूलुहान है। लाख उसे धोओ तो भी उसे साफ
नहीं किया जा सकता। हिंदुओं ने, मुसलमानों ने, ईसाइयों ने बहुत विकृत कर दिया उस प्यारे शब्द को। लेकिन प्रेम शब्द अभी
भी अछूता है; पुरोहित के हाथ में नहीं पड़ा है। पुरोहित के
हाथ में जो पड़ा, गंदा हुआ। पुरोहित ने जिसे छुआ, सोना हो तो मिट्टी हो जाता है। प्रेम शब्द अभी भी पुरोहित से बहुत दूर है;
अभी भी कवियों के हाथ में है--इसलिए सुमधुर है, सुंदर है, सुस्वादु है।
मैं तो पसंद करूंगा कि अब प्रेम के ही मंदिर होने चाहिए, परमात्मा के नहीं। क्योंकि परमात्मा में पहली तो झंझट यह है: कौन-सा
परमात्मा? हिंदुओं का, ईसाइयों का,
मुसलमानों का, सिक्खों का, जैनों का, यहूदियों का, पारसियों
का--किसका परमात्मा? फिर हिंदुओं का भी कोई एक परमात्मा है!
हिंदुओं में हजार पंथ हैं। हिंदुओं के तैंतीस करोड़ देवता हैं। कौन-सा परमात्मा?
किसको चढ़ाओगे अर्चना? किसके चरणों में रखोगे
फूल? कहां जलाओगे धूप? किसकी उतारोगे
आरती? और किसी की भी आरती उतारो, मन
में यह संदेह बना ही रहेगा कि पता नहीं जिस परमात्मा की मैं आरती उतार रहा हूं वह
सच भी है या झूठ? क्योंकि इतने परमात्मा हैं, किसको मानो?
मनुष्य-जाति अगर धीरे-धीरे नास्तिक होती चली गई है तो उसका बुनियादी
कारण यही है। उसका बुनियादी कारण वह नहीं है जो पुरोहित और पंडे और महात्मा और
तुम्हारे साधु और तुम्हारे मुनि समझाते हैं। वे समझाते हैं कि नास्तिकों के कारण
पृथ्वी धर्म-विहीन हो गई है। यह तो बड़े मजे की बात हुई। नास्तिक कहां से आ गए? नास्तिकों के कारण पृथ्वी धर्म-विहीन हो गई है। और पृथ्वी धर्म-विहीन है,
इसलिए नास्तिक है। कैसा गोल चक्कर बनाते हैं! नास्तिक का अर्थ ही
होता है: धर्म-विहीन। यह आया कहां से? यह किसकी करतूत है?
यह किसकी साजिश है? इतने धर्म होंगे तो आदमी
नास्तिक हो ही जाएगा, क्योंकि आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो
जाएगा। चुनाव करना मुश्किल हो जाएगा, असंभव हो जाएगा,
भ्रम पैदा होगा, भ्रांति पैदा होगी, हजार संदेह उठेंगे। उस सारी झंझट से बचने के लिए यही उचित है कि कोई
परमात्मा नहीं है। यही ज्यादा आसान है। यही ज्यादा सुलझाव का रास्ता मालूम होता
है।
इसलिए मैं तो चाहूंगा कि अब प्रेम के मंदिर हों। प्रेम की एक खूबी है
कि प्रेम न हिंदू होता, न मुसलमान होता, न ईसाई होता,
न जैन होता; न हिंदुस्तानी, न पाकिस्तानी, न अफगानी। प्रेम तो बस प्रेम है।
प्रेम बहुत विराट है, सभी को आत्मसात कर लेता है।
प्रेमानंद, प्रेम तो निश्चित ही स्वाभाविक है। लेकिन उस स्वभाव
को प्रकट न होने दिया जाए, इसलिए बहुत-सी अड़चनें खड़ी की गई
हैं। प्रेम तो स्वाभाविक है, लेकिन तुम स्वाभाविक नहीं हो।
तुम अस्वाभाविक हो गए हो। प्रेम तो सीधा-साफ है, लेकिन तुम
इरछे-तिरछे हो। तुम आड़े-टेढ़े हो गए हो। तुम्हें आड़ा-टेढ़ा किया गया है। हर बच्चे को
बिगाड़ा जा रहा है। और वे ही बिगाड़ रहे हैं जिनको हम सोचते हैं कि हमारे हितेच्छु
हैं। वे ही बिगाड़ रहे हैं जिनसे आशा होनी थी कि सुधारेंगे। जैसे ही तुमने अपने
बच्चे को हिंदू बनाया, बिगाड़ा; जैन
बनाया, बिगाड़ा; मुसलमान बनाया, बिगाड़ा। तुमने उसके ऊपर कुछ थोप दिया। उसकी स्वतंत्रता को तुमने सम्मान न
दिया। तुमने उसे स्वयं खोजने का मौका न दिया। और सत्य तो स्वयं खोजो तो ही मिलता
है, दूसरे के दिए नहीं मिलता। दूसरे तो जो भी देंगे वह असत्य
ही होगा।
सत्य के संबंध में यह बुनियादी बात कभी न भूलना: जो जानता है वह भी
सत्य नहीं दे सकता। क्योंकि सत्य देने में ही झूठ हो जाता है। एक हाथ से दूसरे हाथ
में गया कि व्यर्थ हुआ। जिसने जाना था उसके हाथ में हीरा था और जो नहीं जानता उसके
हाथ में पड़ते ही पत्थर हो जाता है। सत्य कोई ऐसी चीज नहीं जिसका हस्तांतरण हो सके।
तो सत्य तो कोई किसी को दे नहीं सकता, लेकिन झूठे विश्वास
दिए जा सकते हैं।
सत्य विश्वास नहीं है, अनुभव है। सब विश्वास
झूठे होते हैं। सब विश्वास अंधे होते हैं। और क्या है तुम्हारे जीवन का आधार?
सिवाय विश्वासों के और कुछ भी नहीं। तुम्हारी बुनियाद के पत्थर क्या
हैं? सिवाय विश्वास। कोई ईश्वर को मान रहा है, कोई स्वर्ग को मान रहा है, कोई नर्क को मान रहा है,
कोई पाप-पुण्य के सिद्धांत को मान रहा है, कोई
पुनर्जन्म को मान रहा है, कोई एक ही जीवन को मान रहा है।
तुम्हारे पास कोई भी प्रमाण नहीं किसी बात का। लेकिन तुम माने चले जाते हो,
खोजते नहीं। खोज के लिए सबसे बड़ी रुकावट है: विश्वासी मन। और
आश्चर्य तो यह है कि यही समझाया गया है कि विश्वासी मन ही धार्मिक है। और मैं
तुमसे कहता हूं कि विश्वासी मन अधार्मिक है। फिर चाहे वह विश्वास नास्तिकता का हो,
चाहे आस्तिकता का, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
विश्वास जहर है।
मानना मत, अगर जानना हो। जानने के लिए इतनी हिम्मत चाहिए--न
मानने की हिम्मत। खाली रहने की हिम्मत। अपने को विश्वास के कचरे से नहीं भरेंगे,
चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। जीवन छिने तो छिन जाए, मगर अपनी आत्मा न बेचेंगे।
मगर छोटे-छोटे बच्चे इतने असहाय होते हैं कि उनके पास कोई उपाय नहीं
होता। उन्हें तो मां-बाप के सहारे ही जीना होता है। जो मां-बाप बताएंगे वही करना
होगा। करना ही होगा, क्योंकि मां-बाप के सिवाय उनकी कोई सुरक्षा नहीं है।
मां-बाप जिस मंदिर में भेजेंगे वहां जाना होगा; जिस मूर्ति
के सामने झुकाएंगे, झुकना होगा; जिस
शास्त्र को रटवाएंगे, रटना होगा; जिस
महात्मा के चरणों में सिर झुकवाएंगे, झुकाना होगा। फिर
धीरे-धीरे यह आदत का हिस्सा हो जाता है। युवा होते-होते बच्चा भूल ही जाता है कि
मैं उन मंदिरों में झुक रहा हूं जो मैंने स्वयं नहीं चुने; जहां
मैं अपनी आकांक्षा से, अभीप्सा से नहीं गया था। मैं उन
मंदिरों में झुक रहा हूं जिन्होंने मुझे खींचा नहीं; मैं उन
शास्त्रों को पढ़ रहा हूं जिन्हें दूसरों ने मुझे पकड़ा दिया है; मैं उधार जी रहा हूं। और यह उधार जीवन ही अस्वाभाविक जीवन है।
प्रेम तो स्वाभाविक है, प्रेमानंद। मगर तुम
स्वाभाविक नहीं हो। तुम बिगाड़े गए हो, विकृत किए गए हो।
तुम्हारे ऊपर बहुत-बहुत पर्दे डाले गए हैं। तुम्हारी आंखों पर बहुत धूल जमाई गई
है। तुम्हारे दर्पण को स्वच्छ नहीं रहने दिया गया है। उस पर बहुत लिखावटें कर दी
गई हैं। फिर इतने से ही आश्वस्त नहीं हो गया है समाज। समाज ने तुम्हें घृणा भी
सिखाई है--विधायक रूप से घृणा सिखाई है। समाज ने पूरा उपाय किया है कि तुम्हारे
जीवन से कहीं से भी प्रेम का झरना न फूट सके; सब
द्वार-दरवाजे, संधें बंद कर दी हैं; सब
तरफ चट्टानें अटका दी हैं। हरेक को घृणा का पाठ पढ़ाया जा रहा है और ऐसे ढंग से
पढ़ाया जाता है कि लगता है प्रेम का पाठ है।
बच्चों को कहा जाता है: यह तुम्हारी मातृभूमि है, इसे प्रेम करो। यूं तो बात प्रेम की कही जा रही है, मगर
बड़ी जालसाजी की है। राष्ट्र को प्रेम करो। धर्म को प्रेम करो। शास्त्र को प्रेम
करो। अपनी परंपरा को प्रेम करो। अपनी जाति को, अपने गौरव को,
अपने पुरखों को, इनको प्रेम करो। लेकिन इस
सबके पीछे घृणा छिपी है। अपने पुरखों को प्रेम करो, मतलब
दूसरों के पुरखों को क्या करोगे? अपने देश को प्रेम करो तो
दूसरे देशों को क्या करोगे? अपनी जाति को प्रेम करो तो दूसरी
जातियों को क्या करोगे? अपने धर्म को प्रेम करो तो फिर दूसरे
धर्मों के साथ क्या संबंध होगा तुम्हारा? घृणा ही बची फिर
तुम्हारे पास। सबके लिए घृणा बची। तुम्हारे प्रेम को खूब संकुचित कर दिया गया।
और प्रेम के साथ एक कठिनाई है: संकुचित होते ही मर जाता है। विराट
होते ही जीता है। जितना विराट हो उतना ही सप्राण होता है। जितना संकीर्ण हो उतना
ही मर जाता है। प्रेम को आकाश चाहिए--खुला आकाश, तारों से भरा आकाश!
इससे कम में काम नहीं चलेगा। इससे कम में राजी मत होना, नहीं
तो प्रेम मर जाएगा, सिकुड़ जाएगा। और तुम्हारे प्रेम को मार
डाला गया है। और इस जालसाजी से मारा गया है, ऐसी साजिश है कि
तुम पकड़ भी नहीं पाते, क्योंकि प्रेम के नाम पर ही सारी बात
चल रही है। कौन कहेगा इसको बुरा कि भारत देश को प्रेम करो? लेकिन
भारत देश के प्रेम में फिर पाकिस्तान के साथ घृणा आ गई, फिर
चीन के साथ घृणा आ गई, फिर अमरीका और जर्मनी और जापान के साथ
घृणा आ गई। प्रेम संकुचित हो गया। और जब प्रेम संकुचित होना शुरू होता है, मरना शुरू होता है, तो मरता ही चला जाता है।
जीवन का और भी एक नियम खयाल रखना: जीवन गति है। अगर फैलो तो फैलता चला
जाता है, अगर सिकुड़ो तो सिकुड़ता चला जाता है। रुकाव नहीं है
जिंदगी में। ठहराव नहीं है जिंदगी में।
बहुत बड़े वैज्ञानिक एडिंग्टन ने कहा है कि विज्ञान की जीवन भर की खोज
के बाद मैं एक नतीजे पर पहुंचा हूं कि भाषा में कुछ शब्द हैं जिनका यथार्थ से कोई
संबंध नहीं। उन्हीं एक शब्दों में रेस्ट, ठहराव शब्द है। कोई
चीज ठहरी हुई नहीं है, यह शब्द झूठा है। बच्चा जवान हो रहा
है, जवान बूढ़ा हो रहा है। हमारी भाषा में संज्ञाएं बहुत हैं;
नहीं होनी चाहिए, क्रियाएं ही होनी चाहिए।
क्योंकि जीवन क्रिया है, संज्ञा नहीं।
जब तुम कहते हो वृक्ष है, तो तुम गलत बात कहते
हो। वृक्ष हो रहा है। वृक्ष क्रिया है, संज्ञा नहीं। क्योंकि
ठहरा नहीं है। जितनी देर में तुम बोले, कुछ सूखे पत्ते गिर
गए, हवा का एक झोंका गुजर गया। कुछ नए अंकुर फूट गए। वसंत की
लहर आ गई, कोई कली खिल गई, फूल बन गई।
कोई फूल बिखरने लगा, एक पंखुड़ी टूटी और जमीन में मिल गई।
वृक्ष हो रहा है, गतिमान है। जैसे नदी बह रही है। तुम भी हो
रहे हो, प्रतिपल हो रहे हो। एक क्षण को भी कोई ठहराव नहीं
है। जो आगे न बढ़ेगा उसे पीछे हटना पड़ेगा।
इसलिए खयाल रखना, यह तो भूल कर भी मत सोचना कि अगर
आगे न बढ़े तो कोई हर्ज नहीं, अपनी जगह पर अड़े रहेंगे। ऐसा
होता ही नहीं। नियम नहीं है। ऐसा जीवन का धर्म नहीं है। आगे न बढ़े तो पीछे हटोगे।
अगर पीछे हटने से बचना हो तो आगे बढ़ो। चरैवेति! चरैवेति! चले चलो, चले चलो। रुको मत। रुके कि मरे। रुके कि सड़े।
तो जो चीज सिकुड़ती है, फिर सिकुड़ने लगती है,
और सिकुड़ने लगती है। तुमने अगर कहा कि मैं भारत को प्रेम करता हूं
तो कितनी देर भारत को प्रेम करोगे? वह सिकुड़ने लगेगा। फिर
भारत में भी सवाल उठेगा कि पंजाबी हो कि गुजराती हो कि मराठी हो कि हिंदी हो कि
तमिल हो कि तेलगू हो कि बंगाली हो--सिकुड़ा। फिर महाराष्ट्र में भी रुकेगा थोड़े ही,
सिकुड़ेगा--ब्राह्मण हो कि शूद्र हो। और सिकुड़ा। फिर ब्राह्मण में भी
देशस्थ हो कि कोकणस्थ। और सिकुड़ा। सिकुड़ता ही जाएगा। एक दफे सिकुड़ने की प्रक्रिया
तुमने शुरू कर दी तो रुकने वाली नहीं है। और आखिर में तुम पाओगे
सिकुड़ते-सिकुड़ते-सिकुड़ते सिर्फ तुम्हारा अहंकार ही बचा। और अहंकार प्रेम का दुश्मन
है।
अहंकार जहर है प्रेम के लिए। और हमारा तथाकथित सारा प्रेम अहंकार पर
ही आ जाता है। भारत को प्रेम करोगे तो इसमें हिंदू को प्रेम करोगे कि मुसलमान को
कि ईसाई को कि पारसी को, जैन को, किसको प्रेम करोगे?
अगर जैन हो तो जैन को प्रेम करोगे, हिंदू को
कैसे करोगे! जैन शास्त्र कहते हैं, सावधान! दूसरों के
शास्त्र कुशास्त्र हैं। अब कुशास्त्र को तो कैसे प्रेम करोगे? दूसरों के देव कुदेव हैं। तो कुदेवों को तो कैसे प्रेम करोगे? और दूसरों के गुरु कुगुरु हैं। तो कुगुरुओं को तो कैसे प्रेम करोगे?
मगर बात वहीं थोड़े ही रुकेगी। फिर जैनों में भी श्वेतांबर हैं और
दिगंबर हैं। फिर श्वेतांबर में भी तेरापंथी हैं और स्थानकवासी हैं और पता नहीं और कितने-कितने
गच्छ और गच्छों में भी छोटे गच्छ...। टूटती ही जाती है बात, बिखरती ही जाती है बात और हर तरफ से बिखर कर आखिर में अहंकार पर आ जाती
है। बस आखिर में तुम्हीं बचते हो--अपने को प्रेम करो। और अपने को प्रेम बुरा नहीं
है, अगर विराट के प्रेम का हिस्सा हो। लेकिन अपने को प्रेम
अगर विराट के प्रेम के विपरीत हो तो मृत्यु से भी बदतर है, क्योंकि
तुम जीते-जी मर गए।
प्रेमानंद, तुम पूछोगे, लेकिन क्यों समाज
इस तरह प्रेम को मार डालता है? क्यों? आखिर
समाज का क्या स्वार्थ है? प्रेम जैसी सुंदर, प्रेम जैसी महिमापूर्ण वस्तु को क्यों समाज काट डालता है? और हर तरह से काटता है। हम बाल-विवाह कर देते थे--सिर्फ इसीलिए कि अगर
युवक और युवतियां जवान हो गए तो कहीं प्रेम में न पड़ जाएं। खतरा है। इसके पहले कि
प्रेम में पड़ें, उनका विवाह कर दो। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। पहले से ही बांध दो, स्वतंत्र रखो
ही मत, क्योंकि स्वतंत्रता में खतरा है। क्या खतरा था?
खतरा यह था कि प्रेम न हिंदू को पहचानता, न मुसलमान को, न जैन को, न
बौद्ध को, न पारसी को, न सिक्ख को। जैन
लड़का हिंदू लड़की के प्रेम में पड़ सकता है। चमार का लड़का ब्राह्मण की लड़की के प्रेम
में पड़ सकता है। बौद्ध की लड़की सिक्ख के प्रेम में पड़ सकती है। ईसाई की लड़की
मुसलमान के प्रेम में पड़ सकती है। फिर करोगे क्या? फिर
बांधना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए पहले से ही इंतजाम कर लो। अगर बांधना हो तो
गंगोत्री पर ही गंगा को बांध लो; वहां छोटी-सी धार है,
गोमुख में से निकलती है। एक लुटिया में ही भरी जा सकती है। कोई बड़ी
गागर की भी जरूरत नहीं, वहीं रोक दो। अगर गंगासागर में पहुंच
कर रोकना चाहा, फिर तुम्हारे वश के बाहर मामला है। फिर बात
इतनी बड़ी हो जाएगी। इसलिए हम शुरू से ही बीज ही नष्ट करने लगते हैं।
मगर क्यों? आखिर क्या हित है? प्रेम को
नष्ट करने में क्या हित है?
हित हैं। न्यस्त स्वार्थों के हित हैं। सत्ताधिकारियों के हित हैं।
सत्ताधिकारी, फिर चाहे राजनेता हों और चाहे धर्मगुरु हों, उनके हित में यही है कि प्रेम को नष्ट कर दो। प्रेम के नष्ट होते और बहुत
चीजें नष्ट हो जाती हैं। प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि अगर उसको हमने किसी तरह रुकावट
डाल दी तो प्रतिभा ही नष्ट हो जाती है। जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम श्वास नहीं
लेता उस जीवन में प्रतिभा नहीं होती, बुद्धि नहीं होती। वह
आदमी बुद्धू हो जाता है। अरे जो अपने प्रेम को भी न बचा सका, अब और क्या बचाएगा? और समाज चाहता है कि तुममें
प्रतिभा न हो, क्योंकि प्रतिभा खतरनाक है, क्रांतिकारी है। प्रतिभा से बगावत पैदा होती है, विद्रोह
पैदा होता है। जहां प्रतिभा है वहां अंधानुकरण नहीं हो सकता। प्रतिभाशाली व्यक्ति
हां कहेगा तभी जब पाएगा कि बात हां कहने योग्य है, अन्यथा
नहीं कहेगा, इनकार करेगा।
प्रतिभा में विद्रोह छिपा है। और समाज के स्वार्थ तुम्हारे भीतर से
विद्रोह को बिलकुल बुझा देना चाहते हैं, चिनगारी भी नहीं
छोड़ना चाहते, ताकि तुम्हें गुलाम बनाया जा सके। राजनेता में
और धर्मगुरु में पुरानी साजिश है, पुराना समझौता है, पुराना जोड़त्तोड़ है, पुराना गठबंधन है। उन्होंने
बांट रखा है आदमी को कि तुम बाहर सम्हाल लो, हम भीतर सम्हाल
लेंगे। हमें भीतर हुकूमत करने दो, तुम बाहर हुकूमत करो।
अगर मनुष्य में प्रतिभा हो तुम सोचते हो ये बुद्धू, जो राजनेता बन कर बैठ जाते हैं, ये बैठ सकेंगे
राजनेता बन कर? असंभव। अगर मनुष्य में प्रतिभा हो तो जिनको
तुम राजधानियों में इकट्ठा किए हो, इनको तुम पागलखानों में
बंद करोगे। ये तुम्हारे राष्ट्रपति और ये तुम्हारे प्रधानमंत्री और ये तुम्हारे
राजनेता किसी भी हालत में सत्ता में नहीं हो सकते। प्रतिभा इनको बरदाश्त नहीं
करेगी। इनकी हजार तरह की मूढ़ताएं न सहेगी। इनकी बुद्धूपन की बातें बरदाश्त न
करेगी। इनके थोथे वायदे, अब कब तक तुम धोखा खाओगे।
मगर तुम धोखे पर धोखा खाए चले जाते हो। प्रतिभा ही नहीं है।
देखने-सोचने की समझ ही नहीं है। तो राजनेता के हित में है कि लोगों में प्रतिभा न
हो। बस इतनी बुद्धि रहे कि दफ्तर का काम कर लें, फाइल को निपटा दें,
रेलगाड़ी चला लें, तांगा चला लें, रिक्शा खींच लें। इतनी प्रतिभा रह जाए बस कि उनकी उपयोगिता बनी रहे,
समाज उनका उपयोग कर सके--दुकान चला लें, हिसाब-किताब
लगा लें। बस कामचलाऊ प्रतियोगिता की जो दुनिया है वहां वे कुशल सिद्ध हों, इतनी प्रतिभा काफी है। इतनी प्रतिभा तो न्यूनतम प्रतिभा से ही पूरी हो
जाती है। तुम्हारे जीवन का शिखर कभी छुआ ही नहीं जाता। तुम्हारे भीतर जो तलवार है
उस पर धार कभी रखी ही नहीं जाती, उस पर जंग चढ़ाई जाती है।
और धर्मगुरु के भी हित में यही है। अन्यथा तुम सोचो, तुम किन बुद्धुओं के पीछे चलते हो! और क्या-क्या बुद्धूपन के काम करते हो!
कल राजकोट से किसी संन्यासी ने मुझे, अभी-अभी दिगंबर
धर्मगुरुओं में बड़े धर्मगुरु कानजी स्वामी चल बसे, तो उनकी
तस्वीर भेजी है। अखबार में छपी है। वे मर गए, शिष्यगण उनके
शरीर को जबरदस्ती पद्मासन में बिठलाने की कोशिश कर रहे हैं। मरे-मराए आदमी को
पद्मासन में बिठाल रहे हैं। जरूरत पड़ी होगी तो टांग तोड़ दी होगी, हाथ तोड़ दिया होगा, गर्दन मरोड़ दी होगी। आठ-दस
आदमियों का चित्र है, उनको जबरदस्ती ठोंक-पीट कर पद्मासन लगा
रहे हैं, क्योंकि बिना पद्मासन में मरेंगे तो मोक्ष कैसे
जाएंगे! वे चले ही गए जहां भी जाना हो, अब तो कोई भी नहीं है
वहां। उनको मरे दो दिन हो चुके, अड़तालीस घंटे में तो वे कहां
के कहां पहुंच गए होंगे! सातवें नरक को छू लिया होगा। उनको पद्मासन में बिठाया जा
रहा है। और मैं देख कर हैरान हुआ कि नंग-धड़ंग। जिंदगी भर तो वे वस्त्र पहने रहे,
लेकिन दिगंबर की आकांक्षा होती है कि उसका गुरु मोक्ष जाए। और मोक्ष
सिर्फ नंगे होओ तो ही जा सकते हो। कपड़े पहने आशा मत रखना कि मोक्ष चले जाओगे। चले
भी गए तो दरवाजे पर ही उतार लेंगे वे कि भैया कपड़े यहीं छोड़ो। और बड़े मजे की बात
है कि दिगंबर जैन सिवाय कपड़ा बेचने के और कोई काम नहीं करते। इनका काम ही कपड़ा
बाजार, कपड़ा मार्केट! वहीं दिगंबर अड्डा जमाए हुए हैं। कपड़ा
बेचते हैं और कपड़े को मोक्ष जाने नहीं देंगे।
मेरे एक प्रियजन हैं, संबंधी हैं। उनकी दुकान का नाम:
दिगंबर क्लाथ स्टोर। मैंने उनसे कहा, कुछ तो लाज-संकोच करो।
इसका नाम बदलो।
वे कहने लगे, इसमें क्या खराबी है?
मैंने कहा कि तुम दिगंबर का अर्थ समझते हो? इसको शुद्ध भाषा में लिखो तब तुमको खराबी समझ में आएगी--नंगों की कपड़ों की
दुकान। यह दिगंबर शब्द धोखा दे रहा है तुम्हें।
बोले कि यह बात तो सच है, मगर हमारे बाप-दादों
के समय से यह दुकान चली आ रही है। और किसी ने कभी यह न सोचा। कहने लगे कि मेरी
उम्र भी पैंसठ साल हो गई; जब मैं पंद्रह साल का था तब से
दुकान पर बैठा हूं। पचास साल! हर साल इस तख्ती को रंगते हैं, दीवाली पर साफ-सुथरा करते हैं। कभी सोची ही नहीं यह बात। तुम्हारी भी
खोपड़ी बड़ी उलटी है, वे मुझसे कहने लगे। तुम भीतर आए, पहले ही तुम्हें यह दिखाई पड़ गया। बात तो सच्ची है, कहने
लगे। पर उन्होंने कहा, और भी सब दिगंबर यही काम करते हैं,
चाहे दुकान का नाम कुछ भी हो, कपड़ा ही बेचते
हैं।
मगर मोक्ष अगर जाना हो तो कपड़ा पहने नहीं जा सकते। तो मर गए बेचारे
कानजी स्वामी। जिंदगी भर तो न कर पाए कपड़ा उतारने का काम, मगर अब मर कर शिष्यों ने करवा दिया। कपड़े उतार दिए। और फिर मरना भी क्या
ऐसे-वैसे, पद्मासन में मरना! सो मुर्दे को पद्मासन लगवा रहे
हैं; जबरदस्ती लगवा रहे हैं। और अब डर भी क्या है, अगर दो-चार पसलियां भी टूट जाएं तो क्या हर्जा है! अब यूं भी आग में चढ़ाना
है। पद्मासन लगवा कर, नंगा करके अर्थी पर चढ़ा दिया, पहुंचा दिया मोक्ष!
बुद्धुओं की जमात है। मगर यह उन्हीं ने समझाया है। जो ये शिष्य कर रहे
हैं, ये बेचारे अपनी बुद्धि से नहीं कर रहे हैं। यह उन्हीं
ने समझाया है। वे ही जिंदगी भर यह समझाते रहे। उनके ही समझाने का यह परिणाम है कि
शिष्यगण यह व्यवहार उनके साथ कर रहे हैं।
धर्मगुरु किस-किस तरह की मूढ़ताओं में लोगों को बांधे हैं! यह संभव तभी
हो सकता है जब तुम्हारे भीतर से प्रतिभा को बिलकुल ही खतम कर दिया जाए। और प्रेम
क्या मर जाता है, आत्मा ही मर जाती है। फिर तुम्हारे पास प्रेम के नाम
से जो बचता है वह केवल निपट वासना है--शारीरिक वासना। और शारीरिक वासना जब प्रेम
का पर्याय बन जाए तो स्वभावतः तुमको खुद ही लगने लगता है कि प्रेम यानी ग्लानि की
बात, बुरी बात, पाप।
प्रेम बहुत कुछ है। जैसे आदमी शरीर ही नहीं है, मन भी है; मन ही नहीं है, आत्मा
भी है; आत्मा ही नहीं है, परमात्मा भी
है--ऐसे ही प्रेम भी शरीर ही नहीं है। वासना प्रेम का शरीर है। काव्य प्रेम का मन
है। प्रार्थना प्रेम की आत्मा है। और परमात्मा का अनुभव प्रेम की पराकाष्ठा है।
प्रेम के सोपान हैं। मगर जब सब सोपान तोड़ दिए तो फिर एक ही बचा।
अब तुम मजा देखो। यही धर्मगुरु प्रेम की ऊंचाइयों को तोड़ देते हैं, संभावनाओं को नष्ट कर देते हैं, फूल खिलने नहीं देते
और फिर कहते हैं--है क्या, जड़ें ही जड़ें हैं! अंकुर निकलने
नहीं देते और फिर जड़ें उठा-उठा कर बताते हैं कि देखो कितनी कुरूप और भद्दी! जड़ें
तो कुरूप और भद्दी होती ही हैं। फिर जड़ों को घुमा-घुमा कर लोगों को समझाते हैं कि
देखो, यह है प्रेम। प्रेम पाप हो जाता है फिर। प्रेम,
जो कि परमात्मा हो सकता था, वह पाप हो कर
समाप्त हो जाता है। और जिस जीवन में प्रेम पाप हो गया वहां उदासी छा जाएगी। फिर जो
प्रेम की बात करेगा, वह पाप का प्रचार कर रहा है ऐसा प्रतीत
होगा। क्योंकि तुम्हारी भाषा में प्रेम का एक ही अर्थ हो जाएगा: वासना, कामना।
प्रेमानंद, इसीलिए पलटू को कहना पड़ा: सहज आसिकी नाहिं। प्रेम
आसान नहीं है, क्योंकि लोगों ने दीवारें खड़ी कर दी हैं,
पत्थर अटका दिए हैं, चट्टानें अड़ा दी हैं। फिर
या तो क्षुद्र प्रेम रह जाता है। बच्चे पैदा करो, वही प्रेम
का कुल मात्र, कुल गणित रह जाता है। और स्वभावतः उससे कोई
कैसे राजी हो सकता है? तो फिर साधु-संन्यासियों की बातें ठीक
मालूम होने लगती हैं कि ठीक ही तो कहते हैं कि अरे रखा क्या है प्रेम में, जंजाल है! और या फिर कवियों के हाथ में रह जाता है प्रेम। वे बेचारे
कल्पना का जाल बुनते रहते हैं। अनुभव तो उन्हें कुछ होता नहीं। अनुभव करने का तो
यहां उपाय नहीं छोड़ा गया है।
दश्तेत्तनहाई में ऐ जाने-जहां लर्जा हैं
तेरी आवाज के साए, तिरे ओंठों के सराब
दश्तेत्तनहाई में दूरी के खस-ओ-खाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं कुरबत से तिरी सांस की आंच
अपनी खुश्बू में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर उफक पार, चमकती हुई कतरा-कतरा
गिर रही है तिरी दिलदार नजर की शबनम
इस कदर प्यार से, ऐ जाने-जहां रक्खा है
दिल के रुख्सार पे इस वक्त तिरी याद ने हाथ
यूं गुमां होता है, गरचे है अभी सुब्हे-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन, आ भी गई वस्ल की रात
बस कल्पनाएं ही हाथ में रह जाती हैं।
दश्तेत्तनहाई में ऐ
जाने-जहां लर्जा हैं
इस एकांत रूपी जंगल में, ओ मेरी प्रेमिका!
मरीचिकाएं, कल्पनाएं कंपाएमान हो रही हैं।
दश्तेत्तनहाई में ऐ जाने-जहां लर्जा हैं
तेरी आवाज के साए, तिरे ओंठों के सराब
दश्तेत्तनहाई में दूरी
के खस-ओ-खाक तले
बड़ी दूरी है और जंगल का भटकाव है। और कूड़ा-करकट, घास और मिट्टी के नीचे
खिल रहे हैं
तिरे पहलू के
समन और गुलाब
बस कल्पना ही रह जाती है।
उठ रही है कहीं कुरबत से तिरी सांस की आंच
अपनी खुश्बू में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर उफक पार...
क्षितिज के पार!
...चमकती
हुई कतरा-कतरा
गिर रही है
तिरी दिलदार नजर
की शबनम
सपने संजोओ, सपने बसाओ।
दूर उफक पार, चमकती हुई कतरा-कतरा
गिर रही है तिरी दिलदार नजर की शबनम
इस कदर प्यार
से, ऐ जाने-जहां
रक्खा है
सुनना--
इस कदर प्यार से, ऐ जाने-जहां रक्खा है
दिल के रुख्सार
पे इस वक्त
तिरी याद ने हाथ
खुद प्रेयसी ने हाथ नहीं रखा है, प्रेयसी की याद ने
हाथ रखा है।
इस कदर प्यार से ऐ जाने-जहां रक्खा है
दिल के रुख्सार पर...
दिल के कपोल पर।
...इस वक्त तिरी याद ने हाथ
तेरी स्मृति ने। यूं गुमां होता है--ऐसा वहम होता है, ऐसा भासता है।
यूं गुमां होता
है, गरचे है अभी
सुब्हे-फिराक
अभी विरह की सुबह ही चल रही है। अभी कुछ मिलन नहीं हुआ। अभी यात्रा का
पहला पड़ाव भी नहीं आया। अभी यात्रा चल ही रही है।
यूं गुमां होता है, गरचे है अभी सुब्हे-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन...
मगर ऐसा वहम हो रहा है। ऐसा आभास हो रहा है कि वियोग का दिन ढल गया।
...आ भी गई वस्ल की रात
मिलन की रात आ भी गई। बस सब कल्पनाओं का जाल।
दो परिणाम हुए हैं प्रेम के दमन के: सामान्य आदमी के जीवन में प्रेम
केवल शुद्ध शारीरिक वासना होकर रह गया है; और जिनके पास काव्य
की क्षमता है, उनके पास प्रेम कल्पना होकर रह गया है।
तेरे ओंठों के फूलों की चाहत में हम
दार की खुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शमओं की हसरत में हम
नीमत्तारीक राहों में मारे गए
सूलियों पर हमारे लबों से परे
तेरे ओंठों की लाली लपकती रही
तेरी जुल्फों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चांदी दमकती रही
जब घुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहां तक कदम
लब पे हर्फे-गजल दिल में कंदीले-गम
अपना गम था गवाही तिरे हुस्न की
देख काइम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक राहों में मारे गए
तेरे ओंठों के फूलों की चाहत में हम
दार की खुश्क टहनी पे वारे गए
सूलियां लग जाती हैं जो प्रेम के रास्ते पर चलता है उसको।
तेरे ओंठों के फूलों की चाहत में हम
दार की खुश्क टहनी पे वारे गए
तेरे हाथों की शमओं की हसरत में हम
नीमत्तारीक राहों में
मारे गए
आधे अंधेरे से भरे हुए रास्तों पर हमारी गर्दनें कट गई हैं।
सूलियों पर हमारे
लबों से परे
हम सूलियों पर लटके रहे और हमारे ओंठों से बहुत दूर--
तेरे होंठों की लाली लपकती रही
तेरी जुल्फों की मस्ती बरसती रही
तेरे हाथों की चांदी दमकती रही
जब घुली तेरी राहों में शामे-सितम
हम चले आए, लाए जहां तक कदम
लब पे हर्फे-गजल...
ओंठों पर तो कविता रही।
लब पे हर्फे-गजल दिल में कंदीले-गम
लेकिन दिल में तो दुख की मशाल जलती रही।
लब पे हर्फे-गजल दिल में कंदीले-गम
अपना गम था
गवाही तेरे हुस्न
की
हमारा जो दुख है वही तेरे सौंदर्य की एकमात्र गवाही है।
अपना गम था गवाही तेरे हुस्न की
देख काइम रहे इस गवाही पे हम
हम जो तारीक
राहों में मारे
गए
प्रेम के रास्ते पर जो चलता है वह तो बुरी तरह मारा जाता है। प्रेम की
बात ही पाप हो गई है। इसलिए प्रेमानंद, पलटू ठीक कहते हैं:
सहज आसिकी नाहिं। मरने की तैयारी चाहिए। और नहीं तो फिर कल्पनाओं का जाल है--बैठे
रहो, कविताएं करते रहो। और आज नहीं कल थक जाओगे; थक जाओगे, फिर रोओगे।
फिर कोई आया दिले-जार! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग
सो गई रास्ता तकत्तक के हर इक राहगुजार
अजनबी खाक ने धुंदला दिए कदमों के सुराग
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा
फिर जल्दी ही सब कल्पनाएं थक जाती हैं। जल्दी ही पता चलता है कि
जिंदगी बीत गई, कविताएं ही करते रहे।
गुल करो शमएं...
तो बुझा दो ये शमएं। बुझा दो ये दीए।
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग
और अब तो शराब बढ़ा दो, कि पी लें, बेहोश हो जाएं, भूल जाएं।
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग
अपने बेख्वाब किवाड़ों
को मुकफ्फल कर लो
और बंद कर लो अपने दरवाजों को। बहुत खुला रखा, बहुत राह देखी।
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो
अब यहां कोई
नहीं, कोई नहीं
आएगा
यूं जिंदगी रीत जाती है--कुछ लोगों की छुद्र वासना में और कुछ लोगों
की ऊंची-ऊंची कल्पनाओं में, मगर हाथ किसी के कुछ भी लगता नहीं है। इतनी बाधाएं
खड़ी की हैं समाज ने, व्यवस्था ने कि अगर तुम ध्यान का बल न
संजो पाओ अपने में, तो निकल न पाओगे इन जंजीरों से। यह
कारागृह तोड़ा न जा सकेगा। ये बेड़ियां तुम्हें बांधे ही रहेंगी। ये बेड़ियां तब से
तुम्हारे पैरों में पड़ जाती हैं जब तुम झूले में थे और तब तक नहीं छूटतीं जब तक
तुम कब्र में नहीं उतर जाते। झूले से लेकर कब्र तक बस बेड़ियों की खनखनाहट है। चाहो
तो तुम इसे संगीत कहो; जंजीरों की झनझनाहट है, चाहो तो तुम इसे पायलों की झनकार कहो। समझा लो अपने मन को। मगर कैदियों की
तरह तुम जीते हो और कैदियों की तरह मर जाते हो।
और चूंकि मैं चाहता हूं कि तुम स्वतंत्र होकर जीओ--वही मेरे संन्यास
का अर्थ है--तो देखते हो मुझे कितनी गालियां पड़ रही हैं!
मेरा कसूर क्या है? सिर्फ इतना कि मैं प्रेम को
सम्मान देता हूं। सिर्फ यही मेरा कसूर है, यही मेरा पाप है
कि मैं कहता हूं प्रेम में परमात्मा को पाने की क्षमता छिपी है; इसे रोको मत। यह झरना अगर बह सके तो सागर तक पहुंच सकता है।
आ कि बाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीखाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फत में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफसाना बना रक्खा था
आश्ना हैं तेरे कदमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवां गुजरे हैं जिन से उसी रानाई के
जिसकी इन आंखों ने बेसूद इबादत की है
तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएं जिनमें,
उसके मलबूस की अफसुर्दा महक बाकी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाकी है
तूने देखी है वो पेशानी, वो रुख्सार, वो ओंठ
जिंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आंखें
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने
हम पे मुश्तरका हैं एहसान गमे-उल्फत के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं
हमने इस इश्क में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज तिरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं
आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के, दुख-दर्द के माने सीखे
जेरदस्तों के मुसाइब को समझाना सीखा
सर्द आहों के, रुखे-जर्द के माने सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलखते हुए सो जाते हैं
नातुवानों के निवालों पे झपटते हैं उकाब
बाजू तोले हुए मंडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाजार में मजदूर का गोश्त
शाहराहों पे गरीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फाकामस्तों को डुबोने के लिए कहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पे मुझे काबू ही नहीं रहता है
कवि लिखते रहे इंकलाब की बातें भी, बगावत के गीत भी। मगर
कवियों से कहीं बगावत हो सकती है! गीत ही रच सकते हैं, गीत
ही गुनगुना सकते हैं। उनके गीत बांझ हैं। उनके गीत नपुंसक हैं। सिवाय ध्यान के न
कभी कोई क्रांति हुई है न हो सकती है। ध्यान का अर्थ है: हटा दो सारी अड़चनें,
जो दूसरों ने तुम पर थोप दी हैं; हटा दो सारे
विचार और पक्षपात--जाति के, समाज के, देश
के, धर्म के, मजहब के, फिरकापरस्ती के, मतवादों के, सिद्धांतों
के, शास्त्रों के। हटा दो सारे पत्थर और सारी चट्टानें और बह
जाने दो प्रेम के झरने को।
साहस चाहिए, क्योंकि तुम्हें भीड़ के विपरीत जाना होगा। इसलिए पलटू
कहते हैं, प्रेमानंद: सहज आसिकी नाहिं। बड़ी हिम्मत जुटानी
होगी। हो सकता है सूली दे समाज; आखिर जीसस को दी। हो सकता है
गर्दन काट दे; आखिर मंसूर और सरमद की काटी! हो सकता है जहर
पिलाए; आखिर सुकरात को, मीरा को
पिलाया!
मगर प्रेम के लिए सब कुर्बान करने जैसा है।
और प्रेम को विराट करना है। वह व्यक्तियों पर केंद्रित हो जाए तो
वासना हो जाता है। वह फैलता चला जाए--वृक्षों पर फैले, पहाड़ों पर फैले, तारों पर फैले, फैलता चला जाए। धीरे-धीरे प्रेम रिश्ता-नाता न रह जाए, बल्कि तुम्हारा गुण हो जाए। और अंततः गुण भी न रह जाए, तुम्हारी सत्ता हो जाए। तुम प्रेमपूर्ण हो जाओ पहले और फिर प्रेम ही हो
जाओ। जिस दिन तुम प्रेम हो जाओगे उसी दिन परमात्मा का अनुभव है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपने प्रीति, जरीन और तरु के मोटापे का जिक्र किया। आप मुझे क्यों भूल गए?
* शश्शो,
अभी तुझे बहुत आगे जाना है। कहां जरीन और कहां तू! जरीन को रखो एक
तराजू के पलड़े पर और तुझे रखो दूसरे पर, तो कम से कम तीन
शश्शो चढ़ाना पड़े। अभी तू बहुत दूर है। मगर कोशिश करती रह। सहज राजयोग साध। सहज
राजयोग यानी कुछ न करना, पलंग पर पड़े रहना। तेरा समय भी आएगा,
तेरा जिक्र भी करेंगे।
ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल,
किसी-किसी के भाग्य में लिखी ठोस फुटबॉल।
लिखी ठोस फुटबॉल, न करती घर का धंधा,
आठ बज गए किंतु पलंग पर पड़ा पुलंदा।
कहं काका कविराय, खाय वह ठूसमठूंसा,
यदि ऊपर गिर पड़े, बना दे पति का भूसा।
चरैवेति, चरैवेति! अभी तू चली चल, बढ़ी
चल।
एक मोटा आदमी डाक्टर के पास गया और बोला कि डाक्टर साहब, जब मैं रात को सोता हूं तो मेरा मुंह खुला रह जाता है इसका कुछ इलाज करिए।
डाक्टर ने उसके शरीर पर निगाह डाल कर कहा, चिंता की कोई बात नहीं। आपके मुंह की चमड़ी थोड़ी छोटी पड़ गई है और मुंह
काफी मोटा हो चुका है, तो जब आप आंख बंद करते हैं तो
स्वभावतः आपका मुंह खुल ही जाएगा। अरे भई एक ही चीज बंद कर सकते हो, चमड़ी छोटी पड़ गई है। आंख बंद की तो मुंह खुला, मुंह
बंद करो तो आंख खुल जाएगी।
अभी शशि, तू बहुत दूर। अभी काफी सोपान चढ़ने हैं।
पांच वर्षीय मोटूराम ने, जिनका वजन पैंसठ किलो
था, एक दिन अपनी मां से कहा, मम्मी-मम्मी,
आपने एक दिन कहा था कि मुझे अजायबघर घुमाने ले जाएंगी। बताइए न कब
ले जाएंगी? मां ने कहा, अभी समय नहीं
आया बेटा, बेटा थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो, वक्त आने पर अजायबघर वाले आकर तुम्हें स्वयं ले जाएंगे।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आपने कहा कि सिंधी और सांप रास्ते में मिल जाएं
तो पहले सिंधी को मारो। सांप का काटा बच सकता है, सिंधी का काटा नहीं। यह बात आंशिक सच हो सकती है, पर
पूरी सच नहीं। सभी सिंधी तो ऐसे नहीं होते। सिंधियों में भी सिद्ध पुरुष होते हैं।
आप सिंधियों का इतना मजाक तो न उड़ाएं।
* मेलाराम असरानी,
तुम समझे ही नहीं। तुम बात ही चूक गए। न समझ कर तुमने सिद्ध ही कर
दिया कि पक्के सिंधी हो। क्या कहते हो कि यह बात आंशिक सच है? अरे यह पूरी-पूरी सच है, सौ प्रतिशत सच है। और तुम
क्या सिंधी होकर बेशर्मी की बात कहते हो कि सभी सिंधी ऐसे नहीं होते, सिंधियों में भी सिद्ध पुरुष होते हैं। कभी नहीं, सभी
सिंधी सिद्ध पुरुष हैं! कुछ तो संकोच करो, कुछ तो लाज रखो!
और इसीलिए तो कहावत है कि सिद्ध का काटा नहीं बचता। तुम समझे ही नहीं बात को।
अब जैसे मैं किसी को काटूं, बचेगा? कभी नहीं बच सकता। जिन्होंने कहावत रची बड़ी सोच कर रची। फिर सुनो कहावत
को: सिंधी और सांप रास्ते में मिल जाएं तो पहले सिंधी को मारो। सांप का काटा बच
सकता है, सिंधी का काटा नहीं। इसको यूं पढ़ो कि सिद्ध और सांप
रास्ते में मिल जाएं तो पहले सिद्ध को मारो, क्योंकि सांप का
काटा बच सकता है, सिद्ध का काटा नहीं। यह तो सिंधियों की
गौरव-गरिमा के लिए सूत्र बताया। यह तो किसी के लिए नहीं कहा गया ऐसा सूत्र जैसा
सिंधियों के लिए कहा गया है।
पुराने शास्त्र कहते हैं: आचार्यो मृत्युः। वही है आचार्य, जिसके पास जाकर मृत्यु घटित हो जाए। गुरु उसको ही कहते हैं जिसके पास
शिष्य मर जाए। और सिंधी तो गुरु नहीं--गुरु घंटाल! अरे पास जाने की जरूरत नहीं,
दूर से ही देख ले सिंधी कि खात्मा।
मगर तुम समझे नहीं। तुम उन थोड़े-से सिंधियों में से हो जो सिद्ध नहीं
हैं। बात बिलकुल उलटी है। थोड़े-से सिंधी मुश्किल से...यानी मुझे तो कभी-कभी
मुश्किल से एकाध-दो सिंधी मिले जो सिद्ध नहीं थे, नहीं तो सभी सिद्ध
पुरुष। तुम भी उनमें से एक हो मेलाराम असरानी, जो सिद्ध नहीं
हो। और जब सिद्ध नहीं तो क्या खाक सिंधी! अरे सिंध में ही पैदा हो गए, इससे कोई सिंधी हो जाओगे क्या? सिंधी होने के लिए
बड़ी तपश्चर्या करनी पड़ती है। पिछले जन्मों में जो ऋषि-मुनि रह चुके हैं...देखा
नहीं आए थे ऋषि-मुनि दो दिन पहले, जब वे एकदम छप्पर पर
उछल-कूद करने लगे थे। वे कौन थे? हनुमान के रूप में कौन आए
थे? ये ही अगले जनम में सिंधी होंगे। मगर तुम चूक गए।
रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के कूपे में सिर्फ दो व्यक्ति बैठे थे--एक
युवक और एक सिंधी बाई। युवक च्युंगम चबा रहा था और खामोश था। थोड़ी देर की खामोशी
के बाद सिंधी बाई उसके पास आकर बैठी और बोली, आप बहुत अच्छे हैं,
बहुत प्यारे हैं। इतनी देर से आप मुझसे बातें कर रहे हैं, लेकिन आपको एक बात बता दूं कि मैं पूरी तरह बहरी हूं।
मेलाराम असरानी, मैं तो च्युंगम चबा रहा हूं और
तुम कुछ का कुछ समझ रहे हो।
चंदूलाल ने सेठ बुधरमल से कहा, यार मेरी पत्नी सारा
दिन मुझे हुक्म ही देती रहती है। कभी झाडू लगाने को कहती है, कभी बरतन साफ करने को, कभी खाना बनाने को। क्या
तुम्हारी पत्नी भी ऐसा करती है?
सेठ बुधरमल बोले, नहीं यार, कभी
नहीं। मैं तो सुबह उठ कर चाय और नाश्ता तैयार करके अपनी पत्नी को हुक्म देता
हूं--उठो मेम साहब, चाय और नाश्ता तैयार है!
सेठ बुधरमल ने अपने बेटे से पूछा, क्यों रे हरामजादे,
तू यह मुर्गा कहां से लाया?
बेटा थोड़ा डरा, क्योंकि और भी चार आदमी बैठे थे। मगर बाप ऐसा तमतमाया
था कि बेटे ने कहा कि अब आपसे क्या छुपाना, चुराया है। बुधरमल
विजयी मुस्कान से पास खड़े लोगों से बोले, देखा तुमने,
अरे है तो बेटा मेरा! चुरा सकता है, मगर झूठ
नहीं बोल सकता।
अब इनको तुम सिद्ध पुरुष न कहोगे तो क्या कहोगे?
एक बार सेठ बुधरमल का छोटा लड़का नंगा ही कक्षा में पहुंच गया। शिक्षक
बहुत नाराज हुए। कहे कि जाओ, चड्डी पहन कर आओ। और अपने साथ
में पिताजी को भी लेकर आना। यह क्या हरकत है?
बच्चा कुछ देर बाद चड्डी पहन कर स्कूल पहुंचता है। शिक्षक कहते हैं, पिताजी को लेकर क्यों नहीं आए? जाओ पिताजी को लेकर
आओ।
बच्चे ने एक-दो बार कहा कि पिताजी नहीं आ सकते।
शिक्षक ने कहा, क्यों नहीं आ सकते?
बच्चा बोला, क्योंकि घर में चड्डी एक है और वह मैं पहन कर आ गया
हूं। क्यों नहीं आ सकते--बार-बार वही बात पूछे चले जा रहे हो!
और तुम कहते हो, कुछ सिंधी गड़बड़ होते हैं,
सब नहीं। अरे सब सिद्ध पुरुष हैं! गड़बड़ तो शायद कोई एकाध कभी मिल
जाए तो बात अलग।
टॉनिक बनाने वाली यू.एस.ए. अर्थात उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन की एक
कंपनी ने एक अदभुत टॉनिक बनाया। एक सिंधी महिला ने उस टॉनिक का उपयोग किया और
प्रशंसापत्र इन शब्दों में लिखा: आपका टॉनिक निस्संदेह बहुत कारगर है। पहले मैं
अपने बच्चे तक को भी पीट नहीं सकती थी। टॉनिक लेने के बाद अब घर के सारे काम-काज
कर लेती हूं और बाद में पति को भी एक-दो हाथ जमा देती हूं। धन्यवाद आपका!
झामनदास अपने गुरु साईं चूहड़मल फूहड़मल से आठ साल बाद मिले तो गुरुदेव
ने पूछा, क्यों भाई, जब पिछली बार मिले
थे तो आपकी शादी को हुए चार साल हो चुके थे, पर कोई बच्चा
वगैरह नहीं हुआ था। अब क्या हाल हैं? कोई बच्चा वगैरह हुआ या
नहीं?
झामनदास खुश होते हुए बोले, हां-हां, ऊपर वाले की कृपा से कुछ महीनों पूर्व ही एक बेटा हुआ है।
साईं चूहड़मल फूहड़मल बड़े आश्चर्य से बोले, तो क्या आप अपने ऊपर नए किराएदार रख लिए हैं?
और तुम कह रहे हो कि कुछ! मैं मानूं तो कैसे मानूं?
अखबारों में एक विज्ञापन निकला है: कीटनाशक--यू.एस.ए. के वैज्ञानिकों
की महान खोज; कीमत मात्र पचास रुपए; डाक खर्च
अलग। हजारों प्रयोगों के निष्कर्षों से अब यह भलीभांति सिद्ध हो चुका है कि हमारे
प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया यह कीटनाशक सभी प्रकार के कीड़ों-मकोड़ों,
मक्खी-मच्छरों, इल्लियों, पतंगों, काकरोचों और जुएं, खटमलों
आदि का सौ प्रतिशत विनाश करने में सक्षम है। डी.डी.टी. वगैरह के प्रयोग से
मनुष्यों एवं पालतू पशुओं के स्वास्थ्य में हानि पहुंचने की संभावना रहती है,
किंतु इसका प्रयोग पूर्णतः हानिरहित है। दूसरी खूबी यह है कि अवधि
के पश्चात कीड़े-मकोड़े रासायनिक कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी, रेसिस्टेंट हो जाते हैं, लेकिन हमारे इस कीटनाशक से
इसकी कोई संभावना ही नहीं है। यह आज जितना असरदार है, आज से
सौ साल बाद भी उतना ही असरदार रहेगा इसकी गारंटी है। इस सबके बावजूद भी अगर आप यह
सिद्ध कर दें कि इससे कीट-पतंग नहीं मरते तो हम आपको एक लाख रुपयों का नगद
पुरस्कार देंगे।
ढब्बू जी ने मच्छरों से परेशान होकर इस कीटनाशक को बुलाया। मैंने
दूसरे दिन उनसे पूछा कि कहिए ढब्बू जी, कैसा रहा उसका असर?
उन्होंने आग-बबूला होकर बताया कि इन हरामजादों ने एक छोटी-सी चिमटी
भेजी है और एक छोटी-सी हथौड़ी। साथ में एक सूचना है कि किसी भी कीड़े को इस चिमटी से
पकड़ कर हथौड़ी से मारिए। यदि न मरे तो लौटती डाक से तुरंत हमें सूचित करिए। हम आपको
फौरन एक लाख रुपयों का नगद पुरस्कार भेज देंगे।
सिंधी तो सभी सिद्ध पुरुष हैं।
सेठ बुधरमल पानी के जहाज से यात्रा पर निकले हुए थे। एक दिन बड़ा जोर
का तूफान आया, जहाज डगमगाने लगा। यात्री बड़े घबड़ाए और तभी डैक पर
पहुंच गए। वहां जाकर देखा कि एक व्हेल मछली भी जहाज के साथ-साथ चल रही है। और उसी
के शरीर के धक्कों से जहाज की हालत खराब होती जा रही है। घबड़ाए यात्रियों ने व्हेल
को भगाने के अनेक प्रयास किए मगर वह जाने का नाम ही न ले। उसके खुले मुंह में
टेबलें, कुर्सियां, जो भी हाथ में आया
लोगों ने फेंका। मगर वह कुछ समय के लिए गायब हो और फिर आ जाए। जहाज लगातार उसके
धक्कों से डगमगा रहा था। इस सारे हड़कंप के बावजूद भी सेठ बुधरमल शांत प्रसन्न
मुद्रा में मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। लोगों को उनकी यह प्रसन्नता बहुत खली।
उन्होंने कहा, सेठजी, क्या आपको पता
नहीं है कि जहाज कुछ ही समय में डूबने वाला है?
सेठ बुधरमल बोले, अरे तो डूबने दो, जहाज क्या मेरे बाप का है? अरे कल का डूबने वाला आज
डूब जाए, आज का डूबने वाला अभी डूब जाए।
यात्रियों ने कहा, सेठजी, जहाज
आपका नहीं, माना, मगर यह क्यों भूलते
हैं कि जहाज के साथ-साथ आपका भी खात्मा होने वाला है?
सेठ बुधरमल बोले, अरे मैं भी कम नहीं हूं, बीमा करवा रखा है। आज मौका मिला है इतने वर्षों बाद। अब पता चलेगा इन जीवन
बीमा वालों को।
सेठ की ऐसी बातों से लोग बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने उसे उठा कर व्हेल
के मुंह में फेंक दिया। धीरे-धीरे जहाज की सारी चीजें फल आदि भी उसके मुंह में
फेंके गए। लेकिन अंततः व्हेल ने जहाज को उलटा दिया और सारे यात्रियों को धीरे-धीरे
अपने अंदर कर लिया। यात्रियों ने अंदर जाकर जो दृश्य देखा वह विस्मयकारी था। अंदर
सेठ बुधरमल टेबल-कुर्सी लगाए बैठे थे और टेबल पर संतरे रख कर पचास-पचास पैसे में
संतरे बेच रहे थे।
और मेलाराम असरानी, तुम कहते हो कि सिंधियों में भी
सिद्ध पुरुष होते हैं! अरे सिंधी यानी सिद्ध। सिंधी का मतलब: बुंद समानी सिंध में,
सिंध समाना बुंद में। अब और क्या बचता है? बात
ही खतम हो गई, पूरा अध्यात्म-शास्त्र यहीं समाप्त हो जाता
है।
मेलाराम असरानी, अब तुम देर न करो, बहुत दिन तुम सहज राजयोग साध चुके, अब संन्यास की
तैयारी करो। जब यहां जमे ही हो तो फिर पूरे जम जाओ। यह क्या आना-जाना? अरे आवागमन से छुटकारा पाओ! और तुम हो सिद्ध पुरुष, इसमें
कोई शक नहीं। तुम्हें पता नहीं है, यह बात और। और यही मेरा
यहां काम है कि जो तुम्हें पता नहीं वह पता करवा दूं।
अब तुम कह रहे हो कि आप सिंधियों का इतना मजाक तो न उड़ाएं।
मजाक उड़ा ही कौन रहा है? भैया, कैसी बातें कर रहे हो? साईं, कुछ
तो समझो! मजाक उड़ा रहा हूं? यह तो सिंधियों की प्रशंसा में
दो शब्द कहे। थोड़ा कहा, ज्यादा समझना।
आज इतना ही।
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