मिट्टी में मिली खून की बूंद,
पुकार कर कहती है।
देखो उन भयाक्रांत आंखों को,
कहना चाह कह कर भी,
वह कुछ भी नहीं कह पा रही है।
फिर वही खून पुकार कर कहता है।
तुम मुझे बांट न सकोगे,
मैं फिर उठुंगा,
एक नन्हा बच्चा बन कर।
या एक सुंदर फूल बन कर।
इसी सिसकती धूल को पीकर।
पानी की आछादित तरंग पर मचल कर।
किसी पंछी के कंठों पर, मधुर गान बन कर।
या फिर ह्रदय में एक दर्द भरी चित्कार बन कर।
तुम यू न मिटा सकोगे,
मिटा कर भी मुझे।
मैं लहलहाता रहूंगा नित नव जीवन बन कर।
ये होली का रंग नहीं ऐ दोस्तों,
ये इंसानियत के सीने पर एक दाग है।
मत बाहाओ इतना बेदर्दी से तुम इसे।
तुम्हारी रगो में भी बहता है यही,
वो ही मां का दुध एक जीवन बन कर।
तुम्हें भी उन मां बहनों ने,
सीने से लगा कर के पाला होगा।
ये आहें ये सिसकियाँ, ये सैलाब,
उन्हीं मांऔ के है,
एक सबुब एक चितकार धीरे से सुनो
जिन आंखों में आंसू भी अब नहीं बचे,
पूछो उन वीरान सूनापन से,
पूँछों उन नस्ल के ठेके दारो से।
कैसे देखेगी फिर वो ये मंजर।
बनाने बाला भी भरता होगा,
ठन्डी आहें,
हाए, क्या हो गया इस आदमी को।
जो खुद अपना ही गला घोट रहा है।
हाय आद के पुतले,
तुझे आदमी कहने में शर्म आती है।
कहां है तेरी आदमियत, का वो गहना।
जिसे पहने कर अल्लाह के रूबरू होगा।
खो गया है तेरा स्पन्दन,
तू तो पाषाण हुआ जाता है।
स्वामी आनंद प्रसाद
‘मनसा’
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