गुरुवार, 10 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-01



देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पहला प्रवचन
एक मृत महापुरुष का जन्म
मेरे प्रिय आत्मन्!
वेटिकन पोप अमेरिका गया हुआ था। हवाई जहाज से उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहा, एक बात ध्यान रखना, उतरते ही हवाई अड्डे पर पत्रकार कुछ पूछें तो थोड़ा सोच-समझ कर उत्तर देना। और "हां' और "न' में तो उत्तर देना ही नहीं। जहां तक बन सके, उत्तर देने से बचने की कोशिश करना; अन्यथा अमेरिका में आते ही परेशानी शुरू हो जाएगी।
पोप जैसे ही हवाई अड्डे पर उतरा, वैसे ही पत्रकारों ने उसे घेर लिया और एक पत्रकार ने उससे पूछा, वुड यू लाइक टु विजिट एनी न्युडिस्ट कैंप, वाइल इन न्यूयार्क? क्या तुम कोई दिगंबर क्लब, कोई न्युडिस्ट क्लब, कोई नग्न रहने वाले लोगों के क्लब में, न्यूयार्क में रहते समय जाना पसंद करोगे?

पोप ने सोचा, हां और न में उत्तर देना खतरनाक हो सकता है। "हां' कहने का मतलब होगा कि मैं जाना चाहता हूं देखने। "न' कहने का मतलब होगा कि जाने से डरता हूं। उत्तर देने से बचने के लिए उसने उलटा प्रश्न पूछा। उसने पूछा, इज़ देयर एनी न्युडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क? कोई न्यूयार्क में नंगे लोगों का क्लब है? फिर बात दूसरी चल पड़ी। उसने सोचा कि छुटकारा हुआ।
लेकिन दूसरे दिन सुबह अखबारों में पहले ही पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में खबर छपी थी। खबर थी कि महामहिम परम पूज्य पोप ने हवाई अड्डे पर उतरते ही पत्रकारों से पहली बात यह पूछी, इज़ देयर एनी न्युडिस्ट क्लब इन न्यूयार्क? कोई नंगे लोगों का क्लब है न्यूयार्क में? यह उतरते ही पहली बात पत्रकारों से महामहिम पोप ने पूछी।
कुछ ऐसा ही मामला मेरे और पत्रकारों के बीच भी हो गया। लेकिन मेरे संबंध में और पत्रकारों के बीच में और पोप और पत्रकारों के बीच हुई बात में थोड़ा फर्क है। एक तो फर्क यह है कि मैंने "हां' और "न' में उत्तर दिए। मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं कि उत्तरों से बचने की कोशिश करूं। घुमाव-फिराव से मुझे कोई नाता और संबंध नहीं है। जो बात मुझे ठीक लगे और जैसी लगे वैसा ही कह देने को मैं कर्तव्य समझता हूं। मेरे उत्तरों तक तो ठीक था, लेकिन उन उत्तरों को इस तरह बिगाड़ कर, विकृत करके अधूरे प्रसंग के बाहर उपस्थित किया गया।
मैं तो यहां नहीं था, पंजाब था। लौटा तो यहां देख कर बहुत हैरानी मालूम पड़ी और आश्चर्य मालूम पड़ा कि चीजें इस रंग में भी पेश की जा सकती हैं। लेकिन मित्र तो घबड़ाए हुए थे। मैं खुश हुआ। मैंने कहा, इससे घबड़ाने की बात नहीं। एक लिहाज से पत्रकारों ने बड़ी कृपा की है और भविष्य में भी ऐसी ही कृपा करते रहेंगे तो अच्छा होगा। बहुत लोगों तक खबर पहुंच गई, बात पहुंच गई। कोई फिक्र नहीं कि गलत ढंग से पहुंची। लेकिन वे मुझे सुनने आ सकेंगे तो उन्हें ठीक बात का बोध हो सकेगा।
कई बार कुछ लोग जिन बातों को सोचते हैं कि अभिशाप बन जाएंगी, वे ही बातें वरदान भी बन सकती हैं।
मैं राजकोट गया, वहीं से लौटा आज। वहां मित्र बहुत घबड़ाए हुए थे। लेकिन परिणाम यह हुआ कि जहां दस हजार लोग मुझे सुनते थे, वहां बीस हजार लोगों ने मुझे सुना। वे समझ कर गए और आश्चर्य करते गए कि चीजों को यह रंग और रूप भी दिया जा सकता है। जो मैंने बात की थी, इन तीन दिनों में उसी संबंध में पूरी बात मुझे करनी है।
मेरी दृष्टि में भारत के दुर्भाग्यों में से एक दुर्भाग्य यह रहा है कि हम अपने महापुरुषों की आलोचना करने में आज तक भी समर्थ नहीं हो पाए। और जो कौम अपने महापुरुषों की आलोचना करने में समर्थ नहीं हो पाती, उस कौम के संबंध में दो ही बातें कही जा सकती हैं। एक तो यह कि वह अपने महापुरुषों को इस योग्य नहीं समझती कि उनकी आलोचना की जा सके या अपने महापुरुषों को इतना कमजोर और साधारण समझती है कि आलोचना में वे टिक नहीं सकेंगे।
मैं गांधी के संबंध में ये दोनों ही बातें मानने को तैयार नहीं हूं। मेरी समझ में गांधी कोई कागजी महापुरुष नहीं हैं कि आलोचना की वर्षा आएगी और उनका रंग-रोगन बह जाएगा। कुछ कागजी महापुरुष होते हैं उन्हें आलोचना से बचाया जाना चाहिए, क्योंकि वे आलोचना में खड़े नहीं रह सकते हैं। लेकिन गांधी को मैं कागजी महापुरुष नहीं मानता, वे कोई कागज की प्रतिमा नहीं हैं कच्चे रंग में रंगी हुई कि वर्षा आएगी आलोचना की और सब नष्ट हो जाएगा।
गांधी को मैं दुनिया के उन थोड़े से महापुरुषों में से एक मानता हूं, जो पत्थर की प्रतिमाओं की तरह हैं, जिन पर वर्षा होती है तो धूल बह जाती है, प्रतिमा और निखर कर प्रकट होती है।
गांधी कोई कच्चे महापुरुष नहीं हैं। लेकिन गांधी के पीछे जो अनुयायियों का वर्ग है, वह शायद स्वयं कच्चा है, इसलिए गांधी को भी कच्चा मान लेता है। खुद के भय ही हम अपने महापुरुषों पर भी आरोपित कर देते हैं। हमारी अपनी ही हालतें हम अपने महापुरुषों पर भी थोप देते हैं। गांधी की आलोचना निश्चित की जानी चाहिए। क्योंकि गांधी की आलोचना से गांधी का तो कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है, हमारा जरूर कुछ हित हो सकता है।
यह बात अत्यंत अप्रौढ़ और इम्मैच्योर मालूम होती है कि हम अपने महापुरुषों की सिर्फ पूजा करें और कभी कोई सृजनात्मक आलोचना, क्रिएटिव क्रिटिसिज्म करें। यह भी कुछ भय मालूम होता है पीछे कि कहीं हमारे महापुरुष की कोई भूल न खयाल में आ जाए।
ध्यान रखना चाहिए कि पृथ्वी पर ऐसा कोई मनुष्य कभी नहीं हुआ है जिससे भूलें न होती हों। एक बात का फर्क होता है--छोटे लोग छोटी भूलें करते हैं, महापुरुष बड़ी भूलें करते हैं। महापुरुष छोटी भूलें नहीं करते हैं।
लेकिन पृथ्वी पर कोई मनुष्य कभी नहीं होता जिससे भूल न होती हो। जिससे भूल नहीं होती है वह मोक्ष चला जाता है। उसे पृथ्वी पर आने की कोई जरूरत ही नहीं होती है।
लेकिन हमारे मन में यह घबड़ाहट रहती है कि हमारे महापुरुष की कोई भूल, कोई गलती खयाल में न आ जाए। इसलिए पूजा करो, प्रार्थना करो, उपासना करो, लेकिन विचार कभी मत करना।
क्योंकि ध्यान रहे, जैसे ही विचार शुरू होगा, आलोचना प्रारंभ होती है। बिना आलोचना के विचार कभी होता ही नहीं है। पूजा हो सकती है, स्तुति हो सकती है, प्रशंसा हो सकती है। लेकिन वह विचार नहीं है। और जो कौम अपने महापुरुषों पर विचार नहीं करती, उसके महापुरुषों का जीवन व्यर्थ हो जाता है, वह उसके कौम के काम में ही नहीं आ पाता है।
हम तीन-चार हजार वर्षों से यही कर रहे हैं! महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं, राम हैं। हमें उनकी पूजा करनी है, विचार उन पर कभी नहीं करना है? ध्यान रहे, जिन पर हम विचार नहीं करते हैं, उनका हमारे जीवन पर कोई संस्पर्श, हमारे जीवन को परिवर्तन करने वाला कोई भी प्रभाव कभी नहीं पड़ता है।
पूजा से हम रूपांतरित नहीं होते हैं, विचार से हम रूपांतरित होते हैं। और पूजा हो सकता है सिर्फ हमारी तरकीब हो महापुरुर्षों से बच जाने की।
और मुझे तो ऐसा ही लगता है कि जिससे हम बचना चाहते हैं, उसी को भगवान बना कर मंदिर में बिठा देते हैं। फिर हमारी झंझट समाप्त हो जाती है। कभी दो फूल चढ़ा आते हैं, कभी माला पहना आते हैं, कभी स्तुति कर लेते हैं, कभी जन्म-दिन मना लेते हैं और हमसे उसका फिर कोई संबंध नहीं रह जाता!
जिस महापुरुष को हमें व्यर्थ करना हो, उसकी हमने तरकीब निकाल ली है कि हम उसकी पूजा करेंगे, स्तुति करेंगे, लेकिन उस पर विचार नहीं करेंगे। क्योंकि विचार करने का परिणाम एक ही हो सकता है कि विचार करने से वह हमें इस योग्य मालूम पड़े कि हम अपने जीवन को बदलें।
लेकिन हम बहुत होशियार हैं, यह देश बहुत होशियार है, अपने-आपको धोखा देने में। यह देश सोचता है कि हम महावीर की पूजा करते हैं तो हम बड़ा भारी काम कर रहे हैं; कि हम बुद्ध की पूजा करते हैं तो शायद बुद्ध पर कोई उपकार कर रहे हैं, या गांधी की पूजा शुरू की है तो गांधी पर हमारा कोई अनुग्रह हो रहा है। इस भ्रांति में रहने की जरूरत नहीं है। महापुरुष पूजा के लिए न पैदा होते हैं, न उनकी पूजा की कोई लालसा है। और जिसके मन में पूजा की लालसा हो; वह और कुछ भी हो, महापुरुष नहीं हो सकता है।
महापुरुष का उपयोग यह है कि वह हमारे जीवन में, हमारे खून में, हमारे विचार में, हमारी प्रतिभा में प्रविष्ट हो सके।
और हमारी प्रतिभा में किसी को द्वार तभी मिलता है, जब हम विचार करते हैं, आलोचना करते हैं, खोजबीन करते हैं, अन्वेषण करते हैं, तब प्रवेश मिलता है हमारी प्रतिभा के भीतर।
हमारे सारे महापुरुष भारत की प्रतिभा के बाहर खड़े हुए हैं, मंदिरों में बंद। भारत के प्राणों में उनका कोई प्रवेश नहीं हो सका है।
मैं नहीं चाहता हूं कि पुराने महापुरुषों की तरह गांधी जैसा अदभुत व्यक्ति भी व्यर्थ हो जाए। इसलिए मैं चाहता हूं कि गांधी पर जितनी सतेज आलोचना और विचार हो सके उतना ही सौभाग्य मानना चाहिए। लेकिन वह जो गांधी के पीछे चलने वाले गांधीवादियों का तपका है, वह इस बात से बहुत घबड़ाता है। वह क्यों घबड़ाता है? वह इसलिए घबड़ाता है कि उसे डर है कि गांधी की आलोचना अंततः गांधीवादी की आलोचना बन सकती है। उसका भय। उसका भय यह नहीं है कि गांधी की आलोचना से उसको कोई परेशानी होने वाली है। उसका भय यह है कि गांधी की आड़ में वह खुद छिपा हुआ है और गांधी की आलोचना कहीं उसकी आलोचना न बन जाए। इसलिए वह गांधी की आलोचना और विचार करने से बचना चाहता है। वह कहता है पूजा के थाल चलाओ और गांधी को भगवान बना लो। मैं भगवान से एक ही प्रार्थना करता हूं कि कृपा करना, गांधी को भगवान मत बनने देना। क्योंकि जितने लोग हमारे पहले भगवान बन गए हैं, वे भगवान बनते ही व्यर्थ हो गए। समाज और देश के लिए उनका कोई उपयोग नहीं रह गया।
गांधी एक अदभुत व्यक्ति हैं। शायद पृथ्वी पर दो-चार लोग ही उस कोटि के पैदा हुए हैं। लेकिन पीछे चलने वाले लोग हमेशा महापुरुष की हत्या करने की कोशिश करते हैं। वह हत्या उनको भगवान बना कर की जाती है।
जिस आदमी को भी भगवान बना दिया, उसकी आदमी की तरह हत्या हो गई। भगवान की तरह स्थापना हो गई, आदमी की तरह हत्या हो गई।
और हम आदमियों से ही प्रभावित हो सकते हैं और आदमियों के साथ ही हम जी सकते हैं और आगे चल सकते हैं। गांधी के साथ फिर वही शरारत शुरू हो गई जो हमने राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर के साथ की थी। लेकिन हम अतीत की भूलों से कुछ सीखते भी मालूम नहीं पड़ते हैं।
मैं चाहता हूं कि गांधी को हम मनुष्य ही बनाए रखें, ताकि वे हमारी मनुष्यता के काम आ सकें। हम उन पर निरंतर विचार कर सकें, सोच सकें और आगे बढ़ सकें। इस खयाल से मैंने उनकी कुछ आलोचना की थी।
मुझे अनेक पत्र पहुंचे कि जो व्यक्ति मर चुका है उसकी आलोचना हमें नहीं करनी चाहिए। मैंने उन पत्रों के उत्तर में लिखा कि शायद तुम्हें पता नहीं है कि गांधी उन लोगों में से नहीं हैं जो इतनी आसानी से मर जाएं। गोडसे ने जो भूल की थी वही गांधीवादी भी भूल करते हैं। गोडसे ने भूल की थी कि गोली मार देंगे, इस आदमी का शरीर मर जाएगा, तो यह गांधी मर जाएगा। गांधीवादी भी समझते हैं कि शरीर गिर गया गांधी का तो गांधी मर गए। अब उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए।
यह बात ठीक है छोटे-मोटे लोगों के बाबत कि वे मर जाएं तो हमें उनकी प्रशंसा ही करनी चाहिए, क्योंकि मरे हुए आदमी की क्या आलोचना करनी है! एक बुरा आदमी भी गांव में मर जाता है तो भी उसकी कब्र पर लोग कहते हैं कि बड़ा अच्छा आदमी था। छोटे आदमियों के साथ यह ठीक है कि उन बेचारों के पास क्या है जो उनके मरने के बाद बच रहेगा!
लेकिन गांधी जैसे महापुरुषों के साथ यह अन्याय है कि हम समझें कि वे मर गए। मैं गांधी को, उनके प्रभाव को अभी जिंदा मानता हूं और उनके साथ एक जिंदा आदमी का व्यवहार करना चाहता हूं, एक मरे आदमी का नहीं। लेकिन गांधीवादी कहते हैं कि वे मर गए, अब उनकी बात नहीं करनी चाहिए।
शायद आपने सुना हो, कि सुकरात की जिस दिन मौत हुई, उसे जहर दिया गया। जहर देने के पहले उसके मित्र उसके पास गए और उसके एक शिष्य क्रेटो ने उससे पूछा कि सांझ आपको जहर दे दिया जाएगा तो आप हमें बता दें कि हम दफनाएंगे किस तरह आपको? किस विधि से, किस मार्ग से? गड़ाएं, जलाएं, क्या करें? आप रास्ता बता दें, वैसा हम करें।
पता है? सुकरात हंसने लगा और उसने क्रेटो से कहा, पागल, जो मेरे दुश्मन समझते हैं कि मुझे जहर देकर मार डालेंगे वही तुम समझते हो कि शरीर के मरने से मैं मर जाऊंगा और तुम मेरे दफनाने का विचार करने लगे हो!
मैं तुम्हें कहता हूं क्रेटो, कि तुम सब मर जाओगे, तुम सब दफना दिए जाओगे, तब भी मैं जिंदा रहूंगा!
आज ढाई हजार साल हो गए, सुकरात अभी जिंदा है। क्रेटो का नाम सिर्फ हमें इसीलिए याद है कि सुकरात ने वह नाम लिया था। क्रेटो कभी का मर चुका। वे साथी मर चुके, जिन्होंने सोचा होगा हम सुकरात को दफना रहे हैं, लेकिन सुकरात जिंदा है।
महान व्यक्ति का एक ही अर्थ होता है कि वह शरीर के पार उठ गया। अब शरीर के मिटने से उसके मिटने की कोई संभावना नहीं है।
मैं गांधी को एक जिंदा आदमी मान कर व्यवहार करना चाहता हूं। और मुझे लगता है कि अभी गांधी को गांधीवादी दफनाने की बात न करें तो बहुत अच्छा है। इतने जल्दी मरा हुआ मानने की जरूरत नहीं है। लेकिन वे भयभीत हैं कि कोई आलोचना न की जाए। और मैंने आलोचना क्या की है? मेरी आलोचना गांधी के विरोध में नहीं है, लेकिन गांधीवाद के विरोध में है। और मेरी दृष्टि है कि सच बात तो यह है कि गांधीवाद जैसी कोई चीज गांधी की कल्पना में थी ही नहीं। गांधी नहीं मानते थे कि उनका कोई वाद है। मानते थे कि जो उनकी अंतर्दृष्टि को ठीक मालूम पड़ता है, वह प्रयोग करते चले जाते हैं। उनका कोई सिस्टम, कोई रेखाबद्ध वाद नहीं है, लेकिन गांधी के पीछे जो गिरोह इकट्ठा हुआ, उसने गांधीवाद खड़ा कर रखा है।
दुनिया में हमेशा अनुयायी--पंथ, संप्रदाय और वाद खड़े करते हैं और जितने पंथ, संप्रदाय और वाद मजबूत हो जाते हैं, उतना ही हम और हमारे महापुरुषों के बीच एक पत्थर की दीवाल खड़ी हो जाती है, जिसको पार करना मुश्किल हो जाता है।
गांधी का कोई वाद नहीं है इन अर्थों में, लेकिन गांधी ने जीवन भर जो किया है, जो सोचा है, जो विचारा है, वह है, और उस पर हमें बहुत स्पष्ट निर्णय लेना जरूरी है, क्योंकि उसी निर्णय के आधार पर इस देश के भविष्य को बनाने का हम विचार करेंगे।
गांधीवादी कहते हैं कि उस पर विचार नहीं करना है। जो उन्होंने कहा है उसे वैसा ही मान लेना है। यह बात इतनी अंधी और खतरनाक है कि अगर इन सारी बातों को इसी तरह मान लिया गया तो गांधी की आत्मा भी आकाश में कहीं होगी तो रोएगी, क्योंकि गांधी खुद अपनी जिंदगी में हर वर्ष अपनी पिछली भूलों को स्वीकार करते रहे और मानते रहे कि जो भूलें हो गई हैं उन्हें छोड़ देना है। अगर गांधी जिंदा होते तो इन बीस वर्षों में उन्होंने बहुत सी भूलें स्वीकार की होतीं। लेकिन गांधीवादी कहता है कि अब हमें कोई भूल पर ध्यान नहीं देना है। जो कहा गया है उसे चुपचाप मान लेना है।
यह अंधापन बहुत महंगा साबित होगा। बुद्ध और महावीर को अंधेपन से मान लेने से उतना नुकसान नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्ध और महावीर ने व्यक्तिगत मनुष्य की आत्मोत्कर्ष की बात की है। हिंदुस्तान में एक पहले धार्मिक व्यक्ति थे गांधी जिन्होंने सामाजिक-उत्कर्ष का भी विचार किया है। बुद्ध और महावीर को माने लेने से एक-एक व्यक्ति भटक सकता है, गांधी को अंधेपन से मान लेने से पूरे समाज का भविष्य भटक सकता है, पूरा देश भटक सकता है। इसलिए गांधी पर विचार कर लेना बहुत जरूरी है।
गांधी एक अर्थों में अनूठे हैं भारत के इतिहास में। भारत के धार्मिक व्यक्ति ने कभी भी समाज, राजनीति और जीवन के संबंध में सीधी कोई रुचि नहीं ली है। भारत का महापुरुष सदा से पलायनवादी रहा है, उसने पीठ कर ली है समाज की तरफ। उसने मोक्ष की खोज की है, समाधि की खोज की है, सत्य की खोज की है--लेकिन समाज और इस जीवन का भी कोई मूल्य है यह उसने कभी स्वीकार नहीं किया।
गांधी पहले हिम्मतवर आदमी थे जिन्होंने धार्मिक होते हुए समाज की तरफ से मुंह नहीं मोड़ा। वे समाज के बीच में खड़े रहे और जिंदगी के साथ और जिंदगी को उठाने की उन्होंने कोशिश की। यह पहला धार्मिक आदमी था जो जीवन-विरोधी नहीं था, जिसका जीवन के प्रति स्वीकार का भाव था। स्वाभाविक पहले आदमी से बड़ी भूलें होनी संभव है। पायोनियर हमेशा भूलें करता है। वह पहले आदमी थे, एक नई दिशा में प्रयोग कर रहे थे और अगर हम उनको अंधे होकर माने लेंगे तो हम बहुत खतरनाक रास्तों पर जा सकते हैं।
जो बातें मैंने आलोचना की हैं उनमें से कुछ एक-दो सूत्रों पर आज और फिर आने वाले दिनों में बात करूंगा।
मेरी दृष्टि में भारत की बहुत प्राचीन समय से कुछ बुनियादी भूलों में एक भूल यह रही है कि हमने दरिद्रता को एक तरह की महिमा, एक तरह का गौरव, एक तरह का ग्लोरीफिकेशन किया है। हम दरिद्रता को एक तरह का सम्मान देते रहे हैं। हमने एक फिलासफी विकसित की है जिसको फिलासफी ऑफ पावर्टी कहा जा सकता है, दरिद्रता का एक दर्शन विकसित किया है। हमने यह स्वीकार कर रखा है पांच हजार वर्षों से कि दरिद्र होना भी कोई बड़े गौरव की बात है। और उसके साथ ही धन-संपदा, समृद्धि इनकी एक निंदा, इनका एक बहिष्कार भी हमारे मन में रहा है। परिग्रह का एक विरोध, अपरिग्रह की एक स्थापना। समृद्धि-विस्तार इसका विरोध, संकोच-दरिद्रता इसकी स्वीकृति हमारे खून में प्रविष्ट हो गई है।
मैं कहना चाहता हूं कि यह इस विचार का परिणाम है कि भारत पांच हजार वर्षों की लंबी सभ्यता के बाद भी दरिद्र है और समृद्ध नहीं हो पाया है। इस विचार का यह अंतिम परिणाम है।
गांधी ने जाने-अनजाने पुनः इसी दरिद्रता के दर्शन को फिर से सहारा दे दिया है। गांधी ने फिर दरिद्र को दरिद्रनारायण कह दिया है। दरिद्र नारायण नहीं है, दरिद्रता पाप है, दरिद्रता रोग है। उससे घृणा करनी है, उसे नष्ट करना है। दरिद्र को अगर हम पवित्र और भगवान और इस तरह की बातें करेंगे और दरिद्रता को महिमावंत करेंगे तो हम दरिद्रता को नष्ट नहीं कर सकते हैं, हम दरिद्रता को बनाए ही रखेंगे। हम दरिद्रता पर दया कर सकेंगे, सेवा कर सकेंगे दरिद्र की, लेकिन दरिद्र को मिटा नहीं सकेंगे। दरिद्र की सेवा की जरूरत नहीं है, दरिद्र के गुणगान की जरूरत नहीं है, दरिद्र को दया की जरूरत नहीं है, दरिद्र को पृथ्वी से समाप्त करना है, दरिद्र को नष्ट करना है, दरिद्र को नहीं बचने देना है। दरिद्रता के साथ एक महामारी का व्यवहार करना है। प्लेग और हैजा और मलेरिया के साथ हम जो व्यवहार करते हैं वह दरिद्रता के साथ व्यवहार करना है। लेकिन हिंदुस्तान की जो परंपरा है दरिद्रता की और त्याग की, गांधी के मन पर उसका प्रभाव है, सारे मुल्क के मन पर उसका प्रभाव है। हमने जाने-अनजाने हमारे अचेतन में, अनकांशस तक यह बात प्रविष्ट हो गई है कि दरिद्रता को कुछ गौरव है।
यह बहुत ही खतरनाक दृष्टि है, यह बहुत ही आत्मघाती दृष्टि है; क्योंकि जब हम दरिद्रता को इस भांति स्वीकार करते हैं, सम्मान देते हैं और दरिद्रता में संतोष कर लेने को एक धार्मिक गुण मानते हैं, तो फिर समाज समृद्ध कैसे होगा? समाज संपत्ति पैदा कैसे करेगा?
हम भी इसी पृथ्वी पर हैं, दूसरे देश भी इसी पृथ्वी पर हैं। हम पीछे इतिहास में उनसे कहीं ज्यादा समृद्ध थे जो आज हमें भीख दे रहे हैं। हम कहीं ज्यादा खुशहाल थे, आज हमें भीख मांगनी पड़ रही है। और शायद आगे भी हमें भीख ही मांगती रहनी पड़ेगी। अगर हमने अपने आज तक के जीवन को जीने की फिलासफी और व्यवस्था को रूपांतरित नहीं किया तो हम आगे भी यही करते चले जाएंगे, जो हमने पीछे किया है।
संपत्ति आसमान से पैदा नहीं होती है, संपत्ति श्रम से पैदा होती है। श्रम आकस्मिक नहीं होता, श्रम विचार से जन्म लेता है और अगर हमारे विचार में संपदा का विरोध है तो हम न श्रम करेंगे, न हम संपदा पैदा करेंगे।
यह जो भारत एकदम श्रम-शून्य मालूम पड़ता है--सुस्त, काहिल, अलाल मालूम पड़ता है, लेजी मालूम पड़ता है, यह लेजीनेस, यह सुस्ती, यह काम न करने की प्रवृत्ति, यह प्रवृत्ति उस विचार से पैदा होती है जो दरिद्रता में संतोष मानने की शिक्षा देता है। और यह भी ध्यान रहे कि बुद्ध और महावीर जैसे लोग राजघरों को छोड़ कर दरिद्र हो गए।
हिंदुस्तान में जैनियों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के लड़के थे। बुद्ध राजा के लड़के थे, राम और कृष्ण राजाओं के लड़के थे। हिंदुस्तान के ये सारे तीर्थंकर और अवतार राजपुत्र थे। ये सारे तीर्थंकर और बुद्ध राजमहलों को छोड़ कर दरिद्र हो गए और इनके दरिद्र होने से हमारी दरिद्रता के दर्शन को और सहारा मिला। लेकिन एक बात ध्यान रहे, अमीर आदमी का दरिद्र होना एक बात ही दूसरी है और दरिद्र का दरिद्रता में संतुष्ट हो जाना बात दूसरी है। इन दोनों बातों में बुनियादी फर्क है।
अमीर आदमी जब दरिद्र होता है तब वह अमीरी को जान कर दरिद्र होता है। अमीरी व्यर्थ हो गई, इसलिए दरिद्र होता है। उसकी दरिद्रता और उस आदमी की दरिद्रता जिसने कभी अमीरी नहीं जानी, भरपेट भोजन नहीं जाना, कपड़े नहीं जाने, इन दोनों की दरिद्रता में कोई भी संबंध नहीं है।
सच बात तो यह है कि अमीर जब दरिद्र होता है तो दरिद्रता भी एक आनंद मालूम होती है, क्योंकि दरिद्रता भी एक स्वतंत्रता मालूम होती है। गरीब आदमी जब दरिद्रता में संतोष कर लेता है तो वह संतोष सिर्फ दुख को छिपाने का और सांत्वना का एक उपाय होता है।
हिंदुस्तान के सारे बड़े शिक्षक राजघरानों से आए। वे राजघरानों से ऊब गए थे। वे संपत्ति से ऊब गए थे, परेशान हो गए थे। संपत्ति की अपनी परेशानियां हैं, दरिद्रता की अपनी परेशानी है, भिखमंगे की अपनी परेशानी है, राजघर की अपनी परेशानी है।
वे अपनी परेशानियों से पीड़ित हो गए थे, वे धन से घिरे हुए परेशान हो गए थे, वे स्त्रियां और सुख के बीच ऊब गए थे, उन्हें बदलाहट चाहिए थी। उन्होंने वह सब छोड़ कर सड़क पर नग्न खड़े हो गए। उन्हें उस नग्नता में बहुत स्वतंत्रता मालूम हुई होगी, उन्हें उस नग्नता में एक अदभुत मुक्ति मालूम हुई होगी।
वह मालूम हो सकती है, लेकिन वह हमेशा तभी मालूम होती है, जब कोई समृद्धि को लात मार कर दरिद्र बनता है। वह दरिद्रता समृद्धि के आगे का कदम है, समृद्धि के पहले का कदम नहीं है। वह दरिद्रता भी एक अर्थ में समृद्धि की लक्ज़री है, वह दरिद्रता भी समृद्धि का अंतिम विलास है। वह उसको भी लात मारने का मजा है। वह सुख गरीब आदमी नहीं उठा सकता।
लेकिन हिंदुस्तान के बड़े शिक्षक जब दरिद्र हुए, उन्होंने धन छोड़ा, तो दरिद्र को लगा कि जिस चीज को छोड़ ही देना पड़ता है उसे पाने की जरूरत क्या है। और उसे पता नहीं कि वह दरिद्र महावीर की दरिद्रता का मजा नहीं लूट पाएगा। महावीर की दरिद्रता बुनियादी रूप से क्वालिटेटिवली, गुणात्मक रूप से भिन्न है।
मैं अमृतसर था। एक संन्यासी मित्र एक घटना सुना रहे थे, वे घटना सुना रहे थे कि अमृतसर से एक ट्रेन जा रही थी हरिद्वार की तरफ। मेला है हरिद्वार में। हजारों लोग ट्रेन में भर रहे हैं। हरेक आदमी अमृतसर की स्टेशन पर यही चिल्ला रहा है कि चलो गाड़ी के अंदर भीतर बैठो, जल्दी भीतर चले जाओ, सामान रखो।
एक आदमी के पास भीड़ इकट्ठी है और वह यह कह रहा है कि मैं गाड़ी में बैठूं तो जरूर, लेकिन अमृतसर पर बैठता हूं, हरिद्वार में उतरना पड़ेगा न? जब उतरना ही पड़ेगा तो गाड़ी में बैठने की जरूरत क्या है? वह आदमी यह दलील दे रहा है कि जब उतरना ही पड़ेगा गाड़ी से, तो फिर गाड़ी में बैठे ही क्यों? जब उतरना ही है तो उतरे ही रहें।
मित्रों ने जबरदस्ती धक्के दिए और कहा, यह तर्क समझाने का समय नहीं है। अंदर बैठ जाओ, फिर तुम्हें समझाएंगे। गाड़ी जाने के करीब है। जबरदस्ती उस आदमी को भीतर ले गए, लेकिन वह आदमी यही चिल्लाता रहा कि जब उतरना ही है तो बैठने की जरूरत क्या है? फिर हरिद्वार आ गया, फिर सारी गाड़ी में दूसरी आवाज आने लगी कि उतरो, सामान उतारो, नीचे उतरो, जल्दी उतरो, कहीं गाड़ी न छूट जाए। वह मित्र उसको फिर समझा रहे हैं कि नीचे उतरो। वह कहता है कि जब चढ़ ही गए तो अब उतरना क्या? पहले ही मैंने कहा था कि चढ़ाओ मत अगर उतरना हो। अब जब चढ़ ही गए तो चढ़ ही गए, अब उतरना क्या? उसे जबरदस्ती नीचे उतारा वह व्यक्ति तर्क तो ठीक दे रहा है, यह बात सच है कि अमृतसर से जाना है हरिद्वार, तो गाड़ी पर चढ़ना भी होगा और उतरना भी होगा। और जो सोचता है कि जब उतरना ही है कभी जाकर तो चढ़ना ही क्या? तो वह फिर अमृतसर पर ही रह जाएगा हरिद्वार नहीं पहुंच सकता। और अगर हरिद्वार पर पहुंच कर उसने यह जिद्द की कि जब चढ़ ही गए तो अब उतरना ही क्या, तब भी वह हरिद्वार नहीं पहुंच पाएगा। दोनों हालत में हरिद्वार चूक जाएगा।
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि समृद्धि की एक यात्रा है जीवन में। निश्चित ही एक दिन समृद्धि छोड़ देने जैसी हो जाती है, लेकिन वह समृद्धि की यात्रा से ही होती है। और दरिद्र आदमी अगर यह सोचे कि जब महावीर और बुद्ध जैसे लोग छोड़ कर आ रहे हैं तो फिर मुझे परेशान होने की क्या जरूरत है। तो वह ध्यान रखे, उसकी दरिद्रता अमृतसर की दरिद्रता होगी, हरिद्वार की नहीं।
हिंदुस्तान के इन धनी शिक्षकों के कारण यह बात बड़ी अजीब और पैराडाक्सिकल। धनी शिक्षकों के कारण हिंदुस्तान दरिद्रता के दर्शन को विकसित कर लिया और दरिद्र ने अपनी दरिद्रता स्वीकार कर ली। जब उसने देखा कि राजमहलों को लोग छोड़ कर आ रहे हैं, तो फिर ठीक है, मुझे और राजमहलों की तरफ जाने का सवाल क्या है। और जब एक बार दरिद्रता स्वीकृत हो जाती है तो संपत्ति को उत्पादन करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। यह देश इसलिए गरीब है।
काउंट केसरलिंग हिंदुस्तान से लौटा, तो उसने अपनी डायरी में एक वाक्य लिखा। मैं पढ़ रहा था तो बहुत हैरान हुआ। मुझे लगा कि कोई छापेखाने की भूल होनी चाहिए। उसने एक वाक्य लिखा कि मैं हिंदुस्तान गया, वहां से लौटा हूं, तो एक अजीब नतीजा लेकर आया हूं, वह नतीजा यह कि इंडिया इज़ ए रिच लैंड, व्हेयर पुअर पिपुल लिव। कि हिंदुस्तान एक धनी देश है, जहां गरीब लोग रहते हैं।
मैं बहुत हैरान हुआ कि यह वाक्य कैसा हुआ? अगर धनी देश है तो गरीब लोग कैसे रहते होंगे? और गरीब लोग रहते हैं तो धनी देश कैसे है? कोई छापे की भूल है शायद, लेकिन आगे पढ़ने पर मुझे पता चला कि वह मजाक कर रहा है। वह यह कह रहा है कि देश तो बहुत धनी है, लेकिन रहने वाले मूढ़ हैं, वे गरीब बने हुए हैं। देश तो बहुत धन पैदा कर सकता है, लेकिन रहने वालों की जीवन-दृष्टि दरिद्र रहने की है, इसलिए वे संपत्ति पैदा नहीं कर पाते।
हिंदुस्तान की दरिद्रता नहीं मिटेगी, जब तक हम संपत्ति के प्रति भी एक स्वस्थ रुख लेने को राजी न हों। हमारा संपत्ति के प्रति अत्यंत अस्वस्थ, रुग्ण, अनहेल्दी रुख है। तो एक तरफ तो यह है कि हम संपत्ति का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ भीतर संपत्ति की लालसा भी करते हैं, क्योंकि दरिद्रता के भीतर यह असंभव है कि आप सच में संतुष्ट हो जाएं। कैसे संतुष्ट हो सकते हैं? जबरदस्ती थोप कर अपने ऊपर संतोष के कपड़े पहन लेंगे, लेकिन संतुष्ट हो कैसे सकते हैं? भीतर असंतोष की आग जलती ही रहेगी। इसलिए ऊपर से कहेंगे, कुछ मतलब नहीं है हमें, हम तो संतुष्ट हैं और भीतर लालसा,र् ईष्या और लोभ वह सब काम करते रहेंगे।
मैं एक फकीर के पास, एक संन्यासी के पास यहीं बंबई में कोई पांच-सात साल पहले मिलने गया था। एक मुनि हैं। बहुत उनके शिष्य हैं। बहुत लोग वहां इकट्ठे हो गए, मैं मिलने आया हूं, कुछ बात होगी। उन मुनि ने मुझे एक गीत सुनाया। गुजराती में वह गीत उन्होंने बनाया था। उसका अर्थ मुझे समझाया। सुनने वाले बैठ कर सिर हिलाने लगे और कहने लगे, वाह, वाह! में बहुत हैरान हुआ। क्योंकि उस गीत का मतलब यह था कि वह संन्यासी उस गीत में यह कहते हैं कि तुम अपने राजमहल में खुश हो, रहो, हम अपनी धूल में भी आनंद में हैं। तुम स्वर्ण के सिंहासन पर बैठे हो, बैठो, हमें तुम्हारे स्वर्ण के सिंहासन से कोई भी मतलब नहीं, हम लात मारते हैं स्वर्ण के सिंहासन पर, हम तो अपनी धूल में ही मस्त हैं, हम तो फकीर हैं। इस तरह का भाव था।
पूरा गीत कह कर वे मुझसे पूछने लगे, कैसा लगा?
मैंने कहा कि मैं बहुत हैरान हुआ। मैं इसलिए हैरान हुआ कि अगर आपको राजमहलों से कोई मतलब नहीं, अगर आपको स्वर्ण-सिंहासनों से कोई मतलब नहीं, तो उनकी याद क्यों आती हैं? उनके गीत क्यों लिखते हैं? मैंने किसी सम्राट को कभी ऐसा गीत लिखते नहीं देखा, नहीं सुना कि उसने कहा हो कि हम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर ही ठीक हैं, हमें तुम्हारी धूल से कुछ भी नहीं लेना, तुम रहो मजे में, हम उपेक्षा करते हैं, हमें कोई फिक्र नहीं। कोई सम्राट ऐसा नहीं कहता, लेकिन ये फकीर निरंतर यह बात कहते हैं कि हमें स्वर्ण-सिंहासन से कोई मतलब नहीं।
मतलब नहीं है तो यह गीत क्या बताते हैं? ये मतलब बताते हैं, मतलब बहुत गहरा है और भीतरी है। स्वर्ण-सिंहासन मन को खींचता है। संतोष से मन को रोका हुआ है। संतोष से जो मन को रोकता है और स्वर्ण-सिंहासन की भीतर लालसा है, वह स्वर्ण-सिंहासन को गाली देना शुरू कर देगा, ताकि संतोष करने में सुविधा मिले।
हिंदुस्तान, पूरा का पूरा हिंदुस्तान भौतिकवाद को गालियां देता है। वह आदमी भौतिकवादी है, पश्चिम मैटीरियलिस्ट है। जितना तुम भौतिकवाद को गालियां देते हो, उतना तुम खबर लाते हो कि तुम्हारे प्राणों में भौतिकवाद की आकांक्षा है।
मन के नियम बहुत अजीब हैं।
एक आदमी अगर अपनी स्त्री को छोड़ कर जंगल में भाग जाए और संन्यासी हो जाए, और उसका मन स्त्री से मुक्त न हुआ हो तो वह घूम-फिर कर यही कहता रहेगा: कामिनी-कांचन से सावधान, स्त्री से बचना, स्त्री नरक का द्वार है! वह किसी और से नहीं कह रहा है, जोर-जोर से अपने से कह रहा है। वह भीतर स्त्री खींच रही है, निमंत्रण दे रही है, वह कह रही, आओ। स्त्री भीतर रूप बन रही है, स्त्री भीतर प्राणों को कस रही है, वह उससे बचने के लिए कह रहा है, कामिनी-कांचन पाप है, स्त्री नरक का द्वार है, स्त्री से सावधान! दूसरों को समझा रहा है। दूसरों के बहाने अपनी ही वाणी को जोर से सुनने की कोशिश कर रहा है, ताकि भीतर हिम्मत बनी रहे कि स्त्री नरक का द्वार है, बचो, सावधान रहो!
जो आदमी वासना से मुक्त हो जाएगा उसे स्त्री नरक का द्वार कैसे दिखाई पड़ेगी? जिस आदमी का मन सेक्स से मुक्त हो गया हो, उस आदमी को स्त्री और पुरुष में भेद दिखाई पड़ेगा?
बुद्ध एक जंगल में बैठे थे एक पहाड़ के पास। कुछ लोग शहर से आए थे युवक एक वेश्या को लेकर जंगल में पिकनिक के लिए, आमोद-प्रमोद के लिए। वे तो सब नशे में चूर हो गए, वेश्या ने देखा कि वे बेहोश हो गए हैं नशे में, वह भाग खड़ी हुई। उसके सारे वस्त्र उन्होंने छीन रखे थे। वह नग्न थी। जब वह भाग गई उन्हें कुछ होश आया, तो उन्होंने कहा, वह वेश्या भाग गई, तो उसे खोजने जंगल में निकले।
रास्ते पर बुद्ध को बैठे देखा तो उनके पास जाकर कहा कि भंते, यही एक रास्ता है, जरूर यहां से एक स्त्री को आपने भागते देखा होगा। स्त्री नग्न थी, वेश्या थी, आपको खयाल है वह कहां गई? यहीं से रास्ते बंट जाते हैं। हम उसे खोजने कहां जाएं?
बुद्ध ने कहा, कोई निकला जरूर था, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह पहचानना बहुत मुश्किल है, कोई निकला जरूर था, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह मुझे याद नहीं। क्योंकि जब से मेरे भीतर से वासना उठ गई, तब से मेरे भीतर का पुरुष मर गया, जब से मेरा पुरुष मर गया, तब से बाहर की स्त्री उस तरह नहीं दिखाई पड़ती, जैसे पहले दिखाई पड़ती थी।
यह बुद्ध जैसा आदमी स्त्री को नरक का द्वार कैसे कहेगा? नहीं, जो स्त्री को नरक का द्वार कह रहा है, उसके भीतर स्त्री का आकर्षण शेष है। जो संपत्ति को गाली दे रहा है, उसके भीतर संपत्ति का आकर्षण शेष है। जो कह रहा है कि सोना मिट्टी है, वह अपने को समझा रहा है, सोना अभी पूरी तरह सोना है और प्राणों को खींच रहा है।
भारत ने एक तरफ दरिद्रता की बातें सीख लीं और दूसरी तरफ लोभ, और दूसरी तरफर् ईष्या, और दूसरी तरफ धन की वासना तीव्र से तीव्र होती चली गई। यह एक अदभुत घटना घट गई। ऊपर से हम दरिद्र हैं। दरिद्रता में संतोष की बात भी करते हैं, और भीतर हमसे ज्यादा ग्रीडी, हमसे ज्यादा लोभी जमीन पर आदमी खोजने मुश्किल हैं।
मैं घर में ठहरता था। उस घर के ऊपर कुछ पश्चिम के लोग--दो परिवार रहते थे। उस घर में जब भी मैं ठहरा तो उस घर के लोगों ने मुझे कहा कि ये पश्चिम के लोग बड़े भौतिकवादी हैं। सिवाय खाने-पीने के, सिवाय नाच-गाने के इन्हें कुछ भी मतलब नहीं, एकदम भौतिकवादी हैं। जब भी मैं गया, मुझे वे यही कहते थे। रात बारह बजे तक नाचते रहते हैं। बस, खाना और पीना और नाचना--यही जिंदगी है। फिर एक बार उनके घर में ठहरा। ऊपर शांति थी, तो मैंने पूछा कि क्या वे लोग चले गए? घर की गृहिणी ने कहा, हां, वे चले गए। पर बड़े अजीब लोग थे। अपना सारा सामान बांट गए। जो नौकरानी बर्तन मलती थी, स्टील के बर्तन थे सब--वह स्त्री मुझसे कहने लगी--असली स्टील के बर्तन थे, वह सब नौकरानी को ही दे गए। रेडियो था, रेडियोग्राम था, वह सब बांट गए। बड़े अजीब लोग थे।
मैंने उस स्त्री को पूछा कि तू तो निरंतर कहती थी कि ये बड़े भौतिकवादी लोग हैं, नाचने हैं, गाते हैं, खाते हैं, पीते हैं और कुछ नहीं करते हैं, बहुत मैटीरियलिस्ट हैं। लेकिन ये सारी चीजें बांट कर चले गए! तू भी इस तरह सारी चीजें बांट सकती है?
उसने कहा, मैं? कैसे बांट सकती हूं! मेरे मन में तो यही लगा रहा कि कुछ हमें भी दे जाएं तो अच्छा है।
मैंने पूछा, वे तुझे कुछ दे गए?
उसने कहा कि मुझे दे नहीं गए क्योंकि उन लोगों ने सोचा होगा, इनके पास तो सब है, शायद ये लेने से इंकार कर दें।
तो तेरे पास कोई निशानी नहीं?
तो उसने कहा, एक निशानी है, वे एक रस्सी बंधी हुई छोड़ गए थे, वह मैं खोल लाई हूं। कपड़े टांगने की रस्सी थी, लेकिन रस्सी प्लास्टिक की है और बहुत अच्छी है, वह भर मैं खोल लाई हूं, वह भर निशानी रह गई है। वे चले गए तो मैं रस्सी खोल लाई।
यह स्त्री रोज मंदिर जाती है, यह रोज सुबह से उठ कर भक्तांबर पढ़ती है, यह बड़ी धार्मिक है, यह उपवास भी करती है और यह सोचती है कि मैं भौतिकवादी नहीं हूं और वे लोग जो नाचते थे और गीत गाते थे, वे इसे भौतिकवादी मालूम पड़ते थे।
वे इसे भौतिकवादी क्यों मालूम पड़ते थे?
इसके भीतर भी नाचना, गीत गाना और संपत्ति का मोह है। वह इसे खींचता है कि काश, यह सब उसके पास भी होता, यह सब वह भी करती। लेकिन नहीं-नहीं, संतोष रखना है। इन सब बातों में नहीं पड़ना है, ये बातें बहुत बुरी हैं। इसलिए गाली देती है, निंदा करती है, कंडेम करती है, अपने मन को समझा लेती है और पीछे से एक रस्सी भी खोल कर ले आती है। अध्यात्मवादी हैं हम!
एक अमरीकन यात्री की मैं किताब पढ़ता था। वह दिल्ली के स्टेशन पर उतरा। स्टेशन पर उतरा है और एक सरदार ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा है कि मैं आपका भविष्य बताऊंगा।
उसने कहा, लेकिन मुझे भविष्य पूछना नहीं है। हम अपना भविष्य खुद बनाते हैं। भविष्य कहीं है यह हम मानते नहीं।
पर सरदार जी ने तो बताना ही शुरू कर दिया। वह तो हाथ जोर से पकड़े हुए है। और वह आदमी बेचारा शिष्टाचार में सिर्फ हाथ पकड़ाए हुए है। छोड़ नहीं रहा, ठीक है। वह कह रहा है कि मुझे पूछना नहीं है, मुझे कुछ जानना नहीं है, लेकिन सरदार जी तो बताना शुरू कर दिए हैं कि यह होगा, यह होगा, यह होगा भविष्य में।
फिर उस आदमी ने कहा, मुझे जाने दीजिए।
तो सरदार जी ने कहा, मेरी फीस? मेरे दो रुपये फीस के हो गए।
उस आदमी ने कहा, ठीक है। हालांकि मैं मना कर रहा था और आपने जबरदस्ती बताया है, लेकिन फिर भी आपने इतना श्रम किया, ये दो रुपये आप ले लें। लेकिन दो रुपये लेकर सरदार जी ने हाथ छोड़ा नहीं। वह और बताने लगे हैं। उसने कहा कि देखिए, अब हाथ छोड़ दीजिए, क्योंकि फिर आपकी फीस हो जाएगी। लेकिन सरदार जी बताए चले जा रहे हैं। उसने कहा कि मुझे जाना है। जबरदस्ती हाथ छुड़ाया, तो सरदार जी ने कहा कि दो रुपये मेरी फीस और हो गई? उस आदमी ने कहा कि अब मैं दो रुपये आपको नहीं दूंगा। यह तो जबरदस्ती की बात है। तो सरदार जी ने क्या कहा? सरदार जी ने कहा, यू मैटीरियलिस्ट--दो रुपये के लिए मरे जाते हो, भौतिकवादी हो, दो रुपये में जान निकली जाती है!
उस आदमी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैं तो दंग रह गया। भौतिकवादी कौन था? मैं था भौतिकवादी?
सारी पृथ्वी पर हमसे ज्यादा भौतिकवादी लोग खोजने मुश्किल हैं, क्योंकि दरिद्र आदमी कभी भी भौतिकवाद से ऊपर नहीं उठ सकता है। दरिद्र आदमी कभी भी भौतिकवाद से ऊपर नहीं उठ सकता है, समृद्ध आदमी ही भौतिकवाद से उठ सकता है ऊपर, क्योंकि समृद्धि को पाकर उसे पता चलता है कुछ भी नहीं है समृद्धि में। धन पाकर दिखाई पड़ता है धन में कुछ भी नहीं है। और जिस दिन धन निसार दिखाई पड़ता है, असार दिखाई पड़ता है, उस दिन भौतिकवाद के आदमी ऊपर उठता है।
संपत्ति का एक ही बड़े से बड़ा मूल्य है कि संपत्ति से आदमी संपत्ति से मुक्त हो जाता है। धन का एक ही आध्यात्मिक मूल्य है कि धन के उपलब्ध होने से आदमी धन से मुक्त हो सकता है। निर्धन आदमी धन से कभी मुक्त नहीं हो पाता है। धनी आदमी धन से मुक्त हो सकता है। यह देश दरिद्रता को स्वीकार करने के कारण धनी नहीं हो पाया। धनी नहीं हो पाने के कारण धन से मुक्त नहीं हो पाया; लेकिन हम थोथी बातें अपने ऊपर थोपे चले जाते हैं और बिलकुल ही जीवन और मन के विपरीत काम किए चले जाते हैं। ऊपर से कुछ, भीतर से कुछ हुए चले जाते हैं। सारा व्यक्तित्व पाखंड हो गया है, सारा व्यक्तित्व धोखा हो गया है। और मैंने इसलिए कहा कि गांधी की दरिद्रता की शिक्षा फिर खतरनाक है, फिर वह हमारी पुरानी शिक्षा का ही फल है। फिर वह पुरानी शिक्षा का फिर से पुनरुक्तिकरण है।
नहीं, गांधी बहुत प्यारे आदमी हैं, गांधी बहुत अदभुत आदमी हैं; लेकिन उनके दरिद्रता के दर्शन को अगर भारत ने स्वीकार किया तो भारत कभी समृद्ध नहीं हो सकेगा और समृद्ध नहीं हो सकेगा तो भारत कभी धार्मिक भी नहीं हो सकता है।
मेरी दृष्टि में धार्मिक होने के लिए देश का समृद्ध होना अत्यंत आवश्यक है। दरिद्र आदमी कैसे धार्मिक हो सकता है? जिसकी रोटी की जरूरतें पूरी नहीं होतीं वह परमात्मा की जरूरत पैदा ही कैसे कर सकता है? परमात्मा मनुष्य की अंतिम जरूरत है, लास्ट नेसेसिटी है। जब जीवन की सारी प्राथमिक जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तो अंतिम जरूरत का खयाल आता है और हम इस देश में गरीब आदमी को परमात्मा की शिक्षाएं दिए चले जाते हैं। गरीब आदमी को परमात्मा की शिक्षा देना अन्याय है और गरीब आदमी अगर परमात्मा की बातें सुनने भी आता है और परमात्मा के मंदिर में प्रार्थना भी करने जाता है, तो आप यह मत सोचना कि वह परमात्मा के पास जा रहा है। जब वह परमात्मा के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा होता है, तब भी उसके मन में यही प्रार्थना होती है कि कल मुझे रोटी मिल सकेगी न? मेरा बच्चा बीमार है, वह ठीक हो सकेगा न? मेरा काम छूट गया है, मुझे काम मिल सकेगा न? वह परमात्मा के पास भी रोटी-रोजी के लिए ही पहुंचता है, परमात्मा के लिए नहीं पहुंच सकता है। वह परमात्मा के पास भी जाता है तो बुनियादी कारण उसका भौतिक होता है, आध्यात्मिक नहीं हो सकता है। आध्यात्मिक जीवन की जरूरत, जीवन की सामान्य स्थिति, सुविधा उपलब्ध होने पर ही पैदा होती है।
जब भारत थोड़ा समृद्ध था तो भारत धार्मिक था। इधर दो हजार वर्षों से वह निरंतर दरिद्र से दरिद्र होता चला गया है। आज वह दरिद्रता के गङ्ढे में खड़ा है। वह धार्मिक नहीं हो सकता है। उसके धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है। इस बात की संभावना है कि आने वाले पचास वर्षों में अमेरिका धार्मिक हो सके, रूस धार्मिक हो सके, भारत के धार्मिक होने की कोई संभावना नहीं। अमेरिका को धार्मिक होना पड़ेगा, रूस को धार्मिक होना पड़ेगा, क्योंकि जैसे ही जिंदगी की सामान्य जरूरतें पूरी हो जाती हैं, जैसे ही शरीर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, पहली बार आदमी की आंखें उस तरफ उठती हैं जो शरीर के ऊपर है। शरीर की झंझट, जैसे ही छुट्टी हो जाती है शरीर से आदमी की, आदमी आत्मा की तरफ उन्मुख होता है।
शायद आपने कभी खयाल भी न किया हो। पैर में एक छोटा सा कांटा गड़ जाए, तो सारे प्राण उसी कांटे के आस-पास घूमने लगते हैं। सिर में थोड़ा सा दर्द हो, तो आत्मा वगैरह सब भूल जाती है, बस सिर का दर्द ही रह जाता है। जहां पीड़ा होती है, प्राण वहीं अटक जाते हैं। भूखे पेट के प्राण पेट के आस-पास ही अटके रहते हैं, उससे ऊपर नहीं उठ सकते। लेकिन हम एक बहुत मूढ़तापूर्ण, बहुत एब्सर्ड जीवन-दर्शन को पकड़े हुए बैठे हैं। मैं मानता हूं कि समृद्ध आदमी किसी दिन दरिद्र हो सकता है, स्वेच्छा से, वालंटरीली, लेकिन स्वेच्छा से दरिद्रता बात ही और है। वह बात वैसी ही है--
मैं एक आश्रम में गया। उस आश्रम में उपवास करवाते हैं वे महीने-महीने, दो-दो महीने, तीनत्तीन महीने के और एक-एक महीने के उपवास करने के पांच-पांच सौ रुपये महीने का खर्च पड़ जाता है। पांच सौ रुपये महीने का खर्च एक महीने उपवास करने का! मैंने कहा, उपवास बड़ा महंगा है। इससे तो पेट भरना भी सस्ता पड़ता है। फिर वहां जो लोग उपवास करने वाले थे, वे बड़े ही आनंद से कहते थे कि बीस दिन कर लिए, पच्चीस दिन कर लिए, तीस दिन हो गए, मेरे चालीस दिन हो गए। मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैं बिहार भी गया। वहां अकाल में भूखे मरते हुए लोग थे, किसी को चार दिन से रोटी नहीं मिली थी। उसका चेहरा भी मैंने देखा और चालीस दिन इसने उपवास किया था इसका चेहरा भी मैंने देखा। इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क मालूम पड़ा। वह चार दिन भूखा रहा था, वह इतना दीन-हीन मालूम हो रहा था! यह जो जिसने चालीस दिन उपवास किया था, यह एक ऐसी आध्यात्मिक गरिमा से भरा हुआ था। बड़ी अजीब बात है। फर्क क्या हुआ? यह उपवास है, वह भूख है। यह उपवास वे लोगे करते हैं जो ज्यादा खा गए हैं और ज्यादा खा रहे हैं। भूखा आदमी, भूखे आदमी को कभी खाने को नहीं मिला। भूख और उपवास में फर्क है।
महावीर की दरिद्रता में और सड़क पर भीख मांगने वाले की दरिद्रता में भी उतना ही फर्क है। ज्यादा खाने वाले के लिए उपवास भी एक आनंद हो सकता है, भूख से मरने वाले के लिए उपवास कैसे आनंद हो सकता है? क्वालिटेटिव फर्क है, गुणात्मक फर्क है। और हिंदुस्तान पांच हजार वर्ष से इस गलत जीवन-दृष्टिकोण के नीचे जी रहा है कि हमें दरिद्रता में संतोष कर लेना है।
गांधी भी फिर पुनः उसी बात को दोहराते हैं और उसी बात को दोहराने के कारण उन्होंने जो उपकरण बताए हैं--चरखा, तकली, वे उपकरण भारत को दरिद्र रखने के उपकरण सिद्ध होंगे। वे भारत को समृद्ध नहीं बना सकते हैं। समृद्धि पैदा होती है टेक्नालॉजी से, समृद्धि पैदा होती है विज्ञान से, तकनीक से। समृद्धि पैदा होती है यंत्र से।
चरखा और तकली से समृद्धि कैसे पैदा हो सकती है?
चरखा और तकली कोई दस हजार पुराने वर्ष के साधन हैं, दस हजार वर्ष पहले के साधन हैं। अगर दुनिया को दस हजार वर्ष पुरानी दरिद्रता में ले जाना है, दुख में ले जाना है तो चरखेत्तकली को प्रतीक बनाओ, अन्यथा चरखेत्तकली से मुक्त होने की जरूरत है।
मैं यह नहीं कहता कि गांव में जिन्हें कुछ भी काम नहीं मिल रहा है, वे चरखा न कातें। मैं यह भी नहीं कहता कि जिन्हें खादी पहनने का शौक है वे खादी न पहनें।
मैं कहता यह हूं कि यह भारत के विकास के प्रतीक न बन जाएं, ये हमारे जीवन के देखने के, दृष्टिकोण के सिंबल्स न हों। गांधी ने उन्हें सिंबल बना दिया है। हमें ऐसा लगने लगा है कि नहीं बड़े टेक्नीक की कोई जरूरत नहीं है, बड़ी टेक्नालॉजी की कोई जरूरत नहीं है, बड़े यंत्रों की कोई जरूरत नहीं है, सेंट्रेलाइजेशन की, केंद्रीकरण की कोई जरूरत नहीं है, औद्योगीकरण की, इंडस्ट्रीलाइजेशन की कोई जरूरत नहीं है। हमें ऐसा लगने लगा कि एक-एक आदमी अपना साबुन बना ले, अपना कपड़ा बना ले, अपनी खेती में काम कर ले, स्वावलंबी हो जाए--बस इसकी जरूरत है।
ये खतरनाक बातें हैं। अगर आदमी को हमने इस ढांचे पर ले जाने की कोशिश की है तो आदमी का जीवन-स्तर पशु के स्तर पर गिर जाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होगा। आदमी का जो इतना जीवन-स्तर ऊपर उठा है, वह तकनीक का परिणाम है। और जिस दिन सारी मनुष्य-जाति का जीवन-स्तर इतना ऊंचा उठ जाएगा जितना जीवन-स्तर बुद्ध और महावीर का ऊंचा रहा होगा, तो मैं आपसे कहता हूं, पृथ्वी पर करोड़ों बुद्ध और महावीर एक साथ पैदा हो सकते हैं!
यह आकस्मिक नहीं है कि राजघरानों से इतने बड़े संन्यासी पैदा हुए। इतने बड़े संन्यासी राजघरानों से ही पैदा हो सकते हैं, क्योंकि राजघराने में ही संपत्ति की और शरीर की व्यर्थता का पहला अनुभव होता है और आंखें उस तरफ उठती हैं जहां जीवन की और गहरी सच्चाइयां हैं, जहां और बियांड और दूर और अतीत और ऊपर के शिखर हैं उन तक आंख तभी उठती है, जब जीवन की नीचे से पृथ्वी शांत, सुविधापूर्ण हो जाती है।
तो मैं मानता हूं कि चरखा और तकली को अगर हम प्रतीक मान लेते हैं और अपनी आर्थिक जीवन-व्यवस्था का केंद्र बना लेते हैं और अगर हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि विकेंद्रीकरण करना है, बड़े उद्योग से बचना है, बड़ी टेक्नालॉजी और बड़ी साइंस को नहीं आने देना है तो हम बहुत घातक स्थिति में पहुंच जा सकते हैं।
हम दरिद्र हैं हमेशा से, हम और भी दरिद्र हो सकते हैं। सारी दुनिया समृद्ध होती चली जाएगी, उसके किनारे हम एक दरिद्रता का हिस्सा बन जाएंगे।
आज भी हमारी हालत वैसी ही है जैसे किसी करोड़पति के भवन के सामने कोई भिखमंगा खड़ा हो। आज भी हमारी हालत दुनिया के राष्ट्रों के मुकाबले एक भिखमंगे राष्ट्र की हालत है। यह हालत रोज बदतर होती चली जाएगी। एक तरफ टेक्नीक का उपयोग मत करना, केंद्रीकरण की भावना को रोकना, तोड़ना, दूसरी तरफ बिलकुल हाथ से चलने वाले साधन जो आदिम हैं उनका उपयोग करना और तीसरी तरफ बच्चों को पैदा करते चले जाना! बीस-पच्चीस वर्ष में यह मुल्क अपने हाथ से अपनी स्युसाइड कर लेगा, आत्महत्या कर लेगा।
गांधीजी कहते हैं कि संतति-नियमन के पक्ष में भी वे नहीं हैं। वे कहते हैं कि बर्थ-कंट्रोल के पक्ष में भी वे नहीं हैं। वे कहते हैं बह्मचर्य से नियमन होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य से कितने लोगों ने कब नियमन किया है? कितने लोग नियमन कर सकते हैं? कितने लोग करेंगे? और हम प्रतीक्षा कब तक करेंगे?
लेकिन गांधी कहते हैं कि नहीं, कृत्रिम उपाय का हमको उपयोग नहीं करना है। बर्थ-कंट्रोल के साधन कृत्रिम हैं, आर्टीफिशियल हैं, उनका उपयोग नहीं करना है। गांधी की ये बातें अवैज्ञानिक हैं।
गांधी भले आदमी हैं, इसका यह मतलब नहीं होता कि गांधी जो भी कहेंगे वह वैज्ञानिक होगा। कई बार बड़े गलत आदमी बड़ी ठीक बातें कहते हैं, कई बार बड़े ठीक आदमी बड़ी गलत बातें कहते हैं और सच तो यह है कि गलत बातें हम तभी स्वीकार कर पाते हैं जब बहुत भले आदमी उनको कहते हैं। अगर चरखे और खादी की बात किसी और ने कही होती गांधी के अलावा, तो हिंदुस्तान कभी मानने की फिक्र नहीं करता। वह गांधी इतने अदभुत आदमी हैं कि वह कुछ भी कहेंगे तो हमें लगता है कि इतना बड़ा व्यक्ति, इतना महिमावान व्यक्ति, इतना ओजस्वी, वह जो भी कहता है, ठीक कहता होगा।
अगर हम माक्र्स की व्यक्तिगत जिंदगी को देखें, तो माक्र्स की व्यक्तिगत जिंदगी में कुछ भी नहीं है जिसको उद्दात कहा जा सके, ऊंचा कहा जा सके। सुबह से सांझ तक सिगरेट पी रहा है, शराब पी रहा है। जिंदगी में कुछ ऐसी ऊंची बात नहीं है। जिंदगी में कोई ऐसा बड़ा भारी प्रभाव नहीं है। नौकरानी से गलत संबंध है, नाजायज लड़का पैदा हो गया माक्र्स को, माक्र्स की जिंदगी में कुछ भी नहीं है। छोटी सी बात में क्रोध से भर जाता है। बहुत ईगोइस्ट है, बहुतर् ईष्यालु है। लेकिन माक्र्स ने समाज के लिए जो विश्लेषण दिया है वह सत्य है। गांधी बहुत अच्छे आदमी हैं, न सिगरेट पीते हैं, न किसी नौकरानी से कोई गलत संबंध है, न कोई नाजायज बच्चा पैदा हुआ है। जीवन एकदम पवित्र कथा है। जीवन एक शुभ्र कथा है, लेकिन गांधी ने जो विश्लेषण किया है समाज का वह अवैज्ञानिक है और गलत है। गांधी जैसे आदमी चाहिए पृथ्वी पर, लेकिन समाज माक्र्स जैसा चाहिए। गांधी का समाज का विश्लेषण अवैज्ञानिक है।
लेकिन गांधीवादी कहते हैं मैं इस पर बात ही न करूं। वे कहते हैं, इस पर बात ही मत करिए। इस पर बात नहीं करने का मतलब, इस पर बात नहीं करने का मतलब है कि देश में आग लग रही हो, हम बैठ कर देखते रहें। गांधीवादी मुझे कहते हैं कि आप तो धार्मिक आदमी हैं, आप क्यों इन बातों में पड़ते हैं? एक धार्मिक आदमी निकलता है और एक मकान में आग लगी हो और चिल्ला कर कह दे कि मकान में आग लगी है, पानी ले आओ, तो उससे आप कहेंगे कि आप तो धार्मिक आदमी हैं, आप इस झंझट में कहां पड़ते हैं। लगने दो आग। आप अपना भजन-कीर्तन करो।
मोरारजी भाई ने मेरे संबंध में बात करते हुए राजकोट में परसों कहा कि पहले तो राजनीतिज्ञ और आर्थिक लोग गांधीजी की आलोचना करते थे। अब आध्यात्मिक लोग भी उनकी आलोचना करने लगे। जैसे कि आध्यात्मिक आदमी का गांधीजी की आलोचना करना अनिवार्यरूपेण कोई अपराध हो।
मैं मोरारजी भाई को कहना चाहता हूं, गांधीजी को राजनीतिज्ञ और आर्थिक लोग तो समझ ही नहीं सकते, आलोचना क्या करेंगे। गांधी को तो आध्यात्मिक लोग ही समझ सकते हैं और विचार कर सकते हैं, क्योंकि गांधी मूलतः राजनीतिज्ञ नहीं हैं, न आर्थिक विचारक हैं, गांधी मूलतः एक आध्यात्मिक संत हैं। गांधी के आस-पास जो राजनीतिज्ञ इकट्ठे हो गए हैं, उन्होंने ही गांधी को बर्बाद किया है। और गांधी के पास जो राजनीति का जाल खड़ा हो गया, उस जाल ने ही गांधी की प्रतिमा को वह जितनी सुंदर हो सकती थी, जितनी पवित्र हो सकती थी, उसकी पवित्रता और सुंदरता में भी कमी की।
गांधी मूलतः एक आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। राजनीति से उनका कोई बुनियादी संबंध नहीं है। राजनीति एक आपद-धर्म थी, एक मजबूरी थी। मुल्क में एक आग थी, गुलामी थी। उसे दूर करने को उन्हें कूद पड़ना पड़ा। लेकिन मूलतः वे परमात्मा की खोज में जाने वाले एक साधक हैं। और उन पर आध्यात्मिक लोग विचार न करें ऐसा अगर मोरारजी भाई सोचते हों तो बहुत गलत सोचते हैं।
गांधी पर हिंदुस्तान के आध्यात्मिक चिंतकों को बार-बार विचार करना पड़ेगा, क्योंकि गांधी ने आध्यात्मिक जीवन और सामान्य जीवन के बीच एक सेतु निर्मित किया है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गांधी आध्यात्मिक व्यक्ति हैं इसलिए जो भी कहेंगे वह सत्य होगा। हमारी पुरानी धारणा यह है, हम समझते हैं कि महावीर को चूंकि आत्मज्ञान मिला, परमात्मा का अनुभव हुआ, इसलिए महावीर जो भी कहेंगे वह सच होगा, यह गलत है बात। महावीर का सब कहा हुआ सच नहीं हो सकता। बुद्ध का सब कहा हुआ सच नहीं हो सकता। गांधी का सब कहा हुआ भी सच नहीं हो सकता, बल्कि यह भी हो सकता है कि गांधी से बहुत कम हैसियत का कोई विचारक किसी दिशा में जो बात कहे, चाहे उसके पास व्यक्तित्व हो चाहे न हो, वह भी सच हो सकता है। यही मैंने कहा कि माक्र्स गांधी के मुकाबले कोई भी व्यक्तित्व नहीं है माक्र्स का। लेकिन माक्र्स के समाज का जो विश्लेषण है वह गांधी से श्रेष्ठ है, सही है, सच्चा है, वैज्ञानिक है। इसलिए मैं मानता हूं कि गांधी जैसे पृथ्वी पर जितने लोग बढ़ जाएंगे, पृथ्वी उतनी अच्छी होगी, लेकिन गांधी की जो जीवन-रचना की कल्पना है, वह कल्पना अवैज्ञानिक है, आदिम है, प्रिमिटिव है, पिछड़ी हुई है, और उसके आधार पर चल कर इस देश के सौभाग्य का उदय नहीं हो सकता है।
मैं मानता हूं कि यह आलोचना और विचार किया जाना जरूरी है। नहीं, मैं यह नहीं कहता हूं कि मैं जो कहता हूं वह सही होना ही चाहिए। वह मैं कभी भी नहीं कहता हूं। यह मैं नहीं कहता हूं कि मैंने जो कहा वह सत्य है ही। वह मैं कभी नहीं कहता हूं। यह भी मैं नहीं कहता कि मेरी बात आपको मान लेनी चाहिए। मैं इतना ही कहता हूं कि मैं जो कहता हूं वह विचारणीय है, उस पर विचार किया जाना जरूरी है। हो सकता है मेरी बातें गलत हों। तब विचार करके उनको फेंक देना चाहिए। हो सकता है उसमें कोई बात आपके विवेक को सच मालूम पड़े, तब वह मेरी नहीं रह जाती, वह आपकी अपनी हो जाती है। लेकिन जो पंथवादी होते हैं, वे कहते हैं, विचार ही नहीं करना है। विचार की हत्या करना चाहते हैं।
मैं गुजरात गया तो वहां मुझे लोगों ने कहा कि इंदुलाल याज्ञनिक ने कहा कि मेरा बहिष्कार करेंगे, गुजरात में नहीं आने देंगे। मैंने कहा, अगर गुजरात पागल होगा तो इंदुलाल की बात मानेगा। गुजरात पागल नहीं है। बहिष्कार करेंगे मेरा, अगर मैं गांधी के ऊपर कुछ विचार करूंगा तो बहिष्कार किया जाएगा। गांधी की आत्मा कहीं भी होगी तो इंदुलाल याज्ञनिक को देख कर रो रही होगी कि ये मेरे गांधीवादी हैं! इन्हीं लोगों के लिए मैंने लड़ाई लड़ी, इन्हीं के लिए जीवन कुर्बान किया, इन्हीं के लिए बर्बाद हुआ।
गांधीवादी को अगर थोड़ी भी समझ हो तो मुझे तो उसे गांव-गांव बुला कर ले जाना चाहिए कि मैं गांधी के बाबत बात करूं और गांधी के बाबत विचार को पैदा करूं।
लेकिन वह कहता है कि नहीं, अखबार में मेरी खबर नहीं छपनी चाहिए। मेरी सभा नहीं होनी चाहिए। राजकोट में जितने मैदान गांधीवादियों के हाथ में थे उन्होंने कहा कि नहीं, यहां हम सभा नहीं होने देंगे। स्कूल उनके हाथ में हैं, सभा नहीं होने देंगे। उनके हाथ में तो सभी कुछ हैं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, इससे क्या सभा नहीं होगी? लेकिन इस भांति रोक कर वे क्या बताते हैं? वे बताते हैं कि कितना समझे गांधी की अहिंसा को, कितना समझे गांधी के अध्यात्म को, कितना समझे गांधी के विचार को, यही समझे?
दिल्ली में बोला। दूसरे दिन ही मुझे एक पत्र आया। किसी गांधीवादी ने पत्र लिखा और मुझे लिखा कि महाशय आपको फौरन सेंट्रल जेल भेज दिया जाना चाहिए। मैंने आंख बंद करके गांधी को धन्यवाद दिया, मैंने कहा कि मेरी उम्र कम थी, इसलिए आपके सत्संग का मौका नहीं मिला, नहीं तो आपके सत्संग में जेल जाना ही पड़ता। लेकिन आश्चर्य, आप मर गए, फिर भी प्रभाव आपका काफी है। जरा आपसे दोस्ती दिखाई, आपकी बात की कि जेल जाने की बात होने लगी। गांधी अगर जिंदा होते तो इस बात के सौ में से सौ मौके हैं कि गांधीवादियों के जेल में उनको सड़ना पड़ता। ये गांधीवादी उनको जेल में जरूर भेजते।
गांधी बुनियादी रूप से एक विद्रोही क्रांतिकारी थे। वे मुल्क को नरक में ले जाते हुए अपने शिष्यों को नहीं देख सकते थे। वे यह नहीं सोचते कि ये शिष्य मेरे हैं, इसलिए इनसे बगावत कैसे करूं। बगावत की कहानी शुरू हो गई थी। गांधी के हाथ से जैसे ही सत्ता उनके अनुयायियों को मिल गई, वैसे ही गांधी को लगने लगा कि मैं खोटा सिक्का हो गया हूं। मेरा कोई चलन नहीं रहा। मेरी कोई सुनता नहीं। गांधी के शिष्यों को भी लगता था इस बुङ्ढे से अब छुटकारा हो जाए तो अच्छा। क्योंकि यह झंझटें खड़ी करेगा। और गोडसे ने मालूम होता है गांधी के अनुयायियों की प्रार्थना सुन ली और गांधी की हत्या कर दी। गांधी से छुटकारा हो गया। अब मजे से उनकी पूजा करो, प्रार्थना करो, यश-गान करो, अब गांधी कोई गड़बड़ नहीं कर सकते। लेकिन इस भ्रम में मत रहना, कि जो देश गांधी पैदा कर सकता है--वह पचास गांधी पैदा कर सकता है।
गांधी पर विचार किया जाना जरूरी है, उनके एक-एक पहलू पर विचार किया जाना जरूरी है। जरूरी नहीं कि जो मैं कहूं वही सच है। नहीं, उतनी कोई भी जरूरत नहीं। मेरा निवेदन इतना ही है कि उस पर सोचने के लिए मुक्त मन का आमंत्रण होना चाहिए। वही आमंत्रण में देता हूं।
यह तो प्रारंभिक बात थी आज, आने वाले तीन दिनों में गांधी के अनेक पहलुओं पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा।
सुबह आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
परमात्मा करे गांधी की कामनाएं सफल हो कि इस देश का भविष्य स्वर्णिम बने। परमात्मा करे कि गांधी जैसी इस देश की मुक्त आत्मा को विचारशील आत्मा को पैदा करना चाहते थे, वह आत्मा पैदा हो सके।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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