देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो
दूसरा प्रवचन
संचेतना के ठोस आयाम
कुछ मित्रों ने कहा है कि गांधीजी यंत्र के विरोध
में नहीं थे। और मैंने कल सांझ को कहा कि गांधीजी यंत्र, केंद्रीकरण विकसित तकनीक के विरोध में थे।
गांधीजी की उन्नीस सौ अठारह से लेकर उन्नीस सौ अड़तालीस तक की चिंतना
को हम देखेंगे तो उसमें बहुत फर्क होता हुआ मालूम पड़ता है। वे बहुत सजग आब्जर्वर
थे। वे रोज-रोज, जो उन्हें गलत दिखाई पड़ता, उसे
छोड़ते, जो ठीक दिखाई पड़ता उसे स्वीकार करते हैं। धीरे-धीरे
उनका यंत्र-विरोध कम हुआ था, लेकिन समाप्त नहीं हो गया था।
अगर वे जीवित रहते और बीस वर्ष, तो शायद उनका
यंत्र-विरोध और भी नष्ट हो गया होता। लेकिन वे जीवित नहीं रहे, और हमारा दुर्भाग्य सदा से यह है कि जहां हमारा महापुरुष मरता है वहीं
उसका जीवन-चिंतन भी हम दफना देते हैं। महापुरुष तो समाप्त हो जाते हैं, उनकी जीवन-चिंतना आगे बढ़ती रहनी चाहिए। जहां महापुरुष समाप्त होते हैं
वहीं उनका जीवन-दर्शन समाप्त नहीं हो जाना चाहिए। महापुरुष का शरीर समाप्त हो जाता
है, उसका जीवन-चिंतन देश को आगे बढ़ाते रहना चाहिए। लेकिन हम
इतने भयभीत हैं, हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम चिंतन को आगे
ले जाना नहीं चाहते, हम चिंतन को वहीं ठोंक कर रोक देना
चाहते हैं, जहां महापुरुष का शरीर गिर जाता है वहीं हम उसके
चिंतन को भी दफना देना चाहते हैं। उसके ही विरोध में मैं कह रहा हूं।
यह प्रश्न गांधीजी का ही नहीं है। इस पूरे देश की चिंतना यंत्र-विरोधी
रही है। यंत्र-विरोधी हमारी चेतना नहीं होती तो हमने यंत्र बहुत पहले विकसित कर
लिए होते। हमारे पास बुद्धि की कमी नहीं थी। हिंदुस्तान में इतने बुद्धिमान आदमी
पैदा हुए हैं जितना कोई भी देश गौरव नहीं कर सकता है। बुद्ध और महावीर, नागार्जुन और धर्मकीर्ति, वसुबंधु और दिग्नाग,
शंकर और रामानुज, वल्लभ और निम्बार्क हमारे
पास अदभुत बुद्धिमान लोगों का लंबा सिलसिला है। लेकिन इतने बुद्धिमान लोग पैदा हुए,
लेकिन एक आइंस्टीन और एक न्यूटन हमने पैदा नहीं किया। तीन हजार वर्ष
के इतिहास में हमारे पास एक न्यूटन, एक आइंस्टीन कहने जैसा
नहीं है। आइंस्टीन और न्यूटन से भी महत्वपूर्ण विचारक हमारे पास थे, लेकिन हमारे देश के विचार ने कभी भी वैज्ञानिक दिशा में कोई गति नहीं की।
यह आकस्मिक नहीं है, यह एक्सिडेंटल नहीं है। इसके पीछे हमारे
चिंतन का हाथ है। हमारी मान्यता यह है कि मनुष्य को विस्तार से बचना चाहिए। हमारी
धारणा यह रही कि जितनी चादर हो उस चादर के भीतर अपने पैर सिकोड़ कर रखना चाहिए,
चादर के बाहर पैर नहीं निकालने चाहिए। बुद्धिमान हम उसको कहते हैं
जो चादर के भीतर रहता है। चादर के भीतर हम कितने ही सिकुड़ कर रहें, हम रोज बड़े होते जाते हैं और चादर रोज छोटी होती चली जाती है। जीना एक
पीड़ा और कठिनाई हो जाती है लेकिन चादर के बाहर पैर नहीं फैलाने हैं।
जीवन का नियम है विस्तार, और हमने संकोच के
नियम को आधार बनाया हुआ है। जो समाज विस्तार के सिद्धांत को स्वीकार किए हैं
उन्होंने यंत्र को विकसित किया है, क्योंकि यंत्र है मनुष्य
का विस्तार। हमारे पैर हैं, हम पैर से चलते हैं। पैर से हम
कितने तेज चल सकते हैं? कार हमारे पैर का विस्तार है,
हमने पैर के लिए और विस्त्रित किया, और कार
तेज गति से दौड़ती है। हवाई जहाज हमारे पैर का और भी बड़ा विस्तार है, अंतरिक्ष यान हमारे ही पैर का और भी बड़ा विस्तार है।
यंत्र का अर्थ क्या है?
यंत्र का अर्थ है कि जो मनुष्य को उपलब्ध नहीं हैं उपकरण, उनका विस्तार या जो उपकरण उपलब्ध हैं, उनका विस्तार।
अगर हम संकोच को स्वीकार करते हैं कि जीवन जैसा है, जितना है, उतने ही चादर के भीतर उसे जी लेना है,
तो हम कोई यांत्रिक, वैज्ञानिक, टेक्नालॉजिकल माइंड पैदा नहीं कर सकते हैं। यह सवाल बहुत बड़ा नहीं है कि
गांधी यंत्र के विरोध में हैं या पक्ष में हैं। चरखा भी यंत्र है। दलील तो दी जा
सकती है कि तकली भी यंत्र है। यंत्र तो है ही। किसी दिन वह भी मशीन थी, आज भी मशीन तो है ही। छोटी है, अविकसित है, दस हजार वर्ष पुरानी है, इससे क्या फर्क पड़ता है।
यंत्र तो है ही। नहीं, सवाल यंत्र के पक्ष और यंत्र के विरोध
का नहीं है, सवाल टेक्नालॉजिकल माइंड और एंटी-टेक्नालॉजिकल
माइंड का है। सवाल है कि तकनीकी मस्तिष्क में हम विश्वास करते हैं या तकनीक विरोधी
मस्तिष्क में हम विश्वास करते हैं।
चीन ने कोई तीन हजार वर्ष पहले मशीनें ईजाद कर ली थीं, लेकिन चीन में एक विचारक था लाओत्से, उसका बड़ा
प्रभाव था। लाओत्से ने कहा कि यंत्रों की कोई जरूरत नहीं है। आदमी परिपूर्ण है।
परमात्मा ने आदमी को पूरा पैदा किया है। उसे किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। वह
अपने सारे अंगों से ही सारा काम कर सकता है। लाओत्से के दर्शन का इतना प्रभाव पड़ा
कि तीन हजार वर्ष पहले जो मशीनें चीन ने विकसित की थीं, वे
वहीं रह गईं, उनकी आगे कोई गति नहीं हो सकीं। उन्हीं मशीनों
को यूरोप ने पिछले तीन सौ वर्षों में विकसित किया और यूरोप ने धन के अंबार लगा
दिए। चीन ने अगर तीन हजार वर्ष पहले वे मशीनें विकसित की होतीं तो चीन शायद आज
पृथ्वी पर सभ्यता में अग्रणी हो सकता था, लेकिन लाओत्से के
विचार-प्रभाव के परिणाम में यंत्र वहीं ठहर गए और रुक गए।
हिंदुस्तान बैलगाड़ी पर चल रहा है हजारों साल से। वह जो बैलगाड़ी के चाक
का नियम है, वही हवाई जहाज का भी नियम है। उसमें कोई बुनियादी
फर्क नहीं पड़ गया है, उसका ही विस्तार है। लेकिन हम बैलगाड़ी
पर ही रुक गए। हमारा मस्तिष्क यंत्र के विस्तार की कामना से भरा हुआ नहीं है और
गांधीजी ने जब फिर हमें विकेंद्रीकरण--और विकेंद्रीकरण का क्या मतलब होता है?
डिसेंट्रलाइजेशन का मतलब क्या होता है? विकेंद्रीकरण
का मतलब होता है कि छोटे यंत्र; बड़े यंत्र नहीं। क्योंकि
जितने बड़े यंत्र होंगे उतना केंद्रीकरण होगा। जितना बड़ा केंद्रीकरण होगा उतने बड़े
यंत्रों का हम प्रयोग कर सकते हैं। जितनी विकेंद्रित व्यवस्था होगी उतने छोटे
यंत्र होंगे, एक-एक आदमी जिनको चला सके, दो-चार आदमी मिल कर चला सकें, छोटे-छोटे गांव में
चलाएं जा सकें। विकेंद्रीकरण का अर्थ होगा कि बहुत बड़े यंत्रों का प्रयोग नहीं हो
सकता। और आने वाली जो दुनिया है वह बहुत बड़े यंत्रों पर निर्भर होगी।
फिर मेरा यह कहना है, कि यह सवाल अगर यंत्रों का ही
होता तो मैं गांधीजी का विरोध भी न करता। यह सवाल यंत्रों का ही नहीं मनुष्य की
चेतना के विकास का भी है। शायद आपको पता न हो, हम जितने बड़े
उत्पादन के यंत्रों का प्रयोग करते हैं, मनुष्य के मस्तिष्क
की अभिव्यक्ति और विकास की संभावना उतनी ही बढ़ती है। यह एकदम से आश्चर्यजनक मालूम
पड़ेगा। लेकिन आपने कभी खयाल किया कि एक बैलगाड़ी एक आदमी चलाता है जीवन भर। बैलगाड़ी
चलाने में कोई बहुत बुद्धिमत्ता कि लिए चुनौती नहीं मिलती। चुनौती का कोई सवाल
नहीं है, कोई चैलेंज नहीं है वहां, लेकिन
उसी आदमी को कल हवाई जहाज चलाना पड़े, तो हवाई जहाज मस्तिष्क
को ज्यादा चुनौती देता है, ज्यादा समझ, ज्यादा अवेयरनेस, ज्यादा होश, ज्यादा
कांशसनेस रखनी पड़ती है। ज्यादा जटिल चीजों को समझना पड़ेगा, ज्यादा
जटिल चीजों में व्यवहार करना पड़ेगा।
जितनी जटिल, उलझी हुई, जितनी सूक्ष्म,
जितनी विस्तीर्ण हमें यंत्र के साथ सामना करना पड़ता है, हमारे मस्तिष्क को उतनी चुनौती मिलती है और मस्तिष्क उसी अनुपात में
विकसित होता है। जिन कौमों ने छोटे यंत्रों या गैर-यंत्रों के बिना काम चलाया,
उनकी सामाजिक चेतना और मस्तिष्क के विकास में अवरोध पड़ा है।
बंदर पहली दफा जो बंदर जमीन पर खड़ा हुआ होगा दो पैर से, बाकी बंदर उस पर हंसे होंगे कि यह बिलकुल नासमझ है, लेकिन
डार्विन कहता है कि वह बंदर जो दो पैर पर खड़ा हो गया--पहले तो बंदर हंसे होंगे और
उन्होंने समझा होगा कि यह पागल है। वह ऑकवर्ड भी लगा होगा दो पैर से खड़ा हुआ। सब
बंदर चार पैर से चलने वाले थे, लेकिन जो बंदर दो पैर से खड़ा
हो गया उसने टेक्नालॉजिकल रेवोल्यूशन को जन्म दे दिया। उसने तकनीक के विकास की
पहली सीढ़ी रख दी। उसने यह कहा है कि जो काम दो पैर से हो सकता है उसको चार हाथ-पैर
से करना गलत है। तकनीक शुरू हो गया। उसने दो हाथ मुक्त कर लिए और दो पैर से चलने
का काम करने लगा।
क्या आपको पता है, अगर उस बंदर ने दो हाथ मुक्त
नहीं किए होते तो मनुष्य की कोई सभ्यता का कभी जन्म नहीं हुआ होता। वह जो दो हाथ
मुक्त हो गए, वह दो खाली हाथों ने मनुष्य की सारी सभ्यता
विकसित की है। बंदर वहीं रुक गए हैं चार हाथ-पैर से चलने वाले। दो हाथ-पैर से चलने
वाले बंदर ने जमीन-आसमान का फर्क पैदा कर लिया। आज कोई कहे कि बंदर और हम एक ही
जाति के हैं, तो हमारा मन मानने को राजी नहीं होता। हमारे और
बंदर के बीच इतना फासला पड़ गया, लेकिन यह फासला एक
टेक्नालॉजिकल फर्क से पड़ा कि कुछ बंदरों ने दो हाथ मुक्त कर लिए। दो हाथ खाली हो
गए, स्वतंत्र हो गए काम करने को, दो
पैर से काम चलने लगा और उन दो स्वतंत्र हाथों ने सारी सभ्यता, मकान, मंदिर, ताज, मस्जिदें, साहित्य, संगीत,
धर्म, इन सबकी फिक्र की।
इस बात की संभावना है कि बहुत शीघ्र मनुष्य समस्त यंत्रों को स्वचालित
निर्मित कर लेगा। अमेरिका में तो उसका चिंतन और विचार तीव्र हुआ जाता है। वे कहते
हैं कि आने वाले पचास वर्षों में हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि हम यंत्रों
से सब पैदा कर लेंगे। मनुष्य के श्रम की कोई जरूरत न रह जाएगी। मनुष्य खाली हो
जाएगा। वह खाली मनुष्य क्या करेगा, यह हमारे सामने सवाल
है? अगर सारे यंत्र स्वचालित हो गए और मनुष्य का श्रम उनसे
मुक्त हो गया, तो मेरी दृष्टि में मनुष्य की चेतना में आमूलभूत
परिवर्तन हो जाएगा, क्योंकि पहली दफा चेतना पृथ्वी से पूरी
तरह मुक्त हो जाएगी--श्रम से और उस श्रम से शून्य अवस्था में जो खोज, जो यात्रा चेतना की होगी, वह उन्हें किस लोकों में
ले जाएगी कहना कठिन है।
शायद आपको पता नहीं कि जगत की सारी संस्कृति लिजर, विश्राम से पैदा हुई है। जगत का सारा साहित्य लिजर, विश्राम
से पैदा हुआ है। जगत में जो भी श्रेष्ठतम उपलब्ध हुआ है वह उन लोगों से उपलब्ध हुआ
है जो श्रम से किसी भांति मुक्त हो गए। एथेंस में जितनी संस्कृति विकसित हुई,
वह इसलिए विकसित हो सकी कि एथेंस में एक वर्ग, गुलामों के वर्ग ने सारा श्रम किया और दूसरे अभिजात वर्ग ने, बुर्जुआ ने कोई श्रम नहीं किया। वे जो श्रमहीन लोग थे, वे भी तो कुछ करेंगे जीने के लिए? उन्होंने फिलासफी
लिखी। उन्होंने साक्रेटीज, अरस्तू और प्लेटो को जन्म दिया।
भारत में भी, भारत ने भी ब्राह्मणों ने हिंदुस्तान के सारे साहित्य,
सारे विचार को जन्म दिया, क्योंकि ब्राह्मण
श्रम से मुक्त हो गया था, अन्यथा कोई उपाय न था। शूद्रों ने
एक उपनिषद लिखी? शूद्रों ने एक वेद लिखा? शूद्रों ने आयुर्वेद खोजा? शूद्रों के ऊपर क्या
उपलब्धि है भारत में? शूद्र के नाम पर कोई उपलब्धि नहीं है
बेचारे के, क्योंकि वह चौबीस घंटे श्रम में लीन है।
हिंदुस्तान की सारी संस्कृति का जन्मदाता ब्राह्मण है। और ब्राह्मण
क्यों हैं जन्मदाता? ब्राह्मण इसलिए जन्मदाता है कि उसके हाथ से सारा श्रम
समाप्त हो गया, उसका व्यक्तित्व पूरा का पूरा विश्राम में हो
गया, चेतना को ऊपर उठने का मौका मिल गया, चेतना आकाश की यात्रा करने लगी।
मनुष्य-जाति के जीवन में एक आध्यात्मिक क्रांति हो जाएगी उस दिन, जिस दिन हम सारी मनुष्य-जाति को श्रम से मुक्त कर लेंगे। जब तक हम
मनुष्य-जाति को श्रम से मुक्त नहीं करते हैं, तब तक मनुष्य-जाति
के जीवन में बहुत बुनियादी रूपांतरण नहीं हो सकता है।
गांधीजी के जो विश्वास हैं, उनके हिसाब से
मनुष्य-जाति श्रम से कभी मुक्त नहीं होगी। अगर एक आदमी अपने लायक ही कपड़ा बनाना
चाहे तो कम से कम उसे तीन-चार घंटे रोज चरखा चलाना पड़ेगा। वर्ष भर में अपने लायक
कपड़ा बनाना चाहे तो उसे तीन-चार घंटे चरखा चला लेना पड़ेगा। अगर उसके ऊपर कोई
निर्भर एक व्यक्ति है तो उसके आठ घंटे चरखा चलाने में व्यतीत हो जाने चाहिए। जो
आदमी आठ घंटे चरखा चलाएगा--सिर्फ कपड़ा बनाने के लिए! वह और भी कुछ करेगा या नहीं?
और इतनी क्षुद्र चीजों में उसकी चेतना को उलझा देना क्या मनुष्य के
भावी विकास के हित में हो सकता है? यह प्रश्न सिर्फ चरखा और
तकली का नहीं है, यह प्रश्न मनुष्य-जाति के जीवन में चेतना
के जन्म, चेतना के विकास का प्रश्न है।
अभी अमेरिका और रूस ने जो अंतरिक्ष यान भेजे, उन अंतरिक्ष यानों में जो यात्री गए, उनका अनुभव
आपको पता है? उन्होंने लौट कर क्या खबरें दी हैं? उन्होंने खबरें दी हैं कि अंतरिक्ष में परिपूर्ण शून्य है, सन्नाटा है। वहां टोटल सायलेंस है, वहां कोई आवाज
नहीं, क्योंकि वहां कोई हवा नहीं। अगर बोलिएगा भी तो ओंठ
हिलेंगे, आवाज नहीं होगी। वहां कभी कोई आवाज नहीं हुई।
अंतरिक्ष परिपूर्ण शून्य है। उस शून्य में जाकर अंतरिक्ष यात्रियों को
क्या अनुभव हुआ कि यह मस्तिष्क पूरा का पूरा फटने लगता है, घबड़ाने लगता है। इतनी शांति कभी देखी नहीं, इतनी
शांति कभी झेली नहीं। हमेशा शोरगुल, आवाज, आवाज, रात सोते हैं तब भी बाहर आवाजें चल रही हैं,
उनकी मस्तिष्क को आदत पड़ गई है। मस्तिष्क उनसे कंडीशंड हो गया है।
अंतरिक्ष में जाने पर उनको पता चला कि मस्तिष्क तो फट जाएगा। इतनी
शांति को सहना मुश्किल है। तो रूस और अमेरिका में उन्होंने कृत्रिम घर बनाए हैं, कृत्रिम कमरे बनाए हैं जिनमें उतनी शांति पैदा करने की कोशिश की है जितनी
अंतरिक्ष में है। वहां यात्री को पहले ट्रेनिंग दी जाएगी, लेकिन
उस कमरे में बैठ कर आधा घंटे, पंद्रह मिनट में घबड़ा कर
यात्री बाहर आ जाता है कि वहां बहुत घबड़ाहट होती है, लेकिन
धीरे-धीरे उस शून्य को सहने की सामर्थ्य उसकी विकसित हो जाएगी। उसका अर्थ आप समझते
हैं? उसका अर्थ यह है कि जो लोग अंतरिक्ष यान में यात्रा
करेंगे उनके मस्तिष्क की बनावट में बुनियादी फर्क हो जाएगा उतनी शांति को सहने के
कारण और यह हो सकता है कि एक बिलकुल दूसरे तरह के मनुष्य का जन्म हो जाए जिसकी
हमें कोई कल्पना भी नहीं हो सकती।
जीवन और उत्पादन के साधन, वाहन-कम्युनिकेशन के
साधन अंततः मनुष्य की चेतना में परिवर्तन लाते हैं। अपने देखा, जो जंगल में आदिवासी रह रहा है, उस आदिवासी ने कोई
साक्रेटीज पैदा किया? कोई बुद्ध पैदा किया? कोई महावीर पैदा किया? कोई गांधी पैदा किया? वह कैसे पैदा करेगा? उसके उत्पादन के साधन इतने आदिम
हैं कि उन आदिम उत्पादनों के साथ मस्तिष्क इतनी ऊंचाइयां नहीं ले सकता है जितनी
ऊंचाइयां विकसित साधनों के साथ ली जा सकती है। आपको खयाल है, आज भी हिंदुस्तान में राधाकृष्णन जैसे व्यक्तियों को हम विचारक कहते हैं।
राधाकृष्णन टीकाकार हो सकते हैं, विचारक जरा भी नहीं। एक
मौलिक विचार को कोई जन्म नहीं दिया। जर्मनी में हाइडेगर है या जास्पर्श है,
या सार्त्र है, या कामू है, या रसल है। इनकी कोटि का एक विचारक आप पैदा नहीं कर कर सकते हैं आज।
आप जिसको विचारक कहते हैं, किसको विचारक कहते
हैं? गीता पर एक आदमी टीका लिख देता है तो विचारक हो जाता है?
लेकिन गीता पैदा कर सके ऐसा एक विचारक आप पैदा नहीं कर सकते हैं। बस
टीकाकार पैदा कर सकते हैं। उन्हीं को विचारक मान कर शोरगुल मचाते रहते हैं।
हाइडेगर की हैसियत का एक विचारक हम पैदा नहीं कर सकते। उसका कारण? उसका कारण यह नहीं कि हमारे पास बुद्धि कम है, उसका
कारण यह नहीं कि हमारे पास प्रतिभा नहीं है, उसका कारण यह है
कि हमारा पूरा सामाजिक परिवेश उतनी प्रतिभा को चैलेंज देने वाला नहीं है जहां से
कि हाइडेगर या जास्पर्श जैसे लोग पैदा हो सकें। लेकिन हम बैठे हुए हैं और हमारा
विचारक चरखा और तकली की प्रशंसा करता रहेगा और हम विचार करने को राजी नहीं हैं।
इस बात के लिए समझ लेना आप ठीक से कि अगर पचास वर्ष में पश्चिम में सब
कुछ स्वचालित यंत्र हो गए, अंतरिक्ष की यात्रा शुरू हुई, तो
इस बात का डर है कि पश्चिम में एक नये मनुष्य का, एक नई
ह्यूमेनिटी का जन्म हो जाए और पूरब के लोगों और पश्चिम के लोगों में उतना फासला पड़
जाए हजार दो हजार वर्षों में, जितना बंदर और आदमी के बीच
फासला पैदा हो गया है। लेकिन हमें कोई बोध नहीं है इस बात का। हम कहेंगे, हम तो स्वावलंबन की बातें कर रहे हैं। हम हमेशा से इसी तरह की बातें कर
रहे हैं और हमेशा नुकसान उठाते रहे हैं, लेकिन हम जानने को
भी राजी नहीं होना चाहते।
हिंदुस्तान एक हजार साल तक गुलाम था और हजारों साल से निरंतर हारता
रहा है, जीत का उसने कभी कोई सपना नहीं देखा, जीत का कभी मौका नहीं पाया। हम क्यों हारते रहे? कभी
आपे सोचा? हम हारते इसलिए रहे हैं कि जब भी दुश्मन हमारे ऊपर
आया, उसके पास युद्ध की विकसित टेक्नालॉजी थी। हमारे पास
विकसित टेक्नालॉजी नहीं थी। सिकंदर हिंदुस्तान आया वह घोड़े पर सवार होकर आया। पोरस
उससे लड़ने गया। पोरस सिकंदर से कमजोर आदमी नहीं था और उसके पास बहादुर सैनिक थे,
लेकिन पोरस के पास टेक्नालॉजी जो थी वह अविकसित थी। वह हाथियों पर
लड़ने गया था। हाथी कोई युद्ध का अस्त्र नहीं है। हाथी बरात निकालनी हो तो बहुत
अच्छे हैं, शोभा-यात्रा निकालनी हो तो बहुत अच्छे हैं,
लेकिन युद्ध के मैदान पर हाथी पिछड़ा हुआ साधन है घोड़े के मुकाबले।
घोड़ा तेज है, ज्यादा जानवान है, ज्यादा
चंचल है, थोड़ी जगह घेरता है, तेजी से
गति करता है।
सिकंदर के घोड़ों के मुकाबले पोरस के हाथी हारे। सिकंदर से पोरस नहीं
हारा है। और हाथी जब घबड़ा गए युद्ध में तो उन्होंने अपनी सेनाओं को कुचल डाला।
बाबर हिंदुस्तान आया। बाबर के पास बारूद थी। हमारे पास बारूद का कोई उत्तर नहीं
था। दूसरे मुल्क में हम लड़ने नहीं गए, दूसरे मुल्क के लोग
लड़ने आए, हम अपने मुल्क में हारते रहे। इतनी बड़ी जनसंख्या
लेकर हम बैठे हैं, परदेश से एक आदमी आएगा कितनी फौजें लाएगा,
कितनी फौजें ला सकता है, और हम उससे अपने
मुल्क में हार जाएंगे। बारूद का हमारे पास कोई उत्तर न था। बारूद से हारने के
सिवाय कोई रास्ता न था। हम बाबर से नहीं हारे; हम बारूद से
हारे। बाबर को हराने की हमें हिम्मत न थी, लेकिन हमारे पास
कोई टेक्नीक न थी। अंग्रेज हिंदुस्तान में आए, हमारे पास
बंदूकें थीं, अंग्रेजों के पास विकसित तोपें थीं। हम
अंग्रेजों से नहीं हारे, बंदूकें तोपों से हारेंगी ही,
इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है।
और अब हम फिर वही बातें किए चले जा रहे हैं कि टेक्नालॉजी, नहीं-नहीं बड़े यंत्रों का क्या करना है, बड़े विकास
का क्या करना है, चरखात्तकली से चलाना है। उसी से चला रहे
हैं हम पांच हजार वर्षों से और रोज मात खाते रहे, रोज जमीन
चाटते रहे, लेकिन वही बातें हम जारी किए हुए हैं। और अगर कोई
कहे कि यह गलत है, हमें विकास के सारे साधनों का उपयोग करना
है, हमें बहुत शीघ्र बीस वर्षों में सारी दुनिया के साथ खड़े
हो जाना है, अन्यथा हम कहीं के नहीं रह जाएंगे, तो हम उसके विरोध में टूट पड़ेंगे कि हमारे महापुरुष की आलोचना हो गई। यह
महापुरुष की आलोचना का सवाल नहीं है, यह मुल्क की जिंदगी का
सवाल है।
मैं जो विकसित टेक्नीक के पक्ष में बोल रहा हूं वह इसलिए नहीं कि मुझे
चरखे से कोई दुश्मनी है, न तकली से मुझे दुश्मनी है, न
मैं इस खयाल का हूं कि चरखे और तकली चलने बंद हो जाने चाहिए। जब तक कोई उपाय नहीं
है वह चलें, लेकिन मजबूरी हो उनको चलाना, हमारा सिद्धांत नहीं। यह फर्क समझ लेना जरूरी है। मजबूरी हो उनको चलाना,
हमारा सिद्धांत नहीं। विवशता हो हमारी, हम
मजबूर हैं, इसलिए अभी कुछ नहीं कर पा रहे हैं, तो चला रहे हैं। लेकिन जैसे ही हमें मौका मिलेगा, हम
उनसे मुक्त हो जाएंगे। यह हमारी दृष्टि हो। वे हमारे प्रतीक न बन जाएं। हमारी
कमजोरी के प्रतीक हों, हम नहीं विकसित हो पाए हैं इसके
प्रतीक हों। उनको हम छाती का शृंगार न बना लें और यह न घोषणा करते फिरें कि हम
बहुत ऊंचा काम कर रहे हैं।
न ही खादी से मेरा कोई विरोध है, लेकिन खादी को मैं
कोई आर्थिक-संयोजन का सिद्धांत नहीं मानता हूं। खादी कोई आर्थिक चीज नहीं हो सकती।
खादी का एक एस्थेटिक मूल्य हो सकता है, एक सौंदर्यगत मूल्य
हो सकता है। किसी आदमी को हाथ से बनाई हुई चीज पहनने में रस हो सकता है। दुनिया
कितनी ही विकसित हो जाए तो भी घर के उद्योग जारी रहेंगे। दुनिया कितनी ही विकसित
हो जाए, होटलों में कितना ही अच्छा खाना बनने लगे, तो भी कोई गृहिणी अपने घर खाना बनाना पसंद करेगी। और यह भी हो सकता है कि
घर बनाया हुआ खाना होटल से अच्छा न हो, तो भी घर का खाना
खाने का आनंद अलग है। लेकिन उसका मूल्य एस्थेटिक है। उसका मूल्य आर्थिक नहीं है,
उसका मूल्य वैज्ञानिक नहीं है। अगर मेरी मां मुझे कुछ खाना बना कर
खिलाती है, हो सकता है होटल के रसोइए उससे बहुत बेहतर बनाते
हों, लेकिन होटल के रसोइयों के खाने से मुझे मेरी मां का
खाना अच्छा लगेगा। लेकिन मैं यह कभी नहीं कहूंगा कि यह डाइटीशियन के हिसाब से ज्यादा
बेहतर खाना है। मैं इतना ही कहूंगा, यह मेरी मां है और मेरा
एक प्रेम है और एक लगाव है इसलिए यह मुझे अच्छा लग रहा है। इसका संबंध फीलिंग से
हुआ, डाइट के साइंस से नहीं। लेकिन जब मैं यह घोषणा करने
लगूं कि मां के हाथ का बनाया हुआ खाना डाइट की दृष्टि से, भोजनशास्त्र
की दृष्टि से ऊंचा होता है, तो फिर मैं गड़बड़ में पड़ गया,
तो फिर मैं कठिनाई में पड़ गया।
खादी एक एस्थेटिक मूल्य रखती है। जिन्हें प्रीतिकर हो वे खादी पहन
सकते हैं, जिन्हें प्रीतिकर हो वे चरखा चला सकते हैं। किसी को
रुकावट डालने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन खादी को
आर्थिक-संयोजना का, इकॉनामिक प्लानिंग का हिस्सा नहीं समझा
जा सकता और खादी को आर्थिक-सिद्धांत नहीं माना जा सकता।
मैं खुद खादी पहनता हूं। मुझे खुद दूसरे कपड़े के बजाय खादी ज्यादा
पोएटिक, ज्यादा काव्यात्मक मालूम पड़ती है। मुझे खुद खादी में
ज्यादा पवित्रता, ज्यादा स्वच्छता, ज्यादा
सफेदी मालूम पड़ती है। लेकिन यह मेरी पसंद हुई व्यक्तिगत। यह हॉबी हो सकती है,
यह अपना सुख हो सकता है। और हॉबी कि लिए महंगे से महंगा खर्च करना
पड़ता है--सो खादी काफी महंगा हॉबी है, काफी महंगी हॉबी है।
जो धोती दस रुपये में मिल सकती है मील की, वह खादी कि पचास
रुपये में मिलेगी। और वह पचास में भी सिर्फ इसलिए मिलती है कि कर चुकाने वालों से
पंद्रह रुपये लेकर खादी पहनने वालों को चुकाए जा रहे हैं। पैंसठ रुपये की चीज पचास
रुपये में पड़ती है पहनने वाले को। पंद्रह रुपये सरकार दे रही। यह हैरानी की बात
है। जिसको शौक हो वह पैंसठ, सत्तर, अस्सी
खर्च करे। लेकिन जो खादी नहीं पहनता है, उससे पंद्रह रुपये
उसकी जेब में से निकाल कर मुझे खादी पहनाई जाए यह समझ के बाहर है। इसका कोई अर्थ
नहीं, यह खतरनाक बात है।
लेकिन हम विचार करने को राजी होने को राजी नहीं हैं। हम सोचने को ही
राजी नहीं हैं। इससे क्या पता चलता है? सोचने से इतना भयभीत
होने का मतलब क्या होता है? इसका साफ मतलब यह होता है कि हम
बहुत भलीभांति जानते हैं कि इन चीजों पर सोचा तो सोचने में ये चीजें बह जाएंगी,
ये बच नहीं सकतीं। जब आदमी डरता है कि जिन चीजों पर सोचने से चीजों
के मिट जाने का डर है, अनकांशसली वह अनुभव करता है कि हमने
सोचा कि ये गईं, तो वह सोचने से भयभीत हो जाता है। फिर वह
कहता है सोचो मत, जो है वह ठीक है, आंख
बंद रखो। आंख बंद रखने का मतलब यह है कि आप जानते हैं आंख खोलते से जो दिखाई पड़ेगा
वह वही नहीं होने वाला है, जो आप समझते रहे हैं। वह तथ्य
दूसरा है जो आंख खोलने से दिखाई पड़ेगा। इसलिए कमजोर लोग आंखें बंद करना शुरू कर
देते हैं, लेकिन अगर पैर में फोड़ा है और उसे छिपा लें आप,
तो आप स्वस्थ नहीं हो जाते और अगर कोई कहे कि जरा आपका कपड़ा उठाइए
और आप कहें कि क्यों कपड़ा उठाऊं, क्यों तुमने मेरी कपड़ा
उठाने की बात की, तो उससे भी आप स्वस्थ नहीं हो जाते हैं,
बल्कि आपकी यह घबड़ाहट बताती है कि कपड़े के पीछे कुछ आप छिपाए हैं
जिसे आप जानते भी हैं और नहीं भी जानना चाहते हैं; जिसे आप
पहचानते भी हैं लेकिन पहचानना भी नहीं चाहते हैं, मुकरना
चाहते हैं, पीठ फेर लेना चाहते हैं।
जब भी कोई कौम विचार करने से डरने लगती है तो समझ लेना उस कौम ने कुछ
बेवकूफियां पाल रखी हैं जिनकी वजह से वह विचार करने से डरती है।
सत्य कभी भी विचार करने से भयभीत नहीं होता, असत्य हमेशा विचार करने से भयभीत होता है।
हमारे महापुरुष असत्य हैं या सत्य, अगर उन पर विचार करने
से भय मालूम होता है तो तुम समझ लेना कि तुम बहुत भीतर मन में जानते हो कि ये
महापुरुष हमारे बनाए हुए हैं, ये असली महापुरुष नहीं हैं।
लेकिन अगर तुम विचार करने की हिम्मत कर सकते हो, तो ही पता
चलता है कि तुमने स्वीकार किया है कि महापुरुष में कुछ बल है। तुम्हारे विचार करने
से वह नष्ट हो जाने वाला नहीं है। जो व्यर्थ होगा वह जल जाएगा। हम सोने को आग में
डालने से डरते नहीं, क्योंकि जो कचरा होगा वह जल जाएगा और जो
सोना है वह बच कर बाहर निकल आएगा। लेकिन कचरा ही कचरा पास में हो तो उसको हम फिर
आग में डालने से बहुत डरेंगे।
मैं गांधी को आग में डालने से नहीं डरता हूं, क्योंकि मैं मानता हूं उनमें बहुत कुछ सोना है; कचरा
जल जाएगा और सोना निखर कर बाहर आ जाएगा। लेकिन उनके भक्त बहुत भयभीत होते हैं।
उनके भक्त क्या डरते हैं कि गांधी जल जाएंगे विचार करने से उन पर? उनके एक भक्त ने अभी चिट्ठी लिखी है कि मैं और कुछ भी करूं, कम से कम गांधी को सिर्फ गांधी न कहा करूं, महात्मा
गांधी या गांधीजी कहा करूं।
अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। यह थोड़ा सोचना जैसा है कि हम गांधी को
गांधीजी कहें, इसमें ज्यादा आदर है या गांधी कहने में ज्यादा आदर है?
परमात्मा के साथ हम जी नहीं लगाते कि परमात्मा जी। परमात्मा को हम
कहते हैं परमात्मा। परमात्मा को हम कहते हैं तू। आप आएंगे तो मैं आपसे कहूंगा आप।
परमात्मा से कभी किसी से "आप' कहा है? परमात्मा से हम कहते हैं "तू', हे परमात्मा तू!
तू अनादर नहीं है। तू अनादर नहीं है और न गांधी अनादर है। इतना प्रेम है मेरे मन
में कि "जी' लगाने से मुझे नहीं लगता कि गांधी की इज्जत
बढ़ती है। ये छोटे-मोटे लोगों के साथ जी लगाने से इज्जत बढ़ती होगी। गांधी के साथ जी
लगाने से इज्जत कम होती है। जी हम उनके साथ लगाते हैं जिनके साथ लगाने जैसा भीतर
कुछ भी नहीं है, बाहर से जी लगा कर इज्जत जोड़ देते हैं।
महावीर को मैं महावीर कहता हूं, उनको महावीरजी कहने
से ऐसा लगेगा कोई किराने की दुकान के मालिक हैं। गौतम बुद्ध को मैं बुद्ध कहता हूं,
बुद्धजी लगाने से वे ओछे और छोटे पड़ जाएंगे। गांधी को मैं उसी कोटि
में मानता हूं जहां आदमी "आप' के ऊपर उठ जाता है और
"तू' में प्रविष्ट हो जाता है। इसलिए मैं जी वगैरह नहीं
लगाऊंगा और न महात्मा कहूंगा। लेकिन ये घबड़ाते कैसे हैं लोग कि जी नहीं लगाया तो
मुश्किल हो गई। ये अपनी ही बुद्धि से सोचते हैं। वह जितनी उनकी हैसियत है। अगर
उनसे कोई जी न लगाए और आप न कहे तो वे बेचैनी में पड़ जाएंगे। बेचारे अपनी ही शक्ल
में वे महापुरुषों को भी सोचते रहते हैं। नहीं, मैं नहीं
लगाऊंगा और आप लगाते हो तो आपसे कहूंगा: मत लगाना, अपमानजनक
है, इनसल्टिंग है।
हम अपने महापुरुष को तो उतने प्रेम से पुकार सकते हैं, बीच में जी और आदर सब लगाने की जरूरत नहीं है। शायद आपको खयाल न हो कि हम
जब आदर प्रकट करते हैं तो हम क्यों प्रकट करते हैं? जब हम
शब्दों में आदर बताते हैं तो क्यों बताते हैं? शब्दों में
आदर इसलिए बताना पड़ता है कि अगर शब्दों में न बताएं तो और तो कोई आदर हमारे पास
नहीं है। शब्द ही आदर है।
जब हृदय में आदर होता है तो शब्दों में हम विचार नहीं करते, फिक्र नहीं करते और जब हृदय में आदर नहीं होता तो हम शब्दों की बहुत फिक्र
करते हैं कि क्या कहा क्या नहीं कहा, कौन सा शब्द उपयोग किया,
कौन सा नहीं किया।
बर्नार्डशा, उसका संक्षिप्त नाम: जे.बी.एस.। वह कहता था: जार्ज
बर्नार्डशा। उसकी मां मर गई, तो उस दिन से उसने जे.बी.एस.
लिखना बंद कर दिया, सिर्फ बी.एस. लिखने लगा, बर्नार्डशा लिखने लगा। उसके मित्रों ने पूछा कि तुम जे.बी.एस. क्यों नहीं
लिखते हो अब? उसने कहा कि सिर्फ मेरी एक मां थी जिसका मेरे
ऊपर इतना प्रेम था जो मुझे जार्ज कहती थी। वह चली गई दुनिया से। अब इतना प्रेम
मेरे ऊपर किसी का भी नहीं है कि कोई मुझे जार्ज कहे। वह सब मुझे बर्नार्डशा कहते
हैं। बर्नार्डशा उतना प्यारा नाम नहीं है। मेरी मां उठ गई दुनिया से। उसका इतना
प्रेम था कि वह मुझसे जार्ज कहती थी। अब वह जार्ज मैंने अलग कर दिया। अब कोई भी
उससे मुझे बुलाएगा नहीं, कोई भी मुझे जार्ज कह कर नहीं
कहेगा। बर्नार्डशा ने कहा कि मेरी मां के मरने से मैं पहली दफा बूढ़ा हो गया हूं। मेरी
मां जिंदा थी तो मैं बूढ़ा नहीं था। मुझे लगता था कि मैं अभी बच्चा हूं, क्योंकि मुझे जार्ज कह कर बुलाती थी। इतना प्रेम था उसका। अब मैं बूढ़ा हो
गया, अब मेरी मौत करीब आने लगी। अब मुझे लगता है कि अब इतना
प्रेम कोई भी मुझे नहीं करता है।
प्रेम के अपने रास्ते हैं, श्रद्धा के अपने
रास्ते हैं। लेकिन जो न प्रेम जानते हैं, न श्रद्धा जानते
हैं सिर्फ थोथा शिष्टाचार जानते हैं, उनको बेचारों को प्रेम
और श्रद्धा के रास्तों का कोई भी पता नहीं हो पाता। वे शिष्टाचार को ही सब कुछ
समझते हैं। शिष्टाचार उनके बीच होता है जिनके बीच प्रेम नहीं है। जिनके बीच प्रेम
है उनके बीच शिष्टाचार समाप्त हो जाता है। महापुरुष हम उसे कहते हैं जिसके साथ
समाज का शिष्टाचार समाप्त हो गया है, उससे हम सीधी-सीधी बात
कर सकते हैं। इसलिए मैं क्षमा नहीं मांगूंगा कि गांधीजी को गांधीजी नहीं कहता या
महात्मा नहीं लगाता। नहीं, कभी नहीं लगाऊंगा, लगाने की कोई जरूरत नहीं है।
कुछ मित्रों ने पूछा है कि गांधीजी ने, गांधी के विचार ने
देश को आजादी दिलाई। मैं मना नहीं करता। यह भी मैं मना नहीं करता कि उन्होंने देश
के लिए कितना काम किया। शायद इस देश के पूरे इतिहास में किसी एक मनुष्य ने देश के
लिए इतना काम नहीं किया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है,
इसका यह अर्थ नहीं है कि हम उनके प्रति अंधे हो जाएं। वे भी पसंद
नहीं करेंगे कि हम उनके प्रति अंधे हो जाए, वे भी पसंद नहीं
करेंगे कि हम उनके प्रति सोचना-विचारना बंद कर दें। उनका हमारे ऊपर ऋण बहुत ज्यादा
है। इसीलिए तो मैं सोचता हूं कि उन पर हमें बार-बार विचार करना चाहिए। उन पर
बार-बार विचार करने का अर्थ ही यही है कि मैं मानता हूं कि उनका ऋण हमारे ऊपर बहुत
ज्यादा है और उस ऋण से उऋण होने का एक ही रास्ता है कि हम निरंतर सोचें, सोचें, निखारे उनके विचार को और उनके विचार में जो
श्रेष्ठतम है उसके अनुकूल देश को ले जा सकें।
लेकिन श्रेष्ठतम का पता कैसे चलेगा? एक बड़ी जिंदगी बहुत
बड़ी जिंदगी है, जिंदगी में हजारों-लाखों घटनाएं होती हैं,
उन लाखों घटनाओं में चुनना पड़ता है कि क्या है श्रेष्ठ, क्या है भविष्य के योग्य, क्या व्यर्थ हो गया,
क्या अप्रासंगिक हो गया, क्या समय के बाहर हो
गया--यह सब सोचना पड़ता है। महापुरुष भी पचास वर्ष, साठ वर्ष,
सत्तर वर्ष जीता है, तो सत्तर वर्ष में हजारों
घटनाएं घटती हैं। वे सारी की सारी घटनाएं देश के भविष्य के लिए उपयोगी नहीं होतीं,
नहीं हो सकती हैं। उनमें से क्या हैं, छांट
लेना हैं। लेकिन हम ऐसे अंधे लोग हैं कि जब हम किसी को महापुरुष कहते हैं तो उसके
सब कुछ को महापुरुष मान लेते हैं। इससे बड़ी भूल पैदा हो सकती है। इससे बड़ी
बुनियादी भूल पैदा हो सकती है।
महापुरुष जो करता है, महापुरुष जिस समय में जीता है,
जिस सामयिक प्रसंगों पर चुनौती झेलता है उसमें से बहुत सा उसी दिन
व्यर्थ हो जाता है। उसमें से बहुत सा बाद में व्यर्थ हो जाता है। शाश्वत बहुत थोड़ा
रह जाता है। अधिकतम तो कंटेंप्रेरी प्रॉब्लम होता है। इटरनल प्रॉब्लम तो बहुत कम
होता है। और गांधी के जीवन में बुद्ध या महावीर की बजाय कंटेंप्रेरी प्रॉब्लम
ज्यादा है। इसलिए महावीर और बुद्ध की बात में सनातन प्रश्न ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने समाज और जीवन के रोजमर्रा के प्रश्नों को छुआ ही नहीं।
गांधी ने जीवन और समाज के रोजमर्रा के प्रश्नों को छुआ है। गांधी के
व्यक्तित्व और विचार में, गांधी के कर्म में और जीवन में नब्बे प्रतिशत सामयिक
है, दस प्रतिशत सनातन है। उस सामयिक से हमको छुटकारा करना
होगा और सनातन की खोज करनी पड़ेगी, लिखा नहीं है कि क्या
सनातन है और क्या सामयिक है, खोज करनी पड़ेगी। सोच करना पड़ेगा,
विचार करना पड़ेगा, कांट-छांट करनी पड़ेगी। जो
गांधी व्यतीत हो गए, अतीत हो गए, उन्हें
हटा देना होगा। जो गांधी आगे भी सार्थक होंगे, कल भी साथ
होंगे, उनको बचा लेना होगा। अंततः निखरते-निखरते वही सूत्र
शेष रह जाएंगे जो सनातन हैं, जिनका समय से कोई संबंध नहीं,
जिनका मनुष्य के शाश्वत जीवन से संबंध है। तब हम गांधी को निखार
पाएंगे।
लेकिन भक्त अंधा होता है, वादी अंधा होता है।
वह कहता है कि हम पूरा स्वीकार करेंगे या पूरा अस्वीकार करेंगे। वह दो बातें मानता
है। या तो पूरा स्वीकार करेंगे या पूरा अस्वीकार करेंगे। जीवन में इस तरह हां और न
में उत्तर नहीं होते। जीवन में कुछ स्वीकृति होती है, कुछ
अस्वीकृति होती है। जीवन कोई इकट्ठा हां और न नहीं है कि हमने कह दिया हां और हमने
कह दिया न। भक्त कहता है कि या तो हम कहेंगे ना, कहेंगे कि
नहीं मानते गांधी को या कहेंगे कि मानते हैं तो पूरा मानते हैं। ये दोनों ही
दृष्टियां गलत हैं। अंधी दृष्टियां हैं। सोचना होगा, अपने
विवेक से खोजना होगा, देखना होगा, परखना
होगा, जांच करनी होगी, प्रयोग करने
होंगे और तब जो विवेक के अनुकूल बचता जाएगा वही शाश्वत होता चला जाएगा। शेष समय की
परिधि में खोता चला जाएगा। खो ही जाना चाहिए। समय के साथ ही वह खो जाना चाहिए जिसे
समय ने पैदा किया था। लेकिन हम अपने पागलपन में उसको बचा कर रखना चाहते हैं। उससे
हमारे महापुरुष को फायदा नहीं होता, नुकसान होता है, क्योंकि महापुरुष रोज-रोज नया नहीं हो पाता, ताजा
नहीं हो पाता, बासा पड़ जाता है, पुराना
पड़ जाता है। वह जो-जो बासा पड़ जाता है उसे काट देने की जरूरत है ताकि नया ताजा रोज
निखर कर बाहर आता चला जाए और जिसे हमने प्रेम किया हो, जिसे
हमने श्रद्धा दी हो वह हमारे लिए सनातन साथी बन सके। लेकिन हम जिस तरह से व्यवहार
करते हैं, इस तरह से यह नहीं हो सकता है।
मैं नहीं कहता हूं कि गांधी का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है, कोई पागल होगा जो ऐसा कहेगा। ऋण उनका महान है। लेकिन उस ऋण के कारण इतने
मत दब जाना कि गांधी का जो सामयिक तत्व है वह हमें सत्य जैसा मालूम पड़ने लगे। वह
उचित नहीं है।
किसी मित्र ने पूछा है कि आप तो गांधी जितने बड़े
नहीं हैं, तो आप उनकी आलोचना क्यों करते हैं?
अभी तक कोई तराजू कहीं दुनिया में नहीं है कि तौला जा सके कि कौन बड़ा
है और कौन छोटा है। कोई तराजू दुनिया में आज तक विकसित नहीं हुआ कि हम तौल सकें
कौन बड़ा है, कौन छोटा है। सच बात तो यह है, एक-एक
आदमी अपने-अपने जैसा है। कंपेरिजन की कोई संभावना नहीं है, कोई
उपाय नहीं है, कोई तुलना नहीं है। गांधी की किसी से तुलना
नहीं हो सकती। आपकी भी किसी से तुलना नहीं हो सकती। एक साधारण से साधारण आदमी भी
अनूठा और अद्वितीय है। न किसी से छोटा है, न किसी से बड़ा,
क्योंकि छोटे और बड़े हम तब हो सकते हैं जब हम एक जैसे हों। एक जैसे
अगर हम हों, तो पता चल सकता है कौन छोटा है, कौन बड़ा। लेकिन हममें से प्रत्येक अपने जैसा है, दूसरे
जैसा है ही नहीं, इसलिए छोटे-बड़े को तौलने की, कंपेयर करने की, तुलना करने की कोई सुविधा नहीं है।
गांधी को जब आप बड़ा कहते हैं तब भी आप भूल कर रहे हैं, क्योंकि
जैसे ही आपने तौला, बड़ा आपने कहा, तो
आपने तौल शुरू कर दी, आपने गांधी को तौल लिया, गांधी आपके हाथ से तुल गए। फिर कल कोई दूसरा मिल सकता है, वह कहेगा, महावीर और बड़े हैं, बुद्ध
और बड़े हैं। यही पागलपन तो हजारों साल से चल रहा है। जैन कहते हैं कि महावीर से
बड़ा कोई भी नहीं है। बौद्ध कहते हैं, बुद्ध से बड़ा कोई भी
नहीं है। मुसलमान कहते हैं, मोहम्मद से बड़ा कोई भी नहीं है।
ईसाई कहते हैं, जीसस से बड़ा कोई भी नहीं है। इसी पागलपन से
सारी मनुष्य-जाति कट गई और नष्ट हो गई। फिर वही जारी रखोगे कि कौन बड़ा है, कौन छोटा? कैसे तय करोगे? कौन
तय करेगा? कौन है निर्णायक? जजमेंट कौन
देगा? जजमेंट आप दोगे? अगर आप जजमेंट
दे सकते हो कि गांधी बड़े हैं तो आप गांधी से बड़े हो गए, क्योंकि
जजमेंट देने वाला हमेशा बड़ा हो जाता है। आप हो निर्णायक? तब
तो स्वभावतः गांधी खिलौना हो गए। तराजू पर आपने रख कर तौल लिया। कौन किसको तौलेगा?
ये हमारे सोचने के ढंग, व्यक्तियों को तौलने
के ढंग निहायत इम्मैच्योर, अपरिपक्व हैं। कोई मनुष्य तौला
नहीं जा सकता है। गांधी तो ठीक हैं, साधारण से साधारण मनुष्य
नहीं तौला जा सकता। कोई नहीं जानता है कि छोटे से मनुष्य में क्या घटना घटे।
एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। गांव में था एक गरीब चमार। गांव के
सम्राट को तो पता चल गया था कि बुद्ध आते हैं, लेकिन गरीब चमार को
कहां फुर्सत थी, कहां पता चला, उसे पता
भी नहीं था कि बुद्ध आते हैं। बुद्ध के आने का पता चलने की भी सुविधा तो चाहिए। वह
बेचारा दिन भर अपने काम में रहा, रात थका-मांदा सो गया। सुबह
अपने झोपड़े में उठा। उस चमार का नाम था सुदास। उठा, झोपड़े के
पीछे छोटी सी एक गंदी तलैया थी। उठा सुबह तो देखा कि उसमें एक कमल का फूल खिला है।
बे-मौसम का फूल था, अभी मौसम नहीं था कमल का। वह सुदास बहुत
हैरान हुआ। फिर बहुत खुश हुआ। फूल तोड़ कर भागा बाजार की तरफ कि कोई न कोई जरूर
रुपया दो रुपया इस फूल का दे देगा। फूल बड़ा था, सुंदर था,
बे-मौसम का था। जरूर इसके पैसे मिल जाएंगे।
वह बाजार की तरफ भागा चला जा रहा है कि नगर का जो धनपति था, सेठ था, नगर सेठ था, वह रथ पर
बैठा हुआ आ रहा है। वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। उस धनपति ने कहा कि कितना लोगे
इस फूल का? सुदास ने कहा, जो भी आप दे
देंगे, आपकी कृपा। उसने अपने सारथी को कहा कि पांच रुपये इसे
दे दो। सुदास तो हैरान हुआ, क्योंकि पांच बहुत ज्यादा थे--वह
सोचता था एक भी मिल जाए तो बहुत। वह एकदम हैरान हुआ। उसने कहा, पांच रुपये! यह बात ही चलती थी कि पीछे से उस देश का वजीर, मंत्री घोड़े पर सवार आ गया। उसने कहा कि बेचना मत फूल। फूल मैंने खरीद
लिया। धनपति जितना देते होंगे उससे पांच गुना मैं दूंगा। सुदास तो हक्का-बक्का हो
गया! उसने कहा, पच्चीस रुपये! आप कहते क्या हैं, इस साधारण से फूल के! क्या बात है? आप पांच देते थे,
धनपति ने कहा कि फूल मैं खरीदूंगा किसी भी कीमत पर, वजीर जितना बोलता जाए, मैं पांच गुना ज्यादा दूंगा। वह
तो मांग बढ़ती चली गई। और सुदास भौचक्का! वह ठहराव मुश्किल हो गया। तभी राजा का रथ
भी आ गया और उस राजा ने कहा, फूल खरीद लिया गया। जो भी दाम
तू मांगेगा, मुंहमांगा दाम दे दूंगा, जो
तू मांगेगा।
सुदास कहने लगा कि आप सब पागल हो गए हैं! इस फूल की कोई कीमत नहीं है।
हजारों कीमत तो बढ़ चुकी हैं और आप कहते हैं मुंहमांगा, जो मैं मांगूंगा। बात क्या है सम्राट? सम्राट ने कहा,
शायद तुझे पता नहीं, बुद्ध का आगमन हो रहा है
गांव में। हम उनके स्वागत को जाते हैं। बे-मौसम का फूल उनके चरणों में चढ़ाएंगे,
वे भी हैरान हो जाएंगे कि कमल, बे-मौसम का
फूल! बुद्ध के चरणों में यह फूल मैं ही चढ़ाऊंगा। नगर सेठ ने कहा कि नहीं, यह नहीं हो सकेगा, सम्राट! फूल को मैंने पहले देखा
है। पहले मैंने खरीद-फरोख्त शुरू की है। मैं पहला ग्राहक हूं। इनका विवाद चलता था।
सुदास ने कहा, क्षमा करिए, फूल मुझे
बेचना नहीं। जब बुद्ध आते हैं गांव में तो फूल मैं ही चढ़ा दूंगा। पर वे कहने लगे,
सुदास तू पागल है क्या? जितना पैसा चाहे ले ले,
तेरी चमारी मिट जाए सदा को, गरीबी मिट जाए सदा
को। तेरे जन्म-जन्म आगे के बच्चे को भी सुख हो जाएगा। जितना मांगे ले ले। सुदास ने
कहा कि नहीं, अब पैसे का क्या करेंगे, मैं
ही चढ़ा दूंगा बुद्ध को।
नहीं बेचा फूल। सम्राट नहीं खरीद सके एक गरीब का फूल, एक चमार का। सम्राट तो रथ पर पहुंच गए पहले, नगर सेठ
पहुंच गया, वजीर पहुंच गया। उन्होंने बुद्ध से जाकर यह कहा
कि आज एक अदभुत घटना घट गई। एक गरीब आदमी, जिसकी कोई हैसियत
नहीं, जिसके पास कल का खाना नहीं होता, उसने लाखों रुपये पर लात मार दी और कहता है, फूल मैं
ही चढ़ाऊंगा। सुदास आया पीछे पैदल चलता हुआ। बुद्ध के चरणों में फूल रख कर हाथ जोड़
कर सिर पैर पर रख कर रोने लगा।
बुद्ध ने कहा, पागल है सुदास तू, फूल बेच देना
था।
सुदास ने कहा कि भगवन, संपत्ति ही सब कुछ
नहीं है। संपत्ति से भी बड़ा कुछ है और आपके पैरों में फूल रख कर मुझे जो मिल गया
वह मुझे कितनी भी संपत्ति से कभी नहीं मिल सकता था।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि भिक्षुओं, देखो इस सुदास को। एक साधारण से जन में भी, एक
साधारण से मनुष्य में भी परमात्मा का इतना प्रकाश पैदा हो सकता है। सुदास है गांव
का एक चमार, एक दीन-हीन, लेकिन इतने
प्रेम की संभावना, इस सुदास में; इतने
प्रेम की संभावना, इतनी श्रद्धा की संभावना, इस सुदास में।
बुद्ध कहने लगे कि मैं घूमता हूं वर्षों से गांव-गांव, कितने-कितने लोग मिले। नहीं सुदास, तू अद्वितीय है।
तेरा जैसा बस तू ही है।
कौन कहेगा, कौन है बड़ा, कौन है छोटा?
कौन कहेगा, किसके भीतर से क्या प्रकट हो सकता
है? कौन जानता है कौन सा बीज कितना बड़ा फूल बनेगा? लेकिन जल्दी से तौलने की हमारी इच्छा बड़ी तीव्र होती है।
नहीं कोई जरूरत है तौलने की। गांधी गांधी हैं, मैं मैं हूं, आप आप हैं। तौलने का कोई उपाय भी नहीं
है। लेकिन यह गांधी को बड़ा कहने का कारण क्या हो सकता है फिर? अगर हम तौल नहीं सकते, समर्थ नहीं तौलने में,
तो यह कहने का कारण क्या हो सकता है कि गांधी महान हैं? शायद आपको इस सीक्रेट का कोई पता न हो, यह एक बड़ा
राज है।
जब हिंदू यह कहता है कि हिंदू धर्म महान है तो आप समझते हैं उसका मतलब
क्या है? वह यह कहता है कि हिंदू धर्म महान है और मैं हिंदू
हूं, मैं महान हूं। यह तर्क है, यह
तर्कसरणी है। जब एक आदमी कहता है भारत, भारत पृथ्वी पर सबसे
महान देश है, तो मतलब आप जानते हैं क्या है? वह यह कह रहा है कि भारत सबसे बड़ा देश है, मैं भारत
का निवासी हूं, मैं बड़ा आदमी हूं। पीछे अहंकार है इस तुलना
के पीछे, पीछे ईगो है, आदमी बहुत
होशियार है। सीधे वह कहेगा कि मैं बड़ा हूं, तो बड़ी मुश्किल
बात है। वह कहता है, मेरा गुरु बड़ा है और बड़े गुरु का मैं
बड़ा चेला हूं।
मैंने सुना है, फ्रांस में फिलासफी का एक प्रोफेसर था, एक दर्शन-शास्त्र का प्रोफेसर था। पेरिस के विश्वविद्यालय में वह
दर्शन-शास्त्र का अध्यक्ष था। एक दिन वह सुबह-सुबह आया और उसने क्लास के
विद्यार्थियों को कहने लगा कि तुम्हें पता है, मैं दुनिया का
सबसे बड़ा आदमी हूं। उसके विद्यार्थियों ने कहा, आप? बेचारा गरीब शिक्षक था, फटे कपड़े पहने हुए था। समझ
गए उसके विद्यार्थी कि हो गए सज्जन पागल। दार्शनिकों के पागल हो जाने की संभावना
रहती ही है, दिमाग इनका खराब हो गया मालूम होता है।
एक विद्यार्थी ने पूछा, महाशय आप अपने बाबत
कह रहे हैं कि आप दुनिया के सबसे बड़े आदमी हैं? आप? उसने कहा, हां, मैं कह रहा हूं
कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा आदमी हूं। न केवल मैं कह रहा हूं, मैं तर्कशास्त्र का अध्यापक हूं, मैं सिद्ध भी कर
सकता हूं।
उसके विद्यार्थियों ने कहा, बड़ी कृपा होगी,
अगर आप सिद्ध कर सकेंगे।
उसने छड़ी उठाई और नक्शे के पास गया जहां दुनिया का नक्शा टंगा था
क्लास में। उसने कहा कि मेरे बच्चो, मैं तुमसे पूछता हूं कि इस सारी बड़ी पृथ्वी पर सबसे महान और सबसे श्रेष्ठ
देश कौन सा है? वे सभी फ्रांस के रहने वाले। उन सबने कहा कि
निश्चित ही फ्रांस, इसमें कोई संदेह है? यह तो सुनिश्चित है कि फ्रांस से महान कोई भी देश नहीं है।
उसने कहा, तब एक बात तय हो गई कि फ्रांस सबसे महान है इसलिए
बाकी दुनिया की फिक्र छोड़ो। अब अगर मैं सिद्ध कर सकूं कि फ्रांस में मैं सबसे महान
हूं तो मामला हल हो जाएगा।
विद्यार्थी तब भी नहीं समझे कि तर्क कहां जाएगा। फिर उसने कहा कि
फ्रांस में सबसे महान और श्रेष्ठ नगर कौन सा है?
तो विद्यार्थियों ने कहा कि पेरिस। वे सभी पेरिस के रहने वाले थे
उसने कहा, तब फ्रांस की भी फिक्र छोड़ दो। अब सवाल सिर्फ पेरिस
का रह गया। अगर मैं सिद्ध कर दूं कि पेरिस में मैं सबसे महान हूं तो बात खत्म हो
जाएगी। तब विद्यार्थियों को शक पैदा हुआ कि यह तो मामला बहुत अजीब है, यह कहां ले जा रहा है आदमी। और तब उस प्रोफेसर ने पूछा कि अब पेरिस में सबसे
श्रेष्ठ स्थान कौन सा है? युनिवर्सिटी, विश्वविद्यालय, विद्या का केंद्र, मंदिर।
विद्यार्थियों ने कहा कि यह तो ठीक है, विश्वविद्यालय ही
सबसे पवित्रतम और श्रेष्ठतम स्थान है। तब उनको तर्क साफ हो चुका था।
उस प्रोफेसर ने कहा, अब मैं तुमसे पूछता हूं, पेरिस को जाने दो, रह गई युनिवर्सिटी का कैंप्स।
युनिवर्सिटी के इस कैंप्स में सबसे श्रेष्ठतम विषय और डिपार्टमेंट कौन सा है?
वे सभी विद्यार्थी फिलासफी के विद्यार्थी थे। उन्होंने कहा, फिलासफी।
और उसने कहा कि अब तुम समझे कि मैं फिलासफी का हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट
हूं।
इतना लंबा तर्क इस छोटे से "मैं' को सिद्ध करने के
लिए! लेकिन आदमी की चालाकियां, कनिंगनेस पहचानना बहुत
मुश्किल है। वह कहता है, भारत महान देश है, और उसके भीतर जाकर पूछो उसके प्राणों के प्राण में, तो
वह यह कह रहा है कि मैं महान हूं।
बर्नार्डशा ने एक बार अमेरिका के दौरे में यह कहा कि यह गैलीलियो, यह कोपेरनिकर, ये वैज्ञानिक सब गलत कहते हैं। सूरज
ही पृथ्वी का चक्कर लगाता है। पृथ्वी सूरज का चक्कर नहीं लगाती। अब इस बीसवीं सदी
में कोई ये बातें करेगा तो पागल समझा जाएगा। बर्नार्डशा को लोगों ने पूछा, आप क्या कह रहे हैं? तीन सौ साल पहले लोग ऐसा जरूर
मानते थे कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। लेकिन अब तो यह सिद्ध हो चुका है कि
पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। आपके पास दलील क्या है जो आप कहते हैं कोपेरनिकर,
गैलीलियो, सब गलत। बर्नार्डशा ने कहा, दलील साफ है--जिस पृथ्वी पर बर्नार्डशा रहता है वह पृथ्वी किसी का चक्कर
कभी नहीं लगाती।
उसने हमारे अहंकार पर बड़ा गहरा मजाक कर दिया। उसने कह दिया कि सूरज ही
लगाता होगा चक्कर, क्योंकि मैं बर्नार्डशा इस पृथ्वी पर रहता हूं। मेरे
रहने की वजह से यह पृथ्वी किसी का चक्कर लगा सकती? असंभव।
यही है सेंटर वर्ल्ड का। यही पृथ्वी सारे जगत का केंद्र है। सारा जगत इसका चक्कर
लगाता है। पृथ्वी का केंद्र मैं हूं जार्ज बर्नार्डशा।
हर आदमी का तर्क यही है। भारतीय कहता है, भारत महान है। चीनी कहता है, चीन महान है। तुर्की
कहता है, तुर्क महान है। मामला क्या है? हिंदू कहता है, हिंदू महान है। मुसलमान कहता है,
मुसलमान महान है। जैन कहता है, महावीर महान
हैं। ईसाई कहता है, जीसस महान हैं। मामला क्या है? मार्क्सिस्ट कहता है, माक्र्स महान है। एक गांधीवादी
कहता है, गांधी महान हैं। मामला क्या है? न गांधी से किसी को मतलब, न माक्र्स से किसी को मतलब,
न महावीर से किसी को मतलब, न भारत से किसी को
मतलब, न चीन से किसी को मतलब। मतलब उस "मैं' से है कि मैं जहां हूं जिस केंद्र पर, उस केंद्र से
संबंधित सब महान हैं, क्योंकि मैं महान हूं।
नहीं, गांधी को नहीं तौलते हैं आप, न
महावीर को, न बुद्ध को। तरकीब से अपने को तौल रहे हैं और
अपने को केंद्र पर खड़ा कर रहे हैं। ये तरकीबें बड़ी अधार्मिक हैं। ये तरकीबें बड़ी
अपवित्र हैं। लेकिन इनका हमें होश भी नहीं आता। बर्ट्रेंड रसल ने एक किताब लिखी और
किताब में उसने यह बात लिखी भूमिका में कि मेरी किताब को पढ़ने वाले आप जो सज्जन
हैं, अपने रीडर को, अपने पाठक को
उदबोधन किया कि मेरे प्रिय पाठक, आप जिस देश में पैदा हुए
हैं उस देश से महान कोई भी देश नहीं। उसको कई मुल्कों से पत्र पहुंचे, क्योंकि बर्ट्रेंड रसल की किताबें सारी दुनिया में पढ़ी जाती हैं। उसने
भूमिका में लिखा कि मेरे प्रिय पाठक आप जिस देश में पैदा हुए हैं उस देश से महान
कोई भी देश नहीं है। कई मुल्कों से पत्र पहुंचे उसके पास।
पोलैंड से एक स्त्री ने लिखा कि तुम पहले आदमी हो जिसने पोलैंड की
महानता को स्वीकार किया है। जर्मनी से किसी ने लिखा कि शाबाश तुमने स्वीकार कर लिया
कि जर्मनी महान है। क्योंकि उसने तो मजाक किया था। वह मजाक कोई भी नहीं समझे। वे
समझे कि हमारे मुल्क की प्रशंसा की जा रही है। हमारे मुल्क की प्रशंसा नहीं; हमारी प्रशंसा, मेरी प्रशंसा। और जो आपको भय मालूम
पड़ता है कि गांधी की आलोचना मत करो, बुद्ध की आलोचना मत करो,
मोहम्मद की आलोचना मत करो--नहीं तो दंगा हो जाएगा। वह आपका मोहम्मद,
बुद्ध और गांधी के प्रति प्रेम नहीं है। उनकी आलोचना से आपके अहंकार
को ठेस पहुंचती है। उसकी वजह से आप पीड़ित और परेशान हो उठते हैं। यह योग्य नहीं है,
यह हितकर नहीं है, यह कल्याणदायी नहीं है।
इससे मंगल सिद्ध नहीं होगा।
मैंने यह जो कुछ बातें कहीं, एक मित्र मेरे पास आए,
उन्होंने कहा कि मैं काका कालेलकर के पास गया था तो काका कालेलकर ने
कहा, मेरे बाबत कहा कि अभी उनकी उम्र कम है इसलिए गड़बड़ बातें
कह देते हैं। जब उम्र बढ़ जाएगी तो बिलकुल ठीक बातें कहने लगेंगे। वे मित्र मेरे
पास खबर लेकर आए कि काका कालेलकर ने ऐसा कहा है। मैंने उनसे कहा, काका कालेलकर से कहना कि जब शंकराचार्य ने तैंतीस वर्ष की उम्र में बुद्ध
का खंडन और आलोचना की, तो लोगों ने कहा इसकी उम्र कम है,
उम्र बड़ी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। जब जीसस ने तीस वर्ष की उम्र
में यहूदियों की आलोचना की, तो यहूदियों ने कहा, यह पागल छोकरा है, आवारा है, इसकी
उम्र अभी क्या है, उम्र बढ़ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। जब
विवेकानंद ने तैंतीस-चौंतीस वर्ष की उम्र में वेदांत की व्याख्या की तो वेदांत के
बूढ़े गुरु ने कहा, अभी नासमझ है, अभी
कुछ समझता नहीं, उम्र कम है।
यह उम्र की दलील बड़ी पुरानी है। लेकिन उम्र कम होने से न कोई गलत होता
और न उम्र ज्यादा होने से कोई सही होता है। उम्र से बुद्धिमत्ता का कोई भी संबंध
नहीं है। काका कालेलकर यह कह रहे हैं कि अगर जीसस क्राइस्ट अस्सी साल तक जीते तो
ज्यादा बुद्धिमान हो जाते। वे यह कह रहे हैं कि जीसस क्राइस्ट तैंतीस साल की उम्र
के थे इसलिए मंदिर में घुस गए और मंदिर में ब्याज खाने वाली दुकानों के तख्ते उलट
दिए और कोड़ा उठा कर उन्होंने पुरोहितों को मार कर मंदिर के बाहर निकाल दिया। अगर जीसस
ज्यादा उम्र के होते तो इस तरह की नासमझी कभी नहीं कर सकते थे। काका कालेलकर उनकी
जगह होते तो इस तरह की नासमझी वे कभी भी नहीं करते। उनकी उम्र ज्यादा है, लेकिन उम्र ज्यादा होने से बुद्धिमत्ता नहीं बढ़ जाती है। उम्र ज्यादा होने
से सिर्फ चालाकी और कनिंगनेस बढ़ जाती है।
मैं भी जानता हूं, मैंने गांधी की आलोचना की,
उसी दिन सुबह दो मित्रों ने मुझे आकर कहा कि आप यह बात ही मत करिए,
अन्यथा गुजरात की सरकार नारगोल में छह सौ एकड़ जमीन देती है, वह बिलकुल बंद कर देगी, बिलकुल नहीं देगी। अभी बात
मत करिए, पहले जमीन मिल जाने दीजिए, फिर
जो आपको कहना हो कहना। वे कहने लगे, आपकी उम्र अभी कम है।
आपको पता नहीं जमीन खो जाएगी। मैंने उनसे कहा, भगवान करे
मेरी उम्र इतनी ही नासमझी की बनी रहे ताकि सत्य मुझे संपत्ति से हमेशा मूल्यवान
मालूम पड़े। वह जमीन जाए, जाने दें। मुझे जो ठीक लगता है,
मुझे कहने दें।
भगवान न करे, इतना चालाक मैं हो जाऊं कि संपत्ति सत्य से ज्यादा
मूल्यवान मालूम पड़ने लगे। मुझे भी दिखाई पड़ता है, काका
कालेलकर को ही दिखाई पड़ता है ऐसा नहीं। मुझे भी दिखाई पड़ता है कि गांधी की आलोचना
करके गाली खाने के सिवाय और क्या मिलेगा। अंधा नहीं हूं, इतनी
उम्र तो कम से कम है कि इतना दिखाई पड़ सकता है कि गाली मिलेगी। लेकिन कुछ लोग अगर
समाज में गाली खाने की हिम्मत न जुटा पाएं, तो समाज का विचार
कभी भी विकसित नहीं होता है। कुछ लोगों को यह हिम्मत जुटानी ही चाहिए कि वे गाली
खाएं। प्रशंसा प्राप्त करना बहुत आसान है, गाली खाने की
हिम्मत जुटानी बहुत कठिन है। श्री ढेबर भाई ने मुझे उत्तर देते हुए किसी मीटिंग
में अभी कहा है कि मैं गांधीजी को समझ नहीं सका हूं, इसलिए
ऐसी बातें कर रहा हूं। मेरा उनसे निवेदन है कि प्रशंसा तो बिना समझे भी की जा सकती
है, आलोचना करने के लिए बहुत समझना जरूरी होता है। प्रशंसा
तो कुत्ते भी पूंछ हिला कर जाहिर कर देते हैं, उसके लिए कोई
बहुत बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। लेकिन आलोचना के लिए सोचना जरूरी है,
विचार करना जरूरी है, हिम्मत जुटानी जरूरी है
और अपने को दांव पर लगाना भी जरूरी है। अब गांधी से मेरा झगड़ा क्या हो सकता है,
गांधी से झगड़ कर मुझे फायदा क्या हो सकता है? कोई
भी तो फायदा नहीं हो सकता। नुकसान हो सकता है। अखबार मेरी खबर नहीं छापेंगे।
गांवों में मेरी सभा होनी मुश्किल हो जाएगी। अहिंसक लोग पत्थर फेंक सकते हैं,
यह सब हो सकता है। इससे मुझे क्या फायदा हो जाएगा?
लेकिन मुझे लगता है कि चाहे कितना ही नुकसान हो, जो हमें सत्य दिखाई पड़ता हो उसे हमें कहना ही चाहिए, जो हमें ठीक मालूम पड़ता हो, चाहे उसके लिए कितना ही
हानि उठानी पड़े, वह हमें कहना ही चाहिए। इस दुनिया को वे ही
थोड़े से लोग आगे विकसित किए हैं, जिन्होंने समाज की मान्य
परंपराओं की आलोचना की है, जिन्होंने समाज के बंधे हुए
पक्षपातों को तोड़ने की हिम्मत की है। जिन्होंने समाज से विद्रोह किया है वे ही
थोड़े से लोग इस जीवन और जगत को विकसित कर पाए हैं। जगत को उन्होंने विकसित नहीं
किया है जिन्होंने अंधश्रद्धा में अंधी हां भर दी है, जगत को
विकास उन्होंने किया है जिन्होंने किसी तरह का विद्रोह किया है। मेरा आपसे निवेदन
है अगर इस देश के हित में आप हैं, अगर इस देश को विकसित होना
देखना चाहते हैं तो आपको विद्रोह की, विचार की आलोचना की
हिम्मत जुटानी ही चाहिए, उसके बिना हम अपने देश के भविष्य को
स्वर्णिम नहीं बना सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि जो मैं कहता हूं वह सही है,
इसका यह भी मतलब नहीं कि जो मैं कहता हूं वही सत्य है, यह तो फिर वही पागलपन हुआ, मेरे अनुयायी आपसे कहने
लगेंगे कि जो मैंने कहा वह सत्य है। पहली तो बात मेरा कोई अनुयायी नहीं है,
क्योंकि अनुयायी जुटाने का सर्कस करने का मुझे कोई भी रस और कोई भी
सुख नहीं। वह सर्कस मुझे पसंद ही नहीं है।
मेरा कोई अनुयायी नहीं, मेरे मित्र हैं।
लेकिन फिर मुझे पत्र पहुंचे कई मित्रों के कि हम तो आपके अनुयायी हैं और आपने हमको
बड़ा धक्का पहुंचा दिया। मैंने कहा, तुम अनुयायी बने इससे
धक्का पहुंचा। अनुयायी नहीं बनते तो धक्का नहीं पहुंचता। अनुयायी बने क्यों?
तुमसे कहा किसने कि तुम मेरे अनुयायी बन जाओ? मैं
अकेला काफी हूं। मेरी बात विचार करने के लिए, मेरी बात
आलोचना करने के लिए, आप खूब आलोचना करें मेरी बात का,
उसका खंडन करना, उसका विरोध करना, उस पर विचार करना, सारी तोड़-फोड़ के बाद अगर कोई बात
मजबूरी में आपको ठीक दिखाई पड़े तो मानना। ऐसे मत मान लेना, जल्दी
मत मान लेना। जल्दी मानने की कोई जरूरत नहीं है। मैं देश के विचार को गति देना
चाहता हूं देश के विश्वास को नहीं। और देश का विचार गतिमान हो जाए, तो वह गांधी की भी आलोचना करेगा, वह मेरी भी आलोचना
करेगा, वह किसी की भी आलोचना करेगा। लेकिन ये जो लोग देश के
विश्वास को गतिमान करना चाहते हैं, वे कहते हैं, गांधी की भी आलोचना मत करो।
मेरे भी हित में यही है कि मैं गांधी की आलोचना न करूं, तो मैं भी आलोचना किए जाने से बच सकता हूं। लेकिन आलोचना से बचने की इच्छा
ही कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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