देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
ग्यारहवां प्रवचन
गांधीवाद ही नहीं, वाद मात्र के विरोध में हूं
आपके प्रवचनों से जो सारा ही गुजरात में एक हलचल
मच गई है। तो इसमें आप खुलासा कर सकते हैं?
किस संबंध में? कुछ एक-एक बात...
अगर गांधीजी के बारे में बोलेंगे और किसी व्यक्ति के बारे में बोलेंगे, तो आपको बोला है, इस गैर-संदिग्ध होगी यह। आज तो
हमने सुना, तो उसमें कोई गैर-संदिग्ध नहीं होती है। न आपने
गांधीजी की निंदा की है, न ही क्राइस्ट की। मगर यह
गैर-संदिग्ध हो गई है सारे गुजरात में कि आपने गांधीजी की निंदा की या नेहरू जी की
निंदा की, तो इसमें आप कुछ खुलासा कर सकते हैं?
किसी व्यक्ति की निंदा करने का मेरे मन में कोई सवाल ही नहीं है। और
व्यक्ति की निंदा का कोई प्रयोजन भी नहीं है। वाद की जरूर मेरे मन में बहुत निंदा
है। वाद, संप्रदाय--चाहे वह राजनैतिक हो, चाहे धार्मिक हो, सब तरह के बाड़े टूटने चाहिए,
और मनुष्य का मन सोचने-समझने के लिए मुक्त होना चाहिए।
रूस मैं जाऊंगा तो माक्र्सवाद का विरोध करूंगा; हिंदुस्तान में गांधीवाद का विरोध करूंगा। गांधीवाद से भी विरोध नहीं है;
वाद से ही मेरा विरोध है।
अब तक दुनिया में जैसा भी हुआ है, चाहे क्रांतियां हुई
हैं, सब क्रांतियां वाद-आधारित थीं। इसलिए सारी क्रांतियां
असफल हो गईं, कोई क्रांति सफल नहीं हो सकी। और प्रत्येक वाद
मनुष्य के मन को मुक्त करने में सहयोगी नहीं हुआ, बांधने का
कारण बना। और जरूरत इस बात की है कि मनुष्य की समझ इतनी मुक्त हो, समझ विकसित होनी चाहिए, और इतनी विकसित होनी चाहिए
कि हम प्रत्येक समस्या का सीधा साक्षात्कार कर सकें।
गांधी का उपयोग मेरे लिए यह समझ में आता है कि गांधी को हम समझ कर इस
योग्य बनें कि देश के सामने जो समस्या आए, उसका हम साक्षात कर
सकें। लेकिन हमेशा यह होता है कि वाद से घिरा हुआ जो मन है, वह
समस्या का सीधा साक्षात्कार कभी नहीं भी करता; उसका वाद ने
उत्तर पहले दे रखा है। समस्या नई है, उत्तर पुराना है। उस
उत्तर, पुराने उत्तर को थोपने की कोशिश करता है समस्या के
ऊपर। उससे समस्या तो हल नहीं होती, और उलझती चली जाती है।
प्रत्येक महापुरुष अपनी समस्या का साक्षात्कार करने की कोशिश करता है; लेकिन न तो वह समय रह जाता है पीछे, न वह समस्या रह
जाती है। अनुयायी उस समस्या और समाधान को लेकर पीछे की परिस्थितियों में जो उपद्रव
खड़ा करते हैं उससे नुकसान पहुंचाता है। गांधी ने अपनी समझ, अपनी
सूझ के अनुसार किन्हीं स्थितियों में कुछ प्रयोग किए; जैसे
कि चरखे का प्रयोग था। गांधी की समझ के लिए जो भी उपयोगी मालूम पड़ा, उन्होंने किया। शायद उस स्थिति में कुछ और किया जाना कठिन भी था। लेकिन अब
पीछे खादी और चरखा सिद्धांत की तरह हमारे पीछे पड़ गया। और अब आने वाले समय में हम
उसका उपयोग आर्थिक सिद्धांत की तरह करना चाहेंगे तो हम नुकसान पहुंचाते हैं मुल्क
को।
इसीलिए मैंने कहा कि अगर हम वाद को पकड़ कर चलते हैं तो हम देश की
हत्या कर देते हैं। और लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मैंने कह दिया कि गांधीजी
देश के हत्यारे हैं। मैंने कहा कि अगर गांधी के वाद को हम आगे भी मानते हैं तो देश
की हत्या हो जाएगी।
और यह सवाल गांधी के वाद का नहीं, किसी भी वाद को...वह
अपनी समय की और परिस्थिति का उत्तर होता है। समय और परिस्थिति रोज बदल जाती है और
वाद कभी बदलता नहीं है। वाद जिद्द करता है कि हम वही रहेंगे, जैसे हम थे। और हर नई परिस्थिति में हर पुराना वाद उपद्रव का कारण होता
है। इसलिए जिस देश को जितनी तीव्रता से विकसित होना हो, उसको
वाद से उतना मुक्त होना चाहिए। समझ विकसित होनी चाहिए। और हम नई परिस्थिति का
सामना कर सकें, उसके योग्य हमें बनना चाहिए। तो जैसे मेरा
कहना है कि आने वाले भविष्य में भारत में टेक्नालॉजी का जितना विकास हो उतना हितकर
है। और अगर हम चरखा और खादी जैसी बातों पर अटकते हैं तो वे टेक्नालॉजी के विरोध की
बातें हैं, उनसे टेक्नालॉजी विकसित नहीं होती, टेक्नालॉजी को नुकसान पहुंचेगा।
यानी संक्षिप्त में यह कि हर महापुरुष परिस्थिति का उत्तर होता है।
परिस्थिति बदल जाती है, महापुरुष मर जाता है, लेकिन
उत्तर पकड़ जाता है। और फिर हम उत्तर को थोपते चले जाते हैं। और अगर उत्तर का कोई
विरोध करे तो हम समझते हैं कि वह उस महापुरुष का विरोध हो गया। यह इतनी नासमझी की
बात है, जिसका कोई हिसाब नहीं है, जिसका
कोई हिसाब नहीं है।
आज की जो परिस्थिति है, इसमें आप क्या मार्ग बताते हैं? जो आपके बीच में
रुकावट हो गई यह। और न लोगों की समस्या का उत्तर होता है। सब आदमी समस्या
के...क्या करना, क्या नहीं करना सोच सकता ही नहीं है। तो
आपने बताया कि हमको सोच कर समस्या का हल करना चाहिए। एक-दो रास्ता बताया है। और
कुछ रास्ता है?
(देश में जो प्रगति अवरुद्ध हो गई है और अनेक समस्याएं
खड़ी हो गई हैं, उसके लिए क्या करना चाहिए? और आपने बताया कि मन से सोच कर समस्या का हल करना चाहिए, एक रास्ता आपने बताया। क्या और कोई रास्ते हैं?)
हां, असल बात जो है, एक-एक परिस्थिति
का सवाल नहीं है, परिस्थिति का सामना करने की वृत्ति का सवाल
है। वह मुल्क के पास नहीं है। मुल्क के पास समस्याएं हैं, परिस्थितियां
हैं, लेकिन कैसा व्यक्तित्व इन परिस्थितियों का मुकाबला कर
सकता है, वह व्यक्तित्व नहीं है मुल्क के पास। और उस
व्यक्तित्व को बनाने की न हम कोई चेष्टा कर रहे हैं और न ही हमने तीन हजार वर्षों
में वह व्यक्तित्व बने इसके आधार रखे हैं। बल्कि वह व्यक्तित्व न बने, इसकी हमने सारी कोशिश की है। और अब हम क्या करते हैं कि हम एक-एक
परिस्थिति का मुकाबला करने की कोशिश करते हैं, जो कि गलत है।
इससे...वह जो आप कहते हैं, उलझन पैदा हो गई है।
यानी मामला ऐसा है--जैसे एक बच्चे के सामने गणित के पचास प्रश्न रख
दिए। वह एक प्रश्न को हल करने की कोशिश करता है और पूछता है, इसको हल कैसे करूं? इसको हल कर लेता है तो दूसरा
उसके सामने रख देते हैं, वह उसके सामने सवाल उठता है कैसे हल
करूं? सवाल असल में एक सवाल हल करने का नहीं है, सवाल गणित को हल करने की बुद्धि पैदा करने का है। तो एक-एक पर्टीकुलर सवाल
नहीं है महत्वपूर्ण, महत्वपूर्ण मुल्क के व्यक्तित्व में
सवालों को हल करने की क्षमता का है। राजनीतिज्ञ को सवाल होता है एक-एक सामने उसका
कि आज यह भाषा का सवाल आ गया, इसको हल कैसे करें? कल प्रांत का सवाल आ गया, इसको कैसे हल करें?
परसों यह सवाल आ गया...ये सवाल रोज आते रहेंगे। अगर आप हल भी कर
लेंगे तो पच्चीस दूसरे सवाल आ जाएंगे।
असली सवाल यह है कि मुल्क के पास सवालों का साक्षात्कार करने की, हल करने की प्रतिभा नहीं है। और प्रतिभा को विकसित करने के जो उपाय हैं,
उनका हम कोई उपयोग नहीं कर रहे हैं। अब जैसे मेरा खयाल, मेरा कहना यह है कि प्रतिभा को विकसित करने का पहला तो उपाय यह है कि भारत
के मन को सब तरह के अंधविश्वास से मुक्त करना चाहिए। क्योंकि अंधविश्वास सोचने
नहीं देता।
वैज्ञानिक दृष्टि पैदा की जानी चाहिए। भारत के पास कोई वैज्ञानिक
दृष्टि नहीं है। तो किसी भी सवाल से हम जूझते हैं, हमारी दृष्टि बिलकुल
अवैज्ञानिक होती है। जैसे उदाहरण के लिए, जिनकी वजह से विवाद
सारे खड़े हो गए हैं, जैसे मेरा कहना है कि भारत के सामने
पिछले पचास वर्षों में एक सवाल था हिंदू-मुसलमान का। हमने उस सवाल के साथ जो भी
व्यवहार किया, बिलकुल अवैज्ञानिक था। उसके परिणाम में
हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा। और वह सवाल खत्म भी नहीं हुआ। वह सवाल अपनी जगह खड़ा
है। और पूरा मुल्क बंट गया, वह एक अलग बेवकूफी हो गई। और वह
पूरा मुल्क बंट कर हमेशा के लिए सवाल खड़ा कर गया जो कि अब चलेगा, जिसका कि अंत नहीं सूझता अब क्या होगा। तो हमने उस सवाल के साथ जो भी किया,
वह अवैज्ञानिक था। जैसे मेरा कहना है कि...और यही सारी की सारी
बातें लोगों को लगती हैं कि मैंने गांधीजी के खिलाफ कह दिया। गांधीजी से मुझे कुछ
लेना-देना नहीं है।
लेकिन हमने पचास साल में क्या किया, वह हमें सोचना पड़ेगा।
मेरा कहना है कि हिंदू-मुस्लिम एकता की बात उठा कर हमने मुल्क को नुकसान पहुंचाया।
सवाल था भारतीय एकता का, सवाल हिंदू-मुस्लिम एकता का था ही
नहीं कभी। लेकिन जैसे ही हमने कहा कि हिंदू-मुस्लिम यूनिटी, वैसे
ही हमने हिंदू और मुसलमान को बहुत महत्व दे दिया; जो महत्व
अतिशय हो गया। और जितना हम यह कहते चले गए: हिंदू-मुस्लिम एकता, उतना मुसलमान को भी दिखाई पड़ने लगा कि मेरी एकता के बिना कुछ होता नहीं है,
मैं महत्वपूर्ण हूं। हमने एक सिग्नीफिकेंस दिया मुसलमान को और हिंदू
को, और दोनों को हमने उपद्रव बना लिया। जरूरत इस बात की थी
कि हम कहते--भारतीय एकता; न हिंदू का सवाल है, न मुसलमान का। और हम इस बात पर जोर देते कि जो आदमी हिंदू होने का दावा
करता है और मुसलमान होने का दावा करता है, वह भारतीय एकता को
तोड़ता है। तो हमने उलटा किया।
हमने कहा: हिंदू-मुस्लिम दोनों भाई-भाई हैं, अल्ला-ईश्वर तेरे नाम हैं। और हमने जो-जो प्रक्रिया की उसमें हमने
हिंदू-मुस्लिम को मिटाने की कोशिश नहीं की, हिंदू-मुस्लिम को
स्वीकार कर लिया, उनको स्वीकृति दे दी। फिर उनको स्वीकार
करके मिलाने की कोशिश की। और मेरा कहना यह है कि यह स्वीकृति खतरनाक हो गई,
यह महंगी पड़ गई। और गांधी जैसे भले आदमी भी इस भूल को नहीं पकड़ पाए
और अपने को हिंदू कहते रहे निरंतर कि मैं हिंदू हूं। अगर गांधी ने भी हिम्मत कर ली
होती यह कहने की कि मैं सिर्फ आदमी हूं और मैं भारतीय हूं, मैं
हिंदू-विंदू नहीं हूं, तो हिंदुस्तान का इतिहास दूसरा होता।
लेकिन वह नहीं हो सका। और जो हमने कोशिश की, वह कोशिश तोड़ने
वाली सिद्ध हुई, वह कोशिश बनाने वाली सिद्ध नहीं हुई।
अब भी वही हाल है। अब भी हम वही सब कहे चले जाते हैं। और दूसरी
समस्याएं खड़ी होती हैं तो उनके सामने भी हम वही पुराने हल मौजूद करते हैं।
यह जो...और कोई दोत्तीन हजार साल से...भारत की कुछ दृष्टियां हैं जो
उसको सवाल हल नहीं करने देती। जैसे भारत मानता है कि जो भी हो रहा है, वह भाग्य से हो रहा है। और जो कौम भी मानती है कि भाग्य से हो रहा है,
वह परिस्थितियों का मुकाबला करने में असमर्थ हो जाती है। वह कैसे
समर्थ होगी? परिस्थिति सामने आ जाती है और वह भाग्य को मानने
वाली कौम है! जब तक हिंदुस्तान के दिमाग से भाग्य की धारणा नहीं मिटती, तब तक पुरुषार्थ की संभावना पैदा नहीं होगी। यानी यह मेरा कहना है कि ये
बेसिक सवाल हैं। ये कोई आज की राजनीति के सवाल नहीं हैं, कल
की राजनीति के सवाल नहीं हैं। भारत की प्रतिभा को भाग्यवादी होने से बचाने की
जरूरत है। लेकिन स्कूल में बच्चों को हम आज भी भाग्यवाद के खिलाफ कुछ भी नहीं समझा
रहे हैं। और हम चाहते हैं कि समस्याएं हल हो जाएं।
अगर बीस साल आने वाली पीढ़ी को हम भाग्यवाद के खिलाफ समझा सकें और
पुरुषार्थ के लिए तैयार कर सकें और आने वाली पीढ़ी के दिमाग में यह बात बिठाई जा
सके कि जो भी हो रहा है वह अन्यथा हो सकता है, बदला जा सकता है,
वह हमारे हाथ में है, और कोई भगवान तय नहीं कर
रहा है, कोई भाग्य तय नहीं कर रहा है, तो
बीस साल के भीतर भारत की प्रतिभा में खूबी आ जाएगी कि वह समस्याओं का सामना कर
सके। पश्चिम में समस्या खड़ी होती है तो वे उसको हल करने की कोशिश करते हैं। हमारे
सामने समस्या खड़ी होती है तो हम उसके कारण खोज लेते हैं और खत्म हो जाती है बात कि
वह समस्या क्यों है। यानी वह कैसे बदलेगी, यह सवाल नहीं है।
अगर भारत गुलाम हो गया, तो हम कहते हैं,
फूट थी, इसलिए गुलाम हो गया। बस जैसे कि
एक्सप्लेनेशन मिल गया, कारण मिल गया और बात खत्म हो गई। और
एक हजार साल तक हम गुलाम नहीं रहते कभी भी; वह हमारा
भाग्यवादी दृष्टिकोण था, जिसने हमको गुलाम रखा। फूट-वूट का
कारण नहीं है। मेरी अपनी समझ यह है; क्योंकि जितनी फूट हममें
है, दुनिया की सब कौमों में है। ऐसा कोई फूट हममें ही है,
ऐसा नहीं है। वह प्रोटेस्टेंट और कैथेलिक उतना ही लड़ता है जितना
हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं। यह सारी दुनिया लड़ती है। फूट-वूट हममें ही नहीं है कोई।
हममें और उनमें एक ही फर्क है कि वे चीजों को बदलने का विश्वास रखते हैं कि हमारे
हाथ में है, और हम मानते हैं कि चीजें हो रही हैं, हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है।
और आज भी साधु-संन्यासी समझाए चला जा रहा है; ये ही बातें समझा रहा है गांव-गांव में वह। अब मेरा कहना यह है कि पचास
साल के लिए हिंदुस्तान को साधु-संतों से बचाने की कोशिश करनी चाहिए, नहीं तो हिंदुस्तान मर जाएगा। मगर अब यह खतरे की बात है, यह झगड़े की बात है। मेरा कहना यह है कि साधु, जिसको
संन्यास लेना है वह छोड़ कर चला जाए, जंगल में बैठे, जिसको जाना हो वह वहां जाए; लेकिन अब गांवों में
साधु-संन्यासी को शिक्षा देने का उपाय बंद किया जाना चाहिए। जिसकी मर्जी हो,
संन्यास लेना हो वह जंगल में जाए, उनके पास
बैठे, सीखे, कोई मनाही नहीं है। लेकिन
अब भारत की जो पिटी-पिटाई परंपरा है, उसको यहां सिखाने के
स्रोत बंद होने चाहिए। और नहीं तो वे फिर नई पीढ़ी को बिगाड़ जाते हैं।
अब एक स्कूल का लड़का है, वह भी जाकर ज्योतिषी
को चार आना देकर हाथ दिखलाता है। तो भारत का भविष्य अच्छा नहीं है। यह स्कूल का
बच्चा, यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला लड़का है, एम.एससी. पढ़ता है, लेकिन परीक्षा के वक्त हनुमानजी
पर जाकर नारियल चढ़ाता है। इससे भारत की प्रतिभा विकसित नहीं हो पाएगी। इससे भारत
की प्रतिभा को नुकसान पहुंच रहा है।
इसलिए मेरे सामने इमिजिएट सवाल नहीं है कि यह सवाल कैसे हल हो। मेरे
सामने सवाल यह है कि हमारा माइंड किसी भी सवाल को हल क्यों नहीं कर पाता है? और फिर हम उसमें उलझ जाते हैं। हल होता नहीं है, सवाल
खड़ा रहता है, हम उलझते चले जाते हैं। और यह जो एक साइंटिफिक
आउटलुक कैसे पैदा हो? सारे मुल्क के विचारशील लोगों को इस
दिशा में लग जाना चाहिए कि वह साइंटिफिक आउटलुक कैसे पैदा हो।
अब अभी मैं कलकत्ते में था। एक मित्र डाक्टर के घर ठहरा। निकलने लगा, डाक्टर एफ.आर.सी.एस. हैं, पढ़ा-लिखा आदमी है, यूरोप से लौटा हुआ है। उसकी लड़की को छींक आ गई और उसने मुझे कहा कि दो
मिनट रुक जाइए।
तो मैंने उसको कहा कि तुम डाक्टर हो, तुम्हें समझना चाहिए
कि छींक क्यों आती है? तुम भी नहीं समझते?
उसने कहा, वह सब मैं समझता हूं, लेकिन हर्जा
क्या है? दो मिनट रुक गए तो हर्ज क्या है?
अब यह जो माइंड है, यह मुल्क की समस्याएं हल नहीं
होने देगा, यह नहीं होने देगा। क्योंकि समस्या के लिए संघर्ष
करने वाला मन चाहिए, जो चीजों को बदलने की सोचे, तोड़ने की सोचे, नया करने की सोचे। वह हमारे पास नहीं
है।
बंबई में आपने बताया था कि विचार की प्रतिभा शुरू
होने की जरूरत है। और उसके लिए समाज को एक शॉक दिया जाए। गांधीजी और सेक्स के
विचार...अनुसंधान जाग जाए। और बाद में जो हलचल मची थी, इसके पश्चात्त तो ऐसा नहीं लगता कि समाज का विचार तैयार नहीं हुआ। क्या आप
तीन दिनों से इंतजार कर रहे हैं, वह अभिव्यक्तियां हैं!
यह तो ठीक कहते हैं न। समाज तो तैयार है ही नहीं। यानी मुझे कोई
आश्चर्य नहीं हुआ है जो हलचल मची उससे। वह तो मैं जानता था कि वह मचेगी। आश्चर्य
मुझे इससे नहीं हुआ कि हलचल मची, आश्चर्य मुझे इससे हुआ कि जो लोग
मेरे पक्ष में हैं, उनकी हिम्मत मुझे बिलकुल नहीं मालूम पड़ी।
मेरे विपक्ष में जिन्होंने कहा, उन्होंने तो हिम्मत से कहा,
उन्होंने हलचल भी मचाई। लेकिन जो मेरे पक्ष में हैं, वे प्राइवेट में तो मुझसे कहते कि हम आपके पक्ष में हैं। मुझे पत्र लिखते
हैं, लेकिन खुले में वे कहने की तैयारी में नहीं हैं।
आश्चर्य मुझे इससे नहीं हुआ कि हलचल मची। मैं तो चाहता हूं कि हलचल मच जाए। उसमें
क्या हर्जा होने वाला है? मुझे दस-पच्चीस गाली पड़ती हैं,
इससे क्या बनता-बिगड़ता है? इस मुल्क में कुछ
लोगों को गाली खाने के लिए तैयार रहना चाहिए, नहीं तो हलचल
होगी ही नहीं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
आश्चर्य मुझे इससे हुआ कि जिन लोगों से हम आशा कर सकते हैं--जो सोचते
हैं, विचारते हैं, इंटेलेक्चुअलस हैं,
वे भी हिम्मत करके बाहर पक्ष में खड़े हो सकते हैं, वह मुझे नहीं दिखाई पड़ी। वह जो प्रतिक्रियावादी वर्ग था, वह तो शोरगुल मचाएगा जोर से, इसमें कोई शक-शुबहा
नहीं है। वह तो मचाना चाहिए उसको, न मचाता तो आश्चर्य होता।
वह तो बिलकुल ही ठीक हुआ, उसमें तो कुछ अड़चन नहीं हुई। और वह
चीजों को तोड़-मरोड़ कर भी जाएगा, क्योंकि उसके सिवाय मचा नहीं
सकता। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं सीधे-सीधे उसका विरोध नहीं किया जा सकता। उसका तो
उपाय एक ही है कि प्रसंग के बाहर मेरी बातों को निकाल कर और उसको नये अर्थ देकर
उसका विरोध किया जाए। वह मेरी समझ में आता है कि हमेशा का रास्ता वह है। उससे कोई
हैरानी नहीं हुई। हैरानी मुझे इससे हुई कि यह जो विरोध में इतना शोरगुल मचा,
इसके विरोध में जो एक इंटेलेक्चुअल, सोच-विचारशील
लोगों का मुझे साथ मिलना चाहिए, वह हिम्मत से पब्लिक में साथ
देने को तैयार नहीं हैं। उससे मुझे आश्चर्य हुआ।
लेकिन उसकी भी चिंता नहीं है; क्योंकि मुझे इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरे साथ कोई है कि नहीं। इससे मुझे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
क्योंकि न तो मुझे किसी की पूजा चाहिए, न कोई संप्रदाय बनाना
है, न कोई आर्गनाइजेशन बनाना है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता है। न मेरा कोई स्वार्थ है जो कि नुकसान होगा या फायदा होगा। वह कुछ भी नहीं
है। इसलिए कितने लोग मुझे गाली देते हैं, कितने लोग स्वीकार
करते हैं, इससे भी फर्क नहीं पड़ता। एक ही मुझे फर्क सा मालूम
पड़ता है कि विचार की प्रक्रिया अगर पैदा हो, तो वह हमेशा शॉक
से पैदा होती है, और कभी पैदा नहीं होती।
लेकिन मेरी समझ यह है कि आप कब से इंतजार कर रहे
थे, कब वह समय आएगा तब करेंगे। आप इन्हीं बातों को आप
पहले कह सकते थे--दो साल पहले।
मेरा जो कहना है कुल जमा, मैं समय का इंतजार
नहीं कर रहा। दो साल में क्या फर्क पड़ने वाला है? बीस साल
में इस मुल्क में फर्क नहीं पड़ने वाला है। इस मुल्क में दो हजार साल में फर्क नहीं
पड़ता तो दो साल में क्या फर्क पड़ना है? यानी हमारी चिंतन की
प्रक्रिया भी इतनी अवरुद्ध हो गई कि दो हजार साल में भी हम में कोई खास फर्क नहीं
पड़ता। तो वैसे ही चलता है। वह सवाल नहीं था। मैं तो केवल प्रतीक्षा कर रहा था इसका
कि मुझे सुनने वाला वर्ग तो हो जिससे मैं कह सकूं, तो मैं एक
दफा मैं घूम लूं, लोग मुझे सुन लें। आखिर...नहीं तो इतना
शोरगुल भी नहीं मच सकता था। इतना शोरगुल मचा, वह भी इसलिए मच
सका कि मुझे सुनने वाला एक वर्ग पैदा हुआ है और स्वार्थी तत्व को घबड़ाहट पैदा हुई
कि मुझे सुनने वाला वर्ग मुझे सुनेगा तो खतरा है। सुनने वाला वर्ग ही न हो तो मेरी
बात को कहने की क्या जरूरत है? मैं कह भी दूं तो कौन उसे
सुनने की फिक्र करता है? जो मैं कह रहा हूं, हिंदुस्तान में हजारों लोग कहते हैं। आपमें से कई लोग कहते होंगे, वह शोरगुल नहीं मचता है। शोरगुल मचने का कारण तब होता है, जब कि मुझसे कोई खतरा पैदा हो। नहीं तो नहीं होता।
शोरगुल मचता है, वह एक लिहाज से अच्छा लक्षण है।
उसको मैंने अच्छा लक्षण माना। मैंने समझा कि वे मुझे खतरनाक मानते हैं। यह अच्छा
है। यानी वे इतना मानते हैं कि मेरी लोगों तक कोई पहुंच हो सकती है, लोग मेरी बात सुन सकते हैं। और उनको डर पैदा हुआ कि मेरी बात न पहुंचे। तो
में समझता हूं कि यह अच्छा हुआ, यह शुभ लक्षण है।
अब सवाल यह है कि इसका कैसा उपयोग किया जा सके?
अब मैं देख कर हैरान हुआ, बंबई के पत्रकार
जिन्होंने इंटरव्यू लिया मुझसे, वे एक-एक मुझसे कह कर गए कि
आपकी बात हमें बहुत पसंद है। पीछे भी हमसे कहे कि हमें बहुत दुख है कि जो निकला,
वह हम नहीं चाहते थे। आखिर बड़े मजे की बात है, यह बड़े मजे की बात है। फिर तो बड़ी कठिन बात हो गई न। फिर तो बड़ी कठिन बात
हो गई। चंद्रकांत वोहरा मुझे कह कर गए पीछे कि यह हमें बहुत दुख है कि हम जो चाहते
थे, वह नहीं हुआ, कुछ और हुआ। अब यह जो
है न...लेकिन यह अच्छा है एक लिहाज से, एक लिहाज से अच्छा
है। इसमें मुझे कोई दुख का कारण नहीं दिखाई पड़ता है। मैं तो चाहता ही यह हूं कि वह
जो हलचल मची है, वह बंद न हो जाए। उसको जारी रखिए। कुछ फिक्र
नहीं कि मेरे विरोध में भी चले तो कोई हर्जा नहीं है, वह
जारी रहे। वह जारी रहे तो मैं निबटारा कर लूंगा। वह तो आखिर अगर कोई पत्र मेरे
संबंध में गलत भी लिख कर भी प्रचार करे तो कितनी देर चल सकता है? आखिर मैं जनता को जाकर मैं सीधी भी तो बात कर लूंगा, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो मैं तो, मेरे खिलाफ अभी एक किताब लिखी सूरत। उनको मैंने
चिट्ठी लिखा, उन्होंने मुझे जवाब भी नहीं दिया। उनको मैंने
चिट्ठी लिखा कि बहुत मैं धन्यवाद करता हूं तुम्हारा, इसको
गांव-गांव पहुंचाओ, ताकि जगह-जगह लोग प्रश्न पूछने लगेंगे,
तो मैं उत्तर दे सकूं। वे पूछें तो मुझसे। वे जिस संबंध में भी
पूछना चाहें तो मैं उत्तर देने को तैयार हूं। तो वह जो हलचल चली है, उसको जारी रखिए।
और यह मैं चाहता हूं कि शॉक जोर से लगे। वह सिर्फ गुजरात में ही हुआ, मैं चाहता हूं कि पूरे मुल्क में हो। वह अभी सिर्फ गुजरात में हुआ,
मैं चाहता हूं कि पूरे मूल्क में होना चाहिए। इससे भी कोई फर्क नहीं
पड़ता कि वह शॉक लगने में मैं बिलकुल खत्म हो जाऊं। तो भी हर्जा नहीं है। अगर इतना
भी काम हो जाए कि लोग सोचने लगें कुछ मुद्दों पर, तो भी काम
पूरा हो जाता है। तो भी काम पूरा हो जाता है। कुछ लोगों को तो कुर्बानी देनी पड़ेगी,
सिर्फ इसलिए कि लोग सोचने लगें। वह मैं जो चाहता हूं, वह सोचेंगे, तो बहुत दूर की बात है; लेकिन वे सोचें तो भी काफी है।
क्योंकि मेरी अपनी समझ यह है कि एक बार आदमी सोचना शुरू कर दे तो गलत
चीज के साथ बहुत देर तक राजी नहीं रह सकता है। उसमें टूट शुरू हो जाएगी।
और यह आप खयाल कर लें कि हिंदुस्तान में शॉक देने की व्यवस्था ही नहीं
है। यहां प्रशंसा की इतनी लंबी परंपरा है हमारी कि वह शिष्टाचार का हिस्सा हो गया
है। कि अगर मुझे कोई बोलता है कि गांधीजी के संबंध में बोलूं, तो यह शिष्टाचार का हिस्सा है कि मैं उनकी प्रशंसा करूं। अगर मेरे संबंध
में आपको बोलने के लिए लाया जाए तो आप शिष्टाचार मान कर मेरी प्रशंसा करेंगे। यह
बड़ी झूठ बात हो गई है। इससे चिंतन पैदा नहीं होता है। तो मैं तो चाहता हूं कि कुछ
लोग शॉक दें, कुछ लोग चीजों को तोड़ें, कुछ
जो बहुत दिन से कहा चला जा रहा है उसके खिलाफ कुछ कहें। यह भी हो सकता है कि शॉक
देने में उनको थोड़ी अतिशयोक्ति भी करनी पड़े। यह भी हो सकता है। मैं उसके लिए भी
राजी हूं। एक दफा शॉक लगे, चिंतन शुरू हो, तो अतिशयोक्ति तो मिट जाएगी। उसमें कितनी देर लगती है, वह जो डायलाग पैदा हो जाएगा, मिट जाएगी। लेकिन यह जो
रटी-रटाई परंपरा चल रही है प्रशंसा करने की, प्रसंशा करने की,
यह बहुत खतरनाक और महंगी पड़ गई है। बहुत महंगी पड़ गई है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
अब मजा यह है कि आखिरी उपाय वही रह जाता है। मैं जो कह रहा हूं, अगर उसका कोई उत्तर देने का उपाय न रह जाए, जो मैं
कह रहा हूं, उसको खंडन करने का कोई मार्ग न हो, या सीधा मुझसे बात करने का कोई उपाय न रह जाए, तो
फिर एक ही उपाय रह जाता है कि मेरे चरित्र को कुछ कहना शुरू किया जाए। और मेरे
चरित्र को बहुत-कुछ कहा जा सकता है। क्योंकि मैं चरित्र के मामले में बंधा हुआ
आदमी नहीं हूं। क्योंकि मैं तो किसी मामले में बंधा हुआ आदमी नहीं हूं।
तो वहां जो घटना हुई, मनु भाई को मैंने वहीं कहा था कि
यह घटना हो गई तो मैं इसकी कल सुबह पब्लिक मीटिंग में बात कर लूं। आप भी यहां
मौजूद हैं, वह बहन भी यहां मौजूद है, वे
सारे लोग भी मौजूद हैं जिनके सामने घटना हुई। तो अभी यह बात करना बहुत साफ होगा।
पीछे तो महीने, चार महीने बाद आप बात शुरू करेंगे, यह मैं जानता हूं, फिर साफ करना बहुत मुश्किल हो
जाएगा। क्योंकि वे सारे लोग नहीं होंगे, मैं नहीं होऊंगा,
वह बहन नहीं होगी।
घटना कुल इतनी हुई कि एक बनारस यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर, और वह कोई--जैसा उन्होंने लिखा है कि जवान स्त्री--जवान-अवान नहीं,
वह कोई पैंतालीस साल की। पच्चीस साल का तो उसका जवान लड़का है।
पैंतालीस साल की महिला, और कोई साधारण शिक्षित नहीं, हिस्ट्री की प्रोफेसर बनारस यूनिवर्सिटी में। वह मेरे साथ आई हुई थी। जैसे
हिम्मत भाई मेरे साथ आए हुए हैं, तो वह मेरे साथ आई हुई थी।
तो वह मेरे साथ रुकी। एक दिन कोई बात नहीं हुई। वह मेरे साथ रुकी थी, जहां मैं रुका हुआ था वहां उसे रोका हुआ था। एक दिन कोई बात नहीं हुई।
दूसरे दिन दोपहर को प्रेस कांफ्रेंस हुई, और उसमें गांधीजी के संबंध में कुछ प्रश्न पूछे गए, और
मैंने उत्तर दिया। तो वह जो संस्था है, वह तो गांधीवादियों
की संस्था है। लाला लाजपतराय भवन में मैं रुका था। और वह सर्वेंटस ऑफ पिपुल
सोसाइटी है, जिसके मनु भाई भी सदस्य हैं। और वे सारे लोग
वहां थे। वे सारे लोग जिन्होंने आयोजन किया था--क्योंकि मुझे तो एक कठिनाई पड़
गई--मेरे सारे आयोजक नब्बे प्रतिशत तो गांधीवादी थे--सारे मुल्क में। क्योंकि आजकल
आयोजक भी वे हैं, नेता भी वे हैं, सब
कुछ वे हैं। जो भी करना है, वे ही करते हैं। तो वे आयोजक
दिल्ली की मीटिंग के सारे गांधीवादी थे, मनु भाई भी एक आयोजक
थे उसमें। वह जो प्रेस कांफ्रेंस में मैं सारी बातें कहा, उससे
उनको बेचैनी हुई। उस रात...
अब मुझे पता नहीं उन्होंने सबने सोच कर निकाला? दूसरे दिन शाम को मैं मीटिंग से लौटा, तो उन्होंने
उस स्त्री का सामान और बिस्तर सब बाहर निकाल दिया। वह खड़ी दरवाजे पर रो रही। मैं
आया, तो मैं हैरान हुआ। और दस-पच्चीस लोग मेरे साथ आए थे,
उन्होंने सबने पूछा कि क्या हुआ? तो उस स्त्री
ने कहा कि कुछ हुआ नहीं, मुझे कुछ कहना नहीं, आपके पैर छूने के लिए मैं रुकी हूं, मैं पैर छू लूं
और जाऊं, मैं जा रही हूं। तो मैंने कहा, अभी तो तेरे जाने की बात नहीं थी, दो दिन और रुकने
का था, हुआ क्या? उसने कुछ कहना पसंद
नहीं किया, क्योंकि एक भद्र और शिष्ट महिला है। उसने कहा कि
मुझे कुछ भी नहीं कहना है, अब इस बात को खत्म कर देना है।
लेकिन यह मुझे अच्छा नहीं मालूम हुआ कि वह बिना कुछ पता चले वह चली जाए। तो मैंने
पूछने की कोशिश की, तो उसने मुझे अंततः बताया कि मेरा सामान
बाहर निकाल दिया है और मेरे साथ अभद्र व्यवहार किया, और
मुझसे कहा कि आप हमारी संस्था से बिना पूछे उनके साथ कैसे रुकीं?
तो यह तो पहले दिन जब वह मेरे साथ आई थी तब बात उठानी थी उठानी थी तो।
और अगर कुछ भी कहना था तो मुझसे कहना था। क्योंकि मैं उनका मेहमान था, वह मेरे साथ थी। तो आप उनके साथ क्यों रुकीं यहां? और
यह अनुचित है उनके साथ यहां रुकना? और इसलिए हम आपको दूसरे
कमरे में ले जाते हैं। यहां से आपको ले जाएंगे। तो उसका जबरदस्ती सामान निकाला तो
वह हैरान हो गई। और वह एक भद्र महिला को अजीब-सा मालूम पड़ा। मैंने कहा भी आकर कि
यह तो मुझे कहना था आकर। और यह भी डेढ़ दिन बाद आप कह रहे हैं, जैसा अभी दो महीने बाद वक्तव्य दिया। ऐसा डेढ़ दिन बाद वह काम किया। फिर भी
मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है।
तो मैंने उसको समझाने की कोशिश की कि अभी फिलहाल...लेकिन वह महिला भी
जिद्द पकड़ गई कि मेरा अपमान हुआ है, अब मैं रुकूंगी तो
यहीं रुकूंगी, मैं दूसरे मकान में जाने को राजी नहीं हूं,
क्योंकि मैंने न कोई पाप किया है, और न कोई
बुराई की है। क्षमा इन्हें मांगनी चाहिए कि मेरा सामान बाहर निकाला। वह यह जिद्द
पकड़ गई। और ये सारे लोग यह जिद्द पकड़ गए कि इसको इस कमरे में रुकने नहीं देंगे।
मेरी समझ के बाहर हो गया। मैंने कहा कि इसमें कुछ भी निबटारा होना चाहिए। और मैंने
इनसे कहा कि इसमें मनु भाई भूल मैं आपकी समझता हूं। क्योंकि यह बात मुझसे कहनी
थी--पहली बात, डेढ़ दिन पहले कहनी थी। और अभी भी कहनी थी तो
मुझसे कहनी थी आकर, तो इसका कोई भी रास्ता हो सकता था। उससे
सीधा आपको बात नहीं करनी थी। और यह अशोभन बात हुई है। और इसलिए मैं उसके पक्ष में
हूं, मैं उसके पक्ष में हूं कि वह ठीक कह रही है। उसे जिद्द
करनी चाहिए। और मैंने कहा कि उसको आज रात रुकने दें, कल सुबह
मैं उससे कहूंगा कि तू दूसरे कमरे में चली जा। वह मेरी समझ की बात होगी, लेकिन अब यह गड़बड़ मत करें। पर ये सारे लोग जिद्द पकड़ लिए। वह तो पूरा का
पूरा, जैसे एक एक कांस्प्रेसी हो, जिद्द
पकड़ लिए कि नहीं, इसको हम यहां रुकने नहीं देंगे।
तो फिर मैंने कहा, फिर इसका एक ही रास्ता है कि मैं
भी आपकी संस्था छोड़ कर चला जाऊं, और मैं प्रोटेस्ट में आपकी
संस्था छोड़ कर जाता हूं। क्योंकि यह अभद्र व्यवहार आपने किया है। रह गई मेरी बात,
तो मैंने उनसे कहा कि मुझे कोई कठिनाई नहीं है, मेरे कमरे में कौन आकर रुक जाए। मैंने कहा, आप भी
आकर रुक जाएं, बहुत तकलीफ हो कि यह महिला यहां सो रही है। तो
रात में आपको इसकी बहुत चिंता हो तो आप भी इसी कमरे में आकर रुक जाएं, यह मेरी समझ में आता है। कि और दो जन भी इसी कमरे में आकर रुक जाएं,
ताकि आपको चिंता न रहे, परेशानी न रहे।
फिर मैंने कहा कि दूसरे दिन कल सुबह मैं पब्लिक मीटिंग में इसकी बात
कर लूंगा, ताकि यह बात जाहिर हो जाए, क्योंकि
यह बात तो चलेगी; क्योंकि चलने के लिए आयोजन किया गया है,
ऐसा मुझे मालूम पड़ता है। तो मुझे रोका कि नहीं, इसकी बात मत करिए, यह संस्था का अपमान होगा, ऐसा होगा, वैसा होगा। माफ करिए, जो हो गया वह हो गया।
दूसरे दिन जो सब्जेक्ट था, वह था "सेक्स
एंड लाइफ'। तो उस सब्जेक्ट को बदल दिया। कहा कि इस सब्जेक्ट
को ही बदल दें। क्योंकि वह डर हुआ कहीं मैं इसके सिलसिले में वह बात न कर लूं।
उसको भी बदल दीजिए, धर्म पर ही बोलिए। यह सारा हुआ। तीसरे
दिन सांझ को चलते वक्त ये सारे लोग मुझसे क्षमा मांगने आए हैं कि माफ करिए,
वह जो हो गया, गलती हो गई, यह हो गया, वह हो गया। मैंने कहा कि उसकी मुझे चिंता
नहीं, जो हो गया है। अब पीछे इसकी क्या चर्चा चलाइएगा,
वह थोड़ा सोचने का है। क्योंकि चर्चा तो यह चलेगी, यह तो रुकने वाली नहीं है। और आपने मुझे चलाने नहीं दी। मैं चला देता तो
वह अच्छा होता।
दो महीने वे चुप रहे। अब वे प्रेस कांफ्रेंस बुला कर वह सारी बात कहते
हैं। और पीछे जो हिस्सा उन्होंने जोड़ दिया, मैं नहीं सोचता था कि
मनु भाई को वैसी शिष्टता करनी चाहिए।
मुझसे तीसरे दिन सांझ को बैठक में यह बात हुई कि अगर कोई स्त्री आपका
आलिंगन करे तो आपको एतराज है? मैंने कहा कि मुझे कोई स्त्री,
भूत-प्रेत कोई भी आकर आलिंगन करे तो मुझे कोई एतराज नहीं है। मैं
किसी का आलिंगन करने नहीं जाता हूं। मेरा कोई आलिंगन करे तो मुझे कोई एतराज नहीं
है। तो फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि आप क्या मानते हैं कि आलिंगन सेक्सुअल नहीं है?
मैंने कहा, आलिंगन सेक्सुअल हो भी सकता है,
नहीं भी हो सकता है; यह करने वालों पर निर्भर
है। एक मां अपने बेटे का आलिंगन कर सकती है, एक बहन अपने भाई
का कर सकती है, एक पत्नी अपने पति का कर सकती है। यह तो इस
पर निर्भर है कि करने वाले क्या कर रहे हैं। वह सेक्सुअल हो भी सकता है, और स्प्रिचुअल भी हो सकता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि वह कैसा है,
यह करने वालों पर निर्भर है।
और मैंने कहा कि तीसरा आदमी कभी तय नहीं कर सकता कि दो करने वालों का
आलिंगन कामुक था, कि नहीं था। और मैंने कहा, तीसरा
आदमी अगर तय करने जाता है तो वह तो सेक्सुअल है, यह पक्का
है। उसको तो नहीं कम से कम तय करने जाना चाहिए। यानी अगर मनु भाई से कोई आलिंगन कर
रहा है तो मैं कैसे तय करूं कि वह आलिंगन सेक्सुअल है कि नहीं। और मैं करूं भी
क्यों। और अगर मैं करता हूं तो मैं सेक्सुअल हूं, इतना तो
पक्का हो जाता है, और उनका आलिंगन हो या न हो, यह मुझे कुछ पता नहीं।
वह सारा का सारा उसके पीछे जोड़ दिया कि मैं आलिंगन को, चुंबन को, कामुक नहीं मानता हूं। बच्चों जैसी बात है,
लेकिन कोई बहुत समझदारी की बात नहीं है। समझदारी की बात नहीं मालूम
पड़ी मुझे थोड़ी कि यह कोई बहुत समझदारी की बात। और फिर मेरे जैसे आदमी के लिए जो कि
पब्लिक में सारी बातें करने को हमेशा राजी है, उसके लिए फिर
ऐसा दो महीने छिपा कर फिर अहमदाबाद में, जहां मैं मौजूद नहीं
हूं, वहां वक्तव्य देना। लेकिन चलेगा, यह
सब चलेगा।
तो आप...सुना रिफ्यूज्ड करते हैं।
रिफ्यूज्ड क्या, बात तो ठीक ही है वह। बात तो ठीक,
जो मैंने कहा न, रिफ्यूज्ड क्या करता हूं?
रिफ्यूज्ड का क्या मतलब है? घटना तो बिलकुल
ठीक है कि वह महिला मेरे साथ रुकी थी। इसमें कोई झूठ बात नहीं है। मैंने कहा कि
उसको रुकना चाहिए, इसमें भी झूठ बात नहीं है। उसके प्रोटेस्ट
में मैं महिला को लेकर दूसरे घर में चला गया, वह भी बात सच
है। इसमें कुछ बात झूठ नहीं है। इंटरप्रिटेशन को रिफ्यूज करता हूं। बात झूठ नहीं
है, बात तो बिलकुल ही सच है, लेकिन
व्याख्या उसकी...जो अब वह जैसे कि नारगोल के चित्र को छाप दिया। अब वह तो हजार
लोगों के सामने वह महिला आकर मेरे से गले मिल गई। उसका फोटो निकाल लिया, फिर उस फोटो को छाप दिया। सैकड़ों लोगों का मन हो सकता है गले मिलने का। और
मैं नहीं मानता कि गले मिल लेने में कोई पाप हो गया।
लेकिन हमारा जो दिमाग है, सोचने का जो ढंग है,
वह तो ठीक है, वे जिस ढंग से सोचते हैं वे
हमको, खयाल में आ गई बात कि यह बहुत पाप हो गया, बहुत गलत हो गया। और मैं तो...चूंकि सेक्स के संबंध में भी मेरी दृष्टि
बहुत और तरह की है। और जो सप्रेसिव माइंड है उसके मैं बिलकुल विरोध में हूं। तो
मैं इस पक्ष में भी नहीं हूं कि आदमी और स्त्री के बीच इतना फासला हो, जितना फासला हमने बना कर रखा है। क्योंकि मेरा मानना है, यह फासला आदमी को कामुक बनाने का कारण बनता है। स्त्री और पुरुष जितने
नजदीक होंगे, जितने निकट होंगे, स्त्री
और पुरुष के बीच जितना फासला कम हो, और स्त्री-पुरुष
स्त्री-पुरुष होने के लिए जितने कम कांशस रह जाएं...। बच्चे और बच्चियां इस तरह
पाले जाएं कि उन्हें पता ही न चले कि वे लड़के हैं या लड़कियां हैं। इतने निकट खेलें
और कूदें, साथ तैरें और दौड़ें कि उनके बीच में एक दीवाल खड़ी
न हो जाए। उतना ही अच्छा और कम सेक्सुअल समाज हम निर्मित कर सकेंगे। जितना फासला
होगा, जितनी दीवाल होगी, जितनी हम दूरी
को बनाए रखने की कोशिश करेंगे, उतनी सेक्सुअलिटी समाज में
पैदा होती है।
यह जो हमारा समाज है, मेरी दृष्टि में, पश्चिम से भी ज्यादा सेक्सुअल भारत का समाज है। हालांकि पश्चिम में हमें
दिखाई पड़ता है कि लोग साथ नाच रहे हैं और नंगे घूम रहे हैं और तालाबा पर तैर रहे
हैं, लेकिन उनसे ज्यादा कामुक हमारी दृष्टि है। हम ऊपर से तो
दूर-दूर दिखाई पड़ते हैं और चित्त भीतर से निरंतर यही सोचता है।
और यही मैंने मनु भाई और वहां उन मित्रों को कहा था कि मैं वहां सोया
हूं उस कमरे में, चिंता मुझे होनी चाहिए, या
चिंता उस महिला को होनी चाहिए। लेकिन मनु भाई अपने कमरे में सो रहे हैं और रात भर
नहीं सो पाए और चिंतित हों तो बड़ी तकलीफ की बात है। या तुम यहीं आ जाओ, तुम भी यहीं सो जाओ, यह भी समझ में आता है। लेकिन
तुम अपने कमरे में क्यों परेशान हो? और दो महीने तक परेशान
रहो, और दो महीने तक तुम्हें नींद न आए और चलता रहे दिमाग
में, तो यह सेक्सुअल माइंड का लक्षण हुआ। यह कोई बहुत स्वस्थ,
यह कोई अच्छे चित्त का लक्षण नहीं है।
अपने से तो पश्चिम का समाज अच्छा है न?
इतना एकदम नहीं कह देता हूं, क्योंकि पूरे समाज की
बाबत नहीं कह रहा हूं। यानी इतना हां और न में जवाब नहीं दे सकता हूं कि हमसे
अच्छा है या बुरा है। कुछ मामलों में हमसे अच्छा है, कुछ
मामलों में हमसे बहुत बुरा है।
सेक्स के बाबत में तो...
हां, हमसे अच्छा है, हमसे अच्छा है।
लेकिन जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है। यानी मैं जो कह रहा
हूं, हमसे अच्छा है, लेकिन जैसा होना
चाहिए, वैसा नहीं है। क्योंकि हमसे अच्छा जो है वह सिर्फ इसी
कारण है कि सप्रेशन उठ गया है। लेकिन सप्रेशन इतना पुराना था कि इतनी तेजी से उठ
गया है कि दूसरी अति पर डोलने की स्थिति पैदा हो गई है। वैसे जैसे एक आदमी बीस दिन
उपवास कर ले और फिर एकदम से उसको भोजनालय में छोड़ दिया जाए लाकर तो वह एकदम से
पागल की तरह खाने लगे और बीमार पड़ जाए। फिर भी मैं कहूंगा कि भूखे मरने की बजाय
ज्यादा खाकर मर जाना अच्छा है। फिर भी मैं यह कहूंगा। भूखे मरने की बजाय ज्यादा
खाकर मर जाना अच्छा है। यह मैं कहूंगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं ज्यादा
खाने वाले की तारीफ कर रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि खाना सम्यक होना चाहिए,
लेकिन अगर बहुत दिन तक समाज को भूखा रखा जाए तो लोग ज्यादा खाकर
मरने की हालात में पैदा हो जाते हैं।
हिंदुस्तान का समाज उतना सप्रेसिव नहीं था, जितना ईसाइयत सप्रेसिव रही पश्चिम में। उस सप्रेशन की वजह से, जब सप्रेशन टूटा तो लोग पागल की तरह सेक्स की तरफ दौड़ पड़े। लेकिन वह सम्यक
हो जाएगा। कितनी देर तक दौड़ेंगे? वह एक आने वाले बीस-पच्चीस
वर्षों में पश्चिम की हालत सम हो जाएगी। लेकिन हमारी हालत सम कभी नहीं हो सकती। वह
हमारा रिप्रेशन जारी है, जारी है। हम सिखाए चले जा रहे हैं
वही। हमारा बूढ़ा आदमी भी सेक्स से मुक्त नहीं हो पाता है। वह अस्सी साल का भी हो
जाए तो भी मुक्त नहीं हो पाता है। उसका माइंड वही काम करता है। वह जिंदगी भर का
दबाया हुआ हिस्सा पीछा करता है।
तो मेरी दृष्टि यह है कि चित्त की जो सरलता और सहजता है, उसकी स्वीकृति होनी चाहिए। उसको ऊंचाई की तरफ रूपांतरण करने की चेष्टा
होनी चाहिए। लेकिन दमन के मैं पक्ष में नहीं हूं। और उसी को लेकर भी काफी आपके
गुजरात में, उसको लेकर भी काफी चला है कि मैंने कहा कि बच्चे
और बच्चियों को बहुत देर तक, जहां तक हमसे बन सके, उन पर वस्त्र पहनने का आग्रह नहीं लगाना चाहिए। मेरा कहना यह कि जब छोटे
बच्चे, सात-आठ साल के बच्चे तो घर में हों तब तक तो हमें
बिलकुल आग्रह नहीं लगाना चाहिए--कि वे नंगे घर में घूम सकें, खेल सकें। तेरह-चौदह साल के भी बच्चे हो जाएं और घर के बाथरूम में वे नंगे
नहाना चाहें तो उनको नहाने देना चाहिए। अगर तेरह-चौदह साल तक के बच्चे, लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के शरीर से परिचित हों तो शरीर के प्रति जो
जुगुप्सा पैदा होती है, बाद में वह विलीन हो जाएगी। नहीं तो
आज बहुत जुगुप्सा है, बहुत तीव्र इच्छा है एक-दूसरे को देखने
की। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी स्त्री को देखेगा तो उसकी आंखें उसके कपड़ों में घुस
जाएंगी। वह उसकी बचपन से अटकी रह गई इंक्वायरी, वह पकड़ी है
उसके दिमाग में, वह उसको खाए जा रही है।
आदिवासी के पास जाकर देखें, तो उसको कोई फिक्र
नहीं है।
यानी हालत यह थी कि मेरे एक मित्र कोई तीस वर्ष तक आदिवासियों के बीच
रहे। उन्होंने कहा, जब शुरू-शुरू में मैं गया, आप
आदिवासी स्त्री के स्तन पर हाथ रख कर पूछो कि यह क्या है, तो
वह कहेगी, यह बच्चे को दूध पिलाते हैं। बस वह इतना कहेगी,
वह एक इंक्वायरी की बात है। हमने पूछा कि यह क्या है? तो वह कहेगी कि हम इससे बच्चे को दूध पिलाते हैं, थन
है। अब यह स्वस्थता, लेकिन यह हमारे मन में कैसे हो सकती है?
यह हमारी कल्पना के बाहर है। और होना यही चाहिए कि शरीर के बाबत यह
दृष्टि हो कि वह काम का एक उपकरण है।
फिर एक तरफ हम दमन करते हैं और दूसरी तरफ नंगी तस्वीरें बनाते हैं, नंगी फिल्में बनाते हैं, नंगे पोस्टर बनाते हैं,
नंगी किताबें छापते हैं। फिर उनमें हम तृप्ति करते हैं देख-देख कर।
अब मेरा कहना यह है कि अगर नंगा ही देखने की इच्छा है तो नंगा आदमी ही देख लो;
वह अच्छा है, स्वस्थ है बजाय नंगी तस्वीर के।
क्योंकि यह मेरी समझ है कि नंगा आदमी देख कर आप नंगा देखने की इच्छा से मुक्त हो
जाओगे, नंगी तस्वीर देख कर आप कभी मुक्त नहीं हो सकते।
क्योंकि तस्वीर बहुत तरकीब से नंगी बनाई गई है। उससे आप मुक्त कभी नहीं हो सकते।
वह आपको और पकड़ेगी, और खींचती चली जाएगी।
तो उसको भी शोरगुल मचाया। उसको यह कि मैं यह कहता हूं कि तेरह-चौदह
साल के बच्चों को नंगा घुमाया जाना चाहिए। यह तो मैंने कभी नहीं कहा कि नंगा
घुमाया जाना चाहिए। मेरा कहना यह है कि वस्त्रों पर रोक-टोक कम होनी चाहिए और कम
से कम घर में भाई-बहिन तो नंगे बाथरूम में नहा सकें, इकट्ठे कुएं पर नहा
सकें घर के। घर में तो इतनी बाधा न हो कि घर में बहन या भाई कपड़ा बदलें तो बहुत
डरें और दीवाल के पीछे जाएं। अगर बच्चे देख लें मां-बाप को नंगा, बच्चे एक-दूसरे को नंगा देख लें, तो वह नंगा देखने
की जो तीव्र आकांक्षा है, वह क्षीण हो जाती है। और वह क्षीण
हो जाए तो नंगा पोस्टर विलीन हो जाएगा अपने आप, नंगी फिल्म
विलीन हो जाएगी।
अब एक तरफ हमारे साधु-संत कहते हैं कि नंगा पोस्टर नहीं होना चाहिए, एक तरफ कहते हैं कि नंगी फिल्म नहीं बनना चाहिए, नंगी
किताब नहीं लिखी जानी चाहिए, और दूसरी तरफ आदमी को ढांकते
चले जाते हैं। और इन दोनों बातों में विरोध है। वह इसी नंगे आदमी को देखने की
इच्छा वहां पूरी की जा रही है। तो यह जो...पर इनको बिगाड़ कर तो रखा ही जा सकता है,
इन सबको तो बिगाड़ कर रखा ही जा सकता है।
अभी कल मुझे किसी ने बंबई में एक कार्टून दिखाया, किसी गुजरात के अखबार में निकला होगा। गांधीजी का एक चित्र है और एक बूढ़ी
चरखा कात रही है उसका; दर्शनीय लिखा हुआ है। और मेरा एक
चित्र है और दो नंगे लड़के और लड़कियां खड़े हुए हैं; दार्शनिक।
मैं यह चाहता हूं कि आदमी नंगे खड़े हो जाएं। अब मजा यह है कि मैं यह चाहता हूं कि
आदमी का नंगापन मिट जाए।
और नंगापन पैदा किया है हमारे छिपाने ने। जितना हमने छिपाया, आदमी उतना नंगा हो गया। और कपड़े, हम सोचते हैं कि
छिपाने के लिए हैं तो आप बिलकुल गलती में हैं। अब कपड़े हजारों साल से उघाड़ने के
काम में आ रहे हैं। एक नंगी औरत इतनी खूबसूरत कभी नहीं होती, जितनी कपड़ों में बांध कर, खड़ी होकर दिखाई पड़ती है।
नंगी औरत से आप घबड़ा जाएंगे, थोड़ी देर में कहेंगे, देवी, कपड़ा पहनो। लेकिन वह जो कपड़े में छिपी औरत है,
वह आपकी जिज्ञासा को जगाती चली जाती है, जगाती
चली जाती है। कपड़े औरत को पचास परसेंट सौंदर्य तो कपड़े देते हैं। और जितनी समझ
बढ़ती जा रही है कपड़े के बाबत, उतनी औरत सुंदर होती चली जा
रही है। औरत इतनी सुंदर-वुंदर नहीं है, शरीर में क्या सुंदर
जैसा होने वाला बहुत-कुछ है? कपड़े उघाड़ रहे हैं शरीर को,
छिपा नहीं रहे हैं। और कपड़े उघाड़-उघाड़ कर शरीर को बता रहे हैं।
और सारी कपड़ों को टेक्नीक अब जो है, वह यह है कि कपड़ा
शरीर को कितना नंगा कर दे। इसकी तरकीब है पूरे कपड़े से साथ। नंगा शरीर इतना नंगा
कभी भी नहीं होता, जितना कपड़ों में तरकीब से दिखाया गया शरीर
नंगा होता है। क्योंकि कुछ मामले हैं, आदमी की क्यूरिआसिटी
जगाने के लिए कुछ रास्ते हैं। कुछ दिखाओ और कुछ छिपा लो तो आदमी की क्यूरिआसिटी बढ़
जाती है। पूरा दिखा दो तो क्यूरिआसिटी खत्म हो जाती है। तो शरीर की अब जो तरकीब
चली रही है सारी दुनिया में, वह यह है कि उसको कुछ छिपाओ,
कुछ दिखाओ। वह जो कुछ दिखाओ, उससे जो छिपा है,
उसको देखने की प्रवृत्ति और बढ़ती है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां-हां, वह सब निकलेगा, वह सब निकलेगा।
वह निकलेगा ही। क्योंकि शरीर को हम देखना भी चाहते हैं नंगा और दिखाना भी चाहते
हैं। ये दोनों बातें खयाल रख लेना। वह हमारे स्वभाव का हिस्सा है। हम देखना भी
चाहते हैं और दिखाना भी चाहते हैं। और इन दोनों स्वाभाविक इच्छाओं को दबाए हुए हैं,
तो फिर हम तरकीब निकालेंगे। अब झूठे स्तन बाजार में बिकते हैं,
जिनको स्त्री लगा ले और दिखाई पड़े वे। आप हैरान होंगे कि यूनान में
झूठी पुरुष की जननेंद्रियां भी बिकती हैं, जो वह फुलपैंट के
अंदर लगा ले और फुलपैंट के ऊपर उसको दिखाई पड़े कि उसकी जो जननेंद्रिय है वह बहुत
बड़ी है।
अब यह इसको मैं नंगापन कहता हूं। यह हद्द पागलपन हो गया है कि आप यह
सब-कुछ करें। बजाय इसके...यानी यह तो एकदम पागलपन की बात हो गई। ये जो कपड़े चुस्त
होते जा रहे हैं, वह शरीर को दिखाने के लिए हैं, कि
शरीर दिखना चाहिए भीतर से कि शरीर कैसा है। और कपड़े चुस्त से चुस्त होते चले जा
रहे हैं। और उन चुस्त कपड़ों में नंगे शरीर को दिखाने की आकांक्षा तीव्र होती चली
जा रही है। देखने की भी इच्छा है, दिखाने की भी आकांक्षा है।
और इस सबको जाल में छिपाते हैं और सीधी-साफ बात करना नहीं चाहते हैं। जो कि सीधी
और साफ बात, उसको करने में बहुत घबड़ाते हैं।
तो वह कठिनाई तो है, जो मैं कह रहा हूं वह कठिनाई तो
है। उसको बिगाड़ कर भी रखा जा सकता है, उसके खिलाफ भी
चलाएंगे। लेकिन मेरी इच्छा है उसको मैं कहूंगा, जो मुझे ठीक
लगता है वह कहना चाहिए। और कुछ लोगों को हिम्मत करनी चाहिए कि वे कहें। शायद समाज
धीरे-धीरे सोचने-विचारने को राजी हो, कुछ तो समझ बढ़े।
अभी जो धर्म के अंदर...हिंदू धर्म है, ईसाई धर्म है, तो एक-दूसरे पर जो अग्रेसन करते हैं,
उसके विषय में आपका क्या खयाल है?
वे तो करेंगे ही। जब तक वाद चलेगा, तब तक वाद अग्रेसिव
होगा। क्योंकि वाद के लिए संस्था चाहिए, अनुयायी चाहिए। और
वह बाजार है अनुयायियों का। अगर आप दस अनुयायी हैं और तीन संस्था वाले हैं तो
तीनों कोशिश करेंगे कि ये ग्राहक किसको मिल जाएं। और ग्राहक के लिए चेष्टा में
आक्रमण होगा। दुनिया में जब तक वाद हैं, तब तक आक्रमण जारी
रहेगा। अगर वाद ही मिट जाएं तो आक्रमण मिट सकता है। और वाद मिट सकते हैं।
अगर हम एक-एक व्यक्ति को यह समझाने की कोशिश करें कि तुम वाद में मत बंधना
तो वाद मिट सकते हैं। हिंदू रहेगा तो मुसलमान पर आक्रमण जारी रहेगा। मुसलमान रहेगा
तो हिंदू पर आक्रमण जारी रहेगा। क्योंकि दोनों दुकानदार एक ही बाजार में हैं और
ग्राहक सीमित हैं। और उन्हीं को लाना है, ले जाना है। वह जारी
रहेगा। अच्छी दुनिया पैदा करनी हो, तो वाद, धर्म, संप्रदाय, सब जाने
चाहिए।
और कुछ कठिनाई नहीं है। अगर बीस साल के लिए मुल्क तय कर ले, और स्कूल और कालेज में बच्चों के दिमाग से हिंदू-मुसलमान और ईसाई और जैन
होने का भाव मिटा दे, तो बीस साल में खतम हो जाए दो हजार साल
का पागलपन। उसमें कोई ज्यादा दिक्कत की बात नहीं है। लेकिन वह नहीं होगा, वह तो उधर भी धर्म-शिक्षा देने की चेष्टा चलती है। वहां भी उनको पकड़े रहो
अपने जाल में, निकल न जाएं, इसकी कोशिश
चलती है। वे तो अग्रेसिव हैं।
आपका...मिला हुआ कि जो चरखा और ग्रामोद्योग वाली
बात है, उनके विपक्ष में बोलते हैं। तो व्यक्ति की जो आज माली
हालत है, समाज में जो गरीबी है, बेकारी
है, उस हालत में आप क्या उसका विकल्प सोच सकते हैं?
नहीं, मैं उसका विकल्प नहीं कहता हूं, और न मैं उसके खिलाफ हूं। मेरा कहना है कि अगर ग्रामोद्योन और चरखा चले तो
वह हमारी मजबूरी हो, सिद्धांत नहीं। आप मेरी बात समझ रहे हैं
न? वह मजबूरी है हमारी। यानी अगर गांव में कोई दवा उपलब्ध
नहीं है और आप होमियोपैथी की गोली खाते हैं, तो मैं कहता हूं,
यह मजबूरी है आपकी। लेकिन वह एलोपैथी का सब्स्टीटयूट नहीं है। मेरा
मतलब आप समझे न? कोशिश तो हमारी एलोपैथी पैदा करने की होनी
चाहिए। नहीं मिलती है तो हम राख भी खा लेते हैं जाकर किसी गुरु की। ठीक है,
नहीं मिलने की हालत में ठीक है। भारत की मजबूरी हो अगर चरखा,
तो मैं समझता हूं ठीक है। लेकिन सिद्धांत नहीं है वह कि हमको उसके
आधार पर इकोनॉमी खड़ी करनी है। वह हमें जानना चाहिए कि इकोनॉमी तो हमें इंडस्ट्री
को ही खड़ी करनी है और आज नहीं कल चरखा चला जाए, इसकी कोशिश
करनी है। चरखा रह न जाए। यानी हमारी चेष्टा तो यह रहेगी कि चरखा विलीन होता चला
जाए। चेष्टा हमारी यह रहेगी कि ग्रामोद्योग न रहे। उद्योग इतना केंद्रित हो,
इतना विकसित हो, इतना आटोमैटिक हो, इतना टेक्नालॉजिकल हो कि छोटे-छोटे उद्योग न रह जाएं। चेष्टा हमारी यह
होनी चाहिए। मेरा मतलब आप समझे न?
लेकिन मेरी बात को गलत समझा जाता है। मैं यह नहीं कहता कि आप चरखे को
आग लगा दो अभी। चरखे कुछ काम कर रहे हैं, उनको करने दो। लेकिन
चरखा मजबूरी है, जैसे बैलगाड़ी मजबूरी है। चेष्टा तो हमारी यह
होगी कि बैलगाड़ी नहीं बचने देंगे मुल्क में। हमारा लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि
बैलगाड़ी नहीं बचने देंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि आज बैलगाड़ी जो भी कर रही है
उसको हम आग लगा दें। लेकिन ध्यान में रहे कि हमको बैलगाड़ी हटा देनी है। उसकी जगह
नये वाहन ले आने हैं।
लेकिन विनोबा और गांधी का मामला मजबूरी का नहीं है। विनोबा और गांधी
को तो बड़ी इंडस्ट्री मजबूरी है। वह मिट जाए, इसकी चेष्टा...। आप
मेरा फर्क समझ रहे हैं न? विनोबा और गांधी के लिए जो बड़ी
इंडस्ट्री है, वह मजबूरी है। छोटी इंडस्ट्री ही होनी चाहिए।
और धीरे-धीरे बड़ी इंडस्ट्री विकृत हो जाए, टूट जाए, बिखर जाए, विकेंद्रित
हो जाए और छोटी इंडस्ट्री आ जाए, अवैज्ञानिक मानता हूं। पांच
सौ परिवारों के लिए पांच चौके काफी हो सकते हैं। और पांच केंद्रित चौके कम खर्च के
होंगे, ज्यादा सुविधा के होंगे। ज्यादा वैज्ञानिक हुआ जा
सकता है। एक डायटीशियन रखा जा सकता है जो सारी जानकारी रखता हो खाने के बाबत। कम
श्रम लगेगा, कम औरतें उलझेंगी वहां। और औरतों को दूसरे काम
में लगाया जा सकता है। सारी चीजें जितनी केंद्रित होंगी, उतना
कम श्रम लेती हैं, ज्यादा सुविधा लाती हैं, ज्यादा वैज्ञानिक हो जाती हैं। अब हिंदुस्तान भर में कारें बनें, यह बिलकुल फिजूल बात है। एक नगर को कार बनानी चाहिए; पूरे मुल्क के लिए कार का काम पूरा हो जाता है। उस गांव का शिल्प भी
विकसित होगा जब वहां कार बनेगी दस-पांच पीढ़ियों तक, तो वहां
के लोग पैदाइश से कार बनाने के शिल्प को लेकर पैदा होंगे। दृष्टि होगी, खोज होगी, बीन होगी। सारे मुल्क में पचास कारखाने
खड़े करने की जरूरत नहीं है।
जगत का जो विकास है, वह केंद्रीकरण की तरफ है। और
जितनी केंद्रित व्यवस्था होगी उतनी धन उत्पन्न करने वाली व्यवस्था होती है।
हिंदुस्तान हमेशा से विकेंद्रित है, इसलिए दरिद्र है। और अगर
आगे भी विकेंद्रित रहेगा तो दरिद्र ही रहेगा। क्योंकि धन पैदा होता है केंद्रित
टेक्नालॉजी से।
चरखे से धन पैदा नहीं होता, सिर्फ किसी तरह कपड़ा
पैदा हो सकता है। किसी तरह से तन ढंक सकते हैं आप। लेकिन चरखा धन पैदा नहीं कर
सकता है, यह ध्यान रहे। और तन भी बहुत महंगा ढंकता है।
क्योंकि अगर एक आदमी अपने लायक कपड़ा पैदा करना चाहे तो कम से कम चार घंटे रोज उसको
चरखा चलाना चाहिए, तब वह अपने लायक कोट, कमीज, पायजामा, चादर, साल भर की पैदा कर पाएगा। चार घंटे आदमी की जिंदगी के सिर्फ कपड़े पहनने के
लिए खर्च हो जाएं, यह बहुत महंगा हो गया। आदमी की जिंदगी के
साथ खिलवाड़ हो गया। मेरा मतलब आप समझे न? तो मेरा कहना...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
पूरा कपड़े का मतलब फिर जरा दूसरा हो जाएगा। फिर गांधी जैसा कपड़ा पहनना
पड़ेगा। मेरा आप मतलब समझे न? फिर पूरे कपड़े का मतलब होगा
गांधी जैसा कपड़ा। मेरा आप मतलब समझे न? मैं समझ गया आपका,
आधा घंटा क्या आदमी बिलकुल चरखा न चलाए, महावीर
जैसा कपड़ा पहन सकता है, कि नंगा खड़ा रहे। महावीर जैसा
कपड़ा...। यह तो हमारे सिकोड़ने का सवाल है।
अगर आदमी को सिकोड़ना है...मैं सिकोड़ने के पक्ष में भी नहीं हूं। मेरा
कहना है, आदमी का स्वभाव विस्तार का है और आदमी प्रफुल्ल होता
है विस्तार से। सिकोड़ने से कभी प्रफुल्ल नहीं होता। इसलिए साधु-संन्यासी आपको कभी
प्रफुल्ल नहीं मालूम पड़ेंगे। हमेशा उदास और रोते हुए मालूम पड़ेंगे। जितना चित्त को
आप सिकोड़िएगा, उतने आप उदास होते चले जाएंगे। मैं इसमें
गांधीजी से सहमत नहीं हूं, रवींद्रनाथ से सहमत हूं। मैं
रवींद्रनाथ से सहमत हूं। रवींद्रनाथ का कहना है कि कपड़ा उतना पहनो जिससे ज्यादा
पहना न जाए। तो कोट पहनेंगे वह तो जमीन छूना चाहिए। रवींद्रनाथ, और मुझे लगता है कि बात ठीक है।
आदमी को विस्तार का मौका देना चाहिए। बड़ा मकान होना चाहिए। छोटा मकान
आदमी के दिमाग को भी छोटा करता है। कपड़े भी ढीले और बड़े होने चाहिए। बंधे हुए और
छोटे कपड़े आदमी को सिकोड़ते हैं। एफ्लुएंस होना चाहिए आदमी के चारों तरफ, उसे लगे कि सब है। लेकिन भारत की अब तक की दृष्टि जो है, वह है अपरिग्रह की--कम से कम, कम से कम, कम से कम। कम से कम दृष्टि मुल्क को दरिद्र बनाती है। मैं उसके पक्ष में
नहीं हूं। मेरा कहना है कि ज्यादा से ज्यादा की दृष्टि मुल्क को समृद्ध बनाती है।
क्योंकि जो दृष्टि होगी, वही हम करेंगे। अगर ज्यादा लाना है
मुल्क में तो हम ज्यादा की चेष्टा करेंगे। अगर लाना ही नहीं है तो चेष्टा किसलिए
करेंगे?
तो मैं गांधीजी और विनोबाजी की सिकोड़ने की बात के विरोध में हूं। मैं
सिकोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। मेरा कहना है, मुल्क फैलना चाहिए।
यह मैं जानता हूं कि मुल्क गरीब है। और हमारे कहने से नहीं फैल जाएगा, यह भी मैं जानता हूं। यह भी मैं जानता हूं कि मजबूरी में हमें चरखे उन
साधनों का भी उपयोग करना पड़ेगा दस-बीस वर्ष। लेकिन ध्यान रहे कि वह हमारी मजबूरी
है और उनको मिटा देना है। उनको बचने नहीं देना है। यानी एक मुल्क हमें पैदा करना
है जिसमें चरखे की जरूरत नहीं होगी, जिसमें बैलगाड़ी की जरूरत
नहीं होगी। यह मेरी दृष्टि है, जो मैं कह रहा हूं।
सिद्धांततः मैं पक्ष में नहीं हूं उनके। मजबूरी की तरह उनको स्वीकार
करता हूं, इनकार नहीं करता हूं। और यही फर्क है विनोबा और मेरी
दृष्टि में। विनोबा के लिए वह सिद्धांत है। और ऐसा होना चाहिए सारी दुनिया में,
यह खयाल है। और यह भी खयाल है कि ऐसा होगा तो दुनिया में शांति होगी,
यह मेरा खयाल नहीं है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कोई यंत्र न तो मारक होता है, न तारक होता है। आदमी
को हाथ में तय होता है कि क्या होगा। अभी यह पेंसिल से मैं मारक बना सकता हूं,
आपकी आंख फोड़ सकता हूं। यह पेंसिल अभी मारक हो जाएगी। मेरा आप मतलब
समझे न? कोई यंत्र न तो मारक होता है और न तारक होता है।
आदमी की बुद्धि यंत्र का उपयोग करती है। और आदमी मारक हो तो कोई भी यंत्र मारक
है--कोई भी यंत्र। आप यह फोन उठा कर किसी की जान ले सकते हैं, खोपड़ी फोड़ सकते हैं। यह सवाल नहीं है। ये सब जो तरकीबें हैं न, ये यंत्रों से बचाव के लिए सब हिसाब बांधते हैं वे कि इतने यंत्रों से बचो,
इतने यंत्रों से बचो। एटम बम भी मारक नहीं है। वह किनके हाथ में है,
यह सवाल है।
और मेरी अपनी दृष्टि यह है कि कोई यंत्र मारक नहीं हो सकता। यंत्र
कैसे मारक हो सकता है, जब तक आप नहीं मारोगे? सारे
यंत्र साधन हैं। आदमी को हमें बनाने की जरूरत है; आदमी को
विकसित करने की जरूरत है। उसकी शांति और प्रेम को बढ़ाने की जरूरत है, कि वह यंत्रों का मारक उपयोग न करे। और नहीं तो संन्यासी भी जो डंडा लेकर
चलता है, उससे आपकी खोपड़ी फोड़ सकता है। यह सवाल नहीं है। यह
जो विनोबाजी कहते हैं कि मारकत्तारक वगैरह यह सब कुछ मतलब की बातें नहीं हैं बहुत।
कुछ कोई मारक-वारक नहीं है।
यंत्रों में शोषण की शक्ति है।
यंत्र में क्या, शोषण की शक्ति आदमी में है,
यंत्र में नहीं है। यंत्र में नहीं है शोषण की शक्ति। यह भी विनोबा
और गांधी गलत बातें कहते हैं। किसी यंत्र में शोषण की शक्ति नहीं है। शोषण की
शक्ति आदमी मैं है। वह यंत्र अगर समाजवादी समाज हो तो शोषक नहीं होगा, और पूंजीवादी समाज है तो शोषक होगा। तो पूंजीवादी समाज को मिटाना नहीं
चाहते हैं, यंत्र को मिटाना चाहते हैं? यह फिर बेईमानी की बातें हैं। अगर यंत्र शोषक है तो उसका मतलब है कि वह
शोषकों के हाथ में है। तो शोषकों के हाथ से तो छीनना नहीं है, उनको तो ट्रस्टी बनाना है और यंत्र को मिटाना है। बड़ी अजीब बातें कर रहे
हैं आप! यंत्र रूस में शोषक नहीं है, हिंदुस्तान में शोषक है,
तो हिंदुस्तान में यंत्र कोई खास ढंग की चीज है? यंत्र शोषक रहेगा, अगर शोषकों के हाथ में है। तो
यंत्र शोषकों के हाथ में नहीं रहना चाहिए, समाज के हाथ में
रहना चाहिए। मगर गांधी और विनोबा इसके लिए भी राजी होते कि यंत्र समाज के हाथ में
आए। वे इसके लिए राजी हैं कि यंत्र ही न रह जाए। यह बड़ी अजीब बात है! यह बड़ी अजीब
बात है!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मेरी आप बात समझे कि नहीं? मेरा कहना यह है कि
आदमी के पास जिंदगी बहुत छोटी है और बेवकूफी में गंवाने के लिए नहीं है। मेरी आप
बात समझे न? कि वह अपनी साबुन भी बनाए, वह अपना जूता भी बनाए, वह अपना कपड़ा भी बनाए,
ये पागलपन की बातें हैं। आदमी के पास जिंदगी इतनी थोड़ी है, उस थोड़ी जिंदगी को हमें लंबा करना चाहिए। अगर एक आदमी पचास-साठ साल जीता
है तो बीस साल तो सोने में निकल जाते हैं। बीस साल उसके दाढ़ी बनाना और कपड़ा धोना
और जूता साफ करना और बाजार जाना इसमें निकल जाते हैं। बीस साल बचते हैं उसमें वह
दफ्तर में नौकरी करता है, पत्नी से लड़ता है, मित्रों के साथ ताश खेलता है, इसमें गंवाता है। आदमी
के पास वक्त नहीं बचता है कि ऊंची उड़ान ले सके।
आपको पता है कि दुनिया में जो भी समृद्ध घर हैं, या समृद्ध परिवार हैं, या समृद्ध समाज है, उन्होंने ऊंची उड़ान ली है। बुद्ध कोई भिखमंगे के घर में पैदा नहीं होते
हैं। और न महावीर भिखमंगे के घर में पैदा होते हैं। ये सारे के सारे करोड़पतियों के
घर में पैदा होते हैं, जहां लक्जूरी की पूरी व्यवस्था है। तो
मन को उड़ने का मौका है। आप पक्का समझ लीजिए कि अमेरिका में वैज्ञानिक पैदा होगा।
विचारक पैदा होगा, वह रूस में पैदा होगा। यहां कहां से पैदा
होगा? यहां रोटी खाने की तकलीफ है। समाज एफ्लुएंट होता है तो
माइंड ऊपर जाता है। और गांधी-विनोबा की बात आप मान लो तो आदमी जूते की कीलें
ठोंकता, साबुन बनाता और चरखा चलाता रह जाएगा। इससे ऊपर नहीं
जा सकता।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मेरी आप बात समझ रहे हैं न? मेरा कहना यह है कि
समाज का जितना उत्पादन है, वह सारा का सारा उत्पादन
धीरे-धीरे आटोमैटिक टेक्नालॉजी के हाथ में चला जाना चाहिए।
जितना जागृतिकरण बढ़ेगा; इतनी बेकारी, बेरोजगारी बढ़ेगी।
बेकारी बढ़ेगी, अगर पूंजीवादी समाज रहेगा। मेरी आप बात समझे न?
अगर समाज पूंजीवादी है तो यंत्र के बढ़ने से बेकारी बढ़ेगी। अगर समाज
समाजवादी है तो यंत्र के बढ़ने से आदमी को समय की सुविधा बढ़ेगी, बेकारी नहीं बढ़ेगी। जो आदमी आठ घंटे काम करता था, वह
छह घंटे करेगा, चार घंटे करेगा, तीन घंटे
करेगा। लेकिन अगर पूंजीवादी समाज है, तो यंत्र काम कर देगा,
तो दस आदमियों को बेकार कर देंगे, वह अब एक ही
आदमी से काम चल जाएगा। अगर समाजवादी समाज है तो जितना काम दस आदमी करते थे,
वही दस आदमी अब काम करेंगे, लेकिन कल आठ-आठ
घंटे करते थे, अब दो-दो घंटे करेंगे। तो समाज बदलना चाहिए,
यंत्र नहीं। यंत्र तो समाज के लिए बड़ा हितकारी है, बड़ा हितकारी है। हमें जो तकलीफ हो रही--जैसे आपका अभी यहां गुजरात में
उपद्रव चलता है कि कोई मील में अगर लाना है कंप्यूटर और लगाना है, फलां करना है, या इंसोरेंस वाले लाना चाहते हैं,
तो हमको तकलीफ होती है। वह तकलीफ पूंजीवाद समाज की है। कंप्यूटर की
नहीं है वह तकलीफ। कंप्यूटर आएगा तो तब काम हलका हो जाएगा, कम
हो जाएगा और आदमी के पास सुविधा बचेगी कि कुछ ज्ञान सीखे, कुछ
खोजे, कुछ ध्यान करे, कुछ और करे,
कुछ उसको सुविधा हो संगीत ही सीखे।
आप एक बात ध्यान में रखिए कि आदमी जो काम भी रोटी कमाने के लिए करता
है, वह काम कभी आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। चाहे कोई विनोबा समझाएं, दुनिया में कोई भी समझाएं, रोटी कमाने वाला काम कभी
भी आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। जो काम आदमी हॉबी की तरह, सुख की
तरह करता है, वह आनंदपूर्ण हो सकता है। एक आदमी सितार बजाए
खुशी से तो एक बात है, और आप दो घंटे की नौकरी देकर सितार
बजवाएं, बिलकुल बात दूसरी हो गई, बिलकुल
बात दूसरी हो गई। आदमी की जिंदगी में उतना ही आनंद बढ़ता है जितना वह अपनी मौज से
कुछ कर सके। और मौज से कर सके इसके लिए जरूरी है कि दुनिया में यांत्रिकता का
अधिकतम विस्तार हो।
लेकिन यांत्रिकता खतरनाक सिद्ध होगी पूंजीवाद के लिए। पूंजीवाद में
यांत्रिकता बढ़ेगी तो बेकारी बढ़ेगी। बेकारी बढ़ेगी तो क्रांति की संभावना बढ़ती है।
और इसीलिए मैं कहता हूं, गांधी-विनोबा की बात पूंजीवाद को बचाने के लिए सबसे
कारगर तरकीब है। अगर समाज को पुराने यंत्रों पर ले जाया जा सके तो समाज पूंजीवाद
के पीछे लौट जाएगा।
समाजवाद पूंजीवाद के आगे की मंजिल है। पीछे की मंजिल नहीं है वह। जब
तक केंद्रित उद्योग न हो, पूंजीवाद पैदा नहीं होता है। और पूंजीवाद पैदा न हो
तो समाजवाद भी नहीं आता। अगर चरखा और यह सब मान लिया जाए, हालांकि
कोई मानेगा नहीं, न कोई मानता है, अगर
यह मान लिया जाए तो समाज की स्थिति पूंजीवाद से पिछड़ी स्थिति हो जाएगी।
और अगर एक-एक आदमी चरखा कातने लगे तो जो प्रोलिटेरियट का, मजदूर का वर्ग है, वह खतम हो जाएगा। वह तो इसलिए
पैदा हुआ है कि एक केंद्रित उद्योग पैदा हुआ है। एक इंडस्ट्री है, तो वहां दस हजार मजदूर इकट्ठे हैं। वह दस हजार मजदूर की ताकत हो गई है
इकट्ठी। अगर घर-घर में चरखा हो जाए, तो मजदूर की ताकत खतम हो
जाएगी फौरन, उसका इकट्ठा होना खतम हो जाएगा। वह कहीं रह नहीं
जाएगा। और अगर हम इस तरह सारे उद्योग को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दें तो पूंजीवाद
की जो व्यवस्था है वह पीछे लौट जाती है, सामंतवाद हो जाती
है। उस सामंतवादी व्यवस्था से समाजवाद कभी नहीं आ सकता।
तो एक लिहाज से विनोबा से भी ज्यादा बिड़ला समाजवाद के लाने में सहयोगी
हैं। अगर समझा जाए ठीक से तो। विनोबा और गांधी से ज्यादा बिड़ला और डालमिया और साहू
सहयोगी हैं समाजवाद के लाने में। क्योंकि जितना पूंजीवाद तीव्र होता है, जितना यंत्र बढ़ता है, बेकारी बढ़ती है, नीचे का मजदूर बढ़ता है, उतनी क्रांति होने की
संभावना बढ़ती है। और वह क्रांति आएगी ही। क्योंकि या तो यंत्र कम करने पड़ेंगे और
या क्रांति लानी पड़ेगी। क्योंकि बढ़ते हुए यंत्र समाज को बदलने के लिए मजबूर कर
देते हैं। और आपको एक व्यवस्था लानी पड़ेगी, जिसमें कि यंत्र
आदमी को बेकार न कर सके, बल्कि आदमी को समय दे।
तो वह आप ठीक कहते हैं। अभी तो बेकारी बढ़ती है, अभी तो बढ़ती है। लेकिन हमको समाज बदलना चाहिए, यंत्र
नहीं रोकना चाहिए। समाज बदलना चाहिए। बीमार को नहीं मार डालना चाहिए, बीमारी बदलनी चाहिए। यह तो बात ठीक है कि बीमार मर जाए तो बीमारी अपने आप
खतम हो जाती है। यह बात बिलकुल ठीक है। लेकिन इससे बीमार को मार डालने की कोशिश
नहीं होनी चाहिए। यंत्र को नहीं मार डालना है। यंत्र के कारण जो बीमारी पैदा हो
रही है, वह यंत्र के कारण नहीं हो रही, वह पूंजीवाद की वजह से पैदा हो रही है। यानी संक्षिप्त मैं यह कहना चाहता
हूं कि यंत्र न तो खराब है, न मारक है, न विध्वंसक है। यंत्र का हम कैसा उपयोग करें और कैसा समाज हो, इस पर निर्भर करेगा सब कुछ। यंत्र तो बढ़ते जाना चाहिए, समाज को बदलना चाहिए। समाज को बदलने से जो डरते हैं, वे कहेंगे कि यंत्र को ही मत लाओ बीच में। क्योंकि वह आएगा तो बदलाहट आनी
जरूरी हो जाएगी।
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