देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
बारहवां प्रवचन
समाजवाद का पहला कदम: पूंजीवाद
जैसे ही समाज में सुविधा बढ़ती है, सुख बढ़ता है, धन बढ़ता है, वैसे ही परेशानी बढ़ती है। जब आप भी सुखी
थे तो आपमें भी परेशान आदमी पैदा हुआ है। हरे राम जो आप भज रहे थे, वह आपके सुखी समाज ने पैदा किया था, वह गरीब आदमी ने
पैदा नहीं किया था। वह बुद्ध या महावीर जैसे अमीर घर के बेटे जाकर हरे राम कर रहे
थे। एक गरीब आदमी इतना परेशान है कि और परेशान होने का उसे उपाय नहीं है। इसलिए यह
जो आप सोचते हैं, एस्केपिज्म नहीं है, यह
सुविधा है जो कि आपको...होता क्या है, कठिनाई क्या है,
मुझे एक तकलीफ है, मुझे खाना नहीं मिल रहा,
तो मेरा चौबीस घंटा तो खाना जुटाने में व्यतीत होता है। मुझे रहने
को मकान नहीं है, तो मैं उसमें परेशान हूं, और मेरे सारे सपने इसके होते हैं कि मुझे खाना कैसे मिल जाए, मकान कैसे मिल जाता है, कपड़ा कैसे मिल जाए, एक औरत कैसे मिल जाए?
जब मुझे यह सब मिल जाए, तब असली परेशानी शुरू
होती है कि अब क्या? क्योंकि जब तक यह नहीं मिला है तब तक तो
आशा रहती है कि एक अच्छी औरत मिलेगी, एक अच्छा मकान मिलेगा,
एक कार होगी, तो सब स्वर्ग हो जाएगा। जब सब
मिल जाता है तब पहली दफे सवाल उठता है कि अब क्या? अब मिलने
को कुछ भी नहीं, अब क्या करें? सारी
कठिनाइयां तब शुरू होती हैं--अगर भगवान आपकी सारी इच्छाएं पूरी कर दे तो आप फौरन
स्युसाइड कर लेंगे। और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। आत्महत्या जो है वह पूरी इच्छा हो
जाने के बाद की इच्छा है। फिर करिएगा क्या? फिर करने को कुछ
भी नहीं बचता है। तो जहां-जहां समाज एफ्लुएंट होता है, वहां-वहां
तकलीफ शुरू होती है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि एफ्लुएंट समाज न हो। इसका मतलब यह है
कि एफ्लुएंट समाज नई तरह की तकलीफें पैदा करेगा। उसमें थोड़ा वक्त लग जाता है और वह
जो बीच का गैप है वह तकलीफ कर गया होता है। और तकलीफों के भी स्तर होते हैं। एक
गरीब आदमी की तकलीफ है, एक अमीर आदमी की तकलीफ है। अगर दोनों में से चुनना हो,
तो मैं कहूंगा, अमीर आदमी की तकलीफ चुननी
चाहिए। गरीब आदमी की तकलीफ कभी नहीं चुननी चाहिए। एक गरीब आदमी की अनैतिकता है,
एक अमीर आदमी की अनैतिकता है। अगर चुनाव करना हो तो मैं अमीर आदमी
की इम्मॉरेलिटी को चुनना पसंद करूंगा। आप जो कह रहे हैं मैं उसके पक्ष में नहीं
हूं। आप कहते हैं, हमारा आदमी बड़ा अच्छा है। हमारा आदमी बड़ा
अच्छा वह गरीबी की वजह से है, और गरीबी की वजह से बड़ा अच्छा
होना इतना बुरा होना है जिसका कोई हिसाब नहीं। आप मेरा मतलब समझे न?
आपको सारी सुविधा हो और आप अच्छे आदमी हों, तब तो कुछ समझ में आता है। यानी मेरी छाती पर एक बंदूक लगी हो और मैं चोरी
न करूं तब मेरी नैतिकता का कोई मतलब नहीं है। मेरी छाती पर बंदूक भी नहीं है और
मैं चोरी नहीं करता, तब कुछ मतलब है। आपके, जिसको आप अच्छा आदमी कह रहे हैं, उसको बुरा होने का
उपाय कहां हैं? बुरा होने के लिए सुविधा चाहिए। बुरा होने का
उपाय नहीं है। आप सिर्फ उपाय से रोके हुए हैं। मैं नहीं मानता हूं कि यह कुछ बहुत
अच्छी बात है। और, फिर दूसरी बात यह है कि जब बेचैनी बढ़ती है,
तो नई दिशाओं में खोज शुरू होती है।
जिस दिन हम सारी दुनिया में आदमी की
सब सामान्य तकलीफों को दूर कर देंगे उस दिन हम बड़ी-बड़ी नई तकलीफों की ईजाद
करेंगे, और वे नई तकलीफें हमें नई दिशाओं में खोज में ले जाएंगी।
चांद पर ले जाएंगी, तारों पर ले जाएंगी, नये संगीत में ले जाएंगी, नये केमिकल्स और नये
ड्रग्स में ले जाएंगी। धर्म, और फिलासफी, और पोएट्री, और पेंटिंग सब में ले जाएंगी। वह सब
सुविधा संपन्न आदमी की तकलीफें हैं जो अपने हाथ से वह पैदा कर रहा है।
लेकिन बड़े मजे की बात है, जो तकलीफ हमारे सिर
पर आती है, वह बहुत दुखद होती है। जो हम पैदा करते हैं,
वह फिर भी सुखद है। वह हमारी च्वाइस है। अब एक आदमी है जिसको कुछ
करने को नहीं। वह पेंट कर रहा है। हो सकता है पेंट करने में वह उतनी मेहनत कर रहा
है जितना कि मजदूर सड़क पर गङ्ढा खोदने में न कर रहा हो। वह मजदूर कभी-कभी मौका देख
कर आराम भी करता है, कोई नहीं देखने वाला होता है तो
सुस्ताता भी है। यह आदमी दिन-रात लगा हुआ है। इसको कोई नहीं कह रहा है कि तुम यह
करो, लेकिन यह इसका अपना चुनाव है। और मैं मानता हूं कि सबसे
अच्छा समाज वह है, जहां तकलीफें भी हमारे चुनाव से हम चुनते
हों, जो हमारे ऊपर से न आती हों, हमारे
ऊपर न गिर पड़ती हों। और यह बड़े मजे की बात है कि अगर मुझे कोई जबरदस्ती सुख भी दे
दे तो भी वह दुख हो जाएगा। और, अगर मैं अपनी मौज से दुख को
भी चुन लूं तो वह सुख हो जाएगा। बहुत गहरे में मेरी च्वाइस असली चीज है।
तो आज अमेरिका में आपको जो दिखाई पड़ता है...अगर आज एक अमरीकी लड़का सड़क
पर खड़े होकर और हिप्पी होकर, बीटल होकर भीख मांग रहा है,
यह उसकी च्वाइस है। अगर हम भीख मांग रहे हैं, हमारी
मजबूरी है। इन दोनों में इतना फर्क है कि इन दोनों को कभी आप एक साथ मत तुलना करना,
ये एक चीजें नहीं हैं। ये बिलकुल एक चीजें नहीं हैं। अगर बुद्ध,
एक राजा के लड़के को शौक आ जाता है और वह सड़क पर भीख मांगने लगता है
तो यह उसकी मौज है। लेकिन एक गरीब का लड़का जब सड़क पर भीख मांगता है तो यह मौज नहीं
है। इसलिए गरीब का लड़का जब भीख मांगेगा तो उसके चेहरे पर वह चमक नहीं हो सकती जो
बुद्ध के चेहरे पर है। दोनों भीख मांग रहे हैं। और गरीब का लड़का सदा धोखे में
पड़ेगा कि बुद्ध के चेहरे पर जो चमक है वह मेरे चेहरे पर क्यों नहीं आती? वह आ नहीं सकती।
बुद्ध ने तकलीफ को भी चुना है। यह कोई मजबूरी न थी, यह कोई जबरदस्ती न थी। मेरा आप मतलब समझ रहे हैं न? मेरा
कहना यह है कि वह जिसको हम अपने मुल्क की गरीबी, और सदाचार,
और बड़ा अच्छा आदमी, और...सब झूठी बातें हैं।
और हम नाहक अपने को धोखा देने की कोशिश करते हैं और हमने बहुत सालों तक, हजारों साल तक यह धोखा दिया है, और यह धोखा हम अभी
भी जारी रखना चाहते हैं। यह धोखा जारी नहीं रखना चाहिए। मैं नहीं कहता, किसी आदमी को गरीब होने का शौक है, वह हो, लेकिन वह भी उसका चुनाव होना चाहिए। यानी अगर मुझे एक झोपड़े में रहना है,
तो मुझे रोकना नहीं चाहिए किसी को, मैं झोपड़े
में रहूं। लेकिन यह मेरा चुनाव होना चाहिए। झोपड़े में मुझे रहना न पड़े। तब
मजबूरियां शुरू हो जाती हैं, तकलीफ शुरू हो जाती है।
इस दफा पहली दफा ऐसा हुआ है अमेरिका जैसे मुल्कों में, पहली दफा समृद्ध समाज पैदा हुआ है। इसलिए जो तकलीफें कभी-कभी कुछ लोगों को
अनुभव हुईं थीं, वह पूरे समाज को अनुभव हो रही हैं। यह
बिलकुल ही फेनामिनल है। इसकी हमें कल्पना भी नहीं थी कि यह जो हो रहा है यह बहुत
नया मौका है दुनिया में। इसलिए उनको भी समझ में नहीं पड़ रहा कि क्या करें? और आज जो सुनते हैं कि उनका जो भारी रस है आपके संन्यासी में, सूडो संन्यासी में भी रस है, उसका कुल कारण इतना है
कि वह अनुभूति के, सुख के नये रास्ते खोजने में संलग्न है।
और वह एल.एस.डी. से कह रहा है कि इससे मिलेगा, मैस्कलीन से,
तो इससे मिलेगा। कोई कह रहा है ध्यान करने से, तो वह इस पर भी प्रयोग करने को राजी है।
असल में पुराने सब दुख खतम हो गए हैं। अब नया दुख पैदा करना जरूरी है, नहीं तो एवोल्यूशन रुक जाती है। और पुराने सब सुख मिट गए हैं। और वह नये
सुखों खोजने बहुत ज्यादा जरूरी हैं। अब नये सुख की खोज है। और मैं मानता हूं कि एक
बड़ी क्रांति करीब है वहां, जो कई तरह के नये सुख ला देगी,
कई तरह के नये सुख जो आदमी ने कभी नहीं जाने। अब जैसे एल.एस.डी. का
सुख भी बहुत नये तरह का सुख है, जो आदमी को ठीक उसकी पहचान
कभी भी न थी। और बहुत बड़ी संभावना है, बिलकुल एक केमिकल्स
रेवोल्यूशन हो जाने की। और कुछ न कुछ करना पड़ेगा, नहीं तो
आदमी करेगा क्या? आदमी खाली नहीं बैठ सकता, उसको कुछ चाहिए करने को। हरि भजन करेगा, ध्यान
सीखेगा।
और मेरा मानना है, जब तक गरीब आदमी हरि भजन करता है,
तब वह हरि भजन भला करता हो, मन में उसके रुपया
ही होता है। और वह मंदिर में जाकर भी जो झांझ-मजीरा पीटता है, तो वह पीटता इसीलिए कि मेरे लड़के को नौकरी मिल जाए, मेरी
पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए। मेरे घर में पैसा नहीं, पैसा
कैसे मिल जाए?
मैं ट्रेन में जाता हूं, इधर मुझे सब मित्र
छोड़ने जाते हैं, तो वे जो हमारे ए.सी. कोच के जो सरवेंट होते
हैं, वे समझते हैं कि मेरे आशीर्वाद से कुछ हो सकता है। इधर
से आप मुझे छोड़ते हैं, उधर वे मुझे पकड़ लेते हैं। कुछ न कुछ
जरूर आपके पास होना चाहिए, इधर लोग क्यों आपको छोड़ने आए।
बंबई में तो भला जब तक कोई लाटरी का नंबर न बताता हो,...क्यों
छोड़ने आए? एक नंबर एक दफा बता दीजिए। और आप जिस भगवान की
पूजा करने को कहें, वह हम करने को राजी हैं। अब इस आदमी को
क्या मतलब है हरि भजन से?
हरि भजन जो है वह लास्ट लक्जूरी है जो आदमी कर सकता है, यानी ऐसा आदमी, जिसको करने को कुछ भी नहीं रहा। अब
बैठ कर झांझ-मजीरा पीट सकता है, सिर हिला सकता है, गीत गा सकता है, कोई तकलीफ नहीं है। इनमें बहुत
बुनियादी फर्क है। जब एक आदमी को कुछ भी करने को नहीं है, तब
वह परमात्मा से एक तरह का संबंध जोड़ सकता है, जो गरीब आदमी
कभी भी नहीं जोड़ सकता है। बीच में उसकी गरीबी खड़ी ही रहेगी। और अगर वह परमात्मा भी
उसे मिल जाएगा तो वह उससे कहेगा कि एक पांच रुपये का नोट मुझे दे दीजिए। तो करेगा
क्या? परमात्मा का भी क्या करेगा? आखिर
क्या करेगा?
तो मैं मानता हूं कि गरीब आदमी धार्मिक हो ही नहीं सकता। वह जो रिलीजस
होना है, वह बहुत समृद्ध चित्त की संभावना है। गरीब आदमी की
संभावना नहीं है। गरीब आदमी रिलीजस नहीं हो सकता है। रिलीजस से मेरा मतलब यह कि
जिंदगी जहां काम नहीं रह जाती और खेल हो जाती है, एक लीला हो
जाती है। लीला हमारा शब्द है न! हम कहते हैं, रामलीला या
कृष्णलीला।
लीला का मतलब यह है कि जहां जिंदगी खेल हो गई है। अब जहां जिंदगी कोई
काम नहीं है, अब जहां जिंदगी एक आनंद हो गई है। जहां जिंदगी का कोई
साध्य नहीं है पाने को, जहां होना ही आनंद है। तो रिलीजस
माइंड ऐसा आदमी, जो जहां है, वहां आनंद
में है। अगर वह पानी पी रहा है तो पानी पीना आनंद है और नाच रहा है तो नाचना आनंद
है। ये किसी चीज के मीन्स नहीं हैं। आगे कोई एंड नहीं है, जिसको
पाना है उसे, परमात्मा भी नहीं पाना है उसे। और जब कोई आदमी
इस भांति जीने लगे कि उसका एक-एक क्षण आनंद हो जाए। और वह तभी तो सकता है, जब मीन्स न रहें। जो कुछ भी, सभी एंड्स हो जाएं। तो
रिलीजस माइंड मैं उस आदमी को कहता हूं, जिसकी पूरी जिंदगी एक
खेल हो गई है, जस्ट ए प्ले। लेकिन यह गरीब आदमी की नहीं हो
सकती, यह बनाना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं मानता हूं...
आर यू स्योर थिस जर्नलाइजेशन इज़ केन बी ट्रुथ? आइ एग्री विथ यू बेसीकली...आइ एग्री...वॉट बर्नार्डशा सेड...
मैं आपकी बात समझा। एक व्यक्ति के संबंध में यह संभव है। समाज के
संबंध में संभव नहीं है। जो मैं कह रहा हूं, वह समाज के लिए कह
रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि हमें सभी लोगों को संगीत सिखाना पड़ेगा, तब वे संगीत सीखेंगे। आप कहते हैं, एक ऐसा आदमी भी
है जिसने कभी नहीं सीखा है, लेकिन कुछ भी बजा कर संगीत पैदा
कर लेता है। उसको मैं स्वीकार करता हूं। लेकिन वह इंडिविजुअल एक्सेप्शन है।
सोसाइटी उसको मान कर नहीं चल सकती। मैं मानता हूं कि एक राममूर्ति जैसा आदमी हो
सकता है, लेकिन अगर किसी दूसरे व्यक्ति को होना है तो
हमें...
लेकिन आचार्य श्री, ये तो परस्पर विरोधी हैं। आप यह भी मानते हैं कि जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती
जाएगी, वैसे-वैसे दुख बढ़ता जाएगा। और आपका यह भी मानना है कि
गरीबी भी एक दुख की अवस्था है। और ये दोनों बातें अब परस्पर विरोधी हो गई हैं।
गरीबी जो है वह दुख नहीं है, कष्ट है। और मैं इन
दोनों में थोड़ा फर्क करता हूं। गरीबी कष्ट की अवस्था है, दुख
की नहीं, अभाव की। पेट में रोटी नहीं है, शरीर पर कपड़ा नहीं है, दवा चाहिए, दवा नहीं है। गरीबी अभाव की
अवस्था है, दुख की नहीं, कष्ट
की। कष्ट जो है बिलकुल फिजिकल बात है और दुख बिलकुल ही साइकोलॉजिकल बात है। जब
कष्ट हमारे खतम हो जाते हैं, तब दुख शुरू होता है। एक आदमी
दुखी हो सकता है, कष्ट उसे बिलकुल नहीं है। उसके पास मकान
अच्छा है, खाना अच्छा है, कपड़ा अच्छा
है, सब है उसके पास, और दुखी है। और वह
कहता है, मैं बहुत परेशान हूं।
गरीबी को मैं मानता हूं: कष्ट की अवस्था। अमीरी को मैं मानता हूं: दुख
की अवस्था। दुख की अवस्था को मैं कष्ट की अवस्था से श्रेष्ठ मानता हूं, क्योंकि वह ज्यादा भीतरी दुख है। जिस तल पर हमारा दुख होता है, उसी तल पर हम सुख भी पा सकते हैं। अगर गरीब को कोई सुख मिलेगा, तो वह सुख नहीं सुविधा है। जैसे उसको भूख लगी है, भूख
में तकलीफ हो गई। आपने उसको रोटी दे दी, तो रोटी से कोई सुख
नहीं मिलने वाला है, सिर्फ दुख मिट जाने वाला है। सुविधा
मिलेगी। लेकिन अगर दुख है आपके भीतर और वह दुख हल हो जाए, तो
आपको सुख मिलेगा।
जितने ऊंचे तल पर हमारा दुख होगा उतने ही ऊंचे तल पर हमारे सुख की
संभावना भी खुलती है। गरीबी को मैं मानता हूं कि वह कष्ट है, और कष्ट में किसी भी आदमी का होना क्राइम तो है। हम सब भी जिम्मेवार हो
जाते हैं उसके। हां, दुख में किसी आदमी का होना उसकी बिलकुल
निजी बात है। इसलिए दुख के लिए, मैं आपके दुख के लिए मैं
जिम्मेवार नहीं रहता। आपके कष्ट के लिए मैं जिम्मेवार हो सकता हूं। तो समाज को ऐसी
व्यवस्था तो करनी चाहिए कि वहां कष्ट में कोई न रह जाए। लेकिन समाज ऐसी व्यवस्था
कभी भी नहीं कर सकता है जो दुख को निकला दे। क्योंकि दुख बिलकुल आपकी व्यक्तिगत और
निजी बात है। और उसके लिए समाज कुछ भी नहीं कर सकता है। आपको कुछ करना पड़ेगा। और
इसमें विरोध नहीं है। विरोध इसलिए है कि वह हम दुख और कष्ट को एक समझ लेते हैं।
यानी मेरी अपनी समझ यह है कि मुझे दुख का अनुभव ही तब होता है, जब कष्ट समाप्त हो जाएं।
समझ लीजिए कि मैं यहां बैठा हूं और यह आवाज आ रही है, बिजली की आवाज आ रही है और मेरे पैर में भारी दर्द है, तो मुझे यह आवाज सुनाई पड़ने वाली नहीं है। और मेरे पैर का दर्द ठीक हो गया,
तो वह मुझे आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाएगी। हमारे जो दुख हैं उनको
अनुभव करना भी एक ऊंचाई की बात है।
अब जैसे बुद्ध को यह लगता है कि जीवन का क्या अर्थ है? यह हमेशा भरे पेट आदमी को सवाल उठता है। यह खाली पेट आदमी को सवाल नहीं
उठता कि जीवन का क्या अर्थ है? उसे सवाल उठता है कि रोटी
कहां है? लाइफ के मीनिंगफुल होने नहीं मीनिंगफुल होने का
सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि लाइफ के बचाने का सवाल है। जब
लाइफ बच जाएगी तब हम पूछेंगे कि मीनिंग क्या है? अभी तो मेरी
लाइफ का अगर बचाने का सवाल हो, तो मैं यह पूछने नहीं जाता।
किसी गरीब ने कभी नहीं पूछा कि जीवन का अर्थ क्या है? गरीब
आदमी पूछता है कि रोटी कहां है? कपड़ा कहां है? मकान कहा है? हां, जब यह सब
मिल जाएंगे तब वह पूछेगा कि जीवन का क्या अर्थ है? क्योंकि
हमारे जिंदगी के भी तल हैं और इसलिए मैं मानता हूं कि गरीब तो इस पृथ्वी पर नहीं
रह जाना चाहिए।
कष्ट की परिभाषा क्या है आचार्य श्री? तुलनात्मक नहीं चाहिए मुझे...
मैं समझा , मैं समझा आपकी बात। कष्ट का मतलब है, अभाव। जो चीजें जरूरी हैं आदमी के लिए--जैसे भोजन है, कपड़ा है, छाया है, जरूरी चीजें
हैं, जिनके बिना जिंदगी सरवाइव नहीं करेगी। यानी ऐसा समझ
लीजिए कि उस सीमा तक मैं कष्ट कहूंगा, जब तक आप लाइफ का
मीनिंग नहीं पूछते हो। मेरा मतलब यानी जब तक आप यह नहीं पूछने आ जाते हैं कि
जिंदगी का मतलब क्या है? तब तक मैं कहूंगा, आप कष्ट में हैं। और जैसे ही आपको खाना, कपड़ा,
रहना, सारी सुविधा मिल गई, आप पूछने ही वाले हैं कि जिंदगी का मतलब क्या है? जिंदगी
का अर्थ क्या है? क्या है, हम किसलिए
जीएं? जब तक आप पूछते हैं हम कैसे जीएं, तब तक मैं कहूंगा, आप कष्ट में हैं। जिस दिन आप
पूछने लगें कि हम कैसे जीएं? अब जीना तो हमें मिल गया है,
लेकिन अब कैसे जीएं? बड़ी तकलीफ हो गई, जीने से मिलेगा क्या? होगा क्या? तब मैं कहूंगा कि आप कष्ट के बाहर आए और दुख की दुनिया शुरू हुई। दुख के
भी बाहर जाया जा सकता है। दुख के भी बाहर जाया जा सकता है।
जो मैंने कहा न सुरेश जी कि रिलीजस आदमी मैं उसको कहता हूं जो दुख के
भी बाहर गया है। अमीर आदमी उसको कहता हूं जो कष्ट के बाहर गया। और धार्मिक आदमी
उसको कहता हूं जो दुख के भी बाहर गया। लेकिन दुख के बाहर जाने के लिए दुख में होना
तो पहली शर्त है। हां, इसलिए गरीब आदमी दुख के बाहर नहीं जा सकता। वह अभी
दुख में ही नहीं आया। दुख के रैल्म से गुजरना भी जरूरी है, वह
भी एक सफरिंग है अनिवार्य, जिससे हमारी मैच्योरिटी आती है।
अब आज तो यह संभावना हो गई है कि अब दुनिया में कोई आदमी कष्ट में न रहे। पहले तो
यह संभव नहीं था। आज यह संभव है।
आज अब इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई कि आदमी कष्ट में न रहे। इसका अब
उपाय हो सकता है। और मैं मानता हूं कि दुख में होना बड़ी भारी घटना है। हर आदमी को
दुख से गुजरना ही चाहिए, क्योंकि तभी वह दुख के पार जा सकेगा, नहीं तो बियांड जाएगा कैसे? उसे दुख से गुजरना
चाहिए। उसे जिंदगी के सारे गहरे सवाल उठने चाहिए, जिनका कोई
उत्तर नहीं है। उसे ऐसे जिंदगी के सवाल उठने ही चाहिए जो कि कुछ भी मिलने से पूरे
नहीं होंगे। उसे किसी ट्रांसफार्मेशन से गुजरना पड़ेगा, इसलिए
वह रिलीजस हो पाएगा।
यानी मैं यह मानता हूं कि गरीब समाज धर्म का ढोंग कर सकता है, धार्मिक हो नहीं सकता। अमीर समाज में ही धर्म के होने की संभावना खुलती
है। लेकिन यह जब मैं कह रहा हूं तो समाज को ध्यान में रख कर कह रहा हूं। एकाध
व्यक्ति के लिए नहीं कह रहा हूं। इतने ज्यादा सेंसिटिव लोग हो सकते हैं कि दूसरे
आदमी को अमीर देख कर भी उनके लिए अमीरी बेकार हो जाए, इसमें
बहुत कठिनाई नहीं है। यह व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह व्यक्ति के लिए संभव है
कि मैं आपकी अमीरी देख कर ही अमीरी के चक्कर के बाहर जो जाऊं। क्योंकि मैं पाऊं कि
आदमी तो दुख में ही है। मगर इतना संवेदनशील होना बहुत मुश्किल बात है। इसलिए
कभी-कभी घटना घटती है, कभी-कभी घटना घटती है। और जिनको आप
कहते हैं कि आमतौर से माने हुए हमारे जो रिलीजस सेंट्स हैं, उसमें
सौ में से नब्बे तो माने हुए ही हैं।
असल में नहीं है।
नहीं, असल में नहीं है। क्योंकि हमारे मानने की भी हमने
मापदंड ईजाद किए हुए हैं।
एक गरीब समाज है--गरीब समाज उस आदमी को आदर देना शुरू कर देता है, जो अपने हाथ से अपने ऊपर कष्ट ले। उसको गरीब समाज आदर देगा। क्योंकि गरीब
आदमी के लिए जो सबसे बड़ी कठिन चीज है, वह कष्ट को झेलना है।
अगर कोई भी आदमी अपने आप कष्ट झेलने लगे, तो गरीब समाज उसको
बहुत आदर देगा। अगर कोई आदमी पैदल चलने लगे, तो वह उसको
महात्मा कहेगा। कोई आदमी भूखा रहने लगे, उपवास करने लगे,
तो वह उसके पैर छुएगा। कोई आदमी नंगा खड़ा हो जाए, तो वह कहेगा, यह परम ज्ञानी है।
उसका कारण कुल इतना है कि जो चीजें वह नहीं सह पा रहा है और बड़ी तकलीफ
दे रही हैं, उस आदमी को यह आदमी सहज स्वीकार कर रहा है। इस तरह के
जो लोग हैं, जो अपने को कष्ट देने की चेष्टा में लगे हुए हैं,
मैं मानता हूं, पैथालॉजिकल हैं।
मनुष्य अगर ठीक से स्वस्थ हो तो न अपने को कष्ट देना चाहेगा, न दूसरे को कष्ट देना चाहेगा। और अगर आदमी के दिमाग में कुछ बीमारी हो,
तो दो ही रास्ते हैं उसके--या तो वह दूसरों को तकलीफ दे या खुद को
तकलीफ दे। पैथालॉजिकल है वह आदमी। तो उसके दो ही रास्ते हैं, या तो वह किसी को सताने की कोशिश करेगा, या तो वह हिटलर
जैसा हो जाए, या गांधी जैसा हो जाए। ये दोनों ही मेरे हिसाब
से एक ही तरह के लोग हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
उसी को मैं मैच्योर कहूंगा। जो आदमी न किसी दूसरे को तकलीफ देने की
कोशिश में लगा है, न अपने को तकलीफ देने की कोशिश मैं लगा है। लेकिन इस
तरह के आदमी को आपको पहचानना मुश्किल हो जाता। पहचानना इसलिए मुश्किल हो जाता,
हम दो तरह के आदमी पहचान लेते हैं। हम पहचान लेते हैं कि यह आदमी
दूसरे को सता रहा है, तो भी हम पहचान लेते हैं कि बुरा आदमी
है। और इसी बुरे आदमी से हमने एक परिभाषा निकाली है कि जो अपने को सता रहा है,
वह अच्छा आदमी है।
लेकिन जो सता रहा है, वह मेरी दृष्टि में बुरा आदमी है,
चाहे वह किसी को सता रहा हो, चाहे अपने को,
चाहे दूसरे को।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
साइमलटेनियस ही होगी। असल में जिंदगी में सब प्रोसेस साइमलटेनियस है।
बातचीत में हमें उनको टुकड़ों में तोड़ लेना पड़ता है। जिंदगी में प्रोसेस
साइमलटेनियस है। आप तब जवान हो रहे हैं, तब आप बूढ़े भी हो रहे
हैं, साइमलटेनियसली। आप सिर्फ जवान नहीं हो रहे हैं, साथ में बूढ़े भी हो रहे हो रहे हैं। और जब आप जिंदा हैं, तब आप मर भी रहे हैं, साइमलटेनियसली। यहां जिंदगी जो
है वह तो साइमलटेनिटी है। वहां तो सब चीजें एक साथ हो रही हैं। और इसलिए जब हम
बातचीत करते हैं, बातचीत साइमलटेनियस नहीं हो सकती। उसमें
हमें टुकड़े तोड़ लेने पड़ते हैं। जब हम एक आदमी से कहते हैं, यह
जिंदा है, तो एक मतलब होता है। जब हम कहते हैं, फलां आदमी मर गया है, तो दूसरा मतलब होता है।
हालांकि ये दोनों घटनाएं एक साथ ही घट रही हैं।
यह जो पैथालॉजिकल माइंड है, या तो किसी को सता
रहा है, या खुद को सता रहा है। अब तक हमने पूरे इतिहास में
इसी तरह के लोग पैदा किए हैं, बड़ी संख्या में, दूसरे को सताने वाले लोग पैदा किए हैं और खुद को सताने वाले लोग पैदा किए
हैं। दूसरे को सताने वाले को हम गालियां दे रहे हैं, बुरा कह
रहे हैं। अपने को सताने वाले को हम भला कर रहे हैं।
वह जो सौ में से नब्बे हमारे जो महात्मा हैं, वे इस तरह के बीमार लोग हैं। असल में इतना कष्ट रहा है समाज में कि हम
किसी महात्मा को भी सुखी नहीं देख सकते। महात्माओं को हम हंसने नहीं देते। हंसना
बड़ा जुल्म होता है। अब जीसस के बाबत ईसाई कहते हैं, ही नेवर
लाफ्ड, हंसे नहीं कभी। और मैं मानता हूं कि अगर जीसस नहीं
हंस सकते तो कौन हंसेगा? यानी जीसस को हंसना चाहिए, जरूर हंसते होंगे। लेकिन ईसाई नहीं हंसने देंगे। अगर महावीर हंसते हुए मिल
जाएं, तो जैन नाराज हो जाएंगे। वे कहेंगे कि कुछ गड़बड़ हो गई।
हमारा तीर्थंकर कुछ बिगड़ गया, कुछ गलत सोहबत में पड़ गया।
बिलकुल असंभव है यह कि हम महावीर को हंसता हुआ सोचें। हमें कठिन हो जाएगा। इतने
कष्ट में समाज गुजरा है कि हम एक तरह से सफरिंग की पूजा कर रहे हैं। जीसस की हम
पूजा कर रहे हैं, सूली पर लटका कर! वह हमारे मन में जो कष्ट
इतना भारी है कि उसने पूजा की जगह ले ली, वह वर्शिपिंग सेंटर
बन गया है। और इसे किसी तरह तोड़ना पड़ेगा। किसी तरह हमें दुख की जगह सुख को केंद्र
पर लाना जरूरी है।
शायद कष्ट से सुख में आना या दुख में जाना, मेरे खयाल से आसान है, लेकिन दुख से सुख में आना
शायद अधिक कष्टकर है?
नहीं-नहीं, सोमानी जी, बात बहुत उलटी है।
कष्ट से दुख में जाना या कष्ट से सुख में जाना बहुत कठिन है, क्योंकि आप अकेले पर निर्भर नहीं करता है, पूरी समाज
की व्यवस्था पर निर्भर करता है, पूरे ढांचे पर निर्भर करता
है।
आज के समाज में भी?
हां, हर हालत में, हर समाज में।
धीरे-धीरे कम होता जाएगा, लेकिन हर समाज में अब तक यह हालत
रही है कि आपको अगर धनी होना है तो यह बड़ा संघर्ष है। जिस संघर्ष में दूसरे पर भी
ध्यान रखना जरूरी है। अगर आपको एक बड़ा मकान बनाना है, तो
आपके चारों तरफ जो छोटे मकान हैं उनको गिराना पड़े, या न
गिराना पड़े, तो उनसे रक्षा का इंतजाम करना पड़े, पुलिस वाले बीच में खड़े करने पड़ें, हुकूमत ऐसी बनानी
पड़े कि वह आपके मकान में न घुस आएं, सारा इंतजाम करना पड़ेगा।
मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि कठिन है कष्ट से सुख में जाना, क्योंकि कष्ट से सुख में जाने में दूसरे भी इंवाल्व हैं। लेकिन दुख से
आनंद में जाना बहुत सरल है क्योंकि वह बेसिकली इंडिविजुअल अफेयर है, उसमें कोई इंवाल्व नहीं है। किसी से मुझे पूछना नहीं है, किसी सरकार से नहीं, किसी समाज से नहीं, किसी पड़ोसी से नहीं। वह बिलकुल निजी मेरी बात है। इसलिए उससे ज्यादा सरल
कुछ भी नहीं है। लेकिन होता क्या है, हमें वह कठिन मालूम
पड़ता है। और कठिन हमें इसलिए मालूम पड़ता है कि हमने कष्ट से सुख में जाने के लिए
जो-जो तरकीबें अख्तियार की हैं, वे कोई भी तरकीबें वहां लागू
नहीं होगी। और वह हमारी आदत बन गई है, वह हमारी टेक्नालॉजी
है। जिससे हम कष्ट से सुख में चले आए उसमें जिंदगी गुजर जाती है और हमारी खास तरह
की आदत बन जाती है। वह आदत तोड़नी मुश्किल हो जाती है।
मैं यह तर्क कर रहा हूं कि देखा नहीं जाता
है--शायद एक करोड़ में एक आदमी दुख से सुख में जाता हो?
उसका कारण वही है, उसका कारण वही है। और भी बहुत
कारण हैं। जैसे कि अभी एस्केपिज्म की आपने बात की--आमतौर से जिसको हम दुखी आदमी
कहें, वह आनंद की तलाश कम करता है, दुख
को भुलाने की तलाश करने लगता है, तब वह कभी भी नहीं जा
पाएगा। लेकिन दुखी आदमी के मन में चिंताएं हैं, परेशानियां
हैं, जिंदगी में कोई अर्थ मालूम नहीं पड़ता, ऊब मालूम पड़ती है। कल क्यों उठूं सुबह, यह भी समझ
में नहीं आता, कोई जरूरत भी नहीं मालूम पड़ती। कोई नहीं मालूम
पड़ता जिससे प्रेम करो और कोई नहीं मालूम जिसके प्रेम से कोई आनंद मिल जाएगा,
कुछ भी नहीं मालूम पड़ता।
तो ऐसे आदमी के सामने दो आल्टरनेटिव हैं। इसीलिए शराब और धर्म की बहुत
गहरी लड़ाई है, और कोई कारण नहीं है। दो ही आल्टरनेटिव हैं उसके
सामने, एक तो यह है कि वह अपने भूलने की किसी तरकीब में लग
जाए कि कल सुबह जब वह उठे तो उसे पता ही न हो कि वह कौन है? वह
फिर सुबह उठ जाए। सांझ होते-होते जब तक उसे पता चले कि मैं वही चिंतित और परेशान
आदमी हूं, तब तक वह फिर शराब पी ले, फिर
कुछ कर ले और फिर सो जाए। शराब हो, सेक्स हो, सिनेमा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भजन-कीर्तन हो,
उसमें भी अगर वह भुलाने की कोशिश कर रहा है तो एक ही बात है। दो
आल्टरनेटिव हैं दुखी आदमी के सामने, या तो वह दुख को भुलाने
में लग जाए; अगर वह दुख को भुलाने में लग गया, तो जितनी देर नशे में होगा, डूबा रहेगा, फिर वापस दुख खड़ा हो जाएगा। फिर यह जिंदगी भर एक सर्कल चलता रहेगा। या फिर
वह दुख को मिटाने में लग जाए।
जो दुख को मिटाने में लग जाए तो मामला बहुत कठिन नहीं है। मगर हमें
आमतौर से खयाल जो आता है सबसे पहले, वह भुलाने का खयाल
आता है। अगर मुझे कोई तकलीफ है तो मैं भूल जाना चाहता हूं। भूलने से कुछ मिटता
नहीं है, सिर्फ मैं मिटता हूं। लेकिन दुख है, उसे भूलने की कोई जरूरत नहीं है। और मेरी अपनी समझ है कि दुख सौभाग्य है।
क्योंकि कष्ट दुर्भाग्य है, दुख तो बड़ा सौभाग्य है। वह मिला
है, इसका मतलब है कि हम कष्ट के बाहर आ गए हैं। अब इस
सौभाग्य को खो देने की जरूरत नहीं है। अब इस दुख का पूरा सामना और इसका एनकाउंटर
करने की जरूरत है। और इसका मुकाबला करने की जरूरत है।
और इस दुख के मुकाबले अगर हम थोड़े भी खड़े होने की कोशिश करें, तो इसी को मैं साधना कहता हूं। दुख के सामने खड़े होने की, भूलने की नहीं। और अगर दुख के सामने खड़े होने की थोड़ी सी भी कोशिश हो,
तो इतना सरल है, क्योंकि मजे की बात यह है कि
कष्ट का वास्तविक अस्तित्व है, दुख का सच में कोई अस्तित्व
नहीं है। वह बिलकुल साइकोलॉजिकल इल्यूजन है। दुख जो है, उसका
कोई अस्तित्व नहीं है। कष्ट का तो अस्तित्व है। अगर मेरे पेट में रोटी नहीं पड़ी है,
तो भूख का अस्तित्व है। गरीब की तकलीफें तो वास्तविक हैं, अमीर की तकलीफें काल्पनिक हैं। इसलिए काल्पनिक तकलीफ को मिटाना तो बहुत
आसान है। और एक दफा उसे हम भुलाने में लग गए, तो बहुत मुसीबत
हो जाएगी।
जैसे समझ लें कि मेरे पीछे एक छाया है, और मैं उससे डर कर
भाग रहा हूं। मैं आंख पर पट्टी बांध लेता हूं, तो मुझे वह
छाया दिखाई न पड़े। इससे वह छाया मिटने वाली नहीं है। जब भी पट्टी उघाडूंगा,
तब वह छाया मौजूद होगी। मुझे उस छाया का मुकाबला कर ही लेना चाहिए।
लौट कर मुझे ठीक से जांच-पड़ताल कर लेनी चाहिए वह है कहां। और यह बड़े मजे की बात है
कि अगर आप दुख को खोजने जाइएगा, तो दुख जितना आप खोजेंगे,
उतना विलीन हो जाता है। और अंत में आप अचानक पाते हैं कि दुख नहीं
है। दुख को जितना आप खोजिएगा, जितना आब्जर्व करिएगा, जितना उसके पीछे लग जाइएगा उतना आप पाते हैं कि वह हमारी कल्पना था,
वह है ही नहीं, वह गया।
जिस दिन आप अपने मन के सारे कोने-कोने में उसकी खोज कर लेते हैं कि
कहां है, उस दिन दो घटनाएं घटती हैं--दुख को खोजने से आदमी
सेल्फ-नालेज को उपलब्ध होता है। लोग आमतौर से कहते हैं कि सेल्फ-नालेज को उपलब्ध
होने वाला आदमी दुख के बाहर हो जाता है, वह उलटी बात है। दुख
की जो खोज करता है, वह सेल्फ-नालेज को उपलब्ध हो जाता है।
क्योंकि दुख की खोज में उसे अपने भीतर एक-एक कोना देखना पड़ता है कि कहां है दुख?
और जैसे-जैसे वह खोजने जाता है, ऐसे ही हो
जाता है--जैसे दीया लेकर मैं अपने घर में अंधेरे को खोजने जाऊं। जब तक दिया लेकर न
जाऊं, तब तक कमरे में अंधेरा है और दीया लेकर खोजने जाऊं कि
कहां है अंधेरा, तो मेरा दीया ही उस अंधेरे को मिटाने का
कारण हो जाता है। वह जो हमारा आब्जर्वेशन है, वह जो हमारी
खोज है, वह दुख को मिटा देती है। क्योंकि वह वस्तुतः है नहीं,
वह सिर्फ खयाल है। उसका भी एक कारण है।
मेरी अपनी समझ यह है कि आदमी इतने कष्टों में रहा है कि जब उसके कष्ट
मिट जाते हैं, तो वह काल्पनिक कष्ट पैदा करना शुरू करता है; क्योंकि यह मान ही नहीं पाता है कि बिना कष्ट के हो कैसे सकता हूं?
आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? हम इतने कष्टों
में रहे हैं कि अगर सारे कष्ट एकदम से मिट जाएं, तो मैं नये
कष्ट ईजाद कर लूंगा; क्योंकि मैं बिना कष्टों के हो कैसे
सकता हूं? यह कैसे हो सकता है कि कोई कष्ट हो ही न?
तो दुख त्याग से जा सकता है?
दुख त्याग से नहीं जा सकता। दुख त्याग से कैसे जाएगा? दुख त्याग से नहीं जाएगा, त्याग से आप कष्ट में
पहुंच जाएंगे।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यह बहुत अच्छा सवाल पूछा है। यह बहुत ही बढ़िया सवाल है। अभी-अभी जो मैं
कह रहा था, मैं यह कह रहा था कि अगर आप त्याग करने लगते हैं,
तो आप दुख से नीचे उतर कर कष्ट की दुनिया में वापस आ गए, जहां आप थे। वहां दुख नहीं था। एक गरीब आदमी है, वह
रात गहरी नींद सोता है। गहरी नींद सोने का कारण शांति नहीं है। गहरी नींद सोने का
कारण यह है कि अभी वह उस जगह नहीं पहुंचा है, जहां अशांति को
जान सके। अभी वह अशांति की सीमा के पहले है।
लेकिन कोई चीज का त्याग बड़ा अस्तित्व की चीज तो
है ही न?
न-न, जरा भी नहीं है।
अगर आदमी सम्हल कर नहीं चले तो त्याग कैसे कर सकता है?
अगर आदमी समझदार और संभल कर नहीं चलेगा तो त्याग
कैसे करेगा?
न-न, यह मैं कह नहीं रहा। मैं यह कह रहा हूं कि अगर आप दुख
में हैं, साइकोलॉजिकल सफरिंग में हैं, तो
त्याग से आप वापस वहां पहुंच जाएंगे, जहां आप साइकोलॉजिकल
सफरिंग के पहले थे। पहले की अवस्था में पहुंच जाएंगे, नीचे
गिर जाएंगे। क्योंकि आप ऐसे कष्ट पैदा कर लेंगे--समझ लें एक आदमी उपवास करने
लगे...
त्याग के बाद तो कष्ट होता ही नहीं।
न, न, न। यह आप जो कह रहे हैं,
त्याग खुद ही कष्ट है और कष्ट को जब आप चुनते हैं, तो निश्चित ही आप दुख से नीचे की अवस्था में आ जाते हैं, जहां गरीब आदमी है। जहां कष्ट में भरा हुआ आदमी है। मैं त्याग करने को
नहीं कहता। मैं यह कह रहा हूं कि अगर आप दुख के ऊपर उठ गए--दुख के नीचे नहीं आना
है--अगर आप दुख के ऊपर उठ गए हैं और आपने पाया, दुख है ही
नहीं। तब आपकी जिंदगी से बहुत सा त्याग फलित होगा, लेकिन
आपको पता भी नहीं चलेगा।
हमें अस्तित्व का ध्यान ही नहीं रहता।
हां, अस्तित्व का ध्यान ही दुख है अगर बहुत गौर से देखें
तो। जब तक हमें ध्यान रहता है, तब तक दुख। मेरे पैर में
कांटा गड़ता है तो मुझे पता चलता है कि पैर है।
अगर पैर ही नहीं है, समझ लें, तो फिर कांटा लगता ही नहीं।
नहीं-नहीं, पैर नहीं है, यह अगर आपने समझा
है सिर्फ, तब तो आपको कांटा लगता ही रहेगा, सिर्फ आप भुलाते रहेंगे। यह इससे नहीं मिटने वाला।
त्याग करने में बड़ी और...
मैं भूलने को नहीं कह रहा हूं।
भूल त्याग नहीं है और त्याग भूल नहीं है। त्याग
अस्तित्व है, भूल अस्तित्व है
नहीं, आप मेरी बात नहीं समझे। जिस त्याग को आप करते हैं,
वह तो कष्ट है, लेकिन जो त्याग आपसे हो जाता
है, वह बड़ा आनंद है। और इन दोनों में फर्क है।
त्याग कब हो जाता है?
हां, त्याग तब हो जाता है--जैसे समझ लें, मैं हाथ में कंकड़-पत्थर लिए हुए चला जा रहा हूं और मैंने समझा हुआ है कि
ये हीरे हैं। रंगीन पत्थर हैं, और कल मुझे एक खदान मिल गई,
जहां हीरे-जवाहरात मिल गए। मुझे खयाल नहीं रहा, मैंने हाथ खाली करने के लिए पत्थर छोड़ दिए और हीरे उठा लिए। त्याग हो गया,
किया नहीं गया। त्याग तभी होता है, जब आपके
लिए बड़ा आनंद उपलब्ध होता है, तो आप पुराने हाथ खाली करते
हैं।
त्याग तब होता है, जब आपको कुछ विराट मिलता है,
तो क्षुद्र छूटता है। और त्याग करना तब पड़ता है जब आपको लगता है कि
यह हीरा ही है और फिर भी आप छोड़ते हैं। अभी आपको लगा नहीं कि यह कंकड़-पत्थर है।
अगर कंकड़-पत्थर लग गया, तब तो त्याग की बात ही करनी नहीं
पड़ती।
यानी कि समझ ले और त्याग करे, वह सबसे बड़ा त्याग है। और अगर हीरा न समझे और त्याग करे, उसको त्याग नहीं कहा जाएगा?
हां, इसीलिए तो मैं कह रहा हूं कि ज्ञानी त्याग करता ही
नहीं, सिर्फ अज्ञानी त्याग करते हैं और इसलिए दुख उठाते हैं।
मैं यही कह रहा हूं। ज्ञानी त्याग नहीं करता। जो व्यर्थ है, वह
छूट जाता है, जो सार्थक है, वह रह जाता
है। अज्ञानी सिर्फ त्याग करता है और तब वह दोहरे दुख झेलता है। मैं जो कह रहा हूं,
यह कह रहा हूं आपसे कि दो तरह से यह संभावना हो सकती है--या तो यह
चादर मैं इसलिए हटा दूं कि नग्न होने का आनंद मुझे अनुभव हो जाए।
अगर वह चादर को आप चादर न समझो।
न समझूं कैसे। न समझूं, मैं ही न समझूंगा न।
अगर मैं यह भी कहता हूं कि यह चादर नहीं है, तो भी मैं
भलीभांति समझ रहा हूं कि यह चादर है। नहीं तो यह भी कहने का कोई मतलब नहीं है। न
समझने के पीछे भी...अगर मैं यह कहता हूं, यह धन नहीं है,
यह धन नहीं है, तो भी मैं समझ रहा हूं कि यह
धन है, नहीं तो कह किससे रहा हूं? बात
खतम हो गई, मुझे उठ जाना चाहिए।
अगर धन न होने से अगर यह समझे कि धन नहीं है तो बात अलग है। अगर धन
समझने के बाद वह समझे कि धन नहीं है तो बात अलग है।
कैसे समझेगा?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
न, न, न। यही मैं कह रहा हूं कि
कैसे समझेगा। यह संभव ही नहीं है। अगर मैं यह कहता हूं यह धन है और मैं इसको धन
नहीं मानता, तो यह बिलकुल इंपासिबल है। मेरी समझ में कुछ
चीजें जब आपको दिखाई पड़ती हैं, जैसे रोज सुबह आप घर के बाहर
कचरा फेंक देते हैं, वह त्याग नहीं है। क्योंकि आप जानते हैं
कि कचरा है। जिस दिन जिंदगी में आपको ऐसी ही बहुत सी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं
व्यर्थ और छोड़ देते हैं, उस दिन तो छोड़ना अर्थपूर्ण है,
और उस दिन उसका कोई घाव नहीं छूटता पीछे। और अगर आप...तब ऐसे छूट
जाती हैं चीजें जैसे सूखा पत्ता गिर जाता है वृक्ष से। और कच्चे पत्ते को अगर आप
तोड़ते हैं तो वृक्ष में भी घाव होता है, पूरे वृक्ष के
प्राणों को खबर मिलती है कि कोई चीज टूट गई। और इसलिए जो लोग त्याग करते हैं,
उनको त्याग का भाव सदा बना रहता है।
अगर वह कच्चे पत्ते को कच्चा पत्ता समझ कर छोड़ दे
तो तभी त्याग होता है?
वह कैसे छोड़ेगा? कच्चा पत्ता कच्चा ही है। आप
नहीं समझ रहे। यानी मैं यह कह रहा हूं, कच्चा पत्ता कच्चा ही
है और पका पत्ता पका ही है। आपके समझने का सवाल नहीं है। पकना चाहिए।
वह पकना कब चाहिए?
आपकी समझ से पकेगा। आप जितना जिंदगी को समझेंगे, उतना पकेगा। इसलिए आपको त्याग करने को मैं नहीं कह रहा। जब पक जाएगा,
तो गिर जाएगा। आपको कुछ नहीं करना है, आपको
करना ही नहीं है। और अगर आपने कुछ किया तो आप मुसीबत में पड़ जाएंगे और दूसरे को भी
मुसीबत में डालेंगे। अब एक आदमी है, वह चार दिन का उपवास कर
ले। तो फिर वह चार दिन उसने उपवास किया, तो वह आपने अगर चार
दिन खाना खाया तो आपकी गर्दन पकड़ने को तैयार बैठा हुआ है। वह हजार तरकीब से आपको
जतलाएगा कि मैंने चार दिन उपवास किया और आप चार दिन खाना खाए।
वह अगर चार दिन खाना खा लिया और समझा कि मैंने
खाना नहीं खाया तो?
यह कैसे समझेगा, यह बताइए मुझे?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
तब तो सवाल ही नहीं है। तब तो सवाल ही नहीं है। आप मेरी बात नहीं
समझे। तब तो सवाल नहीं है।
वह नैचुरल नहीं रहेगा?
नहीं-नहीं, वह नैचुरल भी नहीं है। और न सवाल है। और वह आदमी कोई
बहुत अच्छी हालत में नहीं रहेगा, वह आदमी पागल होगा। आप मेरी
बात समझ रहे हैं न?
ज्ञानी हो गया बहुत तो भी पागल जैसा ही है?
नहीं, नहीं, नहीं। पागल जैसा नहीं है।
पागल जैसे हम हैं, जिनको ज्ञान नहीं हो गया है।
रामकृष्ण जी जब थे, वह अवस्था में तो पागल जैसे ही थे।
रामकृष्ण को मत फंसाइए। इसलिए मत फंसाइए कि रामकृष्ण सच में ही बहुत
देर तक हिस्टेरिक, और अगर किसी दिन उनका इलाज हो सकता, तो वे हिस्टेरिया में फंसते। हमारी तो तकलीफ यह है कि हमने तो अपने
साधु-संतों की भी कोई जांच-परख तो कभी की नहीं कि कौन साधु-संत कहां है और क्या है?
और हम इतनी डरी हुई कौम हैं कि हम कभी पूरे फोकस में अपने साधु-संत
को खड़ा भी नहीं करते कि हम पूरा उस आदमी को समझने की कोशिश करें कि मामला क्या है?
हम खुद ही डरते हैं कि कहीं समझने में मामला सब गड़बड़ न हो जाए। ये
जो हमारी तकलीफें हैं। यह जो आप कह रहे हैं न, अद्वैत हो गया,
सब एक हो गया। यह सब एक हो जाएगा, तो दीवाल
मुझे दीवाल दिखाई पड़ेगी, दरवाजा, दरवाजा
दिखाई पड़ेगा कि नहीं दिखाई पड़ेगा? तो फिर मैं दीवाल से निकल
सकूंगा? फिर मैं कुर्सी पर बैठूंगा कि कुर्सी को ऊपर रखूंगा,
क्या करूंगा? कुर्सी तो मुझे दिखाई पड़ेगी कि
इस पर मैं बैठूंगा, इसको कुर्सी मानूंगा। आपसे बात तो करूंगा
कि बोलने वाला और सुनने वाला अलग-अलग होगा।
अद्वैत का मतलब क्या है? अद्वैत का मतलब यह तो
नहीं कि मुझे दीवाल दरवाजा हो गई, दरवाजा दीवाल हो गई। और
पानी को छोड़ दूंगा और गिलास को पी जाऊंगा। ऐसा तो नहीं अद्वैत का मतलब हो जाएगा?
ऐसा हो जाएगा तब तो मैं पागल हूं। और ऐसा अद्वैत कभी नहीं हुआ और न
हो सकता है। हां, पागलखाने में हो जाता है। पागलखाने में
संभव है। या एल.एस.डी. के बहुत ज्यादा गहरे प्रभाव में हो जाता है।
अभी एक आदमी कूद पड़ा, क्योंकि उस आदमी को रात सपने आते
रहे निरंतर कि मैं पक्षी होकर उड़ जाता हूं। उसने एल.एस.डी. लिया और जब उसने
एल.एस.डी. लिया तो एल.एस.डी. तो, जो भी आपके खयाल में है,
उनको पक्का कर दिया। वह अपने तीस मंजिल के मकान की खिड़की से उड़ गया।
यह समझ कर कि वह पक्षी हो गया। यह जो आदमी है, यह आदमी
परम-ज्ञान को उपलब्ध हो गया? इस आदमी का बोध ही चला गया,
उसको कुछ बोध ही नहीं रहा।
और जिसको हम अद्वैत कहते हैं--अद्वैत का मतलब ही कुल इतना होता है कि
बुनियाद में, आधार में चीजें एक ही मूल से आती हैं। तो बुनियाद में
तो आती हैं। गिलास भी वहीं से आता है, उन्हीं एटम से,
उन्हीं हाइड्रोजन से, उन्हीं अणुओं से,
जिनसे पानी आता है, लेकिन फिर पानी प्यास
बुझाता है और गिलास पीने से प्यास बुझने वाली नहीं है। ओरिजिनल सोर्स जो है,
वह एक चीजों का। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चीजें एक हैं। दीवाल
दीवाल है, दरवाजा दरवाजा है। इसलिए यह मतलब नहीं होता। और
सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है। और जब कोई आदमी कहता है कि
नहीं, सोना भी मेरे लिए मिट्टी हो गया; तो वह अभी उसको सोना मिट्टी हुआ नहीं, नहीं तो कहता
कैसे कि सोना मेरे लिए मिट्टी हो गया? अभी भी मिट्टी मिट्टी
है, सोना सोना है। अभी भी मिट्टी उसके सामने रख दो तो वह यह
नहीं कहता कि यह सोना है। अभी भी सोना उसके सामने रखो तो वह कहता है कि यह मेरे
लिए मिट्टी है। उसकी कांशसनेस पूरी की पूरी उसे बता रही है कि यह सोना है। मैं
इसको सोना नहीं मानता, वह यह कह रहा है। वह कह रहा है कि मैं
इसको मिट्टी मानता हूं। लेकिन आपके मिट्टी मानने से सोना मिट्टी नहीं हो जाता।
और रामकृष्ण के पास भी सोना ले जाइए तो वे चिल्ला कर खड़े हो जाते हैं
कि मुझे छुआ मत देना। और मिट्टी ले जाइए तो बिलकुल नहीं चिल्लाते। तब तो सवाल यह
है, सोचने जैसा है कि मिट्टी नहीं हो गया है सोना। रामकृष्ण दिन भर सुबह से
शाम तक समझा रहे हैं कि कांचन-कामिनी से बच कर रहना। सोने से, स्त्री से बच कर रहना। और फिर...वह बोध कहीं चला नहीं गया। अभी जब तक आप
यह कह रहे हैं कि सोना छोड़ो, तब तक सोना मिट्टी नहीं हो गया
है। नहीं तो मिट्टी को कोई छोड़ता है? मिट्टी को छोड़ने की कोई
जरूरत ही नहीं पड़ती। किसी ने नहीं सिखाया अब तक, किसी
शास्त्र ने कि मिट्टी का त्याग करो। वे सिखाते नहीं और फिर भी कोई मिट्टी को पकड़े
हुए नहीं बैठा है। सब शास्त्र सिखाते हैं कि सोने का त्याग करो। सब शास्त्र मानते
हैं, सोना सोना है, मिट्टी नहीं है। और
त्याग करने के लिए यह इल्यूजन पैदा करो कि सोना जो है, वह
मिट्टी है। इसको पहले सिर में ठोंको कि यह सब मिट्टी है, यह
सब मिट्टी है। लेकिन अगर कोई आदमी बार-बार सोच कर, ऑटो-सजेशन
से निरंतर चिल्ला-चिल्ला कर यह समझ ले कि सोना मिट्टी है।
यह त्याग इल्यूजन तो नहीं है?
त्याग जब आप करते हैं, तब इल्यूजन है। जब
होता है, तब बड़ी सच्चाई है। जब आप करते हैं, तब तो इल्यूजन है।
"करते हैं' और "होता है'
में क्या फर्क है?
हां, करते में आपको विल का उपयोग करना पड़ता है। आपको कहना
पड़ता है, यह सोना है, मैं इसको छोड़ता
हूं, और जब होता है तब होने में आपको विल का उपयोग नहीं करना
पड़ता है। आप कहते हैं, मेरे लिए बेकार हो गया, बात खतम हो गई। छोड़ना-वोड़ना कुछ भी नहीं, बात खतम हो
गई है। मैं जाता हूं। आप पीछे लौट कर यह भी नहीं कहते कि हिसाब रखना कि मैंने इतना
सोना छोड़ दिया। इसका कोई सवाल ही नहीं रहा।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कुछ नहीं, माइंड भी ठीक समझ रहा है, हार्ट
भी ठीक समझ रहा है। कोई गलत नहीं समझ रहा है। सोना सोना ही है, मिट्टी मिट्टी ही है। इसमें कोई गलत नहीं समझ रहा है। सोना सोना ही है,
मिट्टी मिट्टी ही है। अब सवाल यह नहीं है कि सोने को मिट्टी बनाना
है। सवाल यह है कि सोने के प्रति हमारी जो इतनी गहरी पकड़ है, इस पकड़ को समझना है। अगर समझने से छूट जाए, छूट जाए।
समझने से न छूटे, न छूटे। यह मैं समझता हूं कि समझने से छूट
जाता हूं। लेकिन वह छोड़ना नहीं पड़ता है। छोड़ना हमेशा नासमझी का कृत्य है। अगर मैं
समझता हूं, मुझे लगता है कि यह ठीक है तो इसमें कुछ अर्थ
नहीं है। यह मुझे दिखाई पड़ता है। यह मेरी समझ में आता है।
जब आदमी समझने जाता है, तो पकड़ ज्यादा होती है।
नहीं, कभी नहीं हुई।
समझने जाता है तब। जब आदमी समझने जाता है कि तो
पकड़ क्या चीज है, तो पकड़ ज्यादा होती है।
क्यों ज्यादा होगी पकड़।
क्योंकि आदमी समझता है कि यह पकड़ है।
न, न, न। अगर समझता है कि यह पकड़
है, अगर समझता है कि यह पकड़ है, अगर
समझता है कि यह पकड़ अर्थ की है कि व्यर्थ की है, सार्थक है
कि निरर्थक है। समझ अगर उसे दिखा देती है कि मैं व्यर्थ की चीज को पकड़े हुए हूं तो
छूट जाती है। अगर दिखा देती है कि सार्थक है तो और जोर से पकड़ लेता है।
समझाने वाला भी तो चाहिए?
नहीं, समझाने वाला नहीं, समझने वाला।
समझाने वाला नहीं, वह समझाने वाले का भी बहुत बड़ा चक्कर है।
समझने वाला। आपकी जिंदगी है, मैं क्यों समझाने आऊंगा?
जिंदगी तो आपकी भी है और हमारी भी है?
हां, तो। मैं अपनी जिंदगी समझूंगा।
आपकी जिंदगी समझाने से हमारी जिंदगी समझ सकती है?
न, न, न। बिलकुल नहीं। जरा भी
नहीं। अगर ऐसा हो जाता, तो दुनिया में बहुत समझदार लोग पैदा
हो चुके होते।
अभी उसी की वजह से ज्यादा समझदार लोग पैदा हुए।
कुछ समझ नहीं बढ़ी उससे दुनिया की। उससे आपकी समझ नहीं बढ़ती है। कृष्ण
समझ लेते हैं, बुद्ध समझ लेते हैं, क्राइस्ट
समझ लेते हैं।
...गाइडेंस...विथ...दि ह्यूमन माइंड।
गाइडेंस सदा आपकी अपनी जिंदगी की तकलीफ से आती है। गाइडेंस कहीं से भी
नहीं।
जिंदगी की तकलीफ से बस तकलीफ आती है, गाइडेंस नहीं आती है।
गाइडेंस आती है।
गाइडेंस तो जब आती है, कोई आदमी बताता है है कि यह मंदिर है, यह मस्जिद
नहीं है। यह सब तो पदार्थ है, यह मंदिर है।
न, न, न। मजा यह है कि बताने वाले
तो पचास हैं। कोई कह रहा है यह मंदिर है, कोई कह रहा है यह
मस्जिद है, कोई कह रहा है यह दोनों नहीं है।
समझने वाले को समझना चाहिए कि यह आदमी बराबर समझा
रहा है कि गलत समझा रहा है।
आप ही समझेंगे न, आखिर में।
समझाने वाला तो चाहिए न?
अल्टमेट चूजर आप ही होने वाले हैं न।
वह तो बात सही है।
मेरी आप बात नहीं समझे? अगर अंततः आपको ही
निर्णय करना है कि यह आदमी ठीक कह रहा है कि गलत कह रहा है, तब
फिर क्या बात रह गई?
हाउ वुड यू स्टाइज ऑफ फिलासफी। वुड यू कॉल इट ए
फोर्सली रेशनालिस्ट फिलासफी?
नहीं। नहीं कहूंगा इसलिए क्योंकि आदमी अकेला रीजन अगर हो तब तो ठीक
है। आदमी अकेला रीजन नहीं है। आदमी इमोशन भी है। और अकेली रेशनालिस्ट फिलासफी की
जो खराबी है, वह यह है कि आदमी का आधा हिस्सा उससे तृप्त ही नहीं
हो पाता। और जब वह तृप्त नहीं हो पाता है, वह बदला लेता है।
और इसलिए अक्सर यह हुआ कि बहुत रेशनालिस्ट आदमी बूढ़ा होते-होते बहुत इररेशनालिस्ट
हो जाएगा।
अक्सर यह होगा कि एक मजिस्ट्रेट है, चीफ जस्टिस है,
फलां है, ढिकां है; आखिर
में आप देखो, वह एक बिलकुल नासमझ के पैर पकड़े हुए है किसी
संन्यासी के बैठा होगा। और वह संन्यासी लोगों को समझा रहा है कि यह चीफ जस्टिस है।
यह बड़ा एडवोकेट है। यह बड़ा डाक्टर है, देखो, यह भी हमारा पैर पकड़े हुए बैठा है। रेशनालिस्ट आदमी के साथ खराबी है कि जब
रीजन थक जाएगा, और आधा हिस्सा अतृप्त रह जाएगा सदा, जो कि रीजन है ही नहीं, तब वह मुश्किल में पड़ जाएगा।
इसलिए मैं बेसिकली रेशनालिस्ट अपने को नहीं कहता। मैं तो टोटलिस्ट हूं। टोटलिस्ट
का मतलब यह कि आदमी की टोटल पर्सनैलिटी हो। उसमें इमोशन है और इमोशन बिलकुल इररेशनल
है। इमोशन कोई रीजन नहीं है।
या ऐसा कहें कि इमोशंस के अपने रीजन हैं। जिनको कि हम बुद्धि के रीजन
नहीं कह सकते हैं और उनकी हमें जगह बनानी चाहिए। यानी मैं यह मानता हूं कि अगर मैं
किसी को प्रेम करने लगूं और आप मुझसे पूछें कि क्यों प्रेम करते हो? तो मैं कहूंगा कि आपका पूछना गलत है। क्योंकि प्रेम के साथ क्यों नहीं
लगाया जाता है! और जिस दिन हम प्रेम के साथ क्यों लगाएंगे, उस
दिन प्रेम भी समाप्त हो जाएगा, उस दिन प्रेम के कोई उपाय
नहीं रह जाएंगे। लेकिन प्रेम की मेरी एक जरूरत है जो कि रीजन के बिलकुल बाहर है।
मुझे भूख लगती है, वह न इमोशन है, न
रीजन है। वह बिलकुल ही फिजिकल डिमांड है।
यह जो आप, प्रेम करते, तो कहते हैं कि आपका प्रेम करना भी गलत है, तो फिर
क्या सवाल है?
यह सवाल नहीं है। अगर मैं प्रेम करता हूं तो मैं कहूंगा कि यह गलत
प्रेम बहुत अच्छा है। ठीक प्रेम मुझे करना नहीं है। उसका कारण यह है कि प्रेम होना
ही अपने आप में ठीक होना है। गलत प्रेम जैसा कोई प्रेम ही नहीं होता। गलत प्रेम
जैसा प्रेम नहीं हो सकता। या तो प्रेम होता है या नहीं होता है। और अगर कोई आदमी
जवाब देने आए कि मेरे प्रेम का यह-यह कारण है, तो वह आदमी प्रेम
नहीं कर रहा है। वह अभी बुद्धि से ही जी रहा है। जिंदगी हमारी बड़ी है रीजन से।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम जिंदगी को इररेशनल आधार दें। यानी मेरा मानना यह
है कि हमें रीजन का पूरा उपयोग करना चाहिए, लेकिन लिमिटेशंस
जब रीजन के आ जाएं, तो जिद्द नहीं करनी चाहिए कि इसके आगे हम
न जाएंगे, क्योंकि रीजन आगे नहीं जाता। रीजन का हमें पूरा
उपयोग कर लेना चाहिए, ताकि हम बियांड रीजन भी जा सकें। बिलो
रीजन के मैं पक्ष में नहीं हूं, लेकिन बियांड रीजन के मैं
बिलकुल पक्ष में हूं। घड़ियां हैं जब कि आप रीजन के बाहर जाएंगे, और जाना जरूरी है। सारा जिंदगी का सारा रस आपको वहीं से मिलेगा। अगर एक
फूल मुझे बहुत अच्छा लग रहा है, तो रीजन तो कुछ भी नहीं है।
और चांद अगर मुझे प्यारा लग रहा है, तो रीजन तो कुछ भी नहीं
है।
तो स्वामी जी, उसमें तो फिर क्रोध भी आ सकता है।
मैं मानता हूं कि बराबर आएगा। बराबर आएगा।
और उसको तो आप एप्रूव नहीं करेंगे?
न-न, मैं बिलकुल एप्रूव करूंगा। एप्रूव इस अर्थों में
करूंगा कि मैं यह मानता हूं कि आप क्रोध
से इसीलिए परेशान हैं कि उसको आप एप्रूव नहीं कर पाए अब तक। अगर उसे एप्रूव कर लें
तो उससे छुटकारा हो जाए। मेरा मतलब यह है कि जैसे क्रोध है हमारा, हमने कभी क्रोध किया ही नहीं। जिसको क्रोध की इंटेंसिटी कहें, वह हमने कभी की नहीं।
अगर मेरे हाथ में शिक्षा हो तो मैं बच्चे को क्रोध करना सिखाऊं और
इंटेंस क्रोध करना सिखाऊं, ताकि वह अपने क्रोध से पूरी तरह से परिचित हो। वह
जाने कि क्रोध क्या है और एक दफा वह जान ले कि क्रोध क्या है, क्रोध में कंप जाए और जल जाए और पसीना आ जाए उसको क्रोध में, वह जान ले, तो हमें किताबें पढ़ाने उसे न जाना पड़े,
जिनमें लिखा है कि क्रोध जहर है। इसे वह जान ले। इसे वह जान ले फिर
उसकी जिंदगी...फिर जहर पीने का हकदार हर आदमी फिर भी है। फिर भी मैं मानता हूं कि
अगर मुझे जहर ही पीना है तो दुनिया में मुझे कोई रोकने का हकदार नहीं है। फिर वह
पीए। लेकिन अपने को कष्ट कोई देना नहीं चाहता। लेकिन क्रोध आपको कभी कष्ट ही नहीं
दे पाया, आपकी शिक्षाओं ने उसको इतना डिस्एप्रूव किया है कि
वह कभी आपको पकड़ नहीं पाया पूरा कि आप उसका पूरा जहर समझ लेते, उसका दंश समझ लेते, उसकी लपट से जल जाते, हाथ पर फफोला पड़ जाता, वह नहीं हुआ। इसीलिए आप
धीमा-धीमा, मरा-मरा...
मैं मरी-मराई चीज के खिलाफ हूं। क्रोध ही करना हो तो ठीक से करना और
पूरा करना, ताकि एक दफा निपटारा हो कि यह क्या है। ऐसा क्रोध
कुनकुना, जिसको ल्यूकवार्म कहते हैं, वैसा
कुछ नहीं होना चाहिए जिंदगी में। उसकी वजह से हम किसी चीज से कभी नहीं छूटते। न हम
कभी प्रेम पूरा करते हैं, न कभी सेक्स पूरा करते हैं,
न कभी क्रोध पूरा करते हैं। किसी भी चीज की उसकी पूरी गहराइयों में
हम कभी नहीं उतरते। अगर हम उतर जाएं और अगर गहराइयां आनंदपूर्ण हों और किसी आनंद
के मंदिर तक ले जाती हों, तो हम बार-बार उतरें। और गहराइयां
अगर नरक में ले जाती हों, तो नमस्कार कर लें। वह हमारा
छुटकारा हो गया।
तो मैं तो प्रत्येक चीज को, परमात्मा ने जो भी
दिया है या प्रकृति ने जो भी दिया है, सबको एप्रूव करता हूं।
जब उसने एप्रूव किया है तो मैं क्यों झंझट डालूं? आपको क्रोध
मिला हुआ है। वह आपने पैदा नहीं किया है। और निश्चित ही प्रकृति के कोई गहरे अर्थ
हैं, उस क्रोध के साथ। अगर किसी बच्चे में हम बचपन से क्रोध
को निकाल लें, तो उसमें रीढ़ ही निकल जाएगी उस बच्चे की। उस
बच्चे में कभी जिंदगी नहीं आएगी, वह बच्चा इतना मरा हुआ हो
जाएगा। क्रोध आपका तेज भी है, क्रोध आपका बल भी है।
एक छोटा सा बच्चा भी जब क्रोध में पैर पटकता है तो उसकी शान देखने
लायक है। इतना छोटा सा, कोई ताकत नहीं है। मगर जब वह पैर पटक कर खड़ा हो जाता
है, तो ऐसा लगता है कि चांदत्तारों को चूनौति दे देगा।
दुनिया की कोई ताकत उसको रोक नहीं सकती। तो मैं मानता यह हूं कि जिंदगी में जो भी
है, मेरे लिए बुरा नहीं है। बुराई मेरे लिए सिर्फ एक है कि
जब हम किसी चीज को अधूरा छूते हैं तो न तो हम जान पाते हैं कि वह अच्छा है,
न हम जान पाते हैं कि वह बुरा है। इसलिए हमेशा बीच में अटके रहते
हैं। न तो आप कभी क्रोध कर पाए और न प्रेम कर पाए। मैं मानता हूं कि जो भी करने को
लगता है उसे पूरा करना आप। फल भोगना उसका, उसकी तकलीफ भोगना,
उसकी पीड़ा को झेलना।
स्वामी जी, कभी क्रोध में आदमी
किसी का खून कर दे, तो फिर...?
कर डालिए न, तो जो फल होगा वह भोगिएगा! मैं आपसे यह कह रहा हूं कि
आप चूंकि क्रोध नहीं कर पाए इसलिए आपके द्वारा किसी का खून हो जाने की संभावना है,
इसको आप समझ लें। आमतौर से जो लोग खून करते हैं, आप जान कर हैरान होंगे कि वह रोज-रोज छोटा-छोटा क्रोध करने वाले लोग नहीं
होते। जो लोग खून करते हैं, वे वे लोग होते हैं जिन्होंने
बहुत क्रोध इकट्ठा कर लिया है और सप्रेस कर लिया है और किसी दिन सारा क्रोध फूट पड़ा
और किसी का खून कर दिया। अगर एक आदमी सुबह छोटी सी बात पर अपनी पत्नी पर नाराज
होकर गिलास पटक कर फोड़ देता हो, तो ऐसा आदमी जितनी तेजी से
जाता है उतनी तेजी से वापस लौटता है। पांच मिनट बाद वह कहता है कि यह तो भूल हो
गई। यह आदमी कभी हत्या नहीं कर पाएगा। मेरी आप बात समझ रहे हैं न?
मैं यह कह रहा हूं कि अगर...जिसको मैं कह रहा टोटल इंसेंसिटी अगर हम
किसी को सिखाएं, तो दुनिया में हत्याएं कम हो जाएं। हत्याएं हो इसीलिए
रही हैं कि हम सप्रेशन सिखा रहे हैं लोगों को। और आप इतना क्रोध इकट्ठा कर लेते
हैं धीरे-धीरे कि एक दिन किसी की हत्या किए बिना कुछ काम ही नहीं चलता, कांच तोड़ने से काम नहीं चलता फिर। फिर तो दीवाल पर मुक्का मारने से काम
नहीं चलता, फिर किसी की गर्दन मरोड़ने से ही काम चलता है।
उसके बिना काम नहीं चलता। वह आपको करना ही पड़ेगा फिर किसी दिन। आपने इतना अकुमुलेट
कर दिया क्रोध कि अब छोटा-मोटा काम नहीं हल होने वाला है।
दुनिया में जितनी सभ्यता बढ़ती है उतनी हत्याएं बढ़ती हैं। और सभ्यता
बढ़ने का अनिवार्य हिस्सा है कि हम किसी भी इमोशन को पूरा नहीं प्रकट होने देते, सबको दबा देते हैं।
ये हिप्पी जो हैं, आपका क्या एक्सप्लेनेशन है?...
बिलकुल ही, यह क्रिश्चिएनिटी का फल है। पश्चिम में जो सप्रेशन
क्रिश्चिएनिटी ने किया है उसका फल है, उसका रिएक्शन है।
हिंदुस्तान में हिप्पी नहीं हैं। उसका कारण है कि हिंदुस्तान में अगर जैनी प्रभावी
होते तो हिप्पी पैदा होता। जैनी प्रभावी नहीं हो सके हिंदुस्तान में। नहीं तो
हिंदुस्तान में भी हिप्पी पैदा हो जाता। वह उनसे भी ज्यादा सप्रेसिव है, क्रिश्चिएनिटी से भी ज्यादा। लेकिन वे प्रभावी नहीं हो सके। हिंदुस्तान
में जो धर्म प्रभावी रहा है, वह बहुत सप्रेसिव नहीं है।
इसलिए हम खजुराहो के अंदर भगवान भी बना सकते हैं, बाहर सेक्स
की प्रतिमा भी बना सकते हैं। लेकिन किसी क्रिश्चिएनिटी चर्च में आप कल्पना नहीं कर
सकते कि बाहर हो मैथुन की प्रतिमा, इंटरकोर्स करती हुई
प्रतिमा बनी हो, यह असंभव है। चर्च इसको बर्दाश्त नहीं
करेगा।
तो चर्च ने जो पश्चिम में दबाव डाला है आदमी के मन पर, वह इतना भयंकर हो गया है कि उसके परिणाम होने वाले हैं। वे परिणाम हुए हैं,
वे परिणाम हो गए। पश्चिम में इधर तीन सौ वर्षों में जितने तरह के भी
रिएक्शंस हुए हैं, उस सबकी जिम्मेवार पश्चिम में
क्रिश्चिएनिटी का सप्रेशन है। उन्होंने इस बुरी तरह दबाया हर चीज को कि हर चीज एक
सीमा से बाहर टूटने के लिए तैयार हो गई। और फिर हिप्पी और भी कारण है। मल्टि-काज़ल
मामला है।
दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि जब भी कोई समाज एफ्लुएंट हो जाएगा, जहां समृद्धि बहुत हो जाएगी, वहां बच्चों को करने
जैसा कुछ भी नहीं सूझेगा।
आप यह जो सप्रेशन की बात कह रहे हैं, आपने जब यहां...भाषण किए थे, वह सेक्स के ऊपर,
तो कितना...हो गया था। क्योंकि वे सब सप्रेस लोग हैं, तो यहां तो हिप्पी लोग पैदा नहीं हो रहे हैं?
न, न, न, आप
नहीं समझे मेरी बात को। मेरी बात आप नहीं समझे। आज हिप्पी होना, हिप्पी होने के लिए जो सारी सुविधाएं आपको चाहिए, वह
आपको नहीं हैं। और आप हिप्पी अपने ढंग से हो रहे हैं। आपका लड़का कहीं लड़की को
धक्का मार रहा है, कहीं पत्थर मार रहा है, कहीं गिलास फेंक रहा है, कहीं एसिड फेंक रहा है,
कहीं शोरगुल मजा रहा है। वह कर रहा है, जो वह
कर सकता है, जो उसकी सीमा में संभव है। असल में हिप्पी होने
का मतलब हिप्पी होने के योग्य हम अभी समृद्धि को उपलब्ध नहीं हुए हैं। जब हम होंगे
तब होने वाला है। बिलकुल होने वाला है। मेरे लिहाज से अच्छा लक्षण है। अच्छा लक्षण
यह नहीं है कि मैं चाहता हूं कि दुनिया में हिप्पी रहें।
मेरे लिहाज से यह हमारी सप्रेसिव मारेलिटी तो तोड़ने का एक बीच का वक्त
है। जब वह सप्रेशन टूटेगा, हमको फिर से विचार करके समाज को नया आधार देना पड़ेगा।
हिप्पी तो चला जाएगा। वह कोई सदा रहने वाली चीज नहीं है। वह कोई सदा रहने वाली चीज
नहीं है। वह बीच का...
पर हिप्पी है तो भी क्या?...
नहीं, वह रह नहीं सकता। वह रहे तो हर्जा कुछ भी नहीं है। वह
रह इसलिए नहीं सकता कि वह बिलकुल ट्रांजीशन के पीरिएड की घटनाएं हैं, जो कि स्थायी नहीं होतीं।
अभी भी जो पांच साल पहले हिप्पी था, वह जब एक लड़की को
प्रेम करने लगता है, तो हिप्पी होना बंद हो जाता है उसका
फौरन। क्योंकि जैसे ही वह एक लड़की को प्रेम करना शुरू करता है, कल उसके एक बच्चा होता है, वह एक घर बनाना चाहता है।
उसको नौकरी करनी है, उसको दफ्तर जाना है, बस वह वापस लौट जाएगा। अभी आप हिप्पीज में कोई पैंतीस साल के बाद का आदमी
नहीं पाएंगे। बस पैंतीस साल के बाद वे सब वापस लौट आएंगे। आप मेरी बात समझ रहे हैं
न? मैं तो कह रहा हूं, वह जो पैंतीस
साल के बाद लौट आएगा। अभी तो हिप्पी नई घटना थी। पंद्रह साल के भीतर हिप्पी बाप
होंगे और उनके बच्चे हिप्पी कभी नहीं होंगे, क्योंकि हिप्पी
होने के लिए आपका बाप होना जरूरी था। सप्रेसिव माइंड का बाप होना जरूरी था। अगर
बाप हिप्पी हो गया तो बेटा फिर हिप्पी होने वाला नहीं है, क्योंकि
वह सप्रेशन गया, वे चीजें खुली हो जाएंगी। एक फैड है,
जो पंद्रह-बीस साल, पच्चीस साल टिकेगा,
इससे ज्यादा टिकने वाला नहीं है। अच्छा फैड है। और हम तो अभागे हैं,
हमारे पास अभी ऐसा फैड नहीं है। हो भी नहीं सकता। हमारा लड़का कुछ
करता भी तो बिलकुल बेहूदा है और बिलकुल अर्थहीन है।
लेकिन आचार्य श्री, क्या प्रेम और क्रोध की परिपूर्णता आसक्ति है? परिभाषा
में आ सकती है?
नहीं, बिलकुल नहीं। तभी आप अनासक्त होते हैं। प्रेम की
परिपूर्णता बिलकुल अनासक्ति है। आपकी जो प्रेम की कमी है, वह
आसक्ति बन जाती है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यह सवाल तो बहुत कीमती है। दोत्तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए। एक तो
सेल्फ रियलाइजेशन कोई चीज नहीं है कि कोई कह सके कि अचीव कर लिया। सेल्फ
रियलाइजेशन कोई एंड नहीं है, जहां आप पहुंच जाते हैं और कह
सकते हैं, पा लिया। यानी सेल्फ रियलाइजेशन को कभी भी आप
पास्ट नहीं बना सकते हैं। आप ऐसा नहीं कह सकते हैं कि वह फलां ने पा लिया और बात
खतम हो गई। सेल्फ रियलाइजेशन कांसटेंट प्रोसेस है। आप उसमें प्रवेश तो करते हैं,
उसके बाहर आप कभी नहीं होते। क्योंकि बाहर होने का उपाय नहीं है।
सेल्फ के और बाहर कहां जाइएगा?
जो आदमी भी कहता हो कि मैंने पा लिया सेल्फ रियलाइजेशन, गलत ही बात कह रहा है। गलत इसलिए कह रहा है कि यह कोई पाने की चीज नहीं है
कि आपने पा लिया। यह तो प्रतिपल प्रवेश की बात है और यह अंतहीन प्रवेश है। ऐसा कभी
भी नहीं है कि आप किनारे पर पहुंच जाएंगे। ये पहुंचते ही चले जाएंगे। इसमें
पहुंचना कभी नहीं आता, पहुंचना होता ही रहता है। कोई स्टेटिक
स्थिति नहीं है जिसमें आप पहुंच जाते हैं।
जैसे समझ लें कि एक आदमी मुझसे कहे कि क्या आपने प्रेम पा लिया? इसका क्या मतलब होता है? कोई अर्थ नहीं होता है। बात
तो बिलकुल ठीक है कि क्या आपने प्रेम पा लिया? मैं इतना ही
कह सकता हूं कि प्रेम पा रहा हूं। पा लिया जिस दिन कह दूंगा, उस दिन सब मर जाएगा। प्रेम खतम हो जाएगा। मैं बाहर हो जाऊंगा। मैं तत्काल
बाहर हो जाऊंगा। एक डेड चीज हो जाएगी मेरे हाथ में, जिसको
मैं बता सकूं कि यह रहा प्रेम, मैंने पा लिया।
धन आप पा सकते हैं, मकान आप पा सकते हैं, लेकिन जीवन में जो भी जितना गहरा और महत्वपूर्ण है उसको आपको निरंतर पाना
होता है। ऐसा कभी भी नहीं आता है कि आप कह दें कि पा लिया, कभी
भी नहीं कह सकते। जितना ही आप पाएंगे उतना ही आप पाएंगे और विराट खुल गया। यानी आप
जितना आगे जाएंगे, आप पाएंगे क्षितिज और बड़ा हो गया। पाने को
सदा शेष है। तो हम जिसको आत्म साक्षात्कार और सेल्फ रियलाइजेशन कहें, वह शब्द ही गलत है। क्योंकि शब्द रियलाइजेशन जो है उसमें ऐसा भाव है कि
कोई चीज पूरी हो जाती है। कुछ पूरा नहीं होता। इसलिए हम परमात्मा को अनंत कहते
हैं।
अनंत का मतलब यह है कि जिसे आप पा भी लेंगे और फिर भी न कह सकेंगे कि
पा लिया। आप पाते ही रहेंगे, पाते ही रहेंगे, और फिर भी ऐसा न कह सकेंगे कि वह कुछ कम हो गया, इतना
मैंने पा लिया और इतना अभी बाकी है। आप पाते हैं।
क्या आपने जीवन को पा लिया? क्या कहिएगा? अगर पा लिया तो आप मर गए। क्योंकि अगर जीवन को पा लिया है, तो अब आप कहां हैं? अब आप मर गए। नहीं, जीवन को पाते ही रहते हैं, और जीवन अनंत है।
और सेल्फ रियलाइजेशन शब्द और भी कई लिहाज से बड़ा बेहूदा है, एकदम एब्सर्ड है। एक तो जब आप इस अनंत गहराई में उतरते हैं तो सेल्फ खो
जाता है। जैसे-जैसे आप उतरते हैं, वैसे-वैसे आप मिटने लगते
हैं। कुछ होने लगता है, लेकिन आप मिटने लगते हैं। जिसको आप
पहचानते थे, जिसका नाम-धाम पता-ठिकाना था, जो एक आइडेंटिटी थी। किसी का लड?का था, पति था, यह था, वह था, वह खोने लगता है। वह तो खो जाता है। और जो बच रहता है, वह इतना अनंत है कि उसका कोई ओर-छोर नहीं है। इसलिए पा लेने की भाषा में
कहा ही नहीं जा सकता। वह जो लेंग्वेज ऑफ अचीवमेंट है, वह
वहां कारगर नहीं है, बिलकुल कारगर नहीं है। और अगर कभी कोई
कहे, पा लिया, तो वह सिर्फ ईगोइस्ट
घोषणाएं हैं, वह सिर्फ अहंकार की घोषणाएं हैं। उनसे कोई आत्म
साक्षात्कार का संबंध नहीं है।
सवाल बिलकुल बढ़िया है, लेकिन उत्तर नहीं हो
सकता। और कोई उत्तर देगा, दो दे रहा है, इसलिए गलत हो जाएगा, उसका उत्तर वह देने से ही गलती
हो जाएगी।
देश की जो परिस्थिति है, उस पर आपका क्या विचार है? और पोलिटिकली आपका क्या
खयाल है? यानी क्या होना चाहिए और क्या करने जैसा है?
इसमें बहुत सी बातें हैं। एक तो भारत की जो मनःस्थिति है, वह अत्यंत अप्रौढ़ है, इम्मैच्योर है। और हम बहुत समय
से सिर्फ नारों पर जी रहे हैं, स्लोगनस पर जी रहे हैं। और
ऐसा लगता है कि जोर से कोई नारा लगा देंगे, तो सब हल हो
जाएगा। ऐसे ही हम आजादी के नारे लगाते रहे कि आजादी आ जाएगी सब ठीक हो जाएगा।
हमारा बड़े से बड़ा बुद्धिमान आदमी भी ऐसे ही मानता रहा कि बस जो गड़बड़ है, वह इतना है कि आजादी नहीं है। बाकी तो सब ठीक हो जाएगा। बस आजादी आ जाए तो
सब ठीक हो जाएगा। जैसे आजादी जो थी, वह शुरुआत न थी, अंत थी। उसके आ जाने से सब ठीक हो जाने वाला था। और हमने इस तरह के सपने
मुल्क में जगाए, लोगों के मन में इस तरह की कल्पनाएं पैदा कर
दीं कि आजादी आ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा।
आजादी आ गई, और लोगों ने सोचा कि अब कल सुबह उठेंगे तो सब ठीक हो
जाएगा। इस मुल्क में जो आजादी के बाद बीस साल का फ्रस्ट्रेशन है, उसके लिए जनता जिम्मेवार नहीं है, उसके लिए पिछले
पचास साल की लीडरशिप जिम्मेवार है। उसने वह पैदा करवाने का इंतजाम कर रखा था। उसने
यह कहा था, आजादी आने से सब आ जाएगा। उसने यह कहा था कि
अंग्रेज के होने की वजह से हमारी सारी तकलीफ है। अंग्रेज गया कि सब तकलीफ मिट गई।
वह मंत्र की तरह हो जाने वाली बात थी।
अंग्रेज तो चला गया, आजादी आ गई, कोई तकलीफ नहीं मिटी। बल्कि हमने पाया कि हम और नई तरह की तकलीफों में खड़े
हो गए हैं, जो कि स्वाभाविक था। स्वतंत्रता नई तरह की
तकलीफें लाती है, लाएगी ही। क्योंकि दायित्व लाएगी, इंसान का अपने ऊपर जिम्मा लाएगी, और एक गुलाम कौम,
जो हजार साल तक गुलाम रही हो, उसके हाथ में
स्वतंत्रता मुसीबत बन सकती है। यह हमें जगाना था यह खयाल, यह
साफ करना था कि स्वतंत्रता एक दायित्व होगा, रिस्पांसिबिलिटी
होगी और एक उपद्रव हो जाएगा। स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन
स्वतंत्रता सुख नहीं ले आएगी, सिर्फ स्वतंत्र प्रकार के दुख
लाएगी।
यानी दुखों का चुनाव फिर हम ही करेंगे। फिर कोई हमारे लिए निर्णय नहीं
करेगा कि कौन सा दुख हम झेलें? हम ही अपने दुख का चुनाव करेंगे।
वह हमने कभी बताया नहीं था। हम आजादी का एक सपना लेकर जीते रहे। अब बीस साल में वह
नारेबाजी खतम हो गई, क्योंकि अब आजादी आ गई, और कुछ भी न हुआ। अब हमको नये नारे चाहिए। और फिर हम नये नारे पकड़ रहे हैं
सोशलिज्म के।
एक शब्द पकड़ लिया है कि समाजवाद आ जाएगा, सब ठीक हो जाएगा। अब हम उससे भी बड़ी भूल कर रहे हैं। क्योंकि फिर हम वही
पागलपन कर रहे हैं। फिर एक हवा पैदा कर रहे हैं मुल्क में कि समाजवाद आ जाएगा तो
सब ठीक हो जाएगा। जैसे कि समाजवाद नहीं है, बस यही एक...है।
उसके आ जाने से सब ठीक हो जाने वाला है। अब फिर बीस-पच्चीस साल, पचास साल हम इस नासमझी में गवां देंगे। और मजा यह है कि वह जो पुरानी
नासमझी थी, वह इतनी खतरनाक नहीं थी।
आजादी किसी भी स्थिति में आ सकती है। क्योंकि आजाद होने का प्रत्येक
व्यक्ति हकदार है। चाहे वह योग्य हो, चाहे अयोग्य हो।
आजादी के लिए कोई यह नहीं कह सकता है कि आप अभी योग्य नहीं हैं, इसलिए आजादी नहीं मिलेगी। आजादी की कोई योग्यता नहीं होती, होना ही आजादी के लिए काफी योग्यता है। लेकिन समाजवाद बड़ी और बात है। अब
मैं समझता हूं कि जब तक कोई मुल्क ठीक से पूंजीवादी न हो जाए तब तक उसे समाजवाद की
बातें करना खतरे में और बहुत गङ्ढे में ढकेल देती हैं। मेरी नजर में पूंजीवाद और
समाजवाद विरोधी व्यवस्थाएं नहीं हैं। मेरी नजर में पूंजीवाद का अंतिम परिणाम
समाजवाद है। वह बिलकुल सहज व्यवस्था है। उसके लिए किसी क्रांति में से गुजरने की
जरूरत नहीं है। असल में पूंजीवाद ही वह क्रांति है, जिसके फल
में समाजवाद आता है। पूंजीवाद ही वह क्रांति है जिससे समाजवाद आ जाता है, अनिवार्यरूपेण। क्योंकि पूंजीवाद एक काम कर देता है, संपत्ति को पैदा करने का। और यह इतना बड़ा काम है जो पूंजीवाद के अलावा कोई
भी नहीं कर सकता है।
न तो फ्यूडल सिस्टमस कर सकती हैं, क्योंकि फ्यूडल
सिस्टम जो थी सामंतवादी राजाओं की, रजवाड़ों की, वह लूट की व्यवस्था थी। किसी सम्राट ने कोई संपत्ति पैदा नहीं की। सम्राट
लुटेरा है। वह लूटता है। संपत्ति कोई और पैदा करता है, किसान
पैदा करता है, कोई और पैदा करता है, सम्राट
सिर्फ लूटता है। सम्राट क्रिएटिव फैक्टर नहीं है। वह संपत्ति को पैदा नहीं करता।
तो और सम्राट जो है वह बड़े किस्म का लुटेरा है, बड़ा डाकू है,
जिसके पास बड़ी ताकत है।
लेकिन पूंजीवाद बहुत भिन्न तरह की क्रांति है। वह संपत्ति को पैदा
करने की व्यवस्था है। और पहली दफा दुनिया में पूंजीवाद ने वेल्थ को क्रिएट किया
है। जो संपत्ति नहीं थी जमीन पर, उसको पैदा किया है। अगर पूंजीवाद
पूरी तरह संपत्ति पैदा न कर पाए और हम बीच में समाजवाद की बातें करें, तो फिर संपत्ति कभी पैदा नहीं हो पाएगी। समाजवाद संपत्ति बांट सकता है,
और संपत्ति अगर पैदा हो गई हो, तो बहुत ही
धीमी गति से संपत्ति पैदा भी कर सकता है।
आज जो अपनी जनता है, वह ऐसा कहती है कि ये पूंजीवादी हैं, ये भी लुटेरे
हैं।
यह बात गलत है।
तो उनको कैसे समझाएं?
इसको बिलकुल ही समझाया जा सकता है, क्योंकि यह बात ही
गलत है। और बड़ी मजे की बात तो यह है कि गलत बात अगर समझाई जाए तो वह समझ में आ गई
है। यही खयाल है समाज को, और गरीब का यही खयाल बहुत
स्वाभाविक मालूम होता है कि उसको लगे कि मुझको लूट कर आप अमीर हो गए हैं। लेकिन
हालत बिलकुल उलटी है। हालत ऐसी है कि वह गरीब भी जो जिंदा है, वह सिर्फ इसलिए जिंदा है कि संपत्ति पैदा की गई, नहीं
तो वह जिंदा नहीं होता।
बुद्ध के जमाने में हिंदुस्तान की आबादी दो करोड़ थी। और दो ही करोड़
रहती, इससे ज्यादा नहीं हो सकती थी। सारी दुनिया की आबादी
पिछले डेढ़ सौ वर्षों में एकदम आकाश की तरफ गई है। दस बच्चे पैदा होते, तो आठ बच्चे मरते थे। आज दस बच्चे पैदा होते हैं तो एक बच्चा मर रहा है। और
कल वह भी शायद नहीं मरेगा। अभी जो बात उठी थी कि एक बड़ा मकान बनता है, तो वह दूसरे मकानों को छोटा करके बनता है। असलियत बिलकुल उलटी है।
असलियत यह है कि जब एक बड़ा मकान बनता है, तो दस छोटे मकान भी बन जाते हैं। अगर बड़े मकान को यहां से हटा दिया जाए तो
दस पास के जो मकान हैं, वे विदा हो जाएंगे। क्योंकि इस बड़े
मकान को उठाने में वे बने थे। जब एक बड़ा मकान बनता है, तब एक
राज काम करता है, एक मिट्टी लाने वाला काम करता है, एक ईंट जोड़ने वाला काम करता है। एक बड़ा मकान जब बनता है तो दस छोटे मकान
बिना बनाए बन ही नहीं सकता। दस छोटे मकान बन ही जाएंगे। लेकिन जब बन कर खड़े हो
जाएंगे तो सड़क पर से देखने वाला यह कह सकता है कि यह बड़ा मकान जो है इन दस को लूट
कर बड़ा हो गया है। जब कि ये दस होते ही नहीं, अगर यह बड़ा
मकान नहीं बनता।
पूंजी पैदा की है, पूंजी थी नहीं। आज अमेरिका में
जो पूंजी है, वह कभी भी न थी। वह सब पैदा हुई है। और पूंजी
पैदा हो जाए और इतनी पैदा हो जाए कि उस पर व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई अर्थ न रह
जाए, तब तो समाजवाद सहज अपने आप आता है। लेकिन पूंजी बहुत
थोड़ी हो और समाज बांटने का आग्रह करने लगे, तो पूंजी पैदा
करने की जो व्यवस्था विकसित हो रही थी, वह भी टूट जाती है।
और समाज संपत्ति पैदा नहीं कर सकता। तो हिंदुस्तान के सामने जो बड़े से बड़ा सवाल है,
वह यह है कि अगर हम समाजवादी व्यवस्था को आज स्वीकार करते हैं,
जैसा कि लगता है कि पागलपन है और वह स्वीकृत हो जाए तो हिंदुस्तान
सदा के लिए गरीब होने के लिए जिम्मा ले लेगा, ठेका ले लेगा।
आचार्य श्री, हिंदुस्तान के जो पूंजीवादी हैं, और देशों से आप उस
देश के पूंजीवादियों को बुलाएं। जैसे एक आर्टिस्ट है, देहात
में चीज बनाता है दो रुपये की। मेरा अपना यह खुद का अनुभव है। क्योंकि मैं एक
कला-केंद्र चलाती हूं। उसे लाकर के यहां पूंजीवादी दो सौ रुपये में बेचता है। और
उस आदमी के लिए दो रुपया...?
हां, मैं आपसे पूछता हूं, यह आदमी दो
सौ रुपये में न बेचे तो वह आदमी दो रुपये में क्या दो आने में भी बेच लेगा?
यह आदमी दो सौ रुपये में न बेचे तो वह जिसको आप कलाकार कह रही हैं
गांव के, वह उसे दो आने में भी बेच लेगा? यह आदमी उसे दो रुपये दे रहा है, यह आपको दिखाई नहीं
पड़ता। गांव में एक आदमी है उससे दो रुपये की चीज लेकर एक आदमी दो सौ रुपये में बेच
रहा है। साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक सौ अट्ठानबे रुपये इसने लूट लिए। इसने किससे
लूट लिए, उस गांव के आदमी से लूट लिए? वह
दो सौ रुपये में बेच लेता? मैं जो पूछता हूं, मैं दूसरी बात कह रहा हूं। मैं इसलिए कह रहा हूं ऐसा कि यह आदमी अगर उसे
दो सौ रुपये में बेच रहा है, तो वह गांव वाले को दो रुपये दे
रहा है जोकि उसको मिलने वाले थे ही नहीं। वह जो दो रुपये उसको मिल गए हैं
न...हमारी नजर में सबसे बड़ा मजा यह है कि हम कह सकते हैं कि यह जो दो सौ रुपये
लेने वाला है, इसको मिटा दो।
यह बड़ा सीधा तर्क है। मेरी पूरी बात समझ लें पूरी। यह पूरी बात समझने
जैसी है। इसलिए समझने जैसी है कि सोशलिज्म का तर्क तो इतना सहज मालूम होने लगा है
हमें कि हम उसके...सोशलिज्म की बात नहीं है, हमारे मन में यह बहुत
सीधा हो गया है कि एक गरीब आदमी की दो रुपये की चीज लाकर आपने दो सौ रुपये में बेच
ली और आपने एक सौ अट्ठानबे रुपये बचा लिए। आपने लूट लिया।
पूंजीवाद की जो व्यवस्था है, व्यवस्था कुल इतनी है
कि कुछ लोग संपत्ति को पैदा करने की कुशलता में लगे हुए हैं।
नहीं, पैदा नहीं करते।
आपको खयाल में नहीं है। पैदा करने वाले दूसरे हैं। जो पैदा कर रहे हैं
वे दूसरे हैं।
दूसरों की मेहनत पर ये लोग पैसा बनाते हैं। वे
कुछ नहीं करते।
यह तो बिलकुल ठीक कह रही हैं आप। और मजा यह है कि वह जो दूसरे की
मेहनत है, अगर यह पैसा बनाने वाला न हो, तो
न तो दूसरे की मेहनत बचती है, न मेहनत करने वाला बचता है। वे
दोनों नहीं बचते। मेरी पूरी बात समझ लें। मैं जो कह रहा हूं अभी, वह यह कह रहा हूं कि वह जो हमें दिखाई पड़ रहा है कि शोषण किया जा रहा है
कुछ लोगों का, उन लोगों का शोषण जो हमको दिखाई पड़ रहा है,
उस शोषण में दो तरह की भ्रांति हो रही है। एक तो यह भ्रांति हो रही
है कि अगर यह शोषण की व्यवस्था टूट जाए तो वे बड़े सुखी हो जाएंगे। क्योंकि जिससे
आप मुफ्त में ले आए थे चीज, वह उसको दो सौ में बेच लेगा। एक
तो हमको यह खयाल हो रहा है। अगर वह दो सौ में बेच सकता होता तो उसने दो सौ में बेच
ली होती। और तब वह पूंजीपति हो गया होता। यह नहीं हुआ होता, वह
हो गया होता। जो संपत्ति पैदा हो रही है, वह भी हमें दिखाई
पड़ती है कि संपत्ति पैदा हो रही है। एक मजदूर गङ्ढा खोद रहा है, वह संपत्ति पैदा कर रहा है? एक आदमी खेत में गेहूं
पैदा कर रहा है, वह संपत्ति पैदा कर रहा है? ये संपत्ति पैदा नहीं कर रहे हैं। और अगर इनके ही हाथ में समाज छोड़ दिया
जाए तो समाज भूखा मर जाएगा।
संपत्ति पैदा करना बहुत और तरह की बात है। इन सबका उपयोग किया जा रहा
है, संपत्ति पैदा करने में, लेकिन ये संपत्ति पैदा नहीं
कर रहे हैं। संपत्ति पैदा और ढंग से की जा रही है, उसमें
इनका उपयोग हो रहा है। और मैं मानता हूं, इनका उपयोग ही
होगा। अगर कल सोशलिज्म आ जाता है, जैसे रूस में, तो वह गङ्ढा खोदने वाला आज भी गङ्ढा खोद रहा है। उसको कोई दो सौ रुपये मिल
गए हैं, इस खयाल में आप मत रहना। अब वह जो उसकी पेंटिंग उसकी
दो सौ में किसी ने बेची थी, वह उसकी अब दो में भी नहीं बिक
रही है। क्योंकि हुआ क्या है, हुआ यह है कि ज्यादा से ज्यादा
यही हो सकता है कि हम कुछ लोगों के हाथ से यह सारी व्यवस्था छीन कर राज्य के हाथ
में दे दें। और राज्य इस पर हावी हो जाएगा।
पूंजीवाद का एक ऐतिहासिक रोल है। पूंजीपति से मुझे मतलब नहीं है।
पूंजीपति कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि पूंजीपति आज "अ'
है, कल "ब' होगा,
कल "स' होगा। आज "अ' मजदूर है, कल "ब' पूंजीपति
हो सकता है, कल "स' मजदूर हो सकता
है। यह कोई सवाल नहीं है। पूंजीपति से कोई प्रयोजन नहीं है। पूंजीवाद की जो
व्यवस्था है उस व्यवस्था ने पूंजी पैदा करने के हजारों रास्ते ईजाद किए हैं। उन
रास्तों का इतना उपयोग हो सकता है कि संपत्ति इतनी पैदा हो जाए कि संपत्ति पर
व्यक्तिगत मालकियत रखने में कोई अर्थ न रहे। व्यक्तिगत मालकियत का अर्थ तभी तक है,
जब तक संपत्ति न्यून है। जब तक संपत्ति इतनी कम है।
यह प्रश्न तो ऐसा है कि अब यह जनता को कैसे
समझाया जाए?
यह बड़ा सवाल जनता को समझाने का उतना नहीं है, जितना आपको समझने का है। पहली तो कठिनाई क्या है, बड़ी
कठिनाई क्या है कि आज हिंदुस्तान में जिसको हम समझदार वर्ग कहते हैं, उसको भी कुछ खयाल में साफ नहीं है कि बात क्या है। किसी के खयाल में बात
साफ हो, तो भी साहस नहीं है कि वह सीधी और साफ बात कहे।
मैं मानता हूं कि समाजवाद अनिवार्य है, लेकिन हिंदुस्तान में
पचास, साठ, सत्तर साल बाद। पचास-साठ
साल हिंदुस्तान को इतनी संपत्ति पैदा करनी चाहिए, और संपत्ति
पैदा करने के लिए इतनी सुविधाएं जुटानी चाहिए कि पचास साल हमें तय कर लेना चाहिए
कि हम संपत्ति ही पैदा करेंगे। और जो लोग भी संपत्ति को पैदा करने में किसी तरह
सहयोगी हो सकते हैं, उनके लिए सारी सुविधाएं देंगे। और हमें
फिक्र इसकी करनी चाहिए। और इसका मतलब यह होगा कि एक बार इस मुल्क के पास--यह मुल्क
तो हजारों साल से गरीब है। इसकी गरीबी इतनी क्रानिक है, इतनी
लंबी है कि अगर इस मुल्क को सौ पचास वर्ष का पूंजीवाद का ठीक से संपत्ति पैदा करने
की अवस्था न मिले तो यह मुल्क स्थायी रूप से गरीब हो सकता है।
अगर आज हम समाजवाद ले आएं, तो जो थोड़ी सी
संपत्ति कहीं-कहीं पैदा हो रही है, वह बंद हो जाएगी। और
संपत्ति पैदा करने के लिए नया कोई--आज जितना गवर्नमेंट इंटरप्राइज है, गवर्नमेंट कुछ भी हाथ में ले ले, वहीं नुकसान लगना
शुरू हो जाता है। उसका कारण है कि मुल्क इतना गरीब रहा है कि संपत्ति पैदा करने का
उसे बोध नहीं है। तो जब सरकार के हाथ में चला जाता है मामला, तो संपत्ति पैदा करने की बात खतम हो जाती है। संपत्ति तो पैदा होती नहीं,
उलटा नुकसान लगना शुरू हो जाता है। सरकार जो भी हाथ में लेती है,
उसमें नुकसान लगता है।
सरकार को यह महसूस क्यों नहीं है?
सरकार के साथ मजा यह है कि मुल्क का बड़ा हिस्सा गरीब है। गरीब कीर्
ईष्या को जगा कर उससे कुछ भी करवाया जा सकता है। आज राजनीतिज्ञ के पास जो ताकत है, वह गरीब कीर् ईष्या को जगाने में है। और जो समझ सकते हैं, वह पता नहीं, उनको साफ नहीं है। हिंदुस्तान में अगर
पूंजीवाद बिना लड़ाई लड़े मर जाता है, तो हिंदुस्तान के लिए
इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ भी नहीं होगा। और यह सवाल पूंजीपति का है ही नहीं। और यह
सवाल पूंजीपति का है ही नहीं, यह व्यवस्था का है कि पचास साल
यह व्यवस्था इस मुल्क को इतनी तीव्रतम रूप से चलानी चाहिए कि संपत्ति हमारे पास
इतनी हो...। अभी तो मजा यह है कि संपत्ति है नहीं, हम बांटने
की बातें करते हैं। यह सब नासमझी की बातें हैं।
आज हिंदुस्तान में बीस हजार परिवार भी नहीं हैं, जिनको हम कह सकें कि ये समृद्ध हैं। बीस हजार परिवार भी नहीं है, जिनको हम समृद्ध कह सकें। और दस-पांच परिवार हैं जिनको कि हम कह सकें कि
भई हां, इनको हम किसी तल पर करोड़पतियों में गिनें। इनकी सारी
संपत्ति उठा कर भी आज बांट दी जाए तो मेरे पास दो-चार आने ही पड़ता है, जिसका कि कोई अर्थ नहीं रह जाता। और इस सारे बंटवारे में गरीब उत्सुक है।
क्योंकि गरीब की समझ कितनी है?
पहली तो बात यह है कि वह नासमझ है, इसलिए गरीब है। उसकी
गरीबी के होने में वह भी हिस्सा है कि वह नासमझ है। अब उसकीर् ईष्या को तो भड़काया
जा सकता है। उसकीर् ईष्या के साथ बहुत खेल खेला जा सकता है। वहर् ईष्या जगा दी गई
है। इस वक्त मुल्क को बहुत स्पष्ट रूप से समझाने की जरूरत है कि पूंजीवाद का रोल
क्या है और पूंजीवाद क्या कर सकता है? पूंजीवाद को अपनी पूरी
फिलासफी साफ रखने की जरूरत है। और मैं नहीं मानता कि कठिन है मामला। मैं नहीं
मानता कठिन है समझाना मामला।
मैं इतना मानता हूं कि आप जैसे लोग ही इसको समझा
सकते हैं। हम जैसे समझाने जाएं तो वे गलत समझेंगे।
यह तो आप ठीक कहते हैं। बेसिक सवाल जो है, सबसे बड़ा वह यह है कि एक तो आज पूंजीवाद की पूरी फिलासफी को मुल्क के
सामने रखने की जरूरत है। समाजवाद के सीधे कंट्रास्ट में कि समाजवाद क्या करेगा?
पूंजीवाद क्या कर सकता है? पूंजीवाद क्या कर
सकता है मुल्क के लिए, इसकी पूरी स्पष्ट फिलासफी मुल्क के
सामने रखने की जरूरत है। इसको जोर से प्रचारित करने की जरूरत है। और समाजवाद क्या
करेगा, उसको भी बहुत साफ रखने की जरूरत है कि क्या कर सकेगा,
क्या हो सकता है? इसके बाबत तो पूरा का पूरा,
सारे आंकड़े, सारी व्यवस्था; रूस में क्या हुआ, चीन में क्या हुआ, हिंदुस्तान में क्या होगा समाजवाद के नाम से, उस
सबकी सारी की सारी रूपरेखा स्पष्ट करनी चाहिए।
अब रूस में कोई एक करोड़ लोगों की हत्या करनी पड़ी--अस्सी लाख से लेकर
एक करोड़ लोगों की। और इसके बावजूद भी उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस अपना अन्न खुद
पैदा कर रहा था। और इसके बाद निरंतर पूंजीवादी मुल्कों से खरीद रहा है। दूसरे
महायुद्ध के बाद रूस सारा निर्भर है कनाडा पर, भोजन के लिए। और रूस
में अभी सबसे बड़ा जो प्रॉब्लम है, वह यह है कि इंसेंटिव खतम
हो गया है, कोई काम नहीं करना चाहता है। तो रूस जैसे मुल्क
में इंसेंटिव खतम हो जाए, तो हिंदुस्तान जैसे मुल्क में,
जिसमें इंसेंटिव है ही नहीं, खतम करने का तो
कोई सवाल ही नहीं है यहां। वह कभी था ही नहीं। वह होता तो हम कुछ कर लिए होते,
वह कभी था ही नहीं। कुछ थोड़े से लोगों में वह पैदा हुआ है, तो उनको हम काट दे सकते हैं। उनको काटने में कोई कठिनाई नहीं है।
दूसरी बात, हमको यह समझाना पड़ेगा मुल्क को कि पचास साल का प्रयोग
रूस में असफल हुआ है। रूस अमीर नहीं हो सका। रूस आज भी गरीब मुल्क है। और इसलिए
रूस रोज कदम उठा रहा है कि अमेरिका के निकट कैसे पहुंच जाए? और
कैसे धीरे-धीरे पूंजीवाद व्यवस्था का जो लाभ है, वह लेने लगे?
इसकी पूरी फिक्र चल रही है।
एक बहुत बड़ा मिरेकल घटित हो रहा है। अमेरिका रोज समाजवादी होता जा रहा
है, रूस रोज पूंजीवादी होता जा रहा है। और हम बड़े नासमझ है।
...अभी समाजवाद होता है तो उनकी पूंजी सबसे पहले समाज
में ही आती है।
वह आती है। अमेरिका का समाजवादी होना बहुत ही और बात है। मेरा मानना
है कि अमेरिका जिस समाजवादी होगा, वह स्वागत के योग्य उसका समाजवाद
होगा। क्योंकि उसने पूंजी पैदा कर ली है और वह बांटने की बातें कर सकता है। अब
बांटने का कोई सवाल नहीं है, बंटी जा रही है। उसमें कोई सवाल
नहीं, उसको करिएगा क्या? पूंजी का अर्थ
क्या है? तो मैं मानता हूं कि अमेरिका के ही रास्ते से कोई
मुल्क समाजवादी होगा तो ही शुभ है, अन्यथा अशुभ है। वह
दिक्कत में पड़ जाने वाला है बहुत। हम तो बहुत दिक्कत में पड़ जाने वाले हैं। हमारा
तो कोई हिसाब ही नहीं है। क्योंकि मुल्क में कोई काम करने की प्रेरणा रही नहीं है
कभी। संपत्ति पैदा करने की प्रेरणा नहीं है मुल्क में, क्योंकि
हजारों साल से हमने संपत्ति के विरोध में लोगों को समझाया है।
हमने समझाया, आवश्यकताएं कम रखना। गरीब की हमने पूजा की है।
दरिद्रनारायण को भगवान बना कर बिठाया हुआ है। तो हमारा जो पूरा का पूरा मुल्क है,
जहां कि आवश्यकताओं को कम रखने पर जोर है, गरीबी
की महानता है, दीनता का गौरव है, गुणगान
है। और जहां प्रेरणा नहीं है काम करने की कुछ भी, उस मुल्क
को समाजवाद की बात करनी, इतने खतरे में ले जा सकती है जितनी
दुनिया में किसी को भी नहीं ले जा सकती है।
फिर दूसरे मजे की बात यह है कि लोकतांत्रिक ढंग से हम समाजवाद लाने के
खयाल में हैं। माओ जैसा आदमी या स्टैलिन जैसा आदमी जो दस-पचास लाख लोगों की हत्या
करने को सीधा तैयार हो, तो इंसेंटिव की जगह बंदूक के कुंदे से काम ले सकता
है। वह भी असफल हो गया। रूस में बंदूक का कुंदा भी असफल हो गया। और स्टैलिन के साथ
उन्होंने जो मरने के बाद व्यवहार किया है, वह उसकी खबर है कि
जिस आदमी ने सोशलिज्म लाया, जो आदमी पूरी जिंदगी खपा कर,
इतना मुश्किल में डाल कर मुल्क को समाजवाद लाया, उसकी उन्होंने लाश निकाल कर उसकी कब्र से फिंकवा दिया। क्योंकि उसने पचास
साल पूरे रूस को एक कारागृह बना कर रखा। लेकिन फिर भी कोई फल नहीं हुआ। और भी कुछ
बुनियादी बातें हैं, जो बुनियादी बातें हमें सीधे तथ्यों की
तरह सामने पूरे मुल्क के रखनी चाहिए, उसके व्यापक प्रचार की
जरूरत है।
मेरा मानना ऐसा है कि समाजवाद की जो नारेबाजी है, उसके खिलाफ कोई व्यापक प्रचार नहीं है। मजा तो यह है कि जो उसके खिलाफ हैं,
वे भी समाजवाद का ही नाम लेंगे। उनकी भी दहशत इतनी ज्यादा है कि वह
भी समाजवाद का नाम लिए बिना काम नहीं करेंगे। उनको भी समाजवाद का नाम लेना पड़ेगा।
पंडितजी ने ब्रेनवाशिंग कर लिया सोशलिज्म का।
कुछ भी सवाल नहीं है। उसको मिटाया जा सकता है। उसमें कुछ भी मामला
नहीं है। और जब मामला यह है कि तथ्य उसके विपरीत हैं, इसलिए मिटाने में कोई कठिनाई नहीं है।
लेकिन पूंजीवादियों से ही सबसे बड़ा सहयोग उनका
है। अगर वे लोग इस चीज को सोचें तभी ठीक बन सकती है।
बिलकुल ठीक कहती हैं।
इसके लिए पूरा मंच बनाने की जरूरत है। अखबार चाहिए, अखबार हैं, प्रचार के लिए मंच चाहिए, वह मंच बनानी चाहिए।
पूंजीवाद और समाजवाद दोनों ही ठीक हैं और अच्छे
हैं। लेकिन हमारे मुल्क की प्रकृति के अनुकूल इन दोनों में से कौन ठीक रहेगा?
मैं समझा, मैं समझा आपकी बात। यह आप बिलकुल ही ठीक कह रहे हैं
कि दोनों इकोनॉमिक सिस्टम्स हैं, चुनाव की बात है। लेकिन एक
बुनियादी फर्क खयाल में होना चाहिए। वह यह है कि समाजवाद पूंजीवाद के बाद की स्टेट
है, पूंजीवाद के पहले की नहीं है। दोनों ही इकोनॉमिक
फिलासफीज हैं, बिलकुल ही ठीक बात है और दोनों में से चुनने
की बात है, वह भी बिलकुल ठीक है। लेकिन, पूंजीवाद के बाद की अवस्था है, पहली तो बात यह खयाल
में लेनी चाहिए। और क्यों बाद की है? कि पूंजीवाद को जो काम
पूरे कर देने हैं सोसाइटी में, वे पूरे हो जाने चाहिए। तब तो
एक नैचुरल ग्रोथ सोशलिज्म की तरफ जाती है।
...पीपुल ऑर टायर्ड।
नहीं-नहीं, आपके टायर्ड होने से। एक बच्चा अगर टायर्ड हो जाए और
बूढ़ा होना चाहे जवान हुए बिना, तो भला टायर्ड हो गया हो...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन एक स्टेट को पार होने के लिए जरूरी है। आप
टायर्ड हो गए हों यह दूसरी बात है। लेकिन टायर्ड होने से जो आप करेंगे वह...नहीं
हो जाएगा।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।
हां-हां, मैं समझा। यह मैं नहीं कह रहा हूं। इतना आसान नहीं है
चुनाव। जब मैं यह कह रहा हूं कि पूंजीवाद जब तक संपत्ति को इतना पैदा न कर ले कि
हम एक समाजवादी ढांचे में उस संपत्ति का उपयोग कर सकें।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
डिफरेंस हो सकता है, डिफरेंस से कोई कठिनाई नहीं है।
जब तक संभव न हो जाए, तब तक प्रि-मैच्योर कुछ भी करना खतरे
में ले जाएगा, वह मेरा कहना है। और दूसरी बात जो मैं कहना
चाहता हूं, वह मैं यह कहना चाहता हूं कि इस मुल्क की जो
गरीबी है, इस मुल्क की गरीबी का कारण पूंजीपति का होना तो है
ही। इस मुल्क की गरीबी के जो दूसरे कारण हैं, वे कारण
मद्देनजर हो जाते हैं, सिर्फ एक ही खयाल सामने रह जाता है कि
किसी तरह शोषण बंद हो जाए, तो सब गरीबी मिट जाएगी।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
जब भी हम समाजवाद की बात करते हैं तो एक बुनियादी भूल हो जाती है, और वह बुनियादी भूल यह हो जाती है कि बात तो समाजवाद की होती है, लेकिन जाने-अनजाने वह सारी बात के पीछे स्टेट खड़ी हुई है, राज्य खड़ा हुआ है। समाजवाद की बात होती है, लेकिन
स्टेट कैपिटलिज्म तक बात जाती है। इससे आगे कहीं जाती नहीं है।
क्योंकि जब भी आप समाजवाद की बात करते हैं--जब आप कहते हैं सोसायटी के
हाथ में रहे, तो सोसायटी शब्द बड़ा भ्रांत है। सोसायटी का मतलब होता
है, स्टेट। और जब भी आप सोचते हैं कि प्रोडक्शन के मीन्स जो
हैं वे सोसायटी के हाथ में चले जाएं, तब वह नाम सोसायटी का
होता है, पहुंच जाते हैं स्टेट के हाथ में। समाजवाद के नाम
से जो हम ला सकते हैं वह ज्यादा से ज्यादा राज्य-पूंजीवाद, स्टेट
कैपिटलिज्म ही हो सकता है, इससे भिन्न होने वाला नहीं है
कुछ। क्योंकि सोसाइटी कहां है, जिसके हाथ में चले
जाएं--राज्य के हाथ में चले जाएंगे।
और जिस मुल्क में--हमारे जैसे मुल्क में--जहां पोलिटिकल ताकत राज्य के
हाथ में इस बुरी तरह से उपयोग हो रही है, वहां उसके हाथ में
सारी इकोनॉमिक प्रोसेस की ताकत भी पहुंचा देना, दोहरी
स्युसाइड कर लेने का काम होने वाला है। एक तो सच यह है कि जब राज्य के हाथ में
दोनों ताकतें एक साथ इकट्ठी हो जाएं, तो उसके हाथ में देश की
संपत्ति की मालकियत भी चली जाए, और देश की राजनैतिक ताकत भी
उसके हाथ में चली जाए, तो हम राज्य को इतनी ताकतें दे रहे
हैं, जो ताकतें खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। खतरनाक सिद्ध हुई
हैं।
जरूरत तो यह है कि राज्य के हाथ से ताकत धीरे-धीरे कम हो। और बड़े मजे
की बात यह कि खयाल तो यही था, रूस में जैसा हुआ, खयाल यही था कि पूंजीवाद मिटेगा तो क्लासेस मिट जाएंगी, लेकिन दो नई क्लासेस पैदा हो गईं। एक मैनेजर्स की क्लास पैदा हो गई है और
एक मैनेज्ड की क्लास पैदा हो गई है। अमीर और गरीब तो चला गया, लेकिन उसकी जगह दो नई क्लासेस हो गईं--मैनेजर्स की एक क्लास। पचास आदमियों
का छोटा सा ग्रुप पिछले पचास सालों से हुकूमत कर रहा है। उस पचास आदमी में से आदमी
बदल जाता है, लेकिन वह पचास आदमी का एक छोटा से ग्रुप है,
जो पूरी हुकूमत कर रहा है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
यानी मेरा जो कहना है वह यह है कि समाजवाद जो है वह पूंजीवाद जब
संपत्ति को पैदा कर ले, तभी वह समाजवाद की व्यवस्था में रूपांतरित हो सकता है,
नहीं तो नहीं हो सकता। और अगर हमने पहले से रूपांतरित करने की कोशिश
की, तो पूंजीवाद जो काम कर सकता है, वह
रुक जाता है और समाजवाद पूंजी पैदा नहीं कर सकता है। उसके पास कोई इंसेंटिव नहीं
है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मैं तो यह कहता ही हूं कि समाजवाद पूंजी पैदा करने में समर्थ नहीं है।
और यह भी मेरी समझ है कि समाजवाद अगर लाया जाएगा, चेष्टित, थोपा जाएगा ऊपर से, तो उससे फायदे तो होने वाले नहीं
हैं, नुकसान हो जाने वाले हैं। वह अगर एक आउट ग्रो हो,
समाज के भीतर से धीरे-धीरे विकसित हो, जो कि
होना चाहिए, तब बहुत और स्थिति होगी। और जितने भी नुकसान
उससे होने वाले हैं, तब वे नहीं होंगे। जैसे उदाहरण के
लिए--अगर हम समाजवाद को ऊपर से थोपते हैं, तो वह सब तरह की
स्वतंत्रता की हत्या किए बिना नहीं थोपा जा सकता। वह असंभव है। स्वतंत्रता की
हत्या करनी पड़े तो हम उसे ऊपर से थोप सकते हैं।
स्वामी जी, ऐसा भी सवाल है कि
जैसे समाजवाद लादा जाए किसी पर, देश में, तो नुकसान है, किसी तरह पूंजीवाद भी लादा जाए...
न, न, न। मैं नहीं कहता, लादा जाए, मैं अगर कहूं कि पूंजीवाद लाना है,
तब तो गलती बात हो जाए। पूंजीवाद है। वह आया है, लादा नहीं गया। जो भी यहां है, वह लादा नहीं गया है।
वह आया है। आने और लादे जाने में फर्क है। इसी तरह समाजवाद भी किसी दिन आए,
यह मैं चाहता हूं। यह मैं चाहता हूं, जिस तरह
जो भी व्यवस्था आज है या कल होगी, वह आनी चाहिए, वह नैचुरल ग्रोथ होनी चाहिए। वह फोर्सड इंप्लीमेंटेशन नहीं होना चाहिए।
फोर्सड इंप्लीमेंटेशन जो है, वह गलत है। वह वायलेंस होगी ही
उसमें और गहरे में स्वतंत्रता की हत्या भी होगी।
और यह भी मेरी समझ है--इसको अलग से थोड़ी बात कर लेना चाहूंगा आपसे, यह भी मेरी समझ है कि मौलिक रूप से समाजवाद जब थोपा जाए, तो व्यक्ति की हत्या करेगा, इंडिविजुअल को मिटाएगा,
और जब आए, तो वह इंडिविजुअल को मिटाने वाला
सिद्ध होने वाला नहीं है। तब इंडिविजुअल को मिटाने की कोई जरूरत नहीं होगी।
एफ्लुएंट सोसाइटी की जरूरत है कि हमारे पास इतनी समृद्धि हो कि संपत्ति बांटना
किसी भी तरह की कठिनाई की बात न रह जाएगा। किसी को राजी करने की जरूरत ही न हो कि
संपत्ति बांटने के लिए आप राजी हो जाएं। बल्कि हमें संपत्ति रखना मुसीबत का कारण
हो जाए। उसे बांटना ही सरल हो जाए। इसलिए मैंने कहा कि अमेरिका अगर आने वाले
तीस-चालीस वर्षों में रोज समाजवादी होता चला जाए, तो वह
नैजुरल ग्रोथ होगी। और अमेरिका में जो समाजवाद आएगा, उसका
सौंदर्य बहुत अलग होगा। वैसा सुंदर समाजवाद हम गरीब मुल्कों में नहीं ला सकते। वह
कुरूप होगा और अग्ली होगा।
आचार्य श्री, हिंदुस्तान के बारे में आपका क्या विचार है?
यही मेरा कहना है कि हिंदुस्तान को पचास वर्ष तो कम से कम व्यवस्थित
पूंजीवाद में बिताने चाहिए।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
असल में मुझसे कोई कहे, मनुष्यता को प्रेम
करो, तो मैं किसको प्रेम करूं? मनुष्यता
कहीं मिलती नहीं। जहां मिलता है, कोई आदमी मिलता है।
एब्स्ट्रेक्ट शब्दों में कहीं भी कुछ है नहीं। आप जब किसी को प्रेम करेंगे तो किसी
कांक्रीट इंडिविजुअल को प्रेम करेंगे, मनुष्यता को कैसे
करेंगे? मनुष्यता को प्रेम नहीं किया जा सकता। क्योंकि मनुष्यता
तो बड़ी ठंडी चीज है, है ही नहीं पहली तो बात। कहां मनुष्यता
को गले लगाइएगा? तो मनुष्य का जो स्वभाव है, वह स्वभावतः एब्स्ट्रेक्ट और हवाई बातों के लिए नहीं है, न हो सकता है, इसलिए जितना जिंदा आदमी होगा, उतना कांक्रीट होगा। जितना मरा हुआ आदमी होगा, मुर्दा
आदमी होगा, उतना एब्सट्रेक्ट बातें करेगा।
अगर आपको किसी आदमी से प्रेम नहीं करना है, तो फिर आप मनुष्यता से प्रेम कर सकते हैं। फिर कोई कठिनाई नहीं है,
फिर कोई तकलीफ नहीं है। और मनुष्य की सीमा है। जितनी सीमा से दूर
होती जाती है बात, उतना उसके हाथ के पहुंच के बाहर होती जाती
है। अब राष्ट्र है, वह मेरी हाथ के पहुंच के बाहर हो जाता
है। अब सारे राष्ट्र को स्वच्छ करने की बात हो, तो हाथ के
बाहर हो जाती है, क्या करूं, कैसे करूं?
लेकिन इस कमरे को स्वच्छ करना हो, तो मेरे हाथ
के भीतर होती है बात। हमें मनुष्य के स्वभाव को समझना चाहिए।
सोशलिज्म जो है, वह मनुष्य के स्वभाव को बिलकुल
ही समझने के लिए तैयार नहीं है। वह मनुष्य के ऊपर एक तरह का स्वभाव लाद रहा है,
जो कि सच नहीं है। जैसे कि अभी आपने कहा, वह
गलत कहते हैं आप। आप कहते हैं कि एवरीबडी इज़ सोशलिस्ट, कोई
नहीं है। जो सोशलिस्ट कहता है वह भी नहीं है। उसको भी एक बड़ी कार दे दो, एक बड़ा बंगला दे दो और एक खूबसूरत औरत दे दो, वह भी
नहीं है। वह भी नहीं है। आप कहते हैं कि सब आदमी सोशलिस्ट हैं, बिलकुल गलत कहते हैं। सब आदमी इंडिविजुअलिस्ट हैं। सोशलिस्ट होना आसान
मामला कहां है? सोशलिस्ट होने का मतलब ही क्या है? कोई आदमी सोशलिस्ट नहीं है। सोशलिस्ट होने का कोई मतलब नहीं होता।
हर आदमी इंडिविजुअलिस्ट है और बुराई भी नहीं है इसमें। मैं कहता भी
नहीं कि बुराई है। बिलकुल स्वाभाविक यही है। और न ही यह बात सच है कि आप सब लोगों
को समान मानते हैं। कोई आदमी नहीं मानता है। और न मैं यह कहता हूं कि सब आदमी समान
हैं। कोई आदमी है भी नहीं। हो भी नहीं सकता। और हर आदमी की अपनी जिंदगी है।
मैं एक स्त्री को प्रेम करता हूं, तो उसके लिए मैं एक
घर सजाना चाहता हूं। घर का सजाना अपने आप में मूल्यवान है ही नहीं। आपकी जिंदगी
में कोई स्त्री नहीं है तो आप कैसे भी कपड़े पहने हुए बैठे हुए हैं। और एक स्त्री
आपकी जिंदगी में आ गई, आपके कपड़े संवर गए, सुधर गए, आपके कपड़े देख कर समझा जा सकता है कि
स्त्री जिंदगी में है या नहीं। कोई जिंदगी में आ रहा है, तो
आपकी जिंदगी में एक प्रेरणा आ रही है। और उस प्रेरणा की...ऐसा जैसे हम एक नदी में
पत्थर फेंकते हैं, तो जो पहला वर्तुल उठता है, वह बड़ा होता है, फिर उसके बाद छोटे होते जाते हैं,
फिर जितने दूर वर्तुल फैलते जाते हैं उतने सर्किल छोटे होते चले
जाते हैं। ऐसा ही मनुष्य है।
हर आदमी अपने केंद्र पर गहरा से गहरा वर्तुल उठा रहा है। फिर वह
जैसे-जैसे दूर होता जाता है, उतना छोटा होता जाता है। यह
स्वाभाविक है। इसलिए अगर आपने बहुत बड़े वर्तुल बना लिए और आपने कहा कि उनके लिए
जीओ, तो वह तो बेमानी हो जाएगी, वह
आपके हाथ के बाहर हो जाएगी। इसलिए सोशलिज्म के पास इंसेंटिव नहीं है। सोशलिज्म के
पास एक वायलेंस है। तो वायलेंस तभी तक काम करती है, जब तक
जिनके पास है, उनसे आप नहीं छीन लेते हैं। जब आप छीन लेंगे,
तब वह खतम हो जाती है। तब क्या करिएगा? अभी यह
बात है बिलकुल पक्का, जिस दिन...उन्नीस सौ सत्रह में रूस में
जार के महल पर हमला किया, तो उसके घर का, बड़ा बहुमूल्य कालीन था उसके महल में। अब उसको सैकड़ों लोग इकट्ठा खींचने
लगे, उस कालीन को ले जाने के लिए। उसे कैसे ले जाएंगे,
इतने लोग कैसे ले जाएंगे। तो फिर यह हुआ कि लोगों ने उसके टुकड़े
काट-काट कर, कोई जरा-जरा सा टुकड़ा
अपने-अपने घर ले गए। अपने घर में टांग लिया कि हमारे घर में भी लाखों रुपये के
कालीन का एक टुकड़ा है। वह लोगों ने बांट लिया। वह घर जो सुंदर था, वह भी उजड़ गया, लेकिन उससे उनका घर सुंदर नहीं हो
गया, उधर एक वह चीथड़ा भर लटक गया, जिसका
कोई मतलब नहीं है, जिसका कोई अर्थ नहीं है। और मजे की बात यह
है कि वह जब टुकड़ा वे घर ले गए, तो लटकाया अपने ही घर में।
उसको भी जाकर किसी पब्लिक प्लेस में नहीं जोड़ आए। वह अपने ही घर में लटकाया न। वह
जाकर अपने घर में लटकाया।
आदमी का जो दिमाग है, आदमी का जो दिमाग है वह
स्वाभाविक है यह कि उसके अपने वर्तुल हैं, उनके भीतर वह जीता
है। इसलिए मैं मानता हूं कि संपत्ति पैदा करवाने की जो दौड़ है, वह पूंजीवाद तो आपको इसलिए दे देता है कि आप एक घर चाहते हैं, कार चाहते हैं, अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा
चाहते हैं, एक मकान चाहते हैं। इसलिए आप में एक इंसेंटिव है।
लेकिन यह इंसेंटिव आपसे छीन लिया जाए, तो फिर अब आप किसलिए?
सोसाइटी, समाज, देश,
मनुष्यता, सारी मनुष्य-जाति, ये शब्द सुनने में आते हैं, लेकिन कहीं छूते हैं,
ये कहीं छूते हैं।
आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि आप छह शब्द, जो आपकी जिंदगी में सबसे कीमती हैं, बता दें। उसने
"पत्नी' पहला शब्द रखा और "ईश्वर' अंतिम। उसने कहा कि ईश्वर सबसे कम छूता है, वह इतना
दूर पड़ता है कि कहीं मेरी पकड़ में नहीं आता। पत्नी, मैं
समझता हूं वह आदमी बड़ा ईमानदार था। हमारे मुल्क में शायद ही कोई आदमी पत्नी को
नंबर एक रख सकता, यह सीधी साफ बात है। उसने कहा, पत्नी पहला। फिर ऐसा बढ़ता चला गया वह। आखिर में उसने कहा, परमात्मा। आखिरी वर्तुल मेरा वह है, जिसको मैं छू
नहीं पाता, लेकिन है मेरे मन में एक वर्तुल कि कभी उसको भी
छू लेना है। लेकिन निकट तो मेरे पत्नी ही पड़ेती है।
तो हमारे वर्तुल हैं व्यक्तित्व के। समाजवाद जो वर्तुल पैदा करता है, वह इतने फासले पर हैं कि वे आपको कहीं छूते नहीं हैं। तो जो हमारी कठिनाई
है। और इसलिए जैसे यह मुल्क है। और हमारा मुल्क तो, अब जैसे
कि हम रोज देखते हैं, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आता है।
हमारे खयाल में नहीं आता, हमारा पूरा मुल्क बहुत छोटे वर्तुल
बनाता है। बहुत छोटे वर्तुल बनाए हुए, यह महाराष्ट्र का
वर्तुल है, मैसूर का वर्तुल है। राष्ट्र का वर्तुल तक नहीं
है यहां, है ही नहीं कोई वर्तुल राष्ट्र का। कोई ऐसा भाव ही
नहीं है, जो राष्ट्र को बनाता हो। ब्राह्मण का है, भंगी का है, चमार का है, जैन
का है, मुसलमान का है, ईसाई का है। ये
वर्तुल हैं। फिर उनमें भी छोटे वर्तुल।
आखिर में आप हैं, आपका छोटा सा परिवार है, और उस परिवार में भी अगर चुनाव का मौका आ जाए तो अंत में आप अकेले ही हैं,
वह परिवार भी नहीं है। वह आखिरी आपका व्यक्ति का जहां सबसे ज्यादा
सोर्स है ताकत का वहां है। उस पर हमें मेहनत करनी पड़ेगी। यानी मेरा मानना यह है कि
पूंजीवाद का भरोसा व्यक्ति के ऊपर है और व्यक्ति एक सच्चाई है। और समाजवाद का
भरोसा समाज पर है।
समाज सिर्फ एक शब्द है। जो कहीं है नहीं। इसलिए पूंजी पैदा करने की
सामर्थ्य नहीं है उसमें। हां, पूंजी एक दफा पूंजीवाद पैदा कर
दे, तो समाज बांट लेगा और फिर कामचलाऊ ढंग से चलता रहेगा,
एक दफा एफ्लुएंस आ जाएगा तो फिर दिक्कत भी नहीं है, यानी फिर कोई कठिनाई भी नहीं है। जैसे अमेरिका जैसे मुल्क में अगर पचास
साल बाद समाजवाद आता है तो काम चल जाएगा, इसलिए कि पचास साल
में सब आटोमैटिक हो जाने वाला है। मजदूर की कोई जरूरत भी नहीं रह जाने वाली है बड़े
पैमाने पर। सारी मशीनें काम करने लगेंगी। आदमी के काम की भी जरूरत नहीं है। मशीन
को इंसेंटिव की भी जरूरत नहीं है। मशीन पूछती नहीं कि हम किसलिए पैदा कर रहे हैं।
पैदा करती चली जा रही है।
तो जैसे-जैसे मशीन के हाथ में व्यवस्था आ जाएगी पैदावार की, वैसे-वैसे समाजवाद सरल हो जाएगा। जब तक व्यक्ति के हाथ में पूंजी पैदा
करने की व्यवस्था है, तब तक समाजवाद संभव नहीं है। और अगर
संभव हम बनाएंगे तो व्यक्ति की हम हत्या कर देंगे। और मजा यह है कि सारे
व्यक्तियों में भी एक सा नहीं है। संपत्ति पैदा करना भी वैसा ही है, जैसे हमारे...बड़े मजे की बात है, इस संबंध में हमने
बड़ा दुर्भाव लिया हुआ है।
अगर आदमी एक कवि है, तो हम कहते हैं, यह जन्मजात है। लेकिन एक आदमी संपत्ति पैदा करता है, तो हम नहीं कहते कि वह आदमी जन्मजात संपत्ति पैदा करने में समर्थ है। वह
भी है। एक आदमी पेंट करता है, तो हम कहते हैं, यह जन्मजात पेंटर है। पेंटर बनाया नहीं जा सकता, पेंटर
पैदा होता है।
मैं कहता हूं, पूंजीपति भी नहीं बनाया जा सकता है। वह भी पैदा होता
है। पूंजी पैदा करना भी एक प्रतिभा है। किसी की पेंट करना प्रतिभा है, किसी का वीणा बजाना प्रतिभा है। जैसे, मेरे जैसे
आदमी को कितनी ही पूंजी दे दो, दूसरे दिन...कुछ पैदा ही नहीं
कर सकता। उससे कुछ पैदा कर ही नहीं सकता।...वह मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात है।
उसे मैं बांट सकता हूं। उसे लूटा सकता हूं। उसे चोर ले जाएं, उसे कोई कुछ करे, यह हो सकता है।
तो पूंजी भी कुछ थोड़े से लोगों ने ही पैदा की है, सारी मनुष्यता ने पैदा नहीं की है। अगर अमेरिका में हम आठ-दस नाम अलग कर
दें, फोर्ड है, मार्गन है, रॉकफेलर है, फलां-ठिका, दस नाम
अलग कर दें, अमेरिका भी वैसे ही दरिद्र हैं, जैसे हम हैं। एक दस आदमी ने पूंजी का वर्तुल पैदा कर दिया है। और जब
उन्होंने पैदा करना शुरू किया तो उस वर्तुल में छोटे-छोटे वर्तुल पैदा हुए;
और छोटे-छोटे लोग आए, और छोटे-छोटे लोग आए;
और एक-एक...संपत्ति पैदा हुई।
अब पूंजीवाद को हटा कर आप जब राज्य के हाथ में यह बात दे देते हैं, तो राज्य के पास ऐसा कोई वर्तुल नहीं है, इंसेंटिव
नहीं है, कहीं कुछ बात नहीं है। तब फिर जबरदस्ती एक रास्ता
रह जाता है कि हम कोड़े के बल पर काम करवा लें। बंदूक लगा दें छाती के पीछे। उसके
बल पर काम करवा लें। उस संपत्ति पैदा करने के लिए अगर बंदूक लगानी पड़े, तो मैं समझता हूं, वह ज्यादा खतरनाक है, बजाय इसके कि जो हो रहा है। इसको हमें सुधारना है, और
व्यवस्था देनी चाहिए।
मेरा मानना ऐसा नहीं है कि पूंजीवाद जैसा चल रहा है वैसा ही चले, यह भी मेरा मानना नहीं है। क्योंकि जैसा चल रहा है, वह
बिलकुल अंधी दौड़ है। उसे हमें सुनियोजित करना चाहिए, वेल
प्लांड करना चाहिए और सीलिंग हमें नीचे से बनानी चाहिए, ऊपर
से नहीं। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि फलां इससे ज्यादा संपत्ति आदमी नहीं रख
सकेगा। हमें सीलिंग यह बनानी चाहिए कि इससे कम संपत्ति के आदमी को हम बर्दाश्त न
करेंगे। इसको हम मिटा कर रहेंगे। इससे कम संपत्ति हम न रहने देंगे किसी आदमी के
पास। सीलिंग नीचे बनानी चाहिए। कि हम कहें कि हम सौ रुपये से कम किसी आदमी को न
मिलने देंगे चाहे कुछ भी हो जाए। सारा मुल्क ताकत लगाएगा कि हम सौ रुपये से कम न
मिलने देंगे, किसी आदमी को।
एक आदमी करोड़ रुपया कमाता है, उसकी हमें फिक्र नहीं
है। बस सौ से कम कोई आदमी न रह जाए। सीलिंग नीचे लानी है। और हमें एक वेल
प्लांड...क्योंकि अभी हम जो जिसे हम पूंजीवाद कह रहे हैं वह बहुत कंफ्यूज्ड है,
वह साफ नहीं है। तो हमें सारी व्यवस्था ऐसी करनी चाहिए कि संपत्ति
कैसे अधिकतम पैदा हो जाए। जो लोग पैदा कर सकते हैं, उन्हें
सारी सुविधा देनी चाहिए। तो अभी उलटी हालत हो गई है। सोशलिज्म का भूत सवार है। तो
जो संपत्ति पैदा करते हैं, उसको सारी असुविधा का इंतजाम किया
जा रहा है कि उसको सब असुविधा दे दो। उसको असुविधा दे देना। जो पैदा नहीं कर सकता
वह करेगा नहीं, जो कर सकता था वह कर न पाएगा। यह पूरी की
पूरी बात मुल्क की चेतना के सामने रख देने की जरूरत है।
सबको सुविधा होनी चाहिए कि यदि वह समाजवादी ढंग
से जीना चाहे, तो समाजवादी ढंग से जीए और पूंजीवादी ढंग से जीना
चाहे, तो उस ढंग से जीए।
यह जो आप कहते हैं न, यह जो बात है, मामला यह है कि पूंजीवाद तो यह कर सकता है कि जिसको समाजवादी होना हो,
हो। समाजवादी यह नहीं कर सकता। तकलीफ यह है। इसलिए पूंजीवाद में ही
डेमोक्रेसी हो सकती है। सोशलिज्म में डेमोक्रेटिक नहीं हो सकता। तो पूंजीवाद तो यह
कर सकता है कि भई जिसको समाजवादी होना...कल्याणजी को फितूर चढ़ जाए समाजवादी होने
का, हो जाएं। बांट दें अपनी संपत्ति, इन्हें
कोई मना नहीं करता। लेकिन समाजवादी बर्दाश्त नहीं करेगा कि आपके पैसा इकट्ठा करना।
इसलिए समाजवादी बुनियादी रूप से एंटी डेमोक्रेटिक है। वह डेमोक्रेटिक हो नहीं
सकता। क्योंकि वह तो किसी चीज को जबरदस्ती थोपना चाहता है। समाजवादी डेमोक्रेटिक
तब हो पाएगा, जब पूंजी इतनी ज्यादा हो जाए कि उसको इकट्ठा
करना पागलपन हो।
जैसे कि आज हवा बहुत ज्यादा है, तो आप अपने घर में
हवा बंद करके नहीं रखते। हम कहते हैं, भई जिसको बंद करना हो,
वह बंद करके रख ले, कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन
कोई बंद करके नहीं रखता। क्योंकि बंद की तो और सड़ जाएगी। खिड़की खुली रखो, वह आ ही जा रही है। लेकिन कल अगर हवा कम हो जाए, आक्सीजन
कम हो जाए, तो जिसके पास सुविधा है वह हवा बंद कर लेगा,
जिसके पास सुविधा नहीं है, वह मरने लगेगा बिना
हवा के।
न्यून चीजें जब तक हैं, तब तक व्यक्तिगत दावे
का सवाल उठता है। जब चीजें इफरात हो जाती हैं तो सवाल नहीं उठता। अगर दुनिया में
कभी समाजवाद लाना हो, तो संपत्ति इतनी कर देनी चाहिए कि
संपत्ति पर मालकियत का कोई अर्थ न रह जाए। यानी मेरा जोर इस बात पर है कि संपत्ति
इतनी एफ्लुएंट कर दो कि उसकी कोई मालकियत का सवाल न रह जाए। तुम अभी एक अपनी कार
पर मालकियत रखते हो कि यह मेरी कार है। लेकिन कल अगर हर आदमी के पास कार हो जाए,
तो क्या कहने का मतलब है कि मेरी कार है? कोई
मतलब नहीं है। वह है मेरी कि नहीं है, कोई पूछता भी नहीं,
कोई मतलब नहीं। मेरे का जो मजा है वह तभी तक है। तो इधर मेरा मानना
ऐसा है कि हिंदुस्तान के लिए कोई रास्ता है, तो वह वाया
वाशिंगटन है, वह वाया मास्को नहीं है।
मिक्स इकोनॉमिक्स के बारे में आपका क्या खयाल है?
मिक्स इकोनॉमिक्स कैपिटलिस्ट ही होगी। वह सोशलिस्ट नहीं हो पाएगी।
आज इतना ही।
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