अध्याय
१-२
विचारवान
अर्जुन
और
युद्ध
का धर्मसंकट
श्रीमद्भगवद्गीता
प्रथमोऽध्यायः
धृतराष्ट्र
उवाच
धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः
पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।। १।।
धृतराष्ट्र
बोले: हे संजय, धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए, युद्ध की इच्छा वाले, मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?
धृतराष्ट्र
आंख से अंधे हैं। लेकिन आंख के न होने से वासना नहीं मिट जाती; आंख के न होने से कामना नहीं मिट जाती। काश!
सूरदास ने धृतराष्ट्र का खयाल कर लिया होता, तो
आंखें फोड़ने की कोई जरूरत न होती। सूरदास ने आंखें फोड़ ली थीं; इसलिए कि न रहेंगी आंखें, न मन में उठेगी कामना! न उठेगी वासना! पर
आंखों से कामना नहीं उठती,
कामना उठती है मन से। आंखें
फूट भी जाएं, फोड़ भी डाली जाएं, तो भी वासना का कोई अंत नहीं है।
गीता
की यह अदभुत कथा एक अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होती है। असल में इस जगत में
सारी कथाएं बंद हो जाएं,
अगर अंधा आदमी न हो। इस जीवन
की सारी कथाएं अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होती हैं। अंधा आदमी भी देखना चाहता
है उसे, जो उसे दिखाई नहीं पड़ता; बहरा भी सुनना चाहता है उसे, जो उसे सुनाई नहीं पड़ता। सारी इंद्रियां भी
खो जाएं, तो भी मन के भीतर छिपी हुई वृत्तियों का कोई
विनाश नहीं होता है।
तो
पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूंगा कि स्मरण रखें, धृतराष्ट्र
अंधे हैं, लेकिन युद्ध के मैदान पर क्या हो रहा है, मीलों दूर बैठे उनका मन उसके लिए उत्सुक, जानने को पीड़ित, जानने को आतुर है। दूसरी बात यह भी स्मरण
रखें कि अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हैं, लेकिन
अंधे व्यक्तित्व की संतति आंख वाली नहीं हो सकती है; भला
ऊपर से आंखें दिखाई पड़ती हों। अंधे व्यक्ति से जो जन्म पाता है--और शायद अंधे
व्यक्तियों से ही लोग जन्म पाते हैं--तो भला ऊपर की आंख हो, भीतर की आंख पानी कठिन है।
यह
दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र से जन्मे हुए सौ पुत्र सब तरह से अंधा
व्यवहार कर रहे थे। आंखें उनके पास थीं, लेकिन
भीतर की आंख नहीं थी। अंधे से अंधापन ही पैदा हो सकता है। फिर भी यह पिता, क्या हुआ, यह
जानने को उत्सुक है।
तीसरी
बात यह भी ध्यान रख लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र कहते हैं, धर्म के उस कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए
इकट्ठे हुए...।
जिस
दिन धर्म के क्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठा होना पड़े, उस दिन धर्मक्षेत्र धर्मक्षेत्र बचता नहीं
है। और जिस दिन धर्म के क्षेत्र में भी लड़ना पड़े, उस दिन
धर्म के भी बचने की संभावना समाप्त हो जाती है। रहा होगा वह धर्मक्षेत्र, था नहीं! रहा होगा कभी, पर आज तो वहां एक-दूसरे को काटने को आतुर सब
लोग इकट्ठे हुए थे।
यह
प्रारंभ भी अदभुत है। यह इसलिए भी अदभुत है कि अधर्मक्षेत्रों में क्या होता होगा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। धर्मक्षेत्र
में क्या होता है? वह धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि वहां
युद्ध के लिए आतुर मेरे पुत्र और उनके विरोधियों ने क्या किया है, क्या कर रहे हैं, वह मैं जानना चाहता हूं।
धर्म
का क्षेत्र पृथ्वी पर शायद बन नहीं पाया अब तक, क्योंकि
धर्मक्षेत्र बनेगा तो युद्ध की संभावना समाप्त हो जानी चाहिए। युद्ध की संभावना
बनी ही है और धर्मक्षेत्र भी युद्धरत हो जाता है, तो हम
अधर्म को क्या दोष दें, क्या निंदा करें! सच तो यह है कि अधर्म के
क्षेत्रों में शायद कम युद्ध हुए हैं, धर्म
के क्षेत्रों में ज्यादा युद्ध हुए हैं। और अगर युद्ध और रक्तपात के हिसाब से हम
विचार करने चलें, तो धर्मक्षेत्र ज्यादा अधर्मक्षेत्र मालूम
पड़ेंगे, बजाय अधर्मक्षेत्रों के।
यह
व्यंग्य भी समझ लेने जैसा है कि धर्मक्षेत्र पर अब तक युद्ध होता रहा है। और आज ही
होने लगा है, ऐसा भी न समझ लेना; कि आज ही मंदिर और मस्जिद युद्ध के अड्डे बन
गए हों। हजारों साल पहले,
जब हम कहें कि बहुत भले लोग
थे पृथ्वी पर, और कृष्ण जैसा अदभुत आदमी मौजूद था, तब भी कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र पर लोग
लड़ने को ही इकट्ठे हुए थे! यह मनुष्य की गहरे में जो युद्ध की पिपासा है, यह मनुष्य की गहरे में विनाश की जो आकांक्षा
है, यह मनुष्य के गहरे में जो पशु छिपा है, वह धर्मक्षेत्र में भी छूट नहीं जाता, वह वहां भी युद्ध के लिए तैयारियां कर लेता
है।
इसे
स्मरण रख लेना उपयोगी है। और यह भी कि जब धर्म की आड़ मिल जाए लड़ने को, तो लड़ना और भी खतरनाक हो जाता है। क्योंकि
तब जस्टीफाइड, न्याययुक्त भी मालूम होने लगता है।
यह
अंधे धृतराष्ट्र ने जो जिज्ञासा की है, उससे
यह धर्मग्रंथ शुरू होता है। सभी धर्मग्रंथ अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होते
हैं। जिस दिन दुनिया में अंधे आदमी न होंगे, उस दिन
धर्मग्रंथ की कोई जरूरत भी नहीं रह जाती है। वह अंधा ही जिज्ञासा कर रहा है।
प्रश्न:
भगवान श्री, अंधे धृतराष्ट्र को युद्ध की रिपोर्ताज
निवेदित करने वाले संजय की गीता में क्या भूमिका है? संजय
क्या क्लेअरवायन्स, दूर-दृष्टि या क्लेअरआडियन्स, दूर-श्रवण की शक्ति रखता था? संजय की चित्-शक्ति की गंगोत्री कहां पर है? क्या वह स्वयंभू भी हो सकती है?
संजय
पर निरंतर संदेह उठता रहा है;
स्वाभाविक है। संजय बहुत दूर
बैठकर, कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है, उसकी खबर धृतराष्ट्र को देता है। योग निरंतर
से मानता रहा है कि जो आंखें हमें दिखाई पड़ती हैं, वे ही
आंखें नहीं हैं। और भी आंख है मनुष्य के पास, जो समय
और क्षेत्र की सीमाओं को लांघकर देख सकती है। लेकिन योग क्या कहता है, इससे जो कहता है वह सही भी होगा, ऐसा नहीं है। संदेह होता है मन को, इतने दूर संजय कैसे देख पाता है? क्या वह सर्वज्ञ है?
नहीं।
पहली तो बात यह कि दूर-दृष्टि,
क्लेअरवायन्स कोई बहुत बड़ी
शक्ति नहीं है। सर्वज्ञ से उसका कोई संबंध नहीं है। बड़ी छोटी शक्ति है। और कोई भी
व्यक्ति चाहे तो थोड़े ही श्रम से विकसित कर सकता है। और कभी तो ऐसा भी होता है कि
प्रकृति की किसी भूल-चूक से वह शक्ति किसी व्यक्ति को सहज भी विकसित हो जाती है।
एक
व्यक्ति है अमेरिका में अभी मौजूद,
नाम है, टेड सीरियो। उसके संबंध में दो बातें कहना
पसंद करूंगा, तो संजय को समझना आसान हो जाएगा। क्योंकि
संजय बहुत दूर है समय में हमसे और न मालूम किस दुर्भाग्य के क्षण में हमने अपने
समस्त पुराने ग्रंथों को कपोलकल्पना समझना शुरू कर दिया है। इसलिए संजय को छोड़ें।
अमेरिका में आज जिंदा आदमी है एक,
टेड सीरियो, जो कि कितने ही हजार मील की दूरी पर कुछ भी
देखने में समर्थ है; न केवल देखने में, बल्कि उसकी आंख उस चित्र को पकड़ने में भी
समर्थ है।
हम
यहां बैठकर यह जो चर्चा कर रहे हैं,
न्यूयार्क में बैठे हुए टेड
सीरियो को अगर कहा जाए कि अहमदाबाद में इस मैदान पर क्या हो रहा है; तो वह पांच मिनट आंख बंद करके बैठा रहेगा, फिर आंख खोलेगा, और उसकी आंख में आप सबकी--बैठी हुई--तस्वीर
दूसरे देख सकते हैं। और उसकी आंख में जो तस्वीर बन रही है, उसका कैमरा फोटो भी ले सकता है। हजारों फोटो
लिए गए हैं, हजारों चित्र लिए गए हैं और टेड सीरियो की
आंख कितनी ही दूरी पर, किसी भी तरह के चित्र को पकड़ने में समर्थ है; न केवल देखने में, बल्कि चित्र को पकड़ने में भी।
टेड
सीरियो की घटना ने दो बातें साफ कर दी हैं। एक तो संजय कोई सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि टेड सीरियो बहुत साधारण आदमी है, कोई आत्मज्ञानी नहीं है। टेड सीरियो को
आत्मा का कोई भी पता नहीं है। टेड सीरियो की जिंदगी में साधुता का कोई भी नाम नहीं
है, लेकिन टेड सीरियो के पास एक शक्ति है--वह
दूर देखने की। विशेष है शक्ति।
कुछ
दिनों पहले स्कैंडिनेविया में एक व्यक्ति किसी दुर्घटना में जमीन पर गिर गया कार
से। उसके सिर को चोट लग गई। और अस्पताल में जब वह होश में आया तो बहुत मुश्किल में
पड़ा। उसके कान में कोई जैसे गीत गा रहा हो, ऐसा
सुनाई पड़ने लगा। उसने समझा कि शायद मेरा दिमाग खराब तो नहीं हो गया! लेकिन एक या
दो दिन के भीतर स्पष्ट, सब साफ होने लगा। और तब तो यह भी साफ हुआ कि
दस मील के भीतर जो रेडियो स्टेशन था, उसके
कान ने उस रेडियो स्टेशन को पकड़ना शुरू कर दिया है। फिर उसके कान का सारा अध्ययन
किया गया और पता चला कि उसके कान में कोई भी विशेषता नहीं है, लेकिन चोट लगने से कान में छिपी कोई शक्ति
सक्रिय हो गई है। आपरेशन करना पड़ा,
क्योंकि अगर चौबीस
घंटे--आन-आफ करने का तो कोई उपाय नहीं था--अगर उसे कोई स्टेशन सुनाई पड़ने लगे, तो वह आदमी पागल ही हो जाए।
पिछले
दो वर्ष पहले इंग्लैंड में एक महिला को दिन में ही आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू
हो गए। वह भी एक दुर्घटना में ही हुआ। छत से गिर पड़ी और दिन में आकाश के तारे
दिखाई पड़ने शुरू हो गए। तारे तो दिन में भी आकाश में होते हैं, कहीं चले नहीं जाते; सिर्फ सूर्य के प्रकाश के कारण ढंक जाते
हैं। रात फिर उघड़ जाते हैं,
प्रकाश हट जाने से। लेकिन
आंखें अगर सूर्य के प्रकाश को पार करके देख पाएं, तो दिन
में भी तारों को देख सकती हैं। उस स्त्री की भी आंख का आपरेशन ही करना पड़ा।
यह मैं
इसलिए कह रहा हूं कि आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो दिन
में आकाश के तारों को देख लें। कान में भी शक्तियां छिपी हैं, जो दूर के रेडियो स्टेशन से विस्तारित
ध्वनियों को पकड़ लें। आंख में भी शक्तियां छिपी हैं, जो समय
और क्षेत्र की सीमाओं को पार करके देख लें। लेकिन अध्यात्म से इनका कोई बहुत संबंध
नहीं है।
तो
संजय कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति हो, ऐसा
नहीं है; संजय विशिष्ट व्यक्ति जरूर है। वह दूर युद्ध
के मैदान पर जो हो रहा है,
उसे देख पा रहा है। और संजय
को इस शक्ति के कारण, कोई परमात्मा, कोई
सत्य की उपलब्धि हो गई हो,
ऐसा भी नहीं है। संभावना तो
यही है कि संजय इस शक्ति का उपयोग करके ही समाप्त हो गया हो।
अक्सर
ऐसा होता है। विशेष शक्तियां व्यक्ति को बुरी तरह भटका देती हैं। इसलिए योग निरंतर
कहता है कि चाहे शरीर की सामान्य शक्तियां हों और चाहे मन की--साइकिक पावर
की--विशेष शक्तियां हों,
शक्तियों में जो उलझता है वह
सत्य तक नहीं पहुंच पाता।
पर, यह संभव है। और इधर पिछले सौ वर्षों में
पश्चिम में साइकिक रिसर्च ने बहुत काम किया है। और अब किसी आदमी को संजय पर संदेह
करने का कोई कारण वैज्ञानिक आधार पर भी नहीं रह गया है। और ऐसा ही नहीं कि अमेरिका
जैसे धर्म को स्वीकार करने वाले देश में ऐसा हो रहा हो; रूस के भी मनोवैज्ञानिक मनुष्य की अनंत
शक्तियों का स्वीकार निरंतर करते चले जा रहे हैं।
और अभी
चांद पर जाने की घटना के कारण रूस और अमेरिका के सारे मनोवैज्ञानिकों पर एक नया
काम आ गया है। और वह यह है कि यंत्रों पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। और जब हम
अंतरिक्ष की यात्रा पर पृथ्वी के वासियों को भेजेंगे, तो हम उन्हें गहन खतरे में भेज रहे हैं। और
अगर यंत्र जरा भी बिगड़ जाएं तो उनसे हमारे संबंध सदा के लिए टूट जाएंगे; और फिर हम कभी पता भी नहीं लगा सकेंगे कि वे
यात्री कहां खो गए। वे जीवित हैं,
जीवित नहीं हैं, वे किस अनंत में भटक गए--हम उनका कोई भी पता
न लगा सकेंगे। इसलिए एक सब्स्टीटयूट, एक
परिपूरक व्यवस्था की तरह,
दूर से बिना यंत्र के देखा जा
सके, सुना जा सके, खबर
भेजी जा सके, इसके लिए रूस और अमेरिका दोनों की वैज्ञानिक
प्रयोगशालाएं अति आतुर हैं। और बहुत देर न होगी कि रूस और अमेरिका दोनों के पास
संजय होंगे। हमारे पास नहीं होंगे।
संजय
कोई बहुत आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं है। लेकिन संजय के पास एक विशेष शक्ति है, जो हम सबके पास भी है, और विकसित हो सकती है।
संजय
उवाच
दृष्ट्वा
तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य
राजा वचनमब्रवीत्।। २।।
इस पर
संजय बोला: उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पांडवों की सेना को देखकर और
द्रोणाचार्य के पास जाकर,
यह वचन कहा।
पश्यैतां
पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां
द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। ३।।
अत्र
शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो
विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। ४।।
हे
आचार्य, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र
धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की इस भारी सेना को देखिए।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले,
युद्ध में भीम और अर्जुन के
समान बहुत से शूरवीर हैं। जैसे सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।
धृष्टकेतुश्चेकितानः
काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च
शैब्यश्च नरपुंगवः।। ५।।
और
धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित कुंतिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ
शैब्य।
युधामन्युश्च
विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो
द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। ६।।
अस्माकं
तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका
मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।। ७।।
और
पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र
अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र, यह सब
ही महारथी हैं।
हे
ब्राह्मण श्रेष्ठ, हमारे पक्ष में भी जो-जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपके जानने के लिए मेरी
सेना के जो-जो सेनापति हैं,
उनको कहता हूं।
मनुष्य
का मन जब हीनता की ग्रंथि से,
इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से
पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू
करता है। लेकिन जब हीन व्यक्ति नहीं होते, तब सदा
ही दूसरे की श्रेष्ठता से चर्चा शुरू होती है। यह दुर्योधन कह रहा है द्रोणाचार्य
से, पांडवों की सेना में कौन-कौन महारथी, कौन-कौन महायोद्धा इकट्ठे हैं। इससे वह शुरू
कर रहा है। यह बड़ी प्रतीक की,
बड़ी सिम्बालिक बात है।
साधारणतः शत्रु की प्रशंसा से बात शुरू नहीं होती। साधारणतः शत्रु की निंदा से बात
शुरू होती है। साधारणतः शत्रु के साथ अपनी प्रशंसा से बात शुरू होती है। शत्रु की
सेना में कौन-कौन महावीर इकट्ठे हैं, दुर्योधन
उनसे बात शुरू कर रहा है।
दुर्योधन
कैसा भी व्यक्ति हो, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित व्यक्ति
नहीं है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति नहीं है।
और यह बड़े मजे की बात है कि अच्छा आदमी भी अगर हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हो तो उस
बुरे आदमी से बदतर होता है,
जो हीनता की ग्रंथि से पीड़ित
नहीं है। दूसरे की प्रशंसा से केवल वही शुरू कर सकता है, जो अपने प्रति बिलकुल आश्वस्त है।
यह एक
बुनियादी अंतर सदियों में पड़ा है। बुरे आदमी पहले भी थे, अच्छे आदमी पहले भी थे। ऐसा नहीं है कि आज
बुरे आदमी बढ़ गए हैं और अच्छे आदमी कम हो गए हैं। आज भी बुरे आदमी उतने ही हैं, अच्छे आदमी उतने ही हैं। अंतर क्या पड़ा है?
निरंतर
धर्म का विचार करने वाले लोग ऐसा प्रचार करते रहते हैं कि पहले लोग अच्छे थे और अब
लोग बुरे हो गए हैं। ऐसी उनकी धारणा, मेरे
खयाल में बुनियादी रूप से गलत है। बुरे आदमी सदा थे, अच्छे
आदमी सदा थे। अंतर इतना ऊपरी नहीं है, अंतर
बहुत भीतरी पड़ा है। बुरा आदमी भी पहले हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं था। आज अच्छा
आदमी भी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। यह गहरे में अंतर पड़ा है।
आज
अच्छे से अच्छा आदमी भी बाहर से ही अच्छा-अच्छा है, भीतर
स्वयं भी आश्वस्त नहीं है। और ध्यान रहे, जिस
आदमी का आश्वासन स्वयं पर नहीं है,
उसकी अच्छाई टिकने वाली
अच्छाई नहीं हो सकती। बस,
स्किनडीप होगी, चमड़ी के बराबर गहरी होगी। जरा-सा खरोंच दो
और उसकी बुराई बाहर आ जाएगी। और जो बुरा आदमी अपनी बुराई के होते हुए भी आश्वस्त
है, उसकी बुराई भी किसी दिन बदली जा सकती है, क्योंकि बहुत गहरी अच्छाई बुनियाद में खड़ी
है--वह स्वयं का आश्वासन।
इस बात
को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं कि दुर्योधन जैसा बुरा आदमी एक बहुत ही शुभ ढंग से
चर्चा को शुरू कर रहा है। वह विरोधी के गुणों का पहले उल्लेख कर रहा है, फिर पीछे अपनी सेना के महारथियों का उल्लेख
कर रहा है।
भवान्भीष्मश्च
कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा
विकर्णश्च सौमदत्तिस्थैव च।। ८।।
अन्ये
च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्र
प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।। ९।।
एक तो
स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही
अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, और भी बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के
शस्त्र-अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सबके सब युद्ध में
चतुर हैं।
अपर्याप्तं
तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं
त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।। १०।।
अयनेषु
च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु
भवन्तः सर्व एव हि।। ११।।
और
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा
रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह
स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब ही निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा
करें।
प्रश्न:
भगवान श्री, श्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार अर्जुन पर है
और यहां गीता में दुर्योधन कहता है,
पांडवों की सेना
भीम-अभिरक्षित और कौरवों की भीष्म...। तो भीष्म के सामने भीम को रखने का खयाल क्या
यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भीम को ही देखता है?
यह
बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर है, लेकिन यह पीछे से सोची गई बात है--युद्ध के
बाद, युद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल
को जानते हैं, वे कहेंगे कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर
घूमा है। लेकिन जो युद्ध के प्रारंभ में खड़े थे, वे ऐसा
नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा होती थी।
उसके कारण थे। अर्जुन जैसे भले व्यक्ति पर युद्ध का भरोसा दुर्योधन भी नहीं कर
सकता था। अर्जुन डांवाडोल हो सकता है, इसकी
संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता है, इसकी कोई गहरी अचेतन प्रतीति दुर्योधन के मन
में भी है। अगर युद्ध टिकेगा,
तो भीम पर टिकेगा। युद्ध के
लिए भीम जैसे कम बुद्धि के,
लेकिन ज्यादा शक्तिशाली लोगों
पर भरोसा किया जा सकता है।
अर्जुन
बुद्धिमान है। और जहां बुद्धि है,
वहां संशय है। और जहां संशय
है, वहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां
विचारशीलता है, वहां पूरे पर्सपेक्टिव, पूरे परिप्रेक्ष्य को सोचने की क्षमता है; वहां युद्ध जैसी भयंकर स्थिति में आंख बंद
करके उतरना कठिन है। दुर्योधन भरोसा कर सकता है--युद्ध के लिए--भीम का।
भीम और
दुर्योधन के बीच गहरा सामंजस्य है। भीम और दुर्योधन एक ही प्रकृति के, बहुत गहरे में एक ही सोच के, एक ही ढंग के व्यक्ति हैं। इसलिए अगर
दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम केंद्र है दूसरी तरफ, तो गलत
नहीं देखा, ठीक ही देखा। और गीता भी पीछे सिद्ध करती है
कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन पलायनवादी दिखाई पड़ा है, वह एस्केपिस्ट मालूम पड़ा है। अर्जुन जैसे
व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी पड़ा है। युद्ध में जाना, अर्जुन के लिए अपने को रूपांतरित करके ही
संभव हो सका है। अर्जुन एक नए तल पर पहुंचकर ही युद्ध के लिए राजी हो सका है।
भीम
जैसा था, उसी तल पर युद्ध के लिए तैयार था। भीम के
लिए युद्ध सहजता है, जैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए
दुर्योधन भीम को केंद्र में देखता है, तो
आकस्मिक नहीं है। लेकिन यह युद्ध के प्रारंभ की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या
होगी, अंत क्या होगा, यह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है।
और
ध्यान रहे, अक्सर ही जीवन जैसा प्रारंभ होता है, वैसा अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही
अनिर्णीत है, अंत सदा ही अदृश्य है। अक्सर ही जो हम सोचकर
चलते हैं, वह नहीं होता। अक्सर ही जो हम मानकर चलते
हैं, वह नहीं होता। जीवन एक अज्ञात यात्रा है।
इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणों में--किसी भी घटना के प्रारंभिक क्षणों में--जो
सोचा जाता है, वह अंतिम निष्पत्ति नहीं बनती। और हम भाग्य
के निर्माण की चेष्टा में रत हो सकते हैं, लेकिन
भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते हैं; निष्पत्ति
कुछ और होती है।
खयाल
तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और अगर भीम केंद्र पर रहता, तो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम विजयी हो
सकेंगे, हो सकता था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही
सिद्ध नहीं हुई। और आकस्मिक तत्व बीच में उतर आया। वह भी सोच लेने जैसा है।
कृष्ण
का खयाल ही न था। कि अर्जुन अगर भागने लगे, तो
कृष्ण उसे युद्ध में रत करवा सकते हैं। हम सबको भी खयाल नहीं होता। जब हम जिंदगी
में चलते हैं, तो एक अज्ञात परमात्मा की तरफ से भी बीच में
कुछ होगा, इसका हमें कभी खयाल नहीं होता। हम जो भी
हिसाब लगाते हैं, वह दृश्य का होता है। अदृश्य भी बीच में
इंटरपेनिट्रेट कर जाएगा,
अदृश्य भी बीच में उतर आएगा, इसका हमें भी कोई खयाल नहीं होता।
कृष्ण
के रूप में अदृश्य बीच में उतर आया है और सारी कथा बदल गई है। जो होता, वह नहीं हुआ; और जो
नहीं होने की संभावना मालूम होती थी, वह हुआ
है। और अज्ञात जब उतरता है तो उसके प्रिडिक्शन नहीं हो सकते, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए जब
कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धक्का देने लगे, तो जो भी इस कथा को पहली बार पढ़ता है, वह शॉक खाए बिना नहीं रह सकता; उसको धक्का लगता है।
जब
इमर्सन ने पहली बार पढ़ा,
तो उसने किताब बंद कर दी; वह घबड़ा गया। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा था, वह सभी तथाकथित धार्मिक लोगों को ठीक मालूम
पड़ेगा। वह ठीक तथाकथित धार्मिक आदमी का तर्क दे रहा था। जब हेनरी थारो ने इस जगह
आकर देखा कि कृष्ण उसे युद्ध में जाने की सलाह देते हैं, तो वह भी घबड़ा गया। हेनरी थारो ने भी लिखा है
कि मुझे ऐसा भरोसा नहीं था,
खयाल भी नहीं था कि कहानी ऐसा
मोड़ लेगी कि कृष्ण और युद्ध में जाने की सलाह देंगे! गांधी को भी वहीं तकलीफ थी, उनकी पीड़ा भी वहीं थी।
लेकिन
जिंदगी किन्हीं सिद्धांतों के हिसाब से नहीं चलती। जिंदगी बहुत अनूठी है। जिंदगी
रेल की पटरियों पर दौड़ती नहीं,
गंगा की धारा की तरह बहती है; उसके रास्ते पहले से तय नहीं हैं। और जब
परमात्मा बीच में आता है,
तो सब डिस्टर्ब कर देता है; जो भी तैयार था, जो भी आदमी ने निर्मित किया था, जो आदमी की बुद्धि सोचती थी, सब उलट-फेर हो जाता है।
इसलिए
बीच में परमात्मा भी उतर आएगा इस युद्ध में, इसकी
दुर्योधन को कभी कल्पना न थी। इसलिए वह जो कह रहा है, प्रारंभिक वक्तव्य है। जैसा कि हम सब आदमी
जिंदगी के प्रारंभ में जो वक्तव्य देते हैं, ऐसे ही
होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता चलता है और सब कहानी बदलती चलती है। अगर हम जिंदगी
को पीछे से लौटकर देखें,
तो हम कहेंगे, जो भी हमने सोचा था, वह सब गलत हुआ: जहां सफलता सोची थी, वहां असफलता मिली; जो पाना चाहता था, वह नहीं पाया जा सका; जिसके मिलने से सुख सोचा था, वह मिल गया और दुख पाया; और जिसके मिलने की कभी कामना भी न की थी, उसकी झलक मिली और आनंद के झरने फूटे। सब
उलटा हो जाता है।
लेकिन
इतने बुद्धिमान आदमी इस जगत में कम हैं, जो
निष्पत्ति को पहले ध्यान में लें। हम सब प्रारंभ को ही पहले ध्यान में लेते हैं।
काश! हम अंत को पहले ध्यान में लें तो जिंदगी की कथा बिलकुल और हो सकती है। लेकिन
अगर दुर्योधन अंत को पहले ध्यान में ले ले, तो
युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत को ध्यान में नहीं ले सकता; अंत को मानकर चलेगा कि ऐसा होगा। इसलिए वह
कह रहा है बार-बार कि यद्यपि सेनाएं उस तरफ महान हैं, लेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे योद्धा जीवन
देकर भी मुझे जिताने के लिए आतुर हैं।
लेकिन
हम अपनी सारी शक्ति भी लगा दें,
तो भी असत्य जीत नहीं सकता।
हम सारा जीवन भी लगा दें,
तो भी असत्य जीत नहीं सकता; इस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई भी बोध
नहीं हो सकता है। और सत्य,
जो कि हारता हुआ भी मालूम
पड़ता हो, अंत में जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में
जीतता हुआ मालूम पड़ता है,
अंत में हार जाता है। सत्य
प्रारंभ में हारता हुआ मालूम पड़ता है, अंत
में जीत जाता है। लेकिन प्रारंभ से अंत को देख पाना कहां संभव है! जो देख पाता है, वह धार्मिक हो जाता है। जो नहीं देख पाता है, वह दुर्योधन की तरह अंधे युद्ध में उतरता
चला जाता है।
प्रश्न:
भगवान श्री, एक तो अज्ञात का विल होता है, एक व्यक्ति का अपना विल होता है। दोनों में
कांफ्लिक्ट होते हैं। तो व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात का क्या विल है, अज्ञात की क्या इच्छा है?
पूछते
हैं, व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात की क्या
इच्छा है? व्यक्ति कभी नहीं जान पाता। हां, व्यक्ति अपने को छोड़ दे, मिटा दे, तो
तत्काल जान लेता है; अज्ञात के साथ एक हो जाता है। बूंद नहीं जान
सकती कि सागर क्या है, जब तक कि बूंद सागर के साथ खो न जाए।
व्यक्ति नहीं जान सकता कि परमात्मा की इच्छा क्या है। जब तक व्यक्ति अपने को
व्यक्ति बनाए है, तब तक नहीं जान सकता है। व्यक्ति अपने को खो
दे, तो फिर परमात्मा की इच्छा ही शेष रह जाती है, क्योंकि व्यक्ति की कोई इच्छा शेष नहीं रह
जाती। तब जानने का सवाल ही नहीं उठता। तब व्यक्ति वैसे ही जीता है, जैसे अज्ञात उसे जिलाता है। तब व्यक्ति की
कोई आकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई फलाकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई अपनी अभीप्सा, तब व्यक्ति की समग्र की आकांक्षा के ऊपर
अपनी थोपने की कोई वृत्ति शेष नहीं रह जाती, क्योंकि
व्यक्ति शेष नहीं रह जाता।
जब तक
व्यक्ति है, तब तक अज्ञात क्या चाहता है, नहीं जाना जा सकता। और जब व्यक्ति नहीं है, तब जानने की कोई जरूरत नहीं; जो भी होता है, वह अज्ञात ही करवाता है। तब व्यक्ति एक
इंस्ट्रूमेंट हो जाता है,
तब व्यक्ति एक साधनमात्र हो
जाता है।
कृष्ण
पूरी गीता में आगे अर्जुन को यही समझाते हैं कि वह अपने को छोड़ दे अज्ञात के हाथों
में; समर्पित कर दे। क्योंकि वह जिन्हें सोच रहा
है कि ये मर जाएंगे, वे अज्ञात के द्वारा पहले ही मारे जा चुके
हैं। कि वह जिन्हें सोचता है कि इनकी मृत्यु के लिए मैं जिम्मेवार हो जाऊंगा, उनके लिए वह बिलकुल भी जिम्मेवार नहीं होगा।
अगर वह अपने को बचाता है,
तो जिम्मेवार हो जाएगा। अगर
अपने को छोड़कर साधनवत, साक्षीवत लड़ सकता है, तो उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं रह जाती है।
व्यक्ति
अपने को खो दे समष्टि में,
व्यक्ति अपने को समर्पित कर
दे, छोड़ दे अहंकार को, तो ब्रह्म की इच्छा ही फलित होती है। अभी भी
वही फलित हो रही है। ऐसा नहीं कि हम उससे भिन्न फलित करा लेंगे। लेकिन हम भिन्न
फलित कराने में लड़ेंगे, टूटेंगे, नष्ट
होंगे।
एक
छोटी-सी कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कि एक नदी में बहुत बाढ़
आई है और दो छोटे-से तिनके उस नदी में बह रहे हैं। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ गया है
और नदी की बाढ़ को रोकने की कोशिश कर रहा है। और वह चिल्ला रहा है बहुत जोर से कि
नहीं बढ़ने देंगे नदी को,
यद्यपि नदी बढ़ी जा रही है। वह
चिल्ला रहा है कि रोककर रहेंगे,
यद्यपि रोक नहीं पा रहा है।
वह चिल्ला रहा है कि नदी को हर हालत में रोककर ही रहूंगा, जीऊं या मरूं! लेकिन बहा जा रहा है। नदी को
न उसकी आवाज सुनाई पड़ती है,
न उसके संघर्ष का पता चलता
है। एक छोटा-सा तिनका! नदी को उसका कोई भी पता नहीं है। नदी को कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन तिनके को बहुत फर्क पड़ रहा है। उसकी जिंदगी बड़ी मुसीबत में पड़ गई है, बहा जा रहा है। नहीं लड़ेगा तो जहां पहुंचेगा, वहीं पहुंचेगा लड़कर भी। लेकिन यह बीच का
क्षण, यह बीच का काल, दुख, पीड़ा, द्वंद्व और चिंता का काल हो जाएगा।
उसके
पड़ोस में एक दूसरे तिनके ने छोड़ दिया है अपने को। वह नदी में आड़ा नहीं पड़ा है, सीधा पड़ा है, नदी
जिस तरफ बह रही है उसी तरफ,
और सोच रहा है कि मैं नदी को
बहने में सहायता दे रहा हूं। उसका भी नदी को कोई पता नहीं है। वह सोच रहा है, मैं नदी को सागर तक पहुंचा ही दूंगा; मेरे साथ है तो पहुंच ही जाएगी। नदी को उसकी
सहायता का भी कोई पता नहीं है।
लेकिन
नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता,
उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क
पड़ रहा है। जो नदी को साथ बहा रहा है, वह बड़े
आनंद में है, वह बड़ी मौज में नाच रहा है; और जो नदी से लड़ रहा है, वह बड़ी पीड़ा में है। उसका नाच, नाच नहीं है, एक
दुखस्वप्न है। उसका नाच उसके अंगों की टूटन है; वह
तकलीफ में पड़ा है, हार रहा है। और जो नदी को बहा रहा है, वह जीत रहा है।
व्यक्ति
ब्रह्म की इच्छा के अतिरिक्त कुछ कभी कर नहीं पाता है, लेकिन लड़ सकता है, इतनी स्वतंत्रता है। और लड़कर अपने को चिंतित
कर सकता है, इतनी स्वतंत्रता है।
सार्त्र
का एक वचन है, जो बड़ा कीमती है। वचन है, ह्युमैनिटी इज़ कंडेम्ड टु बी फ्री--आदमी
स्वतंत्र होने के लिए मजबूर है;
विवश है, कंडेम्ड है, निंदित
है--स्वतंत्र होने के लिए।
लेकिन
आदमी अपनी स्वतंत्रता के दो उपयोग कर सकता है। अपनी स्वतंत्रता को वह ब्रह्म की
इच्छा से संघर्ष बना सकता है। और तब उसका जीवन दुख, पीड़ा, एंग्विश, संताप
का जीवन होगा। और अंततः पराजय फल होगी। और कोई व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को ब्रह्म
के प्रति समर्पण बना सकता है,
तब जीवन आनंद का, ब्लिस का, नृत्य
का, गीत का जीवन होगा। और अंत? अंत में विजय के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं
है। वह जो तिनका सोच रहा है कि नदी को साथ दे रहा हूं, वह विजयी ही होने वाला है। उसकी हार का कोई
उपाय नहीं है। और जो नदी को रोक रहा है, वह
हारने ही वाला है, उसकी जीत का कोई उपाय नहीं है।
ब्रह्म
की इच्छा को नहीं जाना जा सकता है,
लेकिन ब्रह्म के साथ एक हुआ
जा सकता है। और तब, अपनी इच्छा खो जाती है, उसकी इच्छा ही शेष रह जाती है।
प्रश्न:
भगवान श्री, वैज्ञानिक-सिद्धि में व्यक्ति का अपना कुछ
होता है। और अज्ञात इस वैज्ञानिक- सिद्धि में कैसे उतरता होगा, यह तकलीफ की बात बन जाती है!
ऐसा
साधारणतः लगता है कि वैज्ञानिक खोज में व्यक्ति की अपनी इच्छा काम करती है; ऐसा बहुत ऊपर से देखने पर लगता है; बहुत भीतर से देखने पर ऐसा नहीं लगेगा। अगर
जगत के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को हम देखें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। जगत के
सभी बड़े वैज्ञानिकों के अनुभव बहुत और हैं। कालेज, युनिवर्सिटीज
में विज्ञान की जो धारणा पैदा होती है, वैसा
अनुभव उनका नहीं है।
मैडम
क्यूरी ने लिखा है कि मुझे एक सवाल दिनों से पीड़ित किए हुए है। उसे हल करती हूं और
हल नहीं होता है। थक गई हूं,
परेशान हो गई हूं, आखिर हल करने की बात छोड़ दी है। और एक रात
दो बजे वैसे ही कागजात टेबल पर अधूरे छोड़कर सो गई हूं और सोच लिया कि अब इस सवाल
को छोड़ ही देना है।
थक गया
व्यक्ति। लेकिन सुबह उठकर देखा है कि आधा सवाल जहां छोड़ा था, वह सुबह पूरा हो गया है। कमरे में तो कोई
आया नहीं, द्वार बंद थे। और कमरे में भी कोई आकर उसको
हल कर सकता था, जिसको मैडम क्यूरी हल नहीं कर सकती थी, इसकी भी संभावना नहीं है। नोबल-प्राइज-विनर
थी वह महिला। घर में नौकर-चाकर ही थे, उनसे
तो कोई आशा नहीं है। वह तो और बड़ा मिरेकल होगा कि घर में नौकर-चाकर आकर हल कर दें।
लेकिन हल तो हो गया है। और आधा ही छोड़ा था और आधा पूरा है। तब बड़ी मुश्किल में पड़
गई। सब द्वार-दरवाजे देखे। कोई परमात्मा उतर आए, इसकी
भी आस्था उसे नहीं हो सकती। कोई परमात्मा ऐसे ऊपर से उतर भी नहीं आया था।
लेकिन
गौर से देखा तो पाया कि बाकी अक्षर भी उसके ही हैं। तब उसे खयाल आना शुरू हुआ कि
रात वह नींद में सपने में उठी। सपने का उसे याद आ गया कि वह सपने में उठी है। उसने
सपना देखा कि वह सवाल हल कर रही है। वह नींद में उठी है रात में और उसने सवाल हल
किया है। फिर तो यह उसकी व्यवस्थित विधि हो गई कि जब कोई सवाल हल न हो, तब वह उसे तकिए के नीचे दबाकर सो जाए; रात उठकर हल कर ले।
दिनभर
तो मैडम क्यूरी इंडिविजुअल थी,
व्यक्ति थी। रात नींद में अहं
खो जाता है, बूंद सागर से मिल जाती है। और जो सवाल हमारा
चेतन मन नहीं खोज पाया, वह हमारा अचेतन, गहरे में जो परमात्मा से जुड़ा है, खोज पाता है।
आर्किमिडीज
एक सवाल हल कर रहा था, वह हल नहीं होता था। वह बड़ी मुश्किल में पड़
गया था। सम्राट ने कहा था,
हल करके ही लाओ। आर्किमिडीज
की सारी प्रतिष्ठा हल करने पर ही निर्भर थी, लेकिन
थक गया। रोज सम्राट का संदेश आता है कि कब तक हल करोगे?
सम्राट
को किसी ने एक सोने का बहुत कीमती आभूषण भेंट किया था। लेकिन सम्राट को शक था कि
धोखा दिया गया है, और सोने में कुछ मिला है। लेकिन बिना आभूषण
को मिटाए पता लगाना है कि उसमें कोई और धातु तो नहीं मिली है! अब उस वक्त तक कोई
उपाय नहीं था जानने का। और बड़ा था आभूषण। उसमें कहीं बीच में अगर अंदर कोई चीज डाल
दी गई हो, तो वजन तो बढ़ ही जाएगा।
आर्किमिडीज
थक गया, परेशान हो गया। फिर एक दिन सुबह अपने टब में
लेटा हुआ है, पड़ा हुआ है! बस, अचानक, नंगा
ही था, सवाल हल हो गया। भागा! भूल गया--आर्किमिडीज
अगर होता, तो कभी न भूलता कि मैं नंगा हूं--सड़क पर आ
गया! और चिल्लाने लगा, इरेका, इरेका, मिल गया। और भागा राजमहल की तरफ। लोगों ने
पकड़ा कि क्या कर रहे हो?
राजा के सामने नंगे पहुंच
जाओगे? उसने कहा, लेकिन
यह तो मुझे खयाल ही न रहा! घर वापिस आया।
यह जो
आदमी सड़क पर पहुंच गया था नग्न,
यह आर्किमिडीज नहीं था।
आर्किमिडीज सड़क पर नहीं पहुंच सकता था। यह व्यक्ति नहीं था। और यह जो हल हुआ था
सवाल, यह व्यक्ति की चेतना में हल नहीं हुआ था। यह
निर्व्यक्ति-चेतना में हल हुआ था। वह बाथरूम में पड़ा था अपने टब में--रिलैक्स्ड, शिथिल। ध्यान घट गया, भीतर उतर गया--सवाल हल हो गया। जो सवाल
स्वयं से हल न हुआ था, वह टब ने हल कर दिया? टब हल करेगा सवाल को? जो स्वयं से हल नहीं हुआ था, वह पानी में लेटने से हल हो जाएगा? पानी में लेटने से कोई बुद्धि बढ़ जाती है? जो कपड़े पहने हल नहीं हुआ था, वह नंगे होने से हल हो जाएगा?
नहीं, कुछ और घटना घट गई है। यह व्यक्ति नहीं रहा
कुछ देर के लिए, अव्यक्ति हो गया। यह कुछ देर के लिए ब्रह्म
के स्रोत में खो गया।
अगर हम
जगत के सारे बड़े वैज्ञानिकों के--आइंस्टीन के, मैक्स
प्लांक के या एडिंग्टन के या एडीसन के--इनके अगर हम अनुभव पढ़ें, तो इन सब का अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, वह हमने नहीं जाना। निरंतर ही ऐसा हुआ है कि
जब हमने जाना, तब हम न थे और जानना घटित हुआ है। यही
उपनिषद के ऋषि कहते हैं,
यही वेद के ऋषि कहते हैं, यही मोहम्मद कहते हैं, यही जीसस कहते हैं।
अगर हम
कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं,
तो उसका और कोई मतलब नहीं।
उसका यह मतलब नहीं कि ईश्वर उतरा और उसने किताब लिखी। ऐसी पागलपन की बातें करने की
कोई जरूरत नहीं है। अपौरुषेय का इतना ही मतलब है कि जिस पुरुष पर यह घटना घटी, उस वक्त वह मौजूद नहीं था; उस वक्त मैं मौजूद नहीं था। जब यह घटना घटी, जब यह उपनिषद का वचन उतरा किसी पर और जब यह
मोहम्मद पर कुरान उतरी और जब ये बाइबिल के वचन जीसस पर उतरे, तो वे मौजूद नहीं थे।
धर्म
और विज्ञान के अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं हैं; हो
नहीं सकते; क्योंकि अगर विज्ञान में कोई सत्य उतरता है, तो उसके उतरने का भी मार्ग वही है जो धर्म
में उतरता है, जो धर्म के उतरने का मार्ग है। सत्य के
उतरने का एक ही मार्ग है,
जब व्यक्ति नहीं होता तो
परमात्मा से सत्य उतरता है;
हमारे भीतर जगह खाली हो जाती
है, उस खाली जगह में सत्य प्रवेश करता है।
दुनिया
में कोई भी ढंग से--चाहे कोई संगीतज्ञ, चाहे
कोई चित्रकार, चाहे कोई कवि, चाहे
कोई वैज्ञानिक, चाहे कोई धार्मिक, चाहे कोई मिस्टिक--दुनिया में जिन्होंने भी
सत्य की कोई किरण पाई है,
उन्होंने तभी पाई है, जब वे स्वयं नहीं थे। यह धर्म को तो बहुत
पहले से खयाल में आ गया। लेकिन धर्म का अनुभव दस हजार साल पुराना है। दस हजार साल
में धार्मिक-फकीर को, धार्मिक-संत को, धार्मिक-योगी को यह अनुभव हुआ कि यह मैं
नहीं हूं।
यह बड़ी
मुश्किल बात है। जब पहली दफा आपके भीतर परमात्मा से कुछ आता है, तब डिस्टिंक्शन करना बहुत मुश्किल होता है
कि यह आपका है कि परमात्मा का है। जब पहली दफा आता है तो डांवाडोल होता है मन कि
मेरा ही होगा और अहंकार की इच्छा भी होती है कि मेरा ही हो। लेकिन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जब दोनों चीजें साफ होती हैं और
पता चलता है कि आप और इस सत्य में कहीं कोई तालमेल नहीं बनता, तब फासला दिखाई पड़ता है, डिस्टेंस दिखाई पड़ता है।
विज्ञान
की उम्र नई है अभी--दोत्तीन सौ साल। लेकिन दोत्तीन सौ साल में वैज्ञानिक विनम्र
हुआ है। आज से पचास साल पहले वैज्ञानिक कहता था, जो
खोजा, वह हमने खोजा। आज नहीं कहता। आज वह कहता है, हमारी सामर्थ्य के बाहर मालूम पड़ता है सब।
आज का वैज्ञानिक उतनी ही मिस्टिसिज्म की भाषा में बोल रहा है, उतने ही रहस्य की भाषा में, जितना संत बोले थे।
इसलिए
जल्दी न करें! और सौ साल,
और वैज्ञानिक ठीक वही भाषा
बोलेगा, जो उपनिषद बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही
भाषा, जो बुद्ध बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही
भाषा, जो अगस्तीन और फ्रांसिस बोलते हैं। बोलनी ही
पड़ेगी। बोलनी पड़ेगी इसलिए कि जितना-जितना सत्य का गहरा अनुभव होगा, उतना-उतना व्यक्ति का अनुभव क्षीण होता है।
और जितना सत्य प्रगट होता है,
उतना ही अहंकार लीन होता है।
और एक दिन पता चलता है कि जो भी जाना गया है, वह
प्रसाद है; वह ग्रेस है; वह
उतरा है; उसमें मैं नहीं हूं। और जो-जो मैंने नहीं
जाना, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, क्योंकि मैं इतना मजबूत था कि जान नहीं सकता
था। मैं इतना गहन था कि सत्य नहीं उतर सकता था। सत्य उतरता है खाली चित्त में, शून्य चित्त में। और असत्य उतारना हो, तो मैं की मौजूदगी जरूरी है।
विज्ञान
की खोज को बाधा नहीं पड़ेगी। जो खोज हुई है, वह भी
अज्ञात के संबंध से ही हुई है;
समर्पण से हुई है। और जो खोज
होगी आगे, वह भी समर्पण से ही होगी। समर्पण के द्वार
के अतिरिक्त सत्य कभी किसी और द्वार से न आया है, न आ
सकता है।
प्रश्न:
भगवान श्री, आपका यह स्टेटमेंट बड़ी दिक्कत में डाल देता
है कि अचेतन मन भगवान से जुड़ा हुआ होता है। यह तो जुंग ने पीछे से बताया, मिथोलाजी का कलेक्टिव अनकांशस से संबंध
जोड़कर। मगर फ्रायड कहता है कि वह शैतान से भी जुड़ा होता है, तो तकलीफ बढ़ जाती है।
फ्रायड
का ऐसा जरूर खयाल है कि वह जो अचेतन मन है हमारा, वह
भगवान से ही नहीं, शैतान से भी जुड़ा होता है। असल में भगवान और
शैतान हमारे शब्द हैं। जब किसी चीज को हम पसंद नहीं करते, तो हम कहते हैं, शैतान से जुड़ा है; और किसी चीज को जब हम पसंद करते हैं, तो हम कहते हैं, भगवान से जुड़ा है। लेकिन मैं इतना ही कह रहा
हूं कि अज्ञात से जुड़ा है। और अज्ञात मेरे लिए भगवान है। और भगवान में मेरे लिए
शैतान समाविष्ट है, उससे अलग नहीं है।
असल
में जो हमें पसंद नहीं है,
मन होता है कि वह शैतान ने
किया होगा। जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा। ऐसा हमने सोच रखा है
कि हम केंद्र पर हैं जीवन के,
और जो हमारे पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है, भगवान हमारी सेवा कर रहा है। जो पसंद नहीं
पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है; शैतान हमसे दुश्मनी कर रहा है। यह मनुष्य का
अहंकार है, जिसने शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में
लगा रखा है।
भगवान
के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसे हम शैतान कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। जिसे हम बुरा
कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। और अगर हम
बुरे में भी गहरे देख पाएं,
तो फौरन हम पाएंगे कि बुरे
में भला छिपा होता है। दुख में भी गहरे देख पाएं, तो
पाएंगे कि सुख छिपा होता है। अभिशाप में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि वरदान छिपा होता है। असल में
बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शैतान के खिलाफ जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा; मैं अज्ञात उसे कह रहा हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है। उस अस्तित्व के
आधार से ही रावण भी निकलता है,
उस अस्तित्व के आधार से ही
राम भी निकलते हैं। उस अस्तित्व से अंधकार भी निकलता है, उस अस्तित्व से प्रकाश भी निकलता है।
हमें
अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है, अंधकार शैतान पैदा करता होगा। हमें रोशनी
अच्छी लगती है, तो मन होता है कि भगवान पैदा करता होगा।
लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, रोशनी
में कुछ भी भला नहीं है। और जो अस्तित्व को प्रेम करता है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पाएगा और
प्रकाश में भी परमात्मा को पाएगा।
सच तो
यह है कि अंधकार को भय के कारण हम कभी--उसके सौंदर्य को--जान ही नहीं पाते; उसके रस को, उसके
रहस्य को हम कभी जान ही नहीं पाते। हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है। कंदराओं से आ
रहे हैं हम, जंगली कंदराओं से होकर गुजरे हैं हम। अंधेरा
बड़ा खतरनाक था। जंगली जानवर हमला कर देता; रात
डराती थी। इसलिए अग्नि जब पहली दफा प्रकट हो सकी, तो
हमने उसे देवता बनाया। क्योंकि रात निश्चिंत हो गई; आग
जलाकर हम निर्भय हुए। अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है। रोशनी हमारे हृदय
में अभय से जुड़ गई है।
लेकिन
अंधेरे का अपना रहस्य है,
रोशनी का अपना रहस्य है। और
इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटित होता है, वह
अंधेरे और रोशनी दोनों के सहयोग से घटित होता है। एक बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, फूल आता है रोशनी में। बीज हम गड़ाते हैं
अंधेरे में, जमीन में; जड़ें
फैलती हैं अंधेरे में, जमीन में। फूल खिलते हैं आकाश में, रोशनी में। एक बीज को रोशनी में रख दें, फिर फूल कभी न आएंगे। एक फूल को अंधेरे में
गड़ा दें, फिर बीज कभी पैदा न होंगे। एक बच्चा पैदा
होता है मां के पेट के गहन अंधकार में, जहां
रोशनी की एक किरण नहीं पहुंचती। फिर जब बड़ा होता है, तो आता
है प्रकाश में। अंधेरा और प्रकाश एक ही जीवन-शक्ति के लिए आधार हैं। जीवन में
विभाजन, विरोध, पोलेरिटी
मनुष्य की है।
फ्रायड
जो कहता है कि शैतान से जुड़ा है...। फ्रायड यहूदी-चिंतन से जुड़ा था। फ्रायड यहूदी
घर में पैदा हुआ था। बचपन से ही शैतान और परमात्मा के विरोध को उसने सुन रखा था।
यहूदियों ने दो हिस्से तोड़ रखे हैं--एक शैतान है, एक
भगवान है। वह आदमी के ही मन के दो हिस्से हैं। तो फ्रायड को लगा कि जहां-जहां से
बुरी चीजें उठती हैं अचेतन से,
वे बुरी-बुरी चीजें शैतान डाल
रहा होगा।
नहीं, कोई शैतान नहीं है। और अगर शैतान हमें दिखाई
पड़ता है, तो कहीं न कहीं हमारी बुनियादी भूल है।
धार्मिक व्यक्ति शैतान को देखने में असमर्थ है। परमात्मा ही है। और अचेतन--जहां से
वैज्ञानिक सत्य को पाता है या धार्मिक सत्य को पाता है--वह परमात्मा का द्वार है।
धीरे-धीरे हम उसकी गहराई में उतरेंगे, तो
खयाल में निश्चित आ सकता है।
तस्य
संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं
विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान्।। १२।।
ततः
शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त
स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।। १३।।
इस
प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर, कौरवों में वृद्ध, बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उसके हृदय में
हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के समान गर्जकर शंख बजाया। उसके
उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल,
मृदंग और नृसिंहादि बाजे एक
साथ ही बजे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
ततः
श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः
पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।। १४।।
पाग्चजन्यं
हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं
दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।। १५।।
अनन्तविजयं
राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः
सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। १६।।
इसके
अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी
अलौकिक शंख बजाए। उनमें श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक
शंख बजाया। भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुंतीपुत्र राजा
युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख
बजाए।
प्रश्न:
भगवान श्री, भीष्म के गगनभेदी शंखनाद के प्रतिशब्द में
कृष्ण शंखनाद करते हैं। तो क्या उनकी शंखध्वनि एक्शन के बजाय रिएक्शन, प्रत्याघात कही जा सकती है? भगवद्गीता के इस प्रथम अध्याय में कृष्ण का
पांचजन्य शंख या अर्जुन का देवदत्त शंख बजाना--यह उदघोषणा के बजाय कोई और तात्पर्य
रखता है?
कृष्ण
का शंखनाद, भीष्म के शंखनाद की प्रतिक्रिया, रिएक्शन है? ऐसा
पूछा है।
नहीं, सिर्फ रिस्पांस है, प्रतिसंवेदन है। और शंखनाद से केवल
प्रत्युत्तर है--युद्ध का नहीं,
लड़ने का नहीं--शंखनाद से
सिर्फ स्वीकृति है चुनौती की। वह चुनौती जो भी लाए, वह
चुनौती जो भी दिखाए, वह चुनौती जहां भी ले जाए, उसकी स्वीकृति है। इस स्वीकृति को थोड़ा
समझना उपयोगी है।
जीवन
प्रतिपल चुनौती है। और जो उसे स्वीकार नहीं करता, वह
जीते जी ही मर जाता है। बहुत लोग जीते जी ही मर जाते हैं। बर्नार्ड शा कहा करता था
कि लोग मरते तो हैं बहुत पहले,
दफनाए बहुत बाद में जाते हैं।
मरने और दफनाने में कोई चालीस साल का अक्सर फर्क हो जाता है। जिस क्षण से व्यक्ति
जीवन की चुनौती का स्वीकार बंद करता है, उसी
क्षण से मर जाता है। जीवन है प्रतिपल चुनौती की स्वीकृति।
लेकिन
चुनौती की स्वीकृति भी दो तरह की हो सकती है। चुनौती की स्वीकृति भी क्रोधजन्य हो
सकती है; और तब प्रतिक्रिया हो जाती है, रिएक्शन हो जाती है। और चुनौती की स्वीकृति
भी प्रसन्नता, उत्फुल्लता से मुदितापूर्ण हो सकती है; और तब प्रतिसंवेदन हो जाती है।
ध्यान
देने योग्य है कि भीष्म ने जब शंख बजाया तो वचन है कि प्रसन्नता से और वीरों को
प्रसन्नचित्त करते हुए...। आह्लाद फैल गया उनके शंखनाद से। उस शंखनाद से प्रसन्नता
फैल गई। वह एक स्वीकार है। जीवन जो दिखा रहा है, अगर
युद्ध भी, तो युद्ध का भी स्वीकार है। जीवन जहां ले जा
रहा है, अगर युद्ध में भी, तो इस युद्ध का भी स्वीकार है। निश्चित ही
इसे प्रत्युत्तर मिलना चाहिए। और पीछे कृष्ण और पांडव अपने-अपने शंखनाद करते हैं।
यहां
भी सोचने जैसी बात है कि पहला शंखनाद कौरवों की तरफ से होता है। युद्ध के प्रारंभ
का दायित्व कौरवों का है;
कृष्ण सिर्फ प्रत्युत्तर दे
रहे हैं। पांडवों की तरफ से प्रतिसंवेदन है, रिस्पांस
है। अगर युद्ध ही है, तो उसके उत्तर के लिए वे तैयार हैं। ऐसे
युद्ध की वृत्ति नहीं है। पांडव भी पहले बजा सकते हैं। नहीं लेकिन इतना
दायित्व--युद्ध में घसीटने का दायित्व--कौरव ही लेंगे।
युद्ध
का यह प्रारंभ बड़ा प्रतीकात्मक है। इसमें एक बात और ध्यान देने जैसी है कि
प्रत्युत्तर कृष्ण शुरू करते हैं। अगर भीष्म ने शुरू किया था, तो कृष्ण को उत्तर देने के लिए तैयार करना
उचित नहीं है। उचित तो है कि जो युद्ध के लिए तत्पर योद्धा हैं...। कृष्ण तो केवल
सारथी की तरह वहां मौजूद हैं;
वे योद्धा भी नहीं हैं, वे युद्ध करने भी नहीं आए हैं। लड़ने की कोई
बात ही नहीं है। पांडवों की तरफ से जो सेनापति है, उसे
शंखनाद करके उत्तर देना चाहिए। लेकिन नहीं, यह
बहुत महत्वपूर्ण है कि शंखनाद का उत्तर कृष्ण से शुरू करवाया गया है। यह इस बात का
प्रतीक है कि पांडव इस युद्ध को केवल परमात्मा की तरफ से डाले गए दायित्व से
ज्यादा मानने को तैयार नहीं हैं। परमात्मा की तरफ से आई हुई पुकार के लिए वे तैयार
हैं। वे केवल परमात्मा के साधन भर होकर लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए यह जो
प्रत्युत्तर है युद्ध की स्वीकृति का, वह
कृष्ण से दिलवाया गया है।
उचित
है। उचित है, परमात्मा के साथ लड़कर हारना भी उचित है; और परमात्मा के खिलाफ लड़कर जीतना भी उचित
नहीं है। अब हार भी आनंद होगी। अब हार भी आनंद हो सकती है। क्योंकि यह लड़ाई अब
पांडवों की अपनी नहीं है;
अगर है तो परमात्मा की है।
लेकिन यह रिएक्शन नहीं है,
रिस्पांस है। इसमें कोई क्रोध
नहीं है।
अगर
भीम इसको बजाता, तो रिएक्शन हो सकता था। अगर भीम इसका उत्तर
देता, तो वह क्रोध में ही दिया गया होता। अगर
कृष्ण की तरफ से यह उत्तर आया है,
तो यह बड़ी आनंद की स्वीकृति
है, कि ठीक है। अगर जीवन वहां ले आया है, जहां युद्ध ही फलित हो, तो हम परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ते
हैं।
काश्यश्च
परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो
विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।। १७।।
द्रुपदो
द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च
महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्।। १८।।
स घोषो
धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च
पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।। १९।।
श्रेष्ठ
धनुष वाला काशिराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय
सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और
बड़ी भुजा वाला सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन सबने, हे
राजन्! अलग-अलग शंख बजाए। और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान
करते हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों के
हृदय
विदीर्ण कर दिए।
अथ
व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते
शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः।। २०।।
हृषीकेशं
तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
अर्जुन
उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत।। २१।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं
योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया
सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।। २२।।
हे
राजन्! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र-पुत्रों को देखकर उस
शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण से यह वचन कहा, हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच
में खड़ा करिए। जब तक मैं इन स्थित हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख
लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
अर्जुन, जिनके साथ युद्ध करना है, उन्हें देखने की कृष्ण से प्रार्थना करता
है। इसमें दोत्तीन बातें आज की सुबह के लिए आखिरी समझ लेनी उचित हैं, फिर हम सांझ बात करेंगे।
एक तो, अर्जुन का यह कहना कि किनके साथ मुझे युद्ध
करना है, उन्हें मैं देखूं, ऐसी जगह मुझे ले चलकर खड़ा कर दें--एक बात का
सूचक है कि युद्ध अर्जुन के लिए ऊपर से आया हुआ दायित्व है, भीतर से आई हुई पुकार नहीं है; ऊपर से आई हुई मजबूरी है, भीतर से आई हुई वृत्ति नहीं है। युद्ध एक
विवशता है, मजबूरी है। लड़ना पड़ेगा, इसलिए किससे लड़ना है, इसे वह पूछ रहा है, उनको मैं देख लूं। कौन-कौन लड़ने को आतुर
होकर आ गए हैं, कौन-कौन युद्ध के लिए तत्पर हैं, उन्हें मैं देख लूं।
जो
आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है,
उसे इसकी फिक्र नहीं होती कि
दूसरा युद्ध के लिए तत्पर है या नहीं। जो आदमी स्वयं युद्ध के लिए तत्पर है, वह अंधा होता है। वह दुश्मन को देखता नहीं, वह दुश्मन को प्रोजेक्ट करता है। वह दुश्मन
को देखना नहीं चाहता, उसे तो जो दिखाई पड़ता है, वह दुश्मन होता है। उसे दुश्मन को देखने की
जरूरत नहीं, वह दुश्मन निर्मित करता है, वह दुश्मनी आरोपित करता है। जब युद्ध भीतर
होता है, तो बाहर दुश्मन पैदा हो जाता है।
जब
भीतर युद्ध नहीं होता, तब जांच-पड़ताल करनी पड़ती है कि कौन लड़ने को
आतुर है, कौन लड़ने को उत्सुक है! तो अर्जुन कृष्ण को
कहता है कि मुझे ऐसी जगह,
ऐसे परिप्रेक्ष्य के बिंदु पर
खड़ा कर दें, जहां से मैं उन्हें देख लूं, जो लड़ने के लिए आतुर यहां इकट्ठे हो गए हैं।
दूसरी
बात, जिससे लड़ना है, उसे ठीक से पहचान लेना युद्ध का पहला नियम
है। जिससे भी लड़ना हो; उसे ठीक से पहचान लेना, युद्ध का पहला नियम है। समस्त युद्धों का, कैसे भी युद्ध हों जीवन के--भीतरी या
बाहरी--शत्रु की पहचान, युद्ध का पहला नियम है। और युद्ध में केवल
वे ही जीत सकते हैं, जो शत्रु को ठीक से पहचानते हैं।
इसलिए
आमतौर से जो युद्ध-पिपासु है,
वह नहीं जीत पाता; क्योंकि युद्ध-पिपासा के धुएं में इतना घिरा
होता है कि शत्रु को पहचानना मुश्किल हो जाता है। लड़ने की आतुरता इतनी होती है कि
किससे लड़ रहा है, उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। और जिससे
हम लड़ रहे हैं, उसे न पहचानते हों, तो हार पहले से ही निश्चित है।
इसलिए
युद्ध के क्षण में जितनी शांति चाहिए विजय के लिए, उतनी
शांति किसी और क्षण में नहीं चाहिए। युद्ध के क्षण में जितना साक्षी का भाव चाहिए
विजय के लिए, उतना किसी और क्षण में नहीं चाहिए। यह
अर्जुन यह कह रहा है कि अब मैं साक्षी होकर देख लूं कि कौन-कौन लड़ने को है। उनका
निरीक्षण कर लूं, उनको आब्जर्व कर लूं।
यह
थोड़ा विचारणीय है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब
आब्जर्वेशन कम से कम रह जाता है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब निरीक्षण की क्षमता बिलकुल खो जाती है।
और जब क्रोध में होते हैं,
तब सर्वाधिक निरीक्षण की
जरूरत है। लेकिन बड़े मजे की बात है,
अगर निरीक्षण हो, तो क्रोध नहीं होता; और अगर क्रोध हो, तो निरीक्षण नहीं होता। ये दोनों एक साथ
नहीं हो सकते हैं। अगर एक व्यक्ति क्रोध में निरीक्षण को उत्सुक हो जाए तो क्रोध
खो जाएगा।
यह
अर्जुन क्रोध में नहीं है,
इसलिए निरीक्षण की बात कह पा
रहा है। यह क्रोध की बात नहीं है। जैसे युद्ध बाहर-बाहर है, छू नहीं रहा है कहीं; साक्षी होकर देख लेना चाहता है, कौन-कौन लड़ने आए हैं; कौन-कौन आतुर हैं।
यह
निरीक्षण की बात कीमती है। और जब भी कोई व्यक्ति किसी भी युद्ध में जाए--चाहे बाहर
के शत्रुओं से और चाहे भीतर के शत्रुओं से--तो निरीक्षण पहला सूत्र है, राइट आब्जर्वेशन पहला सूत्र है। अगर भीतर के
शत्रुओं से भी लड़ना हो, तो राइट आब्जर्वेशन पहला सूत्र है। ठीक से
पहले देख लेना, किससे लड़ना है! क्रोध से लड़ना है तो क्रोध
को देख लेना, काम से लड़ना है तो काम को देख लेना, लोभ से लड़ना है तो लोभ को देख लेना। बाहर भी
लड़ने जाएं तो पहले बहुत ठीक से देख लेना कि किससे लड़ रहे हैं? वह कौन है? इसका
पूरा निरीक्षण तभी संभव है,
जब साक्षी होने की क्षमता हो, अन्यथा संभव नहीं है।
इसलिए
गीता अब शुरू होने के करीब आ रही है। उसका रंगमंच तैयार हो गया है। लेकिन इस सूत्र
को देखकर लगता है कि अगर आगे की गीता का पता भी न हो, तो जो आदमी निरीक्षण को समझता है, वह इतने सूत्र पर भी कह सकता है कि अर्जुन
को लड़ना मुश्किल पड़ेगा। यह आदमी लड़ न सकेगा। इसको लड़ने में कठिनाई आने ही वाली है।
क्योंकि
जो आदमी निरीक्षण को उत्सुक है,
वह आदमी लड़ने में मुश्किल
पाएगा। वह जब देखेगा तो लड़ न पाएगा। लड़ने के लिए आंखें बंद चाहिए। लड़ने के लिए जूझ
जाना चाहिए, निरीक्षण की सुविधा नहीं होनी चाहिए। गीता न
भी पता हो आगे, तो जो आदमी निरीक्षण के तत्व को समझेगा, वह इसी सूत्र पर कह सकेगा कि यह आदमी भरोसे
का नहीं है। यह आदमी युद्ध में काम नहीं पड़ेगा। यह आदमी युद्ध से हट सकता है।
क्योंकि जब देखेगा, तो सब इतना व्यर्थ मालूम पड़ेगा। जो भी
निरीक्षण करेगा, तो सब इतना फ्युटाइल, इतना व्यर्थ मालूम पड़ेगा कि वह कहेगा कि हट
जाऊं।
यह
अर्जुन जो बात कह रहा है,
वह बात इसके चित्त की बड़ी
प्रतीक है। यह अपने चित्त को इस सूत्र में साफ किए दे रहा है। यह यह नहीं कह रहा
है कि मैं युद्ध को आतुर हूं। मेरे सारथी! मुझे उस जगह ले चलो, जहां से मैं दुश्मनों का विनाश ठीक से कर
सकूं। यह यह नहीं कह रहा है। कहना यही चाहिए। यह यह कह रहा है कि मुझे उस जगह ले
चलो, जहां से मैं देख सकूं कि कौन-कौन लड़ने आए
हैं, कितने आतुर हैं; मैं निरीक्षण कर सकूं। यह निरीक्षण बता रहा
है कि यह आदमी विचार का आदमी है। और विचार का आदमी दुविधा में पड़ेगा।
या तो
युद्ध वे लोग कर सकते हैं,
जो विचारहीन हैं--भीम की तरह, दुर्योधन की तरह। या युद्ध वे लोग कर सकते
हैं, जो निर्विचार हैं--कृष्ण की तरह। विचार है
बीच में।
ये तीन
बातें हैं। विचारहीनता विचार के पहले की अवस्था है। युद्ध बहुत आसान है। युद्ध के
लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है,
ऐसी चित्त-दशा में आदमी युद्ध
में होता ही है। वह प्रेम भी करता है, तो
प्रेम उसका युद्ध ही सिद्ध होता है। वह प्रेम भी करता है, तो अंततः घृणा ही सिद्ध होती है। वह मित्रता
भी बनाता है, तो सिर्फ शत्रुता की एक सीढ़ी सिद्ध होती है।
क्योंकि शत्रु बनाने के लिए पहले मित्र तो बनाना जरूरी होता ही है। बिना मित्र
बनाए शत्रु बनाना मुश्किल है। विचारहीन चित्त मित्रता भी बनाता है, तो शत्रुता ही निकलती है। युद्ध स्वाभाविक
है।
दूसरी
सीढ़ी विचार की है। विचार सदा डांवाडोल है। विचार सदा कंपित है। विचार सदा वेवरिंग
है। दूसरी सीढ़ी पर अर्जुन है। वह कहता है, निरीक्षण
कर लूं, देख लूं, समझ
लूं, फिर युद्ध में उतरूं। कभी कोई दुनिया में
देख-समझकर युद्ध में उतरा है?
देख-समझकर तो युद्ध से भागा
जा सकता है। देख-समझकर युद्ध में उतरा नहीं जा सकता।
और
तीसरी सीढ़ी पर कृष्ण हैं। वह निर्विचार की स्थिति है। वहां भी विचार नहीं हैं; लेकिन वह विचारहीनता नहीं है। थाटलेसनेस और
नो थाट, विचारहीनता और निर्विचार एक से मालूम पड़ते
हैं। लेकिन उनमें बुनियादी फर्क है। निर्विचार वह है, जो विचार की व्यर्थता को जानकर ट्रांसेंड कर
गया, पार चला गया।
विचार
सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है--जीवन की भी, प्रेम
की भी, परिवार की भी, धन की
भी, संसार की भी, युद्ध
की भी--विचार सब चीजों की व्यर्थता बतलाता है। लेकिन अगर कोई विचार करता ही चला
जाए, तो अंत में विचार विचार की भी व्यर्थता बतला
देता है। और तब आदमी निर्विचार हो जाता है। फिर निर्विचार में सब ठीक वैसा ही हो
जाता है संभव, जैसा विचारहीन को संभव था। लेकिन क्वालिटी, गुण बिलकुल बदल जाता है।
एक
छोटा बच्चा जैसे होता है। जब कोई संतत्व को उपलब्ध होता है बुढ़ापे तक, तब फिर छोटे बच्चे जैसा हो जाता है। लेकिन
छोटे बच्चे और संतत्व में ऊपरी ही समानता होती है। संत की आंखें भी छोटे बच्चे की
तरह भोली हो जाती हैं। लेकिन छोटे बच्चे में अभी सब दबा पड़ा है। अभी सब निकलेगा।
इसलिए छोटा बच्चा तो एक वॉल्केनो है, एक
ज्वालामुखी है। अभी फूटा नहीं है,
बस इतना ही है। उसकी
निर्दोषता, उसकी इनोसेंस ऊपर-ऊपर है, भीतर तो सब तैयार है; बीज बन रहे हैं, फूट रहे हैं। अभी काम आएगा, क्रोध आएगा, शत्रुता
आएगी--सब आएगा। अभी सबकी तैयारी चल रही है। छोटा बच्चा तो सिर्फ टाइम बम है। अभी
समय लेगा और फूट पड़ेगा। लेकिन संत पार जा चुका है। वह सब जो भीतर बीज फूटने थे, फूट गए, और
व्यर्थ हो गए, और गिर गए। अब कुछ भी भीतर शेष नहीं बचा; अब आंखें फिर सरल हो गई हैं, अब फिर सब निर्दोष हो गया है।
इसलिए
जीसस ने कहा है--किसी ने पूछा जीसस से कि कौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य का अधिकारी
होगा? तो जीसस ने कहा कि वे जो बच्चों की भांति
हैं। जीसस ने नहीं कहा कि जो बच्चे हैं। क्योंकि बच्चे नहीं प्रवेश कर सकते। जो
बच्चों की भांति हैं, अर्थात जो बच्चे नहीं हैं। एक बात तो पक्की
हो गई, जो बच्चे नहीं हैं, लेकिन बच्चों की भांति हैं। बच्चे प्रवेश
करें, तब तो कोई कठिनाई ही नहीं है, सभी प्रवेश कर जाएंगे। नहीं; बच्चे प्रवेश नहीं करेंगे। लेकिन जो बच्चों
की भांति हैं, जो पार हो गए हैं।
इसलिए
अज्ञानी और परमज्ञानी में बड़ी समानता है। अज्ञानी जैसा ही सरल हो जाता है
परमज्ञानी। लेकिन अज्ञानी की सरलता के भीतर जटिलता पूरी छिपी रहती है, कभी भी प्रकट होती रहती है। परमज्ञानी की सब
जटिलता खो गई होती है।
जो
विचारहीन है, उसमें विचार की शक्ति पड़ी रहती है, वह विचार कर सकता है, करेगा। जो निर्विचार है, वह विचार के अतिक्रमण में हो गया; वह ध्यान में पहुंच गया, समाधि में पहुंच गया।
जो
कठिनाई पूरी गीता में उपस्थित होगी,
यह जो पूरा भीतर का
अंतर्द्वंद्व उपस्थित होगा...अर्जुन दो तरह से युद्ध में जा सकता है। या तो वह
विचारहीन हो जाए, नीचे उतर आए, वहां
खड़ा हो जाए जहां दुर्योधन और भीम खड़े हैं, तो
युद्ध में जा सकता है। और या फिर वह वहां पहुंच जाए जहां कृष्ण खड़े हैं, निर्विचार हो जाए, तो युद्ध में जा सकता है। अगर अर्जुन अर्जुन
ही रहे, मध्य में ही रहे, विचार में ही रहे, तो वह जंगल जा सकता है, युद्ध में नहीं जा सकता है। वह पलायन करेगा, वह भागेगा।
शेष
संध्या हम बात करेंगे।
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