अध्याय १-२ (दूसरा प्रवचन)
अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य
एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य
दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।। २३।।
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो
गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
स्थापयित्वा रथोत्तमम्।। २४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः
सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ
पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।। २५।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः
पितृनथ पितामहान।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।
२६।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव
सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः
सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।। २७।।
कृपया परयाविष्टो
विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण
युयुत्सुं समुपस्थितम्।। २८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं
च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे
रोमहर्षश्च जायते।। २९।।
और दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण
चाहने वाले
जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं,
उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।
संजय बोला: हे धृतराष्ट्र, अर्जुन
द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर भीष्म
और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने, उत्तम
रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ,
इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख।
उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों
ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहों को, आचार्यों को, मामों को, भाइयों
को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा
मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।
इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को
देखकर वह अत्यंत करुणा से युक्त हुआ कुंतीपुत्र अर्जुन शोक करता हुआ यह बोला: हे
कृष्ण! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए
जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कंप तथा रोमांच होता है।
अर्जुन युद्ध से पीड़ित नहीं है, युद्ध-विरोधी
भी नहीं है। हिंसा के संबंध में उसकी कोई अरुचि भी नहीं है। उसके सारे जीवन का
शिक्षण, उसके सारे जीवन का संस्कार, हिंसा
और युद्ध के लिए है। लेकिन, यह समझने जैसी बात है कि जितना
ही हिंसक चित्त हो, उतना ही ममत्व से भरा हुआ चित्त भी होता
है। हिंसा और ममत्व साथ ही साथ जीते हैं। अहिंसक चित्त ममत्व के भी बाहर हो जाता
है।
असल में जिसे अहिंसक होना हो, उसे मेरे
का भाव ही छोड़ देना पड़ता है। मेरे का भाव ही हिंसा है। क्योंकि जैसे ही मैं कहता
हूं मेरा, वैसे ही जो मेरा नहीं है, वह
पृथक होना शुरू हो जाता है। जैसे ही किसी को मैं कहता हूं मित्र, वैसे ही किसी को मैं शत्रु निर्मित करना शुरू कर देता हूं। जैसे ही मैं
सीमा खींचता हूं अपनों की, वैसे ही मैं परायों की सीमा भी
खींच लेता हूं। समस्त हिंसा, अपने और पराए के बीच खींची गई
सीमा से पैदा होती है।
इसलिए अर्जुन शिथिल-गात हो गया। उसके
अंग-अंग शिथिल हो गए। इसलिए नहीं कि वह युद्ध से विरक्त हुआ; इसलिए
नहीं कि उसे होने वाली हिंसा में कुछ बुरा दिखाई पड़ा; इसलिए
नहीं कि अहिंसा का कोई आकस्मिक आकर्षण उसके मन में जन्म गया; बल्कि इसलिए कि हिंसा के ही दूसरे पहलू ने उसके भीतर से, हिंसा के ही गहरे पहलू ने, हिंसा के ही बुनियादी
आधार ने, उसके चित्त को पकड़ लिया--ममत्व ने उसके चित्त को
पकड़ लिया।
ममत्व हिंसा ही है। इसे न समझेंगे तो फिर
पूरी गीता को समझना कठिन हो जाएगा। जो इसे नहीं समझ सके, उन्हें ऐसा
प्रतीत होता है कि अर्जुन अहिंसा की तरफ झुकता था, कृष्ण ने
उसे हिंसा की तरफ झुकाया! जो अहिंसा की तरफ झुकता हो, उसे
कृष्ण हिंसा की तरफ झुकाना नहीं चाहेंगे। जो अहिंसा की तरफ झुकता हो, उसे कृष्ण चाहें भी हिंसा की तरफ झुकाना, तो भी न
झुका पाएंगे।
लेकिन अर्जुन अहिंसा की तरफ रत्तीभर नहीं
झुक रहा है। अर्जुन का चित्त हिंसा के गहरे आधार पर जाकर अटक गया है। वह हिंसा का
ही आधार है। उसे दिखाई पड़े अपने ही लोग--प्रियजन, संबंधी। काश! वहां प्रियजन
और संबंधी न होते, तो अर्जुन भेड़-बकरियों की तरह लोगों को
काट सकता था। अपने थे, इसलिए काटने में कठिनाई मालूम पड़ी।
पराए होते, तो काटने में कोई कठिनाई न मालूम पड़ती।
और अहिंसा केवल उसके ही चित्त में पैदा होती
है, जिसका अपना-पराया मिट गया हो। अर्जुन, यह जो
संकटग्रस्त हुआ उसका चित्त, यह अहिंसा की तरफ आकर्षण से नहीं,
हिंसा के ही मूल आधार पर पहुंचने के कारण है। स्वभावतः, इतने संकट के क्षण में, इतने क्राइसिस के मोमेंट में
हिंसा की जो बुनियादी आधारशिला थी, वह अर्जुन के सामने प्रकट
हुई। अगर पराए होते तो अर्जुन को पता भी न चलता कि वह हिंसक है; उसे पता भी न चलता कि उसने कुछ बुरा किया; उसे पता
भी न चलता कि युद्ध अधार्मिक है। उसके गात शिथिल न होते, बल्कि
परायों को देखकर उसके गात और तन जाते। उसके धनुष पर बाण आ जाता; उसके हाथ पर तलवार आ जाती। वह बड़ा प्रफुल्लित होता।
लेकिन वह एकदम उदास हो गया। इस उदासी में
उसे अपने चित्त की हिंसा का मूल आधार दिखाई पड़ा। उसे दिखाई पड़ा, इस संकट
के क्षण में उसे ममत्व दिखाई पड़ा!
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अक्सर हम अपने
चित्त की गहराइयों को केवल संकट के क्षणों में ही देख पाते हैं। साधारण क्षणों में
हम चित्त की गहराइयों को नहीं देख पाते। साधारण क्षणों में हम साधारण जीते हैं।
असाधारण क्षणों में,
जो हमारे गहरे से गहरे में छिपा है, वह प्रकट
होना शुरू हो जाता है।
अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे लोग!
युद्ध की वीभत्सता ने, युद्ध की सन्निकटता ने, बस अब युद्ध शुरू होने को है, तब उसे दिखाई पड़ा,
मेरे लोग!
काश! अर्जुन ने कहा होता, युद्ध व्यर्थ
है, हिंसा व्यर्थ है, तो गीता की किताब
निर्मित न होती। लेकिन उसने कहा, अपने ही लोग इकट्ठे हैं;
उनको काटने के विचार से ही मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं। असल में
जिसने अपने जीवन के भवन को अपनों के ऊपर बनाया है, उन्हें
काटते क्षण में उसके अंग शिथिल हों, यह बिलकुल स्वाभाविक है।
मृत्यु होती है पड़ोस में, छूती नहीं
मन को! कहते हैं, बेचारा मर गया। घर में होती है, तब इतना कहकर नहीं निपट पाते। तब छूती है। क्योंकि जब घर में होती है,
अपना कोई मरता है, तो हम भी मरते हैं। हमारा
भी एक हिस्सा मरता है। हमारा भी इनवेस्टमेंट था उस आदमी में। हम भी उसमें कुछ लगाए
थे। उसकी जिंदगी से हमें भी कुछ मिलता था। हमारे मन के भी किसी कोने को उस आदमी ने
भरा था।
पत्नी मरती है, तो पत्नी
ही नहीं मरती, पति भी मरता है। सच तो यह है कि पत्नी के साथ
ही पति पैदा हुआ था, उसके पहले पति नहीं था। पत्नी मरती है
तो पति भी मरता है। बेटा मरता है, तो मां भी मरती है;
क्योंकि मां बेटे के पहले मां नहीं थी, मां
बेटे के जन्म के साथ ही हुई है। जब बेटा जन्मता है, तो एक
तरफ बेटा जन्मता है, दूसरी तरफ मां भी जन्मती है। और जब बेटा
मरता है, तो एक तरफ बेटा मरता है, दूसरी
तरफ मां भी मरती है। जिसे हमने अपना कहा है, उससे हम जुड़े
हैं, हम भी मरते हैं।
अर्जुन ने जब देखा कि अपने ही सब इकट्ठे हैं, तो अर्जुन
को अगर अपना ही आत्मघात, स्युसाइड दिखाई पड़ा हो तो आश्चर्य
नहीं है। अर्जुन घबड़ाया नहीं दूसरों की मृत्यु से; अर्जुन
घबड़ाया आत्मघात की संभावना से। उसे लगा, सब अपने मर जाएं,
तो मैं बचूंगा कहां!
यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमारा मैं, हमारे
अपनों के जोड़ का नाम है। जिसे हम मैं कहते हैं, वह मेरों के
जोड़ का नाम है। अगर मेरे सब मेरे विदा हो जाएं, तो मैं खो
जाऊंगा। मैं बच नहीं सकता। यह मेरा मैं, कुछ मेरे पिता से,
कुछ मेरी मां से, कुछ मेरे बेटे से, कुछ मेरे मित्र से--इन सबसे जुड़ा है।
आश्चर्य तो यह है कि जिन्हें हम अपने कहते
हैं, उनसे ही नहीं जुड़ा है, जिन्हें हम पराए कहते हैं,
उनसे भी जुड़ा है--परिधि के बाहर--लेकिन उनसे भी जुड़ा है। तो जब मेरा
शत्रु मरता है, तब भी थोड़ा मैं मरता हूं। क्योंकि मैं फिर
वही नहीं हो सकूंगा, जो मेरे शत्रु के होने पर मैं था। शत्रु
भी मेरी जिंदगी को कुछ देता था। मेरा शत्रु था, होगा शत्रु,
पर मेरा शत्रु था। उससे भी मेरे मैं का संबंध था। उसके बिना मैं फिर
अधूरा और खाली हो जाऊंगा।
अर्जुन को, दूसरों का घात होगा,
ऐसा दिखाई पड़ता, तो बात और थी। अर्जुन को बहुत
गहरे में दिखाई पड़ा कि यह तो मैं अपनी ही आत्महत्या करने को उत्सुक हुआ हूं;
यह तो मैं ही मरूंगा। मेरे मर जाएंगे, तो मेरे
होने का क्या अर्थ है! जब मेरे ही न होंगे, तो मुझे सब मिल
जाए तो भी व्यर्थ है।
यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। हम अपने लिए जो
कुछ इकट्ठा करते हैं,
वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा होता है।
जो मकान हम बनाते हैं, वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा होता है। उन अपनों के लिए भी जो साथ रहेंगे, और उन अपनों के लिए भी जो देखेंगे और प्रशंसा करेंगे, और उन पराए-अपनों के लिए भी, जो जलेंगे औरर् ईष्या
से भरेंगे।
अगर इस पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ भवन भी मेरे
पास रह जाए और अपने न रह जाएं--मित्र भी नहीं, शत्रु भी नहीं--तो अचानक मैं
पाऊंगा, वह भवन झोपड़ी से भी बदतर हो गया है। क्योंकि वह भवन
एक फसाड, एक दिखावा था। उस भवन के माध्यम से अपनों को,
परायों को मैं प्रभावित कर रहा था। वह भवन तो सिर्फ प्रभावित करने
की एक व्यवस्था थी। अब मैं किसे प्रभावित करूं!
आप जो कपड़े पहनते हैं, वह अपने
शरीर को ढंकने को कम, दूसरे की आंखों को झपने को ज्यादा है।
अकेले में सब बेमानी हो जाता है। आप जो सिंहासनों पर चढ़ते हैं, वह सिंहासनों पर बैठने के आनंद के लिए कम--क्योंकि कोई सिंहासन पर बैठकर
कभी किसी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है--पर अपनों और परायों में जो हम सिंहासन पर
चढ़कर, जो करिश्मा, जो चमत्कार पैदा कर
पाते हैं, उसके लिए ज्यादा है। सिंहासन पर बैठे आप रह जाएं
और नीचे से लोग खो जाएं, अचानक आप पाएंगे, सिंहासन पर बैठे होना हास्यास्पद हो गया। उतर आएंगे; फिर शायद दुबारा नहीं चढ़ेंगे।
अर्जुन को लगा उस क्षण में कि अपने ही
इकट्ठे हैं दोनों तरफ। मरेंगे अपने ही। अगर जीत भी गया, तो जीत का
प्रयोजन क्या है? जीत के लिए जीत नहीं चाही जाती। जीत रस है,
अपनों और परायों के बीच जो अहंकार भरेगा, उसका!
साम्राज्य मिलेगा, क्या होगा अर्थ? कोई
अर्थ न होगा।
यह जो अर्जुन के मन में विषाद घिर गया, इसे ठीक
से समझ लेना चाहिए। यह विषाद ममत्व का है। यह विषाद हिंसक चित्त का है। और इस
विषाद के कारण ही कृष्ण को इतने धक्के देने पड़े अर्जुन को। अर्जुन की जगह अगर
महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो बात उसी वक्त खत्म हो गई होती।
यह बात आगे नहीं चल सकती थी। अगर महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो
शायद यह बात उठ भी नहीं सकती थी। शायद महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो कृष्ण एक शब्द भी उस व्यक्ति से न बोले होते। बोलने का कोई अर्थ न था।
बात समाप्त ही हो गई होती।
यह गीता कृष्ण ने कही कम, अर्जुन ने
कहलवाई ज्यादा है। इसका असली ऑथर, लेखक कृष्ण नहीं हैं;
इसका असली लेखक अर्जुन है। अर्जुन की यह चित्त-दशा आधार बनी है। और
कृष्ण को साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक हिंसक अपनी हिंसा के पूरे दर्शन को उपलब्ध हो
गया है। और अब हिंसा से भागने की जो बातें कर रहा है, उनका
कारण भी हिंसक चित्त है। अर्जुन की दुविधा अहिंसक की हिंसा से भागने की दुविधा
नहीं है। अर्जुन की दुविधा हिंसक की हिंसा से ही भागने की दुविधा है।
इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह
ममत्व हिंसा ही है,
लेकिन गहरी हिंसा है, दिखाई नहीं पड़ती। जब मैं
किसी को कहता हूं मेरा, तो पजेशन शुरू हो गया, मालकियत शुरू हो गई। मालकियत हिंसा का एक रूप है। पति पत्नी से कहता है,
मेरी। मालकियत शुरू हो गई। पत्नी पति से कहती है, मेरे। मालकियत शुरू हो गई। और जब भी हम किसी व्यक्ति के मालिक हो जाते हैं,
तभी हम उस व्यक्ति की आत्मा का हनन कर देते हैं। हमने मार डाला उसे।
हमने तोड़ डाला उसे। असल में हम उस व्यक्ति के साथ व्यक्ति की तरह नहीं, वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अब कुर्सी मेरी जिस अर्थ में होती है,
उसी अर्थ में पत्नी मेरी हो जाती है। मकान मेरा जिस अर्थ में होता
है, उसी अर्थ में पति मेरा हो जाता है।
स्वभावतः, इसलिए जहां-जहां मेरे का
संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, सिर्फ कलह ही फलित होती है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का
दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही
चल सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। मेरे का दावा, मैत्री का विनाश है। मेरे का दावा, चीजों को उलटा ही
कर देता है। सब हिंसा हो जाती है।
मैंने सुना है, एक आदमी
ने शादी की है, लेकिन पत्नी बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है। मन में
बड़ी इच्छा है कि पत्नी कभी पत्र लिखे। घर से बाहर पति गया है, तो उसे समझाकर गया है। थोड़ा लिख लेती है। समझाकर गया है, क्या-क्या लिखना। सभी पति-पत्नी एक-दूसरे को समझा रहे हैं, क्या-क्या लिखना!
उसने बताया था, ऊपर लिखना,
प्राणों से प्यारे--कभी ऐसा होता नहीं है--नीचे लिखना, चरणों की दासी। पत्नी का पत्र तो मिला, लेकिन कुछ
भूल हो गई। उसने ऊपर लिखा, चरणों के दास। और नीचे लिखा,
प्राणों की प्यासी।
जो नहीं लिखते हैं, उनकी
स्थिति भी ऐसी ही है। जो बिलकुल ठीक-ठीक लिखते हैं, उनकी
स्थिति भी ऐसी ही है। जहां आग्रह है मालकियत का, वहां हम
सिर्फ घृणा ही पैदा करते हैं। और जहां घृणा है, वहां हिंसा
आएगी। इसलिए हमारे सब संबंध हिंसा के संबंध हो गए हैं। हमारा परिवार हिंसा का
संबंध होकर रह गया है।
यह जो अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे सब
मिट जाएंगे तो मैं कहां! और मेरों को मिटाकर जीत का, साम्राज्य
का क्या अर्थ है! इससे वह अहिंसक नहीं हो गया है, अन्यथा
कृष्ण आशीर्वाद देते और कहते, विदा हो जा, बात समाप्त हो गई। लेकिन कृष्ण देख रहे हैं कि हिंसक वह पूरा है। मैं और
ममत्व की बात कर रहा है, इसलिए अहिंसा झूठी है।
जो मैं की बात कर रहा हो और अहिंसा की बात
कर रहा हो, तो जानना कि अहिंसा झूठी है। क्योंकि मैं के आधार पर अहिंसा का फूल खिलता
ही नहीं। मेरे के आधार पर अहिंसा के जीवन का कोई विकास ही नहीं होता।
प्रश्न: भगवान श्री, अर्जुन
युद्धभूमि पर गया। उसने स्वजन, गुरुजन और मित्रों को देखा तो
शोक से भर गया; विषाद हुआ उसको। उसका चित्त हिंसक था।
युद्धभूमि पर दुर्योधन भी था, युधिष्ठिर भी था, द्रोणाचार्य भी थे और भी जो बहुत से थे, उनके भी
स्वजन-मित्र थे। उनका भी चित्त हिंसा तथा ममत्व से भरा हुआ था, तो अर्जुन को ही सिर्फ विषाद क्यों हुआ?
निश्चय ही, दुर्योधन भी वहां था,
और भी योद्धा वहां थे, उन्हें क्यों विषाद न
हुआ? वे भी ममत्व से भरे लोग थे। वे भी हिंसा से भरे लोग थे।
नहीं हुआ; कारण है। हिंसा भी अंधी हो सकती है, विचारहीन हो सकती है। ममत्व भी अंधा हो सकता है, विचारहीन
हो सकता है। हिंसा भी आंख वाली हो सकती है, विचारपूर्ण हो
सकती है। ममत्व भी आंख वाला हो सकता है और विचारपूर्ण हो सकता है।
सुबह मैंने कहा था कि अर्जुन की कठिनाई यही
है कि वह विचारहीन नहीं है। विचार है। और विचार दुविधा में डालता है। विचार ने
दुविधा में डाला उसे। दुर्योधन को भी दिखाई पड़ रहा है, लेकिन
हिंसा इतनी अंधी है कि यह नहीं देख पाएगा दुर्योधन कि इस हिंसा के पीछे मैं उन
सबको मार डालूंगा, जिनके बिना हिंसा भी व्यर्थ हो जाती है।
अंधेपन में यह दिखाई नहीं पड़ेगा। अर्जुन उतना अंधा नहीं है। इसलिए अर्जुन उस युद्ध
के स्थल पर विशेष है। विशेष इन अर्थों में है कि जीवन की तैयारी उसकी वही है,
जो दुर्योधन की है; जीवन की तैयारी उसकी वही
है, जो दुर्योधन की है, लेकिन मन की
तैयारी उसकी भिन्न है। मन में उसके विचार है, संदेह है,
डाउट है। मन में उसके शक है। वह पूछ सकता है, वह
प्रश्न उठा सकता है। और जिज्ञासा का बुनियादी सूत्र उसके पास है।
और सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम जगत
के संबंध में उठाते हैं। सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम
पूछते हैं कि किसने जगत बनाया? सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं,
जो हम पूछते हैं कि ईश्वर है या नहीं? सबसे
बड़े प्रश्न वे हैं, जो हमारे मन के ही कांफ्लिक्ट, मन के ही द्वंद्व से जन्मते हैं। लेकिन अपने ही मन के द्वंद्व को देख पाने
के लिए विचार चाहिए, चिंतन चाहिए, मनन
चाहिए।
अर्जुन सोच पा रहा है, देख पा
रहा है कि मैं जो हिंसा करने जा रहा हूं, उसमें वे ही लोग मर
जाएंगे, जिनके लिए हिंसा करने का कुछ अर्थ हो सकता है। अंधा
नहीं है। और यह अंधा न होना ही उसका कष्ट भी है, उसका
सौभाग्य भी है।
इसे समझ लेना उचित है। अंधा नहीं है, यह उसका
कष्ट है। दुर्योधन कष्ट में नहीं है। दुर्योधन के लिए युद्ध एक रस है। अर्जुन के
लिए युद्ध एक संकट और कष्ट हो गया। सौभाग्य भी यही है। यदि वह इस कष्ट को पार हो
जाता है, तो निर्विचार में पहुंच सकेगा। अगर वह इस कष्ट को
पार हो जाता है, तो परमात्मा में समर्पण को पहुंच सकेगा। अगर
वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो ममत्व को छोड़ने में पहुंच
सकेगा। अगर इस कष्ट को पार नहीं हो पाता, तो निश्चित ही यह
युद्ध उसके लिए विकट संकट होगा, जिसमें वह स्किजोफ्रेनिक हो
जाएगा, जिसमें उसका व्यक्तित्व दो खंडों में टूट जाएगा। या
तो भाग जाएगा, या लड़ेगा बेमन से और हार जाएगा।
जो लड़ाई बेमन से लड़ी जाए, वह हारी
ही जाने वाली है। क्योंकि बेमन से लड़ने का मतलब है, आधा मन
भाग रहा है, आधा मन लड़ रहा है। और जो आदमी अपने भीतर ही
विपरीत दिशाओं में गति करता हो, उसकी पराजय निश्चित है।
दुर्योधन जीतेगा फिर। पूरे मन से लड़ रहा है। कुएं में भी गिर रहा है, तो पूरे मन से गिर रहा है; अंधकार में भी जा रहा है,
तो पूरे मन से जा रहा है।
असल में अंधकार में दो ही व्यक्ति पूरे मन
से जा सकते हैं,
एक तो वह, जो अंधा है। क्योंकि उसे अंधकार और
प्रकाश से कोई अंतर नहीं पड़ता। एक वह, जिसके पास आत्मिक
प्रकाश है। क्योंकि तब अंधकार को, उसका होना ही अंधकार को
मिटा देता है।
अर्जुन या तो दुर्योधन जैसा हो जाए, नीचे गिर
जाए, विचार से विचारहीनता में गिर जाए, तो युद्ध में चला जाएगा। और या कृष्ण जैसा हो जाए, विचार
से निर्विचार में पहुंच जाए, इतना ज्योतिर्मय हो जाए,
इतना ज्योति से भर जाए भीतरी कि देख पाए कि कौन मरता है, कौन मारा जाता है! देख पाए कि यह जो सब हो रहा है, स्वप्न
से ज्यादा नहीं है। या तो इतने बड़े सत्य को देख पाए तो युद्ध में जा सकता है,
या इतने बड़े असत्य को देख पाए कि हम उनको ही मारकर आनंद को उपलब्ध
हो जाएंगे, जिनके लिए मारने की चेष्टा कर रहे हैं! या तो
दुर्योधन के असत्य में उतर जाए, तो अर्जुन निश्चिंत हो जाएगा;
या कृष्ण के सत्य में पहुंच जाए, तो अर्जुन
निश्चिंत हो जाएगा।
अर्जुन एक तनाव है।
नीत्से ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है, ए ब्रिज,
दो अलग-अलग पारों को जोड़ता हुआ। आदमी एक तनाव है। या तो पशु हो जाए,
तो सुख को पा ले; या परमात्मा हो जाए, तो आनंद को पा ले। लेकिन जब तक आदमी है, तब तक सुख
भी नहीं पा सकता; तब तक आनंद भी नहीं पा सकता; तब तक सुख और आनंद के बीच सिर्फ खिंच सकता है; एंग्जाइटी
और तनाव भर हो सकता है।
इसीलिए हम दोनों काम करते हैं जीवन में।
शराब पीकर पशु हो जाते हैं,
थोड़ा सुख मिलता है। सेक्स में थोड़ा सुख मिलता है; पशु में वापस उतर जाते हैं। नीचे गिर जाते हैं विचार से, तो थोड़ा सुख मिलता है।
दुनिया में शराब का इतना आकर्षण किसी और
कारण से नहीं है। शराब हमें वापस पशु में पहुंचा देने की सुविधा बन जाती है; नशा करके
हम वहीं हो जाते हैं, जहां सभी पशु हैं। फिर हम पशु जैसे
निश्चिंत हैं, क्योंकि पशु कोई चिंता नहीं करता। कोई पशु
पागल नहीं होता। सिर्फ सर्कस के पशु पागल होते हैं। क्योंकि सर्कस का पशु करीब-करीब
आदमी की हालत में आ जाता है। आदमी करीब-करीब सर्कस के पशु की हालत में है। कोई पशु
पागल नहीं होता। और किसी पशु के लिए विक्षिप्तता, चिंता,
अनिद्रा, इनसोमेनिया--ऐसी बीमारियां नहीं
आतीं। कोई पशु आत्मघात नहीं करता; स्युसाइड नहीं करता।
क्योंकि आत्मघात के लिए बहुत चिंता इकट्ठी हो जानी जरूरी है।
बड़े मजे की बात है कि कोई पशु बोर्डम अनुभव
नहीं करता; वह कभी ऊबता नहीं है। एक भैंस है; वह रोज वही घास चर
रही है, चरती रहेगी; वह कभी नहीं ऊबती।
ऊबने का कोई सवाल नहीं है। ऊबने के लिए विचार चाहिए। बोर्डम के लिए, ऊब के लिए विचार चाहिए। इसलिए मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है,
उतना ऊबेगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, उतना चिंता से भर जाएगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है,
वह पागल हो सकता है। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है,
वह विक्षिप्त हो सकता है। लेकिन यह एक ही पहलू है।
दूसरा पहलू यह है कि जो विक्षिप्त होने की
स्थिति को पार कर जाए,
वह विमुक्त भी हो सकता है। और जो चिंता को पार कर जाए, वह निश्चिंतता के सजग आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और जो तनाव को पार कर
जाए, वह विश्रांति के उस अनुभव को पा सकता है, जो सिर्फ परमात्मा में विश्राम से उपलब्ध होती है।
अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है; दुर्योधन
पशु का प्रतीक है; कृष्ण परमात्मा के प्रतीक हैं। वहां तीन
प्रतीक हैं उस युद्ध-स्थल पर। अर्जुन डांवाडोल है। वह दुर्योधन और कृष्ण के बीच
डांवाडोल है। उसे निश्चिंतता मिल सकती है, ही कैन बी ऐट ईज़,
अगर वह दुर्योधन हो जाए, अगर वह कृष्ण हो जाए।
अर्जुन रहते कोई सुविधा नहीं है। अर्जुन रहते तनाव है। अर्जुन रहते मुश्किल है।
उसकी मुश्किल यही है कि दुर्योधन हो नहीं सकता; कृष्ण होना
समझ में नहीं आता; और जो है, वहां टिक
नहीं सकता। क्योंकि वह बीच की तरंग भर है, वहां टिका नहीं जा
सकता। कोई भी सेतु मकान बनाने के लिए नहीं होता।
अकबर ने फतेहपुर सीकरी बनाई, तो वहां
एक पुल पर, एक ब्रिज पर उसने वाक्य लिखवाया--सेतु पार करने
को है, सेतु निवास के लिए नहीं है।
ठीक ही है। जो भी आदमी सेतु पर निवास बनाएगा, वह
मुश्किल में पड़ेगा। कहीं भी लौट जाएं--पशु हो जाएं कि परमात्मा हो जाएं--आदमी
नियति नहीं है। आदमी होना संकट है, क्राइसिस है। आदमी अंत
नहीं है। आदमी, अगर ठीक से हम समझें तो, न तो पशु है और न परमात्मा है। न तो वह पशु हो पाता है, क्योंकि पशु को पार कर चुका। और न वह परमात्मा हो पाता है, क्योंकि परमात्मा को पहुंचना है। मनुष्य सिर्फ परमात्मा और पशु के बीच
डोलता हुआ अस्तित्व है।
हम चौबीस घंटे में कई बार दोनों कोनों पर
पहुंच जाते हैं। क्रोध में वही आदमी पशु के निकट आ जाता है, शांति में
वही आदमी परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। हम दिन में चौबीस घंटे में बहुत बार
नर्क और स्वर्ग की यात्रा कर लेते हैं--बहुत बार। क्षण में स्वर्ग में होते हैं,
क्षण में नर्क में उतर जाते हैं। नर्क में पछताते हैं, फिर स्वर्ग की चेष्टा शुरू हो जाती है। स्वर्ग में पैर जमा नहीं पाते,
फिर नर्क में पहुंचना शुरू हो जाता है।
और तनाव का एक नियम है कि तनाव सदा विपरीत
में आकर्षण पैदा कर देता है। जैसे घड़ी का पेंडुलम होता है। वह बाईं तरफ जाता है।
जब बाईं तरफ जाता है,
तब हमें लगता है कि बाईं तरफ जा रहा है। लेकिन जो घड़ी के विज्ञान को
समझते हैं, वे यह भी जानते हैं कि वह बाईं तरफ जाते समय दाईं
तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा
है। वह जितनी दूर बाईं तरफ जाएगा, उतनी ही दूर दाईं तरफ जाने
की ताकत इकट्ठी कर रहा है। असल में वह बाईं तरफ इसीलिए जा रहा है कि दाईं तरफ जा
सके। और दाईं तरफ जाते वक्त इसीलिए जा रहा है कि बाईं तरफ जा सके।
आदमी पूरे समय पशु और परमात्मा के बीच
पेंडुलम की तरह घूम रहा है। अर्जुन आदमी का प्रतीक है। और आज के आदमी का तो और भी
ज्यादा है। आज के आदमी की चेतना ठीक अर्जुन की चेतना है। इसलिए दुनिया में दोनों
बातें एक साथ हैं,
एक ओर मनुष्य अपनी चेतना को समाधि तक ले जाने के लिए आतुर है;
और दूसरी तरफ आदमी एल एस डी से, मैस्कलीन से,
मारिजुआना से, शराब से, सेक्स
से पशु की तरफ ले जाने को आतुर है।
और अक्सर ऐसा होगा कि एक ही आदमी ये दोनों
काम करता हुआ मालूम पड़ेगा। वही आदमी भारत की यात्रा पर आएगा, वही आदमी
अमेरिका में एल एस डी लेता रहेगा। वह दोनों एक साथ कर रहा है।
मनुष्य बेहोश हो जाए, तो पशु हो
सकता है। लेकिन बेहोश ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता। बेहोशी के सुख भी होश में ही
अनुभव हो पाते हैं। बेहोशी में बेहोशी का सुख भी अनुभव नहीं होता। शराब का भी मजा,
जब शराब पीए होता है आदमी, तब पता नहीं चलता।
पता तो तभी चलता है, जब शराब का नशा उतर जाता है। नींद में
जब आप होते हैं, तब नींद का कोई मजा पता नहीं चलता। वह सुबह
जागकर पता चलता है कि बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा थी। बेहोशी के सुख के लिए होश में आना
जरूरी है। और होश में कोई सुख नहीं मालूम पड़ता, इसलिए फिर
बेहोशी में उतरना पड़ता है।
अर्जुन मनुष्य की चेतना है, इसलिए
अदभुत है। गीता इसीलिए अदभुत है कि वह मनुष्य की बहुत आंतरिक मनःस्थिति का आधार
है। मनुष्य की आंतरिक मनःस्थिति अर्जुन के साथ कृष्ण का जो संघर्ष है पूरे समय,
वह जो अर्जुन के साथ कृष्ण का संवाद है या विवाद है, वह जो अर्जुन को खींच-खींचकर परमात्मा की तरफ लाने की चेष्टा है, और अर्जुन वापस शिथिल-गात होकर बैठ जाता है; वह फिर
पशु में गिरना चाहता है; यह जो संघर्ष है, वह अर्जुन के लिए है, दुर्योधन के लिए नहीं।
दुर्योधन निश्चिंत है। अर्जुन भी वैसा हो तो निश्चिंत हो सकता है। वैसा नहीं है।
हममें भी जो दुर्योधन की तरह हैं, वे
निश्चिंत हैं; वे मकान बना रहे हैं; वे
दिल्ली में, राजधानियों के सिंहासन चढ़ रहे हैं; वे धन कमा रहे हैं। हममें भी जो अर्जुन की तरह हैं, वे
बेचैन और परेशान हैं। वे बेचैन हैं इसलिए कि जहां हैं, वह
जगह घर बनाने योग्य नहीं मालूम पड़ती। जहां से आ गए हैं, वहां
से आगे बढ़ गए हैं, पीछे लौटना संभव नहीं है। जहां पहुंचे
नहीं हैं, उसका कोई पता नहीं है कि वह कहां है मार्ग;
वह मंदिर कहां है! उसका कोई पता नहीं है।
धार्मिक आदमी स्वभावतः संकटग्रस्त होता है, क्राइसिस
में होता है। अधार्मिक आदमी क्राइसिस में नहीं होता। इसलिए मंदिरों में बैठा आदमी
ज्यादा चिंतित दिखाई पड़ेगा, बजाय कारागृहों में बैठे आदमी
के। कारागृह में बैठा आदमी इतना चिंतित नहीं मालूम पड़ता है, निश्चिंत
है। एक किनारे पर वह है, वह सेतु पर नहीं है। एक अर्थों में
वह सौभाग्यशाली मालूम पड़ सकता है,र् ईष्या-योग्य, कितना निश्चिंत है! लेकिन उसका सौभाग्य बड़े गहरे अभिशाप को छिपाए है। वह
इसी तट पर रह जाएगा। उसमें अभी मनुष्य की किरण भी पैदा नहीं हुई।
मनुष्य के साथ ही उपद्रव शुरू होता है, मनुष्य के
साथ ही संताप शुरू होता है, क्योंकि मनुष्य के साथ ही
परमात्मा होने की संभावना, पोटेंशियलिटी के द्वार खुलते हैं।
वह अर्जुन पशु होना नहीं चाहता; स्थिति
पशु होने की है; परमात्मा होने का उसे पता नहीं है। बहुत
गहरी अनजान में आकांक्षा परमात्मा होने की ही है, इसीलिए वह
पूछ रहा है; इसीलिए प्रश्न उठा रहा है; इसीलिए जिज्ञासा जगा रहा है। जिसके जीवन में भी प्रश्न हैं, जिसके जीवन में भी जिज्ञासा है, जिसके जीवन में भी
असंतोष है--उसके जीवन में धर्म आ सकता है। जिसके जीवन में नहीं है चिंता, नहीं है प्रश्न, नहीं है संदेह, नहीं है जिज्ञासा, नहीं है असंतोष--उसके जीवन में
धर्म के आने की कोई सुविधा नहीं है।
जो बीज टूटेगा अंकुरित होने को, चिंता में
पड़ेगा। बीज बहुत मजबूत चीज है, अंकुर बहुत कमजोर होता है!
बीज बड़ा निश्चिंत होता है, अंकुर बड़ी चिंता में पड़ जाता है।
अंकुर निकलता है जमीन से पत्थरों को तोड़कर। अंकुर जैसी कमजोर चीज पत्थरों को तोड़कर,
मिट्टी को काटकर बाहर निकलती है, अज्ञात,
अनजाने जगत में, जिसका कोई परिचय नहीं,
कोई पहचान नहीं। कोई बच्चा तोड़ डालेगा; कोई
पशु चर जाएगा; किसी के पैर के नीचे दबेगा! क्या होगा,
क्या नहीं होगा! बीज अपने में रहे, तो बहुत
निश्चिंत है। न किसी बच्चे के पैर के नीचे दबेगा, न कोई
अज्ञात के खतरे हैं; अपने में बंद है।
दुर्योधन बीज में बंद जैसा व्यक्ति है, निश्चिंत
है। अर्जुन अंकुरित है; अंकुर चिंतित है, अंकुर बेचैन है। क्या होगा? फूल आएंगे कि नहीं?
बीज होना छोड़ दिया, अब फूल आएंगे कि नहीं?
फूल के लिए, बढ़ने के लिए आतुर है। वही आतुरता
उसे कृष्ण से निरंतर प्रश्न पुछवाए चली जाती है। इसलिए अर्जुन के मन में चिंता है,
प्रश्न हैं, दुर्योधन के मन में नहीं।
प्रश्न: भगवान श्री, कृपया यह
बताइए कि मनुष्य के सामने द्वंद्वात्मक दशा बार-बार आती रहती है, तो इस द्वंद्व भरी दशा को पार करने के लिए मूल आधार कौन-सा होना चाहिए?
और द्वंद्व भरी दशा को हम विकासोन्मुख किस तरह बना सकें? और यह जो द्वंद्व दशा होती है, उसमें से हमने जो
अपना संकल्प कर लिया या निश्चय कर लिया, तो उसमें मूल चीज
कौन सी होती है हमारे सामने?
अर्जुन के लिए भी यही सवाल है। इस सवाल को
आमतौर से आदमी जैसा हल करता है, वैसा ही अर्जुन भी करना चाहता है। द्वंद्व
मनुष्य का स्वभाव है--मनुष्य का, आत्मा का नहीं, शरीर का नहीं--मनुष्य का द्वंद्व स्वभाव है। द्वंद्व को अगर जल्दबाजी से
हल करने की कोशिश की, तो पशु की तरफ वापस लौट जाना रास्ता
है। शीघ्रता की, तो पीछे लौट जाएंगे। वह परिचित रास्ता है;
वहां वापस जाया जा सकता है। द्वंद्व से गुजरना ही तपश्चर्या है;
धैर्य से द्वंद्व को झेलना ही तपश्चर्या है। और द्वंद्व को झेलकर ही
व्यक्ति द्वंद्व के पार होता है। इसलिए कोई जल्दी से निश्चय कर ले, सिर्फ द्वंद्व को मिटाने के लिए, तो उसका निश्चय काम
का नहीं है, वह नीचे गिर जाएगा; वह
वापस गिर रहा है।
पशु बहुत निश्चयात्मक है; पशुओं में
डाउट नहीं है। बड़े निश्चय में जी रहे हैं; बड़े विश्वासी हैं;
बड़े आस्तिक मालूम होते हैं! पर उनकी आस्तिकता आस्तिकता नहीं है।
क्योंकि जिसने नास्तिकता नहीं जानी, उसकी आस्तिकता का अर्थ
कितना है? और जिसने नहीं कहने का कष्ट नहीं जाना, वह हां कहने के आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है। और जिसने संदेह नहीं किया,
उसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है। लेकिन जिसने संदेह किया और जो संदेह को
जीया और संदेह के पार हुआ, उसकी श्रद्धा का कुछ बल है,
उसकी श्रद्धा की कोई प्रामाणिकता है।
तो एक तो रास्ता यह है कि जल्दी कोई निश्चय
कर लें। और निश्चय करने के बहुत रास्ते आदमी पकड़ लेता है। किसी शास्त्र को पकड़ ले, तो निश्चय
हो जाएगा। शास्त्र निश्चय की भाषा में बोल देगा कि ऐसा-ऐसा करो और विश्वास करो।
जिसने शास्त्र पकड़कर निश्चय किया, उस आदमी ने अपने मनुष्य
होने से इनकार कर दिया। उसे एक अवसर मिला था विकास का, उसने
खो दिया। गुरु को पकड़ लो! जिसने गुरु को पकड़ लिया, उसने अवसर
खो दिया। एक संकट था, जिसमें बेसहारा गुजरने के लिए परमात्मा
ने उसे छोड़ा था, उसने उस संकट से बचाव कर लिया। वह संकट से
बिना गुजरे रह गया। और आग में गुजरता, तो सोना निखरता। वह आग
में गुजरा ही नहीं, वह गुरु की आड़ में हो गया, तो सोना निखरेगा भी नहीं।
निश्चय करने को आपसे नहीं कहता। आप निश्चय
करोगे कैसे? जो आदमी द्वंद्व में है, उसका निश्चय भी द्वंद्व से
भरा होगा। जब द्वंद्व में हैं, तो निश्चय करेंगे कैसे?
द्वंद्व से भरा आदमी निश्चय नहीं कर सकता; करना
भी नहीं चाहिए।
द्वंद्व को जीएं, द्वंद्व
में तपें, द्वंद्व में मरें और खपें, द्वंद्व
को भोगें, द्वंद्व की आग से भागें मत। क्योंकि जो आग दिखाई
पड़ रही है, उसी में कचरा जलेगा और सोना बचेगा। द्वंद्व से
गुजरें; द्वंद्व को नियति समझें। वह मनुष्य की डेस्टिनी है,
वह उसका भाग्य है। उससे गुजरना ही होगा। उसे जीएं। जल्दी न करें।
निश्चय जल्दी न करें।
हां, द्वंद्व से गुजरें, तो निश्चय आएगा। द्वंद्व से गुजरें, तो श्रद्धा आएगी,
लानी नहीं पड़ेगी। लाई गई श्रद्धा का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि
जो श्रद्धा लानी पड़ी है, उसका मतलब ही है कि अभी आने के योग्य
मन न बना था; जल्दी ले आए। जो श्रद्धा बनानी पड़ी है, उसका अर्थ ही है कि पीछे द्वंद्वग्रस्त मन है। वह भीतर जिंदा रहेगा,
ऊपर से पर्त श्रद्धा की हो जाएगी। वह ऊपर-ऊपर काम देगी, समय पर काम नहीं देगी।
जब कठिन समय होगा, मौत सामने
खड़ी होगी। तो बहुत पक्का विश्वास कर लिया था कि आत्मा अमर है; जब गीता पढ़ते थे, तब पक्का विश्वास रहा था। जब रोज
सुबह मंदिर जाते थे, तब पक्का था कि आत्मा अमर है। और जब
डाक्टर पास खड़ा हो जाएगा, और उसका चेहरा उदास दिखाई पड़ेगा,
और घर के लोग भागने-दौड़ने लगेंगे, और नाड़ी की
गति गिरने लगेगी, तब अचानक पता चलेगा कि पता नहीं, आत्मा अमर है या नहीं!
क्योंकि लाख कहें गीताएं, उनके कहने
से आत्मा अमर नहीं हो सकती। आत्मा अमर है, इसलिए वे कहती हैं,
यह दूसरी बात है। लेकिन उनके कहने से आत्मा अमर नहीं हो सकती। और आप
किसी को मान लें, इससे कुछ होने वाला नहीं है। हां, द्वंद्व से गुजरें, पीड़ा को झेलें, वह अवसर है; उससे बचने की कोशिश मत करें।
अर्जुन भी बचने की कोशिश कर रहा है। लेकिन
कृष्ण उसे बचाने की कोशिश नहीं कर रहे; वे पूरे द्वंद्व को खींचते हैं।
अन्यथा कृष्ण कहते कि बेफिक्र रहो, मैं सब जानता हूं। बेकार
की बातचीत मत कर। मुझ पर श्रद्धा रख और कूद जा, ऐसा भी कह
सकते थे। इतनी लंबी गीता कहने की जरूरत न थी।
इतनी लंबी गीता अर्जुन के द्वंद्व के प्रति
बड़ा सम्मान है। और मजा है कि अर्जुन बार-बार वही पूछता है। और कृष्ण हैं कि यह
नहीं कहते कि यह तो तू पूछ चुका! फिर वही पूछता है। फिर वही पूछता है। सारे के
सारे, पूरे के पूरे प्रश्न अर्जुन के अलग-अलग नहीं हैं। सिर्फ शब्दावली अलग है।
बात वह वही पूछ रहा है। उसका द्वंद्व बार-बार लौट आ रहा है। कृष्ण उससे यह नहीं
कहते कि चुप, अश्रद्धा करता है! चुप, अविश्वास
करता है! अर्जुन पूछता है वही-वही दोहरा-दोहराकर। उसका द्वंद्व ही बार-बार नए-नए
रूप लेकर खड़ा हो जाता है।
कृष्ण उसे विश्वास दिलाने को उत्सुक नहीं
हैं। कृष्ण उसे श्रद्धा तक पहुंचाने को जरूर उत्सुक हैं। और विश्वास और श्रद्धा
में बड़ा फर्क है। विश्वास वह है, जो हम संदेह को हल किए बिना ऊपर से आरोपित कर
लेते हैं। श्रद्धा वह है, जो संदेह के गिर जाने से फलित होती
है। श्रद्धा, संदेह की ही यात्रा से मिली मंजिल है। विश्वास,
संदेह के भय से पकड़ लिए गए अंधे आधार हैं।
तो मैं कहूंगा, जीएं
द्वंद्व को, तीव्रता से जीएं, इंटेंसिटी
से जीएं। धीरे-धीरे जीएंगे, तो बहुत समय लगेगा। कुनकुनी आंच
में डाल देंगे सोने को, तो निखरने में जन्म लग सकते हैं।
तीव्रता से जीएं।
द्वंद्व मनुष्य का अनिवार्य परीक्षण है, जिससे वह
परमात्मा तक पहुंचने की योग्यता का निर्णय दे पाता है। जीएं, भागें मत। एस्केप न करें, कंसोलेशंस मत खोजें,
सांत्वनाएं मत बनाएं। जानें कि यही है नियति; द्वंद्व
है। लड़ें, तीव्रता से उतरें इस द्वंद्व में। क्या होगा इसका
परिणाम?
इसके दो परिणाम होंगे। जैसे ही कोई व्यक्ति
अपने चित्त के द्वंद्व में पूरी तरह उतरने को राजी हो जाता है, वैसे ही
उस व्यक्ति के भीतर एक तीसरा बिंदु भी पैदा हो जाता है, दो
के अलावा तीसरी ताकत भी पैदा हो जाती है। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने द्वंद्व को
जीने के लिए राजी होता है, वैसे ही उसके भीतर दो नहीं,
तीन शुरू हो जाते हैं। दि थर्ड फोर्स, वह जो
निर्णय करती है कि जीएंगे द्वंद्व को, वह द्वंद्व के बाहर है;
वह द्वंद्व के भीतर नहीं है।
मैंने सुना है, सेंट
थेरेसा एक ईसाई फकीर औरत हुई है। उसके पास तीन पैसे थे। और एक दिन सुबह उसने गांव
में कहा कि मैं एक बड़ा चर्च बनाना चाहती हूं। मेरे पास काफी पैसे आ गए हैं। लोग
हैरान हुए, क्योंकि कल भी उसको लोगों ने भीख मांगते देखा था।
लोगों ने पूछा कि इतने पैसे अचानक कहां से आ गए, जिससे बड़ा
चर्च बनाने का खयाल है? उसने अपना भिक्षापात्र दिखाया,
उसमें तीन पैसे थे। लोगों ने कहा, पागल तो
नहीं हो गई थेरेसा! वैसे हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ गड़बड़ है!
असल में भगवान की तरफ जो लोग जाते हैं, उनका
दिमाग उनको थोड़ा गड़बड़ दिखाई पड़ता ही है, जो नहीं जाते हैं।
हम पहले ही सोचते थे कि तेरा दिमाग कुछ न
कुछ ढीला है। तीन पैसे से चर्च बनाएगी? थेरेसा ने कहा, मैं हूं, तीन पैसे हैं और परमात्मा भी है। थेरेसा +
तीन पैसे + परमात्मा। उन सबने कहा, वह परमात्मा कहां है?
तो थेरेसा ने कहा कि वह थर्ड फोर्स है, वह
तीसरी शक्ति है; वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी; क्योंकि अभी तुम अपने भीतर तीसरी शक्ति को नहीं खोज सके हो।
जो व्यक्ति अपने भीतर तीसरी शक्ति को खोज
लेता है, वह इस सारे जगत में भी तीसरी शक्ति को तत्काल देखने में समर्थ हो जाता है।
आप द्वंद्व को ही देख रहे हैं, लेकिन यह खयाल नहीं है कि जो
द्वंद्व को देख रहा है और समझ रहा है, वह द्वंद्व में नहीं
हो सकता; वह द्वंद्व के बाहर ही होगा। अगर दो लड़ रहे हैं
आपके भीतर, तो निश्चित ही आप उन दोनों के बाहर हैं, अन्यथा देखेंगे कैसे? अगर उन दोनों में से एक से
जुड़े होते, तब तो एक से आपका तादात्म्य हो गया होता और दूसरे
से आप अलग हो गए होते।
लेकिन आप कहते हैं, द्वंद्व
हो रहा है, मेरे बाएं और दाएं हाथ लड़ रहे हैं। मेरे बाएं और
दाएं हाथ लड़ पाते हैं, क्योंकि इन बाएं और दाएं हाथ के पीछे
मैं एक तीसरी ताकत हूं। अगर मैं बायां हाथ हूं, तो दाएं हाथ
से मेरा क्या आंतरिक द्वंद्व है? वह पराया हो गया। अगर मैं
दायां हाथ नहीं बायां हाथ हूं, तो दायां हाथ पराया हो गया,
आंतरिक द्वंद्व कहां है?
आंतरिक द्वंद्व इसीलिए है कि एक तीसरा भी है, जो देख रहा
है। जो कह रहा है कि मन में बड़ा द्वंद्व है। मन कभी यह कहता है, मन कभी वह कहता है। लेकिन जो मन के द्वंद्व के संबंध में कह रहा है,
यह कौन है?
द्वंद्व में उतरें और इस तीसरे को पहचानते
जाएं। जैसे-जैसे द्वंद्व में उतरेंगे, यह तीसरा साक्षी, यह विटनेस दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। और जिस दिन यह तीसरा दिखाई पड़ा,
उसी दिन से द्वंद्व विदा होने शुरू हो जाएंगे। तीसरा नहीं दिखाई
पड़ता, इसलिए द्वंद्व है। तीसरा दिखाई पड़ता है, तो जोड़ शुरू हो जाता है।
पर द्वंद्व से भागें मत। द्वंद्व की
प्रक्रिया अनिवार्य है। उससे ही गुजरकर, वह जो द्वंद्व के पार है, ट्रांसेंडेंटल है, उसे पाया जाता है।
पूरी गीता उस तीसरे बिंदु पर ही खींचने की
कोशिश है अर्जुन को,
पूरे समय अर्जुन को खींचने की चेष्टा कृष्ण की यही है कि वह तीसरे
को पहचान ले। वह तीसरे को पहचान ले, तीसरे की पहचान के लिए
सारा श्रम है। वह तीसरा सबके भीतर है और सबके बाहर भी है। लेकिन जब तक भीतर न
दिखाई पड़े, तब तक बाहर दिखाई नहीं पड़ सकता है। भीतर दिखाई
पड़े, तो बाहर वही-वही दिखाई पड़ने लगता है।
प्रश्न: भगवान श्री, आपने
धनंजय को सिंबल आफ ह्यूमन एट्रिब्यूट, मानवीय गुणों का
प्रतीक बताया है। और सार्त्र के कथन से, ही इज़ कंडेम्ड टु बी
एंग्जाइटी रिडेन। तो स्वजनों की हत्या के खयाल से धनंजय का कंप जाना क्या मानवीय
नहीं था? युद्धनिवृत्ति का उसका विचार मोहवशात भी क्या
प्रकृति-संगत नहीं था? शेक्सपियर के हेमलेट की तरह अर्जुन का
विषाद भी, टु किल आर नाट टु किल, मारना
या न मारना प्रकार का था। तिलक ने गीता-रहस्य में अर्जुन की विषाद दशा का साम्य
हेमलेट की मनःस्थिति में ढूंढ़ निकाला, क्या यह उचित है?
सार्त्र जो कहता है, वह अर्जुन
लिए बिलकुल ठीक ही कहता है। अर्जुन की भी संकट-अवस्था एक्झिस्टेंशियल ही थी।
सार्त्र, कामू या उनामुनो या जेस्पर या हाइडेगर, पश्चिम में जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं, वे ठीक
अर्जुन की मनःस्थिति में हैं। इसलिए सावधान रहना, पश्चिम में
कृष्ण पैदा हो सकते हैं। क्योंकि जहां अर्जुन की मनःस्थिति हो, वहां कृष्ण के पैदा होने की संभावना हो जाती है। पूरा पश्चिम
एक्झिस्टेंशियल क्राइसिस में है। पूरे पश्चिम के सामने मनुष्य की चिंतातुरता
एकमात्र सत्य होकर खड़ी हो गई है। क्या करें और क्या न करें? ईदर
ऑर, यह या वह? क्या चुनें, क्या न चुनें? कौन-सा मूल्य चुनने योग्य है, कौन-सा मूल्य चुनने योग्य नहीं है--सब संदिग्ध हो गया है।
और ध्यान रहे कि पश्चिम में भी यह जो
अस्तित्ववादी चिंतन पैदा हुआ, यह दो युद्धों के बीच में पैदा हुआ है। सार्त्र
या कामू या उनामुनो पिछले दो महायुद्धों की परिणति हैं। पिछले दो महायुद्धों ने
पश्चिम के चित्त में भी वह स्थिति खड़ी कर दी है, जो अर्जुन
के चित्त में महाभारत के सामने खड़ी हो गई थी। विगत दो युद्धों ने पश्चिम के सारे
मूल्य डगमगा दिए हैं। और अब सवाल यह है कि लड़ना कि नहीं लड़ना? लड़ने से क्या होगा? और ठीक स्थिति वैसी है कि अपने
सब मर जाएंगे, तो लड़ने का क्या अर्थ है! और जब युद्ध की इतनी
विकट स्थिति खड़ी हो जाए, तो शांति के समय में बनाए गए सब
नियम संदिग्ध हो जाएं तो आश्चर्य नहीं है। यह ठीक सवाल उठाया है।
सार्त्र ठीक अर्जुन की मनःस्थिति में है।
खतरा दूसरा है। सार्त्र की मनःस्थिति से खतरा नहीं है। सार्त्र अर्जुन की
मनःस्थिति में है,
लेकिन समझ रहा है, कृष्ण की मनःस्थिति में है।
खतरा वहां है। है अर्जुन की मनःस्थिति में। जिज्ञासा करे, ठीक
है। प्रश्न पूछे, ठीक है। वह उत्तर दे रहा है। खतरा वहां है।
खतरा यहां है कि सार्त्र जिज्ञासा नहीं कर रहा है। सार्त्र पूछ नहीं रहा कि क्या
है ठीक। सार्त्र उत्तर दे रहा है कि कुछ भी ठीक नहीं है। सार्त्र उत्तर दे रहा है
कि कुछ भी ठीक नहीं है, कोई मूल्य नहीं है। अस्तित्व अर्थहीन
है, मीनिंगलेस है।
यह जो उत्तर दे रहा है कि ईश्वर नहीं है जगत
में, आत्मा नहीं है जगत में, मृत्यु के बाद बचना नहीं है
जगत में, सारा का सारा अस्तित्व एक अव्यवस्था है, एक अनार्की है, एक संयोग-जन्य घटना है, इसमें कोई सार नहीं है कहीं भी। यह उत्तर दे रहा है। यहां खतरा है।
अर्जुन भी उत्तर दे सकता था। लेकिन अर्जुन
सिर्फ जिज्ञासा कर रहा है। अगर अर्जुन उत्तर दे, तो खतरे पैदा होंगे। लेकिन
अर्जुन जिज्ञासा कर रहा है। और मैं मानता हूं कि जिसे दिखाई पड़ता हो--जैसा सार्त्र
को दिखाई पड़ता है कि कोई मूल्य नहीं है, एक वैल्युलेसनेस
है--जिसे दिखाई पड़ता है कि कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं।
अगर सच में ही ऐसा दिखाई पड़ता है, तब तो सार्त्र को कुछ कहने
का भी अर्थ नहीं है। चुप हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में मौन ही सार्थक मालूम पड़
सकता है। व्यर्थ है सारी बात।
नहीं, लेकिन सार्त्र मौन नहीं है। आतुर
है कहने को, समझाने को, जो कह रहा है
उससे दूसरों को राजी करने को। तब डर होता है। तब डर यह होता है कि सार्त्र भी भीतर
असंदिग्ध नहीं है कि जो कह रहा है वह ठीक है। शायद सार्त्र दूसरों को समझाकर
दूसरों के चेहरे पर यह देखने को उत्सुक है कि कहीं उनको अगर ठीक लगती हो यह बात,
तो ठीक होगी। मैं भी फिर ठीक मान लूं।
सार्त्र जिज्ञासा करे, वहां तक
ठीक है। लेकिन पश्चिम में एक्झिस्टेंशियलिस्ट विचारक जिज्ञासा को उत्तर बना रहे
हैं। और जब जिज्ञासा उत्तर बनती है, और जब शिष्य गुरु हो
जाता है, और जब पूछना ही बताना बन जाता है, तब एक क्राइसिस आफ वैल्यूज पैदा होती है, जो कि
पश्चिम में पैदा हुई है। सब अस्तव्यस्त हो गया है। सब अस्तव्यस्त हो गया है। उस
अस्तव्यस्तता में कहीं कोई राह नहीं दिखाई पड़ती। नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए नहीं कि राह नहीं है, राह तो सदा है। लेकिन
अगर हम यह मान ही लें कि राह है ही नहीं, यही हमारा उत्तर बन
जाए, तो फिर राह दिखाई पड़नी असंभव है।
अर्जुन यह नहीं मानता। अर्जुन बड़ी जिज्ञासा
कर रहा है कि राह होगी। मैं खोजता हूं, मैं पूछता हूं, आप मुझे बताएं। वह कृष्ण को कह रहा है, आप मुझे
बताएं, आप मुझे समझाएं। मैं अज्ञानी हूं, मुझे कुछ पता नहीं है। विनम्र है। अर्जुन का अज्ञान विनम्र है, सार्त्र का अज्ञान विनम्र नहीं है। सार्त्र का अज्ञान बहुत असर्टिव है।
खतरा है। और जब अज्ञान असर्टिव होता है, जब अज्ञान मुखर होता
है, तो जितने खतरे होते हैं, उतने खतरे
और किसी बात से नहीं होते। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञान मुखर होता है।
अर्जुन पूछ रहा है। वह कहता है, मुझे पता
नहीं है। मैं संदेह में पड़ गया हूं। मैं डूबा जा रहा हूं संकट में, मुझे कोई मार्ग दें। लेकिन मार्ग हो सकता है, इसकी
उसकी खोज जारी है।
मैं मानता हूं कि अर्जुन सार्त्र से ज्यादा
साहसी है। क्योंकि इतनी गहन निराशा में भी मार्ग की खोज बड़े साहस की बात है।
सार्त्र उतना साहसी नहीं है। उसके वक्तव्य बहुत साहसी मालूम पड़ते हैं, उतना
साहसी नहीं है। असल में कई बार ऐसा होता है कि अंधेरी गली में आदमी निकलता है,
तो सीटी बजाता हुआ निकलता है। सीटी बड़ी साहसी मालूम पड़ती है आस-पास
सोए हुए लोगों को। लेकिन सीटी बजाने से साहस पता नहीं चलता, उससे
सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आदमी डर रहा है। वह सीटी साहस का सबूत नहीं होती। वह
सिर्फ भय को छिपाने की चेष्टा होती है।
वह जो केआस, जो अराजकता पश्चिम के सामने
दो महायुद्धों ने प्रकट कर दी है, वह जो नीचे से एक बवंडर
प्रकट हुआ है और भूमि फट गई है, और एक ज्वालामुखी ने मुंह बा
दिया है पश्चिम के सामने, उस ज्वालामुखी को झुठलाने की कोशिश
चल रही है।
है ही नहीं जीवन में कोई अर्थ, इसलिए
अनर्थ से डरने की जरूरत क्या है! है ही नहीं कोई मूल्य, इसलिए
मूल्य की खोज की चिंता भी क्या करनी है! है ही नहीं कोई परमात्मा, तो प्रार्थना करने से क्या फायदा है! है ही नहीं कोई आशा, इसलिए निराशा में भी चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है!
निराशा में भी निश्चिंतता खोजने की चेष्टा, सिर्फ इस
बात की सूचक है कि हृदय बहुत कमजोर है और साहस कम है। असल में आशा जब तीव्र निराशा
में पड़ती है, तभी पता चलता है कि है या नहीं। और जब गहन
अंधकार में ज्योति को खोजने की चेष्टा चलती है, तभी पता चलता
है कि प्रकाश की कोई आकांक्षा, गहरा साहस, गहरी लगन और गहरे संकल्प से जुड़ी है या नहीं जुड़ी है।
पश्चिम की सार्त्रवादी चिंतना निराशा को
स्वीकार कर लेने की है। निराशा है। इससे पश्चिम उबरेगा नहीं। इसलिए एक्झिस्टेंशियलिज्म
और उस तरह के विचारक सिर्फ एक फैशन से ज्यादा नहीं हैं। और फैशन मरनी शुरू हो गई
है, फैशन मर रही है। अब अस्तित्ववाद कोई बहुत जीवित धारणा नहीं है। बच्चे
पश्चिम के उसको भी इनकार कर रहे हैं, वह भी ओल्ड फैशन हो गई
है। छोड़ो यह बकवास भी!
लेकिन सार्त्र की पीढ़ी ने जो निराशा दी है, उसका
दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ी पर दिखाई पड़ रहा है। वह पीढ़ी कहती है कि ठीक है, हम सड़क पर नंगे नाचेंगे; क्योंकि तुम्हीं ने तो कहा
कि कोई अर्थ नहीं है, तो फिर कपड़े पहनने में ही कौन-सा अर्थ
है! तो हम फिर किसी भी तरह के काम-संबंध निर्मित करेंगे; क्योंकि
तुम्हीं ने तो कहा है कि कोई अर्थ नहीं है, तो परिवार का भी
क्या अर्थ है! फिर हम किसी को आदर नहीं देंगे; क्योंकि
तुम्हीं ने तो कहा है कि जब ईश्वर ही नहीं है, तो आदर का
क्या अर्थ है! और हम कल की चिंता न करेंगे।
आज अमेरिका और यूरोप की युनिवर्सिटीज लड़के
खाली करके भाग रहे हैं। उनसे कहते हैं उनके मां-बाप कि पढ़ो, तो वे
कहते हैं, कल का क्या भरोसा? तुम्हीं
ने तो कहा है कि सब अनिश्चित है, तो पढ़-लिखकर भी क्या होगा?
और वे लड़के पूछते हैं कि हिरोशिमा में भी लड़के पढ़ रहे थे कालेज में,
फिर एटम गिर गया और सब समाप्त हो गया। हम भी पढ़ेंगे, तुम एटम तैयार कर रहे हो, किस दिन गिरा दोगे,
कुछ पता नहीं है। तो हमें जी लेने दो, जो
दो-चार क्षण हमें मिले हैं, हमें जी लेने दो।
तो पश्चिम में जो जीवन का एक विस्तार है
टाइम में, समय में जो एक जीवन की यात्रा है, वह एकदम खंडित हो
गई है। क्षण पर टिक गया है; अभी जो है, कर लो; अगले क्षण का कोई भरोसा नहीं है। और अगले
क्षण के भरोसे को करोगे भी क्या? अंततः तो मृत्यु ही है;
अगला क्षण मृत्यु है। टाइम जो है, वह डेथ का
पर्यायवाची हो गया पश्चिम में; समय और मृत्यु एक ही अर्थ के
हो गए। अभी जो है, है; और कोई मूल्य
नहीं है।
अभी एक व्यक्ति ने कई हत्याएं कीं। और जब
अदालत ने उससे पूछा तो उसने कहा, क्या हर्ज है! जब सभी को मर ही जाना है,
तो मैंने मरने में सहायता की है। और वे तो मर ही जाते; उनको मारने से मुझे थोड़ा आनंद मिला है! उसके ले लेने में हर्ज क्या है?
जब कोई मूल्य ही नहीं है, तो ठीक है।
सार्त्र की पीढ़ी पश्चिम को एक खोखलेपन से, एक
हालोनेस से भर गई। क्योंकि उसके पास उत्तर नहीं थे, सिर्फ
प्रश्न थे। और उसने प्रश्नों को ही उत्तर बता दिया।
अगर अर्जुन जीत जाए, तो इस
मुल्क में भी हालोनेस पैदा हो जाए। अर्जुन नहीं जीता और कृष्ण जीत गए। वह एक
संघर्ष था बड़ा अर्जुन और कृष्ण के बीच। अगर अर्जुन को शक सवार हो जाए, और धुन सवार हो जाए गुरु होने की, और वह अपनी
जिज्ञासाओं को उत्तर बना दे, और अपने प्रश्नों को उत्तर बना
दे, और अपने अज्ञान को ज्ञान मान ले, तो
इस मुल्क में भी वही स्थिति पैदा हो जाती, जो पश्चिम में
अस्तित्ववादी चिंतन के कारण पैदा हुई है। स्थिति वही है, लेकिन
पश्चिम के पास अभी भी कृष्ण नहीं हैं। लेकिन इस सिचुएशन में कृष्ण पश्चिम में पैदा
हो सकते हैं।
और इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि
कृष्ण- कांशसनेस जैसे आंदोलन पश्चिम के मन को पकड़ रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि
पश्चिम की सड़कों पर लड़के और लड़कियां ढोल पीटकर और कृष्ण का भजन कर रहे हैं। यह कोई
आश्चर्य नहीं है। यह आकस्मिक नहीं है। इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। इस
जगत में फूल भी खिलता है,
तो लंबे कारण होते हैं। अगर लंदन की सड़क पर कोई हरेकृष्ण का भजन ढोल
पर पीटता हुआ घूमता है, तो यह आकस्मिक नहीं है। यह पश्चिम के
चित्त में कहीं कोई गहरी पीड़ा है।
अर्जुन तो मौजूद हो गया, कृष्ण
कहां हैं? प्रश्न तो खड़ा हो गया, उत्तर
कहां है? उत्तर की तलाश है; उत्तर की
तलाश पैदा हुई है। इसलिए ठीक सवाल था यह।
लेकिन मैं अर्जुन को मनुष्य का प्रतीक कहता
हूं। और अर्जुन को जो ममत्व पकड़ा, वह भी मनुष्य की मनुष्यता है। लेकिन नीत्से का
एक वचन आपसे कहूं। नीत्से ने कहा है, अभागा होगा वह दिन,
जिस दिन मनुष्य मनुष्य से पार होने की आकांक्षा छोड़ देगा। अभागा
होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की प्रत्यंचा पर मनुष्य को पार
करने वाला तीर न खिंचेगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य
मनुष्य होने से तृप्त हो जाएगा। मनुष्य मंजिल नहीं है, पड़ाव
है। उसे पार होना ही है। अर्जुन मंजिल नहीं है, पड़ाव है।
स्वाभाविक है आदमी के लिए, अपनों को
चाहे। स्वाभाविक है आदमी के लिए, अपनों को मारने से डरे।
स्वाभाविक है आदमी के लिए, ईदर-ऑर पकड़े--यह या वह, करूं या न करूं--चिंता आए। लेकिन जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है, वह जीवन का अंत नहीं है। और मनुष्य के लिए जो स्वाभाविक है, वह सिर्फ मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। और उस स्वभाव में चिंता और पीड़ा और
तनाव भी जुड़े हैं; अशांति, दुख और
विक्षिप्तता भी जुड़ी है।
मनुष्य को अगर हम स्वाभाविक समझें, तो वह
स्वाभाविकता वैसी ही है, जैसे कैंसर स्वाभाविक है, टी.बी. स्वाभाविक है। लेकिन टी.बी. के स्वभाव के साथ पीड़ा भी जुड़ी है। ऐसे
ही मनुष्य को अगर हम पशु की तरफ से देखें, तो मनुष्य एक
एवोल्यूशन है, एक विकास है; और अगर
परमात्मा की तरफ से देखें, तो एक डिसीज है, एक बीमारी है। अगर हम पशु की तरफ से देखें, तो
मनुष्य एक विकास है; और अगर परमात्मा की तरफ से देखें,
तो मनुष्य एक बीमारी है, एक डिसीज है।
यह अंग्रेजी का शब्द डिसीज बहुत अच्छा है।
यह दो शब्दों से बना है--डिस, ईज। उसका सिर्फ मतलब होता है बेचैनी, नाट ऐट ईज। तो आदमी एक डिसीज है, एक बेचैनी है,
अगर परमात्मा की तरफ से देखें।
और अगर पशु भी हमारे संबंध में सोचते होंगे, तो वे भी
नहीं सोचते होंगे कि हम विकास हैं। वे भी सोचते होंगे कि हमारे बीच से कुछ लोग
गड़बड़ हो गए हैं, विक्षिप्त हो गए हैं; इनका
दिमाग खराब हो गया है। सिवाय परेशानी के...क्योंकि जब कोई पशु देखता होगा कि आदमी
साइकियाट्रिस्ट के दफ्तर में जाता है, आदमी मनोवैज्ञानिक के
पास अपने मन की जांच के लिए जाता है; जब देखते होंगे आदमी
पागलखाने खड़े करता है; और जब देखते होंगे कि यह आदमी दिन-रात
चिंता में जीता है, तो पशु भी कभी सोचते होंगे। कभी न कभी
उनकी जमात बैठती होगी और वे सोचते होंगे कि इन बेचारों को कितना समझाया था कि मत
आदमी बनो। नहीं माने हैं, और फल भोग रहे हैं! जैसा कि पिता
अक्सर बेटों के संबंध में सोचते हैं।
पशु पिता हैं, हम उसी यात्रा से आते हैं।
जरूर सोचते होंगे कि कितना समझाया, लेकिन बिगड़ गई है यह
जेनरेशन, यह पीढ़ी भटक गई। लेकिन उन्हें पता नहीं कि इस भटकाव
से संभावनाएं खुल गई हैं। इस भटकाव से एक बड़ी यात्रा खुली है।
स्वभावतः, जो घर बैठा है, वह उतना परेशान नहीं होता। जो यात्रा पर निकला है, वह
परेशान होता है। राह की धूल भी है, राह के गङ्ढे भी हैं,
राह की भूलें भी हैं, राह पर भटकन भी है।
अनजान रास्ता है, पास कोई नक्शा नहीं। अनचार्टर्ड है,
खोजना है और चलना है; चलना है और रास्ता बनाना
है। लेकिन जो चलेंगे, भूलेंगे, भटकेंगे,
गिरेंगे, दुखी होंगे, वे
ही पहुंचते भी हैं।
अर्जुन स्वाभाविक है मनुष्य के लिए। लेकिन
अर्जुन खुद पीड़ा से भरा है। वह भी मनुष्य होने की इच्छा में नहीं है। वह कहता है
या तो दुर्योधन हो जाए,
या तो कोई समझा दे कि जो हो रहा है, सब ठीक
है। या कोई ऊपर उठा दे अर्जुन होने से। उसकी चिंता, उसका दुख,
उसकी पीड़ा वही है।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव
परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।
३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
३१।।
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन
वा।। ३२।।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा
भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ
नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल
को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं विजय को नहीं चाहता और राज्य तथा
सुखों को भी नहीं चाहता।
हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है,
अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन
है।
अर्जुन के अंग शिथिल हो गए हैं। मन साथ छोड़
दिया है। धनुष छूट गया है। वह इतना कमजोर मालूम पड़ रहा है कि कहता है, रथ पर मैं
बैठ भी सकूंगा या नहीं, इतनी भी सामर्थ्य नहीं है। यहां
दोत्तीन बातें समझनी जरूरी हैं।
एक तो यह कि शरीर केवल हमारे चित्त का
प्रतिफलन है। गहरे में मन में जो घटित होता है, वह शरीर के रोएं-रोएं तक फलित हो
जाता है। यह अर्जुन बलशाली इतना, अचानक ऐसा बलहीन हो गया कि
रथ पर बैठना उसे कठिन मालूम पड़ रहा है! क्षणभर पहले ऐसा नहीं था। इस क्षणभर में वह
बीमार नहीं हो गया। इस क्षणभर में उसके शरीर में कोई अशक्ति नहीं आ गई। इस क्षणभर
में वह वृद्ध नहीं हो गया। इस क्षणभर में क्या हुआ है?
इस क्षण में एक ही घटना घटी है, उसका मन
क्षीण हो गया; उसका मन दुर्बल हो गया; उसका
मन स्व-विरोधी खंडों में विभाजित हो गया। जहां मन विभाजित होता है विरोधी खंडों
में, तत्काल शरीर रुग्ण, दीन हो जाता
है। जहां मन संयुक्त होता है एक संगीतपूर्ण स्वर में, वहां
शरीर तत्काल स्वस्थ और अविभाजित हो जाता है। उसके धनुष का गिर जाना, उसके हाथ-पैर का कंपना, उसके रोओं का खड़ा हो जाना,
सूचक है। इस बात का सूचक है कि शरीर हमारे मन की छाया से ज्यादा
नहीं है।
नहीं, पहले ऐसा खयाल नहीं था। वैज्ञानिक
कहते रहे हैं कि मन हमारा शरीर की छाया से ज्यादा नहीं है। जो इस भ्रांत-चिंतन को
मानकर सोचते रहे, वे लोग भी यही कहते रहे हैं। बृहस्पति भी
यही कहेंगे, एपिकुरस भी यही कहेगा, कार्ल
माक्र्स और एंजिल्स भी यही कहेंगे, कि वह जो चेतना है,
वह केवल बाई-प्राडक्ट है। वह जो भीतर मन है, वह
केवल हमारे शरीर की उप-उत्पत्ति है; वह केवल शरीर की छाया
है।
अभी अमेरिका में दो मनोवैज्ञानिक थे, जेम्स और
लेंगे। उन्होंने एक बहुत अदभुत सिद्धांत प्रतिपादित किया था, और वर्षों तक स्वीकार किया जाता रहा। जेम्स-लेंगे थियरी उनके सिद्धांत का
नाम था। बड़ी मजे की बात उन्होंने कही थी। उन दोनों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की
थी कि सदा से हम ऐसा समझते रहे हैं कि आदमी भयभीत होता है, इसलिए
भागता है। उन्होंने कहा, नहीं, यह गलत
है। क्योंकि अगर शरीर प्रमुख है और मन केवल उप-उत्पत्ति है, तो
सच्चाई उलटी होनी चाहिए। उन्होंने कहा, मनुष्य चूंकि भागता
है, इसलिए भय अनुभव करता है।
हम सोचते रहे हैं सदा से कि आदमी क्रोधित
होता है, इसलिए मुट्ठियां भिंच जाती हैं; क्रोधित होता है,
इसलिए दांत भिंच जाते हैं; क्रोधित होता है
इसलिए आंखों में खून दौड़ जाता है; क्रोधित होता है, इसलिए श्वास तेजी से चलने लगती है और हमले की तैयारी हो जाती है।
जेम्स-लेंगे ने कहा, गलत है यह
बात। क्योंकि शरीर प्रमुख है, इसलिए घटना पहले शरीर पर घटेगी,
मन में केवल प्रतिफलन होगा। मन सिर्फ एक मिरर है, एक दर्पण! इससे ज्यादा नहीं। इसलिए उन्होंने कहा कि नहीं, बात उलटी है। आदमी चूंकि मुट्ठियां भींच लेता है और आदमी चूंकि दांत कस
लेता है और चूंकि शरीर में खून तेजी से दौड़ता है, श्वास तेज
चलती है, इसलिए क्रोध पैदा होता है।
फिर उन्होंने सिद्ध करने के लिए...और यहां
तर्क का बहुत मजेदार मामला है। और तर्क कभी-कभी कैसे गलत रास्तों पर ले जाता है, वह देखने
जैसा है। उन्होंने कहा, तो मैं यह कहता हूं कि एक आदमी बिना
भागे हुए और बिना शरीर पर भागने का कोई प्रभाव हुए भयभीत होकर बता दे। या एक आदमी
बिना आंखें लाल किए, मुट्ठियां बांधे, दांत
भींचे, क्रोध करके बता दे।
मुश्किल है बात! कैसे बताइएगा क्रोध करके।
तब उन दोनों ने कहा कि तब ठीक है, जब इसके बिना क्रोध नहीं हो सकता, तो क्रोध इनका ही जोड़ है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है।
लेकिन पता नहीं, जेम्स-लेंगे
को किसी ने क्यों नहीं कहा कि इससे उलटा होता है। एक अभिनेता क्रोध करके बता सकता
है, आंखें लाल करके बता सकता है, दांत
भींच सकता है, मुट्ठी भींच सकता है, फिर
भी भीतर उसके कोई क्रोध नहीं होता। और एक अभिनेता प्रेम करके बता सकता है--और
जितना अभिनेता बता सकता है, उतना शायद कोई भी नहीं बता
सकता--भीतर उसके कोई प्रेम नहीं होता है।
यह अर्जुन, जेम्स-लेंगे सिद्धांत के
बिलकुल विपरीत काम कर रहा है; बिलकुल उलटा काम कर रहा है।
जेम्स-लेंगे इसको बिलकुल मानने को राजी नहीं होंगे; कहेंगे,
बिलकुल उलटी बातें कर रहा है। इसे कहना चाहिए कि चूंकि मेरा धनुष
गिरा जाता है, चूंकि मेरे रोएं खड़े हुए जाते हैं, चूंकि मेरा शरीर शिथिल हुआ जाता है, क्योंकि मेरे
अंग निढाल हुए जाते हैं, इसलिए हे केशव! मेरे मन में बड़ी
चिंता पैदा हो रही है।
लेकिन यह ऐसा नहीं कह रहा है। चिंता इसे
पहले पैदा हो गई है। क्योंकि इसके शरीर के शिथिल होने और इसके रोएं खड़े होने का और
कोई भी कारण नहीं है;
बाहर कोई भी कारण नहीं है। एक क्षण में बाहर कुछ भी नहीं बदला है।
बाहर सब वही है; लेकिन भीतर सब बदल गया है। भीतर सब बदल गया
है।
तिब्बत में ल्हासा युनिवर्सिटी में
विद्यार्थियों का भी शिक्षण जो होता था, उसमें भी योग का कुछ वर्ग अनिवार्य
था। और एक योग का नियमित प्रयोग ल्हासा युनिवर्सिटी में चलता था। उसमें भी
विद्यार्थियों को उत्तीर्ण होना जरूरी था। और वह था हीट-योग। वह है शरीर में भीतर
से मन के कारण गर्मी पैदा करने की प्रक्रिया। अजीब! सिर्फ मन से! सिर्फ मन से।
बाहर बर्फ पड़ रही है; और आदमी नग्न खड़ा है, और उसके शरीर से पसीना चू रहा है।
और इतने पर राजी नहीं होते थे वे। और जब
पश्चिम से आए हुए डाक्टरों ने भी इसका परीक्षण किया, तो बहुत हैरान हो गए।
क्योंकि जब विद्यार्थियों की परीक्षा होती थी, तो रात में
खुले मैदान में, बर्फ के पास, झील के
किनारे उन्हें नग्न खड़ा किया जाता। और उनके पास कपड़े, कोट,
कमीज गीले करके रखे जाते, पानी में डुबाकर। और
वे नग्न खड़े हैं। और उस लड़के को सर्वाधिक अंक मिलेंगे, जो
रात अपने शरीर से इतनी गर्मी पैदा करे कि अनेक कपड़े सुखा दे शरीर पर पहनकर! जितने
ज्यादा कपड़े रातभर में वह सुखा देगा, उतने ज्यादा अंक उसको
मिलने वाले हैं!
और जब पश्चिम से आए डाक्टरों के एक दल ने यह
देखा, तो वे दंग रह गए। उन्होंने कहा, जेम्स-लेंगे थियरी
का क्या हुआ? क्योंकि बाहर तो बर्फ पड़ रही है और वे डाक्टर
तो लबादे पर लबादे पहनकर भी भीतर कंपे जा रहे हैं। और ये नग्न खड़े लड़के क्या कर
रहे हैं? क्योंकि इनके शरीर पर जो होना चाहिए, वह हो रहा है। लेकिन मन इनकार कर रहा है। और मन कहे चला जा रहा है कोई
बर्फ नहीं है। और मन कहे चला जा रहा है कि धूप है, तेज गर्मी
है। और मन कहे जा रहा है कि शरीर में आग तप रही है। इसलिए शरीर को पसीना छोड़ना पड़
रहा है।
यह जो अर्जुन के साथ हुआ, वह उसके
मन में पैदा हुए भंवर का शरीर तक पहुंचा हुआ परिणाम है। और हमारी जिंदगी में शरीर
से बहुत कम भंवर मन तक पहुंचते हैं। मन से ही अधिकतम भंवर शरीर तक पहुंचते हैं।
लेकिन हम जिंदगीभर शरीर की ही फिक्र किए चले जाते हैं।
अगर कृष्ण को थोड़ी भी--जिसको तथाकथित
वैज्ञानिक बुद्धि कहें--होती, तो वे अर्जुन को कहते कि मालूम होता है,
तुझे फ्लू हो गया है! अगर उन्होंने माक्र्स को पढ़ा होता, तो वे कहते, मालूम होता है, तेरे
शरीर में किसी हार्मोन की कोई कमी हो गई है। वे कहते, तू चल
और किसी जनरल अस्पताल में भर्ती हो जा। लेकिन उन्होंने यह बिलकुल नहीं कहा। वे
शिथिल-गात होते अर्जुन को कुछ और समझाने लगे; वे उसके मन को
कुछ और समझाने लगे; वे उसके मन को बदलने की कोशिश करने लगे।
जगत में दो ही प्रक्रियाएं हैं, या तो
आदमी के शरीर को बदलने की प्रक्रिया और या आदमी की चेतना को बदलने की प्रक्रिया।
विज्ञान आदमी के शरीर को बदलने की प्रक्रिया पर ध्यान देता है, धर्म मनुष्य की चेतना को बदलने की प्रक्रिया पर ध्यान देता है। वहीं भेद
है। और इसलिए मैं कहता हूं, धर्म विज्ञान से ज्यादा गहरा
विज्ञान है, धर्म विज्ञान से ज्यादा महान विज्ञान है। वह
सुप्रीम साइंस है, वह परम विज्ञान है। क्योंकि वह केंद्र से
शुरू करता है। और वैज्ञानिक बुद्धि निश्चित ही केंद्र से शुरू करेगी। परिधि पर की
गई चोटें जरूरी नहीं कि केंद्र पर पहुंचें, लेकिन केंद्र पर
की गई चोटें जरूरी रूप से परिधि पर पहुंचती हैं।
एक पत्ते को पहुंचाया गया नुकसान जरूरी नहीं
है कि जड़ों तक पहुंचे। अक्सर तो नहीं पहुंचेगा। पहुंचने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन जड़ों को पहुंचाया गया नुकसान पत्तों तक जरूर पहुंच जाएगा; पहुंचना
ही पड़ेगा; पहुंचने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।
इसलिए अर्जुन की इस स्थिति को देखकर, कृष्ण उसे
कहां से पकड़ते हैं? अगर वे शरीर से पकड़ते, तो गीता फिजियोलाजी की एक किताब होती। वह भौतिक-शास्त्र होती। वे उसे
चेतना से पकड़ते हैं, इसलिए गीता एक मनस-शास्त्र बन गई। गीता
के मनस-शास्त्र बनने का प्रारंभ--अर्जुन के शरीर की घटना पर कृष्ण बिलकुल ध्यान ही
नहीं देते। वे न उसकी नाड़ी देखते हैं, न थर्मामीटर लगाते
हैं। वे उसकी फिक्र ही नहीं करते कि उसके शरीर को क्या हो रहा है। वे फिक्र करते
हैं कि उसकी चेतना को क्या हो रहा है। यह थोड़ा विचारणीय है।
जैसा मैंने कहा, आज भी
मनुष्य जाति करीब-करीब अर्जुन की चेतना से ग्रस्त है। उसके शरीर पर भी वे परिणाम
हो रहे हैं। लेकिन हम जो इलाज कर रहे हैं, वे शरीर से शुरू
करने वाले हैं। इसलिए सब इलाज हो जाते हैं, और बीमार बीमार ही
बना रहता है। उसकी चेतना से कोई इलाज शुरू नहीं हो पाता है।
यह अर्जुन कहता है, मेरा मन
साथ छोड़े दे रहा है। मैं बिलकुल निर्वीर्य हो गया, बलहीन हो
गया।
बल क्या है? एक तो बल है जो शरीर की
मांस-पेशियों, मसल्स में होता है। उसमें तो कोई भी फर्क नहीं
पड़ गया है। लेकिन इस क्षण अर्जुन को एक छोटा-सा बच्चा भी धक्का दे दे, तो वह गिर जाएगा। इस क्षण अर्जुन की मसल्स कुछ भी काम नहीं करेंगी। एक
छोटा-सा बच्चा उसे हरा सकता है। यह मस्कुलर ताकत कुछ अर्थ की नहीं मालूम होती है।
एक और बल है, जो संकल्प से, विल से
पैदा होता है। सच तो यह है कि वही बल है, जो संकल्प से पैदा
होता है।
वह जो संकल्प से पैदा होने वाला बल है, वह बिलकुल
ही खो गया है। क्योंकि संकल्प कहां से आए? मन दुविधा में पड़
गया, तो संकल्प खंडित हो जाता है। मन एकाग्र हो, तो संकल्प संगठित हो जाता है। मन दुविधा में द्वंद्वग्रस्त हो जाए,
कांफ्लिक्ट में पड़ जाए, तो संकल्प खो जाता है।
हम सब भी निर्बल हैं, संकल्प नहीं है। वही संकल्प खो गया है।
क्या करूं, क्या न करूं? करना क्या
उचित होगा, क्या उचित नहीं होगा? सब
आधार खो गए पैर के नीचे से। अर्जुन अधर में लटका रह गया है; वह
त्रिशंकु हो गया है।
यह प्रत्येक मनुष्य की स्थिति है। और इसलिए
अदभुत सत्य हैं कुरान में,
और अदभुत सत्य हैं बाइबिल में, और अदभुत सत्य
हैं जेन्दअवेस्ता में, और अदभुत सत्य हैं ताओत्तेह-किंग में,
और दुनिया के अनेक-अनेक ग्रंथों में अदभुत सत्य हैं, लेकिन गीता फिर भी विशिष्ट है, और उसका कुल कारण
इतना है कि वह धर्मशास्त्र कम, मनस-शास्त्र, साइकोलाजी ज्यादा है। उसमें कोरे स्टेटमेंट्स नहीं हैं कि ईश्वर है और
आत्मा है। उसमें कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं हैं; कोई
दार्शनिक तर्क नहीं हैं। गीता मनुष्य जाति का पहला मनोविज्ञान है; वह पहली साइकोलाजी है। इसलिए उसके मूल्य की बात ही और है।
अगर मेरा वश चले, तो कृष्ण
को मनोविज्ञान का पिता मैं कहना चाहूंगा। वे पहले व्यक्ति हैं, जो दुविधाग्रस्त चित्त, माइंड इन कांफ्लिक्ट,
संतापग्रस्त मन, खंड-खंड टूटे हुए संकल्प को
अखंड और इंटिग्रेट करने की...कहें कि वे पहले आदमी हैं, जो
साइको-एनालिसिस का, मनस-विश्लेषण का उपयोग करते हैं। सिर्फ
मनस-विश्लेषण का ही नहीं, बल्कि साथ ही एक और दूसरी बात का
भी, मनस-संश्लेषण का भी, साइको-सिंथीसिस
का भी।
तो कृष्ण सिर्फ फ्रायड की तरह मनोविश्लेषक
नहीं हैं; वे संश्लेषक भी हैं। वे मन की खोज ही नहीं करते कि क्या-क्या खंड हैं
उसके! वे इसकी भी खोज करते हैं कि वह कैसे अखंड, इंडिविजुएशन
को उपलब्ध हो; अर्जुन कैसे अखंड हो जाए!
और यह अर्जुन की चित्त-दशा, हम सबकी
चित्त-दशा है। लेकिन, शायद संकट के इतने तीव्र क्षण में हम
कभी नहीं होते। हमारा संकट भी कुनकुना, ल्यूक-वार्म होता है,
इसलिए हम उसको सहते चले जाते हैं। इतना ड्रामैटिक, इतना त्वरा से भरा, इतना नाटकीय संकट हो, तो शायद हम भी अखंड होने के लिए आतुर हो जाएं।
मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक ने एक
उबलते हुए पानी की बाल्टी में एक मेंढक को डाल दिया। वह मेंढक तत्काल छलांग लगाकर
बाहर हो गया। वह मेंढक अर्जुन की हालत में पड़ गया था। उबलता हुआ पानी, मेंढक
कैसे एडजस्ट करे! छलांग लगाकर बाहर हो गया। फिर उसी मनोवैज्ञानिक ने उसी मेंढक को
एक दूसरी बाल्टी में डाला और उसके पानी को धीरे-धीरे गरम किया, चौबीस घंटे में उबलने तक लाया वह। करता रहा धीरे-धीरे गरम। वह जो मेंढक था,
हम जैसा, राजी होता गया। थोड़ा पानी गरम हुआ,
मेंढक भी थोड़ा गरम हुआ। उस मेंढक ने कहा, अभी
ऐसी कोई छलांग लगाने की खास बात नहीं है; चलेगा। वह
एडजस्टमेंट करता चला गया, जैसा हम सब करते चले जाते हैं।
चौबीस घंटे में वह एडजस्टेड हो गया। जब पानी उबला, तब
एडजस्टेड रहा, क्योंकि अभी उसे कोई फर्क नहीं मालूम पड़ा।
रत्ती-रत्ती बढ़ा। एक रत्ती से दूसरी रत्ती में कोई छलांग लगाने जैसी बात नहीं थी।
उसने कहा कि इतने से राजी हो गए, तो इतने से और सही। वह मर
गया। पानी उबलता रहा, वह उसी में उबल गया, छलांग न लगाई। मेंढक छलांग लगा सकता था। अब मेंढक को छलांग लगाने से
ज्यादा स्वाभाविक और कुछ भी नहीं है, मगर वह भी न हो सका।
अर्जुन उबलते हुए पानी में एकदम पड़ गया है।
इसलिए सिचुएशन ड्रामैटिक है, सिचुएशन एक्सट्रीम है। वह ठीक स्थिति पूरी
उबलती हुई है। इसलिए अर्जुन एकदम धनुषबाण छोड़ दिया। हम अपनी तराजू भी नहीं छोड़
सकते इस तरह, हम अपना गज भी नहीं छोड़ सकते इस तरह, हम अपनी कलम भी नहीं छोड़ सकते इस तरह। और रथ पर ही बैठने में एकदम इतना
कमजोर हो गया! क्या हुआ? संकट से, इतनी
तीव्रता से राजी होना, एडजस्ट होना मुश्किल हो गया।
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि राजी मत होते चले
जाना। नहीं सबको ऐसे मौके नहीं आते कि महाभारत हो हरेक की जिंदगी में। और बड़ी कृपा
है भगवान की,
ऐसा हरेक आदमी को महाभारत का मौका लाना पड़े, तो
कठिनाई होगी बहुत।
लेकिन जिंदगी महाभारत है, पर लंबे
फैलाव पर है! त्वरा नहीं है उतनी। तीव्रता नहीं है उतनी। सघनता नहीं है उतनी।
धीमे-धीमे सब होता रहता है। मौत आ जाती है और हम एडजस्ट होते चले जाते हैं;
हम समायोजित हो जाते हैं। और तब जिंदगी में क्रांति नहीं हो पाती
है।
अर्जुन की जिंदगी में क्रांति निश्चित है।
इधर या उधर, उसे क्रांति से गुजरना ही पड़ेगा। पानी उबलता हुआ है। ऐसी जगह है, जहां उसे कुछ न कुछ करना ही होगा। या तो वह भाग जाए, जैसा कि बहुत लोग भाग जाते हैं। सरल वही होगा। शार्ट कट वही है। निकटतम
यही मालूम पड़ता है, भाग जाए।
इसलिए अधिक लोग जीवन के संकट में से भागने
वाला संन्यास निकाल लेते हैं। अधिक लोग जीवन के संकट में से एस्केपिस्ट रिनंसिएशन
निकाल लेते हैं,
एकदम जंगल भाग जाते हैं। वे कहते हैं, नहीं,
अहमदाबाद नहीं, हरिद्वार जा रहे हैं। अर्जुन
भी वैसी स्थिति में था। हालांकि गीता वे अपने साथ ले जाते हैं। तब बड़ी हैरानी होती
है। हरिद्वार में गीता पढ़ते हैं। अर्जुन भी पढ़ सकता था। हरिद्वार वह भी जाना चाहता
था। लेकिन वह उसको एक गलत आदमी मिल गया, कृष्ण मिल गया। उसने
कहा कि रुक; भाग मत!
क्योंकि भगोड़े परमात्मा तक पहुंच सकते हैं? भगोड़े
परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। जो जीवन के सत्य से भागते हैं, वे परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते हैं। जो जीवन का ही साक्षात्कार करने में
असमर्थ हैं, वे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं।
क्योंकि जो जीवन को ही देखकर शिथिल-गात हो जाते हैं, जिनके
गांडीव छूट जाते हैं हाथ से, जिनके रोएं कंपने लगते हैं और
जिनके प्राण थरथराने लगते हैं--जीवन को ही देखकर--नहीं, परमात्मा
के समक्ष वे खड़े नहीं हो सकेंगे।
जीवन तैयारी है, जीवन
कदम-कदम तैयारी है, उस विराट सत्य के साक्षात्कार की,
एनकाउंटर की। और अर्जुन तो जीवन के एक छोटे से तथ्य से ही भागा चला
जा रहा है! लेकिन भागने की तैयारी उसकी पूरी हो गई है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि वह रथ पर नहीं
चढ़ पाता। वह कहता है,
रथ पर चढ़ने की भी शक्ति नहीं है। लेकिन अगर उससे कहो कि भाग जाओ
जंगल की तरफ, तो वह बड़ी शक्ति पाएगा; अभी
भाग जाएगा। एकदम इतनी तेजी से दौड़ेगा, जितनी तेजी से कभी
नहीं दौड़ा है। जो आदमी जिंदगी से लड़ने की सामर्थ्य नहीं जुटा पा रहा है, वह भागने की जुटा लेता है। सामर्थ्य की तो कमी नहीं मालूम पड़ती, शक्ति की तो कमी नहीं मालूम पड़ती, शक्ति तो है। अगर
कृष्ण उसे कहें, छोड़ सब, तो वह बड़ा
प्रफुल्ल हो जाएगा। लेकिन यह प्रफुल्लता ज्यादा देर टिकेगी नहीं। और अगर अर्जुन
जंगल चला जाए, तो थोड़ी देर में ही उदास हो जाएगा। बैठ भी जाए
वह संन्यासी के वेश में एक वृक्ष के नीचे, तो थोड़ी देर में
जंगल से ही लकड़ी वगैरह बटोरकर वह तीर-कमान बना लेगा। वह आदमी वही है।
क्योंकि हम अपने से भागकर कहीं भी नहीं जा
सकते हैं। हम सबसे भाग सकते हैं, अपने से नहीं भाग सकते हैं। मैं तो अपने साथ ही
पहुंच जाऊंगा। तो थोड़ी देर में जब वह देखेगा कि कोई देखने वाला नहीं है, तो पशु-पक्षियों का शिकार शुरू कर देगा। अर्जुन ही तो भागेगा न! और
पशु-पक्षी तो अपने नहीं हैं; वे तो स्वजन-प्रियजन नहीं हैं।
उन्हें तो मारने में कोई कठिनाई आएगी नहीं। वह मजे से मारेगा।
अर्जुन संन्यासी हो नहीं सकता। क्योंकि जो
संसारी होने की भी हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है, उसके संन्यासी होने का कोई उपाय
नहीं है। असल में संन्यास संसार से भागने का नाम नहीं है, संसार
को पार कर जाने का नाम है।
संन्यास, संसार की जलन और आग का अतिक्रमण
है। और जो उसे पूरा पार कर लेता है, वही अधिकारी हो पाता है।
संन्यास संसार से विरोध नहीं, संन्यास संसार की संपूर्ण समझ
और संघर्ष का फल है।
संन्यास की स्थिति में आ गया है वह। पलायनवादी
हो, तब तो अभी रास्ता है उसके सामने। अगर संघर्ष में जाए, तो कठिनाई है। अब पूरी गीता उसके गात की शिथिलता को मिटाने के लिए है;
उसे वापस संकल्पवान होने के लिए है; उसे वापस
शक्ति, संकल्प, वापस व्यक्तित्व और
आत्मवान बनाने की पूरी चेष्टा है।
और इसलिए मैं जो सारी चर्चा करूंगा, वह इसी
दृष्टि से चर्चा करूंगा कि वह आपके मनस के भी काम की है। और अगर आपके भीतर अर्जुन
न हो, तो आप मत आएं, वह आपके काम की
बात नहीं है। वह बेमानी है। आपके भीतर दुविधा न हो, आपके
भीतर संघर्ष न हो, आपके भीतर बेचैनी न हो, तो आप मत सुनें। उससे कोई संबंध नहीं है। आपके भीतर दुविधा हो, बेचैनी हो, तनाव हो, आपके भीतर
निर्णय में कठिनाई हो, आपके भीतर खंड-खंड आदमी हो और आप भी
भीतर से टूट गए हों, डिसइंटिग्रेटेड हों, तो ही आने वाली बात आपके अर्थ की हो सकती है।
शेष कल सुबह!
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