अध्याय १-२
तीसरा प्रवचन
विषाद और संताप से आत्म-क्रांति की ओर
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।। ३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।। ३१।।
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।। ३२।।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा
मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे
केशव! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण
भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं विजय को नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं
चाहता।
हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है,
अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।
अर्जुन
बड़ी सशर्त बात कह रहा है; बहुत
कंडीशनल,
शर्त
से बंधा उसका वक्तव्य है। सुख के भ्रम से वह मुक्त नहीं हुआ है। लेकिन वह कह रहा
है कि अपनों को मारकर जो सुख मिलेगा, ऐसे सुख से क्या प्रयोजन? अपनों को मारकर जो राज्य
मिलेगा,
ऐसे
राज्य से क्या प्रयोजन? अगर
अपनों को बिना मारे राज्य मिल जाए, और अपनों को बिना मारे सुख मिल जाए, तो अर्जुन लेने को तैयार है।
सुख मिल सकता है,
इसमें
उसे कोई संदेह नहीं है। कल्याण हो सकता है, इसमें उसे कोई संदेह नहीं है। अपनों को
मारने में उसे संदेह है।
इस
मनोदशा को समझ लेना उपयोगी है। हम सब भी ऐसे ही शर्तों में सोचते हैं। वेहेंगर ने एक
किताब लिखी है,
दि
फिलासफी आफ ऐज इफ। जैसे सारा जीवन ही यदि पर खड़ा है। यदि ऐसा हो तो सुख मिल सकेगा, यदि ऐसा न हो तो सुख नहीं मिल
सकेगा। यदि ऐसा हो तो कल्याण हो सकेगा, यदि ऐसा न हो तो कल्याण नहीं हो सकेगा।
लेकिन एक बात निश्चित है कि सुख मिल सकता है, शर्त पूरी होनी चाहिए। और मजे की बात यही है
कि जिसकी शर्त है,
उसे
सुख कभी नहीं मिल सकता है। क्यों? क्योंकि
जिसे सुख का भ्रम नहीं टूटा, डिसइलूजनमेंट
नहीं हुआ,
जिसका
सुख का मोह भंग नहीं हुआ, उसे
सुख नहीं मिल सकता है।
सुख
मिलता है केवल उसे, जो इस
सत्य को जान लेता है कि सुख इस जगत में संभव नहीं है। बड़ा पैराडाक्सिकल, बड़ा उलटा दिखाई पड़ता है। जो
सोचता है,
इस जगत
में सुख मिल सकता है, कुछ
शर्तें भर पूरी हो जाएं, वह
केवल नए-नए दुख खोजता चला जाता है। असल में हर दुख को खोजना हो तो सुख बनाकर ही
खोजना पड़ता है। दुख के खोजने की तरकीब ही यही है कि उसे सुख मानकर खोजना पड़ता है।
जब तक खोजते हैं तब तक सुख मालूम पड़ता है, जब मिल जाता है तब दुख मालूम पड़ता है। लेकिन
मिल जाने के बाद कोई उपाय नहीं है।
अर्जुन
अगर कहे कि सुख संभव कहां है? संसार
में कल्याण संभव कहां है? राज्य
में प्रयोजन कहां है? अगर वह
ऐसा कहे तो उसका प्रश्न बेशर्त है, अनकंडीशनल है। तब उत्तर बिलकुल और होता।
लेकिन वह यह कह रहा है, अपनों
को मारकर सुख कैसे मिलेगा? सुख तो
मिल सकता है,
अपने न
मारे जाएं तो सुख लेने को वह तैयार है। कल्याण तो हो सकता है, राज्य में प्रयोजन भी हो सकता
है, लेकिन अपने न मारे जाएं तो ही
राज्य में प्रयोजन हो सकता है।
राज्य
व्यर्थ है,
सुख
व्यर्थ है,
महावीर
या बुद्ध को जैसा खयाल हुआ, अर्जुन
को वैसा खयाल नहीं है। अर्जुन के सारे वक्तव्य उसकी विरोधी मनोदशा की सूचना देते
हैं। वह जिस चीज को कह रहा है, बेकार
है, उस चीज को बेकार जान नहीं रहा
है। वह जिस चीज को कह रहा है, क्या
प्रयोजन?
क्या
फायदा?
वह
पूरे वक्त मन में जान रहा है कि फायदा है, प्रयोजन है, सिर्फ उसकी शर्त पूरी होनी
चाहिए। उसका यदि अगर पूरा हो जाए, इफ अगर
पूरी हो जाए,
तो सुख
मिलेगा,
इसमें
उसे कोई भी संदेह नहीं है।
मैंने
एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि बर्ट्रेंड रसेल मर रहा है। मजाक ही है। एक
पादरी यह खबर सुनकर कि बर्ट्रेंड रसेल मर रहा है, भागा हुआ पहुंच गया कि हो
सकता है यह जीवनभर का निष्णात नास्तिक, शायद मरते वक्त मौत से डर जाए और भगवान को
स्मरण कर ले। पर उस पादरी की मरते हुए बर्ट्रेंड रसेल के पास भी जाने की सामने
हिम्मत नहीं पड़ती है। वह भीड़ में, जो
मित्रों की इकट्ठी हो गई थी, पीछे
डरा हुआ खड़ा है कि कोई मौका अगर मिल जाए, तो वह बर्ट्रेंड रसेल को कह दे कि अभी भी
माफी मांग लो।
और तभी
बर्ट्रेंड रसेल ने करवट बदली और कहा, हे परमात्मा! तो उसने सोचा, यह ठीक मौका है। इसके मुंह से
भी परमात्मा का नाम निकला है! तो वह पास गया और उसने कहा कि ठीक अवसर है, अभी भी क्षमा मांग लो
परमात्मा से। तो बर्ट्रेंड रसेल ने आंख खोली और उसने कहा, हे परमात्मा! यदि कोई
परमात्मा हो,
तो
बर्ट्रेंड रसेल क्षमा मांगता है; यदि
कोई बर्ट्रेंड रसेल की आत्मा हो; क्षमा
मांगता है,
यदि
कोई पाप किए गए हों; क्षमा
मांगता है,
यदि
क्षमा संभव हो।
सारा
जीवन हमारा यदि से घिरा है। बर्ट्रेंड रसेल साफ है, ईमानदार है। हम इतने साफ नहीं
हैं।
अर्जुन
भी साफ नहीं है,
बहुत कनफ्यूज्ड
है, बहुत उलझा हुआ है। चित्त की
गांठ उसकी बहुत इरछी-तिरछी है। वह कह रहा है, सुख तो मिल सकता है, लेकिन यदि अपने न मरें। वह
कहता है,
राज्य
कल्याणकारी है मिल जाए तो, यदि
अपने न मरें। यह यदि ही उसकी गांठ है। और जो आदमी ऐसा कहता है, उसे--सुख, राज्य, धन, यश--उनका मोह नहीं टूट गया है; उनकी आकांक्षा नहीं टूट गई है; उनकी अभीप्सा नहीं टूट गई है।
पीछे वह बहुत तैयार है, सब मिल
जाए, लेकिन उसके यदि भी पूरे होने
चाहिए।
इसीलिए
कृष्ण को निरंतर पूरे समय उसके साथ श्रम करना पड़ रहा है। वह श्रम उसके
सेल्फ-कंट्राडिक्टरी, उसके
आत्म-विरोधी चिंतन के लिए करना पड़ रहा है। क्योंकि पूरे समय यह दिखाई पड़ रहा है कि
वह जो कह रहा है,
वही
चाह रहा है। जिससे भाग रहा है, उसी को
मांग रहा है। जिससे बचना चाह रहा है, उसी को आलिंगन कर रहा है।
अर्जुन
की यह दशा ठीक से समझ लेनी चाहिए। ऐसा अर्जुन हम सबके भीतर है। जिसे हम एक हाथ से
धकाते हैं,
उसे
दूसरे हाथ से खींचते रहते हैं। जिसे हम एक हाथ से खींचते हैं, उसे दूसरे से धकाते रहते हैं।
एक कदम बाएं चलते हैं, तो
तत्काल एक कदम दाएं चल लेते हैं। एक कदम परमात्मा की तरफ जाते हैं, तो एक कदम तत्काल संसार की तरफ
उठा लेते हैं।
यह जो
अर्जुन है,
ऐसी
बैलगाड़ी की तरह है, जिसमें
दोनों तरफ बैल जुते हैं। वह दोनों तरफ खिंच रहा है। वह कह रहा है, सुख तो है, इसलिए मन भागता है। वह कह रहा
है, लेकिन अपनों को मारना पड़ेगा, इसलिए मन लौटता है। यह
स्व-विरोध है,
स्मरण
रखने योग्य है,
क्योंकि
अर्जुन की पूरी चित्त-दशा इसी स्व-विरोध का फैलाव है।
प्रश्न:
भगवान श्री,
विषादग्रस्त
अर्जुन के चित्त की दशा हमने देखी। अब विषाद होने से व्यक्ति स्वभाव से यानी
आत्मभाव से दूर हो जाता है, स्वभाव
से वियोग होता है। तो गीता के प्रथम अध्याय को अर्जुन-विषादयोग कहा गया है, वह कैसे? विषाद का योग से क्या संबंध
है? या गीता में योग शब्द किस
अर्थ में प्रयुक्त किया गया है?
विषादयोग!
योग के बहुत अर्थ हैं। और योग के ऐसे भी अर्थ हैं, जो साधारणतः योग से हमारी
धारणा है,
उसके
ठीक विपरीत हैं। यह ठीक ही सवाल है कि विषाद कैसे योग हो सकता है? आनंद योग हो सकता है; विषाद कैसे योग हो सकता है?
लेकिन
विषाद इसलिए योग हो सकता है कि वह आनंद का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है, वह आनंद ही सिर के बल खड़ा है।
आप अपने पैर के बल खड़े हों, तो भी
आदमी हैं,
और सिर
के बल खड़े हो जाएं, तो भी
आदमी हैं। जिसको हम स्वभाव से विपरीत जाना कहते हैं, वह भी स्वभाव का उलटा खड़ा हो
जाना है,
इनवर्शन
है। जिसको हम विक्षिप्तता कहते हैं, वह भी स्वभाव का विकृत हो जाना है, परवर्शन है। लेकिन है स्वभाव
ही।
सोने
में मिट्टी मिल जाए, तो
अशुद्ध सोना ही कहना पड़ता है। अशुद्ध है, इसलिए पूछा जा सकता है कि जो अशुद्ध है, उसे सोना क्यों कह रहे हैं? लेकिन सोना ही कहना पड़ेगा।
अशुद्ध होकर भी सोना है। और इसलिए भी सोना कहना पड़ेगा कि अशुद्धि जल सकती है और
सोना वापस सोना हो सकता है।
विषादयोग
इसलिए कह रहे हैं कि विषाद है, विषाद
जल सकता है,
योग बच
सकता है। आनंद की यात्रा हो सकती है। कोई भी इतने विषाद को उपलब्ध नहीं हो गया कि
स्वरूप को वापस लौट न सके। विषाद की गहरी से गहरी अवस्था में भी स्वरूप तक लौटने
की पगडंडी शेष है। उस पगडंडी के स्मरण के लिए ही योग कह रहे हैं।
और वह
जो विषाद है,
वह भी
इसीलिए हो रहा है। विषाद क्यों हो रहा है? एक पत्थर को विषाद नहीं होता। नहीं होता, इसलिए कि उसे आनंद भी नहीं हो
सकता है। विषाद हो इसलिए रहा है, वह भी
एक गहरे अर्थ में आनंद का स्मरण है। इसलिए विषाद हो रहा है। वह भी इस बात का स्मरण
है, गहरे में चेतना कहीं जान रही
है कि जो मैं हो सकता हूं, वह
नहीं हो पा रहा हूं; जो मैं
पा सकता हूं,
वह मैं
नहीं पा रहा हूं। जो संभव है, वह
संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए
विषाद हो रहा है।
इसलिए
जितना ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व होगा, उतने ही गहरे विषाद में उतरेगा। सिर्फ
जड़-बुद्धि विषाद को उपलब्ध नहीं होते हैं। क्योंकि जड़-बुद्धि को तुलना का उपाय भी
नहीं होता;
उसे यह
भी खयाल नहीं होता कि मैं क्या हो सकता हूं। जिसे यह खयाल है कि मैं क्या हो सकता
हूं, जिसे यह खयाल है कि आनंद संभव
है, उसके विषाद की कालिमा बढ़
जाएगी;
उसे
विषाद ज्यादा गहरा दिखाई पड़ेगा। जिसे सुबह का पता है, उसे रात के अंधकार में बहुत
अंधकार दिखाई पड़ेगा। जिसे सुबह का कोई पता नहीं है, उसे रात भी सुबह हो सकती है; और रात भी उसे लग सकती है कि
ठीक है।
अर्जुन
की इस विषाद की स्थिति को भी योग ही कहा जा रहा है, क्योंकि यह विषाद का बोध भी
स्वरूप के विपरीत,
कंट्रास्ट
में दिखाई पड़ता है, अन्यथा
नहीं दिखाई पड़ेगा। ऐसा विषादयोग और किसी को भी उस युद्ध के स्थल पर नहीं हो रहा
है। ऐसा दुर्योधन को नहीं हो रहा है।
कल
रास्ते में जाता था तो एक मित्र ने पूछा कि आपने दुर्योधन की तो बात की, युधिष्ठिर के संबंध में क्या
खयाल है?
क्योंकि
दुर्योधन को नहीं हो रहा है, माना, आदमी भला नहीं है। पर
युधिष्ठिर तो भला आदमी है, धर्मराज
है, उसे क्यों नहीं हो रहा है?
तो यह
भी थोड़ा विचारणीय है। आशा तो करनी चाहिए कि युधिष्ठिर को हो; लेकिन युधिष्ठिर को नहीं हो
रहा है। युधिष्ठिर तथाकथित धार्मिक आदमी है, सोकाल्ड रिलीजस है। और बुरा आदमी भी तथाकथित
धार्मिक आदमी से बेहतर होता है। क्योंकि बुरे आदमी को आज नहीं कल, बुरे की पीड़ा और बुरे का
कांटा चुभने लगेगा। लेकिन तथाकथित धार्मिक आदमी को वह पीड़ा भी नहीं चुभती, क्योंकि वह मानकर ही चलता है
कि धार्मिक है। विषाद कैसे हो? युधिष्ठिर
अपने धार्मिक होने में आश्वस्त है। आश्वासन बड़ा झूठा है। लेकिन आश्वस्त है। असल
में युधिष्ठिर रूढ़िग्रस्त धार्मिक आदमी की प्रतिमा है।
दो तरह
के धार्मिक आदमी होते हैं। एक तो उधार धार्मिक आदमी होते हैं, बारोड, जिनका धर्म अतीत की उधारी से
आता है। और एक वे धार्मिक आदमी होते हैं, जिनका धर्म उनकी आंतरिक क्रांति से आता है।
तो
अर्जुन आंतरिक क्रांति के द्वार पर खड़ा हुआ धार्मिक आदमी है। धार्मिक है नहीं, लेकिन क्रांति के द्वार पर
खड़ा हुआ है। उस पीड़ा से गुजर रहा है, जिससे धर्म पैदा हो सकता है। युधिष्ठिर
तृप्त है;
अतीत
से जो धर्म मिला है, उससे
राजी है। इसलिए धार्मिक भी हो सकते हैं, जुआ भी खेल सकते हैं, तब भी कोई संदेह मन में पैदा
नहीं होता। धार्मिक भी हो सकते हैं, राज्य के लिए युद्ध पर भी जा सकते हैं, तब भी कोई संदेह मन में पैदा
नहीं होता। धार्मिक भी हैं और तथाकथित धर्म के आस-पास सब अधर्म पूरी तरह चलता है; कोई पीड़ा उससे नहीं होती।
आमतौर
से मंदिर में,
मस्जिद
में, गुरुद्वारा में, चर्च में जाने वाला आदमी
युधिष्ठिर से तालमेल रखता है। तृप्त है। गीता रोज पढ़ता है; धार्मिक आदमी है--बात समाप्त
हो गई। गीता कंठस्थ है, पक्का
धार्मिक आदमी है--बात समाप्त हो गई। सब उसे मालूम है, जो मालूम करने योग्य है--बात
समाप्त हो गई। ऐसा आदमी चली हुई कारतूस जैसा होता है, उसमें कुछ चलने को नहीं होता।
खाली कारतूस होता है, उसमें
बारूद नहीं होती। खाली कारतूस अच्छी भी मालूम पड़ती है, क्योंकि उससे बहुत खतरा भी
नहीं होता।
युधिष्ठिर
इन अर्थों में धर्मराज हैं। अतीत से जो धर्म मिला है, उसकी धरोहर है। अतीत से, परंपरा से, रूढ़ि से जो धर्म मिला है, वे उसके प्रतीक, प्रतिमा-पुरुष हैं। उन्हें
कोई अड़चन नहीं होती! तथाकथित धार्मिक आदमी कंप्रोमाइजिंग होता है, समझौतावादी होता है। वह हर
स्थिति में धर्म और अधर्म के बीच समझौते खोज लेता है।
तथाकथित
धार्मिक आदमी हिपोक्रेट होता है, पाखंडी
होता है। उसके दो चेहरे होते हैं। एक उसका धार्मिक चेहरा होता है, जो वह दिखाने के लिए रखता है।
एक उसका असली चेहरा होता है, जो वह
काम चलाने के लिए रखता है। और इन दोनों के बीच कभी कांफ्लिक्ट पैदा नहीं होती। यही
हिपोक्रेसी का सूत्र है, राज
है। इनके बीच कभी द्वंद्व पैदा नहीं होता, कभी उसे ऐसा नहीं लगता कि मैं दो हूं। वह
बड़ा लिक्विड होता है, बड़ा
तरल होता है। वह इधर से उधर बड़ी आसानी से हो जाता है। उसे कोई अड़चन नहीं आती। वह
अभिनेता की तरह है। पात्र अभिनय बदल लेता है, उसे अड़चन नहीं होती। कल वह राम बना था, आज उसे रावण बना दें, उसे कोई अड़चन नहीं आती। वह
रावण की वेशभूषा पहनकर खड़ा हो जाता है; रावण की भाषा बोलने लगता है।
यह जो
तथाकथित धार्मिक आदमी है, यह
अधार्मिक से भी बदतर है, ऐसा
मैं कहता हूं। ऐसा इसलिए कहता हूं कि अधार्मिक अपनी पीड़ा को ज्यादा दिन नहीं झेल
सकेगा;
आज
नहीं कल कांटा चुभेगा। लेकिन जो आदमी समझौते कर लिया है, वह पीड़ा को अनंतकाल तक झेल
सकता है।
इसलिए
युधिष्ठिर को पीड़ा नहीं आती। युधिष्ठिर बिलकुल राजी है। अब यह बड़े मजे की बात है, अधार्मिक आदमी बिलकुल राजी है
उस युद्ध में;
धार्मिक
आदमी बिलकुल राजी है उस युद्ध में; और यह अर्जुन, जो न तो अधार्मिक होने से
राजी है,
न अभी
तथाकथित धर्म से राजी है, यह
चिंतित है।
अर्जुन
बहुत आथेंटिक,
प्रामाणिक
मनुष्य है। उसकी प्रामाणिकता इसमें है कि चिंता है उसे। उसकी प्रामाणिकता इसमें है
कि प्रश्न हैं उसके पास। उसकी प्रामाणिकता इसमें है कि जो स्थिति है, उसमें वह राजी नहीं हो पा रहा
है। यही उसकी बेचैनी, यही
उसकी पीड़ा उसका विकास बनती है।
विषादयोग
इसलिए ही कहा है कि अर्जुन विषाद को उपलब्ध हुआ। धन्य हैं वे, जो विषाद को उपलब्ध हो जाएं।
क्योंकि जो विषाद को उपलब्ध होंगे, उन्हें मार्ग खोजना पड़ता है। अभागे हैं वे, जिनको विषाद भी नहीं मिला, उनको आनंद तो कभी मिलेगा ही
नहीं। धन्य हैं वे, जो
विरह को उपलब्ध हो जाएं, क्योंकि
विरह मिलन की आकांक्षा है। इसलिए विरह भी योग है; मिलन की आकांक्षा है। वह मिलन
के लिए खोजता हुआ मार्ग है। योग तो मिलन ही है; लेकिन विरह भी योग है; क्योंकि विरह भी मिलन की
पुकार और प्यास है। विषाद भी योग है। योग तो आनंद ही है। लेकिन विषाद भी योग है, क्योंकि विषाद आनंद के लिए
जन्मने की प्रक्रिया है। इसलिए विषादयोग कहा है।
प्रश्न:
भगवान श्री,
आपने
अभी बर्ट्रेंड रसेल का नाम लिया। वेद मेहता ने टिलिक से बर्ट्रेंड रसेल की
आत्मतुष्ट अनास्तिकता के पहलू प्रकट करके पूछा कि रसेल को नास्तिक होते हुए भी
जीवन में एंपटीनेस, खालीपन
का अनुभव नहीं हुआ! तब पाल टिलिक ने बताया कि ऐसे लोग आत्मवंचक हो सकते हैं। कितने
लोग बस यूं ही हरे रंग को, ग्रीन
रंग को नहीं देख पाते। क्या रसेल उनमें से एक होगा? अर्जुन इस चर्मचक्षु से
विराट-रूप का भव्य-दर्शन नहीं कर सकता था। और दूसरी बात यह कि पाल टिलिक अल्बर्ट
कामू की नैराश्य,
डिस्पेअर
पर र्वात्तिक देते हुए एक जगह कहते हैं कि डिस्पेअर इन इटसेल्फ इज़ रिलीजस। तो गीता
की दृष्टि से तो आप जो कहते हैं, उससे
यह मालूम होता है कि अर्जुन का विषाद अधार्मिक था! कुछ र्वात्तिक दें।
अर्जुन
का विषाद यदि विषाद में ही तृप्त हो जाए और बंद हो जाए, तो अधार्मिक है; क्लोज्ड हो जाए, तो अधार्मिक है। और अगर विषाद
यात्रा बन जाए,
गंगोत्री
बने और विषाद से गंगा निकले और आनंद के सागर तक पहुंच जाए, तो धार्मिक है। विषाद अपने
में न तो अधार्मिक है, न
धार्मिक है। अगर विषाद बंद करता है व्यक्तित्व को, तो आत्मघाती हो जाएगा। और अगर
विषाद व्यक्तित्व को बहाव देता है, तो आत्म-परिवर्तनकारी हो जाएगा।
पाल
टिलिक जो कहते हैं कि डिस्पेअर इन इटसेल्फ इज़ रिलीजस--वह जो विषाद है, दुख है, वह अपने आप में धार्मिक
है--यह अधूरा सत्य है। पाल टिलिक पूरा सत्य नहीं बोल रहे हैं। यह अधूरा सत्य है, आधा सत्य है। विषाद धार्मिक
बन सकता है। उसकी पासिबिलिटी है, उसकी
संभावना है धार्मिक बनने की, अगर
विषाद बहाव बन जाए।
लेकिन
अगर विषाद वर्तुल बन जाए, सर्कुलर
हो जाए,
अपने
में ही घूमने लगे,
तो
सिर्फ आत्मघाती हो सकता है, धार्मिक
नहीं हो सकता। यह बड़े मजे की बात है कि आत्मघाती व्यक्तित्व उस जगह पहुंच जाता है, जहां से या तो उसे आत्मा
परिवर्तन करनी पड़ेगी या आत्मघात करना पड़ेगा। एक बात तय है कि पुरानी आत्मा से नहीं
चलेगा। तो हम ऐसा भी कह सकते हैं कि स्युसाइड इन इटसेल्फ इज़ रिलीजस, आत्महत्या अपने आप में
धार्मिक है। लेकिन यह अधूरा सत्य होगा, वैसा ही जैसा पाल टिलिक ने कहा।
हां, आत्महत्या की स्थिति में आए
व्यक्ति के सामने दो विकल्प हैं, दो
आल्टरनेटिव हैं,
या तो
वह अपने को मार डाले, जो कि
बिलकुल अधार्मिक होगा; और या
वह अपने को बदल डाले, जो कि
मारने की और भी गहरी कीमिया है, तब वह
धार्मिक होगा।
बुद्ध
उस जगह आ जाते हैं, जहां
या तो आत्महत्या करें या आत्म-रूपांतरण करें। महावीर उस जगह आ जाते हैं, या तो आत्महत्या करें या
आत्म-रूपांतरण करें। अर्जुन भी उस जगह खड़ा है, जहां या तो वह मिट जाए, मर जाए, अपने को समाप्त कर ले, और या अपने को बदले और नए
तलों पर चेतना को ले जाए।
पाल
टिलिक का वक्तव्य अधूरा है। और पाल टिलिक के वक्तव्य के अधूरे होने का कारण है।
क्रिश्चियनिटी का बुनियादी सत्य अधूरा है। ईसाइयत का बुनियादी सत्य अधूरा है। और
इसलिए ईसाइयत ने डिस्पेअर को...और पाल टिलिक जो है, आधुनिक युग में ईसाइयत का बड़ा
व्याख्याकार है। उसके पास पैनी दृष्टि है, लेकिन पैनी दृष्टि जरूरी नहीं है कि पूरी
हो।
ईसाइयत
ने जीसस की जो शकल पकड़ी है, वह
डिस्पेअर की है। ईसाइयत ने जीसस की और कोई शकल नहीं पकड़ी। ईसाइयत के पास जीसस की
हंसती हुई कोई तस्वीर नहीं है। ईसाइयत के पास जीसस का नाचता हुआ, प्रसन्न कोई व्यक्तित्व नहीं
है। ईसाइयत के पास सत-चित-आनंद की घोषणा करने वाले जीसस की कोई धारणा नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं है। उनके
पास प्रतिमा है जीसस की--सूली पर लटके हुए, कंधे पर टिका हुआ सिर, आंखें उदास, मरने की घड़ी! और क्रास इसलिए
ईसाइयत का प्रतीक बन गया--सूली। यह जो डिस्पेअर और सूली है, यह अपने आप में धार्मिक नहीं
है। हो सकती है धार्मिक, नहीं
भी हो सकती है।
और पाल
टिलिक बर्ट्रेंड रसेल के संबंध में गलत बात कहते हैं, पूरी ही तरह गलत कहते हैं, अगर वे यह कहते हैं कि
बर्ट्रेंड रसेल जैसे लोग आत्मवंचक हैं। क्योंकि बर्ट्रेंड रसेल नास्तिक है, ईश्वर पर उसकी कोई आस्था नहीं
है। इसलिए अगर कोई पूछता है पाल टिलिक से कि बर्ट्रेंड रसेल को ईश्वर पर कोई आस्था
नहीं है,
फिर भी
बर्ट्रेंड रसेल को अर्थहीनता, एंपटीनेस, खालीपन का कोई बोध नहीं होता
है, जैसा सार्त्र को होता है या
कामू को या किसी और को होता है। बर्ट्रेंड रसेल को क्यों नहीं होता? अगर वे नास्तिक हैं, तो उन्हें खालीपन का अनुभव
होना चाहिए।
जरूरी
नहीं है। क्योंकि नास्तिकता भी मेरी दृष्टि में दो तरह की होती है, अपने में बंद, और बाहर बहती हुई। जो नास्तिक
अपने में बंद हो जाएगा--जैसा विषाद अपने में बंद हो जाएगा--तो वह खाली हो जाएगा।
क्योंकि जो आदमी नहीं के ऊपर जिंदगी खड़ी करेगा, वह एंप्टी हो जाएगा। जो आदमी कहेगा कि नहीं
मेरे जीवन का आधार है, वह
खाली नहीं होगा तो और क्या होगा!
क्योंकि
नहीं के बीज से कोई अंकुर नहीं निकलता। नहीं के बीज से कोई फूल नहीं खिलते। नहीं
के बीज से कोई जीवन विकसित नहीं होता। जीवन में कहीं न कहीं हां अगर न हो, तो जीवन खाली हो जाएगा। लेकिन
जरूरी नहीं है कि नास्तिकता नहीं पर ही खड़ी हो। नास्तिकता भी हां पर खड़ी हो सकती
है।
और
बर्ट्रेंड रसेल की नास्तिकता हां पर खड़ी है। ईश्वर को इनकार करता है, लेकिन प्रेम को इनकार नहीं
करता। और जो आदमी प्रेम को इनकार नहीं करता, उसको नास्तिक केवल नासमझ आस्तिक ही कह सकते
हैं। क्योंकि जो आदमी प्रेम को इनकार नहीं करता, वह बहुत गहरे में परमात्मा को
स्वीकार कर रहा है। फार्मल नहीं है उसकी स्वीकृति। वह भगवान की मूर्ति रखकर मंदिर
में घंटी नहीं बजाता। लेकिन जो बजाते हैं, वे कोई आस्तिक हैं, ऐसा मानने का कोई भी कारण
नहीं है। क्योंकि घंटी बजाने से आस्तिकता का क्या लेना-देना है? प्रेम का स्वर जिसके जीवन में
हो, उसके जीवन में प्रार्थना
ज्यादा दूर नहीं है। प्रेम का स्वर जिसके जीवन में हो, उसके जीवन में परमात्मा
ज्यादा दूर नहीं है। और प्रेम इनकार करने वाला सूत्र नहीं है, प्रेम स्वीकार करने वाला
सूत्र है। प्रेम बड़ी गहरी हां है पूरे अस्तित्व के प्रति।
तो मैं
बर्ट्रेंड रसेल को नास्तिक सिर्फ औपचारिक अर्थों में कहता हूं। औपचारिक अर्थों में
बर्ट्रेंड रसेल नास्तिक है। जिस तरह औपचारिक अर्थों में बहुत से लोग आस्तिक हैं।
लेकिन बर्ट्रेंड रसेल की नास्तिकता आस्तिकता की तरफ बहती हुई है; बहती हुई है, उसमें बहाव है; वह खुल रही है। वह फूलों में
भी आनंद ले पाता है।
हमारा
आस्तिक मंदिर में जाकर फूल तो चढ़ा देता है, लेकिन फूल में कोई आनंद नहीं ले पाता। फूल
तोड़ते वक्त उसे ऐसा नहीं लगता कि परमात्मा को तोड़ रहा है। पत्थर की एक मूर्ति के
लिए एक जिंदा फूल को तोड़कर चढ़ा देता है। यह आदमी गहरे में नास्तिक है। इसका
अस्तित्व के प्रति कोई स्वीकार-भाव नहीं है। और न अस्तित्व में इसे परमात्मा की
कोई प्रतीति है। इसे कोई प्रतीति नहीं है। इसकी पत्थर की मूर्ति को कोई तोड़ दे, तो यह हत्या पर उतारू हो जाता
है, जिंदा मूर्तियों को तोड़ देता
है। इसके मन में आस्तिकता का कोई संबंध नहीं है। इसकी आस्तिकता आत्मवंचना है।
और
बर्ट्रेंड रसेल की नास्तिकता भी आत्मवंचना नहीं है। क्योंकि मुझे ऐसा दिखाई पड़ता
है कि रसेल सिंसियर, ईमानदार
आदमी है। और ईमानदार आदमी जल्दी आस्तिक नहीं हो सकता। सिर्फ बेईमान आदमी ही जल्दी
आस्तिक हो सकते हैं। क्योंकि जिस आदमी ने ईश्वर को भी बिना खोजे हां भर दी, उससे बड़ा बेईमान आदमी मिल
सकता है! जिस आदमी ने ईश्वर जैसे महत तत्व को किताब में पढ़कर स्वीकार कर लिया, उस आदमी से ज्यादा आत्मवंचक
आदमी, सेल्फ डिसेप्टिव आदमी मिल सकता
है!
ईश्वर
बच्चों का खेल नहीं है। ईश्वर किताबों में पढ़े हुए पाठ से संबंधित नहीं है। ईश्वर
का मां-बाप द्वारा सिखाए गए सिद्धांतों से क्या वास्ता है? ईश्वर तो जीवन की बड़ी
प्राणवंत खोज और पीड़ा है; बड़ी
एंग्विश है। बड़े विषाद से उपलब्ध होगा। बड़े श्रम से, बड़ी तपश्चर्या से, बड़े इनकार से गुजरने पर, बड़ी पीड़ा, बड़े खालीपन से गुजरने पर, बड़ी मुश्किल से, शायद जन्मों की यात्रा, जन्मों-जन्मों की यात्रा और
खोज और जन्मों की भटकन और जन्मों की असफलता और विफलता, तब शायद इस सारी प्रसव-पीड़ा
के बाद,
वह
अनुभव आता है,
जो
व्यक्तित्व को आस्तिकता देता है--तब।
लेकिन
मैं मानता हूं कि बर्ट्रेंड रसेल वैसी यात्रा पर है। इसलिए खाली नहीं है। सार्त्र
खाली है,
उसकी
नास्तिकता क्लोज्ड है; एनसर्किल्ड
इन वनसेल्फ,
अपने
भीतर ही वर्तुल बनाकर घूम रही है। तो अपने भीतर तो आदमी फिर खाली हो जाएगा। और
नहीं पर,
नथिंगनेस
पर जिसने आधार रखे--जिंदगी में कैसे फूल खिलें! उसने मरुस्थल में जिंदगी बोने की
कोशिश की है। वहां फूल नहीं खिल सकते।
नहीं
से बड़ा कोई मरुस्थल नहीं है। और जमीन पर जो मरुस्थल होते हैं, वहां तो ओएसिस भी होते हैं, वहां तो कुछ मरूद्यान भी होते
हैं। लेकिन नहीं के मरुस्थल में कोई ओएसिस, कोई मरूद्यान नहीं होता। वहां कोई हरियाली
नहीं खिलती। हरियाली तो हां में ही खिलती है। आस्तिक ही पूरा हरा हो सकता है।
आस्तिक ही पूरा भरा हो सकता है। आस्तिक ही फूलों को उपलब्ध हो सकता है, नास्तिक नहीं।
लेकिन
नास्तिकता दो तरह की हो सकती है और आस्तिकता भी दो तरह की हो सकती है। नास्तिकता
तब खतरनाक हो जाती है, जब
अपने में बंद हो जाए। और आस्तिकता तब खतरनाक होती है, जब उधार और बारोड होती है।
आस्तिकता का खतरा उधारी में है, नास्तिकता
का खतरा अपने में बंद हो जाने में है। सब उधार आस्तिक हैं पृथ्वी पर! नास्तिक तक
होने की ईमानदारी नहीं है, तो
आस्तिक होने का बहुत विराट कदम बिलकुल असंभव है।
मैं तो
मानता हूं कि नास्तिकता पहली सीढ़ी है आस्तिक होने के लिए। शिक्षण है नास्तिकता।
नहीं कहने का अभ्यास, हां
कहने की तैयारी है। और जिसने कभी नहीं नहीं कहा, उसके हां में कितना बल होगा? और जिसने कभी नहीं कहने की
हिम्मत नहीं जुटाई, उसकी
हां में कितना प्राण, कितनी
आत्मा हो सकती है?
बर्ट्रेंड
रसेल, मैं मानता हूं कि नास्तिकता
के उस दौर से गुजरता हुआ व्यक्ति है, जो खोज रहा है। और बिना खोजे हां नहीं भर
सकता। उचित है;
ठीक है; धार्मिक है। रसेल को मैं
नास्तिक कहता हूं,
लेकिन
धार्मिक। धार्मिक नास्तिक। और तथाकथित आस्तिकों को मैं आस्तिक कहता हूं, लेकिन अधार्मिक। अधार्मिक
आस्तिक। ये शब्द उलटे मालूम पड़ते हैं। लेकिन उलटे नहीं हैं।
अर्जुन
का विषाद बहुत धार्मिक है; उसमें
गति है। अगर वह चाहे, तो
कृष्ण जैसे कीमती आदमी को पास पाकर कह सकता है कि गुरु, तुम जो कहते हो, ठीक है, हम लड़ते हैं! नहीं कहता, कृष्ण से जूझता है। कृष्ण से
जूझने की हिम्मत साधारण नहीं है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व के पास हां करने का मन
होता है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व को न कहने में पीड़ा होती है। कृष्ण जैसे
व्यक्तित्व से प्रश्न उठाने में भी दुख होता है। लेकिन अर्जुन है कि पूछे चला जाता
है, पूछे चला जाता है। वह कृष्ण
के व्यक्तित्व को आड़ में रख देता है; अपने प्रश्न को छोड़ता नहीं। इसका भय नहीं
लेता मन में कि क्या कहेगा कोई, अश्रद्धालु
हूं, संदेह करता हूं, शक उठाता हूं, आस्थावान नहीं हूं। कृष्ण
जैसा व्यक्ति मिला हो, मान लो
गुरु और स्वीकार करो। तब आस्तिकता उधार हो जाती है। लेकिन नहीं, वह प्रामाणिक आस्तिकता की खोज
में है।
इसलिए
इतनी बड़ी गीता की लंबी यात्रा हुई। पूछता चला जाता है, पूछता चला जाता है, पूछता चला जाता है।
कृष्ण
भी अदभुत हैं। अपनी महिमा का जोर डाल सकते थे। अगर गुरुडम का जरा भी मोह होता, तो जरूर डाल देते। लेकिन जो
भी आस्तिक है,
उसे
गुरु होने की आकांक्षा नहीं होती। परमात्मा ही है, तो और व्यक्ति को गुरु होने
की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और जिसे परमात्मा पर भरोसा है, वह प्रश्नों को संदेह की
दृष्टि से नहीं देखता, निंदा
की दृष्टि से भी नहीं देखता। क्योंकि वह जानता है, परमात्मा है। और यह व्यक्ति
पूछ रहा है,
तो
यात्रा कर रहा है,
पहुंच
जाएगा। इसे पहुंचने दें सहज ही।
गंगा
बह चली है,
तो
सागर तक पहुंच जाएगी। अभी उसे पता नहीं कि सागर है; लेकिन बह रही है, तो बेफिक्र रहें, पहुंच जाएगी। वह कहता नहीं कि
रुक जाओ और मान लो। और गंगा अगर रुक जाए और मान ले कि सागर है, तो कभी जान नहीं पाएगी कि
सागर है। रुक जाएगी, एक
डबरा बन जाएगी सड़ा-गला; फिर
उसी को सागर समझेगी।
ऐसा
आस्तिक अर्जुन नहीं है। अगर ठीक से समझें तो अर्जुन और बर्ट्रेंड रसेल के
व्यक्तित्व में कुछ मेल है। जैसा मैंने कल कहा कि सार्त्र और अर्जुन के व्यक्तित्व
में कुछ मेल है। वह मेल इतना है कि जैसा सार्त्र चिंतित है, वैसा अर्जुन चिंतित है, लेकिन यहां मेल टूट जाता है
इसके आगे। सार्त्र अपनी चिंता को सिद्धांत बना लेता है, अर्जुन अपनी चिंता को सिर्फ
प्रश्न बनाता है। यहां उसका बर्ट्रेंड रसेल से मेल है।
बर्ट्रेंड
रसेल एगनॉस्टिक है, जिंदगी
के अंतिम क्षण तक पूछ रहा है। यह दूसरी बात है कि कोई कृष्ण नहीं मिला। कोई हर्जा
भी नहीं है;
आगे
कभी मिल जाएगा। कोई हर्जा नहीं है। लेकिन पूछना वहां है। यात्रा जारी है। मैं
मानता हूं कि इस पृथ्वी पर बर्ट्रेंड रसेल के आस-पास पाल टिलिक जैसे जो आस्तिक हैं, ये इनसिंसियर हैं। पाल टिलिक
आत्मवंचक हो सकते हैं, रसेल
नहीं है। और इस पृथ्वी पर पाल टिलिक और रसेल जैसे व्यक्ति साथ-साथ रहे हैं। मेरी
अपनी समझ है कि बर्ट्रेंड रसेल आस्तिकता की तरफ ज्यादा बढ़ा है, पाल टिलिक नहीं बढ़े; थियॉलाजिस्ट हैं।
और बड़े
मजे की बात है कि दुनिया में धर्म का सबसे बड़ा शत्रु अगर कोई है, तो अधर्म नहीं है, थियॉलाजी है, धर्म-शास्त्र है। धर्म की
सबसे बड़ी शत्रुता शास्त्रीयता में है। तो जो लोग भी शास्त्रीयता में जीते हैं, वे कभी धार्मिक नहीं हो पाते।
उसके कारण हैं,
क्योंकि
धर्म बुद्धि से ऊपर की बात है और शास्त्र सदा बुद्धि से नीचे की बात है। शास्त्र
बुद्धि के ऊपर नहीं जाता और बुद्धि धर्म तक नहीं जाती।
पाल
टिलिक सिर्फ बुद्धि से जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बर्ट्रेंड रसेल बुद्धि को इनकार
कर रहा है;
पूरी
तरह बुद्धि से जी रहा है। लेकिन बुद्धि की स्वीकृति नहीं है। बुद्धि पर भी
बर्ट्रेंड रसेल को संदेह है, वह
स्केप्टिक है बुद्धि के बाबत भी। यह उसे लगता है कि बुद्धि की भी सीमाएं हैं।
अर्जुन
में बड़ा गहरा समन्वय है। रसेल और सार्त्र जैसे इकट्ठे हैं। उसका विषाद धार्मिक है, क्योंकि उसका विषाद श्रद्धा
पर ले जाने वाला है।
येषामर्थे
कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त
इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।। ३३।।
हमें
जिनके लिए राज्य,
भोग और
सुखादिक इच्छित हैं,
वे ही
यह सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर
युद्ध
में खड़े हैं।
पग-पग
पर अर्जुन की भ्रांतियां जुड़ी हैं। कह रहा है अर्जुन कि जिन पिता, पुत्र, मित्र, प्रियजन के लिए हम राज्य-सुख
चाहते हैं...। झूठ कह रहा है। कोई चाहता नहीं। सब अपने लिए चाहते हैं। और अगर
पिता-पुत्र के लिए चाहते हैं, तो
सिर्फ इसलिए कि वे अपने पिता हैं, अपना
पुत्र है। वह जितना अपना उसमें जुड़ा है, उतना ही; इससे ज्यादा नहीं।
हां, यह बात जरूर है कि उनके बिना
सुख भी बड़ा विरस हो जाएगा। क्योंकि सुख तो मिलता कम है, दूसरों को दिखाई पड़े, यह ज्यादा होता है। सुख मिलता
तो न के बराबर है। बड़े से बड़ा राज्य मिल जाए, तो भी राज्य के मिलने में उतना सुख नहीं
मिलता,
जितना
राज्य मुझे मिल गया है, यह मैं
अपने लोगों के सामने सिद्ध कर पाऊं, तो सुख मिलता है।
और
आदमी की चिंतना की सीमाएं हैं। अगर एक महारानी रास्ते से निकलती हो--स्वर्ण
आभूषणों से लदी,
हीरे-जवाहरातों
से लदी--तो गांव की मेहतरानी को कोईर् ईष्या पैदा नहीं होती। क्योंकि महारानी रेंज
के बाहर पड़ती है। मेहतरानी की चिंतना की रेंज नहीं है वह, वह सीमा नहीं है उसकी।
महारानी से कोईर् ईष्या पैदा नहीं होती, लेकिन पड़ोस की मेहतरानी अगर एक नकली कांच का
टुकड़ा भी लटकाकर निकल जाए, तो
प्राण में तीर चुभ जाता है। वह रेंज के भीतर है। आदमी कीर् ईष्याएं, आदमी की महत्वाकांक्षाएं
निरंतर एक सीमा में बंधकर चलती हैं।
अगर आप
यश पाना चाहते हैं, तो यह
यश जो अपरिचित हैं, स्ट्रेंजर्स
हैं, उनके सामने आपको मजा न देगा।
जो अपने हैं,
परिचित
हैं, उनके सामने ही आपको मजा देगा।
क्योंकि जो अपरिचित हैं, उनके
सामने अहंकार को सिद्ध करने में कोई सुख नहीं है। जो अपने हैं, उन्हीं को हराने का मजा है।
जो अपने हैं,
उन्हीं
को दिखाने का मजा है कि देखो, मैं
क्या हो गया और तुम नहीं हो पाए!
जीसस
ने कहीं कहा है कि पैगंबर या तीर्थंकर अपने ही गांव में कभी आदृत नहीं होते।
यद्यपि चाहेंगे अपने ही गांव में आदृत होना; लेकिन हो नहीं सकते। अगर जीसस अपने ही गांव
में गए हों,
तो लोग
कहेंगे,
बढ़ई का
लड़का है। वही न जोसफ बढ़ई का लड़का! कहां से ज्ञान पा लेगा? अभी कल तक लकड़ी काटता था, ज्ञान पा लिया? लोग हंसेंगे। इस हंसने में भी
बढ़ई के लड़के को इतनी ऊंचाई पर स्वीकार करने की कठिनाई है। रेंज के भीतर है। बहुत कठिन
है। कोई प्रोफेट अपने गांव में पुज जाए, बड़ी कठिन बात है। क्योंकि गांव कीर् ईष्या
की सीमा के भीतर है।
विवेकानंद
को जितना आदर अमेरिका में मिलता था, उतना कलकत्ता में कभी नहीं मिला। दो-चार-दस
दिन कलकत्ता लौटकर स्वागत-समारोह हुआ, फिर सब समाप्त हो गया। फिर कलकत्ता में लोग
कहेंगे कि अरे,
वही न, कायस्थ का लड़का है, कितना ज्ञान हो जाएगा!
रामतीर्थ
को अमेरिका में भारी सम्मान मिला, काशी
में नहीं मिला। काशी में एक पंडित ने खड़े होकर कहा कि संस्कृत का अ ब स नहीं आता
और ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हो? पहले संस्कृत सीखो! और बेचारे रामतीर्थ
संस्कृत सीखने गए।
रेंज
है, एक सीमा, एक वर्तुल है। लेकिन शायद
रामतीर्थ को भी इतना मजा न्यूयार्क में सम्मान मिलने से नहीं आ सकता था, जितना काशी में मिलता, तो आता। इसलिए रामतीर्थ भी
कभी नाराज नहीं हुए, अमेरिका
में जब तक थे। कभी दुखी और चिंतित नहीं हुए। काशी में दुखी और चिंतित हो गए।
निरंतर ब्रह्मज्ञान की बात करते थे, काशी में इतनी हिम्मत न जुटा पाए कि कह देते
कि ब्रह्मज्ञान का संस्कृत से क्या लेना-देना! भाड़ में जाए तुम्हारी संस्कृत। इतनी
हिम्मत न जुटा पाए। बल्कि एक टयूटर लगाकर संस्कृत सीखने बैठ गए। यह पीड़ा समझते हैं?
वह जो
अर्जुन कह रहा है निरंतर, सरासर
झूठ कह रहा है। उसे पता नहीं है। क्योंकि झूठ भी आदमी में ऐसा खून में मिला हुआ है
कि उसका पता भी मुश्किल से चलता है। असल में असली झूठ वे ही हैं, जो हमारे खून में मिल गए हैं।
जिन झूठों का हमें पता चलता है, उनकी
बहुत गहराई नहीं है। जिन झूठों का हमें पता नहीं चलता, जिनके लिए हम कांशस भी नहीं
होते, चेतन भी नहीं होते, वे ही झूठ हमारी
हड्डी-मांस-मज्जा बन गए हैं। अर्जुन वैसा ही झूठ बोल रहा है, जो हम सब बोलते हैं।
पति
अपनी पत्नी से कहता है कि तेरे लिए ही सब कर रहा हूं। पत्नी अपने पति से कहती है
कि तुम्हारे लिए ही सब कर रही हूं!
कोई
किसी के लिए नहीं कर रहा है। हम सब अहंकार-केंद्रित होकर जीते हैं। अहंकार की
सीमा-रेखा में जो-जो अपने मालूम पड़ते हैं, उनके लिए भी हम उतना ही करते हैं, जितने से हमारा अपना भरता है।
वह जो अपनापन भरता है, जितना
वे मेरे ईगो और मेरे अहंकार के हिस्से होते हैं, उतना ही हम उनके लिए करते
हैं। वही पत्नी कल अपनी पत्नी न रह जाए, डाइवोर्स का विचार करने लगे, बस फिर सब करना बंद हो जाता
है। जिस मित्र के लिए हम जान देने को तैयार थे, कल उसी की जान भी ले सकते हैं। सब भूल जाता
है। क्यों भूल जाता है? जब तक
वह मैं को मजबूत करता था, तब तक
अपना था। और जब मैं को मजबूत नहीं करता, तब अपना नहीं रह जाता।
नहीं, अर्जुन गलत कह रहा है। उसे
पता नहीं है। उसे पता हो, तब तो
बात और हो जाए। उसे पता पड़ेगा धीरे-धीरे। गलत कह रहा है कि जिनके लिए हम राज्य
चाहते हैं...। नहीं, उसे
कहना चाहिए कि जिनके बिना राज्य चाहने में मजा न रह जाएगा...। चाहते तो अपने ही
लिए हैं,
लेकिन
जिनकी आंखों के सामने चाहने में मजा आएगा कि मिले, जब वे ही न होंगे, तो अपरिचित, अनजान लोगों के बीच राज्य
लेकर भी क्या करेंगे! अहंकार का मजा भी क्या होगा उनके बीच, जो जानते ही नहीं कि तुम कौन
हो! जो जानते हैं कि तुम कौन हो, उन्हीं
के बीच आकाश छूने पर पता चलेगा कि देखो!
ध्यान
रहे, हम अपने दुश्मनों से ही
प्रतियोगिता नहीं कर रहे हैं, अपने
मित्रों से हमारी और भी गहरी प्रतियोगिता है। अपरिचितों से हमारी कोई प्रतिस्पर्धा
नहीं है,
परिचितों
से हमारी असली प्रतिस्पर्धा है। इसलिए दो अपरिचित कभी इतने बड़े दुश्मन नहीं हो
सकते, जितने दो सगे भाई हो सकते
हैं। उन्हीं से हमारी प्रतिस्पर्धा है, उन्हीं के सामने सिद्ध करना है कि मैं कुछ हूं।
वह
अर्जुन गलत कह रहा है। लेकिन उसे साफ नहीं है स्वयं को, वह जानकर नहीं कह रहा है।
जानकर जो हम झूठ बोलते हैं, बहुत
ऊपरी हैं। न-जाने जो झूठ हमसे बोले जाते हैं, वे बहुत गहरे हैं। और जन्मों-जन्मों में
हमने उन्हें अपने खून के साथ आत्मसात कर लिया है, एक कर लिया है। वैसा ही एक
झूठ अर्जुन बोल रहा है कि जिनके लिए राज्य चाहा जाता है, वे ही न होंगे तो राज्य का
क्या करूंगा...।
नहीं।
उचित, सही तो यह है कि वह कहे, राज्य तो अपने लिए चाहा जाता
है, लेकिन जिनकी आंखों को चकाचौंध
करना चाहूंगा,
जब वे
आंखें ही न होंगी,
तो
अपने लिए भी चाहकर क्या करूंगा! लेकिन वह अभी यह नहीं कह सकता। इतना ही वह कह सके, तो जगह-जगह गीता का कृष्ण चुप
होने को तैयार है। लेकिन वह जो भी कहता है, उससे पता चलता है कि वह बातें उलटी कह रहा
है।
अगर वह
एक जगह भी सीधी और सच्ची बात कह दे, एक भी असर्शन उसका आथेंटिक हो, तो गीता का कृष्ण तत्काल चुप
हो जाए। कहे,
बात
खतम हो गई। चलो,
वापस
लौटा लेते हैं रथ को। लेकिन वह बात खतम नहीं होती, क्योंकि अर्जुन पूरे समय
दोहरे वक्तव्य बोल रहा है। डबल, दोहरे
वक्तव्य बोल रहा है। बोल कुछ और रहा है, चाह कुछ और रहा है। है कुछ और, कह कुछ और रहा है। उसकी
दुविधा कहीं और गहरे में है, प्रकट
कहीं और कर रहा है।
इसे
हमें समझकर चलना है, तभी हम
कृष्ण के उत्तरों को समझ सकेंगे। जब तक हम अर्जुन के प्रश्नों की दुविधा और अर्जुन
के प्रश्नों का उलझाव न समझ लें, तब तक
कृष्ण के उत्तरों की गहराई और कृष्ण के उत्तरों के सुलझाव को समझना मुश्किल है।
प्रश्न:
भगवान श्री,
स्वजनों
की हत्या में अर्जुन ने जो न च श्रेयोऽनुपश्यामि कहा, वहां वह प्रेयस से स्पष्टतः
दूर ही रहता है। क्या केवल भौतिक उपयोग का संदर्भ है? और यदि ऐसा है, तो वह सच्चा आस्तिक कैसे
बनेगा?
अर्जुन
जहां है,
वहां
भौतिक सुख से ही संबंध हो सकता है। आस्तिक का भौतिक सुख से संबंध नहीं होता, ऐसा नहीं है। आस्तिक का भौतिक
सुख से संबंध होता है, लेकिन
जितना ही वह खोजता है, उतना
ही पाता है कि भौतिक सुख असंभावना है। भौतिक सुख की खोज असंभव होती है, तभी आध्यात्मिक सुख की खोज
शुरू होती है। तो भौतिक सुख का भी आध्यात्मिक सुख की खोज में महत्वपूर्ण
कांट्रिब्यूशन है,
उसका
बहुत महत्वपूर्ण दान है। सबसे महत्वपूर्ण दान भौतिक सुख का यही है कि वह अनिवार्य
रूप से विषाद में और फ्रस्ट्रेशन में ले जाता है।
अब यह
बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में वे ही सीढ़ियां हमें परमात्मा के मंदिर तक नहीं
पहुंचातीं,
जो
परमात्मा के मंदिर से ही जुड़ी हैं। वे सीढ़ियां भी परमात्मा के मंदिर की सीढ़ियों तक
पहुंचाती हैं,
जो
परमात्मा के मंदिर से नहीं जुड़ी हैं। अब यह बड़ी उलटी-सी बात मालूम पड़ेगी। स्वर्ग
तक पहुंचने में वही सीढ़ी काम नहीं आती, जो स्वर्ग से जुड़ी है। उससे भी ज्यादा और
उससे भी पहले,
वह
सीढ़ी काम आती है,
जो
नर्क से जुड़ी है। असल में जब तक नर्क की तरफ की यात्रा पूरी तरह से व्यर्थ न हो
जाए, तब तक स्वर्ग की तरफ की कोई
यात्रा प्रारंभ नहीं होती। जब तक बहुत स्पष्ट रूप से यह साफ न हो जाए कि यह-यह
नर्क का मार्ग है,
तब तक
यह साफ नहीं हो पाता है कि स्वर्ग का मार्ग क्या है।
भौतिक
सुख, आध्यात्मिक सुख तक पहुंचाने
में एक निषेधात्मक चेतावनी का, निगेटिव
चेतावनी का काम करते हैं। बार-बार हम खोजते हैं भौतिक सुख को और बार-बार असफल होते
हैं। बार-बार चाहते हैं और बार-बार नहीं पाते हैं। बार-बार आकांक्षा करते हैं और
बार-बार वापस गिर जाते हैं।
यूनानी
कथाओं में सिसिफस की कथा है। कामू ने उस पर एक किताब लिखी है, दि मिथ आफ सिसिफस। सिसिफस को
सजा दी है देवताओं ने कि वह एक पत्थर को खींचकर पहाड़ के शिखर तक ले जाए। और सजा का
दूसरा हिस्सा यह है कि जैसे ही वह शिखर पर पहुंचेगा--पसीने से लथपथ, हांफता, थका, पत्थर को घसीटता--वैसे ही
पत्थर उसके हाथ से छूटकर वापस खड्ड में गिर जाएगा। फिर वह नीचे जाए, फिर पत्थर को खींचे और चोटी
तक ले जाए। और फिर यही होगा, और
फिर-फिर यही होता रहेगा। अब यह सजा है। और यह इटरनिटी तक होता रहेगा। यह अंत तक
होता रहेगा। अनंत तक होता रहेगा।
अब वह
सिसिफस है कि फिर जाता है खाई में, फिर उठाता है पत्थर को। जब वह पत्थर को
उठाता है,
तो फिर
इसी आशा से कि इस बार सफल हो जाएगा। अब की बार तो पहुंचा ही देगा शिखर पर। बता ही
देगा देवताओं को कि बड़ी भूल में थे। देखो, सिसिफस ने पत्थर पहुंचा ही दिया। फिर खींचता
है। महीनों का अथक श्रम; किसी
तरह टूटता,
मरता
ऊपर शिखर पर पहुंचता है। पहुंच नहीं पाता कि पत्थर हाथ से छूट जाता है और फिर खाई
में गिर जाता है। फिर सिसिफस उतर आता है।
आप
कहेंगे,
बड़ा
पागल है। खाई में क्यों नहीं बैठ जाता?
अगर
इतना आपको पता चल गया, तो
आपकी जिंदगी में धर्म की शुरुआत हो जाएगी। क्योंकि हम सब सिसिफस हैं। कहानी
अलग-अलग होगी,
पहाड़
अलग-अलग होंगे,
पत्थर
अलग- अलग होंगे,
लेकिन
सिसिफस हम सब हैं। हम वही काम बार-बार किए चले जाते हैं, बार-बार शिखर से छूटता है
पत्थर और खाई में गिर जाता है। लेकिन बड़ा मजेदार है आदमी का मन, वह बार-बार अपने को समझा लेता
है कि कुछ भूल-चूक हो गई इस बार मालूम होता है। अगली बार सब ठीक कर लेंगे। फिर
शुरू कर देता है। और ऐसी भूल-चूक अगर एक-दो जन्म में होती हो तो भी ठीक है। जो
जानते हैं,
वे
कहेंगे,
अनंत
जन्मों में ऐसा ही, ऐसा ही, ऐसा ही होता रहा है।
भौतिक
सुख की चाह आध्यात्मिक खोज का अनिवार्य हिस्सा है। क्योंकि उसकी विफलता, उसकी पूर्ण विफलता आध्यात्मिक
आनंद की खोज का पहला चरण है। इसलिए जो भौतिक सुख खोज रहा है, उसको मैं अधार्मिक नहीं कहता।
वह भी धर्म को ही गलत दिशा से खोज रहा है। वह भी आनंद को ही वहां खोज रहा है, जहां आनंद नहीं मिल सकता है।
लेकिन इतना तो पता चले पहले कि नहीं मिल सकता है, तो किसी और दिशा में खोजे।
लाओत्से
से किसी ने पूछा कि तुम कहते हो, शास्त्रों
से कुछ भी नहीं मिला, लेकिन
हमने सुना है कि तुमने शास्त्र पढ़े! तो लाओत्से ने कहा कि नहीं, शास्त्रों से बहुत कुछ मिला।
सबसे बड़ी बात तो यह मिली शास्त्र पढ़कर कि शास्त्रों से कुछ भी नहीं मिल सकता है।
यह कोई कम मिलना है! नहीं कुछ मिल सकता है, लेकिन बिना पढ़े यह पता नहीं चल सकता था। पढ़ा
बहुत, खोजा बहुत, नहीं मिल सकता है, यह जाना। यह कोई कम दाम नहीं
है। निगेटिव है,
इसलिए
हमें खयाल में नहीं आता।
लेकिन
एक बार यह खयाल में आ जाए कि शब्द से, शास्त्र से नहीं मिल सकता है, तो शायद हम अस्तित्व में, जीवन में खोजने निकलें। सुख
में नहीं मिल सकता है सुख, तो फिर
शायद हम शांति में खोजने निकलें। बाहर नहीं मिल सकता है सुख, तो शायद हम भीतर खोजने
निकलें। पदार्थ में नहीं मिल सकता है सुख, तो शायद हम परमात्मा में खोजने निकलें।
लेकिन वह जो दूसरी खोज है, इस
पहली खोज की विफलता से ही शुरू होती है।
तो
अर्जुन अभी जो बात कर रहा है, वह तो
भौतिक सुख की ही कर रहा है कि राज्य से क्या मिलेगा? प्रियजन नहीं रहेंगे, तो क्या मिलेगा? सुख से क्या मिलेगा? लेकिन आध्यात्मिक खोज का पहला
चरण उठाया जा रहा है। इसलिए मैं उसे धार्मिक व्यक्ति ही कहूंगा। धर्म को उपलब्ध हो
गया है,
ऐसा
नहीं; धर्म को उपलब्ध होने के लिए
जो आतुर है,
ऐसा।
प्रश्न:
भगवान श्री,
आपने
कल बताया कि भगवद्गीता मानस-शास्त्र है और आधुनिक मानस-शास्त्र के करीब आ जाता है।
तो क्या आप साइक का अर्थ माइंड करके उसको सीमित करते हैं? क्योंकि साइक का जो मूल अर्थ
है, वह है सोल। तो गीता को सिर्फ
मानस-शास्त्र कहकर आप रुक जाएंगे कि अध्यात्म-शास्त्र भी कहेंगे? स्पष्ट करें।
मैं
गीता को मनोविज्ञान ही कहूंगा। और मन से मेरा अर्थ आत्मा नहीं है। मन से मेरा मतलब
मन ही,
माइंड
ही है। कई को दिक्कत और कठिनाई होगी। वे कहेंगे, यह तो मैं गीता को नीचे गिरा
रहा हूं। अध्यात्म-शास्त्र कहना चाहिए। लेकिन आपसे कहना चाहूंगा कि अध्यात्म का
कोई शास्त्र होता नहीं। ज्यादा से ज्यादा शास्त्र मन का हो सकता है। हां, मन का शास्त्र वहां तक पहुंचा
दे, जहां से अध्यात्म शुरू होता
है, इतना ही हो सकता है।
अध्यात्म-शास्त्र होता ही नहीं; हो
नहीं सकता। अध्यात्म-जीवन होता है, शास्त्र नहीं। अधिक से अधिक जो शब्द कर सकता
है, वह यह है कि वह मन की आखिरी
ऊंचाइयों और गहराइयों को छूने में समर्थ बना दे।
इसलिए
मैं गीता को अध्यात्म-शास्त्र कहकर व्यर्थ न करूंगा। वैसा कोई शास्त्र होता नहीं।
और जो-जो शास्त्र आध्यात्मिक होने का दावा करते हैं--शास्त्र तो क्या करते हैं, शास्त्र को मानने वाले दावा
कर देते हैं। वे-वे अपने शास्त्रों को व्यर्थ ही, व्यर्थ ही मनुष्य की सारी
उपयोगिता के बाहर कर देते हैं।
अध्यात्म
है अनुभव और जो अनिर्वचनीय है, और जो
अवर्णनीय है,
और जो
व्याख्या के पार है, और जो
शब्दों के अतीत है, और
शास्त्र ही जिसे चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि मन से नहीं मिलेगा, मन के आगे मिलेगा--जो मन के
आगे मिलेगा,
वह
शब्दों में नहीं लिखा जा सकता है। इसलिए शास्त्र की आखिरी से आखिरी पहुंच मनस है, मन है। उतना पहुंचा दे तो परम
शास्त्र है। और उसके पार जो छलांग लगेगी, वहां अध्यात्म शुरू होगा।
गीता
को मैं मनस-शास्त्र कहता हूं, क्योंकि
गीता में वहां तक पहुंचाने के सूत्र हैं उसमें, जहां से छलांग, दि जंप, जहां से छलांग लग सकती है।
लेकिन अध्यात्म-शास्त्र कोई शास्त्र होता नहीं। हां, आध्यात्मिक वक्तव्य हो सकते
हैं; जैसे उपनिषद हैं। उपनिषद
आध्यात्मिक वक्तव्य हैं। लेकिन उनमें कोई विज्ञान नहीं है। इसलिए मनुष्य के बहुत
काम के नहीं हैं। गीता बहुत काम की है।
वक्तव्य
है कि ब्रह्म है;
ठीक
है। एक वक्तव्य है कि ब्रह्म है। ठीक है। हमें पता नहीं है। जो जानता है, वह कहता है, है। जो नहीं जानता है, वह कहता है, होगा। बेयर स्टेटमेंट है। तो
उपनिषद काम में आ सकता है, जब
आपको अध्यात्म का अनुभव हो जाए। तब आप उपनिषद में पढ़कर कह सकते हैं कि ठीक है, ऐसा मैंने भी जाना है। तो
उपनिषद जो है,
वह
गवाही बन सकता है,
विटनेस
हो सकता है। लेकिन जब आप जान लें, तब।
और मजा
यह है कि जब आप जान लें, तो
उपनिषद की गवाही की कोई जरूरत नहीं होती। आप ही जानते हैं, तो आप जो कहते हैं, वही उपनिषद हो जाता है।
तो
उपनिषद जो है,
वह
ज्यादा से ज्यादा गवाही बन सकता है सिद्ध के लिए। और सिद्ध के लिए कोई गवाही की
जरूरत नहीं है। गीता साधक के लिए उपयोगी हो सकती है। सिद्ध के किसी काम की गीता
नहीं है। लेकिन असली सवाल तो साधक के लिए है। और साधक का असली सवाल आध्यात्मिक नहीं
है।
अर्जुन
का असली सवाल आध्यात्मिक नहीं है। अर्जुन का असली सवाल मानसिक है, साइकोलाजिकल है। उसकी समस्या
ही मानसिक है। इसलिए अगर कोई यह कहे कि उसकी समस्या तो मानसिक है और कृष्ण उसका
आध्यात्मिक हल कर रहे हैं, तो उन
दोनों के बीच फिर कोई कम्युनिकेशन नहीं हो सकता। जहां समस्या है, वहीं समाधान को होना चाहिए, तभी सार्थक होगा। अर्जुन की
समस्या मानसिक है,
उसकी
समस्या आध्यात्मिक नहीं है। उसका उलझाव मानसिक है।
अब यह
बड़े मजे की बात है, आध्यात्मिक
समस्या होती ही नहीं। जहां अध्यात्म है, वहां समस्या नहीं है। और जहां तक समस्या है, वहां तक अध्यात्म नहीं है।
मामला ठीक ऐसा ही है, जैसे
कि मेरे घर में अंधेरा है और मैं आप से कहूं, अंधेरा है। आप कहें कि मैं दीया ले जाकर
देखता हूं,
कहां
है! और आप दीया ले जाएं और अंधेरे को मैं न बता पाऊं। आप कहें, बताओ, कहां है? अब मैं दीया ले आया, अंधेरा कहां है? अब मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा, तो मैं आपसे कहूं कि कृपा कर
दीया बाहर रखकर आइए। आप कहें कि दीया बाहर रख आऊंगा, तो अंधेरे को देखूंगा कैसे? क्योंकि रोशनी चाहिए देखने के
लिए! तो फिर एक ही बात मैं आप से कहूंगा कि फिर अंधेरा नहीं देखा जा सकता, क्योंकि जहां रोशनी है, वहां अंधेरा नहीं है और जहां
अंधेरा है,
वहां
रोशनी नहीं है। और इन दोनों के बीच कोई कम्युनिकेशन नहीं है।
आध्यात्मिक
समस्या जैसी कोई समस्या होती ही नहीं। सब समस्याएं मानसिक हैं। अध्यात्म समस्या
नहीं, समाधान है। जहां अध्यात्म है, वहां कोई समस्या नहीं है। और
जहां कोई समस्या नहीं है, वहां
किसी समाधान की क्या जरूरत है?
अध्यात्म
स्वयं समाधान है। इसलिए अध्यात्म के द्वार का नाम हमने रखा है समाधि।
समाधि
का मतलब है,
यहां
से समाधान शुरू होता है, यहां
से अब समस्याएं नहीं होंगी। समाधि का मतलब है, यहां से अब समाधान शुरू होता है, अब समस्या नहीं; अब आगे प्रश्न नहीं होंगे; अब आगे प्रश्न का कोई उपाय
नहीं है। दरवाजे का नाम समाधि रखा है। इसका मतलब यह है कि दरवाजे पर आ गए, अब इसके पार समाधान का जगत
है। वहां समाधान ही समाधान होंगे, वहां
अब कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन समाधि के द्वार तक बड़ी समस्याएं होंगी। और वे सब
समस्याएं मानसिक हैं।
अगर
ठीक से समझें,
तो
मतलब है,
दि
माइंड इज़ दि प्राब्लम, मन ही
समस्या है। जिस दिन मन नहीं है, उस दिन
कोई समस्या नहीं है। और अध्यात्म का मतलब है, वह अनुभव, जहां मन नहीं है।
इसलिए
मैं जब गीता को मनस-शास्त्र कहता हूं, तो अधिकतम जो शास्त्र के संबंध में कहा जा
सकता है,
दि
मैग्जिमम,
वह मैं
कह रहा हूं। उससे आगे कहा नहीं जा सकता। और जो लोग उसे आध्यात्मिक बनाएंगे, वे पिटवा देंगे, वे उसे फिंकवा देंगे। क्योंकि
अध्यात्म की कोई समस्या नहीं है किसी की, सबकी समस्या मन की है।
और जब
मैं कहता हूं,
कृष्ण
को मैं कहता हूं मनोविज्ञान का पहला उदघोषक, तो अधिकतम जो कहा जा सकता है, वह मैं कह रहा हूं। हां!
मनःसंश्लेषक,
आत्मा
का कोई संश्लेषण नहीं होता। सारा खेल मन का है। सारा उपद्रव मन का है, मन के पार न कोई उपद्रव है, न कोई समस्या है। इसलिए मन के
पार कोई शास्त्र नहीं है। सब गुरु-शिष्य मन तक हैं, मन के पार कोई गुरु-शिष्य
नहीं है। मन के पार न अर्जुन है, न
कृष्ण हैं। मन के पार जो है, उसका
कोई नाम नहीं है। सब मन के भीतर की सारी बात है। और इसलिए गीता बहुत विशिष्ट है।
आध्यात्मिक
वक्तव्य बहुत हैं,
कीमती
हैं। लेकिन वक्तव्य हैं, बेयर
स्टेटमेंट्स हैं। एक आदमी कहता है, ऐसा है। लेकिन इससे कोई हल नहीं होता। हमारी
समस्याएं किसी और तल पर हैं। हमारी मुसीबतें किसी और तल पर हैं। उस तल पर ही बात
होनी चाहिए। कृष्ण ने ठीक उस तल से बात की है, जहां अर्जुन है। अगर कृष्ण अपने तल से बात
करें, तो गीता अध्यात्म-शास्त्र
होती। लेकिन तब अर्जुन को नहीं समझाया जा सकता था। अर्जुन कहता, माफ करें, होगा। मेरा कोई संबंध नहीं है
इससे। तब उन दोनों के बीच कोई संवाद नहीं हो सकता था। तब एक आदमी आकाश में और एक
आदमी पाताल में होता। अर्जुन के सिर पर से बातें निकल जातीं। कुछ पकड़ में अर्जुन
को नहीं आने वाला था।
लेकिन
कृष्ण,
ठीक
अर्जुन जहां है,
वहां
से उसका हाथ पकड़ते हैं। और वहीं से सारी समस्याओं को सुलझाना शुरू करते हैं। इसलिए
गीता एक बहुत साइकिक, एक
बहुत मनस की गतिमान व्यवस्था है। एक-एक कदम अर्जुन ऊपर उठता है, तो गीता ऊपर उठती है। अर्जुन
नीचे गिरता है,
तो
गीता नीचे गिरती है। अर्जुन जमीन पर गिर जाता है, तो कृष्ण नीचे झुकते हैं।
अर्जुन खड़ा हो जाता है, तो
कृष्ण खड़े हो जाते हैं। पूरे समय अर्जुन केंद्र पर है, कृष्ण नहीं हैं केंद्र पर।
उपनिषद का ऋषि केंद्र पर है; वह
अपने वक्तव्य दे रहा है। वह कह रहा है, जो मैंने जाना, वह मैं कहता हूं। उसका आपसे
कोई संबंध नहीं है। इसलिए मैं गीता को एक शिक्षक के द्वारा कही हुई बातें कह रहा
हूं।
कृष्ण
सिर्फ ब्रह्मज्ञानी की तरह बोलें, तो अर्जुन
से कोई नाता नहीं रह जाएगा। वे बहुत नीचे झुककर अर्जुन के साथ खड़े होकर बोलते हैं।
और धीरे-धीरे जैसे अर्जुन ऊपर उठता है, वैसे ही वे ऊपर उठते हैं। और वहां छोड़ते हैं
गीता के आखिरी सूत्रों को, जहां
से मनस समाप्त हो जाता है और अध्यात्म शुरू हो जाता है। उसके बाद चर्चा बंद हो
जाती है। उसके बाद चर्चा का कोई मतलब नहीं है।
इसलिए
मैंने बहुत जानकर,
कंसीडर्ड--मेरा
जो वक्तव्य है,
ऐसे ही
नहीं कह देता हूं,
कुछ भी
नहीं ऐसे कह देता हूं--बहुत जानकर कहा कि गीता एक साइकोलाजी है।
और
भविष्य सिर्फ उन्हीं ग्रंथों का है, जो साइकोलाजी हैं। भविष्य उन ग्रंथों का
नहीं है,
जो
मेटाफिजिक्स हैं। मेटाफिजिक्स मर गई; अब उसकी कोई जगह नहीं है। अब आदमी कहता है, हमारी समस्याएं हैं, इन्हें हल करिए। और जो इन्हें
हल करेगा,
उसकी
जगह होगी। अब फ्रायड, जुंग, एडलर और फ्रोम और सलीवान, इनकी दुनिया है; अब यह कपिल, कणाद की दुनिया नहीं है। और
आने वाले भविष्य में कृष्ण अगर फ्रायड और जुंग और एडलर की पंक्ति में खड़े होने का
साहस दिखलाते हैं,
तो ही
गीता का भविष्य है; अन्यथा
कोई भविष्य नहीं है।
मैंने
बहुत सोचकर कहा है, बहुत
जानकर कहा है। बाइबिल को मैं नहीं कह सकता कि वह मनस-शास्त्र है, नहीं कह सकता। कुछ वक्तव्य
हैं जो मानसिक हैं, लेकिन
बहुत गहरे में वे अध्यात्म हैं। अध्यात्म का मतलब, जो जाना है जीसस ने, वह वक्तव्य दे रहे हैं। वही
तकलीफ हुई। क्योंकि जीसस आकाश की बातें कर रहे हैं। सुनने वाले जमीन की बातें समझ
रहे हैं,
इसलिए
सूली पर लटकाए गए। सूली पर लटकाने का कारण है। और बहुत-सा कारण जीसस के ऊपर है।
जीसस
कह रहे हैं,
दि
किंग्डम आफ गॉड,
मैं
तुम्हें परमात्मा के राज्य का मालिक बना दूंगा। लोग समझ रहे हैं कि वे जमीन के
राज्य का मालिक बनाने वाले हैं। यहूदियों ने रिपोर्ट कर दी उनकी कि यह आदमी खतरनाक
है, रिबेलियस है। यह कुछ राज्य
हड़पने की कोशिश कर रहा है। और जब उनसे पूछा पायलट ने कि क्या तुम राज्य हड़पने की
कोशिश कर रहे हो?
उन्होंने
कहा कि हम राज्य पर हमला बोल रहे हैं! मगर वह दूसरे राज्य की बात कर रहे हैं, किंग्डम आफ गॉड। वह राज्य
कहीं किसी को पता नहीं है। उन्होंने कहा, यह आदमी खतरनाक है। इस आदमी को सूली पर
लटकाना चाहिए।
जीसस
जहां से बोल रहे हैं, वहां
सुनने वाले लोग नहीं हैं। और जहां जीसस बोल रहे हैं, वहां उनको सुनने वाला एक भी
आदमी नहीं है। इसलिए जीसस और उनके सुनने वाले में कोई तालमेल नहीं है।
कृष्ण
अदभुत शिक्षक हैं। वे अर्जुन को प्रायमरी क्लास से लेकर ठीक युनिवर्सिटी के आखिरी
दरवाजे तक पहुंचाते हैं। बहुत लंबी यात्रा है। बहुत लंबी यात्रा है और बड़ी सूक्ष्म
यात्रा है। और मैं वैसे ही चाहूंगा कि हम वैसे ही यात्रा करें।
प्रश्न:
भगवान श्री,
आपने
बताया कि मनुष्य जन्मों-जन्मों का पुनरावर्तन करता रहता है। तो क्या पुनर्जीवन
पाने के लिए वह पुनरावर्तन जरूरी नहीं है? यदि न हो, तो उसमें से अतिक्रमण कब होता
है? और उसमें क्या गुरु या ग्रंथ
कुछ मदद नहीं कर सकते? कृपया
बताइए।
जीवन
का अनंत पुनरावर्तन है; उपयोगिता
है उसकी;
उससे
प्रौढ़ता आती है। खतरा भी है उसका; उससे
जड़ता भी आ सकती है। एक ही चीज से दुबारा गुजरने में दो संभावनाएं हैं। या तो
दुबारा गुजरते वक्त आप उस चीज को ज्यादा जान लेंगे; और यह भी संभावना है कि
दोबारा गुजरते वक्त आप उतना भी न जान पाएंगे, जितना आपने पहली बार जाना था। दोनों ही
बातें हैं।
आपके
घर के सामने जो वृक्ष लगा है, आप
उसको शायद ही देखते हों, क्योंकि
इतनी बार देखा है कि देखने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। पति-पत्नी शायद ही
एक-दूसरे को देखते हों। तीसत्तीस साल साथ रहते हो गए। देख लिया था बहुत पहले, जब शादी हुई थी। फिर देखने का
कोई मौका नहीं आया। असल में देखने की कोई जरूरत नहीं आई। अपरिचित स्त्री सड़क से
निकलती है,
तो
दिखाई पड़ती है।
असल
में अपरिचित दिखाई पड़ता है, परिचित
के प्रति हम अंधे हो जाते हैं; ब्लाइंड
स्पाट हो जाता है। उसे देखने की कोई जरूरत नहीं होती। कभी आंख बंद करके सोचें कि
आपकी मां का चेहरा कैसा है, तो आप
बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। फिल्म एक्ट्रेस का चेहरा याद आ सकता है; मां का चेहरा आंख बंद करके
देखेंगे,
तो
एकदम खोने लगेगा। थोड़ी देर में रूप-रेखा गड्ड-मड्ड हो जाएगी। मां का चेहरा पकड़ में
नहीं आता! इतना देखा है, इतने
पास से देखा है,
कि कभी
गौर से नहीं देखा। निकटता अपरिचय बन जाती है। निकटता अपरिचय बन जाती है।
तो
अनंत जीवन में एक से ही अनुभव से बार-बार गुजरने पर दो संभावनाएं हैं। और चुनाव आप
पर है कि आप क्या करेंगे; स्वतंत्रता
आपकी है।
आप यह
भी कर सकते हैं कि आप बिलकुल जड़, मेकेनिकल
हो जाएं,
जैसा
कि हम अधिक लोग हो गए हैं। एक यंत्रवत घूमते रहें, बस वही रोज-रोज करते रहें। कल
भी क्रोध किया था,
परसों
भी क्रोध किया था,
उसके
पहले भी,
पिछले
वर्ष भी,
उसके
पहले वर्ष भी। इस जन्म का ही हिसाब रखें, तो भी काफी है। अगर पचास साल जीए हैं, तो कितनी बार क्रोध किया है!
और हर बार क्रोध करके कितनी बार पश्चात्ताप किया है! और हर बार पश्चात्ताप करके
फिर दुबारा क्रोध किया है, फिर
दुबारा पश्चात्ताप किया है! फिर धीरे-धीरे एक रूटीन, एक व्यवस्था बन गई है।
और
आदमी को देखकर आप कह सकते हैं कि यह अभी क्रोध कर रहा है, थोड़ी देर बाद पश्चात्ताप
करेगा। क्रोध में क्या कह रहा है, यह भी
बता सकते हैं,
क्या
कहेगा,
यह भी
बता सकते हैं--अगर दो-चार दफे उसको क्रोध करते देखा है। और बाद में भी प्रिडिक्ट
कर सकते हैं कि क्रोध के बाद पश्चात्ताप में ये-ये बातें यह कहेगा। कसम खाएगा कि
अब क्रोध कभी नहीं करूंगा। हालांकि ये कसमें इसने पहले भी खाई हैं, इसका कोई मतलब नहीं है। यह जड़
व्यवस्था हो गई है।
लेकिन
अगर कोई आदमी होशपूर्वक क्रोध किया है, तो हर बार क्रोध का अनुभव उसे क्रोध से
मुक्त कराने में सहयोगी होगा। और अगर बेहोशी से क्रोध किया है, तो हर क्रोध का अनुभव उसे और
भी क्रोध की जड़ मूर्च्छा में ले जाने में सहयोगी होता है।
जीवन
का पुनरावर्तन दोनों संभावनाएं खोलता है। हम कैसा उपयोग करेंगे, हम पर निर्भर है। जीवन सिर्फ
संभावनाएं देता है। हम उन संभावनाओं को क्या रूपांतरण देंगे, यह हम पर निर्भर है। एक आदमी
चाहे तो क्रोध करके और गहरे क्रोध का अभ्यासी बन सकता है। और एक आदमी चाहे तो
क्रोध करके,
क्रोध
की मूर्खता को देखकर, व्यर्थता
को देखकर,
क्रोध
की अग्नि और विक्षिप्तता को देखकर, क्रोध से मुक्त हो सकता है। जो आदमी जड़ होता
चला जाता है,
वह
अधार्मिक होता चला जाता है; वह और
संसारी होता चला जाता है। जो आदमी चेतन होता चला जाता है, वह धार्मिक होता चला जाता है, उसके जीवन में एक क्रांति
होती चली जाती है।
प्रत्येक
पर निर्भर है कि जीवन का आप क्या करेंगे।
जीवन
निर्भर नहीं है,
जीवन
अवसर है। उसमें क्या करेंगे, यह आप
पर निर्भर है। यह निर्भरता ही आपके आत्मवान होने का प्रमाण है। यह निर्भरता ही
आपके आत्मा होने का गौरव है। आपके पास आत्मा है, अर्थात चुनाव की शक्ति है कि
आप चुनें कि क्या करेंगे।
और मजे
की बात यह है कि आपने हजारों चक्कर लगाए हों, अगर आज भी आप निर्णय कर लें, तो सारे चक्कर इसी क्षण छोड़
सकते हैं,
तोड़
सकते हैं। लेकिन मन लीस्ट रेसिस्टेंस की तरफ बहता है। घर में एक लोटा पानी गिरा
दें। फर्श से बह जाए, सूख
जाए, पानी उड़ जाए; लेकिन एक सूखी रेखा फर्श पर
छूट जाती है। पानी नहीं है जरा भी। कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक सूखी रेखा। और सूखी
रेखा का मतलब क्या है? कुछ भी
मतलब नहीं है। वहां पानी बहा था। बस, इतनी एक रेखा छूट जाती है। फिर दुबारा पानी
उस कमरे में डोल दें, सौ में
से निन्यानबे मौके यह हैं कि वह उसी सूखी रेखा को पकड़कर फिर बहेगा। क्योंकि लीस्ट
रेसिस्टेंस है। उस सूखी रेखा पर धूल कम है। कमरे के दूसरे हिस्सों में धूल ज्यादा
है। वहां जगह जरा आसानी से बहने की है। पानी वहीं से बहेगा।
हम
बहुत बार जो किए हैं, वहां-वहां
सूखी रेखाएं बन गई हैं। उन सूखी रेखाओं को ही मनस-शास्त्र संस्कार कहता है। वह
हमारी कंडीशनिंग है। उन सूखी रेखाओं पर फिर वही काम, फिर शक्ति का जन्म, फिर पानी का बहना, लीस्ट रेसिस्टेंस, फिर हम वहीं से बहना शुरू कर
देते हैं।
लेकिन
सूखी रेखा कहती नहीं कि यहां से बहो। सूखी रेखा बांधती नहीं कि यहां से नहीं बहे, तो अदालत में मुकदमा चलेगा।
सूखी रेखा कहती नहीं कि कोई नियम है ऐसा कि यहीं से बहना पड़ेगा, कि परमात्मा की आज्ञा है कि
यहीं से बहो। सूखी रेखा सिर्फ एक खुला अवसर है, चुनाव सदा आपका है। और पानी अगर तय करे कि
नहीं बहना है सूखी रेखा से, तो नई
रेखा बना ले और बह जाए। फिर नई सूखी रेखा बन जाएगी। फिर नया संस्कार बन जाएगा।
धर्म
निर्णय और संकल्प है; जो
होता रहा है,
उससे
अन्यथा होने की चेष्टा है; जो कल
तक हुआ है,
उसकी
समझ से वैसा दुबारा न हो, इसका
संकल्पपूर्वक चुनाव है। इसे ही हम साधना कहें, योग कहें, जो भी नाम देना चाहें, दे सकते हैं।
एक
आखिरी सूत्र और,
फिर
सांझ को बात करेंगे।
आचार्याः
पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः
श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनतस्था।। ३४।।
एतान्न
हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि
त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।। ३५।।
गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के, और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग
हैं।
इसलिए
हे मधुसूदन,
मुझे
मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता,
फिर
पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?
निहत्य
धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।
३६।।
हे
जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी! इन
आततायियों को मारकर तो हमें
पाप ही
लगेगा।
बार-बार, फिर-फिर अर्जुन जो कह रहा है, वह बहुत विचार योग्य है।
दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। वह कह रहा है कि ये अपने स्वजनों को
मारकर अगर तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो, तो भी मैं लेने को तैयार नहीं हूं; इसलिए इस पृथ्वी के राज्य की
तो बात ही क्या! देखने में ऐसा लगेगा, बड़े त्याग की बात कह रहा है। ऐसा है नहीं।
मैं एक
वृद्ध संन्यासी से मिलने गया था। उन वृद्ध संन्यासी ने मुझे एक गीत पढ़कर सुनाया।
उनका लिखा हुआ गीत। उस गीत में उन्होंने कहा कि सम्राटो, तुम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर
होओगे सुख में,
मैं
अपनी धूल में ही मजे में हूं। मैं लात मारता हूं तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासनों पर।
तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासनों में कुछ भी नहीं रखा है। मैं अपनी धूल में ही मजे में
हूं। ऐसा ही गीत था। पूरे गीत में यही बात थी। सुनने वाले बड़े मंत्रमुग्ध हो गए।
हमारे मुल्क में मंत्रमुग्ध होना इतना आसान है कि और कोई चीज आसान नहीं है। सिर
हिलाने लगे।
मैं
बहुत हैरान हुआ। उनका सिर हिलता देखकर संन्यासी भी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने
मुझसे पूछा,
आप
क्या कहते हैं?
मैंने
कहा, मुझे मुश्किल में डाल दिया है
आपने। आप मुझसे पूछिए ही मत। उन्होंने कहा, नहीं, कुछ तो कहिए। मैंने कहा कि मैं सदा सोचता
हूं कि अब तक किसी सम्राट ने ऐसा नहीं कहा कि संन्यासियो, अपनी धूल में रहो मजे में, हम तुम्हारी धूल को लात मारते
हैं। हम अपने सिंहासन पर ही मजे में हैं।
किसी
सम्राट ने अब तक ऐसा गीत नहीं लिखा। संन्यासी जरूर सैकड़ों वर्ष से ऐसे गीत लिखते
रहे हैं। कारण खोजना पड़ेगा। असल में संन्यासी के मन में सुख तो सोने के सिंहासन
में ही दिखाई पड़ रहा है। अपने को समझा रहा है। कंसोलेटरी है उसकी बात। वह कह रहा
है, रहे आओ अपने सिंहासन पर, हम अपनी धूल में ही बहुत मजे
में हैं। लेकिन तुम से कह कौन रहा है कि तुम सिंहासन पर रहो। तुम धूल में मजे में
हो, तो मजे में रहो। सिंहासन वाले
कोर् ईष्या करने दो तुम्हारे मजे की। लेकिन सिंहासन वाला कभी गीत नहीं लिखता है कि
तुम अपने मजे में हो, तो रहे
आओ।
उसको
कंसोलेशन की कोई जरूरत नहीं है। वह अपने सिंहासन पर तुम्हारी धूल से कोईर् ईष्या
नहीं कर रहा है। लेकिन तुम धूल में पड़े हुए, उसके सिंहासन से जरूरर् ईष्यारत हो।र् ईष्या
गहरी है।
अब
अर्जुन अपने को समझा रहा है। मन तो उसका होता है कि राज्य मिल जाए, लेकिन वह यह कह रहा है, इन सबको मारकर अगर तीनों लोक
का राज्य भी मिलता हो--हालांकि कहीं कुछ मिल नहीं रहा है; कोई देने वाला नहीं है--तीनों
लोक का राज्य भी मिलता हो, तो भी
बेकार है। ऐसे बड़े राज्य की बात करके, फिर वह उसका दूसरा निष्कर्ष निकालता है कि
तब पृथ्वी के राज्य का तो प्रयोजन ही क्या है! ऐसा बड़ा खयाल मन में पैदा करके कि
मैं तीनों लोक का राज्य भी छोड़ सकता हूं, तो फिर पृथ्वी का राज्य तो छोड़ ही सकता हूं।
लेकिन न उसको पृथ्वी का राज्य छोड़ने की इच्छा है। और अगर कहीं कृष्ण उससे कहें कि
देख, तुझे तीनों लोक का राज्य दिए
देते हैं,
तो वह
बड़ी बिगूचन में पड़ जाएगा। वह कह रहा है, अपने को समझा रहा है।
अब यह
बड़े मजे की बात है कि बहुत बार जब हम अपने को समझाते होते हैं, तो हमारे खयाल में नहीं होता
है कि हम किन-किन तरकीबों से अपने को समझाते हैं। बड़ा मकान देखकर पड़ोसी का हम कहते
हैं, क्या रखा है बड़े मकान में!
लेकिन जब कोई आदमी कहता है, क्या
रखा है बड़े मकान में! तो उस आदमी को बहुत कुछ रखा है, निश्चित ही रखा है। अन्यथा
बड़ा मकान दिखता नहीं। वह अपने को समझा रहा है, वह अपने मन को सांत्वना दे रहा है कि कुछ
रखा ही नहीं है,
इसलिए
हम पाने की कोशिश नहीं करते। अगर कुछ होता, तो हम तत्काल पा लेते। लेकिन कुछ है ही नहीं, इसलिए हम पाने की कोई कोशिश
नहीं करते।
यह
अर्जुन कह रहा है,
तीन
लोक के राज्य में भी क्या रखा है, इसलिए
पृथ्वी के राज्य में तो कुछ भी नहीं रखा है। और इतने छोटे से राज्य की बात के लिए
इतने प्रियजनों को मारना...!
यह
प्रियजनों को मारना उसके लिए सर्वाधिक कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है, न कि मारना कष्टपूर्ण मालूम
पड़ रहा है। प्रियजनों को मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है।
स्वभावतः, सारा परिवार वहां लड़ने को खड़ा
है। ऐसे युद्ध के मौके कम आते हैं। यह युद्ध भी विशेष है। और युद्ध की तीक्ष्णता
यही है महाभारत की कि एक ही परिवार कटकर खड़ा है। उस कटाव में भी सब दुश्मन नहीं
हैं। कहना चाहिए कि जो फर्क है--यह थोड़ा सोचने जैसा है--जो फर्क है, वह दुश्मन और मित्र का कम है; जो फर्क है, वह कम मित्र और ज्यादा मित्र
का ही है। जो बंटवारा है, वह
बंटवारा ऐसा नहीं है कि उस तरफ दुश्मन हैं और इस तरफ मित्र हैं। इतना भी साफ होता
कि उस तरफ पराए हैं और इस तरफ अपने हैं, तो कटाव बहुत आसानी से हो जाता। अर्जुन ठीक
से मार पाता।
लेकिन
बंटवारा बहुत अजीब है। और वह अजीब बड़ा अर्थपूर्ण है। वह अजीब बंटवारा ऐसा है कि इस
तरफ अपने थोड़े जो ज्यादा मित्र थे, वे इकट्ठे हो गए हैं; जो थोड़े कम मित्र थे, वे उस तरफ इकट्ठे हो गए हैं।
मित्र वे भी हैं,
प्रियजन
वे भी हैं,
गुरु
उस तरफ हैं।
यह मैं
कह रहा हूं,
महत्वपूर्ण
है। और ऐसी सिचुएशन इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिंदगी में चीजें वाटर टाइट
कंपार्टमेंट में बंटी हुई नहीं होती हैं। जिंदगी में चीजें काले और सफेद में बंटी
हुई नहीं होतीं। जिंदगी ग्रे का फैलाव है। उसके एक कोने पर काला होता है, दूसरे कोने पर सफेद होता है, लेकिन जिंदगी के बड़े फैलाव
में काला और सफेद मिश्रित होता है। यहां फलां आदमी शत्रु और फलां आदमी मित्र, ऐसा बंटाव नहीं है। फलां आदमी
कम मित्र,
फलां
आदमी ज्यादा मित्र; फलां
आदमी कम शत्रु,
फलां
आदमी ज्यादा शत्रु--ऐसा बंटाव है। यहां जिंदगी में एब्सोल्यूट टर्म्स नहीं हैं।
यहां कोई चीज पूरी कटी हुई नहीं है। यही उलझाव है। यहां सब चीजें कम-ज्यादा में
बंटी हैं।
हम
कहते हैं,
यह गरम
है और यह ठंडा है। लेकिन ठंडे का क्या मतलब होता है, थोड़ा कम गरम। गरम का क्या
मतलब होता है,
थोड़ा
कम ठंडा। कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव पर जरा गरम कर लें और एक हाथ को बरफ पर
रखकर जरा ठंडा कर लें और फिर दोनों हाथों को एक ही बाल्टी के पानी में डाल दें, तब आप बड़ी मुश्किल में पड़
जाएंगे। तब ठीक अर्जुन की हालत में पड़ जाएंगे। तब आपका एक हाथ कहेगा पानी ठंडा है
और एक हाथ कहेगा पानी गरम है। और एक ही पानी है। दोनों तो नहीं हो सकता एक
साथ--ठंडा और गरम!
जीवन
में सब कुछ सापेक्ष है, रिलेटिव
है। जिंदगी में कुछ भी निरपेक्ष नहीं है। यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव है। अर्जुन
की वही तकलीफ है। और जो आदमी भी जिंदगी को देखेगा ठीक से, उसकी यही तकलीफ हो जाएगी।
यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव है। कोई थोड़ा अपना ज्यादा, कोई अपना कम। कोई थोड़ा ज्यादा
निकट, कोई थोड़ा जरा दूर। कोई सौ
प्रतिशत,
कोई
नब्बे प्रतिशत,
कोई
अस्सी प्रतिशत अपना है। और कोई नब्बे प्रतिशत, कोई अस्सी प्रतिशत, कोई सत्तर प्रतिशत पराया है।
लेकिन जो पराया है, उसमें
भी अपना एक प्रतिशत का हिस्सा है। और जो अपना है, उसमें भी पराए के प्रतिशत का
हिस्सा है। इसलिए जिंदगी उलझाव है। यह कट जाए ठीक शत्रु-मित्र में, अच्छे-बुरे में, तो बड़ा आसान हो जाए। इतना
आसान नहीं हो पाता।
राम के
भीतर भी थोड़ा रावण है और रावण के भीतर भी थोड़ा राम है। इसलिए तो रावण को भी कोई
प्रेम कर पाता है,
नहीं
तो रावण को कोई प्रेम न कर पाए। रावण को कोई प्रेम कर पाता है। रावण में भी कहीं न
कहीं राम किसी न किसी को दिखाई पड़ता है। रावण को भी कोई प्रेम करता है। राम से भी
कोई शत्रुता कर पाता है, तो राम
की शत्रुता में भी कहीं न कहीं रावण थोड़ा दिखाई पड़ता है। यहां बड़े से बड़े संत में
भी थोड़ा पापी है,
और
यहां बड़े से बड़े पापी में भी थोड़ा संत है। जिंदगी सिर्फ सापेक्ष विभाजन है।
यह
अर्जुन की तकलीफ है कि सब अपने ही खड़े हैं। एक ही परिवार है, बीच में से रेखा खींच दी है।
उस तरफ अपने हैं,
इस तरफ
अपने हैं। हर हालत में अपने ही मरेंगे। यह पीड़ा पूरे जीवन की पीड़ा है। और यह
स्थिति,
यह
सिचुएशन पूरे जीवन की स्थिति है। इसलिए अर्जुन के लिए जो प्रश्न है, वह सिर्फ किसी एक युद्ध-स्थल
पर पैदा हुआ प्रश्न नहीं है, वह
जीवन के समस्त स्थलों पर पैदा हुआ प्रश्न है।
अब वह
घबड़ा गया है। उधर द्रोण खड़े हैं, उन्हीं
से सीखा है। अब उन्हीं पर तीर खींचना है। उन्हीं से धनुर्विद्या सीखी है। वह उनका
सबसे पट्ट शिष्य है। सबसे ज्यादा जीवन में उसके लिए ही द्रोण ने किया है। एकलव्य
का अंगूठा काट लाए थे इसी शिष्य के लिए। वही शिष्य आज उन्हीं की हत्या करने को
तैयार हो गया है! इसी शिष्य को उन्होंने बड़ा किया है खून-पसीना देकर, सारी कला इसमें उंडेल दी है।
आज इसी के खिलाफ वे धनुष-बाण खींचेंगे। बड़ा अदभुत युद्ध है। यह एक ही परिवार है, जिसमें बड़े तालमेल हैं, बड़े जोड़ हैं, बड़ी निकटताएं हैं, कटकर खड़ा हो गया है।
लेकिन
अगर हम जिंदगी को देखें, बहुत
गहरे से देखें,
तो
जिंदगी के सब युद्ध अपनों के ही युद्ध हैं, क्योंकि पृथ्वी एक परिवार से ज्यादा नहीं
है। अगर हिंदुस्तान पाकिस्तान से लड़ेगा, तो एक परिवार ही लड़ेगा। कल जिन बच्चों को
हमने पढ़ाया,
लिखाया, बड़ा किया था, वे वहां हैं। कल जिस जमीन को
हम अपना कहते थे,
वह
वहां है। कल जिस ताजमहल को वे अपना कहते थे और जिसके लिए मर जाते, वह यहां है। यहां सब जुड़ा है।
अगर हम
कल चीन से लड़ेंगे,
तो
हिंदुस्तान ने चीन को सब कुछ दिया है। और हिंदुस्तान की सबसे बड़ी धरोहर, बुद्ध को, चीन ने बचाया है। और कोई
बचाता नहीं। कल उनसे हम लड़ने खड़े हो जाएं।
सारी
जिंदगी,
सारी
पृथ्वी,
ठीक से
देखें तो एक बड़ा परिवार है। उसमें सारे युद्ध पारिवारिक हैं। और सब युद्ध इसी
स्थिति को पैदा कर देते हैं, जो
अर्जुन के मन में पैदा हो गई है। उसकी दुविधा एकदम स्वाभाविक है; उसकी चिंता एकदम स्वाभाविक
है। वह थरथर कांप गया है, यह
बिलकुल स्वाभाविक है।
इस
दुविधा से क्या निस्तार है? या तो
आंख बंद करे और युद्ध में कूद जाए; या आंख बंद करे और भाग जाए। ये दो ही उपाय
दिखाई पड़ते हैं। तो आंख बंद करे और कहे, होगा कोई; जो अपनी तरफ नहीं है, अपना नहीं है। मरना है, मरे। आंख बंद करे, युद्ध में कूद जाए--सीधा है।
या आंख बंद करे और भाग जाए--सीधा है।
लेकिन
कृष्ण जो उपाय सुझाते हैं, वह
सीधा नहीं है। वह लीस्ट रेसिस्टेंस का नहीं है। ये दोनों लीस्ट रेसिस्टेंस के हैं।
ये दोनों सूखी रेखाएं हैं। इन दोनों में वह कहीं भी चला जाए, बड़ी सरल है बात। शायद अनंत
जन्मों में इन दो में से कहीं न कहीं वह गया होगा। ये सहज विकल्प हैं।
लेकिन
कृष्ण एक तीसरा ही विकल्प सुझाते हैं, जिस पर वह कभी नहीं गया है। वह तीसरा विकल्प
ही कीमती है। और जिंदगी में जब भी आपको दो विकल्प आएं, तो निर्णय करने के पहले तीसरे
के संबंध में सोच लेना। क्योंकि वह तीसरा सदा ही महत्वपूर्ण है, वे दो हमेशा वही हैं, जो आपने बार-बार चुने हैं।
कभी इसको,
इससे
थक गए हैं तो विपरीत को, कभी
विपरीत से थक गए तो इसको--उनको आप चुनते रहे हैं। दि थर्ड, वह तीसरा ही महत्वपूर्ण है, जो खयाल में नहीं आता है। उस
तीसरे को ही कृष्ण प्रस्तावित करेंगे, उस पर हम सांझ बात करेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें