गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-029
अध्याय ३-दसवां प्रवचन
वासना की धूल, चेतना का दर्पण
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। ३८।।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।। ३९।।
जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है
(तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है।
और हे अर्जुन! इस अग्नि (सदृश) न पूर्ण होने वाले
कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढंका हुआ है।
कृष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो,
ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है,
ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ
झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा
उसकी कामना से ढंकी होती है। इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि ज्ञान स्वभाव है--मौजूद, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है, कोई
एचीवमेंट नहीं है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे
पास नहीं है और कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास नहीं
है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि जो
हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी बात
मालूम पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा सकते हैं;
और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं
पा सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें
मिलता है; और जो हम नहीं हैं, हमारे
लाख उपाय, दौड़-धूप हमें वहां नहीं पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं।
बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, लोग उनके पास आए और
उन्होंने पूछा, आपको क्या मिला? तो
बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो; यह पूछो कि
मैंने क्या खोया! वे लोग हैरान हुए; उन्होंने कहा, इतनी तपश्चर्या, इतनी साधना, इतनी
खोज क्या खोने के लिए करते थे या पाने के लिए? बुद्ध ने कहा,
कोशिश तो पाने के लिए की थी, लेकिन अब जब पाया,
तो कहता हूं कि सिर्फ खोया, पाया कुछ भी नहीं।
नहीं उनकी समझ में आया होगा। उन्होंने कहा, हमें ठीक से
समझाएं! तो बुद्ध ने कहा, वही पाया जो मुझे मिला ही हुआ था;
और सिर्फ वही खोया, जो मेरे पास था ही नहीं,
लेकिन मुझे मालूम पड़ता था कि मेरे पास है। जो नहीं था, उसे खो दिया है; और जो था, उसे
पा लिया है।
जैसे धुएं में आग ढंकी हो, तो आग पाना नहीं होती;
केवल धुआं अलग हो जाए, तो आग प्रकट हो जाती
है। जैसे सूरज बदलियों से ढंका हो, तो सूरज पाना नहीं होता;
सिर्फ बदलियां हट जाएं, तो सूरज प्रकट हो जाता
है। जैसे बीज ढंका है, वृक्ष पाना नहीं है। वृक्ष बीज में है
ही, अप्रकट है, छिपा है, कल प्रकट हो जाएगा। ऐसे ही ज्ञान सिर्फ अप्रकट है, कल
प्रकट हो जाएगा।
इसके दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि अज्ञानी भी उतने ही ज्ञान
से भरा है, जितना परमज्ञानी। फर्क अज्ञानी और ज्ञानी में अगर हम
ठीक से समझें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ थोड़ा ज्यादा
होता है, धुआं ज्यादा होता है। आग तो उतनी ही होती है,
जितनी ज्ञानी के पास होती है; अज्ञानी के पास
कुछ और ज्यादा भी होता है, धुआं भी होता है। सूरज तो उतना ही
होता है जितना ज्ञानी के पास होता है; अज्ञानी के पास काली
बदलियां भी होती हैं। अगर इस तरह सोचें, तो अज्ञानी के पास
ज्ञानी से कुछ ज्यादा होता है। और जिस दिन ज्ञान उपलब्ध होता है, उस दिन यह जो ज्यादा है, यही खोता है, यही आवरण टूटकर गिर जाता है। और जो भीतर छिपा है, वह
प्रकट हो जाता है।
तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि अज्ञानी से अज्ञानी मनुष्य के
भीतर ज्ञान पूरी तरह मौजूद है; अंधेरे से अंधेरे में भी,
गहन अंधकार में भी परमात्मा पूरी तरह मौजूद है। कोई कितना ही भटक
गया हो, कितना ही भटक जाए, तो भी ज्ञान
से नहीं भटक सकता, वह उसके भीतर मौजूद है। हम कहीं भी चले
जाएं और हम कैसे भी पापी हो जाएं और कितने भी अज्ञानी और कितना ही अंधेरा और
जिंदगी कितने ही धुएं में घिर जाए, तो भी हमारे भीतर जो है,
वह नहीं खोता है। उसके खोने का कोई उपाय नहीं है।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं कि ईश्वर को खोजना है! तो उनसे मैं
पूछता हूं, तुमने खोया कब? इसका मुझे सब
हिसाब-किताब दे दो, तो मैं तुम्हें खोजने का रास्ता भी बता
दूं। ईश्वर ऐसे तत्व का नाम है, जिसे हम खोना भी चाहें,
तो नहीं खो सकते हैं। खोने का जिसे उपाय ही नहीं है, उसका नाम स्वभाव है, उसका नाम स्वरूप है। आग उत्ताप
नहीं खो सकती, वह उसका स्वभाव है। मनुष्य ज्ञान नहीं खो सकता,
यह उसका स्वभाव है। लेकिन फिर भी अज्ञान तो है। तो अज्ञान को हम
क्या समझें?
अज्ञान से दो मतलब हो सकते हैं। ज्ञान का अभाव मतलब हो सकता है अज्ञान
से, एब्सेंस आफ नोइंग। कृष्ण का यह मतलब नहीं है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं
है, अज्ञान ज्ञान का ढंका होना है। अज्ञान ज्ञान का अभाव
नहीं है, अज्ञान सिर्फ ज्ञान का अप्रकट होना है। यह भी बहुत
मजे की बात है कि धुआं वहीं प्रकट हो सकता है, जहां आग हो।
धुआं वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां आग न हो। अज्ञान भी वहीं
प्रकट हो सकता है, जहां ज्ञान हो। अज्ञान भी वहां प्रकट नहीं
हो सकता, जहां ज्ञान न हो। इसलिए तर्कशास्त्री से अगर
पूछेंगे, नैयायिक से अगर पूछेंगे, तो
वह कहेगा, जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां
आग है। हम धुआं देखकर ही कह देते हैं कि आग जरूर होगी।
दूसरी मजे की बात यह है कि धुआं तो बिना आग के कभी नहीं होता, लेकिन आग कभी बिना धुएं के हो सकती है, होती है। असल
में धुएं का संबंध आग से इतना ही है कि आग बिना ईंधन के नहीं होती। और ईंधन अगर
गीला है, तो धुआं होता है; और ईंधन अगर
सूखा है, तो धुआं नहीं होता। लेकिन धुआं बिना आग के नहीं हो
सकता, ईंधन कितना ही गीला हो। ईंधन अगर सूखा हो, तो आग बिना धुएं के हो सकती है, दमकता हुआ अंगारा
बिलकुल बिना धुएं के होता है।
अज्ञान के अस्तित्व के लिए पीछे ज्ञान जरूरी है, इसलिए अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, एब्सेंस नहीं
है, अनुपस्थिति नहीं है। अज्ञान भी बताता है कि भीतर ज्ञान
मौजूद है। अन्यथा अज्ञान भी संभव नहीं है, अज्ञान भी नहीं हो
सकता है। अज्ञान सिर्फ आवरण की खबर देता है। और आवरण सदा उसकी भी खबर देता है,
जो भीतर मौजूद है। बीज सिर्फ आवरण की खबर देता है, अंडे के ऊपर की खोल सिर्फ आवरण की खबर देती है। साथ में यह भी खबर देती है
कि भीतर वह भी मौजूद है, जो आवरण नहीं है।
इसलिए अज्ञानी को हताश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अज्ञानी को
निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और ज्ञानी को भी अहंकारी हो जाने की कोई
जरूरत नहीं है। अगर हिसाब रखा जाए, तो अज्ञानी के पास
ज्ञानी से सदा ज्यादा है। यह ज्ञानी को अहंकारी होने की कोई भी जरूरत नहीं है।
अज्ञानी को निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो ज्ञानी में प्रकट हुआ है,
वह अज्ञानी में अप्रकट है। जो अप्रकट है, वह
प्रकट हो सकता है। वह अप्रकट क्यों है? क्या कारण है?
क्या बाधा है?
कृष्ण कहते हैं, धुआं जैसे आग को घेरता है,
वैसे ही वासना मन को घेरे हुए है।
वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा आत्मा को हम न
समझ पाएंगे। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा अज्ञान को हम न
समझ पाएंगे। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा का ज्ञान प्रकट
होना असंभव है। अब अगर हम ठीक से समझें, तो ज्ञान में अज्ञान
बाधा नहीं बन रहा है; ठीक से समझें, तो
ज्ञान में वासना बाधा बन रही है। क्योंकि वासना ही गीला ईंधन है, जिससे कि धुआं उठता है; वासनामुक्त आदमी सूखे ईंधन
की भांति है।
मैंने सुना है, फरीद के जीवन में एक छोटा-सा उल्लेख है। एक आदमी आया
है और फरीद से पूछने लगा, कि मैंने सुना है कि मंसूर के
हाथ-पैर काट डाले गए और उसे दुख न हुआ, यह कैसे हो सकता है?
और मैंने सुना है कि जीसस को फांसी लगाई गई और जीसस परमात्मा से
कहते रहे, इन सबको माफ कर देना, क्योंकि
ये लोग जानते नहीं हैं कि क्या कर रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है। सूली लगाई जाए, हाथ-पैर काटे जाएं,
खीले ठोंके जाएं, गरदन काटी जाए--यह संभव नहीं
है, पीड़ा तो होगी ही, दुख तो होगा ही।
मुझे ये सब कहानियां मालूम पड़ती हैं!
फरीद हंसने लगा। उसके पास एक नारियल पड़ा था, कोई भक्त चढ़ा गया था। उसने उसे उठाकर दे दिया और कहा, जाओ, देखते हो इस नारियल को, इसे
ठीक से तोड़ लाओ; खोल अलग कर देना, गिरी
अलग कर लाना; और गिरी को साबित बचा लाना। उस आदमी ने कहा,
माफ करें, यह न होगा। नारियल कच्चा है। गिरी
और खोल जुड़े हुए हैं। अभी मैं खोल तोडूंगा, तो गिरी भी टूट
जाएगी। फरीद ने कहा, छोड़ो, दूसरा
नारियल ले जाओ। यह सूखा नारियल है, इसकी तो गिरी और खोल अलग
कर लाओगे! उस आदमी ने कहा, बिलकुल कर लाऊंगा।
फरीद ने कहा, अब जाने की जरूरत नहीं है, नारियल
को यहीं रख दो। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि सूखे नारियल की गिरी और खोल को तुम बचा
लाओगे, अलग कर लाओगे; खोल टूट जाएगी,
गिरी बच जाएगी। क्यों? उस आदमी ने कहा,
यह भी कोई पूछने की बात है? सूखे नारियल की
गिरी और खोल अलग-अलग हो गई हैं। कच्चे नारियल की जुड़ी हैं। फरीद ने कहा, बस अब जाओ; तुम्हारे सवाल का जवाब मैंने दिया है।
जीसस या मंसूर जैसे लोगों का नारियल सूखा नारियल है। तो शरीर को कोई चोट पहुंचाता
है तो शरीर टूटता है; लेकिन आत्मा तक चोट नहीं पहुंचती है,
आत्मा तक घाव नहीं बनता। हम सब कच्चे नारियल हैं; शरीर पर चोट लगी नहीं कि आत्मा तक चोट पहुंच जाती है। जुड़ा है सब।
वासना कच्चा ईंधन है। गीली लकड़ी है। क्या मतलब है मेरा? वासना को देखने के दोत्तीन प्रकार हैं। एक तो वासना की मान्यता है कि जो
मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। वासना का आधार है कि जो
मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है; जो
भी चाहिए, वह नहीं है। वासना का स्वरूप सदा यही है कि जो भी
चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। ऐसा नहीं कि कल वह चीज मिल
जाएगी तो वासना मर जाएगी, सिर्फ वासना उस चीज से सरककर किसी दूसरी
चीज पर लग जाएगी। दस हजार रुपए नहीं हैं, तो वासना कहती है
कि दस हजार रुपए चाहिए। दस हजार रुपए होते हैं, तो वासना
कहती है कि दस लाख चाहिए। दस लाख होते हैं, तो वासना कहती है
कि दस करोड़ चाहिए।
एण्ड्रू कार्नेगी अमेरिका का एक अरबपति मरा। जब मरा, तो वह दस अरब रुपए छोड़कर मरा। मरने के दो दिन पहले उसका जीवन लिखने वाले
एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि आप तो तृप्त होंगे! आपसे बड़ा अरबपति पृथ्वी पर कोई
दूसरा नहीं है; आपने तो जिंदगी में जो पाना चाहा था, वह पा लिया है। एण्ड्रू कार्नेगी ने गुस्से से उसको कहा, चुप रहो, बकवास बंद करो। जो मैंने पाना चाहा था,
वह मैंने कहां पाया है? मेरे इरादे सौ अरब
रुपए छोड़ने के थे।
लेकिन क्या आप सोचते हैं, सौ अरब रुपए एण्ड्रू
कार्नेगी के पास होते, तो बात हल हो जाती? क्योंकि जिसकी दस अरब से हल न हुई, उसकी सौ अरब से
भी हल न होती। हां, सौ अरब होते, तो
इरादे और आगे बढ़ जाते, हजार अरब पर हो जाते, लाख अरब पर हो जाते।
वासना, जो नहीं है, उसकी मांग है।
इसलिए एक अर्थ में समझें, तो वासना सदा ही रिक्त है, सदा खाली है। सदा रिक्त, सदा खाली, सदा एंप्टी, कभी भरती नहीं। भर नहीं सकती। उसका
स्वभाव यही है कि जो नहीं है, वह। और कुछ तो नहीं होगा ही।
कुछ तो नहीं होगा ही। वह, जो नहीं है, वासना
वहीं लगी रहती है। और चूंकि वासना जो नहीं है, वहां लगी रहती
है, इसलिए आत्मा, जो है, वह हमें प्रकट नहीं हो पाती। हमारा सारा चित्त उस पर अटका रहता है,
जो नहीं है। हम उसको कैसे देख पाएं, जो है।
आत्मा अभी है, यहीं है; और वासना कल है,
कहीं है। वासना सदा भविष्य में है, आत्मा सदा
वर्तमान में है। इसलिए जिस आदमी का मन वासना में भटक रहा है, वह आत्मा तक नहीं पहुंच पाता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसे ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता।
जैसे आप अपने दरवाजे पर खड़े हैं और रास्ते पर चलते लोगों को देख रहे
हैं, तो फिर घर के लोगों को न देखे पाएंगे। सच तो यह है कि
अगर रास्ते पर चलते लोगों को देखने में बहुत लीन हो गए, तो
अपने को भूल ही जाएंगे। असल में दूसरे को देखने में ध्यान दूसरे पर चला जाता है,
स्वयं से च्युत हो जाता है।
वासना पर लगा हुआ ध्यान आत्मा से च्युत हो जाता है। आत्मा भीतर खड़ी है, मौजूद है, सदा तैयार है। आओ कभी भी, द्वार खुले हैं। लेकिन वासना की यात्रा पर निकला आदमी जन्मों-जन्मों भटकता
है और वहां नहीं आता है। वह खोजता ही चला जाता है। वह खोजता ही चला जाता है। और
जहां तक पहुंचता है, वासना आगे के स्वप्न बना लेती है।
क्षितिज की तरह है वासना। हॅराइजन दिखाई पड़ता है आकाश का। लगता है, थोड़ी ही दूर, दस मील दूर आकाश जमीन को छू रहा है।
कहीं भी छूता नहीं। मन कहता है, बस पास ही है; जरा दौडूं और पहुंच जाऊं। पहुंचें आप, दौड़ें आप।
पहुंच भी जाएंगे दस मील, लेकिन पाएंगे कि आकाश अब भी छूता है,
लेकिन अब दस मील आगे छूता है। और दस मील चलें। पहुंच जाएंगे दस मील,
फिर भी पाएंगे, आकाश फिर भी छूता है, आगे दस मील छूता है। आकाश सदा ही आगे दस मील छूता है। कहीं छूता नहीं;
सिर्फ छूता हुआ प्रतीत होता है। दौड़ते रहें, पूरी
पृथ्वी का चक्कर लगा लें, आकाश कहीं छूता हुआ नहीं मिलेगा।
लेकिन सदा मालूम पड़ेगा कि बस, जरा और आगे, और छुआ, और छुआ। बस, यह तो छू
रहा है! दौड़ाता सदा रहेगा, कभी छूता हुआ मिलेगा नहीं।
वासना आकाश छूती हुई क्षितिज की रेखा जैसी है। सदा लगती है, बस अब पूरी हुई--एक वर्ष और, दो वर्ष और, दस वर्ष और, यह कारखाना और, यह
मकान और, यह दुकान और--बस पूरा हुआ जाता है, क्षितिज की रेखा आई जाती है, आकाश छू लेगा। पहुंच
जाते हैं वहां, पाते हैं कि रिक्त, खाली
हाथ वैसे ही खड़े हैं, जैसे दस साल पहले थे, पचास साल पहले थे और आकाश अभी भी थोड़े आगे छू रहा है। वासना अभी भी थोड़े
आगे कह रही है, थोड़े और चल आओ, तो
तृप्ति हो जाएगी।
इसलिए आदमी बढ़ता चला जाता है। और तब एक चीज से वंचित रह जाता है, जो उसे मिली हुई थी, जो उसके पास ही थी, जो कि परमात्मा की उसे भेंट थी, गिफ्ट थी, जो कि परमात्मा ने उसे दी थी, उस चीज से भर वंचित रह
जाता है। और जो वासनाएं उसे दे नहीं सकतीं, कभी नहीं दे
सकतीं, उन्हीं की दौड़ में वह दौड़ता चला जाता है। इस दौड़ के
धुएं में खो जाता है ज्ञान; इस दौड़ में छिप जाता है वह,
जो है। इस दौड़ में भूल जाता है वह, जो सदा से
साथ है; और स्मरण आता है उसका, जो कभी
साथ नहीं हो सकता है।
वासना ही अज्ञान है, डिजायरिंग इज़ इग्नोरेंस। ठीक से
समझें, तो अज्ञान कुछ और नहीं है। वासना में दौड़ा हुआ चित्त
आत्मा को उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह विस्मरण बन जाता है। वासना का स्मरण आत्मा का
विस्मरण है। इच्छा के पीछे ध्यान का जाना, स्वयं से ध्यान का
चूक जाना है। और ध्यान हमेशा वन डायमेंशनल है। ध्यान एक आयामी है। अगर आप इच्छा के
पीछे चले गए, तो वह पीछे नहीं लौट सकता। कोई उपाय नहीं है।
हां, इच्छा जाए, विदा हो, धुआं न हो, तो वह अपने पर लौट आए। इसलिए कृष्ण इस
सूत्र में कहते हैं कि ज्ञान कोई खोता नहीं, लेकिन ज्ञान
विस्मरण हो जाता है। फारगेटफुलनेस, खोना नहीं है, सिर्फ विस्मृति है।
मैंने सुना है, पिछले महायुद्ध में एक आदमी चोट खाकर गिर पड़ा और भूल
गया नाम, पिता का नाम, घर का पता।
कठिनाई न पड़ती, कठिनाई न पड़ती, अगर
उसका नंबर भी रह गया होता। लेकिन युद्ध के मैदान में कहीं उसका नंबर भी गिर गया और
वह बेहोश उठाकर लाया गया। नंबर होता, तो पता चल जाता। नंबर
भी नहीं था और उस आदमी को होश आया, उसे पता भी नहीं था कि
मैं कौन हूं! उसे रिटायर्ड भी कर दिया गया, लेकिन उसे कहां
पहुंचाया जाए! उसे अपना कोई पता ही नहीं।
फिर किसी मनोवैज्ञानिक ने सुझाव दिया कि उसे इंग्लैंड के गांव-गांव
में घुमाया जाए, ट्रेन से ले जाया जाए। हो सकता है, किसी स्टेशन को देखकर उसे याद आ जाए कि यह मेरा गांव है। क्योंकि गांव
खोया तो नहीं है, सिर्फ विस्मरण हो गया है। गांव तो अपनी जगह
होगा और यह आदमी अपनी जगह है। और गांव अपनी जगह है और यह आदमी अपनी जगह है। सब
अपनी जगह है, लेकिन बीच की स्मृति का धागा टूट गया है,
शायद जुड़ जाए।
उसे गांव-गांव ले जाया गया। बड़े-बड़े नगरों में ले जाया गया। लेकिन वह
बस खड़ा हो जाता, उसे कुछ याद न आता। फिर एक जगह तो ट्रेन रुकनी नहीं
थी, किसी कारण से छोटी स्टेशन पर रुकी थी, उस आदमी ने खिड़की से झांककर देखा। फिर वह मनोवैज्ञानिकों को बताने के लिए
नहीं रुका, जो उसके साथ थे, दरवाजा
खोलकर भागा। उसने कहा, मेरा गांव! मनोवैज्ञानिक, उसके साथी, जो उसे घुमा रहे थे, वे उसके पीछे भागे। उसे कहा कि रुको भाई! वह नहीं रुका। वह तो स्टेशन पार
कर गया। वह तो अपनी गली में पहुंच गया। वह तो अपने घर के सामने पहुंच गया। उसने
कहा, वह रहा मेरे पिता का घर। वह रही मेरी तख्ती, जो घर के सामने लगी है। विस्मरण टूट गया; स्मरण लौट
आया।
परमात्मा पुनःस्मरण है, रिमेंबरिंग है। वह
हमारे भीतर बैठा है। हम एक दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में हो गए हैं। हमारा एक्सिडेंट,
हमारी दुर्घटना यह है कि जो नहीं है, उसने
हमें आकर्षित कर लिया है। इसका कारण है कि जो होता है, उसका
आकर्षण नहीं होता है; जो नहीं है, उसमें
आकर्षण होता है। जो पास है, उसे हम भूल जाते हैं; जो दूर है, उसे हम याद करते हैं। कभी आपने खयाल किया,
मित्र पास हो, तो याद नहीं आती; मित्र दूर हो, तो याद आती है। प्रियजन बगल में बैठा
हो, तो भूल जाता है; अखबार पढ़ते रहते
हैं। और प्रियजन दूर चला जाए, तो अखबार क्या गीता भी नहीं
पढ़ी जाती; बंद करके रख देते हैं; उसकी
याद आती है। दूर है कोई चीज, तो याद आती है; नहीं है पास, तो याद आती है। पास है, बिलकुल पास है, तो याद भूल जाती है।
और परमात्मा से ज्यादा पास हमारे और कोई भी नहीं है। मोहम्मद ने कहा
है, गले की नस--जो कट जाए, तो जीवन चला जाए--उससे भी पास
है परमात्मा। श्वास--जो बंद हो जाए, तो प्राण निकल
जाएं--मोहम्मद ने कहा है, उससे भी पास है परमात्मा। श्वास से
भी जो पास है, उसे अगर हम भूल गए, तो
कोई आश्चर्य नहीं, स्वाभाविक है।
अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन तोड़ा जा सकता
है, अनिवार्य नहीं है। स्वाभाविक है, अनिवार्य
नहीं है। प्राकृतिक है, मंगलदायी नहीं है। भूल गए, यह ठीक, लेकिन इस भूल से सारा जीवन दुख और पीड़ा और
नर्क से भर जाता है। हमारी सारी पीड़ा एक ही है बुनियाद में, गहरे
में, केंद्र पर कि हम उसे भूल गए हैं, जो
हमारे भीतर बैठा है।
कृष्ण कहते हैं, जैसे धुएं से आग छिपी है,
ऐसे ही तुम भी छिपे हो अपनी ही वासना से।
कभी आपने खयाल किया कि यह धुआं बड़ा कीमती शब्द है। कुछ और शब्द भी
प्रयोग किया जा सकता था, लेकिन धुआं कितना हवाई है, ठोस
नहीं है जरा भी। जरा भी ठोस नहीं है, हाथ हिलाएं, तो चोट भी नहीं लगती धुएं को। तलवार चलाएं, तो धुआं
कट भी नहीं सकता। धक्के देकर हटाएं, तो आप ही हट जाएंगे,
धुआं वहीं का वहीं रह जाएगा। कितना ना-कुछ, जस्ट
लाइक नथिंग। धुएं का इसलिए उपयोग किया है कि बिलकुल ना-कुछ है, सब्सटेंशियल जरा भी नहीं, तत्व कुछ भी नहीं है;
धुआं-धुआं है।
वासना भी ऐसी ही धुआं-धुआं है। तत्व कुछ भी नहीं है, सिर्फ धुआं-धुआं है। हाथ से हटाएं, हटती नहीं;
तलवार से काटें, कटती नहीं; फिर भी है। और उसे छिपा लेती है, जो बहुत वास्तविक
है। अब आग से ज्यादा वास्तविक क्या होगा! आग किसी को भी जला दे और धुएं को नहीं
जला पाती! आग किसी को भी राख कर दे, और धुएं को राख नहीं कर
पाती। अगर धुआं होता कुछ, तो आग उसको जला देती। वह ना-कुछ है,
इसलिए जला भी नहीं पाती। और धुआं उसे घेर लेता है। ऐसे ही मनुष्य के
भीतर के ज्ञान को उसकी वासना घेर लेती है। वासना अगर कुछ होती, तो ज्ञान काट भी देता, लेकिन बिलकुल धुआं-धुआं है।
कभी आपने अगर खयाल किया होगा अपने चित्त का, जब वह वासना से भरता है, तो आपको फौरन पता लगेगा कि
जैसे धुआं-धुआं चारों ओर घिर गया। कभी कामवासना से जब मन भर जाता है, तो ऐसा ही लगता है, जैसे सुबह, सर्दी की सुबह आप बाहर निकले हों और चारों ओर धुआं-धुआं है। कुछ दिखाई
नहीं पड़ता, अंधापन घेर लेता है, फिर भी
बढ़े जाते हैं। कोई चीज, जहां नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा भी लगता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई भीतर से
पुकारता भी है कि अंधेरे में जा रहे हो, गलत में जा रहे हो,
फिर भी बढ़े जाते हैं।
कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम
जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल
जम गई है। धूल जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी
नहीं। दर्पण का कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता है धूल
के जमने से, दि मिरर रिमेंस दि मिरर; कोई
फर्क नहीं पड़ता। धूल कितनी ही पर्त-पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर-लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी बनी रहती
है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें दर्पण के ऊपर, छोटे-से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी
दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर-लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण
दर्पण था, कुछ खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का
बहुत कीमती है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर,
ऐसे ही वासना जम जाती है आदमी की चेतना पर।
चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। लेकिन हमारे
पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही
शक्ल नहीं दिखाई पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई
पड़ेगा! कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा
दिखाई पड़ सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता,
कुछ नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और
हम उस धूल को बढ़ाए चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस।
एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा आदमी भीतर से अंधा
हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की
तरह व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कोई दर्पण
है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का पता कब चलता
है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी
पता चलता है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं बनती,
प्रतिबिंब नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा?
आपने कभी खयाल किया कि आपके भीतर सत्य का आज तक कोई प्रतिबिंब नहीं
बना! जरूर कहीं न कहीं आपके भीतर दर्पण जैसी चीज खो गई है। वे जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, वे तो कहते हैं कि दिल के आईने में
है तस्वीरे-यार, वह तो यहां हृदय के दर्पण में उस प्रेमी की
तस्वीर है; जब जरा गरदन झुकाई देख ली। बाकी हम कितनी ही गरदन
झुकाएं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अपनी गरदन भी नहीं दिखाई पड़ती,
तस्वीरे-यार तो बहुत मुश्किल है। उस प्रेमी की तस्वीर दिखाई पड़नी तो
बहुत मुश्किल है। धूल है।
धूल क्यों कहते हैं? धुआं क्यों कहते हैं, मैंने कहा। धूल क्यों कहते हैं? और कृष्ण जैसा आदमी
जब एक भी शब्द का प्रयोग करता है, तो यों ही नहीं करता।
कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक होते हैं; एक-एक शब्द बड़ी
मुश्किल से उपयोग करते हैं।
जैसे टेलीग्राफ आफिस आप चले जाते हैं, तो एक-एक शब्द को
काटते हैं कि कहीं ज्यादा न हो जाए, ज्यादा दाम न लग जाएं।
आठ अक्षर, पहले दस, अब आठ से ही काम
चलाना पड़ता है; आठ में ही काम हो जाता है। लेकिन कभी आपने
खयाल किया कि आठ सौ शब्दों की चिट्ठी जो काम नहीं करती, वह
आठ अक्षर का तार काम कर जाता है। असल में जितने बेकार शब्द अलग हो जाते हैं,
उतना ही इंटेंस, उतना ही गहरा भाव प्रकट हो
जाता है।
कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक हैं, एक भी शब्द का ऐसे ही
उपयोग नहीं कर लेते। जब वे कहते हैं धूल की भांति वासना को, तो
कुछ बात है। उन्होंने तो ठीक शब्द मल प्रयोग किया है। मल और भी, धूल से भी कठिन शब्द है। मल में गंदी धूल का भाव है, सिर्फ धूल का नहीं। गंदगी से भर गया। धूल ही नहीं सिर्फ, गंदगी भी।
वासना में गंदगी क्या है? दुर्गंध क्या है?
बहुत दुर्गंध है। और वह दुर्गंध इस बात से आती है कि एक तो वासना कभी
भी दूसरे का गुलाम हुए बिना पूरी नहीं होती और जीवन में सारी दुर्गंध परतंत्रता से
आती है। जीवन की सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है और जिंदगी की सारी सुगंध
स्वतंत्रता से आती है। जितना स्वतंत्र मन, उतना ही सुवास से
भरा होता है। और जितना परतंत्र मन, उतनी दुर्गंध से भर जाता
है। और वासना परतंत्र बनाती है।
अगर आप एक स्त्री पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ
जाएगी। अगर आप एक पुरुष पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी।
अगर आप धन के दीवाने हैं, तो धन की गुलामी आ जाएगी। अगर आप
पद के दीवाने हैं, तो जाकर दिल्ली में देखें! एक दफे दिल्ली
में सबको पकड़ लिया जाए और एक पागलखाना बना दिया जाए, तो
मुल्क बहुत शांति में हो जाए। अलग-अलग पागलखाने खोलने की जरूरत नहीं, पूरी दिल्ली घेरकर पागलखाना बना देना चाहिए। या पार्लियामेंट को ही पकड़
लिया जाए, तो भी काफी है। कुर्सी! तो आदमी ऐसा गुलाम हो जाता
है, ऐसा गिड़गिड़ाता है, ऐसी लार टपकाता
है, ऐसे हाथ जोड़ता है, ऐसे पैर पड़ता है,
और क्या-क्या नहीं करता--वह सब करने को राजी हो जाता है। एक गुलामी
है, एक दासता है।
जहां भी वासना है, वहां गुलामी होगी। जो पैसे का
पागल है, उसको देखा है आपने कि रुपए को कैसा, कैसा मोहित, कैसा मंत्रमुग्ध देखता है! रात सपने में
भी गिनता रहता है। पैसा छिन जाए, तो उसके प्राण चले जाएं।
उसका प्राण पैसे में होता है। पैसा बच जाए, तो उसकी आत्मा बच
जाती है। वासना दुर्गंध लाती है, क्योंकि वासना परतंत्रता
लाती है। और इसलिए वासना से भरा हुआ आदमी कभी सुगंधित नहीं होता। उसके चारों तरफ
वह सुगंध नहीं दिखाई पड़ती, जो किसी महावीर, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के आस-पास दिखाई पड़ती है।
और बड़े मजे की बात है कि वासना तृप्त न हो, तो भी चित्त पीड़ित और परेशान होता है; और जो चाहा था
वह मिल जाए, तो भी चित्त फ्रस्ट्रेट होता है, तो भी पीछे विषाद छूट जाता है। कामवासना तृप्त न हो, तो मन कामवासना के चित्रों की दुर्गंध से भर जाता है। और कामवासना तृप्त
होने का मौका आ जाए, तो पीछे सिवाय हारे हुए, दुर्गंध से पराजित व्यक्तित्व के कुछ भी नहीं छूटता। दोनों ही स्थितियों
में चेतना धूमिल होती है और चेतना पर गंदगी की पर्त जम जाती है।
लेकिन गंदगी की पर्त पता नहीं चलती, क्योंकि धीरे-धीरे हम
गंदगी के आदी हो जाते हैं। दुर्गंध मालूम नहीं पड़ती! नासापुट राजी हो जाते हैं,
कंडीशनिंग हो जाती है। तो ऐसा भी हो सकता है कि हमें दुर्गंध नहीं,
सुगंध मालूम पड़ने लगे। ऐसा भी हो जाता है। ऐसा भी हो जाता है कि जो
दुर्गंध निरंतर हम उसके आदी हो गए हैं, कंडीशनिंग हो गई है,
तो हमें लगता है कि बड़ी सुगंध आ रही है। ऐसा ही हो भी गया है। और
जिस दिन दुर्गंध सुगंध मालूम होने लगती है, उस दिन तो जैसे
फिर छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को कारागृह निवास मालूम पड़ने लगे, घर मालूम पड़ने लगे, फिर तो छुटकारा बहुत मुश्किल है।
जिस आदमी को सूली सिंहासन मालूम पड़ने लगे, आप उसे उतारना भी
चाहें सूली से, तो वह नाराज हो कि भाई हम सिंहासन पर बैठे
हैं, आप हमें उतारने की बात करते हैं! तुम भी आ जाओ।
तो अगर हम जीसस पर, कृष्ण और क्राइस्ट पर, और बुद्ध और मोहम्मद पर अगर नाराज हो जाते हैं, तो
नाराज होने का कारण है। हम अपनी दुर्गंध में बड़े मस्त हैं, तुम
नाहक हमें बेचैन करते हो, डिस्टर्ब करते हो। हम बड़े मजे में
हैं। गोबर का कीड़ा है, वह गोबर में ही मजे में है। आप उसे
गोबर से हटाएं, तो वह बड़ी नाराजगी से फिर गोबर की तरफ चला
जाता है। उसके लिए गोबर नहीं है, उसके लिए जीवन है!
खयाल शायद हमें न आए कि जहां हम जी रहे हैं, वह दुर्गंध है। लेकिन दुर्गंध तो है ही, चाहे हम
कितने ही कंडीशंड हो जाएं। फिर हम कैसे पहचानें कि वह दुर्गंध है? हम एक ही बात पहचान सकते हैं, जिससे दुख मिलता हो,
हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध है वासना, तो
दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, दुख ही दुख मिलता
है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध।
कृष्ण कहते हैं, दुर्गंधयुक्त मल से ढंक जाए जैसे
दर्पण। दर्पण कहते हैं।
दर्पण के साथ एक और बात समझ लेनी जरूरी है। दर्पण पर, आपने कभी खयाल किया कि दर्पण के सामने आइए, तो आपकी
तस्वीर बन जाती है; और हट जाइए, तो
तस्वीर मिट जाती है। यह दर्पण की खूबी है। यही उसकी क्वालिटी है, यही उसका गुण है। फोटो कैमरे के भीतर भी फिल्म होती है। वह उस पर भी
तस्वीर बनती है, लेकिन मिटती नहीं; बन
गई, तो बन गई। एक्सपोजर हो गया, तो हो
गया। एक दफे बनती है, फिर तस्वीर को पकड़ लेती है कैमरे की
फिल्म, फिर छोड़ती नहीं।
दर्पण जैसा कहने का कारण है। सिर्फ जो व्यक्ति धुएं से और दुर्गंधयुक्त
मल से मुक्त होता है और जिसका चित्त शुद्ध दर्पण हो जाता है, उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है--उसके सामने जो आता है, उसकी
तस्वीर बन जाती है; जो हट जाता है, दर्पण
कोरा और खाली और मुक्त हो जाता है। मित्र आया, तो खुशी;
और चला गया, तो भूल गए। परिवार के लोग रहे,
तो आनंद; नहीं रहे, तो
बात समाप्त--दर्पण जैसा। फिर कोई चीज पकड़ती नहीं, एक्सपोजर
होता ही नहीं। चीजें आती हैं, चली जाती हैं, और दर्पण अपनी शुद्धता में जीता है।
दर्पण को अशुद्ध नहीं किया जा सकता। फोटो के कैमरे की जो फिल्म है, उसको अशुद्ध किया जा सकता है, वह अशुद्ध होने के लिए
ही है। वही उसकी खूबी है कि वह फौरन तस्वीर को पकड़ लेती है और बेकार हो जाती है।
दर्पण बेकार नहीं होता। लेकिन हम जिस चित्त से जीते हैं, उसमें
हमारी हालत दर्पण जैसी कम और फोटो की फिल्म जैसी ज्यादा है। जो भी पकड़ जाता है,
वह पकड़ जाता है, फिर वह छूटता नहीं। एक्सपोजर
हो जाता है, छूटता ही नहीं। कल किसी ने गाली दी थी, वह अभी तक नहीं छूटी; चौबीस घंटे बीत गए, वह गूंज रही है, वह चल रही है। देने वाला हो सकता है,
भूल गया हो; देने वाला हो सकता है, अब माफी मांग रहा हो मन में; देने वाला हो सकता है,
अब हो ही न इस दुनिया में--लेकिन वह गाली गूंजती है। हो सकता है वह
आज गूंजे, कल गूंजे; हो सकता है कब्र
में आप उसे अपने साथ ले जाएं और वह गूंजती ही रहे। एक्सपोजर हो गया, दर्पण जैसा नहीं रहा आपका चित्त।
एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया और दूसरे दिन माफी मांगने आया।
तो बुद्ध ने कहा, पागल, गंगा का बहुत पानी बह
चुका है। कहां की बातें कर रहा है! इतिहासों को मत उखाड़, गड़े
मुरदों को मत उखाड़; बात खत्म हो गई। अब न तो मैं वह हूं,
जिस पर तू थूक गया था; न अब तू वह है, जो थूक गया था; न अब वह सूरज है, न वह आकाश है, न जमीन है; सब
बदल चुका। चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। तू किससे माफी मांगता है! लेकिन वह
कहने लगा, नहीं, मुझे माफ कर दें।
बुद्ध ने कहा, तूने थूका ही नहीं। मालूम होता है, तू जो थूक गया था, चौबीस घंटे उसको दोहराता भी रहा
है, उसकी जुगाली करता रहा है।
हम सब ऐसे ही जीते हैं। यहां कोई हम में दर्पण जैसा नहीं है। दर्पण
जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है, क्योंकि तब चीजें आती
हैं और चली जाती हैं।
वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू दर्पण जैसे ज्ञान को उपलब्ध हो
जा। हटा धूल को, जिस धूल के कारण चित्र पकड़ जाते हैं। हटा धुएं को,
जिस धुएं के कारण तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि तेरे भीतर जो ज्योति है
ज्ञान की, वह क्या है। अपने दर्पण को उसकी पूरी शुद्धता में,
पूरी प्योरिटी में ले आ, ताकि चीजें आएं और
मिटें और जाएं और तेरे ऊपर कोई प्रभाव न छूट जाए, कोई
इंप्रेशन, कोई प्रभाव तेरे ऊपर पकड़ न जाए, तू खाली...।
कबीर ने कहा न, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी कबीरा; बहुत जतन से ओढ़ी चादर और फिर
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। जरा भी दाग नहीं लगाया। दर्पण जैसी हो चादर, तभी हो सकता है ऐसा। अगर चादर दर्पण जैसी न हो, तो
दाग लग ही जाएगा। जिस चादर की बात कबीर कह रहे हैं, वह कृष्ण
के दर्पण की ही बात है। अगर चित्त दर्पण जैसा है, तो कितना
ही ओढ़े, कोई दाग नहीं लगता। दर्पण पर दाग लगता ही नहीं।
दर्पण कुछ पकड़ता ही नहीं। सब चीजें आती हैं और चली जाती हैं, और दर्पण अपने खालीपन में, अपनी शून्यता में,
अपनी निर्मलता में, अपनी शुद्धता में रह जाता
है।
लेकिन शुद्धता दर्पण की तो तब हो न, जब उसके ऊपर धूल
अशुद्धि की न जमे। दर्पण शुद्ध तो तब हो न, जब मैं स्वयं
रहूं, मेरे ऊपर दूसरे न जम जाएं। दर्पण तो शुद्ध तब हो न,
जब मैं जो हूं, वही रहूं; उसकी आकांक्षा न करूं, जो मैं नहीं हूं। दर्पण तो
शुद्ध तभी हो सकता है न, जब वर्तमान का क्षण पर्याप्त हो और
जब भविष्य की कामनाएं न पकड़ें और अतीत की स्मृतियां न पकड़ें, तभी मन का दर्पण शुद्ध हो सकता है।
ऐसे शुद्ध दर्पण को कृष्ण कहते हैं, ज्ञान। और ऐसा ज्ञान
मुक्ति है।
प्रश्न: भगवान श्री, आप कहते हैं कि खाद की दुर्गंध
ही फूल की सुगंध बनती है और काम-ऊर्जा ही आत्म-ऊर्जा बनती है, लेकिन यहां काम को ज्ञानियों का नित्य वैरी कहकर उसके प्रति निंदाभाव
क्यों व्यक्त किया गया है?
नहीं, निंदाभाव नहीं है। वैरी कहकर सिर्फ एक तथ्य की सूचना
दी गई है। और जब मैं कहता हूं कि खाद की दुर्गंध ही फूल की सुगंध बनती है, तब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि खाद में दुर्गंध नहीं होती। खाद में दुर्गंध
तो होती ही है। और आप घर में खाद ही रख लें लाकर, तो फूलों
की सुगंध पैदा नहीं हो जाती। सिर्फ दुर्गंध ही बढ़ेगी; खाद
सड़ेगा और दुर्गंध बढ़ेगी। जो आदमी खाद को घर में रखकर बैठ जाता है, उसके लिए खाद वैरी है। लेकिन जो आदमी खाद को बगिया में डालकर, मिट्टी में मिलाकर, बीजों के साथ बिछा देता है,
उसके लिए खाद मित्र हो जाता है। और ध्यान रहे, वैरी का होना वैरी, कोई उसकी नियति नहीं है, वह मित्र भी हो सकता है। जो वैरी हो सकता है, वह
मित्र भी हो सकता है। जो मित्र हो सकता है, वह वैरी भी हो
सकता है।
यहां कृष्ण सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि जिसकी वासना धुआं बनकर उसके
चित्त को घेर लेती है, उसकी वासना उसकी ही दुश्मन हो जाती है। लेकिन जो इस
धुएं से अपनी अग्नि को पहचानता है कि अग्नि भी भीतर होनी चाहिए, क्योंकि धुआं बाहर है। और जहां-जहां धुआं है वहां-वहां अग्नि है, बिना अग्नि के धुआं नहीं हो सकता। जो इस वासना के धुएं को देखकर भीतर की
अग्नि के स्मरण से भर जाता और धुएं को हटाकर अग्नि को उपलब्ध होता है, उसके लिए वासना शत्रु नहीं रह जाती, मित्र हो जाती
है। लेकिन कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि वैरी है। वैरी का मतलब केवल इतना ही है
कि अभी तू जिस स्थिति में खड़ा है, वहां तूने अपनी वासना को
वैरी की स्थिति में ही बांध रखा है। वह तेरी मित्र नहीं बन पाएगी।
इस जगत में जो भी चीज हानि पहुंचा सकती है, वह लाभ पहुंचा सकती है। रास्ते पर पड़ा हुआ पत्थर रुकावट भी बनता है,
समझदारों के लिए सीढ़ी भी बन जाता है। उसी पर चढ़कर वे और ऊपर उठ जाते
हैं। जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका शुभ उपयोग न हो
सके। और जिंदगी में ऐसा भी कुछ भी नहीं है, जिसका दुरुपयोग,
अशुभ उपयोग न हो सके। उपयोग सदा हम पर निर्भर है।
हम वासना का शत्रु की तरह व्यवहार कर सकते हैं। हम करते हैं। हम वासना
से करते क्या हैं? हम वासना से सिर्फ अपने को थकाते हैं। हम वासना से
सिर्फ अपने को गंवाते हैं। हम वासना से सिर्फ अपने को चुकाते हैं। हम वासना से
सिर्फ छेद-छेद से जैसे पानी रीतता चला जाए किसी घड़े से, ऐसे
हम अपने जीवन को रिताते हैं। हम और वासना से करते क्या हैं? वासना
हमारे लिए शक्ति का, ऊर्जा का, परमात्मा
की उपलब्धि का द्वार नहीं बनती है। वासना हमारे लिए ऊर्जा का, शक्ति का, प्रभु का, आत्मा का
खोने का मार्ग बनती है। वासना का रूपांतरण हो सकता है।
इसलिए कृष्ण जब वैरी कह रहे हैं, तो उनका प्रयोजन
निंदा का नहीं है। और जब मैं मित्र कहता हूं, तो मेरा
प्रयोजन भी प्रशंसा का नहीं है। फिर से दोहराऊं--जब कृष्ण कहते हैं, वासना शत्रु है, तो उनका प्रयोजन निंदा का नहीं है;
और जब मैं कहता हूं, वासना मित्र है, तो मेरा प्रयोजन प्रशंसा का नहीं है। कृष्ण आधी बात कह रहे हैं कि शत्रु
है और सूचना दे रहे हैं कि उसे शत्रु ही मत बनाए रखना। मैं भी आधी बात कह रहा हूं
कि मित्र है और सूचना दे रहा हूं कि उसे मित्र बना लेना है।
शत्रु मित्र बनाए जा सकते हैं; दुर्गंधें सुगंधें
बनाई जा सकती हैं; धुआं आग की तरफ ले जाने वाला बन सकता है
और धुआं आग से दूर ले जाने वाला भी बन सकता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम
वासना का क्या उपयोग करते हैं। वासना विनाशक हो सकती है और वासना सृजनात्मक भी हो
सकती है। वासना ही मनुष्य को वहां पहुंचा सकती है, जहां
परमात्मा का मंदिर है। और वासना ही वहां भी पहुंचा सकती है, जहां
परमात्मा की तरफ पीठ भी हो जाती है। दोनों ही हो सकता है।
हमने तुलसीदास की कहानी पढ़ी है; सभी को पता है। वासना
शत्रु थी--कृष्ण के अर्थों में--वैरी थी। पत्नी गई है मायके, तो रुक नहीं सके। पागल की तरह, विक्षिप्त की तरह,
अंधे की तरह भागे। आंखें देखती नहीं, कान
सुनते नहीं, हाथ छूते नहीं! वर्षा है, बाढ़
है, कूद पड़ते हैं। लगता है कि कोई लकड़ी बहती है, उसका सहरा ले लेते हैं। लकड़ी नहीं है वहां, सिर्फ एक
मुरदा बह रहा है! उसी का सहारा लेकर नदी पार कर जाते हैं। मुरदा नहीं दिखाई पड़ता,
दिखाई पड़ता है लकड़ी है। वासना अंधी है। आधी रात पहुंच गए हैं घर पर,
द्वार खुलवाने की हिम्मत नहीं पड़ती। वासना सदा कमजोर है, वासना सदा भयभीत है। जहां भय है, वहां वासना है।
जहां वासना है, वहां भय है। सिर्फ अभय वही होता है, जो वासना में नहीं है। चोरी से घर के पीछे से चढ़ते हैं। लगता है रस्सी
लटकी है, सांप लटकता है वर्षा का। दिखाई नहीं पड़ता, हिप्नोटाइज्ड हैं, सम्मोहित हैं।
जो देखना चाहते हैं, वही दिखाई पड़ता है वासना में;
वह नहीं दिखाई पड़ता है, जो है। जो देखना चाहते
हैं, वही दिखाई पड़ता है। अभी रस्सी चाहिए चढ़ने के लिए,
इसलिए सांप रस्सी दिखाई पड़ता है। अभी पार होने के लिए लकड़ी चाहिए,
तो मुरदा लकड़ी दिखाई पड़ता है। वासना में वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखना चाहते हैं; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। आत्मा में वही दिखाई पड़ता है, जो है; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो आप देखना चाहते हैं। इसलिए
आत्मा तो सत्य को देखती है, वासना अपने खुद के झूठे सत्य
निर्मित करती है, प्रोजेक्ट करती है। अब यह सांप नहीं दिखाई
पड़ा, रस्सी दिखाई पड़ी। प्रोजेक्शन हो गया। रस्सी चाहिए थी,
चढ़ गए।
पत्नी ने एक बात कही कि जितना मेरे लिए दौड़ते हैं, काश, इतना राम के लिए दौड़ें! बस, वासना मित्र हो गई! उसी दिन से मित्र हो गई, उसी घड़ी,
उसी क्षण। इस क्षण के पहले तक शत्रु थी। यात्रा बदल गई, रुख बदल गया, मुंह फिर गया। कल तक जहां पीठ थी,
उस तरफ आंखें हो गईं; और कल तक जहां आंखें थीं,
वहां पीठ हो गई। रास्ता वही है, लेकिन यात्रा
बदल गई।
आप यहां तक आए हैं। जिस रास्ते से आए हैं, उसी रास्ते से वापस लौटेंगे। रास्ता वही है, लेकिन
अभी मेरी तरफ आते थे, तो आंखें मेरी तरफ थीं; अब घर की तरफ जाएंगे, तो घर की तरफ आंखें होंगी। अभी
आए थे, तो घर की तरफ पीठ थी।
वासना ही रास्ता है परमात्मा से दूर जाने का भी और परमात्मा के पास
आने का भी। वासना में ज्यादा जाइए, तो दूर चले जाएंगे;
वासना में कम से कम जाइए--लौटते आइए, लौटते
आइए--तो परमात्मा में आ जाएंगे। जिस दिन वासना पूर्ण होगी, उस
दिन परमात्मा से डिस्टेंस एब्सोल्यूट होगा। जिस दिन वासना शून्य होगी, उस दिन परमात्मा से नो डिस्टेंस पूर्ण होगा। उस दिन निकटता पूरी हो जाएगी,
जिस दिन वासना नहीं होगी। जिस दिन वासना ही वासना होगी, उस दिन दूरी पूर्ण हो जाएगी। रास्ता वही होता है। सीढ़ी वही होती है,
जो ऊपर ले जाती है मकान के। सीढ़ी वही होती है, जो नीचे लाती है मकान के। आप भी वही होते हैं, सीढ़ी
भी वही होती है, सिर्फ रुख बदल जाता है। चढ़ते वक्त ऊपर की
तरफ नजर होती है, उतरते वक्त नीचे की तरफ नजर होती है।
नहीं, कृष्ण जब वैरी कह रहे हैं वासना को, तो निंदा नहीं कर रहे हैं, सिर्फ सूचना दे रहे हैं
अर्जुन को कि वासना वैरी बन सकती है, बन जाती है। सौ में
निन्यानबे मौकों पर वैरी ही होती है। और जब मैं कहता हूं कि वासना मित्र है,
तो मैं कह रहा हूं कि सौ में निन्यानबे मौकों पर वासना वैरी होती है,
लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर भी वासना मित्र बन सकती है। मैं
संभावना की बात कह रहा हूं, कृष्ण वास्तविकता की बात कह रहे
हैं। कृष्ण कह रहे हैं, जो है; मैं कह
रहा हूं वह, जो हो सकता है। और जो है, वह
इसीलिए कह रहे हैं, ताकि वह हो सके, जो
होना चाहिए। अन्यथा जो है, उसको कहने का कोई भी प्रयोजन नहीं
है।
प्रश्न: भगवान श्री, अभी आपने कहा कि वासना, अधिक वासना का अर्थ है, परमात्मा से अधिक दूरी;
और दूसरी जगह आप कहते हैं कि वासना की चरम ऊंचाइयों पर ही रूपांतरण
होता है। कृपया इसे स्पष्ट करें।
निश्चय ही, जितने दूर होते हैं हम, वासना
में जितने गहरे होते हैं, उतने परमात्मा से दूर होते हैं।
लेकिन गहराइयों का भी अंत है। और जब कोई व्यक्ति वासना की चरम सीमा पर पहुंच जाता
है, तो उसके आगे वासना नहीं है फिर। जिस दिन कोई वासना के
आखिरी छोर को छू लेता है, उस दिन ऐसा आदमी है वह, जो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा आया और अब भलीभांति जानता है कि क्षितिज आकाश
को कहीं भी नहीं छूता। उस दिन रूपांतरण, उस दिन परमात्मा की
तरफ लौटना शुरू होता है।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि वासना पूरी है, तो परमात्मा से पूरी दूरी है, तब मैं यह नहीं कह रहा
हूं कि लौटना असंभव है। सच तो यह है कि पूरी दूरी से ही लौटना आसान होता है,
बीच से लौटना आसान नहीं होता। इसलिए हम अक्सर देखते हैं कि पापी
शीघ्रता से संतत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। मीडियाकर, मध्यवर्गीय
चित्त के लोग शीघ्रता से संतत्व को उपलब्ध नहीं होते। कोई वाल्मीकि शीघ्रता से...।
पाप की आखिरी गहराई छू ली। और जब कृष्ण ऐसे आदमी से कहेंगे कि पाप वैरी है,
तो वाल्मीकि जितना ठीक से समझ सकता है, उतना
अर्जुन नहीं समझ सकता। क्योंकि अर्जुन ने वासना को उस गहराई तक छुआ भी नहीं है,
जहां उसका वैरीपन पूरा प्रकट हो जाए। वाल्मीकि जानता है अनुभव से,
कृष्ण जो कहते हैं, वाल्मीकि जानता है अपनी
पीड़ा से, वह कहेगा कि ठीक है। वाल्मीकि के पूरे प्राण से
निकलेगा, हां, यही है सच कि वासना दुख
और पीड़ा और नरक है। और उसके नरक को वह जानता है, उसका लौटना
शीघ्रता से होता है।
तो जब मैं कहता हूं कि दूरी पूर्ण है परमात्मा से, तभी छलांग का क्षण भी है। वह मैं नहीं कह रहा हूं कि छलांग नहीं लग सकती।
कोई आदमी इतनी वासना में नहीं हो सकता कि वहां से लौट न सके, क्योंकि कोई आदमी किसी रास्ते पर इतना आगे नहीं जा सकता कि उसी रास्ते से
वापस न आ सके। हां, अगर कल-डि-सेक आ जाए, रास्ते का अंत आ जाए, वहां से रास्ता ही खत्म हो जाए,
आगे खड्ड हो अनंत और कोई रास्ता न हो, तो
लौटना ज्यादा तीव्रता से होता है कि व्यर्थ हो गया यह रास्ता।
लेकिन बीच में जो लोग होते हैं, उन्हें आगे रास्ता
दिखाई पड़ता है। उन्हें लगता है, अभी तो रास्ता शेष है। आप
कहते हैं कि नर्क है, लेकिन हम आखिर तक जाकर तो देख लें!
क्योंकि अब तक तो मन ने कहा कि स्वर्ग आगे है। आप कहते हैं, पीछे
है! मन तो कहता है, आगे है। वासना तो कहती है, और थोड़ा, और थोड़ा, बस एक मील
का पत्थर और पूरा करो। और वासना कभी भी पूरी बात नहीं कहती, हमेशा
इंस्टालमेंट में कहती है। इतना और कर लो, बस इतने में तो देर
नहीं, थोड़ी-सी तो बात रह गई है। दस-पांच कदम और, और मंजिल आ रही है। अब यहां से लौट रहे हो! पागल हो! कहते होंगे कृष्ण।
पता नहीं, यह आदमी झूठ कहता हो; पता
नहीं, यह आदमी धोखा देता हो; पता नहीं;
इस आदमी की बात कहां तक सच है!
अर्जुन को दिक्कत होती है समझने में, वाल्मीकि को दिक्कत
नहीं होगी। वाल्मीकि कहेगा, ठीक कहते हो! आगे रास्ता कहां
है! अब तो सब मील के पत्थर खत्म हुए। तो वाल्मीकि जैसा आदमी क्षण में, क्षण में, सडेन क्रांति से गुजर जाता है। अनेक लोग
मुझसे पूछते हैं कि वाल्मीकि जैसे पापी, और इतने बड़े संत
कैसे हो सकते है! तो मैं उनसे कहता हूं कि जो आदमी इतना पापी होने की हिम्मत कर
सकता है, वह आदमी उतनी ही मात्रा में संत होने की हिम्मत कर
सकता है--साहस है।
हममें तो पापी होने का भी साहस नहीं होता, पुण्यात्मा होने का साहस तो जरा दूर की बात है। अगर हम पापी नहीं होते,
तो उसका कारण यह नहीं होता कि हम पुण्यात्मा हैं; उसका कुल कारण इतना होता है कि पापी होने का भी साहस नहीं है। अगर आदमी
चोरी नहीं करता, तो उसकी वजह यह नहीं कि वह अचोर है, सौ में निन्यानबे मौकों पर वजह इतनी ही होती है कि चोर के लिए जितनी
हिम्मत चाहिए, उतनी भी उसमें नहीं है। चोर तो वह है ही,
सिर्फ हिम्मत नहीं है, इसलिए एक्ट नहीं कर
पाता; विचार ही करता रहता है। सोचता ही रहता है, कर नहीं पाता। सोचता ही सोचता रहता है।
वाल्मीकि जैसे लोग हिम्मतवर हैं। और जब वे पाप में छलांग लगा सकते हैं
बेशर्त, तो किसी दिन अगर उनको पता चल जाए कि पाप का रास्ता
समाप्त हुआ, तो परमात्मा में वे छलांग नहीं लगा सकेंगे! इतनी
ही बेशर्त छलांग परमात्मा में भी लगा देते हैं। छलांग की हिम्मत जिसको पाप में भी
है, उसको परमात्मा में न होगी! जो नर्क में कूद सकता है,
उसके सामने स्वर्ग आ जाए, तो नहीं कूदेगा!
लेकिन हम, हम कोई हिम्मत नहीं जुटा पाते। इसलिए बीच के आदमियों
की कठिनाई है; वे दोनों बातें मानते रहते हैं। इधर रोज गीता
भी पढ़ लेते हैं और कहते हैं कि वासना वैरी है, और दिन-रात
वासना को सोचकर सोचते भी हैं कि होता है। कहते तो हैं कृष्ण, पता नहीं, चित्त तो यही कहता है कि वासना ही मित्र
है। इसलिए फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं, फिर चौबीस घंटे वासना
में जीते हैं, फिर सुबह गीता पढ़ लेते हैं। फिर उनकी यह
नियमित आदत हो जाती है। वासना में भी जीते हैं, वासना के
खिलाफ पढ़कर अपने मन को भी हलका कर लेते हैं।
यह बड़ी तरकीब है चालाक, कनिंग! इस भांति वे
दोहरा काम करते हैं। इस भांति वे वासना में भी जीते रहते हैं और अपने मन को भी
समझाते रहते हैं कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं, रोज गीता
पढ़ता हूं, वासना वैरी है। आदमी तो अच्छा हूं, जरा समय नहीं आया; अभी प्रभु की कृपा नहीं है;
अभी पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं; अभी
स्थिति नहीं बनी, इस तरह समझाते। गीता तो रोज पढ़ता ही हूं,
इसलिए अपने अहंकार को भी भीतर बचाए रखते हैं कि मैं जानता हूं कि
वासना वैरी है। और अपने चित्त को भी चलाए रखते हैं वासना में। ऐसे वे दो नावों पर
सवार होते हैं। कहीं नहीं पहुंचते। न पाप के अंत पर पहुंचते, न पुण्य के अंत पर पहुंचते। सदा ही उनकी दो नावें बीच में ही भटकती रहती
हैं। अनंत जन्म ऐसे बीत सकते हैं।
अगर कोई आदमी साहस से वासना में ही चला जाए, तो आज नहीं कल वासना के बाहर आना पड़ेगा। सिर्फ परमात्मा के बाहर आने का
उपाय नहीं है, बाकी तो कहीं से भी बाहर आना पड़ेगा। क्योंकि
जिस दिन पता चलेगा कि व्यर्थ है, उसी दिन लौटना शुरू हो
जाएगा। उस दिन फिर कृष्ण की बात उधार नहीं मालूम पड़ेगी, आथेंटिक,
प्रामाणिक हो जाएगी। प्राणों की, अपने ही
प्राणों से आई हुई मालूम पड़ेगी। उस दिन गवाही दे सकेगा वाल्मीकि कि ठीक कहते हो
तुम, मैं भी दस्तखत करता हूं, मैं भी
गवाह हूं, विटनेस हूं कि यही बात है। सिर्फ नर्क के और कुछ
भी नहीं आता।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि वासना की पूर्णता पर ही रूपांतरण होता है, तो मेरी दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। वासना की पूर्णता पर आप
परमात्मा से सर्वाधिक दूर होते हैं, लेकिन वासना की पूर्णता
पर, चरम स्थिति में रूपांतरण की संभावना भी सर्वाधिक होती
है। असल में जो परमात्मा से सर्वाधिक दूर है, वही शायद
परमात्मा की सर्वाधिक कमी भी अनुभव कर पाता है। और जो परमात्मा से सर्वाधिक दूर है,
वही शायद दौड़कर परमात्मा की गोद में भी गिर पाता है। जिनको लगता है
कि हम तो पास ही हैं मंदिर के, पड़ोस में, वे सोचते हैं, कभी भी हो लेंगे। ऐसी कोई जल्दी भी
क्या है? पड़ोस में ही मंदिर है, कभी भी
मंदिर में चले जाएंगे। आदमी हम भले हैं, ऐसा परमात्मा की तरफ
दौड़ने की जरूरत भी क्या है? कभी भी, कभी
भी।
एक अंग्रेज लेखक ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उस किताब में उसने लिखा
है कि लंदन में दूसरे यात्री आते हैं सारी दुनिया से, तो लंदन का टावर देख लेते हैं; पर लंदन में ऐसे
लाखों लोग हैं, जिन्होंने लंदन का टावर नहीं देखा है। नहीं
देखा इसलिए कि देख लेंगे कभी भी। रोज उसी के पास से दफ्तर के लिए जाते हैं,
देख लेंगे कभी भी! इतने पास है, ऐसा अहसास जो
है--देख लेंगे। पेकिंग से आदमी आता है, देख लेता है। टोकियो
से आता है, देख लेता है। बंबई से आता है, देख लेता है। लंदन का निवासी टावर के सामने ही रहता है, पत्थर फेंके तो टावर पर पहुंच जाए, लेकिन वह नहीं
पहुंचता। वह सोचता है, देख लेंगे।
वैटिकन के पोप से एक दफा एक अमेरिकी यात्री मिलने आया। तीन मित्र साथ
ही आए। वैटिकन के पोप ने पूछा कि फ्रांस में कितने दिन रुकने का इरादा है? एक अमेरिकन ने कहा, छः महीने। वैटिकन के पोप ने कहा
कि तुम थोड़ा-बहुत फ्रांस जरूर देख लोगे। दूसरे से पूछा, तुम
कितने दिन रुकोगे? उसने कहा, मैं तो
सिर्फ तीन सप्ताह रुकूंगा। वैटिकन के पोप ने कहा, तुम काफी
फ्रांस देख लोगे। तीसरे से पूछा, तुम कितने दिन रुकोगे?
उसने कहा, मैं तो सिर्फ एक सप्ताह के लिए आया
हूं। वैटिकन के पोप ने कहा कि तुम पूरा फ्रांस देख लोगे। तीनों चकित हुए। उन्होंने
कहा, आप क्या कहते हैं! मैं छः महीना रुकूंगा, मुझसे कहते हैं कि थोड़ा-बहुत देख लोगे। तीन सप्ताह वाले से कहते हैं,
काफी देख लोगे। एक सप्ताह वाले से कहते हैं, पूरा
देख लोगे! वैटिकन के पोप ने कहा कि जिंदगी का मेरा अनुभव यही है कि जिसके पास लगता
है कि बहुत समय है, वह उतना आराम कर लेता है। जिसके पास लगता
है कि समय कम है, वह शीघ्रता से दौड़-धूप कर लेता है। जो चीज
लगती है कि कभी भी मिल जाएगी, उसे हम कभी नहीं पाते। और जो
चीज लगती है कि अब आखिरी घड़ी आ गई, जहां से छूटी तो सदा को
छूट जाएगी, हम दौड़ पड़ते हैं।
इसलिए अगर कभी पापी अपने पाप की चरम सीमा से परमात्मा की गोद में सीधा
पहुंच जाता है, तो बहुत चकित होने की जरूरत नहीं है। वह दौड़ पाता है।
उसे लगता है, आ गई आखिरी जगह, यहां से
एक कदम और कि मैं सदा के लिए खो जाऊंगा; फिर लौटने की कोई
जगह न रह जाएगी। लौट पड़ता है। आपको नहीं लगता है। आपको लगता है, रास्ता साफ सुथरा है; बिलकुल मेटल रोड है; मजे से चले जा रहे हैं। गति अच्छी है। और फिर भगवान पास है। भले आदमी हैं,
दान भी देते हैं, गीता भी पढ़ते हैं, मस्जिद भी जाते हैं, मंदिर भी जाते हैं, साधु-संत को नमस्कार भी करते हैं, और क्या चाहिए!
कभी भी चले जाएंगे। पास है।
नहीं। इसलिए पाप की पीड़ा मनुष्य को परमात्मा के पास पहुंचा देती है और
पुण्य का अहंकार मनुष्य को परमात्मा से दूर कर देता है।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। ४०।।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।। ४१।।
इंद्रियां, मन (और) बुद्धि इसके वासस्थान कहे जाते हैं
(और) यह (काम) इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके
(इस) जीवात्मा को मोहित करता है।
इसलिए, हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान
और विज्ञान को नाश करने वाले इस (काम) पापी को निश्चयपूर्वक मार।
कृष्ण कहते हैं, अर्जुन! इंद्रियां, मन, यही काम के, वासना के मूल
स्रोत हैं। इन्हीं के द्वारा वासना का सम्मोहन उठता है और जीवात्मा को घेर लेता
है। यही हैं स्रोत, जहां से विषाक्त झरने फैलते हैं और जीवन
को भटका जाते हैं। तू पहले इन पर वश को उपलब्ध हो, तू इन्हें
मार डाल। कृष्ण सख्त से सख्त शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, तू इन्हें मार डाल, तू इन्हें समाप्त कर दे।
इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इंद्रियों को, मन को मार डाल--इससे अनेक लोगों को ऐसा लगा कि इंद्रियां काट डालो,
आंखें फोड़ डालो, टांगें तोड़ दो। न रहेंगे पैर,
जब पैर ही न रहेंगे, तो भागोगे कैसे वासना के
लिए!
लेकिन उन्हें पता नहीं कि वासना बिना पैर के भागती है, वासना के लिए पैरों की कोई जरूरत नहीं है। लंगड़े भी वासना में उतनी ही
तेजी से भागते हैं, जितने तेज से तेज भागने वाले भाग सकते
हैं। फोड़ दो आंखों को, लेकिन अंधे भी वासना में उसी तरह
देखते हैं, जैसे आंख वाले देखते हैं। बल्कि सच तो यह है,
आंख बंद करके वासना जितनी सुंदर होकर दिखाई पड़ती है, खुली आंख से कभी दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए जो बहुत खुली आंख से देखता है,
वह तो कभी वासना से ऊब भी जाता है। लेकिन जो आंख बंद करके ही देखता
है, वह तो कभी नहीं ऊबता है।
इंद्रियों को मार डाल अर्जुन, इस वचन से बड़े ही गलत
अर्थ लिए गए हैं। क्योंकि मारने की बात नहीं समझी जा सकी। हम तो मारने से एक ही
मतलब समझते हैं कि किसी चीज को तोड़ डालो। जैसे कि एक बीज है। बीज को मारना दो तरह
से हो सकता है। एक, जैसा हम समझते हैं। बीज को मार डालो,
तो हम कहेंगे, दो पत्थरों के बीच में दबाकर
तोड़ दो, मर जाएगा। लेकिन यह बीज का मारना बहुत कुशलतापूर्ण न
हुआ। क्योंकि उसमें तो वह भी मर गया, जो वृक्ष हो सकता था।
बीज को मारने की कुशलता तो तब है, कि बीज मरे और वृक्ष हो
जाए। नहीं तो बीज को मारने से क्या फायदा होगा? निश्चित ही,
जब वृक्ष पैदा होता है, तो बीज मरता है। बीज न
मरे, तो वृक्ष पैदा नहीं होता। बीज को मरना पड़ता है, मिट जाना पड़ता है। राख, धूल हो जाता है, मिट्टी में मिलकर खो जाता है, तब अंकुर पैदा होता है
और वृक्ष बनता है।
इंद्रियों को मारना, दो पत्थरों के बीच में बीज को
दबाकर मार डालने जैसी बात समझी है कुछ लोगों ने। और उसके कारण एक बहुत ही
न्यूरोटिक एसेटिसिज्म, एक बहुत विक्षिप्त, पागल त्यागवाद पैदा हुआ; जो कहता है, तोड़ दो, मिटा दो! लेकिन जिसे तुम मिटा रहे हो,
उसमें कुछ छिपा है। उसे तो मुक्त कर लो। अगर वह मुक्त न हुआ,
तो तुम भी मिट जाओगे। उसमें तुम भी मिटोगे, क्योंकि
इंद्रियों में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन में कुछ छिपा है,
जो हमारा है। मन को तोड़ना है, लेकिन मन में जो
ऊर्जा है, वह आत्मा तक पहुंचा देनी है। इंद्रियों को तोड़ना
है, लेकिन इंद्रियों में जो छिपा है रस, वह आत्मा तक वापस लौटा देना है। इसलिए मारने का मतलब ट्रांसफार्मेशन है,
मारने का मतलब रूपांतरण है। असल में रूपांतरण ही ठीक अर्थ में
मृत्यु है।
अब यह बड़े मजे की बात है। अगर आप बीज को दो पत्थरों से भी कुचल डालें, तब भी बीज होता है, कुचला हुआ होता है। लेकिन जब एक
बीज टूटकर वृक्ष बनता है, तो कहीं भी नहीं होता। कुचला हुआ
भी नहीं होता। खयाल किया आपने! जब एक बीज वृक्ष बनता है, तो
फिर खोजने जाइए कि बीज कहां है, फिर कहीं नहीं मिलेगा। लेकिन
दो पत्थरों के बीच में दबाकर कुचल दिया, तो कुचला हुआ
मिलेगा। और कुचली हुई इंद्रियां और भी कुरूप जीवन को पैदा कर देती हैं। बहुत
परवर्टेड हो जाती हैं।
तीन शब्द आपको कहना चाहूंगा। एक शब्द है प्रकृति। अगर प्रकृति को
कुचला, तो जो पैदा होता है, उसका नाम
है विकृति। और अगर प्रकृति को रूपांतरित किया, तो जो पैदा
होता है, उसका नाम है संस्कृति। प्रकृति अगर कुरूप हो जाए,
कुचल दी जाए, तो विकृत हो जाती है, परवर्ट हो जाती है। और प्रकृति अगर रूपांतरित हो जाए, ट्रांसफार्म हो जाए, सब्लिमेट हो जाए, तो संस्कृति पैदा होती है।
तो इंद्रियों और मन को अर्जुन से जब वे कहते हैं, मार डाल। तो कृष्ण के मुंह में ये शब्द वह अर्थ नहीं रखते, जो अर्थ त्यागवादियों के मुंह में हो जाता है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों के
कहीं भी विरोधी नहीं हैं। कृष्ण से, इंद्रियों का कम विरोधी
आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्ण रोते हुए, उदास, मुरदा आदमी नहीं हैं।
कृष्ण से ज्यादा नाचता हुआ, कृष्ण से ज्यादा
हंसता हुआ व्यक्तित्व पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कृष्ण कहीं इंद्रियों को
कुचलने के लिए कह रहे हों, यह तो असंभव है; यह इंट्रिंजिकली इंपासिबल है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व में बात आ ही नहीं
सकती। जो आदमी बांसुरी बजा रहा है, जो आदमी रात चांदत्तारों
के नीचे नाच रहा है, इस आदमी के मुंह से इंद्रियों को कुचलने
की बात समझ में नहीं आती। यह मोर-मुकुट लगाकर खड़ा हुआ आदमी, यह
प्रेम से भरपूर व्यक्तित्व, यह जीवन को उसकी सर्वांगता में
स्वीकार करने वाला चित्त, यह मारने की बात!
इसके मारने की बात का मतलब कुछ और है। नहीं तो, यह निरंतर अर्थ लिया गया है।
और अर्थ हम वही ले लेते हैं, जो हम लेना चाहते
हैं। इंद्रियां दुख में ले जाती हैं, यह सच है। इसलिए जो दुख
में ले जाता है, उसको हम मार डालें वायलेंटली, यह हमारा मन होता है। जो दुख में ले जाता है, काट
डालो। आंख रूप पर मोहित करती है, फोड़ दो। कान संगीत में
डांवाडोल होते हैं, फोड़ दो। लग सकता है तर्कयुक्त। ठीक है,
जो दुख में ले जाता है, उसे मिटा दो। लेकिन
हमें पता नहीं कि जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हमारी
ऊर्जा छिपी है; जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हम छिपे हैं। उस छिपे हुए को भी अगर हमने कुचल दिया, तो हम ही कुचल जाएंगे।
इसलिए त्यागीत्तपस्वी--तथाकथित, दि सोकाल्ड--जिसको
पता नहीं है, वह आमतौर से खुद के साथ हिंसा करता रहता है।
कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता है, सिर्फ हिंसा होती है। और
अगर हम दूसरे के साथ हिंसा करें, तो हम अदालत में पहुंचा दिए
जाएं। और अपने साथ करें...तो अभी तक दुनिया में इतना न्याय नहीं है कि हम उस आदमी
को अदालत में पहुंचाएं, जो अपने साथ हिंसा करता है।
अब यह बड़े मजे की बात है! आपकी छाती पर छुरा रख दूं, तो अदालत। और अपनी छाती पर छुरा रख लूं, तो सम्मान
है! पागलपन है। छुरा दोनों हालत में छाती पर रखा जाता है। इससे क्या फर्क पड़ता है
कि वह किसकी छाती है। आंखें आपकी फोड़ दूं, तो मुझे सम्मान
मिलना चाहिए न, क्योंकि मैंने आपकी इंद्रियां मारने में
सहायता दी! आत्मज्ञान का रास्ता दे रहा हूं। लेकिन कोई राजी न होगा। लेकिन अपनी
फोड़ लूं, तो आप ही मेरे पैर छूने आएंगे कि यह आदमी परम
तपस्वी है, इसने आंखें फोड़ लीं! लेकिन अगर आपकी आंखें फोड़ना
अपराध है, तो मेरी आंखें फोड़ना कैसे पुण्य हो जाएगा?
इंद्रियों के विरोध में यह वक्तव्य नहीं है, इंद्रियों के रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। और मजा यह है कि रूपांतरण से
ही इंद्रियां मरती हैं, मारने से कोई इंद्रिय कभी नहीं मरती।
इसलिए मैं कहता हूं कि रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। मारकर देखें किसी इंद्रिय
को। और जिस इंद्रिय को मारेंगे, वही इंद्रिय सबसे ज्यादा
सशक्त हो जाएगी। सच तो यह है कि जो इंद्रिय मरती है, उसी
इंद्रिय पर सारी इंद्रियों की शक्ति दौड़कर लग जाती है। नियम है हमारे शरीर का एक
कि शरीर का जो हिस्सा हम कमजोर कर लेते हैं, पूरा शरीर उसे
सहारा देने लगता है। देना ही चाहिए। कमजोर को सहारा मिलना ही चाहिए।
शरीर की जिस इंद्रिय से आप लड़ेंगे और कमजोर करेंगे, पूरा शरीर उस इंद्रिय को सहायता देगा और वही इंद्रिय आपके भीतर सब कुछ हो
जाएगी। यानी ऐसा हो जाएगा कि अगर आप कामवासना से लड़े, तो
आपके भीतर कामवासना की इंद्रिय ही आपका व्यक्तित्व हो जाएगी। सब कुछ वही हो जाएगी।
अगर आप लोभ से लड़े, क्रोध से लड़े,र्
ईष्या से लड़े--जिससे भी आप लड़े--तो उसका जो केंद्र आपके भीतर है, वही सबसे ज्यादा सेंसिटिव, संवेदनशील हो जाएगा और आप
उसी में घिरे हुए जीएंगे।
मैंने अभी एक...थियोडर रैक; एक बहुत बड़े
मनोवैज्ञानिक ने अपने संस्मरण लिखे। उसने एक बहुत अदभुत बात लिखी है। उसने लिखा है,
योरोप में ऐसे छोटे-छोटे द्वीप हैं। एक छोटा द्वीप है, जिस पर अब तक किसी स्त्री ने पैर नहीं रखा। क्योंकि वह कैथोलिक मोनेस्ट्री
है; कैथोलिक ईसाइयों के साधु सिर्फ उस द्वीप पर रहते हैं।
छोटा-सा दस-बारह मील के घेरे का द्वीप है। पिछले पांच सौ वर्ष से एक भी स्त्री उस
पर पैर नहीं रख सकी है, क्योंकि स्त्री को मनाही है उस द्वीप
पर आने की। और उस द्वीप पर जो पुरुष एक दफा उतर जाता है साधना के लिए, वह फिर जिंदा हालत में वहां से नहीं लौट सकता। पांच सौ वर्ष से शुद्ध पुरुषों
का समाज है।
लेकिन थियोडर रैक ने लिखा है कि एक बड़ी अजीब बात वहां दिखाई पड़ती है
और वह यह कि उस द्वीप के जो भी निवासी हैं, जो भी साधु वहां
तपश्चर्या कर रहे हैं, उनके स्वप्न जितने स्त्रियों से भरे
हुए हैं, उतने दुनिया में किसी भी, पृथ्वी
के किसी कोने में किसी के भी स्वप्न उतने भरे हुए नहीं हैं। और इससे भी बड़े मजे की
बात लिखी है और वह यह, वह यह लिखी है कि उन पुरुषों में से
कुछ पुरुष स्त्रियों जैसे चलते हैं और स्त्रियों जैसे बोलते हैं। उसमें उसने कारण
खोजा है कि जिंदगी पोलर है। अगर स्त्रियां बिलकुल न होंगी, तो
कुछ पुरुष स्त्रियों का एक्ट करने लगेंगे और कुछ पुरुष उन स्त्रीरूपी पुरुषों के
साथ प्रेम के एक्ट करने लगेंगे। होमो-सेक्सुअल सोसाइटी वहां पैदा हो जाएगी। वहां
पुरुष पुरुष के साथ ही स्त्री-पुरुष जैसा व्यवहार करने लगेंगे।
अब उस द्वीप की तकलीफ हम समझ सकते हैं कि तकलीफ क्या है। उन्होंने एक
इंद्रिय को मार डालने की कोशिश की। परिणाम जो होना था वही हुआ है, इंद्रिय नहीं मरी, सिर्फ विषाक्त हो गई, विकृत हो गई, कुरूप हो गई। और उसने और दूसरे उपद्रव
के रास्ते खोज लिए। मनुष्य जाति की अधिकतम विकृति और परवर्शन इंद्रियों को काट
डालने और मार डालने के खयाल से पैदा हुआ है।
लेकिन कृष्ण का वह मतलब नहीं है। कृष्ण का मतलब है, रूपांतरण। और रूपांतरण ही वस्तुतः इंद्रियों की मृत्यु है। यह रूपांतरण ही
इंद्रियों को वश में करना है। इंद्रियां मार डालें, तो फिर
वश में करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है।
अगर बाप अपने बेटे को मार डाले और फिर कहे कि बेटा मेरे वश में है, ओबिडिएंट है, बेकार की बात करता है। मरा हुआ बेटा तो
ओबिडिएंट होता ही है। और अक्सर ऐसा होता है कि ओबिडिएंट बेटे मरे हुए बेटे होते
हैं। अक्सर। क्योंकि उनको ओबिडिएंट बनाने में करीब-करीब मार डाला जाता है। लेकिन
मरे हुए बेटे के आज्ञाकारी होने का क्या अर्थ? बेटा होना
चाहिए जिंदा, जिंदा से जिंदा, और फिर
आज्ञाकारी, तब पिता का कुछ अर्थ है, अन्यथा
कोई अर्थ नहीं। मरे-मराए विद्यार्थी को बिठाकर गुरु अगर अकड़ता रहे और मरे हुए
विद्यार्थी घिराव न करें, तो ठीक है। जिंदा होने चाहिए--पूरे
जिंदा, पूरे जीवंत--और फिर गुरु के चरणों पर सिर रख देते हों,
तो कुछ अर्थ है।
इंद्रियां मार डाली जाएं, काट डाली जाएं और
आपके वश में हो जाएं, तो होती नहीं हैं, सिर्फ भ्रम पैदा होता है। मरी हुई इंद्रियों को क्या वश में करना! नहीं,
इंद्रियां वश में हों। स्वस्थ हों, जीवंत हों,
लेकिन मालिक न हों। आपको न चलाती हों, आप
उन्हें चलाते हों। आपको आज्ञा न देती हों, आपकी आज्ञा उन तक
जाती हो। वे आपकी छाया की तरह चलती हों।
साक्षी व्यक्ति की इंद्रियां अपने आप छाया की भांति पीछे चलने लगती
हैं। जो अपने को कर्ता समझता है, वही इंद्रियों के वश में होता
है। जो अपने को मात्र साक्षी समझता है, वह इंद्रियों के वश
के बाहर हो जाता है। जो इंद्रियों के वश में होता है, उसके
वश में इंद्रियां कभी नहीं होतीं। और जो इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता है,
सारी इंद्रियां समर्पण कर देती हैं उसके चरणों में और उसके वश में
हो जाती हैं। समर्पण का, इंद्रियों के समर्पण का सूत्र क्या
है? भीतर हम दो तरह के भाव रख सकते हैं, या तो भोक्ता का, कर्ता का, या
साक्षी का। कर्ता भोक्ता होता है।
मैं एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, फिर दूसरा सूत्र हम
ले लें।
मैंने सुना है, कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन हुआ। कृष्ण
के परिवार की महिलाओं ने कहा कि हम जाएं और तपस्वी को भोजन पहुंचा दें। लेकिन
वर्षा और नदी तीव्र पूर पर और तपस्वी पार। उन स्त्रियों ने कहा, हम जाएं तो जरूर, लेकिन नाव लगती नहीं, नदी कैसे पार करेंगे? खतरनाक है पूर, तपस्वी भूखा और उस पार वृक्ष के नीचे बैठा है। भोजन पहुंचाना जरूरी है।
क्या सूत्र, कोई तरकीब है? कृष्ण ने
कहा, नदी से कहना, अगर तपस्वी जीवनभर
का उपवासा हो, तो नदी राह दे दे। भरोसा तो न हुआ, पर कृष्ण कहते थे, तो उन्होंने कहा, एक कोशिश कर लेनी चाहिए।
जाकर नदी से कहा कि नदी, राह दे दे, अगर तपस्वी उस पार जीवनभर का उपवासा हो। भरोसा तो न हुआ, लेकिन जब नदी ने राह दे दी, तो कोई उपाय न रहा!
स्त्रियां पार हुईं। बहुत भोजन बनाकर ले गई थीं। सोचती थीं कि एक व्यक्ति के लिए
इतने भोजन की तो जरूरत भी नहीं, लेकिन फिर भी कृष्ण के घर से
भोजन आता हो, तो थोड़ा-बहुत ले जाना अशोभन था, बहुत ले गई थीं, सौ-पचास लोग भोजन कर सकें। लेकिन
चकित हुईं, भरोसा तो न आया, वह एक
तपस्वी ही पूरा भोजन कर गया।
फिर लौटीं। नदी ने तो रास्ता बंद कर दिया था, नदी तो फिर बही चली जा रही थी। तब वे बहुत घबड़ाईं कि अब तो गए! क्योंकि अब
वह सूत्र तो काम करेगा नहीं कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो...। लौटकर तपस्वी से
कहा, आप ही कुछ बताएं। हम तो बहुत मुश्किल में पड़ गए। हम तो
नदी से यही कहकर आए थे कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो
मार्ग दे दे। नदी ने मार्ग दे दिया। तपस्वी ने कहा, वही
सूत्र फिर कह देना। पर उन्होंने कहा, अब! भरोसा तो पहले भी न
आया था, अब तो कैसे आएगा? तपस्वी ने
कहा, जाओ नदी से कहना, तपस्वी जीवनभर
का उपवासा हो, तो राह दे दे।
अब तो भरोसा करना एकदम ही मुश्किल था। लेकिन कोई रास्ता न था, नदी के पार जाना था जरूर। नदी से कहा कि नदी राह दे दे, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। और नदी ने राह दे दी! भरोसा तो न आया।
नदी पार की। कृष्ण से जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है! पहले तो हम तुमसे ही आकर पूछने
वाले थे कि अदभुत मंत्र दिया! काम कैसे किया? लेकिन छोड़ो उस
बात को अब। लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर गया तुम्हारा तपस्वी
और नदी ने फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का...।
कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि
राज क्या है इसका? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है।
अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी
घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं।
तो कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं;
वह साक्षी ही था। भोजन डाला जा रहा है, वह
पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था;
जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका
साक्षी होने का स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज
तक कुछ भी नहीं किया है; उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है;
जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही
है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां
उसके वश में हो जाती हैं।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।। ४२।।
(इस शरीर से तो) इंद्रियों को परे (श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म) कहते हैं (और) इंद्रियों से परे मन है और मन से परे
बुद्धि है और जो बुद्धि से (भी) अत्यंत परे है, वह आत्मा है।
कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि और यदि तू ऐसा सोचता हो कि तेरी शक्ति के
बाहर है इंद्रियों को वश में करना, तो तू गलत सोचता है,
तू भूल भरी बात सोचता है।
इसे थोड़ा समझ लें। हम सब भी ऐसा ही सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना कठिन है। लेकिन यह ऐसी ही नासमझी की बात है कि
कोई कहे, अपने हाथ को वश में करना कठिन है। हाथ मेरा है,
मैं हाथ से बड़ा हूं। हाथ अंग है, मैं अंगी
हूं। हाथ अंश है, मैं अंशी हूं । हाथ एक पार्ट है, मैं होल हूं। कोई भी हिस्सा अपने पूरे से बड़ा नहीं होता, कोई पार्ट होल से बड़ा नहीं होता। मेरी आंख मेरे वश में न हो! मैं आंख से
ज्यादा हूं। आंख मेरे बिना नहीं हो सकती, लेकिन मैं आंख के
बिना हो सकता हूं। जैसे हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता। इस हाथ को काट दें, तो हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता, मर जाएगा, लेकिन मैं हाथ के बिना हो सकता हूं। मैं हाथ से ज्यादा हूं। मैं सारी
इंद्रियों से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों के जोड़ से ज्यादा हूं।
कृष्ण कहते हैं, यह तेरी भूल है, अगर तू सोचता हो कि मैं कमजोर हूं और इंद्रियों पर वश न पा सकूंगा,
तो तू गलत सोचता है। इंद्रियों पर तेरा वश है ही, लेकिन तूने कभी घोषणा नहीं की, तूने कभी स्मरण नहीं
किया, तूने कभी समझा नहीं है। मालिक तू है ही, लेकिन तुझे पता ही नहीं है कि तू मालिक है और अपने हाथ से तू नौकर बना हुआ
है।
दूसरी बात वे यह कहते हैं कि इंद्रियों के पार मन है, मन के पार बुद्धि है, और बुद्धि के पार वह है,
जिसे हम परमात्मा कहें। और ध्यान रहे, जो
जितना पार होता है, वह जिसके पार होता है, उससे ज्यादा शक्तिशाली होता है। एक उदाहरण से समझें।
एक वृक्ष है। उसके पत्ते हमें दिखाई पड़ रहे हैं। पत्तों के पार शाखाएं
हैं। शाखाएं पत्तों से ज्यादा शक्तिशाली हैं। आप पत्तों को काट दें, नए पत्ते शाखाओं में तत्काल आ जाएंगे। आप शाखा को काटें, तो नई शाखा को आने में बहुत मुश्किल हो जाएगी। शाखा पत्तों से शक्तिशाली
है; वह पत्तों के पार है, पत्तों के
पूर्व है, पत्तों से पहले है। पत्तों के प्राण शाखा में हैं,
शाखा का प्राण पत्तों में नहीं है। शाखा को काटते ही पत्ते सब मर
जाएंगे; पत्तों को काटने से शाखा नहीं मरती। पत्ते शाखा के
बिना नहीं हो सकते हैं, शाखा पत्तों के बिना हो सकती है।
फिर शाखा से और नीचे चलें, तो पींड है वृक्ष की।
पींड शाखाओं के पार है। पींड शाखाओं के बिना हो सकती है, लेकिन
शाखाएं बिना पींड के नहीं हो सकती हैं। और पींड के नीचे चलें, तो जड़ें हैं। जड़ें पींड के भी पार हैं। पींड को भी काट दें, तो नए अंकुर आ जाएंगे; लेकिन जड़ों को काट दें,
तो फिर नए अंकुर नहीं आएंगे। पींड के बिना जड़ें हो सकती हैं,
जड़ों के बिना पींड नहीं हो सकती। जो जितना पार है, वह उतना शक्तिशाली है। जो जितना आगे है, वह उतना
कमजोर है। जो जितना पीछे है, वह उतना शक्तिशाली है। असल में
शक्तिशाली को पीछे रखना पड़ता है, क्योंकि वह सम्हालता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पीछे मन
है। मन शक्तिशाली है, अर्जुन, इंद्रियों
से बहुत ज्यादा। इसलिए अगर मन चाहे, तो किसी भी इंद्रिय को
तत्काल रोक सकता है। और जब मन सक्रिय होता है, तो कोई भी
इंद्रिय तत्काल रुक जाती है। आपके घर में आग लगी है, आप
रास्ते से भागे चले जा रहे हैं। रास्ते पर कोई मिलता है; कहता
है, नमस्कार! आपको दिखाई नहीं पड़ता है। आंखें पूरी ठीक हैं।
नमस्कार करता है, कान दुरुस्त हैं, सुनाई
नहीं पड़ता है। आप भागे जा रहे हैं। क्यों?
मन कहीं और है, मन अटका है, मकान में आग लगी
है। अब यह वक्त नमस्कार करने का नहीं है और न लोगों को रास्ते पर देखने का है। कल
वह आदमी मिलता है और कहता है, रास्ते पर मिले थे आप। बड़े
पागल जैसे मालूम पड़ते थे। देखा, फिर भी आपने देखा नहीं;
सुना, फिर भी आपने जवाब नहीं दिया। बात क्या
है? नमस्कार की, आप कुछ बोले नहीं?
आप कहते हैं, न मैंने सुना, न मैंने देखा। मकान में आग लगी थी, मन वहां था।
अगर मन हट जाए, तो इंद्रियां तत्काल बेकार हो जाती हैं। मन शक्तिशाली
है। जहां मन है, इंद्रियां वहीं चली जाती हैं। जहां इंद्रियां
हैं, वहां मन का जाना जरूरी नहीं है। आप ले जाते हैं,
इसलिए जाता है। अगर आप मन कहीं ले जाएं, इंद्रियों
को वहां जाना ही पड़ेगा। वे कमजोर हैं, उनकी शक्ति मन से आती
है; मन की शक्ति इंद्रियों से नहीं आती।
फिर कृष्ण कहते हैं, मन के पार बुद्धि है। बुद्धि
जहां हो, मन को वहां जाना पड़ता है। बुद्धि जहां न हो,
वहां मन को जाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हमारी हालत उलटी है। मन
जहां जाता है, वहीं हम बुद्धि को ले जाते हैं। मन कहता है,
यह करो; हम बुद्धि से कहते हैं कि अब इसके लिए
दलील दो कि क्यों और कैसे करें। मन बताता है करने के लिए और बुद्धि सिर्फ
जस्टीफिकेशन खोजती है। बुद्धि से हम पूछते हैं कि चोरी करना है, तुम बताओ तर्क क्या है? तो बुद्धि कहती है कि सब धन
चोरी है। जिनके पास है, उनकी भी चोरी है। तुम भी चोरी करो,
हर्ज क्या है? हम बुद्धि से मन का समर्थन
खोजते हैं।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धि मन के पार है। है ही,
क्योंकि जहां मन भी नहीं रह जाता, वहां भी
बुद्धि रहती है। रात जब आप गहरी प्रगाढ़ निद्रा में खो जाते हैं, तो मन नहीं रह जाता। स्वप्न नहीं रह जाते, विचार
नहीं रह जाते। मन गया। मन तो विचारों का जोड़ है। लेकिन सुबह उठकर आप कहते हैं कि
रात बड़ा आनंद रहा, बड़ी गहरी नींद आई। न स्वप्न आए, न विचार उठे। किसको पता चला फिर कि आप गहरी नींद में रहे? किसने जाना, आनंद था? वह
बुद्धि ने जाना।
बुद्धि मन के भी पार है। जो समर्थ हैं, वे बुद्धि से मन को
चलाते हैं, मन से इंद्रियों को चलाते हैं। जो अपने सामर्थ्य
को नहीं पहचानते और अपने हाथ से असमर्थ बने हैं, उनकी
इंद्रियां उनके मन को चलाती हैं, उनका मन उनकी बुद्धि को
चलाता है। वे शीर्षासन में जीते हैं; उलटे खड़े रहते हैं। फिर
उनको अगर सारी दुनिया उलटी दिखाई पड़ती है, तो इसमें किसी का
कोई कसूर नहीं है।
मैंने सुना है--पता नहीं कहां तक सच बात है, लेकिन सब सच हो सकता है--मैंने सुना है कि पंडित नेहरू एक दिन शीर्षासन कर
रहे थे अपने बगीचे में और एक गधा उनके बंगले में घुस गया। एक तो राजनीतिज्ञों के
बंगलों के आस-पास गधों के अतिरिक्त और कोई जाता नहीं। और आदमी जाता, तो संतरी रोक लेता, गधे को क्या रोकना! लेकिन वह
साधारण गधा नहीं था, वह बोलने वाला गधा था। कई गधे बोलते हैं,
इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। वह आकर पंडितजी के पास खड़ा हो गया। वे
कर रहे थे शीर्षासन, उनको गधा उलटा दिखाई पड़ा। वे बड़े हैरान
हुए। उन्होंने कहा, गधा, तू उलटा क्यों
है? उस गधे ने कहा, पंडितजी! मैं उलटा
नहीं हूं, आप शीर्षासन कर रहे हैं। तब तो वे घबड़ाकर उठकर खड़े
हो गए। उन्होंने कहा, तू बोलता भी है! उस गधे ने कहा,
मैं यही डर रहा था कि कहीं बोलने की वजह से आप मुझे मिलने से इनकार
न कर दें। नेहरूजी ने कहा, बेफिक्र रह। मेरे पास इतने गधे
आते हैं बोलते हुए कि मैं सुनते-सुनते आदी हो गया हूं। तू बेफिक्री से बोल। पर
नेहरू को दिखाई पड़ा कि गधा उलटा है!
हम सबको भी जगत उलटा दिखाई पड़ता है। हम एक बहुत गहरे शीर्षासन में
हैं। वह गहरा शीर्षासन शरीर के शीर्षासन से भी गहरा है, क्योंकि सब उलटा किया हुआ है। इंद्रियों की मानकर मन चल रहा है, मन की मानकर बुद्धि चल रही है और बुद्धि कोशिश करती है कि परमात्मा भी
हमारी मानकर चले। पत्तों की मानकर शाखाएं चल रही हैं, शाखाओं
की मानकर पींड चल रही है, पींड कोशिश कर रही है, जड़ें भी हमारी मानकर चलें। और अगर जड़ें नहीं मानती, तो
हम कहते हैं, होंगी ही नहीं। अगर परमात्मा हमारी नहीं मानता,
हम कहते हैं, नहीं है।
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं तो परमात्मा को
मानने लगा। क्या हुआ, मैंने कहा। उसने कहा कि मेरे लड़के को
नौकरी नहीं लगती थी, मैंने परमात्मा को सात दिन का अल्टिमेटम
दिया। सात दिन में नौकरी लग जाए तो ठीक, अन्यथा तू नहीं है।
और लग गई! और अब मैं मानने लगा। मैंने कहा कि तू परमात्मा को मानने लगा या
परमात्मा तेरे को मानने लगा? उसको भी मनाने की कोशिश चल रही
है। मैंने कहा, अगर कल लड़के की नौकरी छूट जाए? तो उसने कहा कि फिर मुझे भरोसा नहीं रहेगा। हम उलटे चल रहे हैं जीवन को।
कृष्ण कहते हैं, इंद्रियां मानें मन की, मन माने बुद्धि की, बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित
हो, बुद्धि माने परमात्मा की। तब व्यक्तित्व सीधा, सरल, ऋजु--और तब व्यक्तित्व धार्मिक, आध्यात्मिक हो पाता है।
एक और, एक आखिरी और।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जाहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।। ४३।।
इस प्रकार बुद्धि से परे अपने आत्मा को जानकर (और) बुद्धि के द्वारा
मन को वश में करके हे महाबाहो, (अपनी शक्ति को समझकर इस) दुर्जय
कामरूप शत्रु को मार।
अंतिम श्लोक है। कृष्ण कहते हैं, अपनी शक्ति को
पहचानकर, और अपनी शक्ति परमात्मा की ही शक्ति है, और अपनी परम ऊर्जा को समझकर, और अपनी परम ऊर्जा
परमात्मा की ही ऊर्जा है, इंद्रियों को वश में कर मन से,
मन को वश में ला बुद्धि से और बुद्धि की बागडोर दे दे परमात्मा के
हाथ में। और फिर इस दुर्जय काम के तू बाहर हो जाएगा, इस
दुर्जय वासना के तू बाहर हो जाएगा।
इसमें दोत्तीन बातें बहुत कीमत की हैं। एक तो यह कि क्रमशः जो जितना
गहरा है, उतना ही सत्यतर है; और जो जितना
गहरा है, उतना ही शक्तिवान है; और जो
जितना गहरा है, उतना ही भरोसे योग्य है, ट्रस्टवर्दी है। जो जितना ऊपर है, उतना भरोसे योग्य
नहीं है। लहरें भरोसे योग्य नहीं हैं, सागर की गहराई में
भरोसा है। ऊपर जो है, वह सिर्फ आवरण है; गहरे में जो है, वह आत्मा है। इसलिए तू ऊपर को गहरे
पर मत आरोपित कर, गहरे को ही ऊपर को संचालित करने दे। और
एक-एक कदम वे पीछे हटाने की बात करते हैं। कैसे?
इंद्रियों को मन से। साधारणतः इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं, मन के अनुसार नहीं, क्योंकि मन के अनुसार हमने
उन्हें कभी चलाया नहीं होता। इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं। आपका समय हुआ,
हाथ खीसे में जाएगा, सिगरेट का पैकेट निकाल
लेगा, सिगरेट निकाल लेगा। अभी आपको कुछ पता नहीं कि क्या हो
रहा है। हाथ कर रहा है, आटोमैटिक। हो सकता है, आपको बिलकुल खयाल ही न हो। अपनी दूसरी धुन में लगे हैं। मन कुछ और कर रहा
है, मन कुछ और सोच रहा है। हाथ सिगरेट निकाल लेगा, मुंह में दबा देगा, माचिस जला लेगा, आग लगा देगा। धुआं खींचने लगेंगे, बाहर निकालने
लगेंगे; और मन अपना काम जारी रखेगा। मन को इसका पता ही नहीं
है। हां, मन को तो पता तब चले, जब खीसे
में हाथ डालें और पैकेट न हो। तब मन को पता चलता है, क्या
बात है? पैकेट कहां है? अन्यथा मन की
कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। इंद्रियों से हम इतने वशीभूत होकर जीते हैं कि इंद्रियां
जब अड़चन में होती हैं, तभी मन की जरूरत पड़ती है। अन्यथा मन
को वे कहती हैं कि तुम आराम करो, तुमसे कोई लेना-देना नहीं
है, हम अपना काम कर लेंगे। पता ही नहीं चलता!
इंद्रियों ने सारा काम अपने हाथ में ले लिया है। ले लिया है, कहना ठीक नहीं, हमने दे दिया है। हमने धीरे-धीरे
उन्हें आटोनामस सत्ता दे दी है, कह दिया है कि तुम सम्हालो
यह काम। वे सम्हाल लेती हैं। इस स्थिति में मन को बीच में लाना पड़ेगा। अभी मन आता
है बीच में, लेकिन तभी आता है, जब
इंद्रियां अड़चन में होती हैं। अर्थात इंद्रियों को जब सेवा की जरूरत होती है,
तभी मन बीच में आता है। मालकियत के लिए कभी मन को बीच में नहीं
बुलातीं वे। सेवा की जरूरत होती है, वे कहती हैं, पैकेट नहीं है सिगरेट का! जाओ, बाजार से खरीदकर लाओ,
इंद्रियां कहती हैं। वह बाजार जाता है, वह
सिगरेट का पैकेट खरीदकर लाता है। नहीं तो सिगरेट हैं, तो वे
कहती हैं, तुम अपना काम करो, तुम क्यों
बीच में दखलंदाजी करते हो, हम अपना काम कर रहे हैं।
हमने सारा काम अपनी इंद्रियों पर सौंप दिया है, अब वे हमें चलाती रहती हैं। मन को बीच में कब लाया जाएगा, जब हम मन को सिर्फ सेवा के लिए न लाते हों, मालकियत
के लिए लाते हों।
अगली बार जब खीसे में हाथ जाए, तो मन को लाएं;
हाथ से मत निकालें सिगरेट, मन से निकालें।
मनःपूर्वक निकालें। मनःपूर्वक सिगरेट निकालने का मतलब है, जानते
हुए निकालें कि अब मैं सिगरेट पीने जा रहा हूं, सिगरेट निकाल
रहा हूं। जानते हुए मुंह में लगाएं कि अब मैं सिगरेट मुंह में लगा रहा हूं। जानते
हुए आग जलाएं और जानते हुए कि अब मैं धुआं भीतर ले जाता और बाहर निकालता और मैं
बड़ा बुद्धिमान आदमी हूं! परमात्मा है या नहीं, इसका विचार
करता। गीता का क्या अर्थ है, इसका हिसाब लगाता। और अब मैं
धुआं बाहर और भीतर करने का काम कर रहा हूं--ईडियाटिक, स्टुपिड।
एक आदमी धुआं बाहर-भीतर करे, इससे स्टुपिड और कोई काम हो
सकता है! अब मैं यह कर रहा हूं, मैं स्टुपिड आदमी हूं,
ऐसा समझकर करें। बुद्धिमान मत समझें। हालांकि हालत उलटी है। सिगरेट
पीने वाले जब सिगरेट नहीं पीते, तो उतने अकड़े हुए नहीं मालूम
पड़ते, जब पीते हैं तब वे ज्यादा अकड़ जाते हैं। लगता है कि
बहुत बुद्धिमानी का काम कर रहे हैं। बड़ा कोई, कोई ऐसा काम कर
रहे हैं प्रतिभा का, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है।
जरूर कहीं भूल हो रही है। थोड़ा एनालाइज करें, विश्लेषण करें कि क्या, कर क्या रहे हैं? धुआं बाहर-भीतर कर रहे हैं! मशीन भी कर सकती है। इसमें बुद्धिमानी की कहां
जरूरत आती है? और जानते हुए कर रहे हैं कि यह धुआं क्या करता
है! भलीभांति जानते हुए कर रहे हैं। यह क्या कर रहे हैं? अगर
एक आदमी अपने कमरे की कुर्सी इधर से उठाकर उधर रखे, उधर से
उठाकर इधर रखे, तो आप कहेंगे, पागल है।
क्यों? धुआं इधर से उधर करना पागलपन नहीं है, तो कुर्सी इधर से उधर करना पागलपन है? तो धुएं ने
ऐसा कौन-सा पुण्य कर्म किया है और कुर्सी का ऐसा क्या पाप है!
नहीं, मनःपूर्वक करें, और करना
मुश्किल हो जाएगा। जो भी इंद्रियां करवाती हों, उसको पूरे
मनःपूर्वक, विद फुल अवेयरनेस, पूरे
होशपूर्वक करें कि यह मैं कर रहा हूं। और जानते हुए करें कि मैं क्या कर रहा हूं!
और आप पाएंगे कि इंद्रियों की शक्ति मन से कम होती चली जाएगी और मन की शक्ति
इंद्रियों पर बढ़ती चली जाएगी।
फिर ऐसा ही मन के साथ बुद्धि के द्वारा करें। मन कुछ भी करता रहता है, आप करने देते हैं। कभी बुद्धि को बीच में नहीं लाते, जब तक कि मन उलझ न जाए। आप करते रहते हैं मन में।
एक आदमी बैठा हुआ है अपनी कुर्सी पर। वह न मालूम क्या-क्या सोच रहा है
कि इस बार अब मध्यावधि चुनाव में खड़े हो गए हैं, इलेक्शन जीत ही गए।
अभी मध्यावधि हुआ नहीं, लेकिन वे जीत गए अपनी कुर्सी पर। अब
वे देख रहे हैं, उनका जुलूस निकल रहा है, प्रोसेशन निकल रहा है। अब यह मन कर रहा है और बुद्धि कहीं नहीं आएगी इसमें
बीच में। बुद्धि को कोई मतलब ही नहीं है; मन को करने दे रहे
हैं आप।
बुद्धि को हम तभी बीच में लाते हैं। जब मन उलझ जाता। उलझ जाता मतलब यह
कि आप जब कोई ऐसी चीज पाते हैं जो मन हल नहीं कर पाता, कोई प्राब्लम खड़ा हो जाता, मन के बाहर होता। गाड़ी
चलाए चले जा रहे हैं अपनी, स्टीअरिंग हाथ में लिए हैं,
सिगरेट मुंह में दबी है; चले जा रहे हैं कार
चलाते हुए। और मन इलेक्शन जीत रहा है और यह सब चल रहा है। एकदम एक्सिडेंट होने की
हालत आ जाती है, तो मन बंद होता है और बुद्धि आती है। कभी
आपने खयाल किया, जब एकदम से ब्रेक लगता है, तो मन एकदम झटके से बंद हो जाता है। श्वास भी ठहर जाती है, विचार भी ठहर जाता है। तत्काल बुद्धि आ जाती है कि उसकी जरूरत पड़ी;
अब यह मन के हाथ में नहीं छोड़ा जा सकता इतना खतरनाक मामला, तो बुद्धि बीच में आ जाती है। तत्काल बुद्धि कुछ करती है। बुद्धि को आप
तभी बुलाते हैं, जब उसकी सेवा की जरूरत होती है। अन्यथा मन
अपना करता रहता है।
नहीं, बुद्धि को बीच में लाएं। जब मन चुनाव जीतने लगे,
जब प्रोसेशन निकलने लगे, तब जरा बुद्धि को
कहें कि आओ, देखो, यह मन क्या कर रहा
है! यह मैं क्या कर रहा हूं! तो आपके कितने सपने न बिखर जाएं, और आपके मन की कितनी कामनाएं न गिर जाएं, और मन के
कितने व्यर्थ के जाल न टूट जाएं। और बुद्धि बीच में आए, तो
मन एकदम डर जाता है। बुद्धि बीच में आए, तो मन की हालत वैसी
हो जाती है, जैसे शिक्षक कमरे में आता है, तो बच्चों की हो जाती है। वे जल्दी अपनी-अपनी जगह ठीक-ठाक बैठ गए हैं। सब
काम ठीक हो गया, कोई दूसरे की जगह पर नहीं है।
लेकिन बुद्धि को हम बीच में आने नहीं देते। हमारे मन की हालत ऐसी है
जैसे...पुराने जमाने में तो ऐसा होता था, अब तो इससे उलटा होगा,
अभी होता तो नहीं, लेकिन होगा। शिक्षक अक्सर
उपद्रवी लड़कों को क्लास के बाहर कर देता था। अब आगे तो ऐसा ही होगा कि लड़के अक्सर
उपद्रवी शिक्षकों को क्लास के बाहर कर देंगे, कि आप बाहर
रहिए, हम भीतर अपने शांति से हैं। तो मन जो है वह शिक्षक को,
बुद्धि को बाहर किए जीता है। और मन अपना करता रहता है, वह जो नासमझियां कर सकता है, करता है; क्योंकि मन के पास कोई विवेक नहीं है। मन ड्रीमिंग फैकल्टी है, सिर्फ स्वप्नवान है। मन सिर्फ सपने देख सकता, कल्पना
कर सकता, स्मृतियां कर सकता है। मन सोच नहीं सकता। मन के पास
विचार की शक्ति नहीं है। विचार की शक्ति बुद्धि के पास है।
बुद्धि को बीच में लाएं और मन के कामों को बुद्धि के लिए कहें कि
जागरूक होकर मन को करने दे। मन जो भी करे, बुद्धि को सदा खड़ा
रखें और कहें कि देख, मन क्या कर रहा है! और मन उसी तरह दीन
हो जाता है, जैसे इंद्रियां मन के आने से दीन होती हैं।
बुद्धि के आने से मन दीन हो जाता है।
और यह जो बुद्धि है, इसको भी सब कुछ मत सौंप दें,
क्योंकि यह भी परम नहीं है। परम तो इसके पार है, जहां से यह बुद्धि भी आती है। तो यह भी हो सकता है, एक
आदमी बुद्धि से मन को वश में कर ले, मन से इंद्रियों को वश
में कर ले, लेकिन बुद्धि के वश में हो जाए, तो अहंकार से भर जाएगा। बुद्धि ईगोइस्ट हो जाएगी। बुद्धि बहुत ईगोइस्टिक
है, बुद्धि बहुत अहंकारपूर्ण है। वह कहेगा, मैं जानता, सब मुझे पता है। मैंने मन को भी जीता,
इंद्रियों को भी जीता, अब मैं बिलकुल ही अपना
सम्राट हो गया हूं। तो यहां भी अटकाव हो जाएगा। बुद्धि सोच सकती है, विचार सकती है। लेकिन जीवन का सत्य अगम है, बुद्धि
की पकड़ के बाहर है। बुद्धि कितना ही सोचे, सोच-सोचकर कितना
ही पाए, फिर भी जीवन एक रहस्य है, एक
मिस्ट्री है; और उसके द्वार बुद्धि से नहीं खुलते।
हां, बुद्धि भी जब उलझती है, तब परमात्मा
को याद करती है। लेकिन जब तक सुलझी रहती है, तब तक कभी याद
नहीं करती। धंधा बिलकुल ठीक चल रहा है, दुकान ठीक चल रही है,
पैसा ठीक आ रहा है, लाभ ठीक हो रहा है,
गणित ठीक हल हो रहा है, विज्ञान की खोज ठीक चल
रही है--परमात्मा की कोई याद नहीं आती। आपने खयाल किया, जब
दुख में पड़ती है बुद्धि, तब परमात्मा की याद आती है। जब
उलझती है, जब लगता है, अपने से अब क्या
होगा! पत्नी मरती है और डाक्टर कहते हैं कि बस यहीं मेडिकल साइंस का अंत आ गया। अब
हम कुछ कर नहीं सकते। जो हम कर सकते थे, वह हम कर चुके। जो
हम कर सकते हैं, वह हम कर रहे हैं। लेकिन अब हमारे हाथ में
कुछ भी नहीं है। तब एकदम हाथ जुड़ जाते हैं कि हे भगवान! तू कहां है? लेकिन अभी तक कहां था भगवान? यह डाक्टर की बुद्धि थक
गई, अपनी बुद्धि थक गई, अब भगवान है!
नहीं, इतने से नहीं चलेगा। जब बुद्धि हारती है, तब समर्पण का कोई मजा नहीं। हारे हुए समर्पण का कोई अर्थ है? जब बुद्धि जीतती है और जब सुख चरणों पर लोटता है और जब लगता है, सब सफल हो रहा है, सब ठीक हो रहा है, बिलकुल सब सही है, तब जो आदमी परमात्मा को स्मरण
करता है, उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा
के वश में हो जाती है।
इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के
हाथ में, बुद्धि को दे दें परम सत्ता के हाथ में।
और कृष्ण कहते हैं, हे कौन्तेय, हे अर्जुन, ऐसा जो अपने को संयमित कर लेता, वह व्यक्ति दुर्जय कामना के पार हो जाता है अर्थात वह आत्मा को उपलब्ध हो
जाता है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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