बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-030



गीता दर्शन-(भाग-02)-प्रवचन-030

अध्याय ४--पहला प्रवचन
सत्य एक--जानने वाले अनेक

श्रीमद्भगवद्गीता
अथ चतुर्थोऽध्यायः

श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। १।।
श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।

सत्य न तो नया है, न पुराना। जो नया है, वह पुराना हो जाता है। जो पुराना है, वह कभी नया था। जो नए से पुराना होता है, वह जन्म से मृत्यु की ओर जाता है। सत्य का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। इसलिए सत्य न नया हो सकता है, न पुराना हो सकता है। सत्य सनातन है।
सनातन का अर्थ, सत्य समय के बाहर है, बियांड टाइम है। वस्तुतः समय के भीतर जो भी है, वह नया भी होगा और पुराना भी होगा। समय के भीतर जो है, वह पैदा भी होगा और मरेगा भी; जवान भी होगा और बूढ़ा भी होगा। कभी स्वस्थ भी होगा और कभी अस्वस्थ भी होगा। समय के भीतर जो है, वह परिवर्तनमय होगा; समय के बाहर जो है, वही अपरिवर्तित हो सकता है।

कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत थोड़ी-सी बात में बहुत-सी बात कही है। एक तो उन्होंने यह कहा कि यह जो मैं तुझसे कहता हूं अर्जुन, वही मैंने सूर्य से भी कहा था, समय के प्रारंभ में, आदि में। इसमें दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
समय के प्रारंभ का क्या अर्थ हो सकता है? सच तो यह है कि जहां भी प्रारंभ होगा, वहां समय पहले से ही मौजूद हो जाएगा। सब प्रारंभ समय के भीतर होते हैं, समय के बाहर कोई प्रारंभ नहीं हो सकता, क्योंकि सब अंत समय के भीतर होते हैं। कृष्ण जब कहते हैं, समय के प्रारंभ में, तो उसका अर्थ ही यही होता है, समय के बाहर। समय के भीतर अगर कोई प्रारंभ होगा, तो वह शाश्वत सत्य की घोषणा नहीं कर सकता है।
जब समय नहीं था, तब मैंने सूर्य को भी यही कहा है। इस बात को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि सूर्य को भी यही कहा है, इस मेटाफर का, इस प्रतीक का क्या अर्थ हो सकता है?
जो भी अध्यात्म की गहराइयों में उतरे हैं, उन सबका एक सुनिश्चित अनुभव है और वह यह कि अध्यात्म की आखिरी गहराई में प्रकाश ही शेष रह जाता है और सब खो जाता है। जब व्यक्ति अध्यात्म में शून्य होता है, अहंकार विलीन होता है, तो प्रकाश ही रह जाता है, और सब खो जाता है। व्यक्ति जब अध्यात्म की गहराई में उतरता है, तो वह वहीं पहुंच जाता है, जब समय के पहले सब कुछ था। गहरे अनुभव, प्रथम और अंतिम, समान होते हैं।
यही मैंने सूर्य को कहा था, कृष्ण जब यह कहते हैं, तो वे यह कहते हैं, यही मैंने प्रकाश की पहली घटना को कहा था।
इस जगत के प्रारंभ की पहली घटना प्रकाश है और इस जगत के अंत की अंतिम घटना भी प्रकाश है। व्यक्ति के आध्यात्मिक जन्म का भी प्रारंभ प्रकाश है और आध्यात्मिक समारोप भी प्रकाश है।
कुरान कहता है, परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। बाइबिल कहती है, परमात्मा प्रकाश ही है। कृष्ण यहां प्रकाश को सूर्य कहते हैं। सूर्य को कहा था सबसे पहले, क्योंकि सबसे पहले प्रकाश था; और फिर जो भी जन्मा है, वह प्रकाश से ही जन्मा है। फिर प्रकाश के पुत्र को कहा था, फिर उसके पुत्र को कहा था।
इसमें यह भी समझ लेने जैसा है कि कृष्ण कहते हैं, मैंने। निश्चित ही, यह मैं, वह जो कृष्ण की देह थी अर्जुन के सामने खड़ी, उसके संबंध में नहीं हो सकता। वह देह तो अभी कुछ वर्ष पहले पैदा हुई थी और कुछ वर्ष बाद विदा हो जाएगी। कृष्ण जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह कोई और ही मैं होना चाहिए।
जीसस ने अपने एक वक्तव्य में कहा है--किसी ने जीसस को पूछा, अब्राहम के संबंध में आपका क्या खयाल है? अब्राहम एक पुराना पैगंबर हुआ यहूदियों का। पूछा जीसस से किसी ने, अब्राहम के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो जीसस ने कहा, बिफोर अब्राहम वाज़, आई वाज़। इसके पहले कि अब्राहम था, मैं था। अब्राहम के पहले भी मैं था।
निश्चित ही, यह मरियम के बेटे जीसस के संबंध में कही गई बात नहीं है। अब्राहम के पहले! अब्राहम को हुए तो हजारों साल हुए!
कृष्ण सूर्य की--जगत की पहली घटना की--फिर मनु की, इक्ष्वाकु की, इनकी बात कर रहे हैं। उन्हें हुए हजारों वर्ष हुए। कृष्ण तो अभी हुए हैं। अभी अर्जुन के सामने खड़े हैं। जिस कृष्ण की यह बात है, वह किसी और कृष्ण की बात है।
एक घड़ी है जीवन की ऐसी, जब व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ देता, तो उसके भीतर से परमात्मा ही बोलना शुरू हो जाता है। जैसे ही मैं की आवाज बंद होती है, वैसे ही परमात्मा की आवाज शुरू हो जाती है। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही परमात्मा ही शेष रह जाता है।
यहां जब कृष्ण कहते हैं, मैंने ही कहा था सूर्य से, तो यहां वे व्यक्ति की तरह नहीं बोलते, समष्टि की भांति बोलते हैं। और कृष्ण के व्यक्तित्व में इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि बहुत क्षणों में वे अर्जुन के मित्र की भांति बोलते हैं, जो कि समय के भीतर घटी हुई एक घटना है। और बहुत क्षणों में वे परमात्मा की तरह बोलते हैं, जो समय के बाहर घटी घटना है।
कृष्ण पूरे समय दो तलों पर, दो डायमेंशंस में जी रहे हैं। इसलिए कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के भीतर हैं, और कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के बाहर हैं। जो वक्तव्य समय के बाहर हैं, वहां कृष्ण सीधे परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। और जो वक्तव्य समय के भीतर हैं, वहां वे अर्जुन के सारथी की तरह बोल रहे हैं। इसलिए जब वे अर्जुन से कहते हैं, हे महाबाहो! तब वे अर्जुन के मित्र की तरह बोल रहे हैं। लेकिन जब वे अर्जुन से कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज--सब छोड़, तू मेरी शरण में आ--तब वे अर्जुन के सारथी की तरह नहीं बोल रहे हैं।
इसलिए गीता, और गीता ही नहीं, बाइबिल या कुरान या बुद्ध और महावीर के वचन दोहरे तलों पर हैं। और कब बीच में परमात्मा बोलने लगता है, इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है, अन्यथा समझना मुश्किल हो जाता है।
जब कृष्ण कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ जा, तब इस मेरी शरण से कृष्ण का कोई भी संबंध नहीं है। तब इस मेरी शरण से परमात्मा की शरण की ही बात है।
इस सूत्र में जहां कृष्ण कह रहे हैं कि यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी--मैंने। इस मैं का संबंध जीवन की परम ऊर्जा, परम शक्ति से है। और यही बात! इसे भी समझ लेना जरूरी है।
सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता। बोलने वाले बदल जाते हैं, सुनने वाले बदल जाते हैं; बोलने की भाषा बदल जाती है; बोलने के रूप बदल जाते हैं, आकार बदल जाते हैं, सत्य नहीं बदल जाता। अनेक शब्दों में, अनेक बोलने वालों ने, अनेक सुनने वालों से वही कहा है।
उपनिषद जो कहते हैं, बुद्ध उससे भिन्न नहीं कहते; लेकिन बिलकुल भिन्न कहते मालूम पड़ते हैं। बोलने वाला बदल गया, सुनने वाला बदल गया और युग के साथ भाषा बदल गई।
महावीर जो कहते हैं, वह वही कहते हैं, जो वेदों ने कहा है; पर भाषा बदल गई, बोलने वाला बदल गया, सुनने वाले बदल गए। और कई बार शब्दों और भाषा की बदलाहट इतनी हो जाती है कि दो अलग-अलग युगों में प्रकट सत्य विपरीत और विरोधी भी मालूम पड़ने लगते हैं।
मनुष्य जाति के इतिहास में इससे बड़ी दुर्घटना पैदा हुई है। इस्लाम या ईसाइयत या हिंदू या बौद्ध या जैन, ऐसा मालूम पड़ते हैं कि विरोधी हैं, राइवल्स हैं, शत्रु हैं। ऐसा प्रतीत होता है, इन सबके सत्य अलग-अलग हैं। इन सबके युग अलग-अलग हैं, इन सबके बोलने वाले अलग-अलग हैं, इन सबके सुनने वाले अलग-अलग हैं, इनकी भाषा अलग-अलग है; लेकिन सत्य जरा भी अलग नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति वही है, जो इतने विपरीत शब्दों में कहे गए सत्य की एकता को पहचान पाता है; अन्यथा जो व्यक्ति विरोध देखता है, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है।
तो कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि यही सत्य, ठीक यही बात पहले भी कही गई है। यहां एक बात और भी खयाल में ले लेनी जरूरी है।
कृष्ण ओरिजिनल होने का, मौलिक होने का दावा नहीं कर रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह मैं ही पहली बार कह रहा हूं; यह नहीं कह रहे हैं कि मैंने ही कुछ खोज लिया है। वे यह भी नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू सौभाग्यशाली है, क्योंकि सत्य को तू ही पहली बार सुन रहा है। न तो बोलने वाला मौलिक है, न सुनने वाला मौलिक है; न जो बात कही जा रही है, वह मौलिक है। इसका यह मतलब नहीं है कि पुरानी है।
अंग्रेजी में जो शब्द है ओरिजिनल और हिंदी में भी जो शब्द है मौलिक, उसका मतलब भी नया नहीं होता। अगर ठीक से समझें, तो ओरिजिनल का मतलब होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का भी अर्थ होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का अर्थ भी नया नहीं होता। ओरिजिनल का अर्थ भी नया नहीं होता।
अगर इस अर्थों में हम समझें मौलिक को, तो कृष्ण बड़ी मौलिक बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, समय के मूल में यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी; वही सूर्य ने अपने पुत्र को कही थी; वही सूर्य के पुत्र ने अपने पुत्र को कही थी। यह बात मौलिक है। मौलिक अर्थात मूल से संबंधित, नई नहीं। ओरिजिनल, कंसर्न्ड विद दि ओरिजिन; वह जो मूल-स्रोत है, जहां से सब पैदा हुआ, वहीं से संबंधित है।
लेकिन आज के युग में मौलिक का कुछ और ही अर्थ हो गया है। मौलिक का अर्थ है, कोई आदमी कोई नई बात कह रहा है। मूल की बात कह रहा है। नए अर्थों में कृष्ण की बात नई नहीं है; मूल के अर्थों में मौलिक है, ओरिजिनल है। वह जो सभी चीजों का मूल है, सभी अस्तित्व का, वहीं से इस बात का भी जन्म हुआ है।
मौलिक का जो आग्रह है नए के अर्थों में, अहंकार का आग्रह है, ईगोइस्टिक है। जब भी कोई आदमी कहता है, यह मैं ही कह रहा हूं पहली बार, तो पागलपन की बात कह रहा है।
लेकिन ऐसे पागलपन के पैदा होने का कारण है। इस बार वसंत आएगा, फूल खिलेंगे। उन फूलों को कुछ भी पता नहीं होगा कि वसंत सदा ही आता रहा है। उन फूलों का पुराने फूलों से कोई परिचय भी तो नहीं होगा; उन फूलों को पुराने फूल भी नहीं मिलेंगे। वे फूल अगर खिलकर घोषणा करें कि हम पहली बार ही खिल रहे हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है; स्वाभाविक है। लेकिन सभी स्वाभाविक, सत्य नहीं होता। स्वाभाविक भूलें भी होती हैं। यह स्वाभाविक भूल है, नेचरल इरर है।
जब कोई युवा पहली दफा प्रेम में पड़ता है या कोई युवती पहली बार प्रेम में पड़ती है, तो ऐसा लगता है, शायद ऐसा प्रेम पृथ्वी पर पहली बार ही घटित हो रहा है। प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं से कहते हैं कि चांदत्तारों ने ऐसा प्रेम कभी नहीं देखा। और ऐसा नहीं कि वे झूठ कहते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे धोखा देते हैं। नेचरल इरर है, बिलकुल स्वाभाविक भूल करते हैं। उन्हें पता भी तो नहीं कि इसी तरह यही बात अरबों-खरबों बार न मालूम कितने लोगों ने, न मालूम कितने लोगों से कही है।
हर प्रेमी को ऐसा ही लगता है कि उसका प्रेम मौलिक है। और हर प्रेमी को ऐसा लगता है, ऐसी घटना न कभी पहले घटी और न कभी घटेगी। और उसका लगना बिलकुल आथेंटिक है, प्रामाणिक है। उसे बिलकुल ही लगता है; उसके लगने में कहीं भी कोई धोखा नहीं है। फिर भी बात गलत है।
सत्य का अनुभव भी जब व्यक्ति को होता है, तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस सत्य को और किसी ने कभी नहीं जाना। ऐसा ही लगता है कि जो मुझे प्रतीत हुआ है, वह मुझे ही प्रतीत हुआ है। यह स्वाभाविक भूल है।
कृष्ण इस स्वाभाविक भूल में नहीं हैं।
ध्यान रहे, की गई भूलों के ऊपर उठना बहुत आसान है; हो गई भूलों के ऊपर उठना बहुत कठिन है। जानकर की गई भूल बहुत गहरी नहीं होती। जानने वाले को, करने वाले को पता ही होता है। जो भूलें सहज घटित होती हैं, बहुत गहरी होती हैं।
अगर हम प्लेटो से पूछें, तो वह कहेगा, जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम कांट से पूछें, तो कांट कहेगा, जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम हीगल से पूछें, तो हीगल भी कहेगा कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम कृष्णमूर्ति से पूछें, तो वे भी कहेंगे, जो मैं कह रहा हूं, मैं ही कह रहा हूं। यह बड़ी स्वाभाविक भूल है।
कृष्ण कह रहे हैं, यही बात--नई नहीं; पुरानी नहीं-- अनंत-अनंत बार अनंत-अनंत ढंगों से अनंत-अनंत रूपों में कही गई है।
सत्य के संबंध में इतना निराग्रह होना अति कठिन है। इतना गैर-दावेदार होना, यह दावा छोड़ना है।
ध्यान रहे, हम सब को सत्य से कम मतलब होता है, मेरे सत्य से ज्यादा मतलब होता है। पृथ्वी पर चारों ओर चौबीस घंटे इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य का कोई भी आधार नहीं होता, मेरे सत्य का आधार होता है। अगर मैं आपसे विवाद में पडूं, तो इसलिए विवाद में नहीं पड़ता कि सत्य क्या है, इसलिए विवाद में पड़ता हूं कि मेरा सत्य ही सत्य है और तुम्हारा सत्य सत्य नहीं है।
समस्त विवाद मैं और तू के विवाद हैं, सत्य का कोई विवाद नहीं है। जहां भी विवाद है, गहरे में मैं और तू आधार में होते हैं। इससे बहुत प्रयोजन नहीं होता है कि सत्य क्या है? इससे ही प्रयोजन होता है कि मेरा जो है, वह सत्य है। असल में सत्य के पीछे हम कोई भी खड़े नहीं होना चाहते, क्योंकि सत्य के पीछे जो खड़ा होगा, वह मिट जाएगा। हम सब सत्य को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं।
लेकिन ध्यान रहे, सत्य जब हमारे पीछे खड़ा होता है, तो झूठ हो जाता है। हमारे पीछे सत्य खड़ा ही नहीं हो सकता, सिर्फ झूठ ही खड़ा हो सकता है। सत्य के तो सदा ही हमें ही पीछे खड़ा होना पड़ता है। सत्य हमारी छाया नहीं बन सकता, हमको ही सत्य की छाया बनना पड़ता है। लेकिन जब विवाद होते हैं, तो ध्यान से सुनेंगे तो पता चलेगा, जोर इस बात पर है कि जो मैं कहता हूं, वह सत्य है। जोर इस बात पर नहीं है कि सत्य जो है, वही मैं कहता हूं।
कृष्ण का जोर देखने लायक है। वे कहते हैं, जो सत्य है, वही मैं तुझसे कह रहा हूं। मैं जो कहता हूं, वह सत्य है। ऐसा उनका आग्रह नहीं। और इसलिए मुझसे पहले भी कही गई है यही बात।
नए युग में एक फर्क पड़ा है। नया युग बहुत आग्रहपूर्ण है। महावीर नहीं कहेंगे कि मैं जो कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। वे कहते हैं, मुझसे भी पहले पार्श्वनाथ ने भी यही कहा है। मुझसे पहले ऋषभदेव ने भी यही कहा है। मुझसे पहले नेमीनाथ ने भी यही कहा है। बुद्ध नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। वे कहते हैं, मुझसे भी पहले जो बुद्ध हुए, जिन्होंने भी जाना और देखा है, उन्होंने यही कहा है।
ऐसी भ्रांति हो सकती है कि ये सारे लोग पुरानी लीक को पीट रहे हैं। नहीं, पर वे यह नहीं कह रहे कि सत्य पुराना है। क्योंकि ध्यान रहे, जो चीज भी पुरानी हो सकती है, उसके नए होने का भी दावा किया जा सकता है। नए होने का दावा किया ही उसका जा सकता है, जो पुरानी हो सकती है, जिसकी पासिबिलिटी पुरानी होने की है। ये दावा यह कर रहे हैं कि सत्य पुराना और नया नहीं है; सत्य सत्य है। हम नए और पुराने होते हैं, यह दूसरी बात है; लेकिन सत्य में इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है।
यह सूर्य निकला, यह प्रकाश है। हम नए हैं। हम नहीं थे, तब भी सूर्य था; हम नहीं होंगे, तब भी सूर्य होगा। यह सूर्य नया और पुराना नहीं है। हम नए और पुराने हो जाते हैं। हम आते हैं और चले जाते हैं।
लेकिन हमारी दृष्टि सदा ही यही होती है कि हम नहीं जाते और सब चीजें नई और पुरानी होती रहती हैं। हम कहते हैं, रोज समय बीत रहा है। सचाई उलटी है, समय नहीं बीतता, सिर्फ हम बीतते हैं। हम आते हैं, जाते हैं; होते हैं, नहीं हो जाते हैं। समय अपनी जगह है। समय नहीं बीतता। लेकिन लगता है हमें कि समय बीत रहा है। इसलिए हमने घड़ियां बनाई हैं, जो बताती हैं कि समय बीत रहा है। सौभाग्य होगा वह दिन, जिस दिन हम घड़ियां बना लेंगे, जो हमारी कलाइयों में बंधी हुई बताएंगी कि हम बीत रहे हैं।
वस्तुतः हम बीतते हैं, समय नहीं बीतता है। समय अपनी जगह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा। हम समय को न चुका पाएंगे, समय हमें चुका देगा, समय हमें रिता देगा। समय अपनी जगह है, हम आते और जाते हैं। समय खड़ा है; हम दौड़ते हैं। दौड़-दौड़कर थकते हैं, गिरते हैं, समाप्त हो जाते हैं; सत्य वहीं है।
जिस दिन, कृष्ण कहते हैं, मैंने सूर्य को कहा था; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन सूर्य ने अपने बेटे मनु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन मनु ने अपने बेटे इक्ष्वाकु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। और कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, तब भी सत्य वहीं है। और अगर मैं आपसे कहूं, तो भी सत्य वहीं है। कल हम भी न होंगे, फिर कोई कहेगा, और सत्य वहीं होगा। हम आएंगे और जाएंगे, बदलेंगे, समाप्त होंगे, नए होंगे, विदा होंगे--सत्य, सत्य अपनी जगह है। इस सूत्र में इन सब बातों पर ध्यान दे सकेंगे, तो आगे की बात समझनी आसान है।
कोई सवाल हो, तो पूछ लें!


एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप।। २।।
इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना। परंतु हे अर्जुन, वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी-लोक में लुप्तप्राय हो गया है।


परंपरा से ऋषियों ने इसे जाना, लेकिन फिर वह लुप्तप्राय हो गया--ये दो बातें। पहली बात तो आपसे यह कह दूं कि परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं है। साधारणतः हम परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन करते हैं। टे्रडीशन का अर्थ होता है, रीति। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, रूढ़ि। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, प्रचलित। परंपरा का अर्थ और है। परंपरा शब्द के लिए सच में अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
गंगा निकलती है गंगोत्री से; फिर बहती है; फिर गिरती है सागर में। जब गंगा सागर में गिरती है, और गंगोत्री से निकलती है, तो बीच में लंबा फासला तय होता है। इस गंगा को हम क्या कहें? यह गंगा वही है, जो गंगोत्री से निकली? ठीक वही तो नहीं है; क्योंकि बीच में और न मालूम कितनी नदियां, और न मालूम कितने झरने उसमें आकर मिल गए। लेकिन फिर भी बिलकुल दूसरी नहीं हो गई है; है तो वही, जो गंगोत्री से निकली।
तो ठीक परंपरा का अर्थ होता है कि यह गंगा, परंपरा से गंगा है। परंपरा का अर्थ है कि गंगोत्री से निकली, वही है; लेकिन बीच में समय की धारा में बहुत कुछ आया और मिला।
ऐसा समझें कि सांझ आपने एक दीया जलाया। सुबह आप कहते हैं, अब दीए को बुझा दो; उस दीए को बुझा दो, जिसे सांझ जलाया था। लेकिन जिसे सांझ जलाया था, वह दीए की ज्योति अब कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को आपने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह रिप्लेस होती गई। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह आप बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने जलाया था?
यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। लेकिन फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है। यह उसी ज्योति का सिलसिला है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।
आप आज हैं; कल आप नहीं थे, लेकिन आपके पिता थे। परसों आपके पिता भी नहीं थे, उनके पिता थे। कल आप भी नहीं होंगे, आपका बेटा होगा। परसों बेटा भी नहीं होगा, उसका बेटा होगा। ठीक से समझें, तो जैसे ज्योति जली और बुझी, ठीक ऐसे ही व्यक्ति जलते और बुझते हैं, लेकिन फिर भी एक परंपरा है।
मां और बाप अपने बेटे को ज्योति दे जाते हैं। ज्योति जलती है, फिर नई संतति। अगर हम ठीक से देखें, तो आप हो नहीं सकते थे, अगर हजारों-लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति भी आपकी परंपरा में न हुआ होता। अगर लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति जो आपकी पिता की पीढ़ियों में रहा हो, न होता, तो आप कभी न हो सकते थे। वह गंगोत्री अगर वहां न होती, तो आज आप न होते। आप उसी धारा के सिलसिले हैं, शरीर की दृष्टि से आप उसी के सिलसिले हैं।
और आत्मा की दृष्टि से भी आप सिलसिला हैं, एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी--किसी और देह में, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, कंटिन्युटी।
वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, कंटीनम। अगर ठीक करीब लाना चाहें, तो परंपरा का अर्थ होगा, कंटीनम--संतति प्रवाह, सिलसिला।
कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा।
इसमें दूसरी बात भी ध्यान रखें। जोर कहने पर है; जोर सुनने पर नहीं है। इसमें कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। कृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना। जब भी कहा गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, लेकिन जोर कहने पर है। कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना जरूरी है; सुनने वाले का ऋषि होना जरूरी नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, जरूरी नहीं है। लेकिन जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं। जाना होगा। जानना और बात है, सुन लेना और बात है।
इसलिए हम पुराने शास्त्रों को कहते हैं, श्रुति, सुने गए। या कहते हैं, स्मृति, मेमोराइज्ड, स्मरण किए गए। ध्यान रहे, शास्त्र जानने वालों ने नहीं लिखे, सुनने वालों ने लिखे हैं।
इस पृथ्वी का कोई भी महत्वपूर्ण शास्त्र लिखा नहीं गया है। सुना गया है और लिखा गया है। गीता भी सुनी गई और लिखी गई। जिसने लिखी, जरूरी नहीं कि वह जानता हो। बाइबिल लिखी गई, कुरान लिखा गया, वेद लिखे गए, महावीर-बुद्ध के वचन लिखे गए। महावीर और बुद्ध ने लिखे नहीं हैं, कहे। जिन्होंने लिखे, उनके लिए वह ज्ञान नहीं था, श्रुति थी। उसे उन्होंने सुना था, उसे उन्होंने स्मरण किया था, उसे उन्होंने लिखा था; संजोया, सम्हाला। कहना चाहिए, शास्त्र एक अर्थ में डेड प्रोडक्ट है। कहना चाहिए, मरे हुए का संग्रह है। जिन्होंने कहा, उन्होंने परंपरा से जाना।
परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है, जिससे मैं राजी नहीं हूं। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र को पढ़ लें और जान लें, तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना। और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। सिर्फ इन्फर्मेशन ही होगा; नालेज नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं।
शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है, रिकग्नाइज कर सकता है। शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ी सस्ती बात हो जाएगी। फिर तो शास्त्र की जितनी कीमत है, उतनी ही कीमत सत्य की भी हो जाएगी। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, सिर्फ पहचाना जा सकता है।
लेकिन पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो, अन्यथा पहचानना मुश्किल है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप पहचान नहीं सकते। इसलिए सत्य शास्त्रों में सिर्फ रिकग्नाइज होता है, कग्नाइज नहीं होता। जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने का मार्ग तो कुछ और है।
इसलिए कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। लेकिन इसमें स्मरणीय है यह बात कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में किताब नहीं है, बीच में शास्त्र नहीं है। डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है।
मोहम्मद पहाड़ पर हैं। बेपढ़े-लिखे, मोहम्मद जैसे बेपढ़े-लिखे लोग बहुत कम हुए हैं। लेकिन अचानक उदघाटन हुआ; डाइरेक्ट कम्युनिकेशन हुआ। जिसे इस्लाम कहता है, इलहाम। ईसाइयत कहती है, रिवीलेशन। सत्य दिखाई पड़ा। इसलिए हम ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं। सत्य देखा गया। पढ़ा नहीं गया, सुना नहीं गया, देखा गया।
पश्चिम में भी ऋषियों को सीअर्स ही कहते हैं। देखा गया; देखने वाले। इसलिए हमने तो पूरे तत्व को दर्शन कहा। दिखाई जो पड़े सत्य, सीधा दिखाई पड़े; सीधा सुनाई पड़े, सीधा परमात्मा से मिले।
लेकिन परमात्मा से मिलने की भी परंपरा है। परमात्मा से आपको ही पहली दफा नहीं मिल रहा है। परमात्मा से अनेकों को और भी पहले मिल चुका है। मिलने वालों की भी परंपरा है। दो परंपराएं हैं, एक लिखने वालों की परंपरा है--लेखकों की। और एक जानने वालों की परंपरा है--ऋषियों की।
इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने जाना। यह परंपरा का बोध कि मुझसे पहले भी सत्य औरों को मिलता रहा है इसी भांति।
आपने आंख खोली और सूरज को जाना। जहां तक आपका संबंध है, आप पहली बार जान रहे हैं। लेकिन आपके पहले इस पृथ्वी पर जब भी आंख खोली गई है, सूरज जाना गया है। सूरज को इस भांति जानने की भी एक परंपरा है। आप पहले आदमी नहीं हैं।
और ध्यान रहे, जिस आदमी को भी भ्रम पैदा हो जाता है कि सत्य को मैं जानने वाला पहला आदमी हूं, उसको दूसरा भ्रम भी पैदा हो जाता है कि मैं अंतिम आदमी भी हूं। भ्रम भी जोड़े से जीते हैं, पेअर्स में जीते हैं। भ्रम भी अकेले नहीं होते। जिस आदमी को भी यह खयाल पैदा हो जाएगा कि सत्य को जानने वाला मैं पहला आदमी हूं, मुझसे पहले किसी ने भी नहीं जाना, उस आदमी को दूसरा भ्रम भी अनिवार्य पैदा होगा कि मैं आखिरी आदमी हूं। मेरे बाद अब सत्य को कोई नहीं जान सकेगा। क्योंकि जो कारण पहले भ्रम का है, वही कारण दूसरे भ्रम में भी कारण बन जाएगा। पहले भ्रम का कारण अहंकार है। और ध्यान रहे, जिसका अभी अहंकार नहीं मिटा, उसको सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं हो सकता। अहंकार बीच में बाधा है।
इसलिए कृष्ण बहुत जोर देकर कहते हैं कि परंपरा से ऋषियों ने जाना। लेकिन ध्यान रखना आप, परंपरा इस तरह की नहीं कि एक ने दूसरे से जान लिया हो। परंपरा इस तरह की कि जब भी एक ने जाना, उसने यह भी जाना कि मैं जानने वाला पहला आदमी नहीं हूं; न ही मैं अंतिम आदमी हूं। अनंत ने पहले भी जाना है, अनंत बाद में भी जानेंगे। मैं जानने वालों की इस अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी, एक छोटी-सी बूंद से ज्यादा नहीं हूं। यह सूरज मेरी बूंद में ही झलका, ऐसा नहीं; यह सूरज सब बूंदों में झलका है और सब बूंदों में झलकता रहेगा। जब कोई बूंद इतनी विनम्र हो जाती है, तो उसके सागर होने में कोई बाधा नहीं रह जाती।
इसलिए परंपरा का ठीक से अर्थ समझ लेना। अन्यथा हम परंपरा का जो अर्थ लेते हैं, वह एकदम गलत, एकदम झूठ और खतरनाक है। परंपरा का ऐसा अर्थ नहीं है कि मैं सत्य आपको दे दूंगा, तो आपको मिल जाएगा। और आप किसी और को दे देंगे, तो उसको मिल जाएगा। परंपरा का इतना ही अर्थ है कि मैं पहला आदमी नहीं, आखिरी नहीं; जानने वालों की अनंत शृंखला में एक छोटी-सी कड़ी हूं। यह सूर्य सदा ही चमकता रहा है; जिन्होंने भी आंख खोली, उन्होंने जाना है। ऐसी विनम्रता का भाव सत्य के जानने वाले की अनिवार्य लक्षणा है।
दूसरी बात कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य।
सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब लुप्त हो गया। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनर्आविष्कार असंभव है। उसको खोजने का फिर कोई रास्ता नहीं है।
जैसे एक चिकित्सक किसी आदमी को कहे, मृतप्राय; तो अभी जीवित होने की संभावना है। लेकिन कहे, मर गया, मृत हो गया, तो फिर कोई उपाय नहीं है। मृतप्राय का अर्थ है कि मरने के करीब है; मर ही नहीं गया। लुप्तप्राय का अर्थ है, लुप्त होने के करीब है, लुप्त हो ही नहीं गया।
सत्य सदा ही लुप्तप्राय होता है। क्योंकि एक दफे लुप्त हो जाए, तो फिर मनुष्य की सीमित क्षमता के बाहर है यह बात कि वह सत्य को खोज सके। एक किरण तो बनी ही रहती है सदा। चाहे पूरा सूरज न दिखाई पड़े, लेकिन एक किरण तो सदा ही किसी कोने से हमारे अंधकारपूर्ण मन में कहीं झांकती रहती है। जैसे कि मकान के अंधेरे में द्वार-दरवाजे बंद करके हम बैठे हैं, और खपड़ों के छेद से, कहीं एक छोटी-सी रंध्र से, छोटी-सी किरण भीतर आती हो। इतना सूर्य से हमारा संबंध बना ही रहता है। वही संभावना है कि हम सूर्य को पुनः खोज पाएं, उसी किरण के मार्ग से।
सत्य लुप्तप्राय ही होता है, लुप्त कभी नहीं होता। लुप्तप्राय का अर्थ है कि हर युग में, हर क्षण में, हर व्यक्ति के जीवन में वह किनारा और वह किरण मौजूद रहती है, जहां से सूर्य को खोजा जा सकता है। यही आशा है। अगर इतना भी विलीन हो जाए, तो फिर खोजने का कोई उपाय आदमी के हाथ में नहीं है।
दूसरी बात, लुप्तप्राय सत्य क्यों हो जाता है? जैसे कोई नदी रेगिस्तान में खो जाए; लुप्त नहीं हो जाती, लुप्तप्राय हो जाती है। रेत को खोदें, तो नदी के जल को खोजा जा सकता है। ठीक ऐसे ही, जाने गए सत्य की परंपरा, सुने गए सत्य की परंपरा की रेत में खो जाती है। जाने गए सत्य की परंपरा, द्रष्टा के सत्य की परंपरा, शास्त्रों की, शब्दों की परंपरा की रेत में खो जाती है। धीरे-धीरे शास्त्र इकट्ठे होते चले जाते हैं, ढेर लग जाता है। और वह जो किरण थी ज्ञान की, वह दब जाती है। फिर धीरे-धीरे हम शास्त्रों को ही कंठस्थ करते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं, इन शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने से ही सत्य मिल जाएगा। और सत्य की सीधी खोज बंद हो जाती है। फिर हम उधार सत्यों में जीने लगते हैं। फिर राख ही हमारे हाथ में रह जाती है।
लेकिन शास्त्रों के रेगिस्तान में भी सत्य सिर्फ लुप्तप्राय होता है, लुप्त नहीं हो जाता। अगर कोई शास्त्रों के शब्दों को भी खोदकर खोज सके, तो वहां भी सत्य खोजा जा सकता है। लेकिन पहचान बड़ी मुश्किल है। पहचान इसलिए मुश्किल है कि जिस सत्य से हम अपरिचित हैं, उसे हम शास्त्रों के शब्दों के रेगिस्तान में खोज न पाएंगे। संभावना यही है कि सत्य तो न मिलेगा, हम भी भटक जाएंगे। ऐसा ही हुआ है।
हिंदू, हिंदू शास्त्रों में खो जाता है। मुसलमान, मुसलमान के शास्त्रों में खो जाता है। जैन, जैन के शास्त्रों में खो जाता है। और कोई यह नहीं पूछता कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो उनके पास कितने शास्त्र थे! शास्त्र थे ही नहीं। महावीर के हाथ बिलकुल खाली थे। कोई नहीं पूछता कि जब मोहम्मद को इलहाम हुआ, तो कौन-सी किताबें उनके पास थीं! किताबें थीं ही नहीं। कोई नहीं पूछता कि जीसस ने जब जाना, तो किस विश्वविद्यालय में शिक्षा लेकर वे जानने गए थे!
जानने की घटना सदा ही निपट मौन और शून्य में घटी है। और हम सब जानने के लिए शब्द के मार्ग से यात्रा करते हैं। बड़ी उलटी यात्रा है। एक ही लाभ हो सकता है, और वह यह कि खोजते-खोजते इतने थक जाएं, इतने ऊब जाएं, कि शास्त्र को बंद कर दें। इतना ही लाभ हो सकता है। शब्द से इतने परेशान हो जाएं कि शब्द से हाथ जोड़ लें। पढ़ते-पढ़ते इतना समझ में आ जाए कि पढ़ने से कुछ न होगा, इतना ही लाभ हो सकता है।
सत्य के लुप्तप्राय होने की प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। वह उपयोगी है सदा। सत्य के लुप्त होने की एक व्यवस्था है। वह व्यवस्था कैसी है? वह व्यवस्था ऐसी है कि महावीर ने जाना। स्वभावतः, जिसने जाना, वह उससे कहेगा, जिसने नहीं जाना है। क्योंकि दूसरा अगर जानता ही हो, तो कहना फिजूल है।
इसलिए एक बार ऐसा भी हुआ कि महावीर और बुद्ध एक ही गांव में ठहरे, लेकिन मिले नहीं। एक ही गांव में भी कहना ठीक नहीं, एक ही धर्मशाला के दो हिस्सों में ठहरे; एक कोने पर बुद्ध ठहरे, एक पर महावीर ठहरे, एक ही धर्मशाला में। मिलना नहीं हुआ! लोग सोचते हैं, बड़े अहंकारी रहे होंगे। मिलना तो था!
नहीं; अहंकार का कारण नहीं है। मिलना बिलकुल बेमानी, मीनिंगलेस था। कोई अर्थ ही न था मिलने का। मिलना ठीक ऐसे ही था, जैसे दो आईनों को कोई एक-दूसरे के सामने रख दे। बिलकुल बेकार है। आईने के सामने आप खड़े हों, तो सार्थक, कुछ दिखाई पड़ता है। आईने के सामने आईना ही रख दें, तो बिलकुल बेकार है। आईना आईने को रिफ्लेक्ट करता रहता, कुछ नहीं अर्थ होता। आईने आपस में बातचीत नहीं करते। आईने सिर्फ चेहरों से बातचीत करते हैं।
बुद्ध और महावीर को अगर पास बिठा दें, तो जैसे दो शून्य पास बिठा दिए; उनका कोई अर्थ नहीं होता। शून्य को किसी अंक के पास बिठाएं, तो अर्थ होता है। एक के पीछे शून्य रख दें, तो दस हो जाते हैं। दो के पीछे रख दें, तो बीस हो जाते हैं। और दो शून्यों को आस-पास रख दें, तो कुछ मतलब नहीं होता। दो शून्य भी नहीं होते जुड़कर। शून्य दो नहीं होते; शून्य एक ही रहता है। शून्य का कोई जोड़ नहीं होता। बुद्ध और महावीर नहीं मिले, क्योंकि दो शून्य के जुड़ने का कोई अर्थ नहीं था। बात क्या होती? कहने को क्या था? बोलने को क्या था? बताने को क्या था?
इसलिए सत्य को जब भी कोई जानता है, तो जो नहीं जानते, उनसे बोलता है। बस, उपद्रव शुरू हो जाता है। जो नहीं जानता, वह सुनता है। स्वभावतः, जो कहा जाता है, वह कभी नहीं सुना जाता; कुछ और ही सुना जाता है। हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। अब यह बड़ी कठिनाई हो गई। यह पैराडाक्स हो गया!
हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। जो हम नहीं जानते, वह हम सुन नहीं सकते। नहीं; सुन तो लेंगे। कान सुनने का काम पूरा कर देंगे। लेकिन भीतर वह जो मन है, वह समझ नहीं पाएगा। नहीं; समझ भी लेगा, लेकिन कुछ और समझ लेगा, जो कहा नहीं गया है। हम वही समझते हैं, जो हम समझ सकते हैं।
कृष्ण अर्जुन से बोल रहे हैं। स्वभावतः, अर्जुन वही समझेगा, जो अर्जुन समझ सकता है। वह तो अर्जुन कभी नहीं समझ सकता, जो कृष्ण बोल रहे हैं। क्योंकि अगर अर्जुन वह समझ सकता, तो कृष्ण का बोलना फिजूल हो जाता, बेकार हो जाता।
गुरु और शिष्य के बीच फासला न हो, तब बातचीत हो सकती है, लेकिन तब बातचीत बेकार हो जाती है। और गुरु और शिष्य के बीच फासला हो, तब बातचीत हो नहीं सकती, हालांकि तब बातचीत की जरूरत होती है! ऐसी स्वाभाविक कठिनाई है।
तो महावीर बोलते हैं उनसे, जो नहीं जानते। बुद्ध बोलते हैं उनसे, जो नहीं जानते। जो नहीं जानते हैं, वे सुनते हैं; सुनकर अर्थ निकालते हैं। अर्थ उनके अपने होते हैं। बुद्ध अगर हजार लोगों में बोलते हैं, तो हजार अर्थ होते हैं। मैं आपसे जो कुछ कहूंगा; इस भूल में मैं नहीं हो सकता कि आप सब उससे एक ही अर्थ निकाल लेंगे। यह असंभव है। जितने यहां मित्र इकट्ठे हैं, उतने ही अर्थ लेकर जाएंगे। उतने अर्थ मेरे बोलने में नहीं हैं, मेरे बोलने में सुनिश्चित एक ही अर्थ है। लेकिन आप अपने अर्थ लेकर जाएंगे।
एडमंड बर्क दुनिया का इतिहास लिख रहा था। कोई पंद्रह साल उसने मेहनत की थी और आधा इतिहास लिख चुका था। पंद्रह साल और, तीस साल; करीब अपनी पूरी जिंदगी की समझदारी का समय वह इतिहास पर लगा रहा था। सुबह से उठता था, तो रात आधी रात तक लिखता ही रहता था। क्योंकि बड़ा था काम और जिंदगी थी छोटी। और भरोसा नहीं था कि किताब पूरी हो सके।
आधी किताब जब पूरी हो गई थी, एक दिन दोपहर को घर के आस-पास जोर से शोरगुल मचा। लेकिन वह तो अपने काम में लगा रहा। शोरगुल बढ़ता चला गया। तब वह उठकर बाहर आया, उसने कहा, बात क्या है! लोग भाग रहे थे। पूछा, बात क्या है? किसी ने कहा, हत्या हो गई। तुम्हारे मकान के पीछे मर्डर हो गया। एक से पूछा; उसने कुछ कहा कि किस तरह हुआ। दूसरे से पूछा; उसने कुछ कहा। वे सब आंखों देखे हुए, चश्मदीद गवाह थे।
बर्क भागा हुआ अपने मकान के पीछे पहुंचा। वहां लोग मौजूद थे। भीड़ लगी थी। लाश सामने पड़ी थी। हत्यारा पकड़ लिया गया था। लेकिन सबके वर्सन अलग थे। देखने वाला कोई कह रहा था कि जिम्मेवार कौन है। कोई कह रहा था कि जो मारा गया, वह ठीक ही मारा गया। कोई कह रहा था, जिसने मारा, उसने बहुत बुरा किया। कोई कह रहा था, हत्यारा जिम्मेवार नहीं है। कोई कह रहा था कि हत्यारा जिम्मेवार है। बर्क ने सबसे पूछा और लौटकर पंद्रह साल जो किताब में मेहनत लगाई थी, उसमें आग लगा दी। उसने लिखा कि जब मेरे घर के पीछे हत्या हो जाए, और आंखों देखने वाले लोगों की गवाहियां अलग हों, तो पांच हजार साल पहले क्या हुआ था, इसको पांच हजार साल बाद मैं लिखूं, यह व्यर्थ है। इस झंझट में मैं नहीं पडूंगा। बर्क ने अपने पत्र में लिखा है कि इतिहास सरासर झूठ है। सच्चा इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता।
जैसे ही कृष्ण बोलते हैं, सत्य बदलने लगा। जैसे ही पहुंचा दूसरे के पास, रूप बदला, लुप्त होना शुरू हुआ। लेकिन यह तो मैंने बाहर की बात कही। अगर हम थोड़े और भीतर पहुंचें, तो और भी एक कठिनाई है। सत्य बोला गया, तब तो लुप्त होता ही है, सुनने वाले के कारण; लेकिन जब बोला जाता है, तो बोलने की प्रक्रिया के कारण भी लुप्त होता है।
असल में सत्य है विराट, और शब्द है संकीर्ण। शब्द बहुत छोटा है, सत्य बहुत बड़ा है। उस सत्य को जैसे ही शब्द में रखने की कोई चेष्टा करता है, कठिनाई शुरू हो जाती है। इसलिए सभी जानने वाले निरंतर कहने के बाद, यह कहते चले जाते हैं कि जो कहना था, वह कहा नहीं जा सका। जो कहना चाहा था, वह अनकहा छूट गया।
रवींद्रनाथ मर रहे थे। एक मित्र आया और उसने कहा कि धन्यभागी हो तुम! तुमने तो छह हजार गीत लिखे। तुम्हें तो तृप्त हो जाना चाहिए, फुलफिल्ड। इतने गीत किसी एक आदमी ने नहीं गाए।
रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि बंद करो यह बातचीत। मैं तो परमात्मा से और कुछ कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जो गीत मैं गाना चाहता था, वह अभी तक गा नहीं पाया। उसी गीत को गाने की कोशिश में छह हजार गीत लिखे जा चुके हैं। लेकिन जो गीत मैं गाना चाहता था वह अब भी अनगाया, अनसंग, अभी भी मेरे भीतर पड़ा है। ये छह हजार असफल चेष्टाएं हैं; छह हजार फेल्योर्स। छह हजार बार कोशिश कर चुका। जो कहना था, वह अभी भी अनकहा है। परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि अभी तो मैं साज ही बिठा पाया था, अभी गाया कहां! और यह तो जाने का वक्त आ गया। यह तो ठोंक-पीटकर अभी साज बिठा पाया था; अभी गाया कहां था! अब कहीं लगता था कि गाने के करीब आ रहा हूं, तो यह जाने का वक्त आ गया!
कबीर से पूछें, नानक से पूछें, मीरा से पूछें, किसी से भी पूछें, वे यही कहेंगे कि जो कहना था, वह हम कह नहीं पाए। वह अनकहा रह गया है। बड़े आश्चर्य की बात है। फिर भी कहा तो है। कबीर ने कहा तो है। मीरा गाई तो। और जो कहना था, वह अनकहा रह गया। बात क्या है?
बात यह है, बात ठीक ऐसी ही है, जैसे कि आप देखें सुबह सूरज को उगते; पक्षियों को गीत गाते; वृक्षों को खिलते, फूलते। फिर घर जाएं, और कोई आपसे पूछे कि थोड़ा वर्णन करें, थोड़ा बताएं, कैसा था सूरज? आप कहें, बहुत कुछ कहें। फिर भी आप पाएंगे कि जो भी आपने कहा, वह धुंधली तस्वीर भी नहीं है, जो आपने देखा था। क्योंकि जो आप कहेंगे, उसमें सूरज की जरा भी गर्मी नहीं होगी। उसमें पक्षियों के गीतों का संगीत नहीं होगा। उसमें हरियाली भी नहीं होगी सुबह की। उसमें सुबह की ठंडी हवाओं की ताजगी भी नहीं होगी। उसमें फूलों के खिलने का आनंदभाव भी नहीं होगा। वह जो सुबह की एक्सटैसी थी, वह जो सुबह की समाधिस्थ अवस्था थी प्रकृति की, वह जो सुबह का ध्यानमग्न रूप था, वह कहीं भी नहीं होगा। और जब आप वर्णन करके चुक चुके होंगे, तो आप कहेंगे कि कहा तो जरूर, लेकिन जो मैंने देखा था, वह इसमें कहीं आया नहीं।
फिर वह आदमी सुनकर किसी और को बताएगा। सत्य लुप्त होना शुरू हुआ। कुछ तो आपने लुप्त किया। क्योंकि कहने में ही, कहने की प्रक्रिया में ही भूल हुई। फिर वह आदमी सुनेगा; फिर वह कहेगा, और सत्य लुप्त होना शुरू हो जाएगा। नदी चली और रेगिस्तान में खोनी शुरू हुई। यात्रा उठी भी नहीं, पहला कदम उठा भी नहीं, कि भटकाव शुरू हुआ। ऐसा है। और अब तक इसके लिए कोई उपाय खोजा नहीं जा सका। आगे भी खोजा नहीं जा सकता है। सदा ऐसा ही रहेगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सत्य लुप्तप्राय है। लेकिन लुप्तप्राय! मैं सुबह के सूरज का वर्णन करूं; बिलकुल वर्णन न हो पाए, फिर भी मैं वर्णन सुबह के सूरज का ही कर रहा हूं। आप बिलकुल न समझ पाएं, फिर भी आप थोड़ा तो समझ ही जाएंगे कि सुबह का वर्णन कर रहा हूं। पक्षियों के गीत मेरे वर्णन में सुनाई नहीं पड़ेंगे; लेकिन फिर भी पक्षियों ने गीत गाए हैं, इतना तो मैं कह ही पाऊंगा। सूरज की गर्मी मेरे शब्दों में न होगी; लेकिन सूरज गर्म था, उत्तप्त था, सुखद था, इतनी खबर तो मैं दे ही पाऊंगा। और आप कितना ही गलत समझें, जब आप किसी को कुछ कहेंगे इस संबंध में फिर, बात और बिगड़ जाएगी, लेकिन फिर भी सुबह के सूरज से ही संबंधित होगी।
कितनी ही भूल-चूक होती चली जाए, रेगिस्तान में नदी कितनी ही खोती चली जाए, उसका खोजना भी मुश्किल हो जाए, लेकिन कहीं रेत को उखाड़ने से उसकी बूंदें पकड़ में आ ही जाएंगी। और अगर किसी ने सुबह का सूरज देखा हो, तो हजारवें आदमी की बात को सुनकर भी वह समझ जाएगा कि मालूम होता है, सुबह के सूरज की बात करते हैं। रिकग्नाइज कर सकेगा।
सत्य इतना तो सदा बच जाता है कि रिकग्नाइज किया जा सकता है। उसकी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। सत्य सदा ही लुप्तप्राय हो जाता है, लेकिन लुप्तप्राय होकर भी सत्य मौजूद होता है।
दूसरी बात ध्यान रखने जैसी है कि सत्य कितना ही लुप्तप्राय हो जाए, असत्य नहीं हो जाता है। तभी तो लुप्तप्राय है। अगर असत्य हो जाए, तो सत्य मर गया; फिर बचा नहीं, फिर बिलकुल नहीं बचा।
मेरी तस्वीर उतारी जाए। फिर मेरी तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। फिर उस तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। हर निगेटिव फेंट और फीका होता चला जाएगा। फिर भी तस्वीर मेरी ही रहेगी। और ऐसा भी वक्त आ सकता है हजारवें निगेटिव पर कि बिलकुल पहचानना मुश्किल हो जाए। मैं भी न पहचान सकूं कि यह मेरा निगेटिव है। लेकिन फिर भी निगेटिव मेरा ही रहेगा; कितना ही फीका, कितना ही दूर, कितनी ही दूर की प्रतिध्वनि, लेकिन मेरी ही रहेगी। हो सकता है, मैं भी न पहचान पाऊं, तो भी, तो भी मेरी ही परंपरा में वह तस्वीर होगी।
सत्य के लुप्तप्राय होने का यही अर्थ है कि कितना ही लुप्त हो जाए, फिर भी असत्य नहीं हो जाता है। सत्य की फीकी प्रतिध्वनि उसमें शेष रहती है। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि को पुनः पहचान सकते हैं। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि की प्रत्यभिज्ञा कर सकते हैं।


प्रश्न: भगवान श्री, दो बातें समझनी हैं। आपने सत्य शब्द का उपयोग किया है; और प्रथम दो श्लोक में योग शब्द का उपयोग है। कृपया योग शब्द की परिभाषा व अर्थ समझाएं। और दूसरी बात, ऋषि शब्द के साथ राज शब्द भी जुड़ा हुआ है। ऋषि के बदले राजर्षि शब्द का क्या विशेष अर्थ है?


सत्य है अनुभूति; योग है अनुभूति की प्रक्रिया। सत्य है दर्शन; योग है द्वार। सत्य जाना जाता है; जिससे जाना जाता है, वह है योग। योग और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस मार्ग से यात्रा करनी पड़ती है, वह है योग; और जिस मंजिल पर मार्ग पहुंच जाता है, वह है सत्य। और मंजिल और मार्ग अलग-अलग नहीं हैं। मंजिल मार्ग का ही आखिरी छोर है; मार्ग मंजिल की ही शुरुआत है। पहला कदम भी आखिरी कदम है, क्योंकि पहला कदम आखिरी कदम का प्रारंभ है। और आखिरी कदम भी पहला कदम है, क्योंकि पहले कदम के बिना आखिरी कदम हो नहीं सकता है।
इसलिए मैंने सत्य की बात कही, समझनी ज्यादा आसान होगी। और योग की बात जानकर छोड़ी, क्योंकि आगे योग के संबंध में बहुत बात आएगी और तब योग को विस्तार से समझा जा सकता है।
दूसरी बात पूछी है, राजऋषि कहा है।
साधारणतः जो गलत अर्थ प्रचलित है, वह तो यही है कि अगर कोई राजा ऋषि हो जाए, तो राजऋषि है। गलत है अर्थ; प्रचलित है जरूर। सच तो यह है कि जो भी प्रचलित होता है, उसके सौ में निन्यानबे मौके गलत होने के होते हैं। प्रचलित होने के कारण ही गलत होने के मौके होते हैं। राजऋषि का मेरे लिए तीन दिशाओं से अर्थ है, वह मैं आपको कहूं।
पहला तो यह, जो भी ऋषि होता, वह राजा हो जाता है। राजा ऋषि हो जाता है, ऐसा नहीं। जो भी ऋषि हो जाता है, वह एक तरह की बादशाहत पा लेता है। जो भी ऋषि हो जाता है, वह राजा हो ही जाता है।
सच तो यह है कि बिना ऋषि हुए राजा होने का सिर्फ धोखा होता है, राजा कोई होता नहीं। बिना ऋषि हुए तो भिखारी ही होते हैं, राजा भी। पात्र बड़ा होता है भिक्षा का, इसलिए सबको दिखाई नहीं पड़ता; बहुत बड़ा पात्र होता है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। या इसलिए भी दिखाई नहीं पड़ता कि बाकी भिखारी जरा छोटे भिखारी होते हैं। भिखारियों में भी हायरेरकी होती है! छोटे भिखारी, बड़े भिखारी, पहुंचे हुए भिखारी! ऐसी उनकी हायरेरकी होती है।
तो राजा जो है, वह भिखारियों के ऊपर सबसे ऊपर है, भिखारियों की धारा में सबसे ऊपर है। पद उसका भिखारियों में परम है। इसलिए भिखारियों की बड़ी दुनिया में राजा भी राजा मालूम पड़ता है; है तो भिखारी ही। जहां तक मांग है, वहां तक भिखारीपन है; जहां तक हम कुछ मांगते हैं और चाहते हैं, वहां तक भिखारी हैं।
स्वामी राम अमेरिका गए, तो वे अपने को बादशाह ही कहते थे। वे जब भी बोलते थे, तो वे राम बादशाह कहते थे--खुद को ही। वे कहते थे कि आज राम बादशाह किसी के घर भोजन करने गए थे। अमेरिका का तत्कालीन राष्ट्रपति राम से मिलने आया था। उसे बड़ा हास्यास्पद लगा यह कि एक फकीर, जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अपने को बादशाह कहे! तो उसने पूछा कि मुझे थोड़ी हैरानी होती है। और सब तो ठीक है, लेकिन यह बादशाह आप अपने को क्यों कहते हैं?
तो राम ने कहा, इसलिए कि अब ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जिसकी मांग मेरे भीतर बची हो। अब मैं भिखमंगा नहीं हूं। अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे तुम मुझमें लालच पैदा कर सको, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें मुझे तुम लोभ में फंसा सको। इसलिए अपने को बादशाह कहता हूं। और इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जिस दिन से अपना खयाल छोड़ा, उस दिन से सभी अपना हो गया है। जिस दिन से यह खयाल छूटा कि मेरा है यह, उसी दिन से तेरा का खयाल भी विदा हो गया। सारी दुनिया अब मेरी है। चांदत्तारे मेरे हैं। अब सब मेरा है, क्योंकि अब कुछ भी मेरा नहीं है।
जिस दिन कोई आदमी अपने छोटे-से घर को छोड़ देता है, उस दिन सारी पृथ्वी उसकी अपनी हो जाती है। असल में छोटे-से घर को इतना कसकर पकड़ता है कि पूरी पृथ्वी उसकी अपनी हो कैसे सकती है? हाथ फैले हुए चाहिए पूरी पृथ्वी को पकड़ने के लिए। तब छोटी चीज को कोई पकड़ेगा, तो फिर बड़े के लिए फैलाव नहीं रह जाता।
राम ने कहा, इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जब भी भीतर देखता हूं, जब भी अपने भीतर झांकता हूं, तभी पाता हूं कि अनंत खजाने, अनंत साम्राज्य, सब मेरा है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरा न हो।
तो राजऋषि का मैं तो अर्थ करता हूं, ऋषि राजा हो जाता है। सभी ऋषि राजऋषि हैं। एक दिशा से ऐसा अर्थ करना चाहूं। दूसरी दिशा से एक और अर्थ करना चाहूं।
योग की दो प्रक्रियाएं प्रचलित रही हैं। या ज्ञान की या जानने की दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम सांख्य है, और एक निष्ठा का नाम योग है। कृष्ण ने गीता में बहुत-बहुत बार इन दो निष्ठाओं को स्पर्श किया है। सांख्य-निष्ठा का अर्थ है, करना कुछ भी नहीं है, केवल जानना है। करने योग्य कुछ भी नहीं है; सिर्फ जानने योग्य है। रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है; सिर्फ जानने की जरूरत है। जानने से ही सब मिल जाएगा। जानने से ही सब हो जाएगा; करने का कोई भी कारण नहीं है।
सांख्य से जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध होता है; उसने हाथ भी नहीं हिलाया है। वह राजा की तरह अपने सिंहासन पर ही बैठा रहा है। उसने कुछ किया ही नहीं है। सच तो, उसके बिना कुछ किए सब हुआ है, होता रहा है। राजा का अर्थ ही यही है, उसके बिना कुछ किए सब हो जाए। अगर करना पड़े, तो फिर राजा नहीं है। राजा का जो भीतरी मौलिक अर्थ है, वह यही है कि जिसके बिना किए सब होता हो; जिसके भीतर इच्छा भी पैदा न हो पाए कि पूर्ति सामने मौजूद हो जाए। ठीक इन अर्थों में राजा कभी पृथ्वी पर होते नहीं। लेकिन सांख्य ऐसा ही राजयोग है, बिना कुछ किए सब मिल जाता है।
सांख्य का कहना ही यही है कि तुम करते हो, इसीलिए नहीं मिलता है। सांख्य का कहना यही है कि जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम खोज रहे हो, इसलिए भीतर नहीं देख पाते, क्योंकि खोज में बाहर उलझे रहते हो। करो खोज बंद; रुक जाओ; बैठ जाओ। जैसे सिंहासन पर राजा बैठा हो, ऐसे बैठ जाओ। कुछ मत करो। आंख करो बंद; सब छोड़ो; और पा लो उसे, जो भीतर मौजूद है।
वह सदा से मौजूद है, लेकिन तुम इतने दौड़ रहे हो कि तुम्हारी दौड़ की वजह से तुम वहां न पहुंच पाओगे, जो भीतर है। दौड़ने वाला सदा बाहर जाता है। खोजने वाला बाहर खोजता है। करने वाला बाहर करता है।
ध्यान रहे, सब करना बाह्य है; भीतर कुछ भी नहीं किया जा सकता। भीतर तो वही जाता है, जो नान-डूइंग में, अक्रिया में उतरता है; अकर्म में। जो नहीं करता कुछ, वह भीतर चला जाता है। जो कुछ करता है, वह बाहर भटक जाता है।
तो सांख्य कहता है, भीतर रखी है संपदा। तुम कुछ मत करो, तो पा लो।
लाओत्से ने चीन में कहा है, सीक, एंड यू विल लूज; खोजो, और तुमने खोया। सीक, एंड यू विल नाट फाइंड; खोजो, और तुम कभी न पा सकोगे। डू नाट सीक, एंड फाइंड; मत खोजो, और पा लो।
अब यह सांख्य की निष्ठा है लाओत्से में। खोजो मत, और पा लो। बड़ी उलटी बात है। करीब-करीब ऐसे ही, जैसा मैंने सुना कि एक मछली ने जाकर मछलियों की रानी से पूछा कि सागर के संबंध में बहुत सुनती हूं, कहां है यह सागर? कहां खोजूं कि मिल जाए? कहां जाऊं कि पा लूं? कौन-सा है मार्ग? क्या है विधि? क्या है उपाय? कौन है गुरु, जिससे मैं सीखूं? यह सागर क्या है? यह सागर कहां है? यह सागर कौन है?
वह रानी मछली हंसने लगी। उसने कहा, खोजा, तो भटक जाओगी। गुरु से पूछा, कि उलझन हुई। विधि खोजी, तो विडंबना है। खोजो मत; पूछो मत। उस मछली ने कहा, लेकिन फिर यह सागर मिलेगा कैसे? तो उस रानी मछली ने कहा, सागर के मिलने की बात ही गलत है, क्योंकि सागर को तूने कभी खोया ही नहीं है। तू सागर ही है। सागर में ही पैदा होती है; सागर में ही बनती है; सागर में ही जीती है; सागर में ही विदा होती है; सागर में ही लीन। जो कुछ है, सागर ही है चारों तरफ। लेकिन उस मछली ने कहा, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता!
मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि हम सिर्फ उसी को देख पाते हैं, जो कभी मौजूद होता है और कभी गैर-मौजूद हो जाता है। हम उसको नहीं देख पाते, जो सदा मौजूद है। सदा मौजूद दिखाई नहीं पड़ता।
जैसे हमें हवा दिखाई नहीं पड़ती, ऐसे ही मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ता। न दिखाई पड़ने का कारण सिर्फ यही है कि सदा मौजूद है। हम जब आंख खोले, तब भी मौजूद था। जब हम आंख बंद करेंगे, तब भी मौजूद होगा। जो सदा मौजूद है, एवरप्रेजेंट है, वह अदृश्य हो जाता है। इसलिए परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। जो सदा मौजूद है, वह दिखाई नहीं पड़ सकता। दिखाई वही पड़ सकता है, जो कभी मौजूद है, और कभी गैर-मौजूद हो जाता है।
सांख्य की निष्ठा कहती है, कुछ मत करो। करने के भ्रम में ही मत पड़ो। न ध्यान, न धारणा, न योग--कुछ नहीं। कुछ करो ही मत। लेकिन न करना बहुत बड़ा करना है। बाकी सब करना बहुत छोटे-छोटे करना है। बाकी करना सब कर सकते हैं हम। न करना! प्राण कंप जाते हैं। कैसे न करो?
सबसे कठिन करना, न करना है। इसलिए सांख्य सबसे कठिन योग है। सांख्य के मार्ग से जो जाते हैं, वे राजऋषि हैं। जो उस योग को साध लेते हैं, न करने को, निश्चित ही वे ऋषियों में राजा हैं।
लेकिन जो नहीं साध पाते, उनके लिए फिर योग है--यह करो, यह करो, यह करो। ऐसा नहीं कि उस करने से उनको मिल जाएगा। लेकिन करने से थकेंगे, परेशान होंगे, कर-करके मुश्किल में पड़ेंगे; जन्म-जन्म भटकेंगे। आखिर में करने से इतने ऊब जाएंगे कि छोड़कर पटक देंगे और बैठ जाएंगे कि अब बहुत कर लिया; अब नहीं करते। और जब नहीं करेंगे, तब पा लेंगे।
लेकिन करने से गुजरना पड़ेगा उन्हें। उनका योग हठयोग है--जिद्द से, कर-करके। मिलता तो तब है, जब न करना ही फलित होता है, चाहे वह न करने से आया हो, और चाहे करने से आया हो। मिलता तो तभी है, जब न करना फलित होता है। पूर्ण अकर्म, तभी। और अकर्म में जो मिलता है, वह राजा जैसा मिलना है।
मजदूर को करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। दुकानदार को कुछ करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। राजा बैठा है अपने सिंहासन पर; कुछ करता नहीं; सब मिलता है। ऐसा कोई राजा होता नहीं। राजा को भी बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन यह राजा की चरम धारणा है। राजऋषि का यहां जो अर्थ है, वह यही है कि जिसने बिना कुछ किए सब पा लिया, वह ऋषियों में राजा है।
और तीसरी बात, फिर हम सांझ बात करेंगे।
राजऋषि का एक तीसरा अर्थ भी खयाल में लेना जरूरी है। व्यक्ति में दो तरह के जीवन हो सकते हैं: तनाव से भरा, टेंस लिविंग; और रिलैक्स्ड, विश्रामपूर्ण, सहज। फूल देखें वृक्षों पर खिले, तो राजयोगी हैं। खिलने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता; खिल जाते हैं। आकाश में बादल देखें, तो राजयोगी हैं। कुछ करते नहीं; डोलते रहते हैं। कभी आकाश में देखी हो चील, परों को तिराकर रह जाती है थिर; पर भी नहीं हिलाती! डोलती है हवा पर। उड़ती नहीं, तिरती है। तैरती भी नहीं, तिरती है। बस, पंखों को फैलाकर रह जाती है। हवा जहां ले जाए; डोलती रहती है।
राजयोग उस बात का नाम है, उस प्रक्रिया का, जहां व्यक्ति पूर्ण विश्राम में जीता है; कुछ करता नहीं, तिरता है। श्वास भी नहीं लेता अपनी तरफ से। भविष्य का विचार नहीं करता, क्योंकि भविष्य का जो विचार करेगा, वह तैरना शुरू कर देगा; उसके तनाव शुरू हो जाएंगे। अतीत का विचार नहीं करता, क्योंकि जो अतीत का विचार करेगा, वह टेंस हो जाएगा, वह रिलैक्स नहीं हो सकता, वह विश्राम में नहीं हो सकता। पूर्ण वर्तमान में होता है, अभी और यहीं, हिअर एंड नाउ। जो हो रहा है, उसमें है। और चील की तरह तिरता है।
जीसस एक गांव से गुजरे, और अपने शिष्यों से उन्होंने कहा कि देखो इन लिली के फूलों को। खेत में लिली के फूल खिले हैं। जीसस ने कहा, देखो इन लिली के फूलों को। सम्राट सोलोमन अपने पूर्ण वैभव में भी इतना शानदार न था, जितने ये लिली के गरीब फूल शानदार हैं। इनके शानदार होने का राज क्या है?
शिष्य क्या कहते! उन्हें तो राज का कुछ पता नहीं था। जीसस उन लिली के फूलों को दिखाकर यह कह रहे हैं कि लिली के छोटे-छोटे फूल सम्राट सोलोमन से भी ज्यादा शानदार हैं। क्या बात है? सम्राट सोलोमन भी तनाव में जीएगा, लेकिन लिली के फूलों को कोई तनाव नहीं है। न मौत की चिंता है, जो कल होगी; न जन्म की फिक्र है, जो कल हो चुका। कुछ भी करना नहीं है; हो रहा है सब। परमात्मा के हाथ में समर्पित हैं। जो परमात्मा करा रहा है, वह हो रहा है।
राजऋषि का अर्थ है, समर्पित; विश्राम को उपलब्ध व्यक्ति; जो कुछ करता नहीं; जो हो रहा है, उसे होने देता है। स्पांटेनियस, सहज जिसकी जिंदगी है; सहज जिसका जीना है। मौत आ जाए, तो इतनी ही सहजता से मर जाएगा। सम्मान कोई दे, तो इतनी ही सहजता से ले लेगा। और अपमान कोई करे, तो इतनी ही सहजता से पी जाएगा। दुख आए, तो इतनी ही सहजता से स्वीकृत है। और सुख आए, तो इतनी ही सहजता से। कहीं कोई असहजता नहीं है, कोई तनाव नहीं है। जीवन जो भी ले आए, उसके लिए राजी है। यह राजीपन, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, समग्र स्वीकार।
अगर ठीक से समझें, तो आस्तिकता का भी यही अर्थ है, समग्र स्वीकार। ऐसी चित्त दशा राजऋषि की है। इसलिए कृष्ण राजऋषि शब्द का उपयोग कर रहे हैं।
फिर शेष सांझ।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें