अध्याय—24—मां से मिलन
शरीर की हष्टपुष्टता के कारण हमारा मन भी
निडर और साहसी हो जाता है। मुझे अपनी ताकत और शरीर की चपलता पर बड़ा नाज हो गया
था। या यूं कह सकते है। कि मुझे अपने जीवनी पर बहुत घमंड हो गया था। मैं घर से
निकल कर गलियों में साहस और बिना भय के निडर घूमता था। शरीर मेरा पतला और छरहरा
जरूर था पर मेरी ताकत मेरी गर्दन के आस पास थी। जब मैं इन गांव के कुत्तों को
देखता तो मुझे बड़ा अचरज होता था। ये वैसे तो देखने में बहुत हृष्टपुष्ट दिखाई
देते है। परंतु इनकी गर्दन शरीर के बनस्पत एक दम से पतली होती है। इसी लिए जब भी
मैं लड़ता तो न तो ये मुझे पकड़ ही पाते थे। अरे मेरी पकड़ के सामने उनकी बोलती
बंद हो जाती थी। तब मैं यही सोचता था मेरी मां जंगली होने के कारण में इन सब से
भिन्न हूं।
क्योंकि हमें तो शिकार को
पकड़ना उसे मारना होता था। तभी अपना पेट भर पाते थे। और ये मुस्टंडा कुछ भी नहीं
करते....केवल लात, घुस्से और दुतकार के
साथ भोजन पाते है। मेरी नस्ल कुत्तों से अधिक भेडीयों से अधिक मिलती थी। भारत
में हिमालय की तराई या गुजरात की पट्टी पर पाये जाने वाले भेड़िया लगभग मेरे ही
जैसे होते है।
उनका कद काठी कोई खास बड़ी नहीं होती। और रंग आकार में भी वह मिट्टी
से मिलते झूलते होते है। एक छदम रूप लिये ताकि प्रकृति में आसानी से धूल मिल सके।
एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। की जब दो
साल पहले इस घर में आया था तो में सबसे छोटा ओर कमजोर प्राणी था। सब मुझसे बड़े
ऊंचे और बड़े थे। परंतु ये सब मेरे साथ ही क्यों हो रहा था। बच्चे तो लगभग उतने
ही रह गये और में इतनी जल्दी इतना बड़ा और ताकतवर कैसे हो गया। ये रहस्य सालों
मेरा पीछा करता रहा। कि लम्बी आयु जीने वाल प्राणी की विकास गति भी मंद से मंदतर
होती है। जब मुझे जीना ही दस साल है तो मेरा बाल पन लड़कपन, युवा अवस्था...एक अनुपात में ही तो होगी। अब जब मैं
बच्चों के साथ खेलता उन पर रह—रह कर अपनी हेकड़ी भी जमा देता था। और मैं देखता था
वे मुझसे डरने भी लगे थे। या कभी डरा धमका कर उनके हाथ से कुछ छीन भी लेता था। और
वह मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते थे। बस इनमें हिमांशु भैया कुछ शैतान है। वह सबसे
छोटा जरूर है। परंतु निडर है...उसके हाथ में जो भी आये वह हमला बोल देता है। इस
लिये में उससे थोड़ा झेंपता था।
एक बार की बात है। वरूण भैया नीचे टी वी
देखते हुए जलेबी खा रहे थे। मम्मी शायद कुछ काम कर रही थी। उस समय वहां पर केवल
मैं और वरूण भैया ही थे। उसने मुझे उस में से एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर दिया। क्या
गजब का मिठास था। मेरा मुख पूरा लार से सराबोर हो गया। लगा की इतनी स्वादिष्ट
वस्तु मुझे और मिलनी चाहिए। मेंने एक दो बार वरूण भैया से मांगने के लिए चीचोरी
भी की उसके शरीर पर अपना पंजा भी दिया। परंतु शायद यह मेरे लिए ठीक नहीं थी। इस
लिए वह मुझे नहीं दे रहा था। परंतु ये
था चमत्कार की वह कितनी मीठी और स्वादिष्ठ थी।
मैं लगातार उसका मुख देख
रहा था। परंतु मुझे अच्छा भी नहीं लग रहा था कि मुझे इतना कम और वरूण को इतना अधिक।
मेरे मन में प्रतिशोध भर रहा था। धीर—धीरे एक—एक कर जलेबी वरूण भैया के पेट में
जाये जा रही थी। मेरे मुख से लार टपक रही थी। जिससे वहां पर कुछ गिला भी हो गया था। परंतु न तो वहां कोई मुझे देख रहा
था और न ही मेरी लार को। आखिर कार मेरे धैर्य का बाँध टूट गया। उस आखरी जलेबी को
जब भैया उठाने लगा तो मुझे लगा ये तो सब खत्म। और मैं इतने जोर से अपने चमकीले
दाँत निकाल कर गुर्राया की वरूण भैया मेरे इस रूप को देख कर डर के मारे वहीं के
वहीं जाम रह गये। हाथ जहां था उसे उसी तरह से रखा एक दम मूर्ति वत। न शोर मचाया और
न ही खड़ा होकर भागा। बस डर के मारे उसका शरीर कांपने लगा।
शायद यह मेरा जंगली रूप
था। जो इससे पहले इस परिवार के किसी सदस्य ने नहीं देखा था। और यह तो एक अबोध बाल
और वह भी अकेला। वरूण का रोना सून कर पास ही काम कर रही मम्मी जा आ गई और मेरी इस
कारस्तानी को देख कर कहने लगे। बूढ़े—डाँड़ होकर बच्चे को डरा रहा है। तुझे शर्म
नहीं आई। और मुझे मेरी गलती का एहसास हुआ।
मैं गर्दन नीची कर के एक आज्ञाकारी बच्चा बन के बैठ गया। और देखता क्या
हूं एक नहीं दो जलेबी मेरे सामने रखी है। मुझे इस बात का अचरज हुआ।
एक बार जलेबी को देखा ओर
दूसरी बार उपर सर उठा कर मम्मी को देखा। और कान बोच कर उनका स्वाद लेने लगा। इस
घटना से यह सबक मुझे मिला की इस तरह से मांगने का तरिका गलत है। जो मुझे खतरे में
भी डाल सकता है। समय चलता रहा। और बाद में एक समय ऐसा आया की मेरा बढ़ना बंद हो
गया। और बाकी परिवार के सब लोग लंबे चौड़े होते जा रहे थे। वरूण भैया के मूँछें
निकल आई वह मुझे अपने कंधे पर बिठा कर आराम से भाग लेता था। ये एक छलते समय की गति
थी जो मैं कभी नहीं समझ सका।
जिस रात भी में बहार रहता उस दिन मैं पूरा
दिन घोड़े बेच कर सोता था। श्याम को कहीं जाकर मेरी नींद खुलती थी। तब जाकर पेट
में भूख का एहसास होता था। तब मेरा रूख मम्मी की तरफ होता था। और वह मुझे दूध और
रोटी देती थी। फिर कभी—कभी वरूण भैया के साथ मस्ती हो जाती थी। परंतु उस घटना के
वाद से वह कुछ डर गया था। अब वे मेरे उपर भरोसा नहीं करता था। मैं उसकी मिन्नत
करता की चल खेलते है। परंतु वह केवल देखता रहता। तब मुझे अपनी इस हरकत पर और भी
पश्चाताप होता था। में बार—बार खेलने का सामन ला कर उसकी गोद में रखता था। और
पंजों से उसे उत्साहित करता की चलो खेलते है। तब वह मरे मन से मेरे साथ खेलने को
राज़ी होता।
लेकिन मैं इस बात को देख
रहा था वह पहले की तरह घुल मिल नहीं रहा था। जब में उससे बॉल या कुछ छिनता तो वह
मुझ चुप से दे देता था। नहीं तो पहले मेरी गर्दन पकड़ कर लटक जाता था। मेरे उपर
बैठ कर मुझे घोड़ा बना लेता था। और मैं किस मजे से उसका वज़न उठा कर चल लेता था।
तब मुझे अपने पर बड़ा गर्व होता की घोड़ा अपने आप को बहुत ताकत वर समझता है। मैं
क्या कम हूं...तब मुझे अपने नाम की सार्थकता महसूस होती पोनी.....यानि घोड़े का
बच्चा। पर अब मेरा वह दोस्त....मुझसे इतना मिल कर नहीं खेलता। दोनों अलग—अलग ही
रहते थे। दोस्त शब्द की तरह हम खेल में एक नहीं हो पाते थे। दोनों मिट नहीं पाते
थे...अस्त नहीं हो पाते थे। इस लिए खेल में आनंद नहीं आता था।
एक दिन पूरा परिवार एक
साथ बैठा था, मुझे भी सब के बीच में बैठ कर बहुत अच्छा
लगता था। जैसे जब सब लोग बैठ कर टी वी देखते तो मुझे बड़ा अजीब लगाता। परंतु मैं
भी जब उस और देखता तो ज्यादा देर देख नहीं पाता था। मेरी आंखें उस छवि को ठीक से
पकड़ नहीं पाती थी। हां जब कोई जंगली जानवर या मेरी ही जाती का प्राणी टी वी में
आता तो मेरी उत्सुकता जरूर बढ़ जाती। मैं उसे भागते हुए को देखता.....फिर कमरे
में इधर उधर भी देखता की अभी वह भाग रहा था। तो उससे आगे भी उसे जरूर आना चाहिए।
या जब कोई पक्षी बोलता तो मैं गर्दन टेढ़ी कर के उस ध्यान से सुनने की कोशिश
करता। क्योंकि ये आवाज मैने जंगल में सूनी थी।
तब मुझे इस तरह से देखते
देख कर सब को बड़ा अचरज होता। और सब लोगों को सोफे पर टाँग लटका कर बैठे देख कर
मुझे हीनता होती की मैं क्यों नहीं ऐसे बैठ सकता। और फिर कितना दूःख पा कर मैं उन
सब की तरह से बैठने की कोशिश करता। और मेरी इस बात पर सब लोग मुंह छुपा कर कैसे
हंसते।
परंतु ये सब मेरी समझ में नहीं आता था कि वे
क्यों हंस रहे है। बस में खुश होता और इसी तरह से आज पापा जी ने मेरे सर पर हाथ
फेरते हुए कहा की पोनी अब बड़ा हो गया। तब मैंने भी हां में पूंछ हिलाई जैसे की
मैं सब जानता हूं। परंतु एक बात तो थी की कुछ नया करने का जोश मेरे अंदर हिलोरे
मार रहा था। आज श्याम के बाद से ही मेरा मन कुछ खिन्न था। श्याम के समय जब सब
लोग खाना खा रहे थे। मैने खाना भी नहीं खाया। बार—बार छत पर जाकर बेचैनी को कम
करने की कोशिश कर रहा था। लग रहा था ये घर आज मेरे लिए बहुत छोटा है, मैं इस में समा नहीं रहा हूं। परंतु भौतिक तोर से तो
मेरे जैसे सौ कुत्ते भी इस में समा सकते थे। परंतु ये अंदर की बात थी। रात तक मैं
इसी तरह से बेचैन रहा। पापा जी दूकान से आ गये।
उन्होंने मुझे जब नीचे
नहीं पाया तो वह मुझे ढूंढते हुए उपर आये। उन्होंने मुझे इस तरह से बेचैन पहले
कभी नहीं देखा था। वह मेरे पास बैठ गये। मेरे सर पर हाथ फेरा, मैंने अपनी आंखे बंद कर ली, जैसे पापा जी मेरी दूखती नश को सहला रहे है। मैंने
पापा जी का हाथ चाटा पाप जी समझ गये की में कुछ कहना चाहता था। असल में पापा जी
जितना मुझे अंदर और बाहर से समझे थे इतना कोई नहीं समझता था। वह आंखों में देख कर
ही मेरे अंदर तक झांक जाते थे।
इस तरह से प्यार से हाथ फेरने के बाद मुझे
कुछ आराम मिला। जैसे आपने देखा होगा जब आपके कोई जख्म हो और उसके आस पास कोई मोर
पंखी उंगली को स्पर्श करे उसके आस पास उसे धूम आये तो कितना आनंद आता है। पापा जी
की छुअन मुझे सीतल किये जा रही थी। परंतु जब अंदर पीड़ा की एक आग सुलग रही हो तो
क्या हम उसे ढक कर दबा सकते है। बस कुछ देर का भ्रम मात्र होता है। उस से धूआ
अधिक फेल जाता है। इसी तरह से एक टीस और पीड़ा पापा जी के छूने में मेरे अंदर फैल
कर बेचन कर रही थी। जिस का कोई कारण नही था। न मैं जानता था और न ही मेरा शरीर ही।
फिर ये प्रकृति को वो कौन सा रहस्य था।
आज अचानक खुश हो जाते है, कभी आप उदास हो जाते है। मैं आंखें बंद कर लेटा रहा।
पापा जी ने सोचा की मैं सो गया। और वह सोने चले गये। कितनी ही देर में इस अचेतन
अवस्था में पडा रहा। पता नहीं। हां तारे आसमान पर अधिक चमक रहे थे। शायद आज चाँद
नहीं था। चारों और कालिमा थी और चमकते तारे। कितने सुंदर लग रहे थे। इतनी देर में
दूर गीदड़ों की हुंकार सुनाई दी, मुझे लगा की कोई मुझे
पुकार रहा था। एक अंजाना सा खिचाव मुझे खींचे जा रहा था। दूर कहीं रह—रह कर एक
हुंकार उठती और उसके बाद गांव के कुत्तों का भोंकना। परंतु मुझे इस सब के बीच कोई
और पूकार सुनाई दे रही थी। मैं अचानक उठा और इधर उधर देखने लगा। पूरा गांव सो रहा
था। चारों और मौन सन्नाटा छाया हुआ। दूर कहीं—कहीं पर स्ट्रीट लाईट जल रही थी।
मेरे अंदर की बेचैनी बढ़ने लगी और अंजान सी शक्ति मुझे कुछ कहना चाहती थी। जैसे
कोई मुझे पूकार रहा है। कोई मेरा अपना अंग...मेरे अपने प्राण।
कोई बारिक सी डोर मुझे खींच रही थी। मैंने
कितनी ही बार उस और से अपना ध्यान हटाना चाहा। पर मैं नाकामयाब रहा। दूर कहीं कोई
मुझे पूकार रहा था। मैं एक सम्मोहन पाश में बंधा हुआ अपने आप को महसूस कर रहा था।
आखिर मन और शरीर की एक सीमा होती है, नियंत्रण की। एक समय में
उसके पार हो गया। मेरा शरीर मेरे पकड़ के बाहर था। मैं देख रहा था। उसकी
बेचैनी....परंतु कुछ कर नहीं पा रहा था।
उस अंजान सी हुंकार जो
मुझे खींच रही थी....अचानक मैं भागा और दीवार को पलक झपकते ही कूद गया। और पागलों
की तरह उस आवाज की और दौड़ने लगा। हालाकि भौतिक तोर पर मैं नहीं जानता था की वह
कहां है। किसी दशा में है....परंतु शायद मेरा अचेतन जानता था। उसके पास उस का नक्शा
था। कितना मधुर प्रेम नियंत्रण था उस खिचाव में इससे पहले इतना मैंने किसी और चीज
में महसूस नहीं किया। शायद मानों मेरे प्राण ही मुझे खींच रहे है। जैसे जल मीन को
खिचता है....या आसमान पक्षी को खींचते है। मुझे अंदर से लग रहा था वहां कोई मेरा
अपना ही मुझे बुला रहा है वह मेरा इंतजार कर रहा है। परंतु ये मधुर पूकार एक पीड़ा
लिए थी। जैसे आपको कोई चीर रहा हो और उस चिरन में एक सुखद एहसास हो पीड़ा का अनुपात
कम हो जाये ओर सूख का अनुपात घनीभूत हो जाये।
जैसे ही मेंने गांव की
सीमा रेखा पार की और जंगल में प्रवेश कर गया। एक अजीब सा परिवर्तन मेरे शरीर में
हुआ। मुझे लगा मैं किसी के बाहू पास में बंध गया हूं। और कोई मुझे उठा कर लिए चला
जा रहा है। हां जिस तरह से पहली बार किसी कुरूर हाथों में दौड़ा जा रहा था। आज ठीक
उसके विपरीत कोई मधुर एहसास....अपनी कोमल गोद में मुझ लिए हुए है। मेरा शरीर
निर्भार हो गया था। न ही मुझे रास्ता दिखाई दे रहा था। न ही मुझे पता था की मैं
कहा जा रहा हूं। और न ही में उस सब को विरोध ही कर रहा था। मैं उस मूक आनंद में
डूब जाना चाहता था। शायद मेरे इस शरीर पर मेरा मस्तिष्क पर बस था। वहीं उसे लिए
उड़ाये चला जा रहा था। क्यों और कहां का प्रश्न ही थ.....ह्रदय अपने तार जोड़
चूका था उसे ग्रहण कर चूका था। वह खिचाव मुझे मंत्र मुग्ध सा खीचों जा रहा था।
परंतु मैं दौड़ता जा रहा था, उस अनंत की पूकार की और उस मधुरस पूकार की ओर, मानों वही मेरी मंजिल है। रात घनी होने पर भी जंगल
कि अपनी रोशनी थी। जब चाँद नहीं होता है तो तारे अपने पूर जोर से पृथ्वी को रोशन
कर रहे होते है। उनका महत्व और काम अधिक बढ़ जाता है। परंतु न तो मैं उस रोशनी के
कारण दौड़ रहा था....न ही उस मार्ग की मुझे पहचान थी। परंतु में दौड़ रहा
था....अपने संकल्प के साथ और कहां मुझे पहुंचना है ये सब में जानता था।
उस अंजान मंजिल को। आस
पास की झाड़ीया मेरे शरीर को चीर रही थी। शायद उतनी बड़ी घास मैंने पहले कभी नहीं
देखी थी और न ही मैं दौड़ा था...उस घास में आप साधारणत: दो कदम से ज्यादा देख
नहीं सकते। रास्ते भी एक अनचिन्हित सा लग रहा था। जैसे की मैं हजारों बार यहां से
गुजरने के बाद भी विश्वास के साथ नहीं कह सकता की ये कोई मार्ग है। और मनुष्य
जिस मार्ग से जाता है तब वहां की घास तो लेट जाती है....परंतु पशु के चलने से तो
प्रकृति भी अपना पन मानती है। वह जहां होती है लगभग वही रहती है। उसमे ज्यादा
बदलाव नहीं होता। मैं बस दौड़ा जा रहा था।
कभी—कभी पास की झाड़ियों
से किसी खरगोश नुमा प्राणी के भागने की छवि दिखाई देती। किसी और दिन तो मैं रूक
जाता और उसके पीछे जरूर दौड़ता, पापा जी के साथ जब जंगल
में आता था तो वह एक खेल होता था। परंतु आज मन स्थिति भिन्न है। आज कुछ ऐसा हो
रहा था जो इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। कभी—कभी पास के पेड़ पर सोया कोई पक्षी
डर जाता....और कि...कि...कि करता हुआ उड़ा जाता मानों कह रहा हो मर गया....मर
गया...मर गया......।
जैसे—जैसे में आगे बढ़ रहा था, मुझे वह जगह जानी पहचानी लगी। वैसे तो सालों से इस
जंगल में पापा जी के आता रहा हूं.....परंतु मेरे लाख खोजने पर भी मैं उस जगह कभी
नहीं पहूंच पाया जहां से मुझे उठा कर लाया गया। या शायद तन्मयता से मैने ढूंढा भी
नहीं था। या पापा जी उस स्थान को जानते हो और उस और मुझे ले कर आते ही न हो।
परंतु आज तो चमत्कार हो गया। मेरे सामने वही गहरी खाई थी....एक चिर परिचित सी
जहां पर मैंने आंखें खोली थी। मैं वहां खड़ा होकर कुछ देर के लिए रुका.....ओर उस
अंधकार में भी उस स्थान को आंखों में भरना चाहा।
क्या मनुष्य की तरह
हमें भी अपने जन्म भूमि से मां की तरह ही प्रेम होता है। शायद ये चिर परिचित सत्य
है। जो प्रत्येक प्राणी को उपहार स्वरूप मिला है। मेरी साँसे फूली हुई थी। मेरा
शरीर गर्म हो गया था। मैं मुख खोल कर जीब से गहरी—गहरी श्वास लेने की कोशिश करने
लगा। इतनी देर में एक हंकार उठी शायद मेरे आहट को सुन को कोई मुझे अपने पास बुला
रहा है। या शायद कोई जानता है कि मैं आ रहा हूं। मैंने चारों देखा बड़ी—बड़ी
झाड़ियाँ थी। मैंने उस खान का एक चक्कर लगा कर देखना चाहा की रास्ता कहां से है।
नीचे जाने के लिए। दूसरी और बहुत—बड़े—बड़े पत्थर थे।
जहां से मैंने देखा नीचे
उतरा नहीं जा सकता था। यहां अधिक गहराई थी। ये एक किले नुमा खान थी। आखिर में उन
पत्थरों पर खड़ा होकर इधर—उधर देखने की कोशिश करने लगा की नीचे क्या है। आसमान
पर चल रहे तारे भी अपने सांस रोक कर, मानों अपना चलना भूल भी
थोड़ी देर के लिए भी भूल कर सब मुझे देख रहे थे....या हो सकता है अपनी रोशनी से
मुझे मार्ग दिखाने के लिए कुछ क्षण के लिए रूक गये थे। झाड़ियों के बीच जुगनूओं का
चमकना भी मुझे ऐसा लगा रहा है। जैसे वह अपनी रोशनी में कुछ दिखाना चाहते है। परंतु
नीचे कितनी ही देर तक मैं झाँकता रहा। कोई
हरकत नजर नहीं आई। कुछ क्षण के लिए मंद बहती समीर भी बंद हो गई। जैसे वह इस घटना
को दिल थाम कर देख रही हो।
आखिर मेरे अंदर से एक हंकार उठी.....जो मेरे
ह्रदय में समा नहीं रही थी। जिसे में और बंद कर रख नहीं सकता था। मेरे पूरे प्राण
किसी को पुकारना चाहते थे.....और मेरी इस पूकार की प्रतिध्वनि हुई। झाड़ियों पर सो
रही चिड़ियाँ डर कर दूर चीं.....चीं....चीं....कर के उड़ गई। पूरा जंगल किसी दर्द
से जाग गया। पेड़ पौधे भी सिहर गये। शायद मेरे पैरो के नीचे का पत्थर भी कुछ क्षण
के लिए कांप गया। कुछ देर तक चारो और मौन छाया रहा। न कोई पत्ता हिल रहा था...न
कोई गति कर रहा था...सब मानों पल भर के लिए ठहर गया था।
अचानक एक दर्द भरी पूकार
किन्हीं गहरी खाई से सुनाई दी। जो मेरे प्राणों को छेद गई। मैं तड़प गया। एक दर्द
की लहर मेरे शरीर में बिजली की तरह फैल गई.....एक तड़प मेरे मन को झकझोर गई। में
तड़प गया रो उठा। एक हंकार और पीड़ा के साथ....मानों मेरा कलेजा मेरे मुंह को आ
रहा है। और मैं इतना बेचैन हो गया की मुझ सूधबुद्ध भी नहीं की मैं कहां
जाऊँ....अचानक मैं पास की झाड़ी की और भागा। वहां से एक पतली से पगड़ी नीचे की ओर
जा रही थी। वह इतनी चोर और घनी थी की उसे दिन में भी नहीं देखा जा सकता था। में
तीव्र गति से नीचे की और उतरा। जैसे—जैसे मैं आग बढ़ रहा था वह जानी पहचानी सुगंध
मेरे प्राणों में भर रही थी।
समय मानो उसे मिटा नहीं
पाया था। इतने सालों बाद भी मैं उसे वैसे ही पा रहा था। कैसा चमत्कार है प्रकृति
भी मैं इससे पहले कभी यहां नहीं आया था। फिर भी जैसे—जैसे मैं नीचे उतर रहा था वह
स्थान मेरे पैरो को अपने पन का एहसास करा रहे थे। वो नन्हीं–नन्हीं घास जो कभी
कितनी बड़ी लगती थी....आज मेरे पैरों तक ही आ रही थी। परंतु उसकी कोमलता आज भी
वैसी की वैसी ही थी। समय ने उसे जरा भी कठोर नही किया था। कुछ देर के लिए रूक कर
मैंने इधर—उधर देखना चाहा। कहीं एक भय भी था कि कोई मुझ पर हमला न कर दे।
परंतु मुझे अपनी ताकत पर
विश्वास था कि मैं तीन चार गीदड़ों को सम्हाल ही लूंगा। मैं थोड़ा सम्हलकर चलने
लगा। वहां की सुगंध कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी। कुछ दूरी पर एक छाया सी लेटी
हुई दिखाई दी। मैं पल भर के लिए खड़ा हो गया। और उस छाया को गौर से देखने लगा।
अचानक वह छाया हिली....मैं रूक गया और अपने को सतर्क कर लिया। परंतु क्या देखता
हूं कि जैसे मैं कुछ बूढा हो कर वहां पर लेटा हूं। बड़ा अजीब था। मेरी ही प्रति
छवि.....मेरी ही सुगंध चारों और....मैं उस मृग की भांति हो अचंभित रह गया....जिसकी
नाभि से कस्तूरी की सुगंध आ रही हो। मेरी अपनी सुगंध.....मुझे खुद ही घेर हुए थी।
मेरे पास जाने पर वह कुछ कुलमिलाई और मेरी और पलट गई।
एक अनजानी सी खुशी उसके चेहरे पर फैल गई। जिस
की आपको उम्मीद भी न हो वह आपके सामने आ जाये तब आप कैसा महसूस करते है। वह मेरी
मां ही थी....उसका रूप रंग और आकार हूबहू मेरे ही जैसा था। बस एक समय का या उम्र
का भेद था। एक तृप्त...एक शकुन....मेरी मां कि आंखों से बह रहा था....उस ने मुझे
एक पल में ही पहचान लिया। कैसा प्रकृति का रहस्य है। कारण अकारण में जा कर हम इसे
नहीं सुलझा सकते। इसे जानने के लिए ह्रदय की किन्हीं गहराईयों में हमें झाकना
होगा...उसकी आँखों में एक अदृष्य चमक थी उसने मुझे देख कर अपनी पूछ हिला—हिला कर
अपने पास बुलाने लगी।
मैंने पास जाकर देखा उसके
शरीर पर अनेक जख्म थे। शायद जंगली जानवरों से लड़ने के कारण हुए होंगे। तब मुझे
बहुत गुस्सा आय....अगर मैं भी मां के साथ होता तो किसी की मजाल थी वह मेरी मां को
घायल कर जाता....चाहे वह दस गीदड़ ही क्यों ने होते हम दो उन पर भरी
पड़ते....परंतु मेरी मां सच में बहुत साहसी थी। इस वीरान जंगल में अकेली किस हिम्मत
से जीवित थी। वह निर्भीक विचारण ही नहीं करती थी साथ रहती ही नहीं अपितु अपना और
मेरे भाईयों का भरन पोषण भी करती होगी। जिस की ऐसी हालत होगी ये मैंने कभी सोचा भी
नहीं था। फिर आखिर मेरी मां अकेली क्यों क्या मेरे दूसरे भाई बहन भी मेरे की तरह
ही.......नहीं मेरी मां ऐसा दो बार धोखा खाने वाली नहीं थी। जरूर वह पाजी यहीं
कहीं होंगे.....ओर खाने के लिए क्या उन्हीं ने मां की ये हालत कि है....घिन्न
आती है मुझे....यह सोच कर परंतु शायद मैं भूल गया कि मेरा पालनपोषण एक मनुष्य के
संग साथ हुआ है और वो आज भी पेट के लिए जिंदा होंगे....खेर फिर भी उन्हें मां को
इस तरह से घायल नहीं करना चाहिए......
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