ये कैसी अनहोनी घटना थी। जो मुझे इस मोड़ पर
लाकर खड़ा कर दिया। एक तरफ मेरी घायल मां जो मृत्यु सैय्या पर पड़ी थी। शायद वह
मुझे जीवित देख कर अति प्रसन्न थी। और मैं एक तरफ तो उदास था। और एक तरफ मां से
मिलने का आनंद भी मुझे महसूस हो रहा था। अब समझ में नहीं आ रहा था किसे पहले
मनाऊं। इस जंगल में भी मेरी मां मुझसे हृष्ट पुष्ट थी। मैं उसके पास जाकर बैठ गया।
और उसके घावों को चाटनें लगा। जिन से बहकर खून जम कर सूख गया था। जख्म बहुत गहरे
थे। गर्दन—सर और पीठ पर बुरी तरह से फाड़ रखा था वैसे तो पूरा का पूरा शरीर ही
घायल कर रखा था। इन घावों को देख कर मुझे लगा उसके उपर कम से कम दस जानवरों ने एक
साथ हमला किया होगा। मेरे इस तरह पास होने से और चाटनें से उसे कितना सुकून मिला
ये उसकी आंखों की तृप्ति बता रही थी। वह आंखें बद कर गहरी श्वास ले रही थी। मानों
मेरे प्रेम और छूआन को आत्म सात कर जाना चाहती हो।
मैं रह—रह कर उसके सारे शरीर को चाट रहा था।
जब मेरा चाटना उसके मुख के पास आया तो उसने आंखें खोल ली। और मुझे किसी प्रेम से
निहारने लगा। जैसे कोई डूबता हुआ सूर्य अंतिम समय पूरी पृथ्वी का दृश्य अपने में
समेट लेना चाहता हो। मेरा शरीर और रख रखाव देख कर वह समझ गई की मैं बहुत ही दयावान
लोगों के साथ रहता हूं। कैसे प्रकृति मिटते हुए भी अपने बीज को देख कर तृप्त होती
है। ये कैसा गुणा भाग है। जो बौद्धिकता से नहीं पढ़ा जा सकता। मैं कुं...कुं...कुं
करके उसको कहना चाहता था। कि तू ठीक हो जायेगी। और मैं बहुत खुश हूं....मेरा मालिक
बहुत दयावान है। मैं जा कर उसे बुला लाता हूं....वह जरूर तरी मदद करेगा। मनुष्य
के पास एक अनोखी शक्ति है। पता नहीं मैं भी मरते—मरते बचा हूं.....अगर जंगल में
होता तो प्रकृति मुझे कभी जीवित नहीं छोड़ती।
परंतु मेरे इस भाव को सून
कर एक बार तो वह बहुत खुश हुई और पल भर में ही उदास हो गई। क्योंकि उसके पास और
अधिक समय नहीं था। वह चाहती थी की तुम जितनी ज्यादा से ज्यादा देर मेरे पास रह
सकते हो रहो। यही मेरा उपचार है। शरीर के
जख्म की तुम परवाह न कर। इस तो मिटना ही था। तेरा इस तरह से मेरे पास आन
मेरे ह्रदय की किन गहराई को छू गया। वो टीस जो कहीं अंजान सी कसक लिये थी। उस पर
कैसे कुदरत ने मरहम लगा दिया। सच ये एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसे मनुष्य बहुत गहरे
से जानता है। प्रेम एक ऐसा विस्तार है जो पशु पक्षी, पेड़ पौधों ओर मनुष्य
में समान रूप से बहता है।
प्रेम और भावुकता ही
प्रकृति के विकास का पैमाना है। जो बीज से आगे और आगे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता
जाता है। जो ह्रदय जितना उन्नत और भावुक होगा वह विकास क्रम में पद दर पद उँचा ओर
ऊँचा होता चला जायेगा।
और शायद यहीं मैं मां के साथ चाहता था। कि
कैसे में मां के पेट से पैदा हुआ और इस जंगल से एक उन्नत जाती के पास चला गया।
जहां मेरा विकास होना तय है। और मेरी मां मुझे जन्म देकर भी अभागी रहेगी। परंतु
उसकी आंखों की तृप्ति को देख कर लगता है। वह दिल की बहुत भावुक है। मैंने मां
को कहना चाहा कि में जिस परिवार में रहता
हूं वहां पर मुझे दूसरे परिवार के सदस्यों की तरह से ही रखा जाता है। मुझे कुत्ता
नहीं समझा जाता। बस मेरा शरीर ही कुत्ते का वरना वहां मुझे वो सब मिलता है जो
पूरी परिवार को मिलता है। जो वो खाते है वहीं मुझे खाने को दिया जाता है। मेरे सोने
के लिए एक अलग से बिस्तर है। जिस पर मुलायम गद्दे है। और मैं जहां चाहे बैठ सकता
हूं। बस में उनकी भाषा बोल नहीं सकता। और दो टांगों पर चल नहीं सकता। वरना उनके
प्रेम में कोई कम नहीं है।
मेरी मां मेरे ये भाव सून
कर बहुत ही खुश हुई और उसने अपना मुख उपर की और उठाया। मैं समझ गया वह मुझे प्यार
करना चाहती है। धीरे से मैंने अपना मुख उसके सामने रख दिया। और आँख बंद कर उसकी
छुअन को महसूस करने लगा। उसने मुझे किस प्यार और दुलार से चाट, मैं सिहर गया। सालों पहले जब मैं मां का दूध पीता था
तब भी वह मुझे इसी तरह से चाटती थी। मुझ अकेले को ही नहीं मेरे सभी भाई बहनों को
बारी—बारी से। परंतु वो तो इस दुनियां में शायद नहीं है।
परंतु मैं दोनों का
तुलनात्मक विश्लेषण कर सकता हूं। कितनी सुस्पर्श छुअन है प्रेम की जिसे आज में
महसूस कर सकता हूं...यह एक मां ही दे सकती है। क्या मेरी संवेदना बढ़ गई है।
मनुष्य के संग रह कर। वरना उसी छुअन को जब पीछे जाकर याद करता हूं....तो वह मीलों
दूर महसूस होती है। मेरी मां मुझे इस तरह से खुश और हृष्टपुष्ट देख कर बहुत प्रसन्न
थी। शायद वह कह रही थी तेरी किस्मत...देख जंगल में पैदा होकर भी राज महलों के सूख
पा रहा है। तुम अपने मालिक का वफादार बन कर रहना। जिनका भोजन खाया है उनका बुरा
कभी मत सोचना। जो लोग एहसान को भूल जाते है उनकी कोई गत नहीं होती। तुम उनकी दो
बात या मार भी सह लेना। परंतु उनका साथ मत छोड़ना। तब मेरी समझ में आया कि मैं अब
मां को छोड़कर कैसे जा सकता हूं।
इसी तरह से लेटे हुए
कितना समय बीत गया मुझे पता ही नहीं चला। तब अचानक मुझे याद आया कि मां की कुछ मदद
करनी चाहिए। मैंने देखा पास ही एक मेरे हुए जानवर का मास पडा था। जो शायद अपने
खाने के लिए लाई थी या जिस के कारण उसने इतने जख्म खाये थे। मुझे फिर गुस्सा आ
गया। उस अकेली और बूढ़ी पर इतने अत्याचार किये। अगर मैं होता तो उन्हें जरूर सबक
सिखा देता। आज पहली बार अपनी मां की ये हालत देख कर, मुझे पता लगा की हमारा
जीवन कितना कठिन है। पेट का भरण पोषण ही कितनी बड़ी समस्या है।
मेरी मां को तो पता ही नहीं
कि मुझे खाने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता और तो आरे कभी—कभी तो जब मेरी तबीयत
खराब होती है या अंदर से खाने को मन नहीं करता तो वह खाना दो दिन तक इसी तरह पडा
रहता है और फिर उसे फेंकना पड़ता है। मेरी इस तरह से उस मांस की और देखते रहने से
शायद मेरी मां समझी की मेरा बेटा भूखा है। उसने कुं...कु....कर के कहना चाहा कि तू
खा ले....परंतु उसकी दुर्गंध से ही मेरा जी मिचला रहा था।
अब समय और स्थान का
कितना भेद है। मैं अपनी मां के साथ रहता तो इसी खाने को कितने चाव से लड़ झगड़ कर
खाता और मनुष्य और वह भी शुद्ध शाकाहारी के साथ रहने से जीवन में कितना बदलाव हो
गया। संगत का भी हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अगर मैं उस घर में न जाता तो
शायद ऐसी सोच और ऐसा मेरा जीवन नहीं होता।
इस जीवन की पीड़ा, इस का कष्ट में तो वहां
रह कर बिलकुल ही भूल गया था। सच कितना कठिन है ये जीवन। प्रकृति कितनी कठोर है।
कितनी निर्दय सी दिखती है। यही है उसका काम करने का ढंग। कोई विरला साहसी ही उस से
टक्कर ले सकता है। और जो उससे टकर न ले सके उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।
यह हमारा विद्यालय है।
मैं सोच रहा था कि मैं अगर वहां न जाता तो क्या जीवित रह सकता था। शायद नहीं। फिर
ये कैसा न्याय आ अन्याय यह तो एक घटना है। कि आप किस हालत में कहां हो। परंतु ये
सत्य है। इसे कौन जनता है। कोई नहीं। जीवन एक दुर्घटना है। इस पर हमारा कोई
अधिकार नहीं है। मेरे और भाई बहन कहां जीवित रह सके। सच मेरी मां बहुत ही बहादूर
है। इस प्रकृति से ही नहीं लड़ी अपितु लाख कष्ट उठा का उसकी उत्पती मे भी कितना
सहयोग दे रही है। मुझे आज अपनी मां पर बहुत गर्व हो रहा था। मैंने फिर एक बार उसका मुहँ चाटा, उसकी आंखों में खुशी के
आंसू थे। उसे लग रहा था उसका बेटा बहुत समझदार और महान बन गया है।
हम पूरी रात एक दूसरे के साथ सोते रहे। आसमान
पर लालिमा फैलने लगी थी। पक्षियों ने अपने मधुर नाद गाने शुरू कर दिये थे। दूर
कहीं गीदड़ों की हुंकार सुनाई दे रही थी....उसे सुनकर मेरे तन बदल में आग लग गई।
हालांकि मैं नहीं जानता था कि ये हमला मेरी मां पर उन्हीं लोगों ने किया है। मेरी
मां उठ नहीं पा रही थी। शायद मां कई
दिन से घायल पड़ी है। मुझे लगा काश मां मेरे साथ उठकर चल देती तो घर में मम्मी—पापा
से कह कर इन्हें कितनी मजेदार चीजें खाने को दिलवाता, कोका कोला, आइसक्रीम, पिंजा, न्यूडल, बर्फ़ी, कचोरी, छोले चावल और न जाने
कितनी बढ़ियां—बढ़ियां पकवान। मैं फिर उसे उठने के लिए मजबूर किया। परंतु वह लाख
चाह कर भी उठ नहीं पा रही थी।
मुझे याद है जब में बीमार
हुआ था तो पापा जी किस तरह मुझे अपनी गोद में लेकर भागे थे। इस लिए मनुष्य श्रेष्ठ
है वह कितने ही ऐसे काम कर लेता है जो दूसरे प्राणी सोच भी नहीं सकते करना तो दुर
की बात हे। रात मेरे आने के समय मां कुछ उठ कर बैठी थी, मुझे चाटा था। परंतु अब
वह हिल भी नहीं पा रही थी। उसका पूरा शरीर गर्म तप रहा था। उसका चेहरा जो रात को
मुलायम था अब अकड़ कर टाईट हो गया था। ये सब देख कर मुझे डर लगा। कहीं.....मेरी
मां मर......ओर मैं डर गया। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। मैं अभी—अभी तो मां से मिला
हूं....कितने दिनों बाद। अब हम साथ खेलेंगे एक दूसरे को प्यार करेंगे। नहीं मेरी
मां जरूर ठीक हो जायेगी। श्याम होते तक पूरा दिन मां इसी तरह से लेटी रही। एक दम
निढाल।
मुझे भूख लगने लगी थी। और
मैं चाह रहा था कि मां के लिए भी कुछ खाने के लिए लाऊं। परंतु यहां क्या मिल सकता
है। घर जाकर वापस आना संभव नहीं था। तभी लगा की बहार निकल कर कम से कम पानी तो
पिया जाये। पानी की तलाश में उस खाई से बहार निकला। लेकिन बहार तो काफी रोशनी था।
नीचे खाई इतनी गहरी थी कि दिन में अँधेरा हो जाता था। मैं बहार निकल कर इधर उधर
देखने कि कोशिश करने लगा। कि हम कहां पर है।
क्योंकि कितनी ही बार मैं जंगल में आ चूका
था। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि हम कहां है। क्योंकि जंगल का शायद कोई ऐसा
हिस्सा नहीं था कि हम वहां न आये हो। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि दीदी और
मम्मी कहां पर आकर कपड़े धोती थी। आज पहली बार में अपने आप को तन्हा और निस्सहाय
महसूस कर रहा था। अपनी लाचारी पर आज मुझे खीज आ रही थी। सच जीवन में जो भी मिला था वह मनुष्य के संग साथ का दिया
हुआ था। मेरा अपना उसमे कुछ भी अर्जित किया हुआ नहीं था।
आज मुझे इस बात का सधन
एहसास हो रहा था जिस बात पर मैं इतना अकड़ता था। वो आज मुझे आईना दिखी रही थी। सच
आज मुझे पता चला कि मेरा अंहकार नाहक है। मैं आज भी ना कुछ ही हूं। फिर अपनी बेबसी
और लाचारी से उभर कर मैं उस स्थान को खोजने की कोशिश करने लगा। चारों और मैंने
अच्छी तरह से नजर दौड़ाई यहां से पूरा जंगल दिखाई नहीं दे रहा था। इस लिये में
कुछ और उँची चट्टान पर चढ़ कर खड़ा हो गया। और पूरे जंगल को समझने की कोशिश करने
लगा। चारों ओर घने पेड़ और झंडियां है। यहां से तो ऐसा महसूस हो रहा है। वहां पर
तिल रखने की भी जगह नहीं है केवल पेड़ ही पेड़ है और झाड़ीया है। इनके बीच से कोई
कैसे जा सकता है।
परंतु असल में ऐसा नहीं है।
दूर झाड़ियों के पार घास का मैदान दिखाई दिया उसके दाई और एक हरियाली की कतार जा
रही थी। मैंने उसे गोर से देखने की कोशिश कि। और सच यही वह दो बड़े सहमल के वृक्ष
है। जहां मम्मी और दीदी कपड़े धोती थी। और मैं वहां पर किसी आनंद और उत्सव के
साथ मस्ती करता था। और शायद उस तरफ जो खाली जगह दिखाई दे रही है वहां पर पापा जी
और बच्चे क्रिकेट खेला करते थे। अब इस बात को पता चल गया कि मुझे कहां जाना है
परंतु इस जगह से जंगल में जाना और फिर इसी जगह आना अति कठिन था। अब इस बात का भी
कोई तोड़ होना चाहिए। वरना अगर यहां से चला गया तो फिर शायद दोबार अपनी मरती मां
के पास न आ सकूँ।
क्योंकि यहां तो में
कितनी ही बार आया था। परंतु इस गहरी खाई को चिन्हित नहीं कर सकता। सो एक आइडिया
मेरे दिमाग में आया क्यों ने दिशा निर्देश करता हुआ चलू सब से पहले तो अपना चिर
परिचित अंदाज इस खान से ही करता हूं। सो मैंने अपनी टांग उठाई और अपना होल मार्क
वहां पर लगा दिया। और धीरे—धीरे आगे बढ़ने लगा। जब कहीं अधिक झाड़ी या रास्ता
विकट हो जाता तो मैं चंद बुंदे अपने होल मार्क की टाँग उठा कर लगा देता। यही सबसे
आसान और कारगर तरिका था। वापस आने का।
हमार सिस्टम भी कितना अजीब है, शरीर को प्यास लगी है। और फिर भी शरीर पानी छोड़ता
चला जाता है। शायद यह पीढ़ियों के अभ्यास का ही नतीजा है। और मैं जानता था कितनी
बूँदे डालनी है। ऐसा नहीं की एक जगह ही अपना सारा बाथरुम खत्म कर दूं। रास्ते को
भी अच्छी तरह से देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मेरा लक्ष्य वह सहमल के वृक्ष थे।
जैसे—जैसे वह नजदीक आता जा रहा था। मेरा गला सूखता जा रहा था।
कितने घंटे से मैने पानी
नहीं पिया था। भूख तो लगी थी परंतु खाने के बिना काम चल सकता है। परंतु पानी के
बिना अंदर एक खास तरह की कमजोरी महसूस होती है। तब शायद दौड़ना और चलना भी कठिन
है। अचानक मेरे दिमाग में आया हो सकता है कि मेरी मां भी इस लिए नहीं उठ पा रही हो
कि वह पानी नहीं पी सकी है। मेरे सूखे प्रेम में एक आशा की लहर उठी। और मैं तेज
कदमों से उस और चल दिया। नाला ज्यादा दूर नहीं था। और इस नाले में हमेशा पानी
बहता रहता है। और इस की दूसरी खासियत यह थी कि यह नाला किसी एक स्थान पर नहीं
रुकता पूरे जंगल को चीरता —सिंचता शहर में चला जाता है।
नाले के पास जाकर मैं एक पतली पगडंडी से नीचे
की और उतरा। वहां गाय, गीदड़ आदि जानवरों के
पैरो के निशान उस नरम मुलायम रेत पर छपे थे। उसमें एक कोने में मेरे जैसे भी कुछ
पैरो के निशान थे। मैने उन्हें सूंघा उस में मेरी मां जैसी ही गंध थी और वह शायद
एक या दो दिन पुराने थे।
परंतु मां की हालत देख कर
लगता था वह कई दिन से उठी नहीं है। फिर ये निशान किस के हो सकते है। मुझे लगा और
भी जंगली कुत्ते जंगल में होंगे क्या मेरे भाई बहनो ने मां को घायल कर दिया।
मेरा सर चक्रा गया। परंतु मैं ये क्यों सोच पा रहा था कि मैं एक परिवार में और
मनुष्य के संग रहता था। वहां समाज की नैतिकता, परिवार का प्रेम बिखरा
पडा था। और यहां इन लोगों की परवरिश केवल पेट भरने के लिए ही हाथी है। परंतु ऐसा
नहीं कि हम अपने परिवार को भूल जाते है। सालों बाद भी क्या मेरी मां ने मुझे
पहचान नहीं लिया था। मुझे इन सब से घिन्न आ रहा थी....मरे मन में एक विस्तीर्णता
सी उठी। हम अपने स्वार्थ के लिए कितने गिर जाते है। धिक्कार है ऐसे जीवन
से....जो अपने ही खून का प्यास हो....ओर सच मुझे अच्छा नहीं लग रहा था।
यही सब सोचते हुए में
कितनी ही देर वहां पर खड़ा रहा। तभी मुझे पानी की याद आई ओर मैं पानी के अंदर जाकर
खड़ा हो गया। पानी सीतल और निर्मल था। किस मंथर गति से शांत बह रहा था। मैं उसमे
कुछ देर के लिए बैठ गया। और अपना सिर उस में डुबो दिया। सर जो क्रोध और प्रतिहिंसा
से जल रहा था....मैं उसे ठंडा कर लेना चाहता था। मैंने अपना पूरा सर पानी में डुबो
कर आंखें खोली आज मुझे पानी से डर नहीं लग रहा था। अंदर मटमैला पानी और उस में
चमकती सूर्य की किरणें कितनी भली लग रही थी। ऐसा मैंने आज पहली बार किया है। वैसे
पहले भी पानी में नहाया हूं तेरा हूं, गुप्ची लगाई है, परंतु ऐसा करते मैंने पापा जी को देखा था परंतु मुझे
डर लगता था की पानी के अंदर मैं सांस कैसे लूंगा। परंतु आज इस बात की जरा भी परवाह
नहीं थी। मरने का भय मेरे मन मस्तिष्क से निकल गया था। फिर धीरे—धीरे पानी को मुहँ से काट—काट कर पीने
लेगा।
कितनी देर में इसी तरह आंखें बंद किये पानी
में रहने का आनंद लेता रहा। कैसा शरीर निर्भार हो जाता है पानी। इस से मेरे जलते
मन और मस्तिष्क को कुछ राहत मिली। फिर अचानक मुझे मां की याद आई। की प्यास तो
उसे भी लगी होगी। पानी तो उसे भी चाहिए। परंतु मैं पानी कैसे लेकर जाऊं। यह हालत
तो मेरी घर पर भी होती थी। या तो कोई मेरे बर्तन में पानी डाल देता था वरना मुझे
मांगना होता था। परंतु वहां तो अपना कटोरा मुख में उठा कर खाने या पानी के लिए ले
जाता था। ये सब मैंने खेल—खेल में ही सीख लिया था। पहले इस बात पर सब लोग कैसे
ताली बजाते थे। और मुझे शाबाशी देते थे। और मैं उस ताली के करतल नाद में गर्व से
अपना खाने का कटोरा ले कर रसोई घर में चला जाता था। मुझे ये था कि जब मैं कटोरा
लेकिर जाता तभी मुझे खाना मिल जाता। ये सब एक साथ घटा इस लिए इसे सीखने में मेरा
अपना फायदा ही अधिक था इस लिए शायद मैंने सिख लिया। परंतु अगर वर्तन खाली हो तो
मैं पानी मांगने के लिए किसी ने किसी सदस्य को पंजे मार कि कहने की कोशिश करता।
परंतु यह तो हालत और भी खराब है। न यहां कोई बर्तन है। जिसे मैं मुंह में पकड़ कर
ले जाऊं। हम पशु कितने लाचार और असहाय है।
मैं अचानक पानी से बहार
निकला और इधर—उधर कुछ तलाश करने लगा। क्या कुछ मिल जाये जिसे में मुंह से पकड़ कर
अपनी मां के पास ले जाऊं। सोचा पानी को मुहं में भर कर ले चलता हूं वहां मां के
पास जाकर खोल लूंगा। परंतु पानी मुंह में भर कर जैसे ही चला सांस लेना मुश्किल हो
गया। मुंह बद कर के चलने की आदत हमारी जाती को नहीं है। फिर भी में ढूँढता रहा।
परंतु वहां पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।
अब समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं और क्या न करू। काफी दे ढूंढने के बाद
मुझ एक झाड़ी में एक कपड़े का टुकड़ा नजर आया। मैंने उसके पास जाकर उसे सूंघा।
वह किसी मनुष्य का था।
तेज गंध आ रही थी। शायद ज्यादा पुराना नहीं था। फिर मैंने उसे मुंह से पकड़ कर
गोल—गोल करने की कोशिश की और पानी की और चल दिया। अब में दोबारा पानी में घूस गया।
और उस कपड़े समेत अपना मुख पानी में डुबो दिया। धीरे—धीरे कपड़े ने पानी पी
लिया। एक बार और इसी तरह से किया कपड़ा
अंदर तक गिला हो गया। मेरे मुहं में उस कपड़े के गिले पन का पानी फैलने लगा। इसी
तरह दो तीन बार और किया। फिर जोर से मैंने कपड़े को मुख से दबाया उसका सारा पानी
निकल गया । और उसे फिर पानी में डुबोकर बहार की और निकल पडा तेज नहीं दौड़ सकता
था। क्योंकि फिर मुझे मुख से स्वास लेनी होती
परंतु इतना धीरे भी नहीं चल रहा था कि कपड़े का सारा पानी टपक जाये। आने
में जितना समय लगा था जाने में उतना समय नहीं लगा। क्योंकि जो रास्ता हम एक बार
तय कर चूके होते है उसे दोबार चलना आसान हो जाता है।
जब मेंने खाई को समने देख तब मेरी सांस में
सांस आई। कि मैं सही जगह पर पहूंच गया हूं। वरना तो भटकने का डर तो था। क्योंकि
कपड़ा मुख में होने के कारण में अपने लगाये चिन्हों को सूंघ नहीं सकता था। परंतु
भगवान का लाख शुक्र है मैं सही सलामत उस खान के सामने आ गया। फिर जल्दी से नीचे
उतरा मेरी मां आँख बंद किये लेटी थी। इस बार मेरे पैरों की आहट पाकर भी उसने उठने
की कोशिश नहीं की थी।
मुझे देख कर डर लगा कि
कही मेरी मां मर तो नहीं गई है। मैं इतनी दूर से अपनी मरती मां के लिए पानी लेने
गया और उसे अंतिम समय पर पानी भी नसीब नहीं हुआ। परंतु ये देख कर मुझे खुशी हुई कि
मेरी मां की साँसे चल रही है। परंतु वह अर्ध अचेतन अवस्था में थी। मैंने पास जाकर
वह कपड़ा मां में मुख के पास रख दिया। उसके गिले पन के और सीतलता से मेरी मां ने
आंखें खोली। और मुझे देख कर सोचने की कोशिश करने लगा। मैंने उसका मुहं चाटा। तब
उसे शायद मेरे होने का भास हुआ। क्या हम मरते समय एक नींद की अवस्था में चले
जाते है। और उस समय हमारा चेतन मन सुप्त अवस्था में चला जाता है। जिससे हम अपने
परिचितों को पहचान नहीं सकते।
मैंने वह कपड़ा अपनी मां
के मुख के पास कर दिया। उसने अपने अकड़े
मुख को खोला और एक दम सफेद पड़ी जीब को बाहर निकाला। और धीरे—धीरे पानी को चाटनें
की कोशिश करने लगा। और मैं देख रहा था उसकी बुझती आंखों में एक खास दुलार एक प्यार
की चमक थी। शायद मेरे इस तरह के काम को देख कर उसे गर्व हो रहा होगा की मेरा यह
पुत्र मनुष्य के संग जाकर कितना समझदार और भावुक हो गया है।
मां की हालत पल—पल और अधिक बदतर होती जा रही
थी। आंखें जो श्याम को बहार थी अब एक गहरे गड़े में समाई सी लग रही थी। मुख का
जबड़ा एक दम सूख का पत्थर हो गया था। मुझे तो यह देख कर ही अचरज हो रहा था कि
इतना सूखे और अकड़े हुए मुख को मां ने खोला कैसे। परंतु पानी की सीतलता ने मां को
और शांत कर दिया। मैं उसे बार—बार चाट रहा था। वह बहुत मुश्किल से आंखे खोल पा रही
थी। मैं उसके सामने बैठ गया और मां के शरीर पर जो घट रहा था उसे गोर से देखने लगा।
मां की स्वास धीरे—धीरे मंद हो रही थी। और अचानक एक तेज हरकत शरीर ने की। जो अभी
तक निर्जीव सा पडा सा पूरा का पूरा ऐंठ गया। और एक जोर का झटके के साथ मुख खुला और
शांत ही रह गया।
शायद मेरी मां के शरीर से
प्राण निकल गये। किस सहज आसानी से मां ने मृत्यु का सामना किया। वह मेरे मन में
घर कर गई। मृत्यु को प्रेम और स्नेह से मां ने ग्रहण किया। वह कितना सरल था।
चारों और मोत ने एक गाढ़ा वातावरण पैदा कर दिया। एक भारी पन जो तन और मन दोनों पर
छाया हुआ था। उधर श्याम ढल रही थी। और
इधर मेरा मन डूब रहा था। किसी गहरी पिपाशा में। पक्षियों ने सोने से पहले जो कलरव
शुरू किया आज उस में दर्द के स्वर थे। एक तड़प थी मां के खोने की जिस के करण में
हिल भी नहीं पा रहा था। एक पत्थर के बुत की तरह में मेरे मां के शरीर को देखे जा
रहा था।
कैसे एक जीवित शरीर शांत
हो जाता है। क्यों? कुछ तो होगा जो अपना पन
लिए होगा। क्या हम शरीर को प्रेम करते है या उस के अंदर बसे किस अंजान जीवन से।
शरीर तो वही है। अभी भी फिर भी मां से प्यार क्यों नहीं कर पा रहा हूं। परंतु
कुछ क्षण पहले वह कैसे प्रेम पूर्ण लग रही थी। जरूर हम जिसे प्रेम करते है वह जीवन
कुछ और ही है। शरीर तो मात्र एक माध्यम है। यह तो जरिया है। धीरे—धीरे प्रकृति
सोने की तैयारी कर रही थी। परंतु मैं क्या कर सकता था। मेरी मरी मां का शरीर मेरे
सामने पड़ा था। मैं उसे केवल देख सकता था।
वह पूरी रात मैंने अपने मां के शरीर के साथ
गुजारी। न ही मुझे भूख थी और न ही मुझे प्यास थी। सच कहूं उस समय तक मुझे मम्मी—पापा
जी की याद नहीं थी। अगर मेरी मां जीवित होती तो मैं शायद कभी गांव में नहीं जाता।
और अगर जाता तो मां को साथ लेकर जाता। जिस के लिए मां शायद ही तैयार होती। परंतु
इन सब बातों के विषय में अब सोचने से क्या लाभ। अब तो सब खत्म हो गया। परंतु
मुझे मां के संग साथ जो मिला है उसमें कुछ नया पन मेरे जीवन में भर गया। अभी में
यहां उसे सजो लेना चाहता हूं। अभी घर जाने का मेरा जरा भी मन नहीं था। और न ही
मुझे अपनी मां के शव के पास बैठ कर डर लग रहा था। सच पूछो तो मैंने आज मृत्यु का
जो रूप देखा है। उस से मेरे मन में उसके उसका भय समाप्त हो गया है।
मृत्यु उतनी कुरूप या
भयावह नहीं है जितना हम उसके विषय में सोचते है। या उस से डरते है। वह तो एक गहरी
शांति लेकिन आती है। मेरी मां के सारे दर्द से कैसे निजात दिला गई। बंधन ही पीड़ा
है। जब हम उसे पकड़ना चाहते है तो हम भयभीत हो जाते है। मां ने उसे कैसे सहजता से
अपने शरीर पर आने दिया। उसका प्रतिरोध जरा भी नहीं किया। वह उतनी ही सहज और सरल हो
गई। पूरी रात यही सोचता रहा....रात गहरी हो गई थी। आस पास जंगली जनावरों की हरकत
शुरू हो गई। निशाचर अपना पेट भरने के लिए निकल पड़े। मानों दिन में ये जंगल आराम
करता है और रात के समय क्रियाशील हो जाता है। कब इस उधेड़ बुन में आँख लगी या नहीं
लगी कह नहीं सकता। जब गीदड़ की हुंकार सुनाई दी तब मैंने आसमान की और देखा आसमान
में लालिमा फैल रही थी। मैंने एक बार मां के शरीर को फिर देखा। वह तो एक दम पत्थर
हो गया।
क्या शरीर में प्राण के रहते ही उस में लोच होती है।
वह अकड़ कर लाठी की तरह हो गया....एक बार फिर मैंने मां के मुहँ के पास मुंह ले
जाकर चाटा....अब वहां कोई नहीं था। एक मिट्टी का ढेला मात्र था। मेरा मन भर आया।
और मैं भारी कदमों से खान के बाहर की और चल दिया। बाहर निकल कर मैंने फिर मां के
शरीर को अंतिम बार देखने की कोशिश की परंतु झाड़ीया बहुत घनी थी.....बस आंखों में
मां की छवि और मन उसकी प्यारी स्मृति लिये में भारी कदमों से घर की और चल
दिया....एक लूटे मुसाफिर की तरह। जिसे मिलने से पहले सब कुछ गंवा दिया है।
ये कथा क्या ओशो के द्वारा कही गई हैं?
जवाब देंहटाएंकौन हैं लेखक , कृपया पूरी जानकारी दे