गांव
के पास जो खुबसुरत जंगल था जहां मेरी पैदाईस हुई थी.....वो सच ही सुंदर था। वह इस
लिए सुंदर नहीं कह रहा कि वहां मैं पैदा हुआ। पानी के कल—कल बहते सीतल
झरने....गहरे....मिट्टीके खाल....उंच्चे शिशम, शहमल, अमलाता और ढाक के साथ—साथ बबूल और रोंझ के
दरखत। हजारो तरह के जंगली फल और जड़ी बुटीया। जानवर के नाम पर नीलगाय....जंगली
गायें के झुंड के झुंड.....गिदडो की बहुतायत थी। और दूर दराज सड़क के पार बंदरों
की आबादी थी। शायह ये प्राणीगहरे जंगल में रहना इस लिए पसंद नहीं करता क्योंकि यह
वो सब चीजे खा लेता है जो मनुष्य खाता है। और थोड़ा चपल भी है। साथ—साथ इस
हिंदुओं ने हुनमान के साथ जोड़ कर एक और महत्व दे दिया था। फिर भी कभी—कभार कोई
बंदर अपने पद हटाये जानेके बाद गांवकी और आ जाता है। कहावत तो कि गीदड की जब मौत
आती हे वे वह गांव की और दौड़ता है.....परंतु समय ने ये सब कहावत बदल दी है...वह
भी गांव के आस पास रहकर अपनापेट भरता है। अगर हिंसक न हो तो शायद मनुष्य किसी
प्राणी को नहीं मारता। ये जो बंदर गांवमें आते है ये होते तो हष्ठ—पुष्ठ है
पंरतु इनके शरीर पर बहुत जगह जखमों के निशान होते है। लेकिन इस बार तो बंदर की जगह
लंगुरबंदर घर पर आ गया। एक तो हमारे घर में पेड़ आदि बहुत है....इसके साथ कुछ पेड़
फलों के भी है....अनार…अमरूद...शरीफा....आवला.....फालसा.....ओर
चीकु.....शायद ये फल के वृक्ष भी उसे अपनी और अधिक लुभाते है।
आज श्याम
से ही वह लंगुर बंदर छत पर उतपात मचा रहा है। में कितनी बान उसे डरा चुका हूं
परंतु वह तो मुझ पर हमला करनेके लिए तैयारहै....सो जब पापा जी आते है तो हम सब मिल
कर उसे वहां से खदड़ेने के लिए तैयार होते है। क्योंकि हैमांशु भईया को कमरा तो
सबसेउपर था। वह तोजाने को तैयार ही नहीं था। एक बार मेरे साथ गया तब लंगुर बंदर ने
उसे बड़े—बड़े दाँत दिखलायेतो वह अपने कान बोचकर जो नीचे भागा.....तब से मम्मीके
पास ही है। अरे बीच में वरूण भैया का कमरा पड़ता है। तब क्या किया जा सकता था। सब
ने अपनी रक्षा के लिए हाथों में एक—एक डंडा ले लिया था। सबसे आगे पापा जी थे...कभी—कभी
में भी सबसे आगे हो जाता था। हम बंदर को एक तरफसेभगता तो वह दूसरी तरफ से नीचे आ
जाता। जब हम नीचे आते तो वह उपर दिखाई देता...इसी तरह कितनेही चक्करलगवा चुका था।
सब परेशान हो रहे थे।
इस चलते रेलम पेल में वह बंदर तो बहुत ही समझदार था। और आप यह
सुनकर अचरज करेंगे कि हम जिस कतार में चल रहे थे। पहले...मैं पापा,मम्मी,
हिमांशु, दीदी, वरूण भैया....सबसे पीछे.....ओर उसके पीछे वह
लंगूर बंदर.....मनों वह भी हमारे साथ खेल रहा है। हम सब हंस कर लोटपोट हो गये कि
जिसे हम ढूंढ रहे है वह भी उसे ही ढूंढ़ रहा है। इसी तरह कितनी ही देर गुजर
गई.....परंतु जब बीड़ा हाथ में लिया है तो उसे पुरा तो करना ही था। तब मैं जोर से
भौंका और बंदर के पीछे भागा.....वह कुछ कदम चल कर रूका और मेरे उपर झपटा....मैं
सहम गया और रूक गया....परंतु मेरे पीछे पापा जी थी....सो मैंने हिम्मत दिखाई और
मूडकर बंदर पर झपटा वह लईब्रेरी के सामने एक खुला चौक था। दूसरी तरफ मामा—मामी का
घर था....उनके आँगन में भी चंपा और जंगली जलेबी को एक वृक्ष था। और आँगन में फूस
से छप्पर बना रखे थे जो हमारी दीवार से सटकर थे। उनमें वो अपनी गाये बांधा करते
थे। जैसा कि मैंने बताया था मामा—मामी हमारे पास के ही मकान में रहते थे। उनके कोई
संतान नहींथी। इसलिए शायद वह पशुपक्षीयों से अधिक प्रेमकरते थे। कहते है मामा—मामी
ने अपने जीवन काल में किसी गाय या उसके बच्चे को नहीं बेचा। आज भी उनके आँगन में
तीन चार बछड़े...ओर पाँच छ: गये बंधी होती है।
आज के युग में इतनी सरलता और सादगी से जाना एक कला है।
परंतुसचहीदोनोंपति पत्नी अति सरल थे। अब में झांकर देखताहूं तो उनके आँगन में कई
बिल्लीयां घूमती रहती है। कई बार तो मैं देख कर अचरज से भर जाता हूं कि बिल्ली
बैठी हुई गाय की पीठ पर बड़े मजे से सो रही होता....मेरामन करता एक बार किसी तरह
से वहां पहूंच जाऊं फिर तो इस बिल्ली की चटनी बना ही दूंगा.....सो शौरशराब सुन कर
माम्मी—मामी भी आंगनमें आ गये। लंगुर बंदरकोने पर लगे इंट के चट्टेपर बैठा था।
अचानक नीचे कुछ हलचल सुन कर वह नीचेकी और झांका इसवक्त मैं उस पर
झपटा....उसनेअपने बचाव के अपना संतुलन खोदिया....ओर पीछे की और गिरा....नीचे जो
घास के छप्पर थे....वह उस पर गिरा....छप्पर पर गिरते ही छप्पर भी गिरा और किस
नजाकतसेछप्परगिरा वह देखने जैसे था। एक दम सिलामोशन में....बंदर की तो समझ में
कुछ नहीं आया....न ही किसी ने उसे देखा कि कब तो वह भागा....किधार की और भागा।
बस इस उधैड़ बुन में नीचेमामा को मिट्टी में गिरा पाया....शायद
बंदर को गिरते देख मामा घबरा कर पीछेहाटाओर गिर गया। अपने कपड़ासे धूल झाड़ते हुए
जब मामा उठ रहे थे तो कह रहे थे कोई बात नहीं....बंदर बच गया....छप्पर तो कल
तैयारहो जायेगा...ओर पास खड़ी गय भी डर गई। बछड़ेमां—मां कर के रंभ्भानेलगे। एक
अफरा तफरी का माहोल बन गया।परंतु इस बीच ये अच्छा हुआ की बंदर भाग गया कि आज तो
जान बच गई .... आगे आऊं तो तोबा—तोबा।
अब समय के फैर को ही देखिये जिस घर से पूरे गांव का विकास हुआ
है....कहते है वह घर अब मनहूश हो गया है। वहां तीन—चार पिढीयों से संतान नहीं होती। इस लिए मामा—मामी का सारा
जीवन पशु...पक्षियों के साथ ही गुजरता है। मामी मुझे देख कर कितना प्यार करती है।
अपकोबता नहीं सकता। परंतु अब मामा जंगल में इतनी गायों को नहीं चरता था....धीरे—धीरे
उन्होंने सब गायों को मक्तछोड़ दिया बस एक हीगाय अब घर आती है...वह भी दूध देकर
चली जाती है। मामा भी जंगल में जाता है....उस गयोंके पास रहकर उन्हें चराता है।
और उनके शरीर पर लगे कीड़े हटाता है.....बच्चे उन्हें चारों और से घेर लेते थे।
मां भी उनका हाथ चाटती थी। शायदमरने का उन्हेंऐहासा हो गया था....क्योंकि ठीक छ:
महीने पहले ही उन्होंने सभी गाये को घर से मुक्तकर दिया था। मामाके मरनेके बाद
मामी भी दो महीनेबाद चल बसी।
कुछ लोगों ने उनकी उन गयों को पकड़ कर पालना चाहा....परंतु तीन
चार दिन घर पर बांधनेके बाद भी उन्होंने कुछ नहीं खाया और न ही दूध दिया.....पयार
के स्पर्श को प्रत्येक प्राणी अपने प्राणों से उसे महसूस करता है। अब वह सभी गाय
जंगल में ही जंगली गायों के साथ रही है....कभी—कभारकोईभुल से दरवाजे पर आकर रंभ्भाने
लगती है.....जब उसे कोई दिखाईनहीं देता तो हार थक कर वापस चली जाती है।
मामा—मामी के मरनेके बाद उनका मकान उनके किसी रिस्तेदार ने कबजा
लिया....ओर वह आकर उसमें रहने लगे....रहना तो क्या बस उसे बैच कर पैसेइक्ठे कर
लेना चाहते थे। उन्होंने उस मकान को लाख बैचने की कौशिश की शायद साल भर....परंतु
वह नहीं बिका तो नहीं बिका...। तब एक दिन रामरत्न मिस्त्रीपापा जी को कहने लगे
बाबुजीहम ही ले लेते है इस मकान को....बाद में न जाने कोन पड़ोसीआये—उसका कैसा खान
पान हो। और बच्चों के रहने के लिए भी तो मकना बनानाहै। सो हर हालत में हमारे लिए
तो यह सोना है। पापा जी ने मम्मी और दादाजी से सलाह मश्वरा कर के वह मकान खरीद
लिया।
इधर मेरी समझ में नहीं आरहा था कि हमारा इधर का मकान तो पूरा बन
गया है तब इस मकान को अलग से बनाना होगा। तब तो दो ही मकान रहेंगे। एक तो कैसे हो
सकते है...क्यों दस साल का अंतर है। परंतु आप आकर उसे देखों तो उसके रंगरूप और
डिजाइन को देख कर आप कह नहीं सकते की यह मकान बाद में खरीद कर बनायागया है। नीचे
के हाल ध्यान के लिए बनाया....ओर साथ...एक बैठक खाना भी हो गई। अब हमारेघर के दो
दरवाजे हो गये। बीच में दस बाई दस का एक कच्चा आँगन छोड़ा गया जिसमें मोलसरी…अशोकओर
अनार के वृक्ष लगाये गये। और साथ में कुछ बेलबुटियां भी लगाई गई। नीचे बहुतबड़ा ध्यान
कक्ष और उसके उपर वरूण भैया का एक सैट....उसके उपर हैमांशु भैयाका एक सैट....ताकि
वह अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ रह सके....शायद ये शादी बच्चे तो मेरे जीते
जी हो नहींसकते थे....क्योंकि अभी तो वह पढ़ रहे है...ओर मेरी उम्र इस समय करिब
दस के पारहो गई है....यानि अब में बुढ़ा हो रहा हूं....शायदमेरी आंखें भी अब उतना
साफ नहीं देख पा रही थी। और दाँत भी कमजो हो गये थे।
शरीर कमजोर होने के साथ—साथ भयक्रांतभी हो जाता है। शरीर की भी
अपनी भाषा होती है....जब हम जवान होते है तो शरीर मन पर हकुमत करता है और जब शरीर
कमजोर होता जाता है तो मन की हकूमत शुरू हो जाती है...तब मन में जो भय...डर...समय
होते थे वह उजागर होनेलगतेहै।तभी तो अंत समय आते—आते में बंब और ढोल और बाजे गाजे
की आवाज सून कर बहुत डर जाता हूं। शरीर कांपने लगजाता है।
सो ये जगह लेने के बाद हमारा मकार बहुत ही बड़ा हो गया था। और उधर
बहुत सुंदर तरह से निर्माण कार्य हो रहा है....दादा जिस तरह से अपने डंडे को लेकर
पूरे घर का निरिक्षण करते थे....उससे मुझे बहुत मजा आता था। मैं भी दादा जी के साथ
हर वोजगह घूम—घूम कर देखता था और मन ही मन प्रसन्न होता था। की ये सब हमारा
है....ओर अब मेरी जिम्मेवारी अधिक बढ़ गई है....क्योंकि वहां तक चोर—उच्चको से
इसे बचाना है। परंतु काम के बढ़ने से में उदास नहीं था। नहीं तो आप कहेंगें की मैं
काम चौर हूं। काम का तो एक आंनद है....कौने पर खड़े होकर जब मैं भौंकता था तो दूर
दराज सभी कुत्तें....उपर की और देखते थे....लेकिन में एक राजा की तरह से
भौं....भौं....कर सब को सचेत कर देना चाहता था। इधर कोई न आये यह मेरा क्षेत्र है।
सच रामरतन और पापा जी की मेहनत से एक अभुतपूर्व कृती तैयार हो रही
थी....सुंदर से सुंदर टाईलो केडिजाईन बनायेजा रहे थे।मानों ये एक घर नहीं था भगवान
है....ओर उस की मूर्तिके कितना सुंदर और सम्महोक बनायाजा सके....कितनी देर तक काम
करते रतन परंतुउनके चेहरे पर कभी दूख या संताप नहीं देखा....काम की चाल कभी...कभी
तो ऐसी हो जाती की रात के नौ बज जाते....परंतु कोई गमनहीं.....ये किसी का काम नहीं
है....ये तो अपना ही काम है। राम रतन और पापाजी प्रेम और संग मैंने देखा है....दोनों
भाई की तरह रहते थे। पापाने उसे कभी नौकर नहीं समझा.....चलो ये बातें बाद में आज
इतना ही।
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