गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-03



सत्र—3   ज्‍योतिषी की भविष्यवाणी

       
बार-बार सुबह का चमत्‍कार.....सूरज और पेड़ । संसार बर्फ के फूल की तरह हैं: इसको तुम अपने हाथ में लो और यह पिघल जाता है—कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ गीले हाथ रह जाते है। लेकिन अगर तुम देखो, सिर्फ देखो, तो बर्फ का फूल भी उतना ही सुंदर है जितना संसार में कोई दूसरा फूल। और यह चमत्‍कार हर सुबह होता है, हर दोपहर, हर शाम, हर रात, चौबीस घंटे, दिन-रात होता है.....चमत्‍कार। और लोग परमात्‍मा को पूजने मंदिरों, मसजिदों और गिरजाघरों में जाते है। यह दुनिया मूर्खों से भरी हानि चाहिए—माफ करो, मूर्खों से नहीं वरन मूढ़ों से—असाध्‍य, इतने मंद बुद्धि लोगों से।
     
क्‍या परमात्‍मा को खोजने के लिए मंदिर जाने की जरूरत है, क्‍या वह अभी और यहीं नहीं है।
      खोज का खयाल ही मूढ़तापूर्ण है। खोज तो उसकी करते है जो दूर है। और परमात्‍मा तो इतने करीब है, तुम्‍हारी ह्रदय की घड़कना से भी अधिक करीब है। कोई स्‍त्रष्‍टा नहीं है, केवल सृजन की ऊर्जा है। लाखों रूपों में वह ऊर्जा प्रकट होती, पिघलती, मिलती, प्रकट होती, अदृश्‍य होती, एकत्रित होती और फिर बिखर जाती है।

      इस लिए मैं कहता हूं कि पुरोहित सत्‍य से बहुत दूर है और कवि बहुत नजदीक है। निश्चित ही कवि को भी वह उपलब्‍ध नहीं है। केवल रहस्‍यदर्शी ही उसे उपलब्‍ध करता है...; ‘उपलब्‍ध’ शब्‍द ठीक नहीं है, या यूं कहो कि उसे मालूम हो जाता है कि वह सदा से बही है।
      वह बूढ़ा ज्‍योतिषी आया। मेरे नाना अपनी आंखों पर विश्‍वास न कर सके। वह ज्‍योतिषी इतना प्रसिद्ध था कि अगर वह किसी राजा के महल में भी जाता तो वह राजा भी आश्‍चर्यचकित होता। और वह मेरे बूढ़े नाना के घर आया। उसे घर कहना पड़ता है, लेकिन ज्‍यादा कुछ था नहीं बस मिट्टी की दीवालों से बना मकान था। उसमें अलग गुसलखाना भी नहीं था।

तो वह हमारे घर आया और मैं तुरंत उस बूढ़े व्‍यक्ति का मित्र बन गया। उसकी आंखों में देखते हुए—यद्यपि मैं केवल सात साल का था। और एक शब्‍द भी नहीं पढ़ सकता था। लेकिन उसकी आंखें पढ़ सका, उसके लिए किसी पढ़ाई की जरूरत नहीं है—मैंने उस ज्‍योतिषी से कहा, ‘बड़ी अजीब बात है कि आप इतनी दूर से मेरी जन्‍म–कुडली बनाने आए है।‘
      उन दिनों, और आज भी, वाराणसी उस छोटे से गांव से ब‍हुत दूर है। ज्‍योतिषी ने कहा: ‘मैने वाद किया था, और वायदे को तो पूरा करना पड़ता है।’ वह मुझे रोमांचित कर गया। तो यह जिंदा आदमी है।
      मैने कहा: ‘यदि आप अपना वादा पूर करने आए है तो मैं आपके बारे में भविष्‍यवाणी कर सकता हूं।’
      उसने कहां: ‘क्‍या, तुम मेरा भविष्‍य बता सकते हो।’
      मैने कहा: ‘हां, निश्चित ही तुम बुद्ध तो नहीं बनोगे, लेकिन तुम एक भिक्षु, एक संन्‍यासी अवश्‍य बनोगे।’
      वह हंसा और बोला: ‘यह असंभव है।’
      मैने कहा: ‘आप शर्त लगा सकते है।’
      उसने मुझसे पूछा: ‘अच्‍छा ठीक है, कितने की शर्त।’
     
मैने कहा: ‘उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। आप जितने की चाहे उतने की शर्त लगा लें। क्‍योंकि यदि मैं जीता तो मैं जीता; लेकिन यदि मैं हारा तो मैं कुछ भी नहीं हारू गा, क्‍योंकि मेरे पास कुछ है ही नहीं। आप सात साल के बच्‍चे के साथ शर्त लगा रहे है। क्‍या आप यह देख नहीं सकते कि मेरे पास कुछ भी नहीं है।’
 तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि मैं वहां नंगा खड़ा था। उस गरीब गांव में यह वर्जित नहीं था—कम से कम सात साल के बच्‍चे के लिए नंगे इधर-उधर भागना-दौड़ना वर्जित नहीं था। वह कोई इंग्लैंड का गांव नहीं था। सारा गांव इकट्ठा हो गया था और सब लोग हम दोनों की बातचीत सुन रहे थे। उस ज्‍योतिषी ने कहा: ‘ठीक है, यदि मैं संन्‍यासी बना, भिक्षु बना,--और उसने अपनी हीरे-जड़ी सोने की पाकेट-घड़ी दिखाई—मैं यह तुम्‍हे दे दूँगा, और यदि तुम हार गए ताक तुम क्‍या करोगे।’
 मैने कहा: ‘मैं बस हार जाऊँगा। मेरे पास कुछ नहीं है—आपको देने के लिए कोई सोन की घड़ी नहीं है। मैं केवल आपके धन्‍यवाद दूँगा।’
     
वह हंसा और चला गया।
     
मैं ज्‍योतिष में विश्‍वास नहीं करता। यह 99.9 बकवास है। लेकिन 0.1‍ बिलकुल सच है। कोई भी आंतरिक पवित्रता और अंतर्दृष्टि  वाला व्‍यक्ति भविष्‍य को देख सकता है। क्‍योंकि भविष्‍य  अस्तित्‍व-विहीन नहीं है, वह सिर्फ हमारी आंखों से छिपा है। शायद केवल विचारों का एक झीना सा पर्दा है जो वर्तमान और भविष्‍य को अलग करता है। लेकिन आश्‍चर्य है कि वह मेरा भविष्‍य देख सका—भले ही धुंधला-धुंधला सी, अस्‍पष्‍ट सा, अनेक संभावनाओं के साथ—लेकिन वह अपना भविष्‍य न देख स‍का। इतना ही नहीं, जब मैने कहा कि वह भि‍क्षु बनेगा, तो वह मेरे साथ शर्त लगाने को तैयार था।
     
मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ वाराणसी के आस पास घूम रहा था। वे कुछ काम से गए थे और मैन उनके साथ जाने की जिद की थी। वाराणसी और सारनाथ के बीच सड़क पर एक बूढ़े भिक्षु को मैने रोका और कहा, ‘क्‍या आप मुझे पहचानते है।’
      उसने कहा: ‘मैने तो तुम्‍हें पहले कभी नहीं देखा, फिर पहचानने का सवाल ही—नहीं उठता।’
      मैने कहा: ‘आपको मेरी याद नहीं है, लेकिन मुझे तो आपकी याद है। वह हीरे से जड़ी सोने की घड़ी कहां है। मैं वही बच्‍चा हूं जिसके साथ आपने शर्त लगाई थी। अब समय आ गया है कि मैं पूछूं। मैने भविष्‍यवाणी की थी कि आप भिक्षु हो जाएंगे और अब आप हो गए है। अब वह घड़ी मुझे दे दीजिए।’

वह हंसा और अपनी जेब से उसने वह सुदंर घड़ी निकाली और मुझे दी। उसकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थी और—तुम भरोसा नहीं करोगे—उसने मेरे पैर छुए। मैने कहा: ‘नहीं-नहीं, आप भिक्षु है, संन्‍यासी है, आप मेरे पैर नहीं छू सकते।’
 उसने कहा: ‘वह सब छोड़ो, तुम मुझसे बड़े ज्‍योतिषी सिद्ध हुए। मुझे तुम्‍हारे पैर छूने दो।’
 मैने वह घड़ी अपनी पहली संन्‍यासिन को दे दी। मेरी पहली संन्‍यासिन का नाम है, मा आनंद मधु*,हां, एक स्‍त्री, क्‍योंकि मैं चाहता था। जिस तरह मैने स्त्रियों को संन्‍यास दिया, किसी ने कभी नहीं दिया। इतना ही नहीं, मैं अपनी पहली संन्‍यास दीक्षा किसी स्‍त्री को ही देना चाहता था—संतुलन के लिए।
      स्त्री को संन्‍यास देने में बुद्ध तक हिचकिचाए—बुद्ध तक। उनके जीवन की सिर्फ यही एक बात मुझे कांटे की तरह खटकती है, और कुछ नहीं। बुद्ध झिझके...क्‍यों, उन्‍हें डर था कि स्‍त्री सन्यासिनियॉं उनके भिक्षुओं को डांवाडोल कर देगी। क्‍या बकवास है, एक बुद्ध और डरे। अगर उन मूर्ख भिक्षुओ को ध्‍यान भंग होता था तो होने देते।
      महावीर ने कहा कि स्‍त्री के शरीर से किसी को निर्वाण, परम मुक्ति नहीं हो सकती। अभी भी स्त्रियों को मस्जिद में आने की अनुमति नहीं है। सिनागॉग में भी स्त्रीयां गैलरी में अलग बैठती है, पुरूषों के साथ नहीं बैठती।
     

इंदिरा गांधी मुझे बता रही थी कि जब वे इसरायल की यात्रा पर थी और जेरूसलम गई, तो उन्‍हें भरोसा ही नहीं हुआ कि इजरायल की प्रधानमंत्री और वे स्‍वयं, दोनों बालकनी में बैठी हुई थी और सारे पुरूष नीचे मुख्‍य हॉल में बैठे हुए थे। उसे खयाल नहीं आया कि इजरायल की प्रधानमंत्री भी, स्‍त्री होने के कारण, मुख्‍य सिला गॉग में प्रवेश नहीं कर सकती थी। वे केवल बालकनी से देख सकती थी।
     
यह आदरपूर्ण नहीं है, यह अपमानजनक है।
     
मुझे मोहम्‍मद, मोजेज, महावीर, बुद्ध के लिए माफी मांगनी है। और जीसस के लिए भी, क्‍योंकि उनहोंने अपने खास बारह शिष्‍यों में एक भी स्‍त्री नहीं चुनी। और जब उन्‍हें सूली लगी तो वे बारह मूर्ख वहां नहीं थे, केवल तीन स्त्रीयां उनके पास थी—मेगदलीन, मेरी और मेगदलीन की बहन। पर इन तीन स्त्रियों को भी जीसस ने नहीं चुना; वे चुने खास शिष्‍यों में नहीं थी। चुने हुए खास शिष्‍य तो भाग गए थे। वे अपनी जान बचाने की कोशिश में थे। खतरे के समय केवल स्त्रीयां ही आई।
      इन सब लोगों के लिए मुझे भविष्‍य से माफी मांगनी है, और मेरी पहली माफी थी कि स्त्री को संन्‍यास देना। तुम्‍हें पूरी कहानी जान कर खुशी होगी। आनंद मधु के पति चाहते थे कि सबसे पहले उन‍को दीक्षा दी जाए। यह हिमालय में हुआ। मैं मनाली में ध्‍यान शिविर ले रहा था। मैने पति को यह कहते हुए अस्‍वीकार कर दिया कि तुम द्वितीय हो सकते हो, प्रथम नहीं। वे इतने नाराज हो गए कि उसी समय शिविर से चले गए। इतना ही नहीं, वे मेरे दुश्‍मन हो गए और मोरारजी देसाई से मिल गए।
      बाद में जब मोरा जी देसाई प्रधानमंत्री थे तो इस आदमी ने उन्‍हें राज़ी करने की पूरी कोशिश की कि मुझे जेल भेज दिया जाए। लेकिन मोरा जी देसाई में उतनी साहस नहीं है। अपनी पेशाब पीने बाले व्‍यक्ति में इतना साहस हो भी नहीं सकता। वह तो महा मूर्ख है—फिर से माफ़ करना—महा मूढ़ है। ‘मूर्ख’ शब्‍द को तो मैंने केवल देव गीत के लिए छोड़ रखा है।
      आनंद मधु अभी भी संन्‍यासिन है। वह हिमालय में रहती है—मौन, चुपचाप। तभी से हमेशा स्त्रियों को जितना हो सके उतना आगे लाने का मेरा प्रयास रहा है। शायद कभी-कभी मैं पुरूषों के प्रति अन्‍यायी भी दिखूं।
      पहली महिला जिसको मैंने बहुत चाहा वह मेरी सास थी। तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा कि क्‍या मैं विवाहित हूं? नहीं, मैं विवाहित नहीं हूं। वह स्‍त्री गुड़िया की मां थी। पर मैं मजाक में उसे अपनी सास कहता था। मेरी सास असाधारण महिला थी, खास कर भारत में। वह अपने पति को छोड़ पाकिस्‍तान चली गई और स्‍वयं ब्राह्मण होते हुए भी एक मुसलमान से शादी कर ली। उसमें साहस था। उसमें हिम्‍मत थी, क्‍योंकि तुम जितना साहस करते हो उतने ही तुम ‘घर’ के नजदीक आते हो। स्‍मरण रहे कि केवल दुस्‍साहसी लोग ही बुद्ध पुरूष बनते है। हिसाबी-किताबी लोग पैसा तो इकट्ठा कर लेते है, लेकिन बुद्धपुरूष्‍ नहीं बन सकते।
     
मैं उस व्‍यक्ति का आभारी हूं जिसने मेरे बारे में केवल सात वर्ष की उम्र में ही भविष्‍य बाणी कर दी थी। सिर्फ मेरी जन्‍म-कुंडली बनाने के लिए उसने मेरे सात साल के होने तक प्रतीक्षा की—कितना धैर्य था, और इतना ही नहीं, वह वाराणसी से उतनी दूर गांव आया। न सड़कें थी, न रेलगाड़ी थी। उसे घोड़े पर सवारी करके इतनी लंबी यात्रा करनी पड़ी। उस ज्‍योतिषी की आंखों में मैने एक दिव्‍य असंतोष देखा, मैं देख सकता था कि इस संसार की कोई भी चीज तुम्‍हें संतुष्‍ट नहीं कर सकती है। जब आदमी को दिव्‍य असंतोष होता है, केवल तभी वह संन्‍या‍सी बनता है।
      हां, वह सुनहरा समय था। असल में सुनहरे से भी अधिक सुदंर। क्‍योंकि मेरे नाना न सिर्फ मुझसे प्रेम करते थे, बल्कि मैं जो कुछ भी करता उससे भी प्रेम करते थे। और मैने वह सब किया जिसे तुम उपद्रव कह सकते हो।
      मैं बहुत शैतान था। मैं लगातार उपद्रव करता रहता। उन्‍हें सारा दिन मेरे बारे में शिकायतें सुननी पड़ती, और उन शिकायतों को सुन कर उन्‍हें बड़ा मजा आता। उनकी यह एक बड़ी विशेषता थी। उन्‍होंने मुझे कभी दंड नहीं दिया। उन्‍होंने कभी यह तक नहीं कहा कि यह करो और यह मत करो। उन्‍होंने मंझे मेरे जैसा ही होने की पूरी छूट दे रखी थी। इस प्रकार, न जानते हुए भी, मुझे ताओ का स्‍वाद मिला।
     
वे आरंभिक वर्ष ऐसे थे। मुझे पूरी छूट थी। मेरे खयाल से हर बच्‍चे को वैसा समय मिलना जरूरी है। अगर दुनिया में हर बच्‍चे को हम वैसा समय दे सकें तो हम एक सुनहरी दुनिया बना सकते है।
     
उन दिनों एक भी क्षण खाली न जाता। कभी कुछ हो रहा है तो कभी कुछ, फुर्सत ही न रहती। इतनी बातें, इतनी घटनाएं जो कि मैंने कभी किसी को कहीं नहीं.....
      मैं झील में तैरता था। स्‍वभावत: मेरे नाना को डर लगा रहता था। उन्‍होंने मेरी सुरक्षा के लिए एक अद्भुत आदमी को नाव में तैनात किया। उस पुराने गांव में तुम सोच भी नहीं सकते कि नाव का क्‍या मतलब है। उसे डोंगी कहते है। यह और कुछ नहीं एक पेड़ का खोखला तना होता है। यह सामान्‍य नाव जैसी नहीं होती, गोल होती है, और खतरा है, जब तक तुम कुशल न होओ तब तक उसे चला नहीं सकते। थोड़ा सा भी संतुलन बिगड़ा और तुम हमेशा के लिए गए।
      डोंगी को खेकर ही मैने संतुलन सीखा। उससे ज्‍यादा सहायक और कुछ नहीं हो सकता है। मैंने मध्यमार्ग सीखा, क्‍योंकि तुम्‍हें ठीक मध्य में होना होता है। जरा सा भी इधर-अधर और तुम गए। तुम्‍हें श्‍वास भी नहीं ले सकते, और तुम्‍हें बिलकुल चुपचाप बैठना पड़ता है, केवल तभी तुम डोंगी खै सकते हो। जो आदमी मेरी रक्षा के लिए तैनात किया गया था उसे मैंने ‘अद्भुत’ कहा है।

क्‍योंकि उसका नाम भूरा था। और इसका अर्थ है गोरा आदमी। हमारे गांव में सिर्फ वही एक गोरा आदमी था। यह यूरोपियन नहीं था। सिर्फ संयोग से यह भारतीय जैसा नहीं दिखता था। शायद उसकी मां ब्रिटिश फौज की किसी छावनी में काम करती थी और गर्भवती हो गई थी। वह अच्‍छे ड़ील-ड़ोल का आदमी था। वह बचपन से ही मेरे नाना से पास काम करने लगा था। वह यदपि नौकर था, फिर भी उसे परिवार के सदस्‍य जैसा ही व्‍यवहार मिलता था।
     

मैंने उसे अदभुत इसलिए भी कहा, क्‍योंकि यद्यपि मैंने दुनिया में अनेक लोग देखे है, फिर भी भूरा जैसा कोई नहीं देखा। वह आदमी था जिस पर तुम भरोसा कर सकते हो, उससे कुछ भी कहा जा सकता है और वो गोपनीय रखेगा। इस बात का पता मेरे परिवार को तब चला जब मेरे नाना की मृत्‍यु हुई।

मेरे नाना ने घर की चाबियॉं, घर के सब काम काज जमीन की देख भाल भूर को सौंपी हुई थी। जैसे ही हम गाड़रवारा पहुंचे मेरे परिवार के लोगो ने मेरे नान के स्‍वामीभक्‍त नौकर से पूछा: ‘चाबियां कहां है।’
      उसने कहा: ‘मेरे मालिक ने मुझसे कहा था। मेरे सिवाय कभी किसी को ये चाबियां मत देना। माफ़ करें, पर जब तक वह स्‍वयं मुझसे न कहे तब तक मैं    चाबियां आपको नहीं दे सकता।
     


और चाबियां उसने कभी नहीं दी। इसलिए हम नहीं जानते कि चाबियां कहां छुपी थी।
     


बहुत वर्षो बाद, जब मैं बंबई में रह रहा था। तो भूरा का बेटा मेरे पास आया और चाबियां मुझे दी और कहा: ‘हम लोग आपके आने का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई नहीं आया। हमने जमीन की और फसल की अच्‍छी तरह से देखभाल की और उसके सारे पैसे भी अलग रखे है।‘
      मैंने चाबियां उसको वापस कर दी और कहा: ’अब सब कुछ तुम्‍हारा है
     


वाह, क्‍या आदमी था, भूरा। लेकिन वैसे लोग कभी इस जमीन पर होते थे। वे धीरे-धीरे लुप्‍त होते जा रहे है। और ऐसे लोगो की जगह सब तरह के चालबाज और धूर्त लोग लेते जा रहे है। भूरा जैसे लोग ही इस पृथ्‍वी का नमक है। मैं भूरा को अदभुत आदमी इसलिए कहता हूं क्‍योंकि इस चालाक दुनिया में सीधा होना अदभुत है। सीधा होना, इस दुनिया का नहीं, बल्कि अजनबी होना है।
      मेरे नाना के पास इतनी जमीन थी कि कोई सोच भी नहीं सकता है। क्‍योंकि उन दिनों भारत के उस भाग में जमीन बिलकुल मुफ्त था। तुमको बस राजधानी के सरकारी दफ्तर में जाकर जमीन लेने के लिए कहना होता था, उतना काफी था। हमारे पास चौदह सौ एकड़ जमीन पर खेती थी जिसकी देख भाल भूरा करता था।
      जब मेरे नाना मरणासन्‍न थे तो हम लोग उनको कुच वाड़ा से गाड़रवाड़ा ले गए, क्‍योंकि कुचवाड़ा में इलाज की कोई सुविधा नहीं थी। मेरे नाना का मकान ही एक मात्र मकान था उस गांव में। जब कुचवाड़ा छोड़ा तो भूरा ने चाबियां अपने बेटे को दे दी थी। गाडरवाड़ा जाते-जाते मेरे नाना की मृत्‍यु हो गई। और इस सदमे के कारण दूसरे दिन सुबह भूरा नींद से उठा ही नहीं, वह रात को ही मर गया। मेरी नानी और मेरे माता-पिता वापस कुच वाड़ा जाकर दुःखी नहीं होना चाहते थे।
      भूरा का बेटा लगभग मेरी अम्र का है। अभी कुछ साल पहले मेरा भाई निकलंक और चैतन्‍य भारती उस घर के और तालाब के फोटो लेने वहां गए थे। जिस घर में मैं जन्‍मा था उस घर के लिए अब वे दस लाख रूपये मांग रहे है, यह सोच कर कि शायद मेरा कोई शिष्‍य खरीदने में इच्‍छुक हो। दस लाख, और तुम्‍हें पता है, जब मेरे नाना की मृत्‍यु हुई तब उसकी कितनी कीमत थी कुल तीस रूपये, वो भी बहुत ज्‍यादा ही थे। आश्‍चर्य है उतना भी हमें कोई देने को तैयार होता।
       मनुष्‍य को केवल अपने बैंक-बैलेंस की ही चिंता नहीं करनी चाहिए। वह तो बहुत ही क्षुद्र बात है। उसका अर्थ है कि मनुष्‍य मर गया है। उसे गाड़  दो उत्‍सव मनाओ, उसे जला दो, बैंक- बैलेंस ही मनुष्‍य नहीं है, मनुष्‍य को पहाड़ियों, चट्टानों, नदियों और फूलों की भाति होना चाहिए।
      मेरे नाना ने यह जानने में ही मेरी सहायता नहीं की कि सरलता क्‍या है, जीवन क्‍या हैं, वरन उन्‍होंने मृत्‍यु को जानने में भी मेरी सहायता की। उसकी मृत्‍यु मेरी गोद में हुई।


उसके बार में कभी बाद में।

             

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