गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-04


सत्र—4    खजुराहो  

मैं तुमसे उस उस समय कि बात कर रहा था जब ज्‍योतिषी से मिला जो अब संन्‍यासी हो गया था। उस समय  मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ था। मेरे नाना अब नहीं रहे थे। उस वृद्ध भिक्षु, भूतपूर्व‍ ज्‍योतिषी ने मुझसे पूछा, ‘मैं धंधे से ज्‍योतिषी हूं, लेकिन शौक से मैं हाथ, पैर और माथे की रेखाएं इत्‍यादि‍ भी पढ़ता हुं। तुम यह कैसे बता सके कि मैं संन्‍यासी बनुगां, पहले मैंने सन्‍यास के बारे में सोचा भी नहीं था। तुम्‍हीं ने इसका बीज मेरे भीतर डाला और तब से मैं केवल संन्‍यास के बारे में ही सोचता हूं। तुमने ये कैसे किया।’

      मैंने अपने कंधे बिचकाए। आज भी यदि कोई मुझसे पूछे कि मैं कैसे करता हूं, तो मैं सिर्फ कंधे बिचका सकता हूं। क्‍योंकि मैं कुछ करता नहीं, कोई प्रयास नहीं करता। में तो बस जो हो रहा है उसे होने देता हूं। सिर्फ चीजों से आगे-आगे रहने की कला सीखने की जरूरत है, ताकि सब लोग समझें कि तुम उन्‍हें कर रहे हो। अन्‍यथा कोई कुछ कर नहीं रहा है, विशेषकर उस दुनिया में जिससे मेरा संबंध है।

      उस बूढ़े ज्‍योतिषी से मैंने कहा: ‘मैंने बस तुम्‍हारी आंखों में झाँका और इतना पवित्रता देखी कि मुझे विश्‍वास ही नहीं हुआ कि तुम अभी तक संन्‍यासी नहीं हुए हो। अब तक तो तुम्‍हें हो जाना चाहिए था। पहले ही बहुत देर हो चुकी थी।’
      एक अर्थों में संन्‍यास के लिए हमेशा बहुत देर हो जाती है और दूसरे अर्थों में संन्‍यास हमेशा समय से पहले होता है। और दोनों बातें एक साथ सच है।
      अब बूढ़े आदमी की बारी थी अपने कंधे बिचकाने की। उसने कहा: ‘तुम मुझे उलझन में डाल रहे हो। मेरी आंखें कैसे तुम्‍हें बता सकती थी।’
      मैंने कहा: ‘अगर आंखें नहीं बता सकती तो फिर किसी ज्‍योतिष की कोई संभावना नहीं रह जाती।’
      निश्चित ही, ज्‍योतिष शब्‍द का आंखों से संबंध नहीं है, उसका संबंध तारों से हे, लेकिन क्‍या अंधा आदमी तारे देख सकता है, नहीं तो तारे देखने के लिए आंखे चाहिए।
      मैंने उस वृद्ध व्‍यक्ति से कहा: ‘ज्‍योतिष तारों का विज्ञान नही है, वरन देखने का विज्ञान है। तारों को दिन के भरपूर प्रकाश में भी देखने का विज्ञान है।’
      आज ही मुझे एक नई पुस्‍तक का अनुवाद मिला जिसे वे जर्मनी में प्रकाशित कर रहे है। मैं जर्मन नहीं जानता, इसलिए किसी को उस अंश का अनुवाद करना पडा जिसका मुझसे संबंध है। मैं इतना किसी भी  चुटकुले पर कभी नहीं हंसा। और यह मजाक नहीं है, यह बहुत गंभीर पुस्‍तक है।
      लेखक ले पचपन पृष्‍ठों में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मैं केवल इल्‍युमिनेदेड़ हुं, एनलाइटेंड नहीं हूं। वाह, बहुत खूब, सिर्फ इल्‍युमिनटेड, एनलाइटेंड नहीं। और तुम्‍हें यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि कुछ ही दिन पहले इसी श्रेणी के एक और मूढ़, एक डच प्रोफेसर की पुस्‍तक मुझे मिली थी। डच जर्मन से कोई विशेष अलग नहीं है, वे एक ही श्रेणी के लोग है।
मैं सिर्फ एनलाइटेंड हूं, इल्‍युमिलटेड नहीं, अब इन दोनों मूढ़ों को मिलना चाहिए और कुश्‍ती लड़नी चाहिए और अपनी किताबों और अपने तर्कों से एक-दूसरे को मारना चाहिए।
      जहां तक मेरा सवाल है, मुझे हमेशा के लिए और अंतिम रूप से दुनिया से कह देना है: न तो मैं इल्‍युमिनेटेड हुं और न ही एनलाइटेंड हूं। मैं तो बस एक बहुत साधारण और बहुत सरल व्‍यक्ति हूं—बिना किसी विशेषण के और बिना किसी डिग्री के। मैने अपने सब सर्टिफ़िकेटों को जला दिया है।
      मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं कि तुम मुझे एनलाइटेंड मानते हो या नहीं। इससे क्‍या फर्क पड़ता है। लेकिन यह आदमी इतनी चिंतित है कि इसकी छोटी सी पुस्‍तक में पचास पृष्‍ठ केवल इस बात के लिए बर्बाद कर दिये कि मैं एनलाइटेंड हूं या नहीं। इससे एक बात तो पक्‍की सिद्ध होती हे यह प्रथम श्रेणी का मूढ़ है।
      मैं बस हूं, मुझे क्‍यों एनलाइटेंड या इल्युमिनटेड होना चाहिए, क्‍या विद्वता है इसमें, क्‍या इल्‍युमिनेशन एनलाइटेनमेंट से भिन्‍न है। शायद बिजली की रोशनी हो तो तुम एनलाइटेंड होते हो और जब केवल मोमबत्‍ती की रोशनी होतो तुम सिर्फ इल्युमिनटेड होते हो।     
      मैं दोनो नहीं हूं। मैं तो स्‍वयं प्रकाश हूं—न एनलाइटेंड़ हूं, न इल्‍युमिनेटेंड हूं। इन शब्‍दों को मैने बहुत पीछे छोड़ दिया है। मैं उन्‍हें बहुत दूर उस रास्‍ते पा अभी भी उड़ती धूल की तर देख सकता हूं। जिस रास्‍ते पर मैं फिर कभी नहीं जाऊँगा। ये रेत पर छूट गए पद चिन्‍ह हैं।
      मेरे नाना अचानक बीमार पड़ गए। अभी उनकी मृत्‍यु का समय नहीं था। वे पचास से अधिक उम्र के न थे, पचास से भी कम थे। शायद अभी मेरी जो उम्र है उससे भी कम। मेरी नानी सिर्फ पचास साल की थी, उसका सौंदर्य निखार पर था। तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि उनका जन्‍म तांत्रिकों के प्राचीनतम गढ़ खजुराहो में हुआ था। वे मुझसे हमेशा कहा करती थी। ‘’तुम जब थोड़े बड़े हो जाओ तो खजुराहो  जाना कभी ना भूलना। मैं नहीं सोचता कि कोई माता-पिता अपने बच्‍चे को ऐसी सलाह देंगे। लेकिन मेरी नानी अद्भुत थी, खजुराहो जाने के लिए मुझे फुसलाती रही।
      खजुराहो में मंदिरों में हजारों सुंदर मूर्तियां खुदी है—सब नग्न और संभोग रत। वही सैकड़ों मंदिर है। उनमें से अधिक तो खंडहर हो चूके है, लेकिन कुछ बच गए है, शायद क्‍योंकि लोग उन्‍हें भूल थे। महात्‍मा गांधी इन बचे हुए मंदिरों को भी मिटटी में दबा देना चाहते थे, क्‍योंकि ये मूर्तियां बहुत ही लुभावनी है। और फिर भी मेरी नानी मुझे खजुराहो जाने के लिए उत्‍साहित कर रही थी। वे स्‍वयं भी मूर्ति की भांति बहुत सुंदर थीं—हर प्रकार से यूनानी दिखाई देती थी।
      जब मुक्‍ता की बेटी सीमा मुझसे मिलने आई तो एक क्षण के लिए  तो मैं भरोसा न कर सका, क्‍योंकि मेरी नानी का रंगरूप और चेहरा बिलकुल वैसा था। सीमा यूरोपियन दिखाई नहीं देती। उसका रंग थोड़ा गहरा है और उसकी कद—काठी और चेहरा मेरी नानी जैसा है। मैने सोचा, दुःख है कि मेरी नानी मर चुकी है, नहीं तो मैं सीमा को उनसे मिलवाना चाहता। और क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि अस्‍सी साल की उम्र में भी वे बहुत सुंदर थी, जो कि असंभव ही है।
      जब मेरी नानी की मृत्‍यु हुई तो मैं बंबई से उन्‍हें देखने गया। मरने के बाद भी वे सुंदर थी। मैं विश्‍वास ही नहीं कर सका कि वे मर गई है। और अचानक खजुराहों की सारी मूर्तियां मेरे लिए जीवत हो गई। उनके मृत शरीर में मैने खजुराहो के समस्‍त दर्शन को देख लिया। उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने का यही एक मात्र तरीका था। कि मैं खजुराहो जाऊँ, अब खजुराहो पहले से भी अधिक सुंदर लगा, क्‍योंकि रह मूर्ति में, हर जगह मैं उनको देख सकता था।
      खजुराहो अनुपम है, अतुलनीय है, दुनिया में हजारों मंदिर हैं, लेकिन खजुराहो जैसा कोई भी नहीं है। मैं इस आश्रम में एक जिंदा खजुराहो बनाने की कोशिश कर रहा हूं। पत्‍थर की मूर्तियां नहीं वरन जीवित लोग, जिनमें प्रेम करने की क्षमता हो, जो सच में जीवित हो, इतने जीवित कि वे संक्रामक हों, कि सिर्फ उनको छूना काफी हो एक करंट, एक बिजली का शॉक अनुभव करने के लिए।
      मेरी नानी ने मुझे बहुत कुछ दिया—सबसे महत्‍वपूर्ण था उनका जोर देना कि मैं खजुराहो जरूर जाऊँ। उन दिनों खजुराहो को कोई जानता भी न था। लेकिन उन्‍होंने इतना जोर दिया कि मुझे जाना ही पडा। वे बहुत जिद्दी थी। शायद मैने भी यह गुण या तुम इसे अवगुण कह सकते हो—उन्‍हीं से पाया है।
      उनके जीवन के अंतिम बीस वर्षो में मैं पूरे भारत में घूम रहा था। हर बार जब भी मैं उस गांव से गुजरता, वे मुझसे कहती, ‘सुनो कभी भी चलती गाड़ी में चढ़ना मत और चलती गाड़ी से उतरना मत। दूसरी बात, यात्रा करते समय डिब्बे में किसी भी मुसाफिर से बहस मत करना। तीसरी बात, यात्रा करते समय सदा याद रखना कि मैं जिंदा हूं और तुम्‍हारे घर आने की प्रतीक्षा कर रही हूं। क्‍योंकि तुम सारे देश में घूमते फिर रहे हो जब कि मैं तुम्‍हारी फिक्र करने के लिए यहां प्रतीक्षा कर रही हूं। तुम्‍हें देखभाल की जरूरत है, और दूसरा कोई तुम्‍हारी इतनी अच्‍छी देखभाल नहीं कर सकता जितनी कि मैं।’
      पहली बार जब खजुराहो गया था तो नानी के बार-बार कहने पर ही गया था, लेकिन उसके बाद मैं सैकड़ों बार वहां गया हूं। दुनिया में और किसी जगह मैं इतनी बार नहीं गया था। कारण सीधा साफ है। वह अनुभव तुम कभी भी पूरा नहीं कर सकते, वह असीम है, वह पूरा हो ही नहीं सकता। जितना ज्‍यादा जानो और अधिक जानने की इच्‍छा होती है। पूरा हो ही नहीं सकता। एक-एक मंदिर के कण-कण में रहस्य है। एक-एक मंदिर को बनाने में हजारों कलाकार और सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। और खजुराहो के अलावा मैंने कुछ भी नहीं देखा जिसे कि परिपूर्ण कहा जा सके—ताजमहल भी नहीं। ताजमहल में भी कुछ कमियाँ है, लेकिन खजुराहो में कोई कमी नहीं है। और फिर ताजमहल सिर्फ एक सुंदर कलाकृति है, लेकिन खजुराहो नये मनुष्‍य का पूरा दर्शन और मनोविज्ञान है।
      जब मैंने उन ने किड़... मैं ‘न्‍यूड’ नहीं कह सकता, माफ करना। ‘न्‍यूड़’ अश्‍लील है। नकिड़ बिलकुल ही अलग बात है। शब्‍दकोश में शायद उनका एक ही अर्थ हो, लेकिन शब्‍दकोश सब कुछ नहीं है। अस्तित्‍व में और बहुत कुछ है। वे मूर्तियां नेकिड़ है पर न्‍यूड नहीं। ....शायद कभी मनुष्‍य उसको उपलब्‍ध कर सकेगा। यह एक स्‍वप्‍न है, खजुराहो एक स्‍वप्‍न है। और महात्‍मा गांधी उसे मिट्टी से दबा देना चाहते थे। ताकि कोई भी उन सुंदर मूर्तियों से मोहित न हो सके। हम रवींद्रनाथ टैगोर के आभारी है जिन्‍होंने गांधी को ऐसा करने से रोका। उन्‍होने कहा: ‘मंदिर जैसे है उन्‍हें वैसा ही रहने दो।’ वे कवि थे और वे उनके रहस्‍य को समझ सकते थे।
      असल में, तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा—तुम्‍हें मालूम है कि मैं कितना खतरनाक हूं—जिस पहरेदार को मैने रिश्‍वत दी, वह मेरा संन्‍यासी बन गया। अब किसने किसको रिस्‍वत दी। पहले मैने उसको रिश्‍वत दी यह कहने के लिए कि मैं भीतर नहीं हूं। फिर धारे-धीरे वह मुझसे और-और उत्‍सुक होने लगा। उसने मेरी दी हुई सारी रिश्‍वत वापस कर दी। वही शायद एक ऐसा आदमी है जिसने ली हुई सारी रिश्‍वत वापस कर दी। संन्‍यासी बनने के बाद वह उसे न रख सका।
      खजुराहो—इस नाम से ही मुझमें आनंद की घंटियों बजने लगती है, जैसे कि वह स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर उतारा हो। पूर्णिमा की रात में खजुराहो को देखना ऐसे है जैसे, जो भी देखने योग्‍य है, सब देख लिया हो।
      उस समय कि स्थिति का जब हम आने नाना को ले कर जा रहे थे करना चाहिए.....
      हम लोग बैलगाड़ी में अपने नाना के गांव से पिताजी के गांव जा रहे थे। क्‍योंकि एकमात्र अस्‍पताल वहीं था। मेरे नाना बहुत बीमार थे; बीमार ही नहीं बेहोश भी थे, करीब-करीब कोमा में थे। उनके अतिरिक्‍त केवल मैं  और नानी बैलगाड़ी में थे। मेरे प्रति नानी की करूणा; को मैं समझ सकता हूं। वे अपने प्रिय पति की मृत्‍यु पर रोई भी नहीं, सिर्फ मेरे कारण; क्‍योंकि मैं ही अकेला वहां था। और मुझे सांत्‍वना देने के लिए कोई भी वहां नहीं था। मैंने कहा, ‘चिंता मत करो। यदि तुम बिना आंसुओं के रह सकती हो तो मैं भी बिना आंसुओं के रह सकता हूं।’ और विश्‍वास करो या न करो, एक सात साल का बच्‍चा बिलकुल नहीं रोया। यहां तक कि उन्‍हें भी आश्‍चर्य हुआ। उन्‍होंने कहा, ‘तुम रो नहीं रहे।’ मैने कहा, मैं तुम्‍हें दिलासा नहीं देना चाहता।
      उस बैल गाड़ी में अदभुत लोग इकट्ठे थे। भूरा, जिसका मैंने सुबह जिक्र किया, गाड़ी चला रहा था। वह जानता था कि उसके मालिक की मृत्‍यु हो गई है, लेकिन फिर भी उसने गाड़ी के भीतर नहीं देखा, क्‍योंकि वह सिर्फ नौकर था और मालिक के व्‍यक्तिगत मामलों में दखल देना उचि‍त न था। यही उसने मुझसे कहा, ‘मृत्‍यु निजी मामला है, मैं किसे देख सकता हूं, गाड़ी चलाते हुए अपनी जगह से मैने सब सुना। मैं रोना चाहता था। मैं उनसे बहुत प्रेम करता था। मैं अनाथ जैसा अनुभव कर रहा हूं। लेकिन मैं गाड़ी में पीछे मुड़ कर नहीं देख सकता था। अन्‍यथा वे मुझे कभी क्षमा नहीं न करते।‘
      अनूठे लोग—और नाना मेरी गोद में थे। मैं सात साल का बालक मृत्‍यु के साथ था—कुछ सेकेंड के लिए नहीं लगातार चौबीस घंटे तक। वहां सड़क नहीं थी, और मेरे पिता के गांव तक पहुंचा मुश्किल था। चौबीस घंटे हम मृत शरीर के साथ रहे। सच मेरी नानी लोहे की बनी सच्‍ची स्‍त्री थी।
      जब पिता के गांव पहुंचे वो मेरे पिताजी ने डाक्‍टर को बुलवाया। और क्‍या तुम कल्‍पना कर सकते हो कि मेरी नानी हंसी, उन्‍होंने कहां; ‘तुम पढ़े लिखे लोग सब मूर्ख हो। वे मर चूक हैं, अब उन्‍हें किसी डाक्‍टर की जरूरत नहीं है। पहले ही देर हो चुकी है जितनी जल्‍दी हो सके उतनी जल्‍दी इनका दाह-संस्‍कार करों।’
       ये शब्‍द सुन कर सब स्‍तब्‍ध रह गए सिवाय मेरे, क्‍योंकि मैं उन्‍हें जानता था। वे चाहती थी कि मृत-शरीर मूल तत्‍वों में विलीन हो जाए। तुम समझ सकते हो।
      जब उन्‍होंने कहा कि वे वापस उस गांव में रहने नहीं जा रहीं, तो उसका यह अर्थ भी था कि अब मैं उनसे मिलने वहां फिर नहीं जा सकता था। लेकिन वे मेरे पिता के परिवार के साथ भी नहीं रहीं। वे अलग थीं। जब मैंने अपने पिता के गांव में रहना शुरू किया तो मैं उस गांव में बहुत हिसाब से रहा, सार दिन अपने पिता के घर उनके परिवार के साथ बिताता और सारी रात मेरी नानी के साथ रहता। वे अकेली एक सुंदर बंगले में रहती थीं। वह छोटा सा घर था, लेकिन बहुत सुंदर था।
      मेरी मां मुझसे पूछती: ‘तुम रात को घर पर क्‍यों नहीं रहते।’
      मैंने कहा: ‘यह असंभव है। मुझे नानी के पास ही जाना है, विशेषकर रात को, जब बिना नाना के वे बहुत अकेलापन महसूस करती है। दिन में तो ठीक है, वे काम-काज में व्‍यस्‍त रहती है और बहुत से लोग आस-पास होते है, लेकिन रात को अगर मैं वहां न होऊं तो अकेले कमरे में वे शायद रोना शुरू कर दें। मुझे वहां जाना ही है। मैं हमेशा वहां रहा, हर रात, बिना किसी अपवाद के।’
      दिन में मैं स्‍कूल में रहता। केवल सुबह और दोपहर को मैं कुछ घंटे अपने परिवार के साथ बिताता—मेरे माता-पिता, मेरे चाचा। वह बड़ा परिवार था और वह मेरे लिए अजनबी ही रहा, वह कभी भी मेरा अंग न बना।
      मेरी नानी मेरा परिवार थी। और वे मुझे समझती थीं, क्‍योंकि मेरे बचपन से ही उन्‍होंने मुझे बढते देखा था। और कोई मुझे उतना नहीं जानता था जितना वे जानती थी, क्‍योंकि उन्‍होंने मुझे सब कुछ करने दिया....सब कुछ।
      भारत में जब दीवाली आती है तो लोग जुआ खेल सकते है। यह अजीब रिवाज है: तीन दिन के लिए जुआ खेलना गैर-कानूनी नहीं है। उसके बाद तुम पकड़े जा सकते हो और सज़ा हो सकती है। मैंने अपनी नानी से कहा: ‘मैं जुआ खेलना चाहता हूं।’
      उन्‍होंने मुझसे पूछा: ‘कितने रूपये चाहिए तुम्‍हें।’
      मैं भी अपने कानों पर विश्‍वास न कर सका। मैंने सोचा था कि वे कहेगी कि जुआ कभी नहीं खेलना। लेकिन उन्‍होंने कहा, ‘अच्‍छा तो तुम जुआ खेलना चाहते हो, फिर उन्‍होंने मुझे सौ रूपये का नोट दिया और मुझसे कहा जाओ जहां खेलना हो खेलो।’
      इस प्रकार से उन्‍होंने मेरी बहुत सहायता की है।
      एक बार मैं एक वेश्‍या के पास जाना चाहता था। मैं सिर्फ पंद्रह वर्ष का था और मैंने सुना कि गांव में एक वेश्‍या आई है। मेरी नानी ने मुझसे पूछा: ‘तुम वेश्‍या का मतलब समझते हो, मैंने कहा: मैं एक दम ठीक-ठीक तो नहीं समझता हुं।’ तुम्‍हें जाकर देखना चाहिए, लेकिन पहले सिर्फ नाचते और गाते देखने के लिए जाओ।‘
      भारत में वेश्‍याएं पहले नाचती और गाती है। लेकिन वह स्‍त्री इतनी कुरूप थी और उसका नाचना-गाना इतना भद्दा था कि मुझे उल्‍टी हो गई। नाचना-गाना खत्‍म हो और वेश्या वृति शुरू हो, उसके पहले ही बीच में ही मैं घर आ गया। मेरी नानी ने पूछा, ‘तुम इतनी जल्‍दी घर आ क्‍यों आ गए।’
      मैंने कहा: ‘मुझे उलटी आ रही थी।’
      बाद में जब ज्याँ पाल सार्त्र की पुस्‍तक नॉसिया पढ़ी, तब मेरी समझ में आया कि उस रात मुझे क्‍या हुआ था।
      लेकिन मेरी नानी ने मुझे वेश्‍या के पास जाने दिया। मुझे याद नहीं आता कि उन्‍होंने कभी मुझे न कहा हो। मैं सिगरेट पीना चाहता था। उन्‍होंने कहा: ‘एक बात याद रखना सिगरेट पीना ठीक है, लेकिन हमेशा अपने घर में ही पीना।’
      मैंने पूछा: ’क्‍यों।’
      उन्‍होंने कहा: ‘दूसरों को शायद आपती हो। इसलिए तुम घर में पी सकते हो। मैं तुम्‍हें सिगरेट लाकर दूंगी। और वे तब तक मुझे सिगरेट लाकर देती रही जब तक मैने नहीं कहां।’
     ‘बस, मुझे और नहीं चाहिए।‘
      मुझे स्‍वयं अनुभव प्राप्‍त हो, इसके लिए मेरी नानी किसी हद तक जाने को तैयार थी।
      जानने का रास्‍ता है: स्‍वयं अनुभव करना। बताने से कोई लाभ नहीं। यहीं माता-पिता से चिढ़ पैदा होती है: वे सदा तुम्‍हें बताते रहते है। बच्‍चा परमात्‍मा का पुनर्जन्‍म है। उसका आदर होना चाहिए और उसको बढ़ने और होने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए—तुम्‍हारे हिसाब से नहीं, बल्कि उसकी अपनी क्षमताओं और संभावनाओं के अनुसार।    

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