बुधवार, 27 दिसंबर 2017

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-10



तीर्थ—10 ( कैलाश अलौकिक निवास है)

      दो तीन बातें सिर्फ उल्‍लेख कर दूँ जो घटित होती है। जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस पास किन्‍हीं आत्‍माओं की उपस्थिति का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी—थोड़ी बहुत जोर से होगा। बहुत गहरा होगा। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्‍वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्‍यादा है।
      जैसे कि कैलास—कैलास हिंदुओं का भी तीर्थ रहा है और तिब्‍बती बौद्धों का भी। पर कैलास बिलकुल निर्जन है, वहां कोई  आवास नहीं है। कोई पुजारी नहीं है। कोर्इ पंडा नहीं है। कोई प्रगट आवास नहीं है कैलास पर। लेकिन जो भी कैलास पर जाकर ध्‍यान का प्रयोग करेगा वह कैलाश को पूरी तरह बसा हुआ पाएगा। जेसे ही कैलाश पर पहुँचेगा अगर थोड़ी भी ध्यान की क्षमता है तो कैलाश से कभी वह खबर लेकर लौटे गा कि वह निर्जन है। इतना सधन बसा है, इतने लोग है और इतने अदभुत लोग है। ऐसे कोई बिना ध्‍यान के कैलाश जाएगा, तो कैलाश खाली हे।

      चाँद के संबंध में जो लोग और तरह से खोज करते है, उनका ख्‍याल नहीं है कि चाँद निर्जन हे। और जिन्‍होंने कैलाश का अनुभव किया है वह कभी नहीं मानेंगे कि चाँद निर्जन है। लेकिन आपके यात्री को चाँद पर कोई मिलेगा! जरूरी नहीं है इससे कि कोई न हो, पर आपके यात्री को कोई नहीं मिलेगा। जैनों के ग्रंथों में बहुत वर्णन है कि चाँद पर किस-किस तरह के देवता है, कि क्‍या है, पर अब वे बड़ी मुश्‍किल में पड़ गए है। जब पाया गया कि वहां कोई नहीं है। उनके साधु-संन्‍यासी बड़ी मुश्‍किल में है। वे बेचारे एक ही उपास कर सकते है, उन्‍हें कूद और तो पता नहीं है, वह यह कह सकते है कि तुम असली चाँद पर पहुंचे ही नहीं। वह इसके सिवाय और क्‍या कहेंगे। अभी गुजरात में कोई मुझे कह रहा था कि कोई जैन मुनि पैसा इकट्ठा कर रहे है यह सिद्ध करने के लिए कि तुम असली चाँद पर नहीं पहुंचे। ये वे कभी सिद्ध न कर पाएंगे।
      आदमी असली चांद पर पहुंच गया है। लेकिन उनकी कठिनाई है कि उनकी किताब में लिखा है कि वहां आवास है, वहां इस-इस तरह के देवता रहते है। उनकी किताब में लिखा है, उनको खुद को तो कुछ पता नहीं। किताब तो आवास का कहती है। और अब वैज्ञानिक की रिपोर्ट है कि वहां कोई भी नहीं है। अब क्‍या करना है। तो साधारण बुद्धि जो कर सकती,वह यह है, कि वे लोग चाँद पर नहीं पहुँचे। क्‍योंकि अगर नहीं सिद्ध कर पाए तो ये मानना पड़ेगा कि हमारा शास्‍त्र गलत हुआ। तो वे जिद बाँध रखेंगे कि नहीं, तुम उस जगह नहीं पहुंचे।
      एक जैन मुनि ने तो दावे से यह कहां कि कोई वहां पहुंचा ही नहीं। अब इनकार भी नहीं कर सकते, पहुंचे तो जरूर है, तो फिर कहां पहुंच गए है। कभी-कभी तो हास्यास्पद, रिडीकुलस हो जाती है बात। उन्‍होने कहा, कि वहां देवताओं के जो विमान ठहरे रहते है चारों तरफ, आप किसी विमान पर उतर गए। वह बड़े विराट विमान है। उसी पर उतर कर आप लौट आए है। आप ठीक चाँद की भूमि पर नहीं उतर सके। यह सब पागलपन है, लेकिन इस पागलपन के पीछे कुछ कारण है। यह कारण यह है कि एक धारा है, कोई अंदाजन बीस हजार वर्ष से जैनों की धारा है कि चाँद पर आवास है। पर वह उनके ख्‍याल में नहीं कह वह आवास किस तरह का है। वह आवास कैलास जैसा आवास है। वह आवास तीर्थों जैसा आवास है।
      जब आप तीर्थ पर जाएंगे तो एक तीर्थ वह काशी है जो दिखाई पड़ती है। जहां आप ट्रेन पर से उतर जाएँगे स्‍टेशन से एक तो काशी वह है। काशी के दो रूप है। तीर्थ के दो रूप है। एक तो मृण्‍मय रूप है। यह जो दिखाई पड़ रहा है। जहां कोई भी जाएगा सैलानी और घूमकर लौट आएगा। और एक उसका चिन्‍मय रूप है। जहां वहीं पहुंच जाएगाजो अंतरस्‍थ होगा, जो ध्‍यान में प्रवेश करेगा, तो उसके लिए काशी बिलकुल और हो जाएगी। इधर काशी के सौंदर्य का इतना वर्णन है, और इस काशी को देखो तो फिर लगता है कि वह कवि की कल्‍पना है। इससे ज्यादा गंदी कोई वसती नहीं है। यह काशी जिसको हम देखकर आ रहे है। पर किस काशी की बातें कर रहे हो तुम। किस काशी की बात हो रही है। किस काशी के सौंदर्य की जो अपूर्व है। जैसा कोई नगर नहीं आया है इस जगत में । यह सब तुम किसकी बात कर रहे हो, यही काशी अगर है, तब फिर यह सब कवि कल्‍पना हो गई। नहीं, पर वह काशी भी है। नहीं, पर वह काशी भी है। और एक कान्‍टेक्‍ट फील्ड है यह काशी, यहां उस काशी और इस काशी का मिलन होता है।
      जो यात्री सिर्फ ट्रेन में बैठकर गया है, वह इस काशी से वापस लौटकर आ जाएगा। वह जो ध्‍यान में भी बैठकर गया है वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलना हो जाता है जिनसे मिलने की आपको कभी कल्‍पना नहीं होती।
      मैंने अभी बताया,कैलास पर अलौकिक निवास है। करीब-करीब नियमित रूप से। नियम कैलाश का रह है कि कम से कम पाँच सौ बौद्ध-बौद्ध वहां रहे ही, उससे कम नहीं। पाँच सौ बुद्धत्‍व को प्राप्‍त व्‍यक्‍ति कैलाश पर रहेंगे ही। और जब भी एक उनमें से विदा होगा किसी और यात्रा पर, तो दूसरा जब तक न हो तब तक वह विदा नहीं हो सकता। पाँच सौ की संख्‍या वहां पूरी रहेगी। उन पाँच सौ की मौजूदगी कैलाश को तीर्थ बनाती है। लेकिन यह बुद्धि से समझने की बात नहीं हे। इसलिए मैंने पीछे छोड़ रखी। काशी का भी नियमित आंकड़ा है कि उतने संत वहां रहेंगे ही। उनमें कभी कमी नहीं होगी। उनमें से एक को विदा तभी मिलेगी जब दूसरा उस जगह स्‍थापित हो जाएगा।
      असली तीर्थ वहीं है। और उनसे जब मिलन होता है तो तीर्थ में प्रवेश करते है। पर उनके मिलन का कोई भौतिक स्‍थल भी चाहिए। आप उनको कहां खोजते फिरेंगे। उस अशरीरी घटना को आप ने खोज सकेंगे, इसलिए भौतिक स्‍थल चाहिए। जहां बैठकर आप ध्‍यान कर सकें और उस अंतर् जगत में प्रवेश कर सकें, जहां संबंध सुनिश्‍चित है।
      तीर्थ बुद्धि से ख्‍याल में नहीं आएगा। बुद्धि से कोई संबंध नहीं है तीर्थ का। ठीक तीर्थ का अर्थ जो दिखाई पड़ जाता है वह नहीं है—छिपा है, उसी स्‍थान पर छिपा है। दूसरी बात, इस जमीन पर जब भी कोई व्‍यक्‍ति परम ज्ञान  को उपलब्‍ध होकर विदा होता है। तो उसकी करूणा उसे कुछ चिन्‍ह छोड़ देने को कहती है। क्‍योंकि जिनको उसने रास्‍ता बताया। जो उसकी बात मानकर चले, जिन्‍होंने संघर्ष किया, जिन्‍होंने श्रम उठाया, उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जो अभी नहीं पहुंच पाए। उनके पास कुछ संकेत तो चाहिए,जिनसे कभी भी जरूरत पड़ने पर वह संपर्क पुन; साध सकें।
      इस जगत में कोई आत्‍मा कभी खोती नहीं। पर शरीर तो खो जाता है। तो उन आत्‍माओं के संपर्क साधने के लिए सूत्र चाहिए। उन सूत्रों के लिए तीर्थों ने ठीक वैसे ही काम किया जैसे कि आज हमारे राडार काम करते है। जहां तक आंखें नहीं पहुँचती वहां तक राडार पहुंच जाते है। जो आंखों से कभी देखें नहीं गए तारे, वह राडार देख लेते है। तीर्थ बिलकुल आध्‍यात्‍मिक राडार का इंतजाम है। जो हमसे छूट गए, जिनसे हम छूट गए, उनसे संबंध स्‍थापित किए जा सकते है।
      इसलिए प्रत्‍येक तीर्थ निर्मित किया गया उन लोगों के द्वारा,जो अपने पीछे कुछ लोग छोड़ है, जो अभी रास्‍ते पर है, जो पहुंच नहीं गए, और जो अभी भटक सकते है। और जिन्‍हें बार-बार जरूरत पड़ जाएगी कि वह कुछ पूछ लें कुछ जान लें। कुछ आवश्‍यक हो जाए। थोड़ी जानकारी उन्‍हें भटका दे सकती है। क्‍योंकि भविष्‍य उन्‍हें बिलकुल ज्ञात नहीं है। आगे का रास्‍ता उन्‍हें बिलकुल पता नहीं है। तो उन सबने सूत्र छोड़े है। और सुत्रों को छोड़ने के लिए विशेष तरह की व्‍यवस्‍थाएं की है—तीर्थ खड़े किए, मंदिर खड़े किए, मंत्र निर्मित किए। मूर्तियां बनायी सबका आयोजन किया। और सबका आयोजन एक सुनिश्‍चित प्रक्रिया है, जिसे हम रिचुअल कहते हे, वह एक सुनिश्‍चित प्रकिया है।
      अगर एक जंगली आदिवासी को हम ले आएं और वह आकर देखे कि जब भी प्रकाश करना होता है तो आप अपनी कुर्सी से उठते है, दस कदम चलकर बायी दीवार के पास पहुंचते वहां एक बटन को दबाते है। और बीजली जली जाती है। वह आदी वासी किसी भी तरह न सोच पाएगा कि इस बटन में ओ इस दीवार के भीतर इस बिजली के बल्‍ब से कोई तार जुड़ा है। उसके सोचने का कोई उपास नहीं है।
      उसे यह एक रिचुअल मालूम पड़ेगा। कि यह कोई तरकीब है यहां से उठना,ठीक जगह पर दीवार पर  जाना,फिर नंबर एक का बटन दबाना। नंबर दो का दबाते है तो पंखा घूमने लगता है। नंबर तीन का दबाते है रेडियों बोलने लग जाता है। उसे यह सब रिचुअल मालूम पड़ेगा। एक क्रिया कांड लगेगा। और समझ लें किसी दिन आप नहीं है घर में और बिजली चली गई है। वह आदमी उठा और उसने जाकर पूरा रिचुअल किया, लेकिन बिजली नहीं जली, पंखा नहीं जला,रेडियो नहीं चला। अब वह यही समझे गा कि रिचुअल में कोई भूल हो गई हे।
      अपने क्रिया कांड में कोई भूल हो रही है। शायद हमने ठीक कदम न उठाए। कौन से कदम से पहले सह आदमी गया था। पता नहीं, अंदर-अंदर कोई मंत्र भी पढ़ता हो मन में, और बटन दबाता हो। क्‍योंकि हमने बटन वही दबाया है और बिजली नहीं जल रही है। उस आदिवासी को तो बिजली के पूरे फैलाव का कोई अंदाजा नहीं हो सकता।
      करीब-करीब धर्म के संबंध में ऐसा ही है। जिनको भी हम धर्म के क्रिया-काँड़ कहते है, वह सब हमारे द्वारा पकड़े लिए गए ऊपरी कृत्य है। जो बिलकुल कुछ नहीं जानते व्‍यवस्‍था को, उनको हम पूरा भी कर लेते है, फिर पाते है, कुछ नहीं हो रहा है। या कभी हो जाता है, कभी नहीं होता, तो हम बड़ी मुश्‍किल में पड़ते है। कभी हो जाता है, इससे शक होता है कि शायद होता होगा। फिर कभी नहीं होता तो फिर यह शक होता है कि शायद संयोग से हो गया हो। क्‍योंकि अगर होना चाहिए तो हमेशा होना चाहिए।
      हमें भीतरी व्‍यवस्‍था का कोई भी पता नहीं है। जिस चीज को आप नहीं जानते उसको ऊपर से देखने पर वह रिचुअल मालूम पड़ेगी। ऐसा छोटी-मोटी आदमियों के साथ होता हो ऐसा नहीं, जिनको हम बहुत बुद्धिमान कहते है उनके साथ भी यहीं होगा। क्‍योंकि बुद्धि ही बचकानी चीज है। बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी एक अर्थ में जुवेनाइल है, बचकाना ही होता है। क्‍योंकि बुद्धि बहुत गहरे ले जाने वाली नहीं हे।
      जब पहली दफा ग्रामोफोन बना, और फ्रांस के साइंस एकेडमी में जिस वैज्ञानिक ने ग्रामोफोन बनाया वह लेकर गया। तो बड़ी ऐतिहासिक घटना घटी तीन सौ साल पहले। फ्रैंच एकेडमी के सारे बड़े से बड़े वैज्ञानिक सदस्‍य हाजिर थे। कोई सौ वैज्ञानिक घटना देखने आए थे। उस आदमी ने ग्रामोफोन का रिकार्ड चालू  किया, तो जो प्रैजिडेंट था फ्रैंच एकेडमी का, वह थोड़ी देर तो देखता रहा फिर उचक कर उसने उस आदमी की गर्दन पकड़ ली, जो ग्रामोफोन लाया था। क्‍योंकि उसने समझा कि यह कोई ट्रिक कर रहा है गले की, यह हो कैसे सकता है। यह गले में अंदर कोई हरकत कर रहा है। कोई तरकीब इसने लगाई है।
      यह ऐतिहासिक घटना बन गई। क्‍योंकि एक वैज्ञानिक से ऐसी आशा नहीं हो
सकती थी कि वह जाकर उसकी गर्दन पकड़ ले। वह आदमी तो घबराया,उसने कहा कि आप यह क्‍या करते है। उसने कहा देखो तुम मुझको धोखा न दे पाओगें। वह उसका गला दबाए रहा। लेकिन तब भी उसने देखा की आवाज आ रही है। तब तो वह बहुत घबराया । उस आदमी को कहा,तुम बाहर आओ। उसको बहार ले गया। लेकिन तब भी आवाज आ रही थी। वह सौ के सौ वैज्ञानिक सकते में आ गए, उनमें से एक ने खड़े होकर कहां कि यह कोई शैतानी ताकत हे। इसे छूना-ऊना मत इसमें कुछ न कुछ डेवल जरूर है। शैतान इसमें हाथ बंटा रहा है। यह हो कैसे सकता है? आज हमें हंसी आती है। क्‍योंकि अब हो गया...। इसका हमें परिचय है। जो नहीं होता तो भी हम वैसी परेशानी में पड़ जाते।
      अगर किसी दिन एटम गिरे दुनिया पर, यह सभ्‍यता हमारी खो जाए, और किसी आदिवासी के पास एक ग्रामों फोन बच जाए तो उसके गांव के लोग उसको मार डालें। अगर वह ग्रामोफोन बजा दे तो पूरा गांव उसकी जान को आ जाए। क्‍योंकि वह एक्स प्लेन तो कर नहीं पाएगा। यह बता तो नहीं पाएगा कि ये रेकार्ड कैसे बोल रहा है। यह तो आप भी नहीं बता पाओगें। यह बड़े मजे कि बात है। सब सभ्‍यताएं बिलीफ से जीती हे। केवल दो-चार आदमियों के पास कुंजियां होती है। बाकी तो भरोसा होता हे।
      आप भी न बता पाओगें कि यह कैसे बोल रहा है। सुन लेते है, मालूम है कि बोलता है, भर लिया जाता है। बाकी बता पाना बहुत मुश्‍किल है। और उसे बनाना तो लगभग असम्‍भव ही है। बटन दबा देते है। बिजली जल जाली है। रोज जला लेते है। पर आप भी न बता पाओगें कि कैसे जल गई। कुंजियां तो दो चार आदमियों के पास होती है सभ्‍यता की, बाकी सारे लोग तो काम चला लेते है। बस जो काम चलाने वाले है, जिस दिन कुंजियां खो जाए उसी दिन मुश्‍किल में पड़ जाएंगे। उसी दिन उसका आत्‍मविश्‍वास डगमगा जाएगा। उसी दिन वह घबरा नें लगेंगे। फिर अगर एक दफा बिजली न जली तो कठिन हो जाएगा।
--ओशो  ( मैं कहता हूं  आंखन देखी )

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