संसार में छह बड़े धर्म है। इनको दो वर्गों में बटा
जा सकता है। पहला वर्ग है: यहूदी, ईसार्इ, और इस्लाम धर्म है। ये एक ही जीवन में
विश्वास करते है। तुम सिर्फ जीवन और मृत्यु के बीच हो—जन्म और मृत्यु के पार
कुछ भी नहीं है—यह जीवन ही सब कुछ है। जब कि ये स्वर्ग, नरक और परमात्मा में
विश्वास करते है। फिर भी ये इनको एक ही जीवन का अर्जन मानते है। दूसरे वर्ग के
अंतर्गत हैं: हिंदू, जैन, और बौद्ध धर्म। वे पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास
करते है। आदमी को तब तक बार-बार जन्म होता है। जब ते कि वो बुद्धत्व,
एनलाइटेनमेंट, पाप्त नहीं कर लेता है, और तब यह चक्र रूक जाता है।
मरते समय मेरे नाना यही कह रहे थे, लेकिन उस
समय मैं इसके महत्व को, इसके अर्थ को नहीं जानता था। हालांकि मैंने मशीन की तरह
बारूदों को दोहराया, बिना यह समझे कि में क्या कह रहा हूं। या क्या कर रहा हूँ।
मैं नाना की चिंता को समझ सकता हूं—इसको तुम चरम या अंतिम चिंता भी कह सकते हो।
अगर यह रोग बन जाता है, जैसा कि पूर्व में हो गया है, तब यह एक सनक और मनो
ग्रस्तता है और तब इसकी मैं निंदा करता हूं। तब यह एक तरह का रोग है तब यह सराहनीय
नहीं बल्कि निंदनीय है।
किसी चीज की निंदा करनी हो तो उसे
मनोवैज्ञानिक रूप से सनक या मनोग्रस्त कहा जाएगा। इसलिए मैंने इस शबद का प्रयोग
किया है। पूर्व में हजारों वर्षों से लोग इस रोग से पीडित है। इसने ही उन्हें
धनवान, संपन्न और वैभवशाली होने से रोका है, क्योंकि उनकी एकमात्र चिंता यही थी
कि इस चक्र को कैसे रोका जाए। तब कौन इसको चालू हालत में, सफलतापूर्वक चलाए रखने
के लिए इसमें ग्रीस, तेल लगाएगा?
भारतीयों पर तो सदा यह सनक
सवार रहती है कि कैसे जन्म और मृत्यु के चक्र को रोका जाए। यह उनकी आत्मा का
रोग बन गया है। उनको चक्र हमेशा बैलगाड़ी की याद दिलाता है। उसको अगर वे रोकना
चाहते हों तो मैं उनसे बिलकुल सहमत हूं। लेकिन उनसे अच्छे पहिए भी है। उन्हें
रोकने की कोई जरूरत नहीं है। दुबारा जन्म न लेने का विचार सिर्फ यह बताता है कि
तुमने जीवन को अच्छी तरह नहीं जिया। तुम्हें भले ही यह बात विरोधाभासी लगे,
लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि जिसने जीवन को भरपूर जिया हो वहीं जीवन और मृत्यु के
चक्र को रोक सकता है और जो रोकना चाहते है वह वही लोग है जिन्होंने जीवन को जिया
ही नहीं। वे कुत्ते की मौत मरेंगे।
मैं कुत्तों के विरूद्ध नहीं हूं—कृपया इसे
नोट करो। मैं तो केवल एक कहावत को प्रयोग कर रहा हूं। और यह अर्थपूर्ण होगी क्योंकि
हिंदी और अंग्रेजी दोनों में यह कहावत एक जैसी है। सिर्फ यही एक कहावत है जो एक
जैसी है। एक जैसी ही नहीं बल्कि एक ही है। हिंदी में कहते है: ‘कुत्ते की मौत। और
अँग्रेजी में कहते है: ए डॉग्स डेथ। ’ये बिलकुल समान है। इसमें जरूर कोई रहस्य
है जिसे खोजने के लिए मुझे तुम लोगों को एक कहानी सुनानी पड़ेगी।
कहा जाता है कि जब परमात्मा ने यह दुनिया
बनाई...याद रखना कि यह केवल कहानी है....जब परमात्मा ने यह दुनिया बनाई—स्त्री,
पुरूष, पशु और पेड़ और सब—तो सबको उसने बीस वर्ष की आयु दी, बीस वर्ष। मुझे आश्चर्य
होता है कि बीस वर्ष ही क्यों?
शायद परमात्मा भी अपनी अंगुनियों पर ही गिनती करता है—और सिर्फ हाथ की ही नहीं
पैर की भी, सब मिला कर बीस होती है।
मैं अपनी खोज खुद करता हूं, तुमने भी कभी
अपने बाथ-टब में अपने हाथ और पैर की उंगलियों को साफ करते हुए उन्हें गिना होगा।
शायद किसी दिन परमात्मा ने भी गिना होगा और उसी समय उसे यह विचार आया होगा कि
सबको बीस वर्ष की आयु दे दो। वह कवि मालूम होता है। और वह साम्यवादी भी मालूम
होता है। अब अमरीकनों को यह सुन कर बहुत बुरा लगेगा। लगने दो, मुझे इसकी कोई परवाह
नहीं है। जब मैंने दुनिया में किसी और की परवाह नहीं की तो अमरीकनों की क्यों
करूं? और जीवन की इस अवस्था
में मैं पहले से कहीं अधिक उग्र और प्रचंड होना चाहता हूं।
मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि अगर जीसस को
कुछ दिन और प्रचार करने दिया जाता तो वे इतने उग्र और प्रखर न रहते और दुनिया की
थोड़ी समझ उनमें आ जाती। अखीर थे तो वे यहूदी, धीरे-धीरे समझ जाते और फिजूल की
बातें न करते....’प्रभु का राज्य’—और वे बारह मूर्ख, जिनको जीसस ने या उन्होंने
स्वंय मान लिया कि वे प्रमुख शिष्य है। जीसस ने जरूर उन्हें कोई संकेत किया
होगा, अन्यथा वह वे माह मूर्ख थे, स्वयं तो वे ऐसा सोच नहीं सकते थे।
जीसस की बातें इतनी उग्र, इतनी ठेस पहुंचाने
बाली थी कि उस समय का सबसे बड़ा क्रांतिकारी, जॉन दि बैपटिस्ट, जो कि जीसस का
गुरु भी था और जो कारागृह में बंद था, उसने अपनी कालकोठरी से भी जीसस को संदेश
भेजा था, ‘तुम्हारे वक्तव्यों को सुन कर मुझे संदेह होता है कि क्या तुम सचमुच
वही मसीहा हो जिसकी हम लोग प्रतीक्षा कर रहे थे? क्योंकि तुम्हारे वक्तव्य इतने उग्र और चौंका देने बाले है।’
अब इसको मैं प्रमाणीकरण कहता हूं। जॉन दि
बैपटिस्ट संसार के महान क्रांतिकारियों में से एक था। जीसस सिर्फ उसके अनेक शिष्यों
में से एक शिष्य थे। यह एक ऐतिहासिक दुर्घटना है कि जॉन दि बैपटिस्ट को तो लोग
भूल गए हैं और जीसस को आज भी याद किया जाता है।
जॉन दि बैपटिस्ट शुद्ध आग थे, आग। उनका सिर
काट दिया गया था। रानी ने आदेश दिया था कि उनका सिर एक प्लेट में रख कर उन्हें भेट
किया जाए, तभी उसे लगेगा कि देश चैन से रह पाएगा। और यही किया गया जान दि बैपटिस्ट
के सिर को काट कर, एक सुंदर सोने की प्लेट में रख कर रानी को भेंट किया गया। जॉन
दि बैपटिस्ट जैसा आदमी भी जीसस के उग्र वक्तव्यों को सुन कर चिंतित हो उठा था। और
मैं कहता हुं कि कभी-कभी उन्हें संपादित करने की भी आवश्यकता होती है। हां, यहां
ते कि मैं भी यह करता हूं। इसलिए नहीं कि वे उग्र या प्रखर थे, बल्कि इसलिए कि वे
मूखतापूर्ण होने लगते है। चौंका देने बाले हों तो बिलकुल ठीक, लेकिन मूर्खतापूर्ण,
नहीं बिलकुल नहीं।
जरा सोचों, जीसस का अंजीर के पेड़ को अभिशाप
देना, क्योंकि वे और उनके शिष्य भूखे थे और पेड़ पर फल नहीं लगे हुए थे। यह उनका
मौसम नहीं था। इसमें पेड़ को कोई दोष नहीं था। लेकिन जीसस इतने नाराज हो गए कि उन्होंने
अंजीर के पेड़ को यह अभिशाप दिया कि वह सदा बदसूरत रहेगा।
अब मैं इसे मूर्खतापूर्ण कहता हूं। मुझे इसकी
फ़िकर नहीं कि यह जीसस ने कहा यह किसी और न। उग्रता धार्मिकता का अंश है, लेकिन
मूर्खता नहीं। शायद अगर जीसस कुछ दिन और उपदेश देते...जब उनको सूली लगी तब वे केवल
तैंतीस वर्ष के थे। मैं सोचता हूं, सच्चे यहूदी होने के बतौर सत्तर वर्ष की आयु
में वे अवश्यक कुछ शांत हो जाते। तब उन्हें सूली लगाने की कोई भी जरूरत न होती।
लेकिन यहूदी बहुत जल्दी में थे।
मेरे विचार में यहूदियों को ही जल्दी नहीं
थी....क्योंकि यहूदी ज्यादा जानते है...शायद रोमन लोगों ने जीसस को सूली दी। ये
लोग सदा बचकाने और बेवकूफ रहे। इनकी जाति के इतिहास में शायद ही कोई जीसस, बुद्ध,
और लाओत्से जैसा व्यक्ति हुआ हो। केवल एक ही आदमी मुझे याद आता है और वह था
सम्राट आरेलियस उसने मेडिटेशंस नामक एक पुस्तक लिखी थी। निश्चित ही यह वह नहीं है
जिये मैं मेडि़टेशन कहता हुं। मेरा मेडि़टेशन सदा एक वचन होता है। वह बहुवचन नहीं
हो सकता। उसके मेडिटेशंस तो असल में चिंतन-मनन है। वह एकवचन नही हो सकता। समस्त
रोमन इतिहास में मुझे केवल मार्कस आरेलियस का नाम ही उल्लेखनीय मालूम होता हे।
लेकिन वह भी कुछ विशेष नहीं है। बेचारा कोई भी बाशो उसे हरा सकता था। कोई भी कबीर
इस सम्राट को चोट करके उसे अपनी समझ के पास ले जा सकता है।
मुझे नहीं मालूम कि किसी को उसकी समझ के पार
ले जान तुम्हारी भाषा में चलता है। यह नहीं, ‘किसी को समझदार बनाना तो चलता है।’
लेकिन वह मेरा काम नहीं है। वह तो कोई भी कर सकता है। समझदार बनाने के लिए तो सड़क
पर पड़े हुए पत्थर की चोट ही काफी है। उसके लिए किसी बुद्ध की जरूरत नहीं होती।
बुद्ध की आवश्यकता तो होती है तुम्हें समझ के पार ले जाने के लिए बाशो, कबीर या
लल्ला और राबिया जैसी कोई भी महिला बेचारे इस सम्राट को उस पार पहुंचा देती।
रोमन लोगों से बस इतना ही मिला है। कुछ विशेष
नहीं, लेकिन फिर भी कुछ तो है। किसी को बिलकुल अस्वीकार नहीं करना चाहिए। मैं
आरेलियस को संबुद्ध या जाग्रत व्यक्ति तो नहीं मानता, लेकिन शिष्टाचार वश मैं
उसे एक अच्छा आदमी मानता हूं। अगर संयोग से उसकी भेंट वोधिधर्म की आँख मार्कस
आरेलियस की आँख से मिल जाती तो काम बल जाता। तब पहली बार उसे मालूम होता कि ध्यान
क्या है। तब वह अपने घर जाकर अपना लिखा हुआ सब जला देता। शायद तब वह रेखाचित्रों
का एक संग्रह छोड़ जाता—उड़ता हुआ पक्षी, मुरझाता हुआ गुलाब, आकाश में उड़ता हुआ
अकेला बादल, कुछ वाक्य इधर-उधर लिखे हुए, जो अधिक कुछ नहीं कहते, लेकिन जो पढ़ने
वाले में विचार कि प्रक्रिया आरंभ करने के लिए यथेष्ट है। जब वह मेडि़टेशन की सही
नोटबुक होती लेकिन मेडिटेशंस की नहीं। ध्यान का बहुवचन संभव नहीं है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह कहा जा सकता है कि
पूर्व, विशेषकर भारत, मृत्यु से नहीं वरन आत्मघात के विचार से भी ग्रसित है। एक
तरह से मनोवैज्ञानिक गलत नहीं है। जब तक आदमी जीवित है तब उसे पूरी तरह से जीना
चाहिए, मृत्यु के बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं। और जब मृत्यु आए तो पूरी
तरह मर जाना चाहिए तब पीछे की और मुड़ कर देखने की कोर्इ जरूरत नहीं है। हर क्षण
में पूरी तरह से होना चाहिए—जीने में, प्रेम करने में, मृत्यु मैं—इसी तरह जाना
जाता है। क्या जाना जाता है? ‘क्या’
नहीं लेकिन ‘वह’ जानने वाला। ‘क्या’ तो विषय है और ‘वह’ आत्म परकता, आतम निष्ठता
है।
जब मेरे नाना मरे तो मेरी नानी हंस रही
थी—हंसी की अंतिम झलक। तब उन्होंने अपने आपको नियंत्रित किया। वे स्वयं को
नियंत्रित करने बाली महिला थीं। लेकिन मैं उनके इस नियंत्रण से नहीं वरन उनकी हंसी
से प्रभावित हुआ था। यह देख कर कि वे मृत्यु के क्षण में हंस सकती है।
मैंने बार-बार उनसे पूछा: ‘नानी, क्या आप
मुझे बता सकती है कि जब मृतयु इतनी निकट थी तब आप इतने जोर से क्यों हंसी। अगर
मेरे जैसे बच्चे को भी मृत्यु का आभास हो रहा था तो यह संभव नहीं कि आपको आभास न
हुआ है।
उन्होंने कहा: ‘अहसास मुझे हो रहा था,
इसीलिए मैं हंसी थी। मुझे उन बेचारों पर हंसी आई जो अकारण और बिना किसी जरूरत के
इस चक्र को रोकने की कोशिश कर रहे थे। क्योंकि परम अर्थों में तो जीवन और मृत्यु
का कोई अर्थ नहीं होता।‘
मुझे उस समय की प्रतीक्षा करना पड़ी तब मैं स्वयं
उनसे पूछ सकता था या तर्क कर सकता था। मैंने सोचा कि जब मुझे समाधि अपलब्ध होगी
तो मैं उनसे पूछूंगी। और यहीं मैंने किया। इक्कीस वर्ष की आयु में संबुद्ध होने
के बाद पहला काम मैंने जो किया वह यह था। अपने पिता के गांव जल्दी से जल्दी
पहुंचना, जहां मेरी नानी रहती थीं। उन्होंने उस स्थान को कभी नहीं छोड़ा जहां
उनके पति की चिता जली थी। वहीं उनका घर गया। वे अपनी सब सुख-सुविधाओं को भूल गई।
उनहोंने कहा: ‘ क्या करना है वहां जाकर, मेरे पति मर गए है और जिस बच्चे को में
प्रेम करती हूं वह यहां पर है। बात खतम हो गई।
संबोधी के तुरंत बाद दो आदमियों से मिलने कै
लिए मैं भागा-भागा गांव गया। पहले थे मग्गा बाबा जिनके बारे में पहले मैं बता चुका
हूं। तुम जानना चाहोगे कि क्यों? क्योंकि
मैं चाहता था कि कोई दूसरा मुझसे कहे कि मैं संबुद्ध हो गया हूं। मैं तो जानता था,
लेकिन मैं इसके बारे मैं बाहर से भी सुनना चाहता था। उस समय मगगाबाबा ही ऐसे व्यक्ति
थे जिनसे मैं पूछ सकता था। मैंने सुना था कि वे अभी-अभी गांव वापस आ गए है। गांव
स्टेशन से दो मील दूर था। तुम अंदाज नहीं लगा सकते कि मैं कितनी तेजी से उनके पास
उस नीम के पेड़ के नीचे पहुंचा।
नीम शब्द का अनुवाद नहीं हो सकता। क्योंकि
मैं नहीं सोचता कि नीम के पेड़ जैसा पश्चिम में कुछ है। नीम का पेड़ अजीब पेड़ है।
अगर तुम पतियों का स्वाद लो तो बहुत कडुवा होता है। तुम भरोसा नहीं करोगे कि जहर
भी इतना कडुवा हो सकता है। लेकिन बिलकुल उलटा है, नीम जहरीला नहीं है। अगर इसके
कुछ पत्ते रोज खाए जाएं...जो कि बहुत मुश्किल है। मैंने बरसों तक इसके पचास पत्ते
सुबह और पचास पत्ते शाम को शाम को खाए है। अब नीम के पचास पत्ते खाने के लिए ऐसा
चाहिए जो खुद को मारने पर तुला हो। यह बहुत कडुवा है, लेकिन खून को शुद्ध करता है
और संक्रामक रोगों से मुक्त रखता है—भारत जैसे देश में भी जो कि चमत्कार है। ऐसा
माना जाता है कि नीम के पत्तों से गुजरती हुई हवा अनय हवा की तुलना में ज्यादा
शुद्ध हवा हो जाती है। लोग अपने घर के चारों और नीम के पेड़ लगा लेते है। ताकि उन्हें
शुद्ध हवा मिलती रहे। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि नीम सब प्रकार की छूत की
बीमारियों को दूर रखता है। उनसे वातावरण को सुरक्षित रखता है।
मैं भागा-भागा उस पेड़ के पास गया जहां पर मग् बाबा बैठे थे। और
जैसे ही उनहोंने मुझे देखा, मालूम है उन्होंने क्या किया? मैं स्वयं भी
विश्वास न कर सका, उन्होंने मेरे पैर छुए और रो पड़े। मुझे बहुत संकोच
लगा, क्योंकि लोगों की भीड़ वहां जमा हो गई थी। उन्होंने समझा कि मग्गा बाबा अब
सचमुच ही बिलकुल पागल हो गए है। अभी तक तो उनका दिमाग थोड़ा खराब था, लेकिन अब तो
बिलकुल खराब हो गया है। लेकिन मग्गा बाबा हंसे और पहली बार उन्होने लोगो के
सामने मुझसे कहा: ‘मेरे बेटे, आखिर तुमने कर दिया, मुझे मालूम था कि एक दिन तुम
अवश्य कर लोगे।
मैंने उनके पैर छुए। पहली बार उन्होंने ऐसा
करने से यह कहते हुए कि ‘नहीं-नहीं, अब मेरे पैर मत छुओ, ‘मुझे रोकने की कोशिश की।
पर उनके काफी रोकने पर भी मैंने उनके पैर छुए। बिना फ़िकर किए। मैंने कहा: ‘आप
अपना काम कीजिए और मुझे अपना काम करने दीजिए। अगर मैं संबुद्ध हो गया हूं—जैसा कि
आप कहते है—तो एक संबुद्ध व्यक्ति को आपके पैर छूने से मत रोकिए।‘
वे फिर हंसने लगे और कहा: ‘शैतान, तुम
संबुद्ध तो अवश्य हो, लेकिन बहुत शैतान हो।‘
फिर इसके बाद मैं नानी के घर पहुंचा—अपने
पिता के घर नहीं। मैं नाना को बताना चाहता था कि क्या घटा। लेकिन अस्तित्व का
ढंग विचित्र है। वे द्वार पर खड़ी मुझे बड़ी हैरानी से देख रही थी। उन्होंने कहा:
‘तुम्हें क्या हुआ है? तुम पहले जैसे नहीं हो।‘
वे स्वयं संबुद्ध नहीं थी, लेकिन उनमें इतनी
समझ थी कि वे मेरे आंतरिक परिवर्तन को देख सकीं। मैंने कहा: ‘हां, मैं पहले जैसा
नहीं हूं और जो अनुभव मुझे हुआ है उसे मैं बांटने आया हूं।
उन्होंने कहा: ‘जहां तक मेरा सवाल है, हमेशा
मेरे राजा ही बने रहो—मेरे छोटे बच्चे।’
इसलिए मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। एक दिन बीत
गया। फिर आधी रात को उन्होंने मुझे जगाया। आंखों में आंसू भर कर उन्होंने कहा:
‘माफ करना, अब तुम वही नहीं हो। तुम भले ही पहले जैसा होने का अभिनय करो, लेकिन
मैं सब समझ रही हूं। अभिनय की कोई आवश्यकता नहीं है। अब तुम बता सकते हो कि तुम्हें
क्या घटा है। जिस बच्चे को मैं जानती थी वह तो न जाने कहां खो गया। अब तुम केबल
मेरे ही नहीं रहे। लेकिन उससे फर्क नहीं पड़ता। अब तो लाखों लोग तुम्हें अपना
मानेंगे और हरेक को लगेगा कि तुम उसी के हो। तुम पर मेरा जो अधिकार था वह मैं वापस
लेती हुं। लेकिन अब तुम मुझे भी मार्ग बताओ।’
यह पहली बार है जब मैं किसी को बता रहा हूं:
‘मेरी नानी मेरी प्रथम शिष्या थी। मैंने उन्हें मार्ग बताया। मेरा मार्ग बहुत सरल
है: मौन होना और अपने भीतर के साक्षी को अनुभव करना और विषय या दृश्य में नहीं
खोना। जानने बाले को जानना और जो जाना गया है उसे भूल जाना। मेरा मार्ग सरल है,
उतना ही सरल है जितना लाओत्से, च्वांगत्सु, कृष्ण, क्राइस्ट, मोजेज और जरथुस्त्र
का। सिर्फ नाम अलग’-अलग है, मार्ग वही है। सिर्फ यात्री अलग-अलग है, यात्रा एक ही
है। और सत्य, प्रक्रिया बहुत सरल है।
यह मेरा सौभाग्य था कि मेरी
नानी मेरी प्रथम शिष्य बनी, क्योंकि मैंने और किसी को उनके जैसा सरल नहीं देखा।
यू तो मैंने बहुत से सरल लोग देखे है जो सरलता के निकट पहुंचते हैं, लेकिन उनकी
सरलता की गहराई ऐसी थी कि कोई भी उसके पास नहीं जा सका। मेरे पिता भी नहीं। वे सरल
थे, बहुत सरल थे, और बहुत गहन भी थे, लेकिन नानी जैसे नहीं। मुझे खेद से कहना
पड़ता है कि वे उनसे बहुत दूर थे। और मेरी मां तो और भी दूर है। वे तो मेरे पिता
की सरलता के भी निकट नहीं पहुँचती।
तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा—और मैं पहली
बार यह घोषित कर रहा हूं कि मेरी नानी सिर्फ प्रथम शिष्य ही नहीं थी, वे मेरी
प्रथम संबुद्ध शिष्य भी थी। और मेरे लोगों की संन्यास की दीक्षा देने के बहुत
पहले वे संबुद्ध हो चुकी थी। वे संन्यासिन नहीं थी। वे उन्नीस से सत्तर में
मरी। इसी साल मैंने लोगों को संन्यास की दीक्षा देना आरंभ किया। वे मृत्यु शय्या
पर थीं जब उन्होंने मेरे इस आंदोलन के बारे में सुना। हालांकि मैंने स्वय तो यह
नहीं सुना, लेकिन मेरे एक भाई ने मुझे बताया कि ये उनके अंतिम शब्द थे। जैसे कि
वे आप से बातें कर रही हों—नानी ने कहा: ‘राजा, अब तुमने संन्यास देना आरंभ किया
है। लेकिन अब तो बहुत देर हो गई है। मैं तुम्हारी संन्यासिन नहीं बन सकती, क्योंकि
जब तक तुम यहां पहुंचोगे तब तक मैं इस शरीर में नहीं रहूंगी। लेकिन कोई तुम्हें
बता देगा कि मैं तुम्हारी संन्यासिन बनना चाहती थी।’
मेरे वहां पहुंचने के ठीक बारह घंटे पहले
उनकी मृत्यु हो चुकी थी। बंबई से उस गांव का सफर बहुत लंबा था। नानी की इच्छा थी
कि जब तक मैं वहां न पहुंच जाऊँ तब तक कोई भी उनके शरीर को हाथ न लगाए। फिर मैं जो
निर्णय करूं, वैसा ही किया जाए। अगर मैं उनके शरीर को दफनाना चाहूं तो ठीक होगा।
अगर उनके शरीर को जलाना चाहूं तो वह ठीक होगा। और अगर मैं कुछ और करना चाहूं तो वह
भी ठीक होगा।
जब
मैं घर पहुंचा तो
मैं अपनी आंखों पर विश्वास न कर
सका। उस समय वे अस्सी साल की थी, लेकिन फिर भी जवान दिखाई
दे रही थीं। वे बारह घंटे पहले मर चुकी थीं। लेकिन फिर भी उनका शरीर विकृत नहीं हुआ था। वैसा का वैसा ताजा
था। मैंने उनसे कहा: ‘नानी, में आ गया हूं। मैं जानता हूं, इस
बार तुम मुझे कोई जवाब न दे सकोगी, लेकिन फिर भी
मैं तुम्हें बता रहा हूं मैं आ गया हूं।’ अचानक एक
चमत्कार सा हुआ। वहां पर मैं ही नहीं, मेरे पिताजी, मेरा सारा परिवार
और अड़ोस-पड़ोस के
लोग भी उपस्थित
थे। सबने देखा कि नानी की बाईं आँख से एक आंसू ढलक गया.... बारह घंटे के बाद, देवराज नोट कर लो कि ड़ाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया था। अब मरा हुआ आदमी तो नहीं रोता। जीवित भी कभी-कभार ही रोते है।
मृत आदमी का क्या कहना, नानी की आँख से आंसू गिरा और मुझे लगा कि मुझे अत्तर मिल
गया। इससे अधिक की क्या
आशा हो सकती थी।
मैंने उनकी चिता को आग
दी। यही उनकी इच्छा थी।
मैंने तो अपने पिता का भी दाह-संस्कार नहीं किया। भारत में
यही नियम है कि
सबसे बड़ा बेटा पिता की चिता को आग देता है। मैंने ऐसा नहीं किया। जहां तक मेरे
पिता का सवाल है, मैं तो उनके दाह संस्कार तक में नहीं गया। नानी का दाह-संस्कार
अंतिम दाह-संस्कार था जिसमें मैं गया था। उसी दिन मैंने अपने पिता से कहा:
‘दद्दा, मैं आपकी अंतिम-क्रिया
से समय उपस्थित नहीं हो पाऊगा।’
उन्होंने कहा: ‘क्या मूर्खतापूर्ण बात कर
रहे हो? ‘अभी तो मैं जिंदा हूं।’
मैंने कहा: ‘मुझे मालूम हे कि अभी आप जिंदा
है, लेकिन कितने दिन कि लिए? अभी
कल तक तो नानी भी जीवित थीं। कल शायद आप भी न रहें। मैं अभी से स्पष्ट कर देना
चाहता हूं कि मैंने तय कर लिया है कि नानी के बाद अब मैं और किसी के दाह संस्कार
में नहीं जाऊँगा। इसलिए मैं आपसे क्षमा मांग रहा हूं। मेरी बात समझ गए होगें।’
उन्हें थोड़ा आश्चर्य जरूर हुआ, लेकिन वे
मेरी बात को समझ गए, उन्होंने कहा: ‘अगर यही तुम्हारा फैसला है तो ठीक है। लेकिन
जब फिर मेरी चिता को आग कौन देगा?’
भारत में यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है।
इस संदर्भ में सामान्यत: सबसे बड़ा बेटा ही पिता की चिता को आग देता है। मैंने
उनसे कहा: ‘आप जानते है कि मैं इधर-उधर भटकने वाला घुमक्कड़ हूं। मेरे पास कुछ
नहीं है।
यद्यपि मग्गा बाबा बहुत गरीब थे तथापि उनके
पास दो चीजें तो रहती थीं—एक उनका कंबल और दूसरा उनका मग्गा। मेरे पास कुछ भी
नहीं है। मैं राजाओं की भांति रहता जरूर हूं, लेकिन मेरा अपना कुछ नहीं है। अगर
किसी दिन कोई आकर मुझसे कहे कि इस जगह को तुरंत छोड़ दो, तो मैं तुरंत छोड़ दूँगा।
मुझे सामान बांधने की जरूरत भी न पड़ेगी, क्योंकि मेरा तो कुछ भी नहीं है। मैंने
बंबई को इसी तरह से छोड़ था। लोगों को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं इतनी
आसानी से चल पडूंगा—एक बार पीछे देखे बीना।
मैं अपने पिताजी के दाह-संस्कार में शामिल
नहीं हो सका। लेकिन नानी की अंतिम क्रिया के समय मैं इसकी अनुमति उनसे पहले ही ले
चुका था। मेरी नानी संन्यासिन नहीं थी, लेकिन वे दूसरे अर्थों में संन्यासिन
थीं। मैंने उनको गेरूआ वस्त्र पहनने को नहीं कहा था, लेकिन जिस दिन वे संबुद्ध
हुई उस दिन से उन्हें सफेद कपड़े पहनने छोड़ दिए।
भारत में विधवा को सफेद कपड़े पहनने होते है।
और कोई पूछे कि विधवा को ही क्यों? इसलिए कि वह सुंदर न दिखार्इ दे। यह सीधा तर्क है। उसके सिर के बाल भी
घोट दिए जाते है। अब इन दुष्टों की चालाकी देखो। स्त्री को बदसूरत बनाने के लिए
रंगीनी उससे छीन लेते है। वह किसी उत्सव में, किसी खुशी के अवसर पर सम्मिलित नही
हो सकती। यहां तक कि अपने बेटे या बेटी की शादी में भी नहीं। उसके जीवन से सारी
रंगीनी छीन ली जाती।
जिस दिन मेरी नानी को समाधि उपलब्ध हुई,
मुझे याद हैं—मैंने इसे लिख कर रखा हुआ है, वह कहीं न कही होगा—वह दिन था सोलह
जनवरी उन्नीस सौ सड़सठ। बिना किसी झिझक के मैं यह कहता हूं कि नानी मेरी प्रथम
शिष्या थी—और यही नहीं, वे मेरी प्रथम संबुद्ध शिष्या थी।
तुम दोनों डाक्टर हो और तुम दोनों अजित सरस्वती
को अच्छी तरह से जानते हो। पिछले करीब बीस वर्ष से वे मेरे साथ है। और मैं किसी
और को नहीं जानता जो इतना सच्चे दिल से मेरे साथ रहा हो। तुमको यह जान कर आश्चर्य
होगा कि वे बाहर खड़े इंतजार कर रहे है। और पूरी संभावना है कि वे समाधि के बहुत
निकट है। वे यहां कम्यून में रहने आए है। उनके लिए यह बहुत मुश्किल रहा होगा,
विशेषकर एक भारतीय के लिए अपने बीबी-बच्चों और अपने काम को छोड़ना बहुत मुश्किल
है। लेकिन वे मेरे बिना नहीं रह सकते थे। वे सब कुछ छोड़ने को तैयार है। वह बाहर
इंतजार कर रहे है। यह उनका पहला साक्षात्कार होगा और मुझे लगता है कि यह उनका
संबोधी का भी अनुभव होगा। उन्होंने इसे बड़े श्रम से अर्जित किया है। भारतीय
होकर समग्र रूपेण मेरे साथ होना आसान काम नहीं है।
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