पिछली रात अजित सरस्वती ने जो पहले शब्द
मुझसे कहे, वे थे: ‘ओशो मुझे आशा
नहीं थी कि मैं
कभी भी ऐसा कर पाऊगा।’
जो लोग वहां उपस्थित थे उन्होंने सोचा कि वे
कम्यून में आकर रहने की बात कर रहे है। एक प्रकार से यह भी सच था। क्योंकि मुझे
याद है बीस वर्ष पहले जब वे पहली बार मुझसे मिलने आए थे तब मुझसे कुछ मिनट मिलने
कि लिए उनको अपनी पत्नी से इजाजत लेनी पड़ी थी। इसलिए जो उपस्थित थे स्वभावत:
उन्होंने समझा होगा कि उन्हें इस बात की आशा नहीं थी कि वे अपना काम-धाम और
बीबी-बच्चों को छोड़ कर यहां आ जाएंगे—सब कुछ छोड़-छाड़ कर सिर्फ यहां मेरे साथ
होने के लिए। इसी को सच्चा त्याग कहते है। लेकिन उनका यह अर्थ नहीं था। और मैं समझ
गया।
मैंने उनसे कहा: ‘अजित, मैं भी हैरान हूं।
ऐसा नहीं कि मुझे इसकी आशा नहीं थी—मुझे तो सदा इस क्षण की आशा, इच्छा और अपेक्षा
थी। और मैं खुश हूं कि तुम आ गए।’
दूसरे लोगों ने फिर सोचा होगा कि मैं उनके
यहां आकर रहने की बात कर रहा हुं। मैं तो कुछ और ही कहा रहा था। लेकिन वे समझ गए।
मुझे उनकी आंखों में दिखाई दे रहा था—उनकी आंखे बच्चे जैसी सरल होती जा रही थी।
मैं देख रहा थी कि वह समझ गए है कि गुरु के पास आने का सही अर्थ क्या होता है।
इसका अर्थ है: ‘स्व‘ में पहुंचना। इसका अर्थ है: स्व-बौध। उनकी मुस्कान बिलकुल
नई थी।
मैं
उनके बारे में चिंतित था। वे दिन प्रतिदिन गंभीर होते जा रहे थे। मुझे फ़िकर थी,
क्योंकि मेरे लिए गंभीरता सदा एक गंदा शब्द रहा है। एक बीमारी, कैंसर से भी अधिक
खतरनाक और किसी भी बिमारी, कैंसर से भी अधिक खतरनाक और किसी भी बिमारी से कहीं अधिक
संक्रामक। लेकिन मैं ने राहत कि सांस ली और एक बड़ा बोझ मेरी छाती से उतर गया।
वे उन थोड़े से लोगों में से है जो मेरे मरने
से पहले अगर समाधिस्थ न हुए तो मुझे चक्र को दोबारा चलाना पड़ेगा, मुझे फिर से
जन्म लेना पड़ेगा। हालांकि चक्र को दुबारा चलाना असंभव है—और इसको चलाने की
यांत्रिक टेक्नीक की मुझे कोई जानकारी नहीं है—विशेषकर समय के चक्र की। मैं
मैकेनिक नहीं हूं, मैं टेक्नीशियन नहीं हूं। इसलिए चक्र को दुबारा चलाना मेरे लिए
बहुत ही कठिन हो जाता। जब इक्कीस वर्ष का था, तब से यह चला ही नहीं है।
इकतीस साल पहले चक्र बंद हो गया था। अब तो
उसको जंग लग गया होगा। अगर तुम तेल भी ड़़ालो तो भी कोई फायदा नहीं होगा। यहां तक
कि मेरे संन्यासी भी इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते। लेकिन अजित जैसे व्यक्ति
के लिए मैं किसी भी कीमत पर वापस आने की कोशिश करता।
मैंने निश्चय किया है। कि जब तक मेरे एक
हजार एक शिष्य संबुद्ध नहीं हो जाते तब तक मैं शरीर नहीं छोड़ूगा। देवराज इसे याद
रखना। यह बहुत मुश्किल नहीं है। बुनियादी काम कर दिया गया है, केवल थोड़ा सा धैर्य
चाहिए।
जब मैं भीतर आ रहा था ता यह सुन कर कि अजित
सुबुद्धि हो गए है, गुड़िया ने कहा, ‘बड़ी अद्भुत बात है। इधर-उधर, सब जगह बुद्धत्व
घटित हो रहा है।’
हां, ऐसा ही होगा। यही मेरा काम है। और वे एक
हजार एक लोग किसी भी क्षण बुद्धत्व को उपलब्ध होने के लिए करीब-करीब तैयार है।
जरा सा हवा का झोंका और फूल खिल उठता है या सूर्य की पहली किरण और कली अपना ह्रदय
खोल देती है।
अब वह क्या था जिससे अजित को सहायता मिली? पिछले बीस वर्ष से मैं उन्हें जानता हूं और उन पर
प्रेम बरसाता रहा हूं। मैंने कभी उनकी पिटाई नहीं की—इसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी।
मेरे कुछ कहने से पहले ही वे समझ लेते है। मेरे कुछ कहने से पहले ही वे सुन लेते
है। पिछले बीस सालों में वे मेरे साथ जितना करीब हो सके उतना करीब चलते रहे है। वे
मेरे ‘महा काश्यप’ है।
पिछली रात क्या हुआ? कैसे हुआ, क्योंकि वे हर क्षण सिर्फ मेरे बारे में
सोच रहे थे और जैसे ही उन्होंने मुझे देखा, वे सारे विचार रूक गए—और यही एक विचार
उनको बादल की तरह घेर हुए था। और मैं नहीं सोचता कि वे स्वयं भी अपने शब्दों के
ठीक अर्थ को समझ सके। कुछ समय लगता है और शबद तो अचानक प्रकट हो जाते है। बिना
सोचे-समझे अचानक उन्होंने कहा: ‘मुझे कभी यह आशा नहीं थी, कभी यह अपेक्षा नहीं थी
कि मैं इसे कर पाऊगा।’
मैंने कहा: ‘चिंता मत करो, मुझे हमेशा पूरा
विश्वास था कि देर-अबेर एक न एक दिन ऐसा अवश्य घटेगा।’
वे थोड़ा असमंजस में पड़ गए थे। वे आने की
बात कर रहे थे और मैं घटना घटने की बात कर रहा था। तभी, जैसे कि एक खिड़की खुली और तुम देखते हो—ठीक उसी प्रकार—एक खिड़की
खुल गई और उन्होंने देखा। उन्होंने मुस्कराते हुए, आंखों से आंसू भर कर मेरे पैर
छुए। आंसू और मुस्कुराहट को एक साथ घुलते-मिलते देखना एक सुदंर अनुभव है। यह अपने
आप में एक बहुत ही सुंदर अनुभव है।
अजित सरस्वती के कारण मैं उस कहनी को पूरा न
कर सका जिसे मैंने आरंभ किया था। काफी लंबे समय तक वे मेरे इतने निकट रहे है कि
मुझे उनकी आदत पड़ गई है। तुम्हें याद है न जब उस दिन मैं ‘तंत्रा आर्ट एण्ड
तंत्रा पेंटिंग’ पुस्तकों के सुप्रसिद्ध तंत्र लेखक अजित मुखर्जी के बारे में बोल रहा
था, मैंने कहा...अपने नोट को देख सकते हो.....जब मैंने अजित कहा तो मुखर्जी न कह
सका। मेरे लिए सदा अजित का अर्थ होता है, अजित सरस्वती , जब मैंने अजित मुखर्जी
की बात की ताक पहले मैंने कहा अजित सरस्व...ओर फिर मैंने अपनी गलती को सुधारा।
मैंने सरस्वती कहना शुरू किया ही था और सरस्व..तक पहुंचने पर तुरंत मैंने पलट कर
मुखर्जी कहा।
वे,
बिना कोई दखल डाले, चुपचाप प्रतीक्षा करते रहे है। ऐसी श्रद्धा दुर्लभ है। यद्यपि
इसी तरह की श्रद्धा के साथ मेरे साथ हजारों संन्यासी है। जाने या अनजाने—श्रद्धा
का होना बहुत आवश्यक है।
अजित सरस्वती की पृष्ठभूमि हिंदू है। इसलिए
उनके लिए ऐसी श्रद्धा रखना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी शिक्षा पश्चिम में हुई थी।
शायद इसलिए वे मेरे इतने निकट आ सके। हिंदू पृष्ठभूमि और पश्चिमी वैज्ञानिक
बुद्धि—इन दोनों का एक साथ होना दुर्लभ घटना है। वे अनूठे व्यक्ति है।
और गुड़िया, और भी संबुद्ध होने बाले है,
इधर-उधर, यहां-वहां, सब जगह संबुद्ध होंगे। इन्हें जल्दी पैदा होना होगा, क्योंकि
मेरे पास अधिक समय नहीं है। लेकिन अस्तित्व में जब मनुष्य फूटता है तो ऐसा होता
है तो उसकी आवाज ‘पॉप म्यूजिक’ जैसी नहीं होती, शास्त्रीय संगीत जैसी भी नहीं
होती, वह तो ऐसा शुद्ध संगीत है जिसे किसी वर्ग में नहीं डाला जा सकता-उसे सुना
नहीं, महसूस किया जाता है।
अब तुम बेवकूफी देखते हो, मैं ऐसे संगीत की
बात कर रहा हूं जिसको सुना नहीं महसूस किया जाता है। हां, मैं इसी के बारे में बात
कर रहा हूं। इसी को समाधि कहते है। सब मौन हो जाता है—जैसे कि बाशो का मेंढ़क उस
प्राचीन तालाब के कभी कुदा ही नहीं—कभी नहीं—मानों तालाब में तरंगें उठती ही नहीं
और वह सदा आकाश को प्रतिबिंबित करता है अविचल भव से।
बाशो का यह हाइकू बहुत सुदंर है। मैं इसे कई
बार दोहराता हूं, क्योंकि यह सदा नया है और इसमे से नये-नये अर्थ निकलते है। मैं
यह पहली बार कह रहा हूं कि मेंढ़क ने छलांग नहीं लगाई और न छपाक की आवाज आई। वह
प्राचीन तालाब ने तो प्राचीन है, न नवीन—वह समय के बारे में कुछ नहीं जानता। उसकी
सतह पर कोई तरंगें नहीं है। उसमें तुम्हें तो तारे दिखाई देते है वे आकाश के
तारों से कहीं अधिक भव्य और शानदार है। तालाब की गहराई उनके वैभव को बढा देती है।
वे सपनों की दुनियां के अंग बन जाते है।
जब कोई समाधि में फूटता है तो उसे मालूम होता
है कि मेढक ने छलांग नहीं लगाई—प्राचीन तालाब प्राचीन नहीं था। तब मालूम होता है
जो है।
यह सब तो मैंने यूं ही कह दिया। लेकिन इससे
पहले कि मैं फिर भूल जांऊ ...उस कहानी को जो मैंने कल शुरू की थी..। तुम लोगों ने
शायद सोचा भी नहीं होगा कि मैं उसे याद करूंगा। लेकिन मैं सब कुछ भूल सकता हूं।
सिवाय एक सुंदर कहानी के। मेरे मरने के बाद भी अगर तुम चाहो कि मैं कुछ बोलूं तो किसी कहानी के बारे में पूछना—ईसप की कहानियां,
पंच तंत्र, जातक कथाएं, या जीसस की नीति-कथाएं।
की मैं कह रहा था—वह सब शुरू हुआ ‘कुत्ते
की मौत’ कहावत से। मैंने कहा कि बेचारे कुत्ते का इससे कोई लेना देना नहीं है।
लेकिर इस कहावत के पीछे एक कहानी है जो कि समझने लायक है। क्योंकि लाखों लोग कुत्ते
कि मौत मरने वाले है। शायद तुम लोग भी उस कहानी को सुन चुके हो। शायद हर बच्चे ने
इसे सुना है। इतनी सरल है।
परमात्मा ने दुनिया बनाई—पुरूष, स्त्री,
पशु, पेड़, पक्षी, पर्वत आदि सब कुछ। शायद वह साम्यवादी था। अब यह ठीक नहीं है,
कम से कम परमात्मा को तो साम्यवादी नहीं होना चाहिए। अब अगर उसे कामरेड परमात्मा
कहा जाए तो अच्छा तो नहीं लगेगा। यह सुनने में कैसा लगेगा, ‘कामरेड परमात्मा,
तुम कैसे हो?’ यह अच्छा नहीं लगता।
लेकिन कहानी कहती है कि उसने सबको बीस वर्ष की आयु दी। सबको एक जैसी आयु दे दी,
जैसी उम्मीद की जानी चाहिए, पुरूष ने तुरंत खड़े हो कर कहां—‘केवल बीस वर्ष? इतनी काफी नहीं है।’
इससे पुरूष के बारे में पता चलता है—उसके लिए
कुछ भी काफी नहीं है, पर्याप्त नहीं है। स्त्री खड़ी नहीं हुई। इससे स्त्री के
बारे में पता चलता है। वह छोटी-छोटी चीजों में भी संतुष्ट है। उसकी इच्छाएं
बिलकुल मानवीय है। वह चाँद-तारों को पाने की कोशिश नहीं करती है। सच तो यह है कि
जब पुरूष एवरेस्ट पर या चाँद पर या मंगल पर पहुंचने का प्रयास करता है तो वह उस
पर खूब हंसती है। उसे पुरूष के से सब काम मूर्खतापूर्ण लगते है। यह सोचती है कि इन
बातों में क्या रखा है। इस समय तो बैठ कर टेलीविजन देखना चाहिए। जहां तक मैं
जानता हुं, टेलिविजन देखना...आशु नीचे देख रही है। शर्माओ मत। मैं औरतों के
टेलीविजन देखने के खिलाफ नहीं हुं। मैं तो बस..
इस कहनी में स्त्री ने खड़े हो कर परमात्मा
से नहीं कहा, ‘क्या, केवल बीस बरस।‘ सच तो यह है कि जब पुरूष खड़ा हुआ तो जरूर स्त्री
उसे खींच कर नीचे बिठाना चाहती होगी यह कह कर: ‘बैठ जाओ। क्यों शिकायत कर रहे हो,
हमेशा शिकायत करते रहते हो, बैठ जाओ। ’
परंतु पुरूष अपनी बात पर अड़ा ही रहा। और
कहा, ‘सह बीस बरस की सीमा मुझे मंजूर नहीं है। मुझे इससे अधिक चाहिए।’
परमात्मा असमंजस में पड़ गया। साम्यवादी
परमात्मा होने के कारण वह करता भी क्या? उसने तो सबको एक समान आयु दी थी। पर पशु इस साम्यवादी साथी से कहीं अधिक
समझदार थे।
हाथी ने हंस कर कहा: ‘चिंता मत करो। तुम मेरे जीवन से दस वर्ष
ले सकते हो। क्योंकि बीस वर्ष का समय बहुत लंबा होता है। बीस साल की मैं क्या करूंगा, मेरे लिए तो दस वर्ष
ही बहुत है।’
तो आदमी को हाथी के जीवन के दस वर्ष मिल गए।
यह उसके बीस और तीस वर्ष के बीच का समय है। जब आदमी का व्यवहार हाथी जैसा होता
है। यह समय है जब हिप्पी, यिप्पी और उनके जैसी जातियों का जन्म होता है। दुनिया
में सभी जगह ऐसे लोगों को हाथी कहना चाहिए, इस उम्र में वे अपने आप को बहुत महान
समझते है।
फिर शेर ने उठ कर कहा: ‘कृपया दस वर्ष मेरी
आयु में से ले लीजिए। मेरे लिए तो दस वर्ष भी बहुत है।’
तीस और चालीस की उम्र के बीच आदमी शेर की तरह
दहाड़ता है जैसे कि वह सिकंदर महान हो। जब सिकंदर ही असली शेर न था तो दूसरों का
क्या कहना, तीस और चालीस के बीच हर आदमी शेर जैसा व्यवहार करता है।
फिर बाघ ने उठ कर कहा: ‘जब लोग इस बेचारे
आदमी को कुछ न कुछ दे रहे है तो मैं भी अपनी आयु के दस वर्ष उसे देता हूं।’
चालीस और पचास वर्ष के बीच आदमी बाघ जैसा व्यवहार
करता है। जो कि शेर की तुलना में बहुत कम हो जाता है—अधिक शालीन हो जाता है और एक
बड़ी बिल्ली से ज्यादा नहीं होता, लेकिन शेखी बघारना और डींग हांकने की पुरानी
आदत वैसी की वैसी बनी रहती है।
फिर घोड़े ने उठ कर अपने दस वर्ष दे दिए।
पचास और साठ वर्ष के बीच आदमी घोड़ की तरह सब प्रकार का बोझ ढोता है। उस समय वह एक
साधारण घोड़ा नहीं, वरन असाधारण घोड़ा बन जाता है, जिस पर चिंताओं के पहाड़ लदे
रहते हैं। और वह अपने दृढ़ निश्चय से किसी न किसी प्रकार अपने आपको घसीटते हुए
चलता रहता है।
साठ साल की आयु में कुत्ते ने अपने दस वर्ष
दे दिए। और इसीलिए कुत्ते की मोत कहावत प्रसिद्ध है। यह कहानी बहुत सुदंर
नीति-कथा है। साठ और सत्तर वर्ष के बीच आदमी कुत्ते की तरह जीता है—वह सब चीजों
पर भोंकता रहता है। वह भोंकने का बहाना खोजता रहता है।
यह कहानी सत्तर वर्ष तक ही बात करती है।
उसके बाद की नहीं, क्योंकि यह उस समय कहीं गई थी जब आदमी सत्तर वर्ष से अधिक जीने की आशा नहीं
करता था। सत्तर वर्ष परंपरागत आयु है। अगर आप रूढ़ि या परंपरा को मानने बाले
व्यिक्त है ता कैलंडर देख कर सत्तर वर्ष में मर जाना चाहिए। उससे अधिक जाना तो
थोड़ा आधु निक हो जाएगा। अस्सी, नब्बे
या सौ तक जीना तो अति आधुनिक हो जाएगा। वह तो क्रांतिकारी होगा, वह तो भटक जाना
होगा।
क्या तुम्हें मालूम है कि अमरीका में कुछ
लाइलाज बीमारी वाले लोगों को टंकियों में बर्फ की तरह जमा कर जड़ कर दिया गया हे।
आज उनकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है। लेकिन शायद बीस वर्ष के बाद उसका इलाज खोजा
लिया जाएगा। यद्यपि इस बीमारी के साथ वे कुछ वर्ष और जीवित रह सकते थे, फिर भी उन्होंने,
अपने खर्च पर बर्फ में जमे हुए मृतप्राय है। लेकिन फिर भी अपना खर्च दे रहे है।
आने वाले बीस वर्षो का खर्च उन्होंने पहले से ही दे दिया है। ताकि उनके शरी
निरंतर बर्फ में जमे रहें। यह मामला है तो
बहुत महंगा। केवल बहुत अमीर ही इतना खर्च कर सकते है। मेरे खयाल में बर्फ में जमे
हुए शरीर की देखभाल का खर्च एक दिन में एक हजार डालर के लगभग है। उनको आशा है—या
यूं कहिए कि उनको आशा थी—कि जब उनकी बीमारी का इलाज खोज लिया जाएगा तो उनको पिघला
कर, वापस जीवित करके, उनका इलाज कर दिया जाएगा। वह इंतजार कर रहे है। यह बेचारे
अमीर लोग। अमरीका में इस प्रकार के कम से कम कुछ सौ लोग प्रतीक्षा कर रहे है। इससे
प्रतीक्षा या इंतजार का अर्थ ही बदल गया है। यह बिलकुल नये ढंग की प्रतीक्षा
है—श्वास नहीं ले रहे, लेकिन प्रतीक्षा कर रहे है। यह वास्तव में ‘वेटिंग फॉर
गोडोट’ है और खर्च भी दे रहे है।
यह कहनी पुरानी है। इसलिए कहावत से सत्तर
वर्ष। कुत्ते की मौत को सीधा-सादा अर्थ है कि उस आदमी की मोत जो कुते की तरह
जिया। अगर तुम कुत्तों के प्रेमी हो तो बुरा मत मानना। इसका कुत्तों से कोई लेना
देना नहीं है। कुत्ते बहुत अच्छे होते है। लेकिन कुत्ते की तरह जीने का अर्थ है
केवल भौंकने के लिए जीना, हर वक्त भौंकने का मोका खोजते रहना और भौंकने का मजा
लेना। कुत्ते की तरह जीने का अर्थ है कि मनुष्य की तरह नहीं जीना—मनुष्य से
नीचे के स्तर पर जीना, मनुष्य से कम जीना। और जो कुत्ते की तरह जीएगा वह कुत्ते
की मौत ही तो मरेगा। तुम्हें वह मौत मिलेगी जो तुमने अर्जित की है।
मैं इन शब्दों को दोहराना चाहता हूं—तुम्हें
वह मौत नहीं मिल सकती जो तुमने अर्जित नहीं कि हो। जिसके लिए तुमने सारा जीवन
मेहनत नहीं की है। मृत्यु या तो दंड है या पुरस्कार, सब कुछ तुम पर निर्भर करता
है। अगर तुम उथले-उथले जीए हो तो तुम कुत्ते की मौत मरोगे। कुत्ते बहुत बौद्धिक,
बहुत मस्तिष्क प्रधान होते है। अगर तुम ह्रदय से, अंतर्बोध से, प्रगाढ़ता से जीए
हो, बुद्धि से नहीं, प्रतिभा से, अगर हर काम पूरे प्राणों से किया है, तो तुम
परमात्मा की मौत मर सकते हो।
डॉग्स डेथ, ‘कुत्ते की मौत’ मुहावरे के
विपरीत मैंने एक नया मुहावरा बनाया है: गॉड़स डेथ, ‘परमात्मा की मौत’ अब अंग्रेजी
भाषा में गॉड़ और डॉग शब्दों के उन्हीं अक्षरों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन
उनके लिखे जाने के क्रम अलग होता है। डी ओ जी से ‘डॉग’ और अगर इनको उल्टा कर दिया
जाए, जी ओ डी, तो ‘गॉड’ बन जाता हे।
अस्तित्व का सार, तुम्हारा ‘होना’ तो वही
है—चाहे तुम सिर के बल खड़े हो जाओ या पैर पर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। हां,
एक तरह से फर्क पड़ता है। अगर तुम सिर के बल चलोगे तो तुम अपने आपको सातवें नर्क
में देखोगे। लेकिन तुम कूद कर अपने पैरों पर खड़े हो सकते हो। कोई तुम्हें रोक
नहीं रहा।
कूदो, छलांग लगाओ, यही तो मेरी शिक्षा है—सिर
के बल नहीं, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। स्वाभाविक बनो। तब तुम परमात्मा की तरह
जीओगे। और परमात्मा परमात्मा की तरह ही मरता है। वह परमात्मा की तरह जीता है और
परमात्मा की तरह ही मरता है। और परमात्मा से मेरा सीधा सा अर्थ है: ‘’जो अपना स्वामी।’’
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