ज्योतिष
से इसका कोई लेना देना नहीं है। और चुंकी ज्योतिष इस तरह की बात चीत में लगे रहते
है। इसलिए ज्योतिष का भवन गिर गया। ज्योतिष के भवन के गिर जाने का कारण यही हुआ।
कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राज़ी नहीं हो सकता है, कि मैं जिस दिन पैदा हुआ उस दिन लिखा था कि मरीन
ड्राइव पर फलां-फलां दिन एक छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा। और फिसल जाऊँगा। न तो
मेरे फिसलने का चाँद तारों से प्रयोजन है, न उस छिलके का कोई
प्रयोजन है। इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योतिष बदनाम हुआ। और हम सबकी उत्सुकता
यहीं है। कि ऐसा पता चल जाए। इससे कोई संबंध नहीं है।
सेमी
एसेंशियल है कुछ बातें जैसे—जन्म मृत्यु सेमी एसेंशियल है। अगर आप इसके बाबत
पूरा जान लें तो उसमें फर्क हो सकता है। और न जानें तो फर्क नहीं होगा। चिकित्सा
की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी तो हम आदमी की उम्र लंबा कर लेंगे—कर रहे है। अगर
हमारी एटम बम की खोज-बीन और बढ़ती चली गयी तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार
डालेंगे—मारा है। यह सेमी एसेंशियल, अर्द्ध अनिवार्य जगत है।
जहां कुछ चीजें हो सकती है, नहीं भी हो सकती है। अगर जान
लेंगे तो अच्छा है। क्योंकि विकल्प चुने जा सकते है। इसके बाद एसेंशियल
अनिवार्य का जगत है। वहां कोई बदलाहट नहीं होती।
लेकिन
हमारी उत्सुकता पहले तो नान एसेंशियल में रहती है। कभी शायद किसी की सेमी
एसेंशियल तक जाती है। वह जो एसेंशियल है, अनिवार्य है, जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं, उस केंद्र तक हमारी
पकड़ नहीं जाती है। न हमारी इच्छा जाती है।
महावीर
एक गांव से गुजर रहे है। और महावीर का एक शिष्य मखनी गोशालक उनके साथ है, जो बाद
में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते है। गोशालक महावीर से
कहता है। कि सुनिये, यह पौधा लगा हुआ है—क्या सोचते है आप, यह फूल ते पहुँचेगा। इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे, यह पौधा बचेगा या
नहीं बचेगा। इसका भविष्य है या नहीं।
महावीर
आँख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते है। गोशालक पूछता है, कहिए आँख
बंद करने से क्या होगा। टालिए मत। उसे पता भी नहीं कि महावीर आँख बंद करके क्यों
खड़े हो गए है। वह एसेंशियल की खोज कर रहे है। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी
है। इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता। कि क्या
होगा। आँख खोलकर महावीर कहते है कि यह पौधा फूल तक पहुँचेगा।
गोशालक
ने उस सामने ही पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है, और खिल खिलाकर हंसता हे। क्योंकि
इससे ज्यादा और अतर्क्य प्रमाण क्या होगा। महावीर के लिए अब कुछ और कहने की
जरूरत क्या है। उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, उसने कहा
कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुस्कराते हे। वे दोनों
अपने रास्ते चले जाते है।
साद
दिन के बाद वापस उसी रास्ते पर लौट रहे है। जैसे ही महावीर और वे दोनों उस दिन
गांव में पहुंचे थे वैसे ही बड़ी भंयकर वर्षा हुई थी। सात दिन तक मूसलाधार पानी
पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे है। जब लौटते है तो ठीक उस जगह
आकर महावीर खड़े हो गए है जहां वे सात दिन पहले आँख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह
पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गयीं और पौधा
खड़ा हो गया।
महावीर
फिर आँख बंद करके उसके पास खड़े हो गए। गोशालक
बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आँख खोली, गोशालक
ने पूछा कह हैरान हूं, आश्चर्य, इस
पौधे को हम उखाड़ कर फेंक गए, फिर खड़ा हो गया। महावीर ने
कहा, यह फूल तक पहुँचेगा। और इसीलिए मैं आँख बंद करके ओर खड़े
होकर उसे देखा।
इसकी
आंतरिक पोटेंशियलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या है। उसके भीतर की स्थिति क्या हे। तुम इसे
बाहर से फेंक दोगे। उठाकर तो भी यह अपने पैर जमाकर खड़ा हो सकेगा। यह कहीं आत्मघाती
तो नहीं है—सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में,
कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है। अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा। यह
जीने को तत्पर है। अगर यह जीने को तत्पर है तो जिएगा ही। मैं जानता था कि तुम
इसे उखाड़कर फेंक दोगे।
गोशालक
ने कहा, आप क्या कहते है। महावीर ने कहा जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी
पास खड़े थे, तुम भी दिखायी पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि
तुम उसे उखाड़कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की
आंतरिक क्षमता कितनी है। इसके पास आत्म-बल कितना है। यह कहीं मरने को तो उत्सुक
नहीं है कि कोई बहाना लेकर मर जाए तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है। अन्यथा
तुम्हारा उखाड़कर फेंका गया पौधा पुन: जड़ें पकड़ सकता है।
गोशालक
को दुबारा उस पौधे को उखाड़ कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी—डरा। पिछली बार गोशालक
हंसता हुआ गया था। इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े। गोशालक रास्ते में पूछने
लगा, आप हंसते क्यों हो। महावीर ने कहा, मैं सोचता था
कि देखें तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है। तुम दुबारा इसे उखाड़कर फेंकते हो या
नहीं।
गोशालक
ने पूछा के आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़ कर फेंकूंगा या नहीं, तक
महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। उखाड़ कर फेंक भी सकते
हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था। उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे, वह अनिवार्य था। वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। यह तुम
पर निर्भर हे। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो—हार गए। महावीर से गोशालक के
नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण
यह पौधा भी था।
जिस
ज्योतिष की मैं बात कर रहा हूं उसका संबंध अनिवार्य से एसेंशियल से फाउण्ड़ेशनल
से है। आपकी उत्सुकता ज्यादा से ज्यादा सेमी एसेंशियल तक आती है। पता लगाना
चाहते हे कि कितने दिन जियूंगा, मर तो नहीं जाऊँगा,जीकर क्या करूंगा। जी ही लुंगा तो क्या करूंगा,
आपकी उत्सुकता नहीं पहुँचती। मरूंगा तो मरने के बाद क्या करूंगा। इस तक भी आपकी
उत्सुकता नहीं पहुँचती। घटनाओं तक पहुँचती है, आत्माओं तक
नहीं पहुँचती। जब मैं जी रहा हूं तो यह तो घटना है सिर्फ—जीकर मैं क्या हूं। वह
मेरी आत्मा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सबकी घटना होगी। लेकिन मरते
क्षण में मैं क्या होऊंगा, क्या करूंगा। मरने के क्षण में
हमारी स्थिति सब से भिन्न होगी। कोई मुस्कराते हुए भी मर सकता है।
मुल्ला
नसरूदीन से कोई कुछ पूछता है, और वह अब मरने के करीब है। उससे कोई
पुछता है। आपका क्या ख्याल है। मुल्ला जब लोग पैदा होते है तो कहां से आते है? मरते है तो कहां जाते है? मुल्ला ने कहां, जहां तक अनुभव की बात है, मैंने लोगों को पैदा होते
वक्त रोते ही देखा हे। और मरते वक्त रोते ही जाते देखा हे। अच्छी जगह से न आते
है न अच्छी जगह जाते है। इनको देखकर जो अंदाज लगता है न अच्छी जगह से आते है न
अच्छी जगह जोत है। आते है तब भी रोते हुए मालूम पड़ते है। जाते है तब भी रोते हुए
मालूम पड़ते है।
लेकिन
नसरूदीन जैसा आदमी हंसता हुआ मरता है। मौत तो घटना है, लेकिन
हंसते हुए मरना आत्मा है। तो आप कभी ज्योतिषी से पूछिए कि मैं हंसते हुए मरूंगा
कि रोते हुए मरूंगा। यह पूछने जैसी बात है। लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से
जुड़ी हुई बात है।
आप
पूछते है कब मरूंगा? जैसे मरना आपने आप में मूल्यवान है बहुत। कब तक जियूंगा। जैसे बस जी
लेना काफी है। किस लिए जियूंगा क्यों जियूंगा, जीकर क्या
हो जाऊँगा? कोई पूछने नहीं आता। इसलिए महल गिर गया। क्योंकि
वह महल गिर जाएगा, जिसके आधार नान एसेंशियल पर रखे है। गैर
जरूरी चीजों पर जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हो वह कैसे टिकेगा—अधार शिलाएं
चाहिए।
मैं
जिस ज्योतिष की बात कहर रहा हूं और आप जिसे ज्योतिष रहे है। उससे वह ज्योतिष
भिन्न हे। गुणात्मक रूप से और गहरा है। उसके आयाम और होते है। मैं इस बात की
चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में
संयुक्त है, लयबद्ध है। अलग-अलग नहीं है। उसमें पूरा जगत भागीदार है। उसमें आप अकेले
नहीं है।
जब बुद्ध को
ज्ञान हुआ, तब बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़कर पृथ्वी पर सिर
टेक दिया। कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्कार करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हुए है। बुद्ध को पृथ्वी
पर हाथ टेके सिर रखे देखकर वे चकित हुए। उन्होने पूछा: तुम, और किसको नमस्कार
कर रहे हो। क्योंकि हम तो तुम्हें नमस्कार करने स्वर्ग से आते है। हम तो नहीं
जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्कार करे, ऐसा कोई है।
बुद्धत्व तो आखिरी बात है। बुद्ध ने आंखें खोली और बुद्ध ने कहा, जो भी घटित हुआ
है उसमें मैं अकेला नहीं हूं, सारा विश्व है। तो इस सबको धन्यवाद देने के
लिए सिर टेक रहा था। यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से बंधी हुई बात है—सार जगत।
इस
लिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जब भी तुम्हें कुछ भी भीतर आनंद मिले—तत्क्षण
अनुगृहीत हो जाना समस्त जगत के क्योंकि तूम अकेले नहीं हो। अगर सूरज ने निकलता, अगर चाँद निकलता, अगर एक रत्तीभर
भी घटना और घटी होती तो तुम्हें यह नहीं होने वाला था जो हुआ है। माना कि तुम्हें
हुआ है।
बुद्ध
ऐसा नहीं कहेंगे कि मुझे हुआ है। बुद्ध इतना ही कहते है कि जगत को मेरे माध्यम से
हुआ है। वह जो घटना घटी है एनलाइटेनमेंट की, चह जो प्रकाश का
आविर्भाव हुआ है। यह जगत ने मेरे बहाने जाना है। मैं सिर्फ एक बहाना हूं। एक क्रास
रोड,जहां सारे जगत के रास्ते
आकर मिल गए है।
कभी
आपने ख्याल किया है, कि चौराहा
बड़ा भारी होता है। लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता है। वह जो चार रास्ते
आकर मिले होते है, उन चारों को हटा लें तो चौराहा विदा हो
जाता है। हम सब क्रिस क्रास प्वाइंट है जहां जगत की अनंत शक्तियां आकर एक बिंदु
को काटती है। वह व्यक्ति निर्मित हो जाता है, इंडीवीजुअल
बन जाता है।
वह
जो सारभूत ज्योतिष है उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं है। एक, उस एक ब्रह्म के साथ है। उस एक
ब्रह्मांड के साथ है। और प्रत्येक घटना भागीदार है। तो बुद्ध ने कहा है कि मुझसे
पहले जो कुछ बुद्ध हुए उनको नमस्कार करता हूं, और मेरे बाद
जो होंगे उनको भी नमस्कार करता हूं।
किसी
ने पूछा आप उनको नमस्कार करें जो आपके पहले हुए, यह समझ में आता है। क्योंकि हो सकता है, उनसे कोई जाना अनजाना ऋण हो क्योंकि जो आपके पहले जान चुके है उनके
ज्ञान ने आपको साथ दिया हो, लेकिन जो अभी हुए ही नहीं उनसे
आपको क्या लेना-देना है, उनसे आपको कौन सी सहायता मिली है?
तो
बुद्ध ने कहा, जो हुए है
उनसे भी मुझे सहायता मिली है। जो अभी नहीं हुए है उनसे भी सहायता मिली है। क्योंकि
जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्य एक हो गए है। वहां जो जा चुका है, वह उससे मिल रहा है। जो अभी आने को है। वहां सूयोर्दय और सूर्यास्त एक
ही बिंदु पर मिल रहे है। तो मैं उन्हें भी नमस्कार करता हूं जो होंगे उनका भी
मुझ पर ऋण है क्योंकि अगर वे भविष्य में न हों तो मैं आज न हो सकूंगा।
इसको
समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। यह एसेंशियल एस्टोलाजी की बात है। कल जो हुआ है अगर
उसमे से कुछ भी खिसक जाए तो मैं न हो सकूंगा। क्योंकि मैं एक शृंखला में बंधा हुआ
हूं। यह समझ में आता है। अगर मेरे पिता ने हों जगत में तो मैं न हो सकूंगा। यह समझ
में आता है। क्योंकि अगर एक कड़ी अगर विदा हो जाए तो मैं न हो सकूंगा। अगर मेरे
पिता न हों तो मैं न हो सकूंगा क्योंकि कड़ी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मेरा भविष्य,अगर उसमें कोई कड़ी न हो तो मैं न हो
सकूंगा, समझना मुशिकल पड़ेगा। क्योंकि उससे क्या लेना देना, मैं तो हो ही गया हूं।
लेकिन
बुद्ध कहते है कि अगर भविष्य में भी जो होने वाला है, वह न हो तो मैं न हो सकूंगा। क्योंकि
भविष्य और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं। कहीं भी कोई भी बदलाहट होगी तो मैं
वैसे नहीं हो सकूंगा जैसा हूं। कल ने भी मुझे बनाया,आने वाला
कल भी मुझे बनाता हे—यही ज्योतिष है—बीता कल ही नहीं, आने
वाल कल भी—जा चुका ही नहीं,जो आ रहा,वह
भी—जो सूरज पृथ्वी पर उगे वह नहीं, जो उगे गे वह भी। वह भी
भागीदार है। वह भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे है। क्योंकि जो वर्तमान का क्षण
है वह हो ही न सकेगा अगर भविष्य का क्षण इसके आगे न खड़ा हो। उसके सहारे ही वह हो
पाता है।
हम सब
के हाथ भविष्य के कन्धे पर रखे हुए है। हम सबके पैर अतीत के कंधों पर पड़े हुए
है। हम सबके हाथ भविष्य के कन्धों पर रखे हुए है। नीचे तो हमें दिखायी पड़ता है
कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है वह न हो तो मैं गिर जाऊँगा। लेकिन भविष्य में मेरे
जो फैले हाथ है, वह जो कन्धे
को पकड़े हुए है। अगर वह भी न हों तो भी मैं गिर जाऊँगा।
जब
कोई व्यक्ति अपने को इतनी आन्तरिक एकता में अतीत ओर भविष्य के बीच जुड़ा हुआ
पाता है तक वह ज्योतिष को समझ पाता है। तब ज्योतिष धर्म बन जाता है। तब ज्योतिष
अध्यात्म हो जाता है। और नहीं तो वह जो नान एसेंशियल है, गैर जरूरी है उससे जुड़ कर ज्योतिष
सड़क की मदारी गिरी हो जाता है। उसका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता। श्रेष्ठतम
विज्ञान भी जमीन पर गड़ कर धूल की कीमत के हो जाते है। हम उनका क्या उपयोग करते
है। उस पर सारी बात निर्भर है। इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्का दे
रहा हूं। कि आपको यह ख्याल में आ सके—सब संयुक्त है—संयुक्ता इस जगत का एक
परिवार होना या एक आर्गैनिक बॉडी होना, एक शरीर की तरह होना।
मैं
सांस लेता हूं तो पूरा का पूरा शरीर प्रभावित होता है। सूरज सांस लेता है तो पृथ्वी
प्रभावित होती है। और दूर के महा सूर्य है वे भी कुछ करते है तो पृथ्वी प्रभावित
होती हे। और पृथ्वी प्रभावित होती है तो हम प्रभावित होते है। सब चीजें छोटा सा रोयाँ
तक महान सूर्यों के साथ जुडकर कंपता है। कंपित होता है।
यह
ख्याल में आ जाए तो हम सारभूत ज्योतिष में प्रवेश कर सकेंगे। और असार भूत ज्योतिष
की जो व्यर्थताए है उनसे भी बच सकेंगे। क्षुद्र तम बातें हम ज्योतिष से जोड़कर
बैठ गए है। अति क्षुद्र तम, जिनका कहीं
भी कोई मूल्य नहीं हे। और उनको जोड़ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है, जैसा हमने जोड़ रखा है कि एक आदमी गरीब पैदा होगातो इसका संबंध ज्योतिष
से होगा। नहीं गैर जरूरी बात अगर आप नहीं जानते है तो ज्योतिष से संबंध जुड़ा रहेगा।
अगर आप जान लेते है तो आपके हाथ में आ जाएगा।
एक
बहुत मीठी कहानी आपको कहूं तो ख्याल में आए, जिन्दगी ऐसी ही बे लेन्स है, ऐसा ही सन्तुलन है।
मुहम्मद का एक शिष्य है, अली। और अली मुहम्मद से पूछता है
कि बड़ा है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्य स्वतंत्र है अपने कृत्य में या
परतंत्र है—बंधा है कि मुक्त है। मैं जो करना चाहता हूं वह कर सकता हूं या नहीं
कर सकता हूं। सदा से आदमी ने यह पूछा है। क्योंकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ तो
फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलों ईमानदार
बनों नासमझी है।
एक
आदमी अगर चोर होने को बदा है तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो, नासमझी है। यह फिर यह हो सकता है कि
एक आदमी के भाग्य में बदा है कि वह यही समझता रहे कि चोरी न करो—जानते हुए कि चोर
चोरी करेगा बेईमान बेईमानी करेगा, असाधु होगा, हत्या करनेवाला हत्या करेगा, लेकिन अपने भाग्य
में यह बदा है कि लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो।–एब्सर्ड है।
अगर
सब सुनिश्चित है तो समस्त शिक्षाऐं बेकार है—सब प्रोफट्स,सब पैगम्बर, सब
तीर्थंकर व्यर्थ है। महावीर से भी लोग पूछते है, बुद्ध से
भी लोग पूछते है कि अगर होना है वही होना है तो आप समझा क्यों रहे है—किस लिए
समझा रहे हे।
मुहम्मद
से भी अली पूछता है कि आप क्या कहते है। अगर महावीर से पूछा होता अली ने तो
महावीर ने जटिल उत्तर दिया होता। और बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही
होती। लेकिन मुहम्मद ने वैसा उत्तर दिया था जो अली की समझ में आ सकता था। कई बार
मुहम्मद के उत्तर बहुत सीधे और साफ हे। अकसर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े लिखे
है, ग्रामीण है उनके उत्तर सीधे
और साथ होते है—जैसे कबीर के या नानक के,या मुहम्मद के या
जीसस के—बुद्ध और महावीर और कृष्ण के उत्तर जटिल है। वह संस्कृति का मक्खन हे।
जीसस की बात ऐसी है जैसे किसी ने सर पर लट्ठ मार दिया हो। कबीर तो कहते है—कबीरा
खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए बाजार में खड़े है कबीर। कोई आये हम उसका
सिर खोल दें।
मुहम्मद
के कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं की। मुहम्मद ने कहा अली, एक पैर उठाकर खड़ा हो जा। अली ने कहा, हम पूछते है कि कर्म करने में आदमी स्वतंत्र। मुहम्मद ने कहा, तू पहले एक पैर उठा अली बेचारा एक पैर, बायां पैर
उठा खड़ा हो गया। मुहम्मद ने कहा, अब तू दायां भी उठा ले।
अली
ने कहा,आप क्या बात
करते है। तो मुहम्मद ने कहा, अब तू चाहता पहले तो दाहिना भी
उठा सकता था। अब नहीं उठा सकता। मुहम्मद ने कहा कि एक पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र
है। लेकिन एक पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता हे।
वह
जो नान एसेंशियल हिस्सा है हमारी जिन्दगी का, गैर जरूरी हिस्सा हे, उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने
को स्वतंत्र है, लेकिन ध्यान रखना,उसमे
उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्से में बन्धन बन जाते है। वह जो बहुत जरूरी है वहां
भी फंसाव पैदा हो जाता हे। गैर जरूरी बातों में फंस जाते है। मुहम्मद ने कहा,तू उठा सकता था पहला पैर भी—दायां भी उठा सकता था,
कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसीलिए दायां उठाने में असमर्थता
होगी। आदमी की सीमाएं हे। सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता सीमाओं के
बाहर नहीं है।( क्रमश: अगले अंक में........
--ओशो
ज्योतिष अर्थात अध्यात्म,
वुडलैण्ड, बम्बई, दिनांक, 10 जुलाई, 1971
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