एक युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत कच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां— बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।
थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था।
लेकिन जितना उनका मोह उतना ही वह भागा— भागा रहने लगा। जितने जोर से तुम किसी को पकड़ोने उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से भाग गया। दूर कहीं जहां बुद्ध विहार करते थेर उसने जाकर दीक्षा भी ले ली भिक्षु हो गया बाप ने बड़ी खोजबीन की सब जगह खोजा फिर उसे याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी— कभी बात करता था कि संन्यस्त हो जाऊंगा तो वह बुद्ध की तलाश में गया। मिल गया बेटा वहां! बाप ने तो बहुत रोना— धोना किया छाती पीटी कपड़े फाड़ डाले लोटा जमीन पर। लेकिन बेटा, जितना बाप रोया—चिल्लाया, उतना ही मजबूती से जिद्द बांध लिया कि मैं यहां से जाऊंगा नहीं।
आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्षु हो गया। बेटे को छोड़ तो सकता नहीं था तो उसने भी संन्यास ले लिया। फिर उसकी पत्नी और बेटे की मां, वह कुछ दिन तक तो राह देखी बाप घर लौटा नहीं तो वह उसकी तलाश में निकली उसे भी खयाल आया कि बेटा कभी— कभी कहता था भिक्षु हो जाऊंगा कहीं भिक्षु न हो गया हो। वह वहां पहुंची तो वह देखकर चकित रह गयी—बेटा ही भिक्षु नहीं हो गया है बाप भी भिक्षु हो गया है? वह बहुत रोयी— पीटी चिल्लायी लोटी बड़ा शोरगुल मचाया बड़ी भीड़ जमा कर ली। बाप तो जाने को राजी था लेकिन वह बेटा कहे कि मैं जा नहीं सकता। आखिर कोई और उपाय न था तो मां भी दीक्षित हो गयी। वे तीनों संन्यासी हो गए
अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस न था, घर में विरस था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना——देना ही नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता था। और स्वभावत: पत्नी कहां जाए! तो वह भी संन्यस्त हो गयी थी। वे तीनो साथ ही साथ बने रहते। वे साथ ही साथ डोलते साथ ही साथ बैठते साथ ही साथ भिक्षा मांगने को जाते साथ ही साथ बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान न धर्म न साधना न कोई सिद्धि इससे उन्हें कुछ लेना—देना नही था। बुद्ध के वचन भी सुनने न जाते। बुद्ध को सुनने हजारों मीलों से लोग आते वे वहीं बुद्ध के पास थे और बुद्ध के वचन
सुनने न जाते—उन्हें लेना— देना क्या था
भिक्षु और भिक्षुणियां उनसे परेशान होने लगे। यह कुछ अजीब सा ही जमघट हो गया इन तीन कााउ इन्होने तो एक परिवार बना लिया वहां। आखिर बात बुद्ध तक पहुंची बुद्ध ने उन्हें बुलाया और उनसे पूछा. देखा बुद्ध ने, सारी बात साफ हो गयी। बेटा सिर्फ भागने के लिए संन्यास ले लिया घर में स्वतंत्रता न थी
सभी बेटे स्वतंत्रता चाहते हैं। किसी भी भाति स्वतंत्रता चाहिए। तो संन्यास ले लिया था कि इस भांति मुक्त हो जाएगा।
बाप और मां सिर्फ बेटे के पास ही बने रहे यह साथ कभी छूटे न इस मोह में संन्यस्त हो गए। बुद्ध ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो। यह कैसा संन्यास। संन्यास का अर्थ ही होता है अपने अकेलेपन में रस दूसरे में रस का त्याग।
अब इस बात को समझना। दूसरे में रस के त्याग का अर्थ होता है, दूसरे में विरसता का भी त्याग। जब तक तुम्हारा दूसरे में रस है, या विरस; जब तक तुम्हारा दूसरे में लगाव है, या दुराव; जब तक दूसरे में मोह है, या दूसरे में क्रोध; तब तक तुम दूसरे से बंधे हो।
इसलिए तुम्हारे बहुत से संन्यासी जो घरों को छोड़कर भाग गए हैं, वस्तुत: संन्यस्त नहीं हो पाए हैं। घरों से छोड़कर भाग गए होंगे, संन्यास नहीं घटित हुआ है। उनका विरस हो गया है। घर से वे परेशान हो गए हैं। पत्नी से परेशान, बच्चों से परेशान, क्रोध में चले गए हैं, किसी बोध में नहीं।
अगर बोध में गए हों तो जाने की जरूरत क्या है? क्रोध में ही आदमी भागता है, या भय में भागता है। बोध में तो भागने की जरूरत नहीं, बोध में तो थिर हो जाता है। बोध में तो जहां है वहीं ज्योतिर्मय हो जाता है। बोध में तो जहां है वहीं चिन्मय की वर्षा हो जाती है। बोध में फिर क्या पहाड़ और क्या बाजार, क्या घर और क्या गिदर, सब बराबर है।
भगोड़ों में रस तो नहीं है, विरस है। पर विरस भी तो रस का ही रूप है। जैसे दूध फट गया, ऐसा विरस है—रस फट गया—लेकिन है दूध का ही रूपांतरण। नेसे कोई चीज रखी—रखी बासी होकर खट्टी हो गयी। मगर है तो उसी का रूपांतरण।
इसलिए संन्यास को तुम त्याग मत समझना। संन्यास न तो भोग है और न त्याग। फिर संन्यास क्या है? संन्यास इस बात का बोध है कि न तो दूसरे से कुछ मिला है, न मिल सकता है। नाराजगी का भी कोई कारण नहीं। क्योंकि नाराजगी का तो अर्थ ही यह होता है कि अभी भी यह बात मन में बनी है कि मिल सकता था और नहीं मिला। नाराजगी का क्या अर्थ होता है? तुम अगर अपनी पत्नी पर नाराज हो तो तुम यह कह रहे हो कि यह गलत पत्नी मिल गयी है, अगर ठीक पत्नी मिलती तो हम सुखी हो जाते। तुम अगर बेटे से नाराज हो, तो तुम यह कह रहे हो कि कहां हा बेटा घर में पैदा हो गया है, कुपुत्र पैदा हो गया है, सुपुत्र होता तो हृदय में बड़ी शांति हो जाती, बड़ा आनंद हो जाता। तुम वस्तुत: सत्य को देख नहीं पाए कि दूसरे में सुख होता ही नहीं—सुपुत्र में भी नहीं होता, कुपुत्र में तो होता ही नहीं। कुरूप में तो होता ही नहीं, सुरूप में भी नहीं होता। दूसरे में सुख होता ही नहीं—बुरी स्त्री में तो होता ही नहीं, भली स्त्री में भी नहीं होता। असाधु में तो होता ही नहीं, साधु में भी नहीं होता, सुख दूसरे में होता ही नहीं। यह दूसरे से सुख के भाव का सब भाति से मुक्त हो जाना संन्यास है।
युवक घर से भागा, क्योंकि वह मां—बाप से परेशान हो गया था। उनका मोह करीब—करीब कारागृह बन गया था। अकेला कहीं जा न सके। कोई राग—रंग में अकेला सम्मिलित न हो सके, वह बाप और मां पीछे ही लगे रहें। यह जरा अति हो गयी। इस अति से वह भागा हलेकिन संन्यासी तो नहीं था। और मां—बाप को तो कोई प्रयोजन ही न था, इतना भी प्रयोजन नहीं था। उनको तो मोह था। उनको तो खयाल था कि बेटे के कारण सब हो जाएगा। जो चाहिए वुहु हो जाएगा। बस बेटे में जैसे परमात्मा मिल गया, सब मिल गया था। इसके पार उनकी आखें ही न उठी थीं। वे जमीन पर रेंगते हुए चल रहे थे। जमीन पर आखें गड़ाए हुए चल रहे थे।
और ध्यान रखना, जो जमीन पर आखें गड़ाए चलेगा, उसे अगर आकाश के तारे न दिखायी पड़े तो तारों का कोई कसूर नहीं है। तारे तो हैं। तुम्हारे लिए भी उतने हैं जितने कि बुद्ध और महावीर और कृष्ण और कबीर के लिए हैं। मगर तुम आखें ही जमीन पर गड़ाए रखोगे तो तारों का कोई कसूर नहीं है। आखें ऊपर उठेंगी तो ही तारे दिखायी पड़ेंगे।
बुद्ध ने उनसे पूछा कि यह मामला क्या है यह कैसा संन्यास! यह तो संन्यास की शुरुआत ही गलत हो गयी मालूम होती है तो बाप ने कहा असली बात यह है—संन्यास से हमें कुछ लेना— देना नहीं। मैं और मेरी पत्नी बेटे के साथ रहना चाहते हैं और बेटा भागता है भगोड़ा है बचना चाहता है खराब होना चाहता है; बुरे संग में पड़ जाएगा बिगड़ जाएगा तो हम इसे बचाने के लिए इसके पीछे रहते हैं। और यह बुरे संग में पड़ना चाहता है। बूढ़े बाप ने कहा कि आप तो जानते ही हैं जवानी कैसी होती है! यह कहीं बिगड़ न जाए इसलिए हम पीछे लगे हैं। और यह बिगड़ने के लिए आतुर है? तो यह भागता है। न इसे संन्यास से कुछ लेना—देना है न हमें कुछ लेना—देना है। हम तीनों एक साथ ही रहे इसलिए हमने संन्यास ले लिया है हम अलग—अलग नहीं रह सकते।
तब भगवान ने कहा प्रिय का अदर्शन और अप्रिय का दर्शन दुखकर है इसलिए किसी को प्रिय या अप्रिय नहीं करना चाहिए। और दुख का मूल यही है कि दूसरे से मिलेगा दूसरे से आशा दूसरे से संभावना सारे दुख का मूल है। फिर नहीं मिलता तो क्रोध आता है फिर नहीं मिलता तो क्षोभ पैदा होता है 1 जहां मोह है वहां मोहभंग पर क्षोभ पैदा होता है।
तब बुद्ध ने ये पहली तीन गाथाएं कहीं। ये गाथाएं अपूर्व हैं—
अयोगे युज्जमत्तानं योगस्मिज्च अयोजयं।
अत्थं हित्वा पियग्गाही पिहेतत्तानुयोगिनं।
अयोग्य कर्म में लगा हुआ, योग्य कर्म में न लगने वाला तथा श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण करने वाला मनुष्य, आत्मानुयोगी पुरुष की स्पृहा करे।’
पहली गाथा। बुद्ध कहते हैं, जो अयोग्य कर्म में लगा है और योग्य कर्म में नहीं लगा है। स्वभावत: जब तुम्हारी ऊर्जा अयोग्य में लगी होगी तो योग्य में कैसे लगेगी प अयोग्य से छूटेगी तो योग्य में लगेगी। गलत दिशा में जाता आदमी एक ही साथ ठीक दिशा में तो नहीं जा सकता। जो गलत दिशा में जा रहा है, वह ठीक दिशा में तो नहीं जा सकता। और जिसे ठीक दिशा में जाना है, उसे गलत दिशा में जाना बंद करना होगा।
'अयोग्य कर्म में लगा हुआ, योग्य कर्म में न लगने वाला तथा श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण करने वाला मनुष्य, आत्मानुयोगी पुरुष की स्पृहा करे।’
ये दो बातें श्रेय और प्रेय समझने की हैं।
प्रेय का अर्थ होता है, जो प्रिय है मुझे उसे पा लूं। लेकिन अभी तुम अंधेरे में खड़े हो, तुम्हें जो प्रिय भी लगता है, वह भी तुम्हारे अंधेरे की ही उपज है। अभी तुम रुग्ण हो, तुम्हें जो प्रिय भी लगता है, वह भी तुम्हारे रोग का ही हिस्सा है। अभी तुम अंधे हो, वह जो तुम्हें प्रिय भी लगता है, वह तुम्हारे अंधेपन से ही पैदा हो रहा है। इसलिए प्रेय में अगर लग गए, प्रिय में अगर लग गए, तो भटकते ही चले जाओगे। पहले श्रेय को साधो।
श्रेय का अर्थ होता है, स्वयं को रूपांतरित करो। जिस आदमी की आखें जमीन पर गड़ी हैं, वह अगर चुनाव भी कर ले कि कौन सी चीज प्रिय है, तो भी चीज तो जमीन की ही रहेगी। चलो, कंकड़—पत्थर नहीं बीनेगा तो हीरे—जवाहरात बीन लेगा। प्नेकिन हीरे—जवाहरात भी वस्तुत: तो कंकड़—पत्थर हैं। हीरे—जवाहरात तो हमने उन्हें बना दिया। अगर आदमी न हो तो कौन हीरा है और कौन पत्थर है! आदमी के कारण कुछ पत्थर हीरे हो गए हैं। मगर आदमी हट जाए तो सब पत्थर हैं, हीरा भी पत्थर हे, पत्थर भी पत्थर हैं। उनमें कोई फर्क न रहेगा। हीरों को पता ही नहीं है कि वे हीरे है'। और पता हो जाए तो आदमी पर वे बहुत हंसें, क्योंकि वे जानते हैं कि पत्थर ही ते। आदमी ने भेद कर लिया है, यह प्रिय है, उसको ऊंचा बना लिया है।
लेकिन इस तरह अगर प्रेय का कोई चुनाव करता रहे जमीन पर आख गड़ाए तो चांद—तारों को कभी भी न पा सकेगा। श्रेय का अर्थ होता है, पहले आखें उठाओ, पहले अपने को उठाओ। श्रेय का अर्थ होता है, पहले शुभ बनो। श्रेय का अर्थ होता है, पहले सत्व में उठो। श्रेय का अर्थ होता है, पहले शिवत्व में जागो। श्रेय का अर्थ होता है, पहले थोड़ी दिव्यता का अनुभव करो—फिर प्रिय को चुनना।
जो आदमी श्रेय को चुन लेता है वह प्रेय को पा ही लेता है। क्योंकि श्रेय की आखिरी अवस्था में सिर्फ परमात्मा के अतिरिक्त और कोई प्रेय नहीं रह जाता। श्रेय की ऊंचाई पर सिवाय आत्मानुभव के और कोई चीज प्रिय नहीं रह जाती।
तो अभी जो प्रिय को खोजेगा वह भटकता चला जाएगा। अब यह मजे की बात समझना। अभी जो प्रिय को खोजेगा वह प्रिय को तो पाएगा ही नहीं और श्रेय को भी चूक जाएगा। क्योंकि प्रिय तो एक ही है, वह तुम्हारे अंतरतम में बसा है, वह तुम्हारे हृदय का मालिक है, वह प्रियतम तुम्हारे भीतर बैठा है। और तुम बाहर टटोल रहे हो। कभी इस चीज को प्रेय मान लेते हो, कभी उस चीज को प्रेय मान लेते हो—कहते हो कभी, बड़ा मकान, कहते हो कभी, बड़ा हीरा; कभी कहते हो, बड़ी दुकान, बड़ी कार—कुछ करते रहते, खोजते रहते। क्हीं भी पाते नहीं हो प्रिय को। जो मिल जाता है वही व्यर्थ हो जाता है।
क्या तुम्हारे जीवन का अनुभव भी यही नहीं है? जो मिल जाता है वही व्यर्थ हो जाता है। जब तक नहीं मिला, तब तक सार्थक मालूम होता है। बड़े से बड़े महल में भी पहुंचकर भी कितने दिन तक महल सुख देता है? दो—चार दिन पा लेने की तरंग रहती है, अकड़ रहती है कि मिल गया। दो—चार दिन के बाद तुम भूल जाते हो। जो महलों में रहते हैं कोई चौबीस घंटे महल को याद रखते हैं! महल झोपड़े जैसे ही भूल जाते हैं। और बड़े महलों के सपने उठने लगते हैं। सब महल छोटे हो जाते हैं। जो है, वही व्यर्थ हो जाता है।
तो श्रेय का अर्थ होता है, पहले स्वयं को जगाओ। तुम जाग गए तो ही तुम श्रेय को खोज सकोगे। तुम सोए—सोए टटोलते रहे तो तुम गलत को ही पकड़ते रहोगे। तुम ही गलत हो, तो तुम ठीक को कैसे खोजोगे? श्रेय की तलाश करने वाला श्रेय को तो पा ही लेता है और अचानक एक दिन पाता है, प्रेय मुफ्त में मिल गया। श्रेय की छाया की तरह मिल गया।
तो बुद्ध कहते हैं, श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण करने वाला मनुष्य उस व्यक्ति के साथ स्पृहा करे, उस व्यक्ति के साथ स्पर्धा करे, जो आत्मानुयोगी है, जो अपने भीतर जा रहा है, आत्मा की तलाश कर रहा है।
उन तीनों को बुद्ध ने यह वचन कहा कि तुम थोड़ा सोचो, क्या कर रहे हो? ऐसे कहीं प्रिय मिला है! ऐसे तो जीवन गंवा दोगे। बेटे से थोड़े ही प्रिय मिल जाएगा, न पत्नी से मिल जाएगा, न पिता से मिलेगा, संबंधों से कोई प्रिय मिलता नहीं। संबंधों से तो तुम सिर्फ इतनी बात को छिपाते हो कि तुम अकेले हो, बस। अकेले नहीं हो।
तुमने खयाल किया, अकेले रह जाते हो घर में, कैसी घबड़ाहट, भांय—भांय मालूम होने लगती है! अकेले रहते ही से कुछ घबड़ाहट, कुछ भय पकड़ता है! कोई असुरक्षा! अब कोई भी नहीं है, संगी—साथी नहीं है। और जिनको तुम संगी—साथी कहते हो, वे भी क्या हैं! उनके होने से भी क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हो गया है। मगर एक बात बनी रहती है कि शोरगुल बना रहता है, भीड़— भाड़ बनी रहती है। भीड़— भाड़ और शोरगुल में तुम अपने को भूले रहते हो। दिनभर की आपाधापी, रात आकर गिर जाते बिस्तर पर थके—मादे, सुबह उठकर फिर चल पड़ते हो। ऐसे भूले रहते हो। ऐसे याद नहीं आता कि क्या गंवा रहे हो। ऐसे खयाल में नहीं आता कि क्या खो रहे हो। यह सारी दौड़—धूप एक तरह की शराब है, जो तुम्हें अपने से वंचित रखती है।
बुद्ध ने कहा, इस बात को खयाल में लो, श्रेय को पकड़ो, प्रेय को छोड़ो। और अगर तुमसे अभी यह न हो सके तो कम से कम जिन्होंने प्रेय को छोड़ दिया है और श्रेय की यात्रा पर निकले हैं, उनसे स्पृहा तो करो। यहा इतने भिक्षु हैं, बुद्ध ने कहा होगा, जो श्रेय की यात्रा पर निकले हैं, इनकी शांति तो देखो! मुझे तो देखो, बुद्ध ने कहा होगा। सुसुखं वत! जरा मेरे सुख को देखो। मेरी तरफ आखें उठाओ, यह मेरे आनंद का जो शिखर खड़ा हुआ है, इस पर जरा आखें गड़ाओ। यहौ मेरे पास रहकर, इतनें भिक्षुओं से घिरे रहकर, इतने लोग ध्यान कर रहे, इतने लोग समाधि में उतर रहे, इतने लोग समाधि को प्राप्त हो गए, इस अपूर्व वातावरण में भी तुम तीनों बैठकर एक—दूसरे को पकड़े हुए हो! फालतू की बातों में लगे हो! यहां इतना श्रेय घटित हो रहा है, ऐसी श्रेय की तरंगें उठ रही हैं, लहरें उठ रही हैं, इन पर सवार हो जाओ। यह इतनी बड़ी नौका श्रेय की तरफ जा रही है, इसमें बैठने का तुम्हारा मन नहीं करता? और इस नौका में जो बैठे हैं, उन्हें देखकर तुम्हारे मन में स्पृहा पैदा नहीं होती?
खयाल रखना, दो शब्द—स्पृहा और ईर्ष्या। ईर्ष्या सांसारिक स्पृहा है और स्पृहा सासारिक से पार, वह जो परमात्म है, परमार्थ है, अध्यात्म है, उसमें दूसरों को मिल रहा है, मुझे नहीं मिल रहा! कम से कम इस बात की चोट तो होने दो। दूसरे जग रहे हैं, मैं अभी तक सोया हूं कम से कम इस बात की पीड़ा तो चुभने दो, काटा तो लगने दो। यहां इतने संन्यासियों के बीच भी तुम अपने घर में ही बने हुए हो! तुम वहां से आए ही नहीं। यह मा—बाप और बेटा, बस, यह तुम तीनों ने अपना एक अड्डा बना लिया है! थोड़ा जागकर देखो। चलो सयोगवशात ही यह मौका मिल गया है। न बेटे को संन्यास में रस था, न तुम्हें संन्यास में रस है। सयोगवशात तुम यहौ आ गए हो, लेकिन फिर भी लाभ तो ले सकते हो। सयोगवशात ही कोई बगीचे में आ जाए, तो भी फूलों के सौंदर्य का आनंद तो ले ही सकता है। शायद दुबारा फिर आकांक्षा करके आए, अभीप्सा करके आए।
ऐसा घटता है। यहा किसी का बेटा संन्यस्त हो गया है...।
अभी हुआ, एक युवती जर्मनी से आयी, संन्यस्त हो गयी, उसके घर के लोग परेशान थे। एक तो संन्यास उनकी समझ में ही न आए कि बात क्या है ' पश्चिम में यह शब्द तो बहुत उलझन भरा है। यह हुआ क्या! बाप भागा हुआ आया। चार दिन यहां अपनी बेटी को समझाता—बुझाता रहा, लेकिन बेटी जाने को राजी न हुई। तो फिर वह बेटी को लेकर मेरे पास आया। सोचा शायद मैं समझा दूंगा। दो—चार दिन उसने मेरी बातें भी सुनीं, फिर सांझ के दर्शन में आया। तो दूसरों से जो मैं बातें कर रहा था वह उसने सुना, फिर तो यह बात उसे पूछने जैसी ही न लगी। यह बात ही उसे न जंची कि अब वह पूछे कि इस लड़की को वापस ले जाना है। वह कहने लगा कि मैं फिर आऊंगा। संन्यास ने मेरे मन को भी लुभा लिया है, आया तो मैं अपनी लड़की को लेने था, लेकिन मैं खुद पकड़ा गया हूं। ध्यान में डुबकी मैं भी लगाना चाहूंगा। अभी तो मुझे लौटना पड़ेगा, इसकी मां परेशान हो रही है, यह कालेज से भाग आयी है, परीक्षा करीब आ रही है, कालेजु के अधिकारी परेशान हो रहे हैं, अभी तो मैं जाऊं।
तो मैंने उस युवती को कहा कि तू भी वापस जा, मर के लोग सब शात हो जाएंगे, सौभाग्यशाली है तू कि तुझे ऐसा पिता मिला, तू जा!
युवती साथ चली गयी, लेकिन पिता का हृदय यहां छूट गया है। युवती तो लौट ही आएगी, पिता भी लौट आएगा। संयोग से ही आना हुआ, कोई कारण न था आने का। शायद अगर उसकी बेटी भागकर न आयी होती तो पिता कभी आता ही नहीं, लेकिन स्पृहा पैदा हो गया। यहा देखा लोगों को नाचते, तो उसने मुझसे पूछा कि मैं तो कभी नाचा नहीं! लोगों को प्रसन्न देखा, तो उसने पूछा कि इतने प्रसन्न लोग हो सकते हैं, यह मुझे भरोसा नहीं!
संयोग से आया हुआ आदमी भी कभी—कभी नाव में सवार हो जाता है, समझदारी हो तो। और कभी—कभी ऐसा होता है कि समझदारी न हो, तो तुम चेष्टा करके आए हो तो भी चूक जाओगे।
वैसे लोग भी आ जाते हैं। संन्यास ही लेने आते हैं, लेकिन फिर कोई छोटी—मोटी बात अड़चन बन जाती है। उतनी सी अड़चन से लौट जाते हैं। आदमी पर निर्भर है। आदमी की गुणवत्ता पर निर्भर है।
शुभ होना तो शुभ है ही, कम से कम शुभ की स्पृहा तो करो। अगर आज शुभ नहीं हो सकते तो इतना तो सोचो, इतना सपना तो संजोओ, इतना सपना तो देखो किं कभी शुभ हो सकूं। और जिनको शुभ घटित हुआ है, उनके साथ थोड़ा सा खयाल तो करो कि यह भी हो सकता है; और जो इन्हें हुआ है, वह मुझे भी हो सकता है।
मा पियेहि समागच्छि अपियेहि कुदाचनं।
पियानं अदस्सनं दुक्खं अप्पियानज्व दस्सनं।।
'प्रियों का संग न करे', बुद्ध ने कहा, 'न कभी अप्रियों का ही संग करे। प्रियों का न देखना दुखद है, और अप्रियों का देखना दुखद है।
बुद्ध ने कहा, दुख के दो कारण हैं। प्रिय से मिलन न हो तो दुख होता है, अप्रिय से मिलन हो जाए तो दुख होता है। प्रिय छूट जाए तो दुख हो जाता है, अप्रिय मिल जाए तो दुख हो जाता है। लेकिन दुख का मूल कारण तो यही है कि तुमने प्रेम का संबंध बनाया। दोनों प्रेम के संबंध हैं—प्रिय का और अप्रिय का। और कभी—कभी ऐसा होता है कि दोनों बातें एक के साथ ही घट जाएंगी।
तुमने कभी देखा है, बचपन का बिछड़ा हुआ मित्र वापस आ गया है मिलने, बड़े तुम खुश हुए, गले से लगा लिया, उठा लिया। एक दिन खुशी रही, वह घर टिक ही गया बोरिया—बिस्तर जमाकर, दूसरे दिन जरा बेचैनी होने लगी, तीसरे दिन पत्नी नाराज होने लगी कि हटाओ भी, यह कहा के आदमी को बिठा रखा है, चौथे दिन बच्चे भी परेशान होने लगे, पांचवें दिन तुम भी प्रार्थना करने लगे भगवान से कि अब इन सज्जन को विदा करो। अगर महीने दो महीने यह मित्र रुक जाए और फिर तुम सफल हो जाओ इसको विदा करवाने में, तो तुम जितने प्रसन्न होओगे, उतने प्रसन्न तुम इसके मिलने पर भी नहीं हुए थे। यह वही का वही है; कुछ फर्क नहीं पड़ा है, तुम वही के वही हो, यह मित्र भी वही का वही है, लेकिन क्या हो गया! हक ही संबंध प्रेम का अप्रेम का भी बन जाता है।
प्रेम और अप्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और बुद्ध कहते हैं, दोनों से दुख मिलता है। प्रिय बिछुड़े तो दुख होता है—और बिछुड़ना तो होगा ही, क्योंकि यहां मौत सबको अलग कर देगी। जन्म के पहले हम सब अलग थे। जन्म ने इकट्ठा कर दिया, मौत अलग कर देगी। नदी—नाव संयोग। राह पर चलते यात्री मिल गए है। तीर्थयात्रा को गए थे, राह पर बातचीत हो गयी, मिल गए, संबंध बन गया, फिर बिछुड़ जाएंगे। सांझ को पक्षी एक वृक्ष पर आकर बैठ गए हैं, मिलन हो गया है, रातभर साथ रहेगा डेरा, सुबह फिर उड़ जाएंगे। जन्म ने मिला दिया है, मृत्यु फिर विदा कर देगी। तो विदा तो होना ही होगा आज नहीं कल।
फिर और बहुत से कारण हैं जिन्होंने मिला दिया है। कोई स्त्री सुंदर है, उसके सौंदर्य के कारण तुम प्रेम में पड़ गए हो, लेकिन सौंदर्य टिकता थोड़े ही है। थोड़े दिनों बाद सौंदर्य तिरोहित हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही थी कि क्या मैं की हो जाऊंगी तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे? मुल्ला पहले तो अखबार पढ़ रहा था, तो उसने ठीक से सुना नहीं, उसने टालने को कहा, हा—हा, जरूर, क्यों नहीं! तब उसे खयाल आया कि वह क्या कह रहा है। तो उसने पूछा कि तुम अपनी मां जैसी तो नहीं लगने लगोगी? अन्यथा मैं पहले ही से कहे देता हूं कि फिर मुझसे न हो सकेगा प्रेम इत्यादि।
कभी तुम किसी बात से, किसी कारण से किसी के प्रेम में पड़ गए। वह कारण हट जाएगा, फिर? फिर क्या करोगे? और कारण न भी हटे, तो भी जो चीज तुम्हें प्रीतिकर मालूम पड़ती है जब दूर होती है, पास आने पर, मिल जाने पर उतनी प्रीतिकर मालूम होगी? अपनी पत्नी किसी को सुंदर मालूम होती? अपना पति किसी को सुंदर मालूम होता। सौंदर्य दूर से मालूम होता है। सौंदर्य जो उपलब्ध नहीं है, उसमें मालूम होता है। सौंदर्य का अधिकतम प्रभाव तो जितना कठिन हो पाना, उसमें होता है। जितना सरल हो जाए, उतना ही सौंदर्य समाप्त हो जाता है। अगर कोई स्त्री बहुत दुर्लभ हो कि मिल ही न सके, तो उसका सौंदर्य सदा बना रहेगा। मिल गयी कि सौंदर्य समाप्त हो गया। करोगे क्या? कितनी ही सुंदर नाक हो और कितनी ही सुंदर आख हो, करोगे क्या? दों—चार दिन में सब भूल जाओगे।
जो चीज कारण कर निर्भर है, वह टूटेगी। तो यहां प्रिय का मिलन भी होगा, प्रिय का बिछुड़ना भी होगा, यहा प्रेम की घटना भी घटेगी और फिर प्रेम खट्टा होकर अप्रेम भी बनेगा। इसलिए प्रेम सब तरह से दुख देता है। प्रैम रहे तो दुख देता है, फिर प्रेम छूट जाए तो दुख देता है। फिर अप्रिय मिल जाए तो कठिनाई हो जाती है। तो बुद्ध कहते हैं—
मा पियेहि समागज्छि अप्पियेहि कुदाचनं।
'प्रियों का संग न करे, न कभी अप्रियों का संग करे।
इसका क्या अर्थ हुआ? क्या किसी का संग ही न करोगे ' प्रियों का देखना दुखद, अप्रियों का देखना दुखद, तो क्या फिर किसी के साथ ही कभी खड़े न होओगे? तो बौद्ध भिक्षु भी तो एक—दूसरे के साथ थे! खुद बुद्ध भी तो हजारों भिक्षुओं के साथ थे!
नहीं, बुद्ध के कहने का इतना ही तात्पर्य है कि बीच में प्रेम के संबंध खड़े मत करना। साथ रहो, संबंध के सेतु मत जोड़ो। तुम अलग, दूसरा अलग। तुम अपने स्वात में शिखर, वह अपने एकांत में शिखर। एकांत पर हमला मत करो, स्वात पर हावी मत होओ, एक—दूसरे के एकात को नष्ट मत करो। एक—दूसरे के मालिक मत बनो और न एक—दूसरे को अपना मालिक बनाओ। मुक्त रहो। साथ रही तो भी संग न बनाओ। यही मेरी देशना है।
इसलिए मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि घर भी छोड़ो। मैं कहता हूं र घर छोड़कर भी कहा जाओगे, आश्रम में रहोगे तो आश्रम घर बन जाएगा। घर से भागने का उपाय क्या है, कहीं तो रहोगे! वहीं घर बन जाएगा। जहा रहोगे, उसका नाम घर है। पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, बेटे को छोड़कर भाग जाओगे, किसी के साथ तो रहोगे! उसी से संबंध बन जाएंगे लगाव के।
नहीं, इसलिए भागने का कोई सवाल नहीं है। दो व्यक्तियों के बीच में जो संबंध का सेतु होता है, कड़ी होती है, वह भर गिरा दो। पत्नी के ही साथ रहो, लेकिन अब पति होकर नहीं। पति का भाव जाने दो। बेटे के साथ रहो, लेकिन बाप होकर नहीं। बाप का भाव जाने दो। वह तो सिर्फ भाव ही हैं। पानी के बबूले हैं और कुछ भी नहीं। फूंक मारे से उड़ जाते हैं। जरा से बोध की चोट से टूट जाते हैं। इंद्रधनुषों जैसे हैं—दिखायी पड़ते हैं बहुत रंगीन, पास जाओ तो हाथ में कुछ भी नहीं आता। इन बबूलों को गिर जाने दो। रहो साथ, मगर संग न बनाओ।
साथ रहो और अगर संग न बने, तो न फिर दुख होता है प्रिय के मिलन से, बिछुड़ने से, न अप्रिय के मिलन से, न अप्रिय के बिछुड़ने से। फिर तुम सभी स्थितियों को स्वीकार करने में कुशल हो जाते हो। प्रिय आए तो ठीक, अप्रिय आए तो ठीक। तुम हर हालत में राजी होते हो। तुम्हारी कोई आकाक्षा नहीं होती कि ऐसा ही हो तभी मैं सुखी होऊंगा। और जब तुम्हारी ऐसी कोई शर्त नहीं होती, तब तुम्हारे सुख का क्या कहना! तब तुम्हारा सुख महासुख हो जाता है। तब सभी कारणों के पार, सभी शर्तों के पार तुम सुखी होते हो, सुख तुम्हारा स्वभाव हो जाता है।
स्वामी रामतीर्थ सदा कहा करते थे, यूनान के बहुत बड़े वैज्ञानिक आर्किमिडीज ने कहा था कि यदि मुझे कोई स्थिर आधार, खड़े होने को कोई स्थल मिल जाए, तो मैं दुनिया को हिला सकता हूं। आर्किमिडीज कहता था कि अगर मुझे कुछ ऐसा एक छोटा सा बिंदु भी मिल जाए जो स्थिर है, स्थिर बिंदु, जो हिलता नहीं, तो मैं उस पर खड़े होकर सारी दुनिया को हिला सकता हूं। किंतु वह बेचारा ऐसा स्थिर बिंदु न पा सका, क्योंकि संसार में ऐसा कोई स्थिर बिंदु है ही नहीं। स्थिर बिंदु तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं, वह है तुम्हारी आत्मा। उसे पकड़ो और सारा संसार तुम चलाने लगोगे। अभी तो संसार तुम्हें चलाता है। अभी तो तुम परिस्थितियों के दास हो। अभी तो जरा सी बात बाहर घटती है और तुम कैप जाते हो। अभी तो कोई भी चीज तुम्हें सुखी और दुखी कर जाती है। अभी तुम अपने मालिक नहीं हो।
तो स्वामी रामतीर्थ कहते थे और ठीक कहते थे कि अगर तुम बाहर कोई ऐसा स्थिर बिंदु खोजने चले हो तो कहीं भी न मिलेगा। ऐसी खोज का नाम ही संसार है—बाहर कोई स्थिर बिंदु मिल जाए जिसमें सुरक्षा हो, जहां मैं विश्राम कर सकूं। नहीं, ऐसा कोई स्थिर बिंदु है ही नहीं बाहर। लेकिन भीतर एक स्थिर बिंदु है, जहा तुम परम विश्राम को उपलब्ध हो सकते हो। और जहां पहुंच गए व्यक्ति को कोई डिगा नहीं सकता। और जहां पहुंचा हुआ व्यक्ति चाहे, तो उसके इशारे से सारी दुनिया कपती है।
वास्तव में कर्ता भी तुम्हीं हो
और कर्म भी तुम्हीं
तुम्हीं आत्मा हो
और तुम्हीं नाममात्र अनात्मा हो
तुम्हीं सुंदर गुलाब हो
और प्रेमी बुलबुल भी तुम्हीं हो।
तुम फूल हो
और भौंरा भी तुम
हर एक चीज तुम हो—
भूत और प्रेत
देवता और देवदूत
पापी और महात्मा
सब तुम्हीं हो।
यह है संन्यास का मार्ग। इस बात को जानना कि मेरा संसार मेरे भीतर है, यह है संन्यास का मार्ग। इस बात को जानना कि मेरा सुख मेरे बाहर है, यह है संसार का मार्ग। अपना केंद्र अपने से बाहर मत बनाओ, ऐसा कैरने से तुम गिर पड़ोगे। अपना पूर्ण विश्वास अपने में जगाओ, अपने केंद्र में बने रहो, फिर तुम्हें कोई भी चीज हिला न सकेगी।
जब बुद्ध कह रहे हैं कि संग—साथ में बहुत अपने को न डुबाए, वे इतना ही कह रहे हैं कि अपने केंद्र तुम स्वयं बनी।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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