श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता तो यह बात नहीं होनी थी।
जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब उघाड़ा कर दिया।
उसका दुख कुछ ऐसा था कि सारे गांव में चर्चा का विषय बन गया। नित्यप्रति वह श्मशान जाता। बेटा मर गया, जला भी आया मगर रोज जाता उस जगह जहां बेटे को जलाया। वहां बैठकर रोता। जो बेटा अब नही है उससे बातें करता। वह करीब— करीब विक्षिप्त हो गया।
उसने बुद्ध को सुनने आना भी बंद कर दिया—उसे होश ही न रहा बेटे के शोक ने ऐसा घेरा बेटे के शोक के बादल ऐसे उसके चारों तरफ घिर गए कि बुद्ध उसे अब दिखायी भी कहां पड़े। भिक्षु रास्ते पर मिलते तो वह नमस्कार भी न करता।
बुद्ध के पास खबरें आने लगीं कि वह विक्षिप्त होता जा रहा है। तो बुद्ध एक दिन उसके घर गए।
भगवान ने उससे उसके शोक का कारण पूछा—उपासक क्यूं शोक कर रहे हो? वह बोला भंते पुत्र की मृत्यु से दुखी हो रहा हूं।
जैसे श्रावक शब्द का अर्थ होता है, जो सुनता है, वैसे उपासक का अर्थ होता है, जो गुरु के पास बैठता है। उप—आसन, जो पास में आसन लगाता है। मगर पास में आसन लगाने से भी कुछ नहीं होता। अगर गुरु की तरंगों में तरंगित न हुए तो पास कितना ही आसन लगा लो, शरीर ही पास होगा, आत्मा तो दूर की दूर रह जाएगी। कितना ही सुनो, अगर कानों पर चोट पड़ती रही और तुम सुनते रहे—क्योंकि तुम बहरे नहीं हो, इसलिए सुनोगे तो ही—लेकिन बात तो भीतर गयी कि नहीं, इस पर ही सब निर्भर करेगा।
तो न तो वह उपासक था, न वह श्रावक था। फिर भी वर्षों तक बुद्ध के पास आया था तो उनकी करुणा उन्हें खींच ले गयी।
उससे पूछा क्यूं शोक कर रहे हो? तो उसने कहा भंते पुत्र की मृत्यु से दुखी हो रहा हूं, क्या आपको पता नहीं चला? क्या आपने सुना नहीं कि मेरा बेटा मर गया है— एकमात्र इकलौता बेटा मेरे बुढ़ापे की वही तो लकड़ी था मेरे बुढ़ापे की वही तो ऑख था। मेरे बुढ़ापे का वही तो सहारा था और वह तत्कण छाती पीट—पीटकर रोने लगा।
बुद्ध ने उससे कहा मरणधर्मा ही मरा है। जो मरता है वही मरा है। जो नहीं मरता वह नहीं मरा है।
जो मरता ही—आज नहीं कल, कल नहीं परसों—वही मरा है। कुछ अनहोना नहीं हो गया है। तो तूने नष्ट होने वाले से राग बाध लिया था। अमृत को खोज, बुद्ध ने कहा। फिर से गौर से देख, बेटे के भीतर जो मरणधर्मा था वही मरा है। तो मरणधर्मा तो मरेगा ही। जो अमरणधर्मा था, जो अमृत था, जो नहीं मरता है, जो शाश्वत है, सनातन है, तूने उससे जरा भी पहचान न की। और तू भी मरेगा। तो जल्दी कर, अपने भीतर ही पहचान कर ले, नहीं तो कहीं तू भी यह न सोचते रहना कि तू देह है, शरीर है, मन है—नहीं तो फिर तडूफेगा। इस अवसर को चूक मत। इस मौके को ध्यान का एक उपाय बना ले। अपने को पहचानने की कोशिश कर, तेरे भीतर भी वह है जो कभी नहीं मरता है। उसको पहचानते ही तू बेटे के भीतर भी जो कभी नहीं मरता उसको पहचान लेगा। और दुख के पार होने का एक ही उपाय है कि मृत्यु के पार हमें कुछ दिखायी पड़ जाए, अन्यथा हम दुख से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं।
फिर बुद्ध ने कहा नष्ट हो जाने वाला ही नष्ट हुआ मरने वाला ही मरा उपासक, किसी को प्रिय बनाओगे तो शोक और भय उत्पन्न होता ही है अशोक होना है तो प्रिय न बनाओ अप्रिय न बनाओ। राग के संबंध न जोड़ो। जीवन को बोध में लगाको राग में नहीं! जागने में लगाओ, निद्रा और तंद्रा में नहीं।
ऐसी परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र कहे—
पियतो जायते सोको तण्हाय जायते भयं।
पियतो विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं।।
'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है, प्रिय से भय उत्पन्न होता है। प्रिय से मुक्त पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहौ?
तण्हाय जायते सोको तण्हाय जायते भया।
तण्हय विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं।।
'तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, तृष्णा से भय उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त हुए पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहां?
जीवन में दुख और भय एक साथ जुड़े हैं। जिस चीज से हमें भय उत्पन्न होता है, उसी से हमें शोक उत्पन्न होता है। जैसे मृत्यु हमें भयभीत करती है, तो मृत्यु से ही हमें शोक उत्पन्न होता है। और जब तक मृत्यु हमें भयभीत करती है, तब तक मृत्यु से शोक उत्यन्न होता रहेगा। आज बेटा मरा है, कल बेटी मरेगी, परसों पत्नी मरेगी, नरसों तुम भी मरोगे, और हर बार दुख घना होगा, दुख घना होगा; रोज—रोज दुख घना होता जाता है।
छोटे बच्चे जीवन में कुछ और क्या कर पाते हैं! सिर्फ दुख की पर्तें इकट्ठी करते चले जाते हैं और बूढ़े होते जाते हैं। जैसे—जैसे दुख पर पर्तें जमती जाती हैं वैसे—वैसे
आदमी अकेला है आदमी का होता जाता है। कोरे कागज की तरह आते हैं छोटे बच्चे और फिर लकीरों पर लकीरें दुख की लिखी जाती हैं। हमारा जीवन दुख की एक कथा है।
हम यह दुख कैसे लिखते हैं? सारे दुखों के मूल में मृत्यु है। जहा भी हमें मृत्यु का भय लगता है, वहीं समझ लेना कि अभी हम दुख की सीमा के भीतर हैं। जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ है जो मृत्यु नहीं मिटा सकेगी, चिता नहीं जला सकेगी, जिसे शस्त्र छेद नहीं पाते—कृष्ण ने कहा है : नैनं छिंदति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक:। और जिसे अग्नि नहीं जलाती, और जिसे शस्त्र नहीं छेदते हैं, जब तक तुम उसे न जान लोगे, तब तक भय। और जब तक भय, तब तक शोक।
तो बुद्ध ने कहा, खोज अमृत को। और अमृत की खोज में जाना हो तो प्रेय से हटो, श्रेय की तलाश करो।
'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है।’
बुद्ध यह कह रहे हैं कि बेटे की मृत्यु के कारण ही तू दुखी नहीं है, तूने उसे बेटा माना इसलिए दुखी है।
इस बात को समझना।
मैंने सुना है, एक घर में आग लगी। घर का मालिक रोने लगा, चिल्लाने लगा, छाती पीटने लगा। जीवनभर की कमाई जली जाती थी, भयंकर लपटें थीं, बुझने का कोई उपाय न था। तभी एक आदमी भागा आया, उसने कहा, तुम व्यर्थ रो रहे हो, कल सांझ मैने तुम्हारे बेटे को बात करते सुना, मकान उसने बेच दिया है। वह आदमी बोला, सच! उसके आधे बहते आसू सूख गए। मकान अब भी जल रहा है! मगर अब अपना नहीं है, तो बात खतम हो गयी।
लेकिन तभी बेटा भागा हुआ आया, उसने कहा कि बात ही चली थी, बयाना भी नहीं हुआ है, सौदा तो टूट ही गया समझो। फिर बाप रोने लगा। अभी भी मकान वही का वही है, लेकिन अब फिर अपना हो गया है।
जैसे ही कोई चीज मेरी होती है वैसे ही पीड़ा, और जैसे ही मेरी नहीं रही, बात समाप्त हो गयी। तुम्हारा बेटा मर जाए तो तुम दुखी हो रहे हो, मृत्यु के कारण नहीं, मेरा था। तुम बेटे को जलाकर घर लौटो और घर तुम्हें कुछ ऐसे कागज—पत्तर मिल जाएं जिनसे पता चले कि तुम्हारी पत्नी ने तुमसे धोखा किया था, यह बेटा तुम्हारा था ही नहीं। बस, सब मामला खतम। न केवल मामला खतम, तुम पत्नी को मारने कौ उतारू हो जाओ। यह बेटे की मौत तो एक तरफ, यह तो बात ही, तुम तो सोचने लगो—अच्छा ही हुआ, यहं झंझट मिटी। मेरा—तेरा शोक का जन्मदाता है।
तो बुद्ध ने कहा, 'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है, प्रिय से भय उत्पन्न होता है। प्रिय से मुक्त पुरुष को शोक नहीं, फिर भय कहां?'
एक—दूसरे के पीछे चलती हैं चीजें। मेरा की गांठ बाध ली प्रेय की तलाश में, फिर कहीं गांठ खुल न जाए तो भय पैदा होता है। फिर कहीं गांठ खुल जाए तो दुख पैदा होता है। एक—दूसरे के पीछे चीजें चलती हैं। तुम एक कदम गलत दिशा में उठाओ, तो दूसरा कदम अपने आप उठ जाता है।
मैंने सुना है, एक धर्मात्मा यहूदी गृहस्थ का नियम था कि हर शुक्रवार को शाम को वे किसी भिक्षुक को शब्बाथ बिताने के लिए अपने घर लाते थे। एक बार जब वे सज्जन अपने मुहल्ले के सिनागाग से एक भिक्षुक को लेकर घर की ओर चले, तो उन्होंने देखा कि भिक्षुक के पीछे—पीछे एक और फटेहाल आदमी भी चला आ रहा है, और उसके पीछे एक और फटेहाल आदमी चला आ रहा है। उस गृहस्थ ने उस आदमी के बारे में पूछा तो भिक्षु ने कहा, महाशय, वह मेरा दामाद है। और मैं उसका पालन—पोषण करता हूं। खुद भिखारी हैं! वह उनके दामाद आ रहे हैं पीछे। और उन्होंने कहा, उनके पीछे कौन चले आ रहे हैं, वह बोला कि मेरे दामाद का बेटा है। उसके पालन—पोषण का जिम्मा उसके ऊपर है।
ऐसी कतारें बनती हैं। तुम एक को बुलाकर लाए तोंतुम एक को बुलाकर नहीं लाए, एक के पीछे दूसरा आता होगा! दूसरे के पीछे तीसरा आता होगा। तुमने एक को बुलाने के लिए द्वार खोला कि तुमने सारे संसार को बुला लिया। तुमने एक कदम उठाया गलत दिशा में कि हजार कदम उठ गए।
तो बुद्ध कहते हैं, प्रिय मत बनाना, तो फिर भय भी न होगा, शोक भी न होगा; और अगर प्रिय न बनाया तो जो ऊर्जा प्रेय की दिशा में जाती थी, वह श्रेय की दिशा में जाएगी और तुम जो अमृत के पार है, उसका अनुभव कर सकोगे। अमृत का स्वाद तुम्हारे कंठ में आ जाए, फिर कैसा भय, फिर कैसा शोक!
'तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, तृष्णा से भय उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहां?'
सिर चढ़ी धूल है
शायद तुम्हें मालूम न हो
एक हसी भूल है
शायद तुम्हें मालूम न हो
फूल खिलते हैं जो
पत्थर की हथेली पर अलभ्य
हम वही फूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो
तुम तो सागर हो
बरसती हैं घटाएं तुम पर
तृष्णा लघुकूल है
शायद तुम्हें मालूम न हो
कश्तियां तट की अब
उद्दाम तरंगों के बीच
शीर्ष मल्ल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो
फूल की शक्ल—से ये
छद्य सुदर्शन चेहरे
विष—बुझे शूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो
देह मंदिर है
तपोवन है मेरा अंतस्तल
आर्य हम मूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो
हमें मालूम भी नहीं है कि क्या हो रहा है, क्या चल रहा है। जहा हमें सौंदर्य दिखायी पड़ता है, वहा आखिर में हम विष—बुझे तीर ही पाते हैं। जहां धन दिखायी पड़ता है, वहां कुछ हाथ नहीं लगता, आखिर में राख हाथ लगती है। क्या हो रहा है ' कैसा जीवन चल रहा है ' कहां जा रहे हैं? जिसको हम ताज समझकर सिर पर रखे हैं, वह सब धूल सिद्ध होती है। और हमारे भीतर छिपा बैठा है हमारा श्रेष्ठ रूप—
देह मंदिर है
तपोवन है मेरा अंतस्तल
आर्य हम मूल हैं
शायद तुम्हें मालूम न हो
और भीतर, हमारे भीतर वह श्रेष्ठ, चैतन्य, आर्य—आर्य का मतलब हिंदू नहीं—आर्य का मतलब हमारे भीतर जो श्रेष्ठता है। हम अनार्य बने बैठे हैं। प्रेय को खोजा तो अनार्य बन जाते हो, श्रेय को खोजा तो आर्य बन जाते हो।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
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