अध्याय—17
सूत्र—
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विभिदृष्टो य हज्यते।
यष्टध्यमेवेति मन: समाधाय अ सात्विक।। 11।।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठं तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 12।।
विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षईणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ।। 13।।
और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरूषों द्वारा किया जाता है, यह यज्ञ तो सात्विक है।
और हे अर्जुन, जो यज्ञ केवल दंभाचरण के ही लिए अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।
तथा शास्त्र— विधि से हीन और अन्न— दान से रहित एवं बिना मंत्रों के बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।