अध्याय—37 (मेरा जीवन संघर्ष)
पता
नहीं मैं वहां कितनी देर तक में पड़ा रहा या सोता रहा या केवल स्वास चलती रही ये जीवन
है तो मैं जीवित था...मैं कोन हुं कहां इस बात का मुझे कुछ भी भान नहीं था। मेरी
आंखें खूली तो मैंने इधर उधर देखने कि कोशिश की तो चारों ओर चहल पहल थी। कूछ लोग
हाथों में थालियां लिय इधर उधर जा रहे थे....मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब
क्या है.....ओर ये कौन है.....तभी जोर से मंदिर का घंटा बजा ओर एक कोलाहल सा
सुनाई देने लगा....एक तारबंद की तरह.....एक लयवदता चारों ओर फैल गई। हवा अभी चल
रही थी। पहले तो मैं सोचने लगा की मैं कहां हूं......एक पेड़ के नीचे एक उंचे से
चबुतरे पर मैं लेटा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं यहां कब आया। मैं कौन
हूं......ये सब क्या है.....एक ना समझे से दृष्य मेरी आंखों के सामने तैरने लगे।
लेकिन इतना सब होने पर भी किस तरह से शरीर
अपना काम करता है। उसने निर्देश दिया कि उसे प्यास लगी है। तब मुझे लगा की मुझे
खड़ा होना चाहिए.....ओर मैं किचड़ में सने शरीर को उठाने कि कोशिश करने लगा.....बडी
मुश्किल से मैंने अपने शरीर उठाया.....पूरा बदन पीड़ा से करहा रहा था। शरीर पर
किचड़ सूख कर झड गई थी। लगा की अभी अगर उठ कर खड़ा हुआ तो गिर जाऊंगा। फिर कुछ देर
शरीर को अपनी अवस्था में आने का इंतजार करने लगा। तब उठा तो देखता क्या हूं कि
में तो एक उंचे चबुतरे पर एक पेड़ के नीचे लेटा हूं....मुझे समझ में नहीं आ रहा था
कि मैं यहां पर कब आया?.....ओर कैसे आया?.....परंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा था बस समझ आ रहा था तो इतना की पानी पीना
है।
शरीर की अपनी जरूरत होती
है तो वह अपनी भाषा खुद जानता है उसे शायद मस्तिष्क के निर्देश की भी जरूरत नहीं
होती। सच कहूं तो मेरी बिना मर्जी के शरीर खुद उठा ओर पानी पीने के लिए खड़ा हो
गया। ओर किसी तरह से मैं इधर उधर देखने लगा कि पानी है क्या यहां पर? ओर दूर एक आदमी जहां खड़ा कुछ कर रहा था वहां पानी एक नल से गिर रहा
था....मैं चौबुतरे से उतरा ओर उसी ओर चल दिया। भारत में पशुओं पर जितनी दया की
जाती है शायद ही दूनियां के किसी कौने में नहीं की जाती हो.....कितने ही पशुओं को
अपने देवताओं के साथ जोड़ दिया गया है.....ये श्रे हम भी भैरों जी कारण मिला
है....जिस तरह से शिव का गंण भैरव जी है इस तरह से हम भैरव जी के गण है।
मै नल के पास जाकर एक अच्छे
बच्चे की तरह खड़ा हो गया। एक आदमी अपने लोटे में जल भर रहा था.....उसने मुझे
देखा ओर पीछे हट कर खड़ा हो गया.....डर कर नहीं क्योंकि मैं देख रहा हूं उसकी
आंखों या हाव भाव में कोई डर नहीं है डरने वाला व्यक्ति तो दूत्त कारेगा....मारने
की कोशिश करेगा। में आगे बढ़ा......ओर अपने चिरपरिचित अंदाज में चलते नल के नीचे
मुंह लगा कर पानी पीने लगा। उस आदमी को शायद अचरज के साथ शकुन भी मिल रहा था कि
मैं किसी बर्तन के बीना पानी पी रहा हूं। वरना तो वह बेचारा इस समय बर्तन कहां से
लाता। तब वह इस तरह से पानी पीने के मेरे अंदाज से समझ गया कि जरूर में किसी अच्छे
घर का कुत्ता हूं....किसी कारण वश यहां आ गया हूं.....न जाने वह बेचरा मेरे बारे में
क्या—क्या सोच रहा होगा। पानी पीने के बाद मैंने उसकी ओर धन्यवाद की नजारों से देखा
ओर वापस अपने उसी स्थान पर आकर लेट गया। शरीर एक दिन में बहुत कमजोर हो गया था।
शरीर भी कैसा गतिमान है उसे नित उर्जा चाहिए.....अपने वतुर्ल के लिए........नहीं
तो वह बेकार हो जायेग।
वह आदमी अंदर मंदिर में
चला गया। जब वह मेरे पास से जा रहा था तो
मुझे अचरज भरी नजर से देख रहा था। अब शायद उसने मुझे ज्यादा गोर से देखा। तब उसने
मेरे शरीर पर सुखी मिट्टी को भी देखा। जब वह मंदिर आया तो मेरे सामने कुछ मिठाई रख
कर चला गया मैं उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा। परंतु कुछ भी समझ में नहीं आ रहा
था कि क्या करू बस ओर क्या करना था इसी सब के रहते कब फिर शरीर नींद में चला गया
इसका पता ही नहीं चला।
सुबह उस विशाल वृक्ष पर
हजारों पक्षियों के कलरव गान ने मेरी आंखें खोली.....क्या अब सुबह है या श्याम....मुझे
इसका कोई भान नही था। केवल सूर्य की गति के कारण मे समझने की कोशिश कर रहा था की
अभी तो सूर्य की किरण जो मंद थी तेज होती जा रहा है.....जो बादलों के कोनों पर अभी
नारंगी रंग बिखेर रही थी वह धीरे.....धीरे.....अपने मे पीत रंग भर रही है। उसका
बदलता रंग....कितना अदभुदलग रहा था। कैसे प्रकृति अपनी छटा नीत बैखेरती है ओर उसे
मिटा देती है.....कैसा अदभुत चित्रकार है परमात्मा.....देखते ही देखते....पीत रंग
भी स्वर्ण में बदल रहा था जिससे मुझे लगा की अभी सूर्य उदय हो रहा है। तब मैं सोच
रहा था कि श्याम भी जरूर हुई होगी ओर श्याद यहीं पक्षी करव गान गाकर सोये होंगे।
तब मुझे वह गान क्यों नही सुनाई दिया। आप अगर ध्यान से उस गान को सुनोगेतो समझ
सकते हो कि यह गान भौर का है या संध्या का। श्याम को पक्षी अपने गान में कुछ इस
तरह से कलरव करते है कि अब चले पूरे दिन के जीवन को धन्यवाद के भाव में कितना
सूंदर दिन गुजरा....ओर अब चले नींद्रा रानी की गोद में ओर जब सुबह वही पक्षी आंखें
खोलते है तो उन्हें एक नया जीवन जो मधु आंनद से भरा होगा मिला है.....उसके लिए
धन्यवाद के भाव से जैसे मिल गया मिल गया.....के अंदाज में गाते है आप अगर जीवन को
एक सजगता से जीते हो तो यह जीवन बहुत मधुर ओर अपने अंदर एक गरिमा लिए आपका सुस्वागत
कर रहा होगा.....अगर आप इस मस्तिष्क के विचारों से तोलेगे तो एक भारी बोझ एक दूख
एक संताप लिए होगा। शायद हमारी मांग हम महत्वकांक्षा बहुत कम होती है इस लिए हमें
दूख उतना गहरा महसूस नहीं होता। लेकिन अगर मांग है या अधिक की मांग है तो दूख भी
उतना ही गहरा होगा।
हम पशु पक्षियों की कितनी
मांग है......ओर पक्षी तो हमसे भी महान हे वे तो जमींन की पकड़ से भी निर्भार
है.....कितना हलकापन महसूस करते होगे वह अपने जीवन से। उन्हें हमारे की तरह से
अगर कैद कर लिया जाये तो उन्हें उसमें कुछ सुखद थौड़ा ही लगता होगा, हम तो इस केद में भी सुख देख रहे है कि सुरक्षा है,
सुविधा है....ओर भय रहित है। परंतु पक्षी को जब तक उडना न पड़े वह गीत गा....गा कर
आसमान को सूना ले ले उसमें पंख फैला कर उड न ले उसे वह जीवन ही नहीं कहेगा.....तभी
अचानक मुझे पिंजरे की याद आयी......अरे मैंने भी तो कहीं पींजरे में पक्षी देखे
थे। कहां देखे थे वह में याद करने की कोशिश करने लगा। परंतु कुछ याद नहीं आ रहा
था। सूर्य अब अपनी प्रखर उर्जा से उपर उठ रहा था। जहां पर मैं लेता था वहाँ धूप
आने लगी थी। मैं सोच ही रहा था कि यहां से उठ कर किसी दूसरी जगह लेट जाऊ जहां पर
धूप भी न हो और थोड़ा अँधेरा हो जहां मख्खियां भी मुझे तंग न करे।
पेड़ जो मंदिर के प्रांगण
में था उसके ठीक सामने एक बड़ा सा देवालय था। अब वह पर इक्का दूक्का ही मनुष्य
दिखाई दे रहे थे। इस लिए मैं उठा और पास ही दीवार के पास जो नीम का पेड़ था उसकी
छाव में जो बहुत घनी थी और वहां पार कुछ कच्ची मिट्टी भी थी। वहाँ छुप कर लेट
गया। कुछ ही देर में मैंने देखा एक आदमी जिसकी सफेद लम्बे बाल और दाढ़ी थी मेरे
सामने कुछ खाने को रख रहा था। शायद उस मंदिर का पुजारी था। मैं आंखें खाली और उसकी
दाढ़ी को देख कर मेरे मस्तिष्क में कुछ—कुछ होने लगा। मुझे लगा कि यह दृश्य
मैंने पहले भी कहीं देखा है, दाढ़ी बाल....चोगा.....मैं
तारों को जोड़ने की कोशिश करने लगा। परंतु अभी भी मेरे सर में धूंध सी छाई हई थी।
एक कोहरा जो पहले से कम पीड़ा दाई और थोड़ा दृश्यमान परंतु अभी भी यह नहीं कह
सकते की मैं उसके पास सब देख पा रहा था।
मैंने उस खाने को सूंधा और
उसकी सुगंध को अपने मस्तिष्क और पेट को महसूस होने दिया....इसी तरह से तीन चार
बार करता रहा फिर जीभ से उसे चाटा.....वह कोई स्वाद या गंध लिए नहीं था। ऐसा कैसे
हो सकता है हर भोजन का अपना स्वाद है......मुझे नहीं पता की मेरी संवेदनशिलता
लुप्त हो गई है। मेरी स्वाद के स्नायु सुप्त हो गये है। परंतु पेट ने कहा की
मुझे खाना दो। तब मैंने मुंह खोल कर खाना उससे उठाना चाहा देखा की मुंह तो एक दम
से जाम है....उसकी खुलने में तो दर्द महसूस कर रहा था। अभी कुछ घंटे पहले तो मैंने
पानी पीया था तब तो मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। मुझे क्या पता पानी पीने की
प्रक्रिया अलग है.....उसमें जीभ का काम अधिक है परंतु खाना खाने के लिए तो जबड़े, जीभ, दाँत और जीभ सभी का ताल मेल बिठाना होता है।
किसी तरह से मैंने हिम्मत कर कुछ खाना खाया शायद वह जैसे—जैसे पेट में जा रहा था।
मेरा मस्तिष्क में जमीं धुन्ध और सर का भारी पन कुछ कम लग रहा था।
पेट में जब खाने के कोर
पहूंचे तो वहां पर कुछ हरकत हुई.....मुझे तेजी से एक हिचकी आई और लगा की सब खाना
बहार आ जायेगा। और मैंने अपनी आंखें बंद कर ली मैं उलटी कर कर के इतना था गया था
कि उलटी का सोचने भर से मुझे घबराहट होने लगा। और में इसी तरह थोडी देर के थिर
होकर बेठ गया। तब एक उलटी प्रक्रिया शुरू हुई पेट की आंतों में कुद ऐठन शुरू हुई
यहीं ऐठन तो मुझे पहले भी हुई थी.....ये अनुभव मुझे याद था। और मैं फिर डर गया
परंतु इस एठन में दर्द कम था और एक सुखद ऐहसास अधिक था। तब मैंने महसूस किया कि
पेट जो इतने दिन से खाली था....जो कोई काम नहीं कर रहा था....उसमें खाना जाने से
कुछ काम शुरू हुआ वरना तो सब वह बहार फैक रहा था। तब में कुछ देर ऐसे ही बैठे रहा
ओर फिर उठकर मैं पानी पीने के नल के पास खड़ा हो गया। वहाँ कोई नहीं था। परंतु
पानी इधर उधर फेल कर जमा हो गया था। परंतु मुझे वह गंदा लग रहा था। मैं इसी तरह
वहां कुछ देर खड़ा रहा तभी वहीं दाढ़ीवाला साधु मेरे पास से गुजार और उसने नल को
खोल दिया और पास ही खड़ा होकर कहने लगा....पूच....पूच.....पी लो बेटा पानी पी लो।
और में मंद कदमों से नल की और बढ़ा और जीभ निकाल कर चपड़—चपड़ पानी पीने
लगा.....तभी मेरा माथा ठनका ऐसा तो मैंने पहले भी किया है....परंतु कहां पर ये याद
नहीं आ रहा। जितनी देर में पानी पीता रहा वह बेचारा मेरे पास ही खड़ा रहा और फिर
उसने नल बंध कर दी।
मैं वापस आकर उसी जगह बैठ
गया और इधर उधर देखने लगा समझने की कोशिश करने लगा की मैं कहा हूं। परंतु मस्तिष्क
अपनी जगह थिर था। तब मैंने खाने की और देखा और उसे खाने की कोशिश करने लगा कुछ
खाना बड़ी मुश्किल से खाया गया। मुख में और जबड़े में ऐसी ऐठन थी कि लगता था वह
चटक जायेगा। एक सुखी मिट्टी के खिलौने की तरह। भर—भरा कर बिखर जाये। परंतु कुछ ही
देर में मेरी जींभ संवेदन शीलता को महासुस करने लगी उसमें मिर्च की तेज स्वाद
फैलने लगा......ओर मेरे पेट में गया खाना....अपनी जाने से पेट ने अपना काम शुरू कर
दिया। और तब लगा की अब और नहीं तो सब बहार आ जाएगा। तब मैं खाने से रूक गया। और
जीभ फैर कर आस पास लगे खाने से अपने मुख को साफ करने की और अंदर गये खाने का स्वाद
लेने की इस प्रक्रिया को दोहने लगा। मैं यह जान के अचरज में था कि मेरे मुहं के
किनारे फट गये थे। जिनसे मेरी जीभ अटक रही थी। वहाँ कुछ मिर्ची भी लग रही थी। तब
में लम्बा हो कर लेट गया।
और शायद कितनी देर लेटा और
कितनी देर सोया इस बात का मुझे कुछ पता नहीं। पता तो यह चला की पक्षी गीत गा कर
सोने की तैयारी कर रहे है। इतनी जल्दी दिन बित गया....गजब हो गया....अभी तो पल भर
पहले उठने की गीत गा रहे थे और अभी पूरा पेड़ पक्षियों के कंठ से निकले....गान से
हिलोरे ले रहा है। अभी कुछ चिड़ियाओं के झूंड के झुंड दूर—दूर एक लंबी युगल उडन भर
रहे थे कभी वह वृक्ष के पास आ जाते और फिर अचानक मुड जो....मैं ये सब देख रहा था।
अपने शरीर अपने दर्द को भूल कर मैं उसमें खोया था....तभी किसी के पैरो की आहट मुझे
सुनाई दि....देखा वही साधु हाथ में एक बर्तन लिए मेरी और आ रहा है। पास आकर उसने
वह बर्तन मेरे सामने रख दिया।
मैं अपने ही ख्यालों में
खोया था। ये सब देख कर कुछ देर तो में घटना को जोड़ नहीं पाया। कि ये क्या है ये
सब क्या हो रहा है। कभी अपने बारे में कभी उस साधु कभी उस पेड़ कभी उड़ते
पक्षियों के बारे में......प्यास तो मुझे लगी थी और गला जल भी रहा था क्योंकि जो
खाना मेंने खाया था वह मेरे पेट में एक आग सी पैदा कर रहा था। उस आदमी की चाल में
से सौंदर्य था। एक निर्भिकता थी। एक लोच थी एक आनंद था.....एक चिर परिचिता थी।
उसके बर्तन रखने के बाद मेरे विचारों का तार टूटा.....ओर मैंने एक बार उसकी और
देखा और फिर बर्तन में मुख डाल कर उसे पीने वह ठंड़ा और स्वादिष्ट पैय था। जो
मेरे जलते गदे को बहुत राहत दे रहा था।
मुहं में भी जो जलन थी वह
उस पर मरहम का काम कर रहा था। मैं उसे स्वाद ले कर पिता रहा। वह मेरे लिए अमृत
तुल्य था। ये एक बूंद से ही मैं महसूस करने लगा था। वह आदमी चला गया। और मैं
कितनी ही देर उस पैय को पीता रहा और दिमाग पर जोर डाल कर उस पैय या पैय लाने वाले
के बारे में सोचता रहा दोनों कुछ परिचित से लगे....लगा अपने अचेतन में
झाकने......जिंदगी बन गई उस पैय को पीने के बाद।
दूर पहाडी नजर आ रही थी।
उस पर पड़ रही पिताम्बर सूर्य की किरणें आंखों में एक चुंधियाया पन भर रही थी।
पक्षी अपना राग अलग ही आलाप रहे है। तब दूर एक बांसुरी के बजने की आवाज मेरे कानों
में आने लगा। लगा है ये आवाज मैंने पहले भी सुनी है। और में याद करने की कोशिश
करने लगा। तब पापा जी का हलका धुंधला चेहरा जो साधु के चेहरे जैसा लगा......मानों
एक धुंऐ के पार कोई बैठा बांसुरी बजा रहा है.....कभी वह आवाज मेरे काने में आ जाती
फिर पक्षियों का गान उसमें लीन हो जाता कभी वह चित्र एक धुंऐ की तरह बन जाता... ओर
धीरे—धीरे वह धुंआ अपना आकार बदल लेता। चित फैल रहा था....शरीर सूस्त होता जा रहा
था। मैंने अपने आंखें बंद कर और सो गया।
इसी सोच विचार मे ने जाने कहां
खोया रहा ओर देखते हुए न देखना क्या होता है ये मैने उस दिन जाना। दूर जो दृष्य दिख
रहा था वह अंधकार में बदल रहा था चीजें धूंधली हो रही थी ओर आसमान पर पित से नीलांभ
रंग ले रहा था ओर धीरे-धीर उस पर मोतियों की तरह तारे चमकने लगे ओर ये सब देखते देखते
में कब सो गया इस बात का मुझे पता ही नहीं चला।
आज इतना ही.........
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