अध्याय—17
सूत्र—
ओंम तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ।। 23।।
तस्मादोमित्युदह्रत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। 24।।
तदित्यनीभसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्तेमोक्षकांक्षिभि:।। 25।।
और हे अर्जुन, ओम तत् सत— ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं। इसलिए ब्रह्मवादिन पुरुषों की शास्त्र— विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तय— रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे हम
परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं। और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ तय— रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की इच्छा वाले पुरूषों द्वारा की जाती हैं।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न : क्या क्षण— क्षण जीने से परस्पर—तंत्रता का बोध शुरू होता है?
क्षण— क्षण जीने का अर्थ है, अतीत से मुक्त होकर जीना, भविष्य से भी मुक्त होकर जीना, जैसे न तो कोई अतीत था, न कोई भविष्य है। बस, यही क्षण सब कुछ है। इस क्षण के न तो पीछे की तरफ मन जाए, न आगे की तरफ, इस क्षण में ही जागकर जीए; इस क्षण से ज्यादा कुछ भी नहीं है; यही क्षण सारा आकाश, यही क्षण सारा जीवन। तो निश्चित ही परस्पर—तंत्रता का बोध होगा। क्योंकि अतीत जहां नहीं है, वहां अहंकार के खड़े होने का उपाय नहीं।
अतीत का जोड़ ही तो अहंकार है, जो तुम्हें तोड़ता है, जो तुम्हें कहता है, तुम अलग हो। और जहां भविष्य नहीं, कामना नहीं, आकांक्षा नहीं, जहां कोई दौड़ नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं, वहा तुम चाहो सपने में भी, तो भी तो अहंकार को खड़ा नहीं कर सकते। तो अहंकार दो सहारों पर खड़ा है, उसकी दो टांगें हैं। एक तो है अतीत, जो तुम थे, जो तुमने किया, जो हुआ। उस सब का संग्रह है तुम्हारी स्मृति; वह एक पैर। और एक, जो तुम होना चाहते हो, जो तुम्हारी योजना है होने की, जो तुम चाहोगे कि हो— भविष्य, कल्पना, सपना—वह दूसरा पैर है अहंकार का।
वर्तमान में तो अहंकार को खड़े होने की जगह भी नहीं है। वर्तमान तो इतना भरा है जीवन से कि वहां अहंकार कहां पैर जमा पाएगा! वर्तमान तो इतना प्रकाशित है जीवन से कि वहां अहंकार। के अंधेरे के लिए जगह खोजनी मुश्किल है।
और वर्तमान की गली कितनी संकरी है, एक पल! पल का भी लाखवां हिस्सा तुम्हारे हाथ में पड़ता है। जब वह चला जाता है, तब दूसरा हिस्सा हाथ में आता है। अगर तुम उस पल में जीने की . कला सीख जाओ। सारे धर्म वही सिखाते हैं। इसलिए अचाह। कृष्ण कहते हैं, चाहो मत, मांगा मत। क्योंकि माग और चाह भविष्य को पैदा करती है। इसलिए अकर्ता भाव। क्योंकि तुमने क्या किया अतीत में, तुम कौन हो, तुम्हारा तादात्म्य फिर अहंकार को पैदा करता है। ऐसे ही तो तुम च्युत हो जाते हो इस क्षण से, जो मौजूद है अपनी विराटता में।
जैसे ही अहंकार नहीं होता, वैसे ही तुम्हें पता चलता है, तुम अलग और पृथक नहीं हो, जुड़े हो, जीवन एक संयुक्त घटना है। दूसरा तुम से कितना ही भिन्न मालूम होता हो, उसी सागर की लहर है, जिसकी लहर तुम हो। तुम छोटी लहर हो या बड़ी लहर हो, दूसरा छोटी लहर है य' बड़ी लहर है, तुम पूरब की तरफ जा रहे हो, दूसरी लहर पश्चिम की तरफ जा रही है, कोई फर्क नहीं पडता। सब एक ही सागर का खेल है।
वर्तमान के क्षण मैं जागे हुए व्यक्ति को मैं तो दिखाई नहीं। पड़ता; यह विराट एक ही दिखाई पड़ता है। उस एक को ही हम ब्रह्म कहते हैं।
ब्रह्म का अर्थ है, जिसका विस्तार है, जो फैला हुआ है, जो सब में विस्तीर्ण है, जो सब में फैला है। पत्थर—पहाड़ से लेकर परम चैतन्य की घटना तक जिस एक का ही विस्तार है। क्षुद्र में भी, विराट में भी, सब में जो मौजूद है।
उस एक के दिखाई पड़ते ही अहंकार तो मिट जाता है। तो कौन होगा स्वतंत्र, कौन होगा परतंत्र! इसलिए एक अनूठी अनुभूति पैदा। होती है, परस्पर—तंत्रता, इटर—डिपेंडेंस।
यह शब्द भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस शब्द को भी हमें उन्हीं दो शब्दों के आधार पर बनाना पड़ रहा है, जो गलत हो गए हैं। लेकिन इससे थोड़ा एहसास होगा कि क्या मतलब है।
परस्पर—तंत्रता का इतना ही अर्थ है कि सब जुड़ा हुआ है, खंड—खंड नहीं है, सब अखंड है। दो नहीं है, अनेक नहीं है, एक है। नाम—रूप के भेद हैं, वस्तुत: कोई भी भेद नहीं है। परिधि पर भेद है, भीतर केंद्र पर कोई भेद नहीं है, अभेद है।
क्या इससे यह अर्थ हुआ कि तुम्हारी निजता मिट जाएगी? यहीं धर्म का सबसे बड़ा विरोधाभास, सबसे बडा पैराडाक्स है।
जब तक तुम अहंकार से भरे हो, तुम्हारी निजता पैदा ही नहीं होती। जब अहंकार शून्य हो जाता है, तब तुम्हारी निजता पैदा होती है। लेकिन यह निजता अस्मिता नहीं है। यह निजता बड़ी अनूठी है। इस निजता में मेरे होने का कोई भी भाव नहीं है। है तो वही, लेकिन एक खास ढंग से मुझ में है। और एक खास ढंग से तुम में है। और एक खास ढंग से वृक्ष में है। और एक और खास ढंग से आकाश में है। सब ढंग उसके हैं। लेकिन ढंगों में भेद है और हर ढंग अद्वितीय है, हर ढंग बेजोड़ है।
ब्रह्म पुनरुक्ति जानता ही नहीं। उसने वही गीत की कड़ी फिर कभी नहीं गुनगुनाई, जो एक दफा गुनगुना ली। वह एक—सी दो शक्लें पैदा नहीं करता, एक से दो पत्ते नहीं बनाता, एक से दो कंकड़ नहीं बनाता।
सब बेजोड़ है, हर चीज अद्वितीय है। निजता का अर्थ है, यह अद्वितीयता। लेकिन यह अद्वितीयता तुम्हारी नहीं है। अगर तुम्हारी है, तो अहंकार है। यह अद्वितीयता ब्रह्म की है, उसकी है। इसलिए तुम्हारा इसमें क्या लेना—देना!
अब यही समझ लेने जैसा है, निजता तुम्हारी नहीं है। क्योंकि निजता शब्द से तो ऐसा लगता है कि तुम्हारी। तुम से प्रकट हो रही है, तुम्हारी बांसुरी से गाया जा रहा है यह गीत, लेकिन गीत तुम्हारा नहीं है। यद्यपि किसी दूसरी बांसुरी से यह गीत नहीं गाया जा सकता, यह भी सच है। इसलिए तुम्हारा भी इसमें कुछ है—बांसुरी का ढंग।
यह बांस की जो पोगरी है, यह तुम्हारी है। लेकिन इसमें गीत उसका है। इसलिए अहंकार का कोई प्रयोजन नहीं है। वह गीत बंद कर दे, बांसुरी समाप्त, बांस की पोंगरी पड़ी रह जाएगी। बांसुरी समाप्त, पोगरी तो बांसुरी तभी होती है, जब उसका गीत बहता रहता है।
वही तुम से बह रहा है। बहने वाला एक है। कंठ अनेक हैं, वही गा रहा है। बांसुरियां बहुत हैं। कृष्ण के होंठ पर ही रखी हैं सब बांसुरियां। गाने वाला एक, पर गीत बड़े—बडे अनेक भिन्न रूपों में पैदा हो रहा है। हर गीत की निजता है, खूबी है, अद्वितीयता है। पर उस अद्वितीयता में भी उसी का गुणगान है।
जब हम कहते हैं निजता, तो उस निजता में भी उसकी ही महिमा का स्मरण है, तुम्हारी महिमा का नहीं। अगर तुम्हें अपनी महिमा खयाल आ गई, तो तुम टूट गए, तो तुम्हारा संबंध गीत से टूट गया; तुम बांस की पोंगरी रह गए। और तुमने अगर यह अकड़ समझ ली कि यह गीत चूंकि किसी और से नहीं गाया जा सकता, क्योंकि ऐसी कोई बांसुरी नहीं है, इसलिए यह गीत मेरा है, तब तुम भटक गए।
अगर तुमने यह जाना कि खूबी बांस की पोंगरी की विशेषता में है, लेकिन वह पोगरी भी उसकी ही बनाई हुई है, वह पोंगरी भी उसी की और गीत गाने वाला भी वही, मैं बीच में कौन हूं? जिस दिन तुम अपने और परमात्मा के बीच से हट जाते हो, निजता का आविर्भाव होता है, तुम बड़े अद्वितीय हो जाते हो।
कहां खोजोगे बुद्ध जैसा पुरुष? कहां खोजोगे महावीर? कहां खोजोगे कृष्ण? कोई मुकाबला नहीं है। एकदम अनूठे हैं। कोई मार्ग नहीं है इन जैसा व्यक्ति दुबारा खोज लेने का। इसलिए तो सदियों तक हम इन्हें भूल नहीं पाते, क्योंकि अगर दूसरा कृष्ण पैदा हो जाता, तो पहले कृष्ण को हम कभी का भूल गए होते। क्या जरूरत थी? नए संस्करण को याद रखते, पुराने को भूल गए होते। लेकिन कोई दूसरा संस्करण पैदा ही नहीं होता। बस, पहला ही संस्करण है, वही आखिरी भी है। पुनरुक्ति होती नहीं, वही निजता है।
तुम दोहराए न जाओगे, यह निजता है, लेकिन तुम्हारी नहीं, यह भी ब्रह्म की ही निजता है। बस, एंफेसिस, जोर का फर्क है। अगर कहा मेरी—चूक गए। अगर कहा उसकी—पा गए।
और ऐसी निजता स्वतंत्रता से भरी हुई है। इसलिए यह भी ध्यान रखना कि जब मैं कहता हूं परस्पर—तंत्रता, तो उसका मतलब तुम गुलामी मत समझ लेना, परतंत्रता मत समझ लेना। परस्पर—तंत्रता में सिर्फ स्वच्छंदता छूट जाती है, स्वतंत्रता नहीं। वस्तुत: तुम और स्वतंत्र हो जाते हो। क्योंकि जितने ही तुम नियम के करीब आते हो, उतनी ही स्वतंत्रता प्रकट होने लगती है।
जितना ही तुम्हारा जीवन ब्रह्म से अनुशासित होता है, तुम उतना ही पाते हो, तुम मुक्त हो गए। इसलिए हम ब्रह्मज्ञानियों को मुक्त कहते हैं। कहने का क्या कारण है? क्या ब्रह्मज्ञानी मुक्त हो गया? अब उस पर कोई परतंत्रता न रही, कोई नियम न रहे?
नहीं, उलटी ही घटना घटी है। वह नियम के साथ इतना एकरूप हो गया कि अब नियम में और अपने में कोई फर्क न रहा। परतंत्र कौन करेगा?
तुम्हें परतंत्रता का पता चलता है, क्योंकि तुम नियम के विपरीत चलते हो। तुम रास्ते पर शराब पीकर चल रहे हो। आड़े—टेढ़े चलते हो, संतुलन खो गया है, गिर पड़ते हो; टांग टूट जाती है। तुम कहते हो, यह ग्रेविटेशन का नियम, यह जमीन में जो गुरुत्वाकर्षण है, इसने टांग तोड़ दी। न होता गुरुत्वाकर्षण, न हम गिरते।
ठीक है, अगर तुम चांद पर गिरो, तो टांग इतनी बुरी तरह से नहीं टूटेगी। अगर जमीन पर गिरो और आठ फ्रैक्चर होंगे, तो चांद पर एक होगा, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण आठ गुना कम है। लेकिन ध्यान रखना, आठ गुनी ऊंची छलांग भी लगती है वहां।
तो मूढ़ चाहे जमीन पर हो, चाहे चांद पर, आठ ही फ्रैस्वर होंगे। क्योंकि वहां शराब पीकर वह आठ गुना ऊंची छलांग से चलने लगेगा। चांद पर तुम किसी के मकान पर सीधी छलांग लगाकर निकल सकते हो। क्योंकि चांद छोटा है, उसका खिंचाव कम है।
जमीन पर तुम गिरते हो, तो तुम्हारे कहने में सच्चाई है कि गुरुत्वाकर्षण ने टांग तोड़ दी। लेकिन कितने लोग चल रहे हैं बिना शराब पीए, गुरुत्वाकर्षण उनकी टांग नहीं तोड़ रहा है। और जो लोग सदा सम्हलकर और होश से चलते हैं, उनकी तो कभी नहीं टांग तोडता। उनको पता ही नहीं चलता कि जमीन में कोई दुश्मनी है।
जो व्यक्ति नियम के साथ एक हो जाता है, उसकी परतंत्रता समाप्त हो जाती है। क्योंकि परतंत्रता का पता ही चलता था इसलिए कि नियम के विपरीत तुम जाना चाहते थे, वहीं अड़चन आ जाती थी, वहीं सीमा आ जाती थी। तुम्हें लगता था, यह तो परतंत्रता है।
ज्ञानपूर्ण व्यक्ति जीवन के नियम के साथ एक हो जाता है, तब कोई परतंत्रता नहीं बचती। वह स्वयं ही नियम हो गया, अब कोई विपरीत बचा नहीं। वह परिपूर्ण स्वतंत्र हो जाता है।
यह बात तुम्हें विरोधाभासी लगेगी, अनुशासित व्यक्ति ही मुक्त होता है। जितना बडा अनुशासन होता है जीवन में, उतनी बड़ी मुक्ति होती है। और जितना स्वच्छंद व्यक्ति होता है, उतना ही परतंत्र होता है। क्योंकि उतना ही नियम को तोड्ने जाता है।
नियम बहुत बडा है, तुमसे बड़ा है। तुम नहीं थे, तब भी था; तुम नहीं होओगे, तब भी होगा। नियम ही से तुम हो, उसकी ही एक तरंग। तुम नियम को कैसे तोड़ पाओगे? तुम ही टूटोगे। जब भी तुम पहाड़ से सिर टकराओगे, पहाड़ नहीं टूटेगा, तुम ही टूटोगे।
लेकिन सिर टकराने की जरूरत क्या थी? टकराकर तुम्हें अनुभव होगा कि यह तो बात परतंत्रता की हो गई। आदमी स्वतंत्र नहीं है। क्योंकि हम सिर टकराते हैं पहाड़ से और सिर टूट जाता है।
आदमी बिलकुल स्वतंत्र है। स्वतंत्रता को जरा और कहीं खोजो। स्वतंत्रता इसमें है कि तुम चाहो तो सिर टकरा लो और चाहो तो मत टकराओ। वहां तुम्हारी स्वतंत्रता है। अगर तुम न टकराओ सिर, तो सिर न टूटेगा। पहाड़ आकर तुमसे नहीं टकरा सकता। इसे थोड़ा खयाल रखो।
नियम आकर तुमसे कभी नहीं टकराता। तुम ही नियम के विपरीत जाकर टकराते हो। नियम तुम्हारा दुश्मन नहीं है। जब तुम नियम की दुश्मनी करते हो, तब तुम्हें फल भोगना पड़ता है।
सारे कर्म का सिद्धांत इस छोटी—सी बात पर खड़ा है कि नियम के विपरीत मत जाना, अन्यथा फल भोगना पड़ेगा। फिर तुम बच न सकोगे। और जो नियम के विपरीत नहीं जाते, उनका कर्मजाल समाप्त हो जाता है। वे नियम के अनुसार ही चलते हैं।
अब यह भी थोड़ा सोचो। जब मैं कहता हूं नियम के अनुसार चलते हैं, तो हमारे मन में होता है कि यह तो परतंत्रता हो गई। नियम के अनुसार! हमें लगता है कि किसी की मानकर चलना पड़ रहा है, किसी नियम का बोझ ढोना पड़ रहा है, तो स्वतंत्रता कहां रही?
कठिनाई तुम्हारे अहंकार में है। तुम यह नहीं समझ पाते कि तुम भी नियम की ही एक व्यवस्था हो। नियम तुम से भिन्न नहीं है। उसी ने तुम्हें पैदा किया है, उसी से तुम श्वास ले रहे हो; उसी से तुम जीवित हो, हृदय धड़क रहा है, उसी से तुम सोच रहे हो, मुझे सुन रहे हो, उसी से मैं बोल रहा हूं; उसी से तुम ध्यान करोगे, उसी से तुम शांत होओगे, मौन होओगे, समाधि को उपलब्ध होओगे।
तुम नियम हो; तुम नियम का एक ढंग हो। नियम अगर तुम से भिन्न होता, तो परतंत्रता हो सकती थी, तुम ही नियम हो। यही तो अर्थ है, जब हम कहते हैं कि तुम ब्रह्म हो। कोई और अर्थ नहीं है। इसलिए बुद्ध ने ब्रह्म शब्द को टाल ही दिया। कोई जरूरत न पाई। क्योंकि उन्होंने ब्रह्म की जगह धम्म शब्द का उपयोग कर लिया। धर्म का मतलब होता है, नियम।
लाओत्से ने धर्म का भी उपयोग नहीं किया। उसने ताओ का उपयोग किया। ताओ का अर्थ होता है, नियम। जिसको वेदों ने ऋत कहा है। वह मधुरतम शब्द है परमात्मा के लिए। क्योंकि उसमें मनुष्य की कोई भी धारणा प्रविष्ट नहीं होती। ऋत!
साइंस उसी की तो खोज कर रही है, नियम की। और जैसे—जैसे साइंस खोज करती जाती है, वैसे—वैसे आदमी नियम से मुक्त होता जाता है। यह बड़े मजे की बात है।
हजारों साल तक आदमी ने सोचा, आकाश में उड़े। नहीं उड़ सका। बड़ी परतंत्रता अनुभव हुई होगी! उड़ना चाहते हैं, नहीं उड़ सकते।
कितने सपने देखता है आदमी? तुम में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने आकाश में उड़ने का सपना न देखा हो। उसका अर्थ है कि मन में उड़ने की बड़ी आकांक्षा है। पुराने से पुराने सपने की खोजें की गई हैं। एक सपना सदा से आदमी को आता रहा है कि पंख लग गए, आकाश में उड़ रहा है। वह उड़ना स्वतंत्रता की आकांक्षा है।
लेकिन आदमी उड़ नहीं सका। उड़ा कब? जब हमने नियम समझ लिया। अब हम आकाश में उड़ रहे हैं, हवाई जहाज आकाश में उड़ रहे हैं, अंतरिक्ष यान चांद पर पहुंच रहे हैं। अब हमें लगता है, हम स्वतंत्र हैं उड़ने को।
लेकिन तुम्हारी स्वतंत्रता कैसे आई, इसका पता है? नियम को जानकर, नियम के अनुसार चलने से। हमने कोई प्रकृति को जीत लिया है, इस खयाल में मत पड़ना। वैज्ञानिक कहे चले जाते हैं कि हमने प्रकृति को जीत लिया। गलत बात है। हमने सिर्फ प्रकृति के नियम को जाना और उसके अनुसार चल पड़े। प्रकृति ने ही हम को जीता है। प्रकृति को तुम कैसे जीतोगे? हमने सिर्फ जान लिया कि नियम यह है प्रकृति का। अब तक न जानते थे, तो न उड़ सकते थे। अब जान लिया और जानकर हम उसका अनुसरण कर रहे हैं जो प्रकृति का नियम है। अब हम उड़ सकते हैं; कोई अड़चन न रही।
इस बात की संभावना है—अभी तो केवल जो वैज्ञानिक उपन्यास लिखे जाते हैं, उनमें ये कथाएं हैं—लेकिन कभी इस बात की संभावना है कि यान की भी जरूरत न रह जाए। हम आदमी के शरीर में ही कुछ व्यवस्था खोज लें, जिससे व्यक्तिगत रूप से आदमी उड़ सके। उसके हाथ ही पंख का काम करें या उसके भीतर कोई प्रक्रिया हम खोज लें, जो जमीन के गुरुत्वाकर्षण को काट देती हो।
इसकी संभावना है। योगियों ने सदा से कहा है कि उन्हें कभी—कभी अनुभव होते हैं जमीन के ऊपर उठ जाने के। और अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि कुछ लोग ध्यान की खास अवस्था में जमीन से ऊपर उठ जाते हैं।
यूरोप में एक महिला है, जिस पर हजारों प्रयोग किए गए हैं, जो चार फीट ऊपर उठ जाती है ध्यान की अवस्था में। और अब यह एक वैज्ञानिक सिद्ध बात हो गई कि कभी—कभी भाव की ऐसी शांत अवस्था होती है, जब शरीर बिलकुल निर्भार हो जाता है।
तो अगर यह संभव है चार फीट, तो चार सौ फीट भी संभव है, चार हजार फीट भी संभव है। फिर तो गणित का विस्तार है। फिर इसकी जरा ठीक से खोज करने की जरूरत है कि कैसी भाव—दशा में गुरुत्वाकर्षण काम नहीं करता, कोई दूसरा आकर्षण काम करने लगता है।
जैसे जमीन खींचती है आदमी को, शायद एक और नियम है, जिसमें हम कहें कि आकाश खींचता है। होना ही चाहिए क्योंकि नियम कभी अकेला नहीं होता; उससे विपरीत नियम भी होता है। तभी तो दोनों में तालमेल रहता है, नहीं तो तालमेल टूट जाए।
नदी दो किनारों से बहती है। अगर एक किनारे का पता चल गया, तो पक्का ही समझो, चाहे दूसरा दिखाई भी न पड़ता हो, धुंध में छिपा हो, होगा। कितने ही दूर हो, होगा। एक किनारे की कहीं नदी हो सकती है?
एक किनारा हमें ग्रेविटेशन का पता चल गया कि जमीन खींचती है। दूसरा किनारा भी है। तुम्हें भी अनुभव होता है, कभी जब तुम पानी में तैरते हो, तो हलके हो जाते हो। निश्चित, पानी पर कोई नियम काम कर रहा है आकाश का।
इसलिए अगर पानी में तुमसे भी बड़ा आदमी डूब रहा हो, तो तुम बचा सकते हो, क्योंकि वजन कम हो जाता है। इसलिए तैराने वाला किसी मोटे से मोटे आदमी को भी तैरना सिखा सकता है, दुबले से दुबला आदमी भी। क्योंकि वजन कम हो जाता है।
शायद जल आकाश के किसी नियम से अनुप्राणित है। आकाश ऊपर की तरफ खींच रहा है, जमीन नीचे की तरफ खींच रही है। जब तुम जमीन पर होते हो, तुम्हारा वजन बढ़ जाता है, पानी में कम हो जाता है। इसलिए तो पानी में तुम हलके लगते हो। इसलिए तो तैरने में इतना मजा आता है। वह मजा ध्यान का ही है। क्योंकि हलकापन हो जाता है। जैसे तुम उड़ सकते हो।
जरूर कोई नियम है आकाश का, जो ऊपर खींचता है। ध्यान की किसी घड़ियों में वह नियम काम करता है; किसी ठीक टयूनिंग में, जब तुम्हारा ध्यान उस अवस्था में आता है, जहां सूई मिल जाती है आकाश के नियम से।
निश्चित ही, आकाश का नियम पृथ्वी के नियम से बड़ा होगा; क्योंकि पृथ्वी बड़ी छोटी है, आकाश बहुत बड़ा है। अगर तुमने वह सूत्र खोज लिया, तो पृथ्वी के पार तुम हो जाते हो।
किसी न किसी दिन आदमी .निजी रूप से भी उड़ सकेगा। आखिर पक्षी उड़ ही रहे हैं, बड़े—बड़े पक्षी उड़ रहे हैं जिनका वजन आदमी के बराबर है। तुमने चीलों को आकाश में उड़ते देखा होगा, जब वे पंख भी नहीं हिलाती, सिर्फ तिरती हैं। किसी नियम का अनुसरण चल रहा है।
विज्ञान जीतता नहीं प्रकृति को। विज्ञान केवल जानता है जानकर अनुसरण करता है। अनुसरण में ही उसकी सारी शक्ति है। इसी अनुसरण का नाम योग है; इसी अनुसरण का नाम अनुशासन है, डिसिप्लिन है, साधना है।
साधना नियम के पार नहीं ले जाएगी; साधना केवल नियम को साफ कर देगी, तुम नियम के अनुकूल हो जाओगे। नियम से दुश्मनी टूट गई; अब तुम मालिक हो, अब तुम स्वतंत्र हो पहली दफा।
इसलिए मैं कहता हूं यह उलटा दिखाई पड़ने वाला वचन बहुत महत्वपूर्ण है, जब तुम परिपूर्ण रूप से नियम के अनुकूल होते हो, तभी तुम परिपूर्ण स्वतंत्र होते हो, तुम्हारी निजता पैदा होती है। अपनी ढपली पीटते—पीटते तुम रोज—रोज गुलाम ही होते जाओगे। स्वच्छंद होने की चेष्टा में तुम परतंत्र हो जाओगे। समर्पण स्वतंत्रता ले आता है।
इसलिए ज्ञानियों ने जो सबसे बड़ी स्वतंत्रता जानी है वह समर्पण है। छोड़ दो अपने को चरणों में उसके, जिसका सब है। तुम अपने को मत ढोए फिरा। अचानक सब बोझ खो जाता है। एक क्षण में क्रांति हो जाती है।
जागकर क्षण में जीने की जरूरत है, तुम्हें परस्पर—तंत्रता का बोध अनुभव होगा। सीमाएं टूट जाएगी, पिघल जाएंगी। तुम कहा शुरू होते हो, कहां अंत होते हो, मिट जाएगा खयाल।
न तुम कहीं शुरू होते, न कहीं तुम अंत होते। तुम्हारी शुरुआत वहीं है, जहां इस पूरे अस्तित्व की है। और तुम्हारा अंत भी वहीं है, जहां इस पूरे अस्तित्व का है। तुम्हारी और इस अस्तित्व की सीमाएं एक ही हैं, अगर कहीं कोई सीमाएं हैं। अन्यथा तुम उतने ही असीम हो, जितना यह अस्तित्व है।
इसको थोड़ा गणित की तरह भी समझ लो। दुनिया में दो तरह के गणित हैं। एक साधारण गणित है जिसे हम स्कूल में पढ़ते हैं, वह इस संसार में काम आता है। एक असाधारण गणित है; या तो बहुत पहुंचे हुए गणितज्ञ उसका अनुभव कर पाते हैं या ब्रह्मज्ञानियों को उसकी प्रतीति होती है। आइंस्टीन जैसे गणितज्ञ को उसका खयाल आना शुरू हो जाता है। आस्पेंस्की जैसे गणितज्ञ को उसके सूत्र दिखाई पडने लगते हैं। और ब्रह्मज्ञानियों ने तो उसी गणित की बात की है, चाहे उनकी भाषा गणित की न हो। क्योंकि गणित का उनसे कोई परिचय नहीं है।
उपनिषद में वचन है कि पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। यह उस परम गणित का सूत्र है। साधारण गणित में तो यह ठीक नहीं आता। क्योंकि अगर तुम किसी। चीज में से कुछ भी निकाल लो, तो पीछे चीज उतनी ही शेष नहीं रह। जाएगी, जितनी निकालने के पहले थी। उतना तो कम हो जाएगा, ; जितना निकाल लिया। और उपनिषद तो कहता है, अगर हम पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लें, तो भी पूर्ण ही पीछे शेष रहता है। थोड़ा—बहुत नहीं, पूरा ही निकाल लें, तो भी पीछे उतना ही शेष रहता है।
यह तो किसी और गणित की बात है। यह उस गणित की बात है, जिससे असीमा का संबंध है, सीमित का नहीं।
पहली तो बात यह है कि पूर्ण से पूर्ण तुम निकाल न सकोगे। निकालकर कहां ले जाओगे? रखोगे कहां निकालकर? और कहीं कोई जगह नहीं है।
कल्पना कर लो कि अगर निकाल लो पूर्ण से पूर्ण को, तो पूर्ण का अर्थ होता है, जो असीम है। असीम में से तुम कितना भी निकाल लौ, असीम सीमित नहीं हो सकता। वह उसका स्वभाव नहीं है। इसलिए उसमें से घट न सकेगा।
सागर में से भी तुम एक बूंद निकालते हो, तो भी घट जाता है, क्योंकि सागर की सीमा है। लेकिन परमात्मा से तुम कुछ भी निकाल लो, घट नहीं सकता, क्योंकि उसकी सीमा नहीं है।
इस अस्तित्व की कोई सीमा नहीं है। पहले तो तुम निकाल ही न सकोगे, निकालकर ले कहां जाओगे? रखोगे कहा? और जगह कहां है? परमात्मा के अतिरिक्त और स्थान कहां है? लेकिन अगर निकाल लो, तो उपनिषद कहते हैं, तुम पूरा भी निकाल लो, तो भी पीछे पूरा ही शेष रहेगा। क्योंकि वह जो पीछे है, वह असीम है।
आस्पेंस्की ने दूसरा सूत्र अपनी एक बड़ी बहुमूल्य किताब टर्शियम आर्गानम में लिखा है कि साधारणत: किसी भी चीज का अगर हम कोई टुकड़ा निकालें, तो टुकड़ा पूरी चीज से छोटा होता है। होगा ही; यह साधारण गणित है। अगर मेरा हाथ तुम मुझसे निकाल लो, तो हाथ मुझसे बड़ा थोड़े ही हो सकता है, मुझसे छोटा। ही होगा। हाथ मेरा अंग है। तुमने सागर से चुल्लभर पानी ले लिया, तो चुल्लभर पानी सागर से तो छोटा ही होगा।
आस्पेंस्की ने लिखा है कि उस बड़े गणित में खंड भी पूर्ण के बराबर होता है। तुम चुल्लभर पानी निकाल लो, वह भी पूरे समुद्र के बराबर होता है।
यह बात जरा अजीब लगती है, तर्क के बाहर लगती है। लेकिन इसे थोड़ा समझ लेने जैसा है।
अगर यह पूरा अस्तित्व असीम है, तो इसका कोई भी खंड सीमित नहीं हो सकता। क्योंकि अगर खंड सीमित हो, तो कितने ही सीमित खंडों को जोड़ो, तो भी असीम नहीं बन सकता।
तुम करोड़ों ईंटें जोड़ते जाओ, लेकिन हर ईंट की सीमा है। तो तुम कितना ही बड़ा भवन बना लो, हजार मंजिल का भवन बना लो, तो भी सीमित ही होगा। क्योंकि हर ईंट सीमित थी, दो सीमित मिलकर, तीन सीमित मिलकर, करोड़ सीमित मिलकर भी सीमित को ही बनाएंगे। सीमा बड़ी होती जाएगी, लेकिन असीमा नहीं हो सकती।
अगर यह अस्तित्व असीम है, तो इसका हर खंड असीम होना चाहिए, नहीं तो कोई उपाय ही नहीं है इसके असीम होने का। इसका यह अर्थ हुआ कि यहां बूंद में भी सागर छिपा है। और एक छोटे—से कण में भी विराट छिपा है। और तुम में परमात्मा छिपा है। उतना ही पूरा का पूरा जितना पूरे में फैला है, इससे कम नहीं। क्योंकि अखंड अगर यह असीम है, तो इसका हर खंड असीम होना ही चाहिए, कोई दूसरा उपाय नहीं है।
इसलिए तुम्हारी सीमा वही है, जो परमात्मा की है, अगर उसकी कोई सीमा हो।
इसलिए हम परस्पर—तंत्रता को गहनतम खोज मानते हैं। उससे बड़ी कोई खोज नहीं है। उस खोज के लिए दो ही सूत्र ध्यान में रखने जरूरी हैं, एक तो सजगता और मौन। क्योंकि सजग तुम रहोगे, तो यहां और अभी जो मौजूद है, उसका तुम्हें अनुभव होगा। अगर मौन तुम रहोगे, तो ही तुम सजग रह सकोगे। नहीं तो विचार तुम्हें या तो अतीत में ले जाते हैं या भविष्य में।
एक बड़ी प्राचीन कथा है। शायद तुमने कभी पढ़ी हो। पढ़ी हो,। तो भी तुम समझ न पाए होओगे। क्योंकि वह कहानी इस ढंग से कही गई है कि उसे अज्ञानी पढ़ें, तो मनोरंजन समझें, ज्ञानी पढ़ें, तो जीवन का परम रहस्य बन जाए।
तुमने बैताल पचीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है, बैताल पचीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए हैं। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी हैं, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है, जिनमें पर्त दर पर्त अलग— अलग अर्थ हैं। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार और पांच अर्थ दौड़ते रहते हैं। जैसे एक साथ पांच रास्ते चल रहे हों, पैरेलल, समानांतर।
तो जिसकी जो सुविधा हो। एक छोटा बच्चा भी बैताल पचीसी पढ़कर प्रसन्न होगा और परम जानी भी पढ़कर प्रसन्न होगा। खोजी को मार्ग मिल जाएगा, पहुंचे हुए को मंजिल की प्रत्यभिज्ञा होगी।
जो नहीं खोजी है, नहीं पहुंचा हुआ है, उसके लिए सिर्फ चित्त का मनोरंजन होगा। वह भी क्या कम है! थोड़ी देर को मन बहलाव हो जाएगा।
बैताल पचीसी की पहली कथा है.......। पच्चीसों ही कथाएं बड़ी अदभुत हैं, लेकिन पहली तुम से कहता हूं। पहली कथा है कि सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में एक फकीर आया। सुबह का वक्त था। रिवाज के अनुसार लोग सम्राट को भेंट चढ़ाने सुबह—सुबह आते थे। उस फकीर ने भी एक जंगली—सा दिखाई पड़ने वाला फल सम्राट को भेंट किया। सम्राट थोड़ा मुस्कुराया भी। इस फल को भेंट करने के लिए इतने दूर आने की जरूरत भी क्या थी? लेकिन फकीर है, फकीर के पास कुछ और हो भी नहीं सकता, तो उसने स्वीकार कर लिया। पास में बैठे वजीर को वह देता जाता था, जो भी भेंट आती थी, उसने उसे दे दिया।
यह कम दस वर्षों तक चला। वह फकीर रोज सुबह आता। और रोज वही, उसी तरह का फिर एक जंगली फल ले आता। दस वर्ष! और रोज सम्राट वजीर को फल दे देता। न तो उसने कभी पूछा, क्योंकि सुबह सैकड़ों भेंट देने वाले लोग थे। फुरसत भी न थी, समय भी न था। और इस फकीर से पूछने जैसा भी कुछ नहीं लगा।
पर एक दिन पास ही सम्राट का पाला हुआ बंदर भी बैठा हुआ था, और सम्राट ने वजीर को फल न देकर बंदर को दे दिया। बंदर ने फल खाया और उसके मुंह से एक बहुत बड़ा हीरा, जो फल में छिपा था नीचे गिर गया। सम्राट तो चौंका। इतना बड़ा हीरा तो उसने देखा भी नहीं था। वजीर से कहा कि बाकी फल कहां हैं?
वजीर ने भी यह सोचा था कि जंगली फल हैं। पर फिर भी उसने सोचा कि सम्राटों के पास सम्हलकर रहना पड़ता है, तो एक तलघरे में वह फेंकता जाता था। क्योंकि फलों का करोगे क्या? जंगली थे, खाने योग्य भी नहीं लगते थे। स्वाद भी ठीक नहीं था।
तलघरा खोला गया। भयंकर बदबू से भरा था, क्योंकि सारे फल सड़ गए थे। लेकिन उन सड़े हुए फलों के बीच हीरे चमक रहे थे। ऐसे हीरे कभी सम्राट ने देखे नहीं थे।
फकीर को कहा कि यह क्या राज है? तुम क्या चाहते हो? किस लिए तुम दस साल से यह भेंट ला रहे हो? और मैं कैसा अज्ञानी कि मैंने कभी देखा भी नहीं! मैंने समझा, जंगली फल है। उस फकीर ने कहा, होश न हो तो जिंदगी ऐसे ही चूक जाती है।
दूसरी समानंतर अर्थ की धारा शुरू होती है।
उस फकीर ने कहा, रोज ही जिंदगी लाती है। लेकिन जंगली फल समझकर तुम फेंकते चले जाते हो। और हर फल के भीतर हीरा छिपा है, जैसा तुमने कभी देखा नहीं। खैर, जो हुआ हुआ। अब पीछे की तरफ मत जाओ, अन्यथा फिर तुम चूक जाओगे। और आगे की तरफ भी मत दौड़ो। क्योंकि मैं देखता हूं, सपने दौड़ रहे हैं। क्योंकि इतने हीरे! दुनिया के तुम सबसे बड़े सम्राट हो गए। आगे भी मत जाओ, पीछे भी मत जाओ। मैं कुछ और तुमसे कहना चाहता हूं वह सुन लो।
सम्राट सजग होकर बैठा, यह आदमी कोई साधारण नहीं है। अब तक समझे कि फकीर है।
जिंदगी साधारण नहीं है। और जिंदगी ने तुम्हें जो दिया है, वह बिलकुल असाधारण है। लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम हंसोगे कि दस साल तक यह आदमी क्यों बेहोश रहा? तुम कई जन्मों से हो। राजा वीर विक्रमादित्य तुम भी हो। हजारों साल से तुम ऐसे ही बैठे हो और जिंदगी रोज फल दिए जा रही है। हर पल, छिपा हुआ जीवन का हीरा तुम्हारे पास आता है।
अब यह कोई साधारण आदमी न था। राजा सम्हलकर बैठ गया। उसने कहा कि कहो, तुम्हारी एक—एक बात सुनने जैसी है। उसने कहा कि मैं दस वर्ष से आ रहा हूं इसी प्रतीक्षा में कि किसी दिन तुम जागोगे। क्योंकि मैं एक ऐसा आदमी चाहता हूं जो वीर हो, वह तुम हो।
इसलिए विक्रमादित्य का नाम है, वीर विक्रमादित्य। सिर्फ दो आदमियों को भारत ने वीर कहा है, एक महावीर को और एक विक्रमादित्य को।
निश्चित तुम वीर हो, इसमें कोई शक—शुबहा नहीं; लेकिन काफी नहीं है वीर होना। इसलिए मैं चाहता था कि जब तुम जाग जाओ वर्तमान के प्रति, तब मेरे काम के हो सकते हो। अब दोनों बातें घट गईं। अब तुम महावीर हो, होश और साहस। मैं एक बड़े महान तंत्र के कार्य में लगा हूं। उसमें मुझे एक ऐसे आदमी की जरूरत है, जो बहुत वीर हो, जिसे कोई चीज भयभीत न कर सके, और जो होशपूर्ण हो। अगर तुम तैयार हो, तो आज अमावस की रात है। तुम सांझ मरघट पर पहुंच जाओ। मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा।
वह फकीर तो चला गया। सम्राट ने कई बार सोचा भी कि इस झंझट में पड़ना कि नहीं! लेकिन फिर यह तो कायरता होगी। और यह आदमी ऐसा है कि इसके साथ थोड़े दूर जाने जैसा है। पता नहीं जैसे हम जंगली फल को फेंकते रहे, पता नहीं मरघट में कौन से स्वर्ग का या मोक्ष का द्वार खुल जाए!
तो समझा—बुझाकर......। डर भी लगता था।
बहादुर से बहादुर आदमी भी डरता है। तुम यह मत सोचना कि सिर्फ कायर डरते हैं। डरते तो बहादुर भी हैं। फर्क क्या है बहादुर और कायर में? बहादुर डरता है, तो भी करता है। कायर डरता है, भाग खड़ा होता है। डरते दोनों ही हैं! डरने के संबंध में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि जो डरे ही नहीं, वह तो बहादुर भी क्या उसको कहना! वह तो लोहे, लकड़ी, पत्थर का बना हुआ आदमी है। वह बहादुर भी नहीं है, जो डरे ही न। डर तो स्वाभाविक है। लेकिन बहादुर डर को किनारे पर रख देता है और घुस जाता है। और भयभीत डर को सिर पर रख लेता है, भाग खड़ा होता है।
खैर, आधी रात विक्रमादित्य पहुंच गया मरघट पर। बड़ा डर लगता था। बड़ी भयंकर रात थी। और साधारण रात नहीं मालूम होती थी। कभी मरघट आया भी नहीं था। महलों में ही सदा रहा था। मरघट सिर्फ शब्द ही था।
तुम भी कभी रात, अमावस की आधी रात मरघट जाओ, तब तुम्हें इस शब्द का अर्थ पता चलेगा। शब्दकोश में इसका अर्थ नहीं लिखा है।
मरघट एक बड़ी अनूठी घटना है। चारों तरफ रहस्य, भय, खतरा, भूत—प्रेत, चीख—पुकार। और वह तांत्रिक फकीर अपना मंडल रचकर बैठा है नग्न। खोपडिया! एक जिंदा लाश! लाश को काट रहा है। उसने सब इंतजाम अपना कर रखा है, जो उसे करना है।
सम्राट से उसने कहा, आ गए; ठीक। यहां से थोड़ी दूर? वह दूर दिखाई पड़ने वाला जो वृक्ष है, वहां एक लाश लटकी हुई है। तुम्हें उस लाश को वृक्ष से उतारकर ले आना है। लेकिन ध्यान रखना, सजग रहना और शांत रहना। क्योंकि जरा चूके, तो यह कृपाण की धार पर चलना है। जरा चूके कि गए। फिर मैं भी सहायता न कर सकूंगा।
धड़कती छाती से विक्रमादित्य उस वृक्ष के पास पहुंचा। वहां बड़ा भय लगने लगा उसे। क्योंकि वहां कोई भी न था। बिलकुल अकेला था। और उस वट—वृक्ष में लाशें लटकी हुई थीं। एक नहीं,
पच्चीस। बड़ी बदबू आ रही थी।
किसी तरह नाक को अवरुद्ध करके वृक्ष पर चढ़ा। हाथ—पैर कैप रहे थे। वृक्ष पर चढ़ना मुश्किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्म से नीचे गिरी! न केवल गिरी, खिलखिलाकर हंसी! विक्रमादित्य के प्राण छूट गए होंगे। सोचा था, मुरदा है। यह तो जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में है। घबड़ाया हुआ नीचे आया और उससे पूछा, क्यों हंसे? क्या मामला है?
बस, इतना कहना था, कि लाश उड़ी, वापस जाकर वृक्ष से लटक गई। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकोगे। तुम बोले, चूक गए।
दोबारा लाश को काटकर नीचे लाया। बड़ा मुश्किल था चुप रहना। क्योंकि जब आदमी को भय लगता है, तब वह कुछ बोलना चाहता है। बोलने से भी थोड़ी राहत मिलती है। गीत गुनगुनाने लगता है, थोड़ी हिम्मत बढ़ती है। मंत्र पढ़ने लगता है; राम—राम जपने लगता है। कोई सहारा चाहिए। अब बोलना भी नहीं है, शांत भी रहना है। भयंकर सन्नाटा; और चारों तरफ मौत!
शायद आदमी इसीलिए अतीत की सोचता है, भविष्य की सोचता है, क्योंकि डरता है। वर्तमान के क्षण में जीवन भी है और मौत भी, दोनों। क्योंकि वर्तमान में ही तुम मरोगे और वर्तमान में ही जीते हो। न तो कोई भविष्य में मर सकता है और न भविष्य में जी सकता है।
तुम भविष्य में मर सकते हो? जब मरोगे, तब अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में मरोगे। आज मरोगे। कल तो कोई भी नहीं मरता। कल तो मरोगे कैसे? कल तो आता ही नहीं। जब मर नहीं सकते कल में, तो जीओगे कैसे? कल का कोई आगमन ही नहीं होता। कल है ही नहीं। जो है, वह अभी और यहां। बोले, कि चूक जाते हो। सोचे, कि चूक जाते हो।
बड़ा कसकर उसने अपने को रोका। आदमी बहादुर था। मुरदा नीचे फिर से काटकर गिराया। भयंकर खिलखिलाहट की आवाज आई। छाती कैप गई। नीचे उतरा। मुरदे को कंधे पर रखा। चलने लगा। मुरदे ने कहा कि सुनो, राह लंबी है, रात अंधेरी है, और तुम्हारा बोझ हलका करने के लिए एक कहानी कहता हूं। ऐसी पहली कहानी।
उसने कहा कि तीन युवक थे ब्राह्मण.......।
यह विक्रमादित्य सुनना भी नहीं चाहता था, पड़ना भी नहीं चाहता था चक्कर में। क्योंकि जब तुम सुनो, तो पता नहीं, बीच में बोल उठो। या कुछ हो जाए। या कम से कम सुनने में ही लग जाओ और जो तुमने सम्हाल रखा है अपने को, वह चूक जाए। क्षण में चूक सकती है बात। मगर इससे नहीं कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि नहीं कहते ही यह लाश उड़ जाएगी और फिर वृक्ष पर चढ़ना पड़ेगा। फिर काटो। तो वह चुप ही रहा। और वह मुरदा कहानी कहने लगा।
उसने कहा, एक गुरु के आश्रम में तीन युवक थे। तीनों ही गुरु की लड़की के प्रेम में पड़ गए...।
कहानी में रस आने लगा। प्रेम की कहानी में किस को रस नहीं आता? विक्रमादित्य थोड़ा बेहोश होने लगा। सम्हाल रहा है, लेकिन उत्सुकता जग गई; जिज्ञासा, कि फिर क्या हुआ?
तीनों एक से थे, योग्य थे, अप्रतिम थे, प्रतिभाशाली थे। गुरु मुश्किल में था कि किस को चुने। युवती भी मुश्किल में थी कि किस को चुने। कोई उपाय न देखकर युवती ने आत्महत्या कर ली। कोई रास्ता ही न मिला। और इन तीन के बीच वह बड़े द्वंद्व में घिर गई। और तीनों चुनने योग्य थे और मुश्किल था किस को छोड़े। और जानती थी, जिसको छोड़ेगी, वही जीवनभर पछतावे का कारण रहेगा। दो को छोड़ना ही पड़ेगा। तीन से तो विवाह हो नहीं सकता। बड़ी अड़चन थी। हल कोई था न। हल न देखकर आत्महत्या कर ली। लाश जलाई गई।
एक युवक उन तीन में से तो मरघट पर ही उसी राख के पास रहने लगा। उसी राख की धूनी रमा लेता और वहीं बैठा रहता। दूसरा युवक इतने दुख से भर गया कि यात्रा पर निकल गया, अपना दुख भुलाने को। घूमता रहेगा संसार में। अब बसना नहीं है, क्योंकि जिसके साथ बसना था, वही न रही। अब घर नहीं बसाना है। वह परिव्राजक हो गया, एक फकीर, भटकता हुआ आवारा। और तीसरा युवक किसी आशा से भरा हुआ, क्योंकि उसने सुन रखा था कि ऐसे मंत्र भी हैं कि अस्थिपंजर को पुनरुज्जीवित कर दें, तो उसने सारी अस्थियां इकट्ठी कर लीं। रोज उनको गंगा ले जाता, धोकर साफ करता। फिर ले आकर रख लेता। उनकी रक्षा करता कि कभी कोई मंत्र का जानने वाला मिल जाए।
वर्षों बीत गए। जो घूमने निकल गया था यात्रा पर, उसे एक आदमी मिल गया, जो मंत्र जानता था। उससे उसने मंत्र सीख लिया। मंत्र का शास्त्र ले लिया। भागा। अब डरा वह, घबड़ाया, कि पता नहीं अब अस्थिपंजर बचे भी होंगे। क्योंकि वे तो कभी के फेंक दिए गए होंगे। लेकिन आकर आश्वस्त हुआ। अस्थिपंजर बचाए गए थे। उनको संजोकर रखा था उसके साथी ने।
उसने मंत्र पढ़ा; वह युवती पुनरुज्जीवित हो गई। पहले से भी ज्यादा सुंदर, मंत्र—सिक्त। उसकी देह स्वर्ण जैसी ताजी, जैसे कमल का फूल अभी—अभी खिला हो। फिर कलह शुरू हो गई कि अब वह किसकी?
अब तक सम्राट भी भूल चुका था कि वह क्या कर रहा है और यह सुनने में लग गया था, जैसा तुम सुनने में लग गए।
उस मुरदे ने पूछा कि सम्राट, गौर से सुनो। क्योंकि फिर झगड़ा खड़ा हो गया। अब सवाल है कि इन तीन में से युवती किसकी? तुम्हारा क्या खयाल है? और अगर तुम्हारे भीतर उत्तर आ जाए और तुमने अगर उत्तर न दिया, तो तुम इसी क्षण मर जाओगे। ही, उत्तर न आए, कोई हरजा नहीं।
बड़ा मुश्किल है उत्तर का न आना। आदमी का इतना वश थोड़े ही है अपने मन पर। कोई बुद्ध पुरुष हो, तो न आए। ठीक है, सुन लिया प्रश्न; उत्तर न आया। कोई हरजा नहीं।
विक्रमादित्य बड़ी मुश्किल में पड़ा। उत्तर तो आ रहा है। बुद्धिमान आदमी था, तर्क—निष्ठ था, समझदार था, शास्त्र पढ़े थे, तर्क साफ था। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मुरदे ने कहा कि बोल, अगर उत्तर आ रहा है, तो बोल अन्यथा इसी वक्त मर जाएगा।
तो उसने कहा, उत्तर तो आ रहा है, इसलिए बोलना ही पड़ेगा। उत्तर मुझे यह आ रहा है कि जिसने मंत्र पढकर युवती को जगाया, वह तो पितातुल्य है; उसने जन्म दिया। इसलिए वह विवाह नहीं कर सकता। वह तो कट गया। जिसने अस्थियां सम्हाली और रोज गंगा में स्नान कराया, वह पुत्रतुल्य है, कर्तव्य, सेवा, उससे शादी नहीं हो सकती। प्रेमी तो वही है, जो धूनी रमाए, राख लपेटे, भूखा—प्यासा मरघट पर ही बैठा रहा, न कहीं गया, न कहीं आया। विवाह तो उसी से......।
लाश छूटी, जाकर वृक्ष से फिर लटक गई; क्योंकि यह आदमी बोल गया।
ऐसी पच्चीस कहानियां चलती हैं।
जीवन में तुम चूकते हो, जब भी मूर्च्छा पकड़ लेती है। जब भी तुम होश खो देते हो, जब भी जागे हुए नहीं होते, तत्क्षण जीवन का सूत्र हाथ से छूट जाता है। जब भी तुम जरा से अशांत हो जाते हो, विचार की तरंगें चल जाती हैं, तभी जीवन का सूत्र हाथ से छूट जाता है। क्योंकि विचार की तरंग, और तुम वर्तमान से च्युत। इधर उठी तरंग, उधर तुम हटे वर्तमान से।
वह विक्रमादित्य हार गया। वह फिर ......। ऐसी पच्चीस कहानियां चलती हैं पूरी रात। और हर बार चूकता जाता है, हर बार चूकता जाता है। पच्चीसवीं कहानी पर सम्हल पाता है। हर कहानी में ज्यादा हिम्मत बढ़ती है, साहस बढ़ता है, ज्यादा देर तक रोकता है; ज्यादा देर तक विचार की तरंगें नहीं अनुकंपित करतीं। पच्चीसवीं कहानी आते—आते कहानी चलती रहती है, विक्रमादित्य सुनता रहता है, भीतर कुछ भी नहीं होता।
जीवन एक तैयारी है। यहां बहुत कुछ है तुम्हें उलझा लेने को। बाजार है पूरा, मीना बाजार! वहां सब तरफ बुलावा है—उत्सुकता को, जिज्ञासा को, मनोरंजन को। प्रश्न हैं, विचार की सुविधा है, सोच—विचार का उपाय है, चिंता का कारण है। सब तरह के उलझाव हैं।
अगर तुम इस सारे संसार से ऐसे गुजर जाओ, जैसे विक्रमादित्य उस मरघट से बिना बोले, चुप और जागा हुआ पच्चीसवीं कहानी पर गुजर सका, तो ही तुम वर्तमान क्षण की अनुभूति को उपलब्ध होओगे। अन्यथा तुमने वर्तमान जाना ही नहीं है।
तुम वर्तमान से गुजरे जरूर हो, क्योंकि और कोई जगह नहीं है जहां से तुम गुजरो, लेकिन बेहोश, सोए हुए गुजरे हो। या तो अतीत में खोए हुए गुजरे हो, या भविष्य में डूबे हुए गुजरे हो। वर्तमान से तुम्हारा कभी तालमेल नहीं बैठा है। वर्तमान से संगीत नहीं छिड़ा है। वर्तमान के साथ स्वर नहीं मिले।
वर्तमान से स्वर मिल जाए, तुम पाओगे, एक ही है, अनेक उसके रूप हैं। एक है सागर, अनेक हैं लहरें।
प्रश्न : अचाह होने का अर्थ है कि मैं जो भी हूं? भी हूं? उसे यथावत स्वीकार करूं। इस संबंध में विचार करते हुए बार—बार प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव है? क्योंकि अभी जो मैं हूं, वह सर्वाधिक रुग्ण और गलत है। दूसरी ओर सिर पर आदर्शों की बड़ी गठरी है। उसे उतार फेंकना भी सरल नहीं दिखता!
निश्चित ही, अचाह होने का यही अर्थ है कि तुम जो हो, जैसे हो, वैसे ही अपने को स्वीकार कर लो। क्योंकि किया अस्वीकार, और चाह उठी। तुमने कहा, ऐसा नहीं होना चाहिए, तो स्वभावत: दूसरे पहलू से तुम कैसे बचोगे, जो कहता है, कैसा होना चाहिए।
अगर अभी तुम अतृप्त हुए, तो भविष्य में तुम तृप्ति खोजोगे। वही तो चाह है। लगा कि धन कम है, तो चाह उठेगी। लगा कि शांति कम है, तो भी चाह उठेगी कि और शांति चाहिए। लगा कि परमात्मा नहीं मिल रहा है, तो भी चाह उठेगी कि परमात्मा मिलना चाहिए। चाह उठती कहा है? चाह उठती है तुम्हारी अतृप्ति से। कुछ कम है, कुछ नहीं है, जो होना चाहिए; कुछ खोया—खोया है; कोई श्रृंखला की कड़ी मिल नहीं रही है, तो चाह उठती है। और जिसकी चाह उठती है, वह कभी भी उस परम आनंद को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि एक चाह उठती है और हजार चाहो के बीज पड़ जाते हैं। तुम उस चाह को पूरा भी कर लोगे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि जिस मन ने अतृप्ति उठाई थी, वह मन फिर अतृप्ति उठाएगा।
अभी तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं। चाह उठती है कि अगर दस लाख होते, तो. सब ठीक हो जाता, फिर कोई अड़चन न थी। लेकिन तुम, दस लाख जिनके पास हैं, उन्हें देखते हो? उनका सब ठीक हो गया है? वे भी उतनी ही अड़चन में हैं, जितनी में तुम हो।
अड़चन का अनुपात बदलता ही नहीं। हो सकता है, तुम्हारे पास। दस हजार हैं, इसलिए तुम एक बड़ा मकान नहीं खरीद पा रहे हो। जिसके पास दस लाख हैं, वह भी बड़ा मकान नहीं खरीद पा रहा है। तुम्हें उसका मकान बड़ा लगता है, क्योंकि तुम्हें अभी दूर है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। उसे तो वह भी छोटा लगता है।
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बड़े मकान में रहता हो। कितने ही बड़े में रहता हो, हमेशा और बड़ा मकान हो सकता है। कल्पना तो कर ही सकते हो और बड़े मकान की। वही कष्ट देगी।
जो भी है, वह तुम्हारी कल्पना के बराबर तो कभी भी नहीं हो सकता। तुम्हारी कल्पना तो विस्तीर्ण है, अनंत है। तुम कल्पना तो कर ही सकते हो इससे बेहतर हालत की।
मनुष्य को कल्पना ही जलाए डालती है। क्या तुम ऐसी कोई स्थिति सोच सकते हो कि जिसके आगे बेहतर की कल्पना न उठे। स्वर्ग में भी तुम पहुंच जाओगे, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे पास अगर कल्पना होगी, तो तुम बेहतर स्वर्ग की कल्पना कर सकते हो।
कल्पना ही तो मनुष्य की पीड़ा है। पशु—पक्षी जो इतने आनंदित दिखाई पड़ रहे हैं, उसका कुल एक कारण है कि उनमें कल्पना नहीं है। इसलिए जो है, ठीक है। इससे भिन्न होने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता।
ध्यान रखो कि ऐसी तो घड़ी कभी भी न आएगी, जब तुम अनुभव करो कि जो है, वह बिलकुल कल्पना के अनुकूल है, अब कुछ नहीं चाहिए। ऐसी घड़ी कभी न आएगी। तब तो एक ही उपाय है कि तुम जलते ही रहो, सड़ते ही रहो, नरक में चलते ही रहो। तब तो कोई बचती नहीं है सुविधा इससे ऊपर उठने की।
सुविधा है। वही तो सारे धर्म का निचोड़ है। वह सुविधा यह है कि तुम जैसे हो, जो भी हो, यह देखकर कि ऐसी तो कोई घड़ी न होगी जिस दिन कि तुम बिलकुल तृप्त हो जाओ अपने होने से, तुम अभी ही तृप्त क्यों नहीं हो जाते! कोई फर्क नहीं है, अभी होओ या दस हजार साल बाद होओ। जब भी तुम होओगे, तुम्हारी कल्पना तो पीड़ा देती ही रहेगी। दस हजार पर रुको, कि दस लाख पर, कि दस करोड़ पर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रुकना तो कभी पड़ेगा, तो अभी क्या हर्जा है?
तो मैं तुम से कहता हूं, कल्पना ही मनुष्य की पीड़ा है और कल्पना ही मनुष्य की सीढ़ी बन सकती है। अगर तुम समझदार हो, तो तुम यह कल्पना भी क्यों नहीं कर पाते कि जब कहीं भी रुकूंगा और यही अड़चन होगी, तो अभी क्यों न रुक जाऊं?
तो मैं तुमसे कहता हूं कि अधूरा कल्पना का आदमी सड्ता है नरक में, पूरी कल्पना का आदमी इसी वक्त मुक्त हो जाता है। इतना भी देख नहीं पाते तुम! इतना परिप्रेक्ष्य नहीं कर पाते कि यह तो कभी हल होने वाला नहीं है! तो क्या करना? तो जैसे हो, राजी हो जाओ।
तुम कहते हो, यह असंभव है। तुम पूछते हो, क्या यह संभव है अपने से राजी हो जाना?
इसके अतिरिक्त और कुछ संभव ही नहीं है। तुम अभी असंभव कोशिश कर रहे हो। इसीलिए तो परेशान हों। जो नहीं हो सकता, उसको करने की कोशिश में ही तो दुख होता है। क्योंकि वह हो ही नहीं सकता, विषाद आता है, असफलता मिलती है। जो हो सकता है, वह तुम कर नहीं रहे।
क्या अड़चन है इसमें? राजी होने में क्या अड़चन है? तुम जैसे हो, उससे ही राजी हो जाने में क्या अड़चन है?
मैं नहीं कह रहा कि तुम्हारे मकान से तुम राजी हो जाओ, तुम्हारी दुकान से तुम राजी हो जाओ। उस कूड़े—कचरे की मैं बात ही नहीं करता। उससे तुम न भी राजी हुए तो चलेगा। मैं तो कह रहा हूं कि तुम अपने से राजी हो जाओ।
मां—बाप बदल नहीं सकते। बदल भी लो जाकर, रजिस्ट्री भी करवा लो अदालत में, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह घटना घट गई। तुम्हें कोष्ठ मिल गए तुम्हारे मां—बाप के, उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है।
और तुम अगर सोचते हो कि यह तो हो सकता था कि मैं किसी और मां—बाप के घर जन्म ले लेता, तो तुम तुम न होते, कोई और होता। तुम तो इन्हीं मां—बाप से जन्म ले सकते थे। इसको समझ लो। तुम होते ही नहीं तुम। फिर कोई और होता। इतने तो लोग हैं दुनिया में दूसरे मां—बाप से पैदा हुए। इनमें से कोई भी तुम जैसा दिखता है? तुम जैसे हो, वैसे ही हो, वैसे ही हो सकते थे और कोई उपाय ही न था।
इसी को हिंदुओं ने भाग्य कहा। बड़ी गहरी खोज है भाग्य की। भाग्य बड़ा परम सूत्र है। उन्होंने कहा कि जो हो गया, वह हो गया। अब इसको अनकिया तो किया नहीं जा सकता! इसे स्वीकार कर लो। यही संभव है। और करोगे क्या? एक तरह की शक्ल है, एक तरह का मन है, एक तरह की शरीर की स्थिति है, एक तरह की चेतना है। नहीं तुम बहुत प्रतिभाशाली हो, नहीं तुम बहुत मूढ़ हो, मध्य में खड़े हो; या बहुत मूढ़ हो या बहुत प्रतिभाशाली हो; कोई भी स्थिति है, करोगे क्या?
तुमने कभी किसी को बदलते देखा? तुमने कभी मूढ़ को ज्ञानी होते देख? तुमने कभी ज्ञानी को मूढ़ होते देखा? तुमने कभी किसी को बदलते देखा है? तुम जरा अपने पर ही विचार करो कि तुम अगर तीस साल जी लिए हो, चालीस साल जी लिए, पचास साल जी लिए, तुममें कुछ बदला है?
अगर तुम जरा ईमानदारी से खोज करोगे, तुम पाओगे, कुछ नहीं बदला। तुम वही के वही हो। अब भी क्रोध वैसे ही आता है। अब भी वासना वैसे ही उठती है। अब भी लोभ वैसे ही पकड़ता है!
अगर तुम गौर करोगे, तो तुम पाओगे, तुम्हारा बचकानापन तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर छाया हुआ है। कहीं कोई फर्क नहीं हुआ है। अब भी खेल—खिलौनों में रस है। खेल—खिलौन जरा बदल गए हैं। छोटा बच्चा छोटी—सी मोटर चलाता है, जिसको चाबी भर दी। तुम जरा बड़ी मोटर चलाते हो। बाकी छोटा बच्चा जैसा पागल होता है मोटर के लिए, वैसे ही तुम भी पागल हो। छोटा बच्चा रातभर सो नहीं सकता, जब नई मोटर उसको मिलती है। बार—बार उठकर देख लेता है। तुम जब नई मोटर घर लाते हो, तो रात सो सके हो? क्या फर्क पड़ गया है?
छोटा बच्चा कंकड़—पत्थर बीन लाता है नदी के किनारे से। तुम कहते हो, नालायक। तुम क्या बीन रहे हो? तुमने हीरे—जवाहरात बीने हैं। वे कंकड़—पत्थर से ज्यादा हैं?
अगर जमीन पर किसी दिन आदमी न रहे, तो कंकड़—पत्थर में और हीरे—जवाहरात में कोई फर्क रहेगा? पशु—पक्षी कोई भेद करेंगे कि उसको मत खराब कर देना, वह कोहिनूर है। कोई भेद न करेगा। कोहिनूर पड़ा सडता रहेगा पत्थरों के बीच में। कोई फिक्र न करेगा। कोहिनूर की चिंता करने के लिए कोई पागल आदमी चाहिए।
क्या फर्क पड़ा है? छोटा बच्चा स्कूल में चेष्टा करता था कि प्रथम आ जाऊं क्लास में। तुम क्या कर रहे हो? मोरारजी, इंदिरा गुजरात में क्या कर रहे हैं? वही प्रथम आने की दौड़ है सब जगह। क्या फर्क है? नाम बदल जाते हैं, कहानी वही की वही है। दौड़ लगी है, प्रतिस्पर्धा लगी है।
अगर गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे, तुम बदले नहीं हो। और बदलने की तुमने लाख कोशिश की है। ऐसा नहीं है कि कोशिश नहीं की है। कौन ऐसा आदमी होगा, जो बदलने की कोशिश नहीं करता! ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। मुझे तो नहीं मिला अब तक। और मैं हजारों—लाखों लोगों के करीब आया हूं। निकट से उन्हें देखा है। उनके मन में झांका है।
ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बदलने की कोशिश नहीं करता। बुरे से बुरा आदमी भी बदलने की आकांक्षा करता है। चोर भी साधु होना चाहता है। बेईमान ईमानदार होना चाहता है। क्रोधी शांत होना चाहता है। भोगी त्यागी होना चाहता है। मुश्किल है।
और इससे उलटा भी चल रहा है। जो त्यागी हैं, उनके भीतर भोगी होने की आकांक्षा चल रही है। वे समझते हैं कि फंस गए। वे हैं तो तुम में ही से। बस, उनको ऐसा लग रहा है कि उलझ गए। अब किसी को कह भी नहीं सकते; पूंछ कटा बैठे, तो वे दूसरों को भी समझा रहे हैं कि तुम भी कटवा लो। क्योंकि अगर सब की कट जाए, तो अपने को भी हानि न मालूम पड़े। अपनी भी कटी, कोई हर्जा नहीं। मगर दूसरे लोग पूंछ घुमा रहे हैं; मजे से नाच रहे हैं पूंछ के साथ। और जिनकी कटी है, उनको पीड़ा दे रहे हैं।
मुझसे साधुओं ने कहा है निकटता में कि हमें लगता है कि कहीं हमने भूल तो नहीं की संसार छोड्कर! क्योंकि अगर हम सच हैं, तो सभी लोग क्यों नहीं छोड़ देते! और हम कितना समझाते हैं, कोई नहीं समझता। तो भीतर शक पैदा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ही भूलकर रहे हैं।
और फिर वासनाएं भी उठती है; कि क्या पाया? बैठे रहते है पद्यासन लगाए, भीतर कुछ मिलता तो नहीं; पैर दुखते हैं, परेशानी होती है। उपवास कर लेते हैं, भूखे मरते हैं, कुछ फल तो होता दिखाई नहीं पड़ता। और अगर इससे थोड़ी प्रतिष्ठा ही मिलती है, तो प्रतिष्ठा तो बाजार में भी मिल सकती थी। बड़ा मकान बना लेते, तो भी मिल जाती, कुछ भूखा मरने की जरूरत न थी। प्रतिष्ठा के तो हजार उपाय थे।
ऐसा आदमी मैं नहीं देख पाता, जो बदलना न चाहता हो, जो जहां है, वहीं बदलना चाहता है। और मेरा अनुभव यह है कि आदमी ऐसे बदलता नहीं।
सिर्फ एक ढंग का आदमी बदलता है। और उस ढंग के आदमी न्यून हैं, इसीलिए बदलाहट नहीं होती। वह वह आदमी है, जो अपने को स्वीकार कर लेता है। तत्क्षण क्रांति घटित हो जाती है। तुम पूछोगे, यह क्रांति कैसे घटती है? क्योंकि कोशिश से नहीं घटती, और स्वीकार से घटती है! यह क्रांति कैसे घटती है जब तुम स्वीकार कर लेते हो?
इसका गहरा सूत्र है, इसका शास्त्र है।
जब कोई व्यक्ति अपने क्रोध को बदलने की चेष्टा छोड़ देता है। उदाहरण के लिए, तुम क्रोधी हो और तुम क्रोध छोड़ने की कोशिश में लगे हो। क्या करोगे तुम? तुम तीन बातें करोगे।
एक, तुम अक्रोध का आदर्श बनाओगे। तुम महावीर की फोटो लटकाओगे अपने घर में। और कहोगे कि ऐसा आदमी होना चाहिए कि कान में खीलें ठोंक दिए और क्रोध न आया! एक आदर्श तुमने बना लिया।
आदर्श बनाकर, महावीर की फोटो लटकाकर तुम बड़े प्रसन्न हुए कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, आदर्शवादी हूं। आज नहीं हूं महावीर जैसा, लेकिन कल तो हो जाऊंगा। तुमने भविष्य पैदा कर लिया। अगर इस जन्म में न हो पाया, अगले जन्म में हो जाऊगा। अगर जिन नहीं हो पाया, तो जैन तो कम से कम हो ही गया हूं। इतना क्या कम है! दूसरे तो अभी तक असदगुरुओं के चक्कर में पडे हैं। मैं देखो सदगुरु के चक्कर में पड़ा हूं।
इस आदर्श से तुम्हारा क्रोध नहीं मिटेगा। इस आदर्श के कारण तुम्हारे क्रोध के मिटने की संभावना ही समाप्त हो गई। क्योंकि तुमने अपने अहंकार को इस आदर्श से भर लिया। जो क्रोध से टूटता था और क्रोध कर—करके तुम्हें लगता था, मैं क्षुद्र, गया—बीता आदमी हूं नारकीय हूं पापी हूं वह भी गया।
अब तो तुम धर्मिक आदमी हो गये हो। रोज महावीर की पूजा करते हो, फूल चढाते हो। अब तुमने क्रोध में आभूषण लगा लिए। क्रोध तुम्हारा वहीं के वहीं है। कोई महावीर की फोटो टांगने से क्रोध जाता होता, तो इससे सस्ता क्या था करना! तो दुनिया से क्रोध चला गया होता कभी का। इससे तो कोई क्रोध जाता नहीं, इससे क्रोध की रक्षा होती है।
आदर्श, तुम जो हो, तुम्हें वैसा ही बनाए रखने में सहयोगी है। क्योंकि आदर्श तुम्हें अहंकार की तृप्ति देते हैं, भविष्य में। वर्तमान में तो कोई तृप्ति का कारण नहीं है, तुम रुग्ण हो, दुखी हो, पीड़ित हो, नरक हो। लेकिन भविष्य का मोक्ष तुम्हें आशा देता है। आशा के सहारे तुम अपनी तस्वीर बना लेते हो, भविष्य में, सुंदर प्रतिमा, महावीर जैसी, तुम भी खड़े हो नग्न, सब त्याग कर दिया है संसार का। यह सपना तुम्हारी असलियत के चारों तरफ एक झूठा व्यामोह। पैदा कर देता है। तुम आदर्शवादी हो गए।
आदर्शवादी से ज्यादा बुरा आदमी खोजना मुश्किल है। वह कहता है कि आज तो क्रोध है, ठीक है। इसमें कुछ हर्जा नहीं है। कल सब ठीक कर लूंगा। और कोई एक दिन में थोड़े ही बदलाहट होती है। धीरे— धीरे साका, क्रम—क्रम से जाऊंगा। पहले व्रत लूंगा एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा। पहले अणु—व्रत लूंगा, फिर महाव्रत। धीरे— धीरे साफा।। पहले एक प्रतिमा साधूंगा, फिर दो प्रतिमा, फिर तीन प्रतिमा। ऐसे धीरे— धीरे साधते—साधते परम अवस्था को उपलब्ध हो जाऊंगा।
यह तरकीब है तुम्हारे मन की। यह मन यह कह रहा है कि भविष्य में सुंदर प्रतिमा बना लो, तो अभी तुम्हारी जो रुग्ण देह है, वह दिखाई पड्नी बंद हो जाएगी। यह सांत्वना है।
सब आदर्श जहर है। तुम जहर खा रहे हो। लेकिन जहर पर बड़ी मिठास लगी है। जहर की गोली पर शक्कर चढ़ी है। आदर्श किसी को बदलता नहीं है; आदर्श बदलाहट को रोकता है।
तो एक तो यह तुम करोगे। और दूसरा तुम यह करोगे कि आदर्श की तरफ चलने की थोड़ी चेष्टा शुरू करोगे। तुम नियम लोगे, कसम खाओगे कि मैं क्रोध न करूंगा। लेकिन अगर तुम क्रोध को रोकोगे, तो तुम हैरान होओगे, क्रोध रोको तो कामवासना बढ़ती है। क्योंकि ऊर्जा कहीं से बाहर जानी चाहिए।
तुमने खयाल भी किया होगा, अगर तुम कामवासना को रोको, तो क्रोध बढ़ जाएगा। थोडा प्रयोग करके देखो। एक महीने का ब्रह्मचर्य ले लो। तुम पाओगे, उस महीने में तुम ज्यादा चिड़चिड़े, क्रोधी हो गए।
ब्रह्मचारी चिड़चिड़े और क्रोधी हो जाते हैं। इसलिए तुम्हारे साधु दुर्वासा मालूम पड़ते हैं। तैयार ही खड़े हैं कि तुम कुछ कहो, वे अभिशाप दे दें। जन्म—जन्म बिगाड़ दें तुम्हारे।
तुमने देखा है, नाथ—पंथी साधु दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं, अपना चमीटा हिलाते हैं, आगे—पीछे जाते हैं और घबड़ाहट पैदा कर देते हैं तुममें कि भैया दे ही दो कुछ। पता नहीं, क्या करे यह आदमी। तुम्हारी तरफ देखते ही नहीं, मांगते भी नहीं; बस, आगे—पीछे चलते रहते हैं और अपना चमीटा आगे करके बजाते रहते हैं कि सम्हल जाओ। वे तुमको डरवा रहे हैं।
तुम अगर ब्रह्मचर्य साधोगे, क्रोध बढ़ जाएगा। इसको तुम करके देखो। यह तो सीधा गणित है, केमिस्ट्री है शरीर की। जो ऊर्जा क्रोध से बाहर निकल रही थी, वह कहीं से तो निकलेगी!
भोजन तो तुम करते जा रहे हो, और मल—मूत्र का त्याग बंद कर दिया है, तो क्या होगा? क्रोध की जिन चीजों से निर्मिति होती हैं, वह तो जारी है। और क्रोध तुमने करना बंद कर दिया है। थोड़ी—सी केमिस्ट्री समझो, शरीर का रसायन समझो। यह कहीं से तो निकलेगा। या तो यह लोभ बन जाएगा या यह काम बन जाएगा। यह कोई न कोई रास्ता, या यह अहंकार बन जाएगा, लेकिन कुछ न कुछ बनेगा।
तुम एक दरवाजे से रोकोगे, दूसरा दरवाजा खोलेगा। तुम दूसरे दरवाजे से रोकोगे, तीसरा खोलेगा। यह कुछ बचना नहीं है। यह तुम व्यर्थ ही जीवन को उलझा रहे हो।
और ध्यान रहे, अगर कामवासना शुद्ध कामवासना हो, तो ब्रह्मचर्य तक जाना आसान है। जब कामवासना क्रोध बन जाती है, तो ब्रह्मचर्य तक जाना मुश्किल है, क्योंकि क्रोध असली बीमारी नहीं है। और तुम समझोगे कि क्रोध मेरी बीमारी है। तुम क्रोध को सम्हालने के उपाय करोगे। और असली बीमारी दूसरी है।
ठीक बीमारी हो, तो ठीक निदान किया जा सकता है। ठीक निदान हो, तो इलाज हो सकता है। अगर बीमारी ही झूठी हो, असली बीमारी ही न हो? किसी दमन से पैदा हुई हो, तो सब निदान के सूत्र खो जाते हैं, डायग्नोसिस खो जाती है, औषधि का उपाय नहीं बनता।
तो तुम यह करोगें कि तुम कसमें लोगे। इसलिए तुम पाओगे तुम्हारे साधुओं को, क्रोधी, दंभी, अकड़े हुए, झुक नहीं सकते!
साधु तो विनम्र होना चाहिए। यह अकड़ साधु में? तो फिर संसारी में अकड़ है, उसमें क्या हर्जा है? संसारी में कम अकडू है, क्योंकि संसारी साधु के चरण छूता है। जैन साधुओं के संप्रदाय हैं,। जौ हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करते। क्योंकि साधु कैसे संसारी को नमस्कार कर सकता है?
यह बात बिलकुल बेहूदी है। क्योंकि तुम संसारी को देखते ही क्यों हो? तुमको आत्मा नहीं दिखाई पड़ती भीतर! परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता! तुम कपड़े देखते हो? तुम्हें प्राण नहीं दिखाई पड़ते? लेकिन जैन साधु किसी को नमस्कार नहीं कर सकता। क्योंकि नमस्कार और साधु और गृहस्थ को करे? असंभव!
इससे तो सूफी फकीर बेहतर, जो किसी के भी पैर छू लेते हैं—किसी के भी। सूफी फकीर से कोई मिलने जाएगा और वह पैर छू लेगा। क्योंकि वह कहता है कि विनम्रता तो साधु का लक्षण होना चाहिए। सभी पैर परमात्मा के हैं। किस बहाने आए, तुम जानो, हम तो पैर छुए लेते हैं। किस शक्ल में आए, यह तुम फिक्र करो, हम क्यों चिंता करें! जैसे आए, राजी हैं हम।
इसलिए सूफी फकीर में जो विनम्रता दिखाई पड़ेगी, वह जैन साधु में नहीं दिखाई पड़ेगी।
दबाओगे, रोग कहीं न कहीं से उभरेगा। फिर तुम क्या करोगे? क्या उपाय है तुम्हारे पास? तीसरा उपाय यह है—ये तीन चीजें तुम करोगे, आदर्श पैदा करोगे, व्रत लेकर दमन पैदा करोगे—और तीसरा उपाय है कि जीवन की ऊर्जा को क्षीण करोगे। क्योंकि उससे तुम्हें भय पैदा हो जाएगा।
अगर तुम ठीक से भोजन करोगे, तो कामवासना पैदा होगी, तो तुम डरने लगोगे भोजन से। तो तुम उपवास करने लगोगे। ही, यह बात सच है कि अगर ठीक भोजन न किया जाए, जरूरत की ताकत शरीर को भोजन से न मिले, तो कामवासना पैदा नहीं होती है। लेकिन कामवासना मिटती नहीं है। वह ऐसी हो जाती है, जैसे तुमने कभी वर्षा के दिनों में किसी बाढ़ आई नदी को देखा हो, और फिर गर्मी के तप्त दिनों में उसी नदी को देखो, तो रूखा—सूखा घाट रह जाता है! रेत रह जाती है, पानी खो जाता है। लेकिन फिर वर्षा आएगी, फिर नदी आपूर होकर बहेगी।
तो जिस व्यक्ति ने भोजन कम कर लिया, नींद कम कर ली—क्योंकि वह डरने लगता है; ज्यादा नींद ले, तो भय आता है, ज्यादा भोजन करे, तो भय आता है, ठीक से जीए, तो भय आता है—तो जिसने अपनी जीवन—ऊर्जा कम कर ली, वह सूखी हुई नदी हो जाएगा। नदी मिटती नहीं; नदी मौजूद है। सिर्फ वर्षा की प्रतीक्षा है, सब मौजूद है। पानी आया और बहने लगेगा।
तुम अपने साधुओं को एक महीना ठीक से भोजन दो, ठीक से विश्राम दो, आराम से बिस्तर पर सोने दो, और तुम पाओगे कि वै तुम जैसे हो गए। तो फर्क क्या था, जो महीनेभर में मिट गया? कोई फर्क नहीं है। सिर्फ वे दीन—ऊर्जा से जी रहे हैं।
पश्चिम में बड़े प्रयोग किए गए हैं। इक्कीस दिन के उपवास के बाद कामवासना क्षीण हो जाती है। क्योंकि शरीर के पास शक्ति नहीं रहती। शक्ति हो, तभी तो कामवासना पैदा हो सकती है। लेकिन तीन दिन के भोजन के बाद फिर कामवासना लौट आती है। तो क्या फर्क पड़ा? यह तो धोखा हुआ, प्रवंचना हुई।
ये तीनों बातें व्यर्थ हैं। फिर क्या करना? और तुम कहते हो, क्या यह संभव है कि हम अपने को स्वीकार कर लें?
यही केवल संभव है, बाकी सब असंभव है। असंभव तुम बहुत कर चुके, संभव करके देख लो। संभव यह है कि तुम स्वीकार कर लो अपने क्रोध को, अपने काम को। वे हैं; प्रकृति के हिस्से हैं; तुम्हारे हिस्से हैं। क्या फर्क होगा?
जैसे ही तुम स्वीकार करोगे, तुम्हारा अहंकार नीचे गिरेगा, जो कि आदर्शों से सम्हाला गया है, वह तत्क्षण गिर जाएगा। जब तुम देखोगे अपना क्रोध, और नरक, और देखोगे अपना अज्ञान और मूर्च्छा, और देखोगे अपने भीतर की वासनाएं, सांप—बिच्छुओं, जहरीले जानवरों की तरह घूमती हुई, और देखोगे भीतर का अंधकार और दुर्गंध, और नर्क, तो तुम्हारा अहंकार कैसे टिकेगा? तो पहली क्रांति घटती है, अपने को ठीक से देखने वाले व्यक्ति का अहंकार गिर जाता है। और अहंकार के गिरते ही क्रांति शुरू होती है।
दूसरी घटना घटती है, जब तुम अपने क्रोध को गौर से देखते हो, और स्वीकार करते हो, और कहते हो, मैं क्या कर सकूंगा, मेरी क्या सामर्थ्य है? न मैंने क्रोध पैदा किया है, न मैं मिटा सकूंगा। जब तुम अपने क्रोध को स्वीकार कर लेते हो, न केवल अपने भीतर बल्कि अपने आस—पास, मित्र—प्रियजनों को भी कह देते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं; तुम ज्यादा मुझ पर भरोसा मत करना। मैं किसी भी वक्त उपद्रव खड़ा कर सकता हूं। मैं एक जलती हुई आग हूं? जिसमें कभी भी विस्फोट हो जाए। मैं एक छिपा हुआ ज्वालामुखी हूं। जब तुम अपने प्रियजनों को ये सारी बातें कह दोगे, जब तुम अपने को उघाड़कर रख दोगे, तुम अचानक पाओगे कि इस उघाड़ने में ही क्रोध के प्राण निकल गए। और यह कहते—कहते ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक शांति आनी शुरू हो गई, जो तुमने कभी नहीं जानी थी।
जब बेईमान स्वीकार कर लेता है कि मैं बेईमान हूं; तो ईमानदारी की शुरुआत हो गई। क्योंकि इससे बड़ा कोई ईमान नहीं है दुनिया में, यह स्वीकार कर लेने से बड़ा कि मैं बेईमान हूं। बेईमान कोशिश करता है कि मैं बेईमान नहीं हूं।
क्रोधी कोशिश करता है कि मैं और क्रोधी? सारी दुनिया क्रोधी है। मुझे तो अगर क्रोध करना भी पड़ता है, तो लोगों को सुधारने के लिए। अन्यथा मैं कभी क्रोध करता ही नहीं। या मैं तो सिर्फ दिखावा करता हूं। वह कोई क्रोध थोड़े ही है।
झूठ बोलने वाला कोशिश करता है समझाने की कि वह कभी झूठ नहीं बोलता। लेकिन अगर तुम घोषणा कर दो कि मैं झूठा आदमी हूं बेईमान हूं छिपाओ मत, तुमने सच्चा होना शुरू कर दिया।
यह तुम्हें बड़ा उलटा दिखाई पड़ेगा। झूठ को स्वीकार करके कि मैं झूठा आदमी हूं तुमने सचाई की तरफ पहला कदम उठा लिया। इससे बड़ी कोई सचाई है? और जो आदमी कहता है, मैं झूठा हूं? क्रोधी हूं कामी हूं, यह साधु होना शुरू हो गया। जैसे—जैसे इसकी प्रतीति गहरी होगी और यह अपने को प्रकट करेगा, जैसा यह है, वैसा ही प्रकट करेगा, न छिपाएगा, न दबाएगा......!
क्या फायदा है? किसके सामने प्रतिमा खड़ी करनी है? अहंकार के गिरते ही अपनी अच्छी प्रतिमा बनाने का मोह भी गिर जाता है। किसके सामने? किसको समझाना है? और दुनिया मुझे बहुत बड़ा साधु समझे, इससे लाभ क्या है? जो मैं हूं मैं हूं। मेरा नर्क भीतर है। सारी दुनिया समझे कि मैं स्वर्ग में जी रहा हूं इससे क्या फर्क पड़ता है!
जिस व्यक्ति ने अपने को स्वीकार कर लिया प्रामाणिकता से, राजी हो गया, क्रांति शुरू हो जाती है। क्रांति तुम्हारे करने से नहीं होती। क्रांति तो तुम्हारी स्वीकृति से होती है।
भाग्य बड़ी क्रांति का सूत्र है। वह शब्द बिगड़ गया। हमने खराब कर दिया। उसका राज चला गया। अन्यथा उसका मतलब केवल इतना है कि तुम अपने को स्वीकार करो। और तुम जैसे हो, वैसे ही रहो। और वैसे ही अपने को प्रकट करो। धीरे— धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में एक क्रांति उतर रही है, जो तुम्हारे द्वारा नहीं लाई गई है, जो तुम्हारी स्वीकृति से अपने आप आई है।
मैंने केवल उन्हीं लोगों को बदलते देखा है, जिन्होंने बदलने का प्रयास छोड़ दिया और अपने को अंगीकार कर लिया। स्वीकार, संतोष, सहजता, ये क्रांति के सूत्र हैं।
अब सूत्र:
हे अर्जून, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है। उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं।
इसलिए ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।
और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही सब है, ऐसे इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।
समझें।
हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन रूप ब्रह्म का नाम कहा है..।
तत् का अर्थ होता है, वह, दैट। भक्त भगवान को कहता है तू वह नहीं। क्योंकि भक्त कहता है, वह तो बड़ा बेजान शब्द है। इसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। बड़ी दूरी मालूम पड़ती है। तू में निकटता है, आत्मीयता है, अपनापन है, सामीप्य है। वह, रेगिस्तान जैसा सूखा है। जहां जल की जरा भी धार नहीं मालूम होती, जहां कोई मरूद्यान दिखाई नहीं पड़ता; जहां हरियाली का कोई पता नहीं चलता।
वह शब्द बड़ा तटस्थ शब्द है, तत्, इसमें कोई भाव नहीं है, बड़ा अनासक्त, रूखा—सूखा, संगीत—शून्य। जैसे हमारा कोई संबंध नहीं है, कोई निकटता नहीं है। इसलिए भक्त तो तू का उपयोग करते रहे हैं, लेकिन ज्ञानी तत् का उपयोग करते हैं।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा यहूदी विचारक हुआ, मार्टिन बूबर। इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण किताबों में उसकी एक किताब है, आई एंड दाऊ, मैं और तू। उसमें बूबर ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि हिंदुओं का वह, तत्? यहूदियों के तू से ऊपर नहीं जाता।
बूबर गलत है। किताब बड़ी कीमती है। उसका भाव भी ठीक है, लेकिन उसकी धारणा सही नहीं है।
तू तो कितना ही निकट मालूम पड़े, उसमें मैं थोड़ा—सा मौजूद रहता है। क्योंकि बिना मैं के तू कैसे अर्थपूर्ण होगा? जब हम कहते हैं तू तो मैं भी हूं। कौन कहेगा तू? मैं तो बना ही रहेगा। कितनी ही फीकी हो जाए रेखा, कितना ही छिप जाए, लेकिन छिपा हुआ भी तो होगा। अन्यथा कौन कहेगा तू? तू में तो मैं मिला ही हुआ है।
तू बहुत सामीप्य है, सुंदर है प्रेमपूर्ण है, भक्त के भाव को प्रकट करता है, निकटता की सूचना देता है, आर्द्र है, हृदय से भरा है, धड़कता है। वह, निर्जीव लगता है। लेकिन वह की अपनी खूबी है। वह तू से आगे जाता है। और वह में भी रस है। लेकिन वह तभी तुम्हें दिखाई पड़ेगा, जब तुम मैं और तू से आगे गए। उसके। पहले नहीं दिखाई पड़ेगा।
उसके पहले तो हम वृक्षों को कहते हैं वह। तुम वृक्ष को तो तू नहीं कहते? पत्थर को कहते हैं वह। पत्थर को तो तुम तू नहीं कहते? तुम्हें पता ही नहीं है।
इसीलिए तुम जब ब्रह्म को भी वह कहोगे, तत्, तब तुम्हें लगेगा कि यह तो ज्ञानियों की बड़ी सूखी बात हो गई। इसमें हृदय में कहीं धड़कन नहीं होती, वीणा कहीं बजती नहीं भीतर की। यह तो कुछ बुद्धिगत, बौद्धिक मालूम होती है बात। भक्त को आप्लावित नहीं करती, नचाती नहीं।
वह के आस—पास नाचना बड़ा मुश्किल है। कृष्ण की गोपियां तू के आस—पास नाच रही हैं। वह के आस—पास कैसे नाचोगे? नाच बंद हो जाएगा। तार हाथ से छूट जाएंगे। गीत अवरुद्ध हो जाएगा। तो सारे भक्तों ने—यहूदी, इस्लाम, हिंदू जहां—जहां भक्ति पैदा हुई—उन्होंने ओम तत् सत् को इनकार किया है। उन्होंने वह परमात्मा है, ऐसी बात नहीं कही। तू परमात्मा है, ऐसी बात कही है।। लेकिन कृष्ण कहते हैं, ओम तत् सत्। वह ओंकार—स्वरूप है, वह—स्वरूप है और सत्य है।
इसे ठीक से समझ लें। इसका अनुभव तुम्हें नहीं है, वह के आनंद का, इसलिए सूखा लगता है। अन्यथा वह जैसे बादल कभी घिरते ही नहीं। और जैसी वर्षा उनसे होती है, तू से क्या खाक होगी! क्योंकि तू में तुम तो रहोगे मौजूद। मैं भी मौजूद रहेगा। और उतनी ही अड़चन रहेगी। तुम परमात्मा के निकट भला पहुंच जाओ, परमात्मा न हो सकोगे।
और जितनी निकटता बढ़ती है, उतनी ही दूरी खलती है। जितने—जितने पास आते हो, उतना ही लगता है, कब एक हो जाएं! छलांग हो जाए! उतना ही विरह का ज्वार पैदा होता है। सिर्फ वह की घड़ी ही तुम्हें एक कर पाएगी।
वह के दो हिस्से हैं, एक है, ओम तत् सत्। परमात्मा वह—स्वरूप है, दैटनेस। और दूसरा सूत्र है उपनिषदों का, जो इसे पूरा करता है, तत्वमसि श्वेतकेतु—वह तू ही है श्वेतकेतु, वह कोई अलग नहीं है। तो इसे कैसे तुम अनुभव करोगे?। वह की थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। वृक्ष के पास बैठो, शांत होकर बैठो। कोई शब्द, विचार न उठे मन में। सिर्फ बैठो। वृक्ष को छुओ भला, बोलो मत, सोचो मत; वृक्ष को आलिंगन कर लो, इस बात की प्रतीति करो तुम्हारे और वृक्ष के बीच में कोई शब्द न रह जाए।
अचानक तुम पाओगे, तुम वृक्ष हो गए, वृक्ष तुम हो गया। अचानक सीमा टूट गई। बीच में कुछ बहने लगा। दोनों के बीच कोई सेतु बन गया, कोई सागर लहराने लगा। वृक्ष तुम्हारे पास आने लगा। तुम वृक्ष के भीतर, वृक्ष तुम्हारे भीतर। वृक्ष की हरियाली तुम्हें हरा करने लगी। तुम्हारा चैतन्य वृक्ष को चेतन बनाने लगा। तब तुम्हें थोड़ी—सी प्रतीति वह की होगी। न तुम रहे, न वृक्ष रहा।
वृक्ष के साथ शायद कठिन हो। जिसे तुम प्रेम करते हो—पत्नी को, प्रेयसी को, मित्र को—कभी उसका हाथ हाथ में लेकर बैठ जाओ। और एक ही प्रयोग करो कि दोनों के चित्त में कोई विचार न हो। वहां जरा थोड़ी कठिनाई है वृक्ष से, क्योंकि वहा दूसरे के भी विचार बाधा बनेंगे। इसलिए मैंने पहले वृक्ष को कहा।
दोनों शांत बैठ जाओ। देखते रहो आकाश में उगे चांद को पूर्णिमा की रात में। शांत बैठे रहो, मौन। प्रेम को ध्यान बनाओ। थोड़ी ही देर में तुम कभी—कभी झलक पाओगे, एकाध क्षण को तुम दोनों के विचार जब बंद हो जाएंगे, ऐसा मेल जब बैठ जाएगा संयोग से, तो तुम अचानक पाओगे, किसी विराट ऊर्जा ने तुम्हें घेर लिया, वह ने तुम्हें घेर लिया। तुम दोनों एक हो गए। और उस एकता के क्षण में न तो मैं था, और न तू था।
ऐसी ही अनुभूति की अंतिम सीमा है, ओम तत् सत्। जब कोई व्यक्ति इस पूरे अस्तित्व के साथ एकता का अनुभव करता है, कोई भेद नहीं रह जाता; अंश अंशी के साथ मिल जाता है, लहर सागर में खो जाती है।
हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है.....।
इसलिए हिंदुओं की जो परम प्रज्ञा है, उसने परमात्मा को वह कहा है। वह कोरा शब्द नहीं है, न रूखा शब्द है। ही, तुम्हें रूखा मालूम पड़ता है, क्योंकि तुमने उसका स्वाद कभी लिया नहीं। जिन्होंने उसका स्वाद लिया, उनके लिए मैं और तू शब्द बिलकुल फीके हो गए। उन्होंने असली को जान लिया, तो मैं और तू छायाएं मालूम पड़ने लगे।
कितनी ही सुंदर हो छाया, चित्र कितना ही प्यारा हो, मूल के साथ एक—सा तो नहीं हो सकता। और कितना ही प्यारा हो, मूल तो नहीं हो सकता। वह मूल है। वह दो में टूट गया है, मैं और तू। और जब तक मैं और तू न मिल जाएं, तब तक तुम्हें उसका कोई अनुभव न होगा। 'और ओम उसका नाम है।
ओम तीन मात्राओं से बना है, अ उ म, ए यू एम। यहां कृष्ण त्रिगुण की ही चर्चा किए चले जा रहे हैं। वे सब दिशाओं से अर्जुन को कह रहे हैं, सारा अस्तित्व तीन से बना है। ओम भी तीन से बना है।
ओम कोई शब्द नहीं है। उसका कोई भाषाकोशगत अर्थ नहीं है। वह ध्वनि है। और बड़ी अदभुत ध्वनि है। और वह ध्वनि मनुष्य निर्मित नहीं है। वह ध्वनि तब उपलब्ध होती है, जब तुम्हारे सब विचार शून्य हो जाते हैं। जब तुम्हारी मनुष्यता खो जाती है, सभ्यता, संस्कृति सब खो जाती है। जब तुम कोरे आकाश जैसे खाली रह जाते हो, कोरे कागज जैसे, तब तुम्हारे भीतर एक नाद का आविर्भाव होता है।
आविर्भाव होता है, कहना ठीक नहीं। नाद तो बज ही रहा था, तुम खाली न थे, इसलिए सुन न पाते थे। अब तुम सुन रहे हो। खाली हो गए हो, अब बाजार का कोलाहल बंद हो गया, अब मन की बकवास बंद हो गई, अब तुम सुन पाते हो।
तुम्हारे भीतर जो नाद अहर्निश चल रहा था, उस अहर्निश नाद का ढंग ओम है। वह ओंकार जैसा मालूम होता है, जैसे भीतर कोई ओम, ओम, ओम की अहर्निश ध्वनि किए जा रहा है। तुम नहीं कर रहे हो, तुम तो चुप हो, तुम तो हो ही नहीं; तुम तो खो गए हो, ओंकार गंज रहा है।
इसलिए मैं कहता हूं अपने साधकों को कि तुम ओंकार को साधना मत। नहीं तो तुम्हारा सधा हुआ ओंकार तुम्हें कभी उस ओंकार को न जानने देगा, उस ओंकार से तुम्हें वंचित रखेगा, जो अनाहत है।
अनाहत का अर्थ ही होता है कि जो तुम्हारे द्वारा पैदा नहीं हुआ; जो किसी से पैदा नहीं हुआ।
अब इसे थोड़ा समझ लो।
तुम ओंकार से पैदा हुए हो; ओंकार तुमसे पैदा नहीं हुआ। ओंकार तुमसे पूर्व है। तुम ओंकार का ही सघन रूप हो। ओंकार मूल तत्व है। ओंकार का मतलब है, वह नाद, जो सारे अस्तित्व में
चल रहा है। उस नाद के अलग— अलग रूप अलग—अलग ढंग हैं। तुम जब बिलकुल शांत हो जाओगे, तुम उसे बजता हुआ पाओगे। बड़ी कठिनाई है। अगर तुमने ओम का रटन शुरू कर दिया, और तुमने इसका मंत्र बना लिया, और तुम ओम— ओम जपते रहे, तो तुम जो ओम सुनोगे, वह मन का ही नाद होगा। वह तुम्हारा ही ओम है। तुमसे पैदा हुआ है, झूठा है। वह वह ओंकार नहीं है, जिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं।
ओम तत् सत्, ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है।
यह सच्चिदानंद भी तीन शब्दों से बना है, सत् चित् आनंद। अ उ म, अ सत् का प्रतीक है, उ चित् का, म आनंद का। ओम प्रतीक है सच्चिदानंद का।
जब उस ओंकार की ध्वनि तुम्हारे भीतर बजेगी, तब तुम तीन चीजें अपने भीतर पाओगे। पाओगे कि तुम हो, तुम्हारा होना। तुम नहीं, होना। मैं नहीं, अस्तित्व। हम कहते हैं, मैं हूं। उसमें से मैं तो कट जाएगा, हूं बचेगा। हूं — भाव सत् है।
और दूसरी चीज तुम पाओगे चित्, चैतन्य, कि तुम परम चैतन्य से भरे हो, होश, जागृति। दिन हो गया, रात कट गई। मूर्च्छा गई, प्रमाद टूटा। दीया जल रहा है, अकंप उसकी लौ है।
और आनंद। और तुम अपने को आनंद से घिरे हुए पाओगे; जैसे आनंद के बादल तुम पर बरस रहे हों।
ये तीन उसके लक्षण हैं, उसके मंदिर के करीब पहुंचने के। और ओंकार उसका नाद है।
उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए......।
फिर तीन ब्राह्मण, वेद और यज्ञ। यह बड़ा सारपूर्ण वचन है। उसी ओंकार से, उसी वह से सब जन्मा है। जन्म को तीन हिस्सों में बांट रहे हैं कृष्ण।
ब्राह्मण। ब्राह्मण का अर्थ है वह, जिसने उसे जान लिया। ब्राह्मण का अर्थ है, ज्ञानी। ब्राह्मण का अर्थ है, ब्रह्म को उपलब्ध। ब्राह्मण का अर्थ है, जो ब्रह्म—स्वरूप हो गया, जिसने अपने भीतर अहर्निश अनाहत नाद को सुन लिया। जो सच्चिदानंदघन रूप हो गया, वह ब्राह्मण।
इसका क्या मतलब हुआ कि आदि में उससे ही ब्राह्मण पैदा होते हैं? इसका अर्थ हुआ कि जब भी कोई ब्रह्म को जानता है ' तो अपने द्वारा नहीं जानता, ब्रह्म के द्वारा ही जानता है। खुद को तो मिटा लेता है। बस, इतना ही तुम्हें करना है कि तुम मिट जाओ, खाली जगह हो जाओ, सिंहासन से उतर जाओ। और ब्रह्म सिंहासन पर उतर आता है। ब्राह्मण तुम अपनी चेष्टा से नहीं हो सकते।
बड़ी पुरानी कथा है कि विश्वामित्र क्षत्रिय घर में पैदा हुए और ब्राह्मण होना चाहते थे। लेकिन कोई कैसे अपनी चेष्टा से ब्राह्मण हो सकता है? उन्होंने बड़ी चेष्टा की, बड़ा तप किया।
वशिष्ठ उन दिनों ब्रह्मज्ञानी थे। और जब तक वशिष्ठ न कह दें कि तुम ब्राह्मण हो गए, तब तक स्वीकृति न थी। बड़ी तपश्चर्या की, बड़ी कोशिश की। लेकिन वशिष्ठ ने न कहा, न कहा।
यह कथा कोई वर्ण—व्यवस्था की कथा नहीं है। यह चेष्टा और प्रसाद की कथा है। लोगों ने यही समझा है कि वर्ण—व्यवस्था की कथा है कि क्षत्रिय कैसे ब्राह्मण हो सकता है! क्योंकि वर्ण तो जन्म से है।
नहीं, इस कथा से वर्ण का कोई संबंध नहीं है। कथा चेष्टा और प्रसाद की है। कोई चेष्टा से कैसे ब्राह्मण हो सकता है? परमात्मा के प्रसाद से होता है। और विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे। क्षत्रिय तो चेष्टा से जीता है। वही तो फर्क है।
राजस व्यक्ति चेष्टा से जीता है। सात्विक व्यक्ति प्रसाद से जीता है। आलसी व्यक्ति न तो चेष्टा से जीता है, न प्रसाद से जीता है, वह तो मुरदे की तरह पड़ा रहता है। ऐसे ही घसिटता है, जीता ही नहीं।
क्षत्रिय ने बड़ी चेष्टा की। महान तप किया। वर्षों बीत गए। लेकिन वशिष्ठ के मुंह से न निकली यह बात कि विश्वामित्र ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय तो क्षत्रिय। और वशिष्ठ के मुंह से न निकली, कारण भी यही था कि अभी भी क्षत्रिय मौजूद था, अभी भी चेष्टा मौजूद थी। अहंकार मौजूद था कि मैं ब्राह्मण होकर रहूंगा! क्योंकि अगर ब्राह्मण जो कर सकता है, सब मैं कर रहा हूं। ब्राह्मण को जो शुद्धि चाहिए, सब मुझ में हो गई है। मंदिर पूरा तैयार है।
लेकिन मंदिर के पूरे तैयार होने से कोई परमात्मा की प्रतिष्ठा थोड़े ही हो जाती है। मंदिर बिलकुल तैयार है। सब ठीक है। लेकिन मंदिर में मूर्ति नहीं है। मूर्ति तुम न ला सकोगे। तुम तो मंदिर तैयार कर सकते हो। प्रार्थना कर सकते हो कि आओ, उतरी। आह्वान कर सकते हो। उतर आए परमात्मा, उतर आए। न उतरे, तुम क्या करोगे!
हमेशा उतर आता है, जब तुम खाली होते हो, जब मंदिर तैयार होता है। लेकिन थोड़ी अड़चन थी, विश्वामित्र खाली न थे, अहंकार से भरे थे, चेष्टा से भरे थे।
वर्षों बीत गए, बुढ़ापा करीब आने लगा। और विश्वामित्र......। एक दिन शिष्यों ने कहा कि हम फिर गए थे पूछने। और वशिष्ठ को पूछा; उन्होंने कहा कि विश्वामित्र और ब्राह्मण? कभी नहीं। क्षत्रिय है और क्षत्रिय ही है।
क्रोध आ गया; उठा ली तलवार। क्षत्रिय ही थे, भूल गए वे तप, तपश्चर्या, सब तंत्र—मंत्र। सब बंद। खींच ली तलवार, एक क्षण में वर्षों की तपश्चर्या खो गई। वर्षों का ब्राह्मण का जो रूप था, खो गया।
रूप का कोई मूल्य नहीं है, अंतरात्मा चाहिए। अंतसात्मा क्षत्रिय की थी, चेष्टा, संकल्प। ब्राह्मण है समर्पण। क्षत्रिय है संकल्प, विल पावर। खींच ली तलवार, भागे।
पूरे चांद की रात थी। वशिष्ठ अपने झोपड़े के बाहर अपने शिष्यों से कुछ ब्रह्मचर्चा करते थे। मौका ठीक नहीं था, इस समय बीच में कूद पड़ना उचित न था। बहुत लोग थे। तो विश्वामित्र छिप गए एक झाड़ी के पीछे कि जब लोग विदा हो जाएंगे और वशिष्ठ अकेले रह जाएंगे, तो आज इसको खतम ही कर देना है। मैं और ब्राह्मण नहीं?
झाड़ी के पीछे छिपे बैठे सुनते रहे। चर्चा चलती थी, किसी शिष्य ने वशिष्ठ को पूछा कि आप विश्वामित्र को कब ब्राह्मण कहेंगे? उसकी पीड़ा को समझें! उसकी तपश्चर्या को देखें!
वशिष्ठ ने कहा, सब पूरा हो गया है। किसी भी क्षण कहने को मैं राजी हूं अब। जरा—सी कमी क गई है। अहंकार शुद्ध हो गया है, लेकिन मौजूद है अभी। मैं ब्राह्मण कहने को तैयार हूं किसी भी क्षण। जरा—सी कमी है; एक बारीक रेखा अहंकार की रह गई है,। बस। जिस क्षण पूरी हो जाए। विश्वामित्र करीब—करीब ब्राह्मण हैं। तुम से ज्यादा ब्राह्मण हैं।
वे जन्मजात ब्राह्मण थे, जो पूछ रहे थे। कहा, तुमसे ज्यादा ब्राह्मण हैं। लेकिन अगर इसी तरह का ब्राह्मण उनको बनना हो, तो मैं कहने को राजी हूं, इसमें क्या अड़चन है! मगर विश्वामित्र से बड़ी आशा है। बड़ी संभावना छिपी है उस आदमी के भीतर। और इसलिए मैं रोक रहा हूं रोक रहा हूं, रोक रहा हूं। मैं उसी दिन कहूंगा, जिस दिन बात बिलकुल पूरी हो जाए। उसके पहले कहने से रुकावट पड़ेगी।
सुना विश्वामित्र ने छिपे हुए झाड़ी में। फेंक दी तलवार, भागे। वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। वशिष्ठ ने कहा, ब्राह्मण, उठो!
ब्राह्मण हो गए, एक क्षण में। हाथ में तलवार थी, क्षत्रिय था, राजस था। एक क्षण में तलवार गिरी, संकल्प गिरा, समर्पण हुआ, पैर छू लिए, विनम्र हो गए। ब्राह्मण हो गए। ब्रह्म उतर आया। ब्राह्मण का अर्थ है, जिसमें ब्रह्म उतर आया।
कृष्ण कहते हैं, पहली चीज ब्राह्मण परमात्मा ने बनाई। फिर ब्राह्मण ने जो कहा, ब्रह्म को जानकर जो कहा, उससे वेद निर्मित हुए। वे परमात्मा से जरा दूर हैं; जरा—सी दूरी है। ब्राह्मण बीच में खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी '
ब्रह्मज्ञानी परमात्मा के निकटतम है। फिर ब्रह्मज्ञानी ने जो कहा। वह भी परमात्मा ही बोल रहा है, क्योंकि अब ब्रह्मज्ञानी है नहीं, अब तो ब्रह्म ही है, वही बोल रहा है। लेकिन एक सीढ़ी का फासला है। बीच में गुरु खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी खड़ा है, ब्राह्मण खड़ा है।
ब्राह्मण ने जो बोला, वे वेद। और वेद को मानकर जो किया जा सकता है, वह यज्ञादि।
और एक कदम का फासला हो गया। वेद को मानकर जो कृत्य किए जा सकते हैं, कर्म—काड, वह यज्ञ इत्यादि। परमात्मा, ब्राह्मण, वेद, यज्ञ।
जो तमस प्रकृति का व्यक्ति है, वह यज्ञादिको को चुनेगा। जो रजस प्रकृति का व्यक्ति है, वह वेद आदि को चुनेगा। जो सत्व प्रकृति का व्यक्ति है, वह गुरु, ब्राह्मण, सदगुरु को चुनेगा।
अगर ब्राह्मण उपलब्ध हो, तो वेद को मत चुनना। क्योंकि क्या फायदा सेकेंड हैंड, बासे शब्दों में! जब ब्राह्मण उपलब्ध हो, जहां से कि ताजी सरिता अभी वेद की पैदा हो रही हो, तो वेद को मत चुनना। अगर गुरु उपलब्ध हो, तो शास्त्र व्यर्थ। अगर गुरु उपलब्ध न हो, तो शास्त्र को चुनना, क्रिया—काड को मत चुनना। शास्त्र को समझना। शास्त्र समझने के लिए है, करने के लिए नहीं। समझ से मुक्ति होती है। समझ पर्याप्त है।
जो शास्त्र के रहते क्रिया—कांड चुन लेता है, वह निपट मूढ़ है। लेकिन अगर शास्त्र भी उपलब्ध न हो, तब किया—काड ही शेष रह। जाता है। किया—काड आखिरी प्रतिध्वनि है परमात्मा की।
एक आदमी मंदिर में थाली लेकर पूजा कर रहा है। यह आखिरी ध्वनि है परमात्मा की। फिर एक आदमी गीता का अध्ययन कर रहा है, स्वाध्याय कर रहा है, समझने की कोशिश कर रहा है। यह जरा निकट है। यह मंदिर में आरती उतारने से ज्यादा निकट है। यह आग जलाकर, उसमें घी फेंकने से ज्यादा निकट है। यह क्रिया—काड से ज्यादा गहरी है, क्योंकि यह चैतन्य में प्रवेश करेगी।
फिर एक आदमी गुरु के पास बैठा है, कुछ भी नहीं कर रहा है।
न क्रिया—कांड है गुरु के पास, न शास्त्र का अध्ययन है। सामीप्य है, सत्संग है। गुरु के पास बैठा है। सिर्फ पास होना है, निकटता है, कुछ घट रहा है।
तीन ही तरह के व्यक्ति हैं और तीन हो परमात्मा के कदम हैं। यज्ञदिकों से बचा जा सकता है, तो बचना। शास्त्रों से बचा जा सके, बचना। अगर गुरु खोज सको जीवित, ब्राह्मण खोज सको जीवित, तो वहां से ब्रह्म का सीधा, निकटतम द्वार है।
यह भी संभव है कि बिना गुरु के भी ब्रह्म मिल जाए। अगर वह भी संभव हो सके, तो गुरु से भी बचना। लेकिन वह अति कठिन है। कठिन तो है यज्ञ से ही बचना। फिर और कठिन है शास्त्र से बचना। फिर अति कठिन है गुरु से बचना। अपनी जीवन—स्थिति को सोचकर अपने कदम को चुनना।
ब्राह्मण, वेद तथा यज्ञादिक रचे......।
ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।
सारे शास्त्र भारत के ओंकार से शुरू होते हैं, ओंकार पर पूर्ण होते हैं। यह प्रतीक है। यह प्रतीक है कि परमात्मा ही प्रारंभ है और परमात्मा ही अंत है। वहीं से तुम आते हो, वहीं लौट जाते हो। वहां वर्तुल पूरा होता है। वही पहला कदम, वही आखिरी कदम। वही जन्म, वही मृत्यु। इसलिए ओम से शुरू होते हैं, ओम पर पूर्ण होते हैं।
और ऐसा ही तुम्हारा जीवन होना चाहिए; ओम से शुरू हुआ है, ओम पर ही पूर्ण हो। शुरू तो ओम से ही हुआ है, तुम्हें चाहे पता भी न हो। तुम्हें पता भी नहीं हो सकता, जब तक ओम पर पूर्ण न हो। जिस दिन ओम पर पूर्ण होगा, उस दिन तुम जानोगे कि ओम से ही शुरू हुआ, ओम में ही चला, ओम में ही पूरा हुआ।
जैसे मछली सागर में पैदा होती है, सागर में ही जीती, सागर में ही लीन हो जाती। ऐसे ही, शास्त्रों में प्रतीक है, कि ओम से शुरू होता, ओम पर पूर्ण होता। ऐसा ही तुम्हारा जीवन भी हो। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य ओम से शुरू हो और ओम पर पूरा हो।
थोड़ा खयाल करो। तुम दुकान पर बैठो, ओम से ही दुकान खोलो। यह ओम कई तरह का हो सकता है। यह ओम सिर्फ यज्ञादिक हो सकता है। तब करीब—करीब व्यर्थ है। तुमने कह दिया, लेकिन कुछ प्रयोजन नहीं है। आदत है, एक औपचारिकता है, पूरा कर दिया।
लेकिन यह भाव का भी हो सकता है। यह गहरा भी हो सकता है। तुमने पूरे हृदय से कहा, तो तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया में अंतर पड़ जाएंगे। तो तुम दुकान पर बैठोगे, लेकिन तुम वही न हो पाओगे, जो कल तक थे। और जब ग्राहक आएगा और तुम कुछ बेचना शुरू करोगे, अगर ओम से ही शुरू किया, तो तुम ग्राहक को उस आसानी से न लूट पाओगे, जिस आसानी से तुम लूट लेते। थोड़ी करुणा होगी, थोड़ी दया होगी, थोड़ा सदभाव होगा।
प्रत्येक कृत्य को ओम से शुरू करने की अगर दृष्टि आ जाए भाव से, तो तुम पाओगे, एक छोटी—सी घटना तुम्हारे पूरे जीवन को बदल देती है। लेकिन उपचार हो, तो कोई सार नहीं।
ऐसा हुआ, मैं एक घर में मेहमान था आगरा में। और घर के जो मालिक थे, एक बड़े फोटोग्राफर थे और बड़े भक्त थे। पहली ही दफा उनके घर मेहमान था, तो उन्होंने कहा कि आपको स्टूडियो चलना पड़ेगा। घर से ही लगा हुआ स्ट्रडियो था। और कुछ चित्र आपके मैं बिना लिए नहीं जाने दूंगा। तो मैंने कहा कि ठीक है। मैं गया।
देखा तो बड़े धार्मिक आदमी थे। धार्मिक अतिशय थे, जितनी कि अपेक्षा भी नहीं कर सकते। मुझे कुर्सी पर बिठाएं, तो ओम, प्लग लगाएं बिजली का, तो ओम, पंखा चलाएं, तो ओम। अदभुत आदमी हैं! और मैं तो पहली दफे ही, तो उनको जानता भी नहीं था। कुर्सी उठाएं, तो ओम। हर काम करें, तो ओम। बटन दबाएं कैमरे की, तो ओम।
और मेरे साथ एक मेरे मित्र थे, जो मिलने मुझे आए थे। आगरा ही रहते हैं। वे मेरे पास ही बैठे थे एक कुर्सी पर। एक नौकरानी निकली और उन्होंने कहा कि मुझे जरा प्यास लगी है; एक गिलास पानी ले आओ।
वे फोटोग्राफर सज्जन एकदम नाराज हो गए, बोले, ओम। शर्म नहीं आती, मर्द होकर और स्त्री को आज्ञा देते हो!
मैं थोड़ा हैरान हुआ कि मामला क्या है। इसमें ऐसी कोई नाराज होने की बात न थी। लेकिन इसके पहले भी उन्होंने ओम जरूर कहा। ओम, शर्म नहीं आती, मर्द होकर स्त्री को आशा देते हो? खुद जाते नहीं बनता?
तो वे आदमी उठकर बाहर चले गए। मैं थोड़ा चौंका। जब वे बाहर चले गए, तब उन्होंने कहा, यह आदमी कम्युनिस्ट है। मगर इसके पहले भी उन्होंने कहा, ओम। यह आदमी कम्युनिस्ट है और नास्तिक को मैं पानी भी नहीं पिलाना चाहता। आप कुछ और मत सोचना। इसलिए आप यह मत सोचना कि मैं कोई. मगर। नास्तिक को मैं पानी भी नहीं पिलाना चाहता।
मगर यह आदमी ओम कहे जा रहा है, कोई प्यासा हो, उसको पानी नहीं पिला सकता। इसके पहले भी ओम कहता है। यह ओम यात्रिक हो गया। अब इसको पता ही नहीं कि यह क्या कर रहा है; यह ओम पागलपन हो गया। इस ओम से इसका कोई संबंध भी न रहा। यह ओम अब अपने आप ही चल रहा है। यह किसी की हत्या भी करेगा, तो कहेगा, ओम, फिर छुरा मारेगा। निकालेगा छुरा, तो कहेगा, ओम! इसको कुछ पता नहीं रहा कि यह क्या कर रहा है। आrधेक लोगों का जीवन धर्म के नाम पर ऐसा ही यांत्रिक हो जाता है।
नहीं, ओम के भी तीन रूप हैं। एक—यज्ञादिक, कर रहे हैं। दूसरा—वेद से, बोध से, अध्ययन से, स्वाध्याय से, मनन से, चिंतन से। और तीसरा—ब्राह्मण जैसा, भाव से, अंतर्भाव से!
और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यश, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।
इस वचन में एक बड़ा गहरा विरोधाभास है। तुम्हें अड़चन मालूम होगी! क्योंकि यह कहता है कि ऐसा यह सब उसी का है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा.।
तो मोक्ष की आकांक्षा तो फल की चाह है। तो यह सूत्र तो बडी उलझन में डालने वाला है। मगर कोई उलझन है नहीं, अगर समझ लो, तो बात सीधी—सीधी है।
मोक्ष की आकांक्षा पहले पैदा होती है। तुमने संसार की आकांक्षा की है। स्वभावत:, तुम आकांक्षा करने में कुशल हो गए हो। तुम कुछ और कर भी नहीं सकते। तुम अचानक अनाकांक्षा कैसे करोगे? अचाह कैसे करोगे? तुम्हें पहले तो संसार की आकांक्षा की जगह मोक्ष की आकांक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन जैसे ही तुमने मोक्ष की आकांक्षा की, तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है, मोक्ष की आकांक्षा से मोक्ष नहीं मिलता। इसे तुम थोड़ा ठीक से समझ लो। संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है। अगर तुम ठीक से दौड— धूप करोगे, तो धन कमा ही लोगे, इसमें ऐसी क्या अड़चन है? अगर न कमा पाओ, तो दौड़— धूप ठीक से नहीं की, इतना ही सिद्ध होता है।
अगर तुम पद पर पहुंचना चाहते हो, तो पहुंच ही जाओगे। गधे पहुंच गए हैं, तो तुम्हें क्या अड़चन है! कोई भी पहुंच सकता है। सिर्फ एक पागलपन चाहिए दौड़ने का। और फिर किसी की सुनने की बुद्धि नहीं चाहिए, बुद्धि चाहिए ही नहीं पद पर पहुंचने के लिए। बुद्धि अड़चन बन जाती है। तुमने किसी की सुनी, तो दूसरा निकल जाएगा आगे उतनी देर में! तुम सुनना ही मत!
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बाजार गया था, और एक दुकान पर साड़ियां खरीदने गया था। साडियां सस्ते में बिक रही थीं। दुकान बंद होने को थी। और सस्ते में साड़ियां नीलाम हो रही थीं। तो बहुत स्त्रियां पहुंच गई थीं। वह बेचारा सज्जनता के वश पीछे—पीछे खड़ा था। स्त्रियां कोई सज्जन तो होती नहीं! सज्जनता का स्त्रियों से क्या लेना—देना! स्त्री स्त्री है। सज्जनता तो पुरुषों के लिए है। वह पीछे खड़ा था। स्त्रियां तो धूम— धड़ाका मचाकर भीतर घुस रही थीं। वह कोई क्यू नहीं, कोई हिसाब नहीं।
वह कोई घंटेभर खड़ा रहा, पीछे ही पीछे रहे, आगे जाने का कोई उपाय ही न था। और पत्नी जान खा लेगी कि साड़ी बिना लिए आ गए। आखिर उसने भी एकदम से धक्का दिया। सिर झुकाकर नीचे, जैसे कि बैल घुस जाए भीड़ में, ऐसा वह स्त्रियों की भीड़ में घुस गया जोर से!
आखिर कई स्त्रियां चौकी और उन्होंने कहा कि शर्म नहीं आती, मर्द होकर और सभ्य आदमी होकर असभ्य व्यवहार कर रहे हो? पुरुषोचित व्यवहार करो!
उसने कहा, चुप रहो! पुरुषोचित व्यवहार घंटेभर से कर रहा हूं। अब स्त्रियोचित व्यवहार करता हूं।
तो अगर पद चाहिए और तुम चूक जाओ, तो उसका कुल मतलब इतना ही है कि तुम जरा सज्जनता का व्यवहार कर रहे थे, और कुछ मामला नहीं है। तुम्हें पागल बैल की तरह सिर झुकाकर घुस जाना चाहिए था। तुम दिल्ली पहुंचकर ही रुकते। कोई बीच में रोकने वाला तुम्हें मिलने वाला नहीं था। एक दफा भीड़ में घुसने की हिम्मत हो, तो फिर भीड़ ही तुम्हें लिए चली जाती है। फिर तुम्हें पता ही नहीं चलता कि कैसे दिल्ली पहुंचे! पहुंच ही जाते हो।
संसार में तो आकांक्षा पूरी हो जाती है। आकांक्षा और संसार का कोई विरोध नहीं है। क्योंकि क्षुद्र की आकांक्षा है। क्षुद्र तो आकांक्षा से मिल जाता है, विराट नहीं मिलता।
अब यहां तुम बड़ी अड़चन पाओगे। तुम्हें धर्मगुरु समझाते हैं कि आकांक्षा से संसार में कुछ न मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं आकांक्षा से सब मिल जाता है। जिनको नहीं मिलता, उन्होंने ठीक से नहीं की। या की, तो कुनकुनी! पूरी उबली नहीं; पूरे प्राण न लगाए। या प्राण भी लगाए, तो मोक्ष को भी बचाने की चेष्टा साथ में जारी रखी कि धन भी कमा लें और ईमानदारी भी बची रहे।
अब ऐसा कहीं हो सकता है! धन कमाना है, तो बेईमानी रास्ता है। वह तो उसका गणित है। धन कमाना है, तो बेईमान होने को राजी हो जाओ। फिर मोक्ष की फिक्र छोड़ दो। फिर धर्म और धन दोनों को सम्हाला, तो दो नावों पर सवार रहे; कहीं न पहुंचोगे।
तो जिसको जाना है संसार में, वह निश्चित पहुंच जाता है। धर्मगुरु तुमसे ठीक नहीं कहते। वे तुमसे कहते हैं, परमात्मा की आकांक्षा करो; क्या संसार की आकांक्षा कर रहे हो! और मैं तुमसे कहता हूं, यह बात ही उलटी है। संसार की आकांक्षा करने वाला तो संसार को पा ही लेता है। सिकंदर सिकंदर हो जाते हैं। नेपोलियन नेपोलियन हो जाते हैं। मिल जाता है।
परमात्मा की आकांक्षा असंभव आकांक्षा है। वह आकांक्षा से मिलता ही नहीं। लेकिन पहला कदम यही होगा कि संसार को चाह—चाहकर तुमने कुछ सार न पाया......।
दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जिन्होंने पा लिया सब कुछ जो चाहते थे, लेकिन पाकर भी सार न पाया। क्योंकि सार तो यहां है नहीं। सार तो परमात्मा है। और दूसरे, जिन्होंने पाने की ठीक से कोशिश न की, इसलिए आकांक्षा में जले पड़े रहे।
पहले लोग ही ठीक अर्थों में धार्मिक हो सकते हैं। दूसरे तरह के लोग ठीक अर्थों में धार्मिक नहीं हो सकते। धार्मिक होने के लिए संसार की दौड़ असार सिद्ध हो जानी चाहिए; तब नई दौड़ शुरू होती है। तब तुम पूरे प्राणपण से नई दौड़ में लगते हो। तब तुम परमात्मा को चाहते हो, मोक्ष चाहते हो, सत्य चाहते हो। एक आकांक्षा पैदा होती है, मोक्ष की आकांक्षा!
लेकिन जब मोक्ष की आकांक्षा में तुम दौड़ोगे, तब तुम्हें धीरे— धीरे पता चलेगा कि मोक्ष की आकांक्षा करना मोक्ष से बचने का उपाय है। यहां तो आकांक्षा गिर जाए, तो मोक्ष मिलता है। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही आकांक्षा से मुक्त हो जाना है; कोई और अर्थ नहीं है। परमात्मा को पाने का अर्थ ही यह है कि जहां पाने की कोई चाह न रही, वहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
इसलिए विपरीत शब्दों का उपयोग कृष्ण ने किया है।
वे कहते हैं, फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा करने वाले
पुरुषों द्वारा.......।
मोक्ष की आकांक्षा पैराडाक्सिकल है, विरोधाभासी है। वहा आकांक्षा बाधा है।
शुरू आकांक्षा से करोगे, अंत निराकांक्षा पर होगा। चढ़ोगे चाह से; धीरे— धीरे अनुभव बताएगा कि चाह पहुंचाती नहीं, भटकाती है। तब एक दिन चाह गिर जाएगी। और जहां तुम अचाह हुए, वहीं उपलब्धि है।
आज इतना ही।
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