शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-10



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
नए सूर्य को नमस्कार-(प्रवचन-दसवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
कहते हैं कि बुद्ध पुरुष जहां वास करते हैं, जहां भ्रमण करते हैं, वे स्थान तीर्थ बन जाते हैं। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि संत स्वयं तीर्थों को पवित्र करते हैं। स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः। यह बात समझ में नहीं आती।
भगवान, समझाने की अनुकंपा करें।

सहजानंद,
पहली बात अगर समझ में आती है तो दूसरी भी जरूर समझ में आएगी। और यदि दूसरी समझ में नहीं आती तो पहली भी समझ में आई नहीं, सिर्फ समझने का भ्रम हुआ है। क्योंकि पहली बात ज्यादा कठिन है, दूसरी बात तो बहुत सरल है।
पहला सूत्र है कि जहां उठते बैठते, जहां बुद्ध चलते-विचरते, वहां तीर्थ बन जाते हैं। तीर्थ का अर्थ.समझो। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति अज्ञात में प्रवेश कर सके। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति मन से छलांग लगा सके--अमन में। तीर्थ का अर्थ होता है: जहां से व्यक्ति समय को पीछे छोड़ दे और समयातीत का अनुभव करे। प्रभु का साक्षात्कार जहां हो जाए, वहीं तीर्थ है। और प्रभु का साक्षात्कार तो बुद्धों की सन्निधि में हो सकता है। वे ही सेतु है।

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-09



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
आओ, बैठो--शून्य की नाव में-(प्रवचन-नौवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
आपके विचार मेरे विचारों से मिलते हैं। क्या मैं आपके किसी काम आ सकता हूं?

रामदास गुलाटी,
यह तो भूल से ही भूल हो गई। अगर मेरे विचार तुम्हारे विचारों से मिलते हैं तो मुझे पूछना चाहिए कि क्या तुम्हारे किसी काम आ सकता हूं। तुम्हारे पास तो पहले से ही बोध है। तुम्हें तो शिष्यों की तलाश है, गुरु की नहीं। और तुम्हारे पास अगर विचार हैं ही, तो उन्हें क्या मिलाते फिर रहे हो?
लेकिन यही स्थिति बहुत लोगों की है, कहें या न कहें। तुमने बात सीधी-सीधी कह दी है। चंडीगढ़ से हो, पंजाबी हो। तुम्हें बात कहनी न आई। नहीं, लोगों को मतलब यही होता है जो तुम कह रहे हो, लेकिन कहते वे जरा और ढंग से हैं, जरा छिपा कर कहते हैं। तुमने नग्न सत्य कह दिया।
लोगों को सत्य से कोई संबंध नहीं है; उनके विचारों से जो विचार मिलते हों, वे उन्हें सत्य मालूम होते हैं। जैसे कि उनके विचार सत्य हैं, इसमें तो संदेह का कोई सवाल ही नहीं! सत्य तो उन्होंने पाया ही हुआ है! पक्षपात, संस्कार, दूसरों से सुनी हुई बातें, उधार ज्ञान--उसी का तुम अपने विचार कह रहे हो। तुम ही नहीं हो तो तुम्हारे विचार कैसे होंगे? और कभी थोड़ा मनन किया, एक भी विचार तुम्हारा है? खोजोगे, तलाशोगे तो पाओगे सब उधार है, उच्छिष्ट है। कोई गीता का होगा, कोई कुरान का होगा, कोई गुरुग्रंथ साहब का होगा। कोई यहां से कोई वहां से। कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा! और इस कुनबे को तुम कहते हो--मेरे विचार!

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-08



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
जिन खोजा तिन पाइयां-(प्रवचन-आठवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
मैं क्या करूं? मेरे लिए क्या आदेश है?
दिनकर,
मैं करने पर जोर नहीं देता हूं। मेरा जोर है होने पर। कृत्य तो बाहरी घटना है--मनुष्य के जीवन की परिधि है, केंद्र नहीं। और परिधि को हम कितना ही सजा लें, आत्मा वैसी की वैसी दरिद्र की दरिद्र ही बनी रहती है। लेकिन सदियों से यह अभिशाप मनुष्य की छाती पर सवार रहा है: यह करने का भूत--क्या करें! नहीं कोई पूछता कि मैं कौन हूं। बिना यह जाने कि मैं कौन हूं, लोग पूछे चले जाते हैं--क्या करूं? फिर तुम जो भी करोगे गलत होगा। भीतर तो अंधेरा है; फिर नाम चाहे तुम दिनकर ही रखो, कुछ भेद न पड़ेगा। आंखें तो अंधी हैं, फिर चाहे तुम चश्मा ही लगा लो, तो भी किसी काम नहीं आएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन आंखों के डॉक्टर के पास गया था। आंखों की जांच चलती जाती और बार-बार वह पूछता कि डॉक्टर साहिब, चश्मा बन जाएगा तो मैं पढ़ने तो लगूंगा न? डॉक्टर ने उसे कई दहा कहा कि बड़े मियां, कितनी बार कहूं? जरूर पढ़ने लगोगे। एक दफा ठीक-ठीक नंबर का चश्मा बन जाए, क्यों नहीं पढ़ोगे!

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-07



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
संन्यास यानी ध्यान—(प्रवचन-सातवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ। सिर्फ यह बोध रह गया कि मैं हूं। न धन आया, न मकान बना, संगीत, न विद्वान बना। न जीना ही मुझको रास आया। वहां आ कर जीवन को एक नयी दिशा अनजाने ही दे दी। अतीत भटकाव में बीत गया, वर्तमान संन्यास में, और भविष्य का निर्णय आप करें, क्या होगा?

दीपक भारती,
जीवन में एक ही उलझाव है, बस एकमात्र उलझाव--और सबके जीवन में निरपवाद रूप से--कुछ बनने की आशा। तुम जो हो हो, अन्यथा नहीं हो सकते हो। अन्यथा होने की चेष्टा में ही चिंता है, विषाद है, संताप है। अन्यथा होने की चेष्टा में ही दुष्ट-चक्र पैदा होता है। फिर तुम अपने हाथ से नयी-नयी भंवरे खड़ी करते हो; डूबते हो, उबरते हो; डूबते हो, उबरते हो। तुम्हारी जिंदगी फिर एक लंबे सपनों का सिलसिला और हर सपने का बिखराव बन जाती है।

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-06



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
मैं तो एक चुनौती हूं-(प्रवचन-छठवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
सितारवादक पंडित रविशंकर से जब हालैंड के प्रसिद्ध दैनिक पत्र वोल्क्सक्रान्ट के प्रतिनिधि ने आपके संबंध में पूछा तो उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह इस प्रकार है: "इस लोकतांत्रिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति वह काम करने को स्वतंत्र है, जिसे वह उचित मानता है। इसलिए लोग अगर भगवान रजनीश के पास जाना चाहते हैं तो उन्हें स्वयं ही तय करना होगा। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं, लेकिन वे पाश्चात्य लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय मालूम पड़ते हैं। आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है और पाश्चात्य जन जो चाहते हैं वे उसे सर्वाधिक मात्रा में वहां उपलब्ध करते हैं। अगर आपको यह द्वंद्व है तो यह चीज आपके सर्वथा योग्य है। वहां आपको सभी चीजें मिल सकती हैं--सेक्स, गांजा-भांग और आध्यात्मिक मुक्ति, सब एक साथ।'
भगवान, इतने बड़े कलाविद रविशंकर का आपको जाने बिना आप पर यह वक्तव्य देना क्या उचित था? क्या आप इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?

आनंद रागेन,

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-05



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
प्रवचन-पांचवां
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने आचार्य तुलसी और मुनि नथमल पर अपने विचार व्यक्त किए। क्या इनकी साधना, आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव के विषय में भी बताने की अनुकंपा करेंगे? इनके साधना-स्थल बिलकुल सूने पड़े हैं। अभी जैन विश्व भारती लाडनूं देखने का अवसर मिला, सुजानगढ़ शिविर के समय। दो करोड़ की लागत से खड़ी संस्था में इमारतें तो बहुत हैं, लेकिन साधक बहुत ही कम। आचार्य तुलसी एवं मुनि नथमल दोनों वहां हैं, फिर भी कोई भीड़ साधकों की नहीं है। मुनि नथमल आपकी तरह शिविर भी लेने लगे हैं और उनके ध्वनि-मुद्रित प्रवचन भी तैयार होने लगे हैं। मुनि नथमल कहते हैं: "संगीत से ध्यान में गति एक सीमा से आगे नहीं होती है।' आचार्य तुलसी ने अपने शिष्यों को कहा है कि वे आपका साहित्य न पढ़ें। लेकिन जैन साधु एवं साध्वी मेरे यहां ठहरते हैं, आपकी पुस्तकें पढ़ते हैं व टेप सुनते हैं और वे आपसे प्रभावित हैं। फिर इनके आचार्य आपका क्यों विरोध करते हैं? कृपया समझाएं।

स्वामी धर्मतीर्थ,

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-04



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर)–ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
स्वस्थ हो जाना उपनिषद है-(प्रवचन-चौथा)
पहला प्रश्न: भगवान,
तैत्तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्य से नाराज हो कर उसे अपने द्वारा सिखाई गई विद्या त्याग देने को कहा। तो एवमस्तु कह कर शिष्य ने विद्या का वमन कर दिया, जिसे देवताओं ने तीतर का रूप धारण कर एकत्र कर लिया। वही तैत्तरीयोपनिषद कहलाया।
भगवान, इस उच्छिष्ट ज्ञान के संबंध में समझाने की कृपा करें।
जिनस्वरूप
इस संबंध में बहुत-सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात यह है कि गुरु नाराज नहीं होता। दिखाए भला, अभिनय भला करे, नाराज नहीं होता। जो अपने से राजी हो गया, अब किसी और से नाराज नहीं हो सकता है। वह असंभावना है। इसलिए गुरु नाराज हुआ हो तो गुरु नहीं था।

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-03



 बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो


दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
सारे धर्म मेरे हैं-(प्रवचन-तीसरा)

पहला प्रश्न: भगवान,
आपने उस दिन हमारे पूज्य आचार्य श्री तुलसीदास को भोंदूमल कहा तथा मुनि श्री नथमल को थोथूमल कहा तथा अन्य साधुओं को गधा कहा। जब आप हमारे पूज्य मुनियों और साधुओं को ऐसी गालियां देते हैं तो आपका विरोध क्यों न हो? भगवान महावीर ने तो साधुओं, मुनियों, सिद्धों आचार्यों और उपाध्यायों को नमस्कार कहा है, जिसका आपने महावीर-वाणी के एक प्रवचन में समर्थन भी किया है। फिर यह विरोधाभास क्यों?

हीरालाल जैन,
महावीर ने निश्चय ही अरिहंतों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, साधुओं को नमस्कार कहा है। लेकिन भोंदूमल या थोथूमल, इनमें से कोई भी नहीं--न अरिहंत हैं, न सिद्ध हैं, न आचार्य हैं, न उपाध्याय हैं, न साधु हैं।
फिर भोंदूमल को भोंदूमल कहने में गाली कहां है? गुलाब को गुलाब कहने में गाली नहीं, तो गधे को गधे कहने में गाली कैसे हो जाएगी? जो जैसा है उसको जैसा ही कहना उचित है, उससे अन्यथा कहना असत्य है।

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) -प्रवचन-02



बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो

 दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।


विज्ञान और धर्म का समन्वय-(प्रवचन-दूसरा)
पहला प्रश्न: भगवान,
आप गांधीवादी विचारधारा के विरोधी और आधुनिक प्रविधि और यंत्र के समर्थक मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपको मालूम है कि प्रविधि और यंत्र के कारण पश्चिम का जीवन कितना अशांत और तनावग्रस्त एवं क्षुब्ध हो चला है। वह सामूहिक विक्षिप्तता के कगार पर खड़ा है। तब क्यों आप उसका अंध-समर्थन करते हैं?
चिमनभाई देसाई,

मैं विचारधाराओं मात्र का विरोधी हूं, गांधीवादी विचारधारा का ही नहीं। विचार के पार जाना है, तो किस वाद को मान कर तुम उलझे हो, इससे भेद नहीं पड़ता। किस झाड़ी के कांटों में उलझे हो, इससे मुझे बहुत प्रयोजन नहीं है। कांटों से मुक्त होना है। और मस्त विचार से ज्यादा नहीं है; उलझा सकते हैं, सुलझा नहीं  सकते। चूंकि मैं विचारधाराओं मात्र का विरोधी हूं, इसलिए स्वभावतः गांधीवादी विचार की झाड़ी भी उसमें एक झाड़ी है। और चूंकि नयी है, इसलिए बहुत लोगों को उलझा लेती है। विशेषकर भारतीय मन के लिए उसमें बड़ा आकर्षण है। वह आकर्षण रुग्ण है। उस आकर्षण के आंतरिक और अचेतन कारण बहुत हैरान करने वाले हैं। पहला तो कारण यह है कि गांधीवादी विचारधारा दरिद्र को गौरीशंकर पर बिठा देती है।

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-01

बहुरि ने ऐसा दावं—(प्रश्नोतर) –ओशो


दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
जीवित गुरु--जीवंत धर्म—(प्रवचन-पहला)

पहला प्रश्न: भगवान,
जीवित सदगुरु के पास इतना खतरनाक क्यों है? सब कुछ दांव पर लगा कर आपके बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र में डूबने के लिए इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं? जबकि पलटू की तरह आपका आह्वान पूरे विश्व में गूंज उठा है--
बहुरि न ऐसा दाव, नहीं फिर मानुष होना,
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।
भगवान, अनुकंपा करें, बोध दें।
योग चिन्मय,
जीवन ही खतरनाक है। मृत्यु सुविधापूर्ण हैं। मृत्यु ज्यादा और आरामदायक कुछ भी नहीं। इसलिए लोग मृत्यु को वरण करते हैं, जीवन का निषेध।। लोग ऐसे जीते हैं, जिसमें कम से कम जीना पड़े, न्यूनतम--क्योंकि जितने कम जीएंगे उतना कम खतरा है; जितने ज्यादा जीएंगे उतना ज्यादा खतरा है। जितनी त्वरा होगी जीवन में उतनी ही आग होगी, उतनी ही तलवार में धार। जीवन को गहनता से जीना, समग्रता से जीना--पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चलना है।

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म क्था)-अध्याय-40



अध्याय—40 (ध्‍यान का अनुभव)

स तरह से ये जीवन के चौथे मृत्यु द्वार को मैं छूकर आया हूं। ये एक नादानी नहीं तो ओर क्‍या है क्‍या अभी भी मेरे अंदर बालपन एक अलहड़ पन समया है, अकसर बहुत लाडप्यार के कारण आदमी का लडकपन कैसा थिर सा हो जाता है मानों उसमें गति ही न हो। आज आधुनिक भागदौड में बच्चे कितनी जल्दी अपना बालपन खो देते है। ओर युवां अपना यूवा पन। समाज उनको स्वछंद विकास करने ही नहीं देता है। इस सुंदर माहोल में जीवन का रस्‍सा स्‍वाद अनुभव बड़े भाग्य से मिलता है ओर मेरी नजरों में इसकी कोई कदर नहीं। मैं इस अमूल्य अवसर को यूहीं फेंकता फिरता हूं। इस वरदान की अगर मैं कदर नहीं करुंगा तो कब—कब मेरे पास फिर लोट का आयेगा कब—कब कुदरत मुझे मोंके देती रहेगी। जीवन में जरूर कुछ अच्छा किया होगा....तो ये स्थान ये मनुष्य मुझे मिले है। मुझे इस सब की कदर करनी चाहिए नहीं तो प्रकृति भी नाराज हो जायेगी। आपने द्वारे दिये इस जीवन की कदर ने देख कर इसे मुझसे छिन लेगी। ओर मैं तो खुद ही इसे फैंकने के लिए तैयार हूं। ये सब बातें सोच कर मेरा मन उदास हो गया। ओर मुझे अंदर से अपने पर क्रोध ओर गिलानि एक साथ हो रही थी। ओर मन में एक पश्चाताप भी कि अब ऐसा नहीं करूंगा परंतु ऐसा पहली बार नहीं उन पहली दुर्घटनाओं के बाद भी शायद मैंने ऐसा ही सोचा होगा।

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--219

परतामात्‍मा को झेलने का पात्रता

(प्रवचनइक्‍कीसवां)

अध्‍याय—18
सूत्र—

 सजय उवाच:
ड़त्यहं वासुदेवस्य यार्थस्य च महात्मन:।
संवादभिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।
व्याक्यसादाच्‍छूतवानेतदगह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्‍साक्षाक्कथयत स्वयम्।। 75।।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयो पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:।। 76।।
तव्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूयमत्यद्भुतं हरे:।
विस्मयो मे महान् राजन्हष्यामि च युन: पुन:।। 77।।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पाथों धनर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिमर्तिर्मम।। 78।।

इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्‍य—दृष्टि के द्वारा मैने हम परम रहस्ययुक्त गोयनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।
इसीलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के हम रहस्ययुक्तु कल्याण्स्कारक और अदभुत संवाद को पुनः—युन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
तथा हे राजन, श्री हरि के उस अति अदभुत रूप को भी पुन—पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान विस्मय होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वही पर श्री? विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--218

मनन और निदिध्‍यासन(प्रवचनबीसवां)

अध्‍याय—18
सूत्र--

            कच्चिदेतव्छ्रुतं पार्थ त्‍वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिमानसंमोह: मनष्टस्ते धनंजय।। 72।।

अर्जन उवाच:
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्‍धा त्‍वत्ससादान्मयाव्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्‍ये वचनं तव।। 73।।

इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, है पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा स्नान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
इस प्रकार भगवान के पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्‍युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पाल करूंगा।

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--217

गीताज्ञानयज्ञ(प्रवचनउन्‍नीसवां)

अध्‍याय—18
प्रवचन—

            अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट स्‍यामिति मे मति:।। 70।।
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादीय यो नर:।
सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राम्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।। 71।।

तथा हे अर्जुन, जो पुरूष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद— रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान— यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।
तथा जो पुरूष श्रद्धायुक्त और दोष— दृष्टि से रहित हुआ इस गीता का श्रवण— मात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्‍त हुआ पुण्य करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--216

आध्‍यात्‍मिक संप्रेषण संप्रेषण की गोपनीयता

(प्रवचनअठारहवां)

अध्‍याय—18
सूत्र—

हदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्‍यसूयीत।। 67।।
य इमं परमं गुह्मं मद्भक्तेम्बीभधास्यति।
भक्‍ति मयि परां कृत्या मामैवैष्यत्यसंशय:।। 68।।
न च तस्मान्मनुष्येधु कीश्चन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।। 69।।

है अर्जुन, हस कार तेरे खत के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरीहत के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चलिए; एवं जो मेरी निंदा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए।
क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम गुह्म रहस्य गीता को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।
और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है, और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--215

समर्पण का राज--(प्रवचनसत्रहवां)

अध्‍याय—18
सूत्र—

सर्वगुह्मतमं भूय: श्रृणु मे परमं वचः।
हष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।। 64।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामैवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 65।।
सर्वधर्मान्परित्‍यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्वा सर्वपापेध्यो मीक्षयिष्यामि मा शुचः।। 66।।

इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण श्रीस्कृष्ण भगवान फिर बोले कि है अर्जुन, संपूर्ण गोयनीयों से भी अति गोयनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन, क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, हमसे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिए कहूंगा।