पहला प्रवचन
हरि भजते लागे नहीं, काल-ज्याल
दुख-झाल।
तातें राम संभालिए, दया
छोड़ जगजाल।।१।।
जे जन हरि सुमिरन विमुख, तासूं
मुखहू न बोल।
रामरूप में जो पडयो तासों अंतर
खोल।।२।।
राम नाम के लेव ही, पातक
झुरैं अनेक।
रे नर हरि के नाम को, राखो
मन में टेक।।३।।
नारायन के नाम बिन, नर
नर नर जा चित्त।
दीन भये विललात हैं, माया-बसि
न थित्त।।४।।
प्रभु की दिशा में पहला कदम
जब तक न स्वयं ही तार सजें कुछ गाने को
कुछ नई तान सुरताल नया बन जाने को
छेड़े कोई भी लाख बार पर तारों पर
झनकार नहीं कोई होगी
जब तक न मधु पी करके दीवाना हो
मन में रह-रह कुछ उठता नहीं तराना हो
छेड़े कोई भी लाख बार पर भौंरों में
गुंजार नहीं कोई होगी
जब तक न स्वयं ही बेचैनी से उठे जाग
जब तक न स्वयं कुछ करने की जग जाए आग
उकसाए कोई लाख बार मुर्दा दिल में
ललकार नहीं कोई होगी।
जब तक न स्वयं ही तार सजें कुछ गाने को
कुछ नई तान सुरताल नया बन जाने को
छेड़े कोई भी लाख बार पर तारों पर
झनकार नहीं कोई होगी।
संत का अर्थ है, प्रभु
ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब
सूनी नहीं;
जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस
गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस
सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ
है, हो
गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।
बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है।
बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और
अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले
नहीं; फैलना
है और फैले नहीं;
होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी
प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल
आई नहीं।
संतत्व का अर्थ है, मनुष्य
वही हो गया जो होने को था; बीज नहीं है, अब
फूल है;
खिल गया सहस्रदल कमल; फूल जैसा आनंदित
मालूम पड़ता है। आनंद क्या है फूल का? अब होने को कुछ
और बाकी न रहा। अब जाने को कोई जगह न रही। यात्रा पूरी हुई, विराम
आ गया। अब शांत होने की संभावना है। क्योंकि जब तक कहीं जाना है, अशांति
रहेगी। जब तक कुछ होना है, योजना करनी होगी। और जब तक कुछ होना है तब
तक सफलता-असफलता पीछा करेगी। पता नहीं हो पाए, न हो पाए!
शंका-कुशंकाएं घेरेंगी...हजार बातें। चित्त डावांडोल रहेगा। चित्त थिर न हो पाएगा।
कौन सी राह चुनें! कहीं भूल तो न हो जाएगी! जो राह चुन रहे हैं वह कहीं ऐसा तो न
हो कि राह ही सिद्ध न हो! जो कर रहे हैं, उससे नियति का
मेल बैठेगा कि नहीं बैठेगा!...तो संदेह जीता है और संदेह भीतर जलता है और संदेह
विषाद से भरता है।
फिर स्वभावतः राह की पीड़ाएं हैं, राह
की अड़चनें हैं। सबसे बड़ी अड़चन तो यह है कि बीज को यह भरोसा नहीं आता कि फूल हो
सकेगा। आए भी कैसे! कभी हुआ नहीं। जो नहीं हुए उस पर भरोसा कैसे आए? दूसरे
बीज हो गए हैं,
इससे भी तो यह सिद्ध नहीं होता कि मैं हो जाऊंगा। दूसरे बीज दूसरे
थे, भिन्न
रहे होंगे,
यह मेरा बीज कंकड़ भी तो हो सकता है, इसके
भीतर कुछ भी न हो!
और किसी बीज को अपने भविष्य पर भरोसा आने का
उपाय नहीं है। भरोसा तो तभी आता है जब अनुभव हो। तो हजार शंकाएं-कुशंकाएं पगों को
घेरती हैं। भविष्य है भी? जिसकी तरफ हम जा रहे हैं, उसका
कोई अस्तित्व है?
जो हम होना चाह रहे हैं, कहीं मन का
भुलावा तो नहीं?
स्वप्न तो नहीं देखा कोई? कोई नया भ्रमजाल
तो, कोई
नई माया तो खड़ी नहीं की है? ये सारी बातें पीड़ा देती हैं; कांटे
की तरह चुभती हैं।
फूल का आनंद यही है कि अब कहीं जाना नहीं; भविष्य
समाप्त हुआ। और जिस क्षण भविष्य समाप्त होता है उसी क्षण अतीत से भी नाता टूट जाता
है। जब कुछ होना नहीं है तो याद कौन रखे अतीत से भी नाता टूट जाता है। जब कुछ होना
नहीं है तो याद कौन रखे अतीत की? हम याद इसीलिए रखते हैं कि कुछ होना है। तो
शायद अतीत का अनुभव काम पड़ जाए। जो पीछे जाना है उसको हम संगृहीत करते हैं, ताकि
आगे की यात्रा पर उसका उपयोग हो सके। वह साधन बन जाए। जब कहीं जाना नहीं, जब
कुछ होना नहीं,
जब भविष्य समाप्त हो गया, उसी क्षण हम अतीत
से भी मुक्त हो जाते हैं। अब स्मृति का बोझ भी ढोने की कोई जरूरत नहीं है। परीक्षा
समाप्त ही हो गई। अब कोई परीक्षा बची नहीं। तो न स्मृति रह जाती है, न
कल्पना का जाल रह जाता है। जो ऊर्जा अतीत और भविष्य में फैल-फैल कर बिखर जाती थी, सारी
संगृहीत हो जाती है वर्तमान के छोटे से क्षण में। उस त्वरा और तीव्रता में परम
आनंद है। उस घड़ी में, जिसको सच्चिदानंद कहा है, भक्त
जिसको भगवान कहते हैं, ज्ञानी जिसे सत्य कहते हैं, मोक्ष
कहते हैं,
वह घटित होता है।
संतत्व का अर्थ है, जिस
व्यक्ति के जीवन का फूल खिल गया। और जब फूल खिलेगा तो सुगंध भी बहेगी ही। और जब
फूल खिलेगा तो उत्सव भी होगा ही। इसलिए सभी संतों ने अपने उत्सव को काव्य में
प्रकट किया है। जिन्होंने काव्य नहीं भी लिखा, उनकी वाणी में भी
काव्य है;
चाहे कविता न बनाई हो, पद्य न बांधा हो, गद्य
में ही बोले हों,
लेकिन गद्य भी पद्य से भरपूर है। बुद्ध ने कभी कोई पद नहीं बनाए, इससे
कुछ भेद नहीं पड़ता। एक-एक शब्द रस से भरा है। एक-एक शब्द में रसविमुग्धता है।
एक-एक शब्द अपूर्व काव्य को लिए हुए है। एक-एक शब्द जलता हुआ दीया है।
इसके पहले कि हम दया के इन पदों में उतरें, कुछ
बातें खयाल में लेनी जरूरी हैं।
पहली बात, संतत्व
एक उत्सव है,
महोत्सव है। उससे बड़ा कोई उत्सव नहीं है। जीवन की परम बेला आ गई।
नाच होगा,
गीत होगा, धन्यवाद होगा, आभार-प्रदर्शन
होगा। कौन कैसे करेगा, यह बात अलग है। मीरा नाची, दया
ने गाया,
सहजो गुनगुनाई, चैतन्य नाचे, कबीर
ने पद रखे,
बुद्ध बोले; ऐसा भी हुआ कभी कि कोई चुप भी रहा, लेकिन
उसकी चुप्पी में भी सौंदर्य है।
तुमने चुप्पी-चुप्पी के भेद भी देखे न! कभी
कोई आदमी चुप होता है, सिर्फ नाराजगी में चुप होता है, तो
उसकी चुप्पी में क्रोध है। वह चुप तो है लेकिन चुप नहीं है; चुप
रह कर भी क्रोध प्रगट कर रहा है। कोई आदमी उदासी में चुप है। तो चुप तो है, लेकिन
फिर भी कहे जा रहा है। रोआं-रोआं कह रहा है कि उदास है। चेहरा कह रहा है, आंखें
कह रही हैं,
भावभंगिमा कह रही है। उठेगा तो उदास, बैठेगा
तो उदास। चारों तरफ उसके पास की जो हवा है, वह भारी और बोझिल
है। जैसे हजार मन का बोझ उसकी छाती पर है। कोई आदमी सिर्फ इसलिए चुप है कि कुछ
कहने को नहीं,
तो उसकी चुप्पी में एक रिक्तता होगी, नकार
होगा। तुम पा सकोगे, उसका अंतरतम खाली है इसलिए चुप है।
एक तो घड़ा आवाज नहीं करता जब खाली होता है
और एक घड़ा आवाज नहीं करता जब भरा होता है। लेकिन भरा होना और खाली होना बड़ी अलग
बातें हैं। एक आदमी इसलिए नहीं बोला कि बोलने को कुछ नहीं था--तो तुम अनुभव करोगे
एक नकार,
एक अभाव। और जब कोई आदमी इसलिए नहीं बोला कि बोलने को तो बहुत था, कैसे
बोलें?
बोलने को इतना था कैसे समाए शब्दों में, इसलिए
चुप रह गया,
क्योंकि वाणी असमर्थ थी, भाषा कमजोर थी और
जो कहना था वह विराट था और शब्दों में अंटता नहीं था, इसलिए
चुप रह गया। भरा घड़ा: सन्नाटा है, लेकिन बड़ा विधायक। नकार नहीं है, शून्य
नहीं है,
पूर्ण विराजमान है। तुम अनुभव करोगे, इस
आदमी के पास अभाव नहीं, ऐश्वर्य होगा।
इसी को हमने ईश्वर शब्द से प्रगट किया है।
इस आदमी की मौजूदगी में ईश्वर की मौजूदगी अनुभव होगी। यह भरा-पूरा है। यह अपने से
खोली होगा लेकिन परमात्मा से भर गया है। और अपने से खाली होने में कोई खाली थोड़े
ही होता है! परमात्मा से खाली होने में कोई खाली रहता है। इसने अपने को तो हटा
लिया है,
लेकिन परमात्मा को जगह दे दी है। यह खुद तो सिंहासन बन गया है और
सिंहासन पर परमात्मा विराजमान हो गया है। कभी ऐसा व्यक्ति चुप भी रह जाता है।
लेकिन उसकी चुप्पी में भी परम काव्य होगा। तुम अगर गौर से सुनोगे तो उसकी चुप्पी
में संगीत सुनाई पड़ेगा। अगर तुम आंख बंद करके चुप हो जाओगे तो उसकी मौजूदगी में
तुम्हें मधुर रव सुनाई देगा। तुम उसके पास ओंकार का नाद अनुभव करोगे। उसके
उठने-बैठने में तरंगें होंगी--तरंगें, जो बहुत पार से
आती हैं। तुम उसका स्वाद लोगे तो तुम पाओगे, बड़ा पोषण है उसकी
मौजूदगी में,
नकार नहीं है।
जो आदमी खाली होने की वजह से चुप है, उसके
पास से तुम खाली हो कर लौटोगे; जैसे उसने तुम्हें चूस लिया; जैसे
तुम्हारा शोषण हुआ; जैसे तुम कुछ लुटा कर आए। तुमने कई दफा
अनुभव किया है,
भीड़ में जाने के बाद जब तुम वापस लौटते हो तो ऐसा लगता है जैसे कुछ
लुटे-लुटे,
टूटे-टूटे। घड़ी दो घड़ी आराम न कर लो तो स्वस्थ नहीं होते। क्या हुआ? इतने
नकार से भरे हुए लोग वहां थे, सबने लूटा, सबने
खींचा। जब कोई खाली गङ्ढे की तरह होता है तो तुम्हारी ऊर्जा उसमें बहने लगती है।
तो तुम, खाली कोई अगर चुप
बैठा हो तो उसके पास से उजड़े हो कर वापस लौटोगे। और अगर कोई भरा चुप बैठा हो तो
उसके पास से तुम भरे हो कर वापस लौटोगे। उसकी ऊर्जा थोड़ी तुम्हारी अंतरात्मा में
भी प्रवेश कर जाएगी। उसकी किरणें तुम्हारे अंधकार में भी थोड़ी उतर जाएंगी। उसकी
सुगंध तुम्हारे नासापुटों में भर जाएगी। तुम उसके पास से पुलकित लौटोगे, एक
नया राग,
एक नया छंद ले कर लौटोगे। उसके तारों का बजना तुम्हारे भीतर के सोए
तारों को भी कंपा जाएगा।
संत एक उत्सव है। बहुत रूपों में संतत्व
प्रगट होता है। किन्हीं ने खजुराहो की मूर्तियां बनाईं, किन्हीं
ने अजंता-एलोरा की गुफाएं खोदीं, कोई नाचा, किसी
ने गीत रचे,
कोई चुप रहा। लेकिन एक बात निश्चित है, गहरे
देखोगे तो सभी बड़े अपूर्व काव्य में प्रगट हुए। उस काव्य ने क्या रूप लिया, क्या
रंग लिया,
यह अलग बात है। संतों ने अधिकतर गाया है; जो
कहना था,
उसे गाया है; जो कहना था उसे सिर्फ कह ही नहीं दिया, उसे
गुनगुनाया है। फर्क है दोनों बातों में।
जब तुम गद्य बोलते हो तो तर्क होता है। जब
तुम पद्य बोलते हो तो भाव होता है। जब कोई चीज सिद्ध करनी हो तो पद्य से सिद्ध
नहीं होती। जब कोई चीज सिद्ध करनी हो तो गद्य का उपयोग करना पड़ता है। क्योंकि तर्क
के लिए बड़ी सुमार्जित भाषा चाहिए। तर्क के लिए साफ-सुथरा गणित जैसा व्यवहार चाहिए।
लेकिन भक्तों को या संतों को कुछ सिद्ध नहीं करना है। परमात्मा उनका अनुभूत हो गया
है, अनुमान
नहीं है;
सिद्ध हो ही चुका है, कुछ प्रमाण नहीं
जुटाने हैं। संत को यह सिद्ध नहीं करना है कि परमात्मा है। जब संत तुमसे बोलता है तो वह कुछ सिद्ध करने को नहीं बोलता
है। सिद्ध तो हो ही गया। अब तो वह सिर्फ अपनी सिद्धि प्रगट करता है। वह कहता है:
मुझे हो गया है,
मैं नाच रहा हूं, जो हो गया है उसके कारण नाच रहा हूं; तुम्हें
नाच समझ में आ जाए, ठीक; न समझ में आए, तुम्हारा
दुर्भाग्य!
संत कुछ सिद्ध नहीं करता। इसलिए संत की भाषा
में तुम "इसलिए' नहीं पाओगे। वह ऐसा नहीं कहता कि संसार है, इसलिए
परमात्मा होना चाहिए, क्योंकि कोई बनाने वाला होगा। यह भी कोई बात
हुई! परमात्मा को तर्क से सिद्ध करना एक तरह की नास्तिकता है। इसका मतलब हुआ कि
परमात्मा तर्क से छोटा है; तर्क से सिद्ध हो सकता है। जो तर्क से सिद्ध
हो सकता है,
वह तर्क से असिद्ध भी हो सकता है।
इसलिए खयाल रखना, संत
कोई पंडित नहीं है। संत तो भावाविष्ट भावुक है, भाविक है। संत ने
जाना है। अब तुम्हें कैसे जनाए? उसने कुछ अपूर्व अनुभव किया है। अब उस
सुसमाचार को तुम तक कैसे लाए? उसकी आंखें खुल गईं, उसने
रोशनी देखी--वही रोशनी जिसके लिए तुम तड़प रहे जन्मों से। अब वह तुम्हें कैसे बताए
कि रोशनी है?
तर्क करे, सिद्धांत बताए, तुम्हारी
बुद्धि को समझाए?
नहीं, संत का वैसा कोई
कृत्य नहीं। और बुद्धि से कभी कोई किसी को समझा भी सका नहीं। संत तुम्हारे हृदय को
गुदगुदाता है। संत तुम्हारे भाव को जगाता है। संत कहता है: आओ, मेरे
साथ नाचो,
कि मेरे साथ गाओ। छोड़ो भी तर्क विचार, आओ
थोड़ा मेरे साथ रसलीन हो लो; शायद जो मुझे छुआ तुम्हें भी छू ले। कोई
कारण नहीं। मैं भी तुम जैसा पापी, मैं भी तुम जैसा मनुष्य, तुम्हारी
जैसी भूल-चूक मेरी, तुम्हारी जैसी सीमाएं मेरी; तुमसे
कुछ भिन्न नहीं,
तुमसे कुछ विशिष्ट नहीं; जैसा मैं हूं
वैसे तुम हो;
शायद मेरे द्वार खुले थे और प्रभु भीतर आ गया और तुम्हारे द्वार
बंद हैं और भीतर नहीं आ पा रहा। मेरे जैसे तुम भी हो रहो! देखो, मैं
नाचता हूं,
ऐसे द्वार खुल जाते हैं। तुम भी द्वार खोल लो। लग जाए शायद तुम्हें
स्वाद तो पता चल जाए।
तो संत का कृत्य समझाने का नहीं है, स्वाद
दिलाने का है। संत का कृत्य तुम्हारी बुद्धि को सहमत कराने का नहीं है, तुम्हारे
भाव को रंगाने का है। यह बड़ी अलग प्रक्रिया है। यह ऐसे ही है जैसे कि किसी ने शराब
पी ली;
मस्त हुआ, डोला मस्ती में। तुम बैठे रूखे-सूखे, रसहीन; बैठे
मरुस्थल से। मरूद्यान तुम्हारे जीवन में कभी घटा नहीं। तो वह क्या करे? वह
नाच कर तुम्हें बताए कि शायद तुम मेरा नाच देख लो, मेरी
आंखों में झांको,
इस मस्ती को जरा देखो, यह मस्ती मुझे घट
सकी तो तुम्हें क्यों न घट सकेगी? यह जो मैं डोल रहा हूं आनंदमग्न, तुम
क्यों न डोल सकोगे?
फर्क समझना।
पंडित समझाता है, ईश्वर
है; संत
समझाता है,
मस्ती है। फिर मस्ती अगर आ जाए तो ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं।
पंडित समझाता है,
ईश्वर को अगर मान लो तो मस्ती आ सकती है। मगर ईश्वर को मानो कैसे? कौन
नहीं मानना चाहता! मस्त कौन नहीं होना चाहता! लेकिन यह बड़ी अजीब सी शर्त लगा दी कि
पहले ईश्वर को मान लो तो मस्ती आ जाए। वहीं तो अटकाव आ जाता है। मानो कैसे? जो
दिखाई नहीं पड़ता उसे मानो कैसे? जिसे जाना नहीं, उसे
मानो कैसे?
जिसका कभी स्वाद नहीं लिया उसे स्वीकार कैसे करो? तो
जो स्वीकार कर लेते हैं, उनके स्वीकार में झूठ होता है।
पृथ्वी आस्तिकों से भरी है--झूठे आस्तिकों
से। स्वीकार कर लिया है लोभ के कारण, कि स्वीकार करने
से आनंद होगा। अब तक हुआ नहीं। जनम-जनम बीत गए। मंदिर में पूजा भी की है, पत्थरों
पर फूल भी चढ़ाए हैं, तीर्थयात्राएं भी की हैं, काबा
और काशी भी गए हैं, सब कर लिए गोरखधंधे, लेकिन
मूल में कहीं भूल है। तुम्हारी मान्यता झूठी है। मान्यता तो अनुभव से आती है, अनुभव
के पहले नहीं आती। तुम कुछ उलटा कर रहे हो। तुम बैलगाड़ी के पीछे बैल बांध रहे हो।
अब घसिट रहे हो,
बैलगाड़ी चलती नहीं, यात्रा होती नहीं
और तुम परेशान हो,
क्योंकि तुम्हारे पंडितों ने तुम्हें यही समझाया है कि पहले मान लो
तो फिर जान लोगे। यह बात उलटी हो गई। जान लो तो मानना होता है।
संत कहते हैं, जान
ही लो,
मानने की जल्दी मत करो, मानोगे कैसे? मानोगे
तो पाखंड होगा। मानोगे तो झूठ होगा। और ईश्वर से कम से कम झूठ का नाता न बनाओ।
ईश्वर से तो कम से कम सच्चे रहो। कम से कम उस तरफ तो अपने पाखंड और अपने मिथ्याचार
को मत फैलाओ। कम से कम उसकी तरफ तो एक बात सचाई की रखो कि जब जानेंगे तभी मानेंगे।
कैसे मान लें?
जबर्दस्ती कैसे मान लें? नरक के डर से मान
लें कि स्वर्ग के लोभ से मान लें? कि हम तर्क में बहुत कुशल नहीं हैं, इसलिए
कोई तर्क से हमको दबा देता है, इसलिए मान लें?
तुमने देखा? तर्क
से कभी कोई राजी नहीं होता; ज्यादा से ज्यादा तुम किसी को चुप कर सकते
हो। यह हो सकता है कि तुम तर्क में ज्यादा कुशल हो, तुम
किसी को चुप कर दो। तुम जिद्द कर लो और वह तुम्हें जवाब न दे सके। मगर जो चुप हो
गया है। वह भीतर-भीतर जल रहा है, सुलग रहा है; वह
तर्क खोज रहा है कि तुमसे बेहतर तर्क कब मिल जाए; और
शायद उसे तर्क न भी मिले तो भी उसके जीवन में रूपांतरण नहीं होगा। यह पृथ्वी झूठे
आस्तिकों से भरी है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा झूठे
आस्तिकों से भरे हैं। उन्होंने मान लिया है। संत कहते हैं, मानने
से नहीं होगा। अरे, स्वाद ले लो! संत स्वाद को उपलब्ध कराता है।
जिस मधुरस में खुद डूबा है, उसे बहाता है। इसलिए सत्संग का बड़ा जोर है।
सत्संग का क्या अर्थ है? संत
ने तो पी ली है शराब परमात्मा की, तुम जरा संत से पी लो। इसके कुल्हड़ में अगर
तुमने अपना पानी भी डाल कर पी लिया तो भी मस्त हो जाओगे, क्योंकि
इस कुल्हड़ में परमात्मा की शराब लगी है। इसके पास भी अगर तुम बैठ गए तो आज नहीं कल, कल
नहीं परसों डोलने लगोगे, मन में कुछ गूंज होने लगेगी। अतक्र्य है यह
गूंज! बुद्धि के पार है। समझ-बूझ का काम नहीं है। संतत्व का अर्थ है, किसी
व्यक्ति ने चख लिया; किसी का झरोखा खुल गया; किसी
की आंखों ने जान लिया। तुम जरा इसकी आंखों के पास आओ। तुम जरा इसकी आंख की दूरबीन
बनाओ। तुम इसकी आंख से झांको। यही अर्थ गुरु का होता है। संत वह है, जिसने
जान लिया। गुरु वह संत है, जिसको तुमने चखना शुरू कर दिया; जिसके
माध्यम से तुम जानने लगे।
तिब्बत में कहावत है, अगर
पहाड़ का रास्ता पूछना हो तो उससे पूछो जो रोज पहाड़ पर आता-जाता है। जो पहाड़ पर कभी
गए नहीं,
घाटी में सदा रहे, चाहे कितने ही नक्शे उन्होंने पढ़े हों और
चाहे कितने ही शास्त्रों का उन्हें ज्ञान हो, उनसे मत पूछना
अन्यथा भटकोगे। उससे पूछो जो रोज आता-जाता है, चाहे बड़ा पंडित न
हो। डाकिया,
जो रोज पहाड़ चढ़ता-उतरता है, ले जाता है डाक, लाता
है डाक,
बड़ा पंडित न हो, नक्शे उसके पास न हों, उससे
पूछ लेना।
अब यह दयाबाई कोई बहुत बड़ी ज्ञानी नहीं
हैं--ज्ञानी पंडित के अर्थ में। शास्त्रों की ज्ञाता नहीं हैं। फिर भी मैंने चुन
लिया है कि उन पर बोलूंगा। बड़े पंडितों को छोड़ कर उनको चुन लिया है कि उन पर
बोलूंगा। पढ़ी-लिखी भी होंगी, यह भी संदिग्ध है। लेकिन, उस
रास्ते पर आईं-गईं, उस रास्ते से परिचित हैं। उस रास्ते की धूल
खूब खाई। उस रास्ते की धूल में रंगी हैं। उस रास्ते पर चल-चल कर, उस
रास्ते पर यात्रा कर-करके सब भांति अपनी तरफ से शून्य हो गई हैं। अब तो उसी रास्ते
की सुगंध है। इन छोटे-छोटे पदों में वही सुगंध प्रगट हुई है।
तीन तरह के कवि होते हैं। एक, जिसको
परमात्मा की झलक स्वप्न में मिलती है। जिनको हम साधारणतः कवि कहते हैं--कि सुमित्रानंदन
पंत कि मिल्टन कि एजरा पाउंड--जिनको हम कवि कहते हैं--कि सुमित्रानंदन पंत कि
महादेवी। इनको स्वप्न में झलक मिलती है। इन्होंने जाग कर परमात्मा नहीं देखा है; नींद-नींद
में, सोए-सोए
कोई भनक पड़ गई है कान में। उसी भनक को ये गीत में बांधते हैं। फिर भी इनके गीत में
माधुर्य है। इनके जीवन में परमात्मा नहीं है। कभी किसी गुलाब के फूल में थोड़ी सी
झलक मिली है,
आहट मिली है; कभी चांद में, तारों
में आहट मिली है;
कभी किसी नदी की, झरने कलकल में आहट मिली है; कभी
सागर की उत्तुंग तरंगों में उसका रूप झलका है, लेकिन सीधा-सीधा
दर्शन नहीं हुआ है। यह सब सोए-सोए हुआ है। ये नींद-नींद में हैं। ये मूर्च्छित
हैं। मगर फिर भी इनके काव्य में अपूर्व रस है।
काव्य तो परमात्मा का ही है--सभी काव्य
परमात्मा का है,
क्योंकि सभी सौंदर्य उसका है। काव्य का अर्थ हुआ, सौंदर्य
की स्तुति। काव्य का अर्थ हुआ, सौंदर्य की प्रशंसा, सौंदर्य
का यशोगान,
सौंदर्य की महिमा का वर्णन। काव्य यानी सौंदर्यशास्त्र। और सारा
सौंदर्य उसका है! इनको कहीं-कहीं उसकी झलक मिली है; कहीं-कहीं
उसके पदचिह्न पता चले हैं। जाग कर नहीं, क्योंकि जागने के
लिए तो इन्होंने कुछ भी नहीं किया। जागने के लिए तो ये रोए नहीं, जागने
के लिए तो ये तड़पे नहीं। जागता तो केवल भक्त है।
तो दूसरे तरह का कवि है, यह
है भक्त,
संत। उसने सौंदर्य को नहीं देखा है, उसने
सुंदरतम को देखा है। उसने सिर्फ भनक नहीं देखी है, उसने
मूल को देखा है। ऐसा समझो कि कोई गीत गाता है किसी पहाड़ पर और घाटियों में उसकी
आवाज गूंजती है। कवियों ने उसकी गूंज सुनी है, संतों ने सीधे
संगीतज्ञ को देखा है। कवियों ने दूर से संगीत की उठती गूंज घाटियों में है, अनुगूंज, प्रतिध्वनि, उसको
पकड़ा है;
संतों ने सीधा-सीधा उसके दरबार में बैठ कर पकड़ा है। स्वभावतः उनकी
वाणी का बल अपूर्व है। कवि कलात्मक रूप से ज्यादा कुशल होता है, क्योंकि
काव्य उसका रुझान है। संत कलात्मक रूप से उतना कुशल नहीं होता, क्योंकि
कविता की कला उसने कभी नहीं सीखी है। तो काव्य की दृष्टि से शायद संतों के वचन
बहुत कविता न हों,
लेकिन सत्य की दृष्टि से परम काव्य हैं।
फिर एक तीसरा कवि होता है जो न तो संत है और
न कवि है;
जिसको केवल काव्य-शास्त्र का पता है; अलंकार, मात्रा, इस
सबका पता है। वह उस हिसाब से तुकबंदी कर देता है। न उसने सत्य को देखा है, न
सत्य की छाया देखी, लेकिन भाषाशास्त्र को जानता है, व्याकरण
को जानता है;
तुकबंद है, वह तुकबंदी बांध देता है।
दुनिया में सौ कवियों में नब्बे तुकबंद होते
हैं। कभी-कभी अच्छी तुकबंदी बांधते हैं। मन मोह ले, ऐसी
तुकबंदी बांधते हैं। लेकिन तुकबंदी ही है, प्राण नहीं होते
भीतर। कुछ अनुभव नहीं होता भीतर। ऊपर-ऊपर जमा दिए शब्द, मात्राएं
बिठा दीं,
संगीत और शास्त्र के नियम पालन कर लिए। सौ में नब्बे तुकबंद होते
हैं। बाकी जो दस बचे उनमें नौ कवि होते हैं, एक संत होता है।
दया उन्हीं सौ में से एक भक्तों और संतों
में है। दया के संबंध में कुछ ज्यादा पता नहीं है। भक्तों ने अपने संबंध में कुछ
खबर छोड़ी भी नहीं। परमात्मा का गीत गाने में ऐसे लीन हो गए कि अपने संबंध में खबर
छोड़ने की फुरसत न पाई। नाम भर पता है। अब नाम भी कोई खास बात है! नाम तो कोई भी
काम दे देता। एक बात जरूर पता है, गुरु के नाम का स्मरण किया है--प्रभु के गीत
गाए हैं और गुरु के नाम का स्मरण किया है। गुरु थे चरणदास। दो शिष्याएं--सहजो और
दया। सहजो पर तो हमने बात की है। चरणदास ने कहा है, जैसे
मेरी दो आंखें।
दोनों उनकी सेवा में रत रहीं, जीवन
भर। गुरु मिल जाए तो सेवा साधना है; पास होना काफी
है। कोई और साधना की हो, इसकी भी कुछ खबर नहीं है। मगर इतना पर्याप्त
है। अगर किसी को मिल गया है, तो उसके पास रहना काफी है। बगीचे से गुजर
जाओ तो तुम्हारे वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके
पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके
पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। सुगंध तैरती है, फैलती
है। तो दबाती रही होंगी इस गुरु के चरण, बनाती होंगी भोजन
गुरु के लिए,
भर लाती होंगी पानी ऐसे कुछ छोटे-मोटे काम करती रही होंगी।
दोनों के पदों में बहुत भेद भी नहीं है।
क्योंकि जब गुरु एक हो तो जो बहा है दोनों में, उसमें बहुत भेद
नहीं हो सकता है। एक ही घाट का पानी पीआ, एक ही स्वाद
पाया। दोनों बेपढ़ी-लिखी मालूम होती हैं। कभी-कभी बेपढ़ा-लिखा होना भी सौभाग्य होता
है। पढ़े-लिखे अपने पढ़े-लिखे होने के कारण झुक नहीं पाते। पढ़ा-लिखा होना अहंकार को
जन्म देता है। मैं कुछ हूं! पढ़ा-लिखा हूं, तो कैसे आसानी से
झुक जाऊं?
गैरपढ़ी-लिखी हैं और उसी गांव से आती हैं, उसी
इलाके से आती हैं जहां से मीरा आई।
अक्सर ऐसा होता है, कभी
एक क्षेत्र में एक आत्मा पैदा हो जाए, प्रभु का दर्शन
हो जाए,
तो उस क्षेत्र में चिनगारियां छूट जाती हैं। उस क्षेत्र की हवा
संक्रामक हो जाती है। एक लहर दूसरी लहर को उठा देती है। एक लहर के संग-साथ दूसरी
लहर जग जाती है,
दूसरी के साथ तीसरी लहर जग जाती है। संतत्व के भी तूफान आते हैं।
कभी-कभी तूफान आते हैं। जैसे बुद्ध और महावीर के समय में तूफान आया। सारी दुनिया
में संतत्व ने ऐसी ऊंचाई ली जैसी कि इसके पहले कभी नहीं ली थी और फिर पीछे भी नहीं
ली। लाखों लोग संतत्व की दिशा में बह गए; आंधी पर सवार हो
गए। एक व्यक्ति का संत हो जाना जैसे किसी शृंखला की शुरुआत होती है। जिसको
वैज्ञानिक "चेन रिएक्शन' कहते हैं। जैसे कि एक घर में आग लग जाए तो
पूरा मुहल्ला खतरे में हो जाता है। लपटें एक घर से दूसरे घर में छलांग लगा जाती
हैं, दूसरे
घर से तीसरे घर में छलांग लगा जाती हैं। एक "चेन' बन
जाती है,
एक शृंखला बन जाती है। अगर घर बहुत पास-पास हों तो पूरा गांव भी जल
कर राख हो सकता है।
संतत्व भी ऐसा ही घटता है। एक हृदय में
प्रभु की आग लग गई, एक हृदय प्रभु की अग्नि से दीप्त हो गया, लपटें
छलांग लगाने लगती हैं--अदृश्य लपटें--लेकिन जो भी करीब आ जाते हैं उन पर लपटें
छलांग लगा जाती हैं। तो मीरा जिस इलाके से आई उसी इलाके से दया और सहजो भी आईं। वह
इलाका धन्य है,
क्योंकि तीन स्त्री संतों को एक-साथ जन्म देने का सौभाग्य किसी और
इलाके का नहीं है।
दोनों के पद एक ही गुरु के चरणों में पैदा
हुए, दोनों
के पदों में एक ही रंग है, एक ही राग है। थोड़े-बहुत भेद हैं, वह
व्यक्तित्व के भेद हैं। भेद इतने कम हैं, इसलिए मैंने पहली
शृंखला जो सहजो पर दी, उसका नाम रखा था दया के पद के आधार पर दया
का पद है--
बिन दामिन उंजियार अति, बिन
घन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया
निहार-निहार।।
पद थे सहजो के, नाम
दिया था दया की वाणी से। इस नई शृंखला को, जिसे हम आज शुरू
कर रहे हैं,
पद हैं दया के, नाम दे रहा हूं सहजो की वाणी से--
जगत तरैया भोर की, सहजो
ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी
अंजुलि माहिं।।
...जैसे
सुबह का आखिरी तारा देर तक टिकता नहीं। जगत तरैया भोर की! बस सब तारे डूब गए, चांद
डूबा, सब
तारे डूबे,
सूरज उगने के करीब आने को है, भोर होने लगी, आखिरी
तारा टिमटिमाया-टिमटिमाया कि गया। तुम ठीक से देख भी नहीं पाते कि अभी था और अभी
नहीं हो गया। क्षण भर पहले था और क्षण भर बाद विलीन हो गया। जगत तरैया भोर की: ऐसा
है संसार,
सुबह के तारे जैसा! अभी है, अभी नहीं। इस पर
बहुत भरोसा मत कर लेना। उसे खोजो जो सदा है, जो ध्रुवतारे की
भांति है;
सुबह के भोर के तारे की तरह नहीं। जो अडिग है; शाश्वत, सनातन
है; जो
सदा था,
सदा है, सदा रहेगा--उसकी शरण गहो। क्योंकि उसकी शरण
गह कर ही तुम मृत्यु के पार जा सकोगे। अब सुबह के तारों को कोई पकड़ ले तो कितनी
देर सुख! जिसको तुम पकड़ने जा रहे हो वह पानी का बुलबुला है; पकड़
भी नहीं पाओगे कि फूट जाएगा। जगत तरैया भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
तुम लाख करो उपाय ठहराने का, ठहरेगा नहीं। और हम यही कर रहे हैं। सारा
संसार यही कर रहा है। क्या-क्या पकड़ते हैं हम? संबंध, राग, प्रेम, पति-पत्नी, बेटे-बेटी, धन-दौलत, यश, पद, प्रतिष्ठा।
जगत तरैया भोर की! इधर तुम पकड़ भी न पाओगे कि गया। तुम पकड़ने में जितना समय खो रहे
हो, उतने
समय में वह बीत ही जाएगा। ये लहरें पकड़ में आती नहीं। संसार का स्वभाव अस्थिर है, चंचल
है। यहां जो पकड़ना चाहेगा वह दुखी होगा।
हम क्यों दुखी हैं? हमारे
दुख का मूल क्या है? इतना ही दुख का मूल है कि हम उसे पकड़ते हैं
जो टिकता नहीं। और हम चाहते हैं कि टिके। हम असंभव चाहते हैं, इसलिए
दुखी हैं। पानी के बबूलों पर भरोसा करते हैं, रेत पर भवन बनाते
हैं, ताश
के पत्तों का महल खड़ा करते हैं, जरा सा हवा का झोंका आता है, सब
गिर जाता है। फिर रोते, चीखते-चिल्लाते हैं। फिर बहुत दुखी होते
हैं। फिर हम कहते हैं कि यह कैसा दुर्भाग्य! इसमें कुछ दुर्भाग्य नहीं है, सिर्फ
मूढ़ता। फिर हम कहते हैं, यह प्रभु हम पर नाराज है। कोई हम पर नाराज
नहीं है,
तुम्हारी नासमझी। अब तुम बानाओगे ताश के पत्तों का घर, गिरेगा
नहीं तो क्या होगा! आश्चर्य तो यह है कि उतनी देर टिक गया जितनी देर तुम बनाते थे, यह
काफी है। अक्सर तो बन भी नहीं पाता और गिर जाता है। तुमने बनाए होंगे बचपन में कभी
ताश के पत्तों के घर, बन भी नहीं पाते और गिर जाते हैं। और ऐसा भी
नहीं कि हवा का झोंका ही आए, बनाने वाले का हाथ ही लग जाता है, उसी
से गिर जाते हैं। अपनी ही सांस जोर से चल जाए तो गिर जाते हैं। एक पत्ता सरक जाए
तो पूरा महल सरक जाता है।
जगत तरैया भोर की, सहजो
ठहरत नाहिं।
जिसने ऐसा देख लिया और उसने ताश के पत्ते और
उनका महल बनाना बंद कर दिया और कागज की नावें तैराना बंद कर दिया और रेत पर भवन
खड़े न किए और सपनों पर भरोसा छोड़ दिया, वही उसे जान
पाएगा जो सदा है। तुम्हारी आंखें जब तक चंचल से भरी हैं, तब
तक तुम शाश्वत को न देख पाओगे। चंचल की तरंगों के कारण शाश्वत दिखाई नहीं पड़ता।
चंचल का पर्दे पर पर्दा पड़ा है और तुम्हारी सारी ऊर्जा नियोजित है इसी को पकड़ने
में, इसी
को बनाए रखने में। बनता कभी नहीं। बन-बनकर बिगड़ जाता है। जन्मों-जन्मों बार-बार
ऐसा हुआ है।
..."जैसे
मोती ओस की'।
सुबह देखा,
घास के ऊपर, वृक्षों के पत्तों पर, कमल
के पत्तों पर ओस की बूंदें सुबह सूरत की रोशनी में ऐसे चमकती हैं जैसे मोती। मोती
भी क्या चमकेंगे! मगर बस दूर-दूर रहना, पास मत जाना, छू
मत लेना। बीनने मत लगना ये मोती। अन्यथा हाथ में--पानी अंजुलि माहिं; जैसे
मोती ओस की,
पानी अंजुलि माहिं। अगर बीनने चले गए, इकट्ठा
करने लगे,
तिजोड़ी भरने लगे तो हाथ में सिर्फ पानी रह जाएगा, कोई
मोती नहीं। मोती भ्रामक है। और यह संसार ऐसा ही है जैसा कोई पानी को अपनी मुट्ठी
में भरने की कोशिश कर रहा हो। निकल-निकल जाता है, हाथ
से बह-बह जाता है।
दया के इन पदों को यही नाम दे रहे हैं--जगत
तरैया भोर की। ज्ञानियों ने बड़ी बातें कही हैं, लेकिन शायद इससे
मीठा वचन--जगत तरैया भोर की--इससे सीधा-साफ और क्या कहा जा सकता है! सब शास्त्र, लंबे-लंबे
विवेचन इस छोटी सी बात में समा गए हैं।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि सुबह के
आखिरी तारे को डूबते देख कर उन्हें निर्वाण हुआ। शायद उस क्षण उनकी भावदशा वैसी ही
रही होगी,
जैसी सहजो ने जब यह पद लिखा--जगत तरैया भोर की। आंख खोल कर बैठे
हैं बोधिवृक्ष के नीचे, आखिरी तारा डूब रहा है, डूब
रहा है,
डूब रहा है, डूब गया। इधर तारा डूबा, उधर
कुछ उनके भीतर इस तारे के साथ ही डूब गया। सब जो अब तक सोचा था मैं हूं, वह
इसी तारे के साथ समाप्त हो गया। एक क्षण में एक अग्नि प्रज्वलित हो गई, एक
दीया जल गया। बुद्ध ने कहीं कहा नहीं, लेकिन अगर सहजो
से उनका मिलना हो जाए तो वे जरूर राजी होंगे इस पद से--जगत तरैया भोर की, सहजो
ठहरत नाहिं;
जैसे मोती ओस की पानी अंजुलि माहिं, उस
सुबह के तारे को डूबते देख कर जैसे जगत का सारा स्वभाव बुद्ध के समझ में आ गया। अब
यहां पकड़ने को कुछ भी न रहा। अब यहां हाथ में लेने को कुछ भी न रहा। जिसने जगत के
चंचल स्वभाव को समझ लिया, वह जगत से मुक्त हो जाता है। और जिसने जगत
के चंचल स्वभाव को समझा, वही परमात्मा की तरफ आंखें उठा पाता है। ये
सब चीजें संयुक्त हैं।
ऐसा क्यों होता है,
ऐसा क्यों होता है
उमर बीत जाती है करते खोज
मीत मन का मिलता ही नहीं
एक परस के बिना
हृदय का कुसुम
पार कराता कितनी ऋतुएं
खिलता ही नहीं
ऊपर से हंसने वाला मन
अंदर ही अंदर रोता है
ऐसा क्यों होता है,
ऐसा क्यों होता है
कब तक यह अनहोनी
घटती ही जाएगी
कब हाथों को हाथ मिलेंगे
सुदृढ़ प्रेम में
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएंगे
कब सच्चाई का पथ
कांटों भरा न होगा
क्यों पाने की अभिलाषा में मन
हरदम ही कुछ खोता है
ऐसा क्यों होता है,
ऐसा क्यों होता है
उमर बीत जाती है करते खोज
मीत मन का मिलता ही नहीं
एक परस के बिना
हृदय का कुसुम
पार कराता कितनी ऋतुएं
खिलता ही नहीं
ऐसा क्यों होता है,
ऐसा क्यों होता है!
होने का कारण सीधा है। हम उसे रोकने की
चेष्टा में लगे हैं जिसका स्वभाव रुकना नहीं; जो जाएगा ही-- जो
जाएगा ही;
जाना ही जिसका स्वभाव है। हम उसे पकड़ने की चेष्टा में लगे हैं जो
पकड़ में आता ही नहीं; पकड़ में न आना ही जिसका स्वभाव है। जैसे कोई
पारे को पकड़ने की कोशिश कर रहा हो और पारा छितर-छितर जाए, और
तुम भागो पारे के पीछे और पारा और छितर-छितर जाए, ऐसा
ही हम संसार के पीछे पड़े हैं। लेकिन, हमने उस तरफ आंख
ही उठा कर नहीं देखी जो सदा मौजूद है। जो हमारे इन सारे खेलों के पार खड़ा है। जो
हमारे भीतर खड़ा है, जो साक्षी है। उस प्रभु को हमने निहारा
नहीं। इसीलिए तो मन का मीत भी नहीं मिला। बहुत मन के मीत माने, मिला
कहां! बहुत बार मान लिया कि मिल गया मन का मीत, फिर-फिर खो गया।
कितनी मित्रता तुमने बनाईं, कितने
प्रेम तुमने बनाए,
कितनी लगाव की गांठें बांधीं और हर बार हारे और हर बार विषाद हाथ
लगा, फिर
भी जागे नहीं। फिर भी आशा बनाए हो कि कोई और कहीं शायद मिल जाए, थोड़ा
और खोज लें,
थोड़ा और खोज लें! आशा मरती नहीं। अनुभव कहता है, यह
नहीं मिलने वाला,
लेकिन आशा अनुभव के ऊपर जीतती चली जाती है। आशा नए सपने बनाए चली
जाती है। जो व्यक्ति आशा से जागा, वही व्यक्ति संसार से जागता है और मुक्त हो
जाता है।
नहीं, यहां मन का मीत
मिलता ही नहीं और यहां वह जो मन का अंतर्कुसुम है, खिलता
ही नहीं। क्योंकि वह तो खिल सकता है केवल परम के स्पर्श से। ऋतुएं आएंगी और जाएंगी
और तुम्हारा भीतर का फूल नहीं खिलेगा, नहीं खिलेगा। वह
तो एक ही ऋतु आए तभी खिलता है, परमात्मा की ऋतु आए। वही है वसंत उसके लिए; और
सब पतझार है। तुम करो प्रतीक्षा कितनी ही, देर-अबेर लौट आना
पड़ेगा। जो समझदार है, जल्दी लौट आता है। जो नासमझ है, देर
लगाता है। जो समझदार है, थोड़े अनुभव से सीख जाता है। जो नासमझ है, वह
बार-बार वही भूलें करता है और धीरे-धीरे भूलों का आदी होता जाता है। उलटा जागे, सीखे; भूलें
करने में कुशल होता चला जाता है; उनको और-और करने लगता है; निष्णात
हो जाता है।
जागो, भूलों को दोहराओ
मत। जो करके देख चुके हो और फल हाथ न आता है, तो अब सिर मत
धुनते रहो कि ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है! होता है सीधे नियम से।
तुम दीवाल से निकलने की कोशिश करोगे, सिर टूटेगा। अब
ऐसा क्यों होता है? दरवाजे से निकलो, दरवाजा
है। ये सारे संतपुरुष उसी द्वार, उसी दरवाजे की बात कर रहे हैं।
"हरि
भजते लागे नहीं,
काल-ब्याल दुख-झाल।
ताते राम संभालिए, दया
छोड़ जगजाल।।'
यह जो जाल संसार का, इसे
खूब सम्हाला,
सम्हला तो कुछ भी नहीं! कितनी बार फेंक चुके जाल, मछली
फंसी ही नहीं। बैठे तट पर जन्मों-जन्मों के उदास, थके-हारे, फिर-फिर
बुनते वही जाल,
फिर-फिर फेंकते वही जाल, मछली फंसती ही
नहीं।
जीसस ने कहा है, एक
मछुआ मछली मार रहा है, सुबह का समय है और जीसस ने उसके कंधे पर हाथ
रखा और कहा देख मेरी तरफ, तू कब तक ये व्यर्थ की मछलियां पकड़ता रहेगा? मेरे
पीछे आ,
मैं तुझे असली मछलियां पकड़ने का राज बता दूं। उस मछुए ने जीसस की
आंखों की तरफ देखा--यह बात तो बड़ी अजीब थी, अपरिचित, अनजान
आदमी पीछे से आ कर कंधे पर हाथ रख ले--लेकिन वह मछुआ छोड़ दिया जाल वहीं, चल
पड़ा जीसस के पीछे। उसका भाई चिल्लाया कि कहां जाते हो--उसका भाई नाव पर सवार है, वह
भी मछलियां मार रहा है--कहां जाते हो? उसने कहा कि फेंक
चुके जाल,
जीवन भर हो गया, मछलियां कभी फंसीं तो भी क्या फंसा! कभी
नहीं फंसीं,
कभी फंसीं, मगर फंसा कुछ भी नहीं। ऐसे ही खाली के खाली
रहे। इस आदमी की आंख में देखता हूं, इसकी बात पर
भरोसा आता है। हर्ज कुछ भी नहीं, खोने को हमारे पास कुछ है भी नहीं। मिलेगा
सही, न
मिला तो कुछ हर्ज नहीं, जाता हूं।
सारे संत तुम्हारे कंधे पर हाथ रख कर इतना
ही कह रहे हैं कि कब तक फेंकते रहोगे यह जाल?
"तातें
राम संभालिए,
दया छोड़ जगजाल'। यह जाल बहुत बार फेंका, कभी
इसमें कुछ फंस कर भी आया, कभी फंस कर नहीं भी आया, लेकिन
अगर बहुत गौर से देखोगे तो सदा खाली आया, कुछ भी फंस कर
नहीं आया। जो फंसा वह भी तो निमूल्य है, उसका भी कोई
मूल्य नहीं है। कभी धन मिल गया थोड़ा, कभी पद मिला थोड़ा, कभी
प्रतिष्ठा मिली थोड़ी, पर मूल्य क्या है? सद
पद-प्रतिष्ठा,
सब धन पड़ा रह जाएगा। तुम उसके मालिक नहीं हो पाओगे--तुम उसके मालिक
हो भी नहीं। वह तुम से पहले भी यहां था, तुम्हारे बाद भी
यहीं होगा। पद यहीं रह जाएंगे, तुम चले जाओगे। और तुम वैसे ही खाली हाथ
जाओगे जैसे खाली हाथ आए थे।
"हरि
भजते लागे नहीं,
काल-ब्याल दुख-झाल।' दया कहती है, अगर
तुम प्रभु को स्मरण कर लो, तो जीवन के दुख, जीवन
की दुख की ज्वालाएं, सब शांत हो जाएं। फिर तुम्हें कुछ जला न
सके। अभी तो सब तुम्हें जला रहा है। अभी तो तुम जिसे जीवन कहते हो, वह
जीवन नहीं है,
चिता है। सब तरह से जल रहे हो। कभी चिंता में जलते हो, कभी
चिता में जलते हो,
मगर जल ही रहे हो। कभी चिता बहुत प्रत्यक्ष होती है, कभी
अप्रत्यक्ष होती है; कभी दृश्य, कभी
अदृश्य,
मगर तुम जल ही रहे हो। कभी तुमने जीवन में अमृत की वर्षा जानी? कभी
ऐसा क्षण जाना जब हृदय जलता न हो, जब जलन बिलकुल शांत हो? कभी
तेजी से जलता है,
कभी कम तेजी से जलता, कभी दाग छूटते, कभी
नहीं भी छूटते,
मगर तुमने कभी शांति का क्षण जाना, कभी
आनंद का क्षण जाना? कभी वह द्वार खुला? वह
कभी खुला नहीं।
"हरि
भजते लागे नहीं'।
पर वही उपलब्ध होता है उस परम शांति को, ज्वाल के पार वही
होता है,
जो प्रभु को स्मरण करता है।
प्रभु-स्मरण का क्या अर्थ?
आदमी अगर अपने को अपने पर समाप्त समझ ले, तो
दुख में ही रहेगा और समाप्त हो जाएगा। जैसे बीज मान ले कि बस बात हो गई, जो
मैं हूं यही मैं हूं, तो फिर कभी फूल न खिलेंगे। बीज को अतिक्रमण
करना पड़ता है,
अपने से पार जाना पड़ता है। मनुष्य भी जब अपने से पार जाने की
चेष्टा करता है,
तो प्रभु का स्मरण।
प्रभु के स्मरण का क्या अर्थ होता है? ऐसा
मत समझ ले,
तो दुख में ही रहेगा और समाप्त हो जाएगा। जैसे बीज मान ले कि बस
बात हो गई,
जो मैं हूं यही मैं हूं, तो फिर कभी फूल न
खिलेंगे। बीज को अतिक्रमण करना पड़ता है, अपने से पार जाना
पड़ता है। मनुष्य भी जब अपने से पार जाने की चेष्टा करता है, तो
प्रभु का स्मरण।
प्रभु के स्मरण का क्या अर्थ होता है? ऐसा
मत समझ लेना कि बैठ गए और राम-राम-राम-राम जपने लगे, या
राम चदरिया ओढ़ ली,
इतना सस्ता नहीं है मामला! प्रभु-स्मरण का अर्थ होता है, तुम
अपने से पार जाने लगे, तुम अपने से ऊपर आंख उठा कर देखने लगे; बीज
तलाशने लगा फूल को--वह अभी है नहीं फूल, हो सकता है, बीज
तलाशने लगा फूल को--दीए की ज्योति उठने लगी आकाश की तरफ, सूरज
की तरफ,
यात्रा शुरू हुई; अंकुर फूटा, पौधा
उठा, चला
आकाश की यात्रा पर। तुम जब तक अपने को सोचते हो कि मैं जैसा हूं, जो
हूं, मनुष्य
हूं, बस
समाप्त हो गया,
खतम हो गया, तो तुम्हारे भीतर कोई द्वार नहीं जो तुमसे
पार खुलता हो। तुम बिना द्वार के हो। बिना द्वार का आदमी दुखी है। अपने में बंद, कारागृह
में बंद।
ईश्वर को मानने का यह अर्थ नहीं होता है कि
कोई ईश्वर बैठा है आकाश में जो दुनिया को चला रहा है। इन बचकानी बातों में मत
पड़ना। ईश्वर को मानने का इतना ही अर्थ होता है--ठीक से समझोगे तो इतना ही अर्थ
होता है कि मैं अपने पर समाप्त नहीं हूं, मुझसे ज्यादा
संभव है। इसे मैं दोहरा दूं--मुझसे ज्यादा संभव है। यह मेरी परिधि मेरे अस्तित्व
की अंतिम परिधि नहीं है। मैं बड़ा हो सकता हूं। मैं विराट हो सकता हूं। मैं फैल
सकता हूं,
इस बात का स्मरण आ जाना ही हरिस्मरण है।
हरि-स्मरण तो प्रतीक मात्र है। जब तक आदमी
बैठ कर मगन हो कर प्रभु का नाम-स्मरण करता है तो वह क्या कह रहा है? वह
यह कह रहा है कि मैं पुकारता हूं मेरे भविष्य, मैं पुकारता हूं
मेरी संभावना;
जो मैं हूं अभी तो बीज हूं, लेकिन मैं फूल को
याद करता हूं कि मेरी संभावना; जो मैं हूं अभी तो बीज हूं, लेकिन
मैं फूल को याद करता हूं कि तेरी याद मेरे भीतर यात्रा बन जाए; मैं
चलता हूं;
अब मैं बैठूंगा नहीं, उठूंगा; अब
मैं यात्रा करूंगा, मुझ तलाश करनी है, मंजिल
खोजनी है,
बैठे-बैठे क्या होगा? जो आध्यात्मिक
रूप से असंतुष्ट हो जाए, वही व्यक्ति धार्मिक है। सांसारिक रूप से
संतुष्ट हो जाना धार्मिक आदमी का लक्षण है और आध्यात्मिक रूप से असंतुष्ट हो जाना।
हालत अभी उलटी है। अभी तुम सांसारिक रूप से बहुत असंतुष्ट हो। धन है, इतने
से काम नहीं चलता। मकान है, छोटा है। कार है, पुरानी
है, कबाड़ी
की दुकान से खरीदी है, नई चाहिए, ढंग
की चाहिए। तिजोड़ी है, मगर बहुत छोटी है। पद है, मगर
कुछ तृप्ति नहीं होती, कुछ और बड़ा चाहिए। अभी संसार से तुम
असंतुष्ट हो। और बड़ा मजा है, अपने से बिलकुल संतुष्ट हो। भीतर कुछ नहीं
करना है। बाहर है असंतोष--तिजोड़ी बड़ी करनी है, कार नई लानी, मकान
बड़ा करना,
धन थोड़ा बढ़ा लेना, पत्नी और अच्छी खोज लें, कि
पति और अच्छा,
कुछ ऐसे काम में उलझे हो। फैला तुम भी रहे हो, संसार
फैला रहे हो,
अपने को नहीं फैला रहे।
सांसारिक और आध्यात्मिक में इतना ही फर्क
है। तुम संसार को फैलाते हो, आध्यात्मिक अपने को फैलाता है। तुम्हारा
अपने से बिलकुल संतोष है। तुम जैसे हो बिलकुल राजी हो, उसमें
तुम्हें चिंता ही नहीं है बिलकुल कि इससे भी भिन्न तुम हो सकते हो, कि
तुम्हारे भीतर भी बुद्ध का अवतरण हो सकता है, कि तुम्हारे भीतर भी महावीर का जन्म हो सकता है, कि
तुम्हारे भीतर जीसस पैदा हो सकते हैं। नहीं, इसकी तुम्हें
चिंता नहीं है। तुम क्षुद्र के साथ बड़े असंतुष्ट हो, विराट
के साथ बिलकुल असंतुष्ट नहीं।
खयाल रखना, यही
असंतोष जो वस्तुओं में लगा है, अंतर की तरह चल पड़े और जो संतोष भीतर लगा
रहे, बाहर
की तरफ आ जाए,
बस तुम धार्मिक व्यक्ति हो गए। इतना छोटा सा फर्क करना है। बाहर की
तरफ हो जाए संतोष,
मकान छोटा तो छोटा भी चल जाएगा। चार दिन की जिंदगी है, छोटे
मकान में रहे कि बड़े मकान में रहे, कुछ बहुत फर्क
नहीं पड़ेगा। चार दिन की जिंदगी है, काम चला लो। बाहर
तो थोड़े ही देर की बात है, जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर बैठा है
विश्रामालय में,
"वेटिंग रूम' में, ऐसी
बाहर की जिंदगी है। अब तुम "वेटिंग रूम' को थोड़े ही बदलने
लग जाते हो कि पेंटिंग कर दो, कि जरा सफाई कर दो, कि
चित्र लटका दो,
कि सजा दो कि तीन घंटे बैठना है! तुम कहते हो, "वेटिंग
रूम' है, मतलब
क्या है! अपने बैठे हैं शांति से, अपना अखबार पढ़ते रहते हैं। गाड़ी आएगी, चले
जाएंगे।
बाहर की जिंदगी तो रात भर की सराय है, सुबह
हुई, चलना
पड़ेगा। इसके साथ बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। इसके साथ संतुष्ट हो जाना
धार्मिक आदमी का लक्षण है। हां, अगर असंतुष्ट होना है तो भीतर की यात्रा बड़ी
है। वह लंबी यात्रा है। वह शाश्वत यात्रा है, वहां सत्य का
अन्वेषण करना है,
वहां असंतोष को लगा दो--सारी असंतोष की अग्नि भीतर ले आओ और सारा
संतोष बाहर आरोपित कर दो, बस इतना ही तुम कर दो कि तुम संन्यासी हुए, धार्मिक
हुए, आध्यात्मिक
हुए।
"हरि
भजते लागे नहीं,
काल-ब्याल दुख-झाल।' और जिसने प्रभु
को स्मरण किया--प्रभु के स्मरण का अर्थ हुआ, जो प्रभु बनने की
तरफ चला। पहले तो स्मरण ही करना होगा न! जो तुम्हें बनना है उसका पहले स्मरण करना
होगा। तुमने कभी विचार के इस विज्ञान को समझा? तुम्हें एक मकान
बनाना है,
तो पहले तो विचार पैदा होता है--एक मकान बनाना है। योजना बनती, कल्पना
के जाल फैलते,
शायद तुम कागज ले कर एक रेखाचित्र भी बनाते हो कि ऐसा मकान बनाना
है; फिर
शायद तुम "आर्किटेक्ट' के पास जाते हो कि और भी व्यवस्थित ढंग से
योजना कर ली जाए। मकान कभी बनेगा, पहले विचार में बनता है, पहले
स्मरण में बनता है। जो भी तुम दुनिया में देखते हो होता हुआ, पहले
विचार में हुआ है फिर दुनिया में होता है। पहले विचार में घटता है, फिर
सत्य में घटता है। हरि-स्मरण का अर्थ है, तुमने यात्रा
भीतर की शुरू की। अब तुम कहते हो, प्रभुमय होना है, उसमें
डुबकी लेनी है;
देख लिया संसार--जगत तरैया भोर की--अब उस तरफ चलना है, अब
तुम चिट्ठी लिखने लगे; दूर है मंजिल अभी, मगर
संदेशे भजने लगे।
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई,
बरखा गई
मिलन-ऋतु बीती
घोर घटा घहरी मनचीती
पर गागर रीती की रीती
अधरों बूंद न आई
प्यास से प्यास बुझाई
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई,
रोज उड़ाए काग सबेरे
रोज पुराए चौक घनेरे
कभी अंधरे, कभी
उजेरे
पथ-पथ धूल रमाई
हुई सब लोक हंसाई
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई।
प्रभु-स्मरण का अर्थ है, लिखने
लगे पाती। दूर है परमात्मा, अभी तो दूर से भी उसका रथ दिखाई नहीं पड़ता, उसके
आते रथ से उठते हुए मार्गों पर धूल भी नहीं दिखाई पड़ती, अभी
तो स्वप्न है परमात्मा, अभी तो सिर्फ एक विचार है, एक
तरंग है--तरंग इस बात की कि जितना मैं हूं इतना होना काफी नहीं, कि
जो मैं हूं ऐसे होने में शांति नहीं, आनंद नहीं, कि
जहां मैं हूं वहां अभी विश्राम करने की जगह नहीं, अभी
यात्रा करनी है। तुम अपने से राजी हो? सच में राजी हो? क्या
तुम न चाहोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ घटे--कोई दीया जले, कोई
राग बजे,
कोई फूल खिले, कोई सुगंध बिखरे? अगर
तुम्हारे भीतर यह फूल की, यह सुगंध की, यह
दीप की आकांक्षा जगे, अभीप्सा जगे, तो
तुमने चिट्ठी लिखनी शुरू की, तुमने पत्र लिखना शुरू किया। तो तुम्हें सुध
आई।
"हरि
भजते लागे नहीं'...।
हरि की सुध आई। तुम्हें याद आया वह घर जहां से तुम आए, जहां
से तुम भेजे गए। यह तो परदेश है। यहां तो तुम आए हो, जन्म
के पहले तुम यहां न थे और मौत के बाद फिर तुम यहां न रह जाओगे। जब तुम्हें सुध आने
लगे अपने घर की कि कहां से मैं आया हूं, कौन है मेरा
मूलस्रोत,
क्या है मेरा उद्गम, जन्म के पहले मैं
कहां था,
किस विराट क्षीरसागर में सोया था, मौत
के बाद मैं फिर कहां होऊंगा, किस सागर में मेरी सरिता गिरेगी, जहां
मैं जन्म के पहले था और जहां मैं मौत के बाद पुनः पहुंच जाऊंगा वह कौन है, उसकी
सुध आने लगी,
रूपांतरण शुरू हुआ। तुम्हारी आंखें भीतर की तरफ चलने लगीं।
तुम्हारी पलकें बाहर की तरफ झुकने लगीं और आंख भीतर की तरफ मुड़ने लगी।
अब भी तुम बाहर रहोगे, बस
ऐसे ही जैसे कोई परदेश में रहता है जिसे अपने घर की याद आ गई। रहता है, काम
भी चलाता है,
दुकान भी जाता है, बाजार में भी उठता है, दफ्तर
भी जाता है,
सब करता भी है--पति है, पत्नी हैं, बच्चे
हैं, सबकी
देख-रेख भी रखना है, सब ठीक है, लेकिन
अब एक भीतर की याद, एक अदम्य याद उठने लगी, कोई
खींचने लगा। तुम्हारा असली प्राण भीतर जाने लगा। बाहर नाम मात्र को। भीतर जीवन की
अधिकतम धाराएं संगृहीत होने लगीं। ऊर्जा संगठित होने लगी। और खयाल रखना, कहां
से हम आते हैं,
वहीं हम जाते हैं। नदी सागर से ही आती है--उठती है आकाश में, बादल
बनती, मेघ
बनती, बरसती
हिमालय पर,
नदी बनती, दौड़ती सागर की तरफ। उद्गम ही अंत है। वहीं
जाते हैं जहां से आते हैं। जहां जन्म के पूर्व थे, वहीं
मृत्यु के बाद हैं। उस मूल उद्गम में शाश्वत है। वहीं विश्राम है। यहां तो दौड़धाप
है, आपाधापी
है।
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई,
बरखा गई मिलन-ऋतु बीती
घोर घटा घहरी मनचीती
पर गागर रीती की रीती
अधरों बूंद न आई
प्यास से प्यास बुझाई
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई।
ऐसी ही हालत है। अभी तुम प्यास से प्यास
बुझा रहे हो। जल की तो एक बूंद भी नहीं है। मन समझा रहे। कितना ही समझाओ, समझ
नहीं पाता। प्यास से कहीं प्यास बुझी है! एक तुमने मजा देखा, एक
वासना तृप्त नहीं हो पाती कि तुम जल्दी दूसरी वासना पैदा कर लेते हो। क्यों? क्योंकि
अगर एक वासना तृप्त न हो पाई और विषाद आया, तो मन को कहीं
उलझाना पड़ता है। नहीं उलझे तो क्या करोगे? जल्दी दूसरी
वासना पैदा कर लेते हो। "प्यास से प्यास बुझाई।' एक
वासना दुख दे रही थी, दूसरी वासना ले आए। तुमने कभी देखा, एक
दुख हो और बड़ा दुख आ जाए तो छोटा दुख भूल जाता है। जैसे समझो कि तुम्हारे सिर में
दर्द है और तुम डाक्टर के पास गए और तुमने कहा बड़ा सिर में दर्द है, सिर
फटा जाता है,
उसने कहा ठहरो, सिर वगैरह तो ठीक, पहले
जरा हृदय तो देख लूं। और उसने तुम्हारे हृदय की धकधक सुनी और कहा, कहां
की बातों में पड़े हो, "हार्ट अटैक' की
संभावना है! तत्क्षण तुम्हारा सिरदर्द बिलकुल ठीक हो जाएगा। तुम भूल ही जाओगे कि
सिर भी है,
सिरदर्द की तो बात ही छोड़ो!
क्या हुआ?
बड़ा दुख छोटे दुख को दबा लेता है। बड़ी चिंता
छोटी चिंता को दबा लेती है। बड़ा विषाद छोटे विषाद को दबा लेता है। यही तुम्हारी
तरकीब है। एक दुख है, उसको भुलाने के लिए तुम करोगे क्या? बड़ा
दुख पैदा कर लेते हो। छोटी झंझट थी, बड़ी झंझट घर ले
आए, छोटी
झंझट भूल गई;
अब बड़ी में उलझ गए। कुछ देर बड़ी में उलझे रहोगे, फिर
उसमें भी ऊबने लगोगे तो और बड़ी झंझट ले ली। आदमी ऐसी झंझटें फैलाता जाता है। इसी
को दया कह रही है--जगजाल।
"प्यास
से प्यास बुझाई'।
प्यास से कहीं प्यास बुझी! पागल हुए हो? एक बूंद तक
तुम्हारे ओंठों पर नहीं पड़ी है और ऋतु भी बीती जाती, यह
जीवन का अवसर भी खोया जाता। "हरि भजते लागे नहीं, काल-ब्याल
दुखझाल;
ताते राम सम्हालिए, दया छोड़ जगजाल।' इसलिए
बदलो अपने असंतोष की धारा को--ताते राम सम्हालिए। इसलिए अब थोड़ी प्रभु की सुधि लो।
उसे सम्हालो जिसके सम्हालने से सब सम्हल जाएगा। जरा उसकी याद से भरो जो तुम्हारा
मूल उद्गम है। जो तुम्हारा मूल स्वभाव है उसका स्मरण, उसकी
प्यास,
उसकी त्वरा तुममें जगे--अभीप्सा--ताते राम सम्हालिए।
तो खयाल रखना, भक्तों
के वचन से तुम इतना ही मत समझ लेना कि राम-राम-राम-राम जपने लगे तो हो गया।
राम-राम जपने में सार्थकता है। अगर प्रक्रिया न हो तो व्यर्थ है। ऐसा ही समझो कि
तुमने बटन दबाई,
बिजली जल गई। लेकिन तुम यह मत समझना कि बस तुम एक बटन खरीद लाए
बजार से और चिपका दी दीवाल में और दबाई और बिजली जल गई! बिजली का लंबा जाल है। ऐसे
बटन से काम न चलेगा।
एक बहुत अदभुत आदमी हुआ है--टी.ई. लारेंस।
वह अरब में रहा और अरबी मुसलमानों की सेवा की उसने। था तो अंग्रेज, बड़े
हिम्मत का आदमी था, मगर अरबों के प्रेम में पड़ गया था। और सारी
जिंदगी वहीं बिताई। फ्रांस में एक बड़ी प्रदर्शनी हो रही थी, विश्व-प्रदर्शनी।
तो वह दस-बारह अरब मित्रों को ले कर फ्रांस गया, उन्हें
दिखाने कि जरा दुनिया तो देखो! कहां तुम रह रहे हो, क्या
तुम कर रहे,
अरब में मरुस्थल में पड़े हो, दुनिया देखो! तो
उनको दिखाने वह ले गया प्रदर्शनी। मगर बड़ा हैरान हुआ, उनकी
प्रदर्शनी में कोई उत्सुकता ही न थी। वे तो जैसे ही "बाथरूम' में
घुस जाएं तो निकलें ही न! उनका एकमात्र रस--"बाथरूम'! उसने
कई दफे कहा भी कि तुम करते क्या हो, इतनी देर? घंटों!
पानी के प्यासे लोग। स्नान के नाम पर तो कभी कुछ किया नहीं था। यहां बैठते
"शावर'
के नीचे कि लेटते "टब' में, उनको
किसी चीज में रस नहीं। उनको प्रदर्शनी दिखाने ले जाए, वे
जल्दी कहें,
वापस चलो। जब चलने का, विदा का दिन आया
और सब सामान रखा गया गाड़ियों में तो लारेंस ने देखा कि वह दस-बारह अरब नदारद हो
गए। वह कहां हैं,
उसको कुछ पता न चला। वह बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि
ये तो हवाई जहाज चूक जाएंगे। तब उसे खयाल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं वे फिर
"बाथरूम'
में पहुंच गए हों। तो वह ऊपर गया--वे दस-बारह ही अंदर घुसे थे। कोई
"शावर'
खोल रहा था, कोई नल की टोंटी खोल रहा था, खुल
नहीं रही थीं! उनसे पूछा, तुम यह क्या कर रहे हो? उन्होंने
कहा कि हमने सोचा इनको तो कम से कम लेते चलें, मजा आ जाएगा! ये
नल की टोंटी अगर अरब में रही, बस घर में लगा लेंगे!
उनको कुछ पता नहीं है कि नल की टोंटी जो
दिखाई पड़ रही है,
यह तो सिर्फ दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है, इसके
पीछे बड़ा जाल है,
बड़ी पाइप लाइनें फैली हैं और दूर जलस्रोत से संबंध जुड़ा है, यह
टोंटी तो सिर्फ आखिरी अंत है। ऐसा ही राम-राम है। राम-राम तो टोंटी है। तुम यह मत
सोचना कि बैठ गए,
राम-राम-राम-राम जप रहे--बस टोंटी रखे हैं और नहा रहे हैं! ऐसे
नहीं चलेगा। इसके पीछे एक पूरी की पूरी पृष्ठभूमि है चित्त की, चैतन्य
की; एक
लंबा आयोजन है।
उस आयोजन की पहली बात है कि तुम अपने से
तृप्त नहीं। दूसरी बात है, संसार से तुम तृप्त। जैसा है, ठीक।
ऐसा तो ऐसा,
वैसा तो वैसा। और अब तुम जितने हो भीतर, उतने
से राजी नहीं हो। तुम्हारी सारी आकांक्षाएं, सारी वासनाएं, सारी
अभीप्साएं एक धारा में प्रवाहित होने लगीं, और वह धारा है
अंतर्तम की। इसे विराट तक ले जाना है। असीम को खोजना है। क्योंकि सीमा तो आज नहीं
कल मौत आ कर नष्ट कर देगी। शरीर तो टूट जाएगा। तुमने दूसरों की अर्थियां उठते देखी
हैं, एक
दिन तुम्हारी अर्थी भी उठ जाएगी। तुमने दूसरों की चिताओं को देखा है, एक
दिन तुम भी चिता पर जलोगे। यह जो सीमा है शरीर की, यह
तो जाएगी। इसके पहले कि सीमा से तुम टूट जाओ, असीम को पहचान
लो। नहीं तो ऋतु ऐसे ही बीत गई। अवसर आया और गया और तुम पहचान ही न पाए, और
मन का मीत मिला ही नहीं और हृदय का कमल खिला ही नहीं।
असीम को पहचानना है। उस असीम की पहचान की जो
पुकार है,
वही हरिनाम है। अनाम को पहचानना है। अभी तो तुमने समझा है कि अपना
यह नाम,
तो यही हम हैं। नाम से क्या लेना-देना! नाम तो कोई भी दिया जा सकता
है। नाम तो सब उधार है। आए तो तुम बिना नाम के थे, जाओगे
बिना नाम के। तो इसके पहले कि जाने का क्षण आ जाए, अनाम
को पहचानना है। उस अनाम को ही हमने हरि नाम दिया है। कुछ तो पुकारेंगे न अनाम को!
कुछ नाम तो देना ही पड़ेगा, नहीं तो पुकारेंगे कैसे! तो हरि।
हरि शब्द बड़ा प्यारा है। उसका अर्थ होता है, चोर।
जो हर ले,
जो चुरा ले। जो तुम्हारे हृदय को चुरा ले जाए। हिंदुओं जैसे अदभुत
लोग दुनिया में नहीं हैं। दुनिया में बहुत भगवान के नाम लोगों ने दिए हैं, लेकिन
हरि! बस हिंदुओं की कला है। बात भी ठीक है, प्रेम एक तरह की
चोरी ही तो है। तुम्हारे हृदय को बिलकुल चुरा ही तो लेगा। एक दिन तुम पाओगे कि तुम
तो रह गए,
हृदय गया। जहां हृदय हुआ करता था, हरि
वहां विराजे हैं! सब पर कब्जा करके बैठ गए, सब हर लिया। हरण
कर लिया तो हरि। कुछ भी न छोड़ेंगे। तुम्हारा सब आत्मलीन कर लेंगे। रत्ती-रत्ती पी
जाएंगे,
कुछ भी न छोड़ेंगे।
एक सूफी फकीर के घर में रात चोर घुसे। तो
सूफी फकीर पड़ा था अपने कंबल पर--एक ही कंबल था--वह देखता रहा कि बेचारे बड़ी मेहनत
कर रहे हैं और पाएंगे क्या? काफी मेहनत कर ली उन्होंने, कुछ
थोड़ा-बहुत जो कुछ टूटे-फूटे बर्तन कुछ इत्यादि थे, वे
उन्होंने इकट्ठे कर लिए। बांध कर जो कुछ मिला वे चलने लगे तो फकीर भी उनके साथ हो
लिया। वे बोले,
आप कैसे चल रहे हैं, आप कहां जा रहे
हैं? अब
वे थोड़े डरे भी कि यह आदमी क्यों साथ चल पड़ा। उसने कहा, भई, अब
तुम सभी ले चले तो हमने सोचा हम भी चलें। अब हमको कहां छोड़े जा रहे हो? अरे, जैसे
यहां पड़े थे वहां पड़े रहेंगे, तुम्हारा कुछ हर्जा तो नहीं है। उन्होंने
तत्क्षण उसका सामान रख दिया कि बाबा, तुम अपना सामान
ले जाओ;
सामान में कुछ है ही नहीं और उपद्रव तुम्हारा कौन सिर पर लेगा!
जब हरि तुम्हें चुरा कर ले जाता है तो कुछ
भी नहीं छोड़ता,
तुम्हें भी ले जाता है। और तुम्हारे पास और है भी क्या जो चुराया
जा सके। तो जब हरि तुम्हारा हृदय ले जाने लगे तो इस सूफी फकीर की याद रखना, साथ
हो लेना कि बाबा,
हमको भी ले चलो! तुम सामान तो ले चले बाकी, विचार
ले चले,
भाव ले चले, यह सब ठीक है, अब
हमको भी ले चलो। अब हम यहां क्या करेंगे? मगर हरि ले ही
जाता है पूरा का पूरा। जब वह चुराता है तो पूरा ही चुराता है। वह कुछ छोड़ता ही
नहीं।
"हरि
भजते लागे नहीं काल ब्याल दुख-झाल,
तातें राम सम्हालिए दया छोड़ जगजाल।'
"जे
जन हरि सुमिरन विमुख, तासूं मुखहू न बोल।' दया
कहती है,
उनको न समझाऊंगी जो अभी हरि की तरफ विमुख हैं। उनको समझाने से क्या
सार! वे तो समझेंगे भी नहीं। वे तो उलटा ही समझेंगे। "जे जन हरि सुमिरन विमुख, तासूं
मुखहूं न बोल।'
और वह कहती है, तुम भी उनके साथ सिर मत पचाना। विमुख हैं, विमुख
रहें। उनको हरि नहीं समझा पा रहा है तो तुम क्या समझाओगे! वे भगवान को झुठला रहे
हैं तो तुमको तो झुठला ही देंगे! उनने तो जिद्द बांध रखी है। उनकी वे समझें।
"जे
जन हरि सुमिरन विमुख'...। मेरा भी अनुभव यही है। जो लोग
प्रभु के सन्मुख हैं, वे ही केवल समझ सकते हैं। क्योंकि यह समझ
कुछ ऐसी नहीं है कि जबर्दस्ती हो सके। यह तो तुम्हारे भीतर आकांक्षा हो तो ही समझ
होती है। तुम मुझे सुनते हो, अगर सहानुभूति से सुन रहे हो, गहन
लगाव और प्रेम से,
भक्ति से, तो जो मैं कह रहा हूं वह अमृत जैसा तुम्हारे
भीतर बरसेगा। अगर तुम विरोध से सुन रहे हो, बंद सुन रहे हो, विवाद
से सुन रहे हो,
तो जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हें कांटे जैसा चुभेगा।
संतों के वचन कांटों जैसे चुभेंगे उनको, जो
अभी संसार में उलझे हैं। वे कहेंगे, यह भी क्या बात!
जगत तरैया भोर की! हम अभी "इलेक्शन' में खड़े हुए हैं
और यह जगत तरैया भोर की! हमारे मतदाताओं को मत समझा देना कि जगत तरैया भोर की!
पहले दिल्ली तो पहुंच जाने दो! फिर जो कहना हो, कहना। पहले हम
अपनी मंजिल तो पूरी कर लें। तो जिसको अभी संसार में रस है, उसे
तो ये शब्द बड़े जहरीले मालूम पड़ेंगे। जो अभी संसार के पीछे पागल है, उसे
राम का शब्द ही कड़वा मालूम पड़ता है। कान में जहर घोलता है। अब तुम खयाल रखना, तुम
पर निर्भर है। अगर तुम जहर से भरे हो, तो राम जैसा
प्यारा शब्द भी भीतर जहर ही घोलता है। तुम्हारा पात्र अगर पहले से ही जहर भरा है, तो
इसमें अमृत डाला नहीं जा सकता।
"जे
जन हरि सुमिरन विमुख'--जिन्होंने अभी प्रभु की याद नहीं की
है और जिनके जीवन में अभी कोई उसकी सुधि नहीं आई है और जिन्हें समझ में भी नहीं
आया है कि कुछ जैसा प्रभु है, या प्रभु की तलाश भी करनी है, जो
अभी संसार में मदमस्त हैं, उनसे कहना मत। वे नींद में सो रहे हैं, उनका
सपना मत तोड़ना,
वे नाराज हो जाएंगे।
"रामरूप
में जे पडयो,
तासों अंतर खोल।' कहती है दया, जो
राम-रूप में पड़ गया है, जो डुबकी लेने लगा, जिसने
अपने हृदय का द्वार उसकी तरफ खोला है--"रामरूप में जो पडयो तासों अंतर खोल'--उससे
ही कहना। ये बातें बड़ी भीतर की हैं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे
कहते हैं,
यहां हर एक को आने की सुविधा क्यों नहीं है? यहां
उनको आने की सुविधा है, जिनके मन में निश्चित ही खोज जग गई है। हर
एक को आने की सुविधा होनी भी क्यों चाहिए! यह कोई तमाशा नहीं है। कुतूहलवश यहां
आने का कोई प्रयोजन होना भी नहीं चाहिए। यहां कोई व्याख्यान थोड़े ही हो रहा है, यहां
अंतर खोला जा रहा है। यहां उन्हीं के लिए आने की सुविधा है जो अपना अंतर खोलने के
लिए तत्पर हैं,
तैयार हैं। हृदय से हृदय मिल सके तो ही यहां आने का उपयोग है, अन्यथा
व्यर्थ तुम्हारा समय गया, व्यर्थ मेरी मेहनत गई। और तुम उलटे मुझसे
नाराज ही हो कर जाओगे। तुम कहोगे, यह भी क्या बात कही! कुछ ऐसी समझाते, कुछ
मतलब की बात समझाते।
तुम तो जाते ही हो संतों के पास तो अपने ही
मतलब से जाते हो। मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, आशीर्वाद
दे दें। "कम से कम इतना तो बता दो कि आशीर्वाद किसलिए मांग रहे हो?' वे
कहते हैं,
अब आप तो सब जानते ही हैं। "फिर भी तुम मुझे ठीक-ठीक बता दो, क्योंकि
पीछे मैं फंसू!'
क्योंकि आशीर्वाद अगर लग जाए तो हम भी जिम्मेवार हुए। वे कहते हैं
कि अदालत में मुकदमा है, बहुत दिन हो गए, वह
अब तो निपटवा दें। अदालत में मुकदमा है, उसके लिए तुम
मेरे पास आए हो! और तुम्हारे संत यह काम करते हैं--जिनको तुम संत कहते हो। अदालत
में मुकदमा हो तो आशीर्वाद देते हैं, चुनाव जीतना हो
तो आशीर्वाद देते हैं, बीमारी हो तो ताबीज देते हैं।
जान लेना कि जो तुम्हारे संसार में किसी तरह
का सहयोग दे रहा हो, वह संत नहीं हो सकता। वह तुम्हारी दुकानदार
की दुनिया का ही हिस्सा है। वह धर्म का दुकानदार है। वह भी व्यवसायी है तुम जैसा
ही। वह तुमसे ज्यादा कुशल व्यवसायी है। तुम दृश्य माल बेचते हो, वह
अदृश्य माल बेचता है। इसलिए अदृश्य माल को तुम पकड़ भी नहीं सकते। सावधान रहना
उससे।
संत तो तुम्हें चौंकाएगा। संत तो तुम्हें
चोट मारेगा। संत के साथ तो तुम तिलमिलाओगे। संत के साथ तो तुम कई बार नाराज हो
जाओगे। संत के साथ से तुम कई बार भाग जाना चाहोगे। संत से तो तुम्हें भय भी होगा।
संत के पास आने में तुम हजार बार सोचोगे। क्योंकि संत के पास जाने का अर्थ है, बदलाहट, रूपांतरण।
"रामरूप
में जो पडयो तासों अंतर खोल'। उसके ही सामने हृदय खोला जा सकता है, ये
हृदय की बातें उससे ही कही जा सकती हैं, जो राम-रूप में
पड़ गया हो,
जो राम के प्रेम में पड़ गया हो--"रामरूप में जो पडयो'।
जिसको राम की मूरत में रस आ गया, जो प्रेमी हो गया, जिसमें
दीवानगी जग गई भीतर की। "रामरूप में जो पडयो'--जिसको
परमात्मा के सौंदर्य की थोड़ी-थोड़ी सुध आने लगी--राम-रूप; जिसके
भीतर जगने लगी कोई अभिनव प्यास; जो कहता है ठीक है, यहां
जो है ठीक है,
लेकिन इससे तृप्त होने का कोई कारण नहीं, अगर
यही सब कुछ है तो जीने में कोई सार नहीं। उठे सुबह रोज, गए
दफ्तर,
आए सांझ, खाए-पीए, सोए, फिर
सुबह उठे,
फिर गए दफ्तर, अगर यही सब कुछ है तो जीवन अर्थहीन है। कुछ
ज्यादा चाहिए। कुछ परम अर्थ चाहिए। कोई और देदीप्यमान लोक चाहिए। कोई चैतन्य का
नया विस्तार चाहिए, कोई नया आकाश चाहिए।
अगर यही सब कुछ है, यही
जमीन पर सरकना,
रोज सुबह-शाम, यही कीड़े-मकोड़े की जिंदगी अगर सब कुछ है, तो
जीना व्यर्थ है। जिसे ऐसा समझ में आ गया--तासों अंतर खोल--उससे कह देना हृदय की
बात, खोल
देना हृदय की गांठ। रख देना अपना हीरा उसके सामने। संत वही करते हैं, प्रवचन
थोड़े ही। जो हीरा उन्होंने पाया है, तुम्हारे सामने
खोल कर रखते हैं। मगर तुम्हारी आंख तभी उस हीरे को देख पाएगी जब तुम्हें संसार में
हीरा नहीं है,
ऐसा दिखाई पड़ा हो। मिट्टी ही मिट्टी है। अगर तुम्हें अभी
कंकड़-पत्थरों में हीरा दिखाई पड़ रहा है तो बेहतर है कि हीरा तुम्हारे सामने न खोला
जाए। तुम उसे भी एक कंकड़-पत्थर समझोगे।
हीरे की पहचान, परख
आ गई हो,
पारखी तुम हो गए हो--रामरूप में जो पडयो तासों अंतर खोल। जिसके
जीवन में प्रभु की प्रतीक्षा पैदा हो गई, उससे कहना हृदय
की बात। उससे मन खोल देना। उसके सामने उघाड़ देना सब। उसके लिए अपना सारा खजाना बता
देना। उसे बुला लेना अपने भीतर के अंतरतम में, उसे अपने मंदिर
में बुला लेना। कहना कि आओ भीतर, बनो अतिथि, जो
मेरे भीतर हुआ है उसे देखो, परखो, पहचानो, स्वाद
लो, चखो, यही
तुम्हारे भीतर भी हो सकता है।
एक गाछ कचनार
प्रतीक्षा और
प्रिया,
बस एक गाछ कचनार।
द्वार खुले रखना
आएंगे लिए गंध के केतु
रंगों के बादल
मुस्कानों के चिरजीवी सेतु
एक प्रात सुकमार
प्रतीक्षा और
प्रिया,
बस एक प्रात सुकमार।
देखे रहना ज्योति
दीए को जीवित रखना रे
रात रजनीगंधा सी सहना
चुप-चुप रहना रे
एक दृष्टि रतनार
प्रतीक्षा और
प्रिया,
बस एक दृष्टि रतनार।
प्रिया,
बस एक गाछ कचनार
प्रतीक्षा और।
द्वार खुले रखना--देखे रहना ज्योति, दीए
को जीवित रखना रे! संत तुम्हें अपने हृदय में बुलाता है और कहता है कि तुम जरा देख
लो जो मेरे भीतर हुआ। फिर बस तुम्हारे लिए अब प्रतीक्षा हुई। अब जरा सी प्रतीक्षा
करनी है तुम्हें और जो मेरे भीतर हुआ, तुम्हारे भीतर हो
सकता है,
क्योंकि जैसे तुम हड्डी-मांस-मज्जा के पुतले, वैसा
मैं; जैसे
तुम सीमाओं से लदे, वैसा मैं; जैसे
तुम अंधेरे में भटकते, वैसा मैं। मेरे भीतर घट गया दीया, तुम
भी मालिक हो इसके। जहां तुम कल खड़े थे, मैं भी वहीं था; जहां
मैं आज खड़ा हूं,
कल तुम भी वहां खड़े हो सकते हो, बस एक थोड़ी सी
प्रतीक्षा और।
द्वार खुले रखना
आएंगे लिए गंध के केतु
रंगों के बादल
मुस्कानों के चिरजीवी सेतु
एक प्रात सुकमार
प्रतीक्षा और,
देखे रखना ज्योति
दीए को जीवित रखना रे
रात रजनीगंधा सी सहना
चुप-चुप रहना रे
एक दृष्टि रतनार
प्रतीक्षा और।
संत से मिलने के बाद प्रतीक्षा करना सुगम हो
जाता है। बहुत सुगम हो जाता है। प्रतीक्षा में कोई पीड़ा नहीं रह जाती। प्रतीक्षा
रसपूर्ण हो जाती है। क्योंकि अब भरोसा आता है, श्रद्धा आती है।
मुझसे लोग पूछते हैं, संत की परिभाषा क्या? मैं
कहता हूं,
जिसके पास तुम्हारे जीवन में श्रद्धा का जन्म हो जाए, वही
संत। जिसके पास तुम्हारी प्रतीक्षा सहज हो जाए, वही संत। जिसके
पास हो कर तुम्हें लगे कि होगा, निश्चित होगा, हो
कर ही रहेगा। देर-अबेर बात और, मगर होगा। होना सुनिश्चित है। आज तो आज, कल
तो कल। अब तुम धैर्य से सह सकोगे। अब ऐसा नहीं है कि संदेह है। संत का अर्थ है, जिसके
पास, जिसकी
मौजूदगी में तुम्हारे संदेह गिर जाएं।
"रामनाम
के लेत ही पातक झुरैं अनेक।'
कहती है दया, रामनाम
के लेत ही...जिसके जीवन में आ गई गहन प्रतीक्षा, याद, सुधि
और जिसके अंतरतम में गूंजने लगा राम का नाम, डोलने लगा भीतर
जो राम के रस में,
पड़ गया रामरूप में, राम के प्रेम
में। "रामनाम के लेत ही पातक झुरैं अनेक'। सारे पाप जल जाते
हैं, एक
नाम लेने से। खयाल रखना, नाम तो तुमने भी लिया है, जले
नहीं पातक। तो नाम नहीं लिया, इतना जानना।
नाम तो तुमने पी लिया है, बहुत
बार लिया है,
मगर लिया नहीं। ऐसे ही लिया है, ऊपर-ऊपर लिया है, गया
नहीं, प्राण
तुमने दांव पर नहीं लगाए, तीर चुभा नहीं। व्यावहारिक रूप से लिया है।
लोग कहते थे कि लेने से लाभ होता है, इसलिए लिया है।
लेकिन तुम्हारी कोई खोज नहीं है। तुम प्रेम में नहीं पड़े हो, तुम
दीवाने नहीं हो। "रामनाम के लेत ही पातक झुरैं अनेक।' सारे
पाप जल जाते हैं। जल ही जाने चाहिए। कोई कारण नहीं है पाप के बचने का। जैसे दीए के
जलते ही सारा अंधेरा मिट जाता है। ऐसे ही रामनाम की याद के पैदा होते ही गया सब
संसार। गया सब संसार और संसार में किए सब कृत्य बह गए। सब सपना था। सब अंधेरा था।
"रे
नर हरि के नाम को,
राखो मन में टेक'।
टेक का अर्थ होता है, करो
कुछ, बोलो
कुछ, उठो
कि बैठो,
चलो कि न चलो, भोजन करो कि सोओ, मगर
राम का नाम टेक की तरह बना रहे। उस पर ही टिके रहो। वह टेक न छूटे। "रे नर
हरि के नाम को राखो मन में टेक'। गीत में देखते हैं न, एक
पंक्ति दुहरती है,
उसको कहते हैं--टेक। वही-वही पंक्ति फिर-फिर दोहर आती है। रामनाम एक
टेक बन जाए। करो कुछ--चाहे दुकान, चाहे बाजार, चाहे
घर-गृहस्थी,
पर सबके पीछे एक टेक बनी रहे रामनाम की, याद
उसकी आती रहे। बेटे को देखो, लेकिन याद उसकी ही आए। पत्नी को देखो, लेकिन
याद उसकी ही आए। पति के चरण धोओ, लेकिन चरण उसके ही धोए जाएं, याद
उसकी ही आए। अतिथि को भोजन कराओ, लेकिन याद उसकी ही आए। हर तरफ से उसका ही
झरोखा खुलने लगे,
यह अर्थ हुआ टेक का।
और तभी तो चौबीस घंटे उसी में रमोगे। नहीं
तो कभी बैठ गए मंदिर में जा कर पांच घड़ी, पांच मिनिट, गुनगुना
लिया नाम,
भागे, जल्दी है, हजार
दूसरे काम हैं। अगर रामनाम भी एक काम है हजार कामों में, तो
कभी भी गहरा न हो पाएगा। रामनाम सभी कामों में टेक बन जाए। सब कामों का अंतरतम बन
जाए। जा रहे बाजार, लेकिन ऐसे ही जा रहे जैसे कि "ग्राहक
रामों'
से मिलेंगे। जा रहे दुकान, मगर "ग्राहक
राम' आ
रहे होंगे। कबीर ऐसे ही जाते थे। कहते हैं, कबीर जब जाते
अपना कपड़ा बेचने तो नाचते जाते काशी में। और कोई कहता कि इतनी प्रसन्नता क्या है, साधारण
सा काम,
कपड़ा बेचने जा रहे! वे कहते कि राम आए होंगे, राह
देखते होंगे कि कबीर जुलाहा अब तक नहीं आया, आज देर हो गई है।
ग्राहक को बेचते तो उससे कहते कि राम, सम्हाल कर रखना, बड़ी
मेहनत से बुना है। "झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया'।
बड़े प्यार से बीनी है। बड़े रामनाम से बीनी है, जरा सम्हाल कर
रखना। ऐसी बीनी है कि जनम भर काम दे, तुम्हारे बच्चों
को भी काम दे।
राम की टेक बन जाए। कबीर बुनते कपड़ा और
राम--आड़ा कि सीधा धागा पड़े, मगर राम हर धागे में। राम एक गुनगुनाहट बन
जाए, जैसे
श्वास चलती है,
जैसे हृदय धड़कता है। "रे नर हरि के नाम को राखो मन में टेक'।
"नारायन
के नाम बिन नर नर नर जा चित्त'।
यही मैं तुमसे इतनी देर से कह रहा हूं। जब
तक प्रभु का स्मरण नहीं आया तब तक आदमी में आदमी के सिवाय कुछ भी नहीं। और आदमी
में आदमी के सिवाय कुछ भी नहीं, तो कुछ भी नहीं। जरा सोचो, अगर
तुम ही तुम हो तुम्हारे भीतर, तो क्या हो? "नारायण
के नाम बिन नर नर नर जा चित्त'। आदमी ही आदमी, आदमी
ही आदमी है तुम्हारे सिर में, और तो कुछ नहीं। तुम ही तुम, तुम्हारा
मन ही मन। इसीलिए तो तुम अर्थहीन हो। अर्थ तो आता है पार से। अर्थ तो आता है दूर
से। अर्थ तो आता है ऊपर से। तुम अर्थहीन हो। अर्थ कभी तुममें नहीं हो सकता, अर्थ
हमेशा पार से आता है।
तुमने देखा? एक
स्त्री भोजन बना रही है--खुद के लिए बना रही--तो तुम पाओगे उसके भोजन बनाने में
आनंद नहीं है। बना रही है, बनाना पड़ रहा है। लेकिन उसका प्रेमी आ रहा
है आज वर्षों के बाद, तब एक पुलक है, तब
वह नाच रही है,
तब वह गुनगुना रही है। तब उसके भोजन बनाने में एक रस ही और है!
अर्थ है आज कुछ। आज उसके पार कोई और भी जुड़ गया प्रक्रिया में। जब एक स्त्री मां
हो जाती है तो उसके जीवन में एक और सुगंध आ जाती है, जो
साधारण नहीं होती। एक स्त्री स्त्री है। जैसे ही एक बेटा उसको पैदा होता है, उसके
जीवन में एक अर्थ आ गया। अब उसके जीवन के जीने में कुछ प्रयोजन आ गया। एक आदमी
अपने लिए जीता है,
तो ठीक है; फिर एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, अब
उसकी गति बदल जाती है। अब उसके चेहरे पर रौनक आ जाती है। अपने से पार कुछ जुड़ गया।
और ये तो छोटी-छोटी चीजें हैं। ये भी कोई
बड़ी पार की चीजें थोड़ी ही हैं। बड़ी छोटी-छोटी चीजें हैं। लेकिन तुम्हारी परिधि में
तुम समाप्त नहीं हो रहे हो, एक और परिधि भी तुमसे जुड़ गई, तो
अर्थ आ जाता है। एक चित्रकार चित्र बनाता है। जब चित्र बनाता है, तब
उसके जीवन में एक अर्थ होता है। वह जो चित्र का सौंदर्य निर्मित हो रहा है, वह
उसके ऊपर निछावर। वह अपने से कुछ बड़ी चीज बना रहा है। चित्रकार तो मर जाएगा, चित्र
रहेगा। एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, बुद्ध की मूर्ति
बनाता है,
मूर्तिकार तो मर जाएगा लेकिन यह मूर्ति रहेगी सदियों-सदियों तक।
अपने से कुछ बड़ा जुड़ रहा है। तुम जब भी कुछ अपने से पार को अपने भीतर प्रवेश दे
पाते हो,
तब तुम्हारे जीवन में अर्थ की सुगंध आ जाती है।
तो ये तो छोटी-छोटी बातें हैं। परमात्मा तो
सबसे बड़ी घटना है। जिस दिन तुम्हारे छोटे से पानी की बूंद में परमात्मा का सागर
जुड़ जाता है,
उस दिन तुम्हारे जीवन में अनंत अर्थ है, अनंत
आकाश है,
अनंत अवकाश है। तुम फैले। तुम्हारी फिर कोई सीमा नहीं। और सीमा में
दुख है,
असीम में आनंद है। जहां सीमा है, वहां
कारागृह है। वहां दीवाल आ जाती है। जब कोई सीमा नहीं है--और परमात्मा के साथ जुड़ते
ही फिर कोई सीमा नहीं रह जाती--वहीं आनंद है। "नारायन के नाम बिन नर नर नर जा
चित्त'।
"दीन
भये विललात हैं'।
और जब तक तुम्हारे भीतर सिर्फ आदमी ही आदमी है और कुछ भी नहीं, दीन
भये बिललात हैं,
तब तक तुम एक भिखारी हो जो रोते और गिड़गिड़ाते ही रहोगे।
"माया-बसि न थित्त'--और इस उपद्रव में, इस
रोने में,
इस दीनता में, इस भिखारीपन में तुम्हारा चित्त कभी थिर न
हो पाएगा। एक द्वार से दूसरे द्वार भीख मांगते हुए भटकते रहोगे। "दीन भये
बिललात हैं,
मायाबसि न थित्त'। और जब तक माया बसी है हृदय में, तब
तक तुम भिखारी हो और, चित्त कभी थिर न होगा, शांत
न होगा,
विराम को न पाएगा विश्राम को न पाएगा। सब विराम परमात्मा में हैं।
विश्राम परमात्मा में है। तुम देखते हो, सदियों से इस देश
में हम जहां परमात्मा खोजा जाता है उस स्थल को आश्रम कहते हैं। आश्रम का अर्थ होता
है, जहां
विश्राम है। आश्रम का अर्थ है, जहां विराम है, जहां
शांति है,
जहां चित्त थिर हो जाएगा। परिवर्तनशील के साथ बंधे होओ तो बिललाते
रहोगे,
रोते रहोगे, गिड़गिड़ाते रहोगे। शाश्वत के साथ जोड़ लो।
फेरे ही डालने हैं, प्रेम की गांठ ही बांधनी है, विवाह
ही रचाना है तो कबीर कहते हैं, राम दुल्हनिया से रचा लो। फिर क्या
छोटी-छोटी दुल्हन और छोटे-छोटे दूल्हे! फिर बड़ा विवाह रच जाने दो। "दीन भये
बिललात हैं,
माया-बसि न थित्त'।
दिल का आराम यादे-राम से है
जीस्त बाकाम उसके नाम से है।
"दिल
का आराम यादे-राम से है'। तुम तभी आराम में पहुंचोगे, जब
यादे-राम में पहुंच जाओ। "जीस्त बाकाम उसके नाम से है'।
और इस जीवन में अर्थ उसके साथ जुड़ जाने से पैदा होता है। उसके पहले नहीं।
स्मरण रखना, जीवन
एक अवसर है परमात्मा के साथ विवाह रचा लेने का। कुंवारे के कुंवारे मत मर जाना।
सहराए तेरगी में भटकती है जिंदगी
उभरे थे जो उफक पे वो महताब क्या हुए।
नहीं तो तुम ऐसे ही डूब जाओगे जैसे तारे
ऊगते हैं क्षितिज पर और डूब जाते हैं--अर्थहीन ऊगते, अर्थहीन
डूब जाते। आज खिलते फूल, कल मुरझा जाते। "सहराए तेरगी में भटकती
है जिंदगी'।
यह जो जीवन का मरुस्थल है, ऐसी ही जिंदगी भटकती रहती है--फूल खिलते, मुरझाते, गिर
जाते। तुम जन्मे,
मरे, फिर जन्मे, फिर
मरे। ऐसा ही होता रहा है। उगे, डूबे; उगे-डूबे। सुबह
हुई, सांझ
हुई, ऐसा
ही होता रहा है। कब तक, कब तक ऐसे ही उगते-डूबते रहोगे? अगर
प्रभु से जोड़ लो नाता, तो सदा के लिए उग गए। फिर उदय ही होता है, फिर
कोई अस्त नहीं।
और आज नहीं कल, जो
नशा तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि जीवन को अर्थ दे रहा है वह जल्दी छिन जाता है।
बचपन में कुछ नशे होते हैं, जवानी छीन लेती है। जवानी में कुछ नशे होते
हैं, बुढ़ापा
छीन लेता है। बुढ़ापे में कुछ मरे-खुरे नशे बचते हैं, मौत
छीन लेती है। बचपन में बड़े नशे होते हैं, यह बन जाऊंगा, वह
बन जाऊंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि जब मैं
छोटा था तो मैंने कसम खाई थी कि करोड़पति हो कर रहूंगा। फिर मैंने कहा, फिर
क्या हुआ?
उसने कहा, हूं जब मैं अठारह साल का हुआ तो मैंने देखा
कि बजाय कसम को पूरा करने के कसम को छोड़ देना ज्यादा आसान है। करोड़पति! तो बदल
लेना ज्यादा बेहतर है।
बचपन में हर आदमी सपने देखता है न मालूम
क्या-क्या हो जाने के, जवानी छीन लेती है। फिर जवानी में दूसरे
सपने जवानी दे देती है--प्रेम के नशे से भर देती है। बुढ़ापा उन्हें छीन लेता। फिर
बुढ़ापे में कुछ थोड़े नशे रह जाते हैं--आदर, सम्मान--मौत वह
भी छीन लेती है। यहां रोज नशा छिनता ही चला जाता है। समझदार वही है जो भविष्य को
देख लेता है। अतीत को देखने में तो कोई समझदारी नहीं है। जो हो गया, उसको
समझने में क्या कोई खाक समझदारी है! जो होने वाला है, उसको
जो देख लेता है,
पहले जो देख लेता है, समय के पूर्व जो
जाग जाता है।
हाय वह वक्त कि जब बेपीये मदहोशी थी
हाय यह वक्त कि अब पीके भी मखमूर नहीं।
एक ऐसा वक्त आ जाता है जिंदगी में, एक
ऐसा वक्त था जब बेपीए मदहोशी थी--जवानी थी और नशा चढ़ा था। फिर एक ऐसा वक्त आ जाता
है कि पीओ भी तो भी नशा नहीं चढ़ता। इसके पहले कि ऐसा वक्त आ जाए, नशे
ही छोड़ दो। और फिर मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम सिर्फ नशे ही छोड़ दो। मैं तुमसे
कहता हूं कि एक बड़ा नशा है जो फिर कभी नहीं उतरता है। परमात्मा को पीने का नशा है।
उसी को दया ने कहा, "रामरूप में जे पडयो'।
एक ऐसा नशा है जो एक बार चढ़ जाए तो फिर उतरता नहीं। एक ऐसी मस्ती है जो एक बार आ
जाए तो फिर जाती नहीं एक ऐसी मदहोशी है जो शाश्वत है।
दया के इन छोटे-छोटे पदों में हम उसी मस्ती
को खोजने की कोशिश करेंगे। लेकिन पहला सूत्र खयाल रखना--जगत तरैया भोर की, सहजो
ठहरत नाहिं;
जैसे मोती की ओस पानी अंजुलि माहिं। यह पहला कदम कि जगत व्यर्थ, असार।
फिर हम दूसरा कदम उठा सकते हैं कि सार क्या है, सार्थक क्या है? असत्य
को असत्य की भांति पहचान लेना सत्य की तरफ पहला कदम है।
आज इतना ही।
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