संसार--एक अनिवार्य यात्रा—दूसरा प्रवचन
दिनांक १२ मार्च, १९७७; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
जिज्ञासाएं
1—प्यास
जगती नहीं,
द्वार खुलते नहीं।
2—भगवान श्री, चारों
ओर आप ही आप हैं। इस आनंद-स्रोत में डूब गई हूं। लेकिन आप कहते हैं कि इससे भी
मुक्त होना है। ऐसा आनंद जान-बूझ कर क्यों गंवाएं?
3—साक्षी-भाव साधने में कठिनाई है।
क्या साक्षी-भाव के अतिरिक्त परमात्मा तक जाने का और कोई उपाय नहीं?
पहला प्रश्न: प्यास नहीं जगती, द्वार
नहीं खुलते।
प्यास को कोई जगा भी नहीं सकता। जल तो खोजा
जा सकता है,
प्यास को जगाने का कोई उपाय नहीं है। प्यास हो तो हो, न
हो तो प्रतीक्षा करनी पड़े। जबरदस्ती प्यास को पैदा करने की कोई भी संभावना नहीं
है। और जरूरत भी नहीं है। जब समय होगा, प्राण पके होंगे, प्यास
जगेगी। और अच्छा है कि समय के पहले कुछ भी न हो।
मन तुम्हारा लोभी है।
जैसे छोटा बच्चा है, प्रेम
की बात सुने,
संभोगी चर्चा सुने कि वात्स्यायन का कामसूत्र उसके हाथ में लग जाए
और सोचने लगे कि ऐसी कामवासना मुझे कैसे जगे, लोभ पैदा हो जाए।
लेकिन छोटे बच्चे में कामवासना पैदा हो नहीं सकती। प्रतीक्षा करनी होगी। पकेगी
वीर्य-ऊर्जा,
तभी कामवासना उठेगी। और जैसे कामवासना पकती है, ऐसे
ही प्रभु-वासना भी पकती है। कोई उपाय नहीं है। जल्दी जगाने की आवश्यकता भी नहीं
है। लेकिन सुन कर बातें लोभ पैदा होता है; मन में लगता है, कब
ईश्वर से मिलन हो जाए। देखा कि दया ईश्वर का गुणगान गा रही है, मस्ती
में डोलते देखा मीरा को--तुम्हारे भीतर भी लोभ सुगबुगाया। तुम्हारे भीतर भी लगा, ऐसी
मस्ती हमारी भी हो। तुम्हें ईश्वर का प्रयोजन नहीं है। तुम्हें यह जो मस्ती दिखाई
पड़ रही है,
यह मस्ती तुम्हें आकर्षित कर रही है। मस्ती के तुम खोजी हो। शराबी
को राह पर देख लिया डोलते डांवाडोल होते, तो तुम्हारे मन
में भी आकांक्षा होती है, ऐसी भावविभोर दशा हमारी भी हो। शराब से
तुम्हें मतलब नहीं है। शराब का शायद तुम्हें पता भी नहीं है, लेकिन
इस आदमी की मस्ती तुम्हारे मन मेंर् ईष्या जगाती है।
खयाल रखना; संतों
के पास जा करर् ईष्या भी जग सकती है, प्रार्थना भी जग
सकती है।र् ईष्या जगी तो अड़चन आएगी। तब तुम्हारे भीतर एक बड़ी बेचैनी पैदा होगी कि
प्यास तो है नहीं। और प्यास न हो तो जलधार बहती रहे, करोगे
क्या? कंठ
ही सूखा न हो तो जलधार का करोगे क्या? और बिना प्यास के
जल पी भी लो तो तृप्ति न होगी, क्योंकि तृप्ति तो अतृप्ति हो, तभी
होती है। तो पानी पी कर शायद वमन करने का मन होने लगे।
नहीं, जल्दी करना ही न।
धैर्य रखना,
भरोसा रखना। जब समय होगा, जब तुम राजी हो
जाओगे,
पकोगे। और पकने का अर्थ समझ लेना। पकने का अर्थ है: जब तुम्हें
संसार के सारे रस व्यर्थ मालूम होने लगेंगे, तब रस जगेगा
प्रभु का। तुमने अभी संसार के रसों की
व्यर्थता नहीं जानी। मैंने कह दिया व्यर्थ हैं, इससे थोड़े ही
व्यर्थ हो जाएंगे। मेरे कहने से तुम्हारे लिए कैसे व्यर्थ होंगे? बूढ़े
तो समझाए जाते हैं बच्चों को कि खिलौने व्यर्थ हैं। क्या बैठे फिजूल के खिलौनों के
साथ समय खराब कर रहे हो! इनमें कुछ सार नहीं है। लेकिन बच्चों को तो खिलौनों में
सार दिखाई पड़ता है।
एक छोटा बच्चा अपनी गुड़िया से बातें कर रहा
है। उसकी मां उससे बोली कि बंद कर यह बकवास! वह भागा। मां भी न समझी कि इतनी तेजी
से क्यों भागा। फिर थोड़ी देर में लौट आया, बोला: "अब
क्या कहना है?'
बिना गुड़िया के आया। तो उसकी मां ने कहा कि तू इतनी जोर से भागा
क्यों?
उसने कहा: "गुड़िया सुन लेती तो दुखी न होती? उसको
मैं सुला आया। अब बोल, तुझे क्या कहना है?'
तुम्हें लगता है, वह
व्यर्थ बातें कर रहा है। लेकिन उसके लिए गुड़िया अभी जीवित है। अभी गुड़िया को चोट
पहुंचेगी। यह बात ही कि गुड़िया से बात न करो, गुड़िया रूठ जाएगी, नाराज
हो जाएगी।
जो बच्चे का सत्य है वह बूढ़े का सत्य तो
नहीं है। जो बूढ़े का सत्य है वह बच्चे का सत्य तो नहीं है। और कोई बच्चा अगर
जबर्दस्ती मान कर बूढ़ों की बातें कि ठीक ही कहते होंगे; सयाने
हैं, ठीक
ही कहते होंगे--फेंक आए गुड़िया को तो भी रात सो न सकेगा। नींद टूट-टूट जाएगी।
"गुड़िया का क्या होता होगा! रात अंधेरे में कोई सताता तो न होगा! रात अंधेरे
में डरती तो न होगी! रात अंधेरे में वर्षा होती है, भीगती
तो न होगी! कोई जानवर, कोई दुष्ट कष्ट तो न देता होगा!' रात
सो न सकेगा,
सपने में गुड़िया ही गुड़िया होगी। अभी गुड़िया को छोड़ने का वक्त न
आया था। एक दिन आता है वक्त। एक दिन न गुड़िया ने कभी कुछ सुना है। मुस्करा कर अपनी
ही की गई नासमझियों पर हंस कर गुड़िया को एक कोने में डाल कर विदा हो जाता है। फिर
उस तरफ नजर भी नहीं जाती।
ऐसा ही जीवन के संबंध में भी है।
तुम्हारी कठिनाई मैं समझता हूं। तुम सुख के
लोभी हो। धन में,
पद में, जगह-जगह सुख खोज रहे हो। वहां अभी सुख मिला
नहीं। और अभी ऐसा भी अनुभव नहीं हुआ कि वहां सुख मिल ही नहीं सकता। यही तुम्हारा
द्वंद्व है। सुख मिला भी नहीं। मिल तो सकता ही नहीं। किसी को कभी भी नहीं मिला।
तुम कितने ही बच्चे हो और कितना ही तुम्हारा भरोसा हो कि गुड़िया बोलेगी--गुड़िया
कभी बोली नहीं,
कभी बोलती नहीं। कोई उपाय नहीं है। सुख तो कभी किसी को वहां मिला
नहीं। तुम्हें भी नहीं मिला है, लेकिन तुम्हारी आशा नहीं मरी है अभी। तुम
सोचते हो,
मिल सकता है। गुड़िया बोलेगी। थोड़ी और चेष्टा करूं। थोड़ा और
समझाऊं-बुझाऊं,
थोड़ी ओर प्रतीक्षा करूं। शायद मैंने श्रम ठीक से नहीं किया; जितना
करना था उतना नहीं किया। शायद मेरी दौड़ अधूरी है। मैं ठीक से दौड़ा नहीं। प्राणपण
लगाए नहीं दांव पर। एक बार और दांव पर लगा कर देख लूं।
तुम्हारी आशा नहीं मरी है। तुम्हारी आशा
परिपूर्ण रूप से जीवित है। उसी आशा में संसार है। उसी आशा में! जिस दिन तुम्हारी
आशा टूट जाएगी...और आशा टूटने का मतलब यह नहीं है कि किसी को सुन कर टूट जाएगी। तो
फिर बूढ़े की बात से बच्चा बूढ़ा हो जाता है। अगर किसी की बात सुन कर टूटी तो टूटेगी
नहीं। तुम मंदिर में बैठ जाओगे, याद बाजार की करोगे। संन्यास ले लोगे, त्यागी
हो कर हिमालय की गुफा में बैठ जाओगे, याद बच्चों-पत्नी
की आएगी। और इसमें कुछ भी गलती नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। मैं यह भी नहीं
कह रहा हूं कि तुम गलती कर रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपनी टूटी-फूटी घड़ी
को ले कर घड़ीसाज के पास गया। घड़ी ऐसी हालत में हो गई थी कि पहचान में भी न आती थी
कि कभी घड़ी रही होगी। सात-मंजिल मकान से गिर गई थी। जेबघड़ी थी। कुछ देखने को
झांकता था खिड़की से, कुछ ज्यादा झांक गया, घड़ी
खिसक गई। अब सात-मंजिल से गिरी थी तो सब तहस-नहस हो गई थी। घड़ीसाज की टेबल पर जब
उसने घड़ी रखी--घड़ी यानी बहुत से कल-पुर्जे, टूटे-फूटे कांच
के टुकड़े,
सब तुड़े-मुड़े--तो घड़ीसाज ने भी गौर से अपना चश्मा ठीक करके देखा कि
क्या चीज है! उसने पूछा: "बड़े मियां, क्या है?' तो
नसरुद्दीन ने कहा: "अरे, हद हो गई! देखा नहीं कि जेबघड़ी है?' घड़ीसाज
बोला: "अरे,
तुमने...।' इतना ही वह कह पाया था कि अरे तुमने...कि
मुल्ला ने समझा कि वह कह रहा है कि अरे तुमने गिरने क्यों दी? तो
मुल्ला बोला: "क्या कर सकता था! गिर गई। सात-मंजिल मकान की खिड़की से झांकता
था,
चूक हो गई।'
घड़ीसाज ने कहा: गिरने की तो मैं कह ही नहीं रहा। मैं यह कह रहा हूं
कि तुमने उठाई क्यों? अब इसको उठाने में सार क्या है?
तुम जिस दिन जाग कर देखोगे, उस
दिन तुम पाओगे जीवन में कुछ था ही नहीं। तो तुम उस दिन ऐसा थोड़े ही करोगे कि छोड़
दें; तुम
उस दिन सोचोगे कि इतने दिन पकड़े कैसे रहा! घड़ी उठाई ही क्यों! ऐसा थोड़े ही है कि
उस दिन तुम विचार करोगे कि अरे, त्याग महान है। उस दिन तुम्हारे मन में सवाल
उठेगा कि इतने दिन तक भोग में डूबा कैसे रहा? यह हुआ कैसे? इतना
अंधा था?
इतना अंधेरे में था? इतना बेहोश था कि
जहां कुछ भी न था...?
पश्चिम में कहावत है कि दार्शनिक ऐसा आदमी
है जो अंधेरी अमावस की रात में एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो
वहां है ही नहीं। मिलने का तो कोई उपाय ही नहीं है। लेकिन अंधेरा गहरा है। और
तुम्हारी धारणा है कि बिल्ली काली है, तो खोज जारी है; दिखाई
नहीं पड़ रही है,
खोजेंगे तो मिल जाएगी। किसी को कभी नहीं मिली। मगर किसी और की सुन
कर कमरे के बाहर मत निकल आना, अन्यथा भटकोगे; अन्यथा
लौट-लौट कर कमरे में आ जाओगे। नहीं भी आए भौतिक रूप से तो मन आएगा, चिंतन
आएगा, विचार
आएगा, स्वप्न
आएगा। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम स्त्री के साथ आंख खोल कर बैठते हो कि आंख
बंद करके बैठते हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम वस्तुतः धन को गिनते हो कि
कल्पना में धन के सिक्के गिनते हो? इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता। क्योंकि धन मात्र कल्पना है। वे जो नगद सिक्के मालूम पड़ते हैं, बजते
हैं पत्थर पर पटको तो, वे भी उतनी ही कल्पना हैं जितनी आंख बंद
करके जब तुम सिक्के गिनते हो। दोनों ही कल्पना हैं। मगर मेरे कहने से कल्पना न हो
जाएगी।
अनुभव उधार नहीं लिए जा सकते।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। कहते हो:
"प्यास नहीं जगती, द्वार नहीं खुलते।' तुम
उधार अनुभव की आकांक्षा कर रहे हो। उधारी से बचो। उधारी ने ही मारा। उधारी ने ही
इतने दिन भटकाया। अब उधारी बंद करो। अब तो अगर तुम्हें लगता है कि इस संसार में
कुछ सुख है तो पूरी कोशिश कर लो। पूरी कर लेना--तन, मन, प्राण
से। रत्ती भर बाकी मत रखना। क्योंकि बाकी रखा ही सताएगा। बाकी रखा ही पीछा करेगा।
संसार पीछा नहीं करता। संसार में तुम जहां नहीं दौड़े, जो
कोने अधूरे रह गए,
बिना दौड़े रह गए, वही पीछा करते हैं। जो जान लिया उससे तो
छुटकारा हो जाता है। जो अनजाना रह गया उसी के साथ बंधन बंधे रह जाते हैं।
तो तुम उतरो। प्यास नहीं जगती, जगाओ
ही क्यों?
अभी संसार की प्यास होगी। दोनों प्यास साथ-साथ नहीं हो सकतीं।
असत्य की जब तक प्यास हो तब तक सत्य की प्यास नहीं हो सकती। जब तक झूठ को पीने में
रस हो तब तक सच को पीने में रस नहीं हो सकता। तो अभी झूठ में रस है। अभी अहंकार
में रस है। अहंकार यानी झूठ। अभी पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, सिंहासन
मिले--अभी अहंकार में रस है। इस रस को अनुभव कर लो। और डर कुछ भी नहीं है, क्योंकि
रस वहां है नहीं। बिल्ली कमरे में है नहीं। इसलिए मैं कहता हूं हिम्मत से खोज लो, कोना-कोना
खोज लो। पूरे रत्ती-रत्ती को खोज डालो।
तुम्हारे और महात्मा बहुत डरे हुए हैं।
तुम्हारे महात्मा भी उधार मालूम होते हैं। वे तुमसे कहते हैं, मत
जाओ संसार में,
उलझ जाओगे। मैं तुमसे कहता हूं, जाओ, उलझ
कैसे सकते हो! उलझाने योग्य वहां है क्या? हां, अगर
न गए पूरे-पूरे तो उलझे रह जाओगे। तो मन सदा कहता रहेगा: "काश, गए
होते! शायद मिल जाता! कौन जाने, कुछ हिस्सा अनजाना रह गया, वहीं
हो संपदा,
उसी जगह से चूक गए हों!' तुम्हें पक्का
भरोसा कैसे आएगा कि वहां बिलकुल नहीं था सत्य, झूठ ही झूठ का
फैलाव था,
प्रपंच ही प्रपंच था?
तो मैं तुमसे कहता हूं: जाओ! जहां रस हो
वहां जाओ। रस को बदलने की चेष्टा मत करो। कहीं तो रस होगा। ऐसा तो कोई आदमी नहीं
है जिसका रस कहीं न हो। क्योंकि ऐसा आदमी जी ही नहीं सकता, एक
क्षण नहीं जी सकता। श्वास ही क्यों लेगा ऐसा आदमी जिसका कोई रस नहीं है। सुबह
उठेगा क्यों दुबारा? चलेगा क्यों? आंख
क्यों खोलेगा?
जिस आदमी का कोई भी रस नहीं है वह तो उसी क्षण मृत हो जाएगा। उसी
क्षण! एक क्षण भी जीने का कोई उपाय नहीं। जिजीविषा चली जाए तो जीवन चला जाता है।
तो तुम्हारा रस कहीं होगा। तुम्हारी तकलीफ
मैं समझता हूं। तुम्हारा रस तो तुम्हें दौड़ा रहा है धन, पद
की तरफ और तुम्हारे महात्मा तुम्हें पकड़े हैं पीछे से। वे कह रहे हैं, "कहां
जा रहे हो?
वहां कुछ भी नहीं हैं।' तुम दुविधा में
पड़ गए हो: "महात्मा की सुनें? बात तो लगती है
कि महात्माओं की ही ठीक होगी--भले, सज्जन लोग!' मगर
तुम्हारा दिल कहता है: अभी खोज लो।
मस्जिद में मौलवी बोला। बोलने के बाद उसने
कहा: "जो लोग स्वर्ग जाना चाहते हों, खड़े हो जाएं।' मुल्ला
नसरुद्दीन को छोड़ कर सभी लोग खड़े हो गए। मौलवी थोड़ा हैरान हुआ। जब सब बैठ गए तो
मौलवी ने कहा: "अब जो नरक जाना चाहते हैं, वे खड़े हो जाएं।' कोई
भी खड़ा न हुआ। मुल्ला फिर भी बैठा रहा। तो मौलवी ने कहा: "मुल्ला, क्या
इरादा है?
कहीं नहीं जाना?' मुल्ला ने कहा: "जाना तो स्वर्ग
ही है,
लेकिन अभी नहीं। और आप तो कुछ ऐसा कह रहे हैं जैसे कि बस खड़ी हो
बाहर और लोग जाने कि तैयारी में हों। अभी नहीं! जाना तो स्वर्ग ही है, लेकिन
अभी नहीं। अभी बहुत कुछ करने को यहां बाकी है। अभी मन भरा नहीं।'
...ज्यादा
ईमानदार आदमी है। जो लोग बड़े हो गए थे, उनको भी अगर
पक्का पता हो कि बस बाहर खड़ी हो गई है तो वे भी बैठ जाएंगे। वे भी सिर्फ आकांक्षा
प्रगट कर रहे हैं कि हम स्वर्ग जाना चाहते हैं, लेकिन अभी नहीं।
अभी कौन स्वर्ग जाना चाहता है! अभी तो संसार में बहुत कुछ बाकी है। अभी इरादे बाकी
हैं। अभी अभिलाषाएं बाकी हैं। अभी सपने टूटे कहां? अभी
तो सपनों के इंद्रधनुष फैले हैं! अभी तो बड़े सेतु हैं। अभी तो दूर क्षितिज पर
दिखाई पड़ रहे हैं मरूद्यान। अभी तो लगता है: "यह पहुंचे, यह
पहुंचे! दिल्ली कितनी ही दूर हो, दूर नहीं है। ऐसा लगता है कि पास ही
हैं--पहुंचे,
पहुंचे जाते हैं। दो कदम और कि चार कदम और। पहुंच ही जाएंगे। थोड़ा
श्रम, थोड़ी
मेहनत,
थोड़ी प्रतीक्षा...।' मन ऐसा कहे चले
जाता है।
तुम्हारा रस संसार में है। फिर, सांसारिक
लोगों के चेहरों को देखते हो तो लगता है कि मिलेगा शायद ही। क्योंकि इनमें से किसी
को भी नहीं मिला। महात्माओं को देखते हो, संतों को देखते
हो--लगता है,
शायद इन्हें मिला हो! शांत, आनंदित! मगर अपने
भीतर तुम्हारा अनुभव कहता है: अभी नहीं, अभी नहीं; और
थोड़ा खोज लो। कौन जाने, जो किसी को भी नहीं मिला, वह
तुम्हें मिल सकता हो।
मन की एक बड़ी गहरी बात है। और वह गहरी बात
यह है कि मन कहता है, तुम अपवाद हो सकते हो। माना किसी को न
मिलेगा;
लेकिन इससे क्या यह सिद्ध होता है कि तुम्हें भी न मिलेगा?
मन का एक नियम है कि वह सदा तुम्हें छिपाता
है। वह कहता है: तुम अपवाद हो सकते हो। सारे लोग मरे, पृथ्वी
कब्रिस्तान है। रोज कोई मरता है, लेकिन तुम्हारा मन तुमसे कहता है: और लोग
मरते हैं,
तुम थोड़े ही मरते हो! तुम कहां मरे? अब
तक तुम कहां मरे?
कभी अपने को मरा देखा? तो हो सकता है
तुम न मरो!
मरने के आखिरी क्षण तक आदमी यह सोचता रहता
है कि मौत सदा दूसरे की होती है, अपनी थोड़े ही। अर्थी किसी और की उठती है, अपनी
थोड़े ही। दूसरों को मरघट पहुंचा आते हो तुम; तुमको किसी ने
अभी मरघट पहुंचाया? भीतर एक आशा जगी रहती है कि शायद परमात्मा
तुम्हें इस नियम से मुक्त रखेगा।
जब चोर चोरी करने जाता है तो वह भी जानता है
कि चोर पकड़े जाते हैं। पर वह सोचता है शायद मैं न पकड़ा जाऊं। और पकड़े जाते हैं, पकड़े
जाते होंगे--कुशल नहीं, कला नहीं आती।
जब हत्यारा किसी की हत्या करता है तो जानता
है कि हत्या का क्या परिणाम हो सकता है। लेकिन सोचता है: "मैं पकड़ा जाऊंगा? नहीं, सारा
इंतजाम कर लूंगा। पकड़ना संभव नहीं होगा।'
तुम रोज इस नियम का उपयोग करते हो। कल भी
क्रोध किया था,
परसों भी किया था। हर बार क्रोध करके दुख आया, आज
फिर क्रोध कर रहे हो। फिर भी सोचते हो, शायद इस बार दुख
न हो, शायद
इस बार पछतावा न हो। कितनी बार कांटे हाथ में चुभे और कितनी बार लहू बहा; मगर
इस बार सोचते हो,
फिर कांटे से खेल लें, शायद इस बार
कांटा फूल बने,
शायद कांटा इस बार दया करे। शायद अब तुम इतने कुशल हो गए हो जीवन
के अनुभव से कि अब कांटा तुम्हें न सता पाए। ऐसे मन बचाए चला जाता है।
जिस व्यक्ति को संसार में जीवन का शाश्वत
नियम दिखाई पड़ जाता है कि मैं भी अपवाद नहीं हूं; मेरी
भी मौत होगी;
मैं भी मिट्टी में गिरूंगा; आज नहीं धूल में
पड़ा रहूंगा;
यहां पद और प्रतिष्ठाएं कहीं भी मुझे बचाने वाली नहीं हैं; कितना
ही धन हो तो भी मौत से कोई सुरक्षा नहीं है--जिस दिन व्यक्ति को ऐसा साफ-साफ दिखाई
पड़ जाता है,
उस दिन जीवन में एक क्रांति घटती है। उस दिन जो सारी प्यास नियोजित
थी संसार की तरफ,
बाहर की तरफ, वही सारी प्यास भीतर की तरफ नियोजित हो जाती
है, परमात्मा
की तरफ नियोजित हो जाती है।
प्रतीक्षा करो।
आशिकी जाफजां भी होती है और सब्र आजमां भी
होती है।
रूह होती है कैफ परवर भी और दर्द आशनां भी
होती है।।
प्रेम बेचैन भी होता है पाने को।
आशिकी जाफजां भी होती है और सब्र आजमां भी
होती है।
प्रेम बेचैन होता है पाने को; और
फिर भी धैर्यवान होता है, प्रतीक्षा करता है। प्रेम के दो विरोधी पहलू
हैं। प्रेम बेचैन होता है, आतुर होता है--मिल जाए! और साथ ही
प्रतीक्षातुर होता है। अगर जन्मों-जन्मों तक भी प्रतीक्षा करनी पड़े तो प्रेम
प्रतीक्षा भी करता है। यह विरोधाभास है; ऊपर से तुम्हारी
समझ में न आएगा।
तुमने देखा प्रेयसी को द्वार पर बैठे अपने
प्रेमी की प्रतीक्षा करते! कैसी बेचैन! सूखा पत्ता भी हिलता है तो उठ कर खड़ी हो
जाती है कि शायद प्रेमी आ गया! हवा का झोंका लगता है द्वार पर, दौड़
कर आती है,
खोलती है द्वार--शायद प्रेमी आ गया!
तुमने देखा नहीं, कभी
किसी पत्र की प्रतीक्षा कर रहे, कोई राह से गुजरता है--भाग कि कहीं डाकिया
तो नहीं आ गया! हजार काम में लगे रहते हो, लेकिन मन द्वार
पर लगा रहता है,
मेहमान आता न हो, आ न गया हो! कहीं ऐसा न हो कि तुम उलझे रहो, मेहमान
आए और चला जाए! कहीं ऐसा न हो कि तुम स्वागत को मौजूद न रहो! बड़ी बेचैनी होती है, त्वरा
होती है;
लेकिन साथ ही बड़ी सब्र भी होती है। अगर जन्मों-जन्मों तक भी ऐसी
प्रतीक्षा करनी पड़े तो भी प्रतीक्षा में रस भी है। प्रतीक्षा करेंगे!
तो प्रेम में अधैर्य भी है और धैर्य भी।
प्रेम विपरीत का संगम है।
तो एक तो अगर प्यास पैदा नहीं हुई तो घबराओ
मत। जल्दबाजी भी न करो। जीवन के अनुभव को भोगो। अगर सोचते हो कि संसार से तो छूट
गया है रस--सुन कर नहीं, जान कर; अगर सोचते हो कि
संसार तो विरस हो गया है तो फिर थोड़ा सा सब्र रखो। आता ही होगा--दूसरा रस आता ही
होगा। थोड़ी सब्र रखो। दोनों के बीच थोड़ा सा अंतराल भी होता है कभी। दोनों यात्राओं
के बीच थोड़ा सा विराम भी होता है। एक दौड़ समाप्त होती है, दूसरी
दौड़ शुरू हो,
इसके बीच-बीच में थोड़ा पड़ाव भी होता है।
हो सकता है, तुम्हारा
रस सच में ही समाप्त हो गया हो संसार से, तो फिर घबराओ मत; फिर
थोड़ा धैर्य,
थोड़ा सब्र, थोड़ी प्रतीक्षा...जल्दी ही दूसरी दौड़ शुरू
होगी। बाहर दौड़ते रहे सदा, अब रुकावट आ गई, तो
ऊर्जा को थोड़ा मौका दो--मुड़ने का, पीछे की तरफ जाने का, नई
आदत बनाने का,
नई शैली नया ढंग सीखने का, नई दिशा खोजने
का। थोड़ा मौका दो।
साधारणतः आदमी ऐसा है जैसा फोर्ड ने सबसे
पहली कार बनाई तो उसमें रिवर्स गियर नहीं था। खयाल नहीं था। आगे जाने के लिए तो
गियर था,
पीछे जाने के लिए कोई गियर नहीं था। यह तो अनुभव से आया समझ में कि
यह तो बड़ी झंझट की बात है; आगे तो चले गए, फिर
घर लौटना...तो मीलों का चक्कर लगा कर आना पड़ता, पीछे लौटने का
उपाय ही नहीं। अगर अपने गैरेज के भी बाहर निकाल लिया और गैरेज में गाड़ी रखनी है तो
भी पूरे गांव का चक्कर लगा कर आओ, तब गाड?ी रख सकते हैं, नहीं
तो रख नहीं सकते। तो फिर रिवर्स गियर डाला।
अब तुम्हारे मन की जो गाड़ी है, जन्मों-जन्मों
से बिना रिवर्स गियर के चलती है; उसमें कोई रिवर्स गियर नहीं है; बस
आगे की तरफ जाती है; बाहर की तरफ जाती है; दूसरे
की तरफ जाती है,
अपनी तरफ तो आने का कोई उपाय ही नहीं है। अपने गैरेज में तो आने की
तुमने कभी सोची ही नहीं। अभी तो तुम सारे संसार का चक्कर लगाओगे, तभी
अपने पर आ पाओगे। और संसार बड़ा है; जनम-जनम लग जाते
हैं तो भी चक्कर पूरा नहीं होता, विराट है।
तो कभी ऐसा भी हो सकता है, तुम्हारा
बाहर से रस सच में चला गया; लेकिन थोड़ी देर लगेगी कि रिवर्स गियर पैदा
हो जाएगा। संभावना तो है, जंग खा गया है। पड़ा तो है भीतर, क्योंकि
परमात्मा ने तुम्हें बाहर ही जाने के योग्य बनाया, ऐसा
नहीं; तुम्हें
भीतर जाने के योग्य भी बनाया। अंततः तो भीतर जाना ही है। इसलिए तुम्हारे यंत्र में
कोई भूल-चूक नहीं,
लेकिन अनुपयोग से, जन्मों-जन्मों तक भीतर मुड़ने की चेष्टा कभी
तुमने की नहीं,
लौट कर कभी देखा नहीं। जैसे एक आदमी कभी गर्दन लौट कर न देखे तो
गर्दन अकड़ जाएगी। फिर अचानक वर्षों के बाद एक दिन तुम पीछे लौट कर देखना चाहो, गर्दन
जवाब देगी,
मांस-पेशियां सख्त हो गईं।
ठीक ऐसी ही मन की दशा है। तो थोड़ा सब्र, थोड़ी
प्रतीक्षा...।
"प्यास
नहीं जगती,
द्वार नहीं खुलते।'
द्वार कैसे खुलें? प्यास
ही तो चोट है द्वार पर। जब तुम प्यासे हो कर तड़पते हो, जब
तुम प्यासे हो कर मछली की तरह तड़पते हो, जैसे मछली को
किसी ने पानी से निकाल कर तट पर डाल दिया हो--जब संसार तुम्हारे लिए ऐसा हो जाता
है जैसे मछली के लिए जलती हुई रेत और तुम परमात्मा के लिए ऐसे तड़पते हो जैसे मछली
वापस सागर में उतर जाने को तड़पती है, उसी तड़पन में तो
तुम दरवाजे पर चोट देते हो।
जीसस ने कहा है: खटखटाओ और द्वार खुल
जाएंगे। लेकिन खटखटाने का मतलब? यहां कोई भौतिक द्वार थोड़े ही लगे हैं कि
तुम गए और सांकल पकड़ी और खटखटा दी। यह भीतर के द्वार की बात हो रही है। यहां कोई
भौतिक द्वार नहीं है, न कोई सांकल लटकी है जिसे तुम खटखटा दो। यह
तो जब तुम्हारे प्राणपण से उठेगी एक अभीप्सा...जैसे तुमने पत्नी को चाहा, बच्चे
को चाहा,
धन, पद को चाहा, संसार
को चाहा,
जिस दिन तुम्हारी सारी चाहत एक धारा में गिर जाएगी और तुम परमात्मा
को चाहोगे,
उसी दिन द्वार खुल जाएगा। उतनी बड़ी धारा के सामने कौन द्वार अटका
रह सकता है,
कौन द्वार अड़ा रह सकता है! पूर आ गया, बाढ़
आ गई, तुम्हारी
सारी ऊर्जा चली बह कर, सब द्वार-दरवाजे टूट जाते हैं। और द्वार कुछ
लगा थोड़े ही है,
कुछ ताले थोड़े ही पड़े हैं। परमात्मा अपने-आप को तुमसे बचा थोड़े ही
रहा है। परमात्मा तो तुम्हें पुकार रहा है, तुमने ही नहीं
सुना। परमात्मा तो रोज तुम्हारे द्वार खटखटा रहा है, लेकिन
तुम जब तक परमात्मा के द्वार पर खटखटाओ न, तब तक मेल न होगा, मिलन
न होगा। कैसे हो?
तो प्यास अगर न जगे तो निश्चित ही द्वार भी
नहीं खुलते। तो दो बातें। एक--अगर संसार में रस हो तो जल्दी मत करो। परमात्मा ने
संसार दिया ही इसलिए है कि ताकि तुम इसके अनुभव से गुजरो, ताकि
इसका अनुभव तुम्हें बता दे कि बाहर कुछ भी नहीं है, पाने
योग्य कुछ भी नहीं है। दौड़ है खाली, रिक्त! हाथ खाली
के खाली रह जाते हैं, प्राण कभी भरते नहीं।
संसार एक अनुभव है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने छोटे बेटे को कहा
कि तू सीढ़ी पर चढ़ जा। वह सीढ़ी पर चढ़ गया। मुल्ला ने उससे कहा कि अब तू कूद जा, आ
मेरे हाथ में कूद जा। बेटा थोड़ा डरने लगा। उतने ऊपर से कूदे, कहीं
हाथ से खिसक जाए,
गिर जाए। मुल्ला ने कहा: "डरता क्या है? अरे, अपने
बाप पर भरोसा नहीं?' बेटा कूदा और मुल्ला हट गया। धड़ाम से
जमीन पर गिरा,
रोने लगा और कहने लगा कि यह आपने क्या किया? मुल्ला
ने कहा कि एक पाठ सिखाया: अपने बाप का भी भरोसा मत करना। भरोसा करना ही मत। यह
बुद्धिमान आदमी का लक्षण है। समझा?
परमात्मा ने संसार बनाया--एक अनुभव है। यहां
बाहर का भरोसा मत करना। यहां बड़े प्रलोभन हैं, सुंदर प्रलोभन
हैं। दूर के ढोल हैं और बड़े सुहावने हैं। बस दूर से ही सुहावने हैं, पास
गए, जैसे-जैसे
पास गए,
सब सुहावनापन खो जाता है। जब बिलकुल पहुंच जाते हो तो मृगमरीचिका
सिद्ध होती है।
और संसार को बनाया इसलिए कि जो वास्तविक धन
है वह तुम्हारे भीतर है। और जब तक तुम बाहर खोजते रहोगे, निर्धन
रहोगे। जिस दिन बाहर की सारी खोज से तुम थक जाओगे, थके-मांदे
बाहर की खोज को छोड़ दोगे, बंद करोगे आंख, डूबोगे
अपने में--पाओगे,
सब धनों का धन वहां मौजूद था।
तुम्हें परमात्मा ने सम्राट बना कर भेजा।
लेकिन सम्राट होने की क्षमता तुममें आएगी तभी जब तुम बाहर के सब भिखमंगेपन का
अनुभव ले लो। भिखमंगा हुए बिना सम्राट होने का अनुभव नहीं आता। जिसने अंधेरा नहीं
देखा, उसे
रोशनी दिखाई नहीं पड़ सकती। और जिसने कांटा नहीं जाना, उसे
फूल के सौंदर्य का पता नहीं हो सकता। जिसने व्यर्थता को अनुभव नहीं किया उसके जीवन
में सार्थकता का अवतरण नहीं हो सकता है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि संसार आखिर है ही
क्यों?
संसार इसीलिए है कि ताकि विपरीत का तुम्हें अनुभव हो जाए। देखते
हैं न कि स्कूल में बच्चों को हम पढ़ाते हैं तो काले ब्लैक-बोर्ड पर सफेद खड़िया से
लिखते हैं। सफेद बोर्ड पर भी लिख सकते हैं; लिख तो जाएगा, लेकिन
पढ़ा नहीं जा सकेगा। तुम कभी नहीं पूछते कि काले तखते पर क्यों लिखते हैं? काले
तखते पर सफेद अक्षर उभर कर दिखाई पड़ते हैं। सफेद तखते पर लिखोगे तो काले अक्षर से
लिखना पड़ेगा,
तब उभर कर दिखाई पड़ेंगे।
यह संसार ब्लैक-बोर्ड है। इसमें तुम्हारे
जीवन की जो ऊर्जा है वह शुभ्र प्रगट हो सकती है। इसके बिना प्रगट नहीं होगी।
संसार का दुख पृष्ठभूमि है। इसी पृष्ठभूमि
में सच्चिदानंद प्रगट होता है। और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु की पृष्ठभूमि में ही
जीवन प्रगट होता है। असफलता में ही सफलता, विषाद में ही
आनंद, खोने
में ही पाने का पता चलता है। प्यासे होओगे, तभी तो कंठ तृप्त
होगा। भूखे होओगे,
तभी तो संतुष्टि होगी।
यह संसार परमात्मा का ही उपाय है। इस संसार
में गए बिना तुम कभी अपने पर न आ सकोगे। अगर नहीं गए हो संसार में, अभी
भी मन में कुछ रस-लगाव रह गया है--जाओ! बेझिझक जाओ! मत सुनो किसी और की। सुन भी लो
सबकी तो भी गुनो अपनी। जाओ जब तुम्हीं पाओगे कि यह रेत ही रेत है और रेत से तेल
नहीं निचुड़ता,
उस दिन तुम आओगे। उस दिन ही शास्त्र जो कहते हैं, वह
तुम्हारी समझ में आएगा। उस दिन द्वार खुल जाएंगे। उस दिन द्वार पर जरा भी बाधा
नहीं पाओगे। द्वार खुले ही हैं।
बहकीं बगियां महकीं कलियां
गूंजे आंगन, झूमीं
गलियां
खुलीं न मेरी किंतु कंवरियां
सांकल कौन लगाई कि खोलत उम्र सिराई!
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई।
मन की कुटिया सूनी-सूनी
बनी चंदन की धुनी
बहुत हुई प्रिय आंख-मिचौनी
अब तो हो सुनवाई
सुबह संध्या बन आई
ऐसी सुध बिसराई कि पाती तक न पठाई!
जब सुबह सांझ बन जाएगी खोजते-खोजते, जब
हारे-थके,
दौड़ते-दौड़ते तुम गिर पड़ोगे, उसी क्षण सांकल
खुलेगी,
द्वार खुलेगा। उसी क्षण प्रभु अवतरित होता है।
संसार का प्रगाढ़ अनुभव प्रभु को खोज लेने की
अनिवार्य प्रक्रिया है। परमात्मा के विपरीत नहीं है संसार; परमात्मा
को खोजने की व्यवस्था है संसार। तब तुम्हारी पूरी दृष्टि बदल जाएगी।
तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हें जो कहते
हैं उसमें बहुत मूल्य नहीं है। वे तो तुम्हें ऐसा समझाते हैं कि संसार परमात्मा का
दुश्मन है और परमात्मा संसार का दुश्मन है। यह बात बड़ी अजीब है। और तुम कभी उनसे
पूछते भी नहीं,
क्योंकि वे ही तुम्हें यह भी समझाते हैं कि संसार परमात्मा ने ही
बनाया। वही स्रष्टा है। और फिर यह भी समझाते हैं कि संसार परमात्मा का दुश्मन है।
ये दोनों बातें ठीक हो नहीं सकतीं। अगर उसने ही बनाया तो दुश्मन कैसे होगा? और
अगर दुश्मन है तो उसने कैसे बनाया होगा?
नहीं, संसार परमात्मा
का दुश्मन नहीं है। संसार परमात्मा की तरफ जाने की अनिवार्य यात्रा है। अनिवार्य
यात्रा! छोड़-छाड़ कर भाग कर बीच से परमात्मा को न पा सकोगे। यह परीक्षा है, इससे
गुजर जाना जरूरी है।
गुरु सुवास है प्रभु की
दूसरा प्रश्न: भगवान श्री, सूरज
में आप हैं, चांद में आप हैं, चारों
ओर आप ही आप हैं। बिना जाने और बिना मांगे ऐसा आनंद-स्रोत मिल गया कि मैं उसी में
डूब गई। लेकिन आप कहते हैं कि इससे भी मुक्त हो जाना है। ऐसा आनंद कोई जान-बूझ कर
क्यों गंवाए?
पूछा है निरुपमा ने।
बात तो ठीक है। जब आनंद मिलता है तो कौन
गंवाने को राजी होगा!
समझो लेकिन।
एक सुख है जो संसार आशा बंधाता है कि
मिलेगा--मिलता नहीं। आशा बंधती है सुख मिलेगा, मिलता दुख है।
द्वार पर सुख लिखा होता है, भीतर जाने पर दुख मिलता है। एक संसार का सुख
है जो झूठा है। एक परमात्मा का आनंद है जो सच्चा है। दोनों के बीच में गुरु है।
गुरु यानी द्वार। गुरु यानी जहां से तुम संसार की तरफ से परमात्मा में प्रविष्ट
होते हो। गुरु तो ऐसे है जैसे कि एक राहगीर धूप में चलते-चलते थक गया और एक वृक्ष
की छाया में विश्राम करने लगा। गुरु तो ऐसे है जैसे छाया में बैठ गए।
लेकिन यह पड़ाव है, मंजिल
नहीं। सुख मिलेगा,
बहुत सुख मिलेगा। और तुमने अब तक सुख तो संसार में जाना नहीं था।
इसलिए गुरु के सान्निध्य में, गुरु की प्रीति में, गुरु
के प्रसाद में बहुत सुख मिलेगा। और तुमने और तो कोई सुख जाना नहीं, इससे
बड़ा तो तुमने सुख जाना नहीं। इसलिए मन करेगा, अब इसको क्यों
छोड़ें?
अब तो इसको खूब कस कर पकड़ लें। लेकिन गुरु अगर सच में गुरु है तो
वह कहेगा कि अभी और बड़े सुख की संभावना है। अभी इतनी जल्दी मत पकड़ो। वह कहेगा:
देखो, संसार
को छोड़ा तो मैं मिला; अब अगर मुझको भी छोड़ दो तो परमात्मा मिले।
मेरी बात सुनी,
संसार को छोड़ कर इतना सुख मिला; अब जरा और मेरी
बात सुनो,
मुझे भी छोड़ो, तो अनंत सुख मिले।
मगर भक्त की तकलीफ मैं समझता हूं। उसने कभी
संसार के इस मरुस्थल में कहीं कोई मरूद्यान नहीं पाया था; तृषा
ही तृषा थी,
क्षुधा ही क्षुधा थी, जलन ही जलन
थी--भटका ही भटका। अब एक विश्राम मिला, जलस्रोत मिला, झरना
मिला, झरने
के किनारे खड़े हरे वृक्ष मिले, हरी दूब मिली। हरी दूब पर विश्राम करने लगा, झरने
से जल पीया। वृक्षों की छाया में बैठा। अब कोई कहे इसे छोड़ दो, तो
कैसे छोड़ दे?
क्योंकि उसके सामने तो दो ही विकल्प हैं: अगर इसको छोड़े तो
मरुस्थल। उसके दो ही अनुभव हैं। इसको छोड़ने का मतलब वापस मरुस्थल। तीसरा तो कोई
अनुभव नहीं है।
लेकिन गुरु क्या कहता है? गुरु
यह कह रहा है कि यह जो छोटा सा झरना बह रहा है यहां, यह
झरना सागर से जुड़ा है; यह झरना अपने में नहीं है। अपने में तो सभी
झरने सूख जाएंगे। अगर झरने में बस अपनी ही झर हो और कहीं सागर से जोड़ नहीं, तो
कितनी देर चलेगा?
जल्दी चुक जाएगा। झरना कोई हौज थोड़े ही है। हौज तो बंद है, कहीं
से कोई स्रोत नहीं है; जल्दी ही पानी सड़ जाएगा और जल्दी ही चुक भी
जाएगा। हौज का पानी तो मुर्दा होता है।
यही तो फर्क है पंडित और ज्ञानी में। पंडित
यानी हौज। पानी तो दिखाई पड़ता है ज्ञानी जैसा ही, मगर
मुर्दा,
उधार, बासा, मरा हुआ, सड़
रहा है;
कहीं कोई जीवंत झरना नहीं है जो उसे ताजा रखे, जो
उसे प्रफुल्लित रखे, जो स्वच्छ रखे। जब जल बहता है तो स्वच्छ, जब
बंद हो जाता है तो अस्वच्छ।
गुरु झरना है। ज्ञानी का अर्थ है जिसमें
परमात्मा झर रहा है। तुम्हें तो गुरु दिखाई पड़ता है जैसे कि गंगोत्री उतरती है तो
छोटे से गोमुख से गिरती है। गुरु तो गोमुख है। वह तो सिर्फ मुंह है; जो
गिर रहा है,
वह तो परमात्मा ही है। अब इस छोटी सी धार को ही पकड़ कर मत बैठ
जाना। सुख है इस धार में, लेकिन उस अनंत की तुलना में तो कुछ भी नहीं
जहां से यह धार आ रही है।
तो जो गुरु तुम्हें अटका ले वह गुरु न हुआ।
गुरु का लक्षण ही यही है कि वह तुमसे कहे: "आओ मुझमें और जाओ मेरे पार। पकड़ो
मुझे और छोड़ो मुझे। बनाओ मुझे सीढ़ी, चढ़ो मुझ पर, मगर
रुक मत जाना।'
सीढ़ी पर क्या करते हो? चढ़ते
हो। फिर ऐसा थोड़े ही है कि सीढ़ी पर ही बैठे रह जाते हो, कि
यह सीढ़ी इतनी दूर तक लाई, इतने ऊपर उठाया, अब
इसे कैसे छोड़ें!
नाव पर बैठते हो...बुद्ध निरंतर कहते थे कि
गुरु नाव है। तुम नाव पर बैठे; इस किनारे से उस किनारे उतर गए। फिर नाव को
सिर पर ले कर थोड़े ही चलते हो। फिर तुम यह थोड़े ही कहते हो कि यही नाव तो इस पार
लाई, इसने
इतना सुख दिया,
भटकते थे उस पार अंधेरे में, रोशनी तक
पहुंचाया,
अब इस नाव को सिर पर ले कर चलेंगे, अब
इस नाव का मंदिर बनाएंगे और पूजा करेंगे और इस नाव को अब कभी न छोड़ेंगे। तो झंझट
हो गई।
बुद्ध ने कहा है: ऐसा हुआ एक दफे, चार
मूढ़ नदी पार किए और चारों ने सिर पर उठा ली नाव और बाजार पहुंच गए। लोगों ने पूछा:
"यह तुम क्या कर रहे हो? नाव में तो लोग देखे, मगर
नाव लोगों पर कभी नहीं देखी।' पर उन्होंने कहा: "इस नाव को हम कभी न
छोड़ेंगे। यह बड़ी प्यारी है। इसी के कारण हम पार आए हैं। उस तरफ बड़ा खतरा था, रात
थी, अंधेरा
था, जंगली
जानवर थे। इसी नाव ने बचाया। अब हम ऐसे अकृतज्ञ थोड़े ही हैं कि इसे कभी छोड़ दें।
अब तो इसे हम अपने सिर पर रखेंगे। यह हमारा सिरताज है। इसे तो अपनी प्राणों की
धरोहर की तरह संभालेंगे।'
बुद्ध कहते, उन
पागलों को कोई समझाए कि नाव से पार तो होना है और नाव के प्रति धन्यवाद भी रखना है, क्योंकि
जो पार कराए उसके प्रति बड़ी कृतज्ञता का भाव--लेकिन नाव को सिर पर लेने की कोई भी
जरूरत नहीं है। वह तो मूढ़ता हो गई।
तो मैं समझा। निरुपमा ठीक कह रही है कि आपको
पा कर सुख मिला,
छाया मिली, एक शरण मिली। अब आप कहते हैं, मुझसे
भी पार जाओ। कष्ट भी होता है, वह भी मैं समझता हूं। पीड़ा भी होती है, वह
भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुम्हारे सामने केवल दो ही अनुभव हैं--एक गुरु से मिलने
के पहले का अनुभव और एक गुरु से मिलने के बाद का अनुभव।
मगर मेरे पास तीन अनुभव हैं। वह जो तीसरा
आगे का है उसकी भी कुछ सुधि रखो। और जब गुरु कहे कि चलो आगे हटो, और
आगे बढ़ो,
तो जिससे इतना सुख मिला है उसकी बात का भरोसा लेना। उससे और भी सुख
मिल सकता है।
परम गुरु तो परमात्मा है। इसलिए तो हम गुरु
को भी परमात्मा कहते हैं, क्योंकि गुरु सूक्ष्म रूप में परमात्मा का
प्रतिनिधि है। और परमात्मा विराट रूप में गुरु का विस्तार है।
जब मैं तुमसे कहता हूं मुझे छोड़ो तो तुम
मुझे वस्तुतः छोड़ थोड़े ही रहे हो। जब मैं तुमसे कहता हूं मुझे छोड़ो, तो
तुम मुझको और बड़े रूप में पा लोगे, और विराट रूप में
पा लोगे--जहां कोई सीमा न रहेगी, जहां झरना झरना न रह जाएगा, महासागर
होगा। छोटे-छोटे झरने भी महासागर से जुड़े हैं। उनमें जो जल की धार आती है, आती
तो महासागर से ही है। सारा जल तो उसका है।
जहां भी ज्ञान है और जहां भी रोशनी है, सभी
परमात्मा से बहती है।
तो गुरु तो गोमुख, उससे
गिरती गंगोत्री। दिल भर कर पीयो, नहाओ, डुबकी लगाओ! मगर
इस अनुभव से इतना ही लेना कि और आगे जाना है, और आगे जाना है।
कहीं रुकना नहीं जब तक कि परम स्थल न आ जाए, जिसके आगे जाने
की कोई जगह ही न हो। उसी को हम परमात्मा कहते हैं जिसके आगे फिर और जाने की कोई
जगह नहीं। गुरु के आगे जाने की थोड़ी जगह शेष है।
इसलिए तो नानक ने सिक्खों के मंदिर को
"गुरुद्वारा'
कहा। ठीक शब्द दिया। उसका अर्थ होता है, गुरु
द्वार है। द्वार पर रुकते थोड़े ही हैं, द्वार से गुजर
जाते हैं। द्वार पर बैठे थोड़े ही रहते हैं। देहरी पर बैठ गए तो पागल, न
घर के रहे न बाहर के। तो धोबी के गधे हो गए, न घर के न घाट
के। बाहर से भीतर जाना है। देहरी से पार होना है। द्वार से गुजर जाना है।
मंदिरों के लिए बहुत शब्द हैं--मस्जिद है, चैत्यालय
है, चर्च
है, सिनागॉग
है; मगर
सिक्खों ने जो शब्द दिया है, उससे सुंदर कोई शब्द नहीं--गुरुद्वारा! वह
बड़ा सार्थक है। उसका अर्थ है, गुरु द्वार है। सहारा लो, पार
हो जाओ। इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि तुमने धन्यवाद नहीं किया। पार हो कर तो तुम और
भी धन्यवादी हो जाओगे। इसको समझो। जब गुरु को पकड़ कर इतना सुख मिल रहा है और इतना
धन्यवाद है तो पार हो कर तो और परम धन्यवाद हो जाएगा।
इसलिए तो कबीर ने कहा: गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके
लागूं पांए! किसके पैर पडूं पहले? अब दोनों सामने खड़े हैं। कहीं ऐसा न हो कि मैं
पहले गोविंद के पैर पडूं तो गुरु का अपमान हो जाए! कहीं ऐसा न हो कि मैं गुरु के
पहले पैर पडूं तो गोविंद का अपमान हो जाए! बड़ी अड़चन है।
एक दिन ऐसी अड़चन आए तो बड़ा सौभाग्य। जिस दिन
तुम्हें आए,
धन्यभागी! यह घड़ी अड़चन की तो है, मगर
बड़े सौभाग्य की: जब "गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागूं पांए!
किसको पकडूं पहले! कहीं कोई अवज्ञा न हो जाए! कहीं ऐसा न हो कि कोई चूक हो जाए!
स्वभावतः कबीर घबरा गए होंगे। इधर खड़े
रामानंद,
उनके गुरु! इधर खड़े राम। किसके पैर लगूं पहले?
पंक्ति कबीर की बड़ी अदभुत है:
गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके
लागूं पांए।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद
दियो बताए।।
तो गुरु ने कहा: झिझक मत कर, अब
सोच-विचार मत कर,
गोविंद के पैर लग।
यह तो पद कहता है। इस पद के बड? अर्थ
हो सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि कबीर गुरु के ही पैर पड़े होंगे। यही अर्थ
ज्यादा सार्थक मालूम पड़ता है; क्योंकि जब वे कहते हैं, बलिहारी
गुरु आपकी! जब वे झिझके होंगे दोनों को सामने देख कर, "अब
किसके पैर पहले पडूं', तो गुरु ने जल्दी से इशारा कर दिया
कि परमात्मा के पैर लग, मेरी बात छोड़। मगर अब तो कैसे परमात्मा के
पहले पैर लगे जा सकते हैं! जिस गुरु की कृपा इतनी हो कि वह अपने से भी मुक्त करने
में सहयोगी हो रहा हो, उसके तो पैर पड़ने ही पड़ेंगे। इसलिए कहते
हैं: बलिहारी गुरु आपकी! धन्य हैं कि आपने इशारा कर दिया, अन्यथा
मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा था। आखिरी इशारा भी आपने कर दिया, स्वयं
को छोड़ने का इशारा भी आपने कर दिया।
तो मैं मानता हूं, पहले
तो वे गुरु के ही चरण लगे होंगे, क्योंकि यह धन्यवाद तो देना ही पड़ेगा।
गुरु का अर्थ ही यही है, जो
तुम्हें संसार के बाहर ले आए और जो तुम्हें परमात्मा में पहुंचा दे।
तो अभी निरुपमा, आधी
यात्रा हुई कि मैं तुम्हें संसार के बाहर ले आया। अभी यात्रा पूरी नहीं हुई। अभी
आधी यात्रा पर भी इतना स्वाद है! आधी यात्रा पर भी इतनी मस्ती है! अभी आधी यात्रा
पर भी इतनी मस्ती है! अभी आधी यात्रा पर भी ऐसा गीत गुनगुना रहा है, एक
सुख-सौरभ फैल रहा है, तो पूरी यात्रा की तो सोचो। अभी तो हम मंजिल
पर पहुंचे नहीं,
बीच के पड़ाव पर हैं।
मोह मत लगाना। पकड़ कर मत रुक जाना। रुक जाने
की आकांक्षा स्वाभाविक है, यह जानते हुए भी...
तुम जो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और
कितनी रंगीन मेरी शाम हुई जाती है।
गुरु अगर जीवन की सांझ में भी आ जाए, गुरु
अगर जीवन के अंतिम क्षण में भी आ जाए--कितनी रंगीन मेरी शाम हुई जाती है! तो शाम
भी सुबह हो जाती है और बुढ़ापा भी बचपन हो जाता है। फिर फूल खिल जाते हैं, फिर
कमल खिल जाते हैं,
फिर कमल खिल जाते हैं, फिर वसंत आ जाता
है।
तो मैं समझता हूं, तकलीफ
बिलकुल स्वाभाविक है।
कहीं दूर किरणों के तार झनझना उठे
सपनों के स्वर डूबे घरती के गान में
लाखों ही लाख दीए तारों के खो गए
पूरब के अधरों की हलकी मुसकान में
भोर हुई, पेड़ों की बीन
डोलने लगी
पात-पात हिले, डाल-डाल
डोलने लगी।
तुम्हारे प्राण पुलकित होंगे। गुरु का
संस्पर्श रोएं-रोएं को एक अपूर्व आनंद से भर जाएगा। एक नृत्य का जन्म होगा। एक गीत
जो तुमने कभी नहीं गाया, सुनाई पड़ने लगेगा अपने ही प्राणों के
अंतर्तम में। एक बीन बजने लगेगी जो कभी नहीं बजी थी और जिसके लिए जन्मों-जन्मों
आकांक्षा की थी। कुछ धुंधला दिखाई पड़ने लगा। मंजिल दूर भला हो, दिखाई
पड़ने लगी,
झलक आने लगी। जैसे बहुत दूर से हिमालय के से उत्तुंग शिखर दिखाई
पड़े हों,
हजारों मील दूर से, शुभ्र,हिमाच्छादित
हिमालय के उत्तुंग शिखर दिखाई पड़े हों--ऐसा कुछ दिखाई पड़ने लगा। धुंधला होगा अभी।
बदलियां होंगी। कभी खो जाएगा, कभी मिल जाएगा। कभी दिखाई पड़ेगा, कभी
फिर नहीं दिखाई पड़ेगा। ऐसी घटनाएं घटेंगी।
मगर रुक नहीं जाना है। जो झलक मिली है, उसे
वहां तक ले जाना है जहां झलक तुम्हारे जीवन का सत्य बन जाए। जो अभी तुम्हें सुख
मिला है वह मेरे माध्यम से मिला है। उस जगह पहुंचना है जहां तुम्हारे जीवन में
परमात्मा सीधा बरसे, मेरे माध्यम की जरूरत न रह जाए। मैं भी
तुम्हारे बीच में खड़ा रहूं तो उतनी अड़चन रह जाएगी, उतना
परदा रह जाएगा। प्यारा परदा सही, सोने-चांदी का परदा सही, हीरे-जवाहरातों
से जड़ा परदा सही--लेकिन उतना परदा रह जाएगा। उतना परदा भी नहीं रखना है। गुरु का
परदा भी हटा देना है।
आंचल थाम लिया है तुमने, इतना
ही आधार बहुत है!
--ऐसा
कहने का मन होगा। क्योंकि इतना घटता है कि लगता है इससे ज्यादा अब और क्या होगा? एक
बूंद भी अमृत की ओठों पर आ जाए तो लगता है अब इससे ज्यादा और क्या होगा!
आंचल थाम लिया है तुमने
इतना ही आधार बहुत है
नेह-नजर से देख रहे हो
इतना ही आभार बहुत है।
चाहे दूरी पर जलता हो
दीप रूप का जलता तो है
जिसे देख कर दुर्गम पथ पर
श्वास-पथिक यह चलता तो है
मेरी राहें चमकाने को
इतना ही उजियार बहुत है।
किसी सगे को तरस रहा था
मेरा एकाकीपन कब से
सारा जग अपना लगता है
तुम आए जीवन में जब से
तुम मेरे कोई अपने हो
इतना ही अधिकार बहुत है।
भीगे रहते अधर हंसी से
महका करता मन का उपवन
चहका करता प्राण-पपीहा
बरसा करता सुधि का सावन
सारी उम्र हरी रखने को
इतनी ही रसधार बहुत है।
बड़भागी मेरा मन कितना
जन्मों का वरदान मिला है
गाने को मृदु गान मिला है
पूजन को भगवान मिला है
कर चुका पाऊं न उम्र भर
इतना ही यह प्यार बहुत है।
समझा। तुम्हारी बात मेरी समझ में आती है।
तुम्हारी जगह मैं होता तो मैं यही कहता:
आंचल थाम लिया है तुमने
इतना ही आधार बहुत है।
पर और बहुत घटने को बाकी है। दूर से क्या
देखना दीए को,
पास पहुंचना होता है। पास पहुंचना ही नहीं होता, तुम
स्वयं ही दीए में लीन हो जाते हो, एक बन जाते हो।
पतंगे को देखा दीए पर मरते! ऐसा ही एक दिन
भक्त भगवान में लीन हो जाता है। उसी दिन घटी पूरी घटना। उससे पहले राजी मत होना।
उससे पहले बहुत बार मन होगा कि बस जाओ, सुंदर जगह आ गई, अब
और सुंदर जगह क्या होगी! मत रुकना, चलते ही जाना।
एक पुरानी सूफी कथा है। एक फकीर जंगल में
ध्यान करता और एक लकड़हारा रोज लकड़ियां काटता। फकीर को दया आई। बूढ़ा लकड़हारा, हो
गया होगा सत्तर वर्ष का। अब भी लकड़ियां काटता। हड्डी-हड्डी! देह दुर्बल, कमर
झुक गई। अब भी लकड़ियां ढोता। एक दिन उसने कहा कि सुन पागल, लकड़ियां
ही जिंदगी भर काटता रहा, जरा आगे जा! तो उस लकड़हारे ने कहा:
"आगे क्या होगा? जंगल ही जंगल है। मैं बूढ़ा हुआ, ज्यादा
चल भी नहीं सकता। इतनी ही दूर आना मुश्किल होता है, आगे
क्या करूंगा?'
उस फकीर ने कहा: "तू मेरी मान, आगे
जा। वहां एक खदान है। लकड़ियां तू सात दिन में जितनी काटता है उतना उस खदान से एक
दिन में मिल जाएगा।'
वह आगे गया। तांबे की एक खदान थी। तो वह
जितना तांबा ला सकता था, रोज बेच देता। सात दिन के लिए काफी हो जाता।
वह मस्त हो गया। फिर सात दिन तो वह आता ही नहीं। बस एक दिन आ जाता हर सप्ताह में।
उस फकीर ने कहा कि सुन, रुक मत, और जरा आगे जा, एक
और खदान है। उसने कहा: "करना क्या?' उसने कहा:
"वहां अगर जाएगा तो महीने भर में एक ही बार ले आएगा, पर्याप्त
होगा। चांदी की खदान है।' फकीर की बात माननी पड़ी। मन तो हुआ कि क्या
फायदा,
कौन पंचायत करे! क्या लेना-देना! मजे से गुजर रही है। इतना ही क्या
कम है! जिंदगी भर से हफ्ते में सात दिन लकड़ियां काटता था, तब
कहीं रोटी जुट पाती थी। अब बड़े मजे हो गए हैं। सात दिन में एक दिन हो आता हूं, सात
दिन मजा ही मजा है, विश्राम ही विश्राम है। खूब सुख मिल रहा है।
फकीर से उसने कहा: अब और मत उलझाओ। फकीर ने
कहा: "तेरी मरजी, मगर तू एक दफे तो जा।' उत्सुकता
जगी तो गया। मिल गई चांदी की खदान। तो महीने भर में एक ही दफे आने लगा। फकीर ने
कहा कि देख,
तुझे अक्ल अपने से नहीं आती। जरा और आगे जा, सोने
की खदान है। एक दफे ले आएगा, साल भर के लिए काफी है।
उसने कहा कि अब कहां उलझाते हो, इस
बुढ़ापे में कहां झंझट...। मगर फकीर पर भरोसा भी आने लगा कि बात तो अब तक दो बार
सही ठीक-ठीक निकली, ठीक ही कहता होगा। साल भर में एक बार! मैं
जिंदगी ऐसे ही गंवाया। जरा आगे मैं खुद क्यों न गया? यह
जंगल सदा मेरा था,
यहां सदा मैं आया, बस यहीं से लकड़ियां काट कर ही लौट गया, बाहर-बाहर
आया और लौट गया। कभी मैंने सोचा ही न कि जंगल में और संपदाएं भी हो सकती हैं!
तो वह गया। सोने की खदान मिल गई। फिर तो साल
में एकाध बार कभी दिखाई पड़े। उसे फकीर ने कहा: देख, अब
तू बहुत बूढ़ा हुआ जा रहा है, जरा और आगे जा। मूरख! अपने से क्यों नहीं
जाता?
उसने कहा: अब और क्या हो सकता है? सोना
तो आखिरी बात है।
फकीर ने कहा: कोई भी चीज आखिरी नहीं। जरा और
आगे जा।
वह गया, हीरों की खदान
मिल गई। वह तो एक ही बार ले आया तो जन्म भर के लिए काफी हो गया। फिर तो उसका पता
ही न चले। तो फकीर एक दिन उसके घर पहुंचा और बोला कि तू पागल है? दिखाई
नहीं पड़ता?
उसने कहा: अब करना क्या है? अपने
लिए ही काफी नहीं,
बच्चों के लिए भी काफी हो गया, एक दफा ले आए।
उसने कहा: जरा और आगे जा।
उसने कहा: अब क्या हो सकता है हीरों के आगे?
उसने कहा: हीरों के आगे मैं हूं। तू आ तो!
वह गया, तो हीरों के आगे
फकीर बैठा था--परम शांत! अपूर्व उसकी शांति थी। भूल गया लकड़हारा। उसके चरणों में
झुका तो उठा ही नहीं। घड़ियां बीज गईं। ऐसी शांति, ऐसा
आनंद उसने कभी जाना न था। एक जलधार बह रही थी। फकीर चिल्लाया कि पागल, फिर
रुक गया?
और थोड़ा आगे जा!
उसने पूछा: लेकिन अब और क्या हो सकता है? इससे
ज्यादा आनंद तो कभी मिला नहीं।
तो उसने कहा: और आगे जो, आगे
परमात्मा है।
यही कहता हूं निरुपमा से: और थोड़े आगे, और
थोड़े आगे!
गुरु के चरणों में सुख है। संसार से तौलो तो
अपूर्व,
परमात्मा से तौलो तो कुछ भी नहीं। परमात्मा के पहले नहीं रुकना है।
तुम्हारी तकलीफ को समझ कर यह कह रहा हूं।
छोड़ना बहुत मुश्किल है। पहले तो गुरु को पाना बहुत मुश्किल है। जन्मों-जन्मों में
कभी किसी से तालमेल बैठता है। जन्मों-जन्मों में बहुत से शिक्षकों से मिलना होता
है, लेकिन
तालमेल नहीं बैठता। जिससे तालमेल बैठ जाए, वह शिक्षक गुरु
हो जाता है। जिससे तालमेल न बैठे, वह कितना ही बड़ा गुरु हो, तुम्हारे
लिए गुरु नहीं,
शिक्षक ही रहता है।
तुम बुद्ध के पास जाओ; अगर
तालमेल बैठ जाए तो गुरु, अगर तालमेल न बैठे तो शिक्षक। तुम मेरे पास
आए; तालमेल
बैठ गया तो गुरु,
तालमेल न बैठा तो शिक्षक। तो मुझसे तुम कुछ सीख लोगे और चले जाओगे।
तालमेल बैठ गया तो जाना समाप्त हुआ; तुम मुझमें
डूबोगे,
सीखने पर बात समाप्त न होगी। तुम मेरे साथ आत्मरूप होने लगोगे। यही
संन्यास का अर्थ है। जिनका तालमेल बैठ गया, वे संन्यास की
तरफ उत्सुक होंगे। जो आए, सुना, अच्छा लगा, कुछ
थोड़ी सी बातें पकड़ लीं, चले गए। सम्हाल कर रखेंगे, संजो
कर रखेंगे बातों को, कभी-कभी याद कर लेंगे, मगर
हृदय से डूबे नहीं। पतंग न बने, मतवाले न हुए; बुद्धि
ने कुछ संपत्ति बना ली, लेकिन हृदय में कुछ भी न हुआ, रसधार
न बही।
संन्यास का अर्थ है: डूब गए। उन्होंने कहा:
अब ये चरण मिल गए,
अब ये छोड़ेंगे नहीं। अब इन चरणों के लिए पागल होने की तैयारी है।
तो पहले तो गुरु पाना कठिन, और
फिर जब गुरु मिल जाए तो दूसरी और बड़ी कठिन बात है कि एक न एक दिन गुरु कहता है:
"अब मुझे भी छोड़ो; क्योंकि मेरा तो उपयोग था कि तुम्हारा हाथ
पकड़ लूं और प्रभु तक पहुंचा दूं। मैं द्वार हूं, अब
यह प्रतिमा आ गई,
अब तुम मुझे भूल जाओ और प्रभु में डूब जाओ।' तब
और कठिन। पहले तो गुरु को पाना कठिन, फिर खोना और भी
कठिन है।
तुमने तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना सुना दिया
किस दिल से आह करके तमन्ना करे कोई।
--तुमने
तो कह दिया कि छोड़ दो प्रेम, छोड़ दो लगाव।
तुमने तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना सुना दिया
--तुमने
तो कह दिया,
आज्ञा दे दी कि छोड़ दो, तर्क कर दो इस
प्रेम को।
तुमने तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना सुना दिया
किस दिल से आह तर्केत्तमन्ना करे कोई।
लेकिन किस दिल से, कैसे
यह संभव होगा?
ऐसा कठोर कोई कैसे हो जाए कि प्रेम को छोड़ दे?
मुझको यह आरजू वो उठाएं नकाब खुद
उनको यह इंतजार तकाजा करे कोई।
अंतिम घड़ी में भी, अंतिम
घड़ी में,
परमात्मा से मिलने की घड़ी में भी...
मुझको यह आरजू वो उठाएं नकाब खुद
...कि
परमात्मा खुद उठाए अपना नकाब
उनको यह इंतजार तकाजा करे कोई।
और परमात्मा प्रतीक्षा करता है कि तुम
आकांक्षा करो,
प्रार्थना करो। कहो, मांगो, तब
उठे परदा।
या तो किसी को जुर्रते-दीदार ही न हो
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई।
--या
तो परमात्मा को देखने का पागलपन ही सवार न हो, या तो उस परम
प्रेमी को देखने की जिद ही सवार न हो...
या तो किसी को जुर्रते-दीदार ही न हो
...कोई
हिम्मत ही न करे...
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई।
और अगर तुमने हिम्मत की है तो अब इतनी
हिम्मत और करो कि मेरी निगाह से देखो।
जब मैं तुमसे कहता हूं मुझे छोड़ दो तो तुम
जरा मेरी निगाह का खयाल करो। मुझे कुछ दिखाई पड़ रहा है जो तुम्हें अभी दिखाई नहीं
पड़ रहा। इतनी दूर मेरी मान कर चले आए--कहा तांबे की खदान तो तांबे की खदान पर चले
आए; कहा
कि चांदी की खदान तो चांदी की खदान पर चले आए; कहा कि सोने की
खदान तो सोने की खदान पर चले आए; कहा कि ध्यान की खदान तो ध्यान में डूब
गए--अब थोड़े और आगे। वहां सब समाप्त हो जाता है--न कोई ध्यानी, न
कोई ध्यान;
न कोई शिष्य, न कोई गुरु; न
कोई खोजने वाला,
न कोई खोजी, न कुछ खोजा जाने को। वहां एक ही हो जाता है
सब। सरिता वहां सागर में मिलती है। वहां परम आनंद है। गुरु के पास जो मिला वह उस
परम आनंद की थोड़ी सी भनक है।
जैसे फूल की सुगंध हवाओं पर चढ़ कर तुम्हारे
नासापुटों तक आ गई हो। फूल दिखाई नहीं पड़ा तुम्हें। कहां है, कहीं
होगा जरूर। सिर्फ सुगंध आ गई है तैर कर। गुरु तो परमात्मा की सुवास है।
इस सुवास के सूत्र को पकड़ लो। इसी के सहारे
को पकड़ कर धीरे-धीरे फूल को खोज लो। गुरु को पकड़ कर फूल को खोज लेना है।
एक हिम्मत की--बड़ी हिम्मत है गुरु को पकड़ना।
क्योंकि गुरु को पकड़ने का मतलब है खुद को छोड़ना। गुरु को पकड़ने का अर्थ है खुद के
अहंकार को समर्पित करना। एक हिम्मत कर ली, खुद को छोड़ा, गुरु
को पकड़ा। अब एक और हिम्मत करना, गुरु को भी छोड़ देना। तब सारी पकड़ छूट
जाएगी। तब एक ऐसी स्थिति बनती है जहां कोई पकड़ने वाला नहीं और कुछ पकड़ा जाने को
नहीं। वहीं परमात्मा का अवतरण है।
साक्षी और भक्ति का मार्ग
तीसरा प्रश्न: साक्षी-भाव साधने में
कठिनाई है। क्या साक्षी-भाव के अतिरिक्त परमात्मा तक जाने का और कोई उपाय नहीं।
है। रोज तो उसकी हम बात कर रहे हैं। यह
दया-वाणी दूसरा ही उपाय है। भक्ति दूसरा उपाय है।
दो उपाय हैं। साक्षी--साक्षी यानी ध्यान। और
भक्ति--भक्ति यानी भाव।
साक्षी का अर्थ है: जाग कर देखो।
और भक्ति का अर्थ है: डूब जाओ, देखना
इत्यादि सब छोड़ो।
भक्ति का अर्थ है: सब तरह से विस्मरण में
डूब जाना। भजन में, नृत्य में, गीत
में इस तरह डूब जाना जैसे किसी ने शराब पी ली हो; भूल
ही गए;
आत्मविस्मरण हो गया।
आत्मविस्मरण एक उपाय है; और
आत्मस्मरण दूसरा। दोनों की प्रक्रियाएं अलग हैं, लेकिन
अंत एक। मार्ग भिन्न; मंजिल एक। आत्मस्मरण यानी साक्षी। अपने को
स्मरण रखो,
एक क्षण को भी भूलो मत। अपने को दूर रखो, प्रत्येक
चीज से दूर रखो। जो भी सामने आए, मुझसे भिन्न है--ऐसा स्मरण रखो। तादात्म्य
को बनने मत दो। कुछ भी हो, अगर साक्षी के सामने परमात्मा भी आएगा तो
साक्षी वहां भी साक्षी ही रहेगा। वह यह नहीं कहेगा कि मैं परमात्मा में लीन हो
जाऊं। लीनता साक्षी के मार्ग पर नहीं है। वह तो देखता रहेगा।
इसलिए साक्षी के मार्ग के अनुयायियों ने
क्या कहा,
मालूम है? बौद्धों ने कहा है: अगर बुद्ध भी रास्ते पर
आ जाएं साक्षी के तो तलवार उठा कर दो टुकड़े कर देना। साक्षी का अर्थ ही यह होता है
कि जो भी तुम्हारे सामने विषय बन जाए वह तुम नहीं हो। तुम आंख बंद करके ध्यान करने
बैठे और कृष्ण खड़े हो गए, बांसुरी बजाने लगे, उठा
कर तलवार दो टुकड़े कर देना। यह मैं नहीं, मैं तो देखने
वाला हूं। जिस दिन ऐसा करते-करते, नेति-नेति, इनकार
करते-करते,
यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं, सब
विषय खो जाएं,
निर्विषय चित्त हो जाए, निर्विचार, निर्विकल्प, कोई
विकल्प न रह जाए,
परम सन्नाटा हो जाए, बस तुम अकेले रह
जाओ जानने वाले और जानने को कुछ भी शेष न रहे--तो आ गए, पहुंच
गए।
तो साक्षी की यात्रा से चलने वाला परमात्मा
को सामने नहीं देखेगा। साक्षी से चलने वाला अनुभव करेगा, मैं
परमात्मा हूं। इसलिए उपनिषद कहते हैं: "अहं ब्रह्मास्मि!' वह
साक्षी का मार्ग है। इसलिए मंसूर कहते हैं: "अनलहक! मैं सत्य हूं!' वह
साक्षी का मार्ग है।
साक्षी के मार्ग पर एक दिन जब सारा विकार
शांत हो जाता है मन का, तो तुम स्वयं ही परमात्मा के उद्घोष हो जाते
हो।
पूछा है: "साक्षी-भाव कठिन है।'
कोई चिंता न लो। दूसरा मार्ग है--ठीक साक्षी
से विपरीत। जिसको साक्षी नहीं जमता, उसे दूसरा जमेगा
ही। दो ही तरह के लोग हैं। जैसे शरीर के तल पर स्त्री और पुरुष हैं, ऐसे
ही चैतन्य के तल पर भी स्त्री और पुरुष हैं। पुरुष का अर्थ होता है साक्षी।
"पुरुष'
शब्द का भी अर्थ साक्षी होता है। "पुरुष' शब्द
भी साक्षी-मार्ग का शब्द है। पुरुष चित्त--और ध्यान रखना, जब
मैं कहता हूं पुरुष चित्त, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि सभी पुरुष पुरुष
हैं; बहुत
पुरुष हैं कि जिनको कि पुरुष-चित्तता नहीं जमेगी। और जब मैं कहता हूं स्त्रियां, तो
स्त्रियां स्त्रियां हैं, ऐसा भी नहीं। बहुत सी स्त्रियां हैं जिनको
साक्षी-भाव जमेगा। इसलिए शरीर के तल पर जो भेद है, उससे
मेरे भेद को मत बांध लेना। यह भीतर का भेद है। स्त्री-चित्त पुरुष में भी हो सकता
है। पुरुष-चित्त स्त्री में भी हो सकता है। पर इनका भेद साफ है।
स्त्री-चित्त--भक्ति, भाव
विस्मरण! फर्क: साक्षी में जो दिखाई पड़े, उसको काटना है, अलग
करना है और केवल द्रष्टा को बचाना है। और भक्ति में जो दिखाई पड़ रहा है उसको बचाना
है और द्रष्टा को डुबा देना है। दोनों बिलकुल अलग हैं, ठीक
विपरीत हैं। कृष्ण खड़े हैं...मूर्ति कृष्ण की खड़ी हुई है भाव में, तो
अपने को विसर्जित कर देना है और कृष्ण को बचा लेना है। अपना सारा प्राण उनमें
उंडेल देना है। इस भांति प्राण उंडेल देना है कि तुम्हारी ही प्राण-ऊर्जा कृष्ण की
बांसुरी बजाने लगे। यही तो भक्त करता रहा।
भक्त का मार्ग और साक्षी का मार्ग इतना
भिन्न है कि दोनों की भाषाएं भी अलग-अलग हैं। भक्त कहता है: आत्मविस्मरण, अपने
को भूलो! मस्ती में, प्रभु, स्मरण में डुबाओ!
अपने को इस भांति भूल जाओ जैसे शराबी भूल जाता है शराब में। परमात्मा का नाम बनाओ
शराब। ढालो घर में शराब, इसे पीयो। हो जाओ मतवाले।
अगर तुम्हें अड़चन आती हो साक्षी-भाव में तो
घबराने की कोई जरूरत नहीं। भक्ति तुम्हारे लिए मार्ग होगा। मस्ती, मतवालापन...उस
तरफ चलो। नाचो-गुनगुनाओ! हरिनाम में डूबो। यही दया का संदेश है--यही सहजो का; यही
मीरा का।
विजन वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहागभरी
स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल कोमल तनु तरुणी
जूही की कली
सोती थी
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल
इस पर भी जागी नहीं
चूक, क्षमा मांगी नहीं
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र
मूंदे रही
किंवा मतवाली थी
यौवन की मदिरा पीए कौन कहे
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंको की झड़ियों से
सुंदर सुकुमार देह
सारी झकझोर डाली
मसल दिए
गोरे कपोल गोल
चौंक पड़ी युवती
चकित चितवन ने
चारों ओर फेर
हेर प्यारे को सेज पास
नम्रमुखी हंसी, खिली
खेल रंग प्यारे संग।
भक्ति है प्यारे की खोज। भक्ति में परमात्मा
सत्य नहीं है,
परमात्मा प्रिय है, प्रेय है। भक्ति
है प्रीतम की खोज।
हेर प्यारे को सेज पास
नम्रमुखी हंसी, खिली
खेल रंग प्यारे संग।
भक्ति का मार्ग बहुत रंगभरा है। भक्ति का मार्ग
वसंत का मार्ग है। खूब फूल खिलते हैं भक्ति के मार्ग पर। वीणा बजती है, मृदंगों
पर थाप पड़ती है। भक्ति का मार्ग घूंघर का मार्ग है, नृत्य
है, गान
है, गीत
है, प्रेम
है, प्रीति
है। और सारा प्रेम और प्रीति प्रभु-चरणों में समर्पित है। सारा प्रेम गागर भर-भर
कर उसके चरणों में उंडेल देनी है। अपने को इस भांति उंडेल देना है कि पीछे कोई बचे
ही नहीं। सब उंडेल देनी है। अपने को इस भांति उंडेल देना है कि पीछे कोई बचे ही
नहीं। सब उंडल जाए तो पहुंचना हो जाए।
जिनको भक्ति कठिन लगे उनके लिए साक्षी है।
पहले तो भक्ति को ही तलाश लेना। क्योंकि भक्ति अधिक लोगों को सुगम मालूम पड़ेगी।
रसपूर्ण भी है। जहां नाच कर पहुंचा जा सकता हो वहां चल कर क्या पहुंचना! जहां गीत
गा कर पहुंचा जा सकता हो वहां उदास शक्लें ले कर क्या पहुंचना! जहां मृदंग को बजा
कर उल्लास से पहुंचा जा सकता हो, जहां प्रफुल्लता साथ-संग रहे, वहां
महात्मागीरी,
विरागी, उस सब में क्यों पड़ना! वह उनके लिए छोड़ दो
जिनको भक्ति न जमती हो। भक्ति जम जाए, प्रेम जम जाए, तो
सब जम गया;
कुछ और जमाना नहीं।
लेकिन मैं जानता हूं, तकलीफ
कुछ ऐसी है कि अगर मैं कहूं भक्ति तो घबराहट होती है। तो मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे
कहते हैं: भक्ति में तो जरा हिम्मत नहीं पड़ती। इतना पागल होने की हिम्मत नहीं
पड़ती। लोग पागल भी हिसाब से होते हैं...इतने तक होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी बिस्तर
पर पड़ी। मरते वक्त उसने कहा कि नसरुद्दीन, मैं मर जाऊंगी तो
तुम क्या करोगे?
मुल्ला ने कहा, मैं पागल हो जाऊंगा। पत्नी ने कहा:
"अरे छोड़ो भी! किसको समझा रहे हो! मैं मरूंगी भी नहीं इधर कि उधर तुम दूसरा
विवाह रखा लोगे।'
मुल्ला ने कहा: "पागल तो होऊंगा, लेकिन
इतना पागल नहीं।'
लोग पागल भी हिसाब से होते हैं--कहां तक
जाना! अगर भक्ति की कहता हूं तो लोग आ जाते हैं, वे
कहते हैं कि यह तो जरा पागलपन का मार्ग है। नाचना, गाना, कीर्तन, यह
तो जैसे मीरा ने कहा न, सब लोक-लाज खोई, इसमें
तो सब लोक-लाज खो जाएगी! मैं तो डिप्टी-कलैक्टर हूं कि तहसीलदार हूं कि डॉक्टर हूं
कि इंजीनियर हूं कि यह मामला तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
एक डाक्टर मुझे देखने आते थे। कुछ मेरे
अंगूठे में तकलीफ थी तो उन्होंने ऑपरेशन किया। प्यारे आदमी हैं। संयोगवशात वे
ऑपरेशन करने आए तो मेरे प्रेम में पड़ गए। कहने लगे: "आऊंगा, लेकिन
अभी नहीं। जरूर आऊंगा। आना है एक दिन, लेकिन अभी डर लगता
है।'
मैंने कहा: "क्या डर है?'
उन्होंने कहा: "डर यही है कि आपके पास
आया और कहीं यह नाचना, गाना, यह जम गया...और
मुझे डर है कि जम सकता है, क्योंकि मेरे भीतर सदा से यह भाव है...तो
बड़ी अड़चन होगी।'
नहीं आए। दुबारा नहीं आए। कई दफा खबर करते
हैं कि आना है,
आता हूं, मगर अभी तक दिखाई नहीं पड़े। उनको पता भी है
कि यह घटना घट सकती है। घट सकती है। उनके हृदय में वैसा रस है। मगर बाहर एक और ढंग
की प्रतिष्ठा है। उसके विपरीत जाती है बात। बाहर लोग समझते हैं, डाक्टर
हैं, गंभीर
हैं, बड़े
सर्जन हैं! अब ऐसा नाचने-कूदने लगें...।
और वे कहने लगे कि मुझे डर यह है कि अगर मैं
आया तो मैं यह गेरुआ वस्त्र भी पहन ही लूंगा। क्योंकि जब से आया हूं आपके पास, इनका
सपना मुझे आने लगा है। जिस दिन आपके हाथ का ऑपरेशन किया उस रात मैंने सपना देखा कि
मैं गेरुआ वस्त्र पहने नाच रहा हूं।...यह नहीं। यह अभी नहीं। अभी आप मुझ पर कृपा
करो। अभी मेरे बच्चे हैं, पत्नी है और अभी सब जम रहा है। अभी
व्यवस्था...। एक दिन आना है, मगर आज डर है।
ऐसे बहुत लोग हैं जिनको भक्ति में भय लगता
है। अगर उनसे कहो साक्षी, तो साक्षी जमता नहीं। क्योंकि साक्षी कठोर
मार्ग है--तपश्चर्या का, साधना का, रूखा-सूखा!
वहां रूखा-सूखापन है तो घबराहट होती है। जहां रसधार बहती है वहां लगता है कहीं
पागल न हो जाएं।
भक्ति तो पागल का मार्ग है। और पागलपन में
हिसाब-किताब नहीं चलते। अगर हिसाब-किताब रखना हो तो साक्षी का मार्ग है। वहां गणित
है। वहां शुद्ध गणित है। वहां पागलपन कभी नहीं आता। वहां पागलपन का कोई उपाय ही
नहीं है। वहां तो सीधी की सीधी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। तुम्हें जो रुचि पड़ती
हो...। लेकिन एक न एक दफा तय करना पड़ेगा।
मेरे अनुभव में ऐसा आया कि अगर भक्ति की
लोगों से कहो तो वे साक्षी की सोचते हैं, क्योंकि भक्ति
में डर लगता है। अगर साक्षी की कहो तो वे भक्ति की सोचते हैं। क्योंकि साक्षी में
लगता है,
बहुत कठोर है। डर लगने लगता है कठोरता का।
नहीं, इतने रूखे-सूखे
शायद हमारी सामर्थ्य नहीं है। और फिर जैसे ही तुम साक्षी में प्रवेश करोगे, जीवन
में से सारा रस खोने लगेगा। अगर तुमने साक्षी का प्रयोग किया तो तुम अपनी पत्नी को
तो देखोगे,
लेकिन तुम यह न देख सकोगे कि वह तुम्हारी है। "मैं'-भाव
विलीन हो जाएगा। सिर्फ साक्षी रह जाओगे। कोई गाली देगा तो वह तो सुनाई पड़ेगा कि
गाली दे रहा है,
लेकिन अपमान नहीं होगा। क्योंकि साक्षी को कैसा अपमान! कोई फूलमाला
पहनाएगा तो यह तो लगेगा कि गले में फूलमाला डाली गई, ठीक; मगर
कोई सम्मान नहीं होगा। तो अड़चन आती है। इसमें तो सारा जीवन दांव पर लग जाएगा। अभी
तो थोड़ा रस है कि कोई फूलमाला डाले। अभी तो फूलमाला डाली भी कहां गई! अभी तो
प्रतीक्षा ही कर रहे थे, उसके पहले साक्षी होने लगे, तो
अड़चन है। अभी तो कोई गाली दे तो बदला लेने का मन होता है।
तो साक्षी इस सबसे तोड़ देगा। साक्षी का तो
अर्थ ही होता है संसार में रहोगे और एकदम अछूते खड़े हो जाओगे। कुछ नहीं छुएगा। जल
में कमलवत। उतनी हिम्मत भी नहीं होती।
कोई चिंता की बात नहीं है भक्ति में। लेकिन
भक्ति में और दूसरा मामला है। अगर पत्नी को भक्ति की नजर से देखोगे तो परमात्मा
दिखाई पड़ेगा। अगर पति को भक्ति की नजर से देखोगे तो परमात्मा दिखाई पड़ेगा। बेटे
में भी परमात्मा दिखाई पड़ेगा। तो भी पागलपन मालूम पड़ता है। पत्नी में परमात्मा! यह
जरा बात जंचती नहीं। स्त्रियों को चाहे जंच भी जाए कि पति में परमात्मा, क्योंकि
हजारों साल से समझाया गया है; लेकिन पत्नी में परमात्मा! तो पतिदेव को जरा
अड़चन होती है। लेकिन अगर तुमने भक्ति का भाव रखा तो किसी दिन तुम पाओगे कि पत्नी
के चरणों में सिर रख दिया।
मेरे एक मित्र थे। सरल हृदय हैं। एक रात
मुझसे कुछ देर तक बात करते रहे। बात उनको जंच गई। किसी निमित्त यह बात निकल पड़ी
परमात्म-भाव की,
तो मैंने कहा, सभी में परमात्मा है, पत्नी
में भी परमात्मा है। मैं सिर्फ उदाहरण को कह रहा था। उनको बात जंच गई। वे घर गए, जा
कर पत्नी के चरणों में सिर रख दिया। पत्नी तो घबरा गई। उसने घर के लोगों को जगा
दिया कि इनको क्या हो गया! और उनको पत्नी के चरणों में सिर रख कर ऐसा मजा आया कि
उन्होंने घर में जो भी था, सबके चरणों में सिर रखा। नौकर-चाकर...। घर
के लोग समझे कि गए! इनका दिमाग खराब हो गया है।
मुझे रात दो बजे आ कर जगाया कि आपने यह क्या
कर दिया। मैंने कहा: इसमें क्या बुराई हो गई है? पत्नी
सदा पति के चरण छूती रही, तुमने कभी न समझा कि पागल है। आज पति ने छुए
तो हर्ज क्या हो गया?
उन्होंने कहा: आप क्या बातें कर रहे हैं? हम
पहले से ही उनको समझाते कि आपके पास न जाया करो।
और उनको ऐसा मजा आया यह सब देख कर कि वे तीन
महीने तक इस मस्ती में रहे। घर के लोग तो उनके पीछे पड़ गए--दवा-दारू और
झाड़ा-फूंक...। और वे हंसें। कहें कि मैं पागल नहीं हूं। भूत-प्रेत की झड़वाई शुरू
हो गई कि कोई भूत-प्रेत तो नहीं लग गया। और आखिर उन्होंने मेरी न सुनी। उनको
इलेक्ट्रिक शॉक दिलवा दिया। यह तो बात बिगड़ती चली गई। और वे तो ऐसी मस्ती में आ गए
कि राह चलते किसी के भी पैर छूने लगे। और जरा भी खराबी न थी, जरा
भी खराबी न थी। भोले सरलचित्त आदमी थे।
तो भक्ति में भी डर लगता है, क्योंकि
भक्ति एक दूसरा जगत खोलती है।
तो अक्सर ऐसा होता है यहां। जब मैं साक्षी
पर समझाता हूं तो लोग आ जाते हैं कि इसमें अड़चन है। भक्ति पर समझाता हूं तो आ जाते
हैं कि इसमें अड़चन है। एक बार तुम ठीक से तय कर लो। और तय करने में ध्यान रखना, अड़चन
इत्यादि का हिसाब मत लगाओ। तय करने में एक ही बात विचारणीय है कि तुम्हें किस बात
से तालमेल बैठता है। और कोई बात महत्वपूर्ण नहीं है। शेष सब बातें गौण हैं। अगर
तुम्हें लगता है कि भक्ति तुम्हारे लिए रसपूर्ण है तो हिम्मत करो। और यह मत करो कि
एक दिन करेंगे। क्योंकि वह एक दिन कभी भी नहीं आएगा। आज नहीं तो कभी नहीं। कल आता
नहीं। और कौन जाने मौत पहले आ जाए!
तो जो भी तुम्हें लगता हो कि मेरे हृदय के
भीतर तरंगित होता है, मेरे हृदय में बजती है धुन जिस बात की...।
मीरा को नाचते सोचते हो, तुम्हारे मन में धुन बजती है कि तुम भी नाचो
कभी ऐसे?
कि बुद्ध को शांत साक्षी बने बैठे देखा है कि मूर्ति देखी है बुद्ध
की कभी,
तुम्हें ऐसा लगता है कि ऐसा मेरा रूप हो, ऐसा
मैं बैठ जाऊं?--किससे
तालमेल बैठता है।
और सब बातें विचारणीय नहीं हैं। न तो यह
विचारणीय है कि तुम किस घर में पैदा हुए हो। हो सकता है, जिस
घर में तुम पैदा हुए हो वहां भक्ति मार्ग है, वल्लभमार्गी हो
कि रामानुज-मार्गी हो; मगर अगर तुमको बुद्ध में रस है और महावीर
में रस है और तुम्हें उनकी प्रतिमा पुकारती है तो फिक्र छोड़ो। घर में पैदा होने से
कुछ लेना-देना नहीं है। तो तुम्हारे लिए वही मार्ग है साक्षी। और इससे भी कुछ फर्क
नहीं पड़ता कि तुम जैन घर में पैदा हुए हो कि बौद्ध घर में पैदा हुए हो, कि
वेदांती हो,
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हृदय को टटोलो। अगर वहां लगता है कि जब
मीरा का भजन सुनते हो तो कोई डोलने लगता है भीतर, कि
मीरा के हाथ में उठी वीणा को देख कर तुम्हारे स्वप्न में भी कोई वीणा उठाने लगता
है; कल्पना
उठती है कि कभी तुम भी ऐसे ही मग्न हो कर, मस्त हो कर नाचो, सब
भूल-भाल कर नाचो,
और उस कल्पना में भी रसधार आने लगती है, बहने
लगती है और एक सुवास फैलने लगती है--तो फिर छोड़ो फिक्र कि तुम जैन घर में पैदा हुए
कि बौद्ध घर में,
कि वेदांती हो कि क्या, ये सब फिजूल की
बातें हैं। घर में पैदा होना, किस घर में पैदा होना केवल संयोग की बात है।
हृदय को पहचानो। वहीं तुम्हारा असली घर है।
वहीं से पकड़ो अपने सूत्र को और फिर कठिनाइयां तो सभी रास्तों पर आएंगी। तुम यह
सोचते हो कि,
ऐसा कोई रास्ता हो जिस पर कठिनाई आती ही न हो, तो
कोई रास्ता नहीं है। फिर तुम चल ही न पाओगे। कठिनाइयां तो सभी रास्तों पर आएंगी।
कठिनाइयों का तो मतलब ही इतना होता है कि तुमने अब तक एक जीवन की शैली बनाई थी, ढांचा
बनाया था,
उसमें बदलाहट करनी होगी। इसलिए कठिनाई आती है। तुमने अब तक लोगों
को अपना एक रूप दिखाया था, अब तुम्हारा दूसरा रूप प्रगट होगा तो कठिनाई
होती है। मगर कठिनाई तो जल्दी हल हो जाती है। हिम्मत चाहिए।
इसलिए मैं साहस को धार्मिक व्यक्ति का पहला
गुण कहता हूं। जो साहसी नहीं है वह धार्मिक न हो सकेगा। धर्म कायर के लिए नहीं है।
तो तुमसे मैं कहूंगा कि साक्षी नहीं सध सकता, उदास
न हो जाओ,
निराश न हो जाओ। साक्षी नहीं सधता, अगर
यह बात तुम्हारे लिए साफ हो गई, तो दूसरा मार्ग स्पष्ट है। दो के अतिरिक्त
तीसरा कोई मार्ग नहीं है। और एक सधेगा ही। एक सधना ही चाहिए। दो ही तरह के लोग हैं
संसार में। तो फिर तुम गाओ, गुनगुनाओ, डूबो
रामरूप में।
धनियों के तो धन हैं लाखों
मुझ निर्धन के धन बस तुम हो!
गाओ! प्रभु के चरणों में सिर रखो! और सभी
तरफ उसी के चरण हैं। जहां सिर रखो वहीं उसी के चरण हैं।
कोई पहने माणिक-माल
कोई लाल जड़ावे
कोई रचे महावर मेहंदी
मोतियन मांग भरावे
सोने वाले चांदी वाले
पानी वाले पत्थर वाले
तन को तो लाखों सिंगार हैं
मन के आभूषण बस तुम हो!
कहो, प्रभु से कहो...
कोई जावे पुरी-द्वारिका
कोई ध्यावे काशी
कोई तपे त्रिवेणी संगम
कोई मथुरावासी
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम
भीतर-बाहर सब जग जाहिर
अन्यों के सौ-सौ तीरथ हैं
मेरे वृन्दावन बस तुम हो।
करो निवेदन...
अन्यों के तीरथ सौ-सौ
मेरे वृन्दावन बस तुम हो।
कोई करे गुमान रूप पर
कोई बल पर झूमे
कोई मारे डींग ज्ञान की
कोई धन पर घूमे
काया-माया जोरू जाता
जस-अपजस सुख-दुख त्रितापा
जीता-मरता जग सौ विधि से
मेरे जन्म-मरण बस तुम हो।
खोजो, प्रेम से खोजो
अगर साक्षी नहीं जमता। भक्ति से खोजो, अगर साक्षी नहीं
जमता। मगर खोजो जरूर। ऐसी कठिनाइयां बता-बता कर अपने को समझा मत लेना कि कठिन है, कैसे
जाएं! जाना है तो जाना है, कठिनाइयों की कौन फिक्र करता है। कठिनाइयों
की बहुत फिक्र इसलिए होती है कि जाने की हिम्मत नहीं जुड़ रही। तो कठिनाइयों का जाल
खड़ा कर लेते हो।
सुना है मैंने, सम्राट
अकबर शिकार करके लौटता था। सांझ हो गई, नमाज का समय हो
गया, तो
एक गांव के किनारे कपड़ा बिछा कर एक वृक्ष के तले नमाज पढ़ने बैठा। बैठा ही था, नमाज
में उतर ही रहा था कि एक स्त्री भागी हुई आई। एक जवान मदमस्त पागल सी स्त्री, अल्हड़, भागी
हुई आई। उसके नमाज के लिए बिछाए गए कपड़े पर से दौड़ती हुई उस स्त्री की साड़ी अकबर
को छूती हुई,
विघ्न डालती हुई, वह भाग गई, निकल
गई पास से। अकबर बहुत नाराज हुआ। लेकिन बीच नमाज में तो बोल भी न सकता था।
जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, घोड़ा कस कर खोजने जा रहा था कि स्त्री कौन
है। इस तरह की बेहूदगी! एक तो कोई भी नमाज पढ़ता हो तो भी इस तरह की बेहूदगी गलत है; फिर
सम्राट! लेकिन जाने की जरूरत न पड़ी। वह स्त्री लौट कर आ रही थी। तो उसने उसे रोका
कि ऐ बदतमीज औरत,
तुझे इतनी भी समझ नहीं कि कोई प्रभु की प्रार्थना कर रहा है तो
बाधा नहीं डालनी चाहिए? और तुझे यह भी नहीं दिखाई पड़ता कि खुद
सम्राट प्रार्थना कर रहा है?
उस स्त्री ने गौर से देखा। उसने कहा: अब आप
याद दिलाते हो तो मुझे खयाल आता है कि जरूर कोई नमाज पढ़ता था जब मैं यहां से भागी
गई। और मुझे याद आता है कि मेरी साड़ी का पल्लू किसी को छुआ था। आप ठीक याद दिलाते
हैं। लेकिन मेरा प्रेमी आ रहा था। और मैं उससे मिलने जा रही थी। और मुझे कुछ भी
नहीं सूझ रहा था। आप मुझे क्षमा कर दें। एक बात भर मुझे आपसे पूछनी है कि तुम अपने
परमात्मा से मिलने जा रहे थे, तुम परम प्रेमी से मिलने जा रहे थे--और
तुम्हें मेरी साड़ी के पल्लू के छू जाने का पता चल गया? और
मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी, मुझे तुम्हारा
पता न चला। मेरा धक्का तुम्हें लगा, तुम्हारा धक्का
मुझे न लगा। यह बात जरा, सम्राट, जमती नहीं। यह
नमाज कैसी थी?
सम्राट ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि
मेरे मन पर जो चोट पड़ी, वह कभी न भूली। सच मेरी नमाज नमाज न थी। ये
छोटी-मोटी बाधाएं कि कोई पास से गुजर गाय, बाधा पड़ जाए। अगर
प्रेम हो तो बाधा पड़ जाए! अगर भीतर रस बह रहा हो तो किसी की साड़ी छू जाए, इससे
बाधा पड़ जाए,
कि कपड़ा लग जाए, इससे बाधा पड़ जाए!
तुम भी बैठते हो ध्यान करने, छोटी-छोटी
चीज से बाधा पड़ जाती है। बाधा इसलिए पड़ जाती है कि अभी ध्यान ध्यान नहीं है। भजन
करने बैठते हो,
छोटी-छोटी चीज से बाधा पड़ जाती है, क्योंकि
भजन भजन नहीं।
तुम ढोंग कर रहे हो, तो
सब चीजों में अड़चन आएगी। प्रामाणिक बनो। एक बात तय करो कि तुम्हारे हृदय में कौन
सी चीज का तालमेल बैठता है, कौन सी बात संगत बैठती है। फिर उस पर चलो।
और चलो हृदयपूर्वक। डुबाओ अपने को पूरा। पूरा डुबाए बिना न तो साक्षी पहुंचता है न
भक्त पहुंचता है;
न ध्यानी न प्रेमी। डुबाना तो पड़ेगा ही। अगर तुम सोचते हो कि
डुबाने में ही अड़चन आ रही है तो फिर तुम कभी न चल सकोगे। डूबना तो है ही। या तो
साक्षी में डूबो या भक्ति में डूबो। डूबना तो पड़ेगा ही।
दोनों मार्ग की कठिनाइयां है, दोनों
मार्ग की खूबियां हैं। ऐसा नहीं है कि कोई ऐसा मार्ग है जिस पर कोई कठिनाई ही नहीं
है। फिर मार्ग ही क्या होगा? चलोगे तो अड़चन तो होगी। यात्रा करोगे तो
धूप-धाम भी सहनी पड़ेगी। कंकड़-पत्थर भी रास्ते पर हैं, कांटे
भी हैं।
लेकिन जिसके जीवन में परमात्मा की सुधि आ गई, जिसके
जीवन में दौड़ पैदा हो गई, वह सब कठिनाइयों को भूल जाता है, कठिनाइयां
भी सीढ़ियां बन जाती हैं।
आज इतना ही।
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