हरि बोलौ हरि बोल—सातवां प्रवचन
: दिनांक ७ जून, १९७८; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
बांकि बुराई छाड़ि सब, गांठि
हृदै की खोल।
बेगि विलंब क्यों बनत है हरि बोलौ हरि बोल।।
हिरदै भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।
को तेरौ तू कौन को हरि बोलौ हरि बोल।।
तेरौ तेरे पास है अपनैं मांहि टटोल।
राई घटै न तिल बढ़ैं हरि बोलौ हरि बोल।।
सुंदरदास पुकारिकै कहत बजाए ढोल।
चेती सकै तौ चेतिले हरि बोलौ हरि बोल।।
पिय कै विरह वियोग भई हूं बावरी।
शीतल मंद सुगंध सुहात न बावरी।।
अब मुहि दोष न कोई परौंगी बावरी।
परिहां सुंदर चहुं विश विरह सुघेरि बावरी।।
पिय नैननि की बोर बैन मुहि देहरी।
फेरि न आए द्वार न मेरी देह री।
विरह सु अंदर पैठि जरावत देहरी।
सुंदर विरहिणी दुखित सीख दे देहरी।।
दूभर रैनि बिहाय अकेली सेज री।
जिनकै संगि न पीव बिरहनी से जरी।
विरह सकल वाहि बिचारी सेजरी।
सुंदर दुख अपार न पाऊं से जरी।।
नई
दिल्ली से एक मित्र रतन प्रकाश ने लिखा है:
मेरे
महबूब, मेरे दिलबर, मेरे रहबर!
आज
के दिन भी तेरी महफिल सजी होगी
जोक
दर जोक लोग आए होंगे
मुंतजिर
होंगे तुझे देखने तुझे सुनने को
आज
के दिन तू फिर बन संवर के आया होगा
धीरे-धीरे
हाथों को जोड़े हुए
अंधेरे
बादलों से जैसे चांद निकलता हो
गुलफशानी
भी हुई होगी अमृत वर्षा भी
तूने
हयातो कायनात के राज खोले होंगे
फिर
इक कुफ्र की दीवार भी गिरी होगी
वो
दीवार जिसने कर दी स्याह पिछली सदियां भी
तेरे
तराजू ने झूठ और सच तौले होंगे
खुदाई
के नाम पर जिन्होंने दुकानें सजा रक्खी हों
उनके
ताबूत में कीलें गाड़ी होंगी
भटकी
हुई रूहों को तसकीन मिली होगी
जन्मों
के प्यासों को जाम पिलाए होंगे
झूम
कर उठे होंगे रिंद तेरे मैखाने से
तूने
क्या कहा होगा,
आज क्या कहा होगा
यही
दिल सोचता है,
यही दिल पूछता है
मेरे
महबूब अफसोस,
मेरे दिलबर, मेरे रहबर,
मैं
नहीं हूं आज वहां मैं नहीं हूं
मेरे
महबूब, मेरे दिलबर, मेरे रहबर
यही
दिल सोचता है,
यही दिल पूछता है।
मैं
एक ही बात कह रहा हूं। एक ही अंदाज है मेरा, एक ही बयां! एक ही तरफ इशारा है।
रोज नई-नई बता नहीं कहा हूं। वही बात कह रहा हूं, फिर-फिर
वही कह रहा हूं। एक ही बात दोहरा रहा हूं, लेकिन आदमी के कान
बहरे हैं। आदमी चूक-चूक जाता है।
और
ऐसा ही नहीं कि मैं एक बात दोहरा रहा हूं, एक ही बात सदा से दोहराई जा रही
है। सारे बुद्धों ने एक बात कही है--हरि बोलौ हरि बोल! उस एक बात में सब समाया है:
मैं का स्मरण छूटे और प्रभु का स्मरण आए! मैं मिटूं और वह हो जाए! मैं हटूं,
मैं न बचूं। मैं बांस पोंगरी हो जाऊं उसके गीत मुझसे बहें, मेरा अवरोध न हो। मैं बीच में पत्थर बनकर अटकूं न। उसकी मर्जी पूरी हो! एक
ही बात है।
शायद
तुम्हें लगता हो कि रोज-रोज मैं नई बातें कहता हूं। नई बात कहने को नहीं है। सत्य
एक है, झूठ अनेक हैं। अगर झूठ कहना हो तो रोज-रोज नए कहे जा सकते है। क्योंकि झूठ
की ईजाद की जा सकती है। आदमी झूठ को बना सकता है। झूठ जितने चाहो उतने हो सकते हैं;
जैसे बीमारियां जितनी चाहो उतनी हो सकती हैं; स्वास्थ्य
एक है। स्वास्थ्य के नाम भी नहीं होते। तुम अगर कहो मैं स्वस्थ हूं, तो कोई यह भी नहीं पूछ सकता कि कौन से प्रकार का स्वास्थ्य? तुम कहो बीमार हूं, तो संगत रूप से पूछा जा सकता है,
कौन सी बीमारी? क्षय रोग हुआ कि टी. बी. है,
कि कुछ और? बीमारियां में बीमारियां हैं।
बीमारियां की बड़ी पर्तें हैं। स्वास्थ्य तो एक है।
झूठ
अनेक हैं, सत्य एक है। झूठ का मतलब--आदमी की ईजाद। सत्य का अर्थ है--जो है। जो है,
उसी को रोज-रोज कह रहा हूं। उसी को बार-बार कह रहा हूं। शाद शब्द
बदल जाते हों, शायद रंग बदल जाते हों, ढंग
बदल जाते हों--मगर सार वही है, चोट वही है। तीर एक ही तरफ जा
रहा है--एक ही इशारे की तरह।
इसलिए
रतन प्रकाश! दूर हो या पास,
यहां बैठो या यहां न बैठो, कुछ भेद नहीं पड़ता।
बस एक बात याद रहे--हरि बोलौ हरि बोल। फिर जहां हो तुम मेरे साथ हो। सच कहा जाए तो
कहना चाहिए: यह मेरी महफिल नहीं है, उसकी महफिल है। यहां मैं
बोल रहा हूं, वही बोल रहा है। वही बोल रहा है, वही बोल रहा है, इसलिए इसे पी जाने में और इसके
द्वारा रूपांतरित होने की संभावना है।
...आज के दिन भी तेरी महफिल सजी होगी। यह उसी की महफिल है और यह सदा सजी हुई
है। यह सारा अस्तित्व उसकी महफिल है। और इस सारे अस्तित्व में एक ही स्वर उठ रहा
है। मगर आदमी बज्र-बहरा है। आदमी ऐसा अंधा है कि आंख के सामने खड़ा है कोई, और दिखाई नहीं पड़ता। कानों पर ढोल बजाए जा रहे हैं, और
सुनाई नहीं पड़ता। जैसे आदमी ने चूकने का निर्णय ही ले रखा है; जैसे जिद्द ही बांध रखी है। शायद जिद्द के पीछे कारण भी है। कारण एक ही है
कि अगर परमात्मा को देखो तो तुम मिटे। इसलिए तुम तभी तक बच सकते हो जब तक परमात्मा
को न देखो। तुम दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय! या तुम या हरि। इसलिए लोग हरि नहीं बोलते। बोलना मंहगा
सौदा है।
हरि
बोलौ हरि बोल...यह बोल जब तुम्हारे भीतर उठेगा, तुम न रह जाओगे। तभी उठ सकता है।
तुम मिटो तो ही उठ सकता है। तुम्हारी राख पर ही यह फूल खिलेगा। और लोग मिटना नहीं
चाहते। इसलिए लोग सुन भी लेते हैं और सुनते भी नहीं। सुनकर भी अनसुना रखते हैं। देख
लेते हैं और देखते नहीं।
मगर
याद रहे, आदमी जब तक परमात्मा से न भरे तब तक बांझ है--ऐसा जैसे वृक्ष हो और फूल न
लेंगे, जैसे किसी स्त्री की कोख से बच्चा जन्म न लग; जैसे पृथ्वी में अंकुर न फूटे; जैसे सूरज हो और
अंधेरा गिरे। जब तक आदमी के जीवन में हरि नहीं, तब तक
हरियालापन नहीं, हरियाली नहीं। जब तक आदमी के जीवन में हरि
तब तक कुछ भी नहीं। फिर लाख तुम ठीक इकट्ठे करो, पद और
प्रतिष्ठा और प्रमाण-पत्र जुटाओ, सब कूड़ा-कर्कट है। तुम किसे
धोखा दे रहो हो? संपदा तो एक है। उसके बिना आदमी बांझ रह
जाता है, इसे याद रखना। उसके बिना आदमी ऐसा--जैसे चली हुई
कारतूस, जिसमें कुछ भी नहीं। दिखती कारतूस जैसी ही है,
मगर आत्मा नहीं है। परमात्मा के स्मरण से ही तुम आत्मवान होते हो।
मैं
रोज-रोज यही कह रहा हूं कि बहुत दिन बांझ रह लिए, अब हरे हो जाओ। अब जन्माओ
अपने भीतर प्रभु को। बहुत दिन खाली रह लिए, अब भरो। बहुत दिन
यह दीया बुझा-बुझा रह लिया, अब जलो! यह विराट अवसर ऐसे ही न
चूक जाए। यही रोज कह रहा हूं। इसलिए तुम चिंता मत करो कि--
तूने
क्या कहा होगा,
आज क्या होगा?
यही
दिल सोचता है,
यही दिल पूछता है।
मेरे
महबूब, मेरे दिलबर, मेरे रहबर! अफसोस
मैं
नहीं हूं आज वहां मैं नहीं हूं।
क्या
तुम सोचते हो यहां हैं,
वे सुनेंगे? क्या तुम सोचते हो जब तुम यहां थे
तब तुमने सुना? अगर तुमने सुन लिया होता तो दिल्ली में भी
होकर दूर नहीं हो सकते थे। अगर तुमने सुन लिया होता तो अफसोस की फिर बात ही न थी।
फिर तुम कहीं भी होते, तुम इसी महफिल के हिस्से हो जाते। तुम
इसी मधुशाला में बैठते। तुम यही रस पीते। क्योंकि यह रस कहीं बंधा नहीं है--किसी
तीर्थ से, किसी मंदिर से किसी स्थल से, किसी व्यक्ति से, किसी शास्त्र से। इस रस के बादल तो
सारे अस्तित्व को घेरे हुए हैं। जहां भी प्यास है, वहीं बरस
जाते हैं। और जहां भी पात्रता है, वहीं यह शराब उतरती है और
पात्र को भर देती है।
सुनो!
देखा! आंख खोलो!
अक्सर
ऐसा हो जाता है,
यहां सुनते वक्त सुनने नहीं; फिर जब दूर चले
जाते हो तब याद आती है। आदमी बहुत अजीब है। अतीत की याद करता है, भविष्य की याद करता है, वर्तमान को चुकता है। जो
नहीं रहा, उसका विचार करता है। अब कुछ किया नहीं जा सकता। जो
नहीं रहा, नहीं रहा। जो नहीं हुआ, नहीं
हुआ। अब तुम्हारे विचार से कुछ भी न होगा। अब व्यर्थ स्मृति की धूल को मत संजोए
फिरो। या आदमी भविष्य की सोचता है--ऐसा हो, वैसा हो।
जो
अभी नहीं हुआ,
नहीं हुआ और तुम्हारे सोचने से कभी कुछ न हुआ है, न होगा। जो होना है, वही होगा। उसका तुम्हारे सोचने
से कुछ लेना-देना नहीं है।
तुम
सोचो तो होगा,
तुम न सोचो तो होगा। वह हो ही रहा है। तुम नहीं थे तो भी होता था।
तुम नहीं रहोगे तो भी होता रहेगा। भविष्य तुम पर निर्भर नहीं है।
आदमी
अतीत की सोचता है। आदमी भविष्य की सोचता है। बस एक चीज से आदमी चूकता चला जाता
है--वर्तमान। और वर्तमान परमात्मा का द्वार है। वर्तमान ही है। न तो अतीत है, न भविष्य
है। एक है कल्पना। एक है स्मृति। अस्तित्व तो वर्तमान का है।
इसलिए
मत पूछो रतन प्रकाश,
कि यहां क्या हो रहा है? जहां हो, वहीं जागो। और देखो वहां क्या हो रहा है। और तुम पाओगे कि सब जगह हरि ही
व्याप्त है। उसी का अंतर्नाद उठ रहा है। उसी के फूल खिल रहे हैं। उसी के झरने फूट
रहे हैं। उसी की रोशनी बह रही है। धारे पर धारे, झरनों पर
झरने, फव्वारे पर फव्वारे...सब तरफ वही है। तुम जहां हो,
वहां शांत हो जाओ, निर्विकार हो जाओ--और तुम
महफिल में सम्मिलित हो गए! और तुम बैठ गए उसकी सभा में!
परमात्मा
के बिना आदमी बांझ है। तुम कैसे बांझ न रह जाओ, यही एक बात तुमसे बार-बार कह रहा
हूं।
कितने
ही साल सितारों की तरह टूट गए
मेरी
गोदी में कोई चांद जनम ले न सका
टकटकी
बांध के अफलाक पे रोई बरसों
आज
तक कोई भी वापस मेरा गम ले न सका
वह
जमीं जो कोई पौदा न उगल सकती हो
कायदा
है कि उस छोड़ दिया जाता है
घर
में हर रोज यही फिकर यही शोर सुना
शाख
सूखे तो उसे तोड़ दिया जाता है
मुझे
बांहों मग उठा ले मुझे मायूस न कर
अपने
हाथों की लकीरों में सजा ले मुझको
अपने
एहसा के सिले में मेरा जोबन ले ले
कर
दिया सबने मुकद्दर के हवाले मुझको
एक, दो,
तीन--कहां तक कोई गिनता जाए
अनगिनत
सांस महकते हैं मेरे सीने पर
मेरे
लब पर कोई नग्मा कोई फर्याद नहीं
लोग
अंगुश्त-बदन्दां हैं मेरे जीने पर
कितने
हाथों ने टटोला है मेरी तन्हाई को
कोई
जगन, कोई मोती, कोई तारा न मिला
कितने
झुलो ने झुलाया है मेरे अरमानों की
दिल
में सोई ममता को सहारा न मिला
कल
भी खामोश थी मैं,
आज भी खामोश हूं मैं
मेरे
माहौल में तूफान न आया कोई
कितने
अरमान मिटे एक तमन्ना के लिए
घर
लुटाने पे भी मेहमान न आया कोई
कितने
ही साल सितारों की तरह टूट गए...
जैसे
कोई स्त्री बांझ रह जाए,
उसकी कोख न भरे, उसकी गोद में कोई चांद न
उतरे--ऐसा ही जब तक हरि तुम्हारे गोद में न उतर आए, हरि का चांद
तुम्हारे हृदय में न उतर आए, तब तक समझना अभी कुछ भी नहीं
हुआ। अभी असली बात होने को है। तलाशना, खोजना! रुके मत रह
जाना, बैठे मत रह जाना। जगाना अतृप्ति को, जगाना असंतोष को। जगाना उसकी तृषा को। जगाना एक भयंकर लपट कि उसे पाकर ही
रहूंगा; कि उसे बिना पाए नहीं जाना है; कि सब दांव पर लगाऊंगा, कि मिटना पड़े तो मिटूंगा,
कुछ भी बचाऊंगा नहीं। तब कोई बोल सकता है--हरि बोलौ हरि बोल।
और
हरि के बोलते ही तुम्हारे जीवन में हजार-हजार कमल खिलने शुरू हो जाते हैं। बस यही
एक बात रोज-रोज कह रहा हूं। और मैं ही नहीं कह रहा हूं, वही एक
बात रोज-रोज कही गई है--कृष्ण ने, बुद्ध ने, मोहम्मद ने, नानक ने, कबीर ने,
दादू ने, सुंदरदास ने। बस यही एक बात कही है।
दूसरी बात कहने को नहीं है।
इस
एक बात को सुन लेने पर,
सब सुन लिया गया। इस एक बात को समझ लेने पर, सब
समझ लिया गया। और इस एक से चूके तो कितना ही तुम जानो, तुम्हारे
जानने का दो कौड़ी मूल्य है। और तुमने कितना ही सुना हो, कितना
ही पढ़ा हो, समझना कि अपने को धोखा देते रहे। हरि-दर्शन हो,
हरि-मिलन हो, तो ही इस जीवन में शृंगार है,
तो ही इस जीवन में उत्सव है।
सुनो
यह सूत्र--सुंदरदास पुकारि कैं कहत बजाए ढोल। ढोल बजाकर कह रहे हैं। मगर आदमी कुछ
ऐसा है, व्यर्थ की बातें आहिस्ता-आहिस्ता कहो तो भी सुन लेता है; सार्थक बातें जोर से कहो तो भी नहीं सुनता। सुनना नहीं चाहता। और जो तुम
नहीं सुनना चाहते वह ढोल बजाकर भी कहा जाए तो सुना नहीं जाएगा।
जीसस
ने अपने शिष्यों को कहा है--जाओ, चढ़ जाओ मकानों का मुंडेरों पर। बजाओ।
चिल्ला-चिल्ला कर कहो कि मैं आ गया हूं शायद हजार लोगों के कान में पड़े तो एकाध
सुने।
बुद्ध
चालीस वर्षों तक निरंतर सुबह-सांझ समझाते रहे, समझाते रहे। कितने थोड़े से लोग
उनके कुएं से पानी पीए। जिन्होंने पिया, उनकी प्यास सदा के
लिए मिट गई। मगर अनंतों ने तो तय यही किया कि नहीं पीएंगे, प्यासे
ही रहेंगे। आदमी के इस निर्णय के पीछे क्या है कारण? जरूर को
बड़ा कारण है। आखिर इतनी क्या अड़चन है ईश्वर को स्मरण करने में? कीमत चुकाने की तैयारी नहीं है। और कीमत कुछ ऐसी नहीं कि दो फूल चढ़ा दिए,
कि चार पैसे चढ़ा आए। तुम भी क्या कचरा परमात्मा को चढ़ाते हो जाकर!
जब तक अपने को नहीं चढ़ाया तब तक कुछ नहीं चढ़ाया। और कुछ मत चढ़ाना। और सब चढ़ाना
अपमान है परमात्मा का। चढ़ाना तो अपने को चढ़ाना। तुम भी क्या पागलपन की बात करते हो
कि चार पैसे चढ़ा आए! और अक्सर तो वे चार पैसे खोटे होते हैं। और चार पैसे चढ़ाते हो
तो न मालूम कितनी आकांक्षा में चढ़ाते हो कि और कितने मिल जाएंगे। मजबूरी में चढ़ाते
हो।
एक
छोटे बच्चे को उसकी मां ने दो चवन्नियां दीं और कहा: आज कृष्ण जन्माष्टमी है। एक
तू रख लेना और एक जाकर कृष्ण के मंदिर में चढ़ा आ।
बड़ा
प्रश्न था बच्चा। उन चमकती हुई चवन्नियां को उछालता हुआ मंदिर की तरफ जा रहा था।
एक उसके हाथ से छुटी,
गिरी सड़क पर, सरकी और नाली में चली गई। धक से
रह गया उसका दिल! लेकिन आदमी का बच्चा! उसने आकाश की तरफ देखकर कहा कि है कृष्णदेव
महाराज! आपकी चवन्नी तो चढ़ गई। अब आप तो सर्वव्यापी हो। अब मैं कहां खोजूंगा उस
चवन्नी को? वह तुम्हारी रही।
जो
व्यर्थ है, जो हमसे छूटा ही जा रहा है, जो हमारे किसी काम का ही
नहीं है, उस हम चढ़ा आते हैं। तुम क्या धोखा दे रहे हो?
तुम्हारे सिक्के काम का ही नहीं है, उसे हम
चढ़ा आते हैं। तुम क्या धोखा दे रहे हो? तुम्हारे सिक्के वहां
नहीं चलते, इस लोक के सिक्के उस लोक में कैसे चलेंगे?
थोड़ा सोचो तो! मगर लोग बड़े होशियार हैं।
एक
आदमी मरा। अपने तीन मित्रों को कह गया था कि मर जाऊं तो जिंदगी भर की याद में मेरी
लाश पर कुछ भेंट चढ़ा देना। उनमें एक तो पारसी था--सीधा-सादा पारसी। उसने सौ रुपए
का नोट चढ़ा दिया। दूसरा आदमी गुजराती था--होशियार! उसने देखा कि सौ रुपए का नोट
चढ़ाया है, ये सौ रुपए व्यर्थ चले जाएंगे। उसने एक हजार का नोट चढ़ा दिया। सौ रुपए
उठाकर रख लिए। हजार के नोट अब चलते नहीं। उसने कहा: भाई! नौ सौ मेरी तरफ से।
तीसरा
मारवाड़ी था। उसने दोनों नोट उठा लिए और एक चेक लिखकर रख दिया। अब न मुर्दा चेक
भुनाने आएगा,
न कोई झंझट होगी।
आदमी
परलोक को भी धोखा देने के सारे उपाय कर रहे हैं। परलोक से भी जब मारवाड़ी अपना
संबंध जोड़ता है,
तो अपने हिसाब से जोड़ता है। वहां भी अपनी चालबाजी लगा देता है। और
यहां सभी तो मारवाड़ी हैं। मारवाड़ से थोड़े ही मारवाड़ का कुछ लेना-देना है। जहां
चालाकी है, वहीं मारवाड़ी है। जहां बेईमानी है, वहीं मारवाड़ी है। जहां कृपणता है।, वहीं मारवाड़ी है।
यहां कौन है, जो मारवाड़ी नहीं है! और तुमने अपनी चालाकियां
परमात्मा तक फैला दी हैं।
नहीं; कुछ और
चढ़ाने से काम नहीं चलेगा। अपने को चढ़ाना होगा। उतनी हिम्मत कुछ मर्दों में होती
हैं। वे ही मर्द पा पाते हैं।
धर्म
भीरु का और कायर का रास्ता नहीं है--साहसी का, दुस्साहसी का रास्ता है।
आज
के वचन बड़े प्यारे हैं। एक-एक बचन ऐसा कि चुकाओ मूल्य, तो चुकाया
न जा सके।
बांकि
बुराई छाड़ि सब,
गांठि हृदै की खोल।
बेबि
विलंब क्यों बनत है,
हरि बोलौ हरि बोल।।
सुंदरदास
कहते हैं: ऐसे ही बहुत देर हो गई, अब और देर क्यों लगा रहा है? सुबह सांझ होने लगी। कहते हैं, सुबह का भूला सांझ आ
जाए तो भूला नहीं कहलाता। लेकिन अब तो सांझ भी होने लगी और तू अब भी घर नहीं लौटा
है! सच तो यह है--कितनी सुबहें सांझे बन चुकीं, कितने जन्म
मौत बने--और फिर भी तू उसी वर्तुल में घूमता रहा है, कोलहूं
के बैल की भांति। कितना विलंब तो हो ही चुका है। अब और स्थगित मत करो। अब मत कहो
कि बस! अब तो आज! अब तो अभी।
बेगि
विलंब क्यों बनत है! जरा देख, क्यों विलंब कर रहा है?
विलंब
करने में हम बड़े कुशल हैं। हम कल पर टालने में बड़े होशियार हैं। और तुमने कभी देखा, हमारा
गणित क्या है? व्यर्थ तो हम अभी कर लेते हैं, सार्थक हम कल पर टाल देते हैं। अगर कोई तुम पर क्रोध करे तो तुम यह नहीं
कहते कि कल जवाब दूंगा। जब कोई तुम पर क्रोध करता है तो तुम उसी क्षण क्रोधित हो
उठते हो। तत्क्षण! नगद होता है तुम्हारा क्रोध। तुम ओ से भर जाते हो। तुम उसी क्षण
कुछ करना चाहते हो। लेकिन अगर प्रेम उठे, तो तुम कहते हो कल।
अगर दया उठे, तो तुम कहते हो कल। अगर दान का भाव उठे,
तो तुम कहते हो कल। क्रोध उठे तो अभी, लोभ उठे
तो अभी, हिंसा उठे तो अभी। करुणा उठे तो कल।
और
ध्यान रखना, जो कल पर छोड़ा वह सदा के लिए छोड़ा। असल में कल हमारी एक तरकीब है छोड़ने की
और साथ ही यह भी माने रखने की--छोड़ा थोड़े ही है, कल कर
लेंगे। ऐसे मन को सांत्वना बनी रहती है। कल तो करना ही है। आज नहीं किया तो कोई
छोड़ ही थोड़े दिया है, कल करेंगे। कल भी आता नहीं। और रोज-रोज
हम कल पर टाले चले जाते हैं। और जो व्यर्थ है, हम रोज किए
चले जाते हैं। इस प्रक्रिया को बदलो। व्यर्थ को कहना कल। सार्थक को कहना आज।
क्योंकि जो न करना हो उसे कल पर टाल दो। जो करना हो उसे आज कर लो।
गुरजिएफ
का बाप मरता था। बूढ़ा था। उसने अपने बेटे को पास बुलाया। और कहा कि तुझे देने को
मेरे पास कुछ और नहीं,
सिर्फ एक छोटा-सा सूत्र है, जो मेरे बाप ने
मुझे दिया था। उसने मेरी जिंदगी बदल दीं। मेरा बाप बे-पढ़ा लिखा। था, मैं भी वे-पढ़ा-लिखा हूं। हमारे पास बहुत नहीं है देने को। लेकिन यह सूत्र
मेरी जिंदगी में ऐसा था, जैसे सोना बरसा और जिसमें सुगंध रही
हो। तू भी इसको याद रख ले।
गुरजिएफ
छोटा ही था--नौ साल का था। बाप ने कहा कि शायद अभी तू समझे भी नहीं, मगर याद
रख ले। कभी जब बड़ा होगा तो काम आ जाएगा। भुना लेना बाद में। मगर याद रख ले अभी।
छोटा-सा सूत्र था। गुरजिएफ बाद में कहता था कि उस छोटे से सूत्र ने मेरा पूरा जीवन
बदल दिया। सूत्र क्या था? यही था कि अगर कोई अपमान करे तो
चौबीस घंटे का समय मांगकर जवाब देना। कहना कि चौबीस घंटे का समय दे दो। सोचूंगा
विचारूंगा, चौबीस घंटे के बाद आकर जवाब दे दूंगा। ऐसी जल्दी
भी क्या है? हो सकता है, चौबीस घंटे
में दिखाई पड़ जाए कि जो उसने कहा, वह ठीक ही है। जैसे किसी
ने तुम्हें चोर कह दिया बीच बजार में, सौ में निन्यानबे मौके
तो यह हैं कि वह ठीक ही कह रहा है। इस जमीन पर ऐसा आदमी पाना मुश्किल है जो चोर न
हो, किसी न किसी अर्थ में चोर न हो। चौबीस घंटे सोचोगे तो
शायद लगेगा उसने ठीक ही तो कहा। अपमान कहां है? बुरा कहां है?
जाऊं, धन्यवाद दे आऊं। या यह भी हो सकता है कि
तुम उन लोगों में से होओ जो चोर नहीं हैं। तो तुम्हें हंसी आएगी चौबीस घंटे में कि
क्या व्यर्थ बात कही। इसको कुछ भी पता नहीं। तुम हंसोगे। इसमें क्रोध का क्या कारण
है? जो तुम पर लागू ही नहीं होता उस पर क्रोध क्या करना है?
जैसे तुमसे कहा ही नहीं गया। इससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है।
ये
दो ही संभावनाएं हैं। या तो सत्य दिखाई पड़ जाएगा--जो कहा गया है, उसका;
या उसका असत्य दिखाई पड़ जाएगा। या तो कोई चीज सच होती है या झूठ
होती है। अगर सच है तो जाकर धन्यवाद देना और अगर झूठ है तो जाकर कह आना कि भाई,
इससे मैं मेल नहीं खाता। मेरा समझौता नहीं होता। उससे मैंने बहु
खोजा। यह बात मेरे भीतर जंचती नहीं। यह मुझ पर लाग नहीं होती। मगर झगड़ा कहां है?
और
गुरजिएफ ने कहा कि इस सूत्र को मैं मान कर चला, मेरी जिंदगी में किसी से झगड़ा नहीं
हुआ। और चौबीस घंटे का जब मैंने किसी से समय मांगा तो वह भी बहुत चौंका। और जब
चौबीस घंटे के बाद जाकर मैंने धन्यवाद दिया, तब तो उसकी आंख
से आंसू गिरने लगे। या कभी चौबीस घंटे के बाद जाकर मैंने कहा कि क्षमा करना भाई,
यह बात मुझ पर लागू नहीं होती, मैंने बहुत
सोचा; तुम्हारी बात पर जितना ध्यान दे सकता था, दिया। क्षमा करना, यह मुझ पर लागू नहीं होती। मैं
क्या करूं?...तो भी वह आदमी चमत्कृत हुआ।
एक
तो क्रोध के लिए कोई चौबीस घंटे का समय नहीं मांगता। बुराई के लिए कोई समय मांगता
ही नहीं। बुराई तो हम तत्क्षण करते हैं, क्योंकि हम करना चाहते हैं। जो हम
करना चाहते हैं, वह हम अभी करते हैं।
एक
मनोवैज्ञानिक ने एक आदमी को सलाह दी...। क्योंकि वह आदमी कह रहा था कि मेरे दफ्तर
में कोई काम नहीं करता है। मैं बड़ी परेशानी में पड़ गया हूं। मैं थक गया हूं उनसे
कह-कह कर।
उस
मनोवैज्ञानिक ने कहा कि तुम एक तख्ती टांग दो दफ्तर के हर कमरे में। हर टेबिल पर
तख्ती लगा दो। उससे लोगों को बोध आएगा कि जो भी करना हो अभी कर लो। जो भी करना है, अभी करना
है। इस तरह के वचन सारे दफ्तर में टांग दो। उसने टांग लिए। सुंदर-सुंदर वचन बनवाए
और टांग दिए। जिनका सबका सार यही था कि टालो मत, स्थगित मत
करो। जो करना है अभी करो। फाइल में रख कर इकट्ठा मत करते जाओ। आलस्य मत करो। कल का
क्या पता! कल तो मौत है।
कुछ
दिनों बाद मनोवैज्ञानिक ने कहा कि क्या हालत है, कुछ परिवर्तन हुआ? वह आदमी बड़ा क्रोधित हो उठा, मनोवैज्ञानिक को मिला
तो। उसने कहा, परिवर्तन? जिस दिन मैंने
पहले दिन तख्ती टांगी, उसी दिन जो झंझटें हुई इन का हिसाब
लगाना मुश्किल है। कैशियर पूरी की पूरी तिजोरी लेकर भाग गया।...काल करे सो आज कर,
बहुरि करोगे कब!...मेरा सेक्रेटरी मेरी टाइपिस्ट को लेकर भाग गया।
और मेरे दरबान ने मुझ घूंसा मारा। और जब मैंने उससे पूछा कि तू यह क्या कर रहा है,
तो उसने कहा कि आपने ही तो तख्ती लगवा दी। यह मैं सदा से करना चाहता
था। एक घूंसा! सम्हालता था अपने को। तो फिर जब आपने तख्ती ही लगा दी मैंने कहा जब
अब मालिक ही कह रहे हैं कि कर ही ले जो करना है...।
अगर
तुमसे कोई कहे,
अभी कर लो, तो तुम जरा सोचना, तुम क्या करोगे? कौन से विचार तुम्हारे मन में उठते
हैं? तुम्हारे मन में भी यही सब विचार उठेंगे। बुरे को आदमी
तत्क्षण कर लेना चाहता है, भले को टाल देता है; भले को करना ही नहीं चाहता।
बेगि
विलंब क्यों बनते है...। अब देर न करो। सुंदरदास। चालबाजी। कम से कम परमात्मा और
अपने बीच तो तिरछापन न आने दो। कम से कम उससे तो साफ सुथरे हो कम से कम उसके सामने
तो नग्न हो जाओ। उसके सामने तो निष्कपट हो जाओ। उसके समाने तो हृदय वैसा ही खोल दो, जैसे तुम
हो। उससे तो मत छिपाओ। उससे तो दुराव मत करो।
बांकि
बुराई छांड़ि सब। और अगर तुम यह तिरछापन छोड़ दो तो बाकी बुराइया अपने-आप छूट जाती
हैं। इसी एक बुराई के आधार पर सारी बुराइयां खड़ी हुई हैं। तुम सोच रहे हो अपनी
होशियारी में कि अस्तित्व को भी धोखा दे लोगे। तुमने धोखे के कई आयोजन कर रखे हैं।
असली पूजा से बचने के लिए तुमने नकली पूजा ईजाद कर रखी है। असली परमात्मा से बचने
के लिए तुमने परमात्मा की मंदिर में मूर्तियां बना रखी हैं। असली सत्य से बचने के
लिए तुम शास्त्रों में उलझ गए हो, शब्दों को पकड़ लिया है।
तुम
ये चालबाजियां किसके साथ कर रहे हो? सोचो जरा। ये धोखे तुम किसको दे
रहे हो? क्योंकि अंततः सब दिए गए धोखे, उसी को दिए गए धोखे हैं, क्योंकि वही सबके भीतर
मौजूद है। तुम जब भी किसी को धोखा देते हो, परमात्मा को ही
धोखा देते हो। किसको धोखा दोगे? उसके अतिरिक्त कोई है नहीं।
यह तिरछापन छोड़ो। यह होशियारी छोड़ो। यह होशियारी छोड़ो, सरल
हो जाओ। सहज हो जाओ जैसे हो, वैसे ही। यह दोहरापन छोड़ो।
आदमी
भीतर कुछ है,
बाहर कुछ है। और इन दोनों के बीच इतना फासला है कि कभी-कभी तुम्हें
खुद भी धोखा हो जाता है, कि तुम हो कौन? तुम्हें अपना परिचय भी नहीं हो पा रहा है इसी धोखे के कारण। अगर तुम पूछो
भी कि मैं कौन हूं, तो कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि तुमने
मैं कौन हूं के नाम पर इतने मुखौटे ओढ़ रखे हैं, कि आज कैसे
पहचानोगे अचानक कि कौन-सा तुम्हारा असली चेहरा है?
झेन
फकीर कहते हैं कि अगर आदमी अपना असली चेहरा पहचान ले, तो फिर
कुछ और करने को नहीं बचता। असली चेहरा...जो जन्म के पहले तुम्हारा था, और मृत्यु के बाद फिर तुम्हारा होगा। उस असली चेहरे को पहचान लेने का मतलब
यह होता है, बीच में जो नकली चेहरे हमने खड़े कर रखे हैं,
वे हटा दिए, उनको सरका दिया।
कितने
नकली चेहरे तुमने अपने ऊपर लगा रखे हैं! तुमने कभी विचार किया है? एक दो
नहीं, हजारों हैं। और दिनभर तुम चेहरे बदलते हो। पत्नी के
सामने एक चेहरा होता है, प्रेयसी के सामने दूसरा चेहरा होता
है। मालिक के सामने एक चेहरा होता है, नौकर के सामने दूसरा
चेहरा होता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। आखिरी सांसें गिन रही थी। उसने आंखें खोलीं और कहा
कि नसरुद्दीन,
तुम मुझे प्रेम करते हो न?
इस
दुनिया में इतना प्रेम है कि लोग यही पूछते हैं और यही पूछते मरते हैं, कि तुम
मुझे प्रेम करते हो न? कितना कम होगा प्रेम दुनिया में! हर
स्त्री यही पूछ रही है हजार ढंगों से, कि तुम मुझे अब भी
प्रेम करते हो न? और हर पुरुष यही पूछ रहा है हजार ढंगों से,
तुम मुझे अब भी प्रेम करती हो? प्रेम की ऐसी
प्यास! और इतनी कमी क्यों है प्रेम की? कोई करता ही नहीं।
नसरुद्दीन
ने एक बड़ा सा आंसू टपका दिया आंख से। तैयार ही बैठा होगा। और कहा कि तेरे बिना मैं
जी न सकूंगा। तू पूछती है प्रेम की बात? तू मरी, तो
मैं मरा।
फिर
पत्नी बेहोश हो गई। डाक्टर आया। डाक्टर ने नसरुद्दीन की गीली आंख देखी, आंसू देखा,
तो बहुत दुखी हो गया और कहा, कि मैं दुखी हूं
कि असमय में तुम्हारी पत्नी को जाना पड़ रहा है। हम कुछ भी नहीं कर सकते। जो किया
जा सकता था, किया जा चुका है। मैं तुम्हें यह कह देना चाहता
हूं--यद्यपि मेरा हृदय टूटता है यह कहते हुए, तुम्हें
देखकर--कि तुम्हारी पत्नी अब तीन-चार घंटे की मेहमान और है।
पता
है, नसरुद्दीन ने क्या कहा? कहा, डाक्टर
साहब, आप नाहक कष्ट में न हों। तीन-चार घंटे दुख और सह
लूंगा। जिंदगी भर सहा है तो तीन-चार घंटे और सह लूंगा। आप नाहक दुखी न हों।
अभी
मर रहा था पत्नी के लिए। अब पत्नी बेहोश है तो चेहरा बदल गया। अब प्रसन्न हो रहा
है भीतर। अब भीतर एक स्वतंत्रता अनुभव कर रहा होगा कि चलो एक झंझट छूटी, एक जाल
छूटा। चलो अब मुक्त हुआ। चलो अब दूसरी स्त्रियों का पीछा कर सकूंगा।
तुम
जरा देखना अपने चेहरे। किस तरह तुम तिरछे हो गए हो। कहते कुछ हो, सोचते कुछ
हो, करते कुछ हो। तुम्हारा पक्का पता लगाना कठिन है, कि तुम कौन हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि इस सदी में जो सब से बड़ी समस्या है मनुष्य के सामने, वह यही
है। उसको उन्होंने खास नाम दिया है--आइडेन्टिटी क्राइसिस। आदमी को यह पता नहीं चल
पाता कि मैं कौन हूं। यह आत्म-बोध का संकट कैसे पैदा हो गया है? यह इसीलिए पैदा हो गया कि तुमने इतनी तस्वीरें अपनी बना रखी हैं, कि उन तस्वीरों में सब तुम्हीं उलझ गए हो। तुम्हारा वह चेहरा सच था जो
तुमने मालिक के सामने दिखाया, या वह चेहरा सच था, जो तुमने अपने नौकर के सामने दिखाया?
तुम
देखते हो, लोग कितने जल्दी बदलते हैं! तुम्हारा नौकर तुम्हारे पास आकर खड़ा होता है,
तुम कैसे अकड़े होते हो! जैसे सिकंदर हो तुम! उसको तो वैसे देखते हो
जैसे वह कोई कीड़ा-मकोड़ा है। और तभी तुम्हारा मालिक आ गया और तुम एकदम बदल जाते हो,
तरल हो जाते हो। तरल हो जाते हो। तुम्हारी पूंछ एकदम हिलने लगती है।
तुम एकदम चाटुकारिता में पड़ जाते हो।
अगर
ये बदलते चेहरे तुम्हें देखना हों तो दिल्ली जाना चाहिए। वहां तुम्हें चमत्कार
दिखाई पड़ेंगे। जो सत्ता में आ जाता है, चाटुकार उसी की चाटुकारिता करने
लगते हैं। यही कल दूसरों की खुशामद कर रहे थे। यही कल दूसरों को जिंदाबाद कह रहे
थे। अब ये उनको मुर्दाबाद कर रहे हैं। जिनको कल यह मुर्दाबाद कहते थे। अब उनको जिंदाबाद
कह रहे हैं। इनके चेहरे की तरलता देखो। उसी तन्मय-भाव से कहर हे हैं। इनकी पूंछ
हिलानी है। जहां ताकत हो उसके सामने पूंछ हिलती है। इनकी कोई निष्ठा नहीं है। इनकी
कोई आत्मा नहीं है। इनके पास कोई आत्म गौरव भी नहीं है। इनके पास थोड़ा सा
स्वाभिमान भी नहीं है। फिर हवा बदलेगी और ये बदल जाएंगे। वही चमचे! सभी की
चमचागिरी करते हुए तुम पाओगे।
जिन
लोगों को तुम इंदिरा के पास इकट्ठे देखते थे, उन्हीं को तुम मोरारजी के पास
इकट्ठे पाओगे। जल्दी जाओ। चमत्कार देखने कभी-कभी दिल्ली जाना चाहिए। इनके कोई
चेहरे नहीं हैं। अगर जिंदगी के बाद में इनसे कोई पूछे कि तुम कौन हो, तो इनको पक्का याद ही नहीं आएगा कि मैं कौन हूं। क्योंकि इन्होंने इतने
चेहरे बदले हैं, इतनी बार बदले हैं! और तत्क्षण होते हैं ये
बदलने को।
मगर
तुम भी करते हो। छोटे-मोटे पैमाने पर तुम भी करते हो। दिल्ली में जो होता है, वह बड़े
पैमाने पर होता है। दिल्ली में जो होता है, वह तुम्हारा ही
बढ़ा हुआ रूप है। तुम छोटे पैमाने पर करते हो। तुम अपनी सीमा में जीते हो। मगर
वही...कोई गुणात्मक भेद नहीं है। परिणाम का भेद होगा।
बांकि
बुराई छाड़ि सब,
गांठि हृदै की खोल।
सुंदरदास
कहते हैं: अगर तुम यह तिरछापन छोड़ दो, तो ही तुम्हारे हृदय की गांठ खुले।
इसी तिरछेपन से तुम्हारे हृदय की गांठ बंधी है। तुम जैसे हो वैसे ही हो जाओ न! तुम
जैसे हो वैसे ही होने की घोषणा कर दो। बुरे तो बुरे, अच्छे
तो अच्छे। रत्ती भर अन्यथा मत करो और तुम अचानक पाओगे, हृदय
बालक जैसा सरल हो गया, निर्दोष हो गया, निर्मल हो गया। और उसी निर्मल हृदय में परमात्मा की अवतारणा होती
है।...हरि बोलौ हरि बोल। वही निर्मल हृदय परमात्मा को पुकार सकता है। अभी तो तुम
पुकार भी नहीं सकते।
मैंने
सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन जब खुद मरने को हुआ तो उसने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और
कहा: हे परमात्मा! हे शैतान! मुझे बचा। पास खड़े मौलवी ने कहा: नसरुद्दीन! यह तू
क्या कह रहा है? यह क्या कुफ बोल रहा है? परमात्मा से लोग प्रार्थना करते हैं बचाने की, शैतान
से नहीं। यह शैतान का नाम क्यों बीच में ले रहा है?
उसने
कहा: अब मरते वक्त मैं खतरा नहीं मोल लेना चाहता। पता नहीं किसके हाथ में पडूं।
दोनों से प्रार्थना कर लेनी उचित है। और पता नहीं कौन असली मालिक है। फिर पीछे पता
चले मरने के बाद,
देर हो जाएगी।
यह
जिंदगी भर की चालबाजी आखिरी क्षण तक भी आदमी छोड़ नहीं सकता। दोनों की ही प्रार्थना
कर लेनी उचित है। परमात्मा का भी पैर दबा दो एक हाथ से, एक हाथ से
शैतान का भी पैर दबा दो। पता नहीं कौन असली में मालिक है। पता नहीं किसके हाथ में
पड़े। पता नहीं किसके साथ सामना करना पड़े बाद में। यह होशियार आदमी, राजनीतिज्ञ आदमी का लक्षण है। यह कुशल आदमी का लक्षण है। मगर ये कुशल आदमी
ही हृदय को गंवा देते हैं।
जितने
तुम चतुर होते जाते हो उतना हृदय तुम्हारा टूटता जाता है। सभी बच्चे निष्कपट हृदय
लेकर पैदा होते हैं,
और मरते-मरते तक सभी के हृदय इतना कपट से भर जाते हैं कि उसमें
परमात्मा की जगह नहीं रह जाती।
यह
कपट छोड़ो। एकरस हो जाओ। मगर उसे बुलाना है तो कम से कम एक चेहरा थिर कर लो। जो
तुम्हारा स्वाभाविक चेहरा है वही रह जाए।
बांकि
बुराई छांड़ि सब,
गांठ हृदै की खोल।
बेगि
विलंब बनत है,
हरि बोलौ हरि बोल।।
और
जितना यह हृदय का प्याला स्वच्छ होगा, साफ होगा, निष्कपट
होगा, इरछा-तिरछा नहीं होगा, उतनी ही
तुम्हारी पात्रता बढ़ जाती है।
जितनी
दिल की गहराई हो
उतना
गहरा है प्याला;
जितनी
दिल की मादकता हो
उतनी
मादक है हाला;
जितनी
उर की भावुकता हो
उतना
सुंदर साकी है;
जितना
हो जो रसिक उसे है
उतनी
रसमय मधुशाला
सब
तुम पर निर्भर है। और एक बार तुम्हारा प्याला परमात्मा के रस ले भर जाए तो यह जगत
दूसरा हो जाता है। यही जगत! सब ऐसा ही रहता है, फिर भी कुछ ऐसा नहीं रह जाता।
किसी
ओर मैं देखूं,
मुझको
दिखलाई
देता साकी,
किसी
ओर देखूं, दिखलाई
पड़ती
मुझको मधुशाला।
हर
सूरज साकी की सूरत
में
परिवर्तित हो जाती है
आंखों
के आगे हो कुछ भी आंखें में है मधुशाला
हृदय
का पात्र स्वच्छ करो,
सरल करो, एकरस करो।
हिरदै
भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।
और
अगर कहीं भी कुछ खोज करना है तो वहीं करनी है--हृदय के भीतर बैठकर। वही गहरी बैठक
मारनी है। यह बाहर आसन लगाने से कुछ भी न होगा। ये योगासन काम नहीं पड़ेंगे। आसन
वहां लगाना है। वहां भीतर हृदय की तरलता में, सरलता में डुबकी मारनी है।
हिरदै
भीतर पैंठि करि अंतः करण विरोल।
मंथन
वहां करना है। वहां छिपा है अमृत मगर वहां तो तुम जाते ही नहीं, तुम तो
बाहर-बाहर ही भागते रहते हो। तुम तो भीतर आते ही नहीं। तुमने तो एक बात समझ रखी है,
शायद भीतर कुछ है ही नहीं, बाहर सब कुछ है।
बाहर
कुछ भी नहीं है। धुल के अतिरिक्त और कभी किसी के हाथ कुछ भी नहीं लगा है। भीतर है
मालिक! और भीतर है तुम्हारी मालकियत। भीतर है तुम्हारा साम्राज्य! और भीतर है तुम्हारा
सम्राट! मगर भीतर जाने के लिए सीधा-सरल हृदय हो, तो ही भीतर जा सकोगे। अगर
बहुत ज्यादा उलझा हुआ हृदय हुआ तो भटक जाओगे, पहुंच न सकोगे।
पहेली मत बनाओ अपने हृदय को। वही तुमने कर लिया है। तुमने एक बेबूझ पहली बना ली
है।
हरिदै
भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।
को
तेरौ तू कौन को,
हरि बोलौ हरि बोल।।
और
वहां जाकर तुम्हें पता चलेगा, न तुम्हारा कोई है, न तुम
किसी के हो।
यहां
दो हैं ही नहीं। कौन किसको हो सकता है? यहां बस परमात्मा ही है।
हर
सूरत साकी की सूरत में
परिवर्तित
हो जाती,
आंखों
के आगे हो कुछ भी
आंखों
में है मधुशाला
हृदय
का पात्र स्वच्छ करो,
सरल करो, एकरस करा।
हिरदै
भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।
और
अगर कहीं भी कुछ खोज करना है तो वहीं करनी है--हृदय के भीतर बैठकर। वही गहरी बैठक
मारनी है। यह बाहर आसान लगाने से कुछ भी न होगा। ये योगासन काम नहीं पड़ेंगे। आसन
वहां लगाना है। वहां भीतर हृदय की तरलता में, सरलता में डुबकी मारनी है।
हिरदै
भीतर पैंठ करि अंतः करण विरोल।
मंथन
वहां करना है। वहां छिपा है अमृत। मगर वहां तो तुम जाते ही नहीं, तुम तो
बाहर-बाहर ही भागते हो। तुम तो भीतर आते ही नहीं। तुमने तो एक बात समझ रखी है,
शायद भीतर कुछ है ही नहीं, बाहर सब कुछ है।
बाहर
कुछ भी नहीं है। धूल के अतिरिक्त और कभी किसी के हाथ कुछ भी नहीं लगता है। भीतर है
मालिक! और भीतर है तुम्हारी मालकियत। भीतर है तुम्हारा साम्राज्य! और भीतर है
तुम्हारा सम्राट! मगर भीतर जाने के लिए सीधा-सरल हृदय हो, तो ही
भीतर जा सकोगे। अगर बहुत ज्यादा उलझा हृदय हुआ तो भटक जाओगे, पहुंच न सकोगे। पहेली मत बनाओ अपने हृदय को। वही तुमने कर लिया है। तुमने
एक बेबूझ पहेली बना ली है।
हिरदै
भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।
को
तेरौ तू कौन को,
हरि बोलौ हरि बोल।
और
वहां जाकर तुम्हें पता चलेगा, न तुम्हारा कोई है, न तुम
किसी के हो। यहां दो हैं ही नहीं। कौन किसका हो सकता है? यहां
बस परमात्मा ही है।
हर
सूरत साकी की सूरत में
परिवर्तित
हो जाती,
आंखों
के आगे हो कुछ भी
आंखों
में है मधुशाला
वस्ल
का ख्वाब कुजा लज्जते-दीदार कुजा
है
गनीमत तो तेरा दीदार भी हो जाए
जब्त
भी, सब्र भी, इम्कां में सब कुछ है मगर
पहले
कमबख्त मेरा दिल तो मेरा दिल हो जाए
आह
उस आशिके-नाशाद का जीना ऐ दोस्त
जिसको
मारना भी तेरे इश्क में मुश्किल हो जाए
बस
एक ही चीज होने की है,
एक ही चीज करने की है--
जब्त
भी सब भी इम्कां में सब कुछ है मगर
पहले
कमबख्त मेरा दिल तो मेरा दिल हो जाए
तुम्हारा
दिल भी तुम्हारा नहीं,
और सारी दुनिया को जीने चल पड़े हो।
अपने
मालिक नहीं हो और संसार में मालकियत करने इरादे बांध रहे हो। यह मालकियत पहले भीतर
तो हो जाए। और जो अपना मालिक हो गया उसे चिंता ही नहीं रह जाती है, दुनिया की
मालकियत की। इस सूत्र को समझना।
मनस्विद
कहते हैं कि जो व्यक्ति अपना मालिक नहीं है, वह दूसरों का मालिक बन कर, परिपूरक खोजता है। जो आदमी भीतर निर्धन है, वह बाहर
धन इकट्ठा करता है। कुछ तो तृप्ति मिले। भीतर नहीं सही तो बाहर। जो आदमी भीतर हीनता
की ग्रंथि से पीड़ित है, इन्फीरियारिटी काम्प्लेक्स से पीड़ित
है, वह आदमी पद की यात्रा पर निकलता है। वह राजनीति में उतरा
है। वह पदों की सीढ़ियां चढ़ता है। वह बड़े सिंहासनों पर बैठना चाहता है। वह यह
दिखाना चाहता है, कि चलो भीतर तो जो है ठीक है, कम से कम बाहर तो मैं दिखा दूं कि मैं कुछ हूं; भीतर
तो ना कुछ हूं।
जो
आदमी भीतर के सत्य को अनुभव करने लगता है उसे पदों की चिंता नहीं रह जाती। वह राह
पर भिखारी की तरह भी खड़ा हो, तुम उसमें सम्राट का प्रसाद पाओगे। वह निर्धन
हो तो भी तुम देख पाओगे कि उसके भीतर कोई धन है, जो कोई नहीं
छीन सकता। देह के भीतर भी तुम उसके भीतर चमकती हुई कोई रोशनी पाओगे--जो रोशनी इस
जमीन की नहीं है; जो पार से आती है।
हिरदै
भीतर पैंठि करि,
अंतःकरण विरोल।
को
तेरौ तू कौन है,
हरि बोलौ हरि बोल।।
एक
ही है तुम्हारा अगर कोई है,
नाता एक ही बनाने जैसा है--वह हरि से है। और तुमने सब नाते बनाए और
सब नातो में बहुत कष्ट पाया। अब नाता उससे बनाओ, उससे लग जाए
लगन, सब लगन अपने-आप शेष फीकी पड़ जाती है।
तुझसे
लाग लगी जब मन की
हुई
वासना जग की बासी
फिर
कुछ नहीं सुहाता।
तेरौ
तेरे पास है,
अपनैं मांहि टटोल।
कहां
खोजते फिर रहे हो?
किसके सामने भिक्षा पात्र फैलाए हुए हो? किससे
मांगने निकले हो?
तेरी
तेरे पास है,
आपने माहिं टटोल।
अगर
खोलना हो तो भीतर खोज लो। परमात्मा ने तुम्हें संपदा देकर भेजा है। रत्ती-भर कभी
नहीं रखी है। तुम्हें परिपूर्ण बनाकर भेजा है। तुम्हें जैसा होना चाहिए। वैसा
बनाकर भेजा है। परमात्मा का कृत्य अपूर्ण हो भी कैसे सकता है? अगर उसके
हाथ से ही तुम गढ़े गए हो तो तुम अधूरे हो कैसे सकते हो?
और
बड़ा मजा है, धार्मिक आदमी कहे चले जाते हैं: परमात्मा ने संसार बनाया, आदमी मनाए, पशु-पक्षी बनाए...। फिर भी उन्हें यह समझ
में नहीं आता, अगर उसके हाथ से यह सब बना है तो यह पूर्ण
होना चाहिए। पूर्ण से पूर्ण ही निकल सकता है। मगर हम तो बड़े अपूर्ण मालूम होते
हैं। शायद जहां उसने हीरे संभालकर रख दिए हमारे भीतर...! और हीरे तो संभाल कर रखने
होते हैं न! तुम भी अपने हीरे मकान के बाहर कूड़े-कचरे के पास नहीं रख देते हो। घर
के भीतर से भीतर, जो कमरा सब से ज्यादा गहराई में होता है
भीतर, सब से ज्यादा सुरक्षित होता है, वहां
गङ्ढा खोदते हो, गहरा गङ्ढा हो। जितना बहुमूल्य हीरा होता है
उतना गहरा गङ्ढा खोदते हो, ताकि चुराया न जा सके, ताकि खो न जाए।
तुम्हारी
परम संपदा तुम्हारे ही गहरे कुएं में रची है। वहीं उतरो।
तेरौ
तेरे पास है,
अपने मांहि टटोल।
राई
घटै न तिल बढ़ै,
हरि बोलौ हरि बोल।।
ये
एक सूत्र सारे शास्त्रों का सार है। न तो तुम्हारे भीतर की संपदा घटती है और न
बढ़ती है। राई घटै न तिल बढ़ै! जैसा है वैसा ही रहेगा। जैसा है वैसा ही सदा से है।
तुम परिपूर्ण हो और परिपूर्ण रहोगे। इसमें कुछ जुड़ना नहीं है, घटना नहीं
है।
लोग
सोचते हैं: आध्यात्मिक विकास करना है। तुम पागल हो! आध्यात्मिक विकास होता ही
नहीं। आध्यात्मिक अनुभव होते ही पता चलता है: विकास इत्यादि सब कल्पना का जाल है।
राई घटै न तिल बढ़ै। विकास कहां? दस रुपए हैं तो बस रुपए हो सकते हैं। दस लाख
हैं तो लाख हो सकते हैं। हजार आदमी तुम्हें सम्मान देते हैं, दो हार दे सकते हैं। इसमें बढ़ती हो सकती है। मगर तुम्हारे भीतर परमात्मा
जितना है उतना ही है। पुरा का पूरा है।
इसलिए
उपनिषद कहते हैं: उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह
जाता है। तुम ऐसा मत समझना कि टुकड़े-टुकड़े में मिला है। तो किसी को ज्यादा मिल गया
होगा, किसी को कम मिल गया होगा। तुम्हें सभी को पूरा-पूरा
मिला है।
इसे
हम ऐसा समझें तो शायद समझ मग आ जाए, बात तो जरा समझने के, पार की है। पूरे चांद को देखना रात में, पूरा चांद
निकला है, पूर्णिमा की रात। हजारों नदी हैं, हजारों नदी हैं, हजारों सरोवर, हजारों सागर, छोटे पोखरे, तालाब,
कुएं--सब में चांद का प्रतिबिंब बनेगा और सब में पूरा-पूरा बनेगा।
वह जो नदी में झलक रहा है--चांद, वह कुछ अधूरा हनीं है। और
बड़े से बड़े सागर में जो झलकेगा वह भी कुछ बड़ा नहीं है। और रास्ते के किनारे वर्षा
में भर गया गङ्ढा पानी से, उसमें जो झलक रहा है चांद,
वह कुछ छोटा नहीं, गङ्ढे का चांद कुछ छोटा
नहीं है। चांद तो एक है। सरोवर अनेक हैं--छोटे हैं, बड़े हैं;
मगर जो झलक रहा है वह सब में बराबर झलक रहा है।
ऐसी
ही परमात्मा सब में बराबर झलक रहा है। कृष्ण में और बुद्ध में और क्राइस्ट में और
तुम में--सब में बराबर झलक रहा है। सुंदर देह में, स्वस्थ देह में, रुग्ण देह में गरीब में, अमीर में, बुद्धिमान में, बुद्धू में, सब
में, बराबर झलक रहा है। उसका स्मरण पर्याप्त है। कोई
आध्यात्मिक विकास नहीं होता है। अध्यात्म केवल स्मरण मात्र है--हरि बोलौ हरि बोल!
बस इतना स्मरण एक स्मरण की जागृति! भीतर एक होश, कि मैं कौन
हूं--और तत्क्षण सारा साम्राज्य उपलब्ध हो जाता है! जिसे तलाशत्तलाश कर कभी नहीं
पाया था, वह बिना तलाशे मिल जाता है।
तेरौ
तेरे पास है,
अपने मांहि टटोल।
और
बाहर तुम कुछ पा लोगे,
तो भी तुम्हारा नहीं है वह, इसलिए छीना जाएगा।
और बाहर तुम जो पा लोगे, दूसरों से छीनकर ही पाओगे। तुमसे भी
छीना जाएगा। और बाहर तुम जो पा लोगे, अगर किसी तरह जिंदगी भर
संभाल भी लिया तो मौत में छिन जाएगा। जो बाहर से तुम्हारा है, वह कभी तुम्हारा हो नहीं पाता। पराया पराया नहीं रहता है...तेरी तेरे पास
है! लेकिन जो वस्तुतः तुम्हारा है वह तुम्हारे पास है। उसे चिता की लपटें भी
जलाएगी नहीं...अपने मांहि टटोल!
कभी
मुझको साथ लेकर,
कभी मेरे साथ चल के
वो
बदल गए अचानक मेरी जिंदगी बदल के
हुए
जिस पे मेहरबान तुम कोई खुशनसीब होगा
मेरी
हसरतें तो निकलीं मेरे आंसुओं के ढल के
तेरी
जल्फो-रुख के कुर्बा दिलेजार ढूंढ़ता है
वही
चंपई उजाले वही सुरमई धुंधलके
कोई
फल बन गया है कोई चांद कोई तारा
जो
चिराग बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के
मेरे
दोस्तो! खुदारा मेरे साथ तुम भी ढूंढो
वो
यहीं कहीं छूपे हैं मेरे गम का रुख बदल के
तेरी
बेझिझक हंसी से न किसी का दिल हो मैला
यह
नगर है आईनों का यहां सांस ले संभव के
मेरे
दोस्तों! खुदारा मेरे साथ तुम भी ढूंढो
दूर
नहीं छिपा है परमात्मा--यहीं कहीं छिपा है--यहीं तुम्हारे भीतर छिपा है।
तेरी
तेरे पास है,
अपने मांहि टटोल।
राई
घटै न तिल बढ़ै,
हरि बोलौ हरि बोल।।
सुंदरदास
पुकारिकै कहत बजाए ढोल!
चेति
सकै तो चेति ले हरि बोलौ हरि बोल।।
बस
इतनी ही बात है,
इतनी सी बात है।: चेति सक तो चेति ले! इससे ज्यादा नहीं। अध्यात्म
कोई साधना नहीं है--चेतना है,; अभ्यास नहीं है--स्मरण है।
कहीं जाना नहीं है, कुछ होना नहीं है--सिर्फ नींद तोड़ देनी
है; सिर्फ आंख खोल लेनी है। चेति सकै तो चेति ले!
सुंदरदास
क्यों कहते हैं। कहत बजाएं ढोल? क्योंकि आदमी चेतना नहीं चाहता। आदमी कहता है:
थोड़ी देर और सो लेने दो। एक करवट और ले तू। अभी तो बड़ी जल्दी है। जरा और सो लूं।
थोड़ी देर और...।
मैं
एक नगर में बोल रहा था। एक मित्र मेरे सामने ही बैठे सुन रहे थे। मैंने देखा उनकी
आंखों से आंसू बह रहे हैं और फिर बीच में अचानक वे उठ गए। कोई और उठ गया होता तो
मुझे खयाल में भी न आता। उनकी आंख से बहती आंसुओं की धार और उनके हृदय की तरंग, और उनका
भाव, उनके उठने से मेरे लिए महफिल उठ गई। जैसे उन्हीं के लिए
बोल रहा था! जैसे उन्हीं से बोल रहा था! बाकी तो बहरे थे। बाकी तो ठीक थे, सो थे। मगर उनसे मेरी तरंग जुड़ गई थी, उनसे मेरा भाव
जुड़ गया था। मेरे साथ उनकी सांस धड़क रही थी। मेरे हृदय के साथ उनका हृदय धड़क रहा
था। क्यों उठ गए?
मैं
आगे बोल नहीं सका। मैंने पूछा कि बात क्या हुई? उनकी पत्नी भी बैठी थी। उसने मुझे
एक चिट लाकर दी, और कहा कि वे यह चिट लिखकर दे गए हैं। चिट
में लिखा था: आपको सहना असंभव है। और अगर आपको और ज्यादा सुना तो मेरा सब
अस्तव्यस्त हो जाएगा। इसलिए मैं जा रहा हूं। और ज्यादा नहीं सुनना चाहता। पत्नी है,
बच्चे हैं, गृहस्थी कच्ची है। अगर और थोड़ा
सुना तो मैं घर न लौट सकूंगा।
अगर
आदमी चेतने के करीब भी आने लगे तो हजार भय खड़े हो जाते हैं।
मैंने
उन्हें ऐसे छोड़ नहीं दिया,
मैं उनके घर पहुंच गया।...कहत बजाएं ढोल! अब ढोल ही बजाना हो तो फिर
ऐसे कोई भाग जाए तो उसको भाग थोड़े जाने देते हैं! मुझे घर देखकर वे तो एकदम चकित
हो गए। उन्होंने कहा: आप...आप कैसे आए? मैंने कहा: बात आधी
रह गई है। उसे पूरा करना होगा।
और
मैंने कहा: घबड़ाओ मत,
मैं तुम्हारी पत्नी से तुम्हें छुड़ाना नहीं चाहता। परमात्मा से
जोड़ना जरूर चाहता हूं, पत्नी से नहीं छुड़ाना चाहता। और परमात्मा
क्या इतना कमजोर है कि पत्नी बीच में आ जाए तो परमात्मा से संबंध टूट जाए? तो जिन्होंने यह परमात्मा गढ़ा है वे कमजोर रहे होंगे, उनका परमात्मा भी कमजोर है। मैं तुम्हारे बच्चों से भी तुम्हें तोड़ना नहीं
चाहता; सिर्फ याद दिलाना चाहता हूं कि ये बच्चे तुम्हारे नहीं
है, परमात्मा के हैं। सिर्फ इतनी याद दिलाना चाहता हूं कि यह
पत्नी तुम्हारी संपदा नहीं है, इसमें परमात्मा विराजमान है,
इसका सम्मान करो। इसको मेरात्तेरा मानकर मत चलो। सब उसका है।
तेरौ
तेरे पास है,
अपने मांहि टटोल।
को
तेरी तू कौन को,
हरि बोलौ हरि बोल।।
राई
घटै न तिल बढ़ै,
कहत बजाएं ढोल।
चेति
सकै तौ चेति ले,
हरि बोलौ हरि बोल।।
न
तो पत्नी को छोड़ना है,
न बच्चों को छोड़ना है, छोड़ने का सवाल ही कहां
है? छोड़ना तो तब हो सकता था जब अपना कुछ होता। अपना कुछ है
ही नहीं तो छोड़ोगे कैसे?
इसलिए
मैं तुमसे कहता हूं: जो सोचते हैं कि हमने त्याग किया, उन्होंने
त्याग नहीं किया। वे कुछ समझे ही नहीं। उन्होंने तो त्याग में भी वही पुरानी धारणा
कायम रखी कि अपना था।
एक
मेरे परिचित हैं। जब भी मिलते थे, तब वे यही बात करते कि मैंने लाखों पर लात मार
दी। मैंने उनसे पूछा कि भाई मेरे, लात मारी कब? उन्होंने कहा कि कोई तीस साल हो गए। तो मैंने कहा, लात
लगी नहीं। तीस साल हो गए, अब लाखों की याद क्या कर रहे हो?अगर लात लग ही गई, तो अब याद क्या करते हो? पहले सोचते थे मेरे पास लाखों हैं, अब सोचते हैं कि
मैंने लाखों त्याग दिए! न तो तुम्हारे थे, तो त्यागोगे कैसे?
यह तो बड़ा पागलपन हुआ।
यह
तो ऐसा ही पागलपन हुआ कि मैंने उनसे कहा कि दो आदमी, दो अफीमची पिनक में आ गए
झाड़ के नीचे पड़े थे। एक ने आंख खोली और उसने कहा: मेरा दिल होता है कि सारी दुनिया
खरीद लूं। दूसरे ने कहा: तेरा दिल होता रहे, मगर मैं बेचना
ही नहीं चाहता।
दुनिया
किसी की नहीं है।...लाख तेरा दिल होता रहे, मगर हम बेचें तब न! हमारा बेचने का
दिल ही नहीं है।
कुछ
हैं, जो कहते हैं हमारा; और कुछ कहते हैं, हमने त्याग। भोगी तो भ्रांति में है ही, तुम्हारा
त्यागी महा भ्रांति में है।
नहीं
कुछ छोड़ना है। सिर्फ इतना ही जानना है कि हमारी पकड़ में ही कुछ नहीं है। छोड़ोगे
कैसे? छोड़ने के पहले पकड़े में था, यह तो मान ही लेना होगा।
यह तो अनिवार्य है कि मेरा था, तो छोड़ना हो सकता है। यहां
कुछ मेरा नहीं है।
को
तेरौ तू कौन को...! इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि पत्नी को छोड़कर भाग
जाओ। तेरी है ही नहीं,
भागेंगे कहां? अगर भागे तो इसी भ्रांति में
रहोगे कि मेरी थी। भागना कहां है? जागना है। चेति सके तो
चेति ले! इतना देखकर-भर है कि यहां कोई अपना नहीं है, कोई
पराया नहीं। बस यह दृष्टि आ जाए तो तुम जहां हो वहीं सब घटित हो जाता है। और तुम
जैसे हो वैसे ही सब मिल जाता है। राई घटै न तिल बढ़ैं!
पिये
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
चेतना
जगे तो विरह जगेगा,
तो वियोग जगेगा। चेतना जगे तो यह याद जाएगी कि जो अपना है उसे छोड़
बैठे हैं जो अपना नहीं है, उसे अपना मन बैठे हैं। चेतना जगे
तो इस बात की याद आएगी कि मेरा स्वरूप क्या, मेरा स्रोत क्या?
मेरा मूल उदगम क्या? क्योंकि जो मूल उदगम है,
वही अंतिम लक्ष्य है। गंगा सागर में ही पैदा होती है और सागर में ही
गिरती है। जो मूलस्रोत है, वही अंतिम गंतव्य भी है।
चेतोगे
तो स्मरण आना शुरू होगा कि कैसे मेरा वियोग हो गया? मैं परमात्मा से कैसे दूर
हट गया हूं? मैंने परमात्मा की तरफ पीठ कैसे कर ली? मैं विमुख कैसे हो गया हूं?
पिय
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
इस
तरह विरह का रंग ही संन्यास का रंग है। इस वियोग से जो भरा वही योग का अनुभव कर
पाएगा। वियोग यानी कैसे टूट गए परमात्मा से। जिसने ठीक से देख लिया कैसे टूट गए, वह जुड़
जाता है--देखने में ही जुड़ जाता है। कुछ करना नहीं पड़ता। जिस दिन तुम्हें समझ में
आ गया कि मुझे सूरज क्यों दिखाई नहीं पड़ रहा है, क्योंकि मैं
पीठ किए हूं, इसी क्षण तुम मुड़ गए। इतनी ही बात है। इतनी सी
बात है। और सूरज सदा तुम्हारी आंख के सामने है। तुम पीठ करो तो दिखाई नहीं पड़ता।
या यह भी हो सकता है, कि तुम मुंह भी सूरज की तरफ करो और आंख
बंद रखो, तो भी दिखाई नहीं पड़ता। इतनी बात समझ में आ गई कि
आंख खोल लूं तो सूरज सामने है।
परमात्मा
सदा सामने है। बस तुम्हारी आंख बंद है। विरह में रो-रोकर आंख खुल जाती है।
पिय
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
पागल
हो गई हूं।
और
तुमने देखा, जब भी संत उसके वियोग की बात करते हैं, तब तत्क्षण
वे अपने को स्त्रैण रूप मग अनुभव करने लगते हैं। क्योंकि विरह की गहराई स्त्री का
मन ही जान सकता है। जब विरह की गहराई कोई जानता है तब तत्क्षण उसके भीतर पुरुष
विलीन हो जाता है। उसके भीतर स्त्री ही आ जाती है। फिर एक ही पुरुष रह जाता
है--वही परमात्मा!
पिय
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
मैं
पागल हो गई!
कल
तुमने पूछा था--किसी ने--कि क्या आप मुझे पागल ही करके छोड़ेंगे? उसका ही
आयोजन चल रहा है। यहां जो भले-चंगे आते हैं, उन्हें पागल
बनाया जाता है। वे पागल हो जाएं तो काम हो गया। उनमें विरह का पागलपन जग जाए। और
पागलपन ही है। क्यों पागलपन है? क्योंकि धन खोजो, धन सबको दिखाई पड़ता है, इसलिए पागलपन नहीं है। और सब
जानते हैं धन का मूल्य, इसलिए पागलपन नहीं है। सबकी भाषा में
है, सबके अनुभव में है। इसलिए पागलपन नहीं है। परमात्मा को
खोजो, लोग पूछते हैं: कैसे पागल हो गए? कहां है परमात्मा? तुम दिखा भी न पाओगे। तुम किसी को
समझा भी न पाओगे। लोग कहेंगे, किसी भांति में पड़ रहे हो?
किस भ्रम में उलझ रहे हो? कहां है परमात्मा?
दिखा तो दो पहले, फिर खोजने, फिर अपने जीवन को उस पर बलिदान करना। हो भी तो। हो तो हम भी कर दे बलिदान!
लेकिन दिखाओ, दिखलाओ!...पागल ही लगोगे।
और
जहां सारे लोग धन खोज रहे हैं वहां तुम ध्यान खोजोगे, पागल ही
लगोगे। जहां सारे लोग एक तरफ जा रहे हैं, वहां तुम दूसरी तरफ
चलने लगे...स्वभावतः भीड़ कहेगी: क्या हो गया है तुम्हें? तुम्हें
बोध नहीं है? सारी दुनिया कहां जा रही है, तुम कहां जा रहे हो? तुम उलटे जा रहे हो।
मजा
यह है कि यहां जो सीधा जाता है वह उलटा मालूम पड़ेगा, क्योंकि भीड़ उलटी जा रही
है। यहां जो वस्तुतः स्वस्थ है वह पागल मालूम पड़ेगा क्योंकि यहां पागल स्वस्थ समझे
जा रहे हैं। धन को इकट्ठा करनेवाला ठीक समझा जाता है। पद की यात्रा पर चलने वाला
ठीक समझा जाता है। क्योंकि मां-बाप यही सिखाते, स्कूल यही
सिखाते, कालेज, विश्व-विद्यालय यही सिखाते--महत्वाकांक्षा!
सबसे प्रथम हो जाना है।
जीसस
ने कहा है: ध्यान रखना जो प्रथम हैं, वे अंतिम पड़ जाएंगे। और मैं तुमसे
कहता हूं कि जो यहां अंतिम होने की सामर्थ्य रखेंगे, वे मेरे
प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे। अब अंतिम होने ही सामर्थ्य तो पागलपन है।
लाओत्सु
ने कहा है कि मैं जब किसी सभा में जाता हूं तो सब से अंत में बैठ जाता हूं, जहां से
मुझे कोई उठा न सके। जो आगे बैठते हैं, उठाये जा सकते हैं।
क्योंकि आगे बैठने के लिए प्रतिस्पर्धा होती है, संघर्ष होता
है।
लाओत्सु
कहता है: मैं वहां बैठता हूं जहां लोग जूते उतार देते हैं। वहां से मुझे कभी कोई
नहीं हटाता, वहां मैं निश्चित भाव से बैठता हूं। वहां कोई भय नहीं होता।
अंतिम
आदमी को क्या भय! अब अंतिम से और क्या अंतिम होगा? लेकिन जो अंतिम होने चला है,
वह पागल तो लगेगा। जहां सब प्रथम होने की दौड़ में हैं, जहां एक ही जहर ने सबको पकड़ा है कि कैसे प्रथम हो जाएं...?
मेक्सिको
एक छोटा सा गांव है--दूर पहाड़ों में बसा हुआ। छोटी आबादी है, सात सौ
आदमी हैं। सब अंधे हैं। बड़ा विशिष्ट गांव है। सब बच्चे आंख वाले पैदा होते हैं,
लेकिन तीन-चार महीने के भीतर अंधे हो जाते हैं। एक खास तरह की
मधुमक्खी बड़ी मात्रा मग पायी जाती है। उससे बचने का भी कोई उपाय नहीं, क्योंकि बाकी भी सब अंधे हैं। आज से सौ साल पहले आदमी आंखों वाला उस कबीले
में प्रवेश किया। एक वैज्ञानिक अध्ययन करने पहुंच गया। वह बड़ा हैरान हुआ। सात सौ
लोगों की बस्ती, अब अंधे! वहां भी कभी आंख वाला सदियों से
हुआ ही नहीं है। काम चलता है, घसिटता हुआ किसी तरह।
थोड़ी-बहुत सब्जी भी उगा लेते हैं, थोड़ी बहुत खेती भी कर लेते
हैं। बड़ा मुश्किल मामला है। किसी तरह जुटा लेते हैं, एक जून
पेट भर लेते हैं। वह आदमी, वह वैज्ञानिक उस कबीले की एक लड़की
के प्रेम में पड़ गया। वह अध्ययन करने गया था। अध्ययन कर रहा था। वह उसे प्रेम में
पड़ गया। लेकिन गांव वालों ने कहा: एक शत है, विवाह हम करवा
देंगे, लेकिन आंखें फोड़नी होंगी। क्योंकि यह हम मान ही नहीं
सकते कि आंख वाला आदमी स्वस्थ है। सात सौ जहां अंधे हों और सदा से जहां अंधे ही
आदमी रहे हों, वहां आंख वाले को अस्वस्थ तो मानेंगे ही! कुछ
गड़बड़ है।
तुम्हीं
सोचो, अगर अचानक एक आदमी पैदा हो जाए जिसकी तीन आंखें हों तो बस तुम ले जाओगे
अस्पताल, डाक्टर से कहोगे कि इसका आपरेशन करो। अगर बुद्धिमान
हुए तो आपरेशन करवाने में लगोगे। अगर बुद्ध हुए तो पूजा करने लगोगे कि शायद शंकर
जी का अवतार हुआ है या क्या मामला है! मगर स्वीकार कोई भी नहीं करेगा कि यह
सामान्य है। कुछ विकृति है। कुछ गड़बड़ है।
उस
कबीले के लोगों ने कहा कि हम राजी हैं, विवाह तुम्हारा कर देंगे, मगर आंखें गंवानी पड़ेंगी। वह वैज्ञानिक वहां से भाग खड़ा हुआ। भागना ही
पड़ा। उसने कहा: यह तो खतरनाक मामला है। आंखें अपनी गंवाना पड़े और इन पागलों को कौन
समझाए कि अंधा होना कोई स्वास्थ्य की बात नहीं है। मगर जहां भीड़ अंधों की हो,
वहां कठिनाई हो जाती है।
जिब्रान
की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। एक गांव में एक चुड़ैल आई और उसने एक मंत्र फूंका और एक
कुएं में कुछ चीज फेंक दी और कहा कि जो भी इसका पानी पीएगा पागल हो जाएगा। उस गांव
में दो ही कुएं थे--एक गांव का कुआं, एक राजा का कुआं। गांव के कुएं का
सबको पानी पीना हो पड़ा, और कुआं ही न था। वे सब सांझ
होते-होते पागल हो गए। सिर्फ राजा, उसका वजीर, उसकी रानी, ये तीन बच गए। वे बड़े प्रसन्न थे,
भगवान को धन्यवाद दे रहे थे कि हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे कुएं
में कुछ खतरा नहीं हुआ, लेकिन शाम को उन्हें पता चला कि गलती
में हैं वे। जब सारा गांव पागल हो गया तो गांव में एक अफवाह जोर से उड़ी कि राजा का
दिमाग खराब हो गया। स्वभाविक। गांव भर के लोग इकट्ठे होने लगे महल के पास, कि राजा का दिमाग खराब हो गया। और उसमें कुछ राजनेता भी होंगे, वे चिल्लाने लगे कि राजा को बदलेंगे, क्योंकि पागल
राजा हम बरदाश्त नहीं कर सकते। राजा के सिपाही भी पागल हो गए थे। राजा के पहरेदार
भी पागल हो गए थे। वे भी भीड़ में सम्मिलित थे। अब बड़ी मुश्किल थी। राजा उन्हीं के
बल पर तो राजा था। जब पागलों की भीड़ सब तरफ इकट्ठी हो गई--और राजा जानता है कि ये
पागल हैं, मगर अब क्या उपाय है?--उसने
अपने बूढ़े वजीर से कहां कंपते हुए कि अब मैं क्या करूं? हमें
पक्का पता है कि हम ठीक हैं, ये गलत हैं; मगर यह भीड़ है। सारा गांव पागल हो गया है। मेरे लिए कोई उपाय है?
वजीर
ने कहा; आप एक काम करो, मैं इनको। उलझा कर रखता हूं थोड़ी देर,
आप भागो, उस कुएं का पानी पीकर आ जाओ। अब और
कोई उपाय नहीं।
राजा
भागा, उस कुएं का पानी पीकर जब आया तो नग-धड़ंग नाचता हुआ चला आ रहा था। उस गांव
में बहुत जलसा मनाया गया उस रात कि अपने राजा का दिमाग ठीक हो गया है। अपना प्यारा
राजा! इसका दिमाग बिलकुल ठीक हो गया! नंगे राजा को लेकर वे खूब उछले-कूदे, खूब जिंदाबाद किया।
भीड़
जो करती है वह ठीक मालूम होता है। भीड़ से जो अन्यथा करोगे, भीड़ पागल
समझेगी। इसलिए जिसको धर्म के रास्ते पर जाना हो वह इतनी तैयारी रखे कि लोग पागल
कहें तो चुपचाप सुन लेना, समझ लेना। इसमें झगड़ें की बात भी
नहीं है। ठीक ही कहते हैं लोग। उनकी तरफ से ठीक ही कहते हैं।
पिय
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
और
जैसे-जैसे विरह बढ़ता है,
वैसे-वैसे बेचैनी बढ़ती है, आंसू बढ़ते हैं,
दुख और पीड़ा बढ़ती है, लपटें बढ़ती हैं।
बारहा
देखी हैं उनकी रंजिशें
पर
कुछ अब के सरगरानी और है
कठिनाइयां
बढ़ती हुई मालूम पड़ती हैं। एकदम से हल नहीं हो जाता। पुराने समाधान खो जाते हैं। नई
समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। समाधि मस्ती थोड़े ही मिलती हैं। पहले पुराने सब समाधान
खो जाते हैं और सब समस्याएं ही समस्याएं हो जाती हैं। व्यक्ति एकदम अंधकार में घिर
जाता है, तब रोशनी मिलती है।
बारहा
देखी हैं उनकी रंजिशें
पर
कुछ अब के सरगरानी और है
जब
प्रभु की याद आनी शुरू होती है तो हृदय में एकदम घाव लगते हैं, कटार चुभ
जाती है।
मैं
तुझको भूल चुका लेकिन इक उम्र के बाद
तेरा
खयाल किया था चोट उभर आई।।
जन्मों-जन्मों
के बाद भी चोट उभर जाती है। हृदय दुखने लगता है। हृदय एक घाव हो जाता है। रिसने
लगता है दर्द! अब बिना मिले एक क्षण काटना मुश्किल हो जाता है। इसलिए भक्त पागल
मालूम होता है,
रोता है, गिरता है। पड़ता है। उसकी आंख के आंसू,
उसकी आहें, किसी की समझ में नहीं आतीं। लेकिन
जब पहुंच जाता है भक्त तब वह जानता है कि वे दिन भी अनिवार्य थे। वह धन्यवाद करता
है। क्योंकि वे दिन आते, वे दुख न आते, तो ये सुख के दिन भी न आते।
हर
हकीकत मजाज हो जाए
काफिरों
की नमाज हो जाए
मिन्नते
की नमाज हो जाए
मिन्नते
चारासाज कौन करे
दर्द
जब जां-नवाज हो जाए
इश्क
दिल में रहे तो रुसवा हो
लब
पे आए तो राज हो जाए
लुत्फ
का इंतजार करता हूं
जोर
ता-हद्दे-नाज हो जाए
जब
भक्त पहुंच जाता है तब उसे अनुभव होना शुरू होता है कि अरे! वह विरह की रात्रि न
होती तो यह मिलन का सूर्योदय भी नहीं हो सकता था...। तो सदगुरु अपने शिष्यों को
समझाते हैं कि जब दर्द उठे तो उसका इलाज मत कर लेना। जब दर्द उठे तो प्रार्थना करना कि बेहद हो जाए, दर्द बढ़ता
चला जाए।
हर
हकीकत मजाज हो जो
काफिरों
की नमाज हो जाए
मिन्नते-चारासाज
कौन कर--
तब
जाकर वैद्यों की,
चिकित्सकों की, खुशामदें मत करने लगना। नानक
को ऐसा ही विरह सताया; ऐसा ही विरह! एक रात पपीहा बोल
गया--पी कहां? पी कहां? और नानक भी रोज
गए--पी कहां? पी कहां? उनकी मां
आई।...युवा थे अभी...। उसने कहा: अब सो भी जाओ! यह क्या लगा रखा है--पी कहां?
पी कहां? नानक ने कहा: अभी पपीहा भी नहीं थका,
मैं कैसे थक जाऊं? अभी पपीहा भी नहीं चुपा,
मैं कैसे चुप हो जाऊं? पपीहे से होड़ बंधी है।
अगर पपीहा पुकारता है तो मैं भी पुकारे जाऊंगा। जब तक पपीहा नहीं रुकता मैं नहीं
रुकने वाला हूं। पपीहे से थोड़े ही हार जाऊंगा? मैं भी अपने
पी को पुकार रहा हूं,
रात-भर
पुकारते रहे। पपीहा भी पागल रहा होगा! आजकल ऐसे पपीहे भी नहीं मिलते। एकाध दो दफे
पुकारा, चुप हो जाते हैं। कलियुगी पपीहे! पपीहा भी पुकारता रहा। शायद जिद्द बांध
ली होगी नानक से भी कि तूने भी क्या समझा है? सुबह तो
मुश्किल हो गई। घर के लोगों ने समझा कि पागल हो गए हैं। वैद्य को बुलाया गया।
वैद्य नब्ज पकड़े हैं और नानक उसको हंसकर कहते हैं कि यह बीमारी ऐसी नहीं, जिसका तुम इलाज कर सको। यह तुम्हारी चिकित्सा-शास्त्र के बाहर की बीमारी
है।
मिन्नते-चारासाज
कौन करे
दर्द
जब जां-नवाज हो जाए
दर्द
ही तो जीवनदायी है। प्रभु के रास्ते पर पाया गया दर्द नहीं है, सुख की
सघनता है। सुख इतना घना है, इसलिए पीड़ा मालूम होती है।
शीतल
मंद सुगंध सुहात न बावरी।
अब
कुछ सुहाता नहीं। ठंडी हवा,
मलयानिल से आती हवा...शीतल मंद सुगंध सुहात न बावरी...जिसे परमात्मा
की याद आने लगी, फिर कुछ नहीं सुहाता। अब तो वही सुहाता है,
उसी की याद सुहाती है--हरि बोलौ हरि बोल।
मुद्दत
हुई है जख्म दिल पे खाते खाते
ऐ
काश! वो पूछ लेते आते जाते
जब
गम का पहाड़ टूट पड़ता है असर
आता
है करार दिल को आते-आते
समय
लगता। रोना चलता। अनुभव होते-होत आता है।
शीतल
मंद सुगंध सुहात न नावरी।
न
पूछ जब से तेरा इंतिजार कितना है
कि
जिन दोनों से मुझे तेरा इंतिजार नहीं
तेरा
ही अक्स है उन अजनबी बहारों में
जो
तेरे लब तेरे गेसू तेरा किनार नहीं।
कई
दफे भक्त कर लेता है कि छोड़ो, कहां की झंझट में पड़ गया! किस उपद्रव को मोल ले
लिया! इस पीड़ा का कोई अंत नहीं है। रोता है और रात का अंधेरा बढ़ता है। सुबह की कोई
किरण दिखाई नहीं पड़ती। कई बार सोच लेता है: भूलो! छोड़ो! अगर अब भूलना संभव नहीं।
भुलाओ तो और याद आता है। हरि बोलौ हरि बोल। विस्मरण करो तो और स्मरण सघन होता है।
बचना चाहो तो और सब तरफ से घेरता है।
अब
मुहि दोष न कोई परौंगी बावरी।
सुंदरदास
कहते हैं कि हालत मेरी ऐसी है कि अगर मैं जाकर बावड़ी में गिर पडूं तो मुझे दोष मत
देना, उसी को दोष देना!
इन
वचनों में उन्होंने यमक अलंकार का प्रयोग किया है--एक ही शब्द के बहुत अर्थ
पी
के विरह वियोग भई हूं बावरी।
बावरी
का वहां अर्थ है: पागल!
शीतल
मंद सुगंध सुहात ना बावरी।
वहां
बावरी का अर्थ होता है: वायु!
अब
मुहि दोष न कोई परौंगी बावरी।
मुझे
दोष मत देना...यहां बावरी का अर्थ होता है: बावड़ी! कुआं!
परिहां
सुंदर चहूं दिश विरह सु घेरि बावरी!
यहां
बावरी का अर्थ होता है: भौंरी। भंवरा।
कहते
हैं जाकर गिर पडूं कुएं में, ऐसी हालत है। मगर मुझे पता है कि वह मुझे कुएं
में भी छोड़ेगा नहीं। वह मुझे घेरे ही रहेगा। मैं उससे इस तरह घिर गई हूं, जैसे कि कोई भंवरा कमल से घिर जाता है। बैठ जाता है कमल में और चारों तरफ
से कमल की पंखुड़ियां बंद हो जाती हैं।
परिहां
सुंदर चहुं दिस विरह सु घेरि बावरी।
उसने
मुझे इस तरह घेर है,
इतनी सुघड़ता से घेरा है, इतनी कुशलता से घेरा
है, कि अब जाने का कहीं कोई उपाय नहीं है। जहां जाऊं वही है।
जिसे देखूं वही है।
ताजा
है अभी याद में ऐ साकी-ए-गुलफास
वो
अक्से-रुखे-यार से लहके हुए अप्याम
वो
फूल सी खिलती हुई दीदार की साअत
वो
दिल सा धड़कता हुआ उमीद का हंगाम
उमीद
कि लो जागा गमे-दिल का नसीबा
लो
शौक की तरसी हुई शब हो गई आखिर
लो
डूब गए दर्द के बेख्वाब सितारे
अब
चमकेगा बेसब्र निगाहों का मुकद्दर
इस
बाम से निकलेगा तेरा हुश्न का खुरशीद
उस
कुंज से फूटेगी किरण रंगे-हिना की
इस
दर से बहेगा तेरी रफ्तार का सीमाब
इस
राह पर फूटेगी शफक तेरी कबा की
फिर
देखे हैं वो हिज्र के तपते हुए दिन भी
जब
फिक्रे-दिलो-जां में फुगां भूल गई है
हर
शब वो स्याह बोझ कि दिल बैठ गया है
हर
सुबह की ली तीर-सी सीने में लगी है
तनहाई
में क्या क्या न तुझे याद किया है
क्या
क्या न दिले जार ने ढूंढी हैं पनाहें
आंखों
लगाया है, कभी दास्ते-साबा को
जली
हैं कभी गर्दने-मेहताब में बांहें।
भक्त
भी भाव-भंगिमाएं...एक क्षण लगता है कि डूब ही मरूं, जाऊं। अब जीने में कुछ सार
नहीं। मिलन होगा नहीं। संसार तो गया ही गया, और परमात्मा का
कुछ पता नहीं चलता है। डूब ही जाऊं, मिट ही जाऊं। अब जीना
दूभर है। मगर यह भी समझ में आता है: परि हां सुंदर चहुं दिश विरह सु घेरि बावरी।
लेकिन उसने भी खूब घेरा है, मर कर भी छूटने का उपाय नहीं है!
वह मृत्यु में भी घेरे रहेगा।
भक्त
मरेगा भी तो भगवान में मरेगा। भक्त जलेगा भी तो भगवान में जलेगा। अग्नि भी उसकी, चिता भी
उसकी, अब उसका। अब भगवान से जाने का कोई उपाय नहीं है। और
फिर आशा की हजार-हजार किरणें भी फूटती हैं, उम्मीदें भी बनती
हैं।
उमीद
कि लो जागा गमे-दिल का नसीबा
लगता
है कि यह हुई सुबह,
ये बोले पक्षी, यह किरण फूटी। उमीद कि लो जागा
गमे-दिल का नसीबा।...कि जागे मेरे भाग्य! बस अब हो गई रात समाप्त और सुबह होने के
करीब है। आ गई सुबह।
लो
शौक की तरसी हुई शब हो गई आखिर
लो
डूब गए दर्द के बेख्याब सितारे
अब
चमकेगा बेसब्र निगाहों का मुकद्दर
अब
मेरे भाग्य का क्षण आ रहा है, अब मेरे भाग्योदय का क्षण आ रहा है। अब सौभाग्य
मुझ पर बरसेगा। बस अब हुआ, अब हुआ..
इस
बात से निकलेगा तेरा हुश्न का खुरशीद
तेरे
सौंदर्य का सूरज निकलने के ही करीब हैं।
उस
कुंज से फूटेगी किरण रंगे-हिना की
और
हिना से रंगे हुए तेरे हाथ इस कुंज से बाहर आने की ही करीब हैं...
इस
दर से बहेगा तेरी रफ्तार का सीमाब
इस
राह पर फूटेगी शफक तेरी काबा की
बस
अब तू आता ही है,
अब तू आता ही है।...
फिर
देखे हैं वो हिज्र के तपते हुए दिन भी
जब
फिक्रे दिलो-जां-में फुगां भूल गई है
हर
शब वो सियाह बोझ कि देख बैठ गया है
हर
सुबह की लौ तीर-सी सीने में लगी है
और
जब यह उम्मीद बंधती है तो सब भूल जाते हैं वे दिन, वो जो दुख के थे; पीड़ा के थे। पीड़ा और उम्मीद, निराशा और आशा के बीच
झूले लेता है भक्त।
पिय
नैननि की बोर सैन मुहि दे हरी।
क्या
देखा तुमने, किस ढंग से देखा, किस अंदाज से, किस अदा से!
पिय
नैननि की बोर सैन मुहि दे हरी।
...कि मुझे हर लिया, कि मेरे हृदय को चुरा लिया। यह हरि
शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब होता है, जो चुरा लो, जो तुम्हारे दिल को चुरा ले। इस दुनिया में बहुत चुराने वाले मिलते हैं,
मगर कोई चुरा नहीं पाता। लगता ही है बस! असली चोर तो तभी मिलता है
जब हरि से मिलन होता है।
पिय
नैननि की बोर सैन मुहि दे हरी।
जरा-सी
आंख का इशारा किया और मेरे हृदय को चुराकर ले गए।
फेरि
न आए द्वार न मेरी देहरी।
और
अब कितनी देर हो गई,
फिर दुबारा तुम्हारे दर्शन न हुए! कभी-कभी भक्त को झलकें आती हैं।
पीड़ा के बीच भी प्रसाद बरस जाता है कभी-कभी। विरह के बीच भी एक क्षण को किरण फूटती
है और नाच छा जाता है, और मस्ती आ जाती है। फिर दिन बीत जाते
हैं, कोई पता नहीं चलता। फिर अपने पर ही भरोसा खोने लगता है।
फिर अंदेशा होने लगता है कि जो हुआ था, वह हुआ भी था?
कोई सपना तो नहीं देखा था? कोई कल्पना तो नहीं
कर ली थी? कोई मन का ही जाल तो नहीं था? किसी सम्मोहन में तो नहीं पड़ गया था?
पिय
नैननि की बोर सैन मुहि दे हरी।
फेरि
न आए द्वार न मेरी देहरी।।
विरह
सु अंदर पैठि जरावत देह री।
परि
हां सुंदर विरहिन दुखित सीख का देह री।।
वही
यमक अलंकार का उपयोग जारी रखा है। पिय नैननि की बोर सैन मुहि दे हरी। दे हरी!
आंखों ने हरि की इस तरह का सैन, इस तरह का इशारा किया कि मेरे हृदय को चुरा ले
गए।
फेरि
न आए द्वार न मेरी देह री।
देहरी
यानी देहली! फिर द्वार पर नहीं आए। दोहरी पर नहीं आए। फिर झांका नहीं। तड़फा गए, जला गए,
फिर पता नहीं है। उकसा गए आग, भड़का गए। फिर
पता नहीं है।
विरह
सु अंदर पैठि जरावत देह री।
और
इस तरह जला गए हैं अग्नि को कि अब सारी देह जल रही है। देह री!
परिहां
सुंदर विरहित दुखित सीख का देहरी।
और
हालत ऐसी हो गई कि अब कोई कितनी ही सिखावन दे, कितनी ही सीख दे, शास्त्र समझाए, ज्ञान की बातें करे, कुछ काम नहीं पड़ता। अब कोई सीख काम नहीं पड़ेंगी। अब उसकी आंख से आंख मिल
गई है। अब तो वही मिले। उससे कम में कोई चीज काम नहीं पड़ सकती। उससे कम में अब
हृदय भर नहीं सकता।
है
लबरेज आहों से ठंडी हवाएं
उदासी
में डूबी हुई हैं घटाए
मोहब्बत
की दुनिया पे शाम आ चुकी है
सियाह-पोश
हैं जिंदगी की फजाए
मचलती
हैं सीने में लाख आरजूएं
तड़फती
हैं आंखों में लाख इस्तजाएं
तगाफुल
के आगोश में सो रहे हैं
तुम्हारे
सितम और मेरी वफाएं
मगर
फिर भी ऐ मेरे मासूम कातिल
तुम्हें
प्यार करती हैं मेरी दुआएं।
फिर
भक्त कहता है कि तुमने मुझे मार डाला। मगर फिर भी ऐ मेरे मासूम कातिल! तुम्हें
प्यार करती हैं मेरी दुआएं। और मिला क्या है?
तगाफुल
के आगोश में सो रहे हैं
तुम्हारे
सितम और मेरी वफाए।
तुम
सताए जाते हो और मेरी श्रद्धा! और तुम तड़फाएं जाते हो।
यह
परीक्षा भी है भक्त की। इस परीक्षा से जो गुजर जाता है, वही
परमात्मा को पाने का हकदार भी है। मुफ्त नहीं मिलता, कीमत
चुकानी पड़ती है। बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
अंजामे
सफर देख के रो देता हूं
टूटे
हुए पर देख के रो देता हूं
रोता
हूं कि आहों में असर हो लेकिन
आहों
का असर देख के रो देता हूं
रोता
ही रहता है भक्त। रोना ही उसकी प्रार्थना बन जाता है, रोता है,
पुकारता है। फिर रोने की व्यर्थता देखकर रोता है, कि कुछ भी तो न हुआ! आंसू आए और गए। और आंखों में उसकी झलक नहीं आ रही।
दूभर
रैनि बिहाय अकेली सेज री।
रात
बितानी कठिन हो जाती है। सेज पर जैसे अकेले...
दूभर
रैनि बिहाय अकेली सेज री।
जिनके
संगि न पीव बिरहिनी सेज सेज री।।
विरह
सकल वाहि विचारी से जरी।
हरि
हां सुंदर दुख अपार न पावौं सेजरी।।
दूभर
रैनि बिहाय अकेली सेज री।...सेजरी यानी शैप्या। शैय्या। शैप्या पर अकेली पड़ी हूं, रात कटती
नहीं।
जिनके
संगि न पीव विरहिनी सेजरी।
और
जिनके पिया साथ न हों,
और जिन्हें पिया की याद आ गई हो, और जिन्हें
पिया की झलक मिल गई हो...से जरी...वह तो जल ही रही है। चिता में जल रही है। सेज
कहां है? चिता है। अग्नि की लपटें हैं।
विरह
सकल वाहि विचारी से जरी।
और
उसे तो जकड़ दिया तुमने विरह की सांकलों में।
हरि
हां सुंदर दुख अपार न पाऊं जरी।
मगर
फिर भी भक्त कहता है: यह दुख बड़ा सुंदर है, बड़ा प्यारा है! यह तुम्हारा दिया
हुआ है, इसलिए प्यारा है। तुम दुख दो, तो
भी प्यारा है। संसार सुख दे तो भी प्यारा नहीं है। संसार में सफलता मिले तो भी
व्यर्थ है। और परमात्मा को पुकारने में असफलता मिले तो भी सफलता है। व्यर्थ को
पाने में जीत भी हार है। सार्थक को खोजने जो चला है, वहां हर
हार जीत की तरफ एक उपाय है। हर हार जीत की एक सीढ़ी है।
हरि
हां सुंदर दुख अपार न पाऊं से जरी।
जड़ी-बूटी
की जरूरत भी नहीं है। दुख अपार है, लेकिन किसी चिकित्सा की मुझे
आकांक्षा नहीं। तुम ही मेरी चिकित्सा हो, तुम ही मेरी औषधि
हो।
कली
कली ने भी देखा न आंख भर के मुझे।
गुजर
गई जरसे-गुल उदास करके मुझे।।
मैं
सो रहा था किसी याद शबिस्तां में
जगा
के छोड़ गए काफिले सहर के मुझे
तेरे
फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे
मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे
जरा
सी देर ठहर ऐ गमे-दुनिया
बुला
रहा है कोई बाम से उतर के मुझे
फिर
आज आई थी एक मौजे-हवाएंत्तरब
सुना
गई है फसाने इधर-उधर के मुझे
पीड़ा
चलती रहती है और लपटें उठती रहती हैं, मगर बीच-बीच में अमृत की बूंद भी
झलकती रहती हैं। हवा के झोंके आते रहते हैं। परमात्मा जलाता है कि निखार सके। जैसे
अग्नि में सोने को फेंकते हैं। मिट्टी को तो कोई अग्नि में फेंकता नहीं। धन्यभागी
हैं, वे जो विरह की अग्नि में फेंके जाते हैं। वे चुने गए।
वे सौभाग्यशाली हैं। और जब बाद में उपलब्धि होती है, तब तुम
धन्यवाद दोगे।
तेरे
फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
वे
तेरे विरह की रातें...
तेरे
फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे
मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे
पीछे
से लौट कर जब तुम देखोगे तो पाओगे इंतजार की घड़ियां भी बड़ी प्यारी थी। वह पीड़ा थी
सौभाग्य की। वह अभिशाप नहीं था, वरदान था। क्योंकि उसी की प्रक्रिया से गुजर कर
परमात्मा तक पहुंचना होता है।
मनुष्य
में बहुत कूड़ा-कर्कट इकट्ठा हो गया है, उसका जलना जरूरी है। बहुत गंदगी
इकट्ठी हो गई है, उसका काटा जाना जरूरी है। और हम उसी गंदगी
को अपनी आत्मा समझे हैं। इसलिए जब काटी जाती है, तो हमें
पीड़ा होती है। लगता है हमारे अंग भंग किए जा रहे हैं।
तुम
जैसे हो, गलत हो। तुम्हें तो तोड़ा ही जाएगा। तुम्हें तो काटा ही जाएगा। तुम पर तो
बहुत चोटें की जाएंगी। छैनी और हथौड़ा लेकर परमात्मा तुम्हारे अंग भंग करेगा। तभी
तुम्हारी वास्तविक प्रतिमा प्रकट होगी। इस पीड़ा में बहुत बार भक्त सोच लेता
है--लौट चलो। पुराने दिन ही अच्छे थे। सब ठीक-ठाक था। किस झंझट में पड़ा! किसी
पागलपन में पड़ा! मगर लौटने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा की तरफ जो चला है,
उसे लौटने को कोई उपाय नहीं है।
होती
है तेरे नाम से वहशत कभी-कभी
बरहम
हुई ये यूं भी तबियत कभी-कभी
ऐ
दिल किस नसीब एक तौफीके-इज्तिराब।
मिलती
है जिंदगी में यह राहत कभी-कभी।
जोशे-जुनूं
में दर्द की तुग्यानियों के साथ।
अश्कों
में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी।।
तेरे
करीब रह के भी दिल मुतमइन न था।
गुजरी
है मुझ पे यह कयामत कभी-कभी।
कुछ
अपना होश था न तुम्हारा ख्याल था।
यूं
भी गुजर गई शबे-फुर्कत कभी-कभी।।
ऐ
दोस्त हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद।
महसूस
की है तेरी जरूरत कभी-कभी
कभी
कभी कसम खा लेता है भक्त कि बस, हो गया बहुत। चला वापस। अब दुबारा नहीं पुकारूंगा।
अब दुबारा नाम नहीं लाऊंगा।
ऐ
दोस्त हमनेत्तर्के-मोहब्बत के बावजूद
कभी-कभी
त्याग ही कर देता है प्रेम का और प्रार्थना का।
तर्के-मोहब्बत...
ऐ
दोस्त हमने तर्के-मोहब्बत के बावजूद।
महसूस
की है तेरी जरूरत कभी-कभी।।
लेकिन
फिर...फिर याद आ जाती है,
फिर सघन होकर आ जाती है। फिर चल पड़ता है।
बहुत
पड़ाव आते हैं,
वहां से लौट जाने का मत होगा। सावधान रहना। पीड़ा जितनी बढ़े, स्मरण रखना प्रभाव उतना ही करीब है। रात जितनी अंधेरी हो, समझना कि सुबह उतनी ही करीब है। और जो पहुंच गए हैं सुबह पर, वे कहते हैं कि सौभाग्यशालियों को ही ऐसी पीड़ा मिलती है। धन्यभागियों को
ही!
सुंदरदास
के ये सूत्र तुम्हारे हृदय में थोड़ी सी भी चिंगारी पैदा कर दें, जरा सी आग
झलक उठे, तो ही तुम इनका अर्थ समझ पाओगे। मेरे समझाने से
नहीं होगा। इनका अर्थ तुम्हारे अनुभव से प्रकट होगा। ये सैद्धांतिक शब्द नहीं हैं,
अनुभव-सिक्त हैं। अनुभव से ही समझे-बुझे जा सकते हैं।
बांकि
बुराई छांड़ि सब,
गांठि हृदै की खोल।
बेगि
विलंब क्यों बनत है,
हरि बोलौ हरि बोल।।
हिरदै
भीरत पैंठि अंतःकरण विरोल।
को
तेरौ तू कौन की,
हरि बोलौ हरि बोल।।
तेरौ
तेरे पास है अपनै मांहि टटोल।
राई
घटै न तिल बढ़ै,
हरि बोलौ हरि बोल।।
सुंदरदास
पुकारि के कहत बजाए ढोल।
चेति
सकै तौ चेति ले हरि बोलौ हरि बोल।।
आज इतना ही।
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