शुक्रवार, 23 मार्च 2018

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुुंदर दास)--प्रवचन-08


पुकारो--और द्वार खुल जाएंगे—आठवां प्रवचन

: दिनांक ८ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान! गत एक महीने से कुछ विचित्र घट रहा है, ध्यान-मंदिर में आपके चित्र के नीचे आपको नमन व स्मरण करे ध्यान प्रारंभ करता हूं तो कुछ क्षणों में ही त्वचा शून्य हो जाती है, रक्त-संचालन बंद हो जाता है, श्वास रुक सी जाती है, घटे-डेढ़ घंटे पश्चात पूर्व-स्थिति आने में आधा घंटा लग जाता है। परंतु पूरे समय अद्वितीय आनंद और स्फूर्ति अनुभव होती है। कृपा करके करके मार्गदर्शन करें।
2—मेरे ख्वाबों के झरोखों को फूलों से सजानेवाले
तेरे ख्वाबों मेरा कहीं गुजारा है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से तू बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं?
3—कब तक प्रतीक्षा? प्रभु! कब तक प्रतीक्षा?
4—मैं अंध-श्रद्धालु नहीं हूं। पिछले पांच वर्षों से प्रवचन एवं साहित्य के माध्यम से आपे सान्निध्य में हूं, परंतु अभी कुछ घटित नहीं हुआ है। संन्यास लेने की इच्छा से यहां आया हूं। क्या ऐसी दशा में संन्यास लेना आत्मवंचना नहीं होगी। कृपया योग्य मार्गदर्शन करें।
5--आंखिन में तिमिर अमावस की रैन जिमि।
जम्बुनद-बूंद जमुना कल तरंग में।।
यों ही मेरा मन मेरो काम को न रह्यो माई।
रजनीश रंग है करि समानो रजनीश रंग में।।


पहला प्रश्न--
भगवान! गत एक महीने से कुछ विचित्र घट रहा है, ध्यान मंदिर में आपके चित्र के नीचे आपको नमन व स्मरण कर के ध्यान प्रारंभ करता हूं तो कुछ क्षणों में ही त्वचा शून्य हो जाती है, रक्त-संचालन बंद हो जाता है, श्वास रुक सी जाती है, घंटे डेढ़ घंटे पश्चात पूर्व-स्थिति आने में आधा घंटा लग जाता है। परंतु पूरे समय में अद्वितीय आनंद और स्फूर्ति अनुभव होती है। कृपा करके मार्गदर्शन करें।
आनंद गौतम! सौभाग्य की घड़ी करीब है। सुबह कभी भी हो सकती है। वसंत के पहले लक्षण हैं। पहले फूल आने शुरू हो गए हैं। आनंदित होओ, अनुगृहीत होओ। समाधि के पहले कदम। भय भी लगेगा, क्योंकि त्वचा शून्य हो जाए, श्वास अवरुद्ध होने लगे, शरीर जड़वत मालूम पड़े, रक्त का प्रवाह रुकने लगे--भय लगेगा। क्योंकि यही तो मौत के भी लक्षण हैं।
मृत्यु और समाधि बड़ी समान हैं; भिन्न भी बहुत ऊपर-ऊपर से बिलकुल समान हैं। जैसे आदमी मरता है, वैसी ही घटना ऊपर से देखने में समाधि में भी घटती है। क्योंकि भीतर चेतना सरकती जाती, सरकती जाती; शरीर से संबंध शिथिल हो जाते हैं। सेतु टूट जाता है। ये हमारे शरीर से संबंध हैं। खून की गति, श्वास का चलना, रक्त का प्रवाह है--ये हमारे शरीर से संबंध हैं। अब चेतना केंद्र की तरफ प्रवाहित होती है तो शरीर की तरफ प्रवाहित होना बंद हो जाता है। शरीर से संबंध छूटने लगते हैं। बस, नाममात्र के संबंध रह जाते हैं; उतने ही जितने जीवने के लिए जरूरी हैं--न्यूनतम। बस तुम शरीर से अटके रह जाते हो, जुड़े नहीं।
तो भय लग सकता है। लगेगा, यह क्या हो रहा है? मैं मर तो नहीं रहा हूं? घबड़ाना मत। दूसरी बात पर ध्यान दो--वह जो अद्वितीय आनंद घट रहा है, वह मृत्यु में नहीं घटता। और अद्वितीय आनंद सिर्फ रक्त के प्रवाह रुकने से नहीं घटता, न श्वास के अवरुद्ध होने से घटता है। अद्वितीय आनंद आत्मा का स्वयं से जोड़ होता है, तब घटता है। व्यक्ति जब घर लौटता है, तब घटता है। जब परमात्मा की पहली किरण फूटने लगती है तब घटता है।
तो दो बातें हैं--शरीर से संबंध टूट रहा है, आत्मा से संबंध जुड़ रहा है। इसलिए ये दोनों लक्षण एक साथ हो रहे हैं। मृत्यु में केवल शरीर से संबंध छूटता है, आत्मा से संबंध नहीं जुड़ता। समाधि में शरीर से संबंध टूटता है, मृत्यु जैसा ही; पर एक नयी और घटना घटती है, आत्मा से संबंध जुड़ता है। मृत्यु केवल नकारात्मक है। समाधि नकारात्मक भी और विधायक भी। नकारात्मक--शरीर की दृष्टि से; विधायक--आत्मा की दृष्टि से।
शुभ घड़ी आई! तुम्हारी चेतना का आकाश सुबह की लालिमा से भरने लगा। नाचो! प्रफुल्लित होओ! क्योंकि जितने स्वागत से तुम स्वीकार करोगे इसका, इतनी ही तीव्रता से गति होगी। सुबह उतनी ही जल्दी आ जाएगी। सूरज उतने जल्दी ही निकल आएगा। अभी पहली-पहली कलियां चटकी हैं। अगर तुम भयभीत हो गए, तो ये कलियां भी तिरोहित हो जाएंगी। आता-आता वसंत एक जाएगा। सब तुम पर निर्भर है। अगर तुम आह्लादित हुए, बांहें फैलाकर आलिंगन के लिए स्वागत की तैयारी की, तो वसंत टूट पड़ेगा। हजारों कमल के फूल खिल जाएंगे।
और भय मत लेना, जरा भी भय मत लेना। भय का कोई कारण नहीं, क्योंकि जो मारता है वह तुम नहीं हो। तुम अमृत हो। उसी अमृत की पहचान होती है, तब आनंद का जन्म होता है। मर्त्य से जुड़े-जड़े तो दुख के अतिरिक्त तो कुछ मिलता नहीं। शरीर से जुड़े-जुड़े दुख के अतिरिक्त और क्या पाया है? आश्वासन मिले होंगे सुख के, सुख मिला कब? आत्मा से जुड़कर ही सुख की पहली भनक पड़ती है। मगर कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।
दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुजरे है कतरे पे गुहर होने तक?
हर लहर एक जाल है, और जाल के फंदे बहुत से मगरों की तरह मुंह बाएं खड़े हैं, देखें मोती बनने तक बूंद पर क्या-क्या विपत्तियां टूटती हैं! देखें क्या गुजरे है कतरे पे गुहर होने तक।
बूंद मोती बने, इसके पहले बहुत सी परीक्षाओं से गुजरना जरूरी है। और यह कठिन परीक्षा है जिससे तुम गुजरोगे। चिकित्सकों से पूछने मत जाना, अन्यथा वे समझेंगे, शरीर रुग्ण है। औषधि की तुम्हें जरूरत नहीं है। औषधि तो तुम्हारे आनंद से ही पैदा हो जाएगी। औषधि का निर्माण तुम्हारे भीतर होगा। उस अमृत की छाया में ही औषधि निर्मित हो जाती है।
तुम संजीवनी के स्रोत के करीब आ रही हो। औरों से मत पूछना जिनको समाधि का कोई अनुभव है, उनसे पूछ लेना। लेकिन जिन्हें समाधि का कोई अनुभव नहीं, उनसे मत पूछना। और यहां-गैर-अनुभवियों को भी सलाह देने में बड़ा रस होता है। जिन्होंने समाधि जैसी कोई चीज न जानी, न सुनी, वे भी तुम्हें सलाह देने लगेंगे, कि यह तो पागलपन है, यह तो विक्षिप्तता है, यह तो मूर्च्छा है, यह तो कोमा है। यह तुम क्या कर रहे हो? बंद करो यह ध्यान! यह तुम खतरे में उतर रहे हो! कहीं अपने को गंवा मत बैठना!
इन तथाकथित बुद्धिमानों से सावधान रहना। और ऐसा नहीं कि तुम उन्हें खोजने जाओ तब वे तुम्हें मिलेंगे--वे ही तुम्हें खोजते आने लगेंगे। सलाह देने का मजा ऐसा है। यहां बुद्धिमान आदमी सलाह तब देता है जब तुम मांगो। यहां बुद्धू बिना मांगे सलाह देते हैं। जरा उनकी आंखों में देख लेना। उनसे पूछ लेना कि समाधि का कोई अनुभव है? परमात्मा की कोई झलक मिली है? जीवन के स्रोत से एकाध घूंट पिया है अमृत का? जरा गौर से उनको देख लेना, अन्यथा ये सलाहकार ने मालूम कितने लोगों की समाधियों को पैदा होने से अवरुद्ध कर देते हैं।
कठिनाइयां तो हैं रास्ते पर। और यह बड़ी से बड़ी कठिनाई हैज जब शरीर से संबंध छूटता है और आत्मा से संबंध जुड़ता है। एक रूपांतरण होता है। एक यात्रा का मोड़ आ जाता है। कल तक बाहर भागे जाते थे, तो शरीर से संबंध जुड़ा था, ऊर्जा बाहर भाग रही थी, शरीर के द्वारा भाग रही थी, तो शरीर से जुड़ी थी। अब ऊर्जा अंतर्यात्रा पर निकली है, अब शरीर से जाने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए शरीर से संबंध शिथिल हो जाएंगे।
रामकृष्ण को कभी-कभी ऐसा होता था कि छह-छह दिन ऐसी ही बेहोशी में पड़े रहते। उनके शिष्य उन्हें सम्हालते। सेवा करते रहते। चौबीस घंटे बैठकर होशपूर्वक उनके शरीर की रक्षा करते रहते, क्योंकि वे तो बेहोश पड़े। बाहर से बेहोशी थी, और भीतर पाया होश दीया जला था। बाहर से लोग सोचते, बेचारा! किस मुसीबत में पड़ा है! जब उनकी आंख खुलती, वे तत्क्षण रोने लगते, कहने लगते--फिर, फिर लौटा दिया बाहर? मुझे भीतर ले चलो। मुझे वही ले चलो जहां मैं था। मेरी अंतर्यात्रा खंडित न करो। हे प्रभु, मुझे वहीं ले चलो! मुझे उसी दशा में ले चलो!
लोगों की कुछ समझ में भी न आता, क्योंकि लोग तो देखते--पड़े हैं बेहोश कुछ डाक्टरों ने यह घोषणा भी कर दी थी कि यह एक तरह की मिर्गी है--रामकृष्ण के संबंध में--हिस्टीरिकल है। मिर्गी और इसके लक्षण बाहर से एक से लगते भी हैं। डाक्टरों को कसूर भी क्या दो। मुंह से फसूकर गिरने लगता था रामकृष्ण के, जैसे मिर्गी किसी को आ जाती है, उनको गिरता है। आंखें चढ़ जातीं। हाथ-पैर बिलकुल जड़ हो जाते, पत्थर जैसे हो जाते। मोड़ो तो न मुड़ें, अकड़ जाते। स्वभावतः, चिकित्सा-शास्त्र कहेगा, यह मिर्गी है। लेकिन चिकित्सा-शास्त्र को देह के अतिरिक्त और किसी चीज का कोई पता नहीं है। अभी चिकित्सा-शास्त्र बीमारियों से उलझ रहा है। अभी स्वास्थ्य की दिशा में उसके कदम नहीं पड़े। अभी चिकित्सा-शास्त्र इसी चेष्टा में लगा है कि आदमी बीमारी से कैसे छूटे? स्वास्थ्य के आनंद और अनुभव में कैसे उतरे, अभी इस तरफ कदम नहीं पड़े हैं।
धर्म आगे की चिकित्सा है। बुद्ध ने अपने को वैद्य कहा है इन्हीं अर्थों में। नानक ने भी अपने को वैद्य कहा है--इन्हीं अर्थों में। एक आगे की चिकित्सा। मगर उस चिकित्सा के सूत्र बिलकुल भिन्न हैं। इसलिए भूल कर भी किसी से सलाह मत ले लेना। और किसी की सलाह मन कर रुक मत जाना। ऐसी घड़ी मुश्किल से आती है। गंवाना बहुत आसान है, खोजना बहुत मुश्किल है। यह द्वार कभी-कभी करीब आता है, जिससे निकल सकते थे। चूक गया, फिर न मालूम कब आए! कोई भी उसकी घोषणा नहीं कर सकता, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती।
इतना खयाल रखना कि थोड़ी तकलीफ तो होगी, क्योंकि रक्तचाप गिरेगा, सांस बंद होगी, तो थोड़ी पीड़ा तो होगी। यह कीमत हमें चुकानी पड़ती है। यह चुकाने योग्य है।
किसे खबर कि हर-इक फूल के तबस्सुम में
झलक रहे हैं सितम खुर्द शबनमों के मजार
जब एक फूल हंसता है तो ख्याल रखना, न मालूम कितने ओस के बूंद, उसकी हंसी में मजार बन गए हैं। उसकी हंसी के पीछे न मालूम कितनी ओस की बूंदों की मृत्यु छिपी है। जब कोई समाधि के आनंद को उपलब्ध होता है, तो उसके पीछे बहुत सी पीड़ाएं छिपी हैं। उन पीड़ाओं को अनुग्रह के भाव से झेल लेने का नाम तपश्चर्या है।
तपश्चर्या का अर्थ नहीं होता अपने को दुख दो, देने की जरूरत ही नहीं है। जब तुम अंतर्यात्रा पर जाओगे तो अपने-आप बहुत से दुख होंगे। उन दुखों को धन्यभाग मान कर, ईश्वर की कृपा मान कर, अनुग्रह मान कर, जो झेल लेता है, वही तपस्वी है।
तो आनंद गौतम! शुभ घड़ी आई, इस घड़ी को गंवा मत देना। जो कर रहे हो, वैसे ही करते चले जाओ। जिस दिशा में यात्रा शुरू हुई हो, उस में बढ़ते चले जाओ। और-और घटेगा। और-और देर तक घटेगा। घंटों भी अगर तुम खो जाओ, तो अपने मित्रों को, अपन प्रियजनों को, सब को खबर कर देना--भयभीत न हों। लौट आओगे। और ज्यादा होकर लौटोगे सदा। लौट-लौट आओगे। और हर बार बड़ी संपदा लेकर आओगे। क्योंकि खजाना भीतर है। उस भीतर के मालिक से जरा सी आंख भी मिल जाए, तो जिंदगी रोशन हो जाती है।
ये चांदनी, ये हवाएं, ये शाखे-गुल की लचक ए दौरे-बादा, ये साज खामोश फितरत के
सुनाई देने लगी, जगमगाते सीनों में,
दिलों के नाजुक-ओ-शफ्फाक आबगीनों में
तेरे खयाल की पड़ती हुई किरण की खनक,
तेरे खयाल की पड़ती हुई किरण की खनक!
पहली बार तुम्हारे भीतर उसकी किरण की खनक उतर नहीं है। नई है, अपरिचित है, अनजानी है, बेपहचानी है। और अनजान से, अपरिचित से हम सिकुड़ भी जाते हैं। नए से भय लगता है--पता नहीं कहां ले जाए, किस जगह पहुंचाए! परिचित को हम पकड़ने की चेष्टा करते हैं। परिचित को पकड़ने से बचना है।
संन्यास का अर्थ है: अब परिचित और अपरिचित जब भी खड़े होंगे सामने तो अपरिचित को चुनेंगे, परिचित को नहीं चुनेंगे। परिचित को तो जान लिया, बूझ लिया, देख लिया, जी लिया। परिचित को तो हम निचोड़ चुके, अब अपरिचित में जाएंगे। जाने हुए में अब क्या अटकना है? अब अनजाने में जाएंगे। ज्ञात में अब क्या उलझना है, अज्ञात का निमंत्रण मिल रहा है।
खयाल रखना: तेरे खयाल की पड़ती हुई किरण की खनक!
और ऐसा ध्यान ही नहीं होगा, धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम्हारे चौबीस घंटों में भी। शरीर से संबंध वैसा नहीं रहा जैसे पहला था। तुम्हारी चर्या बदलेगी--बदलनी ही चाहिए। इसी को मैं चर्या, का सम्यक बहलाव कहता हूं। एक तो जबरदस्ती आचरण को थोप लेना। उसका कोई मूल्य नहीं है। दो कौड़ी का मूल्य है। धोखा है। प्रवंचना है। पाखंड है। अब तुम्हारी जिंदगी में असली आचरण की संभावना खुल रही है। जब भीतर यह आनंद झलकने लगेगा तो तुम्हारे बाहर के सारे व्यवहार बदलेंगे। बदलना ही पड़ेगा। तुम्हारी शैली बदलेगी। कल तक जो चीज सार्थक मालूम होती थी, आज व्यर्थ मालूम होने लगेगी। और कल एक जो चीज कभी तुमने सोची भी नहीं थी कि सार्थक हो सकती है, वह सार्थक हो जाएगी। सारा मापदंड बदल जाएंगे। सब उलटा सीधा हो जाएगा। बड़ी अराजकता फैल जाएगी। कल जिस काम में बड़ा रस आता था, शायद अब रस न आए। आज कुछ नई चीजों में रस पैदा होने लगेगा। घबड़ाना मत!
जितना सन्नाटा हुआ गहरा खिजां की शामा का
आश्ना राजे-चमन से हर कली होती हुई।
कर दिया एहसान दिल को दिल गमो-आलाम ने,
जिंदगी नाकाम होकर काम की हो गई।
लोग कहेंगी: निकम्मे हो गए। लोग कहेंगे, नाकाम हो गए। लोग कहेंगे। अब तुम ठीक से काम नहीं कर रहे हो। तुम ऐसा करते थे, तुम वैसा करते थे: धन कितना कमाते थे, क्या हुआ तुम्हें?
तुम्हारी प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता क्षीण हो जाएगी। तुम्हारी महत्वाकांक्षा क्षीण हो जाएगी। तुम्हारी दौड़ कम जो जाएगी। यह जो रक्त की दौड़ कम हुई है, यह केवल शुरुआत है। अब तुम्हारी दौड़ काम हो जाएगी। यह जो श्वास अवरुद्ध होने लगी है, रुकने लगी है, यह तुम्हारे पैरों की गति को भी बदल देगी। कल तक जैसे अकड़कर चले थे, अब न चल सकोगे। और कल तक जिन लक्ष्यों में बड़ा मोह था, बड़ा लगाव था, बड़ी आसक्ति थी, जिनके लिए जी दे देते, जान दे देते, वे अब दो कौड़ी के मालूम होने लगेंगे। यही संन्यास है--वास्तविक संन्यास।
तुम्हारे भीतर चैतन्य की बदलाहट तुम्हारे बाहर आचरण की बदलाहट हो जाती है। ऐसा नहीं है कि तुम भाग ही जाओगे सब छोड़कर। रहोगे यहीं, लेकिन रहने की शली बदल जाएगी। दुकान पर भी बैठोगे, काम भी करोगे, नौकरी पर भी जाओगे, पत्नी भी होगी, बच्चे भी होंगे, घर भी होगा, सब कुछ करोगे, लेकिन कर्ता मर जाएगा। कर्ता परमात्मा हो जाएगा। तुम केवल उसकी आज्ञा पालन करनेवाले सेवक।
तेरे आने की महफिल में जो कुछ आहट-सी पाई है,
हर-इक ने साफ देखा शमअ की लौ लड़खड़ाई है।
तपाक और मुस्कुराहट में भी आंसू थरथराते हैं,
निशाते-दीद भी चमका हुआ दर्दे-जुदाई है।
बहुत चंचल है अरबाबे-हवस की उंगलियां लेकिन,
उरूसे जिंदगी की भी नकाबे-रुख उठाई है।
इन मौजों के थपेड़े, ये उभरना बहरे हस्ती में,
हुबाबे जिंदगी ये क्या हवा सर में समाई है।
सुकूते-बहरो-बर की खल्वतों में खो गया हूं जब,
उन्हीं मौंको पे कानों में तेरी आवाज आई है।
जब तुम बिलकुल खो जाओगे, जब तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि मैं हूं, जब सब तरफ सन्नाटा हो जाएगा बाहर-भीतर, तब तुम खोजोगे और अपने को न पाओगे कि मैं कहा गया--तभी
सुकूते-बहरो-बर की खल्वतों में खो गया हूं जब
उन्हीं मौकों पे कानों में तेरी आवाज आई है।
तेरे आने की महफिल ने जो कुछ आहट सी पाई है
हरेक ने साफ देखा शमअ की लौ लड़खड़ाई है
गौतम! तुम्हारी शमा की लौ लड़खड़ाने लगी। उसके आने की आवाज आने लगी। तुम्हारे भीतर सन्नाटा घना हो रहा है। आनंद की किरणें फूटने लगीं। तुम धन्यभागी हो! अहोभाग्य मानकर चुपचाप इस अनजान, अपरिचित, अज्ञात में उतरो। साहस की जरूरत होगी। मैं तुम्हारा साथ हूं।

दूसरा प्रश्न--
मेरे ख्वाबों के झरोखों को फूलों से सजानेवाले
तेरे ख्वाबों में मेरा कहीं गुजारा है कि नहीं?
पूछकर अपनी निगाहों से तू बता दे मुझको
मेरे रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं?

रात है, तो सुबह सुनिश्चित है। रात में सुबह छिपी है। रात सुबह ही का आवरण है। रात सुबह की शत्रु नहीं है। रात सुबह की मां है। रात सुबह के विपरीत नहीं है। रात सुबह का मार्ग है। रात के गर्भ में सुबह है।
इसलिए यह तो कभी सोचना ही मत कि मेरी रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं? रात है तो सुबह निश्चित है। रात में ही निश्चय हो गया।
दुख है, आनंद निश्चित है
मृत्यु है, अमृत निश्चित है।
पदार्थ है, परमात्मा निश्चित है। एक नहीं हो सकता। दोनों परिपूरक छोर हैं। और अंधेरा हो, उजाला न हो, तो उसे अंधेरा भी कैसे कहोगे? या उजाला हो और अंधेरा न हो। नहीं; यह संभव नहीं है। यह जोड़ा तोड़ा नहीं जा सकता। अंधेरा उजाले के ही कम होने का नाम है, और क्या? उजाला अंधेरे के ही कम होने का नाम है, और क्या?
ऐसा ही समझो जैसे सर्दी-गर्मी, दो चीजें थोड़े ही हैं। एक ही चीज के दो नाम हैं। तुम पर निर्भर होता है कि तुम सर्दी समझोगे कि गर्मी।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करो। एक हाथ को सिगड़ी पर सेंक लो। और दूसरे हाथ को बर्फ की सिल पर रखकर ठंडा कर लो। फिर दोनों हाथों को, एक बालटी में भरे पानी में डाल दो। अब तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। एक हाथ कहेगा पानी ठंडा है, दूसरा हाथ कहेगा पानी गरम है। पानी क्या है अब--ठंडा या गरम? जो हाथ गरम है वह कहेगा ठंडा है, क्योंकि उसकी तुलना में कम गरम है। जो हाथ ठंडा हो गया है, वह कहेगा गरम है, क्योंकि उसकी तलना में गरम है। जो हाथ ठंडा हो गया है, वह कहेगा गरम है, क्योंकि उसकी तुलना में गरम मालूम होगा। सापेक्ष है।
रात में सुबह छिपी है, जरा तलाश करो।
और ध्यान रखना, मुकद्दर जैसी कोई चीज नहीं। मुकद्दर मनुष्य के आलस्य का बहाना है।
तुम पूछते हो: मेरी रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं? मुकद्दर है ही नहीं। मुकद्दर आलसियों की तरकीब है। मुकद्दर अकर्मण्यों की योजना है, उनका फलसफा है, उनका दर्शनशास्त्र। वे कहते हैं: क्या करें, जो भाग्य में होगा होगा।
खयाल रखना, भाग्य को तुम चुनते हो, तो भाग्य बलशाली हो जाता है। लेकिन तुम्हारे चुनाव के कारण भाग्य में कोई बल नहीं है। तुम जो चुन लेते हो वही बलशाली हो जाता है। तुम परम स्वतंत्र हो। लेकिन यह बात इतनी बड़ी है कि छोटी सी बुद्धि इसे पकड़ नहीं पाती। छोटी सी बुद्धि को छोटी-छोटी बातें रुचती हैं। छोटी बुद्धि कहती है कि यह तो हो ही नहीं सकता कि दुख और मैंने चुना है। यह मेरे मुकद्दर में लिखा है। मैं क्यों दुख चुनूंगा? अगर मेरे हाथ में चुनाव होता तो सारी दुनिया का आनंद चुन लेता।
और मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारे हाथ में चुनाव है। और तुम चाहो तो सारी दुनिया का आनंद तुम्हारे आंगन में बरसे। मेरे आंगन में बरसा है, इसलिए कहता हूं। तुम्हारे आंगन में भी बरस सकता है, लेकिन तुमने चुना ही नहीं। तुम दुख चुनते चले गए। और जब तुमने दुख चुना और दुख आया तो तुम छाती पीटते हो। तुम सोचते हो, दुख मेरे मुकद्दर में है, यह मेरे भाग्य में है, यह मेरी किस्मत में है।
तुम्हारी किस्मत में कुछ भी नहीं है। परमात्मा किसी की खोपड़ी में कुछ लिखकर भेजता नहीं। कोरा कागज तुम्हें दे देता है। कोरा चेक तुम्हारे हाथ में दे देता है। फिर लिख लेना जो तुम्हें लिखना है। कोई गरीबी लिख लेता है। कोई अमीरी लिख लेता है। कोई अज्ञान लिख लेता है, कोई ज्ञान लिख लेता है। कोई संसार लिख लेता है, कोई निर्वाण लिख लेता है। परमात्मा कोरा चेक देता है।
परमात्मा तुम्हें स्वतंत्र बनाता है। तुम्हें चुनाव की क्षमता देता है। तुम चुन लो। लेकिन स्वभावतः यह सवाल उठता है, आदमी दुख क्यों चुने फिर? क्यों चुनता है आदमी दुख, क्योंकि अनंत लोग दुखी हैं। सुखी तो कभी कोई एकाध होता होता है, कोई बुद्ध...। इतने लोग दुखी हैं, इतने लोगों ने दुख चुना है, यह बात जंचती नहीं। दुख लोग चुनेंगे क्यों? क्योंकि हर आदमी दुख के खिलाफ मालूम होता है। हर आदमी दुख का रोना रोता है। और हर आदमी कहता है, मैं बहुत दुखी हूं, इससे कैसे छुटकारा हो? इसलिए यह बात समझ में भी आती है कि आदमी दुख चुनेगा क्यों, अगर उसके हाथ में होता है? फिर भी में तुमसे कहता हूं, आदमी ने दुख चुना है।
जब कोई आदमी अपने दुख की कथा कहता है तब जरा तुम गौर से सुनना और जरा गौर से देखना। वह अपने दुख की कथा कहने में बड़ा मजा ले रहा है, रस ले रहा है। वह दुखों को बढ़ा-बढ़ा कर भी कह रहा है, अतिशयोक्ति भी कर रहा है। जितने दुख नहीं हैं, वे भी उसमें जोड़े जा रहा है। जब बोलने ही बैठ गया है तो फिर दुखों को खींचे जा रहा है, बड़ा किए जा रहा है। तुम जरा और से सुनना। बोलने के पास-पास तुम्हें अनुभव में आएगा, हर शब्द के पीछे एक रस छिपा है। क्या रस होगा? जीवन की बड़ी समस्याओं में एक समस्या यह है।
दुख के माध्यम से अहंकार निर्मित होता है। सुख में अहंकार तिरोहित हो जाता है। आनंद में अहंकार पाया ही नहीं जाता; दुख में ही पाया जाता है। और चूंकि तुमने यह चुन लिया है कि मैं हूं, इसलिए तुम्हें दुख चुनना पड़ा है। दुख की ईंट से ही मैं का मकान बनता है। इसलिए तुम अपने दुख को बढ़ा-बढ़ा कर बताते हो, कि सारी दुनिया का दुख तुम्हीं को मिल रहा है, ऐसा दुख किसी का भी नहीं है। क्योंकि जितनी बड़ी ईंटें होंगी दुख की, उतना ही बड़ा भवन अहंकार का बन सकेगा।
खयाल करो, अगर कोई जादू की जादू की छड़ी घुमाएं, और तुम्हारे सब दुख छीन ले, तुम क्या बचोगे? दुखों के सिवाय तुम्हारे पास और क्या है? एकदम खाली हो जाओगे, एकदम घबड़ा जाओगे। एकदम बेचैन हो जाओगे। अपने दुख वापस मांगोगे।
सोचो जरा, तुम अपने दुख देने को राजी होओगे? जब दुख छीन जाएंगे तब तुम्हें लगेगा कि सूने होने से, खाली होने से तो दुख से ही भरा होना बेहतर है। कुछ तो है--मुट्ठी बांधने को कुछ तो है। पकड़ने को कुछ तो है। लोग अपने दुखों को बसाए हुए हैं। लोग जानते हैं। तुम जानते तो क्रोध दुख लाता है, मगर क्रोध को तुम पकड़े हो। तुम जानते हो,र् ईष्या दुख लाती है, मगरर् ईष्या को तुम पकड़े हो। तुम जानते हो कहां-कहां से दुख आता है, लेकिन उन्हीं दरवाजों पर दस्तक देते हो। और ऐसी भी नहीं है कि तुम्हें कहा नहीं है लोगों ने कि सुख किन दरवाजों से मिलता है। आखिर बुद्ध पुरुष करते क्या रहे? आखिर सुंदरदास यह ढोल क्यों बजा रहे हैं? क्या है कहने का? छोटी-सी बात कह रहे हैं कि एक दरवाजा है--हरि का दरवाजा--हरि बोलौ हरि बोल! वहां से सुख की गंगा बहती है। तुम सुन लेते हो, तुम कहते हो: ठीक है, होगा। जब आएगा समय तब देखेंगे। जब मुकद्दर में होगा तब देखेंगे। अभी तो जिंदगी जीनी है। अभी तो दुख भोगने हैं।
जिंदगी जीने का मतलब--अभी दुख भोगने हैं। अभी सब तरफ से दुख का इंतजाम करना है। हालांकि तुम ऐसा कहते नहीं कि अभी दुख भोगने हैं। तुम कहते हो, अभी सुख भोगने हैं। कहते हो सुख भोगने हैं, भोगते दुख हो। तुम्हारा कहना कोई सुन ले तो बड़ी भ्रांति हो जाती है, तुम्हें देखे तभी सचाई का पता चलता है। तुम सुख के नाम से जो खोजते हो, वह दुख है। तुमने नाम अच्छे रख लिए हैं। तुम नाम रखने में बड़े कुशल हो। और अच्छे नाम रख कर तुम धोखे भी खा जाते हो। सुंदर-सुंदर नाम रखते हो। और सुंदर-सुंदर नामों की छाया में छलावा हो जाता है।
किसको तुम सुख कहते हो? ज्यादा धन होगा तो सुख होगा? तो फिर जिनके पाया ज्यादा धन है जरा उनकी जिंदगी तो और से देख लो, इसके पहले कि दौड़कर निकलो। उनके पास सुख है? वह तुम नहीं देखते। तुम कहते हो, बड़ा पद होगा, तो सुख होगा। लेकिन जिनके पास बड़ा पद है, जरा उनकी जिंदगी में झांक तो लो। वह तुम नहीं करते। क्योंकि तुम डरे हो कि अगर उनकी जिंदगी में झांका और दुख दिखाई पड़ गया तो फिर मैं क्या करूंगा। तुम देखना ही नहीं चाहते, तुम जीवन के तथ्य झुठलाना चाहते हो। तुम कहते हो, होगा उनकी जिंदगी में दुख मगर जब मैं पद होऊंगा तो सुख को भोगेगा; होगा उनकी जिंदगी में दुख, जब मेरे पास धन होगा तो मैं सुख को भोगूंगा। हर व्यक्ति इसी भ्रांति इसी भ्रांति में जीता है। धन भी आ जाता है, पद भी आ जाता है प्रतिष्ठा भी आ जाती है, साथ में महानर्क भी आ जाता है। तब तक बहुत देर हो गई होती है। फिर लौटना भी मुश्किल हो जाता है। लौटना फिर चूक कर चाटने जैसा चलता है। फिर अहंकार को और पीड़ा होती है कि अब क्या लौटना, दुनिया क्या कहेगी? अब चले ही जाओ, अब थोड़े दिन और हैं, इसी तरह बिता दो, गुजार दो।
अहंकार ने तुम्हें सुख दिया है अभी? लेकिन फिर अहंकार को तुम निर्मित क्यों करते चले जाते हो? अहंकार सिर्फ कांटे की तरह चुभता है, शूल की तरह चुभता है। तुम्हें और चीजें पीड़ा देती हैं, वह अहंकार के कारण ही पीड़ा देती हैं। किसी ने अपमान कर दिया, तुम परेशान हो गए। उसके अपमान के कारण परेशान हुए, तो तुम गलत विश्लेषण कर रहे हो। अगर अहंकार न होता तो तुम परेशान न होते। बुद्ध को अनेक लोगों ने गालियां दीं। बुद्धों को लोग सदा से गालियां देते रहे। लेकिन बुद्ध परेशान नहीं हुए। बुद्ध ने इतना ही कहा लोगों से: अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, क्योंकि मुझे दूसरे गांव पहुंचना है, वहां लोग प्रतीक्षा करते होंगे। और अगर अधूरी रह गई तो चिंता न करो, लौटते समय फिर रुक जाऊंगा, फिर तुम्हारी बात सुन लूंगा।
वे लोग तो गालियां दे रहे थे। उनको तो भरोसा ही न आया कि गालियों का कहीं कोई ऐसा उत्तर होता है। उनमें किसी एक ने कहा, आप ये क्या कह रहे हैं? हम गालियां दे रहे हैं, बातें नहीं हैं ये, जहर-बुझे तीर हैं।
बुद्ध ने कहा, तुम अगर जल की तरह अंगारा फेंको तो जब तक कल को न, छुए, अंगारा रहेगा; और जैसे ही जल को छुएगा, बुझ जाएगा, राख हो जाएगा। मुझे भीतर ऐसा आनंद मिल रहा है, ऐसी शीतलता मिल रही है कि अब मैं तुम्हारी गालियों के लिए उसको खो नहीं सकता। तुम्हारा अंगारा आता है, तुम्हारी तरफ से अंगारा होता होगा, मेरी तरफ आते ही फूल हो जाता है। मैं तुम्हारी तकलीफ समझ रहा हूं कि तुम बड़ी पीड़ा में हो, इसलिए गालियां निकल रही हैं। मगर मैं बड़े आनंद में हूं, मैं क्या करूं? तुम्हें अगर गालियों का उत्तर चाहिए था, दस साल पहले आना था। तुम जरा देर से आए। दस साल पहले आते, तुम्हारे गर्दन उतरवा देता। मगर देर हो गई तुम्हें आने में। अब तुम मुझे खिन्न न कर पाओगे; क्योंकि अब मैं प्रसन्न होने का मार्ग जान लिया हूं। अब तुम मुझे खिन्न न कर पाओगे, क्योंकि अब मैं खिन्न नहीं होना चाहता हूं।
इन शब्दों पर विचार करना: अब तुम मुझे दुखी न कर पाओगे, क्योंकि मैंने दुख छोड़ दिया है। अब मैं दुख लेता ही नहीं। तुम गाली देते हो, सच; मगर मैं गाली लूं, तभी तो मुझे मिलेगी न? तुम्हारे देने-भर से क्या होता है? पिछले गांव में लोग फूल लाए थे और मिष्ठान्न लाए थे वे और मुझे भेंट करना चाहते थे।  मैंने कहा, मेरा पेट भरा है। वे वापस ले गए। जब मैं न लूंगा तो मिठाइयां भी क्या करोगे? वापस ही ले जाओगे। मैं तुमसे पूछता हूं, उन्होंने मिठाइयों का क्या किया होगा?
एक आदमी ने भीड़ में कहा, क्या किया होगा, जाकर बांट ली होंगी। तो बुद्ध ने कहां, अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लेकर आए हो, मैं तो लेता नहीं, मैंने तो खरीद बंद ही कर दी। अब मेरी दुख में कोई आकांक्षा ही नहीं रही। दुख और चाहिए नहीं, बहुत ले लिया, जन्म-जन्म ले लिए! अब तुम क्या करोगे? अच्छे थे वे लोग, मिठाइयां लाए थे, बांट लाए थे, बांट तो लेंगे। अब तुम इन गालियों को वापस ले जाकर क्या करोगे? ये तुम्हीं पर पड़ गई, क्योंकि मैंने इन्हें लिया नहीं।
जरा सोचते हो, गाली न ली आए, तो कोई कैसे दे सकता है? मगर तुम लेने को ऐसे आतुर हो कि कभी-कभी कोई दूसरा देता भी नहीं है और तुम ले लेते हो। तुम्हारी आतुरता ऐसी है कि रास्ते पर दो आदमी खड़े होकर खुस-फुस बात करते होते हैं, तुम चिंतित हो जाते हो--मेरे ही संबंध में करते होंगे। कोई आदमी किनारे पर खड़े होकर, रास्ते पर हंस देता है, तुम समझते हो--मेरे लिए, मुझे देख कर हंस रहा है, इसको मजा चखा कर रहूंगा। अब हो सकता है किसी और कारण से हंस रहा हो। दुनिया में तुम्हीं तो नहीं हो, और भी बहुत लोग हैं। वे जो दो आदमी चुप चुप बात कर रहे थे, चुप-चुप बात कर रहे थे, और तुम्हें देख कर चुप हो गए, जरूरी नहीं है कि तुम्हारे संबंध में बातें कर रहे हों। दुनिया बड़ी है, मगर तुमने ले लिया।
गाली नहीं दी जाती--और तुम ले लेते हो। अपमान नहीं किया जाता-- और तुम ले लेते हो। तुम जैसे तत्पर ही हो। तुम जैसे निकले हो घोषणा करके, आ बैल मुझे मार। जिस दिन तुम्हें दुख नहीं मिलता उस दिन तुम्हें लगता है, कुछ खाली-खाली गया दिन कुछ रिक्त-रिक्त। न कोई झगड़ा, न कोई झांसा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं: अच्छे आदमी को जिंदगी में कोई कहानी नहीं होती। हो भी कैसे सकती है? अच्छे आदमी की जिंदगी इतनी कोरी होती है कि उसमें कहानी क्या होगी? साहित्यकार कहते हैं, अच्छे आदमी की जिंदगी पर उपन्यास नहीं लिखा जा सकता। क्या खाक लिखोगे? इतना ही लिख दो कि अच्छे आदमी, बस खतम। बुर आदमी की जिंदगी में कहानी होती है। खूब भराव होता है! हत्या की, चोरी की, बेईमानी की, सब तरह के उपद्रव किए तो कहानी में भराव होता है। तुम खाली होना चाहोगे जिस दिन, उसी दिन सुखी हो जाओगे। लेकिन तुम कोई कहानी चाहते हो, तुम अपना अफसाना चाहते हो। तुम चाहते हो, मेरी भी कोई आत्मकथा हो। आत्मकथा यानी अहंकार की कथा।
पूछा है तुमने: मेरी रातों के मुकद्दर में कही सुबह है कि नहीं? सुबह तो हर आदमी का जन्म-सिद्ध अधिकार है। हां, तुम जितनी देर चाहो, रोक सकते हो। न आने देना हो, तो सुबह कभी न आएगी। ऐसा भी हो सकता है। सुबह आ जाए, तुम आंखें बंद कर लो। तो तुम तो अंधेरे में ही रहे आओगे। सुबह आ जो, तुम कान बंद कर लो; पक्षी गीत गाए, लेकिन तुम्हें कुछ सुनाई न पड़े। सूरज उग आए, तुम पीठ करके खड़े हो जाओ। वर्षा हो और तुम आपने घड़ी को उल्टा कर लो। ये सब संभावनाएं हैं। अगर तुमने तय ही कर लिया है, दुख में ही जीना है, रात ही में जीना है, तो तुम राम में ही जिओगे। तुम्हारे निर्णय पर सब कुछ है। इस बात को जितनी गहराई तक तुम अपने भीतर उतर जाने दो उतना शुभ है। क्योंकि इस निर्णय से ही क्रांति घटित होगी।
शामे गम कुछ उस निगाहें नाज की बातें करो।
बेखुदी बढ़ती चली है, राज की बातें करो।।
नकहते जुल्फे-परेशां दास्ताने-शामे-गम।
सुबह होने तक इसी अंदाज की बातें करो।।
सुबह तो होगी ही। हरि बालौ हरि बोल! तब तक सुबह के रस की, सुबह की रोशनी की, सुबह के आकाश की, उड़ते पक्षियों की, खिलते फूलों की--इनकी कुछ बात करा। ये बातें तुम्हारे मन में गहरी बैठे जाए, तो जब सुबह आएगी, तुम पहचान लोगे, और आंखें बंद नहीं रखोगे, और कान बंद नहीं रखोगे। क्योंकि जिसे पता है कि सुबह जब होती है तो पक्षी गीत गाते हैं, उसके कान आतुरता से सुबह की प्रतीक्षा करेंगे, उसके कान सजग रहेंगे। और जिसे पता है कि सुबह होती है तो सूरज निकलता है--हजार-हजार रंगों के फूल खिलते हैं, दुनिया एकदम रंगों का उत्सव हो जाती है--वह आंखें बंद नहीं रख सकेगा। वह आंखें खुली रखेगा। सुबह की जरा सी भनक पड़ जाएगी कि उठ कर खड़ा हो जाएगा।
नकहते-जुल्फे-परेशां, दास्ताने-शामे-गम।
सुबह होने तक इसी अंदाज की बातें करो।।
सत्संग का यही नाम है। सत्संग का यही अर्थ है।
ये सकते-यास ये दिल की रगों का टूटना।
खामशी में कुछ शिकस्ते-साज की बातें करो।।
हर रगे-दिलवज्द में आती रहे, दुखती रहे।
यूं ही उसके जा ओ बेजा नाज की बात करो।।
कुछ कफस की तिलियों से छन रहा है नूर सा।
कुछ फजा कुछ हसरते परजाव की बातें करो।
जिस की फुरकत ने पलट दी इश्क की काया फिराक।
आज उसी ईसा-नफस-दमसाज की बातें करो।।
प्रभु की अनुकंपा की बात करो। प्रभु के अपार अनुग्रह की बात करो।
जिसकी फुरकत ने बदल दी इश्क की काया फिराक
आज उसी ईसा-नफस-दमसाज की बातें करो। उस पवित्र हृदय मित्र की बातें हों। उस प्यारे का स्मरण हो।
कुछ कफस की तीलियों से छन रहा है नूर-सा।
यह उतरी रोशनी, ये किरणें जगीं, यह सुबह गई।...कुछ फजा, कुछ आकाश की। कुछ हसरते-परवाज की बातें करा। कुछ उड़ने की अभीप्सा की बातें करो। सुबह तो आने के करीब है, इसके पहले तुम पर फड़फड़ाओ; कहीं ऐसा न हो कि सुबह आ जाए और तुम्हें पर फड़फड़ाना न आए! कहीं ऐसा न हो कि सुबह का आकाश जग उठे, पुकार देने लगे, और तुम अपनी पुरानी आदतों में जकड़े पड़े रहो, उड़ने की आकांक्षा ही पैदा न हो! तो आकाश क्या करेगा?
आकाश पक्षियों को जबरदस्ती उड़ा नहीं सकता। आकाश तो केवल अवकाश देता है कि जिसको उड़ना है उड़ ले। उड़ना तो तुम्हें ही पड़ेगा। अगर तुम अपने पंखों को सिकोड़े पड़े रहे या तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं...क्योंकि तुम जन्मों-जन्मों से उड़े नहीं, तुम्हें उड़ने का खयाल ही भूल गया है...तो आकाश रहेगा मौजूद, मगर तुम चूक जाओगे।
कुछ कफस की तीलियों से छन रहा है नूर सा।
कुछ फजा, कुछ हसरते-परवाज की बातें करो।।
सुबह तो करीब है। सुबह तो हमेशा करीब है। तुम्हारी अभीप्सा की प्रगाढ़ता के ऊपर निर्भर करता है--कितनी करीब, कितनी दूर। मांगो और मिलेगी। पुकारो--और द्वार खुल जाएंगे।
मुकद्दर की तो बात ही मत बीच में लाना। मुकद्दर की बात तो वे लाते हैं जो सुबह से बचना चाहते हैं। भाग्य पर छोड़ दिया सब, फिर निश्चित हो गए, अब करना क्या है? फिर करवट ले ली, ओढ़ कर चादर सो गए।...चेत सके, तो चेति ले।

तीसरा प्रश्न--
तब तक प्रतीक्षा? प्रभु! कब तक प्रतीक्षा?

कब तक पूछा खबर दे दी कि तुम्हें प्रतीक्षा का शास्त्र नहीं आता। कब तक में तो अधैर्य है, प्रतीक्षा कहां? कब तक में तो जल्दबाजी है, प्रतीक्षा कहां? प्रतीक्षा हो तो अनंत ही होती है। अनंत से कम प्रतीक्षा प्रतीक्षा नहीं होती; प्रतीक्षा का धोखा होता है। और जिसकी अनंत प्रतीक्षा है, उसे इसी क्षण मिलना हो जाएगा। और जिसने अधैर्य किया, जितना अधैर्य किया, उतनी ही हेर लग जाएगी। इस गणित को ठीक जाने दो अपने भीतर। जितनी जल्द बाजी की, उतनी देर लग जाएगी। जितना अधैर्य किया उतनी देर लग जाएगी। क्योंकि अधैर्य से भरा हुआ चित उद्विग्न होता है, कंपता होता है, शांत नहीं हो सकता। अधैर्य से भरा चित्त भविष्य में झांकता होता है, वर्तमान में नहीं होता। अधैर्य से भरा चित्त--अब हुआ, तब हुआ, अब होना चाहिए, अब तक नहीं हुआ--हजार शिकायतें आ जाती हैं, हजार संदेह आ जाते हैं, हजार शंकाएं मन के घेरे लेते हैं--होगा कि नहीं होगा, है भी या नहीं है, मैं व्यर्थ ही तो समय नहीं गंवा रहा हूं, मैं नाहक बैठा यह क्या कर रहा हूं? इतनी देर में तो कुछ कमा ही लेता। परमात्मा का तो कुछ पता नहीं चलता है। संसार भी हाथ से जा रहा है।...जिसके भीतर अधैर्य है उसे ये सारे ऊहापोह घेरे लेते हैं।
प्रतीक्षा का अर्थ होता है: जब मेरी योग्यता होगी तब होगा। मैं शांत होकर राह देखूं। मैं और-और शांत होकर रहा देखूं। अगर नहीं हुआ है तो इसका इतना ही अर्थ है कि मेरे भीतर अभी भी थोड़ा अधैर्य होगा। मैं और धैर्य को सम्हालूं। मैं और मौन हो जाऊं। मैं बिलकुल चुप हो जाऊं। मैं अपनी आकांक्षा अस्तित्व पर न रोपूं।
प्रतीक्षा का अर्थ होता है: अस्तित्व की मर्जी पूरी हो। अगर तुम हो तो कहो: भगवान की मर्जी पूरी हो। उसकी मर्जी पूरी हो! जब वह चाहे तब होगा। मैं राह देखूं। इसका अर्थ अकर्मण्यता नहीं है। इसका अर्थ प्रतीक्षा है। प्रतीक्षा कोई अकर्मण्यता की दशा नहीं है। प्रतीक्षा बड़ी जीवंत दशा है--ज्वलंत दशा है। जाग्रत दशा है। लेकिन धैर्य, गहन धैर्य से भरी हुई।
उमीदे-मर्ग कब तक, जिंदगी का दर्दे-सर कब तक?
ये माना सब्र करते हैं मोहब्बत में, मगर कब तक?
दियारे-दोस्त हद होती है यूं भी दिले बहलने की?
न याद आए गरीबों को तेरे दीवारों-दर कब तक?
ये तदबीरें भी तकदीरे-मोहब्बत बन नहीं सकतीं।
किसी को हिज्र में भूले रहेंगे हम मगर कब तक?
इनायत की, कर्म की, लुत्फ की आखिर कोई हद है!
कोई करता होगा चारा-ए-जख्मे-जिगर कब तक?
किसी का हुस्न रुसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में।
न लाए रंग आखिरकार तासीरे नजर कब तक?
कब तक की बात ही मत कहो। जब तुम पूछते हो...
उमीदे-मर्ग कब तक, जिंदगी का दर्दे-सर कब तक?
ये माना सब्र करते हैं मोहब्बत में, अगर कब तक?
...तो तुमने सब्र जाना नहीं।
सूफियों ने परमात्मा को निन्यानबे नाम दिए, उनमें एक नाम है: सबूर, सब्र। अनंत प्रतीक्षा, अनंत धैर्य! प्यारा नाम है! बहुत नाम परमात्मा को दिए हैं लोगों ने अलग-अलग, मगर सूफियों ने सबको मात कर दिया। उस नाम में सूचना दी है तुम्हें कि जब तुम भी सब्र हो जाओगे तभी से पा सकोगे! उसे पाना है तो कुछ उस जैसे होना पड़ेगा। हम वही पा सकते हैं जिस जैसे हम हो जाए। हम अपने से बिलकुल भिन्न को नहीं पा सकेंगे। कुछ तारतम्य होना चाहिए--हम में और उसमें।
उसका सब्र देखते हो! उसका सबूर देखते हो! रवींद्रनाथ की एक कविता है, जिसमें रवींद्रनाथ ने कहा है कि हे परमात्मा! जब मैं सोचता हूं तेरे सब्र की बात तो मेरा सिर घूम जाता है! और तेरा कितना धैर्य है, तू आदमी को बनाए चला जाता है! और आदमी तेरे साथ दर्ुव्यवहार किए चला जाता है। और तू है कि आदमी की बनाए चला जाता है। तू आशा छोड़ता ही नहीं। तू सोचता है, अब की बार ठीक हो जाएगा, अब की बार ठीक हो जाएगा। तू पापी को भी प्राण दिए जाता है, पापी में भी श्वास लिए जाता है। तेरा धैर्य नहीं चुकता। हत्यारे से हत्यारा भी तेरी आंखों में जीने की योग्यता नहीं खोता, तू उसे भी जीवन दिए जाता है! तुझे आशा है, आज तक तो ठीक नहीं हुआ, कल तक हो जाएगा, परसों हो जाएगा। कब तक भटकेगा! आज घर नहीं पाया, कल पाएगा, कल नहीं तो परसों आएगा। आएगा ही। जन्मों-जन्मों तक लोग भटकते रहते हैं, मगर तेरी अनुकंपा जरा भी कठोर नहीं होती। तेरी अनुकंपा वैसी ही सदा से है, वैसी ही उदार, वैसी ही बरसती रहती है। तू इसकी फिकर ही नहीं करता कि कौन पापी है, कौन पुण्यात्मा पी लेता है, तेरे बादल से और पापी नहीं पीता। यह उनका निर्णय है। मगर तेरी तरफ से कोई भेद नहीं होता। तेरी तरफ से अभेद है। तेरा सूरज निकला है और सब पर रोशनी बरसाता है। यह दूसरी बात है कि कोई आंख बंद रखे। यह उसकी मर्जी। मगर तेरी तरफ से भेंट में कभी फर्क नहीं पड़ती। तेरा कितना धीरज है।! तू आदमी से थका नहीं। तू आदमी की हत्याएं, पाखंड, उपद्रव देखकर ऊब नहीं गया? अभी तेरे मन में यह खयाल नहीं आता कि बस समाप्त करो? तेरा आदमी पर अब भी भरोसा है?
रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी कोई छोटा नया बच्चा पैदा होता है, तब फिर मुझे धन्यवाद देने की आकांक्षा होती है कि फिर उसने एक आशा की किरण, भेजी। हर नया बच्चा इस बात की खबर है कि परमात्मा अभी आदमी से चुका नहीं, अभी आदमी पर भरोसा है। अभी आदमी से आशा है।
सूफी ठीक ही कहते हैं कि वह सब्र है, सबूर है। धीरज है। धैर्य है। तुम भी कुछ उस जैसे बनो। कब तक मत पूछो।
मैं जानता हूं, हम थक जाते हैं, हम जल्दी थक जाते हैं। थोड़े बहुत दिन ध्यान किया, मन मग होता है:। अब कब तक करते रहें? थोड़े बहुत दिन प्रार्थना की और मन होने लगता है कि यह क्या जिंदगी भर करते रहेंगे? अभी तक कुछ नहीं हुआ, आगे भी क्या होगा? हमारा मन बड़ा शंकाशील है। उसकी शंकाओं के कारण कभी-कभी हम ठीक दरवाजे पर पहुंचे हुए वापस लौट जाते हैं। कभी-कभी बस एक हाथ और गङ्ढा खोदना था कि कुएं का जल मिल जाता। मगर मन कहता है: बस बहुत हो गई खुदाई। अभी तक जल नहीं मिला, अब क्या मिलेगा!
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि पृथ्वी में सब जगह जल है--कहीं थोड़ी गहराई पर, कहीं थोड़ी कम गहराई पर। खोदे जाओ, खोदे जाओ, अगर तुम खोदते ही चले जाओ तो ऐसी कोई जगह नहीं है जहां जल नहीं मिले। देर-अबेर हो सकती है, क्योंकि हर आदमी ने अलग-अलग तरह की मिट्टी अपने आसपास इकट्ठी कर ली है। किसी ने चट्टानें इकट्ठी कर ली हैं, तो खोदने में जरा देर लगेगी। किसी ने बहुत कर्मों का जाल फैला लिया है तो खोदने में जरा देर लगेगी। किसी ने बहुत विचारों का पोषण कर लिया है, तो खोदने में जरा लगेगी। मगर एक बात तय है, कहीं से भी खोदो, अगर खोदते जाओ तो जल-स्रोत निश्चित ही मिल जाएंगे। रेगिस्तान से रेगिस्तान में भी खोदते ही चले जाने पर जलस्रोत मिल ही जानवाले हैं। ऐसा जो व्यक्ति बिलकुल रेगिस्तान जैसा है, वह निराश न हो।
फिर ध्यान और प्रार्थना, भक्ति और पूजा, आरती और अर्चना, इन्हें किसी लक्षण से नहीं करना चाहिए। स्वान्तः सुखाय! भजन अपने में ही मस्ती है, और क्या चाहिए? तुम कैसे हो गए हो! तुम कहते हो भजन किया, अब भगवान मिलना चाहिए। जैसे तुमने भजन करे कोई बहुत बड़ा काम कर दिया! जरा घंटी बजा दी मंदिर की, बस करने लगे प्रतीक्षा, कि कब तक? हे प्रभु, कब तक?
उमीदे-मर्ग कब तक, जिंदगी का दर्दे-सर कब तक?
ये माना सब्र करते हैं मुहब्बत में, मगर कब तक?
जरा मंदिर की घंटी बजा दी और पूछने लगे--मगर कब तक?...कि जरा दो फूल चढ़ा दिए और पूछने लगे--अब और कितनी देर है? तुम जरा सोचो भी तुम क्या मांग रहे हो? मगर अनंत काल की यात्रा के बाद भी वह मिले तो मुफ्त में मिला, याद रखना। हमारे किए का मालूम क्या हो सकता है? हमारे कृत्य का अर्थ क्या है? हमारे कृत्य से उसके मिलन को कोई कार्य-कारण संबंध थोड़े ही है, कि तुम पूछो, कब तक; कि मैंने इतना किया--इतने उपवास, इतने प्राणायाम, इतने ध्यान, इतने प्रार्थनाएं--अब कब तक? तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे कृत्य से परमात्मा मिलता है? कृत्य का अपरिणाम है परमात्मा?
नहीं; मगर तुम कृत्य में आनंदित हो, तो मिलता है। कृत्य का परिणाम नहीं है--कृत्य की आंतरिकता है, कृत्य की हार्दिकता है। इस भेद को समझ लेना। कृत्य का परिणाम हनीं है--कृत्य की हार्दिकता। कितनी हार्दिकता से प्रार्थना की थी, इससे मिलता है। कितनी बार की, इससे नहीं। प्रार्थना में कितने झुक गए थे, इससे मिलता है। कितनी बार झुके, इससे नहीं। परमात्मा और तुम्हारे बीच कृत्य के परिणाम और मात्रा का भेद नहीं है--कृत्य की गहराई का, त्वरा की, तीव्रता का इसलिए कहता हूं स्वान्तः सुखाय! प्रार्थना करना--प्रार्थना के आनंद के लिए। परमात्मा की बात ही मत उठाओ। मस्त हो जाओ प्रार्थना में। प्रार्थना अपने में ही इतनी अदभुत है कि क्या फिकर परमात्मा की!
मेरे पास नास्तिक आ जाते हैं। वे कहते हैं: क्या हम भी ध्यान कर सकते हैं। मैं उनसे कहता हूं: तुम ही कर सकते हो। क्योंकि आस्तिक आता है तो वह जल्दी-जल्दी पूछने लगता है--
उमीदे-मर्ग कब तक, जिंदगी का दर्द-सर कब तक?
ये माना सब्र करते हैं मुहब्बत में, मगर कब तक?
तुम्हें तो कोई झंझट ही नहीं, कोई परमात्मा तो है ही नहीं, जो मिलना है, तुम ध्यान मजे से करो। तुम्हारा ध्यान जल्दी परिणाम लाएगा। क्योंकि तुम्हारे सामने कोई लक्ष्य है ही नहीं। तुम तो ध्यान के लिए ध्यान कर रहे हो। जरूर करो!
गीत का अपना आनंद है। गाने का अपना आनंद है। गुनगुनाने का अपना आनंद है। तुम इसको भी मोलत्तोल करने लगते हो? भाव बिठाने लगते हो कि देखो एक गाना गाया, अब मिलो!...कि देखो कितना सिर हिलाया, अब मिलो!...कि मैं नाच्यो बहुत गोपाल, अब मिलो!...कि देखो तो पसीना बहा जा रहा है, आखिर कब तक पसीना बहाऊं? हे प्रभु, प्रतीक्षा कब तक?
नहीं; ऐसे मिलन नहीं होगा। मिलन जरूर होता है, मगर उसका द्वार तुम चूके जा रहे हो। प्रार्थना की मस्ती, प्रार्थना की रसमयता, प्रार्थना का उन्माद, काफी पुरस्कार है। और क्या मांगते हो? पुण्य अपना पुरस्कार स्वयं है। जो स्वर्ग मांगता है पुण्य के द्वारा, वह आदमी सांसारिक है। पुण्य अपना पुरस्कार स्वयं है। कोई नदी में डूबता था, तुम दौड़े और उसे बचा लिया। अब क्या तुम परमात्मा से कहोगे--लिख लो खाते-बही में, कि मैंने एक आदमी को नदी में डूबता था बचाया? अगर तुमने ऐसा कहा, तुम अधार्मिक हो। ऐसा कहकर तुमने परमात्मा से संबंध तोड़ दिया। जुड़ते-जुड़ते टूट गया। लेकिन किसी को नदी में डूबने से बचा लिया, इसका अपना ही आनंद है, पुरस्कार मिल गया!
मेरी विचार-सरणी में पाप का फल पाप में ही मिल जाता है? पुण्य का फल भी पुण्य में मिल जाता है। फल प्रतीक्षा नहीं करते। आज आग में हाथ डालोगे, आज जल जाता है। कोई ऐसा थोड़े है कि अगले जन्म में जलेगा। अभी जल जाता है। और अभी किसी के प्रेम से देखो, अभी किसी गिरते को सम्हाल लो, अभी किसी प्यासे को पानी पिला दो, अभी किसी का हाथ आनंद भाव से अपने हाथ में ले लो--पुरस्कार अभी मिल गया। तुम इसी क्षण स्वर्ग का एक कण पा गए। ऐसा थोड़े ही है कि यह तुम करते रहोगे, फिर बाद में तुम्हें स्वर्ग मिलेगा।
परमात्मा उधार नहीं है। परमात्मा नकद है। परमात्मा अभी दे देता है। मगर तुम्हारी नजर अगर आगे पर अटकी है तो तुम चूक जाते हो। वह देता है, लेकिन तुम देख नहीं पाते, क्योंकि तुम्हारी नजर आगे अटकी है--कब मिलेगा परिणाम--कब तक?
भूलो परमात्मा को, भूलो स्वर्गों को, भूलो मोक्ष की भाषा! जियो क्षण को, उसी क्षण में, चाहे पूजा करो, चाहे प्रार्थना, चाहे ध्यान, चाहे सेवा--मगर उसी क्षण में इतने डूब जाओ कि उस क्षण के पार और कुछ बचे ही न। ऐसी भी अगर हो जाए कि परमात्मा आकर द्वार पर खड़ा हो तो तुम्हें अपनी प्रार्थना में इतने मस्त होना चाहिए कि परमात्मा दिखाई भी न पड़े।
तुम्हें पता है न पंढरपुर में जो मूर्ति है विठोबा की, उसके पीछे ऐसी ही कथा है कि एक भक्त अपनी मां के पैर दाब रहा है। मां बूढ़ी है, थकी-मांदी है। मृत्यु उसकी करीब है। कृष्ण का भक्त है। और कृष्ण उसकी भक्ति से बड़े प्रसन्न हैं। और वे आकर दर्शन देने को तत्पर खड़े हो गए। लेकिन उस भक्त ने पीछे लौटकर भी हनीं देखा। उसने कहा: आना थोड़ी देर से, अभी मैं मां के पैर दाब रहा हूं। अब ऐसा कोई भक्त हो तो उसको कृष्ण छोड़कर जा भी कैसे सकते हैं! तो वे वहीं खड़े रहे। देखा कि वे कहीं खड़े हैं सज्जन, जाते ही नहीं, तो भक्त के पास एक ईंट पड़ी थी। उसने ईंट सरका दी और कहा, इस पर बैठ जाओ या इस पर खड़े रहो। मगर अभी बीच में बाधा मत देना। अभी मैं मां की सेवा कर रहा हूं।
कृष्ण उस ईंट पर खड़े रहे। बिठोबा की जो मूर्ति है पंढरपुर में, उसके पीछे ऐसी प्यारी कथा है। कथा हुई या नहीं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन मैं जानता हूं भक्त की यही दशा होती है। वह भक्ति में ऐसा लीन होता है, सेवा में ऐसा तल्लीन होता है, अपने कृत्य में ऐसा डूबा होता है, कि परमात्मा आकर भी खड़ा हो जाए तो वह कहे खड़े रहो, अभी जरा बाहर बैठो बैठकखाने में! अभी मैं प्रार्थना में तल्लीन हूं। अभी बाधा न दो। अभी अड़चन न डालो।
एक दशा और एक यह दशा कि तुम प्रार्थना करते हो और बीच-बीच में लौटकर देख लेते हो कि विठोबा अभी तक आए कि नहीं आए। प्रार्थना खंडित हो गई। प्रार्थना तुमने भ्रष्ट कर दी। ऐसा हो सके तो तुम अभी पा लो। कल की भी कोई जरूरत नहीं। मैं जानता हूं, आदमी का मन आखिर आदमी का मन है। और शिकायत की हमारी पुरानी आदत है। जन्म-जन्म का अभ्यास, प्रार्थना में भी बीच-बीच में शिकायत आ जाती है। कभी-कभी मन नाराज भी हो जाता है। मैं समझता हूं मनुष्य की कमजोरी। मगर इन सारी कमजोरियां को धीरे-धीरे छोड़ देना है, तो ही तुम पात्र बनोगे।
इक बार ही जीने की सजा क्यों नहीं देते।
गर इर्फे-गलत हूं तो मिटा क्यों नहीं देते।।
इस दर्दे-शबे-हिज्र की लज्जत है पुरानी।
देना है तो फिर दर्द नया क्यों नहीं देते।
साया हूं तो फिर साथ न रखने का सबब क्या।
पत्थर हूं तो रास्ते से हटा क्या नहीं देते।।
कभी-कभी भक्त नाराज भी हो जाता है कि अब बहुत हो गया। शास्त्र तो यही कहते हैं कि तुम्हारा साया हूं, तुम्हारी माया हूं, साया हूं तो फिर साथ न रखने का सबब क्या? तो फिर भक्त पूछने लगता है कि फिर मामला क्या है? मगर मैं तुम्हारी छाया हूं तो फिर अपने साथ रखो। और अगर साया नहीं हूं, पत्थर हूं, तो रास्ते से हटा क्यों नहीं देते? तो एकबारगी खतम करा। फिर मुझे मिटा ही डालो। फिर मुझे बचाने की क्या जरूरत? फिर मुझे जीवन क्यों दिए जाते हो? इक बार ही जीने की सजा क्यों नहीं देते? अगर गलत हूं तो एक बार निपटारा कर दो। गर हर्फे-गलत हूं तो मिटा क्या नहीं देते? अगर गलत अक्षर लिख गया है तुमसे मिटा दो, पोंछ डालो। मगर यह रोज-रोज की झंझट क्या? यह रोज-रोज का कष्ट, यह रोज-रोज की प्रतीक्षा क्या? माना कि भक्त को कभी शिकायत आ जाती है, मगर जब तक शिकायत आती है तब तक भगवान नहीं आता। प्रार्थना जब शिकायत-शून्य हो जाती है तब प्रार्थना पूर्ण होती है। जब तुम कहते हो कि जैसा है, सुंदर है। तुम्हारा न होना भी सुंदर है। तुम्हारा इंतजार भी सुंदर है। तुम्हारा न मिलना भी सुंदर है। होगा ही सुंदर। जरूरत होगी इसकी। आवश्यकता होगी मेरी। यूं ही तुम मुझे निखारोगे। यही तुम्हारा उपाय है मुझे गढ़ने का। यूं ही तुम  मुझे जलाओगे। यूं ही तड़फाओगे। ऐसे ही जला-जलाकर, तड़फात्तड़फा कर, तुम मुझे कुंदन बनाओगे। मैं जानता हूं, इसलिए सब स्वीकार है। सब अंगीकार है। आज मिलो तो ठीक, कल मिलो तो ठीक, अनंत जन्मों में मिलो तो ठीक। जब भी मिलोगे तभी जल्दी मिले।
ऐसी प्रतीक्षा की भावदशा चाहिए।

चौथा प्रश्न--
मैं अंध-श्रद्धालु नहीं हूं। पिछले पांच वर्षों से प्रवचन एवं साहित्य के माध्यम से आपके सान्निध्य में हूं, परंतु अभी कुछ घटित नहीं हुआ है। संन्यास लेने की इच्छा से यहां आया हूं। क्या ऐसी दशा में संन्यास लेना आत्मवंचना नहीं होगी? कृपया योग्य मार्गदर्शन करें।

चंद्रशेखर, श्रद्धा और अंधी! तो फिर तुम्हें पता ही नहीं कि श्रद्धा क्या है। श्रद्धा अंधी होती ही नहीं। और जो श्रद्धा अंधी होती है वह श्रद्धा नहीं। हालांकि यह सच है कि तर्क से भरी बुद्धि हमेशा अंधी दिखाई पड़ती है क्योंकि श्रद्धा की आंखें और हैं, तर्क की आंखें और हैं। तर्क है मस्तिष्क से देखने का ढंग और श्रद्धा है हृदय से देखने का ढंग। श्रद्धा के पास अपनी आंख है, मगर वह आंख तर्क की आंख नहीं है।
तो तर्क सोचता है कि श्रद्धा अंधी है। क्योंकि उसके जैसी आंख श्रद्धा के पास नहीं है। और तर्क की आंख कोई बड़ी आंख नहीं। तर्क की आंख से जो दिखाई पड़ता है वह विराट है। तर्क तो ऐसे ही है जैसे टटोलना, अंधेरे में टटोलना। श्रद्धा ऐसे है जैसे सूरज निकल आया, सब तरफ रोशनी हो गई, सब दिखाई पड़ने लगा।
स्वभावतः जो आदमी सदा टटोलता रहा है, अगर वह किसी आदमी को बिना टटोले चलते देखे, तो वह कहेगा: पागल हो गए हो? टकराओगे! भटक जाओगे! टटोलो, बिना टटोले कहीं रास्ता मिला है? अंधा आदमी अपनी लकड़ी लेकर चलता है, लकड़ी से टटोल-टटोलकर चलता है; जब उसकी आंख ठीक हो जाएगी तो क्या तुम सोचते हो, तब भी लकड़ी से टटोल-टटोलकर चलेगा? लकड़ी को उसी वक्त फेंक देगा।
ऐसी कहानी है कि जीसस के पास एक अंधा आदमी आया, उन्होंने उसकी आंखें छुई, उसकी आंखें ठीक हो गई। वह आदमी अपनी लकड़ी टेकता-टेकता आया था। लकड़ी टेकता-टेकता वापस जाने लगा। जीसस ने चिल्लाकर कहा: मेरे भाई, लकड़ी तो छोड़ जा। अब लकड़ी किसलिए? तब उस अंधे को याद आया कि हां, यह पुरानी आदत। वह जिंदगी भर टटोल-टटोलकर चला, लकड़ी ही उसकी आंख थी।
तर्क की आंख बस ऐसी है जैसे अंधे के हाथ में लकड़ी। इसलिए तर्क से देह तो दिख जाती है, आत्मा नहीं दिखती। तर्क से पदार्थ तो दिख जाता है, परमात्मा नहीं दिखता। तर्क से बाहर-बाहर से तो दिखाई पड़ जाता है; भीतर क्या है, इससे संबंध नहीं जुड़ पाता। यह भी कोई आंख है।
अगर अंधा शब्द का प्रयोग ही करना हो, तो कहना चाहिए, तर्क अंधा है। संदेह अंधा है। श्रद्धा तो कभी अंधी नहीं होती। श्रद्धा तो प्रेम की आंख है। मगर प्रेम के देखने के ढंग जरूर अलग हैं--बिलकुल अलग हैं। बड़े भिन्न हैं।
ऐसे ही समझो कि गुलाब का फूल खिला। अब अगर तुम तर्क की आंख से देखो, तो सौंदर्य नहीं मिलेगा। कहां है सौंदर्य? अगर तर्क निष्ठ व्यक्ति हो, तो तुम सिद्ध न कर पाओगे कि सौंदर्य का कोई अस्तित्व है। प्रमाण कहां है? दिखाओ, छू कर देखना चाहता हूं सौंदर्य को, मेरे हाथ पर रखो। तराजू पर तोलकर देखूंगा सौंदर्य को। कितना वजन है? तब तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम कहोगे: भाई, सौंदर्य कोई तौले जानेवाली चीज नहीं और न ही छुए जानेवाली चीज है। और न ही मैं तुम्हें दिखा सकता हूं। अगर तुम्हें दिखाई पड़ता हो तो ठीक, न दिखाई पड़ता हो तो तुम्हें दिखा भी नहीं सकता, फिर भी सौंदर्य है।
लेकिन, अगर व्यक्ति जरूर तर्क में डूबा हो--पूरा डूबा हो--तो तुम्हें हरा कर रहेगा। वह कहेगा। ले चलें इस फूल को हम वैज्ञानिक के पास, इसका विश्लेषण करवाए। देखें क्या-क्या इसके भीतर है। सब मिल जाएगा--मिट्टी मिलेगी, पानी मिलेगा, जल मिलेगा, सूरज की रोशनी मिल जाएगी, और द्रव्य और सब चीजें मिल जाएगी--सौंदर्य भर नहीं मिलेगा। क्या तुम सोचते हो, सौंदर्य नहीं था?
नहीं; सौंदर्य को देखने की और ही आंख है। उसके लिए काव्य से भरा हुआ हृदय चाहिए। उसके लिए सौंदर्य-संवेदनशीलता चाहिए। अंधा नहीं है कवि। वैज्ञानिक को लग सकता है कवि अंधा है या पागल है। दोनों के ढंग इतने भिन्न हैं।
तर्क सोचता है, श्रद्धा देखती है। तर्क सोचता है, क्योंकि देख नहीं सकता। श्रद्धा को सोचने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि देख सकती है। समझना इस बात को। यहां कोई अंधा आदमी बैठा हो, उसको जाना हो बाहर तो वह पूछेगा: भाई, दरवाजा कहां है? पूछने के पहले सोचेगा--किससे पूछूं? उत्तर जाऊं, दक्षिण जाऊं, पूरब जाऊं, पश्चिम जाऊं--दरवाजा कहां है? लेकिन जिस आदमी के पास आंख है, वह बिना पूछे उठेगा और दरवाजे से निकल जाएगा। वह पूछेगा भी नहीं, सोचेगा भी नहीं कि दरवाजा कहां है। उसे दरवाजा दिख रहा है, सोचने की कोई जरूरत नहीं। हम सोचते उन्हीं चीजों के संबंध में हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़तीं। अंधा सोचता है, आंखवाला गुजर जाता है। तर्कनिष्ठ व्यक्ति सोचता है, सोचता है, सोचता है--सोच-सोचकर निष्कर्ष निकालता है। उसके निष्कर्ष सोच-विचार के निष्कर्ष हैं। उनमें जीवंत अनुभव नहीं है।
तो चंद्रशेखर! तुम पूछते हो। मैं अंध श्रद्धालु नहीं हूं।
तो तुम निश्चित अंधे हो। इससे जाहिर है कि तुम तर्क के अंधेपन में पड़े हो। और फिर तुम कहते हो कि पिछले पांच वर्षों से प्रवचन एवं साहित्य के माध्यम से आपके सान्निध्य में हूं। वह भी कोई सान्निध्य में होने का ढंग है? हां तार्किक व्यक्ति का वह ढंग होगा। वह सुनेगा, जो मैंने कहा; मगर चूक जाएगा उससे, जो अनकहा था। और अनकहा ही सत्य है। कहना तो सिर्फ बहाना है। उसके आसपास अनकहे कहे की लपेट कर भेजते हैं। कहे के सहारे अनकहे को हृदय में उतारते हैं। तुम कहे को पकड़ लोगे तो ऐसा ही समझो कि दवा तो बोतल में भर कर दी थी, दवा तो फेंक दी, बोतल सम्हाल कर रख लीं।
शब्द तो केवल बोतलें हैं। शराब उनके भीतर है। शराब निःशब्द की है।
तो तुम मुझे तर्क से सुन सकते हो, सत्संग नहीं होगा, सान्निध्य नहीं होगा। हां, तुम्हारी मेरी बातें ठीक भी लग सकती हैं। और तुम मेरी बातों से प्रभावित भी हो सकते हो। लेकिन वह ठीक लगना, वह प्रभावित होना, बस बुद्धि तक रहेगी। तुम ज्ञानी हो जाओगे। तुम पंडित हो जाओगे; मगर प्रेमी न हो पाओगे। और प्रेमी के ही पास प्रज्ञा होती है। पंडित के पास क्या है? कूड़ा-कर्कट है। वह व्यर्थ को इकट्ठा कर लेता है। साध्य से चूक जाता है, साधन को पकड़ लेता है।
ऐसा ही समझा कि मैंने अंगुली उठाई चांद की तरफ और तुमने मेरी अंगुली पकड़ ली और कहा, यही चांद। फिर यह अंगुली चाहे कितनी ही प्यारी हो, तुम चूक गए। अंगुली चांद नहीं है। कितनी ही प्यारी अंगुली हो, कि कृष्ण की हो, कि महावीर की हो, कि मोहम्मद की हो, चांद की तरफ इशारा था। चांद को देखना हो तो अंगुली को छोड़ना पड़ता है।
तुम कहते हो: आपके साहित्य और प्रवचन से आपके सान्निध्य में हूं। अंगुली पकड़े बैठे हो, चंद्रशेखर। चांद की तरफ आंख कब उठाओगे? और परिणाम भी साफ है। तुम कहते हो: परंतु अभी कुछ घटित नहीं हुआ। घटित कैसे होगा? घटित होने ही नहीं दे रहे। शब्दों से कहीं कुछ घटित हुआ है? शब्दों की तो कितनी संपदा हमारे पास है! उपनिषद हैं, और वेद हैं, और गीता है, और कुरान है, और बाइबिल है, और धम्मपद है--शब्दों के तो कितने अदभुत भवन हमारे पास हैं। मगर उनसे क्या मिलता है।?
कुरान कंठस्थ करने से तुम मोहम्मद नहीं हो जाते। हां, मोहम्मद ही जाओ तो तुम जो बोलेंगे वह कुरान जरूर होगा। धम्मपद के विश्लेषण से तुम बुद्ध नहीं हो जाओगे। हां, बुद्ध हो जाओ तो तुम जो बोलोगे वह सभी धम्मपद है। शास्त्र से कोई अनुभूति के हिमालय से शास्त्र की गंगाएं बहती हैं--जरूर बहती हैं।
तुमने मेरे शब्द पकड़े। शब्द तुम्हें प्यारे लगे हैं, इसलिए यहां भी गए। दिस दिन मैं तुम्हें प्यारा लगूंगा, वह बात और है। वह बात बिलकुल ही और है। उसका मेरे शब्दों से कुछ लेना-देना नहीं। तब सान्निध्य हुआ। फिर कुछ घटेगा, उसके पहले घट नहीं सकता। तब तुम मुझसे जुड़े।
संन्यास और क्या है?--मुझसे जुड़ना, मेरे शब्दों के बावजूद। मैं अगर कल नहीं बोलूं, कल यहां चुप बैठूं तो चंद्रशेखर को यहां बैठने का कोई कारण नहीं रह जाएगा। समझना कल अगर मैं चुप बैठूं यहां, बोलूं नहीं, फिर परसों भी चुप बैठूं, चंद्रशेखर जल्दी ही विदा हो जाएंगे। क्योंकि अब क्या सार है? लेकिन फिर भी कुछ लोग यहां बैठे रहेंगे। जो यहां फिर भी बैठे रहेंगे, वे मुझसे जुड़े हैं, शब्दों से क्या लेना-देना? मैं बोलता था। मैं बोलता था, इसलिए बोलने को भी सुन लेते थे; अब मैं नहीं बोलता हूं तो नहीं बोलने को सुनेंगे। संबंध मुझसे था। लेकिन जो शब्दों को सुनने आया है, जिस दिन बोलना बंद कर दूंगा, उस दिन विदा हो जाएगा। उसको फिर कोई प्रयोजन नहीं रहा।
संन्यास का अर्थ होता है: मैं जो कह रहा हूं उससे ज्यादा हूं। जो मैं कह रहा हूं, उसका जोड़ ही नहीं हूं। जो मैं कह रहा हूं वह तो कुछ भी नहीं है। जो मैं कहना चाहता हूं, कहा ही हनीं जा सकता। जो मैं कहना चाहता हूं, उसे कह नहीं पा रहा हूं, उसे कोई कभी नहीं कह पाया। उसे जानने के लिए तो तुम्हें मेरे प्रेम में पड़ना पड़े, तुम्हें दीवाना होना पड़े।
और उसी को तुम अंधश्रद्धा कह रहे हो। अंधश्रद्धा का उपयोग करके तुमने वह दरवाजा बंद कर दिया--प्रेम का दरवाजा। उसको तुम अंधश्रद्धा कह दिए। अभी तुम्हें श्रद्धा का पता ही नहीं है। आर श्रद्धा की आंख का भी पता नहीं है। लेकिन तुम्हारे तर्क ने एक निर्णय ले लिया, कि मैं अंधश्रद्धालु नहीं हूं।
भले आदमी! पहले थोड़ा अनुभव तो करो! थोड़े स्वाद तो लो! श्रद्धा को थोड़ा चखो! चखने के पहले निर्णय तो न करो।
और मैं तुमसे कहता हूं: श्रद्धा अगर अंधी ही हो, तो भी तर्क की आंख से ज्यादा दूर तक देखती है, ज्यादा गहरा देखती है। अगर तर्क की आंख और श्रद्धा के अंधेपन में चुनना हो, तो मैं तुमसे कहता हूं: श्रद्धा का अंधापन चुन लेना। अगर गणित की आंख और प्रेम के अंधेपन में चुनना हो तो मैं तुमसे कहूंगा: प्रेम का अंधापन चुन लेना, क्योंकि गणित से क्या मिलेगा? कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लोगे, ठीकरे इकट्ठे कर लोगे। चालबाज हो जाओगे,चालाक हो जाओगे, कुशल हो जाओगे। मगर जीवन की परम संपदा से चुक जाओगे। उस संपदा को तो प्रेमी ही जानते हैं, प्रेमी ही पाते हैं।
तो मेरा निवेदन है: श्रद्धा के अनुभव के पहले उस पर नाम मत लगाओ, लेबल मत लगाओ। क्योंकि जिस पर हम गलत लेबल लगा देते हैं, उस तरफ हम जाना बंद कर देते हैं।
तुमने खयाल किया कि अगर मंदिर के दरवाजे पर लेबल लगा हो संडास फिर तुम नहीं जाओगे, फिर जरूरत क्या रही? बात खतम हो गई। और संडास पर लगा हो हनुमान जी का मंदिर चले जाना चाहिए!
लेबल से आदमी बड़ा प्रभावित हो जाता है। इसलिए लेबल बहुत सोच समझकर लगाना। लेबलों से आदमी चलते हैं, आंदोलित जो जाते हैं। शब्द तुम्हारे जीवन के सूत्रधार बन गए हैं।
कुछ कहो मत, लेबल मत लगाओ। यह मंदिर तुमने अभी जाना नहीं। यह श्रद्धा के मंदिर में थोड़े कदम रखो। न जंचे तो लौट जाना। मगर एक बार स्वाद तो लो। और मैं तुमसे कहता हूं: जिसने भी स्वाद लिया वह कभी लौटा नहीं। फिर तुम उसे लाख तर्क के भुलावे दो, वह कहता है रखो अपने खिलौने अपने पास। उसने कुछ बहुमूल्य चीज हाथ में आ गई है। वह खिलौनों से नहीं उलझता।
तर्क तो ऐसे ही है जैसे कोई आदमी रंगीन कंकड़-पत्थर बीन रहा हो। और श्रद्धा ऐसे है जैसे हीरों की खुदान हाथ लग जाए। जिसको हीरों की खुदान हाथ लग गई, वह रंगीन कंकड़-पत्थरों में नहीं उलझता; वह कहता है: तुम्हीं खेलो भाई। तुम्हीं तय करो कि ईश्वर है या नहीं? तुम्हीं प्रमाण जुटाओ। तुम्हीं विवाद करो। तुम्हीं पक्षपात में पड़ो। हम तो डूब गए। हम तो डूब कर उबर गए।
हालांकि जो किनारे पर खड़ा है वह कहता है कि यह क्या मामला है, तुम डूब रहे मझधार में। लेकिन उसको पता नहीं, एक मजा है डूबने का। डूब कर उबरने का एक रास्ता है। तर्क से बंधे हुए। आदमी को श्रद्धालु आदमी ऐसे लगता है--गया बेचारा काम से, डूबा!
दर्दे मुहब्बत के मारों के सारे सहारे टूट गए।
कल डूबी थी अपनी कश्ती आज किनारे डूब गए।।
तुम तूफानों से घबराएं तुमने साहिल थाम लिया।
हम तूफानों से टकराए, हम बेचारे डूब गए।।
दिल वालों की हिम्मत देखो दिल वालों की किस्मत देखो।
दिल के सहारे चले निकले थे, दिल के सहारे डूब गए।
जिससे सुबह जाग उठती थी, वही सेवरा शाम बना।
जिनसे रात चमक उठती थी, वही सितारे डूब गए।।
कश्ती के कुछ काम न आयी, रास हवा की चारागरी।
जो आए थे पार लगाने, साथ हमारे डूब गए।।
दिल वालों की हिम्मत देखो, दिल वालों की किस्मत देखो।
दिल के सहारे चल निकले थे, दिल के सहारे डूब गए।।
प्रेम डूबा देता है। प्रेम मिटा देता है। तर्क बचाता है। लेकिन तर्क बचाता है, इसीलिए तो तुम अब अहंकार से घिरे रह जाते हो। प्रेम डुबा देता है। अहंकार चला जाता है। प्रेम आत्मघात है। लेकिन उसी आत्मघात में परमात्मा का फूल खिलता है। बाहर-बाहर से देखोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे, कुछ का कुछ निर्णय ले लोगे। मझधार में कोई डूबता होगा, तो तुम कहोगे कि पहले ही कहा था कि मत जाओ, ऐसे मत उतरो अंधे की तरह, डूब जाओगे! हम भले, किनारे पर तो हैं, बचे तो हैं!
मगर तुम्हें पता नहीं, कि तुम बचने के कारण ही मिट रहे हो और वह आदमी मिटने के कारण पहुंच रहा है।
जीसस का वचन याद करो। जीसस ने कहा है: जो अपने को बचाएंगे वे अपन को खो देंगे। और जो अपन को खोने की हिम्मत करेंगे, वे बचा लिए गए।
आओ श्रद्धा के मंदिर में! थोड़ा खोपड़ी से नीचे उतरो, चंद्रशेखर! थोड़े हृदय में जाओ! विचार से उतरो थोड़ा भाव में--भाव के कुएं में डुबकी मारो! संन्यास का और कोई अर्थ नहीं होता।
अब तुम पूछते हो: अभी कुछ घटित नहीं हुआ है। संन्यास लेने की इच्छा से यहां आया हूं। वह इच्छा भी तर्क के ही कारण होगी। मैं तुम्हें संन्यास दूंगा भी नहीं, मगर तुम तर्क के कारण लेना चाहो। क्योंकि मेरा कोई भरोसा है, आज मैंने एक बात कहीं तुम्हें जंच गई और तुमने संन्यास ले लिया; कल मैं उलटी बात कह दूंगा, तुम्हें नहीं जंचेगी, फिर तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। और मैं तो रोज बातें बदलता रहता हूं। जिनका प्रेम का नाता है वे ही टिक पाते हैं मेरे पास। नहीं तो जो बात के कारण रुका है, एक दिन रुक जाता है, दूसरे दिन पाता है: यह तो मामला गड़बड़ हुआ, यह तो बात दूसरी कह दी अब, यह तो जंचती नहीं। एक बात जंच गई थी, रुक गया था; एक बात नहीं जंचती, अब क्या करे? लेकिन जिसको बात का सवाल ही हनीं है, जिसे मैं जंच गया, वह फिर रुका है। फिर मैं कहूं ईश्वर है तो रुका है और किसी दिन कह दूं कोई ईश्वर नहीं, तो भी वह फिकर नहीं करता, तो भी रुका है। वही संन्यासी है। फिर हमारा यहां से जाने का सवाल ही नहीं उठता। अब तुम्हारे कहने में हम न उलझेंगे। अब तो कहने के पीछे जो छिपा है, उसकी हमें झलक मिलने लगी है। अब तो उससे हमारा संबंध हो गया है।
तुम्हारे मन में इच्छा उठी होगा। सोचा होगा: किताबें पढ़ने में इतना आनंद आ रहा है, विचार समझने में इतना सुख मिल रहा है, क्यों न संन्यास लें! शायद और ज्यादा आनंद मिले! तुम झंझट में पड़ जाओगे। और लोगों को झंझट में डालना मेरा धंधा है।
ऐसा बहुत बार हो जाता है, एक आदमी एक बात मेरी सुन लेता है, उसे बिलकुल जंच जाती है, फिर दूसरे दिन मैं ज्यादा देर उस को टिकने नहीं देता। मैं विरोधाभासी हूं। मैं खुद ही उसका खंडन कर देता हूं। क्योंकि मुझे तुम्हें किसी बात में नहीं उलझाना है, इसलिए खंडन कर देता हूं। मैं तुम्हें वहां ले चलना चाहता हूं जहां सब बातें समाप्त हो जाती हैं। इसलिए कहता हूं और मिटाता चलता हूं। एक हाथ से बनाता हूं, एक हाथ से मिटाता हूं। क्योंकि तुम्हें चलना है उस जगह, जहां सब विचार शून्य हो जाते हैं, जहां सब तक विलीन हो जाते हैं, जहां चित्त में कोई तरंग नहीं होती, जहां सब निस्तरंग हो जाता है। तुम्हें एक तरंग पसंद है, तुम मेरे पास आ गए। कल मैं उस तरंग को मिटाऊंगा, फिर तुम्हारे प्राणों पर बड़ी बुरी बीतेगी।
ऐसा इन बीस वर्षों में अनेक बार हुआ है। अनेक तरह के लोग मेरे पास आए और गए। यह मेरी लोगों को छांटने को प्रक्रिया है। मगर कुछ लोग बैठे हैं सो बैठे हैं। देखा, तरु कैसे पांव पसार कर बैठी है! कुछ लोग बैठे हैं सो बैठे हैं। उन्होंने बैठक मार ली है। वे कहते हैं: तुम कितना ही धक्का दो, तुम यह कहो वह कहो, हम सुनते नहीं। हमें शब्दों से ज्यादा कुछ अनुभव में आना शुरू हुआ है। वे ही संन्यासी हैं--जो ऐसे बैठ गए।
तो चंद्रशेखर! तैयार हो संन्यास की तो तर्क से मत लेना। प्रेम से लेना। तब कुछ होगा। तर्क से लो। झंझट आएगी। पहले तो तर्क से लिया तो असली संन्यास तो घटित ही नहीं होगा। और जब असली संन्यास घटित नहीं होगा, तुम दो-चार दिन बाद सोचोगे: संन्यास भी ले लिया, अभी कुछ नहीं हो रहा है। अभी भी कुछ घटित नहीं हुआ है! यह तो क्या हुई बात? गैरिक रंग में रंग गए, पागल बने। अब माला पहन जहां जाते हैं, लोग हंसते हैं? और कुछ घटित भी नहीं हुआ है--न परमात्मा मिला है, न मोक्ष, न ध्यान--कुछ भी नहीं हुआ।
संन्यास ही नहीं हुआ, इसलिए कुछ और तो होगा ही नहीं। संन्यास ही तर्क से लिया था, हिसाब से लिया था, गणित से लिया था, समझदारी से लिया था। नासमझी से छलांग लगाओ। पागलपन से छलांग लगाओ। तर्क इत्यादि हटा कर रख दो। मुझे देखो! मैं क्या कह रहा हूं, इसकी फिकर मत करो। मेरे शब्दों के बीच-बीच में जो खाली जगह है, उसको सुनो। दो पंक्तियों के बीच में जो रिक्त स्थान है, उसमें डुबकी मारो, तो तुम मुझे समझोगे। तो इशारा पहचान लिया जाएगा। तब एक संन्यास घटित होगा, जिसमें तुम रोज-रोज मेरे करीब आते चले जाओगे। और उसी करीब आने में कलियां खिलेंगी, फूल उभरेंगे, तारे निकलेंगे वह सब अपने-आप हो जाता है।
मगर पहले बात पहली घटी चाहिए। पहली ही न घट पाए तो मुश्किल हो जाती है। पहली घट गयी तो बाकी सब तो घटती हैं। बीज बो दिया तो फिर थोड़ी देर-अबेर वर्षा भी आएगी, अंकुर भी फुटेंगे। लेकिन जब बीज ही न बोया हो तो वर्षा भी आ जाए, अंकुर कहां से फूटेंगे?
और खयाल रखना, बीज श्रद्धा का होता है, तर्क का कोई बीज नहीं होता। तर्क तो कंकर है--बांझ! उसमें से पैदा न कभी हुआ है, न कभी कुछ हो सकता है। बुद्धि तो बांझ है। जो कुछ भी पैदा होता है, हृदय से पैदा होता है। हृदय से संन्यास लो, तो बहुत कुछ घटेगा। रोज-रोज घटता जाएगा। तुम भरोसा ही न कर सकोगे कि कैसे घट रहा है, किस शून्य से घटता जा रहा है। पहली बात घट गई तो शेष सब अपने-आप घट जाता है।

आखिरी प्रश्न--
आंखिन में तिमिर अमावस की रैन जिमि।
जम्बुनद-बूंद जमुना जल तरंग में।।
यों ही मेरा मन मेरो काम को न रह्यो माई।
रजनीश रंग है करि समानो रजनीश रंग में।।

शिवानंद, धन्यभागी हो तुम! यह रंग मेरा नहीं, परमात्मा का रंग है। तुम्हें तो मैं दिखाई पड़ रहा हूं, मुझे परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। तुम मेरे रंग में डूब रहे हो; मेरा कोई रंग नहीं है, यह रंग परमात्मा का ही है। जल्दी ही तुम पाओगे, डूब-डूब कर पाओगे कि मैं तो बीच से हट गया, परमात्मा प्रकट हो गया है। गुरु का इतना ही अर्थ है।
गुरु का एक हाथ परमात्मा के हाथ में है और एक हाथ शिष्य के हाथ में। ऐसे गुरु सेतु बन जाता है। गुरु पर रुकना नहीं है। गुरु से पार जाना है। गुरु का सहारा लेकर उस जगह पहुंच जाना है जहां सहारे की कोई जरूरत न रह जाए।
तो मैं तुम्हें अपने रंग में भी रंगता हूं, और फिर जल्दी ही तुम्हें यह याद भी दिलाता हूं कि यह मेरा रंग नहीं है। मेरा रंग क्या होगा? मैं ही नहीं हूं, मेरा रंग क्या होगा? रंग तो उसका ही है। मैं तो सिर्फ उपकरण हूं।
ऐसा समझो कि मैं पिचकारी हूं, रंग उसका है। पिचकारी का कोई रंग होता है? बांसुरी हूं। स्वर उसका है। बांसुरी का कोई स्वर होता है? तुम्हें बांसुरी दिखाई पड़ रही है ,क्योंकि उसके अदृश्य ओंठ अभी तुम्हारी देखने की क्षमता नहीं। लेकिन बांसुरी भी दिखाई पड़ गई है, तो ज्यादा देर न लगेगी, उसके अदृश्य ओंठ भी जल्दी ही दृश्य हो जाएंगे।
जिसको गुरु दिखाई पड़ गया, उसे परमात्मा दिखाई पड़ना बहुत दूर नहीं है। आधी यात्रा पूरी हो गई।
तुम धन्यभागी हो! डूब इस रंग में! डूबते चले जाओ। जल्दी ही तुम पाओगे कि चले तो तुम मुझमें डूबने थे, डूब गए परमात्मा में। मैं तुम्हारे लिए द्वार हो जाऊं, इतना ही इस संन्यास का प्रयोजन है।
आंखिन में तिमिर अमावस की रैन जिमि
जम्बनद-बूंद जुमना जल तरंग में।
ऐसे ही डूब जाओ!
यूं ही मेरो मन मेरो काम हो रह्यो न माई।
ठीक कह रहे हो। नाकाम हुए तो काम के हुए। अब तुम्हारा मन तुम्हारा न रह जाएगा। तुम हटोगे, मैं तुम्हारी जगह विराजमान हो जाऊंगा। और फिर दूसरे कदम में, आधी यात्रा में, मैं विलीन जाऊंगा और परमात्मा ही शेष रह जाएगा।
ऐसी इस अदभुत यात्रा पर तुम निकल पड़े, और यह अदभुत यात्रा भी तुमने आधी पूरी कर ली, इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद करता हूं। साधु! साधु!
आज इतना ही।


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