(विशेष: दिनांक १९ एवं २० मार्च, )
(१९७६ को भगवान श्री प्रवचन के लिए उपस्थित नहीं
हए...!)
उन्नीसवां प्रवचन—प्रज्ञा
की थिरता है मुक्ति
दिनांक २१ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
वादो नावलम्ब्य ।।७४।।
बाहुल्यावकाशादनियतत्ववच्च ।।७५।।
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधक कर्माण्यपि
करणीयानि।।७६।।
सुखदुःस्वेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाण
क्षगार्द्धमपि व्यर्थं न नेयम्।।७७।।
अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि
परिपालनियानि।।७८।।
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव
भजनीयः।।७९।।
स कर्ीत्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च
भक्तान्।।८०।।
त्रिसत्यस्य भक्त्तिरेव गरीयसी भक्त्तिरेव
गरीयसी।।८१।।
गुणमाहात्म्यासक्त्ति रूपासक्त्ति पूजासति
स्मरणासक्त्ति दास्यासक्त्ति साख्यासक्त्ति कांतासक्ति वात्सल्यासक्त्यात्मनि
वेदनासक्त्ति तन्मयतासक्त्ति परमविरहासक्त्तिरूपा
एकधाप्येकादशधा भवति।।८२।।
इत्येवं वदन्ति जनजल्पपनिर्भया एकमताः
कुमारव्यासशुकशांडिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्य
शेषोद्धवारुणिबजिहनुमद्विभीषणादयो
भक्त्ययाचार्याः।।८३।।
य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति
श्रद्धते स प्रेष्ठं लभते
स प्रष्ठं लभते इति।।८४।।
एक तीर्थयात्रा आज पूरी होगी।
भक्त्ति कोई शास्त्र नहीं है--यात्रा है। भक्त्ति कोई सिद्धांत नहीं
है--जीवन-रस है। भक्त्ति को समझकर कोई समझ पाया नहीं। भक्त्ति को डूबकर, भक्त्ति में डूबकर ही कोई भक्त्ति के राज को समझ पाता है।
नाच कहीं ज्यादा करीब है विचार से। गीत कहीं ज्यादा करीब है गद्य से।
हृदय करीब है मस्तिष्क से।
इन बहुत दिनों भक्त्ति की लहरों में हमने आंदोलन लिया; बहुत तुम्हें रुलाया भी, क्योंकि भक्त्ति आंसुओं के
बहुत करीब है। और जो रो न सके, वह भक्त न हो सकेगा। छोटे
बच्चे की तरह जो असहाय होकर रो सके, वही भक्ति-मार्ग से गुजर
पाता है।
भक्त्ति बड़ी सुगम है--लेकिन
जिनकी आंखों में आंसू हों, बस उनके लिए। भक्त्ति बहुत कठिन है, अगर आंखों के आंसू सूख गए हों। और बहुत हैं अभागे संसार में जिनकी आंखों
के आंसू सूख गए हैं; जिनके पास आंखें हैं, लेकिन आंखों में पानी नहीं रहा; जो देखते हैं,
लेकिन गहरानहीं देख पाते, क्योंकि आंखों से भी
ज्यादा गहर आंखों के आंस देखते हैं। और जिनकी आंखों से आंसू नहीं रहे, उनकी आंखों के स्वच्छ होने की संभावना मिट गई। आंसू तो स्नान करा जाते हैं;
आंखों को बार-बार ताजा कर जाते हैं; धूल को
जमने नहीं देते; विचार को टिकने नहीं देते; कूड़ा-कर्कट को बहा ले जाते हैं; आंखें फिर ताजी हैं
स्फटिक मणि की भांति, छोटे बच्चों की भांति; फिर संसार हरा और ताजा और नया हो जाता है। उस ताजगी से ही परमात्मा की खबर
मिलती है।
भक्त का अर्थ है: जो रोना जानता है। भक्त का अर्थ है: जो असहाय होना
जानता है। भक्त का अर्थ है: जो अपने ना-कुछ होने को अनुभव करता है।
अहंकार से भक्ति बिलकुल विपरीत है। इसलिए जो अहंकार की खोज पर चले हैं, वे कभी भक्ति को उपलब्ध न हो सकेंगे। परमात्मा को पाना हो तो स्वयं को
खोना ही पड़ेगा।
यह खोने की यात्रा थी। यह राह बड़ी मधुभरी थी, बड़े फू खिले थे! क्योंकि भक्ति के मार्ग पर कोई मरुस्थल नहीं है। तुम पैर
भर रखो, पहला कदम ही आखिरी कदम बन जाता है। तुम पैर भर बढ़ाओ
कि सौंदर्य अपने अनंत रूपों को खोलने लगता है।
परमात्मा को खोजना नहीं, अपने को खोलना है,
ताकि परमात्मा तुम्हें खोज सके। इस भ्रांति में तो तुम रहना ही मत
कि तुम परमात्मा को खोज लोगे। भक्त्ति का मूल आधारा यहीहै कि परमात्मा तुम्हें खोज
रहा है, तुम छुप क्यों रहे हो, तुम
बचाए क्यों फिरते हो अपने को? तुम उसे न खोज सकोगे, क्योंकि तुम्हें न उसका पता मालूम, न ठिकाना मालूम।
और हाथ कितने छोटे हैं और आकाश कितना बड़ा है! तुम मुट्ठियों में आकाश को बांध
पाओगे?
मनुष्य की सामर्थ्य क्या है?
जिस दिन अपनी असामर्थ्य प्रतीत हो जाती है, उस दिन भक्त कहता है, "अब तुझसे कहें भी क्या,
तुझे खोजें भी कहां?'
लिखें जो कुछ और तो हमारी मजाल क्या
इतना ही लिख के भेज दिया है--"तरस गए'।
भक्त्त रो सकता है, तरस सकता है। शिकायत भी तो करने
का कोई उपाय नहीं, क्योंकि शिकायत भी सामर्थ्य की ही छाया
है।
ये दिन बड़े अहोभाव के थे।
ये सूत्र अगर तुम्हारे हृदय में थोड़ी-सी भनक छोड़ जाएं और तुम्हारा गीत
मुखर हो उठे...। वीणा तो तुम लेकर ही आए हो, लेकिन न मालूम कितने
भयों से ग्रस्त हो, और परमात्मा को तुम्हारी वीणा को छूने
नहीं देते।
थोड़ी हिम्मत चाहिए। थोड़ी मतवाली हिम्मत चाहिए। यह काम पागलों का है।
परमात्मा को जिन्होंने पाया वे पागल थे। और पागल होने की सामर्थ्य नहीं हो तो परमात्मा
की बात छोड़ देनी चाहिए। यह बुद्धिमानों का, समझदारों का, दुकानदारों का काम नहीं--पियक्कड़ों का है। और मैं खुश हूं कि पियक्कड़
धीरे-धीरे अब मेरे पास आने लगे हैं, मतवालों को धीरे-धीरे
खबर मिलने लगी है।
स्वाभाविक है--जैसे कोई कुंआ खोदता है तो पहले कंकड़-पत्थर हाथ लगते
हैं, फिर कूड़ा-कर्कट निकलता है, फिर
मिट्टी की परतें निकलती है, फिर जलधार आती है। अब जलधार आ
गई! अब तो दीवानों से ही मुझे बात करनी है, क्योंकि वे ही
केवल ले सकेंगे।
ये अंतिम सूत्र हैं नारद के।
"भक्त्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए'।
ऐसा हिंदी में अनुवाद किया है। मूल संस्कृत का अर्थ तो इतना ही होगा:
"भक्त्त को वाद-विवाद नहीं'। वही ठीक है। "करना चाहिए'
की बात ही भक्त के लिए उचित नहीं है, क्योंकि
"करना चाहिए' में कर्ता आ गया, व्यवस्था
आ गई। तुम कुछ करोगे तो तुम मिट ना सकोगे। अगर तुमने कुछ किया तो तुम अपने ही
विपरीत कुछ करोगे। वाद-विवाद उठता था और तुमने नियम बना लिया कि वाद-विवाद नहीं
करना चाहिए, तो वाद-विवाद मिट थोड़े ही जाएगा--मत करो,
छिपा रह जाएगा; मत लाओ बाहर, भीतर रह जाएगा--और भीतर रहे, इससे तो बेहतर था कि
बाहर आ जाए। यह तो ऐसा हुआ जैसे रोग को भीतर छिपा लिया--नासूर बनेंगे उससे। यह तो
मवाद को भीतर रख लेना हो जाएगा।
इसलिए में ऐसा अनुवाद न करूंगा कि भक्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।
"करना चाहिए' की बात ही भक्त नहीं जानता। कर्तव्य की भाषा ही भक्त
ही भाषा नहीं है--उसकी भाषा प्रेम कीहै।
"भक्त तो वाद-विवाद नहीं'--बस
इतना काफी है। क्यों नहीं?...क्योंकि जिसने जाना हो, वह विवाद कैसे करे? विवाद तो टटोलने जैसा है--अंधेरे
में कोई टटोलता है? जिसे पता है, जिसे
अनुभव हुआ है, जिसके जीवन में थोड़ी भी सत्य की किरण उतरी है,
जो उस किरण के साथ थोड़ा नाचा है, रास रचाया है--वह
वाद-विवाद करेगा? उसके पास न तो कुछ सिद्ध करने को है,
न किसी को असिद्ध करने की कोई आकांक्षा है। वह तो अपना प्रमाण है।
"भक्त तो वाद-विवाद नहीं'--इसका
अर्थ हुआ कि भक्त अपना प्रमाण है। वाद-विवाद तो वे करें जिसके पास अपना कोई प्रमाण
नहीं है। विवाद का अर्थ यह होता है कि हमें अनुभव नहीं हुआ। भक्त्त से लड़ो,
झगड़ो--भक्त्त कहेगा, आंखों में झांको मेरी;
मेरे आंसुओं का स्वाद लो; मेरे साथ नाचो;
ये मैंने घूंघर बांधे पैरों में, तुम भी बांधो;
यह मैंने धूप-थाल सजाया, तुम भी अर्चना करो।
जैसे मुझे हुआ, तुम्हें भी हो जाएगा; क्योंकि
मुझ जैसे अपात्र को हो गया तो तुम जैसे पात्र को न होगा?
भक्त यह कहता है कि मुझको हो गया, मुझ जैसे पापी को हो
गया, तो तुम जैसे पुण्यात्मा को न होगा? मैं तो कुछ भी न जानता था और परमात्मा मेरे द्वार आ गया, बस मेरी पुकार से आ गया; तुम तो बहुत जानते हो,
तुम्हारी पुकार से न आएगा?
"भक्त्त
को वाद-विवाद नहीं'।
वाद-विवाद का अर्थ है कि तुम्हारे जीवन में प्रमाण नहीं है, तुम कहीं और खोजते हो, परिपूरक प्रमाण खोजते हो। जो
तुम्हारे पास नहीं है उस तुम शब्दों से सिद्ध करना चाहते हो। जिसकी सुगंध तुम्हारे
जीवन में नहीं है, तुम विवाद से समझाना चाहते हो कि है।
"भक्त को वाद-विवाद नहीं'।
इसलिए नहीं कि यह कोई नियम है, बल्कि इसलिए कि यह असंभव हो
जाता है। प्रेमी क्या विवाद करे? तुम मजनू से पूछो, लैला से संबंध में, वह विवाद न करेगा; वह लैला के सौंदर्य को भी सिद्ध करने की कोशिश न करेगा। वह तुमसे कहेगा,
"मजनू की आंखें पा ली। मैंने जैसा देखा है वैसा तुम भी देखो'।
"मजनू' देखने का एक ढंग है।
"भक्त' भी देखने का एक ढंग है। अंधे से क्या विवाद
करोगे अगर प्रकाश सिद्ध करना हो? अंधे को तुम विवाद से समझा
सकोगे? तुम जो भी प्रकाश के संबंध में कहोगे वह गलत ही समझा
जाएगा। आंख जिसके पास नहीं है, कैस समझाओगे उसे? अंधा कहेगा, "मैं सुन सकता हूं, तुम अपने प्रकाश को थोड़ा बजाओ, तो मैं उसकी धुन,
आवाल सुन लूं'। अंधा कहेगा, "मैं चख सकता हूं, तुम थोड़ा मेरी जीभ पर रख दो अपने
प्रकाश को, ताकि मैं उसका स्वाद ले लूं'। अंधा कहेगा, "मैं छ सकता हूं, मेरे पास लाओ। कहां है तुम्हारा प्रकाश?' तुम कहते
हो, "मैं प्रकाश से घिरा हूं, चारों
तरफ प्रकाश है। मैं अपने हाथ फैलाता हूं, कहीं प्रकाश का पता
नहीं चलता'।
क्या करोगे तुम? तुम थक जाओगे, हार जाओगे। अंधे को प्रकाश के संबंध में तर्क देने का कोई अर्थ नहीं है।
अगर कुछ तुमसे हो सके तो अंधे की आंखों को ठीक करने की व्यवस्था करो। जैसे तुमने
आंखें ठीक कर ली हैं, उसी राह से उसे ले चलो।
चैतन्य के पास एक तार्किक विवादी आया। चैतन्य खुद अपनी युवावस्था में
बड? तार्किक थे, बड़े पंडित थे। बंगाल में उनकी ख्याति
फैल गई थी। पंडित उनसे थरथराने लगे थे। पर एक दिन उन्हें दिखाई पड़ा सारे पांडित्य
का थोथापन। हरा दिया बहुतों को, लेकिन अपनी जीत तो पास न
आयी। न मालूम कितनों को पराजित कर दिया, लेकिन खुद के जीवन
में विजय की तो कोई दुंदुभि न बजी। तर्क-जाल खूब फैला लिया, हाथ
में कोई संपदा न लगी। कांटों की तरह दूसरों को चुभने लगे, लेकिन
जिंदगी में अपने फूल न खिले। यह बात एक दिन उन्हें समझ में आ गई।
और ध्यान रखना, यह बात केवल परम बुद्धिमानों को ही समझ में आ पाती
है। तर्क की असारता को देख लेना बड़े निष्ठापूर्ण, बड़े
प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का लक्षण है।
उन्होंने सब तर्कजाल छोड़ दिया। लेकिन किसी को पता न था, कोई पंडित उनसे विवाद करने चल पड़ा था। वह आ गया। चैतन्य ने कहा,
"तुम जरा देर करके आए। अब हराने का मजा जाता रहा, क्योंकि हम जीत गए। अब तुम्हें हराएं भी क्या--अब हम तुम्हें हराए बिना
जीत गए! अब हम जीते हुए हैं। थोड़ी देर कर दी आने में। अब हम खाली अंधेरे में
टटोलते नहीं हैं--रोशनी मिल गई है; गीत पकड़ लिया है--नाचते
हैं! यह लो तंबूरा; नाचो!'
पंडित बोला; "क्या पागल हूं मैं?'
चैतन्य ने कहा, "लोगों को मैं तर्क के निमंत्रण देता था,
वे तैयार रहते थे। वह शब्दों का नाच है। वे कोरे हवा के बबूले हैं।
अब तुम्हें वास्तविक नृत्य का आमंत्रण दे रहा हूं--स्वीकार करो! क्योंकि ऐसे नाचकर
मैंने उसकी छवि को खोज लिया है। जब नाच में मैं खो जाता हूं, तब वह प्रकट होता है। जब मैं मिट जाता हूं, तब वह आ
जाता है। जब तक मैं हूं, तब तक द्वार बंद! जैसे ही मैं न हुआ
कि द्वार खुल जाते हैं'।
"भक्त को वाद-विवाद नहीं'।
क्योंकि भक्त को स्वाद मिल गया; अब वाद-विवाद में समय कौन
खोए?
क्योंकर भूले भटके फिरते
भेद ढूंढने जग नश्वर का
अंतरदीप जला कर देखो
मानव ही प्रमाण ईश्वर का।
ब्रह्मसूत्र का एक बड़ा बहुमूल्य सूत्र है, नारद के इस सूत्र से मेल खाता है: तर्क प्रतिष्ठानात--तर्क की कोई
प्रतिष्ठा नहीं है। यद्यपि साधारण जीवन में तर्क की ही प्रतिष्ठा दिखाई पड़ती है।
जो जितना बड़ा तार्किक, उतना ही ज्ञानी मालूम पड़ता है। लेकिन
परम ज्ञानियों ने कहा है कि तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।
तर्क की अप्रतिष्ठा को समझो। तर्क कुछ भी सिद्ध नहीं करता, सिद्ध करता मालूम होता है। क्योंकि जो भी तर्क सिद्ध करता है, उसी को तर्क से ही असिद्ध किया जा सकता है। इसलिए तो तार्किक
सदियों-सदियों तक तर्क-विवाद करते रहते हैं, फैलाते जाते हैं
जाल को--निष्कर्ष कोई हाथ नहीं आता। पांच हजार वर्षों के दर्शनशास्त्र का इतिहास
यह है: शून्य हाथ लायी है शून्य, कुछ भी हातथ आया नहीं है।
कितने बड़े विवादी हुए, कितने बड़े तर्कनिष्ठ लोग हुए! तर्क की
कैसी बाल की खाल निकली! लेकिन ऐसा कोई तर्क आज तक नहीं दिया जा सका है जिसका
विपरीत तर्क न खोजा सके। और ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो स्वयं को ही न काट दे!
हम जीवन में रोज-रोज तर्क देते हैं। कभी तुमने खयाल किया? कभी अपने ही तर्क के विपरीत खड़े होकर देखो, तुम
तत्काल पाओगे कि तुम उसके विपरीत भी वैसा ही तर्क खोजे लेते हो।
"तर्क प्रतिष्ठानात'।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बैठा था। उसका बेटा है कोई
अट्ठारह-उन्नीस साल का, वह आया और उसने कहा कि पापा! औ उसने अच्छा मौका देखा
कि मैं बैठा हूं, मेरे सामने उसमें हिम्मत बढ़ी। उसने कहा कि
अब मैं कालेज़ जा रहा हूं, तो अब तो कार खरीदनी होगी। तो बाप
ने कहा, "कार! तीन मकान छोड़कर तेरा कालेज है। और भगवान
ने दो पैर किसलिए दिए हैं?'
उस लड़के न कहा, "एक ऐक्सीलरेटर पर रखने को, एक ब्रेक पर'।
तर्क की कोई प्रतिष्ठज्ञ नहीं है। तर्क का करोगे क्या?
मुल्ला सोच रहा था कि बड़ा तर्क दिया उसने, कि भगवान ने दो पैर किसलिए दिए!
हम अपनी वासना के हित मग ही तर्क खोज लेते हैं। जो तुम मानना चाहते हो, तुम मान लेते हो। हालांकि तुम कहोगे यह कि तर्कों से सिद्ध होता है,
इसलिए मैंने माना। लेकिन अपने भीतर थोड़ा विश्लेषण करो, आत्मनिरिक्षण करो: तुमने माना पहले, तर्क पीछे खोजे।
इसलिए तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।
चोर मान लेता है कि चोरी करने का कारण है। बेईमान मान लेता है बेईमान
होने का कारण है। वह कहता है, इस बेईमान संसार में ईमानदार तो
जी ही नहीं सकता। चोर मान लेता है, सभी चोर हैं। हिंसक मानता
है कि अहिंसा से तो कैसे जिओगे।
तुम जो मान लेना चाहते हो, मानते तुम पहले हो,
तर्क तुम पीछे से जुटाते हो। तुम जरा निरिक्षण करोगे तो तुम्हारी
समझ मग आ जाएगा कि मान्यता पहले उठती है या तर्क पहले उठता है। तर्क तो सिर्फ अपने
का समझाना है कि मैं विचारशील हूं। वासना निर्बुद्धिपूर्ण मालूम होती है। तर्क
वासना को बुद्धिमत्ता का आभास देता है। जिसे ईश्वर को मानता है वह ईश्वर के पक्ष
में तर्क खोज लेता है। जिसे ईश्वर को नहीं मानना है, वह
ईश्वर के विपक्ष में तर्क खोज लेता है। और दोनों का विवाद चलता रहे, विवाद का कभी कोई अंत नहीं आता--आ ही नहीं सकता, क्योंकि
भीतर गहरे में विवाद है ही नहीं, उन्होंने पहले मान ही रखा
है।
तर्क तो केवल ऊपर की सजावट है। उसके बदल देने से कुछ भी न बदलेगा।
इसलिए कोई भी तुमसे कितना तर्क करे, कुछ भी सिद्ध नहीं कर
पाता। तुम्हें तर्क में हरा भी दे, तो भी तुम भीतर यही भाव
लेकर जाते हो कि ठहरो, थोड़ा सोचने का मौका दो, कोई रास्ता खोज लेंगे। तर्क से कभी कोई पराजित हुआ है? तर्क से कभी कोई हार है? तर्क से कभी काई जीता है?
दूसरे का मुंह बंद कर सकते हो, अगर तुम्हारा
तर्क थोड़ा ज्यादा प्रबल है; लेकिन तुमसे प्रबल तार्किक मिल
जाएगा और तुम्हारा मुंह बंद कर देगा।
ब्रह्मसूत्र का यह वचन हजारों साल के अनुभव का सार है: तर्क
प्रतिष्ठानात--तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है।
कठोपनिषद में भी एक वचन है: नेषा तर्केण मतिरापनेया--तर्क से, बुद्धि से "उसकी' उपलब्धि नहीं है। क्योंकि बुद्धि
से तो तुम वही पा सकते हो जो तुमने जाना ही हुआ है। बुद्धि नये का कोई आविष्कार
नहीं करती। बुद्धि तो जुगाली है; जैसे भैंस घास चर लेती है,
फिर बैठकर जुगाली करती रहती है। बुद्धि पहले तो यहां-वहां से इकट्ठा
कर लेती है, फिर उसी को दोहराती रहती है, पुनरुक्ति करती रहती है, साफ करती है; निखारती है, सजाती-संवारती है, रूप-रंग देती है, सुंदर बनातली है, व्यवस्था देती है--लेकिन बुद्धि नये का कभी भी नहीं जानती। बुद्धि मौलिक
नहीं है। बुद्धि से कभी अज्ञात का कोई पता नहीं चलता--और परमात्मा परम अज्ञात है;
वह परम रहस्य है! तुम्हारी बुद्धि के कारण ही तुम उसके पास नहीं
पहुंच पाते हो।
"भक्त को वाद-विवाद नहीं'।
"क्योंकि बाहुल्य का अवकाश है वाद-विवाद में और वह
अनियत है'।
बाहुल्य का अवकाय है...। कितना ही फैलाते चले जाओ, वह फैलता ही चला जाता है। ऐसी कोई सीमा ही नहीं आती जहां तुम कह सको,
तर्क पूर्ण हुआ। ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां सब प्रश्न गिर जाते हों
और आत्यंतिक उत्तर हाथ में आ जाता हो। तुम सिर्फ प्रश्नों को पीछे हटाये चले जाते
हो। कोई कहता है, "जगत किसने बनाया?' तुम कहते हो, "ईश्वर ने बनाया'। वह पूछेगा, "ईश्वर को किसने बनाया?'
"अब क्या करोगे? कहोगे, "और किसी महा-ईश्वर ने बनाया'। वह पूछेगा,
"उसको किसने बनाया?'
बाहुल्य का अवकाश है...।
कोई आदमी चोरी करता है, बेईमान है, दुखी है, परेशान है--तुम कहते हो, पिछले जन्मों का फल भोग रहा है। पिछले जन्मों में क्यों उसने ऐसे कर्म किए
थे? कहो, "और पिछले जन्मों का फल
भोग रहा है। मगर इससे क्या हल होगा? कहीं तो जाकर रुकोगे?
कभी तो इसने शुरुआत की होगी? शुरुआत कैसे हुई
थी? तो इतना बाहुल्य करने की जरूरत क्या थी? बात तो वहीं की वहीं खड़ी रही, प्रश्न वहीं का वहीं
रहा--उत्तर कोई हाथ आया नहीं।
तुम दुखी हो, कोई समझा देता है कि पिछले जन्म के पाप-कर्म के कारण
दुखी हो; तुम संतोष कर लेते हो कि चलो ठीक है। लेकिन तुम
पूछो, "पिछले जन्म में क्यों पाप-कर्म किए?' और उस आदमी के पास सिवाय इसके कोई उत्तर न होगी कि उसके पिछले जन्म में
तुमने कुछ और किया था। खींचते जाओ, कहां पहुंचोगे? कितने ही जन्मों के बाद प्रश्न वहीं का वहीं रहेगा।
तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। बुद्धि से दिए गए उत्तर उत्तर नहीं
हैं, उत्तरों का आभास है। उनसे धोखा होता है कि उत्तर मिल
गया। और जिसको धोखा हो गया कि उत्तर मिल गया, वह जीवन को
व्यर्थ ही गंवाने लगता है, क्योंकि उत्तर की खोज बंद हो जाती
है। उत्तर तो ऐसा चाहिए जिसके मिलते ही सब हल हो जाए, सारी
ग्रंथियां सुलझ जाएं। इसलिए परमात्मा के अतिरिक्त्त कोई उत्तर नहीं है। और
परमात्मा का उत्तर बुद्धि का उत्तर नहीं है। अत्यंत शांत अवस्था में जहां बुद्धि
की सारी तरंगें सो जाती हैं, जहां हृदय प्रेम से लबालब होता
है, जहां हृदय की प्याली प्रेम को बहाती है--उन घड़ियों में,
तर्क से नहीं, भाव से; विचार
से नहीं, प्रार्थना से- सोचने-समझने से नहीं, मतवालेपन से...! जो प्रभु की मधुशाला में पीकर नाचने लगते हैं, केवल उनको...!
लेकिन कठिनाई है, दुनिया तुम्हें पागल कहेगी।
अमरीका का एक बहुत प्रसिद्ध कवि है: एलिन गिन्सबर्ग। कुछ दिन पहले मैं
उसका जीवन-चरित्र पढ़ता था। वह कोई अट्ठाइस साल का था। भावपूर्ण व्यक्ति है, कवि है, महाकवि है। बुद्धि से कम, हृदय और भाव से ज्यादा जिया है। एक सांझ सूरज डूबता था और वह अपनी खिड़की
के पास अपने बिस्तर पर लेटा विश्राम करता था। विलियम ब्लेक की कुछ पंक्तियां उसके
मन में दोहर रही थीं। वह उन्हीं को सोचता-सोचता-सोचता सूरज का डूबना देखता रहा।
सांझ हो गई, पक्षियों के गीत चुप हो गए। अचानक उसे ऐसा आभास
हुआ, उसे कुछ झलक मिली; जैसे परमात्मा
ने उसे छुआ; जैसे कोई हाथ आया खिड़की से अंदर। उसे स्पर्श हुआ,
घबड़ाया! लेकिन इतना सुखद था स्पर्श कि घबड़ाहट को एक तरफ रख दिया और
पड़ा रहा। इतना प्रगाढ़ हुआ स्पर्श कि उसे लगा कि परमात्मा का अनुभठ हुआ है। और बात
इतनी गहरी गई कि उसने उठकर अपनी किताब पर लिखा कि अब चाहे सारी दुनिया कहे कि
ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहूंगा कि ईश्वर है; मैंने उसे जाना है। और मैं इस घड़ी को कभी नहीं भूलूंगा। लाख मेरी बुद्धि
फिर पुराने तर्कजाल उठा ले, इसलिए आज कसम खाता हूं इस क्षण
में कि मैं परम आस्तिकता को उपलब्ध हुआ, ईश्वर है।
लेकिन जैसे ही वह लिख रहा था, वैसे ही तर्क और
संदेह उठने शुरू हो गए। असल में तर्क और संदेह तो पहले ही उठ आए होंगे, तभी तो यह कसम ली; तभी तो यह लिखा, नहीं तो लिखने की जरूरत क्या थी? यह भविष्य का संदेह
झांक गया, मन को कंपा गया। स्पर्श छूट गया उस परम शक्ति का,
लेकिन फिर भी छाया डज्ञेलती रही। लिखकर वह बाहर आया। उसके मन को हुआ,
किसी को कह दूं; शायद इस क्षण कोई दूसरा भी
मुझमें पहचान ले कि कुछ हुआ है। क्योंकि वह जमीन पर चलता हुआ मालूम नहीं हो रहा
था--जैसे इंद्रधनुषों पर उड़ा जा रहा हो, आकाश के मार्ग पर हो,
जमीन की सारी कोशिश खो गई है; जैसे
गुरुत्वाकर्षण न रहा!
वह भागकर अपने पड़ोस में गया। दो लड़कियां अपने दरवाजे पर खड़ी बात कर
रही थीं, उसने कहा, "सुनो, ईश्वर है! मुझे उसका अनुभव हुआ है। खिड़की से उसने हाथ डाला है और मुझे छुआ
है'। उन दोनों ने जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया कि यह कौन
पागल है। वे उसे पहचानती थीं; लेकिन अब तक इतना ही खयाल था
कि कवि है, लेकिन आज बिलकुल गया! उन्होंने घबड़ाहट में दरवाजा
बंद कर लिया। इसने दरवाजों पर दस्तक दी तो उन्होंने खिड़की से कहा, "हट जाओ, नहीं तो पुलिस को खबर कर देंगे'। इसने कहा, "परमात्मा का अनुभव और पुलिस को
खबर!'
अपने एक मित्र को, जो कि मनोचिकित्सक था, इसने फोन किया, कि वह तो शायद समझ सकेगा, मन के संबंध में इतना जानता है। उसने फोन किया कि मुझे परमात्मा का अनुभव
हुआ है। अब थोड़ा डरा हुआ था, क्योंकि लड़कियों ने जो व्यवहार
किया था...। थोड़ा डरते से उसने कहा कि मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ है; और तो शायद कोई समझ न सके, तुम समझोगे। उसने कहा,
"तुम सीधे भागे यहां चले आओ, तुम्हें
इलाज की जरूरत है'।
तब संदेह और भी बढ़ गया। उसने सोचा कि कुछ गलती हो गई। अपने कागज पर
देखा, अभी घटना इतने करीब थी; कुछ ही
क्षण बीते थे, अभी भी रोआं-रोआं उसका पुलकित था--जैसे नारद
कहते हैं, "रोमांच हो आता है भक्त को, आंखें गदगद हो जाती हैं, आंसू झरने लगते हैं।'
अभी सब गीला था, अभी सब ताजा था। अभी-अभी तो
हुई भी घटना। अभी देर भी न हुई थी। लेकिन संदेह पकड़ने लगे--सोचा कि बेहतर है कि
मैं चला ही जाऊं, कौन जाने कोई वहम हुआ, किसी भ्रम में पड़, मन का कोई प्रक्षेपण था या कि मैं
पागल हो गया, आत्मसम्मोहित हो गया! कहीं विलयम ब्लेक की
कविता को देहराने के कारण ही तो यह सब घटना नहीं हो गई!
वह गया मित्र के घर। मित्र ने उसे लिटाया, इन्जैक्शन दिए। आठ महीने उसको अस्मताल में रखा गया--पागल की तरह! यह संसार,
जिनको परमात्मा का अनुभव हो, उसके साथ पागल की
तरह व्यवहार करता है। उसमें भी संसार का कोई कसूर नहीं। वह आठ महीने के बाद निकल
सका पागलखाने से, सिर्फ यह भरोसा दिलाकर कि यह बात गलत थी।
उसने लिखा है कि मैं जब भी जानता था कि बात एकदम गलत नहीं थी; लेकिन अब परमात्मा के लिए जिंदगीभर पागल बने रहते का तो कोई अर्थ नहीं है।
जब मैंने सब तरह के प्रमाण दे दिए कि मैं ठीक अपने तर्क में, बुद्धि में वापस लौट आया हूं, सामान्य हो गया हूं,
बीमार नहीं हूं अब, रुग्ण नहीं हूं--तब
उन्होंने मुझे छोड़ा।
एक महान अनुभव चूक गया। यह आदमी भारत में हुआ होता, परमहंस हो जाता। उसकी कविताओं में अभी भी कभी-कभी झलक है। लेकिन समाज की
अपनी स्वीकृति की सीमाएं हैं। समाज के ढांचे से इंचभर यहां-वहां तुम हुए कि अड़चन
खड़ी होती है।
अगर तुम्हें कोई प्रतीति भी हो तो उसे छिपाना; जैसे कोई हीरा मिल जाए, तो कबीर ने कहा
है--"गांठ गठियायो', जल्दी से गांठ लगा लेना, किसी को बताना मत, नहीं तो लोग कहेंगे,
"दिमाग खराब हो गया!' उसकी किसी को
कानों-कान खबर मत होने देना। लोग हृदय के विपरीत हैं। लोग प्रार्थना के विपरीत
हैं। तुम चकित होओगे कि वे भी जो प्रार्थना करते हैं, प्रार्थना
के विपरीत हैं; वे भी प्रार्थना करते हैं, जहां तक बुद्धि की सीमा के भीतर चलता है--पूजा-पाठ करते हैं, मंदिन जाते हैं, लेकिन कभी भी हिसाब-किताब की दुनिया
के आगे नहीं बढ़ते। उनका मंदिर उनकी दुकान की सीमा के भीतर है। और उनका प्रेम उनकी
तर्क की बागुड़ से घिरा है। और उनकी पूजा औपचारिक है। जाना चाहिए, इसलिए जाते हैं मंदिर। पूजा करनी चाहिए, इसलिए पूजा
करते हैं। क्योंकि समाज इन बातों को मान्यता देता है; हिंदू
को, मुसलमान को, जैन को बरदाश्त है,
धार्मिक आदमी को बरदाश्त नहीं करता।
ये सूत्र बड़े क्रांतिकारी सूत्र हैं। हिम्मत हो, तो ही इस तरफ बढ़ना; नहीं तो भूल जाना।
"वाद-विवाद में बाहुल्य का अवकाश है और वह अनियत
है'।
नारद कहते हैं, व्यर्थ का फैलाव करने से सार क्या! और फिर तर्क कहीं
भी पहंचाता नहीं, उसकी कोई नियति नहीं है, उसका कोई निष्कर्ष नहीं है, वह निष्कर्षहीन व्यर्थ
की विडम्बना है। करते जाओ, करते जाओ, एक
तर्क से दूसरा निकलता है, दूसरे तर्क से तीसरा निकलता है;
ऐसा कभी नहीं आता, ऐसा क्षण कभी नहीं आता,
जहां निष्पत्ति आती हो--और जिससे निष्पत्ति न आती हो, उसमें जीवन को मत गंवाना, क्योंकि जीवन निष्पत्ति
चाहता है। जीवन किसी महत्वपूर्ण नियति को पूरा करना चाहता है। जीवन खीलना चाहता
है।
नहीं हृदय में राग, भला तब
वीणा क्या बोलेगी?
अगर मूल निर्गंध, फूल में
सुरभि नहीं डोलेगी।
मूल की चिंता करना, तो फूल में गंध आएगी। और हृदय
में राग को जगाना, तो जीवन की वीणा तरंगित होगी। लेकिन मूल
और हृदय का विचार करना।
"प्रेमाभक्ति की प्राप्ति के लिए भक्त्तिशास्त्र
का मनन करना चाहिए और ऐसे भी कर्म करने चाहिए जिनसे भक्त्ति की वृद्धि हो'।
भक्त्तिशास्त्र का अध्ययन नहीं हो सकता।
तीन शब्द हैं हमारे पास: चिंतन, मनन, निदिध्यासन। चिंतन तो विचार है। मनन ध्यान है। निदिध्यासन समाधि है। चिंतन,
अगर ठीक मार्ग से चले तो मनन पर पहुंच जाता है; अगर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगे तो फिर मनन तक नहीं पहुंचता। तर्क में
जिसका चिंतन उलझ गया, वह मनन तक नहीं पहुंच पाता। जो इतना
चिंतनशील है कितर्क की व्यर्थता को पहचान लेता है, उसका
चिंतन, उसकी चिंतन-ऊर्जा मनन बनने लगती है।
मनन सोच-विचार नहीं है--मनन भावना है। जैसे तुम एक फूल को देख रहे हो, तो तुम सोचते हो: गुलाब है कि जूही है कि चम्पा है, कि
लाल है कि पिला है कि सफेद है, कि सुगंधित है कि सुगंधित
नहीं है, देशी है विदेशी है--अगर इस तरह की बातें तुम सोच
रहे हो तो चिंतन कर रहे हो गुलाब के संबंध में; पहले जो
गुलाब देखे थे, उनसे तुलना कर रहे हो, "उनसे सुंदर है, कम सुंदर है?' तो
तुम चिंतन में लगे हो। अगर तुम सिर्फ गुलाब को देख रहे हो--भावानिष्ठ, सोच नहीं रहे, न अतीत के गुलाबों से तुलना कर रहे हो
न भविष्य के गुलाबों से, न कोई व्याख्या-विश्लेषण, नामकरण कर रहे हो--तुम सिर्फ देख रहे हो: तुम सिर्फ आंखों से पी रहे हो;
तुम सिर्फ गुलाब को अपने हृदय में उतरने दे रहे हो; तुम गुलाब में उतर रहे हो, गुलाब तुममें उतर रहा है;
तुम्हारे और गुलाब के बीच एक आंतरिक लेन-देन शुरू हुआ है; गुलाब आपना सौंदर्य तुममें उंडेलेगा, सुगंध तुम में
उंडेलेगा, और तुम्हारा जीवन-स्पर्श अपने में लेगा; तुम दोनों तरंगायित हो एक ही तरंग में, एक ही
वेव-लेंग्थ पर--तो मनन। अब न यहां कोई चिंतन है, न कोई विचार
उठता है; तुम निपट भोग रहे हो!
विचार की एक भी परत बीच में नहीं है। तुम पूरे खुले हो। तुमने हृदय के
सारे कपाट खोल दिए हैं। तुम्हारा स्वागत परिपूर्ण है। तुममें पुलक उठ आएगा।
तुम्हारा रोआं-रोआं रोमांचित हो जाएगा। गुलाब से तुम्हें परमात्मा का हाथ फैला हुआ
अनुभव होने लगेगा। गुलाब तुम्हारे हृदय को छू जाएगा; उसकी गुदगुदी तुमसें
प्रविष्ट हो जाएगी। तुम दो न रह जाओगे। एक क्षण ऐसा आएगा मनन का जहां तुम यह न कह
सकोगे कि कौन गुलाब है, कौन मैं हूं; जहां
दोनों की सीमाएं एक-दूसरे पर छा जाएंगी; जहां दोनों एक हो
जाएंगे, करीब आ जाएंगे--तो मनन।
नारद कहते हैं, भक्त्तिशास्त्र का मनन...। चिंतन नहीं हो सकता। चिंतन
करोगे तो बाहुल्य हो जाएगा, विवाद हो जाएगा--मनन...।
भक्तों के वचन सुनना, सोचना मत उन पर--गुनना। जब भक्त
भगवान का नाम लें, त?ो तुम यह मत सोचना
कि यही भगवान का नाम है या नहीं। कोई कहे "अल्लाह' , कोई
कहे "राम', कोई कहे "कृष्ण'--तुम नाम पर मत जाना। तुम जो जब कोई अल्लाह कहे, तो
उसकी आंखों में देखना: झलक आती है? जब कोई अल्लाह कहे,
तो उसमें उठती तरंगों को अनुभव करता। जब कोई अल्लाह कहे तो देखना,
कैसे उसने अपने को उंडेल दिया! जब कोई राम कहे तब भी वही देखना--तब
तुम पाओगे कि राम कहो, अल्लाह को, रहीम
कहो, रहमान कहो--कोई अंतर नहीं पड़ता। भक्त की पुलक एक ही है;
रोमांचित हो जाता है...।
इसलिए तो तुमसे बार-बार कहता हूं: आओ जिक्रे-यार करें। उस परमात्मा का
थोड़ा स्मरण...। लेकिन अगर तुम नाम पर चले गए, तो तुम चिंतन में चले
गए, मनन न हुआ। जिक्र सोच-विचार नहीं है, चिंतन नहीं है। जिक्र तो एक डुबकी है--डूब गए उसमें, मगन हो गए! जिक्र तो उसकी शराब का पी लेना है।
भक्तों के वचन सुनकर तुम चिंतन मत करता कि ये क्या कह रहे हैं। अगर
तुम चिंतन में पड़े तो तुम चूक गए। ज्ञानियों के वचन सुनो तो चिंतन करना, क्योंकि वहां चिंतन के सिवाय और कुछ भी नहीं है। भक्तों के वचन सुनो तो
उनका हृदय देखना, उनका आनंद देखना। तुम, वे क्या कहते हैं, यह फिक्र ही छोड़ देना। तुम तो
सीधे-सीधे उनको देखना।
देख रहे हो जो कुछ उसमें भी सबका मत विश्वास करो,
सुनी हुई बातें तो केवल गुंज हवा की होती हैं।
जो देख रहे हो तुम, वह भी सब विश्वास-योग्य नहीं है,
क्योंकि बहुत कुछ तो तुम्हारी कल्पना का जाल है जो तुम देख रहे हो।
फिर "सुनी हुई बातें तो केवल गूंज हवा की होती हैं,' तो
जो सुन रहे हो उस पर तो बहुत फिक्र करना ही मत। जो अनुभव में आए, बस...।
भक्तों के पास बैठकर उनके साथ डोलना। पागलों के साथ बैठकर उनके पागलपन
में सहयोगी होना, सहभोगी होना। मतवालों के साथ मतवाले हो जाना। नाचते
हों भक्त तो नाचना, गाते हों तो गाना। अपना फासला मिटाना।
अपनी सोच-समझ को उतारकर रख देना, बोझ की तरह, एक किनारे। थोड़ी देर को निर्बोझ हो जाना। तो तुम्हें पता चलेगा, भक्त्तिशास्त्र क्या है।
भक्त्तिशास्त्र शास्त्रों में नहीं लिखा है--भक्तों के हृदय में लिखा
है। भक्त्तिशास्त्र शब्द नहीं, सिद्धांत नहीं--एक जीवंत सत्य
है। जहां तुम भक्त को पा लो, वहीं उसे पढ़ लेना, और कहीं पढ़ने का उपाय नहीं।
"भक्त्तिशास्त्र का मनन, और
ऐसे कर्म भी जिनसे भक्ति की वृद्धि हो'; क्योंकि वस्तुतः तुम
जो करते हो, वही तुम होने लगेते हो। इस तत्व को थोड़ा ठीक से
समझ लो।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं,
"नाचने से क्या होगा?' मैं कहता हूं,
"होने की बात पीछे विचार कर लेंगे--तुम नाचो तो!' वे कहते हैं, "लेकिन पहले पक्का न हो जाए कि
नाचने से क्या होगा...!' तो मैं उनसे कहता हूं,
"तुम पैदा हुए थे, सांस लेने से पहले
तुमने पूछा था--सांस लेने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो
जाए? बोलने के पहले तुमने पूछा था--बोलने से क्या होगा,
जब तक पक्का न हो जाए? चलने के पहले पूछा
था--चलने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? फिर किसी के प्रेम में पड़ गए थे, पूछा था--प्रेम
करने से क्या होगा, जब तक पक्का न हो जाए? सारे जीवन तुम करत रहे, कर-करके जानते रहे, परमात्मा के साथ ही यह ज्यादती क्यों करते हो कि पहले पूछना चाहते हो?'
करो तो ही कोई जानता है। किए बिना कौन जानता है? जानना अस्तित्वगत है। रोओगे तो जानोगे कि क्या होता है। दूसरे को रोते
देखकर भी न जानोगे, क्योंकि आंख में आंसू बहना, तुम क्या पहचानोगे हृदय में क्या बहा? आंख से बहते
आंसुओं को देखकर प्राणों में कौन गूंज उठी, कैसे जानोगे?
आंसू ही दिखाई पड़ेंगे। आंसुओं का कोई परीक्षण नहीं किया जा सकता।
तुम आंसू इकट्ठे कर लो आंसू की दिखाई पड़ेंगे। आंसुओं का कोई परीक्षण नहीं किया जा
सकता। तुम आंसू इकट्ठे कर लो भक्त के, किसी दुखी के, और दोनों के आंसुओं को ले जाओ प्रयोगशाला में, वैज्ञानिक
कोई फर्क न बता सकेंगे कि कौन से आंसू भक्त के हैं और कौन से दुखी के हैं, क्योंकि आंसू तो बस आंसू हैं,
बस एक से हैं। लेकिन भक्त अहोभाव से रोता है। भक्त के रुदन में दुख
नहीं है, परम आनंद है।
किसी का प्रियजन चल बसा है, वह भी रोता है,
दुख से विषाक्त हैं उसके आंसू। लेकिन इस आनंद और दुख को आंसुओं में
न पकड़ सकोगे, क्योंकि आनंद और दुख तो भीतर की बात है।
आंसू...आंसू कुछ भी नहीं कह सकते। तुम ही रोओगे जब आनंद से तभी तभी तुम जानोगे। ये
अनुभव वैयक्तिक हैं। ये दूसरे से पूछकर भी नहीं समझे जा सकते।
प्रेम को बिना जाने कौन जान पाया प्रेम क्या है!
"भक्तिशास्त्र का मनन करना चाहिए और ऐसे कर्म भी
करने चाहिए जिनसे भक्त्ति की वृद्धि हो'।
किन कर्मों से भक्ति की वृद्धि होती है? भक्त होने का क्य
कर्म है?
जीवन को देखने का एक ढंग है। साधारणतः तुम जीवन को बड़े अविश्वास से
देखते हो। जीवन को देखने का ढंग साधारणतः संदेह से भरा है। और जहां संदेह खड़ा हो, वहां तुम जो भी करोगे वह कृत्य भक्त का न हो सकेगा। भक्त का कृत्य उठता है
श्रद्धा से। वही कृत्य तुम दो तरह से कर सकते हो: संदेह से भरकर भी कर सकते हो,
श्रद्धा से भरकर भी कर सकते हो। श्रद्धा से भरकर किया कि कृत्य भक्त
का हो गया। संदेह से भरकर किया कि साधारण कृत्य हो गया।
तुमने किसी को दो पैसे भीख में दे दिए, ये तुम ऐसे भी दे
सकते हो कि टालो; अब आदमी सिर पर खड़ा है, दो पैसा देकर निपटा लेना अच्छा है। तब भी तुमने दो पैसे दिए--मगर व्यर्थ!
तुम कुछ भी न देते और इस आदमी पर श्रद्धा रखते, इस आदमी में
आदमी देखते कम-से-कम, न देखते परमात्मा, तो कृत्य भक्त्त का हो जाता।
तुम क्या करते हो, उसका गुणधर्म तुम पर निर्भर है।
देखो लोगों को, तुम्हारी आंख अगर श्रद्धा से भरकर देखती है,
प्रेम से भरकर देखती है, सहानुभूति से भरकर
देखती है, तो कृत्य भक्त का हो गया। ऐसे ही धीरे-धीरे यही
आंख तैयार होती जाएगी और परमात्मा को खोज लेगी। परमात्मा छिपा नहीं है--सिर्फ
तुम्हारी आंख तैयार नहीं है।
"सुख-दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए, ऐसे काल की बाट
देखते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिए'।
"सुख-दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए...'।
भक्त त्याग कर नहीं सकता--हो जाए...! क्योंकि भक्त का पूरा आधार यही
है कि परमात्मा करेगा, मेरे किए क्या होगा! वह प्रार्थना करता है। यही साधक
है भक्त का फर्क है। साधक चेष्टा करता है त्याग की, इच्छा
छोड़ दूं। लेकिन तुम जरा समझो, जब तुम इच्छा छोड़ने की चेष्टा
करते हो, तब तुमने एक नयी इच्छा को जन्म दे दिया: इच्छा
छोड़ने की इच्छा। अब तुम फंसे जाल में। जब तुम वस्तुओं को छोड़ने का आग्रह करते हो,
तब तुम्हें त्याग को पकड़ना पड़ता है। छोड़ने के लिए पकड़ना पड़ता है--और
पकड़ ही छोड़नी थी। संसार छोड़ना चाहते हो तो तुम्हें स्वर्ग की कल्पना करनी पड़ती है,
क्योंकि बिना तुम कुछ पकड़े छोड़ नहीं सकते।
फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरोत्तसनीम की
और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को।
वह जो त्यागी है उसे तो स्वर्ग की अप्सराओं की आकांक्षा है, सुख के भोग, स्वर्ग के कल्पवृक्षों की।
"फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरोत्तसनीम की।'
"और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को'
और भक्त्त तो कहता है, "तू दिख
गया--स्वर्ग हो गया! तेरा दर्शन काफी है'। भक्त तो कहता है,
"हमारी आंख तुझे देखने में समर्थ हो गई--बस, बस हो गया! तुझे पालिया तो सब पा लिया'।
साधक चेष्टा करता है, भक्त प्रार्थना करता है। भक्त
कहता है, "तू कुछ ऐसा कर कि इच्छा छूट जाए; हम तो छोड़ेंगे भी तो नयी इच्छा का बीजारोपण कर लेंगे'। भक्त्त कहता है, "कुछ ऐसा कर कि व्यर्थ से
छुटकारा हो जाए; क्योंकि हम तो ऐसे हैं कि हम सार्थक को भी
पकड़ेंगे तो व्यर्थ हो जाएगा। हम सोना भी छूते हैं, मिट्टी हो
जाता है। और सुना है कि तू मिट्टी भी छू देता है तो सोना हो जाता है। तो तू ही कुछ
कर'।
प्रार्थना का राज यही है कि भक्त कहता है, "हमारे किए कुछ भी न होगा। कितने जन्मों-जन्मों से तो हम कहते रहे हैं! सब
किया-कराया व्यर्थ चला जाता है। आखिर में हम दोहरा-दोहराकर वही कर लेते हैं जो हम
नहीं करना चाहते थे। दूसरे पर क्रोध करना रोकते हैं तो अपने पर क्रोध होने लगता है,
मगर क्रोध जारी रहता है। कामवासना को त्यागते हैं तो कामवासना से
चित्त भर जाता है, छुटकारा नहीं होता।
एक कवि मुझे अपना संस्मरण सुना रहे थे। दिल्ली जाते थे, राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में भाग
लेते। जिस कम्पार्टमेंट में थे, ग्वालियर से एक महिला और
उसका बच्चा सवार हुआ। कवि बच्चे के साथ खेलते रहे, फिर सांझ
ढल गई, फिर अंधेरा होने लगा, फिर रात
होने लगी। महिला सोने की तैयार हुई, लेकिन कुछ डरी और
झिझकी-सी थी। कवि ने पूछा, "क्या बात है? कुछ परेशानी है?' उसने कहा, "नहीं कुछ परेशानी नहीं है। आप कहां जा रहे हैं?' तो
कवि ने कहा, "मैं दिल्ली जा रहा हूं राष्ट्रीय कवि
सम्मेलन में भाग लेने के लिए।' उस महिला ने कहा,
"तब तो कोई फिक्र नहीं। कवि हैं, फिर तो
कोई खतरा नहीं'। वह लेट गई, सो गई।
वे कवि मुझसे कहने लगे, "मुझे बड़ा धक्का
पहुंचा कि उस स्त्री ने कहा, कवि हैं तब तो फिर कोई खतरा
नहीं'।
तो मैंने कहा कि तुम स्त्री की बात को कुछ गलत समझे--साधु-महात्मा
होता तो खतरा था। कवि हो, तो जिंदगी को भोग ही रहे हो, स्त्री
कोई त्याज्य वस्तु नहीं है। और स्त्री का अनुभव हो जाए तो मुक्त्ति हो जाती है। धन
का अनुभव हो जाए तो धन पर पकड़ खो जाती है। स्त्री ने ठीक ही कहा; बड़ी समझदार रही होगी। तुम समझे नहीं उसकी बात को। उसने तुमसे कुछ नहीं कहा,
साधु-महात्माओं के खिलाफ कुछ कह दिया।
जो दबाओगे वह भीतर घाव बन जाता है। तुम खुद ही अपने भीतर खोज ले सकते
हो: जो भी तुमने दबाया है वही तुम्हारी छाया बन जाती है। पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव
जुंग ने जो कुछ महत्वपूर्ण खोजें कीं, उनमें एक खोज है: दी
शैडो--छाया। वे कहते हैं, हर आदमी की एक छाया है। सूरज की
धूप में जो छाया बनती है वही नहीं। हर आदमी की एक छाया है--उसने व्यक्त्तित्व के
जिन अंगों को अंगीकार नहीं किया, वे छाया की तरह उसका पीछा
करते हैं। उसने जिन-जिन व्यक्त्तित्व की बातों को हटा दिया है अपने से दूर,
दबा दिया है अपने से दूर, अचेतन में सरका दिया
है, तलघर में डाल दिया है--वे उसकी छायाएं हैं, वे सदा उसका पीछा करती हैं।
अगर तुमने क्रोध को दबा दिया, तो क्रोध सदा
तुम्हारे पीछे खड़ा है प्रतीक्षा की राह में, कभी भी, किसी भी क्षण प्रगट हो जाएगा मौका देखकर। अगर काम को दबा दिया तो काम
तुम्हारी छाया बन जाएगा। जिसने इस तरह से अपने व्यक्त्तित्व को तोड़ लिया है,
खंड-खंड कर लिया है, वह उस अखंड को कभी भी न
जान पाएगा। अखंड को जानने के लिए अखंड होना जरूरी है। छाया को आत्मसात करना होगा।
वह जो तुमने अपने से अलग कर दिया है वह तुम्हारा है, उसे फिर
से अपने में लीन करना होगा। उसको जब तक तुम अगर रखोगे तब तक तुम झूठे रहोगे। हर
बच्चे को करना पड़ता है अलग, मजबूरी है। मगर सदा अलग रखने की
कोई मजबूरी नहीं है; जब समझ आ जाए तो उसे आत्मलीन करने की
जरूरत है।
छोटा बच्चा है, मां-बाप की अपेक्षाएं हैं। वह कुछ करता है; मां-बाप चाहते हैं, कुछ और करे। वह वक्त्त-बेवक्त्त
हंस देता है; मां-बाप कहते हैं, चुप
रहो मेहमान घर में हैं। तो बच्चे को अपने को दबाना शुरू करना पड़ता है। हर बात हर
जगह नहीं कही जा सकती, तो बच्चे को अपने भीतर खंड करने पड़ते
हैं। बच्चे को एक बात समझ में आ जाती है: कुछ त्याज्य है जो स्वीकार-योग्य नहीं है,
और कुछ स्वीकार-योग्य है जो न भी आता हो तो प्रदर्शन करना जरूरी है;
जहां क्रोध आता हो वहां शांति रखनी जरूरी है। ऐसी बातें बच्चे को
धीरे-धीरे अपने ही अंगों को काटने के लिए मजबूर कर देती हैं, बच्चा झूठा हो जाता है, अप्रामाणिक हो जाता है।
यह तुम्हारा जो कटा हुआ हिस्सा है, यह तुम्हारा यथार्थ
है, इसको लीन करना जरूरी है। साधक इसको काटता चला जाता है,
भक्त इसको लीन कर लेता है। भक्त कहता है, "मेरे किए क्या होगा! मैं तो यह खड़ा हूं--जैसा भी हूं, पापी, बुरा-भला--तुम स्वीकार करो! तुमने ही बनाया
ऐसा, तुम ही मार्ग दो। तुमने ही गिराया, तुम ही उठाओ'।
भक्त का यह भरोसा है कि जिसने जीवन दिया, क्या वह इतना-सा न कर सकेगा, कि गिरे को उठा ले;
जिसने हड्डीयों में प्राण फूंके, जिसने मिट्टी
को जीवंत किया, क्या उससे इतना भी न हो सकेगा कि मैं जैसा
हूं मुझे ऐसा ही स्वीकार कर ले। फिर मिट्टी भी उसी की है, वासना
भी उसी की है, कामना, क्रोध भी उसी का
है! और मुझसे यह अपेक्षा रखनी कि मैं कुछ कर पाऊंगा, असंभव
है!
क्योंकि क्रोधी आदमी क्रोध पर विजय पाने के लिए भी क्रोध का ही उपयोग
करता है। हिंसक हिंसा से मुक्त होने के लिए भी हिंसा का ही उपयोग करेगा, इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
अगर तुम्हें अपने ही हाथों से अपने जूते के बंध पकड़कर खुद को उठाना है
तो कैसे उठ पाओगे? थोड़ा उछल-कूद भला कर लो! जिनको तुम साधु-महात्मा कहते
हो, बस थोड़ी उछल-कूद है! बार-बार जमीन पर पड़ जाते हैं! अपने
ही हाथों से!
भक्त कहता है, "तेरे हाथों के द्वारा उठना हो सकता है!'
इसलिए कहता है: "सुख-दुख, इच्छा, लाभ आदि का पूर्ण त्याग हो जाए, ऐसे काल की बाट
देखते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिए'।
आधा क्षण भी बिना प्रार्थना के न जाए। जीवन छोटा है, करने को बहुत है। और एक क्षण बाद हम होंगे या नहीं होंगे, इसका भी कुछ पता नहीं। तो आधा क्षण भी व्यर्थ न जाए, प्रार्थना-शून्य न जाए। तुम उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, लेकिन
प्रार्थना अहर्निश तुम्हारे भीतर डोलती रहे।
आज व्योम के मरुमानस में
इंद्रधनुष उग आया
आत्मचेतना बिना प्राण का
रस निःशेष न होता
शेष मानते जिसे, वही छित
अंतरतम में सोता
यह मन्मथ के कुसुमायुद्ध की
बिंबित सुंदर छाया
ज्योतितिमिर की संधिमात्र ही
नामरूप का कारण
"केवल' ही कर सकता अपना
बंधन सहज निवारण
भुने बीज के उस में अंकुर
कब किसने उकसाया?
कब विराग का बांध मुखौटा
विकल राग छिप पाया!
छिपाने की चेष्टा मत करना; अन्यथा विराग का
मुखौटा बंध जाएगा, राग भीतर रहेगा। केवल वही--केवल परमात्मा
ही--मुक्ति ला सकता है। जहां से जीवन का जन्म है, वहीं से
मुक्ति का भी। जहां से वासना का जन्म है, वहीं से ब्रह्मचर्य
का भी। यह भक्त की आस्था है कि भक्त कहता है, परमात्मा ही
कुछ करेगा; मैं प्रार्थना कर सकता हूं।
लेकिन अगर तुम्हारी प्रार्थना पूर्ण है तो पूर्ण होती ही है। तुमने
कभी पुकारा ही नहीं। तुमने कभी हृदय भरकर मांगा ही नहीं। कभी तुमने अपने-आप को
पूरा उसके हाथ में सौंपा ही नहीं। तुमने कभी हृदयपूर्वक उससे कहा ही नहीं कि आओ, मुझे बदलो! मैं बदलने को तैयार हूं, लेकिन जानता
नहीं, कैसे बदलूं! मैं बदलने को तैयार हूं, लेकिन बदलाहट मेरे बस के बाहर है! तुम्हीं आओ! तुम्हीं पाहुने बनो मेरे
हृदय में! तुम्हीं मुझे बदलो!
भक्त का मार्ग सुगम है--बस, यह पहला कदम बड़ा कठिन
है। तुम्हारे मन में ऐसा बना ही रहता है कि हम अपने सूत्रधार बने रहें। इसलिए साधक
का अंहकार मरता ही नहीं; नये-नये रूप धरता है। कल संसारी था,
अब संन्यासी हो जाता है। कल तक भोगी था, अब
त्यागी हो जाता है, लेकिन नये रूप रख लेता है, नये मुखौटे पहन लेता है। लेकिन मैं कुछ करके रहूंगा, यह बात मिटती ही नहीं। भक्त कहता है, "मैं'
झूठा भ्रम है। मैं हूं कहां? तू ही है। तो तू
ही कर!
"अहिंसा, सत्य, सौच, दया, आस्तिकता आदी आचरणीय
सदाचारों का भली-भांति पालन करना चाहिए'।
बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है इसमें: आस्तिकता। महावीर ने नहीं गिनाया, बुद्ध ने नहीं गिनाया, पतंजलि ने भी छोड़ दिया है।
अहिंसा सभी ने गिनाई है; दूसरे को दुख न देना, समझ में आता है। सत्य सभी ने गिनाया है; जो है,
उससे विपरीत न कहना; जो है, उससे विपरीत न करना; जो है, उसको
अन्यथा न बताना। शौच: आंतरिक पवित्रता--शरीर की, बाहर की,
मन की, सब तरह की--बिलकुल ठीक है। दया: दूसरे
के लिए जितना सुख हमसे बन सके, उतना देने की चेष्टा।
लेकिन आस्तिकता! इसको आचरण कहा नारद ने! यह बड़ी अनूठी बात है। और मेरे
देखे बिना आस्तिकता के बाकी कोई भी हो नहीं सकता; अहिंसा, सत्य, शौच, दया, बिना आस्तिकता के हो नहीं सकते।
आस्तिकता का क्या अर्थ है? आस्तिकता का अर्थ है:
परमात्मा से "हां' कहना, कि हां,
मैं राजी हूं; परमात्मा को "नहीं'
न कहना। वहजो कराए सो करना, वह जो न कराए सो न
करना। उससे ही पूछकर चलना। अपनी बागडोर उसी के हाथ में दे देना। लगाम उसी को सौंप
देना। फिर वह गड्डों में गिराए तो गङ्ढे स्वर्ग हैं। फिर वह नरक ले जाए तो नरक भी
अहोभाग्य है। सब कुछ उसके हाथ में छोड़ देने का नाम आस्तिकता ह।
आस्तिकता का इतना मतलब नहीं होता कि तुम कहते हो कि हां, ईश्वर को हम मानते हैं। अगर कोई आदमी तुमसे न कहे कि ईश्वर को मानता है या
नहीं मानता है, क्या तुम उसके आचरण को देखकर पता लगा पाओगे
कि यह नास्तिक है या आस्तिक है? कोई पता न लगा पाओगे।
नास्तिक भी वही जीवन जीते हैं, आस्तिक भी वही जीवन जीते हैं,
फर्क तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं; सिर्फ लफ्फाजी
है, शब्दों का फर्क है। अगर तुम शब्दों को हटा दो और लेबिल न
लगे हों कि यह आदमी नास्तिक है कि आस्तिक, तुम कोई फर्क न कर
पाओगे। तुम्हें आस्तिकों में परम सुंदर व्यक्तित्वों के लोग मिल जाएंगे। सदाचारी
नास्तिक मिल जाएंगे, सदाचारी आस्तिक मिल जाएंगे। इनसे कुछ भी
तय नहीं हेता। आस्तिकता का अर्थ है: नदी में तैरना नहीं; बहना;
परमात्मा के खिलाफ न लड़ना, उसके हाथ में अपना
हाथ दे देना; कहना, "जहां तू ले
चले, ले चल; मुझे भरोसा है; मुझे आस्था है'।
आस्था बड़ी क्रांति है, महाक्रांति है। इससे
बड़ी कोई छलांग नहीं। इससे बड़ा कोई रूपांतरण नहीं। क्योंकि यह कह देना कि मैं अलग
नहीं हूं इस अस्तित्व से, एक हूं; इससे
भिन्न मेरी न कोई नियति है, न इससे भिन्न कहीं जाने का मेरा
मन है; तू जो कराए...।
तुम जरा चौबीस घंटे भी आस्तिक होकर देखो। एक बार तय करो कि चौबीस घंटे
में वह जो कराएगा, करेंगे, तुम निर्भार हो
जाओ--चौबीस घंटे में ही तुम पाओगे कि तुम किसी और जगत का स्वादले आए; फिर तुम दुबारा वही न हो सकोगे जो तुम कल तक थे। क्योंकि तुम्हारी चिंताएं,
तुम्हारी बेचैनियां, तुम्हारी अशांतियां,
"मैं कुछ करके रहूंगा', इससे पैदा होती
है। फिर नहीं कर पाते तो विषाद घेरता है, संताप घेरता है,
हार पकड़ लेती है। जैसे ही तुमने कहा, "जो
तू करेगा, मेरा कोई चुनाव नहीं अब; तू
अंगीकार कर ले और मुझे चला; मैं यह भी न कहूंगा कि तूने
भटकाया, क्योंकि तू भटकाये तो इसका अर्थ हुआ कि भटकने में ही
मेरी मंजिल होगी; मैं यह भी न कहूंगा कि अभी तक कुछ भी नहीं
हुआ, क्योंकि नहीं हुआ तो शायद इसी ढंग से होने का रास्ता
गुजरता होगा!'
भक्त का अर्थ है: अनन्य श्रद्धा। उसकी श्रद्धा को कहीं खंडित नहीं
किया जा सकता। कोई घड़भ, कोई घटना उसकी श्रद्धा को डांवांडोल नहीं करती।
आस्तिकता परम गुण है। नास्तिकता यानि "नहीं' कहने की आकांक्षा। तुम सभी के मन में "नहीं' पहले
उठता है। "नहीं' कहना हमेशा आसान है, क्योंकि अहंकार को अकड़ देता है। "नहीं' कहा
नहीं कि भीतर लगता है कि हम भी कुछ हैं। "हां' कहा कि
भीतर लगता है: गए! "हां' में आदमी बह जाता है;
"नहीं' में अकड़ जाता है। तो जितनी
"नहीं' तुम अपने आसपास घेरते जाओगे उतना अहंकार मजबूत
होता चला जाता है।
आस्तिकता यानी "हां': समग्र भाव से
"हां'।
"सब समय
सर्वभाव से निश्चिंत होकर भगवान का ही भजन करना चाहिए'।
महफिल में शमा, चांद फलक पर, चमन में फूल
तसवीरे रूए अनवरे जानां कहां नहीं?
राम-राम जपने की बात नहीं है। यह नहीं कह रहे हैं नारद कि तुम
बैठते-उठते राम-राम जपते रहो। ऐसे तो कई मूढ़ जप रहे हैं। उससे उन्हें कोई लाभ हुआ, इसका तो पता नहीं, सिर्फ बु( िउनकी जड़ हो गई दिखाई
पड़ती है।
"सब समय सर्वभाव से निश्चिंत होकर भगवान का ही भजन
करना चाहिए'। इसका अर्थ यह है: जहां तुम देखो, सब तरफ घूंघट उघाडकर उसी को देखो, तो ही सर्वकाल में,
सब जगह, उठते-बैठते, सोते,
खाते-पीते भजन हो सकता है। अगर राम-राम, जपोगे
तो भी दो राम के बीच में जगह छूट जाएगी। कितने ही जल्दी रटो "राम-राम,
राम-राम' तो भी सर्वकाल में नहीं हो पाएगा;
दो राम के बीच में जगह छूट ही जाएगी। तुम चाहे एक-दूसरे के ऊपर राम
को चढ़ा दो, जैसे मालगाड़भ का ऐक्सीडेंट हो गया हो, डब्बे एक-दूसरे पर चढ़ गए हों, तो भी सर्वकाल में
सर्वभाव से नहीं हो सकेगा। कभी तो थक जाओगे। और ध्यान रखना, जब
तुम थक जाओगे तो तुम विपरीत करोगे।
धर्म कुछ ऐसी कला है जिसमें थकना नहीं है। अगर थक गए तो विपरीत करना
पड़ेगा क्योंकि थकान मिटाने के लिए करना पड़ता है: दिनभर जागे, थक गए, तो रात सोना पड़ता है। राम-राम, राम-राम जपते रहे, फिर थक गए, परेशान
हो गए, तो फिर व्यर्थ की बातों में अपने मन को उलझाना पड़ता
है।
एक ही उपाय है--
महफिल में शमा, चांद फलक पर, चमन में फूल
तसवीरे रूए अनवरे जानां कहां नहीं?
तुम जहां भी देखो, चाहे फूल हो, चाहे शमा हो, चाहे चांद हो, पशु-पक्षी
हों, मनुष्य हों, पौधे हों, पत्थर हों--तुम जहां नजर डालो, जल्दी से घूंघट उठाकर
उसको देख लेना, आगे बढ़ जाना। धीरे-धीरे तुम्हारी आंखें ही
घूंघट उठाने की कला सीख जाएंगी; तुम्हें घूंघट उठाना भी नहीं
पड़ेगा, आंख पड़ी कि तुम घूंघट के पार देख लोगे। सब जगह उसी की
छवि विराजमान है! तो तुम दूसरों में भी उसी को देखोगे, अपने
में भी उसी को देखोगे। किसी दिन दर्पण के सामने खड़े-खड़े अपनी छवि में भी तुम्हें
उसी की छवि दिखाई पड़ जाएगी। तब फिर सतत हो गया। अब यह करना नहीं है।
ध्यान रखना, जो करना पड़े वह सतत नहीं हो सकता। क्योंकि करने से तो
थकोगे, छुट्टी मांगोगे। अब यह करने जैसा नहीं है; अब तो यह हो रहा है; यह तो अब अपने-आप घट रहा है--तो
भजन!
"वे भगवान कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रगट होते
हैं और भक्तों को अनुभव करा देते हैं।'
इस सूत्र को समझने में भूल हो सकती है। बहुतों ने भूल की है। सीधा
अर्थ तो यह हुआ कि भगवान खुशामद से प्रसन्न हो जाते हैं।
"वे भगवान कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रगट होते
हैं और भक्तों का अनुभव करा देते हैं।' इसका तो अर्थ हुआ कि
बड़े स्तुतिप्रिय हैं, खुशामद की आकांक्षा रखते हैं, कि तुम उनका भजन करो तो वे जल्दी से खुश हो जाते हैं कि देखो, यह भक्त बड़ा शोरगुल मचा रहा है! नहीं, इसका यह अर्थ
नहीं है।
तुम जब कीर्ति करते हो परमात्मा की, तब तुम खुल जाते हो।
"कीर्तित होने पर वे शीघ्र प्रगटजब तुम उनका स्मरण करते हो परम भाव से,
तुम बंद नहीं रह जाते, तुम खुल जाते हो--उस
खुलेपन में दर्शन हो जाता है।
परमात्मा तो वही है जो सदा मौजूद है; तुम किसी भांति पीठ
किए खड़े हो। जब तुम कीर्ति करते हो परमात्मा की, तुम्हारा
मुख उसकी तरफ घूमने लगता है। सूर्यमूखी का फूल देखा है?--सूरज
की तरफ घूमता रहता है। इसलिए तो हम उसको सूर्यमुखी कहत हैं; उसका
मुख सूरज की तरफ तो एक दिशा में है, परमात्मा तो सभी दिशाओं
में है। तुम्हें एक दफा समझ में आ जाए सूत्र, तो जहां तुम
देखते हो उसी को देखना--बस उसकी कीर्ति शुरू हो गई।
कीर्ति का मतलब यह नहीं कि तुम कहो कि हम बहुत पापी हैं और तुम बड़े
पतितवान हो, इस सबसे कोई मतलब नहीं है। ये कहने की बातें नहीं हैं;
कहकर तो खराब हो जाती हैं--ये तो भीतर अनुभव करने की बाते हैं। तुम
अनुभव करना। तुम्हारे जीवन में उसका यशगान गूंजने लगे! फूल को देखो तो तुम्हारे मन
में धन्यवाद उठे: अहो, परमात्मा! चांद को दखो तो धन्यवाद
उठे: अहो! तुम्हारे जीवन में अहोभाव सतत निनादित होने लगे! इतना सौंदर्य चारों तरफ
है और तुमने अहोभाव प्रगट नहीं किया! तुम्हारी आंखों पर कैसे परदे न पड़े होंगे!
रोज सूरज उगता है, तुम नमस्कार में निनाद चल रहा है, तुमने कभी अपने प्राणों में उसके निनाद को प्रवेश न दिया! चारों तरफ
हजार-हजार रूपों में परमात्मा तुम्हें छूने को आतुर है--हवाओं की तरंगों में,
सूरज की किरणों में--तुम बिलकुल जड़ बैठे हो, तुम्हें
पक्षाघात लग गया है?
भक्ति का अर्थ इतना है केवल: थोड़े सजग बनो; थोड़ा तोड़ो यह जड़-पन; थोड़ा उठो, नाचो! वह नाच रहा है, तुम भी नाचो! वह गा रहा है,
तुम भी गाओ! जब तुम्हारा गीत उसके गीत से मिलने लगेगा, जब तुम्हारा नाच उसके पैरों के साथ पड़ने लगेगा, तत्क्षण
तुम पाओगे कि तुममें भी वही नाच रहा है।
यह मत सोचना कि तुम जब अहोभाव से भरते हो तो परमात्मा अहोभाव से नहीं
भरता। तुम उसी का फैलाव हो, उसी का एक हाथ हो। तुम जब आंनदित होते हो, तुम्हारा हाथ जब स्वस्थ होता है, तो तुम्हारा पूरा
प्राण भी आनंदित होता है।
भक्त और भगवान कोई दो बातें नहीं हैं--दो पंख हैं एक ही पक्षी के; दो पैर हैं एक ही व्यक्त्तित्व के।
कुछ तेरा हुस्न भी है सादा ओ मालूम बहुत
कुछ मेरा प्यार भी शामिल तेरी तस्वीर में!
भगवान परम प्यारा है, लेकिन भक्त का--"कुछ मेरा
प्यार भी शामिल तेरी तस्वीर में'! भक्त भी उंडेलता है अपने
को। यह एकतरफा सौदा नहीं है। यह एकतरफा जानेवाला रास्ता नहीं है। दोनों तरफ से
लेन-देन है। यह प्रेमी और प्रेयसी का लेन-देन है, भक्त और
भगवान का लेन-देन है। ऐसा नहीं है कि तुम ही प्रसन्न होते हो जब भगवान तुम्हें
उपलब्ध होता है--भगवान भी प्रसन्न होता है। यह अर्थ है कीर्तित होने से। जब
तुम्हारे भीतर उसका अवतरण होता है, तुम नाच उठते हो। वह भी
नाचता है परम अहोभाव से: "फिर कोई एक उपलब्ध हुआ! फिर कोई एक भूला-भटका वापस
आया! फिर एक लहर, दूर निकल गई थी, वापस
लौट आई!'
"यह प्रमरूपा भक्त्ति एक होकर भी तीनों कायिक,
वाचिक, मानसिक सत्यों में, अथवा तीनों कालों में सत्य भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है'।
तीनों--कायिक, वाचिक, मानसिक; अथवा तीनों कालों में--भूत, भविष्य, वर्तमान--भक्त्ति ही श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ
है! क्योंकि शेष सब तो मनुष्य के कृत्य है। शेष सब मनुष्य को करना पड़ता है--योग,
तप, त्याग, तपश्चर्या।
भक्ति का बिलकुल दूसराही आधार है; मनुष्य छोड़ता है कि तू कर;
मनुष्य सिर्फ करने देता है उसे, रोकता नहीं।
शेष सब साधना-विधियां विधायक है। भक्ति सिर्फ अवरोध को हटाती है।
भक्त यह कहता है: मैं बाधा न दूंगा; बस इतना मेरा भरोसा
मुझको है कि मैं बाधा नहीं दूंगा; तू आएगा तो मैं द्वार बंद
न रखूंगा। मगर तुझे लाऊं कैसे? द्वार खोलकर आंख बिछाकर तेरी
राह में बैठा रहूंगा, अहर्निश बैठा रहूंगा! सांझ-सुबह,
रात-दिन, चौबीस घंटे तेरी प्रतिक्षा करूंगा;
लेकिन कहां से तुझे पकड़कर ले आऊं, वह मेरा बस
नहीं। तेरी कृपा होगी। तेरा गुणगान करूंगा। तेरे गीत गाऊंगा। तेरे लिए नाचूंगा।
द्वार बंद न रहेंगे! उस इतना भक्त कह सकता है। अवरोध न रहेगा मेरी तरफ से। तू आए
और मुझे न पाए, ऐसा न होगा--मैं मौजूद रहूंगा।
शेष सारी साधना-पद्धतियां करने को कहती हैं; भक्ति, छोड़ने को। इसलिए नारद कहते हैं कि भक्त्ति
श्रेष्ठ है, क्योंकि वह भगवान का कृत्य है। जैसे तुमे अपने
हृदय को खोल देते हो, वह जो लिखता है तुम लिखने देते हो।
उसके हस्ताक्षर बन जाते हैं भक्त के ऊपर। इसलिए भगवान की प्रतिमा को भक्त जिस
भांति प्रगट करता है, कोई दूसरा साधक नहीं कर पाता।
"यह प्रेम रूपा भक्त्ति एक होकर भी गुण
माहत्म्यासक्त्ति, रूपाभक्त्ति, पूजासक्त्ति,
स्मरणासक्ति, दास्यासक्त्ति, साख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्यासक्ति,
आत्मनिवेदनासक्ति, तत्मयासक्ति और
परमविरहासक्ति--इस प्रकार से ग्यारह प्रकार की होती है'।
भक्त्ति तो एक ही है, लेकिन भक्त ग्यारह प्रकार के
होते हैं। भगवान को जिस रूप में तुम भजना चाहो...। सूफी हैं, वे भगवान को प्रेयसी मानते हैं स्त्री के रूप में मानते हैं। ठीक; भगवान को इससे कुछ एतराज नहीं; क्योंकि भगवान दोनों
है--स्त्री में भी है, पुरुष में भी है। सूफियों ने भगवान को
प्रेयसी माना। उस तरह से उन्होंने यात्रा की।
भारत में प्रेयसी किसी ने माना नहीं। कृष्णभक्त्त हैं, वे उसे पुरुष मानते हैं--इस सीमातक पुरुष मानते हैं कि बंगाल में एक
संप्रदाय है कृष्णभक्तों का, जो स्त्रियों जैसे कपड़े पहनता
है; रात सोता भी है तो कृष्ण की मूर्ति को हृदय से लगाकर
सोता है। वह पति है; भक्त पत्नी है, सखी
है, गापी है। वह भी ठीक है। जिस विधि से, जिसको सरल मालूम पड़े। यह भक्त के ऊपर निर्भर है, उसकी
भाव-दशा पर निर्भर है।
परमात्मा तो सब है, लेकिन तुम अभी इतने विराट नहीं कि उसके सब रूपों को इकट्ठा अपने में ले
सको; तुम्हें तो कहीं एक द्वार से प्रवेश करना होगा। उसके तो
अनंद द्वार हैं, लेकिन सभी द्वारों से तुम प्रवेश न कर
सकोगे। जिस द्वार से तुम्हें प्रवेश करना हो, तुम उस द्वार
से प्रवेश कर जाओ--पहुंचोगे तुम एक पर।
ये ग्यारह द्वार नारद ने गिनाए हैं, इनमें करीब-करीब सब
संभावनाएं आ जाती हैं। अपनी-अपनी संभावना चुन लेनी चाहिए। तुम्हें जैसा रुचे,
परमात्मा तुम्हारी रुचि से राजी है। तुमने अगर उसे मां की तरह
पुकारा, काली की तरह पुकारा, तो वह मां
की तरह प्रगट होने लगेगा। इसका केवल इतना ही अर्थ हुआ कि तुम जो रूप-रंग उसे देते
हपो वह उसी रूप-रंग में प्रविष्ट हो जाता है। सभी रूप उसके हैं। रामकृष्ण को वह
काली के रूप में प्रगट हुआ; वे मां को पुकारते रहे; वे मां का ही गीत गाते रहे। भक्त ढांचा देता है।
ऐसा समझो कि तुम एक खिड़की
बनाते हो अपने मकान की, फिर तुम खिड़की पर खड़े होकर आकाश को देखते हो, आकाश का तो कोई ढांचा नहीं है, लेकिन तुम्हारी खिड़की
का ढांचा है। तुम्हारी खिड़की अगर चौकोर है तो चौकोर आकाश दिखाई पड़ता है, तुम्हारी खिड़की अगर गोल है तो गोल आकाश दिखाई पड़ता है; यद्यपि तुम्हारी खिड़की के कारण आकाश गोल नहीं हो जाता और न ही चौखटा हो
जाता। और जब तुम्हें आकाश दिखाई पड़ जाएगा, तुम मदमस्त हो
जाओगे, खिड़की से कूद जाओगे, खुले आकाश
में आ जाओगे। वहां फिर कोई रूप नहीं है, अरूप है।
सगुण प्रारंभ है, निर्गुण अंत है। सगुण द्वार है,
निगुर्ण पहुंच जाना है। पर किसी भी ढंग से हो, किसी भी रंग से हो--हो।
तू न कातिल हो तो कोई और ही हो
तेरे कूचे की शहादत ही भली।
तेरी गली में भी मर गए, तो भी चलेगा। तू अगर
अपने हाथ से भी न मारे तो कोई बात नहीं।
तू न कातिल हो कोई और ही हो
तेरे कूचे की शहादत ही भली।
बस उसकी राह में कहीं खो जाना है। उस तक कोई कब पहुंचा है; कूचे में ही लोग खो गए हैं। उस तक पहुंचना संभव भी कहां है? तुम तो तुम रहते पहुंच न पाओगे--तुम खोकर ही पहुंचोगे। तुम तो कहीं राह
में ही खो जाओगे।
कोई मनुष्य कभी भगवान से मिला नहीं। जब तक मनुष्य रहता है, भगवान नहीं; जब मनुष्य मिट जाता है, तब भगवान...।
ऐसा ही समझो कि कोई बीज कभी अपने अंकुर से मिला? बीज मिट जाता है तो अंकुर। ऐसे ही मनुष्य जब मिट जाता है, तो अंकुरण होता है उस परमात्मा का। तुम्हारी मृत्यु में ही उसका आगमन है।
तेरे कूचे की शहादत ही भली।
"सनत्कुमार, व्यास, शुकदेव, शांडिल्य, गर्ग,
विष्णु, कौंडिण्ड, शेष,
उद्धव, आरुणि, बलि,
हनुमान, विभीषण आदि भक्त्तित्तत्व के आचार्यगण
लोगों की निंदा-स्तुति का कुछ भी भय नकर, सब एकमत से ऐसा
कहते हैं कि भक्त्ति ही सर्वश्रेष्ठ है'।
लोगों की निंदा-स्तुति का कुछ भय न कर...।' प्रेम के मार्ग पर सबसे ज्यादा निंदा-स्तुति है,क्योंकि
संसार चलता है गणित से। संसार चलता है हिसाब-किताब से। संसार की व्यवस्था
तर्क-सरणी है। और प्रेम सब सीमाएं तोड़कर बहने लगता है। इसलिए संसार प्रेम को
स्वीकार नहीं करता--साधारण प्रेम को ही स्वीकार नहीं करता, क्योंकि
यह तो सब किनारे तोड़कर बाढ़ बनना है। समाज घबड़ाता है। समाज मर्यादा चाहता है,
और प्रेम अमर्याद है।
इसलिए जिसे समाज की निंदा-स्तुति का बहुत भय है, वह भक्त नहीं हो पाएगा। मगर करोगे क्या? समाज की
स्तुति-निंदा को इकट्ठा करके करोगे क्या? मौत के क्षण में
कुछ काम न आएगा। यहां भी कोई तृप्ति न मिलेगी। कितनी ही स्तुति समाज करे, पेट न भरेगा। कितनी ही तालियां लोग पीटें, प्राणों
के फूल न खिलेंगे। कितना ही सम्मान हो और गले में फूलमालाएं डाली जाएं, तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहोगे, तुम्हारा
भिखमंगापन न मिटेगा।
तो जरा देख लेना कि कहीं समाज की निंदा-स्तुति में अपनी आत्मा को तो
नहीं बेच रहे हो! कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनकी स्तुति बड़ी महंगी पड़ती हो...।
जितना-जितना तुम समाज की स्तुति की चिंता करते हो, उतना ही तुम छोटे
होते चले जाते हो। जितना ही तुम डरते हो उतना तुम्हें और डराया जाता है। धीरे-धीरे
तुम समाज के कूड़ा-घर पर बैठे रहने को राजी हो जाते हो। इसे थोड़ा सोचना।
क्या करोगे, मिल भी गई सारी स्तुति तो? क्या
होगा? किसी ने निंदा न की तो क्या होगा? कोई तुम्हारी निंदा न करे, सभी तुम्हारी स्तुति करें,
तो तुम्हें जीवन का अर्थ खुल जाएगा? क्या
तुम्हारे प्राणों के कमल खिल जाएंगे? क्या तुम तृप्त हो
जाओगे? होतो उलटा ही है। जैसे-जैसे स्तुति मिलती है, वैसे-वैसे स्तुति की व्यर्थता पता चलती। जितना-जितना लोग तुम्हारा सम्मान
करने लगते हैं, उतना-उतना तुम कारागृह में पड़ने लगते हो,
उतनी-उतनी तुम्हारी मर्यादा संकीर्ण होने लगती है; उतना-उतना तुम्हें लगता है, अब तुम खिल नहीं सकते,
अब हजार आंखें तुम पर हैं।
भक्त्त तो केवल वही हो सकता है जिसने एक बात का निर्णय कर लिया कि
भीतर के आनंद के सामने और कोई भी चीज वरणीय नहीं है। भीतर का आनंद पहले है। परमात्मा
के संबंध प्रथम, फिर शेष सारे संबंध हैं। अगर उससे संबंध बनकर सब
संबंध बनते हों तो भक्त राजी है। अगर उससे संबंध टूटते हों, तो
फिर कोई संबंध अर्थ का नहीं है।
जीसस ने कहा है: उस एक को खोकर तुम सब खो दोगे; और सब को खोकर भी अगर तुमने उस एक को पा लिया तो सब पा लिया।
"जो इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और
श्रद्धा करते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं,वे प्रियतम को पाते हैं'।
विश्वास और श्रद्धा पर ये
सूत्र पूरे होते हैं। इन दो शब्दों को थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी है। विश्वास का अर्थ
है: संदेह अभी मिट नहीं गए--संदेह हैं; लेकिन तुम संदेहों के
बावजूद विश्वास करते हो। संदेह एकदम से मिट भी नहीं जा सकते; कोई जादू तो नहीं है; कोई मंत्र तो नहीं है कि मंत्र
फेर दिया, दवा ले ली, ताबीज बांध लिया
और संदेह मिट गए। संदेह हैं, लेकिन संदेहों को चुनो या न
चुनो, यह तुम्हारे हाथ में है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, संन्यास भी लेना है,
संदेह भी है। मैं कहता हूं, दोनों तुम्हारे
भीतर हैं। संन्यास लेने का भाव भी उठा है? वे कहते हैं,
उठा है। कुछ विश्वास भी आता है, कुछ संदेह भी
है'। मैं कहता हूं, अब तुम्हें दो में
से चुनना पड़ेगा। संदेह चाहो, संदेह चुन लो। तब तुम अपनी आधी
आत्मा को तड़फाओगे जो संन्यास लेना चाहती थी। संन्यास ले लो, तब
तुम अपने आधे विचारों को तड़फाओगे, मन को, जो संदेह करना चाहता था। अब तुम्हें चुनना यह है कि संदेह तो तुम बहुत दिन
करके देख लिए, क्या पाया? अब थोड़ा
विश्वास करके भी देख लो। एक मौका विश्वास को भी दो। संदेह ने तो सिर्फ सताया।
संदेह से कोई सुख तो न जन्मा, कोई वर्षा तो न हुई, अषाढ़ के मेघ तो न घिरे, प्राणों की पृथ्वी तो वैसी
की वैसी तड़फती रह, प्यासी रही। संदेह करके बहुत दिन देख लिया,
अब विश्वास करके भी देख लो। एक मौका विश्वास को भी दो।
वे कहते हैं, "लेकिन संदेह अभी मिटे नहीं'।
मैं उनसे कहता हूं, "संदेह के बावजूद चुनाव तो
करना ही होगा। और ध्यान रखना, जब तुम चुनाव भी नहीं करते,
तब भी चुनाव तो हो ही रहा है। तुम कहते हो, अभी
सोचूंगा, अभी चुनाव नहीं करता। लेकिन इसका मतलब हुआ कि तुमने
संदेह को पक्ष में चुनाव किया। बिना चुनाव किए तो एक क्षण भी तुम रह नहीं सकते। न
चुनाव करो, तो यह चुनाव हुअ। मगर चुनाव तो हो ही रहा है।
तो एक मौका नये को दो, अपरिचित को दो,
अनजान को दो! उस रह को भी एक मौका दो जिस पर तुम कभी नहीं गए। और
जिस राह पर बहुत बार हो आए हो, कभी कुछ न पाया...।
जिस आदमी ने अब तक संदेह किए हैं, अगर वह ठीक-ठीक संदेह
करना जानता हो तो अब संदेह पर संदेह आ जाना चाहिए। संदेह पर संदेह का नाम ही
विश्वास है। यह श्रद्धा नहीं है, यह विश्वास है। संदेह पर
जिसे संदेह आ गया; कर-कर के देखा, कुछ
न पाया, आदत पुरानी है, किए चले जाते
हैं; जिस राह से बहुतबार गए वहां आंख बंद करे भी चले जाते
हैं तो चलना हो जाता है, कुशलता आ गई है, आदत हो गई है--लेकिन सोचो! अब संदेह का उपयोग करो। संदेह पर संदेह करो तो
विश्वास पैदा होता है।
विश्वास संदेह के विपरीत नहीं है, संदेह के
किनारे-किनारे है। संदेह के बावजूद जब विश्वास की राह पर तुम चलते हो तो धीरे-धीरे
अनुभव आता है कि ठीक हुआ कि अहोभाग्य मैंने विश्वास चुना। एक-एक कदम बढ़ते हो कि
जीवन में नई हरियाली, नई ताजगी, नई
किरणें उतरने लगती हैं। संदेह जिनको तुम किनारे रखकर आए थे, धीरे-धीरे
भागने लगते हैं; जैसे प्रकाश में अंधेरा भागने लगता है। सूरज
निकल आया और जैसे ओस-कण तिरोहित होने लगते हैं, ऐसे तुम्हारे
संदेह तिरोहित होने लगेंगे। जब सारे संदेह तिरोहित हो जाएंगे तो विश्वास समाप्त हो
जाता है, श्रद्धा का जन्म होता है।
विश्वास औषधि की तरह है। तुम बिमार हो, विश्वास औषधि की तरह
है। फिर जब बीमारी चली गई, तब तुम बोतल को भी फेंक आते हो
कचराघर में; फिर कोई जरूरत न रही।
स्वास्थ्य यानी श्रद्धा। श्रद्धा स्वास्थ्य की भांति है। श्रद्धा में
संदेह होता ही नहीं। विश्वास में संदेह किनारे-किनारे चलता है, समानान्तर चलता है। इसलिए जब तक श्रद्धा न आ जाए, तब
तक बड़ा सचेत रहने की जरूरत है। श्रद्धा आ गई, फिर आंख मूंदकर,
चादर तानकर सो जाओ। फिर कोई प्रश्न न रहा। बीमारी गई। तुम प्रकाश से
मंडित हुए।
"जो इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और
श्रद्धा रखते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं'।
त्वरित घूमता चक्र, दृगों को
लगता ठहरा-सा है
त्वरित घूमता चक्र, दृगों को
ठहरा-सा लगता है
किंतु क्रिया की निष्क्रियता में
परिणति ही समता है
मृत्यु असंगति नहीं, सहज वह
जीवन की संगति है
रति का मूल स्वभाव पूर्ण हो
बन जाती फिर यति है
कर्ता बनता सिद्ध कर्म ही
जब अकर्म बनता है
मुक्ति नहीं कुछ और, मात्र वह
प्रज्ञा की थिरता है
जहां-जहां विपरीत दिखाई पड़ रहा है, वहां-वहां विपरीत
नहीं है--एक ही छिपा है।
तुमने कभी खयाल किया है कि अगर पंख बिजली का तेजी से घूमे, घूमता जाए, तेज होता जाए, तो
एक घड़ी आती है: स्थिर मालूम होने लगता है। ये दीवालें स्थिर लगती हैं। वैज्ञानिक
कहते हैं, परमाणु बड़ी तीव्र गति से घूम रहे हैं। उनकी गति
इतनी तीव्र है कि हम उनकी गति को देख नहीं पाते, सब स्थिर हो
गया है।
अगर गति महान हो, आत्यन्तिक हो--स्थिर हो जाती है।
अगर कामना पूर्ण हो, कामना से मुक्ति हो जाती है। अगर कर्म
पूर्ण हो, अकर्म बन जाता है।
मुक्ति नहीं कुछ और, मात्र वह
प्रज्ञा की थिरता है।
और मुक्ति कहीं आकाश में नहीं है, कहीं दूर भविष्य में
नहीं है। तुम्हारा बोध थिर हो जाए, ठहर जाए, निष्कंप लौ जलने लगे बोध की भीतर--बस मुक्त हो गए तुम।
परमात्मा तुमसे कहीं दूर नहीं--तुम्हारे होने का एक ढंग है। जब तुम
अपनी परिपूर्णता में निखरते हो, तुम्हीं जब अपने अंधकार के ऊपर
उठते हो, तो परमात्मा हो।
तो भक्त का जो आत्यंतिक अनुभव है, वह भगवान हो जाने का है।
सब दूरी खोज के दिनों की है। जैसे-जैसे समाप्त होने के करीब आती है, भक्त और भगवान एक होने लगते हैं।
इन सूत्रों को सुना। इस सूत्रों पर मनन करना। इन सूत्रों को धीरे-धीरे
अपनी जीवन की शैली में, संभालने की कोशिश रना। जितना बन सके, उतना समय परमात्मा की स्मृति में, जितना बन सके उतना
परमात्मा को देखने में, सब जगह उघाड़-उघाड़कर, जहां देखने की कठिनाई भी मालूम पड़ती हो, पत्थर में,
चट्टान में, वहां भी गौर से देखना--दिखेगा।
इसलिए तो हमने सारी मूर्तियां पत्थर की बनाई हैं परमात्मा की, क्योंकि पत्थर में भी वह है। वहां भी मूर्ति को खोजने की बात है; छिपा है, जरा छैनी चलाने की बात है। छैनी लेकर जाने
की जरूरत नहीं--तुम्हारी आंख ही छैनी हो सकती है। जरा गौर से देखना: जहां कहीं
रूप-रंग भी दिखाई नहीं पड़ता, वहां भी प्रगट हो जाता है। और
जल्दी थक मत जाना,अधैर्य मत करना। धीरज और अनंत प्रतीक्षा!
मत कर धीमा गीत, अभी तो मंजिल दूर बहुत है
पी कर स्वर का स्नेह पंथ का
हृदय सदय हो जाता
रागों के मेले में नभ का
सूनापन खो जाता
मत रख पूजा-थाल अभी तो
धूप कपूर बहुत है।
आज इतना ही।
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