बीसवां प्रवचन—अहोभाव, आनंद, उत्सव है भक्ति
दिनांक २२ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार :
1—परम विरहासक्ति पर कुछ कहें?
2—ध्यान की गहराई की अवस्था स्थायी कैसे हो?
3—क्या मुक्ति के लिए अन्ततः आराध्य की छवि का
विसर्जन भी अनिवार्य है?
4—आपके समीप आकर आपकी ओर देखा ही न गया। ऐसे
क्यों हो जाता है?
5—आपको रोज-रोज सुनते हैं, देखते हैं; फिर भी जी क्यों नहीं भरता? और कहीं बाहर भी चले जाते हैं तो भी जी यहीं क्यों लगा रहता है?
6—नारद के बहुआयामी व्यक्त्तित्व पर कुछ प्रकाश
डालें।
7—भक्त ध्रुव की पुराण-कथा पर कुछ प्रकाश डालें।
पहला प्रश्न: परम विरहासक्ति पर कुछ कहन की कृपा
करें।
उस प्यारे की मौजूदगी प्यारी है, तो गैर-माजूदगी भी
प्यारी होगी। जिसने उसे चाहा है, अनुपस्थिति में उसकी चाह और
बढ़ेगी, घटेगी नहीं। चाह की कसौटी यही है। लेकिन चाह तो तुमने
जानी नहीं, कामना जानी है। कामना की खूबी यह है: मिल जाए,
जिसे तुमने मांगा है, तो मांग टूट जाती है,
समाप्त हो जाती है। धन मिल जाए, धन व्यर्थ हो
जाता है। प्रेमी मिल जाए, प्रेमी व्यर्थ हो जाता है। कामना
पा भी ले, तो भी खाली रह जाती है। प्रार्थना न भी पाए,
तो भी भरी है।
विरहासक्ति का अर्थ है कि भक्त भगवान को तो प्रेम करता ही है, उसकी गैर-मौजूदगी को भी प्रेम करने लगता है। उसकी गैर-मौजूदगी भी उसकी ही
गैर-मौजूदगी है। उसका न दिखाई पड़ना भी उसका ही न दिखाई पड़ना है। पूर्ण है वह,
शून्य भी उसका ही है। सब भाव उसका है, अभाव भी
उसका ही है। फिर जो वह दे, उसी में भक्त राजी है।
भक्त का भाव यही है कि तू जो कराए, रुलाए, दूर रखे, हंसाए कि पास रखे, तृप्त
करे कि अतृप्ति की आग जलाए, वर्षा बनकर आए कि प्यास बनकर
उठे--तेरी मर्जी पर मेरा होना है! तो भक्त यह नहीं कहता कि मेरी मर्जी मान और
प्रगट हो। वह कहता है, तेरा अप्रगट होना भी प्यारा है,
हम इसे ही प्यार कर लेंगे। हम तेरी अनुपस्थिति में भी नाचेंगे और
गुनगुनाएंगे!
और जब तक तुम उसकी अनुपस्थिति को प्रेम न कर पाओगे, तब तक वह उपस्थित न हो सकेगा। यही भक्त की कसौटी है। इसलिए विरहासक्ति...।
विरह से भी आसक्ति हो जाती है। आंसुओं से भी प्रेम हो जाता है। तुमने
भक्त को रोते देखा हो, वह दुख में नहीं रो रहा है। उसके आंसू खुशी के आंसू
हैं। उसके आंसू फलों जैसे हैं, चांदत्तारों जैसे हैं। उसके
आंसुओं में फिर से झांको। उसकी आंखों में कोई शिकायत नहीं है, अनुग्रह का भाव है: "तूने रुलाया, यह भी क्य
कुछ कम है! क्योंकि बहुत आंखें हैं, बिना रोये ही रह जाती
हैं। बहुत आंखें हैं जिन्हें आंसुओं का सौभाग्य ही नहीं मिलता। तूने दूर रखा,
तड़फाया, इसी तड़फ से तो भक्त्ति का जन्म हुआ।
इसी से तो तेरे पास आने की महत आकांक्षा जगी, अभीप्सा पैदा
हुई। तो दूर रखने में भी तेरा कोई राज होगा। तेरी मर्जी पूरी हो'!
जीवन को देखने के दो ढंग हैं। एक धार्मिक व्यक्ति का ढंग है; वह कांटों में भी फूल खोज लेता है। और एक अधार्मिक व्यक्ति का ढंग है;
वह फूलों में भी कांटे खोज लेता है। देखने पर सब कुछ निर्भर है।
सुकून क़ल्ब को हलकी सी भी उम्मीद काफी है
कि नूरे सुबह की पहली किरण बारीक होती है
हृदय में चैन हो, हृदय में शांति हो, धैर्य हो, तो छोटी-सी उम्मीद भी बहुत है। स्वभावतः
सुबह की पहली किरण बहुत बारीक होती है। उतनी बारीक किरण भी सूरज की खबर है। वह
दिखाई भी नहीं पड़ती, भासमान होती है--पर सूरज की खबर है।
भक्त को परमात्मा की अनुपस्थिति भी परमात्मा की ही खबर है।
सुकून क़ल्ब को हलकी सी भी उम्मीद काफी है
कि नूरे सुबह की पहली किरण बारीक होती है
जो गम हद से ज्यादा हो खुशी नज़दीक होती है
चमकते हैं सितारे रात जब तारीक होती है।
और जब रात बहुत घनी अंधेरी होती है तो तारे खूब चमककर प्रगट होते हैं।
परमात्मा की अनुपस्थिति की जब भाव-दशा पकड़ लेती है तो उसकी उपस्थिति इतनी प्रगाढ़
होकर मालूम होती है जितनी कभी भी नहीं मालूम हुई। विरह में भी मिलन है। अंधेरी रात
में भी उसके तारे चमकते हैं। जब सब खोया हुआ लगता है तब भी वह पाया हुआ ही मालूम
होता है।
लेकिन हमारे जीवन का दृष्टिकोण, हमारे देखने का ढंग
अति सांसारिक है। और वहां हमने जो पाठ सीखा है वह पाठ बड़ा खतरनाक है। ठीक इससे
उलटी दशा धर्म की यात्रा की है।
संसार में जब तक कोई चीज मिलती नहीं है तब तक तो तुम बहुत उसके लिए
तड़फते हो--पाने के लिए तड़फते हो, किसी तरह अभाव मिट जाए! धन नहीं
है तो तुम धन के लिए तड़फते हो, क्योंकि निर्धन्नता को मिटाना
है। निर्धनता से तुम राजी नहीं होते, निर्धनता से तुम लड़ते
हो, ताकि धन पैदा कर सको। पर देखा तुमने, जब धन हाथ में आ जाता है तो पता लगता है: राख लगी, कोई
हीरे-जवाहरात न लगे, धूल लगी। जब नहीं था धन तब निर्धनता से
लड़ते रहे। जब धन मिलता है तो धन व्यर्थ हो जाता है।
यह तुम्हारा सामान्य जीवन का अनुभव है। इससे ठीक उलटा अनुभव धार्मिक
का है। धार्मिक परमात्मा की अनुपस्थिति से लड़ता नहीं है; वह कहता है, यह अनुपस्थिति भी उसकी ही है, लड़ना कैसा, लड़ना किससे? यह भी
वरदान उसी का है, यह आशीष उसी की है।
अनुपस्थिति में विरोध नहीं है--अनुपस्थिति में उसे खोजना है; छिपा होगा कहीं; किरण बहुत बारीक होगी; होगा तो ही...। ऐसा तो कोई स्थान नहीं हो सकता जहां वह न हो। अपनी आंखें
कमजोर होंगी। अपने देखने में बल न होगा। अपनी आंख पर परदे होंगे। अपनी समझ धुंधली
होगी। अपना बोध का दीया थिर न होगी, कंपित होती होगी भीतर की
चित्त-दशा, प्रज्ञा ठहरी न होगी। लेकिन भगवान तो अपनी
अनुपस्थिति में भी मौजूद होगा, क्योंकि ऐसी तो कोई जगह नहीं
है जो उससे खाली हो। वह पास से भी पास, दूर से भी दूर;
मिला हुआ भी है, खोया हुआ लगता है।
तो भक्त अनुपस्थिति से लड़ता नहीं, वह अपने आंसुओं में
भी नाचता है। उसके आंसू भी गुनगुनाते हुए हैं। उसके आंसुओं में दुख मत देख लेना,
अन्यथा तुम उसके आंसुओं को न समझ पाओगे। उसके आंसुओं में इस बात की
खबर है कि तू कितना ही छिपाए, अपने को छिपा न सकेगा; तू कितना ही परदे डाले, धोखा न दे सकेगा। हम तेरी
अनुपस्थिति में भी तुझे खोज लेते हैं, तो तेरी उपस्थिति की
तो बात ही क्या करनी!
अनुपस्थिति परमात्मा के विपरीत नहीं है, जैसा धन निर्धनता के
विपरीत है। और इसलिए जब भक्त परमात्मा को उपलब्ध होता है तो वैसी हालत नहीं आती
जैसे धन को उपलब्ध होकर आती है। धन व्यर्थ हो जाता है मिलते ही। धन का सारा मजा
उसके न मिलने में हैं; जब तक नहीं मिलता तभी तक महिमापूर्ण
मालूम होता है; जैसे मिला, कचरा हो
जाता है!
परमात्मा के न मिलने में भी अहोभाग्य है, मिल जाने का तो फिर कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। भक्त कहता है, तू जिस हाल रखे, हम उस हाल में राजी हैं। भक्त कहता
है, हमारी गुनगुनाहट को तू छीन न सकेगा।
होंगी इसी तरह से तै मंजिलें ओज की तमाम
हां यूं ही मुस्कुराए जो, हां यूं ही गुनगुनाए
जा!
सारे पड़ाव पार कर लिए जाएंगे, सारी मंजिलें पार कर
ली जाएंगी।
होंगी इसी तरह से तै मंजिलें ओज की तमाम
हां यूं ही मुस्कुराए जा, हां यूं ही गुनगुनाए
जा!
भक्त का आनंद सतत है। उसमें विच्छेद नहीं है। अंधेरा हो तो, रोशनी हो तो; सुबह हो तो, सांझ
हो तो; बहार आए तो, पतझड़ आए तो--भक्त
के लिए भेद नहीं पड़ता, क्योंकि वह हर चेहरे में उसको पहचान
लेता है--जीवन आए तो, मौत आए तो! भक्त का अर्थ ही यही है:
जिसे अब भगवान धोखा न दे सकेगा।
साधक और भक्त में यही भेद है। साधक अपने संकल्प से जीता है; भक्त, समर्पण से। साधक कहता है, पाकर रहेंगे। साधक की भाषा में संसार छिपा है। जैसे वह धन को पाता था,
वैसे ही धर्म को भी पाकर रहेगा। जैसे वह यश, पद,
प्रतिष्ठा खोजता था, ऐसे ही प्रभु को भी
खोजेगा। लेकिन उसकी खोज का सूत्र पुराना है: "मैं पाकर रहूंगा! तेरे बिना किए
क्या होगा? मैं करूंगा तो होगा'।
भक्त तो सारा हिसाब बदल देता है। भक्त कहता है: समर्पण! मेरे किए कुछ
न हुआ। देखा बहुत कर-करके, हाथ कुछ भी न आया; जैसे रेत से
तेल निचोड़ते रहे, समय व्यर्थ हुआ, शक्त्ति
का अपव्यय हुआ, कहीं पहुंचे न। अब तुझ पर छोड़ देते हैं। अब
हम नाचेंगे! अब हमने पाने की भी फिक्र छोड़ी! अब हम न पाएं तुझे तो भी कोई फर्क न
पड़ेगा, तू हमें मिला!
साधक की भाषा है--
अपने ऊपर कर भरोसा, जज्बे दिल से काम ले
यूं न साकी आएगा, उठ बढ़ के मीना थाम ले।
साधक की भाषा है: अपने ऊपर भरोसा कर, हिम्मत से काम ले,
संकल्प को जगा; ऐसे बैठे-बैठे कुछ न होगा।
यूं न साकी आएगा, बढ़ के मीना थाम ले।
छीना-झपटी करनी होगी। यह मधु-पात्र ऐसे अपने-आप तेरे सामने न आएगा।
उठ! संकल्प कर! छीन ले! संघर्ष कर!
यह साधक की भाषा है। भक्त को इस भाषा में ही संसार मालूम होता है:
"परमात्मा से भी छीनना होगा? यह साकी ऐसा साकी तो नहीं जिससे
छिनना पड़े। भक्त कहता है, "यह तो बात की लज्जत ही न
रही। परमात्मा से छीनना पड़ा, तो मिला-न-मिला बराबर हो गया।
छीन-झपट से जो मिले उसका तो सौंदर्य ही चला गया। उसका प्रसाद हो! मांगना भी न पड़े।
मांग भी यही कहती है कि छीन-झपट किसी-न-किसी तल पर जारी है। कहना भी न पड़े,
इशारा भी न करना पड़े। वह दे, अपने से दे,
मनाकर दे!'
भक्त की भाषा है--
सामने तेरे भी इक दिन दौरे महबा आएगा
तू अभी समझा नहीं साकी का ईमां, सब्र कर।
अभी तू उसके प्रेम को, उसके नियम को समझा
नहीं; थोड़ा धीरज रख!
सामने तेरे भी इक दिन दौरे महबा आएगा--वह मधु-पात्र सामने तेरे
अपने-आप आ जाएगा, तू थोड़ा धीरज रख। तू जरा उसके नियम की तरफ देख।
सब्र ही भक्ति की पात्रता है, अनंत धैर्य! तुम अगर
एक क्षण को भी उसके अनंत धैर्य से भर जाओ, तो उसी क्षण
उपलब्धि हो जाएगी। उपलब्धि में परमात्मा बाधा नहीं है, तुम्हारा
धैर्य बाधा है। इसलिए विरह से भी आसक्ति हो जाती है। भक्त विरह के गीत गाता है। वह
विरह के आसपास भी सजावट कर लेता है। वह अपने रोने को भी सम्हालकर रखता है। वह अपने
रुदन को भी, अपनी आहों को भी प्रार्थना बना लेता है। वह अपने
रुदन के, अपने आंसुओं के ईंटों से ही अपने मंदिर को बना लेता
है। वह उससे भी राजी है। वह यह नहीं कहता कि देखो, मैं कितना
रो रहा हूं। वह यह कहता है कि और रुलाओ मुझे। देखो, कितना
हलका हो गया हूं रो-रोकर! कितना रूपांतरित हुआ हूं! तुम जल्दी मत करना। कोई जल्दी
नहीं है। तुम मुझे पूरा बदलकर ही आना!
वह आने की बात ही परमात्मा पर छोड़ देता है; अपने हृदय को खोल देता है, प्रतीक्षा करता है।
भक्त्ति प्रतीक्षा है, प्रयास नहीं। भक्त्ति
समर्पण है, संकल्प नहीं। और भक्ति से बड़ी कोई कीमिया नहीं है;
क्योंकि भक्ति का मूल आधार ही, सांसारिक मन का
आत्मघात हो जाता है। सांसारिक मन कहता है, करने से कुछ होगा।
भक्त्ति कहती है, करने से कुछ भी नहीं हुआ। सांसारिक मन कहता
है: अहंकार! नये-नये नाम रखता है; कभी कहता है, संकल्प की शक्ति; कभी कहता है, हिम्मत, साहस, व्यक्तित्व,
आत्मा--हजार नाम रखता है, लेकिन सबके भीतर तुम
अहंकार को छिपा हुआ पाओगे, सबके भीतर "मैं' माजूद है, "मैं' की
कम-ज्यादा मात्रा मौजूद है। और वही बाधा है।
भक्त कहता है, "मैं' नहीं, तू। जब मैं ही नहीं हूं तो क्या विरह और क्या मिलन?' मिलन हो गया! जहां "मैं' मिटा वही मिलन हो गया।
और जिसे विरह में परमात्मा दिखाई पड़ गया, उसके मिलन की तो
बात ही न पूछो! वह बात तो बात करने की न रही। उसके संबंध में कुछ भी न कहा जा
सकेगा।
मीरा के सारे गीत विरह के गीत हैं--इतने मधुर, इतने गरिमापूर्ण! सब विरह के गीत हैं। चैतन्य का नृत्य विरह का नृत्य है।
मिलन के बाद तो कोई नाच ही नहीं सका। नाच भी मुश्किल हो जाता है। विरह में नाच लो
थोड़ा-बहुत। विरह में बोल लो थोड़ा-बहुत; मिलन पर तो बोज बंद
हो जाते हैं; मिलन तो अबोल कर जाता है; मिलन में तो सब शून्य हो जाता है। बूंद जब सागर में खो गई, खो गई! अब कहां नाचेगी, अब कहां कूदेगी? अब कहां वीणा बजेगी? अब कहां नृत्य होगा, कहां गीत सजेंगे? मीरा जब खो गई सागर में तो खो गई!
वे जो मीरा के गीत हैं, सब विरह से उत्पन्न हुए हैं; स्वभावतः विरह से भी आसक्ति हो जाएगी। इतना प्यारा था उसका न मिलना भी।
जिसने उस प्यारे की तरफ थोड़े कदम बढ़ाए, उसे उसके न मिलने में
भी आनंद हो जाता है।
दूसरा प्रश्न: आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई
का कुछ अनुभव होता है, लेकिन वह अवस्था स्थायी नहीं
रहती। उसे स्थायी करने की दिशा में कृपया हमारा मार्गदर्शन करें!
स्थायी करना ही क्यों चाहते हो? स्थायी की भाषा ही
सांसारिक है। क्षणभर को रहती है, उतनी देर अहोभाव से नाचें,
उतनी देर कृतज्ञता से नाचें। उस क्षण में यह नया उपद्रव क्यों भीतर
ले आते हैं कि स्थायी करना है? जो मिला है उसकी भी पात्रता
नहीं है! अहोभाग्य कि पात्र न था, क्षणभर को उसके दर्शन हुए।
नाचें! गुनगुनाएं! आनंदित हों! दूसरा क्षण इसी क्षण में निकलेगा, आएगा कहां से? कल आज से ही पैदा होगा। अगर आज गीत से
भरा था, तो कल इन्हीं गीतों से जन्मेगा। अगर आज तुम्हारे पैर
में थिरक थी और घूंघर बंधे थे, तो कल पर भी उनकी छाया पड़ेगी।
स्वभावतः कल तुम्हारे घूंघर की आवाज और सुदृढ़ हो जाएगी; बांसुरी
और भी गहरी बजेगी; मस्ती और भी गहरी उतरेगी!
कल आएगा कहां से? इसलिए तुम कल की चिंता ही छोड़
दो। सभी की यही तकलीफ है, क्योंकि संसार का यह गणित है: जो न
हो उसकी चिंता करो; जो मिल जाए उसकी चिंता करो कि कहीं खो न
जाए! गरीब परेशान है कि धन मिल जाए; धनी परेशान है कि कहीं
खो न जाए! दोनों परेशान हैं। परेशानी जैसे हमारी आदत है। जैसे हम कुछ भी करें,
परेशानी से हम न बचेंगे, परेशानी तो हम
घूम-फिरकर पैदा कर ही लेंगे।
रोज कोई-न-कोई मेरे पास आकर कहता है कि "ध्यान में बड़ा आनंद आ
रहा है, लेकिन यह टिकेगा?' क्यों आनंद
को खराब कर रहे हो? कल जब आएगा तब कल को देख लेंगे'। और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, कल भी तुम ही तो
रहोगे न? और आज अगर तुम आनंदित हो सकते हो, तो कल की ईंटें आज के ऊपर ही रखी जाएंगी, कल का भवन
आज के ऊपर ही खड़ा होगा। तुम कृपा करके कल को भूलो!
कल, मन का उपद्रव है। कल तुम्हारा आज को खराब कर देगा। यह
क्षण अगर शांति का था तो तुम डूबो, डुबकी लो, तुम रस-विभोर हो जाओ, तुम भूल ही जाओ समय को। इसी से
आने वाला क्षण उभरेगा--और भी गहरा, और भी ताजा, और भी मदहोश! और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए तो भविष्य की चिंता छूट
ही जाती है।
स्थायी करने का मोह भविष्य की चिंता है। क्षण काफी है। एक क्षण से
ज्यादा किसको कब कितने क्षण मिलते हैं? एक बार एक ही क्षण तो
मिलता है तुम्हें। अगर एक क्षण में तुम्हें आनंदित होने की कला आ गई, तो सारा जीवन आनंदित हो जाएगा। जिसको एक बूंद रंगने की कला आ गई, वह सारे सागर को रंग लेगा। एक-एक बूंद ही तो हाथ में पड़ती है, उसको रंगते जाना। दो बूंद इकट्ठी भी तो नहीं मिलतीं कि अड़चन आए कि हम तो
केवल एक बूंद को ही रंगना जानते हैं, दो बूंदें एक साथ आ गईं
तो हम क्या करेंगे!
एक क्षण आता है एक बार; जब चला जाता है हाथ
से तब दूसरा क्षण उतरता है। बड़ी संकीर्ण धारा है समय की! दो क्षण भी तो साथ नहीं
आते।
एक क्षण को शांत होना आ गया--हो गई स्थायी शांति! हो गई शाश्वत! अब
इसे कोई भी तुमसे छीन न सकेगा। हां, तुम ही छीन सकते हो।
अगर तुम इस क्षण में आनेवाले क्षण की चिंता से भर जाओ, चिंतातुर
हो जाओ, तो तुमने यहीं खराब कर ली--फिर इस खराब किए हुए क्षण
से अगला क्षण पैदा होगा, वह और भी खराब होगा।
तो पहली बात: पूछो मत, स्थायी कैसे करना!
इतना ही पूछो कि इसी क्षण में कैसे डूबें! डुबकी में ही स्थायित्व है।
और दूसरी बात: "आपके सान्निध्य में ध्यान की गहराई का कुछ अनुभव
होता है...।' जो मेरे सान्निध्य में होता है, वह मेरे कारण नहीं होता, होता तो तुम्हारे ही कारण
है। जो तुम्हारे भीतर नहीं हो सकता, वह किसी के भी सान्निध्य
में नहीं हो सकता। हां, मेरे सान्निध्य में सुविधा मिल जाती
होगी--स्वयं से थोड़ा छूटने की, स्वयं के बंधन थोड़े ढीले करने
की। मेरे सान्निध्य में थोड़ा-सा तुम अपनी पुरानी आदतों को किनारे हटा देते होओगे,
बस! होता तो तुम्हारे ही भीतर है।
इसलिए जो मेरे सान्निध्य में होता है, अब यह एक नया उपद्रव
खड़ा मत कर लेना कि घर जाकर न होगा। मन तरकीबें खोजता है। मन कहता है,
"वहां हो गया था, उनके कारण हो गया था'। पाप मुझे लगेगा ऐसे। तुम अगर नरक गए तो मैं जिम्मेदार होऊंगा।
यहां तुम्हें जो थोड़ा-सी झलक मिल जाती है, उसमें मेरा कुछ हाथ नहीं है; सिर्फ तुम मेरी थोड़ी
सुन लेते हो, इतनी ही तुम घर पर भी सुनना, बात हो जाएगी। इतना तुम थोड़ा-सा मुझे द्वार-दरवाजा देते हो, थोड़ा अपने को किनारे कर लेते हो, थोड़ा अपने को बीच
से हटा लेते हो--कुछ होता है। घर पर भी इतना ही हटा लेना। यह तुम्हारे ही किए हो
रहा है।
छोटे बच्चे का कोई हाथ पकड़ लेता है और चला देता है--चलता तो बच्चा ही
है भीतर। दूसरे के हाथ से थोड़ा सहारा मिल जाता है, हिम्मत बढ़ जाती है,
अनुभठ आ जाता है। मगर ये हाथ जिंदगीभर पकड़ लेने को नहीं है। नहीं तो
इससे घसिटना ही बेहतर था, कम-से-कम खुद तो घसिटते थे,
अब यह एक और उपद्रव साथ लगा; एक दूसरे के हाथ,
अब यह और मजबूरी हुई, और परंतत्रता हुई।
नहीं, ऐसे किसी पर निर्भर मत हो जाना।
मेरा तो सारा आयोजन यहां यही है कि तुम परम मुक्त हो सको; उसमें तुझसे भी मुक्त होना सम्मिलित है। अगर मुझसे बंध जाओ तो तुम तो और
लंगड़े हो जाओगे; तुम वैसे ही लंगड़ा रहे हो, तुम वैसे ही पंगु हो, यह तो और पक्षाघात हो जाएगा।
यहां थोड़ी-सी झलक लो, उसे झलक ही मानता; फिर उसे अपने एकांत में गहराना, ताकि तुम्हें यह भी
अनुभव आ सके कि वह झलक तुम्हारे भीतर से ही आई थी। किसी के हाथ का सहारा मिला
था--धन्यवाद! लेकिन इससे ज्यादा निर्भरता न हो। ऐसे ही है जैसे कि कोई बच्चे को
तैराक पानी में डाल देता है, हाथ-पैर तड़फड़ाता है
बच्चा--हाथ-पैर तड़फड़ाना ही तैरने की शुरुआत है। अकेला शायद उतर भी न पाता पानी में,
डरता, घबड़ाता; पर कोई
तैरनेवाला पास में खड़ा है, हिम्मत...हिम्मत साथ दे गई। जो
हुआ है वह तो भीतर हो रहा है। दो-चार बार पानी में तैराक डालेगा, बच्चे के हाथ-पैर सुघड़ हो जाएंगे, फिर कोई जरूरत न
रह जाएगी, फिर उसे खुद ही हिम्मत आ जाएगी। फिर तो वह दूर
सागर भी पार कर ले सकता है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक ग्रामीण किसान बैल को जोतकर अपने हल को चला रहा था। वह
कोड़ा भी फटकारता जाता बैल पर और कभी कहता, "हीरा! जोर
से', कभी कहता, "मोती! जोर से',
कभी कहता, "चंदा! जोर से', कभी कहता, "सरज! जोर से'।
एक आदमी खड़ा देख रहा था। उसने कहा, "इस बैल के कितने
नाम हैं?' उस किसान ने कहा, "नाम
तो इसका एक ही है--हीरा।'
"तो बाकी इतने नाम किसलिए लेते हो?'
तो उसने कहा, "इसकी हिम्मत बढ़ाने को। इसकी आंखें तो बंधी हैं,
यह समझता है और भी बैल लगे हैं। यह हिम्मत से चला जाता है'।
बस इतना ही मेरा काम है--"हीरा! जोर से; मोती! जोर से।' लगे, तुम अकेले
नहीं हो। एक बार हिम्मत आ जाए तो तुम्हारी आंख की पट्टी खोल देंगे, कहेंगे, "तुम ही चल रहे थे'।
तीसरी बात: जल्दी मत करा। धैर्य बड़ी से बड़ी शिक्षा है धर्म के मार्ग
पर। क्योंकि जिसको हम खोजने चले हैं, वह इतना विराट है कि
तुमने अगर जल्दी मांग की, तो तुम्हारी मांग के कारण ही न मिल
पाएगा। मौसमी फूल हम बो देते हैं, दो-चार-छह सप्ताह में फूल
आ जाते हैं। लेकिन अगर चिनार के वृक्ष लगाने हों, देवदार के
वृक्ष लगाने हों, तो वर्षों लगते हैं। आकाश को छूनेवाले
वृक्ष लगाने हों तो उनकी जड़ें भी पाताल तक पंहुचनी चाहिए।
परमात्मा आखिरी मंजिल है; उसके पार फिर कुछ भी
नहीं। इतनी विराट मंजिल को पाने चले हो, और इतने कृपण हो
धैर्य के संबंध में, इतनी जल्दबाजी करते हो!
तुमने देखा भक्तों को, घर-घर में मंदिर
बनाकर बैठे हैं, जल्दी से घंटी बजा लेते हैं, फूल चढ़ा देते हैं। उनके हाथ-पैर देखो, इतनी जल्दी
में हैं वे कि उनके ये कृत्य देखकर ही भगवान उनसे न मिलेगा! बुलाने में भी तो थोड़ा
सलीका हो। उसे पुकारो, थोड़ा सोचो भी कि किसे पुकारा है! थोड़ा
सौजन्य तो सीखो! इतना बड़ा निमंत्रण भेज रहे हो; जरा
सोच-समझकर पाती लिखो!
लेकिन बड़ा अधैर्य है! तुम अगर अपने अधैर्य पर विचार करोगे तो तुम्हें
अपना सारा कृत्य बचकाना मालूम पड़ेगा। कोई रोज गीता पढ़ लेता है, कोई पूजा कर लेता है, कोई फूल चढ़ा देता है, कोई मंदिर में सिर झुका आता है--लेकिन क्या कर रहे हो तुम? और फिर इससे तुम आशा बांधने लगते हो कि अभी तक मिला नहीं; अभी तक स्थायी आनंद नहीं मिला; अभी तक परमात्मा का
कोई दर्शन नहीं हुआ! नहीं, यह भक्त का ढंग नहीं।
हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनियाजी तेरी आदत ही सही।
देर लगाना तेरी आदत हो, कोई हर्जा नहीं;
हम भी सब्र की आदत डाल लेंगे, और क्या! अगर तू
देर करता है, ठीक। जितनी देर तू कर सकता है, उससे ज्यादा देर धैर्य रखने की हम आदत डाल लेंगे।
हम भी तस्लीम की खू डालेंगे
बेनियाली तेरी आदत ही सही
जल्दी में मत पड़ना। जल्दी ही तनाव पैदा कर देती है। जल्दी के कारण ही
मन बेचैनी पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत-अनंत काल मौजूद है। मन में बेचैनी
पैदा हो जाती है। धीरज से चलो! अनंत-अनंत काल मौजूद है। कहीं कोई जल्दी नहीं है।
समय की अनंत धारा मौजूद है; न कोई छोर है न कोई ओर है; न
कोई प्रारंभ है न कोई अंत है। इस शाश्वत में तुम व्यर्थ ही परेशान हुए जा रहे हो।
तुम दौड़-धूप किसलिए कर रहे हो? तुम्हारी दौड़-धूप से कुछ
जल्दी न हो जाएगा। जल्दी की जरूरत नहीं।
जरा वृक्षों को देखो, कैसे अलसाए हुए हैं! चांदत्तारों
को देखो, कैसे चुपचाप गतिमान हैं! कहीं पहुंचने की कोई जल्दी
तुम्हें अस्तित्व में दिखाई पड़ती है? अस्तित्व ऐसा शांत है
जैसे पहुंच ही हुआ हो; पहुंचने की जल्दी मालूम ही नहीं होती।
ऐसा ही भक्त भी है, उसने अस्तित्व की भाषा समझ ली
है। वह कोई जल्दी में नहीं है। वह कोई प्रार्थना इसलिए नहीं करता कि भगवान
प्रार्थना करने से मिलेगा--प्रार्थना उसका आनंद है। वह पूजा इसलिए नहीं करता कि
ठीक है, पूजा करने से मिलता है तो चलो पूजा किए लेते हैं। यह
कोई साधन नहीं है पूजा, यह साध्य है। वह अहोभाव से भरा है,
आनंद से भरा है; कैसे अपने आनंद को प्रगट करें,
किस भाषा में परमात्मा से कहें कि तेरे अनंत आशीषों की वर्षा मेरे
ऊपर है! तुतलाकर--पूजा की भाषा में, भजन की, कीर्तन की भाषा में कह देता है कि तेरी अनंत अनुकंपा मेरे ऊपर है!
प्रार्थना से वह कुछ पाना नहीं चाहता।
और मजा यही है कि जिसने प्रार्थना से कुछ पाना न चाहा, उसे सब मिला। और जिसने प्रार्थना में भी पाने का जहर डाल दिया, उसकी प्रार्थना भी मर गई, और कुछ मिलने की तो बात ही
न रही।
प्रार्थना में जहां मांग आई, जहर आया। प्रार्थना
में जहां कामना प्रविष्ट हुई, प्रार्थना तिरोहित हुई।
तो प्रार्थना प्रार्थना के आनंद के लिए है। फिर इसी क्षण में तुम खूब
सुखी हो उठोगे। दूसरा क्षण इसी से आएगा, आता रहेगा, आता ही रहा है।
तीसरा प्रश्न: भक्त अंतिम अवस्था तक आराध्या को
नहीं भुला पाता है, क्या मुक्ति के लिए अंततः आराध्य की छवि का विसर्जन
भी अनिवार्य है?
प्रश्न भक्त का नहीं है। भक्त तो चाहता ही नहीं मुक्ति को। भक्त तो
कहता है, "ऐसा मत करना कि मुक्ति हो जाए! ये बंधन बड़े
प्यारे हैं'!
भक्त कहता है, "मुक्ति को छोड़ने को तैयार हैं; भगवान, तुझे छोड़ने को तैयार नहीं। तू मुक्ति अपनी
सम्हाल। किसी और को दे देना, और बहुत भिखारी हैं! हमें तो तू ही काफी है। तू हमें हजार-हजार
बंधनों में बांध! तू प्रेम के न मालूम कितने डोले सजा! तू हमें प्रेम की यात्रा पर
ले चल!'
"मुक्ति' भाषा ही भक्त की
नहीं है। तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं, बहुत सी भाषाएं
गड्डमगड हो गई हैं। तुम पूछते हो, "मुक्त्ति के लिए
भगवान बाधा है?' पर भक्त मुक्ति मांगता नहीं--और भक्त मुक्त
हो जाता है, मांगता नहीं। भक्त की मुक्ति निश्चित है,लेकिन भक्त्त के बिना मांगे घटती है।
अब इसको भी थोड़ा समझना।
भक्त के अतिरिक्त जितने मार्ग हैं वे मुक्त्ति मांगते हैं। भगवान को
वे उपयोग करते हैं साधन की तरह, माध्यम की तरह। योग में पतंजलि
भगवान को भी एक साधन मान लेते हैं: "ईश्वर के प्रति समर्पण, यह और विधियों में एक विधि है; इस भांति व्यक्ति परम
मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है'। भगवान के ऊपर है मोक्ष! और
भगवान एक विधी है और विधियोंमें! अनिवार्य विधि भी नहीं है, क्योंकि
बुद्ध बिना भगवान को माने भी मुक्ति की राह बता देते हैं; महावीर
बिना भगवान को माने भी मुक्ति की राह बता देते हैं।
तो पहली तो बात: और विधियों में एक विधी है। दूसरी बात: विधि भी
अनिवार्य नहीं है, छोड़ी जा सकती है।
भक्त के अतिरिक्त जो मार्ग है--ज्ञान के, योग के, हठ के, क्रिया के--उन
सब में मुक्ति परम है। भगवान को अगर किसी ने जगह दी भी है, तो
एक साधन की तरह। भक्त के लिए भगवान परम है।
मुक्ति क्या है भक्त के लिए? भक्त के अतिरिक्त जो
साधक हैं, उनके लिए--ऐसी घड़ी का आ जाना जहां वे भगवान से भी
मुक्त हो जाएं, मुक्त्ति है; जहां
दूसरा न रह जाए, स्वयं का होना ही आत्यंतिक हो जाए, आखिरी हो जाए, कोई दूसरा न हो। इसलिए महावीर ने उस
परम अवस्था को "कैवल्य' कहा--एकमात्र तुम्हारी चेतना
बचे! या आत्मा कहा, परमात्मा कहा। महावीर का "परमात्मा'
शब्द भगवान का पर्यायवाची नहीं है--परमात्मा का अर्थ है: आत्मा की
परम स्थिति, आखिरी ऊंचाई; तुम इस ऊंचाई
पर आ गए, जिससे और ऊपर कोई ऊंचाई नहीं।
भक्त के लिए मुक्ति क्या है?
भक्त कहता है, "ऐसी घड़ी आ जाए कि तू ही तू रह जाए, मैं न रहूं।'
भक्त के अतिरिक्त लोग हैं, वे कहते हैं,
"ऐसी घड़ी आ जाए, मैं ही मैं रहूं,
तू न रहे'।
भक्त कहता है, "मैं! मैं ही तो उपद्रव हूं, मैं मिट जाऊं; बस तू ही तू रह जाए!'
भक्त कहता है, "बांधनेवाला तेरा बंधन तो रहे, बंधनेवाला मैं न रह जाऊं! तेरा बंधन तो मुझे हजार-हजार रंग-रूपों में बांध
ले, लेकिन मैं तुझ में लीन हो जाऊं'।
भक्त अपने को मिटाना चाहता है भगवान में। भक्त के अतिरिक्त जो हैं वे
भगवान को मिटा लेना चाहते हैं अपने में। भक्त की भी मुक्ति फलित होती है, पर बड़ी अनूठी है उसकी मुक्ति! उसमें भक्त खो जाता है, भगवान बचता है। इसलिए भगवान को खोकर तो भक्त मुक्ति मांग ही नहीं सकता,
वह तो असंभव है।
पूछा है: "भक्त अंतिम अवस्था तक आराध्य को नहीं भुला पाता है...'
भुलाना चाहता नहीं। तुम उसे भुलाने के रास्ते बताओ, वह भाग खड़ा होगा कि यह क्या रास्ता बता रहे हो! वह कहेगा, "दूर ही रखो अपने सिद्धांत! बामुश्किल तो किसी तरह उसका सहारा पकड़ पाए हैं
और तुम भुलाने का उपाय बताते हो!' भक्त तुमसे पूछेगा,
"ऐसा कुछ बताओ कि वह ही वह रह जाए और मैं भूल जाऊं!'
भक्त भगवान से ही पूछ लेता है अंतिम क्षणों में; और किसी से पूछने की उसे जरूरत भी नहीं है। जैसे-जैसे राग बंध जाता है,
जैसे-जैसे भीतर का तार उसी के तारों के साथ नाचने लगता है, जैसे-जैसे संगीत लयबद्ध होता है--वह उसी से पूछने लगता है। वह कहता है,
"अब तू ही बता दे!'
भक्त औरों को तो पागल मालूम पड़ेगा, क्योंकि उसकी भाषा
प्रेम की है।
इक बात भला पूछें, तुम कैसे मनाओगे?
जैसे कोई रूठा हो और तुमको मनाना हो
वह भगवान से ही पूछ लेता है कि सुनो--
इक बात भला पूछें, तुम कैसे मनाओगे?
जैसे कोई रूठा हो और तुमको मनाना हो
वह बात करने लगता है सीधी! भक्ति संवाद है! वह किसी और से पूछता नहीं; वह भगवान से ही पूछता है। जिसके तार उससे ही जुड़ गए, अब किसी और से पूछने की जरूरत भी न रही।
तेरा गम, राज़ मेरा, खामोशी मेरी, सुखन मेरा
यही है रूह मेरी, हुस्न मेरा, पैरहन मेरा।
वह कहता है, "तेरे मिलने की तो बात दूर, तुझे न मिलने का जो दुख है, वह भी इतना प्यारा है।
यही मेरा रहस्य है, तुझे न पाने की पीड़ा, राज़ मेरा, खामोशी मेरी--तू मिलकर तो क्या करेगा,
पता नहीं; तेरी अनुपस्थिति के बोध ने भी मुझे
खामोशी कर दिया, मौन कर दिया। सुखन मेरा! तेरे न मिलने से भी
मेरे भीतर अनाहत-वाणी का नाद शुरू हुआ है, मिलने से क्या
होगा पता नहीं! यही है रूह मेरी! और अब तो तेरी गैर-मौजूदगी की पीड़ा ही मेरी आत्मा
है। हुस्न मेरा! यही है सौंदर्य मेरा! पैरहन मेरा! यही मेरे वस्त्र हैं! यही मेरी
आत्मा है। यही मेरी देह है! यही मेरी वाणी है, यही मेरा मौन
है--तेरे न मिलने का गम...!
परमात्मा के मिलने पर भक्त उसी पूछ लेता है कि अब तू ही बता दे, कैसे अपने को पूरा-पूरा खो दूं। धीरे-धीरे खोता ही चला जाता है। एक-एक कदम
मिटता ही चला जाता है।
यह प्रश्न हमारे मन में उठता है, क्योंकि हमने बुद्धि
से सोचा है। हमने बुद्धि से शास्त्र पढ़े हैं। शास्त्रों में लिखा है, जब तक दो रहेंगे, द्वैत रहेगा, तब तक तो संसार रहेगा; अद्वैत चाहिए। माना, निश्चित ही अद्वैत चाहिए। लेकिन अद्वैत दो ढंग का हो सकता है: या तो भगवान
मिटे या भक्त मिटे।
तुम जरा अपने से पूछना, तुम्हारा मन कहेगा:
"भगवान ही मिटे। मैं और मिटूं! यह बात जंचती नहीं'। तुम
भगवान को ही अपने लिए मिटा लेना चाहते हो, इसलिए मुक्त्ति का
सवाल उठता है। पर यह तो बड़े अहंकार की भाव-दशा हुई। तुमने शब्द अच्छे
खोजे--"अद्वैत'...लेकिन छिपा ले गए नास्तिकता को। बातें
तुमने बड़ी धार्मिक कीं, लेकिन आखिर में अपने को बचा लिया।
जो धर्म तुम्हें मिटाये वह धर्म ही नहीं। धर्म तो आत्मविसर्जन है; स्वयं को पिघलाना, बहा देना है। तुम्हारी अकड़ पिघल
जाए; बर्फ की तरह जमी तुम्हारी छाती पिघल जाए; तुम बह जाओ सब दिशाओं में; तुम उसके अस्तित्व के साथ
एक हो जाओ!
मुक्ति की बातें ही क्या हैं? अपने से मुक्त होना
है, अस्तित्व से थोड़े ही मुक्त होना है! भगवान यानी अस्तित्व।
नामों पर मत जाना। भगवान कहो, सत्य कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो--जो तुम्हारी मर्जी हो।
लेकिन अस्तित्व और तुम...तुम बड़े छोटे हो। एक छोटी-सी बूंद महासागर के सामने,
यह आकांक्षा कर रही है कि किसी तरह महासागर मिट जाए! वह आकांक्षा ही
भ्रांत है।
मुक्ति यानी अपने से मुक्ति। और भगवान में मिटने के लिए भक्त्ति से और
ज्यादा सुगम कोई उपाय नहीं है। इसलिए नारद ने कहा, भक्ति सभी साधनों में
श्रेष्ठ है। क्योंकि पहले चरण से ही तुम्हारे मिटने की यात्रा शुरू हो जाती है।
सुगम है, नारद ने कहा। और मार्गों पर पीछे अड़चन आती है,
क्योंकि पहले तो तुम मजबूत होते चले जाते हो; फिर
एक घड़ी आती है, तब मजबूत हो गए अहंकार को छोड़ना पड़ता है।
भक्ति पहले ही कदम से तुम्हें बिखेरने लगती है।
इसलिए दुनिया में बहुत कम भक्त हुए हैं, योगी बहुत हुए।
तुम्हारा समझना शायद उलटा हो। तुम शायद सोचते हो भक्त तो बहुत हुए हैं। भक्त न के
बराबर हुए हैं, क्योंकि भक्त होना दुस्साहस है। योगी होने
में दुस्साहस नहीं है। तुम अपने मालिक हो--सिर के बल खड़े रहो कि आसन लगाओ कि सांस
रोको कि जो तुम्हें करना हो करो; लेकिन तुम अपने मालिक हो।
संकल्प मजबूत होता चला जाता है, अहंकार तीखा होता चला जाता
है, धार पैनी होती चली जाती है। इसलिए योगियों के अहंकार की
धार को देखो, तलवार की तरह चमकती है!
भक्त झुकता है। भक्त अपने को बिखेरता है। भक्त बड़ा कमनीय हो जाता है, कोमल हो जाता है, नाजुक हो जाता है। योगी पथरीला हो
जाता है, जिद्दी हो जाता है, अकड़ जाता
है, कुछ करने का खयाल आ जाता है। योगी सिद्धि की तलाश में है,
शक्ति मिल जाए। भक्त सिर्फ अपने को खोने चला है।
"अंततः क्या मुक्त्ति के लिए आराध्य की छवि का
विसर्जन भी अनिवार्य है?'
तुम ही खो जाते हो। आराधक खो जाता है। स्वभावतः जब आराधक खो जाता है, आराध्य भी खो जाता है, क्योंकि आराध्य बचेगा कहां जब
आराधक न बचा? जब भक्त न बचा तो भगवान कहां बचेगा? मगर खोने की शुरुआत होती है भक्त से: इधर भक्त खोया, उधर भगवान गया; एक ही बचा। अब उसे तुम जो चाहे
कहो--भक्त कहो, भगवान कहो, सब एक ही ह।
लेकिन प्रश्न पूछा गया है साधक के दृष्टिकोण से, भक्त के दृष्टिकोण से नहीं--"आराध्य को खोना है! उसकी छवि खो जाती
है!' देखनेवाला खो जाता है, स्वभावतः
दृश्य भी खो जाता है। एक ही ऊर्जा बचती है। न दृश्य होता है न द्रष्टा होता;
एक ही ऊर्जा बचती है। कहो उसे दर्शन की ऊर्जा...। मगर भक्ति की भाषा
में उचित होगा, कहो--प्रेम की ऊर्जा। न प्रेमी बचता है न
प्यारा बचता है--प्रेम ही लहरें लेने लगता है।
लामकाने-कोकबेत्तकदीरे-आदम इश्क है
पासबाने-अजमतेत्तामीरे-आदम इश्क है
ख्वाबे-आदम इश्क है, ताबीरे-आदम इश्क है
इश्क है, हां इश्क है मेमारे-कसरे-दो जहां।
मनुष्य के भाग्य-नक्षत्र को चमकानेवाला ईश्वर प्रेम है। मानव-निर्माण
की प्रतिष्ठा का रक्षक प्रेम है। मनुष्य का स्वरूप प्रेम है। स्वप्न प्रेम है।
लोक-परलोक दोनों दुनियाओं का निर्माता प्रेम है।
प्रेम ही बचता है।
ऐसा समझो कि गंगा बहती है, दो किनारों से बीच।
दो किनारे--एक भक्त, एक भगवान; बीच में
जो बह रही है धारा प्रेम की, भक्ति की, असली गंगा तो वही है। लेकिन साधक भगवान को खोना चाहता है, भक्त अपने को खोना चाहता है; यद्यपि दोनों दिशाओं से
दोनों खो जाते हैं, अंततः बीच की धारा ही रह जाती है,
गंगा ही बचती है प्रेम की।
चौथा प्रश्न: कल संध्या दर्शन के समय दो विकल्प
थे। मैंने चरणस्पर्श करने का निर्णय इसलिए लिया कि बहुत समय बाद क्षणभर को अपने
प्रीतम को निकट से देखूंगा; लेकिन वह क्षण आया तो
ऊपर आपकी ओर देखा ही न गया। और अब रोता हूं, रोता हूं। ऐसा
क्यों हो जाता है आपके निकट?
देखने के लिए सिर उठाना जरूरी थोड़े ही है--सिर झुकाकर भी देखा जाता
है। असली देखना तो सिर झुकाकर ही देखना है। नाहक रोओ मत। और जिसने सिर झुकाकर देख
लिया, फिर सिर उठाकर देखने का कोई सवाल ही नहीं। इसलिए न
उठा होगा सिर।
आंखों से थोड़े ही देखना होता है, अन्यथा देखना बड़ा
आसान हो जाता। आंखें तो सभी की खुली हैं, अंधा कौन है?
आंखों से ही देखना होता तो सभी कुछ हो जाता। देखना कुछ आंखों से
ज्यादा गहरी बात है--हृदय की है। और हृदय तभी देख पाता है जब झुकता है। फिर उठने
की खबर किसको रह जाती है!
नहीं, कुछ भूल हो गई है। तुम अपने रोने को नहीं समझ पा रहे
हो। तुमने व्यर्थ का एक बौद्धिक उलझाव और समस्या खड़ी कर ली है। तुम्हारी व्याख्या
में कहीं भूल हो गई हैं, अन्यथा तुम खुश होते; अन्यथा तुम्हारा रोना आनंद का रोना हो जाता। फिर से देखना।
यह घटना बहुत बार घटेगी, इसलिए समझ लेना जरूरी
है। बहुत बार ऐसा होता है, जब हृदय से कुछ घटता है तो भी
बुद्धि पीछे से आकर व्याख्या करती है। हृदय तो व्याख्या करता नहीं, अव्याख्य है; घटता है कुछ, भोगता
है; लेकिन काट-पीटकर विश्लेषण नहीं करता। हृदय के पास
विश्लेषण है ही नहीं। हृदय तो जोड़ना जानता है, तोड़ना नहीं।
हृदय तो अनुभव कर लेता है, लेकिन फिर अनुभव के पीछे खड़े होकर
उसका बौद्धिक विश्लेषण नहीं करना जानता। तो जैसे ही अनुभठ हो गया, बुद्धि झपट्टा मारती है; जैसे कहीं लाश पड़ी हो तो
चीलें झपट्टा मारती हैं, गिद्ध झपट्टा मारते हैं, हृदय ने जो अनुभव किया, जैसे ही अनुभव हो गया,
अतीत में चला गया, अनुभव मर चुका, वैसे ही बुद्धि झपट्टा मारती है, बुद्धि की चील
झपट्टा मारती है, पकड़कर मुर्दा चील की चीर-फाड़ करती
हैं--पोस्टमार्टम! उसमें हिसाब लगाती है, क्या हुआ! और सब
गड़बड़ हो जाता है। क्योंकि बुद्धि को तो अनुभव हुआ न था; जिसको
अनुभव हुआ था उसने व्याख्या न की और जिसको अनुभव नहीं हुआ वह व्याख्या करता है।
पूछा है: "कल संध्या दर्शन के समय दो विकल्प थे। मैंने
चरण-स्पर्श करने का निर्णय इसलिए लिया कि बहुत समय बाद क्षणभर को अपने प्रीतम को
निकट से देखूंगा; लेकिन वह क्षण आया तो ऊपर की ओर देखा ही न गया'।
जरूरत ही न थी। भीतर देखने की जरूरत है। प्रीतम बाहर नहीं है। आंख
खोलने की कम, आंख बंद करने की जरूरत है। प्रीतम बाहर नहीं है। जिस
दिन तुम मुझे अपने भीतर देखोगे, उसी दिन मुझे देखा; उसके पहले तो देखने की तैयारी है; उसके पहले तो
देखने की बारहखड़ी है।
फिर पीछे सोचा होगा।
"और अब रोता हूं, रोता हूं'। अब बुद्धि ने कहा होगा, "यह तुमने क्या किया?'
बुद्धि पीछे से आ जाती है परेशान करने को। अगर तुम हृदय से इस बात
को समझो, तो जिस क्षण झुके, उस क्षण
कुछ ऐसा हुआ--
बेखुदी कहां ले गई हमको
देर से इंतजार है अपना!
झुके जब तुम, खो गए एक क्षण को, एक क्षण को
तुम न रहे--उस झुकने में विसर्जित हो गए। इसलिए लौटकर देखने का खयाल न आ सका। कोई
था ही नहीं जो देखता। एक क्षण को सब शांत हो गया; कोई लहर न
उठी। एक अनूठा क्षण आया! एक झरोखा खुला! लेकिन झरोखा तभी खुलता है जब तुम नहीं
होते। फिर पीछे से तुम लौट आए। तब तक झरोखा बंद हो गया। अब तुम पछताते हो। अब तुम
रोते हो। दुबारा ऐसी भूल मत करना।
बुद्धि को हृदय का विश्लेषण करने की आज्ञा मत दो। बुद्धि को विश्लेषण
अटकाते हैं, भटकाते हैं; जो जैसा है उसे
वैसा ही नहीं देखने देते। बुद्धि की धारणाएं आकर बड़ा धुआं खड़ा कर देती हैं।
स्मरण रखो--
जो राह अहले-खिरद के लिए है ला-महदूद
जुनुने-इश्क को वह चंदगाम होती है।
बुद्धि के लिए जो रास्ता बहुत ही लंबा है, प्रेम के लिए दो-चार कदम का भी नहीं।
जो राह अहले-खिरद के लिए है ला-महदूद--जिसका अंत ही नहीं आता; बुद्धि के लिए जो चलता ही जाता है रास्ता...जुनूने-इश्क को वह चंदगाम होती
है--लेकिन जो प्रेम में मतवाला है, प्रेम में पागल है,
उसके लिए कुछ कदम ही काफी हैं। अगर प्रेम का मतवालापन पूरा-पूरा हो,
उसकी त्वरा पूरी हो, तो एक ही कदम काफी है। एक
कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन वह कदम हृदय सक उठना चाहिए,
बुद्धि और विचार से नहीं।
अब दुबारा जब झुको तो बुद्धि को मौका मत देना व्यर्थ बीच में आकर
उपद्रव करने का। जब झुको तो हृदयपूर्वक उस क्षण को अनुभव करने की कोशिश करना:
"क्या हुआ!' हृदय से ही! सोच-विचार की कोई जरूरत नहीं है--सिर्फ
जागने की, जागरूकता की, होश की जरूरत
है। थोड़ा जागकर उस क्षण में देखना, तुम अपने को न पाओगे। और
जहां तुमने अपने को न पाया, वहीं द्वार खुला है; क्योंकि तुम ही दरवाजा, तुम ही दीवाल हो। तुम अगर हो
तो दीवाल, तुम अगर नहीं हो तो दरवाजा।
अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब
भर चुकी है अक्ल का बहुरूप नादानी बहुत।
अब बहुत हो चुका। और नासमझी ने बुद्धिमानी के बहुत रूप रख लिए और बहुत
दिन धोखा दिया।
भर चुकी है अक्ल का बहुरूप नादानी बहुत--जिसको तुम बुद्धिमानी कहते हो
वह सिर्फ नादानी है। नादानी ने बुद्धिमानी के बहुत रूप रखे हैं, बहुत-बहुत तरह से तुम्हें बुद्धिमान बनने का धोखा दिया है। छोड़ो अब उसे।
अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब--घड़ी पास आती है, जब अगर तुम थोड़े सम्हले; झुके और उठे न; झुके और सोचा न; बाहर देखने की चिंता न की, क्योंकि प्रीतम भीतर है; झुके तो झुके रह गए,
तो गए, लौटे न; बुद्धि
को मौका न दिया, हृदय के ही पूरे हो रहे--तो ज्यादा दूर नहीं
है। अब उठा ही चाहता है होश के रुख से नकाब--तो तुम्हारे भीतर जो होश दबा पड़ा है
उसका घूंघट उठ जाएगा। और बुद्धिमानी के नाम पर नादानी बहुत धोखा दे चुकी, अब जाग जाने का समय है!
पांचवां प्रश्न: आपको रोज-रोज सुनते हैं, रोज-रोज देखते हैं; फिर भी जी क्यों नहीं भरता?
और कहीं बाहर भी चले जाते हैं तो भी जी यही लगा रहता है। कृपा कर
समझाइये!
जी की बातें समझायी नहीं जाती। और समझना हो तो अपने जी से ही पूछना
चाहिए। बात समझने-समझाने की नहीं है।
समझ तो तुम गए हो; लेकिन जो मैंने अभी-अभी कहा कि
बुद्धि लौट-लौटकर हृदय पर कब्जा करती है; बुद्धि हृदय को
मुक्त भाव से जीने नहीं देती; बुद्धि हृदय को सहज भाव से
प्रवाहित नहीं होने देती--वह लौट-लौटकर आ जाती है। अब अगर तुम्हारा मन लग गया है,
अगर तुम्हारे हृदय के तार मेरे हृदय के तारों से कहीं जुड़ गए हैं तो
बात सीधी-साफ है, समझना-समझाना कया! जाहिर है कि प्रेम में
पड़ गए हो, पागल हो गए हो! नहीं तो कोई रोज-रोज सुनने आता है?
मकतबे-इश्क का दुनिया में है निराला उसूल
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।
साधारण दुनिया में और पाठशालाएं हैं, वहां जिसको सबक यादा
हो जाता है उसको छुट्टी मिल जाती है, बात खत्म हुई! लेकिन
प्रेम की पाठशाला का बड़ा उलटा ढंग है।
मकतबे-इश्क का दुनिया में है निराला उसूल
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ।
तुम्हें सबक याद हो गेया है। अब जी कहीं लगेगा न। और यह सबक ऐसा है
कुछ कि सीख गए तो सीख गए, फिर भूलने का उपाय नहीं। इसलिए तो लोग सीखने में बड़ी
आनाकानी करते हैं। सीखते ही नहीं। ठीक ही कहते हैं एक हिसाब से; सीख गए तो फिर भूल नहीं सकते। तो जितनी देर करनी हो, सीखने के पहले ही कर लेना। अंगुली तुमने मेरे हाथ में दी तो पहुंचा बहुत
दूर नहीं है।
अंतिम दो प्रश्न: भक्त्ति-सूत्र के रचनाकार नारद
बहुआयामी व्यक्तित्व के मालूम पड़ते हैं। झगड़ा लगाने में उन्हें विशेष रस मिलता है।
वृद्धावस्था में भी कामिनी-कांचन के प्रति उनका मोह कायम रहता है। ढाई घड़ी से अधिक
एक जगह टिकते नहीं। कृपापूर्वक इस रहस्य-भरे व्यक्तित्व पर थोड़ा प्रकाश डालें।
रहस्य कुछ भी नहीं, सीधी-सीधी बातें हैं। लेकिन हम
इतने उलटे हो गए हैं। रहस्य हम में है, नारद में नहीं। ऐसा
कुछ है कि सारी दुनिया शीर्षासन कर रही है और एक आदती सीधा खड़ा है, तो उलटा मालूम होता है।
सीधे-से सूत्र हैं। झगड़ा लगाने में उन्हें विशेष रस लगता है। झगड़ा
मिटाने का एक ही उपाय है: उसे पूरा-पूरा लगा देना, अन्यथा झगड़ा मिटता ही
नहीं। जो चीज पूरी हो जाती है, मिट जाती है। इतनी-सी सार की
बात है नारद के सारे झगड़े में। बड़ा सूत्रात्मक है।
जिस चीज को भी तुमने दबाया उसी में उलझ जाओगे। झगड़े को पूरा हो ही
लेने देना। अगर तुम्हारे भीतर बुद्धि में और हृदय में झगड़ा है तो उसे पूरा हो लेने
दो; उसे पहुंच जाने दो अंतिम सीमा तक; उसे उठने दो;
उसको सौ डिग्री तक बढ़ने दो। इससे बीच में अगर जल्दी की और
कच्चे-कच्चे तुमने उसको रोक लिया, तो उलझे रह जाओगे, खंडित रहा जओगे। अगर तुम्हारी प्रार्थना और कामना में झगड़ा है तो झगड़े को
दबाना मत, उभारना। अगर तुम्हारे क्रोध में और प्रेम में झगड़ा
है तो उसको उभारना, दबाना मत। उभारने का अर्थ है: रेचन,
केथारसिस। उसे पूरा का पूरा ले आना।
बाकी कथाएं तो प्रतीक हैं। जहां कहीं झगड़ा हो, नारद संलग्न हो जाते हैं। झगड़े का पूरा उभार ले आना, उसको पूरा रूप दे देना--उसकी मृत्यु है। कुछ चीजें हैं जो पूरी होकर मर
जाती हैं और बिना पूरे हुए कभी नहीं मरतीं। जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से अपने-आप गिर
जाते हैं, पके फल वृक्ष से अपने-आप टपक जाते हैं; कच्चे फलों को तोड़ना पड़ता है।
नारद का झगड़ा और झगड़े में रस फलों को पकाने की प्रक्रिया है। इसके
पीछे बड़ी सार्थक बातें जुड़ी हैं। लेकिन नारद की इस तरह से कभी कोई व्याख्या नहीं
हुई, इसलिए कठिनाई हो गई। और नारद जैसा अनूठा व्यक्तित्व
हंसी-मजाक का कारण हो गया।
"वृद्धावस्था में भी कामिनी-कांचन के प्रति उनका
मोह कायम रहता है।' इसका कुल अर्थ इतना है कि वृद्धावस्था
में भी उनकी युवावस्था नहीं खोती। बुढ़ापा भी उन्हें बूढ़ा नहीं कर पाता--इतना-सा
मतलब है। मौत उन्हें मार न पाएगी। जिसको बुढ़ापे ने बूढ़ा कर दिया उसको मौत मार
डालेगी। ये तो प्रतीक हैं। इतनी सी खबर है इस बात में कि नारद ताजे बने रहते हैं,
युवा बने रहते हैं--अंतिम क्षणों तक!
नारद बूढ़े नहीं होते; चादर जवान रहती है, ताजी रहती है, ज्यों की त्यों रहती है, एक रेखा नहीं पड़ती। लेकिन "कामिनी-कंचन' शब्द
आते से ही घबड़ाहट हो जाती है। फिर हम भूल जाते हैं प्रतीक की भाषा को। यही कबीर ने
कहा है, लेकिन उनकी बात को किसी ने उलटा नहीं समझा क्योंकि
भाषा उन्होंने तुम्हारी समझ में आ सके, ऐसी उपयोग की है।
कबीर ने कहा है: "ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया! खूब जतन से ओढ़ी चदरिया,
ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया'। यह भी वही
बात है; प्रतीक अलग है।
नारद बूढ़े नहीं होते; चादर जवान रहती है, ताजी रहती है, ज्यों की त्यों रहती है, एक रेखा नहीं पड़ती। लेकिन "कामिनी-कंचन' साधुओं
ने दोनों शब्दों को बड़ा खराब कर दिया है; गालियां हैं। किसी
को यह कह दिया कि कामिनी-कंचन में रस है, बस नरक का द्वार
उसके लिए खोल दिया।
भक्त के लिए कामिनी और कंचन में भी परमात्मा ही है। भक्त की भाषा दमन
की नहीं है, ऊर्ध्व-आरोहण की है। भक्त यह कहता है, जहां भी सौंदर्य है उसी का है: कहीं कामिनी में प्रगट है, कहीं फूल प्रगट है, कहीं चांदत्तारों में प्रगट है!
रूप उसने कुछ भी रखे हों, रूपायित वही हुआ है। मिट्टी भी उसी
की है, सोना भी उसी का है। मिट्टी की भी अपनी सुगंध है;
सोने का अपना सौंदर्य है। भक्त न तो मिट्टी के पक्ष में है, न सोने के विपरीत है। भक्त विभाजन नहीं करता। भक्त ने अविभाज्य रूप से
परमात्मा को अंगीकर किया है; बाहर भी विभाजन नहीं करता,
अपने भीतर भी विभाजन नहीं करता; भीतर भी अपने
को स्वीकार करता है--जैसा उसने बनाया है, वैसा ही स्वीकार
करता है। भक्त के मन में त्याज्य कुछ भी नहीं है; भोग भी
नहीं है, क्योंकि भोग भी "उसका' ही
प्रसाद है।
भक्त को समझना बड़ा कठिन है। योगीत्तपस्वियों को हम समझते हैं; क्योंकि वेहम से विपरीत हैं, समझना आसान है। हम धन
के पीछे दौड़ रहे हैं, वे धन छोड़कर भाग रहे हैं--दोनों भाग
रहे हैं; दोनों धन से जुड़े हैं: एक धन के लिए भाग रहा है,
एक धन से दूर भाग रहा है। भाषा में कठिनाई नहीं है। हमारी पीठ
एक-दूसरे की तरफ होगी, लेकिन बंधे हम एक ही चीज से हैं--धन!
हम स्त्री के पीछे दिवाने हैं; वह स्त्री से बचने के पीछे
दीवाना है--बाकी दोनों की नजर स्त्री पर लगी है। दोनों स्त्री से गुंथे हैं।
भक्त भाग ही नहीं रहा। नारद तो अपना एकतारा बजा रहे हैं; वे भागते-करते नहीं। उन्हें सब स्वीकार है। उन्होंने दोनों लोक को स्वीकार
किया है। यही उनकी कथाओं का अर्थ है कि वे पृथ्वी से वैकुंठ दिन-रात यात्रा कर रहे
हैं। उनका आवागमन अनवरुद्ध है, उन्हें कहीं कोई रोकने वाला नहीं है। इस लोक से उस लोक जाने में कोई सीमा
नहीं। मतलब इतना है। इस लोक और उस लोक के बीच में कोई सेतु नहीं बनाना पड़ रहा है
उन्हें; दोनों जुड़े हैं, अखंड हैं।
कहना ही मुश्किल है कि कहां यह लोक समाप्त होता है और कहां वह लोक शुरू हाता है।
कहीं कोई चुंगी-नाका नहीं है। निर्बाध नारद यहां से वहां एक ही संगीत की लय पर,
एक ही एकतारे को बजाते हुए वैकुठ को पृथ्वी से जोड़ते रहे हैं। उनका
एकतारा दो लोकों को एक कर रहा है। उनकी यात्रा अनूठी है।
नारद के व्यक्तित्व को फिर से पूरा का पूरा समझने की जरूरत है।
क्योंकि नारद का व्यक्तित्व अगर ठीक से समझा जा सके तो दुनिया में एक नए धर्म का
आविर्भाव हो सकता है--एक ऐसे धर्म का जो संसार और परमात्मा को शत्रु न समझे, मित्र समझे; एक ऐसे धर्म का जो जीवन-विरोधी न हो,
जीवन-निषेधक न हो, जो जीवन को अहोभाव, आनंद से स्वीकार कर सके; एक ऐसे धर्म का जिसका मंदिर
जीवन के विपरीत न हो, जीवन की गहनता में हो!
"ढाई घड़ी से अधिक एक जगह नहीं टिकते'!
क्या टिकता है? ढाई घड़ी बहुत बड़ा समय है। कुछ भी टिकता नहीं है। डबरे टिकते हैं, नदियां तो बही चली जाती हैं। नारद धारा की तरह हैं! बहाव है उनमें! प्रवाह
है! प्रक्रिया है! गति है! गत्यात्मकता है! डबरे तो सड़ते हैं। एक ही जगह पड़े रहते
हैं माना, मगर सिवाय कीचड़-कबाड़ के कुछ पैदा नहीं होता।
स्वच्छता के लिए प्रवाह चाहिए।
लेकिन तुम सभी डरे हुए हो प्रवाह से। तुम सभी डरे हुए हो परिवर्तन से, क्योंकि परिर्वतन के पीछे मौत छिपी मालूम होती है। अगर परिर्वतन होगा तो
मौत आएगी। तुम सब यह चाहोगे कि अगर कोई चमत्कार कर सके और तुम जैसे हो जहां हो,
वहीं डबरे की तरह ठहर जाओ, मूर्तियों की भांति,
पत्थर! एक चमत्कार ईश्वर करे और अब अपनी-अपनी जगह जैसे हैं, वैसे ठहर जाएं, तो तुम बड़े खुश होओगे; हालांकि मर जाओगे, मगर तुम बड़े प्रसन्न होओगे कि चलो,
अब मौत नहीं आएगी। मगर मौत आ ही गई!
जरा जीवन को देखो चारों तरफ: कितनी गति है! कहीं कुछ ठहरा हुआ है? सिवाय तुम्हारे भय की, मन की आकांक्षाओं के, ठहरने का कहीं कोई स्थान है? सब बदल रहा है। सब
रूपांतरित हो रहा है। लहरें आती हैं, जाती हैं सागर की!
सृष्टि और प्रलय! दिन और रात! सब बदल रहा है!
ढाई घड़ी! तुम ज्यादा न डर जाओ, इसलिए ढाई घड़ी कहा
होगा कथाओं में। ढाई पल भी कहां कोई चीज ठहरी है। त्वरित जीवन रूपांतरित हो रहा
है। जीवन का अर्थ ही रूपांतरण है। जो ठहर जाए वह मौत। जो बढ़ता चले वही जीवन।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा: ठहरना मत। समझे नहीं वे। वे समझे कि
बुद्ध यह कह रहे हैं कि एक गांव में ज्यादा देर मत ठहरना। बुद्ध ने कहा:
"चरैवेति! चरैवेति! चलते जाना! चलते जाना! उन्होंने समझा कि ठीक है, परिव्राजक बना रहे हैं बुद्ध। तो एक गांव में तीन दिन से ज्यादा नहीं
ठहरते, दूसरे गांव में चले जाते हैं। बुद्ध ने कुछ और ही कहा
था। बुद्ध ने कहा था: ठहरना जीवन के विपरीत है। ठहरने की आकांक्षा ही आत्महत्या
है। बढ़ते ही जाना! यहां कुछ ऐसा नहीं है कि मंजिल है कोई, जहां
पहुंचकर ठहरे सो ठहरे, तो तुम जड़ हो जाओगे। यहां यात्रा ही
मंजिल है। चलते जाना!
यही अर्थ है नारद का।
और अंतिम सवाल: पुराण में कथा है कि बालक ध्रुव नारद के भक्त थे; नारद नारायण के भक्त थे। बालक धु्रव की भक्ति से मात्र छह महीने में ही
नारायण प्रसन्न हो गए और उपलब्ध हो गए। और इसकी स्मृति में आकाश से एक तारा
उगा--ध्रुव तारा। इससे अन्य ऋषि-मुनि ध्रुव के प्रतिर् ईष्या से और नारायण के
प्रति शिकायत से भर गए, क्योंकि वे सब कठोर तपश्चर्या करके
भी कुछ न पा सके थे। जब वे ऋषि-मुनि इकट्ठे होकर विचार करते थे, तब एक मछुआ आया और उसने उन सबको नदी की सैर का निमंत्रण दिया। वे सब गए और
उन्होंने जगह-जगह सफेद चिह्म देखे। ऋषि-मुनियों के पूछने पर मछुए ने कहा, इन सभी स्थलों पर ध्रुव ने पिछले जन्मों में तपश्चर्या की थी।
कृपा करके इस पुराण की कथा का हमें सार कहिए!
कथाएं इतिहास नहीं हैं। कथाएं पुराण हैं। इतिहास और पुराण का भेद समझ
लेना चाहिए। इतिहास तो वह है जो कभी घटा, हुआ। पुराण वह है जो
सदा होता है। इतिहास समय में घटता है, पुराण शाश्वत है। तो
पुराण को सिद्ध करने की कोशिश मत करना कि वह हुआ कि नहीं, वह
तो भूल ही हो गई फिर। फिर तो तुम कविता को समझे ही नहीं, काव्य
को पहचाने ही नहीं। फिर तो तुम गलत रास्ते पर चल पड़े। ऐसा चल रहा है पूरे मुल्क
में, हजारों साल से चल रहा है, अभी भी
चलता है।
अभी कुछ दिन पहले लुधियाना में पुरि के शंकराचार्य ने चुनौती दी कि
कोई भी अगर सिद्ध कर दे कि रामायण झूठ है तो मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूं।
कुछ हैं तो सिद्ध करना चाहते हैं कि रामायण झूठ है। कुछ हैं जो सिद्ध करना चाहते
हैं कि रामायण सच है। और दोनों एक ही नाव में सवार हैं।
न रामायण झूठ है, न रामायण सच है--रामायण पुराण
है। रामायण का समय से कोई संबंध नहीं, इतिहास से कोई संबंध
नहीं। ऐसा कभी हुआ है, ऐसा सवाल ही नहीं है। ऐसा नहीं हुआ है,
यह तो सवाल उठता ही नहीं है। ऐसा होता रहा है। ऐसा आज भी हो रहा है,
अभी भी घट रहा है।
पुराण का अर्थ है: जीवन का सार-निचोड़ थोड़ी-सी कहानियों में रख दिया
है। कहानियों पर जिद्द मत करना, सार-निचोड़ को पकड़ना।
"बालक ध्रुव नारद के भक्त थे;नारद नारायण के भक्त थे'। इसका अर्थ हुआ कि भगवान तक
सीधे पहुंचना कठिन होगा, सदगुरु चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि
भगवन से सीधा-सीधा मिलना कठिन होगा, मध्यस्थ चाहिए। इसका
अर्थ हुआ कि कोई बीच में चाहिए जो तुम जैसा भी हो और भगवान जैसा भी हो, तो सेतु बन सकेगा। कोई ऐसा चाहिए जिसका एक हाथ तुम्हें पकड़े हो और एक हाथ
जिसका परमात्मा पकड़े हो। एक हाथ तुम्हारे जैसा और एक हाथ परमात्मा जैसा! जो
परमात्मा और मनुष्य के बीच में कहीं हो--संक्रमण हो, द्वार
हो।
परमात्मा बहुत बड़ा है। आदमी बहुत छोटा है। दोनों में तालमेल कैसे बैठे? कोई चाहिए जो परमात्मा जैसा बड़ा हो, आदमी जैसा छोटा
भी हो।
गुरु इस दुनिया में सबसे बड़ा विरोधाभास है, सबसे बड़ा पैराडाक्स। अगर तुम गुरु को एक तरफ से देखो, अपनी तरफ से, तो तुम्हारे जैसा है। अगर तुम दूसरी
तरफ से देखो तो परमात्मा जैसा है। इसलिए तो कोई भी अपने गुरु के लिए तर्क नहीं कर
सकता, न प्रमाण जुटा सकता है। क्योंकि तुम्हारे तर्क और
प्रमाण कुछ भी सिद्ध न कर सकेंगे उसके लिए, जिसको दूसरी तरफ
से देखने की क्षमता न हो। वह कहेगा, हमारे जैसा ही तुम्हारा
गुरु है; जैसी हमें भूख लगती है उसे लगती है; धूप आए तो हमें पसीना आता है, उसे आता है।
इन बातों से बचेन के लिए फिर कपोल-कल्पनाएं शुरू होती हैं। जैन कहते
हैं, महावीर को पसीना नहीं आता। पागल हैं। बिलकुल पागलपन
की बात है। जैन कहते हैं, महावीर को चोट करो तो खून नहीं
निकलता, दूध निकलता है।
ये क्यों कहानियां गढ़ी गई हैं? ये भक्त यह कह रहे
हैं कि हमारा भगवान आदमियों जैसा नहीं है। मगर तुम्हें यह सिद्ध करना पड़ रहा है कि
पसीना नहीं आता, उससे साफ है कि पसीना आता होगा। तो काहे के
लिए चिंता करते? दूसरे सिद्ध करते हैं कि पसीना आता है;
खून ही निकलता है, दूध कहीं निकला है!
भक्तों ने अपने गुरुओं को अलौकिक सिद्ध करने की बड़ी चेष्टाएं की हैं।
उनकी चेष्टा को समझो सहानुभूति से तो सार्थक मालूम होती है। उनकी चेष्टा ही यही है, वे यह कह रहे हैं कि तुम हमारे गुरु को साधारण मनुष्य मत समझो। ठीक ही कह
रहे हैं, लेकिन जिस भाषा में कह रहे हैं वह बिलकुल गलत है।
और उनकी भाषा के कारण दूसरों के सामने महावीर का, या उनके
गुरु का परमात्म-रूप तो प्रगट नहीं होता, उनका ऐतिहासिक रूप
तक संदिग्ध हो जाता है।
गुरु बड़ी भारी विरोधाभासी अवस्था है; अगर बुद्धि से देखा
तो आदमी जैसा, अगर हृदय से देखा तो परमात्मा जैसा। इसलिए
श्रद्धा की आंख हो जो गुरु परमात्मा से जोड़ने का कारण हो जाता है।
"पुराण की कथा है, बालक
धु्रव नारद के भक्त थे, और नारद नारायण के'। सेतु बन गया। राह खुल गई। धु्रव की भक्ति से मात्र छह महीने में नारायण
प्रसन्न हो गए। छह महीने भी लगे, यह आश्चर्य की बात है। जरूर
सरकारी कामकाज, दफ्तर...! छह महीने! धु्रव जैसा सरल हृदय
प्रार्थना करे और छह महीने लगें! पुराण ने मजाक की है! सरकारी काम-काज, रेड टेप! फाइलें सरकने में वक्त लग जाता है। तुम चकित होते हो कि छह महीने,
इतने जल्दी हो गया; मैं चकित हो रहा हूं कि छह
महीने लगे, इतनी देर लगी! बाल-हृदय से प्रार्थना उठे,
तत्क्षण पूरी हो जाती है। इतने निर्दोष हृदय से उठी प्रार्थना में
कमी क्या हो सकती है कि छह महीने लगें? हां, पुराण लिखनेवालों को शायद छह महीने बाद पता चला होगा। लेकिन प्रार्थना हो,
निर्दोष हो, तो क्षण का भी फासला नहीं है,
प्रार्थना तत्क्षण पूरी हो जाती है। यही तो प्रार्थना का चमत्कार
है। उसमें देर लग जाए, यह संभव नहीं; क्योंकि
प्रार्थना समय के बाहर है, समयतीत है।
आकाश में धु्रव तारा तो अभी भी है; धु्रव की कथा बनी,
उसके पहले भी था। लेकिन धु्रव की घटना इतनी महत्वपूर्ण है और उसकी
स्थिर भक्ति इतनी स्थिर थी, उसकी प्रज्ञा ऐसी थिर थी कि सारे
अस्तित्व में धु्रव से ज्यादा, ध्रुव तारे से ज्यादा थिरता
का और कोई प्रतीक नहीं मिला। वह अकेला तारा है जो ठहरा हुआ है, अपनी जगह पर, कोई उसे हिलाता नहीं, अकंप! इसलिए धु्रव तारे से धु्रव का नाम जुड़ गया।
"इससे अन्य ऋषि-मुनि धु्रव के प्रतिर् ईष्या और
नारायण के प्रति शिकायत से भर गए'। ...ऋषि-मुनि न रहे होंगे।
क्योंकि जहां तकर् ईष्या है वहां तक कैसा ऋषि, कैसा मुनि!
मगर इसी तरह से ऋषि-मुनियों से हम परिचित हैं: ईष्यों है, दौड़
है, महत्वकांक्षा है, जलन है, शिकायत है! और उनकी शिकायत तर्कयुक्त भी मालूम होती है; वर्षों से तपश्चर्या कर रहे थे, उनको तो न मिला और
छोटे बालक को मिल गया, जिसका कुछ अर्जन नहीं!
इसे ध्यान रखो: सांसारिक मन कहता है, भगवान को भी अर्जित
करना होगा; जैसे वह भी कोई संपदा है, बैंक-बैलेंस
हैं। भगवान मिला ही हुआ है, सिर्फ स्मरण करना है, अर्जन नहीं। सरल हृदय उसका स्मरण करता है, प्रत्यभिज्ञा
हो जाती है। गणितवाला हृदय, गणितवाली बुद्धि अर्जन करती
है--कमाओ! उपवास करो, व्रत करो, त्याग करो,
यह करो, वह करो--कमाओ! दावेदार बनो! स्वभावतः
जब तुम कमाते हो तो भीतर से यह भी उठता है, बड़ी देर लग रही
है, इतना कमा लिया--अभी तक नहीं, अभी
तक नहीं! और अगर एएसे कमानेवालो लोगों के बीच में किसी को अचानक मिल जाए जिसने कुछ
भी न किया; छोटा बच्चा, जिसके पास समय
ही न था करने को कुछ--तो स्वभावतःर् ईष्या जगेगी कि यह तो फिर अन्याय हो गया। यह
तो इनका बस चले तो ये ऋषि-मुनि परमात्मा को अदालत में ले जाएं कि "यह अन्याय
हो रहा है। कहावत तो सुनी थी कि देर है अंधेर नहीं; लेकिन अब
तो अंधेर भी हो रहा है। देर तो हो ही गई है कि जिंदगीभर तपश्चर्या की, व्रत-उपवास किए, सब फेहरिश्त तैयार रख हैं...।'
फाइलें ऋषि-मुनियों की तैयार हैं, उन्होंने
क्या-क्या किया है, उसमें खूब बढ़ा-चढ़ाकर लिखा हुआ है। और इस
दो दिन के बालक को, जिसने कुछ भी न किया था; जो अभी ठीक से तुतलाता भी नहीं, यह क्या तो
प्रार्थना करेगा, कहां से संस्कृत का शुद्ध उच्चार लाएगा,
वेद-मंत्र कहां जानता है--इसको मिल गया! बुद्धि का चिंतित होना
स्वाभाविक है, क्योंकि बुद्धि गणित है।
यही समझ लेना चाहिए, प्रार्थना को न तो भाषा की जरूरत
है, न शास्त्रों की जरूरत है, सिर्फ
प्रेम की जरूरत है। छोटे बालक जैसा प्रेम पर्याप्त है; उससे
ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर फिर से अपने छोटे बालक जैसे प्रेम को पुनः
पा लो तो सब शास्त्र दो कौड़ी के हैं। तो कोई व्रत-उपवास जरूरी नहीं है। उतनी सरल
हृदय से तुम्हारी प्रार्थना उठ आए, पूरी हो जाएगी।
लेकिन ऋषि-मुनि एक तरफर् ईष्या से भरे हैं, एक तरफ शिकायत से भी भरे हैं! अन्याय हो गया था!
ध्यान रखना, धर्म के मार्ग पर अर्जन की भाषा छोड़ो; अन्यथा तुम संसार को ही खींचे लिए जा रहे हो। छोड़ो ये बातें। परमात्मा,
तुम क्या करते हो, इससे नहीं मिलता; तुम क्या हो, इससे मिलता है। तुम्हारा होना शुद्ध हो;
तुम्हारा होना निष्कलुष हो; तुम्हारा होना
कुंआरा हो, छोटे बच्चे जैसा हो!
जीसस न कहा है: जो छोटे बच्चों की तरफ होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।
"ऋषि-मुनि इकट्ठे हो गए, विचार
करने लगे। एक मछुए ने उनको अपनी नाव में बिठा लिया। वहां जगह-जगह सफेद चिह्म दिखाई
पड़े। पूछने पर मछुए ने कहा, ये वे स्थान हैं, जहां ध्रुव ने पिछले जन्मों में तपश्चर्या की थी।' इससे
ऋषि-मुनि राजी हो गए होंगे। यह बात फिर उनकी समझ में आ गई होगी, फिर गणित में बैठ गई। यह तो बहुत कठिन होता अगर मछुआ कहता कि बस धु्रव ने
मांगा और भगवान मिल गए; कोई तपश्चर्या पीछे नहीं है, कोई यात्रा पीछे नहीं है। कहानी सरल हो गई। ऋषि-मुनियों की शिकायत कम हो
गई होगी।
मेरे देखे कर्म का सिद्धांत तुम्हारे सांसारिक गणित का फैलाव है। तुम
कहते हो, फलां आदमी आंनद भोग रहा है, पिछले
जन्मों में पुण्य किए होंगे; क्योंकि यह तो तुम बरदाश्त कर
ही नहीं सकते कि इसी जन्म में और आनंद भोग रहा हो! दूसरा आदमी मजे कर रहा है,
सफलता पा रहा है; तुम कहते हो, "ठहरो! वक्त आएगा जब भोगोगे! अगले जन्म में देखना, सड़ोगे,
नरक में पड़ोगे! यह चार दिन की चांदनी है, फिर
अंधेरी रात!' ऐसे तुम अपनेमन को समझा लेते हो।
कर्म का सिद्धांत साधारणतः तुम्हारे मानसिक गणित का ही फैलाव है। उससे
तुम हल कर लेते हो, मामला साफ हो जाता है, झंझट
खत्म हो गई। फिर तुम्हें अड़चन नहीं होती। अगर मैं कहूं कि बस, बिना कुछ किए परमात्मा मिल गया, तुम कहोगे,
"यह बात जरा संदिग्ध है; हम इतना कर रहे
हैं और न मिला!' अगर मैं कहूं, जन्मों-जन्मों
में मेहनत की, तब तुम कहोगे, "ठीक
है, दया आती है, मिलना ही चाहिए।'
गणित में बात बैठ गई।
मछुए की बात सुनकर ऋषि-मुनि शांत हो गए होंगे। मछुआ बड़ा होशियार रहा होगा।
मछलियां पकड़ते-पकड़ते आदमियों को पकड़ना जान गया होगा। धु्रव से उनकी नाराजगी चली गई
होगी, परमात्मा से शिकायत भी चली गई--बात सब गणित में आ गई!
और मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम गणित में नहीं
आता। और मैं तुमसे कहता हूं, प्रार्थना गणित में नहीं आती।
और मैं तुमसे पुनः पुनः कहता हूं: तुम क्या करते हो, इससे
परमात्मा के मिलने का कोई भी संबंध नहीं--तुम क्या हो, तुम्हारा
होना ही एकमात्र पाने का उपाय है।
आज इतना ही।
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