मैं खड़ा हूं—अजीब बात है, इस समय तो मैं आराम कर रहा हूं—मेरा मतलब है अपनी स्मृति में मैं मस्तो कि साथ खड़ा हूं। निश्चित ही तो ऐसा कोई और नहीं है जिसके साथ मैं खड़ा हो सकता हूं। मस्तो के बाद दूसरे किसी का संग-साथ तो बिलकुल अर्थहीन है।
मस्तो तो पूर्णतया समृद्ध थे—भीतर से भी और बाहर से भी। उनके रोम-रोम से उनकी आंतरिक समृद्धि झलकती थी। अपने विविध संबंधों का उन्होंने जो विशाल जाल बुन रखा था उसका हर तंतु मूल्य वान था और इसके बारे मैं उन्होंने मुझे धीरे-धीरे अवगत किया। अपने जाने-पहचाने सब लोगो से तो उन्होंने मुझे परिचित नहीं कराया—ऐसा करना संभव नहीं था। मुझे जल्दी थी वह करने की जिसे में कहता हूं, न करना। वे मेरे प्रति अपनी जिम्मेवारी को पूरा करने की जल्दी मैं थे। चाहते हुए भी वह मेरे लिए अपने सब संबंधों का लाभ उपलब्ध न करा सके। इसके दूसरे कारण भी थे।
वे परंपरागत संन्यासी थे। कम से कम ऊपरी तल पर, परंतु उनको मैं भीतर से जानता था। वे परंपरागत नहीं थे। पर ऐसा होने का ढोंग करना पड़ता था, क्योंकि लोगों की भीड़ ही उनसे चाहती थी। आज मैं समझ सकता हूं कि उनको पीड़ा झेलनी पड़ी होगी। मुझे वैसी पीडा कभी नहीं हुई क्योंकि मैंने हर प्रकार के ढोंग से इंकार कर दिया।
तुम्हें विश्वास नहीं होगा कि हजारों लोग मुझे यह उपेक्षा कर रहे थे कि मैं उनकी कल्पनाओं को साकार कर दूँ अर्थात मेरा आचरण उनकी कल्पनाओं के अनुसार हो मुझे उनसे कोई मतलब न था।
मेरे लाखों अनुयायियों में से हिंदू लोग—मैं उस समय की बात कर रहा हूं जब मैंने अपना काम अभी शुरू नहीं किया था। लोग मुझे कल्कि मान रहे थे। कल्कि हिंदुओं का अंतिम अवतार है।
इसके बारे में मुझे तुम लोगों को कुछ बातें समझनी पड़ेगी। भारत में प्राचीन हिंदू परमात्मा के केवल दस अवतार मानते थे। वह स्वभाविक है क्योंकि उस समय लोग अंगुलियों पर ही गिनती किया करते थे। और दस की संख्या अंतिम थी। एक से दस ही गिना जाता था। इसलिए हिंदुओं का यह विश्वास था कि अस्तित्व के हरेक चक्र में दस अवतार होते है। अवतार शब्द का अर्थ है: दिव्य का अवतरण। दस इसलिए क्योंकि दस के बाद एक चक्र समाप्त हो जाता है। इसके तुरंत बाद ही दूसरा आरंभ हो जाता है। फिर पहला अवतार आता है। और इस प्रकार यह कहानी दस तक चलती रहती है।
अगर तुमने भारतीय गरीब किसानों को गिनती करते हुए देखा हो तो तुम मेरी बात को समझ जाओगे। वे अपनी अंगुलियों पर दस तक गणना करते है—इसके बाद फिर वे एक दो से शुरू करते है। आदिवासियों में दस का अंक अंतिम है। अजीब बात है, जहां तक भाषाओं का ख्याल है अभी भी वैसा ही है। दस के बाद कुछ नहीं। ग्यारह का अंक तो केवल पुनरूक्ति है। एक के पीछे एक रख दिया गया है। उनका विवाहा कर दिया गया है और उन्हें मुसीबत में डाल दिया। दस तक के अंक मौलिक क्यों है। क्योंकि सब जगह आदमी ने अपनी अंगुलियों पर ही गिनती की है।
इससे पहले कि यह चर्चा मैं चालू रखूं—थोड़ा सा मोड़ तुम्हें बताना चाहता हूं कि एक दो तीन..........दस अंकों के लिए तुम्हारे अंग्रेजी के बाद जो शब्द है उस सबको संस्कृत से उधार लिया गया है। गणित तो संस्कृत का ऋणी है। क्योंकि इन अंको के बिना न तो अल्बर्ट आइंस्टीनी होता। न एटम बम होता, न ब्रट्रेंड़रसल और न हाइट हैड का प्रिसिपिआ मैथेमेटिका होता। ये अंक बुनियादी ईंटे हैं। और ये हिमालय की घाटी में रखी गई थी। शायद उनहोंने असीम सौंदर्य को देख कर उसको मापना चाहा था। या कोई दूसरा कारण रहा होगा। परंतु एक बात तो निश्चित है कि संस्कृत का ‘षष्ठ’ अंग्रेजी में ‘सिक्थ’ बन जाता है। संस्कृत का ‘अष्ट’ ‘एट’ बन जाता है। और इसी प्रकार दूसरे अंकों का रूप भी थोड़ा बदल जाता है।
मैं क्या कहा रहा था?
आप कहते थे कि हिंदू समझ रहे थे कि आप परमात्मा के अंतिम अवतार कल्कि है।
हां, तुम अच्छी तरह से सुन रहे हो।
कल्कि हिंदुओं का दसवां और अंतिम अवतार है। उसके बाद दुनियां समाप्त हो जाती है। और फिर से आरंभ होती है। ठीक उसी तरह जिस तरह तुम ताश का घर गिरा देते हो। और फिर उसे बनाते हो। हां, बनाने से पहले ताश के पत्तों को थोड़ा सा मिलाते हो, ऊपर-नीचे करते हो। इससे तुम्हारी उत्साह बढ़ जाता है। पत्तों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन इससे तुम्हारा उत्साह बढ़ जाता है।
बस इसी प्रकार परमात्मा भी ऊपर-नीचे करता है। कि शायद इस बार मैं अधिक अच्छा कर सकूंगा। किंतु वह जो करता है—हर बार रिचर्ड निकसन, एडोल्फ हिटलर, मोरार जी देसाई.....बाहा निकल आते है...मेरा मतलब यह है कि परमात्मा हर बार असफल हो जाता है।
हां, कभी-कभी वह असफल नहीं भी होता। किंतु इसका श्रेय तो मनुष्य को मिलना चाहिए क्योंकि वह ऐसी दुनिया में सफल होता है जहां पर सब कुछ असफल है। इसका श्रेय परमात्मा को नहीं दिया जा सकता। वह दुनिया परमात्मा की बदनामी का अच्छा प्रमाण है।
ऋग्वेद के समय से भी पहले, कोई दस हजार वर्ष पहले से हिंदू दस के अंक को अंतिम अंक मानते आ रहे है। परंतु जैन, जो हिंदुओं से कही अधिक प्राचीन, तार्किक और गणितज्ञ है। दस की संख्या की पावनता में विश्वास नहीं करते। उनकी अपनी अलग मान्यता है। निश्चित ही उन्होंने भी किसी स्त्रोत से गणना निर्धारित की होगी। अगर अपनी अंगुलियों से गणना निर्धारित नहीं कि तो किसी और तरीके से निर्धारित की होगी। कोई और स्त्रोत रहा होगा।
जैनों ने जो किया, उसकी स्पष्ट चर्चा कभी नहीं की गई। और मैं किसी शास्त्र से इसकी पुष्टि नहीं कर सकता क्योंकि शायद मैं ही इसके बारे में पहली बार बोल रहा हूं। अगर किसी ने इसकी चर्चा मुझसे पहले की है तो मुझे मालूम नहीं है। इसीलिए मैं कहा रहा हुं कि शायद। परंतु जानने योग्य सभी शास्त्रों को में जानता हूं। दूसरों कि और मैंने ध्यान नहीं दिया। पर फिर भी हो सकता है कि भीड़ में मैंने किसी ऐसे की उपेक्षा कर दी हो जिसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी। इसीलिए शायद शब्द का प्रयोग करना पडा । अन्यथा मैं निशचित रूप से जानता हूं कि इससे पहले किसी दूसरे ने ऐसा नहीं कहा परंतु अब इसे कहा देना चाहिए।
जैन चौबीस गुरूओं को मानते हे। वे उन्हें तीर्थंकर कहते है। तीर्थ कर शब्द बहुत ही सुंदर है। इसका अर्थ है: दूसरे किनारे पर जाने के लिए जो तुम्हारी नाव के लिए घाट बनाता है। तीर्थ का यही अर्थ है। तीर्थकर का अर्थ है: जो ऐसा घाट बनाता है जहां से अनेक-अनेक लोग दूसरे किनारे पर जा सकते है। परंतु वे चौबीस को मानते है। उनकी सृष्टि का भी एक चाक है किंतु वह बड़ा है। हिंदुओं का दस का चक्र है। जैनों का चौबीस का बड़ा चक्र है उनका क्षेत्र बड़ा है।
हिंदू भी अनजाने ही इस चौबीस की संख्या से प्रभावित हो गए। क्योंकि जैन उनसे कहते थे कि तुम्हारे पास ता केवल दस है—हमारे पास चौबीस है। ये बच्चों जैसी बातें है। बच्चे एक-दूसरे से पूछते है कि तुम्हारे पापा कितने बड़े है। क्या वे केवल पाँच फीट ऊंचे है। मेरे पापा तो छह फीट ऊंचे है। मेरे पापा कैसे बड़ा तो कोई हो ही नहीं सकता। और यह परमात्मा भी कुछ और नहीं बस पापा ही होता है। परमात्मा हीं। अब्बा, वास्तव में प्रेम ओर आदर का शब्द है। पिता शब्द से प्रेम की यह ध्वनि नहीं निकलती। जैसे ही तुम और आदर का शब्द है। पिता शब्द से प्रेम की वह ध्वनि नहीं निकलती। जैसी ही तुम पिता या फादर कहते हो कुछ गंभीर रहो जाता है। अपने पादरियों को फादर कहते है। उनके लिए डैडी पापा शब्द उपयुक्त नहीं है। और बच्चे अब्बा शब्द पर हंसेगे—कोई उनको गंभीरता से नहीं लेता।
हिंदू भारत के बाहर से आए। ये इस देश के मूल निवासी नहीं है। ये विदेशी है—बिना पासपोर्ट के । शताब्दियों तक ये मध्य एशिया से आते रहे है। यहीं से यूरोप की अन्य जातियां भी आई है—फ्रांसीसी,अंग्रेज,जर्मन, रूसी, स्केंडीनेवीयन, हिरीथूएनियन आदि-आदि।
सभी ‘यन्स’ मंगोलिया से आए है। आज तो मंगोलिया रेगिस्तान जैसा बन गया है। मंगोलिया के बारे में कोई सोचता भी नहीं है कि यह एक देश है। इसका कुछ भाग तो चीन का है और इसका अधिकांश भाग रूस में चला गया है। निरंतर इसी बात पर झगड़ा होता रहता है। कि इसकी सीमा-रेखा कहां खींची जाए। क्योंकि मंगोलिया तो सिर्फ रेगिस्तान है।
परंतु ये सब लोग—विशेषत: आर्य मंगोलिया से ही आए। ये भारत चले आए, क्योंकि एकाएक मंगोलिया रेगिस्तान बनने लगा और उनकी जनसंख्या भारतीय ढंग से बढ़ने लगी थी। इसीलिए उन्हें सभी दिशाओं में जाना पडा। अच्छा ही हुआ इसी प्रकार इन विभिन्न देशों का निर्माण हुआ।
आर्यों के भारत में आने से पहले ही ये देश अति सभ्य और सुसंस्कृत था। यह यूरोप जैसा नहीं था। जब आर्य जर्मनी ओर इंग्लैड पहुंचे तो उनको किसी से भी लड़ाई नहीं करनी पड़ी। उन्हें वहां पर बहुत सुंदर जमीन मिल गई जहां पर किसी का उन्हें डर नहीं था। परंतु भारत में ऐसा नहीं था। आर्यों के प्रवेश के पहले भारत में जो लोग रहते थे वे बहुत ही सुसभ्य रहे होंगे। मेरा मतलब है कि वे केवल शहरों में ही नहीं रहते थे।
उस समय के दो शहर खुदाई में निकाले गए है—मोहलजोदरो और हड़प्पा। अब ये पाकिस्तान में है। किंतु पहले भारत में ही थे। इन शहरों में आश्चर्यजनक चीजें है। इन शहरों की गलियाँ बहुत चौड़ी होती थी। साठ फीट चौडी। इमारतें तीन मंजिल की होती थी। बेडरूम के साथ-साथ बाथरूम भी होते थे।
आज भी भारत में लाखों लोग यह नहीं जानते कि बेडरूम के साथ बाथरूम भी हो सकता है। अगर उन्हें यह बात बताई जाए तो वे इस पर विश्वास ही नहीं करते और वे हंसने लगते है। वे समझते है कि तुम पागलों जैसी बात कर रहे हो—बेडरूम के साथ बाथरूम कैसे हो सकता है।
स्केंडीनेवीयन का जो नवीनतम मकान का नक्श बनाने वाला है वह तुम्हें भी पागल ही मालूम होगा। क्योंकि उसके बाथरूम के भीतर ही बेडरूम है। सारा दृष्टिकोण ही बदल गया। बुनियादी रूप से तो यह बाथरूम ही है और उसके एक कोने में बेडरूम बना हुआ है। अलग भी नहीं है। बाथरूम अधिक महत्वपूर्ण है। उसके भीतर एक छोटा सा स्विमिंग पुल भी बना हुआ है। और जरूरत की सब चीजें वहां पर मौजूद है, उसमें एक चारपाई भी बनी हुई है। बाथरूम बेडरूम से जुड़ा हुआ नहीं है बेड ही बाथरूम में है।
भविष्य में शायद ऐसा ही होगा। परंतु अगर भारत के लोगों को यह बात बताई जाए...। सारे गांव में अकेला मैं ही था—मेरे नाना के गांव में जहां पर मैं बहुत दिन तक रहा—जिसने अपने बेडरूम के साथ ही बाथरूम बनाया हुआ था। लोग इसका मजाक उड़ाते थे। कि क्या सचमुच तुम्हारे बेडरूम के साथ बाथरूम बना हुआ है। और वे इस बात को बहुत धीरे से फुसफुसा कर कहते थे।
मैं उनसे कहता: इसमें छिपाने की क्या बात है, हां—है तो क्या?
उन्होंने कहा: हमें विश्वास नहीं होता। क्योंकि यहां पर तो हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि बेडरूम के साथ लगा हुआ बाथरूम भी होता है। जरूर यह तुम्हारी नानी का विचार रहा होगा। वे बहुत खतरनाक है। वे यहां की नहीं है। कहीं दूर से आई है। हमने उनके जन्मस्थान की जो कहानियाँ सुनी है उन्हें हम अपने बच्चों को भी नहीं सुना सकते । और तुम्हें भी नहीं बताएँगे।
मैंने उनसे कहा: आप लोग इसकी चिंता मत करो, आप मुझे बता सकते है क्योंकि मेरी नानी स्वयं इन के बारे में मुझे बताती है।
वे कहते, देखो, हमने तो पहले ही कहा था कि वे खजुराहो से आई हुई विचित्र औरत है। वहां पर सही लोग पैदा ही नहीं होते है।
शायद मुझमें नानी का जो खून है उसके कारण ही लोग जिसे गलत मानते है उसे मैं ठीक मानता हूं।
इस दुनियां में जब कि हिंदू अपने धर्म को सबसे प्राचीन मानते है, लेकिन ऐसा नहीं है। जैन सबसे प्राचीन है। पर वे अल्पसंख्यक है और बहुत कायर है। परंतु इन्होंने चौबीस की संख्या के बारे में सोचा। चौबीस क्यों? मैंने इसके बारे में सोचा है मेंने इसके बारे में मस्तो से अपनी मां से और अपनी तथाकथित सास से चर्चा की थी।
इस तथाकथित अपनी सास के बारे में बादमें बात करूंगा। मेरे सामने तो उसको मेरी सास कोई भी नहीं कहता था। क्योंकि दोनों ही खतरनाक थे। मेरी नानके बाद मेरे परिचितों में से वह सबसे अधिक साहसी स्त्री थी। उसको मैं प्रथम स्थान तो नहीं दे सकता मजाक ही मजाक में उसे मेरी सास कहा जाता था। वह मेरी मां जैसी थी। मैंने उसकी बेटी से शादी नहीं की थी परंतु उसकी बेटी का मुझसे प्रेम था। उसके बारे में मैं किसी और चक्र में बात करूंगा क्योंकि वह तो वास्तव में दुस्चक्र है। और उसको मैं अभी आरंभ नहीं करना चाहता।
समय क्या हुआ है?
साढ़े दस बजे हैं,ओशो।
वाह,सिर्फ मेरे लिए दस मिनट ओर, बहुत ही सुंदर है।
(और उन दस मिनट में सब मौन हो ध्यान में बैठे रहते है और ओशो, हंसते है धीमे-धीमे आरे वो हंसते हुए चले जाते है)
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