सोमवार, 12 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-41

चौबीस तीर्थकर एक भेड़ परम्‍परा
     
      ओं. के. । मैं जो तुम्‍हें बताना चाहता था उसे बताना शुरू भी न कर सका। शायद ऐसा नहीं ही होना था क्‍योंकि कई बार मैंने उसकी चर्चा करने की कोशिश कि किंतु कर नहीं सका। परंतु यह मानना पड़ेगा कि यह सत्र बहुत ही सफल रहा, लाभदायक रहा। हालांकि न कुछ कहा गया, न कुछ सुना गया। अच्‍छा खासा हंसी-मजाक होता रहा परंतु मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं कारावास में हूं।
      तुम लोग सोच रहे होगें कि मैं क्‍यों हंसा। अच्‍छा है कि मेरे सामने कोई दर्पण नहीं है। एक दर्पण का इंतजार करो। कम से कम यह इस स्‍थान को वैसा बना देगा जैसा इसको होना चाहिए। परंतु यह बहुत ही अच्छा रहा। मैं बहुत ही हलका महसूस कर रहा हूं। शायद वर्षो से मैं नहीं हंसा। मेरे भीतर कुछ इस सुबह की प्रतीक्षा कर रहा था। किंतु में उस दिशा में कोई कोशिश नहीं कर रहा था....शायद किसी और दिन।
      कभी-कभी ये चक्र एक-दूसरे की दिशा में प्रवेश कर जाते है। और ये बार-बार ऐसा ही करते रहेंगे। मैं तो पूरी कोशिश करता हूं कि निर्धारित दिशा में ही चला जाए, परंतु ये चक्र तो सब कुछ घेर लेते है। ये पागल लोग है....या कौन जाने शायद ये बुद्ध पुरूष है जो उस पुरानी दुनिया कि झलक पाने की कोशिश कर रहे है यह देखने के लिए अब मामला कैसा चल रहा है। किंतु मेरा उद्देश्‍य यह नहीं है। मैं वहीं नहीं पहुंच सका जहां में जाने की कोशिश कर रह था। तुम्‍हारी हंसी के बावजूद बात को जारी रखने की बजाए में हंस पडा।
      अब ये सब प्रस्तावना है। पर आज सुबह मुझे एक बात का बोध हुआ—ऐसा नहीं है कि पहले मुझे यह मालूम नहीं था....परंतु मुझे यह नहीं मालूम था कि इसके बारे में मुझे बताना जरूरी है। परंतु अब यह बताना जरूरी है।
      इक्‍कीस मार्च उन्‍नीस सौ तिरपन को कुछ विचित्र घटा। वैसे तो बहुत सी अजीब बातें घटीं, परंतु में एक ही के बारे में बात कर रहा हूं। दूसरी बातें अपने आप समय के साथ सामने आती जाएंगी। मेरी कहानी में तुम्‍हें इसके बारे में कुछ जल्‍दी ही बता रहा हूं, परंतु सुबह मुझे इस अजीब बात की याद आई। उस रात के बाद तो मुझे समय का कोई ख्‍याल ही न रहा। मैं कितनी ही कोशिश करूं मुझे समय का कोई अंदाज नहीं होता—अन्‍य लोगों को कुछ न कुछ अनुमान तो हाँ जाता है कि समय क्‍या हुआ है।
      सिर्फ यही नहीं, हर सुबह जब मैं नींद से उठता हूं तो खिड़की से बाहर यह देखना पड़ता है कि यह मेरी दोपहर की नींद थी या रात की नींद थी। क्‍योंकि मैं हर रोज दो बार सोता हूं। और हर दोपहर को भी जब मैं जागता हूं तो पहली जो चीज करता हूं वह यह कि मैं अपनी घड़ी को देखता हूं। कभी-कभी यह घड़ी भी मेरे साथ मजाक करती है और वह चलते-चलते रूक जाती है। इसी लिए तो मेरे पास दो हाथ की घड़िया है और एक बड़ी घड़ी है—यह देखने के लिए कि इनमें से कोई एक मेरे साथ मजाक तो नहीं कर रही।
      एक दूसरी घड़ी तो बहुत ही खतरनाक है—उसका तो जिक्र ही नहीं करना चाहिए। मैं चाहता हूं कि में किसी को भेट कर दूँ किंतु इस घड़ी को देने के लिए मुझे ठीक आदमी नहीं मिला अभी तक, क्‍योंकि वास्‍तव में यह भेंट नहीं सज़ा सिद्ध होगी। यह घड़ी इलेक्‍ट्रानिक है इसलिए जब एक क्षण के लिए भी बिजली चली जाती है तो घड़ी का कांटा बारह बजे को संकेत देने लगता है: बारह...बारह...बारह..इससे पता चल जाता है कि बिजली चली गई है।
      कभी-कभी तो मेरा जी चाहता है कि मैं इसको बाहर फेंक दूँ किंतु किसी ने मुझे यह भेट की है और मैं इतनी आसानी से चीजों को बाहर नहीं फेंकता। ऐसा करने से तो उस आदमी का अनादर होगा। इसलिए में उपयुक्‍त आदमी की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
      ऐसी घड़ी मेरे पास एक नहीं वरन दो है—हर कमरे के लिए एक। दोपहर को जब में सो जाता हूं तो कभी-कभी ये मुझे धोखा दे देती है। मैं सामान्‍यत: साढ़े ग्‍यारह या कभी-कभार बारह बजे तक सो जाता हूं। एक दो बार मैं ने अपने कंबल में से झांक कर देखा तो घड़ी बारह बजा रही थी। तो मैंने अपने आप से कहा कि इसका मतलब है कि मैं अभी-अभी सोया हूं। और मैं दुबारा सो जाता हूं। एक-दो घंटे के बाद जब फिर मैं घड़ी देखता हूं तो बारह ही बजे होते है। में सोचने लगता हूं कि आज तो समय ही ठहर गया है। सब लोग सो रहे होगें इसलिए सोए रहना ही ठीक है। तो मैं फिर से सो जाता हूं।
      अब तो मैंने गुड़िया को कह दिया है कि अगर मैं सवा दो बजे तक न उठ जाऊँ तो वह मुझे नींद से जगा दे।
      उसने पूछा: क्‍यों?
      मैंने कहा: अगर मुझे कोई नहीं उठाएगा तो मैं हमेशा सोता ही रहूंगा।
      हर सुबह उठ कर मुझे सोचना पड़ता है कि यह सुबह का समय है या श्याम का, क्योंकि मुझे पता ही नहीं चलत। मैं तो उस दिन से समय की सारी समझ को खो बैठा जिस तारीख के बारे में मैं तुमसे बात कर रहा था।
      आज सुबह जब मैंने तुमसे पूछा कि समय क्‍या हुआ है? तो तुमने कहा कि साढ़े दस। मैंने सोचा, है भगवान, यह तो ज्‍यादती है। मेरी सैक्रेटरी डेढ़ घंटे से इंतजार कर रही होगी। और अभी तक मैंने अपनी कहानी को ही शुरू नहीं किया है। इसलिए उसे समाप्‍त करने के लिए मैंने कहा: मुझे दस मिनट दे दो। असली कारण यह था कि मैंने समझा कह अब रात है।
      और देवराज को भी मालूम है। अब वे इसे अच्‍छी तरह से समझ सकता हे। एक सुबह जब वह मेरे साथ मेरे बाथरूम तक आया तो मैने उससे पूछा, क्‍या मेरी सैक्रेटरी इंतजार कर रही है। उसकी समझ में कुछ नहीं आया और वह असमंजस में पड़ गया। मैंने जल्‍दी से दरवाजा बंद कर लिया ताकि वह संयत हो जाए। अगर मैं  दरवाजे पर खड़ा रह कर इंतजार करता रहता—अब तुम्‍हें मालूम है कि देवराज से बढ़ कर मुझे दूसरा कोई उतना प्रेम नहीं करता वह मुझे चह नहीं बता सका कि यह रात का समय नहीं है। उसने सोचा कि अगर मैं सैक्रेटरी के बारे में पूछ रहा हूं तो इसका कोई कारण होगा। और वह तो वहां थी भी नहीं और वह उसके आने का समय भी नहीं था। तो उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्‍या कहे।
      उसके कुछ नहीं कहा। वह चुप रहा। मैं हंस पडा। मेरे इस प्रश्‍न ने उसे उलझन में डाल दिया। परंतु मैं यह सच कह रहा हूं कि समय मेरे लिए बहुत बड़ी समस्‍या है। किसी ने किसी तरह काम चला रहा हूं—नये-नये उपाय,नई-नई डिवाइस द्वारा अपना काम चला लेता हूं। अब इसी डिवाइस, अपाय को देखो। क्‍या कभी कोई बुद्ध इस प्रकार बोला है।
      हां, तो मैं तुमसे यह कह रहा था। कि जैन धर्म सबसे प्राचीन धर्म है। मेरे लिए ये कोई मूल्‍यवान बात नहीं है। याद रखो, इसका कोई महत्‍व नहीं है। यह निरर्थक है। परंतु महत्‍वपूर्ण हो या निरर्थक हो, तथ्‍य तो तथ्‍य है। इस तथ्‍य को अस्‍वीकार नहीं किया जा सकता है। पश्‍चिम में जैन धर्म को कोई नहीं जानता। और पश्चिम में ही नहीं पूर्व में भी भारत के कुछ एक अचलों में ही यह प्रचलित है। इसका कारण यह है कि जैन मुनि नग्‍न रहते है। वे उन लोगों के पास नहीं जा सके गत जो नैन नहीं है। वे केवल जैन लोगो के पास ही जाते है, क्‍योंकि अगर वे अन्‍य जाति के लोगों के पास जाएं तो एक बीसवीं सदी में भी उन पर पत्‍थर बरसाए जाएंगे और उन्‍हें मार दिया जाएगा।
 ब्रिटिश सरकार भारत में उन्‍नीस सौ सैंतालीस तक रही। इस सरकार ने जैन मुनियों के लिए एक विशेष कानून बनाया था कि शहर में प्रवेश के पहले इनके अनुयायियों को सरकार से इजाजत लेनी होगी। इसके बिना वे शहर में प्रवेश नहीं कर सकते ।इजाजत  मिलने पर भी बंबई, कलकत्‍ता, नई दिल्‍ली जैसे शहरों में नहीं जा सकते। उनके अनुयायी उन्‍हें इस प्रकार घेर लेते है कि दूसरा कोई उन्‍हें नग्‍न नहीं देख सकता।
      मैं उन्‍हें  शब्‍द का प्रयोग इसलिए कर रहा हूं। क्‍योंकि जैन मुनि को अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं है। उसे कम से कम पाँच मुनियों के झंड में चलना चाहिए। पाँच की संख्‍या निर्धारित करने का मतलब है कि वे सब एक दूसरे पर निगाह रख सकें। एक दूसरे की जासूसी कर सकें। यह बहुत ही शक्‍की धर्म है। इसका शक्‍की हो स्‍वभाविक है क्‍योंकि इसके लिए जो नियम निर्धारित किय गए है वे बहुत ही अस्वाभाविक है।
      सर्दी के दिनों में जब लोग ठंड से ठिठुर रहे होते है और उन्‍हें आग तापन की इच्‍छा होती है जो जैन मुनि आग के पास नहीं बैठ सकता क्‍योंकि आग हिंसा है। आग जलाने के लिए लकड़ी चाहिए और इस लकड़ी के लिए पेड़ो का काटना पड़ता है। पर्यावरण वाले इससे शायद सहमत हो। और जब तुम आग जला रहे हो तो आग के साथ बहुत से जीव-जंतु, ऐसे पतंगें जो आँखो से देखे नहीं जा सकते—सब जल जाते है। कभी-कभी लकड़ी के भीतर चींटियाँ और अन्‍य प्रकार के कीड़े-मकोड़े भी रहते है। जिन्‍होंने वहां अपना घर बना लिया है। कहने का तात्‍पर्य यह है कि इन कारणों से जैन मुनि को आग के पास बैठने की आज्ञा नहीं है। वह कंबल भी इस्‍तेमाल नहीं कर सकते क्‍योंकि वह ऊन से बना हुआ होता है। वह भी हिंसा है।
      कंबल के बजाए किसी दूसरी वस्‍तु का भी अपयोग किया जा सकता है। किंतु वह अपने पास कुछ रख ही नहीं सकत। अपरिग्रह मूलभूत बात है और जैनियों ने अपरिग्रह के नियम को अंतिम सीमा तक पहुंचा दिया है। जैन मुनि को देख कर मालूम होता है कि तर्क आदमी को क्‍या-क्‍या बना देता है। जैन मुनि बहुत ही कुरूप दिखाई देती है। वह इतना दुबला होता है कि उसकी हड्डियां दिखाई देती है। और वह अधमरा सा होता है। उसका सारा शरीर रूखा-सुखा सिकुडा होता है। किंतु उसका पेट बाहर निकला हुआ होता है। उसकी तोंद बड़ी हुई होती है। उसका शरीर सूख कर लकडी जैसा जो जाता है। यह अजीब बात है पर तुम समझ सकते हो। अकाल पीडित लोग ऐसे ही दिखाई देते है।
      ऐसी कई तस्‍वीरें तुमने देखी होगी जिनमें आकाल क्षेत्र के भूखे बच्‍चो को दिखाया गया है। उनके पेट बड़े होते है किंतु हाथ-पैर सूखे हुए होते है। और शरीर की चमड़ी लटकी हुई होती है। बस जैन मुनि भी ऐसा ही दिखाई देता है।
      क्‍या, मैं समझ सकता हूं क्‍योंकि मैंने दोनों को जाना है। इन भूखे बच्‍चों के और जैन मुनियों के बड़े पेटों ने मेरे ध्‍यान को आकर्षित किया।  क्‍योंकि इन दोनों के पेट भी एक जैसे है और शरीर भी, चेहरे भी एक समान है। मुझे यह कहने के लिए माफ करन पर उनके चेहरे कुछ नहीं कहते। किसी की अलग पहचान नहीं सब कोरे कागज की तरह सफाचट। जिन पर कुछ भी नहीं लिखा गया। उनको विशेष या महत्‍व पूर्ण बनाने के लिए किसी ने उन पर कुछ लिखा ही नहीं। इंतजार करने करते वे थक गए, परेशान हो गए, दुःखी हो करवे उलट गए—मैं पृष्‍ठों का प्रतीक चुन रहा हूं—उलट कर उन्‍होंने सभी भावी संभावनाओं को बंद कर दिया।
      भूखे बच्‍चे की सहायता करनी चाहिए और जैन मुनि की तो और भी अधिक सहायता करनी चाहिए क्‍योंकि वह समझता है कि वह जो कर रहा है ठीक कर रहा हे।
      परंतु एक प्राचीन धर्म मूर्खतापूर्ण होता ही है। यही मूर्खता उसके प्राचीन होने का सबूत होती है। ऋग्‍वेद में जैन धर्म के प्रथम गुरु ऋषभ देव का उल्‍लेख है। उनको ही इस धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। में यह निश्‍चित रूप से तो नहीं कह सकता क्‍योंकि मैं किसी को दोषी नहीं ठहराना चाहता—विशेषत: ऋषभ देव को जिनको मैं कभी नहीं मिला और शायद कभी मिलुंगा भी नहीं।
      अगर वे सचमुच इस मूर्ख संप्रदाय के संस्‍थापक थे तो वे कभी भी मुझसे मिलना नहीं चाहेंगे। पर मैं कहना यह चाहता हूं कि जैनों का कैलंडर अलग होता है। वे दिनों की गणना सूर्य के अनुसार नहीं वरन चंद्र के अनुसार करते है क्‍योंकि उनका वर्ष चौबीस भागों में विभक्‍त है। इसलिए उनके तीर्थंकर भी चौबीस है। उनकी सृष्‍टि का चक्र एक वर्ष के अनुसार ही बना हुआ है किंतु चंद्र के आधार पर है—ठीक जिस प्रकार लोग सूर्य को अपना गणना का अधार बनाते है।
      मैं तो समझता हूं कि ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। मैं जो कह रहा हूं उसके अर्थ्र को समझने के लिए अंग्रेजी के कैलंडर पर एक निगाह डालना । जैनों पर हंसना आसान है क्योंकि तुम उनके बाने में कुछ नहीं जानते। वे मूढ़ रहे होंगे परंतु अंग्रेजी कैलंडर भी कैसा है। कभी तो एक महीने में तीस दिन होते है और कभी एक महीने में इकत्तीस दिन होते है। फिर एक महीना उनतीस दिन का भी होता है। कोई अट्ठाईस दिन का भी होता है। यह सब क्‍या बकवास है। और एक वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन होते है। इसलिए नहीं कि तुमने कैलंडर को सूर्य के अनुसार बनाया हे। यह सुर्य के कारण नहीं है। पृथ्‍वी को सूर्य का पूरा चक्‍कर लगाने में तीन सौ पैंसठ दिन लगते है। अब कैसे तुम इस चक्‍कर के समय को बांटते हो यह तुम पर है।
      पर तीन सौ पैंसठ दिन..., इन तीन सौ पैंसठ दिनों ने ही सारी मुश्किल कर दी है। क्‍योंकि ये पूरे तीन सौ पैंसठ दिन नहीं है। थोड़ा सा हिस्‍सा बच जाता है जो हर चौथे साल में एक दिन बन जाता है। इसका मतलब है कि एक साल में तीन सौ पैंसठ और एक चौथाई दिन होना चाहिए। बड़ा अजीब वर्ष है।
      किंतु क्‍या किया जा सकता है? समय का हिसाब करने के लिए हर महीने के दिनों की संख्या भी अलग-अलग नियम की जाती है। इसीलिए हर चौथे साल फरवरी में एक दिन अधिक होता है। अजीब कैलंडर है, कोई भी कंप्‍यूटर इस प्रकार की गड़बड़ नहीं करता।
      सूर्य के अनुसार गणना करने वाले मुखों की तरह चंद्र के अनुसार गणना करने वाले मूर्ख भी है। वे सच मुच ही चाँद मार है। क्‍योंकि चाँद में भरोसा करते है। एक वर्ष को बारह भागों में विभक्‍त किया जाता है। और हर महीना दो भागों में विभक्‍त है। और ये मूर्ख बड़े दार्शनिक होते है। इसी प्रकार की तथाकथित दार्शनिक परिकल्‍पनाएं करते रहते है।
      जैन परंपरा के मूर्खों  की परिकल्‍पना भी यही है। सारी परंपराएं मूर्खतापूर्ण है। मूर्खों की यह भी एक परंपरा है।
      जैन चौबीस तीर्थ करों को मानते है। चक्र में बार-बार चौबीस तीर्थंकर होते है। इससे हिंदुओं में हीनभावना आ गई और लोग पूछने लगे कि सा ही क्‍यों, चौबीस क्यों नही, तब हिंदू पंडित चौबीस अवतारों की बात कि यह मूर्खता है ओर दूसरी यह भी उधार ली गई। अब इससे बुरा और क्‍या हो सकता है। और वह भी इतने बड़े देश के करोड़ो लोगों ने बिना सोचे-समझे इस मूर्खता को स्‍वीकार कर लिया।
      यह बीमारी इतनी संक्रामक थी कि जब बुद्ध मरे तो बौद्धों को लगा कि वे औरों से पीछे रह गए है—बुद्ध ने चौबीसवे अंक की बात क्‍यों नहीं की। जैनों ने चौबीस की बसत की हिंदुओं ने भी इसकी बात की। और हमारे पास केवल एक ही बुद्ध है। इसलिए उन्‍होंने गौतम बुद्ध के जन्‍म से पहले चौबीस बुद्धो का सृजन किया। अब तुम देखते हो कैसे मूर्खता फैलती है, ऐसी निरर्थक बात न जाने कब तक चलती रहेगी...इसका तो कोई अंत ही नहीं है। यह सब बकवास है। और मैं यहीं पर अपने वाक्‍य को समाप्‍त करता हूं। याद रखना, इसका यह मतलब नहीं है कि मूर्खता का अंत हो जाएगा, उसका तो कोई अंत नहीं है।
      अगर तुम मूर्ख हो तो तुम्‍हारी मूर्खता ऐसे ही असीम है। जैसे कि कहते है,परमात्‍मा असीम बुद्धिमान है। मुझे तो परमात्‍मा या उसकी बुद्धिता के बारे में कुछ नहीं मालूम। परंतु मुझे तुम्‍हारी मूर्खता का पता है। यहां पर मेरा यहीं काम है कि मैं तुमसे तुम्‍हारी मूर्खता को छुड़ाता हूं। सबसे पहले जैनों ने इस मूर्खता को अपनाया । फिर उनके बाद हिंदुओं ने और इसके बाद बौद्धों ने इस मूर्खता को उधार ले लिया तब से यह चौबीस का अंक बहुत आवश्‍यक हो गया है।
      मैं एक आदमी को जानता हूं...वे है स्‍वामी सत्य भक्त। उसके बारे में मुझे यही आश्चर्य होता है कि अस्तित्व ने उसको कैसे सहन किया है। वह अपने आप को पच्चीस वां तीर्थंकर समझता है। महावीर चौबीसवे थे। जैन सत्य भक्त को क्षमा नहीं कर सके और उसको बहिष्‍कृत कर दिया ।
      मैंने उससे पूछा कि सत्य भक्त अगर तुम्‍हें तीर्थंकर ही बनना है तो प्रथम क्‍यों नहीं गन जाते। पच्चीस वां तीर्थंकर बनने के लिए तो तुम्‍हे आजीवन लाइन में खड़ रह कर कोशिश करनी पड़ेगी। जरा पीछे मूड  कर देखो। वहां तो कोई भी नहीं है। परंतु उसने बहुत कोशिश की—सैकड़ों पुस्‍तकें लिख दीं,क्योंकि वह विद्वान था। बस इसी से प्रमाणित होता है कि वह साधारण नहीं वरन असाधारण मूर्ख था।
      मैंने उससे यह भी कहा कि अगर तुम सत्‍य को जानते हो तो तुम बिलकुल नये धर्म का प्रचार क्‍यों नहीं करते।
      उसने कहा: समस्‍या यह है कि मुझे पूरा निश्‍चय नहीं हे।
      मैंने कहा: तब दूसरों को परेशान मत करो, पहले स्‍वयं निश्चित कर लो। रुको,अभी मैं तुम्‍हारी पत्‍नी को बुलाता हूं।
      उसने कहा: नहीं-नहीं।
      मैंने कहा: मैं तुम्‍हारी पत्‍नी को बुलाता हूं। तुम मुझे रोक नहीं सकते।
      किंतु मुझे उसे बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। वह आ ही गई। वास्‍तव में मैंने उसको आते हुए देखा था। इसलिए मैंने ऐसा कहा था।
      वह जोर-शोर से आ धमकी और उसने मुझसे पूछा: आप इस मूर्ख पर अपना समय क्‍यों बरबाद कर रहे है। मैंने तो इसके लिए अपना सारा जीवन बरबाद कर दिया है—मेरा सब कुछ खो गया है। यहां ते कि मेरा धर्म भी। इसके बहिष्‍कृत किए जाने कि कारण मुझे भी इसके साथ बहिष्‍कृत होना पडा। लाखों जन्‍मों के बाद ही जैन परिवार में जन्‍म होता है। यह मूर्ख खूद पतित हुआ ही मुझे भी पतित कर दिया। अच्‍छा हुआ कह यह नपुंसक है और हमारे बच्‍चे नहीं है। नहीं तो वे भी बहिष्‍कृत हो जाते।
      अकेला मैं ही हंसा और मैंने उनसे कहा: हंसों, बड़ी मजेदार बात है। तुम नपुंसक हो। यह में नहीं, तुम्‍हारी पत्‍नी कह रही है। मैं नहीं जानता कि वह स्‍त्री रोग के बारे में कितना जानती है, पर अगर वह कह रही है ओ तुम चुपचाप बिना आँख उठाए सुन रहे हो,तो इससे यह प्रमाणित होता है कि वह स्‍त्री रोग विशेषज्ञ है। तुम नपुंसक हो, अच्‍छी बात है। जब तुम अपनी पत्नी को भी अपना अनुयायी नहीं बना सकते तो तुम अपने आप  को पच्चीस वां तीर्थंकर कैसे सिद्ध कर सकते हो। यह बड़ी कमजोर बात है, सत्य भक्त....
      उसने मुझे कभी क्षमा नहीं किया, क्योंकि मैंने उसे ठीक समय पर पकड़ लिया, सत्य भक्त अभी मेरा दुश्‍मन है। किंतु मेरी सहानुभूति उसके साथ है। कम से कम वह यह तो कहा सकता है। कि उसका एक दुश्‍मन है। जहां तक मित्रता का सवाल है उसका मित्र कोई नहीं है--यह श्रेय उसकी पत्‍नी को मिलता है।
      इसी प्रकार मोरा जी देसाई भी मेरे दुश्‍मन बन गए। मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं थी। वास्‍तव में उन्‍हें तब बहुत बुरा लगा जब उसे एक नव युवक के कारण नब्‍बे मिनट तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। और वह ऐसा नवयुवक था जिसका कोई राजनीतिक महत्‍व नहीं था। और जब उसने देखा कि प्रधानमंत्री इस लड़के के लिए कार का दरवाजा खोल रहे है—मुझे अभी भी वह दृश्‍य दिखाई दे रहा है—उसका वर्णन कैसे किया जाए? वह आदमी मुझे बहुत ही धूर्त चालाक और कपटी लगा उसकी आंखों से उसकी धूर्तता टपक रही थी। इसके बाद मैंने उसको तीन अलग-अलग मौक़ों पर देखा। किसी और चक्र में इसकी चर्चा की जाएगी।
      बहुत अच्‍छा। ऐसे अनुभव के बाद ही नहीं कहना अच्‍छा होता है। क्‍योंकि नहीं जैसा और कुछ नहीं है।
      बहुत अच्‍छा।
      देव गीत,अब बस करो। मुझे दूसरे काम भी करने हैं। मुझे याद दिलाने के लिए गुड़िया ने दरवाजा खोल दिया है।
--ओशो        स्‍वामी देव तीर्थ भारती ओशो के पिता

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