कहै कबीर मैं पूरा पाया
दूसरा प्रवचन
शून्य में छलांग
प्रश्न-सार
1. मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब
क्या करूं?
2. कबीर का धर्म-गुरु की तरह व्यापक प्रभाव
क्यों नहीं पड़ा?
3. दुख से मुक्ति कैसे मिले?
4. गुरु-कृपा कब मिलेगी मुझे?
पहला प्रश्नः मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब
क्या करूं?
भई, अब किए कुछ भी न हो सकेगा! थोड़ी देरी कर
दी। थोड़े समय पहले कहते, तो कुछ किया जा सकता था। शून्य होने
लगे--फिर कुछ किया नहीं जा सकता। करने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि शून्य तो
पूर्ण का द्वार है।
तुम शून्य होओगे, तो ही परमात्मा तुम में प्रविष्ट
हो सकेगा। तुम अपने से भरे हो, यही तो अड़चन है। पर खाली होने में डर
लगता है। तुम्हारा प्रश्न सार्थक है, संगत है।
जब भी शून्यता आएगी, तो प्राण कंपते हैं; भय
घेर लेता है। क्योंकि शून्यता ऐसी ही लगती है, जैसे मृत्यु;
मृत्यु
से भी ज्यादा। ज्ञानियों ने उसे महामृत्यु कहा है। क्योंकि मृत्यु में तो देह ही
मरती है, शून्यता में तो तुम ही मर जाते हो।
शून्यता में तो अस्मिता गल
जाती है। कोई मैं-भाव नहीं बचता।
अब तुम पूछते होः ‘मैं शून्य होता जा रहा हूं,’
क्या
करूं? कुछ करने की जरूरत भी नहीं है। आने दो शून्य को; स्वागत
करो; सन्मान
करो; बंदनवार
बांधो; उत्सव मनाओ। क्योंकि शून्य ही सौभाग्य है। और तो कोई सौभाग्य
कहां है?
इस जगत में जो मिट जाते हैं, वे धन्यभागी
हैं। लेकिन मिटने में अड़चन तो आती ही है। ‘मिटना’ शब्द ही
काटता-सा लगता है।
मिटते-मिटते भी आदमी चेष्टा करता है कि बच जाए? आखिरी-आखिरी
क्षण तक तुम किनारे को पकड़े रहोगे। और दूसरे किनारे का बुलावा आ गया है। नाव तट पर
खड़ी है--पाल खोल दिया है। वही तो ध्याान है--पाल खोल देना। वही तो समर्पण है--पाल
खोल देना। वही तो संन्यास है--पाल खोेल देना।
हवाओं ने पाल को भर दिया हैं, नौका उस पार
जाने को तत्पर खड़ी है और तुम किनारे को पकड़े हो! और तुम किनारे से जंजीर नहीं
छोड़ते! और तुम चिल्ला रहे हो कि बचाओ! किनारा छूटा जा रहा है! और अब तक इसी किनारे
को छोड़ने के लिए चेष्टा की। क्योंकि इस किनारे पर सिवाय नरक के अैेार कुछ भी पाया
न था।
तुमने होक र पाया क्या है? होने से मिला
क्या है? होने की दौड़ का नाम ही तो संसार है। खूब तो दौड़ कर देख लिए। थक
गए जरूर, पहंुचे कहां हो? धूल-धवंास से भर गए; मंजिल
कहां है? मार्ग तो बहुत चल लिए, मंजिल का दूर से भी दर्शन तो
नहीं होता।
अब भी थके नहीं? अब भी शून्य होने से घबड़ाते हो?
होने
में कुछ नहीं पाया, अब जरा न-होने की भी हिम्मत कर लो। अब न-होना भी सीख लो। अब
न-होने को भी देख लो। क्योंकि जिन्होंने पाया है, उन सब ने यही
कहा हैः नहीं हो गए--तो पाया।
शून्य तो समाधि है। निश्चित ही तुम मिटते हो, मगर
यह एक हिस्सा है। जैसे सुबह होती है; रात तो मिटती है, मगर
वह एक हिस्सा है। सूरज ऊग रहा है। सुबह हो रही है। आकाश प्रकाश से भर रहा है।
बादलों में नये रंग आ रहे हैं। पक्षी गीत गाने लगे हैं। वृक्ष जागने लगे हैं प्राण
का संचार हुआ है। इसे भी देखोगे या नहीं? या यही देखते रहोगे कि रात टूटी
जा रही है! रात बीती जा रही है! रात को ही छाती से लगाए बैठे रहोगे?
निश्चित ही जब प्रकाश होगा, तो अंधेरा
जाएगा। तुम अंधेरे हो; तुम्हारा परमात्मा से मिलना नहीं हो
सकता। तुम्हारे न-होने में ही मिलन है।
कहीं अंधेरा और प्रकाश का मिलना हुआ है? तुमने संतों
की वाणी बहुत सुनी है। सभी संत कहते हैं; परमात्मा प्रकाश है। लेकिन तुमने
कभी यह सोचा है कि अगर परमात्मा प्रकाश है, तो मैं कौन
हूं? निश्चित
ही तुम अंधकार हो। और प्रकाश आएगा, तो अंधकार टूटेगा। और अंधकार टूटे--यही
शुभ है।
कबीर ने कहा हैः शून्य हो जाने से बड़ी और कोई घटना नहीं है। उस
दशा को सहज--शून्य--अवस्था कहा है।
एक बड़ा प्यारा शब्द है, संतों ने
बहुत उपयोग किया है। दो अर्थों मेें उपयोग किया है, इसलिए शब्द
बहुत प्यारा है। शब्द है--‘खसम’। संस्कृत
में एक अर्थ है ‘खसम’ का, अरबी में
दूसरा। संतों ने दोनों अर्थों का एक साथ प्रयोग किया है और चमत्कार ला दिया है इस
शब्द में। अरबी में अर्थ होता हैः पति। और परमात्मा पति है। परमात्मा कृष्ण है;
और
भक्त उसकी गोपी है। और अस्तित्व रास है।
परमात्मा पति है, मालिक है, प्यारा है,
प्रियतम
है। संतों ने इस शब्द का भी उपयोग किया इस अर्थ में और चमत्कार ला दिया।
संस्कृत में इसका अर्थ दूसरा है। ‘खसम’ का,
अर्थ
होता है--ख--सम--आकाश जैसा शून्य, ख यानी आकाश। इसलिए पक्षियों को खग कहते
हैं। खग यानी जिनकी गति आकाश में है। ख यानी आकाश; ग यानी गति।
खसम--आकाश जैसा शून्य।
तो संस्कृत में ‘खसम’ का अर्थ है
महाशून्य और अरबी में ‘खसम’ का अर्थ हैः
परम प्यारा। भक्तों ने दोनों को जोड़ दिया। भक्तों ने कहाः दोनों ही ठीक हैं।
क्योंकि वह परम प्यारा आकाश जैसा होने से मिलता है।
संस्कृत के अर्थों में ‘खसम’ हो
जाओ, तो
अरबी के अर्थों में जो ‘खसम’ है, वह
मिल जाता है।
तुम घबड़ा रहे हो। पूछते हाः ‘मैं क्या
करूं--शून्य हुआ जा रहा हूं? घबड़ाओ मत। उतरो इसमें। इसी में उतर कर
कुछ मिले, तो मिले। ये सीढ़ियां उतरो--शून्य की।
डर तो लगेगा। डर के बावजूद उतरो। इसलिए मैं कहता हंूः साहस
चाहिए सत्य की खोज में। असत्य छोड़ना पड़ता है, वही साहस की
जरूरत है। अंधेरा छोड़ना पड़ता है। देह छोड़नी पड़ती है। मन छोड़ना पड़ता है। सब छोड़ना
पड़ता है।
जब छोड़ने को कुछ भी नहीं रह जाता, तुम खाली सेज
रह जाते हो, उसी क्षण पिया उतरता है। जब छोड़ने को कुछ भी नहीं बचता,
उसी
परम शून्य अवस्था में मिलन है।
तो डरो मत। बचो मत। बड़ी मुश्किल से शून्य होने का क्षण आता है।
इसी की तो हम तलाश कर रहे हैं।
अब यह रोज यहां होता है। जिनको शून्य का अनुभव नहीं हुआ,
वे
पूछते हैं कि कैसे शून्य का अनुभव हो जाए? और जब होने लगता है, तो
वे ही आकर कहने लगते हैं कि अब हो रहा है; अब रोको। क्योंकि तुम्हें साफ
नहीं है कि शून्य का अनुभव महासुख तो लाएगा; लेकिन महासुख
के पहले महापीड़ा से गुजरना जरूरी है।
तुम सिर्फ सुख ही सुख की बात सुनते हो। तुमने सुनाः
समाधि--महासुख है, तो लोभ पैदा होता है। चलो, समाधि लग
जाए। मगर तुमने यह नहीं सोचा कि समाधि के उस महासुख के लिए कीमत भी चुकानी पड़ती
है।
सस्ता नहीं है धर्म; प्राणों से चुकाना पड़ता है
मूल्य। बिना मूल्य चुकाए कुछ भी नहीं है--कुछ भी नहीं मिल सकता है।
तो तुमने यह तो सुन लिया कि समाधि में बड़े फूल
खिलेंगे--हजार-हजार कमल खिलेंगे, बड़ी सुगंध होगी; बड़ा नृत्य होगा;
बड़ा
उत्सव होगा, तो लोभ से भर गए। तुमने यह सोचा ही नहीं कि रास्ते में कांटे
भी बहुत गड़ेंगे। गुलाब को तोड़ने जाओगे, तो गुलाब की झाड़ी में हजार
कांटें हैं। और जब कांटें चुभेंगे, तब तुम चिल्लाओगे। मगर जरूरी हिस्सा है
यात्रा का।
थकोगे, टूटोगे, मिटोगे। कई
बार बचोगे। लौट-लौट पड़ोगे मगर जो चल पड़ा इस राह पर, वह वस्तुतः
लौट नहीं पाता; ज्यादा से ज्यादा देर-अबेर कर सकता है।
अब तुम पूछते होः ‘शून्य होता जा रहा हूं...।’
अब तुम चाहो तो देर-अबेर कर सकते हो; अगर जोर से
किनारे को पकड़े रहोगे, तो देर लग जाएगी। लेकिन अब लौट कर
किनारे पर बस न सकोगे। जो होना शुरू हो गया है, वह पूरा होकर
रहेगा। किनारे पर बस नहीं सकोगे इसलिए--कि किनारे पर तो बस-बस कर देख लिया है। उसी
दुख से घबड़ा कर तो शून्य की तलाश शुरू की थी। और अब शून्य आ रहा है!
माखन चोरी कर तूने
कम तो कर दिया बोझ ग्वालिन का
लेकिन मेरे श्याम बता
अब रीती गागर का क्या होगा?
युग-युग चली उमर की मथनी
तब झलकी घट में चिकनाई
पिरा-पिरा हर सांस उठी जब
तब जाकर मटकी भर पाई
एक कंकड़ी तेरे कर की
किंतु न जाने आकर किस दिशा से
पलक मारते लूट ले गई
जनम-जनम की सकल कमाई
देख समय हो गया पैठ का
पथ पर निकल पड़ी हर मटकी
केवल मैं ही निज देहरी पर
सहमी-सकुची, अटकी-भटकी
पास नहीं अब गोरस कुछ भी
कैसे तेरे गोकुल आऊं?
कैसे इतनी ग्वालिनियों में
लाज बचाऊं अपने घट की
या तो इसको फिर से भर दे
या इसके सौ टुकड़े कर दे
निर्गुन जब हो गया सगुन तब इस
आडंबर का क्या होगा
माखन चोरी कर तूने
कम तो कर दिया बोझ ग्वालिन का
लेकिन मेरे श्याम बता अब
रीती गागर का क्या होगा?
गागरों से हमारे बड़े नाते हैं; पुराने नाते।
गागर को ही जाना है हमने। गागर से ही हमारी पहचान है। गागर ही हमारा अनुभव,
हमारा
ज्ञान; और एक दिन आता है श्याम; और कंकड़ी मार
कर तोड़ देता है गागर को। लूट लेता है मक्खन।
वही जो तुमने जनम-जनम में मथ-मथ कर इकट्ठा किया था। मथ-मथ कर
जो इकट्ठा किया था, मंथन कर-कर के जो इकट्ठा किया था, वही तो मन है;
वही
तो मक्खन है। एक दिन लूट लेता है श्याम; मटकी टूट जाती है।
टूटी मटकी मन को बड़ी पीड़ा देती है। क्योंकि इसी मटकी के साथ
तुमने तादात्म्य कर लिया था। इसे ही समझा थाः यही मैं हूं।
अब यह मटकी छोड़ो। अब यह मटकी भूलो। जिस दिशा से यह कंकड़ी आई है,
अब
उस दिशा की तरफ आंखें उठाओ। जिस दिशा से श्याम ने यह कंकड़ मारा, अब
उस दिशा में आंखे ले जाओ। अब उसी दिशा में चलो। यह छोड़ो अतीत।
शून्य हुए जाते हो--इसका अर्थ हैः अतीत छूटा जाता है हाथ से।
मगर अतीत को पकड़ने से भी क्या सार है? जो हो गया, हो
गया। जो जा चुका, जा चुका। अब भविष्य की तरफ देखो।
उस किनारे पर नजर अड़ाओ। यह किनारा व्यर्थ हो गया। जी लिया बहुत;
अब
उस किनारे जीएंगे।
साहस चाहिए होगा। अभियान की हिम्मत चाहिए होगी--दुस्साहस...।
क्योंकि दूर का किनारा साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ता।
यह किनारा बिलकुल साफ है। यद्यपि दुख ही पाया यहां, लेकिन
साफ-सुथरा है; जाना-माना है। इसी पर रहे हैं, इसी पर जीए
हैं। दूसरा किनारा तो दूर धुंध में छिपा है। है भी या नहीं--यह भी भरोसे को बात
है!
कोई आ जाता है दूसरे किनारे से और कहता हैः मैं होकर आया हूं।
कोई कबीर, कि कोई नानक। भरोसा आता है। शक भी नहंीं किया जा सकता। क्योंकि
कबीर किस कारण झूठ बोलें। यह आदमी ऐसा तो नहीं, कि झूठ बोले।
इसकी आंखों में प्रामाणिकता है। इसके वचन में बल हो। और इसके आसपास सुगंध भी
है--किसी और जगत की; जो इस जगत की नहीं है; इस किनारे की तो कतई नहीं है। और
इसके पास एक मस्ती है, जो किसी और के पास नहीं है। सम्राट हैं,
धनी-मानी
हैं, उनके
पास नहीं--जो इस फक्कड़ के पास है।
तो कुछ तो है इसके पास। कुछ देखा है; कुछ दरस-परस
हुआ है। कहीं होकर आया है। इसके वस्त्रों में गंध है--अपरिचित, आकर्षक,
जादूभरी।
यह कुछ पीकर आया है, यह भी पक्का है। इसकी मस्ती कहती है। इसकी मदभरी आंखें कहती
हैं। इसकी चाल कहती हैं। इसके रंग-ढंग और हैं!
ऐसा आदमी इस तट का तो होता ही नहीं। इस तट पर तो बहुत हैं।
लेकिन यह किसी और तट से यात्रा करके आ रहा है। तो बात पर भरोसा आता है, श्रद्धा
आती है।
लेकिन दूसरा तट दिखाई नहीं पड़ता। दूसरा तट दूर है। इसलिए तो
इसको हमने भव-सागर कहा है। नदी जैसा नहीं है--कि इस पार खड़े हैं, दूसरा
किनारा दिखाई पड़ रहा है, सागर जैसा है--भव-सागर।
यही किनारा दिखाई पड़ता है, दूसरा किनारा
तो दिखाई पड़ता ही नहीं। दूर-दूर तक तरंगें--और तरंगें। जहां तक मनुष्य की आंखें
जाती हैं, वहां तक तरंगें ही तरंगें हैं। इसलिए तो आस्था का इतना मूल्य
है।
आस्था का क्या अर्थ है। आस्था का इतना ही अर्थ हैः इस किनारे
से खड़े होकर दूसरा किनारा दिखाई पड़ता ही नहीं। अब किसी की बात पर भरोसा करो,
तो
ही यात्रा हो सकती है।
मगर यात्रा करनी ही होगी। क्योंकि इस किनारे पर कुछ मिलता ही
नहीं। खोद-खोद मर गए, कोई खजाना हाथ नहीं लगा। मिट्टी की मिट्टी--ढेर लगा ली है!
सोने की तलाश करते रहे हैं। सोने का दर्शन भी नहीं हुआ; सपने में भी
नहीं हुआ।
तो यह तट तो खोज लिया; यह तट तो व्यर्थ हो गया। अहंकार
की यात्रा सार्थक नहीं हुई है। तो अब ये जो निर-अहंकारी संत हैं, ये
कहते हैंः चलो, उस किनारे। वहां है आनंद। वहां सदा-सदा शाश्वत का वास है। वहां
अमृत की वर्षा है। वहां रोशनी ही रोशनी है। और वहां अनहद का नाद हो रहा है। चलो।
श्रद्धा से ही चलना पड़ेगा। श्रद्धा इसलिए कमजोर के जीवन में
नहीं होती; शक्तिशाली के जीवन में होती है।
आमतौर से लोग सोचते हैं कि श्रद्धालु आदमी कमजोर होता है। गलत।
सौ प्रतिशत गलत। श्रद्धालु आदमी ही शक्तिशाली आदमी
है। बड़ी हिम्मत चाहिए--अनजान पर भरोसा ले आने के लिए; अपरिचित
पर भरोसा कर लेने के लिए। बड़ी हिम्मत चाहिए; बड़े जुआरी की
हिम्मत चाहिए। और चल पड़ना है। और जो जाना है, वह छोड़ देना
है। जो पहचाना है, वह छोड़ देना है। वह सब छूट जाएगा। और जिसको कभी जाना नहीं,
उसकी
तलाश में निकल जाना है।
वही घड़ी करीब आद गई है। तुम्हारी जंजीरें टूटी जाती हैं--इस
किनारे से। अब अपने को व्यर्थ मत रोको। चलो। श्रद्धा रखो।
इस शून्य को श्रद्धा से जोड़ लो। यही शून्य नाव बन जाएगा। यह
तुम्हें उस पार लगा देगा। इसी शून्य की नाव ने बहुतों को पार लगाया है। जिनको भी
पार लगाया है, इसी नाव ने पार लगाया है।
दूसरा प्रश्नः ‘मैं पूरा पाया’ कहने
वाले कबीर साहब, जिनका एक पांव इसलाम में था और दूसरा
हिंदू-धर्म में, धर्मगुुरु के रूप में उतने प्रभावी
क्यों नहीं हुए, जितना होना चाहिए था?
पहली तो बातः धर्मगुरु और सदगुरु में फर्क कर लेना। धर्मगुरु
तो अक्सर थोथा होता है। जैसे पोप धर्मगुरु है। अगर पोप को धर्मगुरु कहते हो,
तो
जीसस को धर्मगुरु मत कहना। वह जीसस का अपमान हो जाएगा। जीसस के लिए कुछ और शब्द उपयोग
करो--सदगुरु।
पूरी के शंकराचार्य धर्मगुरु हैं। लेकिन आदि-शंकराचार्य को
धर्मगुरु मत कहना; नहीं तो भाषा में कोई अर्थ ही न रह जाएगा। आदि-शंकराचार्य;
सदगुरु
है।
कबीर सदगुरु हैं--पहली बात--धर्मगुरु नहीं। धर्मगुरु पहले से
चली आई परंपरा का हिस्सा होता है। सदगुरु एक नई परंपरा का जन्मदाता।
धर्मगुरु की पुरानी साख होती है; उसकी दुकान
पुरानी है; वह किसी पुरानी दुकान का हकदार है, चाहे उसकी
अपनी कोई संपदा न भी हो, लेकिन बाजार में उसकी प्रतिष्ठा है।
सदगुरु अपने पैरों पर खड़ा होता है; अ ब स से
शुरू करता है। उसकी कोई पुरानी प्रतिष्ठा नहीं है। इसलिए सदगुरु को कठिनाई होती है;
उसे
सब काम फिर से, नये सिरे से जमाना है। जैसे कि तुम एक पैसा भी न लेकर बाजार
में खड़े हो जाओ और काम शुरू करो, तो जैसे कठिनाई होती है, वैसी
कठिनाई सदगुरु की है।
तुम्हारे पिता चल बसे, और करोड़ों रुपया वसीयत में छोड़
जाएं, फिर तुम दुकान शुरू करोे। स्वभावतः तुम्हें सुविधा होती है।
पिता की साख, दुकान का नाम, बाजार के संबंध, जाने-माने
लोग, सब
काम चलता हुआ--व्यवस्थित; तुम सिर्फ पिता की जगह बैठ जाते हो।
धर्मगुरु वसीयत से होता है; सदगुरु अनुभव से। बुद्ध सदगुरु हैं,
कृष्ण
सदगुरु हैं; क्राइस्ट सदगुरु हैं, कबीर सदगुरु हैं।
तो पहला तो फर्क यह समझ लेना कि वे धर्मगुरु नहीं हैं। और मजा
यह है कि धर्मगुरु के पास धर्म होता ही नहीं; सिर्फ साख
होती है। सदगुरु के पास धर्म होता है--साख नहीं होती।
धर्मगुरु के पास तो व्यवस्था होती है, जमा हुआ
संप्रदाय होता है, अनुयायी होते हैं। सदगुरु के पास कोई नहीं होता--सिर्फ
परमात्मा होता है। बस, परमात्मा की संपत्ति से ही उसे काम शुरू
करना पड़ता है। एक अनुभव की संपदा होती है। उसे खोजना पड़ता है। उसे शिष्य खोजने
पड़ते हैं जो सीखने को तत्पर हों, जो पात्र हों, वे खोजने
पड़ते हैं। और स्वभावतः यह आसान नहीं है शिष्यों का मिलना, क्योंकि ये
शिष्य किसी न किसी संप्रदाय के हिस्से होते हैं।
अब तुम यहां मेरे पास इकट्ठेे हुए हो। कोई हिंदू है, कोई
यहूदी है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई
बुद्ध है, कोई सिक्ख है। तुम किसी परंपरा से बंधे हो, किसी
परंपरा में पैदा हुए हो। तुम्हें तुम्हारी परंपरा से निकालना अड़चन की बात है।
तुम्हारा भी निकलना तुम्हें कठिनाई की बात मालूम होती है। क्योंकि हजार न्यस्त
स्वार्थ हैं।
एक सज्जन ने कुछ दिन पहले आकर कहाः ‘संन्यास लेना
चाहता हूं, लेकिन लड़की की मेरी शादी हो जाए! मैंने पूछा, ‘लड़की
की शादी से संन्यास का क्या संबंध?’
उन्होंने कहा, ‘संबंध ऊपर से न दिखाई पड़े, भीतर
से है। मैं संन्यासी हो गया, तो फिर लड़की की शादी करना मुझे मुश्किल
हो जाएगा। फिर तो मेरे समाज-संप्रदाय के लोग नाराज हो जाएंगे। तो और छह महीने की
बात है। किसी तरह यह विवाह निपट जाए, फिर मैं निशिं्चत हूं। फिर कोई
डर नहीं।’
तो ऐसे हजार छिपे हुए डर हैः लड़के की शादी करनी है; लड़की
की शादी करनी है।
घेरे के बाहर निकल आओ किसी संप्रदाय के, तो ऐसे ही
माफ थोड़े ही कर देता है संप्रदाय। कष्ट
देता है, दंड देता है। सब तरह से उलझनें खड़ी करता
है। सामाजिक संबंध से जो सुविधा मिलती थी, वह सब बंद हो जाएगी। कल तक तो
अपने थे, वे पराए हो जाएंगे। और नाराज! और तुम्हें नुकसान पहुंचाएंगे।
क्योंकि कोई समाज यह बरदाश्त नहीं करता है कि उसके घेरे के भीतर से कोई आदमी बाहर
निकल जाए। उसकी संख्या कम कर जाता है। उसकी शक्ति कम कर जाता है। उसकी पूंजी कम हो
जाती है। उसका बल कम हो जाता है।
इसलिए जिस झंडे के नीचे तुम खड़े हो, उस झंडे के
नीचे से निकलना आसान नहीं है।
फिर तुम्हारे जीवन की सीमाएं हैं, अड़चनें-उलझनें
हैं। नौकरी खो जाए; संबंध टूट जाएंे; अडचनें पैदा हों। घर में दुख-सुख
होता हैं, तो समाज का साथ मिलता है; वह सब मिलना
बंद हो जाए।
इन सारी अड़चनों के कारण आदमी सदगुरु के साथ नहीं जा पाता। उसे
धर्मगुरु के साथ ही खड़ा रहना पड़ता है।
तो कबीर अपूर्व थे; लेकिन स्वभावतः तुलसीदास के साथ
जितने लोग गए, उतने कबीरदास के साथ नहीं गए। तुलसीदास धर्मगुरु हैं; कबीर
सदगुरु हैं दोनों अनुठे है।
जहां तक काव्य का संबंध है, साहित्य का
संबंध है, तुलसीदास भी अनूठे हैं जैसे कबीरदास अनुठे हैं। मगर जहां तक
अनुभव की संपदा का संबंध है, तुलसीदास परंपरागत हैं; कबीरदास
क्रांतिकारी हैं। तुलसीदास लकीर के फकीर हैं; कबीरदास
विद्रोही है। तुलसीदास बापदादों की वसीयत पर खड़े हैं;
कबीरदास अपने पैरों को, अपने ही
पैरों पर, अपनी जड़ों को फैला कर खड़े हैं।
स्वभावतः तुलसीदास को ज्यादा प्रेमी मिल जाएंगे। इसीलिए
रामचरितमानस घर-घर पहुंच गई।
कबीरदास के वचन घर-घर नहीं पहुंच सके। यही है आश्चर्य कि
जितनों तक पहुंच सके, इतनों तक भी पहंुच सके--यह भी कम आश्चर्य नहीं है। क्योंकि
कबीरदास की बात तो बड़ी आग जैसी है।
तुलसीदास तो राख ही राख है--बुझा हुआ अंगारा है। कभी अंगारा
रहा होगा, मगर तुलसीदास में अंगारा नहीं है। परंपरागत, रुढ़िवादी
है, पुरातन
पंथी हैं, जो शास्त्र मे लिखा है--सो ठीक । जरा भी बगावत का स्वर नहीं
है।
कबीरदास वेद के खिलाफ बोलते हैं; कुरान के
खिलाफ बोलते हैं; हिंदू पंडित के खिलाफ बोलते हैं मुसलमान-मौलवी के खिलाफ बोलते
हैं। और खिलाफत भी ऐसी वैसी नहीं, औपचारिक नहीं, शिष्टाचार
पूर्ण नहीं।
कबीर की चोट बड़ी सीधी है--सिर तोड़। कबीर को झेलना आसान बात
नहीं है। कुछ विरले हिम्मतवर लोग ही झेल पाएंगे। हालांकि कबीर जो बोलते हैं,
वही
वेद है, वही कुरान है। मगर कबीर अपने गवाह खुद हैं, वेद
से गवाही नहीं लेते। वह गवाही उधार हो जाएगी, झूठी हो
जाएगी।
तो दूसरी बात समझ लेंः अगर संत लीक पर चलता हो, तो
उसे ज्यादा शिष्य मिल जाएंगे। अगर संत सब लीक छोड़ कर चलता हो, तो
स्वभावतः कुछ विरले अभियानी ही उसके साथ हो पाएंगे। उसके साथ जाना खतरे से खाली
नहीं है। उसके साथ जाना खतरनाक है।
फिर कबीरदास जैसा अक्खड़ संत हुआ ही नहीं; मनुष्य
जाति के इतिहास में नहीं हुआ। दो टूक बात कह देनेवाला; मारे कि
जिलाए--फिकर नहीं। सीधी चोट! टुकड़े-टुकड़े कर देने वाला। एक वोट कबीर की झेल लोगे,
तो
जिंदगी भर याद रखोगे; भूले नहीं भूलेगा। या तो झुक जाओगे--साथ हो लोगे। या सदा के
लिए भाग खड़े होओगे और दुबारा कबीर की छाया से भी डरोगे।
सदगुरू--और क्रांतिवादी--विद्रोही! और फिर यह भी अड़चन थी....।
जैसा तुम पूछते हो कि जिनका एक पांव इसलाम में और एक पांव हिंदू धर्म में था....।
तो ऐसा लगता है कि दो दो धर्मों पर जिनका अड्डा था। तो दोनों धर्मों से उन्हें
अनुयायी मिल जाने चाहिए थे। मिले भी; मगर बहुत थोड़े। कारण? हिंदुओं
ने कहा कि यह मुसलमान है। और मुसलमानों ने कहाः यह हिंदू है, इससे
सावधान!
मुसलमानों ने यह तरकीब निकाल ली कि यह हिंदू है, इससे
बचना! यह क्या राम-राम की बात लगा रखी है? यह तो हिंदुओं के गुणगान कर रहा
है। यह तो छिपा हुआ हिंदू है। यह तो प्रच्छन्न हिंदू है। यह तो तरकीब है। हिंदुओं
के षड़यंत्र की--कि मुसलमानों में घर कर जाओ और लोगों को भ्रष्ट करो। इस कबीर से
सावधान रहना! यह जासूस है--हिंदुओं का। ऐसा मुसलमानों ने कहा।
और हिंदुओं ने कहा कि यह आदमी मुसलमान है; जुलाहे
के घर पैदा हुआ है। इसकी बातों में मत पड़ना। इसके राम-नाम की बात में उलझ मत जाना।
यह तो राम-राम ऊपर ही है; असल में भीतर रहीम छिपा है। यह
केशव-केशव की बात ऊपर है; भीतर करीम छिपा है। इससे सावधान! इससे
जरा बचना!
दोनों ने संदेह से देखा।
ऐसा मेरे अनुभव में खुद आया। क्योंकि मैं जैन घर में पैदा हुआ,
इसलिए
जैन कहता हैः सावधान! इस आदमी से इसने जैंन धर्म को धोखा दे दिया; बगावत
कर दी। यह आदमी जैनों का दुश्मन है। जैनों का
दुश्मन होना ही चाहिए, नहीं तो जीसस के संबंध में बोलता?
मुहम्मद
के संबंध में बोलता? कृष्ण संबंध में बोलता? बुद्ध के
संबंध में बोलता? ये कबीर, दादू, नानक--इनके
संबंध में बोलता? कोई जैन कभी बोला है? यह जैन तो हो नहीं सकता। यह आदमी
धोखे में है। यह आदमी धोखा दे रहा है लोगों को। यह जैनियों को भ्रष्ट करने का उपाय
है। तो जैन सावधान रहें।
और हिंदू स्वभावतः सावधान हैं कि यह जैन है, जरा
बच कर रहना। भीतर तो जैन होगा ही, ऊपर से कुछ भी कहे! ऊपर से चाहे कबीर का
नाम ले चाहे नानक का, लेकिन मतलब तो पीछे वही होगा कि एक दफे जाल में फंस जाओ,
तो
जैन बना ले।
ऐसी ही दशा थी। दोनों ने संदेह से देखा। मेरे साथ तो उलझन और
ज्यादा है, क्योंकि दो का ही मामला नहीं है। मैं यहूदी पर भी बोलता हंू और
ईसाई पर भी बोलता हंू; बौद्ध पर भी बोलता हंू, तो
और उलझन है।
लोग अपने अंधकार को बचाने की सब तरफ से कोशिश करते हैं--जो भी
बहाना मिल जाए। इसलिए तुम पूछते ठीक हो कि कबीर का जितना प्रभाव होना चाहिए था,
उतना
नहीं हुआ। लेकिन किसका कब हुआ?
तुम सोचते होः बुद्ध का जितना प्रभाव होना चाहिए था, उतना
हुआ? तुम
सोचते होः महावीर का जितना प्रभाव होना चाहिए था, उतना हुआ?
लाओत्सु
का जितना प्रभाव होना चाहिए था, उतना हुआ? या जरथुस्त्र
का? किसका
हुआ?
जितना प्रभाव होना चाहिए था, अगर उतना हो
जाता, तो यह पृथ्वी और ही होती--स्वर्ग होती। किसी का नहीं हुआ।
बड़ी रोशनी लाते हैं ये लोग, मगर हम
अंधेरे के प्रेमी! हम अपनी आंखें भींच कर खड़े हो जाते हैं। रोशनी द्वार पर आ जाती
है, तो
भी इनकार कर देते हैं; नकार कर देते हैं।
बड़ा अमृत लाते हैं ये लोग, लेकिन हम
मृत्यु को आलिंगन किए बैठे हैं! हमने मृत्यु से विवाह रचाया है! हम मृत्यु को तलाक
देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
बड़ा सत्य लाते हैं ये लोग, मगर असत्य
हमारा स्वार्थ है--निहित-स्वार्थ है। हम सत्य की बात ही सुन कर चैंक उठते हैं।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा हैः आदमी से उसके झूठ मत छीनो,
क्योंकि
आदमी बिना झूठ के नहीं जी सकता; आदमी मर जाएगा। आदमी झूठ से जीता है।
आदमी से उसके झूठ मत छीनो, क्योंकि आदमी
सत्य को नहीं झेल सकता है। सत्य कठोर है, कड़वा है; आदमी को झूठ
की मिठास चाहिए। जहर सही--लेकिन मीठा हो, तो आदमी पी लेगा। अमृत सही;
कड़वा
हो, तो
आदमी नहीं पीएगा।
फिर आदमी ने झूठ के साथ किसी तरह अपने सपनों की दुनिया बसा
लिया है। तुम्हारी सत्य की किरण आती है, उसकी सारी दुनिया डगमगाती है।
ऐसा ही जैसे कि तुमने ताश के पत्तों का घर बना लिया, तो तुम हवा
के झोंके से डरते हो। हवा का झोंका न आ जाए! नहीं तो कितनी मेहनत से तो बनाया भवन,
अभी
गिर जाएगा; क्षण में मिट्टी हो जाएगा।
ऐसे ही आदमी ने झूठ के न मालूम कितने ताश में घर बनाए हैं। झूठ
की न मालूम कितनी कागजी नावें तैराई हैं। हवा का झोंका--नाव उलट जाएगी; कागज
का भवन गिर जाएगा।
तुम हवा से डरने लगते हो। तुम द्वार-दरवाजे बंद कर लेते हो।
तुम अपने-अपने भीतर दरवाजे बंद कर के बैठ जाते हो, चाहे कितनी
ही गरमी हो और कितना ही पसीने-पसीने हो जाओ! और बाहर ताजी हवाएं प्रतीक्षा करती
हों, लेकिन
तुम द्वार नहीं खोलते।
ऐसी ही बात है। आदमी ने बड़े झूठ बना रखे हैं। तुम्हारी जिंदगी
सिवाय झूठों के और क्या है? किसी को पत्नी मान रखा हैं। मानी बात
है। कौन किसका पति है? कौन किसकी पत्नी है? किसी
को बेटा मान रखा है। किसी को पिता मान रखा है। किसी को मित्र मान रखा है। किसी को
शत्रु मान रखा है। किसी को अपना; किसी को पराया!
तुमने न मालूम कितने झूठ बना रखे हैं। सब झूठ है। झूठ ही झूठ
है। मानी हुई बातें हैं।
मौत तुम्हारे ताश के ये सब घर गिरा जाएगी। रोज गिराती है,
फिर
भी तुम नहीं चैंकते। लेकिन मौत गिराती है, तो तुम कुछ कर भी नहीं सकते हो।
करने को बचते भी नहीं तुम। मौत आ गई; तुम्हीं गिर जाते हो। फिर
तुम्हारे ताश के पत्ते का घर गिर जाए, तुम्हें चिंता भी नहीं।
संत वही काम करता है, जो मौत करती है, तुम्हारे
जिंदा रहते वही काम करता हैः तुम्हारे घरों को गिराने लगता है। कहने लगता हैः ये
सब रेत के घर हैं, इन्हें गिराओं; इनमें कुछ रखा नहीं है। ये घरघूलों में
भटको मत। तुम्हारा असली भवन वहां है--दूर--उस पार। तुम्हारा साम्राज्य वहां
है--आकाश में यहां नहीं। इस पृथ्वी के तुम वासी नहीं हो। यहां तुम प्रवासी हो। यहां
तुम अजनबी हो। तुम्हारा घर असली यहां नहीं है; इसे सराय से
ज्यादा मत समझो।
अब निश्चित ही जब कोई संत कहेगाः इस दुनिया को सराय से ज्यादा
मत समझो, तो पत्नी घबड़ाएगी--कि इसको बात पति न सुन ले।
पत्नी सराय है! पत्नी समझती है कि वह घरवाली है। सराय है?
वह
घर है।
और पति डरता है कि कहीं पत्नी न सुन ले कि यह नाता-रिश्ता सब
कल्पना का है। ये जो सात भांवर डाल ली हैं, यह सब कल्पना
का जाल है, यह मन को समझाना है। यहां कोई अपना नहीं, कोई
पराया नहीं। अकेले हम आते हैं, अकेले हम जाते हैं। कैसा अपना? कैसा
पराया? न कोई साथ आया, न कोई साथ जाएगा।
कोई साथ नहीं जाने को है। विदा अकेले हो जाओगे। आए थे, तो
भी अकेले थे। बीच में दो दिन का संग-साथ है। यह नदी-नाव संयोग है, इसको
ज्यादा मूल्य मत देना।
जब संत ये बातें कहने लगता है, तो तुम
घबड़ाते हो। तुम्हारे स्वार्थ डगमगाते हैं।
संत तुम्हें उन-उन जगह से जगाता है, जहां तुम खूब
मूच्र्छित होकर सो रहे हो। कोई धन के पीछे दौड़ा जा रहा है; उससे कहो कि ‘तू
पागल है। धन में क्या रखा है? सब ठीकरे हैं। वह नाराज होगा। वह कहेगाः
मेरा सारा रस छीने लेते हो! मेरी जिंदगी में रस ही इतना हैः धन..। धन इकट्टा कर
लूं। इतनी ही मेरी महत्वाकांक्षा है। तुम पानी फेरे देते हो ! तुम कह क्या रहे हो?
तुम
मेरे सपने छीने ले रहे हो। उन्हीं सपनों के सहारे मैं जीता हूं। सपने न रहे,
तो
मैं जीऊंगा कैसे? सपनों के बिना जीऊंगा कैसे? तुम बंद करो
अपनी बकवास। मुझे मेरी राह पर जाने दो।’
कोई आदमी पद के पीछे दौड़ रहा हैः कि प्रधान मंत्री हो जाए! और
संत मिल जाए राह में, तो वह कहता है कि ‘तू पागल है। अरे। परमपद खोज;
दिल्ली
जाने से कुछ भी न होगा। इतनी शक्ति से तो परमात्मा मिल जाएगा। दिल्ली पहुंच कर भी
क्या होगा? लेकिन जो दिल्ली जा रहा है, वह कहेगाः ‘क्षमा
करें। अभी बीच में ये बाधाएं खड़ी न करें, वह सुनी-अनसुनी करेगा। वह कान
बहरे कर लेगा। वह कहेगाः फिर कभी आना। अभी तो मुझे जाने दो।
तुम देखतो होः दिल्ली में जब कोई राजनेता हार जाता है, पद
पर नहीं रह जाता, तो साधु-संतों के पास जाने लगता है। जब तक पद पर रहता है,
तब
तक नहीं जाता। पद पर रहा, तब क्या जरूरत? तब तो सपने
सच मालूम हो रहे थे। तब तो सपने बड़े यथार्थ मालूम हो रहे थे। जब सपने टूट गए,
समय
ने तोड़ दिए, हवा का झोंका आ ही गया--बिना बुलाया, और उखाड़ गया
तुम्हारी सारी जिंदगी की व्यवस्था को, तो तत्क्षण आदमी साधु-संत को
खोजने लगता है। क्यों? क्योंकि अब सोचता हैः यह जिंदगी के सपने
तो व्यर्थ हुए; यहां की दौड़-धूप में अब कुछ अर्थ नहीं। यह तो सब बाजार उखड़ ही
गया। यह दुकान बरबाद ही हो गई। तो शायद संत ही ठीक कहते हों कि उस किनारे को
खोजें। मगर यह हार में, दुख में, पराजय में!
संतों की बात चोट करती है, क्योंकि संत
वही कहते हैं--जैसा है। और तुम वैसा देखना नहीं चाहते।
तुम वैसा देखना चाहते हो, जैसा तुम
चाहते हो कि हो। और संत वैसा कहते है, जैसा है। इन दोनों में मेल नहीं
पड़ता।
इसलिए न तो बुद्ध को उतने लोगों ने समझा, जितने
समझ सकते थे। पूछो मुझसे--कितने समझ सकते थे अगर सभी लोग समझने की तैयारी दिखाते,
तो
एक आदमी को भी रूक जाने का कोई कारण नहीं था।
सूरज निकला है। कितने लोग देख सकते हैं? इतने जितने
लोग आंख खोलें। इससे कुछ ऐसा थोड़े है कि सूरज निकला है, तो
दस आदमियों ने देख लिया, तो अब
ग्यारहवां कैसे देखेगा! कि बारहवां कैसे देखे! सूरज चुक गया--दस ने देख लिया!
अनंत है यह क्षमता--सूर्य के प्रकाश की। जितने लोग आंखें
खोलेेंगे, जितने-जितने लोग आंखें खोलेंगे, सभी देख
लेंगे। ऐसा नहीं है कुछ कि हजार लोगों ने देख लिया, तो अब तुम
कैसे देखोगे! हजार लोग तो देख चुके, तो चुक गया सूरज।
न सूरज चुकता है, न बुद्ध चुकते हैं, न
कबीर चुकते हैं। अनंत है यह क्षमता। सत्य अनंत है। सत्य का आनंद अनंत है। सत्य का
प्रकाश अनंत है। जो भी आंख खोल लेगा, देख लेगा। और तुम पर निर्भर है
सब कुछ।
अगर सारे लोग आंख बंद किए पड़े रहें, तो सूरज उगा
रहे, किसी
को पता भी न चलेगा। ऐसा ही होता है।
तुमने अंधेरे के साथ बड़े नाते बना लिए हैं, बड़ा
स्वार्थ बांध लिया है; अंधेरे के साथ सगाई कर ली है, इसलिए
रोशनी की खबर जो भी लाता है, उससे तुम नाराज होते हो।
धर्मगुरु से तुम नाराज नहीं होते, क्योंकि वह
तुम्हारे जैसा ही अंधा है। और तुम्हारे ही जैसा, अंधेरे में
रहता है।
सदगुरु से तुम नाराज होते हो। सदगुरु तो तलवार की धार है;
वह
तुम्हें छार-छार कर देता है। सदगुरु तो मृत्यु है।
धर्मगुरु के कारण ‘गुरु’ शब्द तक
अपमानित हो गया है। धर्मगुरु के साथ जुड़ने के कारण ‘गुरु’
शब्द
की गुरुता चली गई है। और धीरे-धीरे गुरु जैसा महिमाशाली शब्द बड़ा विकृत हो गया।
कल मैं एक कविता पढ़ रहा था। कविता का नाम है--गुरु-पूजा।
पहले भी होती थी
आज भी होती है
गुरु-पूजा
केवल गुरु और पूजा के अर्थ बदले हैं
वह ‘बड़ा गुरू’ है
पूजा बिना मानेगा नहीं!
‘गुरु’ का अर्थ करीब-करीब ‘गुंडा’
हो
गया है! कहते हैं न--बड़ा गुरू है... वह बड़ा गुरु है! और ‘पूजा’
अर्थात--पिटाई...।
पहले भी होती थी
आज भी होती है
गुरु-पूजा
केवल गुरु और पूजा के अर्थ बदले हैं
वह ‘बड़ा गुरू’ है
पूजा बिना मानेगा नहीं!
धर्मगुरु के साथ शब्द की विकृति हो गई। क्योंकि धर्मगुरु
थोथा-गुरु है, झूठा गुरु है।
झूठ के साथ ‘गुरु’ जुड़ गया,
इसलिए
खराब हो गया, गंदा हंो गया।
कबीर सदगुरु हैं। सदगुरु का अर्थ होता हैंः जिसने जाना। न केवल
जाना, बल्कि जो दूसरे को जानने में भी समर्थ है। न केवल खुद देखा,
बल्कि
दूसरों की आंखों में भी देखने की आकांक्षा जगा सकता है। न केवल खुद जीया, बल्कि
दूसरे के ह्रदय को भी गुदगुदा सकता है--कि जो सोए पड़े है अंधकार में, उनमें
से भी कुछ लोग उठ आएं और यात्रा पर निकल जाएं। कठिन होगी यात्रा, तो
भी कठोर होगी यात्रा, तो भी। पहाड़ की चढ़ाई होगी, तो भी। खडग
की धार होगी, तो भी।
गुरु का अर्थ हैः जो खुद परमात्मा को चखा है और दूसरों के
कंठों में भी ऐसी आतुर प्यास जगा दे कि वे भी परमात्मा को चखे बिना बैठे न रह
सकें। उठना ही पड़े, चलना ही पड़े--चाहे कितनी ही लंबी हो यात्रा और कितने ही
रेगिस्तानों को पार करना पड़े।
‘सदगुरु’ बड़ा महिमाशाली शब्द है; ‘धर्मगुरु’
दो
कौड़ी का।
और फिर दोहरा दूं कि सदगुरु के पास धर्म है। और धर्मगुरु के
पास न तो धर्म है, और न गुरुता है।
धर्मगुरु तो पुरोहित है, पादरी है,
मुल्ला
है। धर्मगुरु तो एक व्यवसाय का हिस्सा है। धर्मगुरु तो संसार के साथ जुड़ा है,
बाजार
के साथ जुड़ा है।
धर्मगुरु तुम्हें बदलता नहीं, तुम्हंे
सांत्वना देता है। सदगुरु तुम्हें तोड़ता है, मारता है,
काटता
है; छैनी
उठा कर तुम्हें निखारता है; छनता है। धीरे-धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आती
है जब तुम शुद्ध होते-होते-होते शून्य हो जाते हो।
शून्य तक जो पहंुचा दे--वह सदगुरु। लेकिन शून्य पर कितने लोग
जाना चाहते हैं। इसलिए बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं होता।
तीसरा प्रश्नः दुख से मुक्ति कैसे मिले?
दुख ने तुम्हें बांधा नहीं है; दुख से तुम
बंधे हो। दुख ऐसी जंजीर नहीं है, जो किसी और ने तुम्हारे हाथों में डाली
हो। दुख ऐसा आभूषण है, जो तुमने खुद शौक से पहना है। यह तो
पहली बात तुम ठीक से समझ लो।
अकसर हम ऐसे ही कहते हैंः दुख से छुटकारा कैसे मिले, जैसे
कि दुख ने तुम्हें बांध रखा है। जैसे कि किसी और ने तुम पर
दुख लाद रखा है। नहीं, ऐसा नहीं है।
तुम दुख को पकड़े हो। तुम दुख छोड़ते नहीं। अभी देखा नहीं! पहला
प्रश्न यही था कि शून्य हुआ जा रहा हूं; अब क्या करूं? घबड़ाहट...
दुख भरे रहता है मन को; ऐसा लगता
है--कुछ है। पास कुछ है।
आदमी बहुत डरता है--दुख छूटने लगे तो। बहुत घबड़ाता है। घबड़ाहट इसलिए
कि दुख के कारण जीवन में कुछ व्यस्तता बनी रहती है; कुछ करता हुआ
मालूम पड़ता है; कुछ होता हुआ मालूम पड़ता है।
और दुख के कारण अहंकार भी बचा रहता है। खयाल रखनाः अगर अहंकार
बचाना हो, तो दुख में ही बचाया जा सकता है। दुख खाद है--अहंकार की।
सुखी आदमी का अहंकार खो जाता है। सुख हो नहीं सकता--बिना
अहंकार के खोए। जब तक मैं की अकड़ है, तब तक दुख।
तुमने भी अनुभव किया होगाः कभी जब तुम प्रफुल्लित होते हो,
तो
अहंकार नहीं होता। जब तुम उदास होते हो, तब ज्यादा अहंकार होता है।
इसलिए तो तुम्हारे तथाकथित तपस्वी साधु-संन्यासी बड़े उदास और
लंबे चेहरे बनाए रहते हैं। यह अहंकार को बचाने की तरकीब है। दुनिया को वे यह कह
रहे हैं कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। तुम सब पापी, हम
पुण्यात्मा! तुम सब सड़ रहे हो नरक में, और हम स्वर्ग की तरफ जा रहे हैं!
हम विशिष्ट! हम पवित्र! हम श्रेष्ठ!
तुम देखते हो, तुम्हारे साधुओं के पास जाओ, तो
वे तुम्हारी तरफ ऐसे देखते हैं, जैसे तुम कीड़े-मकोड़े हो! तुम्हारे प्रति
कोई सम्मान नहीं है। सम्मान हो कैसे सकता है? तुम्हारा
अपमान है। लेकिन ये साधु-संन्यासी अगर दुखी रहें, तो आश्चर्य
नहीं है। ये दुखी होंगे ही।
आनंद जब आता है, तो तुम भूल ही जाते हो कि तुम
हो। हंसी में भूल जाता है अहंकार; रोने में सघन हो जाता है। इसे जांचना,
इसे
पहचानना।
जब तुम हंसते हो, तब तुम नहीं होते हो, इसका
निरीक्षण करना। जब हंसी सच में ही फैल जाती है प्राणपन में, तुम्हारा
रोेआं हंसी में भर जाता है, इस क्षण तुम नहीं होते हो; तुम
हो नहीं सकते। क्योंकि होने के लिए जैसा तनाव चाहिए, वह तनाव ही
नहीं है। हंसी में कहां तनाव?
इसलिए तो मैं कहता हूं कि संन्यासी हंसता हुआ होना चाहिए,
नाचता
हुआ होना चाहिए, प्रफुल्लित, तोही निर-अहंकारी होगा।
पूछा तुमनेः दुख से मुक्ति कैसे मिले? समझोः दुख को
तुमने पकड़ा है। दुख से तुम कुछ लाभ ले रहे हो--अहंकार का लाभ ले रहे हो। दुख के
कारण तुम अनुभव कर रहे होः मैं कुछ विशिष्ट हूं। देखो। कितना दुख झेल रहा हूं।
दुख तुम्हें शहीद होने का मजा दे रहा है कि तुम शहीद हो;
कि
सारी दुनिया का दुख-भार उठाए चल रहे हो!
पति ऐसे चलता है, जैसे पत्नी का दुख-भार ढो रहा
है। बच्चों का दुख-भार ढो रहा है। पत्नी दुख में बैठी है। क्योंकि वह देखती है कि
वह पति को सम्हाल रही है, नहीं तो कभी के भ्रष्ट हो गए होते!
बच्चों को सम्हाल रही है। घर को सम्हाल रही है।
मेरे बिना दुनिया अस्तव्यस्त हो जाएगी--ऐसा अहंकार तुम्हें
दुखी बना रहा है।
और फिर दुख से लड़ने का भी एक मजा है। मगर लड़ने के लिए दुख होना
चाहिए। आदमी लड़ाई में बड़ा रस लेता है, क्योंकि लड़ाई में जीत की आशा है।
अगर दुख न हो, तो किससे लड़ोगे? और लड़ोगे
नहीं, तो जीतोगे कैसे? और जीतोगे नहीं तो अहंकार की
प्रतिष्ठा कहां होगी? यह सारी व्यवस्था समझना। एक दुख जाता है, तुम
दूसरा बना लेते हो। तुम्हारे पास हजार रुपये हैं, तुम कहते होः
दस हजार हो जाएं; बस, फिर निशिं्चत हो जाऊंगा। तुम क्या कर
रहे हो?
तुम्हारे पास हजार रुपये हैं, हजार रुपये
का तुम सुख नहीं उठा रहे हो। तुम नौ हजार का दुख पैदा कर रहे हो। तुम कह रहे होः
दस हजार हो जाएं...। तुमने नौ हजार का दुख पैदा कर लिया, क्योंकि दस
हजार हो जाएं और दस हजार हैं नहीं। हैं केवल हजार, तो नौ हजार
नहीं हैं मेरे पास--यह दुख तुमने पैदा कर लिया।
हजार का सुख तो नहीं उठाया, नौ हजार का
दुख पैदा कर लिया। अब यह दुख कहीं भी नहीं है। सिर्फ तुम्हारी कल्पना में है,
कामना
में है, वासना में है। अब तुम लगे दौड़ने कि कैसे दस हजार हो जाएं! एक
दिन दस हजार भी हो जाएंगे, लेकिन उस दिन तुम कहोगे अब लाख के बिना
काम नहीं चलेगा। चीजों के भाव भी बढ़ गए हैं! और जिंदगी कहां से कहां चली गई!
और निश्चित ही जिस आदमी के पास हजार रुपये थे, उसकी
आकांक्षाएं बहुत से बहुत दस हजार तक दौड़ सकती थीं वह भी जानता था, इससे
ज्यादा की आकांक्षा करना सीमा के बाहर जाना होगा।
गरीब की आकांक्षाएं भी गरीब होती हैंः खयाल रखना। गरीब आदमी
ऐसा झाड़ के नीचे बैठा हुआ सपने नहीं देखता कि मैं सम्राट हो जाऊं। यह बात जरा इतनी
फिजूल गलती है, इतनी मूढ़तापूर्ण लगती है कि यह होनेवाली नहीं है ठीकारा पास
नहीं है, सम्राट होने की बात का क्या मतलब है! कुछ हल नहीं होता।
गांव का भिखारी यही सोचता है कि इस गांव में मैं सबसे धनी
भिखारी कैसे हो जाऊं--ज्यादा से ज्यादा। सौ-पचास भिखारी गांव में हैं, इन
सबका मुखिया कैसे हो जाऊं? बस, इससे ज्यादा
उसकी आकांक्षा नहीं होतीः सबसे बड़ा भिखारी कैसे हो जाऊं!
गरीब की आकांक्षा भी गरीब होती है। अमीर की आकांक्षा भी अमीर
होती है। और यह बड़ा मजा है।
तो गरीब अगर हजार रुपये थे, दस हजार की
सोचता था। जब वे दस हजार उसके पास हो गए, तो अब वह अमीर हो गया। अब वह लाख
की सोचता है और नब्बे हजार का दुख पैदा कर लेता है।
इसलिए अमीर आदमी ज्यादा दुख में पड़ता चला जाता है। क्योंकि
जैसे-जैसे उसकी संपदा बढ़ती है, वैसे-वैसे वासना की हिम्मत बढ़ती है। वह
सोचता है कि जब दस हजार कमा लिए, तो लाख क्यों नहीं कमा सकता! बल आ गया।
वह कहता हैः कुछ करके दिखा देंगे। ऐसे ही नहीं चले जाएंगे। देखो, हजार
थे, दस
हजार कर लिए। दसगुने कर लिए, तो दसगुना करने की मेरी हिम्मत है। अब
दस हजार हैं, तो लाख हो सकते हैं! क्योंकि दसगुना मैं कर सकता हूं।
मगर यह कहां रुकेगा? जब लाख हो जाएंगे, तो
यह दस लाख की सोचने लगेगा! ऐसे तुम रोज ही दुख बनाते जाओगे; रोज दुख बड़ा
होता जाएगा; रोज दुख फैलता चला जाएगा। एक दिन तुम अगर पाते हो कि तुम दुख
में घिरे खड़े हो, सब तरफ दुख में पड़े हो; दुख के सागर
में डूबे हो, तो किसी और की जिम्मेदारी नहीं है। तुमने अपनी ही वासनाओं की
छाया की तरह, दुख पैदा कर लिया है।
दुख से मुक्त होना है, तो सीधे दुख से मुक्त होने का
कोई उपाय नहीं है। वासनाओं को समझो। और अब वासनाएं मत फैलाओ।
सुख का उपाय हैः जो है, उसका आनंद
लो। जो नहीं है, उसकी चिंता न करो। दुख का उपाय हैः जो है, उसकी
तो फिक्र ही मत लो। जो नहीं है, उसकी चिंता करो।
दुख का अर्थ हैः अभाव पर ध्यान रखो, भाव को भूलो।
जो पत्नी तुम्हारे घर में है, उसकी फिक्र न करो। उसमें क्या रखा है?
तुम्हारी
पत्नी! जो पड़ोसी की पत्नी है, वह सुंदर है।
अंग्रेजी में कहावत हैः दूसरे के बगीचे की घास सदा ज्यादा हरी
मालूम होती है। होती भी है मालूम। जब तुम देखते हो दूर से--दूसरे का लान--खूब हरा
लगता है। तुम्हारा अपना लाॅन इतना हरा नहीं मालूम पड़ता।
दूसरे का मकान सुंदर मालूम होता है। दूसरे की कार सुंदर मालूम
होती है। दूसरे की पत्नी सुंदर मालूम होती है। दौड़ चलती चली जाती है।
सुख का सूत्र हैः जो तुम्हारे पास है, उसके लिए
परमात्मा को धन्यावाद दो। जो है--वह पर्याप्त है।
एक आदमी ने आत्महत्या करने की कोशिश की। जब वह मरने के करीब जा
रहा था, चट्टान पर से कूदने नदी में, एक फकीर वहां
ध्यान करता था, तो उसने रोक लिया। उस फकीर ने कहा कि ‘सुनो भी,
मेरी
भी सुनो! बात क्या है? क्यों मरे जाते हो?’
उस आदमी ने कहा, ‘मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं सब
कोशिश कर चुका; हार चुका। परमात्मा नाराज है। कुछ बात बनती नहीं। सब बिगड़ जाता
है; जो
छूता हंू। सोना छूत हूं, मिट्टी हो जाती है। जिस दिशा में जाता
हूं, वहीं
हार लगती है! एक सीमा होती है! अब इस जिंदगी से मैं ऊब गया हूं। मेरे पास कुछ भी
नहीं है; मैं मरना चाहता हूं।’
उस फकीर ने कहाः ‘मरने के पहले एक काम कर जाओ। तुम
तो मर ही जाओगे, मुझे थोड़ा लाभ हो जाएगा।’ उसने कहा,
‘क्या
काम? ’
उसने फकीर से कहा कि ‘ऐसा करो, इस गांव का
जो सम्राट है, वह मेरा मित्र है; वह बड़ा झक्की किसम का आदमी है;
सनकी
किसम का आदमी है। अजीब चीजें इकट्ठी करने का उसको शौक है। मैं तेरी आंखें बिकवा
देता हूं। लाख रुपये कम से मिल जाएंगे। फिर तू मर जाना। तू तो मर ही रहा है। और
उसकी अगर मौज में आ जाए, तो वह तेरे कान भी खरीद लेगा; तेरे
दांत भी खरीद लेगा वह सनकी किसम का है। वह इसी तरह के काम करता है। तू चल मेरे
साथ।
अब वह आदमी कुछ कह भी न सका इस फकीर को। कहना भी क्या! वह कह
चुका था कि मेरे पास कुछ भी नहीं है और मरने ही जा रहा हूं। मगर जैसे ही उसे खयाल
आया कि लाख रूपया आंख का मिल सकता है, तो एकदम गरीब नहीं हूं मैं!
सम्राट के घर तक पहंुचते उसने तय कर लिया कि यह मामला ठीक नहीं
हैः आंख बेचना! मरने की तो भूल गया। फकीर भीतर गया। सम्राट को राजी कर लिया। इस
आदमी को बुलाया। सम्राट ने कहाः ‘ठीक है। आंखें निकलवा लेते है। लाख
रूपया ले ले तू।’
उस आदमी ने कहा, ‘समझा क्या है तुमने मुझे?
आंख
अपनी बेचूंगा? ’ सम्राट ने कहा, ‘दाम अगर
ज्यादा चाहिए, तो वैसी बात करो। दो लाख तो दो लाख।
जितना मांग, उतने दूंगा।’
फकीर ने उसको राजी कर लिया था कि इस आदमी को, जितना
मांगे, उतना देना।
‘दस लाख चाहिए, दस लाख दूंगा। कान भी खरीद लेंगे। दांत
भी खरीद लेंगे। तेरे हाथ भी खरीद लेंगे। पैर भी खरीद लेंगे। और तू तो मरने ही जा
रहा है।’
उस आदमी ने कहा, ‘मैं बेचना ही नहीं चाहता। कोई
आदमी अपने होश में अपनी आंखे बेचेगा, ’ उस आदमी ने कहा।
वह फकीर बोला, ‘लेकिन भाई, तू तो कहा
रहा था--तेरे पास कुछ है ही नही। तू मरने जा रहा था। उसमें आंख भी मरती, कान
भी मरते, हाथ भी मरते, पैर भी मरते--सब मर जाता। और तू कहता
थाः तेरे पास कुछ भी नहीं है। और जब दस लाख आंख के मिल रहे हैं, सिर्फ
आंख के मिल रहे हैं! अभी और सामान तेरा बेच। करोड़ों दिलवा दूं।’
वह आदमी तो खड़ा हो गया। उसने कहा, तुम हत्यारे
हो--तुम लोग। यह कोई बात है!
तो उस फकीर ने कहा, फिर मरने के बाबत क्या खयाल है?
उसने
कहा कि मैं मर नहीं सकता अब। अब मुझे पहली दफा खयाल आया कि मेरे पास आंखें हैं,
जिनको
मैं दस लाख में नहीं बेच सकता। लेकिन मैंने इन आंखों के लिए परमात्मा को कभी
धन्यवाद नहीं दिया। मैं रोता ही रोता रहा कि मेरे पास ‘यह’ नहीं,
‘यह’
नहीं।
मैं शिकांयतंे ही करता रहा! मेरी जिंदगी शिकायतों की एक लंबी गाथा है। तुमने मुझे
ठीक चेता दिया।
उस फकीर ने कहा, ‘इसलिए मैं तुझे यहां ले आया था।
अब तेरी मरजी, जो तुझे करना हो।’
उस दिन से उस आदमी की जिंदगी बदली। शिकायत समाप्त
हुई--प्रार्थना प्रारंभ हुई। उस दिन से वह मंदिर में जाकर धन्यवाद देने लगा कि ‘प्रभु,
तेरी
कितनी अनुकंपा है। तूने मुझे आंखें दी, जो मैं दस लाख में नहीं बेच सकता;
दस
लाख की बात क्या, करोड़ में नहीं बेच सकता! तूने मुझे इतना दिया है और मेरी कोई
पात्रता भी नहीं। किस कारण दिया--यह भी मुझे पता नहीं! तूने अपने प्रेम से ही दिया
होगा; आह्लाद से दिया होगा; अपने अतिरेक से दिया होगा। तेरे
पास बहुत है, इसलिए दिया होगा। धन्यवाद! तेरा बहुत धन्यवाद! मुझे कुछ और
नहीं चाहिए। जो दिया है, यही क्या कम है!’
और उस दिन से उस आदमी की जिंदगी बदल गई। उस दिन से वह दुखी
आदमी, सुखी हो गया।
तुम, जो है--उसे देखना शुरू करो। तुम्हारे
पास बहुत है। कभी सोचना बैठ करः कितने में आंख बेचोगे?
यह जिंदगी बहुमूल्य है। इसे तुम किसी मूल्य पर बेचने को राजी
नहीं हो सकते। यद्यपि तुमने इस जिंदगी के लिए कभी धन्यवाद भी नहीं दिया है।
यह जो पक्षियों का गीत सुन रहे हो, अगर तुम्हारे
पास कान न होते, तो तुम पक्षियों का गीत सुनने के लिए कितने रुपये देने को राजी
हो सकते थे? यह वृक्षों की हरियाली...! काश! तुम्हारे पास अगर आंखें न होती;
तो
तुम ये हरियाली को देखने को कितना रुपया देने को राजी नहीं हो सकते थे!
मगर क्या तुमने कभी हरियाली देखी--आंख है तो? तुमने
कभी फूल खिलते देखे? तुमने पक्षियों के गीत में कुछ रस लिया? तुमने
चांद-तारों पर नजर दौड़ाई? तुमने यह अखंड विस्तार जो परमात्मा का
है, जो
अनंत लीला चल रही है, इसका आह्लाद कभी अनुभव किया है?
अंधे होते तो रोते--कि हे प्रभु, तूने रोशनी
क्यों नहीं दी? मेरा क्या पाप है? तूने मुझे रंग क्यों न
देखने दिए? मैं तेरे इंद्र-धनुषों को देखने को
तरसता हूं; कि मुझे तेरे सूरज का दर्शन करना है! तूने मुझे क्यों यह कष्ट
दिया! यह तुम कहते--जरूर।
अंधे से पूछे तो यह कहते हैं। बहरों से पूछो, तो
रोते हैं कि हमने ध्वनि नहीं जानी; हमने संगीत नहीं जाना। हम सुनते हैं कि
संगीत बड़ी अपूर्व बात है! लेकिन हमने नहीं जाना। हमें पता भी नहीं कि संगीत क्या
होता है।
गंूगे से पूछो बोल नहीं सकता। कितना रोता है, कितना
तड़पता है भीतर--कि काश, मैं भी बोल सकता! मुझे भी कुछ कहना है।
मुझे भी कोई गीत गुनगुनाना है। मुझे भी कोई सुवास प्रकट करनी है। मुझे भी कुछ रचना
है। मुझे भी कुछ कहना है। मैं इतना भी नहीं कह सकता किसी से कि मुझे तुमसे प्रेम
है! हे प्रभु, तूने इतना दीन क्यों बनाया? यद्यपि तुमने
अपनी वाणी के लिए कभी धन्यवाद नहीं दिया है।
तुम जरा सोचना शुरू करोः कितना तुम्हारे पास है! और तुम चकित
हो जाओगे। इतना है कि तुम कितना ही धन्यवाद दो, धन्यवाद थोड़ा
पड़ेगा।
और अकारण मिला है सब। तुमने इसे अर्जित नहीं किया है। यह उपहार
है। यह परमात्मा की भेंट है। और इस भेंट के लिए तुमने कभी धन्यवाद भी नहीं दिया
है।
अब तुम पूछते हो कि दुख से मुक्ति कैसे मिले? तुम
निर्मित कर रहे हो दुख। अभाव को हटाओ, भाव को देखो। जो है, उसे
देखो। जो नहीं है, उसकी क्या चिंता लेनी। जो नहीं
है, नहीं
है।
फूल हो जो शूल से शृंगार करता हूं
जिंदगी के साथ मैं खिलवार करता हूं।
क्योंकि है यह जिंदगी रंगीन छाया-धूप
भोर का उजियार है जन का सुनहरी रूप
स्वप्न-बन तन हैं जिसमें प्राण का पंछी
श्वास-तिनकों से रहा बुन मृत्यु-नीड़ अनूप
इसलिए हंस मृत्यु भी स्वीकार करता हूं
और विष को भी अमृत को धार करता हूं।
जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल
आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल
रात भर के लिए है आंख में सपना
आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल
इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं
धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं।
ऐसी भावदशा चाहिए।
फूल हो जो शूल से शृंगार करता हूं
जिंदगी के साथ मैं खिलवार करता हूं
धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं
धूल भी अपूर्व है, क्योंकि धूल से हम बने हैं और कल
धूल में ही खो जाएंगे। धूल हमारी जन्मदात्री है, तो फिर धूल
का भी स्वागत-सत्कार...।
मृत्यु के कारण ही जीवन है। मृत्यु न हो, तो
जीवन न हो सकेगा। इसलिए फिर मृत्यु का भी धन्यवा...।
जरा सोचो तो, कि तुम एक बार जन्म गए और फिर सदा ही
बने रहो, और कभी मर न सको। कभी सोचा; इस पर विचार
किया?
अगर तुम्हें सदा रहना पड़े, अनंत काल तक
रहना पड़े, तुम कुछ भी करो और मर न सको, तो तुम घबड़ा
न जाओगे? ऊब न जाओगे? परेशान न हो जाओगे? थक न
जाओगे? और आत्महत्या का भी कोई उपाय न हो। जहर पियो--और मरो न। पहाड़
से गिरो और मरो न। गोली चलाओ और गोली चल जाए और तुम मरो न। कठिन हो जाएगा। बहुत
कठिन हो जाएगा।
मृत्यु विश्राम देती है। सत्तर-अस्सी साल के जीवन के बाद थक
चुके। देखा जीवन, पहचाना जीवन, जीए जीवन, फिर विश्राम
चाहिए। जैसे दिन भर के बाद रात नींद चाहिए, ऐसे जीवन के
भर बाद मृत्यु चाहिए।
नींद छोटी सी मौत है और मृत्यु बड़ी नींद है। जैसे सुबह तुम उठ
आते हो--रात सो जाने के बाद--ताजे और नये, फिर जीवन के लिए तत्पर--ऐसे ही
मृत्यु के बाद भी तुम उठोगे। फिर ताजे, फिर नये, फिर नया गर्भ,
फिर
नया जीवन, फिर नया चक्र।
अगर जीवन को ठीक से देखोगे, तो मृत्यु तक
स्वीकार हो जाए।
यहां निश्चित ही फूल हैं और शूल भी हैं। मगर निर्भर इस बात पर
करती है सारी बात, कि तुम शूल ही शूल देखते हो कि फूल ही फूल देखते हो। यहां
दोनों हैं।
कुछ लोग शूलों की ही गिनती करते रहते हैं! उनको अगर तुम गुलाब
की झाड़ी के पास ले जाओ, तो वे गिनती कर लेंगे--सब कांटो की--कि
कितने कांटे हैं! हजारों कांटे हैं! कांटे गिनते-गिनते छिद भी जाएंगे, लहू-लुहान
भी हो जाएंगे, नाराज भी हो जाएंगे। और कांटों के प्रति इतना क्रोध आएगा,
इतनी
दुश्मनी हो जाएगी, कि आंखें इतनी अंधी हो जाएगी क्रोध से--कि फूल अगर एकाध खिला
भी होगा, तो दिखाई न पड़ेगा।
रामदास के जीवन में कथा है कि रामदास रामायण लिखते हैं। रामायण
की खबर पहुंचनी शुरू हो जाती है लोगों तक। हनुमान को खबर लगती है कि रामदास रामायण
लिख रहे हैं। हनुमान जिज्ञासावश चले आते हैं कि देखें, यह आदमी
हजारों साल पहले कहानी हुई थी। अब लिखने बैठा है। सच लिखता है कि झूठ!
हनुमान भी बहुत हैरान होते हैं क्योंकि वे बातें बड़ी सच कह रहे
हैं। वे ऐसे कह रहे हैं, जैसे आंख से देखी कह रहे हों! लेकिन एक
जगह बात उलझ जाती है।
एक जगह रामदास कहते हैं कि हनुमान लंका गए, अशोक-वाटिका
में गए और वहां उन्होंने देखा कि सब तरफ सफेद-सफेद फूल खिले हैं।
हनुमान खड़े हो गए; भूल ही गए! हनुमान ही हैं एक तो!
वैसे तो छिपे बैठे थे, कंबल वगैरह ओढ़ कर बैठे थे कि किसी को
पता न चले; कोई पकड़ न ले कि हनुमानजी हैं।
भूल ही गए। कंबल फेंक कर खड़े हो गए। कहा कि ‘यह
बात गलत है और तो सब ठीक है। मैं रहा हनुमान। सुधार लो। संशोधन करो। फूल सफेद नहीं
थे। फूल सुर्ख थे, लाल थे।’
रामदास ने कहा, ‘बकवास बंद करो। ओढ़ो अपना कंबल और
बैठ जाओ शांति से। यह तुम्हारा काम नहीं निर्णय करना कि फूल सफेद थे कि लाल थे!
रामदास ने लिख दिया, सो लिख दिया। रामदास सुधार नहीं करता।’
यह तो बात जरा जिद्द की हो गई। हनुमान ने कहा, ‘यह
तो हद्द हो गई। मैं गवाह! मैं खुद हनुमान! मैं वहां गया था। तुम कभी गए नहीं।
तुमने अशोकवाटिका कभी देखी नहीं। तुम मुझे झुठलाते हो! और अपनी बात...? कहते
होः तरमीन नहीं कर सकता!’
रामदास ने कहा, ‘तुम शांत बैठो। सुनने आए
हो--सुनो; नहीं सुनना हो रास्ता पकड़ो।’
बात जब बहुत बढ़ गई तो हनुमान भी गुस्से में आ गए। हनुमान ने
कहा कि ‘फिर राम के पास चलना पड़ेगा। तुम चलो।’
बिठा कर कंधे पर राम के पास ले गए; कहा कि ‘राम
ही निर्णय कर दें। यह तो जरा...! भला, अच्छा, आदमी है
रामदास’, हनुमान ने कहा, और सब ठीक कहता है, बाकी
सब ठीक ही लिखा है; और मुझे भी रस आता है उसकी रामायण सुनने में। फिर से याद हरी
हो जाती है। फिर से सब ताजा हो जाता है। फिर स्मृतियां दौड़ने लगती है। फिर वह लोक
आंख के सामने खुल जाता है। बड़ी जीवंत है उसकी कथा। मगर यह जिद्दी है। मैं कहता हूं
कि फूल लाल थे।’
राम ने कहा, ‘हनुमान तुम इन बातों मे मत उलझो। रामदास
ठीक ही कहता हैः फूल सफेद ही थे। तुम इस झंझट में पड़ो ही मत। यह तुम्हारा काम
नहीं।’
तब तो हनुमान नेे कहा, ‘यह तो
ज्यादती हो गई! यह आदमी भी कहता है कि यह तुम्हारा काम नहीं है। आप भी कहते हैं कि
यह तुम्हारा काम नहीं है। यह काम किसका है? मैं वहां था।
न तुम गए, न यह आदमी गया’। सीता से पूछ लो। वह मौजूद थी वहां।
वही एक मात्र गवाह है।’
सीता को पूछा गया। सीता ने कहा, ‘हनुमान,
तुम
इस झंझट में न पड़ो। फूल सफेद ही थे। लेकिन तुम इतने क्रोध में थे, तुम्हारी
आंखें खून से भरी थीं--कि तुम्हें लाल दिखाई पड़े थे। फूल सफेद ही थे। मगर तुम पागल
हो रहे थे। तुम्हारे राम की सीता छिन गई थी। तुम दीवाने हो रहे थे। तुम होश में
नही थे। तुम्हारा सिर एकदम विक्षुब्ध था और आंखें खून से भरी थीं। तुम प्रतिशोध को
तत्पर थे। तुम विध्वंस को तत्पर थे। तुम बदला लेना चाहते थे। उस प्रतिशोध से भरी
आंखों में फूल सफेद नहीं दिखाई पड़े थे। अन्यथा फूल सफेद ही थे। रामदास ठीक कहते
हैं। राम भी ठीक कहते हैं। मैं गवाह; मैं वहां थी। और तुम थोड़ी देर के
लिए आए थे; मैं वहां महीनों थी। फूल सफेद ही थे।’
आंख पर निर्भर है। अगर तुम कांटे गिनो, कांटों से
आंखें सुर्ख हो जाएंगी, लाल हो जाएंगी, लहू-लुहान हो
जाएंगी, फिर फूल दिखाई नहीं पड़ेंगे।
अगर तुम फूल गिनोगे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगेः कांटे
भी फूल के दुश्मन नहीं है; रक्षक है। फूलों को प्रेम करते-करते तुम
पाओगेः कांटों से भी प्रेम उमग आया।
रात को भी प्रेम करने लगोगे तुम--अगर दिन को प्रेम किया। और
अंधेरे को भी प्रेम करने लगोगे तुम--अगर रोशनी को प्रेम किया। मृत्यु भी मित्र
मालूम पड़ेगी--अगर जीवन को मित्रता की तरह देखा। सब तुम पर निर्भर है।
दुख से छुटकारे के लिए कुछ करना नहीं है। सिर्फ देखना है।
सम्यक दृष्टि।
यहां सब है। यहां विपरीत का मिलन हो रहा है। यहां दुख भी है,
सुख
भी है।
तीन स्थितियां हो सकती हैं आदमी की। दुख की स्थिति, और
दोनों के अतीत।
पहली स्थिति को हम नरक कहते हैं। दूसरी स्थिति को स्वर्ग कहते
हैं। तीसरी स्थिति को मोक्ष कहते हैं।
अधिक लोग नरक में जीते हैं। ऐसा मत सोचना की नरक कहीं पाताल
में है। नरक तुम्हारे भीतर है; तुम्हारे जीने के ढंग का नाम है।
तुम्हारे गलत जीने का ढंग--नरक। कांटों को चुनने की आदत--नरक। दुख को पकड़ने की
आदत--नरक जो नहीं है, उसको
देखना, और जो है, उसको नहीं
देखना, इस तरह की विकृत मनोदशा का नाम--नरक।
जो है, उसे देखना; जो नहीं है,
उसकी
जरा चिंता न करना। जो है, उसके लिए धन्यवाद--अनुग्रह का भाव। जो
नहीं है, उसकी कोई शिकायत नहीं, कोई मांग नहीं।
फूल को गिनना; कांटों की गिनती न करना।
स्वर्ग--और स्वर्ग के बाद ही संभव हो पाता है, एक
दिन यह देखना, कि नरक और स्वर्ग तो दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक
तरफ दुख लिखा है, एक तरफ सुख लिखा है। क्योकि एक ही झाड़ी में क ांटे हैं,
उसी
में फूल हैं। यद्यपि यह सच है कि कांटों ही कांटों को देखने वाला आदमी गलत है।
लेकिन किसी और ऊंचाई से यह भी सच है कि सुख ही सुख देखने वाला आदमी भी गलत है,
क्योंकि
दोनों की दृष्टियां अधूरी हैं। इसे समझना।
अगर तुम नरक में हो, तो मैं कहता हूंः तुम्हारी
दृष्टि गलत है। सम्यक दृष्टि तुम्हें सुख में ले आएगी। जब तुम सुख में आ जाआगे,
तो
सम्यक दृष्टि और ऊपर ले जाएगी। वह कहेगीः सुख ही सुख देखना भी गलत है। क्योंकि
यहां दुख भी है, सुख भी है।
दोनों में से किसी को भी चुनना गलत है।
अचुनाव--चुनना ही नहीं; निर्विकल्प
हो जाना।
सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। दुख भी आता है,
सुख
भी आता है। दोनों आते-जाते है। मैं दोनों से पृथक अलग, भिन्न साक्षी
मात्र। वह दशा परम आनंद की।
आओ, अपने संबंधों पर पुनर्विचार करें
थोड़ी सी कलह
थोड़ा प्यार करें।
किसी को क्या पता हम बुरे हैं
कि भले औरों की तरह हम भी
विषम परिस्थितियों में पले
आओ, मन पर लगे नियंत्रण हटाएं
थोड़ी चुप्पी साधें
थोड़े शब्दों के वार करें!
हरदम अच्छा-अच्छा ही क्यों चाहें?
फूलों वाली ही क्यों
क्यों न हो कांटोंवाली राहें?
आओ, सपनों से अंाखमिचैनी रचाएं
थोड़ी इच्छाएं पतझर
थोड़ी बहार करें।
एक दसरे के बारे में ही क्यों सोचे हरपल
मन के भीतर भी तो है
थोड़ी हलचल
आओ, आसक्ति से विरक्ति में उतराएं
थोड़े क्षण उदास
थोड़े त्यौहार करें।
आओ, अपने संबंधों पर पुनर्विचार करें।
एक तो दुख को पकडने की वृत्ति; दूसरी सुख को
पकड़ने की वृत्ति। मगर पकड़ने की वृत्ति भी गलत है। पहले से दूसरी बेहतर। लेकिन
पकड़ने की वृत्ति भी गलत है। फिर तीसरी--न पकड़ने की क्षमता। कुछ भी न पकड़े। कांटे
हैं, तो
कंाटें। फूल हैं, तो फूल।
थोड़ी इच्छाएं पतझर
थोड़ी बहार करें
थोड़े क्षण उदास
थोड़े त्यौहार करें।
दोनों ठीक । रात भी ठीक, दिन भी ठीक।
उदासी आए, उदासी भी ठीक। खुशी आए, खुशी भी ठीक।
धीरे-धीरे दोनों ठीक--दोनों ठीक--इस भावदशा में बैठते-बैठते
अचानक तुम पाओगे कि तुम दोनों के बाहर सरक गए। जैसे संाप अपनी पुरानी कैं चुली से
सरक जाता है। द्वंद्व के बाहर सरक गए। निद्र्वन्द्व हो गए। निरंजन हो गए। वह दशा
साक्षी की, वही
दशा अवधूत की। दो नहीं रहे--अब तम्हारे जीवन में; एक
का जन्म हुआ। अद्वैत का जन्म हुआ।
मगर यात्रा ऐसी है कि पहले दुख छोड़ो, सुख में आओ।
नरक छोड़ो स्वर्ग मंे आओ। फिर स्वर्ग भी छोड़ो।
पहले बीमारी छोड़ो, स्वस्थ बनो। फिर स्वास्थ्य भी
छोड़ो। क्योंकि स्वास्थ्य भी बीमारी के साथ ही जुड़ा है। फिर स्वास्थ्य की भी फिक्र
न लो। बीमारी ही गई, तो अब स्वास्थ्य की क्या फिकर लेनी? अब इसे भी
जाने दो। अब तुम दोनों के पार हो जाओ।
पहले पाप छोड़ो, पुण्य पकड़ो। फिर पुण्य भी छोड़ो। फिर
पाप-पुण्य के पार हो जाओ। पहले राग छोड़ो, विराग पकड़ो। फिर विराग भी छोड़ दो,
वीतराग
हो जाओ।
वह तीसरी दशा लक्ष्य है। और वहीं शंाति है--और परम आंनद है।
चैथा प्रश्नः प्यारे भगवान,
निकलेगा रथ कि स रोज पार कर मुझको
ले जाओगे कब ज्योति बार कर मुझको
किस रोज लिए प्रज्वलित बाण आओगे
खिंचते हृदय पर रेख निकल जाओगे
किस रोज तुम्हारी आग सीस पर लूंगा
बाणों के आगे प्राण खोल धर दूंगा?
पूछा है आनंद मैत्रेय ने।
यही सभी संन्यासियों की आकंाक्षा है। यह प्रश्न सभी का प्रश्न है।
जो सभी मुझसे किसी गहरे नाते में जुड़ें हैं, उन
सभी की उसी क्षण के लिए प्रतीक्षा है। वह क्षण अभी भी आ सकता है--आज भी--इसी क्षण
भी।
मैं तोे तैयार हंू, तुम्हीं झेलने को तैयार नहीं
होते। तुम्हारी ही तैयारी धीरे-धीरेे हो जाए, इसकी चेष्टा
कर रहा हूं।
तुम अपने कारागृह से बाहर आ जाओ; या--कम से कम
द्वार-दरवाजे खोलो कि मैं तुम्हारे कारागृह मे भीतर आ सकूं।
कारागृह मे तुम हो--द्वार दरवाजे बंद किए हैं; और
मजा ऐसा है कि कोई और पहरा भी नहीं दे रहा है। तुम ही द्वार-दरवाजे बंद किए,
ताले
लगाए भीतर बैठे हो--घबड़ाए, डरे, अस्तित्व से
डरे; सुरक्षा
मालूम होती है भीतर। बाहर असुरक्षा है।
सच है यह बातः बाहर असुरक्षा है। लेकिन असुरक्षा मे जीवन है।
असुरक्षा के भाव को समग्र रूपेण स्वीकार कर लेना की संन्यास है--कि अब हम सुरक्षा
करके न जीएंगे। अब परमात्मा जैसा रखेगा, वैसा जाएंगे। अब जैसी उसकी मरजी।
‘जिही विधि रखे राम, तिही विधि रहिए।’ अब
जो करवाएगा--करेंगे; नहीं क रवाएगा--नहीं करेगे। अपने पर भरोसा छूटे, तो
यह घटना आज ही हो सकती है।
‘निकलेगा रथ किस रोज पार कर मुझको?’ रथ तो द्वार
पर खड़ा है। रथ तो अभी निकलने को तैयार है।
‘ले जाओगे कब ज्योति बार कर मुझको?’ मैं तैयार
हूं। रोज-रोज तुम्हें पुकार भी रहा हूं--किसुनो। वैसे ही बहुत देर हो गई है। अब
चेतो।
‘किस रोज लिए प्रज्वलित बाण आओगे?’ आ ही गया
हूंू। द्वार पर दस्तक दे रहा हूं। तुम सुनते नहीं। तुम भीतर ‘अपना’
शोरगुल
मचा रहे हो। तुमने इतने बाजे बजा रखे हैं भीतर कि द्वार पर पड़ी हल्की सी थाप
तुम्हें सुनाई भी पड़े तो कैसे।
तुमने भीतर इतना बाजार बना रखा है, इतनी भीड़-भीड़
है भीतर तुम्हारे...। तुम अकेले नहीं हो। तुमने बड़ी दुनिया भीतर बना रखी है। वहां
बड़ी कलह है, बड़ा धुअंा है, बड़ा संघर्ष, बड़ा युद्ध
है। वहां प्रतिपल कलह ही चल रही है। उस कलह के कारण द्वार पर पड़ती थपकी तुम सुन
नहीं पाते।
किस रोज लिए प्रज्वलित बाण तुम आओगे?
खिंचते हृदय पर रेख निकल जाओगे।
मगर हृदय को तुम खोलते ही कहां हो! तुमने उसे तो न मालूम कितनी
परतों में बंद कर रखा है! ओैर परतें तुम्हारी जबरदस्ती भी तोड़ी जा सकती हैं,
लेाकिन
वह बलात्कार होगा। ओैर जबरदस्ती अगर तुम्हें स्वतंत्रता भी मिल जाए, तो
गुलामी का ही दूसरा नाम होगा।
जबरदस्ती स्वतंत्रता मिल ही नहीं सकती। क्योंकि वह तो
विरोधाभास है। स्वतंत्रता तो चुननी पड़ती है, वरण करनी
होती है।
फ्रंास में क्रांति हुई, तो
क्रांतिकारियों ने वहां की जेल को तोड़ दिया। बड़ी जेल थी; उसमे बड़े
पुराने दिनों से फ्रंास के सबसे ज्यादा जघन्य अपराधी बंद थे--आजीवन जिनको सजाएं
मिली थीं।
उस कारागृह में--बेस्तिले उस कारागृह का नाम था--जो जंजीरंे
पहनाई जाती थीं; वे सदा के लिए पहनाई जाती थीं। क्योंकि उसमें सिर्फ
आजन्म--जिनको मरने तक वहीं रहना है--उन्हीं को भेजा जाता था।
तो जो जंजीरें ड़ाल दी गई थीं, वे ड़ाल दी गई
थीं। किसी की जंजीरंे कभी काटी नहीं जाती थीं। वह तो मर जाता, तब
कटती थी। जिंदा-जिंदा नहीं कटती थीं।
क्रांतिकारियों ने जाकर बेस्तिले का दरवाजा तोड़ दिया। लोगों की
जंजीरें तोड़ दी। हजारेां कैदी थे। ओैर उनको कहा कि तुम मुक्त हो। लेकिन वे कैदी
राजी नही थे। जाने को राजी नहीं थे बाहर। वे तो बड़े चैंक गए। उनको तो भरोसा ही न
आया। क्योंकि एक जिंदगी का ढंाचा उन्होंने स्वीकार क र लिया था।
कोई तीस साल से बंद था, कोई चालीस
साल से बंद था। कोई तो ऐसा कैदी था, जो पचास साल से वहां था। पचास
साल जिसके हाथ में लोहे की जंजीरें और पैर में बेड़ियां रही हों, और
पचास साल तक जिसने अपने कारागृह की काल-कोठरी को न छोड़ा हो; पचास साल तक
जिसे रोज समय पर भोजन मिल गया हो; पचास साल से जिसने सिर्फ एक ही तरह का
जीवन जाना हो, उसकी तुम एकदम जंजीरंे तोड़ दो, और कि कहो,
तुम
मुक्त हो। वह जाए, तो कहां जाए?
अब तो उसे याद भी नहीं पड़ता--उन लोगों के नाम भी उसे याद नहीं
आते--जिनको वह बाहर छोड़ आया था। वे जिन्दा भी होंगे, इसका भी
पक्का नहीं! वे पहचानेंगे उसको, इसका भी पक्का नहीं। पचास साल पहले वह
जो काम करता था, आज तो कर सकेगा, इसका उपाय भी नहीं। अस्सी साल का
बूढ़ा आदमी! अब कौन उसे रोटी देगा? कौन उसे रोजी देगा? कहां
जाए? किस
दिशा में जाए? किसको तलाशे? कौन उसे अंगीकार करेगा?
‘नहीं।’ उन्होंने कहा, ‘क्षमा कर
दें। हम बाहर नहीं जाना चाहते। और हमारी जंजीरें मत तोड़ें।’
मगर क्रांतिकारी तो जिद्दी। उन्होंने तो जबरदस्ती धक्के मार कर,
कोड़े
मार कर बाहर निकाल दिया। कोड़े मार कर ही वे भीतर लाए गए थे। कोड़े मार कर ही वे
बाहर निकाले गए। इससे स्वतंत्रता होे सकती है?
सांझ होते-होते आधे आदमी वापस आ गए। और उन्होंने कहा, ‘हम
जाएं तो जाएं कहां? हमें कम से कम रात हमारी कोठरी में तो सो जाने दो!’
आधी रात होते-होते और लोग भी वापस आ गए और उन्होंने कहा,
‘हमें
नींद नहीं आती और कहीं! बाहर बड़ा शोरगुल है। और एक बूढ़े ने कहा कि ‘बिना
जंजीरों के हाथ में, मैं सो नहीं सकता। पचास साल जंजीरें हाथ में हैं, पैर
में बेड़ियां; वे ही मेरी संगी-साथी हैं। मैं नंगा-नंगा मालूम पड़ता हूं। सोने
की कोशिश की तो नींद नहीं आती! मुझे मेरी जंजीरें वापस लौटा दो!’
जबरदस्ती किसी को स्वतंत्र करने का कोई उपाय नहीं। और यह तो
बाहर की स्वतंत्रता है। भीतर की स्वतंत्रता तो और कठिन बात है।
तो मैं द्वार पर खड़ा हूं कि तुम्हारे हृदय को चीर कर निक ल
जाऊं। मगर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। बलात्कार नहीं हो सकता। तुम्हें ही धीरे-धीरे
अपने अवगुंठन, अपने आवरण त्यागने पड़ेंगे। तुम्हें धीरे-धीरे अपना हृदय मेरे
सामने खोलना पड़ेगा।
खिंचते हृदय पर रेख निकल जाओगे।
किस रोज तुम्हारी आग सीस पर लंूगा?
अब तक ‘आग’ मालूम होती
रहेगी, तब तक कैसे लोगे? आग कोई कैसे सीस पर लेगा?
जब
ये आग के अंगारे तुम्हें खिले हुए गुलाब के फूल मालूम होने लगेंगे, तब...।
बाणों के आगे प्राण खोल धर दूंगा। ‘बाण’ समझोगे,
तो
नहीं रख पाओगे। जिस दिन यह बाण न होगा, औषधि होगी...।
वही जहर है, वही औषधि। जब तुम डरते हो, तो
जहर मालूम होता है। जब तुम स्वीकार कर लेते हो, तो औषधि हो
जाती है। उसी दिन यह घटना घट जाएगी।
लेकिन अड़चन कहां से आती है? अड़चन आती हैः
तुम्हारी अस्मिता के भाव से।
मैं तूफानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो!
हैं फूल रोकते, कांटे मुझे चलाते
मरुथल पहाड़ चढ़ने की चाह बढ़ाते
सच कहता हंू मुश्किलें न जब होती हैं
मेरे पग तब चलने में भी शरमाते हैं
मेरे संग चलने लगे हवाएं जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफान करो
मैं तूफानों में चलने का आदी हूंूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।
अंगार अधर पर धर मैं मुस्काया हूं
मैं मरघट से जिंदगी बुला लाया हूं
हंू आंख-मिचैनी खेल चुका किस्मत से
सौ बार मृत्यु के गाल चूम आया हंू
है नहीं मुझे स्वीकार दया, अपना भी
तुम मत मुझ पर कोई अहसान करो
में तूफानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।
श्रम के जल से ही राह सदा सिंचती है
गति की मशाल आंधी में ही हंसती है
शूलों से ही शृंगार पथिक का होता
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है
पद में गति आती है छाले छिलने से
तुम पग-पग जलती चट्टान धरो
मैं तूफानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।
मैं तो तुम्हारी मंजिल आसान कर दूं, मगर तुम उसके
लिए राजी नहीं। तुम्हारी अस्मिता कहती हैः
मैं तूफानों में चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।
है नहीं मुझे स्वीकार दया, अपना भी
तुम मत मुझ पर कोई अहसान करो
मैं तूफानों में चलने का आदी हंू।
तुम दुख में चले हो; लड़ते रहे हो, लड़ना
तुम्हारी प्रकृति हो गई है। और यहां समर्पण चाहिए, और लड़ना
तुम्हारी प्रकृति हो गई है। संकल्प से ही तुमने संसार फैलाया; यहां
समर्पण चाहिए। तुम जीतने की आकांक्षा से भरे रहे हो--सदा-सदा; प्रत्येक
भरा रहा है। और यहां पराजय होने की, पराजय को स्वीकार कर लेने की,
अहोभाव
से, क्षमता
चाहिए। तो आज घटना घट जाए; अभी घटना घट जाए।
और यह घटना जब भी घटेगी, तब अनायास
घटेगी। इसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती--कब?
अभी
हो सकती है और जन्मों-जन्मों न हो।
कभी भी हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक पल होने के लिए
संभावना है। जब भी मेल पूरा बैठ जाएगा; जब भी तुम राजी हो जाओगे;
जरा
भी ना-नुच, जरा भी ‘नहीं’ का भाव भीतर
न रह जाएगा, उसी क्षण हो जाएगी।
यूं अचानक मुलाकात तुझसे हुई
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
ऐसा ही मिलना होता है--प्रेम का भी। ऐसा ही मिलना होता
है--प्रार्थना का भी। प्रिय का भी--और परमप्रिय का भी।
यूं अचानक मुलाकात तुझसे हुई
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
ऐसा ही मिलना होता है--प्रेम का भी। ऐसा ही मिलना होता
है--प्रार्थना का भी। प्रिय का भी--और परमप्रिय का भी।
यंू अचानक मुलाकात तुझसे हुई
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
और हंगामे-रुख्सत ये एहसास है
जैसे मर्देजफा कश का अन्दोेखत
हासिले-मेहनते-जिंदगी
राहजन छीन लें
जैसे जाहिद को पीरी में एकसास हो
उम्रभर की रयाजत अकारत गई।
और मिल कर भी बहुत बार बिछुड़ना होगा। पहले-पहल तो हवा के झोंके
की तरह मिलना आता है; चला जाता है। एक रोशनी की किरण आती है और चली जाती है। सुगंध
तैरती-सी आती है, लरसती-सी आती है हवा में। तुम पकड़ भी नहीं पाते--आई-आई--और गई।
बहुत बार आएगी रोशनी और जाएगी रोशनी। धीरे-धीरे तुम उसका सूत्र
पकड़ पाओगे। धीरे-धीरे तुम उसे अपनी शाश्वत संपदा बना पाओगे।
यूं अचानक मुलाकात तुझसे हुई
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
न तो मांगा था, न प्रार्थना थी, न किसी का
आशीर्वाद था। अचानक--ऐसा ही होता है--अनायास।
क्यों ऐसा होता है? क्योंकि जब तक तुम प्रयास करते
रहते हो, तब तक तो तुम्हारा अहंकार बना रहता है।
‘मैं’ कोशिश करता है पाने की कुछ, तो
मैं बना रहता है।
जब तुम थक जाते हो कोशिश कर-कर के और एक दिन तुम नहीं होते;
किसी
सौभाग्य के क्षण में न कोशिश होती है, न तुम होते हो, खाली
सब होता है, सब सन्नाटा होता है--उसी क्षणः
यंू अचानक मुलाकात तुझसे हुई
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
और हंगामे-रुख्सत ये एहसास है
और विदा के क्षण में ऐसा प्रतीत होता हैः
और हंगामे-रुख्सत ये एहसास है
जैसे मर्देजफा कश का अन्दोेखत।
जैसे किसी कंजूस की जीवन भर की कमाई ‘हासिले-मेहनते-जिंदगी’;
जिंदगी
भर इकठ्ठा किया था कंजूस ने कृपण ने। ‘राहजन छीन लें’--लुटेरे
छीन लें।
जैसे जाहिद को पीरी में एहसास हो
उम्र भर की रियाजत अकारत गई।
और जैसे किसी तथाकथित तपस्वी को, जिसने जिंदगी
भर तपश्चर्या की हो, बुढ़ापे में यह समझ आएः
जैसे जाहिद को पीरी में एहसास हो
उम्र भर की रियाजत अकारत गई।
जिंदगी भर की तपश्चर्या व्यर्थ होे गई। जिसने जिंदगी भर उपवास
किए हों, प्रार्थनाएं की हों, पूजाएं की हों, उसको
जैसे लगे कि सारी
जिंदगी की मेहनत दोे कौड़ी में गई। या जैसे किसी कंजूस ने
जिंदगी भर श्रम करके पैसा इकठ्ठा किया हो और राह में लुटेरे लूट लें।
प्रभु आता है, तो ऐसा लगता हैः बिना मांगे आ गया। और
जाता है, तो ऐसा लगता है--सब लुट गया--सब लुट गया। तुम पहले से भी
ज्यादा दरिद्र हो जाओगे। क्योंकि पहले तो कुछ अनुभव न था, तो पता भी न
था, तुलना
भी नहीं कर सकते थे कि संपदा क्या है।
जब एक बार रोशनी आंख में उतर आएगी और फिर अंधेरा घना हो जाएगा,
तो
पहले से भी ज्यादा अंधेरा मालूम होगा। तुम बहुत रोओगे, बहुत तड़फोगे।
सब लुट गया। लुटेरों ने लूट लिया।
तो एक तो विरह है, जो परमात्मा को जानने के पहले
आदमी में होता है। वह बहुत गहरा नही होता। हो भी नहीं सकता बहुत गहरा। उस प्यारे
को देखा ही नहीं, उसके सौंदर्य को जाना ही नहीं, उसकी झलक भी
नहीं मिली कभी, तो हम रो सकते हैं, मगर रोने में कितनी गहराई होगी?
अनुभव ही नहीं, तो रोएं क्या? किसके लिए रो
रहे हो? पक्का भी नहीं कि वह है भी कहीं! था भी कभी? कि
सिर्फ कपोल-कल्पना है!
फिर अनुभव होता है। और अनुभव, खयाल
रखना--अचानक--अनायास।
मगर इसका यह मतलब नहीं कि तुम कुछ प्रयास न करो। तुम प्रयास न
करोगे, तो अनायास भी न होगा। प्रयास करते-करते, थकते-थकते एक
दिन तुम पाओगेः प्रयास से तो नहीं होता। तुम सब कर चुके, जो करना था।
कर-कर के तुमने आखिरी सीमा पहंुचा दी। उसी आखिरी सीमा पर विश्राम आ जाता है। और अब
और तो करने को कुछ बचा नहीं। तुम शिथिल होकर बैठ जाते हो। विश्राम आ जाता है। उसी
विश्राम में अनायासः
जैसे राहगीर को
बे-तलब
बे-दुआ
राह में एक अनमोल मोती मिले।
मगर यह मोती मिलेगा और खोएगा। इसके पहले कि पूरा-पूरा मिल जाए
बहुत बार हाथ में आएगा और छूटछूट जाएगा।
लेकिन तैयारी तो तुम्हें करनी होगी; द्वार तो
तुम्हें खुला रखना होगा। भय तो तुम्हें छोड़ना होगा।
सदगुरु के पास शिष्य को भय छोड़ना चाहिए। भय ही रुकावट है।
संकोच छोड़ना चाहिए। शक-संदेह, जो बिलकुल स्वाभाविक मालूम होते हैं,
उनको
भी छोड़ना चाहिए। आस्था जन्माना चाहिए। श्रद्धा के उमगाना चाहिए।
यह घटना घटने वाली है। निश्चित घटेगी। घटने के रास्ते पर है।
मगर कब घटेगी, कहना मुश्किल है! जब तुम घटने दोगे, तभी घटेगी।
तुम्हारे बिना राजी हुए नहीं घटेगी।
किसी को भी जबरदस्ती मुक्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि
जबरदस्ती और मुक्ति विरोधाभास है। मोक्ष तो तुम्हारे अनंत स्वीकार से उत्पन्न होता
है। तुम स्वतंत्र होओगे--अपनी सहजता में--खींच कर नहीं।
खींची-तानी स्वतंत्रता वैसी ही होगी, जैसे कोई फूल
की कली को जबरदस्ती खोल दे। पखुड़ियों पहले से ही मुर्दा हो जाएंगी। एक है फूल का
अपने आप खिलना।
तो तुम मुझे सूरज रहने दो। मैं अपने हाथ तुम्हारी कली को नहीं
छुआऊंगा। मुझे तुम दूर, रोशनी की तरह, तुम्हारे ऊपर
पड़ने
दो। तुम मुझ पर निर्भर होने की चिंता भी मत करो--कि मुझे पर
तुम्हें निर्भर होना है।
और तुम मेरे हाथों की प्रतीक्षा भी मत करो कि वह आकर तुम्हारी
कली को खोल दे। वह दुश्मनी होगी। वह तुम्हारा कल्याण नहीं होगा।
सूरज को रोशनी की तरह रहने दो। तुम्हारी कली खुलेगी। यह
आकांक्षा इसलिए उठी है कि कली खुलना चाहती है। इसीलिए पूछा है।
‘निकलेगा रथ किस रोज पार कर मुझ को।’ भनक रथ की
पड़ने लगी इसीलिए। दूर सुनाई पड़ती है आवाज, जैसे कहीं आकाश में मेघ गड़गड़ाते
हें--बहुत दूर--ऐसा रथ कहीं आ रहा है, यह सुनाई पड़ने लगा है। ‘निकलेगा
रथ किस रोज पार कर मुझ को।’ इसलिए पूछा है।
‘ले जाओगे कब ज्योति बार कर मुझको।’ ज्योति का
आभास कहीं-कहीं होने लगा है। बहुत धीमा है। शायद प्रतिफलन जैसा है। आकाश का तारा
नहीं दिखाई पड़ा है, लेकिन झील में पड़ती तारे की छबि दिखाई पड़ी है।
‘किस रोज लिए प्रज्वलित बाण आओगे?’ और मैं चुभने
भी लगा हूं कहीं बाण की तरह, इसीलिए याद आ रही है। कहीं पीड़ा भी उठनी
शुरू हुई है। चुभन पैदा हुई है।
‘खींचते हृदय पर रेख निकल जाओगे।’ आकांक्षा जगी
है, तो
बीज बो दिया गया; वृक्ष भी होगा; फल भी लगेंगे; फूल भी
खिलेंगे।
‘किस रोज तुम्हारी आग सीस पर लूंगा?’ आज आग जैसी
लगती है; लेकिन लेने का मन हो रहा है। इससे तुम्हें भी समझ में आने लगा
है कि आग दिखती ही है, आग नहीं है। फूलों की सुर्खी है।
देखा कभी-कभी जंगल में, ग्रीष्म के
दिनों में, जब पलाश के जंगल में फूल खिलते हैं, तो ऐसा लगता
हैः सारे जंगल में आग लग गई! अंग्रेजी में तो पलाश के फूलों को आग के फूल ही कहते
हैं; दूर
से तो ऐसा ही लगता है कि जंगल जल उठा। पास जैसे-जैसे आओगे, वैसे-वैसे
लगेगाः फूल है--आग नहीं।
किस रोेज तुम्हारी आग सीस पर लूंगा?
बाणों के आगे प्राण खोल कर दूंगा।
मन में आकांक्षा तो जग रही है, अभीप्सा तो
जग रही है कि खोल कर रख दूं। शायद कुछ रोकता है--कोई भय, कोई पुरानी
आदत, कोई
संस्कार। मगर कितनी देर रोक सकेगा? क्योंकि आकांक्षा भविष्य की है और
संस्कार अतीत का है। संस्कार मुर्दा है; आकांक्षा जीवन्त है। आकांक्षा
में आत्मा है, संस्कार तो केवल राह पर पड़ी लकीर है, जिस पर तुम
गुजर चुके। इसलिए जब भी आकांक्षा में और अतीत में संघर्ष होगा, अतीत
हारता है, आकांक्षा नहीं हारती। आकांक्षा के साथ भविष्य है।
तो तुम्हारे भीतर आकांक्षा तो उठी है। शुभ आकांक्षा उठी है।
इसको सींचो। इसको सम्हालो। यह अभी छोटा कोमल पौधा है इसको सहारा दो--कि यह बड़ा
होता जाए। यह बढ़ेगा।
मेरा पूरा साथ तुम्हें है। लेकिन मैं आकर जबरदस्ती तुम्हारी
पखुड़ियों को नहीं खोलूंगा। नहीं खोल सकता हूं।
नहीं खोल सकता हूं, क्योंकि तुम से मुझे प्रेम है
अन्यथा खुद की खुलने की क्षमता सदा के लिए नष्ट हो जाएगी।
माली किसी फूल को खोलता नहीं। पानी देता है; खाद
देता है; लेकिन किसी फूल को पकड़ कर खोलता नहीं। मौका देता है--पौधे को
ही--कि जब समय पक जाएगा, जब वसंत आएगा, जब फूल के
भीतर ही क्षमता आ जाएगी खुलने की, तो फूल अपने से खुलेगा।
अपने से खुल जाना ही सहज-योग है। कबीर के सारे वचन उसी सहज-योग
की दिशा में इशारे हैं। सहज को समझा, तो कबीर को समझा।
आज इतना ही।
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