कहै कबीर मैं पूरा पाया
तीसरा प्रवचन
साधो, सब्द साधना कीजै
सूत्र
साधो, सब्द साधना कीजै।
जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ
सब्द गहि लीजै।।
सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द
सो बिरला बूझै।
सोई सिष्य सोई गुुरु महातम, जेही
अन्तर गति सूझै।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब
ठहरावै।
सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द
भेद नहिं पावै।।
सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै
कहै अनुरागी।
खट-दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै
वैरागी।।
सब्दै काया जग उतपानी, सब्दै केरि
पसारा।
कहै कबीर जहं सब्द होत हैं, भवन
भेद है न्यारा।।
कबीर सबद सरीर में, बिन गुण बाजै
तंत।
बाहर भीतर भरि रह्या, ताथै छूटि
भंरति।।
सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द चित देय।
जा सब्दै साहब मिलै, सोई सब्द गहि
लेय।।
सब्द बराबर धन नहीं, जो कोई जानै
बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल
न तोल।।
सीतल सब्द उचारिए। अहम आनिए नाहिं।
तेरा प्रीतम तुज्झमें, सत्रु भी तुझ
माहिं।।
‘साधो सब्द साधना कीजै।’
सब से पहले ‘साधु’ शब्द को
समझें। कबीर के सारे वचन संबोधित हैं; लिखे नहीं गए हैं, बोले
गए हैं; किसी से कहे गए हैं; किसी के संदर्भ में हैं। अंधेरे
में किसी भी दिशा में तीर नहीं चला दिया है। कोई सामने है, इसको ध्यान
में रख कर ही कहे गए हैं।
कबीर के वचनों में संवाद है। कबीर के वचनों में संदर्भ है।
तो कोई वचन शुरू होता है ‘साधु’
से।
कोई वचन शुरू होता है ‘संत’ से; कोई
वचन शुरू होता है--पंडित-पांडे से; कोई वचन शुरू होता है--मुल्ला-काजी से।
कोई वचन शुरू होता है--अवधू-अवधूत से। और कोई वचन शुरू होता है--कबीरा से; कबीर
स्वयं का संबोधित करते हैं--कबीरा।
ये सारे संबोधन समझने जैसे हैं।
पंडित-पांडे के तो कबीर मूल विरोधी हैं। इसलिए जहां उन्होंने
पंडित-पांडे का संबोधन किया है, वहां वे खंडन को तत्पर हैं। वहां वे तलवार
लेकर खड़े हैं। वहां उनके वचनों में अंगार है, क्रांति है,
विध्वंस
है। क्योंकि कबीर कहते हैंः शास्त्र को जानने से सत्य नहीं जाना जाता। हां,
कोई
सत्य को जान ले, तो शास्त्र जरूर जान लिया जाता है।
कितना ही पढ़ो, कितना ही लिखो, कुछ भी हाथ न
आएगा। स्याही से कितने ही हाथ काले करो, कहीं पहुंचोगे नहीं। खोपड़ी भर
जाएगी। शब्दों ही शब्दों से खोपड़ी भर जाएगी। और उन्हीं शब्दों की भीड़ के कारण,
जो
मूल शब्द है, वह सुनाई न पड़ेगा। इस विरोधाभास को ख्याल में लेना।
मूल शब्द तभी सुनाई पड़ता है, जब तुम्हारे
शब्द खो जाते हैं। जब तुम निःशब्द हो जाते हो, तब सुनाई
पड़ता है। यह विरोधाभासी लगेगा। निःशब्द में शब्द सुनाई पड़ता है।
शब्द से अर्थः परमात्मा का स्वर, अस्तित्व का
स्वर--यह जो समग्र के प्राण का आंदोलन है--यह। लेकिन अगर हम अपने ही शब्दों से भरे
हैं और बड़ी भीड़ मची है वहां, और बड़ी कीचड़ मची है वहां--शब्द और
सिद्धांतों की, तो कौन सुनेगा? कैसे सुनेगा? उस शोरगुल
में परमात्मा की धीमी-सी वाणी खो जाती है।
वह जो धीमा-सा वीणा का स्वर भीतर बज रहा है, वह
सुनाई पड़े, तो कैसे सुनाई पड़े? यह जो नकारखाना है, जिसमें
हमने जमाने भर के उपद्रव इकट्ठे कर रखे हैं, यह जो हमारा
मन है, इसमें शास्त्र हैं, सिद्धान्त हैं, वाद-विवाद
है, राजनीति
है, धर्म
है, और
न मालूम क्या-क्या है! यह जो कूड़ा-कर्कट हमने इकट्ठा किया है, इसी
कूड़े-कर्कट में हीरा दब गया है।
तो जब भी कबीर पंडित को संबोधन करते हैं, तब
समझ लेना कि वे तत्पर हैं मिटाने को।
मिटाना जरूरी है--बनाने के लिए। विध्वंस जरूरी है--निर्माण के
लिए। पुराने मकान गिराना पड़ता है, तो नया बनाया जा सकता है। पुरानी देह जल
जाती है, तो नया जन्म मिलता है।
तो जैसे ही पंडित-पांडे का संबोधन आए, समझ जाना कि
कबीर खड़ग लेकर खड़े हैं।
और इसी तरह मुल्ला और काजी।
जहां कबीर ‘अवधू’ या ‘अवधूत’
को
संबोधित करते हैं, वहां सम्मान से करते हैं। यद्यपि कबीर स्वयं अवधूतों से राजी
नहीं हैं। लेकिन अवधूतों के प्रति उनका सम्मान है।
अवधूत का अर्थ होता हैः जिसने सब छोड़ा; जो त्यागी हो
गया--परमहंस--घर-द्वार छोड़ा घर-द्वार ही छोड़ा--ऐसा ही नहीं, वर्ण-व्यवस्था
छोड़ी, समाज छोड़ा, सभ्यता छोड़ी--ऐसा ही नहींः संन्यास भी
छोड़ा। अवधूत परमदशा है।
गृहस्थ से आदमी संन्यस्त बनता है, फिर संन्यस्त
के भी पार हो जाता है। तो अवधूत।
अवधू शब्द भी अच्छा है। इसका अर्थ हैः ‘वधू जाके न
होई, सो
अवधू कहावे।’ जिसको दूसरे की जरूरत न रही; वधू यानी
दूसरा। किसी को पत्नी की जरूरत है; किसी को मकान की जरूरत है; किसी
को दूकान की जरूरत है; किसी को मित्र की जरूरत है; किसी
को बेटे की, बेटी की; कोई न कोई जरूरत है। किसी को धन की,
किसी
को पद की।
जब तक दूसरे की जरूरत है, तब तक तुम
अवधू नहीं। जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे
की जरूरत न रही; जो अकेला काफी है; जो अपने में पूरा है; ऐसा
सब छोड़ कर जो चला गया; संसार से बिलकुल विरक्त हो
गया--परिपूर्ण--पीठ मोड़ ली, वह हैः अवधू--अवधूत।
कबीर के मन में अवधूत का सम्मान है। लेकिन वे उनकी जीवन
व्यवस्था से राजी नहीं हैं। क्यांेकि कबीर कहते हैंः कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं;
यहीं
हो सकता है। जो दौड़-दौड़ कर, भाग-भाग कर, जंगल-पहाड़
में करते हो, वह तो बाजार में हो सकता है। इतने दूर जाने की जरूरत क्या?
परमात्मा
दूर नहीं--पास है। परमात्मा तुम्हारे हृदय में विराजमान है।
कबीर कहते हैंः संसार छोड़ना, संसार में
रहने से बड़ी बात है। लेकिन संसार में रहना और संसार को छोड़कर रहना, संसार
छोड़ने से भी बड़ी बात है।
तो कबीर कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है; और
वह दशा है--जल में कमलवत, संसार में होकर भी संसार को अपने में न
होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है।
लेकिन अवधूत के प्रति उनका सम्मान है। वे कहते हैंः कुछ तो
किया; कुछ तो अपने को बदला; ‘पर’ से मुक्त
हुआ। संसार से मुक्त हुआ। लेकिन कबीर कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी
बात हैः संसार में मुक्त होना। वह कबीर की संसार और परमात्मा के बीच संधि है;
संसार
और परमात्मा के बीच समन्वय है।
तो संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह,
जो
संसार में है और संन्यस्त है।
यही मेरे संन्यास की धारणा भी है। तुम जहां हो, वहीं;
जैसे
हो वैसे ही; ठीक उसी दशा में तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाए। क्योंकि
रूपांतरण मनःस्थिति का है--परिस्थिति का नहीं।
अवधू का अर्थ हैः परिस्थिति छोड़ कर चला गया। सम्मान तो है,
लेकिन
कबीर की अपनी धारणा नहीं है वह।
इसलिए जहां वे अवधूत का उपयोग करें, वहां जानना
कि बड़े सम्मान से बोल रहे हैं। खंडन नहीं करेंगे; स्वीकार है
उन्हें अवधूत की दशा, लेकिन अपने शिष्यों को वे अवधूत होने के लिए नहीं कहते। वे और
भी ऊपर ले जाते हैं।
और जहां कबीर कहें ‘भाई’ वहां
समझना--वे साधारण जन को संबोधित कर रहे हैं। वह संबोधन भी प्यारा है। जब भी कबीर बोलते
हैंः भाई, तब वे साधारण जन को संबोधित कर रहे हैं। लेकिन साधारण जन को वे
‘भाई’
संबोधित
करते हैं।
जो परमदशा को प्राप्त हो गए हैं; वे जानते हैं
कि तुम भी परमदशा को प्राप्त हो सकते हो। अगर नहंीं प्राप्त हो रहे हो, तो
तुमने ही बाधाएं बिठा रखी हैं।
जो परमदशा को प्राप्त होता है, वह यह भी देख
लेता है कि यह तुम्हारी भी संभावना है। तुम बीज की तरह पड़े हो--यह बात दूसरी
अन्यथा तुम में भी वसंत आ सकता है, बहार आ सकती है, फूल खिल सकते
हैं।
तो कबीर जब सामान्य व्यक्ति को संबोधित करते हैं, तो
बड़े प्रेम से कहते हैं--भाई।
सामान्य व्यक्ति के प्रति उनका बड़ा सद्भाव, बड़ा
प्रेम, बड़ी करुणा है। तो जो वचन ‘भाई’ से
शुरू हो, समझ लेना कि वह साधारण जन के लिए कहा गया है। साधारण सीधे लोग;
न
तो पंडित हैं, न पुरोहित हैं, न काजी हैं, न मुल्ला हैं;
सीधे-सादे
लोग; जीवन
जैसा है, वैसा जीए जा रहे हैं। लेकिन अपनी संपदा से अपरिचित; उनको
कहते हैं ‘भाई’। उनको कहते हैं कि जो मुझे मिला है,
वह
तुझे मिल सकता है। मुझ में और तुझ में भेद नहीं है। हम एक ही परमात्मा की संतान
हैं; इसलिए
भाई। और हम एक ही संपत्ति के मालिक हैं--इसलिए भाई।
और कभी-कभी कबीर संबोधन करते हैंः जोगिया, जोगिड़ा,
योगी,
तो
वे बड़े तिरस्कार से करते हैं। ‘जोगिया’ का अर्थ होता
है, जो
क्रियाकांड में उलझ गया; जो मूल तो चूक गया और असार को पकड़ लिया।
कोई शीर्षासन लगाए खड़ा हैे; कोई कांटों पर लेटा है; कोई
शरीर की कसरते कर रहा है; इसको वे कहते हैं--योगिया, जोगिया।
असली योग तो भूल ही गया। असली योग तो अंतर्यात्रा है। और यह
शरीर में ही उलझ गया! तो दिखाई तो पड़ता हैः अध्यात्मवादी। लेकिन है पूरा शरीरवादी।
इसकी सारी जीवन प्रक्रिया शरीर में उलझी है। नौली धौती कर रहा है; प्रक्षालन
कर रहा है शरीर का। उपवास कर रहा है। ऐसा भोजन, वैसा भोजन।
इस तरह बैठता, उस तरह खड़ा होता। चैबीस घंटे उलझा है। लगता है ऊपर से कि बड़ी
आत्मा की खोज में लगा है, लेकिन सारी खोज ऐसी लगती है--शरीर से
बंधी।
कल एक मित्र ने प्रश्न पूछा था। प्रश्न था कि क्या रुग्ण
व्यक्ति के जीवन में भी समाधि फलित हो सकती है? क्या बुद्ध
पुरुष को कैन्सर भी हो सकता है; क्षय रोग हो सकता है? पूछने
वाले ने यह भी साथ में लिखा है कि जैन धर्म के मानने वाले कहते हैं कि देखो हमारे
महावीर! कैसी सुंदर देह है! कैसी स्वस्थ देह है! कभी रोग न जाना। क्योंकि जब ज्ञान
फलित होता है, तो देह भी रूपांतरित हो जाती है।
जैन तो कहते हैं कि महावीर मल-मूत्र विसर्जन नहीं करते!
क्योंकि मल-मूत्र विसर्जन तो साधारण लोग करते हैं। देह रूपांतरित हो गई है!
जैन तो कहते हैंः महावीर को पसीना नहीं आता। पसीना तो साधारण
जनों को आता है। जैन तो कहते हैं कि महावीर के शरीर से बड़ी सुगंध आती है; पसीने
की तो बात ही दूर, दुर्गंध की तो बात ही दूर।
जैन तो यहां तक कहते हैं कि महावीर के शरीर में अब खून भी नहीं
बहता; दूध बहता है।
तो जिसने प्रश्न पूछा है, उसने पूछा है
कि क्या यह बात सच है कि क्या आत्मा के अवतरण पर देह भी सर्वांगरूपेण बदल जाती है?
नही; यह बात सच नहीं है।
रामकृष्ण को कैन्सर हुआ। महर्षि रमण को कैन्सर हुआ। और किसने
तुमसे कहा कि महावीर को बीमारियां नहीं हुईं! महावीर मरने के पहले छह महीने बुरी
तरह बीमार रहे। पेचिश की बीमारी से परेशान रहे। लेकिन जैनशास्त्र उसके लिए भी
कोशिश करते हैं--छिपाने की। वे यह कहते हैं कि महावीर की बीमारी नहीं थी। यह तो
महावीर का एक दुश्मन था--गौसालक--उसने महावीर पर क्रोध से भरकर तेजोलेश्या फेंकी;
जादू
किया। उसने जो क्रोध से भरी हुई अग्नि महावीर पर फेंकी थी--तेजोलेश्या की--उसको
महावीर पचा गए। वे तो सभी पचा जाते है। उसको भी पचा गए। वही अग्नि उनके पेट को
रुग्ण कर गई और उनको दस्त लगे, पेचिश की बीमारी रही। शरीर में उनके
बीमारी नहीं थी।
ये तो व्याख्याएं हैं। सो तो फिर कोई रामकृष्ण का भक्त कहता है
कि किसी को कैन्सर था, परमहंस ने वह ले लिया। किसी भक्त का
कैन्सर अपने ऊपर ले लिया। सो रमण का भक्त भी कह सकता है कि सारी दुनिया की तकलीफ
उन्होंने ले ली। जैसे शिव ने जहर पी लिया और नीलकंठ हो गए, ऐसे रमण
महर्षि के कंठ में कैन्सर हो गया, क्योंकि सारे जगत की पीड़ा उन्होंने अपने
ऊपर ले ली।
यह सब बकवास है। इसका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन एक बात इसमें
साफ है कि तथाकथित अध्यात्मवादी बड़े देहवादी, बड़े भूतवादी,
बड़े
पदार्थवादी हैं।
सच तो यह है कि देह तो रोग का घर है। देह यानी रोग। देह स्वस्थ
रहती है, यह चमत्कार है। देह रुग्ण रहती है, यह स्वाभाविक
है।
लेकिन हमारी पकड़ देहवादी की है। तो महावीर को अगर आत्मा का
ज्ञान हुआ है, तो हम तत्क्षण देह में उनके लक्षण मांगना चाहते हैं--कि देह
में लक्षण होने चाहिए। और फिर मूढ़तापूर्ण बातें भी हम कहते हैं कि खून दूध बन गया।
अगर शरीर में दूध बहने लगे, तो आदमी सड़ जाएगा। क्योंकि दूध कभी भी
दही बन जाएगा। दूध से आदमी जी नहीं सकता; खून अनिवार्य है।
और देह, तो जिन्होंने बुद्धत्व को पा लिया है
उनकी, साधारण लोगों से ज्यादा जीर्ण-जर्जर हो जाती है। चूंकि उनका
सारा लगाव छूट गया; देह मे हैं--और नहीं हैं। देह से सारे संबंध छूट गए। देह से सब
सेतु टूट गए। देह से बंधन क्या रहा? अब देह में प्राण अपने डालते ही
नहीं। तो देह तो ऐसे घिसटने लगी--बोझरूप। अब तो पुराने कर्मों का संस्कार है,
तब
तक देह चलेगी और गिर जाएगी।
इसीलिए तो सद्गुरु या संबुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति फिर
दुबारा जन्म नहीं लेता है, क्यांेकि उसके देह को पैदा करने की
क्षमता ही शांत हो गई। देह से लगाव गया, तो देह को जन्माने की क्षमता भी
समाप्त हो जाती है।
तो परमज्ञान की अवस्था के बाद तो तुम घर में नहीं रहते,
खंडहर
में रहते हो। और चूंकि मालिक बिलकुल उदास हो गया, तटस्थ हो गया,
कूटस्थ
हो गया, अब घर की कौन फिक्र करता है! और घर तो आज नहीं कल गिरना है। घर
गिरना शुरू हो जाता है।
लेकिन हमारी पकड़ बड़ी शारीरिक है। तो हम तो महावीर को ऐसा
चित्रित करेंगे कि जैसे महावीर कोई गामा हों, कि दारासिंग
हों। कुछ होश की बातें करो!
अगर यह सच है कि महावीर की देह परमज्ञान के कारण सर्वांगीण
स्वस्थ हो गई, तो फिर जो लोग सर्वांगीण स्वस्थ हैं, उनको
परमज्ञान हो जाएगा? फिर तो जंगल के पशु आसानी से बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएंगे।
योगियों में भी यह धारा रही कि किसी तरह देह को स्वस्थ करो,
लम्बाओ,
उम्र
बड़ी करो। अगर तुम्हें कोई योगी मिल जाए और दिखता हो कि है चालीस-पैंतालीस साल का
और कहे कि डेढ़ सौ साल मेरी उम्र है, तब तुम चमत्कृत होते हो। तब तुम
मान लेते कि हां, है कोई महान योगी।
तुम्हारी पकड़ शरीर को तौलती है। तुम्हारे सोचने का ढंग
भौतिकवादी है। उसको कहते हैं कबीर--जोगिया; जो बातें तो
अध्यात्म की करता है, लेकिन जिसकी पकड़ शरीर पर है। बातें तो बहुत ऊंचाई की करता है,
लेकिन
रहता बहुत नीचे तल पर है। शरीर में ही उलझा रहता है।
जैन मुनि करीब-करीब सब जोगिया हो गए हैं। शरीर की ही फिक्र में
उलझे रहते हैं! ऐसा खाना, ऐसा पीना; ऐसा नहीं
खाना, ऐसा नहीं पीना। आज उपवास।
यह, वह--यही चलता रहता है। कुछ और करने को
जैसे है नहीं। ध्यान लगाने की तो फुरसत भी नहीं बचती। इस सब गोरख-धंधे से बचें,
तो
ध्यान लगे।
जानते हो ‘गोरखधंधा’ गोरखनाथ से
आया है--शब्द गोरखधंधा । क्योंकि गोरखनाथ के शिष्यों ने बड़ा गोरखधंधा शुरू कर दिया
था! बस उनका काम ही यह था--यह खाओ, यह पीओ; इस तरह आसन
लगाओ; इस तरह कान छेदो। इस तरह सिर के बल खड़े हो जाओ। इतनी
प्रक्रियाएं...! सब शरीर केंद्रित। उसको गोरखधंधा कहा जाने लगा।
जब कोई आदमी फिजूल की आपाधापी में पड़ा होता है, तो
हम कहते हैंः क्या गोरखधंधे में पड़े हो? हमें याद भी नहीं कि गोरखनाथ
जुड़े हैं उस गोरखधंधे में।
जोगिया का अर्थ होता हैः चले तो थे आत्मा खोजने, उलझ
गए शरीर में। चले तो थे यात्रा को, नक्शे में ही उलझ गए! नक्शे में ही बैठ
रहे! सोचा था--परलोक जाएंगे, और इसी लोक की शुद्धि करने में लग गए और
यहीं समाप्त हो गए।
तो जब कबीर ‘जोगिया’ कहें,
तो
समझ लेना कि वे मखौल उड़ा रहे हैं, वे मजाक उड़ा रहे हैं।
फिर कभी-कभी कबीर ‘साधु’ कहते--और
कभी-कभी--संत। जब कबीर साधु कहते हैं या संत, तो अपने
शिष्यों को संबोधन करते हैं।
साधु का अर्थ हैः जो चल पड़ा संत होने की ओर। और संत का अर्थ
हैः जो पहुंच गया। तो जब अपने किसी पहुंचे हुए शिष्य को उदबोधन करते हैं, तो
संत कहते हैं। और जब अपने नये-नये शिष्यों को, जो
प्रशिक्षित हो रहे हैं, जिन्होंने यात्रा की अभी पहल शुरू की,
प्रस्थान
किया है, उनको ‘साधु’ कहते हैं।
और कभी-कभी ऐसी भी बात कबीर कहते हैं, जब वे अपने
को ही संबोधन करते हैं। जब कबीर अपने को संबोधन करते हैं, तब वे बड़ी
अपूर्व बात कहते हैं। तब वे यह कहते हैं कि यह बात कुछ ऐसी है कि एक बुद्ध दूसरे
बुद्ध से कहे। यह बात किसी और से नहीं कही जा सकती। अब कोई दूसरा बुद्ध मौजूद नहीं,
इसलिए
कबीर कबीर से ही कह लेते हैं।
ध्यान रखना कबीर क्या संबोधन करते हैं, उस पर बहुत
कुछ निर्भर करेगा।
‘साधो, सब्द साधना कीजै।’
साधुओं को संबोधन कर रहे हैं।
तीन शब्द--साधक, साधु, संत।
साधक का अर्थ हैः जिसने अभी-अभी चलना शुरू किया; जो
अभी बाराखड़ी सीख रहा है; अभी तुतलाता है; गिर-गिर जाता
है; भटक-भटक
जाता है। दो कदम ठीक चलता है, तो एक कदम गलत पड़ जाता है। जिससे अभी
बड़ी भूल-चूक होती है। जो अभी लौट-लौट संसार में उतर जाता है।
पुकार तो आ गई है परमात्मा की, लेकिन अभी
साहस नहीं जुटा पाता। एक दिन प्रार्थना करता है, एक दिन भूल
जाता है। दो दिन सद्गुरु के सत्संग में बैठता है तीसरे दिन झपकी खाने लगता है।
दो-चार दिन बड़ी उमंग से चलता है, फिर थक जाता है। और कहता हैः क्या धरा
है! और फिर अपनी पुरानी आदतों में उलझ जाता है।
साधकः कुछ-कुछ किरण उतरनी शुरू हुई है। लेकिन अभी किरण इतनी
सघन नहीं कि जीवन को पूरा बदल दे। हां, बदलाहट के छीटे आने लगे हैं;
बूंदाबांदी
होने लगी।
साधु का अर्थ हैः थिर हो गया; अब भटकता
नहीं; अब भूल-चूक नहीं होती। अब साधना अविच्छिन्न हो गई; अखंड
हो गई। अब बंूदाबांदी ही नहीं हैे, मेघमल्हार कर रहे हैं। और खूब वर्षा हो
रही है। झड़ी लगी है; भींग रहा है। आनंदमगन हो रहा है।
लेकिन अभी भी यात्रा के मध्य में है। वहां नहीं पहुंच गया है,
जहां
पहुंच कर फिर और कहीं पहुंचने को नहीं बचता। अभी चल रहा है। अभी खोज जारी है। खोज
व्यवस्थित हो गई है। साधक जैसी नहीं रही। तारतम्य बैठ गया। अनुशासन आ गया। दिशा
मिल गई। राह साफ हो गई। कहां जाना है, कैसे जाना है--सब स्पष्ट हो गया।
और दूर दिखाई पड़ता हुआ मंजिल का चमकता तारा भी साफ है। अब भटकने का कोई उपाय नहीं।
लेकिन अभी पहुंचना है। वह जो गौरी-शंकर का हिमाच्छादित शिखर सुबह के सूरज में सोने
जैसा चमकता दिखाई पड़ रहा है, यद्यपि पास मालूम होता है, पर
दूर है; अभी यात्रा करनी है--साधु । और जो गौरीशंकर पर विराजमान हो गया,
वह
संत या सिद्ध। ये तीन शब्द। साधु मध्य में है। साधक--साधु--संत।
ये वचन साधु के लिए उच्चारित हैं। तो साधु का अर्थ ठीक-ठीक
ख्याल में ले लें।
साधु का शाब्दिक अर्थ होता हैः सरल, सीधा,
सादगीपूर्ण,
विनम्र,
विनीत,
निष्कपट,
श्रद्धापूरित;
श्रद्धा
से भरा हुआ अर्थात् साधु। बुद्धि के जाल, तर्क के फैलाव, कपट
और चालबाजियां, कूटनीति और राजनीतियां--सब छोड़ दी। बच्चे की भांति जो हो रहा।
गुरु का हाथ ऐसे पकड़ ले, जैसे छोटा बच्चा अपने पिता का हाथ पकड़
लेता है, तब साधु।
साधक को समझाना पड़ता हैः भूूल मत करो। साधक को समझाना पड़ता है
बार-बार--कि भूल से बचो। साधु को समझाना पड़ता है कि ठीक कैसे करो। साधक को बताना
पड़ता हैः गलत से कैसे बचो; और साधु को बताना पड़ता हैः ठीक कैसे
करो।
साधक को लाना पड़ता है बार-बार...। क्योंकि वह भटक-भटक जाता है।
और साधु को...। कहीं भटकता नहीं है, लेकिन ठीक मार्ग पर--और कैसे गति
बढ़े, जिस
दिशा में चल पड़ा है, उस दिशा में और कैसे त्वरा आए, तीव्रता आए;
धीमाधीमापन
न रहे, कुनकुनापन न रहे, सौ डिग्री पर पानी उबले, ताकि
एक दिन संतत्व की घटना घटे--सिद्धावस्था घटे।
‘साधो, सब्द साधना कीजै।’
साधक से तो कहना होता हैः सत्संग करो। साधु से कहना होता हैः
अपने भीतर जाओ। सत्संग अब पर्याप्त नहीं है। सत्संग ने काम कर दिया; तुम
रम गए। तुम्हें राम में प्यार जग गया, प्रीति लग गई; अब
अपने भीतर जाओ; अंतर्यात्रा पर लगो।
‘साधो, सब्द साधना कीजै।’ ‘शब्द’
का
अर्थ होता है... वही जो बाइबिल में है। बाइबिल कहती हैः सब से पहले शब्द था--इन द
बिगनिंग वाज वर्ड--फिर उसी शब्द से सब निर्मित हुआ। उसी शब्द का सब निर्माण है।
‘शब्द’ से यहां अर्थ होता हैः तुम्हारे
उच्चारित शब्द नहीं; मनुष्य उच्चारित शब्द नहीं, होंठों से जो
शब्द बनते हैं, वे नहीं। लेकिन तुम जहां शांत होते हो और तब जो अनाहत सुना
जाता है।
जब तुम बिलकुल शांत हो जाओगे, तुम अपने
भीतर एक संगीत सुनोगे, जिसके तुम जन्मदाता नहीं हो; जिसको
तुम बजा नहीं रहे हो। इसलिए अनाहत कहते हैं उसे।
आहत का अर्थ होता हैः बजाया हुआ। तुमने वीणा के तार छेड़े,
तो
आहत नाद पैदा होता है। तुम्हारे दो ओंठ आपस में लडखड़ाए, तो आहत नाद
पैदा होता है। तुम्हारे कंठ में खलबली मची, कंठ के यंत्र
ने कुछ उच्चार किया, तो आहत नाद पैदा होता है।
जैसे हम दो हाथों को टकरा दें, तो ताली बजती
है। एक हाथ से ताली तो नहीं बजती, दो हाथ से ताली बजती है। यह आहत नाद।
इसलिए झेन फकीर कहते हैंः खोजो उस स्थान को जहां एक हाथ की
ताली बजती है। जब उसको खोज लोगे, तो तुमने जाना कि शब्द क्या है। एक हाथ
की ताली अनाहत--इसी अनाहत नाद को शब्द कहते हैं। यह तुम्हारे किए नहीं होता। तुम
जब होते ही नहीं, तब होता है। तुम जब बिलकुल शांत हो जाते हो, तब
अचानक तुम्हारी चेतना में एक नाद उठता है। तुम सिर्फ साक्षी होते हो; तुम
उसके कर्ता नहीं होते।
तो एक तो शब्द है, जो मनुष्य बोलता है--मनुष्य
उच्चारित शब्द। और एक शब्द है--जिससे मनुष्य उच्चारित होता है, जिसमें
से मनुष्य आता है; उस मूल शब्द को हम कहें--मूल ध्वनि--ओरिजिनल साउन्ड।
भौतिकी, फिजिक्स भी इस बात पर थोड़ी दूर तक राजी
है। अगर तुम भौतिक-शास्त्र पढ़ो, तो भौतिकी को जानने वाले कहते हैंः सारा
जगत विद्युत से बना है। और सारे संतों ने सदा से कहा है कि सारा जगत ध्वनि से बना
है।
ऊपर से ये दोनों बातें विपरीत दिखाई पड़ती हैं, लेकिन
थोड़ा और गहरे जाओगे, तो विपरीतता कम हो जाएगी और समन्वय साफ होगा।
फिर पूछो भौतिकशास्त्री सेः ध्वनि कैसे बनी? तो
वह कहता हैः ध्वनि भी विद्युत का एक रूपांतरण है। ध्वनि भी विद्युत ऊर्जा की एक
तरंग है।
और सारे संतों ने कहा हैः जगत ध्वनि से बना है। उनसे अगर पूछो
कि विद्युत क्या है, तो वे कहते हैं कि ध्वनि का ही तीव्र आघात है।
तुमने यह कहानी सुनी होगी कि तानसेन जैसे संगीतज्ञ दीपक राग गा
सकते हैं, तो बुझा हुआ दीया जल जाता है। यह इसी तरफ संकेत है। यह संकेत
इस बात पर है कि अगर ध्वनि का संघात तीव्रता से किया जाए, तो अग्नि
पैदा हो जाती है, विद्युत पैदा हो जाती है।
तब तुम्हें बात समझ में आ जाएगी कि भौतिकशास्त्री उसी बात को
अपने ढंग से कह रहा है, जिस बात को संतों ने और किसी ढंग से कहा
था।
संत कहते थेः ध्वनि सारी चीजों का मूल है। और भौतिकशास्त्र
कहता हैः विद्युत सारी चीजों का मूल है। लेकिन दोनों इस बात पर राजी हैं कि
विद्युत और ध्वनि एक दूसरे की तरंगें हैं। यह सिर्फ देखने की बात है। कोई गिलास को
आधा भरा देखे; कोई गिलास को आधा खाली देखे। मगर यह एक ही गिलास है। आधा खाली
कहो, तो
वही है। आधा भरा कहो, तो वही है।
ध्वनि और विद्युत एक ही घटना के दो नाम हैं। मगर ये दोनों ने
अलग-अलग शब्द क्यों कहे? क्यांेकि दोनों की खोज की
दिशा अलग-अलग है।
वैज्ञानिकों ने खोजा है--आंख के माध्यम से; और
संतों ने जाना है--कान के माध्यम से। क्योंकि आंख तो बाहर जाती है सिर्फ। आंख भीतर
नहीं जाती। कान की बड़ी खूबी है। कान बाहर भी जाता है और भीतर भी जाता है।
आंख तो बाहर देखती है। आंख बंद कर लो, तो भी बाहर
देखती है। चित्र दिखाई पड़ते हैं; सपने दिखाई पड़ते हैं--तरंगें....। लेकिन
वे सब बाहर की ही छायाएं हैं। जब कुछ दिखाई पड़ने को न रह जाए, तो
आंख का काम बंद हो जाता है; आंख शांत हो जाती है।
रात तुम जब सोते हो...। किसी को कभी सोते हुए देखना, तो तुम
बड़े चकित होओगे कि नींद में उस आदमी की आंखों में बड़े फर्क होते रहते हैं। कभी-कभी
आंख बड़ी तेज, पलक के भीतर ही चलने लगती है। तुम बाहर से भी देख सकते हो कि
आंख भीतर से बड़ी गति से चल रही है। और कभी-कभी आंख ठहर जाती है; गति
बंद हो जाती है।
वैज्ञानिकों ने खोज की तो पाया कि जब आदमी की सोए मंे आंख चलती
मालूम पड़ती हो, तो वह सपने देखता है। तो आंख वैसे ही चलने लगती है, जैसे
वास्तविक चीजों कोे देखते वक्त चलती है। क्योंकि देखना शुरू हो गया, आंख
गतिमान हो जाती है।आदमी सपना देख रहा है या सोया हुआ है या नहीं--अब तुम बाहर से
बैठकर कह सकते हो। सिर्फ बाहर से देख सकते होः उसकी आंख, पलकों के
भीतर पुतली चल रही है? सरक रही है, हिल रही है,
इधर-उधर
जा रही है, तो वह सपना देख रहा है। जब पुतली ठहर गई; जरा
भी नहीं हिलती, तो सपना समाप्त हो गया। आंख का काम बंद हो गया।
कान लेकिन अद्भुत है। बाहर की सब ध्वनियां बंद हो जाएं,
तुम
बाहर से कान को बिलकुल बंद कर लो, तो भी तुम पाओगे कि भीतर नई ध्वनियों का
आविर्भाव हो रहा है, जो तुमने कभी सुनी न थी। थी तो सदा, लेकिन तुम
बाहर बहुत उलझे थे।
संतों ने सत्य को जाना है--कान के माध्यम से। वैज्ञानिकों ने सत्य
को जाना है--आंख के माध्यम से। इसमें यह भी खयाल में रख लेना; लाओत्सु
को मानने वाले फकीरों का चीन में कहना है कि आंख है पुरूष की प्रतीक और कान है
स्त्री का प्रतीक। कान ग्राहक; आंख आक्रमक है। इसलिए तो हमारे पास इस
तरह के शब्द हैं, जैसेः लुच्चा। लुच्चा का मतलब होता है--किसी पर आंख से हमला।
लुच्चा शब्द आता है--लोचन से। लोचन याने आंख। लुच्चा हम उस
आदमी को कहते हैं, जो किसी को घूर घूरकर देखे। जो किसी पर आंख से हमला करे,
उसको
लुच्चा कहते हैं। और लुच्चा का ही एक रूप आलोचक भी है। आलोचक का मतलब भी वही होता
है--जो घूर घूरकर देखे, आलोचना करे। वह भी लोचन से ही आता
है--आलोचक।
आंख पुरुषवाची है, आक्रमक है, हिंसात्मक
है। इसलिए तुमने देखा; बहुत से राजनीतिज्ञ काला चश्मा आंख पर
लगाए रखते हैं। वह छिपाने की सब से बड़ी तरकीब है। राजगोपालाचारी या इस तरह के लोग।
अगर तुम्हारी आंख दूसरे को दिखाई न पड़े, तो तुम्हारी मनसा क्या है,
इसका
पता नहीं चलता। तुम्हारे इरादे क्या हैं--पता नहीं चलता।
कूटनीतिज्ञ अपनी आंख को छिपा लेते हैं, क्योंकि आंख
से सब बातें जाहिर हो जाती हैं। कहते कुछ हो, और आंख कुछ
और कहती है! बोलते कुछ हो; कहते होः आपको देख कर बड़ी प्रसन्नता
हुई। लेकिन अगर आंख में गौर करो तो पता चलता है कि जरा प्रसन्नता नहीं हुई। आंख
में लहर ही नहीं प्रसन्नता की। तो कहीं आंख से बात पकड़ में न आ जाए; आंख
को ढांके रखते हैं।
आंख आक्रमक है और खबर देती है। कान से कोई खबर नहीं मिलती। तुम
कान के पास जाकर कितना ही देखो, कुछ खबर नहीं पा सकते। इसलिए कान को कोई
राजनीतिज्ञ ढांकता नहीं। ढांकने की कोई जरूरत नहीं। उससे कुछ पढ़ा ही नहीं जा सकता।
कान ग्राहक है; वह लेता है।
कान स्त्री जैसा है। आंख पुरुष जैसी है। कान ने कभी किसी पर
आक्रमण नहीं किया। और कान ने कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई। तुमने कभी सुना कि कान
ने किसी पर हमला किया हो! आंख रोज-रोज करती है।
आंख के संबंध में नियम है कि किसी व्यक्ति को एक सीमा से बाहर
मत देखना। रास्ते पर तुम जा रहे हो, तो एक सेकंड, दो
सेकंड के लिए तुम किसी को भी देखो, कोई अड़चन नहीं है।
वैज्ञानिक कहते हैं--तीन सेकंड आखिरी सीमा है। तीन सेकंड से
ज्यादा देखा कि तुम दूसरे व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप कर रहे हो। उतने दूर तक
सभ्यता है इसलिए स्त्रियों ने आंख झुकाने की कला सीख ली थी। वह लज्जा का लक्षण हो
गया था। आंख में आक्रमण हो सकता है, इसलिए स्त्रियां आंख झुकाने लगी
थीं। न होगी आंख उठी, न किसी पर आक्रमण होगा। इसलिए तुम जब अपराध से भरे होते हो,
तो
आंख झुका लेते हो। वह तुम्हारी दीनता की खबर देती है।
अकड़ा हुआ आदमी आंख नहीं झुकाता; अकड़ कर देखता
है; घूर
कर देखता है। वह उसके अहंकार की, दर्प की घोषणा है।
विज्ञान की सारी खोज आंख के माध्यम से हुई, इसलिए
विज्ञान आक्रमक है और हिंसक है। इसलिए विज्ञान का अंतिम परिणाम युद्ध है।
धर्म की सारी खोज कान से हुई--अनाहत नाद को सुनना...। ‘साधो,
सब्द
साधना कीजै।’
परमात्मा को देखना कम है, परमात्मा को
सुनना ज्यादा है। परमात्मा को पाने का ढंग वही होगा, जो संगीत को
गुनने का होता है; जो संगीत में डूबने का होता है।
मेरे पास आकर बहुत लोग कहते हैं कि ‘आपके आश्रम
में बहुत संगीत, नृत्य...। लेकिन ऐसा हम किसी और आश्रम में नहीं
देखते!’ उनको ‘शब्द’
का
कुछ पता नहीं, जो ऐसा पूछते हैं।
तो जिन आश्रमों में संगीत नहीं है, नृत्य नहीं
है, उन
आश्रमों में शब्द की साधना नहीं हो रही। उन आश्रमों में लोग उदास बैठे हैं,
उत्सव
नहीं हो रहा।
परमात्मा से बहुत दूर है आंख। कान बहुत करीब है।
शब्द की साधना का अर्थ होता हैः तुम निशब्द हो जाओ। तुम्हारे
चित्त की तरंगें शून्य हो जाएं। एक ऐसी घड़ी आ जाए, जहां तुम तो
हो, लेकिन
एक भी शब्द भीतर नहीं।
और हम है कि कूड़ा-कचरा भरते रहते हैं। अखबार ही पढ़ते रहते हैं
लोग! सुबह से शाम तक अखबार पढ़ते रहते हैं!
जाओ-जाओ, मुझे नींद आई है, सोने दो मुझे
दिन गुजरता जाता है लफ्जों का तआकुब करते
और जब रात को थक हारके गिर पड़ता हूं
तुम चले आते हो अखबार लिए
तुम को अब याद नहीं।
कल के अखबार में भी थीं यही सारी खबरें
बल्कि परसों से यही खबरें धड़ाधड़
हर इक अखबार में छपती हैं पढ़ी जाती हैं
कल की खबरें भी लगे हाथ सुना डालो अभी!
फिर कहीं जाके मरो तुम भी, मुझे सोने दो
सुबह को फिर मुझे लफ्जों के तआकुब में निकलना होगा।
सुबह से शाम तक आदमी शब्दों के पीछे ही भागता है। कोई सम्मान
के पीछे भाग रहा है। क्या मिलेगा? कुछ शब्द मिलेंगे। और क्या मिलेगा?
प्रशस्तियां
मिलेंगी।
कोई आदमी गाली से उद्विग्न हो गया है; मरने-मारने
को उतारू है! क्या हुआ है? कुछ शब्द खटक गए हैं। तुम्हारी जिंदगी
गाली और प्रशंसा के बीच ही तो डोलती है। तुम्हारे जीवन का पेंडुलम गाली और प्रसंशा
के बीच ही डोलता है। गाली न मिले और प्रसंशा मिले; प्रसंशा जो
मिल गई है, वह जमी रहे, उखड़ न जाए। गाली जो मिल गई, वह
उखाड़ी जाए, फेंकी जाए, खंडित की जाए।
जाओ-जाओ, मुझे नींद आई है, सोने दो मुझे
दिन गुजरता जाता है लफ्जों का तआकुब करते
शब्दों का पीछा करते करते ही तो दिन बीत जाता है! अब रात भी आ
गई।
और जब रात को थक हारके गिर पड़ता हूं
तुम चले आते हो अखबार लिए
तुम को अब याद नहीं
कल के अखबार में भी थीं यही सारी खबरें
और तुम रोज-रोज अखबार में पढ़ते क्या हो? वही-वही--वही
है। सोया आदमी नया काम कुछ करता ही नहीं। वही लड़ाई, वही झगड़ा,
वही
राजनीति, वही उठा-पटक, वही एक दूसरे के प्रति हिंसा, प्रतिहिंसा
प्रतिशोध।
आदमी कुछ और करता ही नहीं। नई खबर तुमने कभी पढ़ी? अखबार
में कभी कुछ मौलिक मिला? कभी तुमने सोचा कि अगर अखबार न पढ़ते,
तो
कुछ चूक जाता?
भले और बेहतर थे लोग, जो सुबह उठ कर कुरान पढ़ते थे,
गीता
पढ़ते थे, बाइबिल पढ़ते थे। कुछ नया था, कुछ मौलिक
था। अब तो हालत यह है कि जो आदमी अखबार पढ़ता है, वह गीता पढ़ने
वाले से कहता है कि क्या वही गीता रोज पढ़े जाते हो? अब बात उलटी
है। अखबार आदमी जो पढ़ रहा है, वह रोज वही का वही है। गीता रोज वही की
वही नहीं है। क्योंकि गीता में इतने अर्थ --अर्थों पर अर्थ, गहराइयों पर
गहराइयां हैं, ऊंचाइयों पर ऊंचाइयां है। तुम जैसे-जैसे बदलते जाओगे वैसे-वैसे
गीता में नये अर्थ प्रकट होते चले जाएंगे।
गीता अखबार नहीं है। गीता खबर नहीं है--बाहर के संसार की। गीता
तो अनंत की तरफ इशारा है। तुम्हारी जैसे-जैसे आंखें उठती जाएंगी, वैसे-वैसे
तुम पाओगेः और प्रकट होने लगा; और प्रकट होने लगा।
भले थे वे लोग, जो गीता, कुरान या
बाइबिल पढ़ लेते थे। या धम्मपद पढ़ते थे, या लाओत्सु की किताब पढ़ते थे।
क्योंकि वहां एक-एक शब्द में बड़ी गहराइंया थी। जितनी डुबकी तुम मारते, जितनी
हिम्मत करते, उतने मोती ले आते। तुम पर निर्भर था। और ऐसा कुछ नहीं था कि
शब्द चूकता था। कल भी पढ़ते, परसों भी पढ़ते, इसलिए पाठ का
जन्म हुआ था।
पाठ का मतलब यह नहीं होता कि वही-वही किताब रोज पढ़ रहे हैं।
वही किताब है, लेकिन नई चेतना से पढ़ रहे हैं, तो नये अर्थ
दे जाती है। लेकिन अखबार तुम किसी भी चेतना से पढ़ो--नया अर्थ नहीं हो सकता। अखबार
में अर्थ ही नहीं है। अखबार व्यर्थता है--अनर्थ है।
कल के अखबार में भी थीं यही सारी खबरें
बल्कि परसों से यही खबरें धड़ाधड़
हर इक अखबार में छपती हैं पढ़ी जाती हैं
कल की खबरें भी लगे हाथ सुना डालो अभी।
अगर तुम थोड़ी समझ का उपयोग करो, तो तुम कल का
अखबार आज तैयार कर सकते हो। मोरारजीभाई देसाई कल क्या कहेंगे, तुम
आज नही बता सकते! चरणसिंग कल क्या करेंगे, तुम आज नहीं बता सकते?
मोरारजीभाई देसाई कुछ नया तो करने वाले नहीं। चरणसिंग से कुछ
नया तो होने वाला नहीं। जो होता रहा, वही होगा। जो कल कहा था, वही
फिर कल कहा जाएगा। फिर-फिर कहा जाएगा।
लोग अंधे हैं, लोग बुद्धिहीन हैं; रोज
अखबार पढ़े जाते हैं! और रोज सुबह से प्रतीक्षा करते हैं कि अखबार अभी आया या नहीं?
जैसे
कि कुछ नया आने को है!
इन शब्दों की भीड़-भाड़ में तुम्हारा जो भीतर का शब्द है,
वह
खो गया है। ये शब्द जाएं, तो शब्द की साधना हो।
अगर शब्द ही पढ़ने हों, तो कुछ ऐसे पढ़ना, जो
निशब्द से आए हों।
राजधानियों से उठते हुए शब्द मत पढ़ना। क्योंकि राजधानियां पागल
हैं। और राजधानियों में पागल बसे हैं। अगर पढ़ना ही हो, तो ऐसे शब्द
पढ़ना जो उनके हृदय से उठे हों, जहां सारे शब्द खो गए थे। तो उन शब्दों
से तुम्हें कुछ छाया मिलेगी, राहत मिलेगी, दिशा मिलेगी।
जिनको दिशा मिल गई है, उनके थोड़े-थोड़े शब्द भी बड़े काम
के हैं। हालांकि वे भी बाधा बन सकते हैं। इसलिए पंडित मत हो जाना; साधु
ही रहना। इसलिए ज्ञानी मत बन जाना; सरल चित्त बालक ही रहना। पढ़ लेना शास्त्रों
को; आनंद
ले लेना। उनमें बड़ा मधुर रस है। लेकिन वहीं अटक मत जाना। क्योंकि आखिर वे भी शब्द
हैं। सत्य तक जाना है। और सत्य तुम्हारे भीतर पड़ा है, और कबीर कहते
हैंः ध्वनि की तरह पड़ा है, संगीत की तरह पड़ा है।
साधो सब्द साधना कीजै।
जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि
लीजै।
जिस मूल ध्वनि से हम सब आए हैं, उसी मूल
ध्वनि में उतर जाओ। उसी में सीढ़ियां लगाओ।
जेही सब्द से प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि
लीजै।
सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो
विरला बूझै।
शब्द ही गुरु है। वह जो तुम्हारे भीतर पड़ी है शांत ध्वनि,
मौन
प्रतीक्षा करती, वही गुरु है। वही सद्गुरु है। बाहर का गुरु तो उसी की याद
दिलाता है। बाहर का गुरु तो तुम्हेें वहीं-वहीं फेंकता है वापस, तुम्हारे
ही भीतर फेंकता है। जो गुरु तुम्हें बाहर अटका ले, वह गुरु
नहीं--दुश्मन है। जो गुरु तुम्हीं में फेंक दे, वही सच्चा
गुरु है। जो कहेः मुझे छोड़ो और अपने भीतर जाओ। मुझे मत पकड़ो। मुझे पकड़ कर रुक मत
जाना। क्योंकि मैं भी बाहर हूं। मुझसे तो इतना सीख लो कि कैसे भीतर जाया जाता है,
फिर
अपने भीतर चले जाओ। फिर बिसारो सब। गुरु भी सम्मिलित है उस बिसारने में। संसार भी
भूल जाए, गुरु भी भूल जाए; धर्म भी भूल जाए--सब भूल जाए;
विस्मृति
पूरी हो जाए। जब बाहर की विस्मृति पूरी हो जाती है, तो स्मरण आता
है भीतर का।
ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती। तुम्हारी ऊर्जा बाहर उलझी
है, तो
भीतर की कैसे स्मृति आए! बाहर से जब सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती है, तो फिर
क्या याद करोगे? कुछ याद करने को बचता नहीं, तो स्वयं को
याद करोगे। जब कुछ और नहीं रह जाता खोजने को, तो आदमी
स्वयं को खोजता है। जब और कहीं खोदने को कोई जगह नहीं बचती, तब आदमी
स्वयं के खजाने को खोदता है।
‘सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए...।’ शब्द ही गुरु
है। और जिसने शब्द को सुन लिया, वही शिष्य, वही सिक्ख।
नानक के शिष्यों का नाम सिक्ख पड़ गया, क्योंकि
पंजाबी में शिष्य का रूप हो जाता है सिक्ख। लेकिन सिक्ख का अर्थ होता
है--शिष्य--जो उसके पास बैठने को राजी है, जिसने भीतर का मूल स्वर सुन
लिया।
‘सब्द सो विरला बूझै।’ और कोई विरला ही कभी इस शब्द को
बूझ पाता है। लेकिन वही बूझ सकता है। जो इस भीतर की यात्रा पर चलता ही रहे।
मैंने सुना है उन दिनों आगरा के कवि नजीर अकबरावादी गरीबी के
गाल में समाए जाते थे। यह बात नवाब हैदराबाद को मालूम हुई, तो उन्होंने
तुरंत ही अपना आदमी उन्हें हैदराबाद ले आने के लिए भेजा। वह आदमी जब आगरा पहुंचा
और नजीर से मिला, तो नजीर बोले, ‘मियां, हैदराबाद से
क्या हमें ताजमहल दीखेगा?’ यह भी कोई बात हुई! कहां हैदराबाद?
कहां
आगरा?
और नजीर बोले कि ‘चल तो सकता हंू, मगर
ताजमहल दीखेगा वहां से कि नहीं दीखेगा?’ वह आदमी बोला, ‘हां-हां
क्यों नहीं दीखेगा? आप चलिए तो।’
वह तो उन्हें हर सूरत में साथ ले आने के लिए आया था और जब आने
लगा था, तो नवाब हैदराबाद ने कहा था कि ‘मैंने सुना
है, नजीर
पागल है ताजमहल के पीछे। वह जरूर कहेगा। ताजमहल की ही बात अड़चन उठाएगा; और
कुछ नहीं है उसके पास वहां। भूखा मर रहा है। उसे ले आना जरूरी है--बचाने के लिए।
लेकिन वह ताजमहल की बात उठाएगा तो तू फिक्र मत करना। कहना कि ठीक है। सब हो जाएगा।
वह कुछ भी कहे, हां भर देना। किसी तरह उसे ले आना।
उन दिनों रेलों मोटरों का तो जमाना था नहीं। हाथी पर बैठा कर
नजीर को यात्रा शुरू कराई गई। चलने का दिन आया, तो नजीर हाथी
पर उलटे मुंह बैठ गए। आदमी जरा हैरान हुआ कि सुना तो था कि कवि झक्की और सनकी होते
हैं। बाकी यह क्या मामला है! पर वह चुप रहा; किसी हाल
चले-चलें। बस, ठीक है। उलटे बैठे हैं; चलो, उलटे
सही।
हाथी चला। नजीर टक-टकी बांधे ताज को देखे जा रहे थे। हाथी
जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, ताज उनकी नजरों में धुंधला और धुंधला
गया। जब ताज दीखना बिलकुल बंद हो गया, तो नजीर उचक कर महावत से बोले,
‘मियां,
रोक
लो यहीं अपना हाथी। जब इतने पास से हमें ताजमहल नहीं दीख रहा है तो भला हैदराबाद
से क्या दीखेगा?’
नवाब के आदमी ने उन्हें बहुत समझाया, मगर ताज से
प्यार करने वाले खूब-सूरती पसंद नजीर कहां मानने वाले थे! वे तो हाथी से उतर पड़े
और पैदल ही आगरा लौट गए।
गुलशन-परस्त हूं, गुल ही नहीं अजीज।
कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं।।
जिसको बगीचे से प्रेम होता है, फूलों से
प्रेम होता है--‘गुलशन-परस्त हूं, गुल ही नहीं अजीज।’ उसे
फूल ही प्यारे नहीं होते, वह कांटों से भी निबाह कर लेता है।
गुलशन-परस्त हूं, गुल ही नहीं अजीज।
कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं।।
लौट आए। भूखे रहे। गरीब रहे। बिना छप्पर के रहे। मगर वे ताजमहल
छोड़ कर न गए।
ऐसी ही अंतर्यात्रा है। तुम जैसे-जैसे बाहर का शोरगुल छोड़कर
भीतर जाने लगोगे, वैसे-वैसे भीतर का ताजमहल दिखाई पड़ना शुरू होगा। जैसे-जैसे तुम
बाहर की तरफ जाओगे, भीतर का ताजमहल दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
भीतर अपूर्व सौंदर्य है, लेकिन तुम
बहुत दूर पड़ गए हो। तुम अपने ही हाथ बड़े दूर चले गए हो। और जिसने एक बार भीतर का
संगीत सुन लिया, फिर उसे कोई लाख कहे, वह गरीब रह लेगा, वह
भूखा रह लेगा, वह प्यासा रह लेगा, वह फकीर बन जाएगा, मगर
उस भीतर के ताजमहल को छोड़कर न जाएगा, क्यांेकि वही परम संपदा है।
सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो
बिरला बूझै।
सोई सिष्य सोई गुरु महातम, जेही
अंतर-गति सूझै।
यह अंतर में जाने की जो बात है, जिसे सूझ
जाए--वही शिष्य है। और वही एक दिन गुरु बन जाता है। और शिष्य और गुरु के बीच जो
अपूर्व घटना घटती है, वह और कुछ नहीं है--अंतर-गति है।
... जेही अंतरगति सूझै
‘सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब
ठहरावै।’
और सब कुरानों ने, पुरानोें ने, वेदों
ने, उपनिषदांे
ने--शब्द की ही बात की है। शब्द की--जो निःशब्द में सुना जाता है। पूर्ण की बात की
है। पूर्ण--जो शून्य में उतरता है। परमात्मा की बात की है। लेकिन परमात्मा--जो
तुम्हारे मिट जाने पर आता है; तुम्हारी राख में जो फूल खिलता है।
‘सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब
ठहरावै।’ और जो शब्द में ठहर गया, उसका सब ठहरा
जाता है। उसको ही कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है। उसको ही कहा हैः पहुंच गया--निस्तब्ध,
निस्तंरग;
ज्योति
जब जलती है, कोई हवा का झोंका ज्योति को हिला भी नहीं पाता।
...सब्दै सब ठहरावै।
सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द भेद
नहिं पावै।।
सारे संत उसी का गीत गा रहे हैं--उसी शून्य का, उसी
निःशब्द का, उसी निःशब्द में सुने गए संगीत का, सारे सुर मुनि
उसी के गीत गा रहे हैं।
‘सब्द भेद नहिं पावै।’ फिर भी कितना ही कहो, उसका
भेद खुलता नहीं। कितना ही समझाओ, वह अनुभव से ही समझ में आता है; समझाने
से समझ में नहीं आता।
तुम जानोगे तो ही जानोगे--मेरे कहने से नहीं। मेरे कहने से
इतना ही हो सकता है कि तुम उत्सुक हो जाओ। खोज में लग जाओ। जिज्ञासा उठे। जिज्ञासा
मुमुक्षा बने।
साधक बनो। साधक बनते-बनते साधु बन जाओ। इतना हो सकता है। लेकिन
उस शब्द का क्या स्वरूप है? उसका निर्वचन नहीं हो सकता। उसकी कोई
व्याख्या नहीं हो सकती, कोई परिभाषा नहीं हो सकती।
‘सब्द भेद नहीं पावै।’ उसके भेद को कभी कभी किसी ने
नहीं पाया। उसका रहस्य आत्यंतिक है। उसमें लोग उतर गए हैं! उसको चख लिया है। उसको
पी लिया है। पर फिर गंूगे का गुड़ को गया। फिर लौटकर भी आ गए हैं। और तुम उनसे पूछो,
तो
उनकी जबान बंद है!
सभी बुद्ध पुरूष चुप हैं। ऐसा नहीं कि नहीं बोलते हैं। बोलते
हैं, लेकिन
उस शब्द के बाबत कुछ भी नहीं बोलते; उस शब्द तक कैसे पहुंचोगे--इस
बाबत बोलते हैं। विधि बताते हैं। मार्ग बताते हैं। लेकिन जाओगे तो ही जानोगे। उधार
जानना नहीं हो सकता है, निज ही जानना होगा।
‘सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं...।’ उसी शब्द को
सुनने के कारण दुनिया में संन्यस्त होते हैं लोग। जिनको जरा सी भनक पड़ जाती है,
वे
अपना वेश बदल लेते हैं। संसारी का वेश छोड़ कर संन्यासी हो जाते हैं।
‘सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै कहै
अनुरागी।’ उसी शब्द को सुन कर कोई भक्त हो जाता है; अनुरागी
हो जाता है प्रभु का।
‘खट-दरसन सब सब्द कहत हैं...।’ और सारे
दर्शन उसी शब्द की तरफ इशारा करते हैं।
‘सब्द क है बैरागी।’ अनुरागी भी वही कहते हैं,
भक्त
भी वही कहते हैं, त्यागी भी वही क हते हैं। वैरागी भी वही कहते हैं। अनुरागी भी
वही क हते हैं। अलग-अलग दिशाओं से लोग आते हैं, लेकिन वह
सागर एक है--जिस पर पहुंचते हैं। वह स्त्रोत एक है।
‘सब्दै काया जग उतपानी, सब्दै के रि पसारा।’ शब्द
से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है। सारी अभिव्यक्ति शब्द की है। यह पक्षियों में
गंूजता स्वर, यह वृक्षों में चलती हुई हवाओं की सरसर, यह झरनों की
कलकल--यह सब--यह आाकाश, यह पृथ्वी, ये तारे,
यह
सूरज, ये मनुष्य, यह तुम--यह सब उसी एक की अभिव्यक्ति है,
उस
एक स्त्रोत में ही ये सारी तरंगेें उठी हैं।
सब्दै काया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा।
कहै कबीर जहं सब्द होत हैं, भवन भेद है
न्यारा।।
कहते हैं उतर जाओ उस भवन में, जहां शब्द हो
रहा है। वहीं है मंदिर! आदमी के बनाए मंदिरों से मुक्त हो जाओ। प्रभु के बनाए
मंदिर में चलो।
‘कहै कबीर जहं शब्द होत हैं, भवन भेद है
न्यारा।’ वह बड़ी अनूठी अनुभूति है--अद्वितीय अतुलनीय, न्यारी।
इस जगत का कोई अनुभव ऐसा नहीं है,जिससे उसकी तुलना की जा सके। न तो किसी
स्वाद में वैसा स्वाद है; न किसी भोग में वैसा भोग है; न
किसी सौंदर्य में वैसी झलक है। न किसी संगीत में वैसी शंाति है। इस जगत में कुछ भी
नहीं है, जिससे उसकी तुलना की जा सके। वह अतुलनीय है, न्यारा
है। जाओ--और जानो।
‘कबीर सद सरीर में, बिन गुण वाजै तंत।’ और
वह शब्द तुम में छिपा है। कहीं और जाना नहीं है। न काशी, न काबा--कहीं
जाना नहीं है।
‘कबीर सबद शरीर में...।’ वह तुम्हारे
भीतर बसा है। वह तुम्हारे रोएं-रोएं में पड़ा है। वह तुम्हारे हृदय की धडकन-धड़क न
में है। उसी की तो धडकन हो रही है। उसी का तो रोमांच है।
‘कबीर सबद सरीर में, बिन गुण बाजै तंत।’ जैसे
देखा न,वीणा में सोया होता है संगीत। मत छेड़ो, तो सोया रहता
है। छेड़ दो तो उठ जाता है। मगर यह वीणा भीतर की और भी अद्भुत है--‘बिन
गुण बाजै तंत।’ वहां कोई वीणा नहीं है; कोई तार भी
नहीं है। सिर्फ संगीत है। अनाहत नाद है।
भीतर जाओगे, तो वीणा नहीं पाओगे और न पाओगे--किसी
वीणाकार को। न तो पाओगे किसी बजाने वाले को; और न पाओगे
कोई वाद्य। मगर अपूर्व संगीत है वहंा। शाश्वत संगीत है वहां। न जिसका कोई प्रारंभ
है, न
कोई अंत है। उस संगीत को जिसने सुन लिया, परमात्मा को सुन लिया।
उस संगीत को ही सुना था मोहम्मद ने एक दिन, जब
कुरान उन पर उतरी। घबड़ा गए थे। डर गए थे। उसी संगीत को सुना था वेद के ऋषियों ने ।
इसलिए वेद को हम अपौरुषेय कहते हैं। अपौरुषेय का अर्थ हैः मनुष्यों ने नहीं रचे
वेद; उस
अपूर्व संगीत में उतरे हैं। मनुष्यों का कृत्य उन पर नहीं है। मनुष्यों का
हस्ताक्षर उन पर नहीं है।
और अगर ठीक से समझो, तो जब भी इस जगत में कोई
महत्वपूर्ण बात कही जाती है, तो वहीं से आती है। बाकी सब क चरा है।
बाकी सब कूड़ा-कर्कट है।
जब भी सत्य कहीं भी सुनाई पड़े या सौंदर्य कहीं भी दिखाई पड़े,
तो
जान लेना, वहीं से आता है। जब तुम एक सुंदर स्त्री को राह से गुजरते
देखते हो, तो वह सौंदर्य वहीं से आ रहा है। जब तुम एक बच्चे को मुसकराते
देखते हो, तो वह मुसक राहट वहीं से आ रही है। सब वहीं से आ रहा है। और
जितना गहरा होता है, उतनी गहराई से आ रहा है।
तो वेद हों, कि कुरान; कि बाइबिल हो,
कि
गीता--सब वहीं से आते हैं। और तुम्हारे भीतर वह पड़ा है, इसलिए गीता
में क्या खोज रहे हो? जहां से गीता आती है, वहीं से क्यों नहीं चलते?
जिस
चैतन्य से कृष्ण बोलते हैं, तुम उस चैतन्य में क्यों नहीं उतरते?
और
जिस चैतन्य से क्राइस्ट बोलते हैं, तुम उस चैतन्य में क्यों नहीं उतरते?
‘कबीर सबद सरीर में, बिन गुण बाजै तंत।’ न तो
कोई वीणा है, न कोई बजाने वाला है। न बीन है, न बीनकार है।
मगर स्वर अनूठा उठ रहा है। ‘अनहद बाजत बांसुरी’--वह
बांसुरी बज रही है। बजाने वाला भी नहीं है और बांसुरी भी नहीं है।
‘बाहर भीतर भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति।’ और
तुम्हारी भ्रांति तभी छूटेगी, जब तुम बाहर-भीतर गूंजते हुए संगीत में
ड़ूब जाओगे, एक रस हो जाओगे। नहीं तो तुम्हारी भ्रांति टूटने वाली नहीं है।
उस संगीत की चोट ही तुम्हें जगाएगी। उसी संगीत की चोट में तुम्हारा भ्रम, तुम्हारा
अंधकार, तुम्हारा अंधापन, तुम्हारा अज्ञान टूटेगा।
बाहर भीतर भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति।।
सब्द सब्द बहु अंतरा,सार सब्द चित देय।
और शब्दों शब्दों में बड़ा भेद है। अखबार में भी शब्द हैं,
और
कुरान में भी शब्द हैं, मगर शब्द शब्द में बड़ा भेद है।
‘सब्द सब्द बहु अंतरा, सार शब्द चित देय।’ क्या
भेद है? जो उस भीतर के शून्य से उठे, उनमें
कुछ-कुछ शून्य की सुवास है। जो ऊपर ही ऊपर तुमने व्यवस्थित कर लिए हैं, उनका
कोई मूल्य नहीं है।
अंग्रजी का महाकवि हुआ--कूलरिज। मर जाने पर उसके घर में हजारों
अधूरी कवितांए मिली, जो उसने कभी पूरी नहीं की। उसके मित्रों को सदा से पता था। वे
उनसे अक्सर कहते थे कि तुम ढेर लगाते जाते हो। इनको पूरा क्यों नहीं करते? और
कूलरिज कहताः ‘मैं पुरा करने वाला कौन? जितनी उतरती
है, उतनी
लिख देता हूं। उससे आगे नहीं उतरती, तो नहीं उतरती। जब उतरेगी तो पूरी
कर
दूंगा। नहीं उतरेगी, तो अधूरी रहेगी। मैं कौन?’
समझना।
कूलरिज यह कह रहा है कि जब आती है मेरे भीतर, मेरे
बिना कुछ किए, तो मैं तो सिर्फ लिख देता हूं। मैं सिर्फ लिखने वाला
हंू--रचयिता नहीं, स्त्रष्टा नहीं। प्रभु गाता है; कभी दो ही
पंक्तियां उतरती हैं, दो ही लिख देता हूं।
कुछ कविताएं तो ऐसी हैं कि जिन में दो ही पंक्तियां कम हैं।
कूलरिज ने कहा है कि कभी-कभी मैंने भी सोचा था, ये हजारों
कविताएं इकट्ठी होती जा रही हैं, इनको पूरा कर दूं। कभी-कभी मैंने पूरा
करने की कोशिश भी की थी। और दो पंक्तियां मैंने अपनी तरफ से जोड़ दीं। मगर तब मैंने
पाया कि वह मेरी दो पंक्तियां बिलकुल ही असंगत हैं। वे जो आई हैं पंक्तियां,उनका
स्वाद अलग है। जो मैंने जोड़ दी हैं, वे मुरदा हैं।
वह ऐसे समझो कि जैसे एक आदमी का पैर कट जाता है और उसने लकड़ी
का पैर लगा दिया। और लकड़ी का पैर किसी को धोखा दे दे। शायद रात में, अंधेरे
में चलते वक्त किसी को समझ में भी न आए। और शायद कभी किसी उपद्रव के क्षण में काम
भी आ जाए।
मैंने सुना हैः एक पादरी अफ्रीका गया--मनुष्य-भक्षी लोगों के
कबीले में ईसा का संदेह पहुंचाने। उसको पकड़ लिया गया। भट्टी सुलगा दी गई। कढ़ाए चढ़ा
दिए गए। उसको भूंज कर खाने की तैयारी होने लगी। बैंड़-बाजे बजने लगे।
जब सब तैयारी पूरी हो गई उसे ले चले भट्टी की तरफ, तो
उसने कबीले के प्रधान से कहा कि ‘तुम जरा मेरा पहले स्वाद तो ले लो।’
उसने
क हा. ‘मतलब?’ तो उसने जल्दी से चाकू अपने खीसे से निक
लकर पैर का एक टुकड़ा काटा और उसको दिया।
उस कबीले के प्रधान ने मुहं में रखा; चखा और थूका
एकदम और लोगों से कहा कि ‘बंद करो। यह आदमी खाने योग्य नहीं है।’
उसका
पैर तो कॅार्क का बना था। पैर कट गया था और कार्क का पैर लगा हुआ था। कार्क काटकर
दे दिया था उसने। वह बच गया।
तो कभी काम भी पड़ सकता है--लकड़ी का पैर भी काम पड़ सकता है। मगर
तुम तो जानते ही रहोगे भीतर कि लकड़ी का पैर, लकड़ी का पैर
है। दूसरे को शायद धोखा भी दे जाए, तुम्हें तो धोखा नहीं देगा।
कूलरिज ने कहा कि मैंने अपनी पंक्तियां जोड़ कर दूसरों को सुनाई
भी, तो
उन्हें धोखा भी हो गया। लेकिन मैं कैसे धोखा खाऊं! मुझे तो साफ दिखाई पड़ता
है--अलग--कहां वह स्वच्छ धारा जो आई थी, और कहां मेरा गंदा नाला--जो
मैंने मिला दिया! कहां तो वे अपूर्व जीवंत शब्द, और कहां मेरे
मुरदा शब्द! कहां तो झरना था और मैंने ये चट्टानें रख दीं? इससे सौंदर्य
कम को गया--बढ़ा नहीं। उसने कहा, ‘फिर मैंने कोशिश नहीं की।’
ऐसी घटना रवींद्रनाथ के जीवन में घटी। उन्होंने गीतांजलि लिखी
और फिर गीतांजलि का अंग्रजी में अनुवाद किया। अंग्रेजी पराई भाषा, तो
उन्होंने सोचाः किसी से पूछ लें।
तो सी. एफ. एंड्रूज से उन्होंने कहा कि आप जरा इसको देख लें।
मेरा अनुवाद ठीक है या नहीं।
सी. एफ. एंड्रूज भाषा के ज्ञानी थे। उन्होंने दो-चार जगह शब्द
बदले। उन्होंने कहा कि ये शब्द व्याकरण की दृष्टि से ठीक नहीं हैं, चार
जगह उन्होंने शब्द बदल दिए और कहा, अब सब ठीक है।
फिर रवीन्द्रनाथ गए और लंदन में उन्होंने कवियों के एक समारोह
में गीतांजलि का पाठ किया। वे बड़े हैरान हुए। अंग्रजी का एक महाकवि यीट्स खड़ा हो
गया। और उसने कहा, ‘और सब तो ठीक है, तीन-चार जगह ऐसा लगता है,
किसी
और ने शब्द रखे हैं। और सब जगह तो धारा बहती चली जाती है, मगर तीन-चार
जगह ऐसा लगता हैः सब छिन्नभिन्न हो गया।’
रवींद्रनाथ चैंके। तीन-चार जगह! उन्होंने कहाः कौन से? उसने
दो-तीन उदाहारण बताए। वह वे ही शब्द थे, जो सी. एफ. एंड्रूज ने लगवा दिए
थे। रवींद्रनाथ ने कहा, ‘मुझे क्षमा क रें। भूल मेरी है। और
सी.एफ. एंड्रूज ने गलत नहीं किया।’
यीट्स ने भी कहा कि ‘तुम्हारे क्या शब्द थे, जो
तुमने पहले रखे थे?’ रवीन्द्रनाथ ने कहा ... उसने कहा कि वह भाषा की दृष्टि से गलत,
लेकिन
काव्य की दृष्टि से सही। व्याकरण ठीक नहीं है उनका, लेकिन उनमें
लय है, तारतम्य है; आगे पीछे के शब्द में संगीत छिन्न-भिन्न
नहीं होता। तुम पुराने ही शब्द रखो। भाषा को जाने दो भाड़ में, काव्य
को बचाओ।’
और रवींद्रनाथ ने अपने पुराने ही शब्द रखे। भाषा की भूल रही,
लेकिन
काव्य की भूल बच गई।
तो एक तो ऐसा शब्द है, जो तुम्हारे भीतर से आता है। और
एक ऐसा शब्द है, जो तुम बाहर-बाहर से इंतजाम कर लेते हो। बाहर-बाहर से जो
इंतजाम किया, उससे सावधान रहना। वह असार है। जो भीतर से आए, वह
बड़ा मूल्यवान है।
जो प्रेम की घड़ी में उठता है, वह बड़ा
मूल्यवान है। जो शांत-शून्य में उठता है, वह बड़ा मूल्यवान है। प्रेम में
उठे शब्द को सम्हालना। शून्य में उठे शब्द को सम्हालना। करुणा में उठे शब्द को
सम्हालना। क्रोध में उठे शब्द को फेंक देना; उसे सम्हालना
मत; वह
जहर है।
गुफ्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले
हों, जो अल्फाज के हाथों में हैं, संगे-दुश्नाम
तन्ज छलकाए तो छलका करे जहर के जाम
तीखी नजरें हों, तुर्श अबरुए-खमदार रहे
बन पड़े जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहे बेबसी
हर्फ की जंजीर-ब-पा कर न सके
कोई कातिल हो मगर कत्ले-नवा कर न सके
सुबह तक ढल के कोई हर्फे-वफा आएगा
इश्क आएगा बसद, लग्जिशे-पा आएगा
नजरें झुक जाएंगी, दिल धड़केंगे, लब
कांपेंगे
खामुशी बोसा-ए-लब बन के महक जाएगी
सिर्फ गुंचों के चटखने की सदा आएगी
और फिर हर्फ-ओ-नव की जरूरत न होगी
चश्म-ओ-आबरू के इशारो में मुहब्बत होगी
नफरत उठ जाएगी, मेहमान मुरव्वत होगी
हाथ में हाथ लिए, सारा जहां साथ लिए
तोहफ ा-ए-दर्द लिए, प्यार की सौगात लिए
रेगजारों से अदावत के गुजर जाएंगे
खून के दरियाओं से हम पार उतर जाएंगे
गुफ्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले।
जहां प्रेम के शब्द उठते हों, जहां हृदय के
शब्द उठते हों, जहां अंतर्तम बोलता हो, उसे तो बोलने
देना। ‘गुफ्तगू बंद न हो।’ प्रेम में चलती हुई बात बंद न
हो।
गुफ्तगू बंद न हो बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
और जो साम को शुरू हुई थी मुलाकात, वह अगर रातभर
भी चले, तो हर्ज नहीं।
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले
सत्संग हो--तो शब्द सार्थक हैं। प्रेम हो--तो शब्द सार्थक हैं।
संगीत को लाते हों भीतर के, तो शब्द सार्थक हैं। भीतर की थोड़ी सी
धुन भी आ जाती हो बसी-बसी, तो शब्द सार्थक हैं।
‘हों, जो अल्फाज के हाथों में हैं
संगे-दुश्नाम।’ माना कि शब्द के हाथों में गालियों के पत्थर भी हैं।
हों जो अल्फाज के हाथों में हैं संगे-दुश्नाम।
तन्ज छलकाए तो छलका करे जहर के जाम।।
और यह भी हमें पता है कि शब्दों में बड़ा जहर भी हो सकता है।
‘तीखी नजरें हों, तुर्श अबरुए-खमदार रहे।’ और
यह भी हम जानते हैं कि शब्द बड़े नाराज हो सकते हैं।
और शब्दों में बड़ी तीखी नजरें हो सकती हैं। शब्दों में बड़ी चोट
हो सकती है। यह सब हमें मालूम है।
‘बने पड़े जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहे।’ लेकिन
कुछ भी हो, दिल को जगाए रखना है। दिल को जाग्रत रखना है। शब्दों का उपयोग
करना है।
शब्दों में खतरे हैं, खाइयां हैं, खड्डे
हैं, लेकिन
उन्हीं खाइयों खड्डों से जाती हुई पतली सी राह भी है, बाट भी है।
‘बेबसी हर्फ की जंजीर-ब-पा कर न सके।’ ध्यान रखना
शब्दों की जंजीर पैरों को बांध न सके--यह ख्याल रहे।
बेबसी हर्फ की जंजीर-ब-पा कर न सके।
कोई कातिल हो मगर कल्ले नवा कर न सके।।
इतना ख्याल रखनाः भीतर की आवाज शब्दों की जंजीरों में दब न
जाए। भीतर की आवाज शब्दों की फांसी से मर न जाए।
‘बेबसी हर्फ की जंजीर-ब-पा कर न सके।’ बस, इतना
ही खयाल रहे कि शब्द जंजीरें न बनें। हिंदू, मुसलमान,
ईसाई
न बना दें शब्द। शब्द से मुक्ति रहे।
‘कोई कातिल हो मगर कल्ले-नवा कर न सके।’ और भीतर की
आवाज की शब्द हत्या न कर दें।
‘सुबह तक ढलके कोई हफें-वफा आएगा।’ प्रतीक्षा
करो; सुबह
आते-आते कोई प्रेम का शब्द आएगा।
गुफ्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई तारों भरी रात चले
सुबह तक ढलके कोई हर्फे-वफा आएगा।
अगर यह प्रेम की गुफ्तगू, यह प्रेम की
बात, यह
सत्संग चलता रहे, तो आज नहीं कल...सांझ नहीं तो सुबह तक...जवानी में नहीं तो
पीरी में, बुढ़ापे में कभी न कभी अगर यह चलती रही बात, तो
वह शब्द भी आएगा, जो प्रेम से आता है। वह शब्द भी आएगा जो अंतरतम से आता है।
‘इश्क आएगा बसद लग्जिशे-पा आएगा।’ प्रेम
आएगा--कंपते हुए पावों से--हालांकि, क्योंकि हम प्रेम के आदी नहीं। ‘इश्क
आएगा बसद लग्जिशे-पा आएगा।’ और एक बार नहीं सौ बार आएगा।
गुफ्तगू बंद न हो
सुबह तक शामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले
नजरें झुक जाएंगी, दिल धड़केंगे, लब
कांपेंगे
खामुशी बोसा-ए-लब बन के महक जाएगी।
और जब उठेगा शब्द, तो होंठों पर चुंबन बन कर बिखर
जाएगा।
‘सिर्फ गुंचों के चटखने की सदा आएगी।’ इस घड़ी में
सिर्फ फूलों के खिलने की आवाज भर सुनाई पड़ेगी।
अगर तुम अपने भीतर जाओगे, तो तुम अपने
गुंचे के फूटने की सदा सुनोगे। तुम अपनी ही कली के खुलने की आवाज सुनोगे।
तुमने कमल को खुलते देखा? तुमने कमल को
खुलते सुना! सुनना भी चाहो तो नहीं सुन सकते। आवाज बड़ी धीमी है। लेकिन जब भीतर का
कमल खुलता है, तो तुम सुन सकोगे। और कोई सुन सके या न सुन सके, तुम
निश्चित सुन सकोगे।
सिर्फ गुंचों के चटखने की सदा आएगी
और फिर हर्फ-ओ-नवा की जरूरत न होगी।
और फिर शब्दों के अक्षरों की जरूरत न रह जाएगी। एक बार भीतर के
कमल के खिलने की आवाज सुनाई पड़ जाए।
और फिर हर्फ-ओ-नवा की जरूरत न होगी।
चश्म-ओ-आबरू के इशारों में मुहब्बत होगी।।
फिर तो आंखों और भंवों के इशारों में प्रेम हो जाता है।
‘नफरत उठा जाएगी, मेहमान मुरव्वत होगी।’ फिर
अपने आप एक शील पैदा होता है। ‘मेहमान मुरव्वत होगी।’ फिर
अपने आप एक शील पैदा होता है। मेहमान मुरव्वत होगी। फिर एक शील आता है; एक
शिष्टाचार आता है; प्रसाद आता है, जो अपने आप आता है। तुम्हारे लाने से
नहीं, तुम्हारी चेष्टा से नहीं।
हाथ में हाथ लिए सारा जहां साथ लिए।
तोहफा-ए-दर्द लिए प्यार की सौगात लिए।।
वह प्रभु प्रेम की पीड़ा या प्रेम की पीड़ा...और प्यार की,
प्रेम
की पीड़ा का उपहार हाथ में लिए--‘रेगजारों से अदावत के गुजर जाएंगे।’
दुश्मनी,
घृणा,
वैमनस्य
के मरुस्थल जो हमें घेरे हैं,... ‘रेगजारों से अदावत के गुजर जाएंगे।’
इन
मरुस्थलों से हम गुजर जाएंगे।
‘खून के दरियाओं से हम पार उतर जाएंगे।’ शत्रुताओं के,
युद्धों
के, अशांतियों
के...।
गुफ्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले।
शब्द और शब्द में भेद है। ‘सब्द सब्द
बहु अंतरा।’
सारा को पकड़ना, असार को छोड़ देना। और तुम्हारी हालत
उलटी हैः असार को पकड़ लेते हो और सार को छोड़ देते हो! अगर कहीं कोई किसी की निंदा
कर रहा हो, तो तुम ऐसी तल्लीनता से सुनते हो, तुम्हें
जम्हाई नहीं आती!
तुमने कभी किसी की निंदा सुनते वक्त देखा कि जम्हाई आई हो?
आती
ही नहीं। लेकिन अगर कहीं सत्संग चलता हो, तो जम्हाई आने लगती है। कहीं
गाली-गलौच चलती हो, तो तुम बड़े चैकन्ने हो जाते हो; तुम्हारी रूह
जग जाती है; तुम्हारी आत्मा बड़ी जाग्रत हो जाती है।
दो आदमी रास्ते पर लड़ रहे हों और छुरे निकल आएं हों, तो
तुम हजार काम छोड़ कर वहीं खड़े हो जाते हो-- साइकिल टिका कर--कि अब देख ही लें।
तुम्हारी जिंदगी में बड़ा रस आ जाता है।
तुम व्यर्थ को बड़े ध्यानपूर्वक देखते हो। और व्यर्थ को बड़े
ध्यानपूर्वक सुनते हो।
तुमने देखा नः लोग अपने-अपने ट्रांजिस्टर रेडिओ लिए कान से
लगाए बैठे रहते हैं! सत्संग चल रहा है! कहीं कचरा छिटक के गिर न जाए, तो
कान से ही लगाए बैठे हैं--कि बिलकुल कान में ही पड़ता जाए। फिर अगर तुम जिंदगी के
अंत में कूड़ा-कबाड़ के एक ढेर हो जाते हो, तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। और कोई
म्युनिसिपल का ठेला भी नहीं आता कि रोज तुम्हारा कचरा निकाल कर ले जाए। वह बढ़ता ही
जाता है, बढ़ता ही जाता है।
‘सब्द सब्द बहु अंतरा, सार सब्द चित देय।’ वही
सार है, जो तुम्हें स्वयं से मिला दे। ऐसे शब्दों को चित्त देना;
बाकी
शब्दों को त्याग कर देना। कोई निंदा करे, तो कहनाः क्षमा करो; क्यों
व्यर्थ तुम अपना मुंह खराब करते; मेरे कान खराब करते!
कोई प्रभु का भजन गाता हो, सुन
लेना--हृदयपूर्वक सुन लेना। कोई उकसाता हो, भड़काता हो,
जलाता
हो, कोई
राजनेता आकर उकसाता हो, उससे क्षमा मांग लेना--कि, ‘भैय्या,
रास्ता
पकड़ो। कहीं और जाओ। मुझे बख्सो। हम वैसे ही भड़के बैठे हैं; अब और न
भड़काओ। ऐसे ही क्रोध जल रहा है और न जलवाओ। तुम अपनी ये आग कहीं और ले जाओ।’
लेकिन
तुम बड़ी उत्सुकता से सुनते हो।
जब राजनेता गांव में आता है, देखते हैं,
लोग
कैसे भागे चले जाते हैं! बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। कचरा है वहां, लेकिन
भीड़ वहां पहुंच जाती है। तुम बड़ी उत्सुकता से पहुंचते हो, जैसे कुछ
बहुमूल्य ले आओगे। हद्द पागलपन है, मगर है। और सजग होकर तुम्हें ध्यान देना
पड़ेगा अन्यथा तुम भी उसी रौ में बहते चले जाओगे।
सब्द सब्द बहु अंतरा, सार सब्द चित देय।
जा सब्दै साहब मिलै, सोई सब्द गहि लेय।।
जिससे परमात्मा मिलता हो, ऐसे शब्द को
गह लेना; बाकी सब छोड़ देना। यह रहे कसौटी।
‘सब्द बराबर धन नही, जो कोई जानै बोल।’ शब्द
में बड़ा धन है, लेकिन ‘जो कोई जानै बोल। हीरा तो दामों मिलै,
सब्द
ही मोल न तोल।’
अगर कोई सद्गुरु मिल जाए, सद्-वचन मिल
जाएं; कोई वचन--जो तुम्हारे प्राणों के घाव भर जाएं; कोई
वचन, जो
तुम्हारे प्राणों को निद्रा से मुक्त कर जाएं; कोई वचन जो
तुम्हारे सपने और भ्रम छीन लें और तुम्हें सत्य दे जायें।
हीरा ता दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल।।
सीतल सब्द उचारिए, अहम आनिए नाहिं।
सुनना भी ऐसे शब्द, जो शांति और शीतलता से आते हों।
क्रोध, वैमनस्य, हिंसा, और घृणा के
शब्द नहीं। युद्ध और जहर से भरे हुए शब्द नहीं।
सुनना शब्द जो शीतल से आते हों। और बोलना भी शब्द ऐसे, जो
शीतल हों। जब क्रोध मन में भरे, चुप रह जाना। अभी तुम जो भी बोलोगे,
वह
घातक होगा।
जब घृणा मन में उमगे, तब एकांत मे बैठ जाना। प्रभु को
स्मरण करना। अभी किसी से कुछ भी मत कहना। जब हृदय प्रफुल्लित हो, आंनद
से नाचता हो, उत्सव मनाता हो, धन्यवाद देने का भाव उठता हो,
अहोभाव
भरा हो, तब कुछ बोलना, तो तुम्हारे बोलने में संगीत होगा;
तुम्हारे
बोलने में सार होगा।
‘तेरा प्रीतम तुज्झ में, सत्रु भी तुझ
माहिं।’ ये शब्द जो हैं, अगर सार-सार पकड़ो, तो
मित्र बन जाता है; तुम्हारा प्रीतम से मिलाने वाला द्वार बन जाएगा। और ये शब्द,
अगर
असार पकड़ने लगे, तो यही तुम्हारी फांसी हो जाएगी; यही तुम्हारी
शत्रुता; यही तुम्हारा शत्रु हो जाएगा।
तेरा प्रीतम तुज्झ में, सत्रु भी तुझ
माहिं।
सीतल सब्द उचारिए, अहम आनिए नाहिं।।
अहंकार छोड़ो, क्योंकि अहंकार ही गर्मी है।
मैंने सुना हैः एक सूफी संत हुए--सूफी संत खैराबादी; वे
अपने गुजारे के लिए सब्जी बेचा करते थे। भोले आदमी थे, सो बहुत लोग
उन्हें खोटा सिक्का दे जाते थे। यहीं तक नहीं, कुछ चालाक
आदमी तो यह खोटा सिक्का तुम्हारी दुकान से ही हमारे पास आया है, कह
कर, उनसे
बदलवा भी ले जाते थे। लेकिन खैराबादी उसे चुपचाप स्वीकार कर लेते। और जब भी कोई
खोटा सिक्का उनको दे जाता, तो लोग हमेशा देखते कि--जब भी कोई खोटा
सिक्का देता, तो वे आकाश की तरफ देखते और हाथ जोड़ते।
यह जिंदगी भर की उनकी आदत थी। फिर उनका अंत समय आया, तब
उन्होंने प्रार्थना की, ‘हे परवर दिगार, सारी जिंदगी
मैं खोटे सिक्के स्वीकार करता रहा। किसी का भी खोटा सिक्का लेने से मैंने इनकार
नहीं किया। मैं भी एक खोटा सिक्का हूं और अब तुम्हारे पास आ रहा हूं, मुझे
वापस न लौटा देना!’
तब लोगों ने समझा कि वे जिंदगीभर क्यों आकाश की तरफ आंख उठा
लेते थे--जब कोई खोटा सिक्का उनको दे जाता था। तब यही प्रार्थना वे जीवन भर करते
रहे ‘हे
परवरदिगार, सारी जिंदगी मैंने खोटे सिक्के स्वीकार किए हैं। किसी का भी
खोटा सिक्का लेने से मैंने इनकार नहीं किया। अब मैं भी एक खोटा सिक्का हूं;
अब
तेरे द्वार आ रहा हूं। मुझे इनकार मत कर देना!
यह है निर-अहंकार भाव--मैं भी एक खोटा सिक्का हूं।
परमात्मा के सामने तुम अहंकार लेकर जाओगे, तो
जाओगे ही कैसे? अहंकार तो पत्थर की दीवाल की तरह तुम्हारे सामने खड़ा होगा। तुम
परमात्मा को पा न सकोगे। तुम तो वहां मिट कर जाओगे, तो ही मिलन
है।
और अभी से मिटाना शुरू करो। गर्मी से तुम्हारा अहंकार बढ़ता है।
क्रोध से, घृणा-वैमनस्य से तुम्हारे अहंकार को भोजन मिलता है।
‘सीतल सब्द उचारिए।’ शीतल हो रहो। और शीतल शब्द बोलो।
शांति को अपने जीवन की व्यवस्था बना लो। वही तुम्हारी शैली हो।
शांत होते-होते, साधक होते-होते एक दिन साधु हो
जाओगे। साधु होते-होते एक दिन सिद्ध भी हो जाओगे।
‘साधो, सब्द साधना कीजै।’
यह है शब्द की साधना।
आज इतना ही।
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