मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-05


अप्रमाद—(प्रवचन—पांचवां)

5 सितंबर 1970, षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,
मनुष्य एक सात मंजिला मकान है, ए सेवन-स्टोरी हाउस, लेकिन हम एक मंजिल में ही जीते और मर जाते हैं। पहले उन सात मंजिलों के नाम आपको समझा दूं। जिस मंजिल में हम जीते हैं, उस मंजिल का नाम कांशस, चेतन है। उस मंजिल के ठीक नीचे दूसरी मंजिल है, जो तलघरे में है, जमीन के नीचे है, अंडरग्राउंड है। उस मंजिल का नाम है अनकांशस, अचेतन। उस मंजिल के भी और नीचे पाताल की तरफ तीसरी मंजिल है, उसका नाम है कलेक्टिव अनकांशस, समष्टि अचेतन। और उसके नीचे भी एक चौथी मंजिल है, और भी नीचे, सबसे नीचे, उस मंजिल का नाम है, कॉस्मिक अनकांशस, ब्रह्म-अचेतन। जिस मंजिल पर हम रहते हैं उसके ऊपर भी एक मंजिल है, उस मंजिल का नाम है सुपर-कांशस, अति-चेतन। उसके ऊपर एक मंजिल है जिसको कहें कलेक्टिव कांशस, समष्टि चेतन। और उसके भी ऊपर एक मंजिल है जिसे कहें काॅस्मिक कांशस, ब्रह्म-चेतन। जहां हम हैं उसके ऊपर तीन मंजिलें हैं और उसके नीचे भी तीन मंजिलें हैं। यह मनुष्य का सात मंजिलों वाला मकान है। लेकिन हममें से अधिक लोग चेतन मन में ही जीते और मर जाते हैं।

आत्मज्ञान का अर्थ है, इस पूरी सात मंजिल की व्यवस्था से परिचित हो जाना। इसमें कुछ भी अपरिचित न रह जाये, इसमें कुछ भी अनजाना न रह जाये। क्योंकि इसमें यदि कुछ भी अनजाना है तो मनुष्य अपना मालिक, अपना सम्राट कभी भी नहीं हो सकता। जो अनजाना है वही उसकी गुलामी है। वह जो अज्ञात है, वह जो अंधकार पूर्ण है, वही उसका बंधन है। वह जो नहीं जाना गया, वह नहीं जीता गया है। अज्ञान ही हार है और ज्ञान ही विजय की यात्रा है।
इस सात मंजिल के भवन में हम सिर्फ एक मंजिल को जानते हैं जिसमें हम अपने को पाते हैं, जहां हम हैं। इस मंजिल में ही जीते रहने का नाम प्रमाद है। इस मंजिल में ही बने रहने का नाम प्रमाद है। प्रमाद का अर्थ है--मूर्च्छा । प्रमाद का अर्थ है--बेहोशी। प्रमाद का अर्थ है--निद्रा। प्रमाद का अर्थ है--तंद्रा। प्रमाद का अर्थ है--सम्मोहित अवस्था, हिप्नोसिस। हम इस एक मंजिल से इस तरह हिप्नोटाइज हो गये हैं, हम इस एक मंजिल से इस तरह सम्मोहित हो गये हैं कि हम इधर-उधर देखते ही नहीं। हमें पता भी नहीं चल पाता है कि हमारे व्यक्तित्व में, हमारे जीवन में, हमारे होने में और भी बहुत फैलाव है।
साधना का अर्थ है, इस प्रमाद को तोड़ना, इस मूर्च्छा को तोड़ना। स्वभावतः इसे मूर्च्छा क्यों कहें? इसे प्रमाद क्यों कहें? एक आदमी के पास सात मंजिल का मकान हो और वह एक ही मंजिल में रहता हो और उसे दूसरी मंजिलों का पता न चले तो हम क्या कहेंगे? क्या वह आदमी जागा हुआ है? यदि वह आदमी जागा हुआ है तो उसके बाकी मंजिलों से अपरिचित रहने की संभावना नहीं है। हां, यही हो सकता है कि एक आदमी अपने मकान की एक ही मंजिल से परिचित हो और छह मंजिलों से अपरिचित हो। यह तभी संभव है जब वह एक मंजिल में सोया हुआ हो, अन्यथा उसे पता चलना शुरू हो जायेगा। हम सोये हुए लोग हैं, इसलिए हम जहां हैं वहीं जी लेते हैं। हमें कुछ और पता नहीं चलता।
पश्चिम का मनोविज्ञान अभी तक इतना ही मानता था कि यह जो चेतन मन है, यह जो कांशस माइंड है, यही मनुष्य है। लेकिन जैसे-जैसे उन्होंने सोच-विचार किया, थोड़ी खोज-बीन की तो फ्रायड को पहली दफा अनुमान आना शुरू हुआ कि नीचे कुछ और भी है। चेतन ही सब कुछ नहीं है, कुछ और नीचे है, और वह ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम हुआ। अनकांशस की खोज फ्रायड ने की। अचेतन की खोज की और पश्चिम के मनोविज्ञान ने दो बातें स्वीकार कर लीं, चेतन-मन और अचेतन-मन।
लेकिन फ्रायड की खोज अनुमान है, अनुभव नहीं। अनुभव साधना के बिना नहीं हो सकता। अपनी मंजिल में रहते हुए हमें कभी-कभी शक हो सकता है, नीचे की कुछ आवाज आती है, पता नहीं नीचे भी कुछ हो। कभी-कभी नीचे से धुआं आ जाता है, कभी-कभी नीचे से आग की लपटें आ जाती हैं, और हमें लगता है कि नीचे भी जरूर कुछ होना चाहिए। लेकिन यह अनुमान है। रहते हम अपनी ही मंजिल में हैं, हम नीचे उतर कर नहीं गये, यह अनुभव नहीं है।
फ्रायड ने पश्चिम में जिस अनकांशस की बात की है वह फ्रायड का अनुभव नहीं है, इनफरेंस है, अनुमान है। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान अभी भी योग नहीं बन पाया। मनोविज्ञान उस दिन योग बन जायेगा जिस दिन अनुमान अनुभव बनता है। और मजे की बात है कि फ्रायड जैसा खोजी आदमी, जो कहता है कि नीचे कुछ और भी है मनुष्य के, जिसका मनुष्य को पता नहीं, वह भी इस नीचे के मन से उसी तरह प्रभावित होता है, जैसे वे लोग प्रभावित होते हैं जिन्हें पता नहीं है।
अनुमान से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ सकता। फ्रायड को उसी तरह क्रोध पकड़ लेता है जैसे उन लोगों को पकड़ता है जिन्हें अचेतन का कोई पता नहीं है। फ्रायड को उसी तरह से चिंताएं पकड़ती हैं जैसे उन्हें पकड़ती हैं जिन्हें अचेतन का कोई पता नहीं है। अचेतन का जो काम है वह फ्रायड के ऊपर उसी भांति जारी है जिस भांति उन पर जारी है जिन्हें अचेतन का कोई खयाल नहीं है। अनुमान है, लेकिन अनुमान भी बड़ी बात है। फिर फ्रायड के एक सहयोगी ने काम करते-करते अनकांशस के नीचे का भी अनुमान कर लिया। गुस्ताव जुंग ने कलेक्टिव अनकांशस का भी अनुमान कर लिया कि वह जो अचेतन मन है उसके नीचे भी कुछ चीजें मालूम पड़ती हैं। वहीं सब खतम नहीं हो जाता। लेकिन वह भी अनुमान ही है, अनुभव नहीं है। योग अनुभव की यात्रा है। योग स्पेकुलेटिव नहीं है, योग सिर्फ विचार नहीं है, योग अनुभूति है।
यह जो तीन मंजिलें ऊपर फैली हैं और तीन मंजिलें नीचे फैली हैं, इनका हमें तब तक पता नहीं चलेगा जब तक हम अपनी मंजिल में सोये हुए हैं। इसलिए पहले हम अपने सोये हुए होने के तथ्य को ठीक से समझ लें तो जागने की यात्रा शुरू हो सकेगी।
क्या आपने कभी यह खयाल किया कि आप एक सोये हुए आदमी हैं? शायद नहीं खयाल किया होगा। क्योंकि सोये हुए आदमी को इतना भी पता चल जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो जागने की शुरुआत हो जाती है। असल में इतनी बात का भी पता चलना कि मैं सोया हुआ हूं, जागने की खबर है। नींद में यह भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हुआ हूं, यह भी पता जागने में ही चल सकता है। पागल को यह भी पता नहीं चलता कि मैं पागल हूं, यह भी गैर-पागल को ही पता चल सकता है। नींद में आपने कभी नहीं जाना कि आप सोये हैं, जागकर आपको पता चलता है कि अरे! मैं सोया हुआ था। सोये हुए होने का अनुभव भी जागने का अनुभव है, नींद का अनुभव नहीं है।
इसलिए मैं आशा नहीं करता कि आपको पता चला होगा कि आप सोये हुए हैं। लेकिन जो जाग गये हैं, वे कहते हैं कि आप सोये हुए हैं। थोड़ी-सी बातें की जा सकती हैं जिनसे शायद आपको खयाल आ जाये।
एक आदमी है, क्रोध करता है, गालियां बकता है। सांझ को क्षमा मांगने आता है और कहता है, माफ करें। जो मैं नहीं कहना चाहता था वह कह गया, इनस्पाइट ऑफ मी! वह कहता है, मेरे बावजूद! मैं नहीं चाहता था, और बातें हो गयीं, माफ करें।
क्या उस आदमी से पूछा जा सकता है कि तुम यदि नहीं चाहते थे तो बातें कैसे हो गयीं? क्या तुम जागे हुए थे या सोये हुए थे?
क्या आपने क्रोध करके हर बार यह अनुभव नहीं किया है कि कुछ जो नहीं करना था वह आपने कर लिया? अगर ऐसा अनुभव किया है तो इसका मतलब है कि जो किया गया वह नींद में किया गया होगा, अन्यथा यह बात उसी वक्त पता चल सकती थी कि जो नहीं करना है वह हम कर रहे हैं।
स्वामी आनंद एक रात मेरे साथ रुके थे, तो उन्होंने एक संस्मरण मुझे सुनाया। उन्होंने कहा कि गांधीजी के बिलकुल प्राथमिक जीवन का...जब वे हिंदुस्तान आये हुए थे और किसी सभा में उन्होंने अंग्रेजों के लिए अपशब्द बोले और गालियां दीं। स्वामी आनंद ने, उन्होंने जो बोला था, उसकी पत्रों में रिपोर्ट की, अखबारों में खबर भेजी, लेकिन स्वामी आनंद ने वे शब्द निकाल दिये जो गांधीजी ने उपयोग किये थे। क्योंकि वे कठोर थे, कटु थे, विषाक्त थे, गालियां थीं, अपशब्द थे, वे अलग कर दिये। और फिर दूसरे दिन स्वामी आनंद गांधीजी के पास वह रिपोर्ट लेकर गये और कहा, मैंने उतनी चीजें अलग कर दीं। तो गांधीजी ने उनकी पीठ ठोंकी और कहा, बहुत ठीक किया जो अलग कर दिया, क्योंकि जो मुझे नहीं कहना चाहिए था वह मैंने कह दिया। स्वामी आनंद मुझसे बोले कि गांधीजी ने मेरी पीठ ठोंकी और कहा कि तुम ठीक पत्रकार हो। मैंने स्वामी आनंद से कहा, आपने गांधीजी के अहंकार की तृप्ति की और गांधीजी ने आपके अहंकार की तृप्ति कर दी। एक दूसरे की पीठ ठोंक दी। मैंने कहा, एक दूसरा प्रयोग कभी किया कि नहीं? गांधीजी ने गालियां न दी हों और आप अखबार में जोड़ कर लिख आते कि गालियां दीं। फिर वे पीठ ठोंकते तो पता चलता! हालांकि दोनों बातें एक-सी हैं।
रिपोघटग झूठी है। स्वामी आनंद ने जो रिपोर्ट की वह झूठ है। अगर गाली दी गयीं थीं तो दी गयीं थीं उन्हें रिपोर्ट किया जाना चाहिए। लेकिन गांधीजी ने कहा, अच्छा किया तुमने वह निकाल दिया, क्योंकि जो मुझे नहीं कहना चाहिए था वह मैंने कहा था। अगर जो नहीं कहना चाहिए था वह कहा था तो गांधीजी उस वक्त होश में थे, या बेहोश थे?
हम पश्चात्ताप इसीलिए करते हैं कि हम बेहोशी में कुछ कर जाते हैं और फिर जब थोड़ा-सा होश का क्षण आता है तो पछताते हैं। होश से जीने वाले आदमी की जिंदगी में पश्चात्ताप नहीं होता, रिपेंटेंस नहीं होता। क्योंकि वह जो कर रहा है वह पूरी तरह जान कर कर रहा है। पश्चात्ताप का कोई कारण ही नहीं है।
क्या आपकी जिंदगी में ऐसे मौके रोज नहीं आये हैं कि जब आप पछताते हैं? अगर पछताते हैं, तो समझ लेना कि आप सोये हुए आदमी हैं। जो आप करते हैं क्या उसके करने का पूरा कारण आपके होश में होता है? आप किसी के प्रेम में पड़ जाते हैं, अंग्रेजी में अच्छा शब्द है, हम कहते हैं कि फालिंग इन लव! शब्द उपयोग करते हैं, फालिंग; शब्द उपयोग करते हैं, प्रेम में गिर जाना। प्रेम में उठ जाना होना चाहिए। राइजिंग इन लव! लेकिन प्रेम में लोग गिरते हैं। उसका कारण है। शब्द ठीक है। शब्द इसलिए ठीक है कि प्रेम हम करीब-करीब सोयी हुई हालत में करते हैं। मूर्च्छित हो जाते हैं।
इसलिए अक्सर प्रेमी कहते हैं कि यह प्रेम मैंने किया नहीं, हो गया! हो गया का क्या मतलब है? नींद में चीजें होती हैं, जागने में की जाती हैं। आपने प्रेम किया है, या हो गया है? अगर हो गया है तो आप बेहोश आदमी हैं, सोये हुए आदमी हैं। आपका प्रेम आपका नहीं है, किसी अचेतन मार्ग से आया है। जब आप क्रोध करते हैं तो आप करते हैं या हो जाता है? अगर करते हैं तब तो ठीक, लेकिन अगर हो जाता है तो फिर आप जागे हुए आदमी नहीं, सोये हुए आदमी हैं।
हम जो भी कर रहे हैं, उसके हम कर्ता हैं या वह सब हमारे ऊपर घटित हो रहा है? एक पंखे का बटन हम दबाते हैं, पंखा चलता है। अगर पंखा दूसरे पंखों से कहता होगा तो यह नहीं कह सकता कि मैं चलता हूं। वह इतना ही कह सकता है कि चलना मुझ पर घटित होता है। हम मशीन हैं कि मनुष्य? हम पर चीजें घट रही हैं, या सचेतन रूप से हम उन्हें कर रहे हैं? नहीं, हम कर नहीं रहे, यही हमारा प्रमाद है।
बुद्ध साधक अवस्था के पहले एक गांव से गुजरते थे। रास्ते पर थे। किसी भिक्षु से बात करते थे और एक मक्खी उनके गले पर आकर बैठ गयी। बातचीत जारी रखी और मक्खी को उड़ा दिया। जैसा हम सबने उड़ाया होता। बातचीत जारी रखी, मक्खी को उड़ा दिया। फिर ठहर गये और आंखें बंद कर लीं। मक्खी तो उड़ गई थी, पर वह जो भिक्षु साथ था बहुत हैरान हुआ, और बुद्ध उस जगह हाथ ले गये जहां मक्खी बैठी थी, अब नहीं थी, और मक्खी को फिर से उड़ाया। उसी मक्खी को, जो अब वहां नहीं थी। उस भिक्षु ने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं? मक्खी तो अब नहीं है। बुद्ध ने कहा कि नहीं, अब मैं उस तरह उड़ा रहा हूं जैसा मुझे उड़ाना चाहिए था! मैंने बेहोशी में मक्खी उड़ा दी। मैं तुमसे बात करता रहा, हाथ ने यंत्रवत मक्खी को उड़ा दिया। मैं पूरे होश में न था, मक्खी के साथ दर्ुव्यवहार हो गया! उड़ा दिया तब मुझे पता चला कि मैंने उड़ा दिया। जब मैं उड़ा रहा था तब मुझे पता ही नहीं था कि मैं उड़ा रहा हूं। तो बुद्ध ने कहा, "अब मैं उस तरह उड़ा रहा हूं जैसे मुझे उड़ाना चाहिए था। होशपूर्वक, कांशसली।
हम सब सोये हुए लोग हैं, हम जो भी कर रहे हैं वह सोये हुए कर रहे हैं। प्रेम, घृणा, दोस्ती, दुश्मनी, क्रोध, क्षमा, प्रायश्चित, सब सोये हुए हो रहा है। अगर हम अपनी जिंदगी का पूरा हिसाब लगायें तो वह हमें स्वप्न जैसी मालूम पड़ेगी। जिंदगी जैसी नहीं मालूम पड़ेगी। अगर आप लौट कर पीछे की तरफ देखें जितनी जिंदगी आपकी गुजर गयी तो वह ऐसी नहीं लगेगी कि जीये आप, वह ऐसी लगेगी जैसे आपको जीया गया। यू हैव बीन लिव्ड। कुछ आपके ऊपर से गुजरता गया है। एक फिल्म की तरह आपके ऊपर से कोई चीज गुजरती गई है। इस अवस्था का नाम प्रमाद है--मैन एस्लीप। रात की नींद की बात नहीं कर रहा हूं, दिन की नींद की बात कर रहा हूं। हम जागे हुए भी सोये हुए हैं। चौबीस घंटे हम सोये हुए हैं। कभी-कभी किसी खतरे के क्षण में थोड़ी देर को जागरण आता है, अन्यथा नहीं।
अगर मैं एक छुरा अचानक आपकी छाती पर रख दूं तो एक क्षण को आप जाग जायेंगे। उस क्षण में आप सोये हुए नहीं होंगे। क्योंकि इमरजेन्सी, संकट का क्षण होगा वह। उस वक्त सोये रहना खतरनाक है। अगर अचानक छाती पर कोई छुरा रख दे तो एक क्षण को कोई चीज आपके भीतर, जो सोयी थी, एकदम जागेगी। तब आप भी न रह जायेंगे, छुरा रखने वाला भी न रह जायेगा, सिर्फ चेतना रह जायेगी जो छुरे के रखने को जान रही है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चलेगा, यह बहुत क्षणिक होगा। तत्काल भय पकड़ लेगा, भागने लगेंगे, सब खो जायेगा, फिर आप सो जायेंगे।
कभी किसी खतरे के क्षण में, एकाध क्षण को हम जागते हैं। अगर आम आदमी की जिंदगी में जागने के क्षणों का हिसाब लगाया जाये तो अस्सी वर्ष की उम्र में आठ क्षण भी खोजना कठिन है जब वह जागा हुआ हो। इसलिए हमारे मन में खतरे की भी एक इच्छा पैदा होती है। खतरे में भी थोड़ा रस आने लगता है, क्योंकि खतरे में हम जागते हैं। खतरे की एक अपनी सेंसिटिविटी है।
एक आदमी जुए पर दांव लगा देता है। लाख रुपये लगा दिये उसने। अब एक क्षण को वह जागेगा, जब तक यह तय नहीं होता कि हार गया या जीत गया। क्योंकि इतना संकट का क्षण है कि उसकी श्वास रुक जायेगी, उसकी चेतना ठहर जायेगी, और वह प्रतीक्षा करेगा कि क्या हो रहा है। इतना संकट का क्षण है कि वह सो नहीं सकता। शायद आपको पता नहीं होगा कि जुए का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। खतरे का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। हम हजार तरह के खतरे चुनते हैं, हजार तरह के जुए चुनते हैं, जिनमें हम क्षण भर को जाग पाते हैं। लेकिन वह इतनी क्षणिक घटना है कि हम जाग भी नहीं पाते हैं और फिर सो जाते हैं। और फिर नींद शुरू हो जाती है। इन आकस्मिक उपायों से कोई कभी पूरी तरह जाग नहीं सकता। लेकिन आपको समझाने के लिए मैं कह रहा हूं कि आपको यह प्रमाद की सोयी हुई अवस्था खयाल में आ जाये। अगर आपको यह स्मरण आ जाये कि आप सोये हुए आदमी हैं, और ऐसे काम कर रहे हैं जो नहीं करना चाहते; इस तरह जी रहे हैं, जैसे नहीं जीना चाहते; इस तरह बैठ रहे हैं, उठ रहे हैं, जैसे नहीं उठना-बैठना चाहते; इस तरह के आदमी बनते जा रहे हैं, जिस तरह के नहीं बनना चाहते।
मार्क ट्वेन ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, लिखा है कि मैं एक कहानी लिख रहा था और कहानी में मैंने तय किया था कि कौन-कौन सा पात्र क्या-क्या काम करेगा। लेकिन जब कहानी पूरी हुई तो मैंने देखा कि पात्रों ने वह काम तो किया ही नहीं, पात्रों ने तो दूसरा काम कर डाला है। तब मार्क ट्वेन ने लिखा, ऐसा लगता है कि मेरे द्वारा पात्र जन्मे जरूर, लेकिन धीरे-धीरे वे स्वतंत्र हो गये और कुछ ऐसे काम करने लगे जो कि मैं नहीं चाहता था। नायक से जो करवाना चाहता था वह न करके वह कुछ और करने लगे तो अब नायक कहानी का क्या करेगा और कुछ...? नहीं, मार्क ट्वेन समझ नहीं पा रहा। असल में मार्क ट्वेन ने जिस वक्त चाहा था कि पात्र यह करे, वह मार्क ट्वेन ही सोया हुआ है। इसलिए पात्र वही कैसे करेंगे। फिर दूसरा सोया हुआ मार्क ट्वेन कुछ और करवा लेगा, तीसरा कुछ और करवा लेगा।
इसलिए कहानी लेखक जो सोचकर कहानी शुरू करता है, वही कहानी कभी पूरी नहीं होती। कहानी कहीं और पूरी होती है। कवि जहां से कविता शुरू करता है, कविता वहीं पूरी नहीं होती। कविता कहीं और पूरी होती है। क्योंकि कांशस आर्ट तो पैदा ही नहीं हुआ। जिसको सचेतन कला कहें वह अभी पैदा नहीं हो पाई। जिसको आब्जेक्टिव आर्ट कहें वह अभी पैदा नहीं हो पाया। अभी तो सोये हुए आदमी कविताएं लिखते हैं। तो कुछ शुरू करते हैं और कुछ हो जाता है। सोये हुए आदमी चित्र बनाते हैं, कुछ बनाना चाहते हैं कुछ बन जाता है। सोये हुए आदमी कहानियां लिखते हैं, कुछ लिखना चाहते हैं कुछ लिख जाता है। सोये हुए राजनीतिज्ञ दुनिया चलाते हैं, कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है।
सोये हुए आदमी के साथ भरोसा नहीं है। लेकिन कहानी की बात छोड़ दें। जिंदगी में आप जो बनना चाहते थे वह बन पाये? शायद ही दुनिया में एकाध आदमी मिले जो कहे, मैं वही बन गया जो बनना चाहता था। सब आदमी कुछ बनना चाहते हैं।
पहली तो बात यह भी साफ नहीं होती कि क्या बनना चाहते हैं। क्योंकि नींद में कैसे साफ हो सकता है? पता ही नहीं चलता। एक धीमी-सी, सोयी-सी आकांक्षा होती है कि मैं यह बनना चाहता हूं। लेकिन कहीं यह बहुत साफ नहीं होता है कि क्या बनना चाहता हूं। हालांकि यह जरूर पता लगता रहता है कि मैं वह नहीं बन पा रहा हूं जो मैं बनना चाहता था। और जब जिंदगी अंत होती है तो शायद ही कोई आदमी यह कह सके कि मैं वही बनकर जा रहा हूं जो मैं बनना चाहता था। नहीं, सभी आदमी कहीं और पहुंच जाते हैं; जहां वे कभी  नहीं पहुंचना चाहते थे। कुछ और बन जाते हैं, जो वे कभी बनना नहीं चाहते थे। जिंदगी कुछ और ही होती है जो कभी नहीं चाहा था उन्होंने कि हो। अगर आप को ऐसा लगे तो समझना कि आप सोये हुए आदमी हैं। मरते वक्त लगे तो फिर बहुत उपाय न रह जायेगा। अभी लगे तो कुछ उपाय हो सकता है। मरते वक्त सभी को लगता है कि जिंदगी बेकार गयी। जो होना चाहते थे वह नहीं हो पाये। हालांकि मरता हुआ आदमी भी साफ-साफ नहीं कह सकता कि क्या होना चाहते थे। लेकिन इतना जरूर उसे लगता है कि कुछ चूक गया कहीं, समथिंग मिसिंग। कुछ खो गया।
आपको भी लग रहा होगा। जिसमें भी थोड़ी बुद्धि है, उसे लगता है कि कोई चीज मिस हो रही है, खो रही है। कोई चीज नहीं हो पा रही है। वही फ्रस्ट्रेशन है, वही दुख है, वही चिंता है, वही पीड़ा है। आदमी की परेशानी यही है, कि प्रेम से वह जो पाना चाहता है, वह पाता है कि वह नहीं मिल पाया। प्रेम में जो करना चाहता है, पाता है कि वह कर ही नहीं पाया। आप तय करके जाते हैं किसी मित्र के घर कि यहऱ्यह बातें करूंगा। जब आप पहुंचते हैं तो आप पाते हैं कि आप कुछ और बातें कर रहे हैं। पति घर लौटता है तो यह तय करके लौटता है कि आज पत्नी से झगड़ा नहीं करना है। सब बातें तय करके लौटता है कि इस तरह व्यवहार करना है, यह कहना है, इस तरह प्रेम प्रकट करना है। पत्नी दिन भर में तय करके रखती है कि अब कल वाली सांझ फिर से न दुहर जाये। वह नहीं करना है, जो कल किया था। फिर अचानक जब वे दोनों आमने-सामने आते हैं तब पता चलता है कि कल की सांझ फिर वापस लौट आयी। जो तय किया था वह खो जाता है, जो नहीं तय किया था वह फिर हो जाता है। यह आदमी सोया हुआ आदमी है कि जागा हुआ आदमी है? नहीं, यह हमारी सोयी हुई अवस्था है।
महावीर ने इसे प्रमाद कहा है। प्रमाद अर्थात सोये हुए होना। यदि यह स्मरण आ जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो खोज शुरू हो सकती है। इसलिए अप्रमाद का पहला सूत्र है इस बात की समझ कि मैं सोया हुआ हूं, टु बी अवेयर आफ वन्सस्लीप। वह जो नींद है, उसका पहला बोध। और समझ लें कि जिस दिन आपको यह पता चल जाये कि आप सोये हुए हैं तो फिर सुबह करीब है। क्योंकि यह पता तभी चल सकता है जब नींद टूटने लगे।
नींद को तोड़ने का पहला सूत्र है, नींद को ठीक से पहचान लेना। यह आपसे पहला सूत्र कहता हूं कि आप सोये हुए आदमी हैं, इसे ठीक से समझ लेना। चाहे आप दूकान करते हों तो सोये हुए करते हैं, चाहे मंदिर जाते हों तो सोये हुए जाते हैं, चाहे मित्रता करते हों तो सोये हुए, चाहे शत्रुता करते हों तो सोये हुए। नींद हमारी चौबीस घंटे की स्थिति है।
दूसरी बात, अब इस सोये हुए होने का अनुभव हो जाये, पता चल जाये--और धार्मिक आदमी की शुरुआत इसी बात से होती है कि मैं प्रमादी हूं, इसका उसे अनुभव हो जाये। नहीं, लेकिन कुछ प्रमादी धर्म को भी नींद में साधते रहते हैं। मालाएं फेरते रहते हैं और झपकियां लेते रहते हैं। मंदिर में बैठे रहते हैं और झपकी लेते रहते हैं। व्रत करते रहते हैं और सोये रहते हैं। जैसे वे दूकान करते हैं, वैसे व्रत भी कर लेते हैं। सोये-सोये सब चलता रहता है। धर्म भी सोये-सोये हो जाता है। धर्म सोये-सोये नहीं हो सकता। सोये-सोये सिर्फ अधर्म हो सकता है। इसलिए धर्म के नाम पर भी अधर्म ही होता है। सोया हुआ आदमी धर्म के नाम पर भी अधर्म ही करता है। वह धर्म कर ही नहीं सकता। यह असंभव है। सोये हुए आदमी से धर्म का कोई संबंध नहीं हो सकता। नींद धर्म में नहीं ले जा सकती, नींद अधर्म में ही ले जाती है।
स्मरण आ जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो क्या किया जाये?
पहला सूत्र, सोये हुए होने का स्मरण। दूसरा सूत्र, इस नींद को तोड़ने के लिए क्या किया जाये? कौन-सा उपाय है?
और ध्यान रहे, जो आदमी अपनी इस मंजिल की नींद को तोड़ दे, वह इसके नीचे की मंजिल की सीढ़ियों पर पहुंच जाता है, अपने आप। अगर कोई आदमी चेतन मन में जाग जाये तो अचेतन में उतर जाता है। अचेतन में उतरने का सूत्र चेतन मन में जाग जाना है। जैसे कि हम नींद में जाग जायें तो हम जागरण में उतर जाते हैं। चित्त-दशा फौरन बदल जाती है। एक आदमी को नींद में हमने हिला दिया। वह जाग गया तो नींद गयी और जागना शुरू हो गया। दूसरी चित्त-दशा शुरू हो गयी। अगर हम स्वप्न में जाग जायें तो स्वप्न तत्काल टूट जाता है, और हम स्वप्न के बाहर हो जाते हैं। जिस चित्त की अवस्था में हम जी रहे हैं, वह जो कांशस माइंड है हमारा। अगर उसमें हम जाग जायें तो हम अचेतन मन में उतर जाते हैं। अनकांशस में उतर जाते हैं।
और इसके पहले कि मैं समझाऊं कि कैसे जागें, यह भी आपको समझा दूं कि जितने हम नीचे गहरे उतरते हैं, उतने ही हम ऊपर भी उठते जाते हैं। जीवन का नियम ऐसा ही है, जैसा वृक्षों का नियम है। जड़ें नीचे जाती हैं, वृक्ष ऊपर जाता है। साधना नीचे जाती है, सिद्धि ऊपर जाती है। जितनी गहरी जड़ें नीचे उतरने लगती हैं, उतने ही वृक्ष आकाश को छूने ऊपर बढ़ने लगता है। वह जो फूल खिलते हैं आकाश में उनका आधार नीचे पाताल में चली गयी जड़ों में होता है। अगर वृक्ष को ऊपर बढ़ना है तो उसे नीचे भी बढ़ना पड़ता है। उल्टा लगेगा, ऊपर बढ़ने के लिए नीचे भी बढ़ना पड़ता है। साधना सदा नीचे ले जायेगी, गहराइयों में, और सिद्धि सदा ऊपर उपलब्ध होगी, ऊंचाइयों में।
साधना एक डेप्थ है, गहराई है; और सिद्धि एक पीक है, ऊंचाई है। अपने में ही जो नीचे उतरेगा वह अपने में ही ऊपर जाने की उपलब्धि को पाता चला जाता है। सीधे ऊपर जाने का उपाय नहीं है। सीधे तो नीचे जाना पड़ेगा। कांशस से अनकांशस में, अनकांशस से कलेक्टिव अनकांशस में, कलेक्टिव अनकांशस से कास्मिक अनकांशस में। और प्रतिबार जब आप चेतन से अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ऊपर का भी एक दरवाजा खुल गया--सुपर कांशस का, अतिचेतन का दरवाजा खुल गया। जब आप कलेक्टिव अनकांशस में जायेंगे तो पायेंगे, ऊपर का एक दरवाजा और खुल गया--वह जो समष्टिगत चेतन है, उसका दरवाजा खुल गया। जब आप कास्मिक अनकांशस में जायेंगे, ब्रह्म अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ब्रह्म चेतन का, कास्मिक कांशस का दरवाजा भी खुल गया। जितने आप गहरे उतरते हैं उतने आप ऊंचे उठते जाते हैं। इसलिए ऊंचाई की फिक्र छोड़ दें, गहराई की फिक्र करें। जिस जगह हम हैं वहां से हम कैसे जागें।
अगर कोई आदमी पूछे कि हम तैरना कैसे सीखें? तो उसे हम क्या कहेंगे? उसे हम कहेंगे, तैरना शुरू करो। वह कहेगा, अभी मैं तैरना जानता ही नहीं तो शुरू कैसे कर सकता हूं? तब एक बड़ी उलझन पैदा होगी।
अगर मैं आपको नदी के किनारे ले जाऊं और कहूं कि मैं आपको तैरना सिखाता हूं तो आप कहेंगे, मैं तब तक पानी में नहीं उतरूंगा जब तक मैं तैरना न सीख लूं। और आपका तर्क सही होगा। सभी सही दिखाई पड़ने वाले तर्क जरूरी रूप से सत्य के निकट ले जाने वाले नहीं होते। आपका तर्क बिलकुल सही है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, मैं पानी में कैसे उतरूं? पहले मुझे तैरना सिखा दें, फिर मैं पानी में उतर जाऊंगा। यह बिलकुल तर्कयुक्त, लॉजिकल दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि जब तक आप पानी में न उतरें तब तक तैरना कैसे सीख सकते हैं? जब आप पानी में उतरेंगे तभी तैरना सीख सकते हैं। अगर पानी में उतरने को राजी नहीं हैं तो तैरना सिखाया नहीं जा सकता। मेरा तर्क भी तर्क है, पूरी तरह सही है। दोनों तर्कयुक्त बातें हैं। लेकिन मेरा तर्क अस्तित्व के निकट है, आपका तर्क सिर्फ विचार का तर्क है। आप विचार में बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि बिना तैरना सीखे मैं पानी में कैसे उतरूं! लेकिन आपको कुछ पता नहीं है कि तैरना सीखने के लिए भी पानी में उतरना पड़ता है। और पहली बार जब कोई पानी में उतरता है तो बिना तैरना सीखे ही उतरता है। असल में बिना सीखे, तैरने के लिए उतर जाने से ही सीखने की शुरुआत होती है, तैरने की शुरुआत होती है। हां, इतना है कि बहुत गहरे पानी में मत उतरें, उथले पानी में उतरें, इतने पानी में उतरें कि डूब भी न जायें और इतने पानी में उतरें कि तैर भी सकें। यहीं से शुरुआत करनी पड़ेगी।
तो आपसे मैं कोई परम-जागरण की आकांक्षा नहीं रखता हूं। थोड़े से पानी में उतरना शुरू करें। जहां आप सोये हुए हैं उन छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना शुरू करें। रास्ते पर चल रहे हैं, जाग कर भी चल सकते हैं, सो कर भी चल सकते हैं। अधिक लोग सोये हुए चलते हैं। अगर आप किनारे खड़े होकर रास्ते पर चलते लोगों को देखें तो अनेक उनमें से अपने से ही बातचीत करते हुए जाते हुए मालूम पड़ेंगे। कोई हाथ हिला रहा है, किसी को जवाब दे रहा है जो नहीं है; किसी के होंठ कंप रहे हैं, वह किसी से बात कर रहा है जो नहीं है। यह आदमी नींद में है। अगर आप सड़क के किनारे खड़े होकर घंटे भर सड़क पर चलते हुए लोगों को देखें तो आप हैरान हो जायेंगे कि इतने लोग सोये हुए चल कैसे रहे हैं? चलना सिर्फ हैबिट से हो रहा है। चलने के लिए जागने की बहुत जरूरत नहीं है। कभी-कभी कोई हॉर्न बजा देता है तो आदमी चौंक कर हट जाता है। जरा-सा जागता है, बाकी अपने सोये हुए चलता रहता है।
आप अपने घर पर जाकर नहीं पहुंचते। आपके पैर बिलकुल ही मशीन की भांति अपने घर की तरफ मुड़ जाते हैं। आप अपना दरवाजा चढ़ जाते हैं, घंटी दबा देते हैं। इस सब में कोई जागने की जरूरत नहीं होती। यह सब नींद में हो जाता है। हैबीच्युअल है, यह आदत है। साइकिल का हैंडल अपने आप घूम जाता है ठीक जगह पर। यह सब यंत्रवत हो रहा है और आप भीतर सोये रहते हैं। इसलिए हमें आदतों को दोहराने में आसानी पड़ती है, क्योंकि उनमें जागना नहीं पड़ता। नयी आदतें बनाने में कठिनाई होती है, क्योंकि उनके लिए थोड़ा-सा जागना पड़ेगा। फिर जब आदत बन जायेगी तब आप सो जायेंगे। इसलिए हम पुराने कामों को ही करते चले जाते हैं, बार-बार करते चले जाते हैं। क्योंकि वह नींद में चल रहा है सब।
एक आदमी अपनी सिगरेट मुंह में लगा लेता है। माचिस जला कर जला लेता है, पी लेता है, फेंक देता है। कोई नहीं कहेगा कि यह आदमी सोया हुआ है, क्योंकि हम कहेंगे अगर सोया हुआ होता तो हाथ जल जाता। नहीं, फिर भी सोया हुआ है। हाथ जलने के पहले जरा-सा जागेगा कि हाथ न जल जाये, सिगरेट फेंकेगा और वापस सो जायेगा, हैबीच्युअल है। आदत से पता है कि कब सिगरेट जलने के करीब आ गयी है तो हाथ फेंक देंगे। यह सब नींद में हो रहा है।
इन छोटी-छोटी क्रियाओं के प्रति जागना शुरू करना पड़ेगा। पहले उन क्रियाओं से शुरू करें, जो बहुत इनोसेंट हैं। जिनमें कोई ज्यादा झगड़ा नहीं है, बहुत निर्दोष हैं। रास्ते पर चल रहे हैं, खाना खा रहे हैं, स्नान कर रहे हैं, कपड़े पहन रहे हैं, इन बहुत छोटी क्रियाओं से शुरू करें जिनमें बहुत इनवॉल्वमेंट नहीं है, जिनमें बहुत ग्रसित नहीं हैं। हां क्रोध के प्रति जागना जरा गहरे में जाना होगा। यह उथले में है। अभी कपड़ा पहन रहे हैं, जागे हुए पहनें, बहुत हैरान हो जायेंगे। जागे हुए जूते पहनें, बहुत हैरान हो जायेंगे। अजीब लगेगा कि यह कैसी फीलिंग है, यह कैसा अनुभव है, यह तो कभी नहीं हुआ, जूते तो रोज पहनते हैं।
अभी मुझे सुन रहे हैं, सोये हुए सुन सकते हैं, जागे हुए सुन सकते हैं। जब मुझे सुन रहे हैं तो सिर्फ मुझे सुनें ही मत, सुन रहे हैं इसे भी जानते रहें। सिर्फ अगर मुझे सुन रहे हैं और उसको भूल गये जो सुन रहा है तो आप सोये हुए हैं। यह जो तीर है चेतना का, डबल ऐरोड होना चाहिए। दोहरे तीर होना चाहिए इसमें। एक तरफ, मेरी तरफ जो मैं बोल रहा हूं और एक अपनी तरफ जो सुन रहा है। अगर आपकी चेतना इस क्षण में भी दोनों तरफ हो जाये--सुने भी और यह भी जाने कि सुन रहे हैं--तो आप फौरन अनुभव करेंगे कि सुनने की क्वालिटी बदल गयी। अभी यहीं अनुभव करेंगे कि सुनने का गुणधर्म बदल गया, तब विचार न सकेंगे। तब सिर्फ सुन सकेंगे, क्योंकि अगर विचारा तो दूसरा तीर खो जायेगा। वह जो आपकी तरफ जाने वाला तीर है। अगर सिर्फ सुन रहे हैं, अगर सिर्फ देख रहे हैं, तो आपकी चेतना में अभी परिवर्तन शुरू हो जायेगा, नींद टूटने लगेगी और जागरण की किरण आने लगेगी।
छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना शुरू कर दें। फिर उन क्रियाओं में जागें जिनके लिए पछताना पड़ता है। क्रोध के लिए, घृणा के लिए, अभद्रता के लिए, उनके लिए जागना शुरू करें। अगर आप अपने जागने में सुबह से उठ कर सांझ तक जागने का प्रयोग करें तो थोड़े ही दिनों में आप एकदम दूसरे आदमी हो जायेंगे। आपका प्रमाद जागने में टूट जायेगा। और इसका सबूत क्या होगा कि आपका जागने में प्रमाद टूट गया? इसका सबूत यह होगा कि नींद में भी आपका जागरण शुरू हो जायेगा। जिस दिन आपकी जागरण में नींद टूटेगी उसी दिन आप नींद में भी कांशसली, सचेतन प्रवेश कर सकेंगे।
कितने मजे की बात है, हम रोज सोते हैं, हजारों बार सोये हैं, लेकिन हमें यह पता नहीं कि नींद क्या है? कब आती है? आप रोज सोते हैं, कितनी बार सोये हैं; लेकिन आपको पता है, नींद कब आती है? और कैसे आती है? और क्या है? नहीं, कुछ पता नहीं हमको। हमें सिर्फ इतना ही पता है कि कब तक हम जागे थे, बारह बजे रात तक जागे थे। फिर नींद कब आयी, किस क्षण में आयी, कैसे आपके ऊपर छा गयी, कैसे आप उसमें डूब गये, इसका आपको कभी पता हुआ है? इसका कोई पता नहीं। जिंदगी भर सोयेंगे। साठ साल आदमी जीता है तो बीस साल सोता है। इतनी बड़ी घटना जिसको बीस साल करनी पड़ती है, इसका भी हमें कोई परिचय नहीं होता कि सोने का अर्थ क्या है? यह सोना क्या है? यह नींद क्या है? क्या घटना घटती है मेरे भीतर?
नहीं, जो जागने में ही जागा हुआ नहीं है, वह नींद में कैसे जागेगा? पहले जागने में जागना पड़ेगा। और जिस दिन आप जाग जायेंगे उस दिन आप बहुत हैरान होंगे। जैसे मैं इस कमरे में बैठा हूं और अंधेरा घिर जाये तो मुझे दिखाई पड़ता है कि अंधेरा छा रहा है, अंधेरा घना हो गया, अंधेरा पूर्ण हो गया। फिर रोशनी आ जाये तो मुझे दिखाई पड़ता है, रोशनी आयी, रोशनी घनी हुई, रोशनी भर गयी। लेकिन मैं दोनों को जानता हूं। न तो आप जानते हैं कि कब आप सोये, कैसे नींद का अंधेरा आपके ऊपर गिरा और कैसे आप नींद में डूब गये; न आप जानते हैं, सुबह नींद कैसे हटी, कैसे समाप्त हुई, कैसे विदा हो गयी। जिस दिन आप जागरण की घड़ियों में जाग जायेंगे और जागने की क्रियाएं जाग कर करने लगेंगे, जैसे खाना होशपूर्वक खायेंगे, कपड़े होशपूर्वक पहनेंगे, रास्ते पर होशपूर्वक चलेंगे...।
महावीर से किसी ने पूछा कि हम क्या करें? तो महावीर ने कहा, क्या करने की उतनी फिक्र मत करो, जो करते हो उसे होशपूर्वक करो।
क्रोध होशपूर्वक करके देखें, लेकिन बहुत कठिनाई होगी। जरा गहरे में है बात। तो फिर एक उपाय करें, एक्टिंग करें किसी दिन क्रोध की, तब आप उसमें आसानी से जाग सकेंगे। आज आप घर जायें तो तय करके जायें कि टूट पड़ना है किसी के ऊपर--बिलकुल एक्टिंग--अकारण, तो आप आसानी से जाग सकेंगे। तय करके जायें। कोई कारण नहीं है पत्नी का--ऐसे भी कोई कारण नहीं होता, लेकिन तब आप बेहोश होते हैं--तय करके जायें कि पत्नी का कोई कारण नहीं, अकारण टूट पड़ना है। और पूरी तरह क्रोध करें तो आप देख पायेंगे क्रोध को! इधर क्रोध चलेगा, इधर भीतर आप देख पायेंगे कि यह क्रोध चल रहा है। और अगर एक्टिंग के क्रोध को भी देख लिया तो दुबारा जो क्रोध होगा वह एक्टिंग हो जायेगी। अगर एक बार हम क्रोध का अभिनय कर सकें तो फिर कभी भी क्रोध बिना अभिनय के नहीं होगा। अभिनय ही हो जायेगा। उसके हमसे भीतरी संबंध ही टूट जायेंगे।
तो जो चीजें गहरी हैं उनको एक्टिंग से शुरू करें। जो चीजें गहरी हैं उन पर होशपूर्वक अभिनय करें तो आप उनमें जाग सकेंगे। और अगर जागने के क्षणों में जागना आ जाये तो फिर नींद के क्षणों में जागना आना शुरू हो जायेगा। जिस दिन आप नींद में जाग जायेंगे, उस दिन आप अनकांशस में प्रवेश करेंगे। कृष्ण ने गीता में उसी की बात कही है कि योगी रात भी जब सब सोते हैं तब जागता है। वह दूसरा चरण है। नींद में अगर आप जाग गये तो आप बहुत हैरान हो जायेंगे। इतने हैरान होंगे कि आपकी पूरी जिंदगी बदल जायेगी। अगर आप रात में नींद में जागे हुए सो सके जो कि एक मिरेकल है, एक बहुत अदभुत चमत्कारपूर्ण घटना है--जिस दिन आप सोये और जागे। एक साथ भीतर जागे और बाहर सोये रहे, उस दिन सुबह आप इतने ताजे उठेंगे जैसी ताजगी का आपको कभी भी पता नहीं है। उस ताजगी का शरीर से कोई संबंध नहीं है। उस ताजगी का बहुत गहरे में आत्मा से संबंध हो जाता है।
जिस दिन आप जागे हुए सो सकेंगे उस दिन आपके स्वप्न तिरोहित होने लगेंगे, क्योंकि आप स्वप्नों के प्रति जाग जायेंगे। ऐसा नहीं है कि बाद में पता चलेगा कि मुझे स्वप्न आया। जब स्वप्न आ रहा है, तभी आप जानेंगे कि स्वप्न आया।
जैसा मैंने आप से कहा कि चेतन मन की क्रियाओं के प्रति जागें तो अचेतन मन में प्रवेश हो जायेगा, फिर अचेतन मन की क्रियाओं के प्रति जागें तो समष्टि अचेतन, कलेक्टिव अनकांशस में प्रवेश हो जायेगा। अचेतन मन की क्रिया है स्वप्न। स्वप्न के प्रति आप जब जागेंगे, तब आप अचानक पायेंगे एक दरवाजा नीचे और खुल गया जो कलेक्टिव अनकांशस का दरवाजा है। वह मेरा अचेतन नहीं है, हम सबका अचेतन है। उस समष्टिगत अचेतन की अपनी क्रियाएं हैं, जिनको धर्मों ने बड़ा महत्व दिया है। बड़े अनुभव हैं, उस अचेतन मन के बड़े गहरे अनुभव हैं, जिनको जुंग ने आर्च-टाइप कहा है, जिनको उसने कहा है धर्म-प्रतीक। उस गहरे अचेतन में, कहें समष्टि अचेतन में ही दुनिया की सारी मायथॉलोजी पैदा हुई। सृष्टि का जन्म, प्रलय की संभावना, परमात्मा के रूप, रंग, आकार, नाद, वे सब उसी में पैदा हुए। वे उसी की क्रियाएं हैं।
तो जो व्यक्ति स्वप्न में जाग जायेगा वह समष्टिगत अचेतन में प्रवेश करेगा और समष्टिगत अचेतन की अपनी क्रियाएं हैं। जिनको लोग धार्मिक अनुभव कहते हैं वे भी धार्मिक अनुभव नहीं हैं, वे भी मानसिक अनुभव हैं समष्टिगत अचेतन के। रंगों का विस्तार, प्रकाशों का उदभव, अभूत-पूर्व सुगंधें, अभूतपूर्व ध्वनियां, वे सब वहां पैदा होंगी। सृष्टि के जन्म और मरण को भी वहां देखा जा सकता है। उस क्षण को भी देखा जा सकता है जब पृथ्वी पैदा हुई और उस क्षण को भी देखा जा सकता है जब पृथ्वी अस्त हो जायेगी। वहीं से दुनिया की सारी मिथ्स ऑफ क्रियेशन पैदा हुई।
इसलिए बड़े मजे की बात है कि दुनिया की सृष्टि के जितने भी सिद्धांत पैदा हुए वह सब समान हैं, एक से हैं। चाहे ईसाई हों या मुसलमान हों, चाहे हिंदू हों, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ा, शब्दों के फर्क पड़े। उसी क्षण में उस चेतना की, उस अवस्था में ही बहुत-सी बातें जानी गयीं जो सारी दुनिया में समान हैं।
जैसे सारी दुनिया में यह एक खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय आया। ईसाइयों को भी खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय आया। हिंदुओं को भी खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय हुआ। सारे जगत के आदिवासियों के पास भी जो कथाएं हैं उनको भी खयाल है कि कभी कोई महाप्रलय हुआ। और बड़े मजे की बात है, इन सबके बीच कोई कम्युनिकेशन नहीं रहा। इनके बीच कोई संवाद नहीं रहा। यह संवाद तो अभी पैदा हुआ। लेकिन इनकी कथाएं तो हजारों-लाखों साल पुरानी हैं। जब ये एक दूसरे से बिलकुल असंबंधित थे। तब भी इनकी कथाएं एक हैं। क्या मामला है? एक ही मामला है। इनका जो कलेक्टिव अनकांशस है, वह एक है हम सबका। इसलिए बहुत गहरे में हम सब एक हैं। इसलिए जो चीजें बहुत गहरे से संबंधित हैं उनमें बहुत फर्क नहीं पड़ता।
जैसे नृत्य कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होता है। इसलिए नृत्य को समझने के लिए दूसरे की भाषा जाननी जरूरी नहीं है। एक अंग्रेज नाचता हो तो एक चीनी समझ सकता है। अंग्रेजी समझना जरूरी नहीं है। एक हिंदू नाचता हो तो मुसलमान समझ सकता है।
चित्र है, पेंटिंग है, पेंटिंग के लिए कोई जरूरत नहीं है, किसी की भी भाषा समझने की। पिकासो की पेंटिंग, जो आदमी फ्रेंच नहीं जानता है वह समझ सकता है। कोई जरूरत नहीं है...क्योंकि यह सब के सब हमारे कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होने वाली चीजें हैं। यह हम सब जानते ही हैं। इसके लिए एक-दूसरे की भाषा, एक-दूसरे की संस्कृति, एक-दूसरे की सभ्यता, एक-दूसरे के सिद्धांतों से परिचित होने की कोई जरूरत नहीं है।
इसलिए दुनिया के सारे धर्मों के जो प्रतीक हैं, वह सब समान हैं। कई बात में तो इतनी हैरानी की समानता है कि कहना मुश्किल है। जैसे "ओम' की ध्वनि है वह कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होती है। इसलिए "ओम' की ध्वनि सारी दुनिया के धर्मों में है, सिर्फ थोड़े बहुत हेर-फेर हैं, वह समझने के हेर-फेर हैं। हिंदुओं ने उसे पकड़ा है "ओम' की तरह। यह हमारे पकड़ने की बात है, क्योंकि पकड़ेगा तो हमारा चेतन मन। तो हमने "ओम' की तरह पकड़ा है। यहूदियों ने, ईसाइयों ने, "ओमीन' की तरह पकड़ा है। वह "ओम' का ही उनका रूपांतरण है। इसलिए आज भी प्रार्थना के बाद वह कहेंगे, आमीन। वह ओमीन; "ओम'  ओमीन उससे निर्मित हुआ है। अंग्रेजी के शब्द हैं, ओमनीसायंट, ओमनीप्रजेंट, वह सब "ओम' से बने हुए हैं। लेकिन वह निकले हैं बहुत गहरे से। वह संस्कृत से नहीं गये हैं। जैसा कि संस्कृत के ज्ञाताओं को खयाल होता है कि दुनिया की सारी भाषाएं संस्कृत से पैदा हो गयीं। ऐसा नहीं है। दुनिया की भाषाओं में जो समानता है वह कलेक्टिव अनकांशस की समानता है, दुनिया की भाषाएं किसी एक भाषा से पैदा नहीं हो गयीं।
हमारा एक तल है मन का जो हम सबका इकट्ठा है, जैसे सागर के ऊपर लहरें अलग-अलग हैं; लेकिन नीचे सागर इकट्ठा है। ऐसे लहरों की तरह हम अलग-अलग हैं, लेकिन और गहरे, और गहरे सब इकट्ठा है। वह जो इकट्ठापन है उसकी अपनी क्रियाएं हैं, जिसको कबीर ने अनाहत नाद कहा है। हम एक तरह का नाद जानते हैं, चोट से पैदा होने वाला नाद। अगर मैं ताली बजाऊं तो एक नाद पैदा होगा, लेकिन दो तालियां टकरायेंगी तब। अगर मैं तबले पर चोट मारूं तो आवाज गूंजेगी, लेकिन चोट मारूंगा तब। इसको कहेंगे, आहत नाद। चोट से पैदा हुआ, आहत, चोट खाकर पैदा हुई ध्वनि। कलेक्टिव अनकांशस में ऐसी ध्वनियां हैं, जहां चोट नहीं होती और ध्वनियां हैं। इसलिए उनको अनाहत नाद कहा है। बिना चोट किये पैदा हुई ध्वनियां, एक हाथ से बजाई गयी ताली।
झेन फकीर जापान में अपने साधक से कहता है कि एक हाथ से अगर ताली बजाई जाये तो कैसे बजेगी? इसका पता लगाकर आओ। बड़ा मुश्किल है। एक हाथ से ताली कहीं बज सकती है? एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है? कभी वह टेबल पर बजाता है, कभी दीवाल पर बजाता है। और गुरु को आकर कहता है कि मैंने बजाई एक हाथ की ताली। और दीवाल पर बजा कर बताता है। गुरु कहता है, दीवाल दूसरा हाथ बन गयी, नहीं चलेगी। एक हाथ से ताली कैसे बजाई जा सकती है, उसका पता लगाकर आओ। वह तब तक पता नहीं लगा सकता जब तक कि वह अनाहत नाद में न उतर जाये। वह उसी में उतारने के लिए कह रहा है, एक हाथ की ताली कैसे बजती है, उसको खोजो।
कलेक्टिव अनकांशस की जो क्रियाएं हैं अगर हम उनके प्रति जाग जायें तो हम कास्मिक अनकांशस में उतर जाते हैं। तब हम ब्रह्म-अचेतन में उतर जाते हैं, जिसको इस मुल्क में प्रकृति कहा गया है। प्रकृति शब्द को समझ लेना उचित होगा। प्रकृति का मतलब होता है, जब सब बना उसके पहले भी जो था। कृति के भी जो पहले है--प्रिक्रियेशन। अगर अंग्रेजी में बनायें शब्द तो बनेगा प्रिक्रियेशन। सृष्टि के पहले से भी जो है। जिससे सब पैदा हुआ। जो पैदा होने के पहले भी था, उसको कहते हैं प्रकृति! वह जो कास्मिक अनकांशस है, वह प्रकृति है। उससे ही सब आया।
अब इसको ऐसा समझ लें। चेतन मन मेरा है, अचेतन मन भी मेरा है, लेकिन कलेक्टिव अनकांशस "हमारा' है, वह "मेरा' नहीं है। वह आपका नहीं है, वह हमारा है। कास्मिक अनकांशस हमारा भी नहीं है, सबका है। उसमें पत्थर भी सम्मिलित है। पक्षी भी सम्मिलित हैं। नदी भी सम्मिलित है। पहाड़ भी सम्मिलित हैं। वह प्रकृति है। वहां जो उतर जाये उसके आगे उतरने को नहीं रह जाता। वह बाटमलेस एबिस है। उसके नीचे फिर उतरने का कोई उपाय नहीं, वह शून्य खाई है। इसमें उतरने की प्रक्रिया है--अप्रमाद।
जहां आप हैं वहीं जागना शुरू करें। जिस दिन आप वहां जाग जायेंगे, आपको नीचे के दरवाजे की कुंजी मिल जायेगी। फिर वहां जागना शुरू करें। और नीचे की कुंजी मिल जायेगी। और एक दूसरी प्रक्रिया पूरे समय साथ चलेगी। जब तक आप चेतन में हैं, तब तक आप सुपर-कांशस में, अति-चेतन में नहीं जा सकते, ऊपर नहीं बढ़ सकते। आपकी जड़ों को अनकांशस में उतरना पड़ेगा। जिस दिन आपकी जड़ें अचेतन में उतर जायेंगी उसी दिन आपकी शाखाएं सुपर-कांशस में फैल जायेंगी। ऊपर उठ जायेंगी।
फ्रायड और जुंग, सुपर-कांशस में नहीं पहुंच पाते, क्योंकि वे अनुमान कर रहे हैं। इसलिए वे अनकांशस, कलेक्टिव अनकांशस, इनकी तो बात करते हैं नीचे की, लेकिन ऊपर की उनके पास कोई कल्पना नहीं है।
लेकिन यह जगत सदा एक संतुलन है। यहां जितने नीचे जाने का उपाय है, उतने ही ऊपर जाने का उपाय है। असल में नीचे का अस्तित्व ही नहीं हो सकता, अगर ऊपर का अस्तित्व न हो। ऊपर का और नीचे का अस्तित्व एक साथ ही हो सकता है। अगर बायां न हो तो दायां नहीं हो सकता है, कि हो सकता है? अगर दायां है तो बायां का अस्तित्व जरूर होगा, चाहे पता हो या न हो। क्या नीचे का अस्तित्व हो सकता है ऊपर के बिना? फिर उसे नीचे कैसे कहियेगा? नीचे का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ऊपर के बिना। क्या दुख का अस्तित्व हो सकता है सुख के बिना? तो फिर उसे दुख कैसे कहियेगा? दुख का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता सुख के बिना।
जिंदगी सदा ही दोहरी है। जितना ऊपर है, उतना नीचे है। जो जो नीचे है वही वही ऊपर भी है। फर्क इतना ही है, नीचे अंडर-ग्राउंड है, अंधेरे में है; ऊपर खुले आकाश में, सूरज की रोशनी में है। जितना नीचे उतरेंगे उतना ही अंधेरा बढ़ता चला जायेगा। और कास्मिक अनकांशस है, प्रकृति है, वह पूर्ण अंधकार है, विराट अंधकार है, अंधकार ही अंधकार है। जितना ऊपर बढ़ियेगा उतना ही प्रकाश बढ़ता जायेगा और वह जो कास्मिक कांशस है, ब्रह्म है, वह पूर्ण प्रकाश है। प्रकाश ही प्रकाश है। लेकिन ऊपर जाने का रास्ता नीचे होकर जाता है। द पीक इज टु बी अचीव्ड वाया द एबिस, वह जो नीचे खाई है उसके द्वारा चोटी पर पहुंचा जाता है। यही सबसे बड़ी साधना की कठिनाई है। यही समझना सबसे ज्यादा कठिन हो जाता है कि ऊपर जाने के लिए नीचे जाना पड़ेगा।
हम सोचते हैं, सीधे ऊपर चले जायें। लेकिन सीधे हम ऊपर नहीं जा सकते। अगर हम सीधे ऊपर जायेंगे तो स्पेकुलेशन शुरू हो जायेगा। फिर हम ऊपर का दर्शन बना लेंगे। सुपर-कांशस, कलेक्टिव-कांशस, कास्मिक-कांशस, इसके हम सिद्धांत बना सकते हैं। लेकिन यह सिद्धांत सिर्फ सिद्धांत होंगे वैचारिक। जो सीधा ऊपर जायेगा वह फिलासफी में चला जायेगा। दर्शन में चला जायेगा। धर्म में नहीं जा सकेगा। जिसे धर्म के अनुभव में जाना है उसे पहले नीचे उतरना पड़ेगा।
यह बड़े मजे की बात है, जिसे संत होना हो उसे बहुत गहरे अर्थों में पापी होना पड़ता है। और जो व्यक्ति गहरे अर्थों में पापी होने से बच गया, वह गहरे अर्थों में संत नहीं हो सकता। यह लगती है बहुत अजीब-सी बात, लेकिन यह ऐसा ही है, यह तथ्य है। इसका कोई उपाय नहीं। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि बड़े पापी एकदम से बड़े संत हो जाते हैं। और छोटे पापी छोटे ही पापी बने रहते हैं। क्योंकि जो भी जगत में ट्रांसफार्मेशन हैं, रूपांतरण हैं, वे सदा गहराइयों से आते हैं। नीचे उतरना जरूरी है ऊपर जाने के लिए।
नीत्से का एक वचन आपसे कहूं। नीत्से ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उस वृक्ष को अपनी जड़ें पाताल तक पहुंचाने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। बहुत घबड़ाने वाली बात है नीचे उतरना, क्योंकि वहां अंधकार है। जब आप चेतन से अचेतन में उतरेंगे तो बहुत अंधकार में उतर जायेंगे। लेकिन जितने अंधकार में उतरने की आप हिम्मत जुटाते हैं, उतने प्रकाश के अधिकारी और पात्र हो जाते हैं। पात्रता आती है अंधेरे में उतरने से। साहस आता है अंधेरे में उतरने से। योग्यता आती है अंधेरे में उतरने से।
इसलिए ऊपर की फिक्र छोड़ दें, नीचे की फिक्र करें और एक-एक कदम पर प्रमाद को तोड़ते चले जायें। कहां से शुरू करेंगे? शुरू सदा वहीं से करना पड़ता है, जहां आप हैं। आप जिस मंजिल में हैं उस मंजिल का नाम चेतन है। उस चेतन मंजिल की क्रियाओं को आप प्रमाद छोड़कर करना शुरू कर दें।
बुद्ध के पास आनंद वर्षों तक रहा। एक दिन उसने पूछा कि बड़ी मुसीबत मालूम पड़ती है। कभी-कभी रात को मुझे नींद नहीं आती तो मैं आपको देखता रहता हूं। आप जिस करवट सोते हैं उसी करवट सोये रहते हैं, हाथ भी नहीं हिलाते, पैर भी नहीं बदलते। जिस आसन में, जिस अवस्था में सांझ सिर रखते हैं वैसा ही रात भर रखे रहते हैं। हैरानी होती है। मुझे तो बहुत करवट बदलनी पड़ती है। मुझे तो बहुत हाथ-पैर हिलाने पड़ते हैं। बुद्ध ने कहा, तुझे पता रहता है कि तू हाथ-पैर हिला रहा है, करवट बदल रहा है? आनंद ने कहा, कुछ पता नहीं रहता। सुबह पता चलता है कि जैसा सोया था वैसा नहीं सोया हूं। सिर कहीं था कहीं पहुंच गया। नींद में कैसे पता चल सकता है? बुद्ध ने कहा, मैं जानता हुआ सोता हूं, मैं जानता हुआ ही सोया रहता हूं। जहां हाथ रखा था वहीं हाथ रहता है, जब तक मैं न हटाऊं। हाथ अपने से हट जाये तो मेरी मालकियत गयी। फिर मैं मालिक नहीं रहा। तो आनंद ने कहा, क्या आप रात में भी जागे हुए सोते हैं? बुद्ध ने कहा, निश्चित ही। क्योंकि मैं दिन में जागा हुआ जागता हूं इसलिए रात में जागे हुए सोने का अधिकारी हो गया हूं।
जब तक आप दिन में सोये हुए जागेंगे तब तक तो संभावना नहीं है कि आप जागे हुए सो सकें। जब जागने में सोये रहते हैं तो सोने में तो सोये ही रहेंगे।
जागने में जागना शुरू करना पड़ेगा, वहीं से प्रमाद तोड़ें। महावीर अपने भिक्षुओं को निरंतर कहते थे, विवेक से उठो, विवेक से चलो, विवेक से बैठो। इसका मतलब क्या था? शायद उनके अनेक साधु यही समझते हैं कि...। विवेक से उठने का मतलब, विवेक से बैठने का मतलब जो महावीर के साधुओं ने समझा है, वह महावीर का खयाल नहीं है। महावीर के साधु समझते हैं, "विवेक से चलो'--इसका मतलब है कि किसी के बिछाये हुए बिस्तर पर पैर मत रखना, किसी के बिछाये हुए गलीचे पर मत चलना, सूखी जमीन में चलना, गीली जमीन में मत चलना। "विवेक से खाओ', तो साधु महावीर का हजारों साल से समझ रहा है कि यह खाना और यह मत खाना। विवेक का मतलब लोगों ने समझा है, डिस्क्रिमिनेशन। विवेक का यह मतलब नहीं है महावीर का।
महावीर का विवेक से मतलब है, होश। महावीर का विवेक से मतलब है, अवेयरनेस, डिस्क्रिमिनेशन नहीं। क्योंकि जहां अवेयरनेस है वहां तो डिस्क्रिमिनेशन अपने-आप आ जाता है छाया की तरह। लेकिन जहां डिस्क्रिमिनेशन है वहां अवेयरनेस का आना कोई जरूरी नहीं है।
महावीर कहते हैं, विवेक से चलो। उसका मतलब है, जानते हुए चलो, होश से चलो कि तुम चल रहे हो। अब इस होश में ये सब आ जायेगा। जो गलत है वह नहीं होगा, क्योंकि होशपूर्वक किसी ने कभी कोई गलत काम नहीं किया, कर नहीं सकता। होशपूर्वक जो भी किया जाता है वह सदा ठीक है। होशपूर्वक पुण्य ही किया जा सकता है, होशपूर्वक पाप नहीं किया जा सकता।
इसलिए महावीर जब कहते हैं, होशपूर्वक खाओ, तो उसका मतलब यह नहीं कि यह खाओ और यह मत खाओ। उसका मतलब है, होशपूर्वक खाओ। खाने की क्रिया होशपूर्वक हो। उसमें यह तो आ ही जाता है, क्या छोड़ो क्या न छोड़ो। वह छूट ही जायेगा। उसे छोड़ने के लिए अलग से व्यवस्था, अलग से नियम बनाने की जरूरत नहीं है। और जो आदमी अलग से नियम बनाता है, वह बता रहा है कि उसका होश अभी नहीं जगा।
मैं जाकर कसम खाता हूं मंदिर में कि मैं दरवाजे से ही निकलूंगा, कभी दीवाल से नहीं निकलूंगा। तो लोग कहेंगे, आप अंधे तो नहीं हैं? क्योंकि यह कसम सिर्फ अंधे ही खा सकते हैं। और ध्यान रहे, अंधा कितनी ही कसम खाये, कभी-न-कभी दीवाल से टकरायेगा ही। अंधे के बस के बाहर है कसम को पूरा करना। और आंख वाला आदमी कभी कसम नहीं खाता कि मैं दरवाजे से निकलूंगा दीवाल से न निकलूंगा। आंख वाला आदमी दरवाजे से निकलता है और दीवाल से नहीं निकलता। क्योंकि आंख होने का मतलब यह है कि वह बताती है कि दीवाल से सिर फूट जायेगा और दरवाजे से रास्ता है। दीवाल से रास्ता नहीं है।
जो विवेक से जीता है वह गलत को नहीं करता, और गलत नहीं करने की कसम भी कभी नहीं खाता। और जो आदमी गलत को न करने की कसम खाता हो तो जान लेना कि उसे विवेक का अभी कोई पता नहीं चला, वह अंधा आदमी है। व्रत सिर्फ अंधे लेते हैं। आंख वाले लोग व्रत नहीं लेते। आंख वाले लोग जिस ढंग से जीते हैं, वह व्रत है! व्रत लिया नहीं जाता। लेकिन हम सब मंदिरों में व्रत ले रहे हैं। हम कसमें खा रहे हैं कि मैं एक साल ऐसा करूंगा, ऐसा नहीं करूंगा। ऐसा खाऊंगा ऐसा नहीं खाऊंगा, ऐसा नहीं पीऊंगा। इसका मतलब यह है कि आपका चित्त तो पीना चाहता है, आपका चित्त तो खाना चाहता है, उस चित्त को रोकने के लिए आप उल्टी कसम खा रहे हैं। मंदिर में खा रहे हैं जिसमें कि भगवान का थोड़ा डर रहे। लोगों के सामने खा रहे हैं कि लोग जरा देखते रहें कि तुमने कहा था सिगरेट नहीं पीऊंगा, अब तुम पी रहे हो। साधु के सामने कसम खा रहे हैं तो जरा भय रहे कि साधु को वचन दिया है तो पूरा करें। लेकिन एक बात पक्की है कि सिगरेट पीने की इच्छा भीतर मौजूद है। वह आदमी होश में नहीं है, इसलिए वह कसम खा रहा है।
कसम किसके खिलाफ खाई जाती है? अपने खिलाफ! और अपने खिलाफ खाई गयी कसमों को पालना बहुत मुश्किल है। और अगर पाल भी ली जायें तो भी उससे कोई हित नहीं है। सिर्फ डैडनिंग, सिर्फ व्यक्तित्व की संवेदना क्षीण होती है और कुछ भी नहीं होता।
नहीं, महावीर जब कहते हैं, "विवेक से चलो', तो उसका मतलब है चलने की क्रिया होशपूर्वक हो, अप्रमादी हो। प्रमाद में न हो, मूर्च्छित न हो। पैर उठे तो जानो कि उठा। जमीन पर गिरे तो जानो कि गिरा। सिर घूमे तो जानो कि घूमा। बैठ रहे हो तो जानो कि बैठ रहे हो। कोई भी क्रिया बेहोशी में न हो जाये।
इसलिए महावीर से जब किसी ने पूछा कि आप साधु किसको कहते हैं? तो महावीर ने यह नहीं कहा कि जो मुंह पर पट्टी बांधता हो उसको मैं साधु कहता हूं। अगर महावीर ऐसा कहते तो दो कौड़ी के आदमी हो जाते! मुंह-पट्टी की जितनी कीमत है उतनी ही कीमत होती! महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि जो नंगा रहता है उसे मैं साधु कहता हूं। अगर वह ऐसा कहते तो बड़े ना-समझ सिद्ध होते और जो जानने वाले थे, वह अनादि-अनंत समय तक उन पर हंसते। नहीं, महावीर ने जो जवाब दिया बहुत अदभुत था। महावीर ने कहा, जो जागा हुआ है उसे मैं साधु कहता हूं, "असुत्ता मुनि'। जो सोया हुआ नहीं है, उसे मैं मुनि कहता हूं। बड़ी अदभुत परिभाषा महावीर ने दी--जो सोया हुआ नहीं, असुत्ता मुनि, नहीं सोया है जो, उसे मैं साधु कहता हूं। पूछने वालों ने पूछा कि आप असाधु किसे कहते हैं? महावीर को कहना चाहिए था कि जो शराब पीता है। लेकिन ऐसा लगता है, महावीर का शराबखानों से कोई संबंध नहीं था। जिनका शराबखानों से संबंध होता है, वह यही समझाये चले जाते हैं कि जो शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता। महावीर का दिखता है किसी बूचरखाने से कोई संबंध नहीं था। जिनका होता है वह यही समझाये चले जाते हैं कि जो मांस नहीं खाता है वह साधु, सिगरेट नहीं पीता है वह साधु। यह करता है, यह नहीं करता। महावीर ने कहा, "सुत्ता अमुनि', जो सोया हुआ जीता है वह असाधु है। बड़ी हिम्मत की, बड़ी गहरी, बड़ी समझ की बात है।
सिर्फ एक छोटे से सूत्र पर सब-कुछ निर्भर होता है। आप जाग कर जी रहे हैं या सो कर जी रहे हैं। अगर आप जाग कर जी रहे हैं, आपकी जिंदगी में साधुता उतर आयेगी। अगर आप सोकर जी रहे हैं, आपकी जिंदगी में असाधुता के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता। आप सोये-सोये भी साधु बन सकते हैं, वह बना हुआ साधु होगा। और बने हुए साधु, असाधुओं से भी बदतर हालत में हो जाते हैं। क्योंकि उनको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वह साधु हैं। और जब असाधु को यह भ्रम पैदा हो जाये कि वह साधु है, तब जनम-जनम लग जायेंगे इस भ्रम से छूटने में।
अप्रमाद साधना का सूत्र है। अप्रमाद साधना है। चार दिन जो बात मैंने आपसे की। अहिंसा--वह परिणाम है, हिंसा स्थिति है। अपरिग्रह--वह परिणाम है, परिग्रह स्थिति है। अचौर्य--वह परिणाम है, चोरी स्थिति है। अकाम--वह परिणाम है, कामवासना या कामना स्थिति है। इस स्थिति को परिणाम तक बदलने के बीच जो सूत्र है, वह है--अप्रमाद, अवेयरनेस, रिमेंबरिंग, स्मरण।
प्रत्येक क्रिया स्मरणपूर्वक हो और प्रत्येक क्रिया होशपूर्वक हो। और एक भी क्रिया ऐसी न हो जो कि बेहोशी में हो रही हो। बस, आपकी धर्मऱ्यात्रा शुरू हो जाती है। आप नीचे उतरने लगेंगे और सूत्र वही रहेगा। जब नीचे के दूसरे खंड में पहुंचेंगे तब उसकी क्रियाओं के प्रति फिर अप्रमाद। जब उसकी पूरी क्रियाओं के प्रति जाग जायेंगे तो और नीचे पहुंचेंगे उसके प्रति अप्रमाद। और जितने नीचे पहुंचेंगे उतने ऊपर पहुंचते चले जायेंगे। जिस दिन कोई अपने पाताल की आखिरी पर्त को छू लेता है, उसी दिन अपनी आत्मा की आखिरी अमृत की पर्त उसे उपलब्ध हो जाती है।
जायें पाताल में, ताकि पहुंच सकें मोक्ष में! उतरें गहरे, ताकि छू सकें ऊंचाई को! छुएं नरक को, ताकि उपलब्ध हो सके स्वर्ग! जायें अंधकार में गहरे और गहरे ताकि प्रकाश को पाने की पात्रता मिल सके। अप्रमाद से...और अप्रमाद के अतिरिक्त और किसी बात से यह संभव नहीं होता है। दुनिया में चाहे कहीं भी कुछ भी कहा गया हो, चाहे जिसने कुछ कहा हो--चाहे बुद्ध ने, चाहे महावीर ने, चाहे कृष्ण ने, वह सबका सब, अप्रमाद जैसे छोटे से शब्द में समा जाता है।
कृष्ण कहते हैं, नींद में भी जागो। जीसस कहते हैं, जागे रहो। क्योंकि पता नहीं वह कब आ जाये। ऐसा न हो कि तुम सोये रहो और वह आये परमात्मा, और तुम्हें सोया पाये और लौट जाये। जागो और प्रतीक्षा करो। बी अवेयर एंड अवेटिंग। जीसस की सारी बातचीत इसी सूत्र पर घूमती है कि जागो और प्रतीक्षा करो। और महावीर की पूरी जिंदगी का प्रवचन एक ही बात को बार-बार दोहराता है--होशपूर्वक, विवेकपूर्वक, अप्रमाद से जीओ, मूर्च्छा में नहीं।
दोत्तीन सूत्र और अपनी बात मैं पूरी करूं। पहला सूत्र ठीक से समझ लेना कि आप सोये हुए हैं। समझाने की कोशिश मत करना अपने को कि मैं सोया हुआ नहीं हूं। जस्टीफाई मत करना अपने को कि मैं सोया हुआ नहीं हूं। मन कहेगा कि मैं और सोया हुआ? दूसरे सोये हुए होंगे, मैं तो जागा हुआ आदमी हूं। मैं और सोया हुआ? शास्त्र पढ़ता हूं, सोये हुए कैसे पढ़ सकता हूं? आत्मा, परमात्मा है, ऐसा जानता हूं, सोये हुए कैसे जान सकता हूं? नहीं, मैं सोया हुआ नहीं हूं। दूसरे सोये हुए हैं। सोया हुआ आदमी सदा दूसरे सोये हुए पर टाल कर अपने को जागा हुआ मान लेता है। यह नींद को बचाने का उपाय है, यह सेफ्टी-मेजर है नींद का, और नींद के अपने उपाय हैं बचने के।
ध्यान रखना, नींद टूटने से बचना चाहती है। नींद सब तरह का इंतजाम करती है कि टूट न जाये। अगर आप रात को भूखे सो गये हैं तो नींद भोजन देती है आपको, अपने को बचाने के लिए स्वप्न में। अगर स्वप्न में भोजन न मिले तो नींद टूट जायेगी। तो नींद इंतजाम करती है कि भोजन ले लो--झूठा सही, क्योंकि नींद झूठी चीजें दे सकती है। नींद सच्ची चीजें नहीं दे सकती। भूखे आदमी को स्वप्न में निमंत्रण दिलवा देती है नींद कि सम्राट के घर आज भोज है और आपको निमंत्रण मिला है। और जो आदमी ने अपनी जिंदगी में कभी न खाया वह नींद उसके सामने रख देती है। यह नींद अपने को बचा रही है। आपको पेशाब लगी है नींद में, तो नींद कहेगी बाथरूम में चले जाओ। नींद में ही चले जाओ, उठने की कोई जरूरत नहीं। उठने से नींद टूट जायेगी। आपने अलार्म रखा है चार बजे उठने का, अलार्म की घंटी बजती है। नींद कहती है, अलार्म की घंटी नहीं, मंदिर का घंटा बज रहा है, आराम से सो जाओ!
नींद अपने सेफ्टी-मेजर बनाये हुए है। नींद ने इंतजाम किया हुआ है कि टूट न जाये। तो आपके जागने में भी एक नींद का इंतजाम है। वह इंतजाम यह कि वह आपसे कहेगा, तुम तो जागे हुए हो बाकी लोग सोये हुए हैं। तुम इन्हें जगाने की कोशिश करो तो अच्छा, तुम तो जागे हुए ही हो। अगर आपका मन आपसे कहे कि जागे हुए ही हो तो नींद की इस सुरक्षा से बचना! इस धोखे में मत पड़ जाना।
एक, जिस दिन पता चल जाये कि मैं सोया हुआ हूं, एहसास हो जाये। और कल की कोई जरूरत नहीं, अभी, यहीं, एहसास हो सकता है कि आप सोये हुए हैं। तो फिर जागने का उपाय शुरू करना। छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना और जो गहरी क्रियाएं हैं उनका अभिनय करके जागने की कोशिश करना।
अगर संकल्पपूर्वक नींद की तरकीबों से बचते हुए जागने का प्रयास किया जाये तो जो महावीर को संभव हुआ, जो बुद्ध को संभव हुआ, वह आपको भी संभव हो सकता है। पोटेंशियली, बीज रूप से, आपकी वही संभावना है जो किसी की भी है। आप भी वही हो सकते हैं जो जगत में कोई भी कभी हुआ है।
तो जागने की कोशिश करना और जागने की कोशिश जब गहरी हो जाये तो रुक मत जाना, अन्यथा दूसरे चरण पर नींद पकड़ लेगी। दूसरी मंजिल में ही रह जायेंगे। फिर वहां जागने की कोशिश करना। लंबी है यह यात्रा, असंभव नहीं। कठिन है यह यात्रा पर असंभव नहीं। और जो करता है वह कर ही पाता है। और नीचे-नीचे उतरते जाना, ऊपर की फिक्र छोड़ देना। ऊपर के फल अपने से आने लगेंगे। जितने आप नीचे उतरेंगे, उतने ऊपर फूल खिलने लगेंगे। उनकी सुगंध, उनका प्रकाश, उनका आनंद, झरने लगेगा। जैसे-जैसे नीचे जायेंगे वैसे-वैसे ऊपर जाने लगेंगे। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपनी गहराई से गहराई को छू लेता है, द अल्टीमेट डेप्थ, जिस दिन परम गहराई को छू लेता है, उसी दिन परम ऊंचाई को छू लेता है। और जिस दिन दोनों छू लेता है, उस दिन गहराई और ऊंचाई एक हो जाती है। दो नहीं रह जाती। उस दिन सब एक हो जाता है।
सात मंजिल का यह मकान जिस दिन पूरा जान लिया जाता है, उस दिन एक हो जाता है। उस दिन फिर इसमें सात मंजिलें भी नहीं रह जातीं। सब बीच के परदे गिर जाते हैं। दीवालें हट जाती हैं। और एक भवन रह जाता है। उस एक का अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही मोक्ष का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही अद्वैत का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही समाधि का अनुभव है!
इन पांच दिनों में यह थोड़ी-सी बातें मैंने आपसे कहीं। इसलिए नहीं कि मुझे कहने में कुछ मजा आता है, इसलिए नहीं कि आपको सुनने में थोड़ा मनोरंजन हो, बल्कि इसलिए कि शायद कहीं चोट लग जाये! वीणा का कोई तार आपके भीतर कंप जाये! और कोई यात्रा शुरू हो जाये।
अंत में परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि आप अपने को बिना जाने समाप्त न हो जायें। आपकी जानने की, आपकी खोजने की, स्वयं से पूरी तरह परिचित होने की, यात्रा शुरू हो। लेकिन अकेली परमात्मा से की गयी प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं हो सकता। आप से भी मैं प्रार्थना करता हूं कि परमात्मा को थोड़ा सहयोग दें कि आपकी यात्रा पूरी हो सके।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
आज इतना ही।



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