मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--19)

अज्ञात अपरिचित गहराइयों में--(प्रवचन--उन्‍नीसवां)

तेरहवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

शरीर : मन का अनुगामी:

प्रश्न: ओशो नारगोल शिविर में आपने कहा कि योग के आसन प्राणायाम मुद्रा और बंध का आविष्कार ध्यान की अवस्थाओं में हुआ तथा ध्यान की विभिन्न अवस्थाओं में विभित्र आसन व मुद्राएं बन जाती हैं जिन्हें देखकर साधक की स्थिति बताई जा सकती है। इसके उलटे यदि वे आसन व मुद्राएं सीधे की जाएं तो ध्यान की वही भावदशा बन सकती है। तब क्या आसन प्राणायाम मुद्रा और बंधों के अभ्यास से ध्यान उपलब्ध हो सकता है? ध्यान साधना में उनका क्या महत्व और उपयोग है?

 प्रारंभिक रूप से ध्यान ही उपलब्ध हुआ। लेकिन ध्यान के अनुभव से शात हुआ कि शरीर बहुत सी आकृतियां लेना शुरू करता है। असल में, जब भी मन की एक दशा होती है तो उसके अनुकूल शरीर भी एक आकृति लेता है। जैसे जब आप प्रेम में होते हैं तो आपका चेहरा और ढंग का हो जाता है, जब क्रोध में होते हैं तो और ढंग का हो जाता है। जब आप क्रोध में होते हैं तब आपके दांत भिंच जाते हैं, मुट्ठियां बंध जाती हैं,
शरीर लड़ने को या भागने को तैयार हो जाता है। ऐसे ही, जब आप क्षमा में होते हैं तब मुट्ठी कभी नहीं बंधती, हाथ खुला हुआ हो जाता है। क्षमा का भाव अगर कोई आदमी में हो तो वह क्रोध की भांति मुट्ठी बांधकर नहीं रह सकता। जैसे मुट्ठी बांधना हमला करने की तैयारी है, ऐसा मुट्ठी खोलकर खुला हाथ कर देना हमले से मुक्त करने की सूचना है—वह दूसरे को अभय देना है; मुट्ठी बांधना दूसरे को भय देना है।
शरीर एक स्थिति लेता है, क्योंकि शरीर का उपयोग ही यही है कि मन जिस अवस्था में हो, शरीर तत्काल उस अवस्था के योग्य तैयार हो जाए। शरीर जो है, अनुगामी है; वह पीछे अनुगमन करता है।
तो साधारण स्थिति में...... यह तो हमें पता है कि एक आदमी क्रोध में क्या करेगा; यह भी पता है कि प्रेम में क्या करेगा; यह भी पता है कि श्रद्धा में क्या करेगा। लेकिन और गहरी स्थितियों का हमें कोई पता नहीं है।
जब भीतरी चित्त में वे गहरी स्थितियां पैदा होती हैं, तब भी शरीर में बहुत कुछ होता है। मुद्राएं बनती हैं, जो कि बड़ी सूचक हैं; जो भीतर की खबर लाती हैं। आसन भी बनते हैं; जो कि परिवर्तन के सूचक हैं।
असल में, भीतर की स्थितियों की तैयारी के समय तो बनते हैं आसन और भीतर की स्थितियों की खबर देने के समय बनती हैं मुद्राएं। भीतर जब एक परिवर्तन चलता है तो शरीर को भी उस नये परिवर्तन के योग्य एडजस्टमेंट खोजना पड़ता है। अब भीतर यदि कुंडलिनी जाग रही है तो उस कुंडलिनी के लिए मार्ग देने के लिए शरीर आड़ा—तिरछा, न मालूम कितने रूप लेगा। वह मार्ग कुंडलिनी को भीतर मिल सके, इसलिए शरीर की रीढ़ बहुत तरह के तोड़ करेगी। जब कुंडलिनी जाग रही है तो सिर भी विशेष स्थितियां लेगा। जब कुंडलिनी जाग रही है तो शरीर को कुछ ऐसी स्थितियां लेनी पड़ेगी जो उसने कभी नहीं ली।
अब जैसे, जब हम जागते हैं तो शरीर खड़ा होता है या बैठता है; जब हम सोते हैं तब खड़ा और बैठा नहीं रह जाता, उसे लेटना पड़ता है। समझ लें एक आदमी ऐसा पैदा हो जो सोना न जानता हो जन्म के साथ, तो वह कभी लेटेगा नहीं। तीस वर्ष की उम्र में उसको पहली दफे नींद आए, तो वह पहली दफे लेटेगा, क्योंकि उसके भीतर की चित्त—दशा बदल रही है और वह नींद में जा रहा है। तो उसको बड़ी हैरानी होगी कि यह लेटना अब तक तो कभी घटित नहीं हुआ, आज वह पहली दफा लेट क्यों रहा है! अब तक वह बैठता था, चलता था, उठता था, सब करता था, लेटता भर नहीं था।
अब नींद की स्थिति बन सके भीतर, इसके लिए लेटना बड़ा सहयोगी है। क्योंकि लेटने के साथ ही मन को एक व्यवस्था में जाने में सरलता हो जाती है। लेटने में भी अलग—अलग व्यक्तियों की अलग—अलग स्थितियां होती हैं, एक सी नहीं होतीं; क्योंकि अलग—अलग व्यक्तियों के चित्त भिन्न होते हैं। जैसे जंगली आदमी तकिया नहीं रखता है, लेकिन सभ्य आदमी बिना तकिए के नहीं सो सकता। जंगली आदमी इतना कम सोचता है कि उसके सिर की तरफ खून का प्रवाह बहुत कम होता है। और नींद के लिए जरूरी है कि सिर की तरफ खून का प्रवाह कम हो जाए। अगर प्रवाह ज्यादा है तो नींद नहीं आएगी, क्योंकि सिर के स्नायु शिथिल नहीं हो पाएंगे, विश्राम में नहीं जा पाएंगे, उनमें खून दौड़ता रहेगा। इसलिए आप तकिए पर तकिए रखते चले जाते हैं। जैसे आदमी शिक्षित होता है, सुसंस्कृत, तकिए ज्यादा होते जाते हैं, क्योंकि गर्दन इतनी ऊंची होनी चाहिए कि खून भीतर न चला जाए सिर के। जंगली आदमी बिना इसके सो सकता है।
ये हमारे शरीर की स्थितियां हमारे भीतर की स्थितियों के अनुकूल खड़ी होती हैं। तो आसन बनने शुरू होते हैं तुम्हारे भीतर की ऊर्जा के जागरण और विभिन्न रूपों में गति करने से। विभिन्न चक्र भी शरीर को विभिन्न आसनों में ले जाते हैं। और मुद्राएं पैदा होती हैं जब तुम्हारे भीतर एक स्थिति बनने लगती है—तब भी तुम्हारे हाथ, तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे आंख की पलकें, सबकी मुद्राएं बदल जाती हैं।
यह ध्यान में होता है। लेकिन इससे उलटी बात भी स्वाभाविक खयाल में आई कि यदि हम इन क्रियाओं को करें तो क्या ध्यान हो जाएगा? इसे थोड़ा समझना जरूरी है।

 आसनों से चित्त में परिवर्तन अनिवार्य नहीं:

ध्यान में ये क्रियाएं होती हैं, लेकिन फिर भी अनिवार्य नहीं हैं। यानी ऐसा नहीं है कि सभी साधकों को एक सी क्रिया हो। एक कंडीशन खयाल में रखनी जरूरी है, क्योंकि प्रत्येक साधक की स्थिति अलग है, और प्रत्येक साधक की चित्त की और शरीर की स्थिति भी भिन्न है। तो सभी साधकों को ऐसा होगा, ऐसा नहीं है।
अब जैसे किसी साधक के चित्त में, मस्तिष्क में अगर खून की गति बहुत कम है और कुंडलिनी जागरण के लिए सिर में खून की गति की ज्यादा जरूरत है उसके शरीर को, तो वह तत्काल शीर्षासन में चला जाएगा— अनजाने। लेकिन सभी नहीं चले जाएंगे; क्योंकि सभी के सिर में खून की स्थिति और अनुपात अलग—अलग है, सबकी अपनी जरूरत अलग—अलग है। तो प्रत्येक साधक की स्थिति के अनुकूल बनना शुरू होगा। और सबकी स्थिति एक जैसी नहीं है।
तो एक तो यह फर्क पड़ेगा कि जब ऊपर से कोई आसन करेगा तो हमें कुछ भी पता नहीं है कि वह उसकी जरूरत है या नहीं है। कभी सहायता भी पहुंचा सकता है, कभी नुकसान भी पहुंचा सकता है। अगर वह उसकी जरूरत नहीं है तो नुकसान पड़ेगा, अगर उसकी जरूरत है तो फायदा पड जाएगा। लेकिन वह अंधेरे में रास्ता होगा—एक कठिनाई। दूसरी कठिनाई और है और वह यह है कि हमें जो भीतर होता है, उसके साथ जब बाहर कुछ होता है, तब—तब भीतर से ऊर्जा बाहर की तरफ सक्रिय होती है; जब हम बाहर कुछ करते हैं तब वह केवल अभिनय होकर भी रह जा सकता है।
जैसे कि मैंने कहा कि जब हम क्रोध में होते हैं तो मुट्ठियां बंध जाती हैं। लेकिन मुट्ठियां बंध जाने से क्रोध नहीं आ जाता। हम मुट्ठियां बांधकर बिलकुल अभिनय कर सकते हैं और भीतर क्रोध बिलकुल न आए। फिर भी, अगर भीतर क्रोध लाना हो तो मुट्ठियां बांधना सहयोगी सिद्ध हो सकता है। अनिवार्यत: भीतर क्रोध पैदा होगा, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन मुट्ठी न बांधने और बांधने में अगर चुनाव करना हो तो बांधने में क्रोध के पैदा होने की संभावना बढ़ जाएगी बजाय मुट्ठी खुली होने के। तो इतनी थोड़ी सी सहायता मिल सकती है।
अब जैसे एक आदमी शांत स्थिति में आ गया तो उसके हाथ की शांत मुद्राएं बनेंगी, लेकिन एक आदमी हाथ की शांत मुद्राएं बनाता रहे, तो चित्त अनिवार्य रूप से शांत होगा, यह नहीं है। हां, फिर भी चित्त को शांत होने में सहायता मिलेगी, क्योंकि शरीर तो अपनी अनुकूलता जाहिर कर देगा कि हम तैयार हैं, अगर चित्त को बदलना हो तो वह बदल जाए। लेकिन फिर भी सिर्फ शरीर की अनुकूलता से चित्त नहीं बदल जाएगा। और उसका कारण यह है कि चित्त तो आगे है, शरीर सदा अनुगामी है। इसलिए चित्त बदलता है, तब तो शरीर बदलता ही है; लेकिन शरीर के बदलने से सिर्फ चित्त के बदलने की संभावना भर पैदा होती है बदलाहट नहीं हो जाती।

 भीतर से यात्रा शुरू करो:
तो इसलिए भ्रांति का डर है कि कोई आदमी आसन ही करता रहे, मुद्राएं ही सीखता रहे और समझ ले कि बात पूरी हो गई। ऐसा हुआ है, हजारों वर्षों तक ऐसा हुआ है कि कुछ लोग आसन—मुद्राएं ही करते रहे हैं और समझते हैं कि योग साध रहे हैं। धीरे— धीरे योग से ध्यान तो खयाल से उतर गया। अगर कहीं तुम किसी से कहो कि वहां योग की साधना होती है, तो जो खयाल आता है वह यह है कि आसन, प्राणायाम इत्यादि होता होगा।
तो इसलिए मैं जरूर यह कहता हूं कि अगर साधक की जरूरत समझी जाए तो उसके शरीर की कुछ स्थितियां उसके लिए सहयोगी बनाई जा सकती हैं, लेकिन इनका कोई अनिवार्य परिणाम नहीं है। और इसलिए काम सदा भीतर से ही शुरू करने के मैं पक्ष में हूं बाहर से शुरू करने के पक्ष में नहीं हूं। भीतर से शुरू होना चाहिए।
फिर अगर भीतर से शुरू होता हो तो समझा जा सकता है। अब जैसे कि मुझे लगता है.. .एक साधक ध्यान में बैठा है और मुझे लगता है कि उसका रोना फूटना चाहता है, लेकिन वह रोक रहा है। अब यह मुझे दिखाई पड़ रहा है कि अगर वह रो ले दस मिनट तो उसकी गति हो जाए— एक कैथार्सिस हो जाए, एक रेचन हो जाए उसका। लेकिन वह रोक रहा है, वह सम्हाल रहा है अपने को कि कहीं रोना न निकल जाए। इस साधक को अगर हम कहें कि अब तुम रोको मत, तुम अपनी तरफ से ही रो लो—तुम रोओ! तो यह दो मिनट तक तो अभिनय की तरह रोएगा, तीसरे मिनट से इसका रोना सही और ठीक हो जाएगा आथेंटिक हो जाएगा; क्योंकि रोना तो भीतर से फूटना ही चाह रहा था, यह रोक रहा था। इसके रोने की प्रक्रिया रोने को नहीं ले आएगी, इसके रोने की प्रक्रिया रोकने को तोड़ देगी और जो भीतर से बह रहा था वह बह जाएगा।
अब जैसे एक साधक नाचने की स्थिति में है, लेकिन अपने को अकड़कर खड़ा किए हुए है। अगर हम उससे कह दें कि नाचो! तो प्राथमिक चरण में तो वह अभिनय ही शुरू करेगा, क्योंकि अभी वह नाच निकला नहीं है। वह नाचना शुरू करेगा, लेकिन भीतर से नाच फूटने की तैयारी कर रहा है, और इसने नाचना शुरू कर दिया—इन दोनों का तत्काल मेल हो जाएगा। लेकिन जिसके भीतर नाचने की कोई बात ही नहीं उसको हम कहें— नाचो! तो वह नाचता रहेगा, लेकिन भीतर कुछ भी नहीं होगा।
इसलिए हजार बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं। तो जो भी मैं कहता हूं उसमें बहुत सी शर्तें हैं। उन सारी शर्तों को खयाल में रखोगे तो बात खयाल में आ सकती है। और अगर इनको खयाल में न रखनी हों तो सबसे सरल यह है कि भीतर से यात्रा शुरू करो, और बाहर से जो भी होता हो उसे रोको मत। बस इतना पर्याप्त है— भीतर से काम शुरू करो; बाहर जो होता हो उसको रोको मत, उससे लड़ों मत, तो सब अपने से हो जाएगा।

 खड़े होकर ध्यान करने से होश रखना सदा आसान:

प्रश्न: ओशो, आजकल आप जिस प्रयोग की बात कर रहे हैं उसमें बैठकर प्रयोग करने में और खड़े होकर प्रयोग करने में क्या फिजिकल और साइकिक अंतर पड़ता है?

 हुत अंतर पड़ता है। जो मैंने अभी कहा कि हमारे शरीर की प्रत्येक स्थिति हमारे मन की प्रत्येक स्थिति से कहीं गहरे में जुड़ी है और कहीं समानांतर, पैरेलल है। अगर हम किसी आदमी को लिटाकर कहें कि होश रखो, तो रखना मुश्किल हो जाएगा; अगर खड़े होकर कहें कि होश रखो, तो आसान हो जाएगा। अगर खड़े होकर हम कहें कि सो जाओ, तो मुश्किल हो जाएगा; अगर लेटकर हम कहें कि सो जाओ, तो आसान हो जाएगा।
तो इस प्रयोग में दोहरी प्रक्रियाएं हैं। प्रयोग का आधा हिस्सा सम्मोहन का है, जिसमें कि निद्रा का डर है। प्रयोग की प्रक्रिया हिम्मोसिस की है। सम्मोहन का प्रयोग सिर्फ निद्रा और बेहोशी के लिए किया जाता है। इसलिए डर है कि साधक सो न जाए, तंद्रा में न चला जाए। खड़ा रहे तो इस डर को थोड़ा सा तोड्ने में सहायता मिलती है। संभावना कम हो गई उसके सोने की। इस प्रयोग का दूसरा हिस्सा साक्षी— भाव का है—जागरण का, अवेयरनेस का है। लेटने में अवेयरनेस प्राथमिक रूप से रखनी कठिन है, अंतिम रूप से रखनी आसान है। खड़े होकर होश रखना सदा आसान है।
तो होश रह सकेगा खड़े होकर, साक्षी— भाव रह सकेगा, और दूसरी बात सम्मोहन की जो प्रक्रिया है प्राथमिक, वह निद्रा में ले जाए, इसकी संभावना कम हो जाएगी।

 प्रतिक्रियाओं में तीव्रता:

और दो—तीन बातें हैं। जैसे, जब तुम खड़े हो, तब शरीर में जो मूवमेंट होने हैं, वे मुक्त भाव से हो सकेंगे। लेटकर उतने मुक्त भाव से न हो सकेंगे; बैठकर भी आधा शरीर तो कर ही न पाएगा। समझ लो, पैरों को नाचना है और तुम बैठे हो, तब पैर नाच न पाएंगे। और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, क्योंकि पैरों के पास भाषा नहीं है साफ कि तुमसे कह दें कि अब हमें नाचना है। बहुत सूक्ष्म इशारे हैं, जिनको हम पकड़ नहीं पाते। अगर तुम खड़े हो तो पैर उठने लगेंगे और तुम्हें सूचना मिल जाएगी कि पैर नाचना चाहते हैं। लेकिन अगर तुम बैठे हो तो यह सूचना नहीं मिलेगी।
असल में, बैठी हुई हालत में ध्यान करने का प्रयोग ही शरीर में होनेवाली इन गतियों को रोकने के लिए था। इसलिए ध्यान के पहले सिद्धासन या पद्यासन या सुखासन, ऐसे आसन का अभ्यास करना पड़ता था जिसमें शरीर डोल न सके। तो शरीर में जो ऊर्जा जगेगी उसकी संभावना बहुत पहले से है कि उसमें बहुत कुछ होगा— नाचोगे, गाओगे, रोओगे, कूदोगे दौड़ोगे। तो ये स्थितियां सदा से पागल की समझी जाती रही हैं। कोई दौड़ रहा है, नाच रहा है, रो रहा है, चिल्ला रहा है— ये स्थितियां पागल की समझी जाती रही हैं। साधक भी यह करेगा तो पागल मालूम पड़ेगा। तो समाज के सामने वह पागल न मालूम पड़े इसलिए पहले वह सुखासन, सिद्धासन या पद्यासन का कठोर अभ्यास करेगा, जिसमें कि शरीर के रंच मात्र हिलने का डर न रह जाए। और जो बैठक है पद्यासन की या सिद्धासन की, वह ऐसी है कि उसमें तुम्हारे पैर जकड़ जाते हैं, जमीन पर तुम्हारा आयतन ज्यादा हो जाता है, ऊपर तुम्हारा आयतन कम होता जाता है। तुम एक मंदिर की भांति हो जाते हो, जो नीचे चौड़ा है— एक पिरामिड की भांति— और ऊपर संकरा है। मूवमेंट की संभावना सबसे कम हो जाती है।
मूवमेंट की सर्वाधिक संभावना तुम्हारे खड़े होने में है, जब कि नीचे कोई जड़ बनाकर चीज नहीं बैठ गई है। तो तुम्हारी जो पालथी है, वह नीचे जड़ बनाने का काम करती है। जमीन के ग्रेविटेशन पर तुम्हारा बहुत बड़ा हिस्सा शरीर का हो जाता है, वह उसे पकड़ लेता है। फिर हाथ भी तुम इस भांति से रखते हो कि उनमें डोलने की संभावना कम रह जाती है। फिर रीढ़ को भी सीधा और थिर रखना है। और पहले इस आसन का अभ्यास करना है काफी, जब इसका अभ्यास हो जाए तब ध्यान में जाना है।

 स्थूल शरीर से रेचन करना सरल:

मेरी दृष्टि में इससे उलटी बात है। और मेरी दृष्टि में बात यह है कि पागल और हममें कोई बुनियादी फर्क नहीं है। हम सब दबे हुए पागल हैं; सप्रेस्ट इनसेनिटी है हमारी। या कहना चाहिए हम जरा नार्मल ढंग के पागल हैं। या कहना चाहिए कि हम औसत पागल हैं; एवरेज पागल हैं। हमारा सब पागलों से तालमेल खाता है। हमारे भीतर जो पागल थोड़े आगे निकल जाते हैं वे जरा दिक्कत में पड़ जाते हैं। लेकिन हम सबके भीतर पागलपन है। और हम सबका पागलपन भी अपना निकास खोजता है।
जब तुम क्रोध में होते हो तब एक अर्थ में तुम मोमेंटरी मैडनेस में होते हो। उस वक्त तुम वे काम करते हो जो तुमने होश में कभी न किए होते। तुम गालियां बकते हो, पत्थर फेंकते हो, सामान तोड़ सकते हो, छत से कूद सकते हो, कुछ भी कर सकते हो। यह पागल करता तो हम समझ लेते। लेकिन क्रोध में भी एक आदमी करता है तो हम कहते हैं, वह क्रोध में था। लेकिन था तो वही। ये चीजें उसके भीतर अगर नहीं थीं तो आ नहीं सकतीं; ये उसके भीतर हैं। लेकिन हम इन सबको सम्हाले हुए हैं।
मेरी अपनी समझ यह है कि ध्यान के पहले इन सबका निकास हो जाना जरूरी है। जितना इनका निकास हो जाएगा, उतना तुम्हारा चित्त हलका हो जाएगा। और इसलिए पुरानी जो साधना की प्रक्रिया थी, जिसमें तुम सिद्धासन लगाकर बैठते, उसमें जिस काम में वर्षों लग जाते, वह इस प्रक्रिया में महीनों में पूरी हो जाएगी। उसमें जिसमें जन्मों लग जाते, इसमें दिनों में हो सकती है। क्योंकि इसका निष्कासन तो उस प्रक्रिया में भी करना पड़ता था, लेकिन उस प्रक्रिया में जो मूवमेंट थे, वे फिजिकल बॉडी के बंद करके और ईथरिक बॉडी के करने पड़ते थे।
अब वह जरा दूसरी बात है। करने तो पड़ते ही थे, रोना तो पड़ता ही था, क्योंकि अगर रोना भीतर है तो उसका निकालना जरूरी है; और अगर हंसना भीतर है तो उसका भी निकालना जरूरी है; और अगर नाचना भीतर है तो उसका भी निकालना जरूरी है; और अगर चिल्लाने की इच्छा है तो वह भी निकलनी चाहिए। लेकिन अगर फिजिकल बॉडी का तुमने गहरा अभ्यास किया है और तुम उसे थिर रख सकते हो, घंटों के लिए, तो फिर इन सबका निकास तुम ईथरिक बॉडी से कर सकते हो; वह तुम्हारे दूसरे शरीर से इनका निकास हो सकता है। तब किसी को दिखाई नहीं पड़ेगा, सिर्फ तुमको दिखाई पड़ेगा। तब तुमने समाज से एक सुरक्षा कर ली। अब किसी को पता नहीं चल रहा है कि तुम नाच रहे हो, और भीतर तुम नाच रहे हो। यह नाच वैसा ही होगा जैसा तुम स्वप्न में नाचते हो; यह नाच वैसा ही होगा। भीतर तुम नाचोगे, भीतर तुम रोओगे, भीतर तुम हंसोगे, लेकिन तुम्हारा भौतिक शरीर इसकी कोई खबर बाहर नहीं देगा; वह जड़वत बैठा रहेगा; उस पर इसके कोई कंपन नहीं आएंगे।

 भौतिक शरीर के दमन से पागलपन की संभावना:

मेरी अपनी मान्यता है कि इतनी परेशानी इतनी सी बात के लिए उठानी बेमानी है। और वर्षों किसी आदमी को आसनों का अभ्यास कराकर फिर ध्यान में ले जाने का कोई प्रयोजन नहीं है। इसमें दूसरी और भी संभावनाएं हैं। इसमें बहुत संभावना यह है कि फिजिकल बॉडी का अगर बहुत गहरा सेंटर हो, तो वह आदमी अगर अपने भौतिक शरीर को दमन कर दे, तो हो सकता है ईथरिक शरीर में भी कंपन न हो सकें और वह सिर्फ जड़ की भांति बैठा रहे। और उस हालत में भीतर तो गहरी प्रक्रिया न हो, बस बाहर से बैठने का अभ्यास हो जाए। और यह भी डर है कि उस हालत में चूंकि ये सारी गतियां न हो पाएं, ये सब सप्रेस्त इकट्ठी रहें, तो वह कभी भी पागल हो सकता है।
पुराना साधक अनेक बार पागल होता देखा गया है; उसमें उन्माद आता था। जिस प्रक्रिया को मैं कह रहा हूं इसको अगर पागल भी करेगा, तो महीने, दो महीने के भीतर पागलपन के बाहर हो जाएगा। साधारण आदमी इस प्रक्रिया में कभी भी पागल नहीं हो सकता, क्योंकि हम पागलपन को दबाने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं, हम उसको निकालने की कोशिश कर रहे हैं। पुरानी साधना ने हजारों लोगों को पागल किया है। हम उसको नाम अच्छे देते थे—कभी कहते थे उन्माद, कभी हर्षोन्माद, कभी एक्सटेसी। हम नाम कुछ भी देते थे; हम कहते थे आदमी मस्त हो गया, औलिया हो गया, यह हो गया, वह हो गया। लेकिन वह हो गया पागल; उसने किसी चीज को इस बुरी तरह से दबाया कि अब वह उसके वश के बाहर हो गई।

 इस प्रक्रिया में पहला काम रेचन का:

इस प्रक्रिया में दोहरा काम है। इसमें पहला काम कैथार्सिस का है, इसमें पहला काम निकास का है; तुम्हारे भीतर जो दबा हुआ कचरा है, वह बाहर फिंक जाए; पहले तुम हलके हो जाओ, तुम इतने हलके हो जाओ कि तुम्हारे भीतर पागलपन की सारी संभावना क्षीण हो जाए, फिर तुम भीतर यात्रा करो।
तो इस प्रक्रिया में, जिसमें प्रकट पागलपन दिखाई पड़ता है, यह बड़े गहरे में पागलपन से मुक्ति की प्रक्रिया है। और मैं पसंद करता हूं कि जो है हमारे भीतर वह निकल जाए। उसका बोझ, उसका तनाव, उसकी चिंता छूट जानी चाहिए।
और यह बड़े मजे की बात है कि अगर पागलपन तुम पर आए, तब तुम उसके मालिक नहीं होते, लेकिन जिस पागलपन को तुम लाए हो, तुम उसके सदा मालिक हो। और एक बार तुम्हें पागलपन की मालकियत का पता चल जाए, तो तुम पर वह पागलपन कभी नहीं आ सकता जो तुम्हारा मालिक हो जाए।
अब एक आदमी अपनी मौज से नाच रहा है, गा रहा है, चिल्ला रहा है, रो रहा है, हंस रहा है—वह सब कर रहा है जो पागल करता है, लेकिन सिर्फ एक फर्क है कि पागल पर ये घटनाएं होती हैं, वह कर रहा है; उसके कोआपरेशन के बिना ये नहीं हो रही हैं। वह एक सेकेंड में चाहे कि बस, तो वह सब बंद हो जाता है। इस पर अब पागलपन कभी उतर नहीं सकता, क्योंकि पागलपन को इसने जीया है, देखा है, परिचित हुआ है। यह उसकी वालेंटरी, स्वेच्छा की चीज हो गई; पागल होना भी उसकी स्वेच्छा के अंतर्गत आ गया। हमारी सभ्यता ने हमें जो भी सिखाया है, उसमें पागलपन हमारी स्वेच्छा के बाहर हो गया है; वह नॉन—वालेंटरी हो गया है। तो जब आता है तब हम कुछ भी नहीं कर सकते।

 आनेवाली सभ्यता के पागलपन का ध्यान द्वारा निकास जरूरी:

तो इस प्रक्रिया को आनेवाली सभ्यता के लिए मैं बहुत कीमती मानता हूं क्योंकि आनेवाली पूरी सभ्यता रोज पागलपन की तरफ बढती चली जाती है। और प्रत्येक व्यक्ति को पागलपन के निकास की जरूरत है। और कोई उपाय भी नहीं है। अगर वह एक घंटा ध्यान में इसको निकालता है तो लोग उसके लिए धीरे— धीरे राजी हो जाते हैं, वे जानते हैं कि वह ध्यान कर रहा है। अगर इसको वह सड़क पर निकालता है तो पुलिस उसको पकड़कर ले जाएगी। अगर इसको क्रोध में निकालता है तो संबंध बिगड़ते हैं और कुरूप होते हैं। इसे किसी से झगड़े में निकालता है......निकालता तो है ही, निकालेगा नहीं तो मुश्किल में पड़ जाएगा। निकालता रहेगा, तरकीबें खोजता रहेगा—कभी शराब पीकर निकाल लेगा, कभी जाकर ट्विस्ट करके निकाल लेगा। लेकिन उतना उपद्रव क्यों लेना? उतना उपद्रव क्यों लेना?
अब ट्विस्ट है या और तरह के नाच हैं, वे सब आकस्मिक नहीं हैं। मनुष्य का शरीर भीतर से मूव करना चाहता है हमारे पास मूवमेंट की कोई जगह नहीं रह गई। तो वह इंतजाम करता है। फिर इंतजाम में और जाल बनते हैं। बिना इंतजाम के निकाल ले। तो ध्यान जो है वह बिना इंतजाम के निकालना है। हम कोई इंतजाम नहीं कर रहे हैं, उसको हम सिर्फ निकाल रहे हैं। और हम मानते हैं कि वह भीतर है और निकल जाना चाहिए।
अगर हम एक—एक बच्चे को शिक्षा के साथ इस कैथार्सिस को भी सिखा सकें, तो दुनिया में पागलों की संख्या एकदम गिराई जा सकती है; पागल होने की बात ही खत्म की जा सकती है। लेकिन वह रोज बढ़ती जा रही है। और जितनी सभ्यता बढ़ेगी, उतनी बढ़ेगी; क्योंकि सभ्यता उतना ही सिखाएगी—रोको! सभ्यता न तो जोर से हंसने देती, न जोर से रोने देती, न नाचने देती, न चिल्लाने देती; सभ्यता सब तरफ से दबा डालती है। और तुम्हारे भीतर जो—जो होना चाहिए वह रुकता जाता है, रुकता जाता है—फिर फूटता है; और जब वह फूटता है, तब तुम्हारे वश के बाहर हो जाता है।
तो कैथार्सिस इसका पहला हिस्सा है, जिसमें इसको निकालना है। इसलिए मैं शरीर के खड़े होने के पक्ष में हूं क्योंकि तब शरीर की जरा सी भी गति तुम्हें पता चलेगी और तुम गति कर पाओगे, तुम पूरे मुक्त हो जाओगे। इसलिए मैं साधक के पक्ष में हूं कि जब वह अपने कमरे में प्रयोग करता हो तो कमरा बंद रखे—न केवल खड़ा हो, बल्कि नग्न भी हो, क्योंकि वस्त्र भी उसको न रोकनेवाले बनें; वह सब तरह से स्वतंत्र हो गति करने को। जरा सी गति, और उसके सारे व्यक्तित्व में कहीं कोई अवरोध न हो जो उसे रोक रहा है। तो बहुत शीघ्रता से ध्यान में गति हो जाएगी। और जो हठयोग और दूसरे योगों ने जन्मों में किया था, वर्षों में किया था, वह इस ध्यान के प्रयोग से दिनों में हो सकता है।

 तीव्र साधना की जरूरत:

और अब दुनिया में वर्षों और जन्मों वाले योग नहीं टिक सकते। अब लोगों के पास दिन और घंटे भी नहीं हैं। और अब ऐसी प्रक्रिया चाहिए जो तत्काल फलदायी मालूम होने लगे कि एक आदमी अगर सात दिन का संकल्प कर ले तो फिर सात दिन में ही उसे पता चल जाए कि हुआ है बहुत कुछ, वह आदमी दूसरा हो गया है। अगर सात जन्मों में पता चले, तो अब कोई प्रयोग नहीं करेगा। पुराने दावे जन्मों के थे। वे कहते थे इस जन्म में करो, अगले जन्म में फल मिलेंगे। वे बड़े प्रतीक्षावाले धैर्यवान लोग थे। वे अगले जन्म की प्रतीक्षा में इस जन्म में भी साधना करते थे। अब कोई नहीं मिलेगा। फल आज न मिलता हो तो कल तक के लिए प्रतीक्षा करने की तैयारी नहीं है।
कल का कोई भरोसा भी नहीं है। जिस दिन से हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा है, उस दिन से कल खत्म हो गया है। अमेरिका के हजारों—लाखों लड़के और लड़कियां कालेज में पढ़ने जाने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं हम पढ़— लिखकर निकलेंगे तब तक दुनिया बचेगी? कल का कोई भरोसा नहीं है! तो वे कहते हैं हमारा समय जाया मत करो। जितने दिन हमारे पास हैं, हम जी लें।
हाईस्कूल से लड़के और लड़कियां स्कूल छोड्कर भागे जा रहे हैं। वे कहते हैं युनिवर्सिटी भी नहीं जाएंगे। क्योंकि छह साल में युनिवर्सिटी से निकलना.. .छह साल में दुनिया बचेगी? अब बेटा बाप से पूछ रहा है कि छह साल दुनिया का आश्वासन है? तो हम ये छह साल जो थोड़े—बहुत हमारी जिंदगी में हैं, हम क्यों न उनका उपयोग कर लें।
जहां कल इतना संदिग्ध हो गया है वहां तुम जन्मों की बातें करोगे, बेमानी है; कोई सुनने को राजी नहीं; न कोई सुन रहा है। इसलिए मैं कह रहा हूं आज प्रयोग हो और आज परिणाम होना चाहिए। और अगर एक घंटा कोई मुझे आज देने को राजी है, तो आज ही, उसी घंटे के बाद ही उसको परिणाम का बोध होना चाहिए, तभी वह कल घंटा दे सकेगा। नहीं तो कल के घंटे का कोई भरोसा नहीं है। तो युग की जरूरत बदल गई है। बैलगाड़ी की दुनिया थी, उस वक्त सब धीरे— धीरे चल रहा था, साधना भी धीरे— धीरे चल रही थी। जेट की दुनिया है, साधना भी धीरे— धीरे नहीं चल सकती; उसे भी तीव्र, गतिमान, स्पीडी होना पड़ेगा।

 प्रश्न : साधना करते समय मन में बहुत से विचार आएं तो उनको क्या करना चाहिए?

 प सुबह आ जाएं साधना के वक्त, तब बात करेंगे।

 ऊर्जा के प्रवाह को ग्रहण करने के लिए झुकना जरूरी:

प्रश्न: ओशो साष्टांग दंडवत प्रणाम करना दिव्य पुरुषों के चरणों पर माथा रखना या हाथों से चरण— स्पर्श करना पवित्र स्थानों में माथा टेकना दिव्य पुरुषों का अपने हाथ से साधक के सिर अथवा पीठ को छूकर आशीर्वाद देना सिक्कों व मुसलमानों का सिर ढांककर गुरुद्वारे व मस्जिद जाना इन सब प्रथाओं का कुंडलिनी ऊर्जा के संदर्भ में आकल्ट व स्त्रिचुअल अर्थ व महत्व समझाने की कृपा करें।

 र्थ तो है, अर्थ बहुत है। जैसा मैंने कहा, जब हम क्रोध से भरते हैं तो किसी को मारने का मन होता है। जब हम बहुत क्रोध से भरते हैं तो ऐसा मन होता है कि उसके सिर पर पैर रख दें। चूंकि पैर रखना बहुत अड़चन की बात होगी, इसलिए लोग जूता मार देते हैं। पैर रखना, एक पांच—छह फीट के आदमी के सिर पर पैर रखना बहुत मुश्किल की बात है, इसलिए सिंबालिक, उतारकर जूता उसके सिर पर मार देते हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता दुनिया में कि दूसरे के सिर में जूता मारने का क्या अर्थ है? सारी दुनिया में! ऐसा नहीं है कि कोई एक कौम, कोई एक देश..... .यह बड़ा युनिवर्सल तथ्य है कि क्रोध में दूसरे के सिर पर पैर रखने का मन होता है। और कभी जब आदमी निपट जंगली रहा होगा, तो जूता तो नहीं था उसके पास, वह सिर पर पैर रखकर ही मानता था।
ठीक इससे उलटी स्थितियां भी हैं चित्त की। जैसे क्रोध की स्थिति है, तब किसी के सिर पर पैर रखने का मन होता है; और श्रद्धा की स्थिति है, तब किसी के पैर में सिर रखने का मन होता है। उसके अर्थ हैं उतने ही, जितने पहले के। कोई क्षण है जब तुम किसी के सामने पूरी तरह झुक जाना चाहते हो; और झुकने के क्षण वही हैं, जब तुम्हें दूसरे के पास से अपनी तरफ ऊर्जा का प्रवाह मालूम पड़ता है। असल में, जब भी कोई प्रवाह लेना हो तब झुक जाना पड़ता है। नदी से भी पानी भरना हो तो झुकना पड़ता है। झुकना जो है, वह किसी भी प्रवाह को लेने के लिए अनिवार्य है। असल में, सब प्रवाह नीचे की तरफ बहते हैं। तो ऐसे किसी व्यक्ति के पास अगर लगे किसी को कि कुछ बह रहा है उसके भीतर— और कभी लगता है—तो उस क्षण में उसका सिर जितना झुका हो उतना सार्थक है।

 शरीर के नुकीले हिस्सों से ऊर्जा का प्रवाह:

फिर शरीर से जो ऊर्जा बहती है वह उसके उन अंगों से बहती है जो प्याइंटेड हैं—जैसे हाथ की अंगुलियां या पैर की अंगुलियां। सब जगह से ऊर्जा नहीं बहती। शरीर की जो विद्युत—ऊर्जा है, या शरीर से जो शक्तिपात है, या शरीर से जो भी शक्तियों का प्रवाह है, वह हाथ की अंगुलियों या पैर की अंगुलियों से होता है, पूरे शरीर से नहीं होता। असल में, वहीं से होता है जहां नुकीले हिस्से हैं; वहां से शक्ति और ऊर्जा बहती है। तो जिसे लेना है ऊर्जा, वह तो पैर की अंगुलियों पर सिर रख देगा, और जिसे देना है ऊर्जा, वह हाथ की अंगुलियों को दूसरे के सिर पर रख देगा।
ये बड़ी आकल्ट और बड़ी गहरी विज्ञान की बातें थीं।
स्वभावत:, बहुत से लोग नकल में उन्हें करेंगे। हजारों लोग सिर पर पैर रखेंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, हजारों लोग किसी के सिर पर हाथ रख देंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। और तब जो एक बहुत गहरा सूत्र था, धीरे— धीरे औपचारिक बन जाएगा। और जब लंबे अरसे तक वह औपचारिक और फार्मल होगा तो उसकी बगावत भी शुरू होगी। कोई कहेगा कि यह सब क्या बकवास है! पैर पर रखने से सिर क्या होगा? सिर पर हाथ रखने से क्या होगा?
सौ में निन्यानबे मौके पर बकवास है। हो गई है बकवास। क्योंकि.... .सौ में एक मौके पर अब भी सार्थक है। और कभी तो सौ में सौ मौके पर ही सार्थक थी; क्योंकि कभी वह स्पांटेनिअस एक्ट था। ऐसा नहीं था कि तुम्हें औपचारिक रूप से लगे तो किसी के पैर छुओ। नहीं, किसी क्षण में तुम न रुक पाओ और पैर में गिरना पड़े तो रुकना मत, गिर जाना। और ऐसा नहीं था कि किसी को आशीर्वाद देना है तो उसके सिर पर हाथ रखो ही। यह उसी क्षण रखना था, जब तुम्हारा हाथ बोझिल हो जाए और बरसने को तैयार हो जाए और उससे कुछ बहने को राजी हो, और दूसरा लेने को तैयार हो, तभी रखने की बात थी।
मगर सभी चीजें धीरे— धीरे प्रतीक हो जाती हैं। और जब प्रतीक हो जाती हैं तो बेमानी हो जाती हैं। और जब बेमानी हो जाती हैं तो उनके खिलाफ बातें चलने लगती हैं। और वे बातें बड़ी अपील करती हैं। क्योंकि जो बातें बेमानी हो गई हैं उनके पीछे का विज्ञान तो खो गया होता है। है तो बहुत सार्थक।

 ऊर्जा पाने के लिए खाली और खुला हुआ होना जरूरी:

और फिर, जैसा मैंने पीछे तुम्हें कहा, यह तो जिंदा आदमी की बात हुई। यह जिंदा आदमी की बात हुई। एक महावीर, एक बुद्ध, एक जीसस के चरणों में कोई सिर रखकर पड गया है और उसने अपूर्व आनंद का अनुभव किया है, उसने एक वर्षा अनुभव की है जो उसके भीतर हो गई है। इसे कोई बाहर नहीं देख पाएगा, यह घटना बिलकुल आंतरिक है। उसने जो जाना है वह उसकी बात है। और दूसरे अगर उससे प्रमाण भी मांगेंगे तो उसके पास प्रमाण भी नहीं है।
असल में, सभी आकल्ट फिनामिनन के साथ यह कठिनाई है कि व्यक्ति के पास अनुभव होता है, लेकिन समूह को देने के लिए प्रमाण नहीं होता। और इसलिए वह ऐसा मालूम पड़ने लगता है कि अंधविश्वास ही होगा। क्योंकि वह आदमी कहता है कि भई, बता नहीं सकते कि क्या होता है, लेकिन कुछ होता है। जिसको नहीं हुआ है, वह कहता है कि हम कैसे मान सकते हैं! हमें नहीं हुआ है। तुम किसी भ्रम में पड़ गए हो, किसी भूल में पड़ गए हो। और फिर हो सकता है, जिसको खयाल है कि नहीं होता है, वह भी जाकर जीसस के चरणों में सिर रखे। उसे नहीं होगा। तो वह लौटकर कहेगा कि गलत कहते हो! मैंने भी उन चरणों पर सिर रखकर देख लिया। वह ऐसा ही है कि एक घड़ा जिसका मुंह खुला है वह पानी में झुके और लौटकर घड़ों से कहे कि मैं झुका और भर गया। और एक बंद मुंह का घड़ा कहे कि मैं भी जाकर प्रयोग करता हूं। और वह बंद मुंह का घड़ा भी पानी में झुके, और बहुत गहरी डुबकी लगाए, लेकिन खाली वापस लौट आए। और वह कहे कि झुका भी, डुबकी भी लगाई, कुछ नहीं भरता है, गलत कहते हो!
घटना दोहरी है। किसी व्यक्ति से शक्ति का बहना ही काफी नहीं है, तुम्हारी ओपनिंग, तुम्हारा खुला होना भी उतना ही जरूरी है। और कई बार तो ऐसा मामला है कि दूसरे व्यक्ति से ऊर्जा का बहना उतना जरूरी नहीं है, जितना तुम्हारा खुला होना जरूरी है। अगर तुम बहुत खुले हो तो दूसरे व्यक्ति में जो शक्ति नहीं है, वह भी उसके ऊपर की, और ऊपर की शक्तियों से प्रवाहित होकर तुम्हें मिल जाएगी। इसलिए बड़े मजे की बात है कि जिनके पास नहीं है शक्ति, अगर उनके पास भी कोई पूरे खुले हृदय से अपने को छोड़ दे, तो उनसे भी उसे शक्ति मिल जाती है। उनसे नहीं आती वह शक्ति, वे सिर्फ माध्यम की तरह प्रयोग में हो जाते हैं; उनको भी पता नहीं चलता, लेकिन यह घटना भी घट सकती है।

 सिर पर कपड़ा बांधने का रहस्य:

दूसरी जो बात है सिर में कुछ बांधकर गुरुद्वारा या किसी मंदिर या किसी पवित्र जगह में प्रवेश की बात है। ध्यान में भी बहुत फकीरों ने सिर में कुछ बांधकर ही प्रयोग करने की कोशिश की है। उसका उपयोग है। क्योंकि जब तुम्हारे भीतर ऊर्जा जगती है तो तुम्हारे सिर पर बहुत भारी बोझ की संभावना हो जाती है। और अगर तुमने कुछ बांधा है तो उस ऊर्जा के विकीर्ण होने की संभावना नहीं होती, उस ऊर्जा के वापस आत्मसात हो जाने की संभावना होती है।
तो बांधना उपयोगी सिद्ध हुआ है, बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। अगर तुम ध्यान, कपड़ा बांधकर सिर पर करोगे, तो तुम फर्क अनुभव करोगे फौरन; क्योंकि जिस काम में तुम्हें पंद्रह दिन लगते, उसमें पांच दिन लगेंगे। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा जब सिर में पहुंचती है तो उसके विकीर्ण होने की संभावना है, उसके बिखर जाने की संभावना है। अगर वह बंध सके और एक वर्तुल बन सके तो उसका अनुभव प्रगाढ़ और गहरा हो जाएगा।
लेकिन अब तो वह औपचारिक है, मंदिर में किसी का जाना या गुरुद्वारे में किसी का सिर पर कपड़ा बांधकर जाना बिलकुल औपचारिक है। उसका अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन कहीं उसमें अर्थ है।
और व्यक्ति के चरणों में सिर रखकर तो कोई ऊर्जा पाई जा सके, व्यक्ति के हाथ से भी कोई ऊर्जा आशीर्वाद में मिल सकती है, लेकिन एक आदमी एक मंदिर में, एक वेदी पर, एक समाधि पर, एक मूर्ति के सामने सिर झुकाता है, इसमें क्या हो सकता है? तो इसमें भी बहुत सी बातें हैं; एक दो—तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।

 मंदिर, कब्रें— अशरीरी आत्माओं से संबंधित होने के उपाय:

पहली बात तो यह है कि ये सारी की सारी मूर्तियां एक बहुत ही वैज्ञानिक व्यवस्था से कभी निर्मित की गई थीं। जैसे समझें कि मैं मरने लग और दस आदमी मुझे प्रेम करनेवाले हैं, जिन्होंने मेरे भीतर कुछ पाया और खोजा और देखा था, और मरते वक्त वे मुझसे पूछते हैं कि पीछे भी हम आपको याद करना चाहें तो कैसे करें?
तो एक प्रतीक तय किया जा सकता है मेरे और उनके बीच, जो मेरे शरीर के गिर जाने के बाद उनके काम आ सके; एक प्रतीक तय किया जा सकता है। वह कोई भी प्रतीक हो सकता है—वह एक मूर्ति हो सकती है, एक पत्थर हो सकता है, एक वृक्ष हो सकता है, एक चबूतरा हो सकता है; मेरी समाधि हो सकती है, कब्र हो सकती है, मेरा कपड़ा हो सकता है, मेरी खड़ाऊं हो सकती है—कुछ भी हो सकता है। लेकिन वह मेरे और उनके, दोनों के बीच तय होना चाहिए। वह एक समझौता है। वह उनके अकेले से तय नहीं होगा; उसमें मेरी गवाही और मेरी स्वीकृति और मेरे हस्ताक्षर होने चाहिए—कि मैं उनसे कहूं कि अगर तुम इस चीज को सामने रखकर स्मरण करोगे, तो मैं अभौतिक स्थिति में भी मौजूद हो जाऊंगा। यह मेरा वायदा होना चाहिए। तो इस वायदे के अनुकूल काम होता है, बिलकुल होता है।
इसलिए ऐसे मंदिर हैं जो जीवित हैं, और ऐसे मंदिर हैं जो मृत हैं। मृत मंदिर वे हैं जो इकतरफा बनाए गए हैं, जिनमें दूसरी तरफ का कोई आश्वासन नहीं है। हमारा दिल है, हम एक बुद्ध का मंदिर बना लें। वह मृत मंदिर होगा; क्योंकि दूसरी तरफ से कोई आश्वासन नहीं है। जीवित मंदिर भी हैं, जिनमें दूसरी तरफ से आश्वासन भी है; और उस आश्वासन के आधार पर उस आदमी का वचन है।

बुद्ध—पुरुषों का मरने के बाद वायदों को पूरा करना:

तिब्बत में एक... अब तो जगह मुश्किल में पड़ गई, लेकिन तिब्बत में एक जगह थी जहां बुद्ध का आश्वासन पिछले पच्चीस सौ वर्ष से निरंतर पूरा हो रहा है। पांच सौ आदमियों की, पांच सौ लामाओं की एक छोटी समिति है। उन पांच सौ लामाओं में से जब एक लामा मरता है तब बामुश्किल से दूसरे को प्रवेश मिलता है। उसकी पांच सौ से ज्यादा संख्या नहीं हो सकती, कम नहीं हो सकती। जब एक मरेगा तभी एक जगह खाली होगी। और जब एक मरेगा और एक को प्रवेश मिलेगा, तो शेष सबकी सर्वसम्मति से ही प्रवेश मिल सकता है। यानी एक आदमी भी इनकार करनेवाला हो तो प्रवेश नहीं मिल सकेगा। वह जो पांच सौ लोगों की समिति है, वह बुद्ध—पूर्णिमा के दिन एक विशेष पर्वत पर इकट्ठी होती है। और ठीक समय पर, निश्चित समय पर—जो समझौते का हिस्सा है—निश्चित समय पर बुद्ध की वाणी सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है।
पर यह हर किसी पहाड़ पर नहीं होगा और हर किसी के सामने नहीं होगा; एक निश्चित समझौते के हिसाब से यह बात होगी। यह वैसा ही है, जैसे कि तुम सांझ को सोओ और तुम संकल्प करके सोओ कि मैं सुबह ठीक पांच बजे उठ आऊं! तब तुम्हें घड़ी की और अलार्म की कोई जरूरत नहीं होगी—तुम अचानक पांच बजे पाओगे कि नींद टूट गई है। और यह मामला इतना अदभुत है कि इस वक्त तुम घड़ी मिला सकते हो अपने उठने से। इस वक्त घड़ी गलत हो सकती है, तुम गलत नहीं हो सकते। तुम्हारे संकल्प का जो पक्का निर्णय हो तो तुम पांच बजे उठ जाओगे।
अगर तुमने संकल्प पक्का कर लिया कि मुझे फलां वर्ष में फलां दिन मर जाना है, तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें नहीं रोक सकेगी, तुम उस क्षण चले जाओगे। मरने के बाद भी, अगर तुम्हारे संकल्प की दुनिया बहुत प्रगाढ़ है, तो तुम मरने के बाद भी अपने वायदे पूरे कर सकते हो।
जैसे जीसस का मरने के बाद दिखाई पड़ना। वह वायदे की बात थी जो पूरी की गई। और इसलिए ईसाइयत बड़ी मुश्किल में है उसके पीछे— कि फिर क्या हुआ, क्या नहीं हुआ? जीसस दिखाई पड़े या नहीं पड़े? रिसरेक्ट हुए कि नहीं? वह एक वायदा था जो पूरा किया गया और जिनके लिए था उनके लिए पूरा कर दिया गया।
तो ऐसे स्थान हैं... असल में, ऐसे स्थान का नाम ही धीरे— धीरे तीर्थ बन गया जहां कोई जीवित वायदा हजारों साल से पूरा किया जा रहा था। फिर लोग वायदे को भी भूल गए और जीवित बात को भी भूल गए, समझौते को भी भूल गए, एक बात खयाल रही कि वहां आना—जाना है, और वे आते—जाते रहे, और अब भी आ—जा रहे हैं!
मोहम्मद के भी वायदे हैं, और शंकर के भी वायदे हैं, और कृष्‍ण के भी वायदे हैं, बुद्ध—महावीर के भी वायदे हैं। वे सब वायदे हैं खास जगहों से बंधे हुए; खास समय, खास घड़ी और खास मुहूर्त में उनसे संबंध फिर भी जोड़ा जा सकता है। तो उन स्थानों पर फिर सिर टेक देना पड़ेगा, और उन स्थानों पर फिर तुम्हें अपने को पूरा समर्पित कर देना होगा, तभी तुम संबंधित हो पाओगे।
तो उनका भी उपयोग तो है। लेकिन सभी उपयोगी बातें अंततः औपचारिक हो जाती हैं और सभी उपयोगी बातें अंतत: परंपरा बन जाती हैं, और मृत हो जाती हैं, और व्यर्थ हो जाती हैं। तब सबको तोड़ डालना पड़ता है, ताकि फिर से नये वायदे किए जा सकें और फिर से नये तीर्थ बन सकें और नई मूर्ति और नया मंदिर बन सके। वह सब तोड़ना पड़ता है, क्योंकि अब वह सब मृत हो जाता है, उसका हमें कुछ पता नहीं होता कि उसके पीछे कौन सी लंबी प्रक्रिया काम कर रही है।
एक योगी था दक्षिण में। एक अंग्रेज यात्री उसके पास आया। और उस अंग्रेज यात्री ने कहा कि मैं तो लौट रहा हूं और अब दुबारा हिंदुस्तान नहीं आऊंगा, लेकिन आपके अगर दर्शन करना चाहूं तो क्या करूं? तो उस योगी ने अपना एक चित्र उसे दे दिया और कहा, जब भी तुम द्वार बंद करके अंधेरे में इस चित्र पर पांच मिनट एकटक आंख की पलक झपे बिना देखोगे, तो मैं मौजूद हो जाऊंगा।
वह तो बेचारा मुश्किल से अपने घर तक पहुंचा। एक ही काम था उसके मन में कि कैसे घर जाकर... भरोसा भी नहीं था कि यह संभव हो सकता है। लेकिन यह संभव हुआ। और जो आदमी था, वह एक वैज्ञानिक डाक्टर था, वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। यह संभव हो गया। एक वायदा था जो एस्ट्रली पूरा किया जा सकता है, जो सूक्ष्म शरीर से पूरा हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। जिंदा आदमी भी पूरा कर सकता है, मरा हुआ आदमी भी पूरा कर सकता है।

मूर्ति व मकबरों का गुह्य रहस्य:

इसलिए चित्र भी महत्वपूर्ण हो गए, मूर्तियां भी महत्वपूर्ण हो गईं। उनके महत्वपूर्ण होने का कारण था कि उन्होंने कुछ वायदे पूरे किए। मूर्तियों ने भी वायदे पूरे किए। इसलिए मूर्ति बनाने की पूरी एक साइंस थी। हर किसी तरह की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। मूर्ति बनाने की एक पूरी व्यवस्था थी कि वह कैसी होनी चाहिए।
अब जैसे अगर तुम जैन तीर्थंकरों की, चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां देखो, तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। उनमें कोई फर्क नहीं है, वे बिलकुल एक जैसी हैं। सिर्फ उनके चिह्न अलग—अलग हैं, महावीर का एक चिह्न है, पार्श्वनाथ का एक चिह्न है नेमीनाथ का एक चिह्न है। लेकिन मूर्तियों के अगर चिह्न मिटा दिए जाएं नीचे से तो वे बिलकुल एक जैसी हैं। तुम उनमें कोई पता नहीं लगा सकते कि यह महावीर की है, कि पार्श्व की है, कि नेमी की है, कि किसकी है— पता नहीं लगा सकते।
निश्चित ही, ये सारे लोग तो एक सी शक्ल—सूरत के नहीं रहे होंगे। यह तो असंभव है। ये चौबीस आदमी एक ही शक्ल—सूरत के नहीं हैं। लेकिन जो पहली तीर्थंकर की मूर्ति थी, उसी मूर्ति को सबने अपनी मूर्ति की तरह, प्रतीक की तरह समझौता किया। अलग मूर्ति बनाने की क्या जरूरत थी? एक मूर्ति चलती थी, वह मूर्ति काम करती थी, उसी मूर्ति के माध्यम से हम भी काम कर लेंगे, एक सील—मुहर थी, वह काम करती थी। उसका मैंने भी उपयोग किया, तुमने भी उपयोग किया, तीसरे ने भी उपयोग किया। लेकिन फिर भी भक्तों का मन! जो महावीर को प्रेम करते थे, उन्होंने कहा, कोई एक चिह्न तो अलग हो। तो सिर्फ चिह्न भर अलग कर लिए गए। किसी का सिंह चिह्न है, किसी का कुछ है, किसी का कुछ है, वह अलग कर लिया गया लेकिन मूर्ति एक रही। और वे चौबीसों मूर्तियां बिलकुल एक सी मूर्तियां हैं; उनमें कोई फर्क नहीं है, सिर्फ चिह्न का फर्क है। लेकिन वह चिह्न भी समझौते का अंग है; उस चिह्न की मूर्ति से उस चिह्न से संबंधित व्यक्ति का ही उत्तर उपलब्ध होगा। वह चिह्न एक समझौता है जो अपना काम करेगा।

 मोहम्मद ने कोई स्थूल प्रतीक नहीं छोड़ा:

जैसे जीसस का चिह्न क्रास है, वह काम करेगा। जैसे मोहम्मद ने इनकार किया कि मेरी मूर्ति मत बनाना। मेरी मूर्ति मत बनाना! असल में, मोहम्मद के वक्त तक इतनी मूर्तियां बन गई थीं कि मोहम्मद एक बिलकुल ही दूसरा प्रतीक देकर जा रहे थे अपने मित्रों को कि मेरी मूर्ति मत बनाना, मैं बिना ही मूर्ति के, अमूर्ति में तुमसे संबंध बना लूंगा। तुम मेरी मूर्ति बनाना ही मत; तुम मेरा चित्र ही मत बनाना; मैं तुमसे बिना चित्र, बिना मूर्ति के संबंधित हो जाऊंगा। यह भी एक गहरा प्रयोग था, और बड़ा हिम्मतवर प्रयोग था, बहुत हिम्मतवर प्रयोग था। लेकिन साधारणजन को बड़ी कठिनाई पड़ी मोहम्मद से संबंध बनाने में।
इसलिए मोहम्मद के बाद हजारों फकीरों की कब्रें और मकबरे और समाधियां उन्होंने बना ली। क्योंकि मोहम्मद से संबंध बनाने का तो उनकी समझ में नहीं आया कि कैसे बनाएं। तब फिर उन्होंने कोई और आदमी की कब्र बनाकर उससे संबंध बनाया फिर मकबरे बनाए। और जितनी मकबरों और कब्रों की पूजा मुसलमानों में चली, उतनी दुनिया में किसी में नहीं चली। उसका कुल कारण इतना था कि मोहम्मद की कोई पकड़ नहीं थी उनके पास जिससे वे सीधे संबंधित हो जाते, कोई रूप नहीं बना पाते थे। तो उनको दूसरा रूप तत्काल बनाना पड़ा। और उस दूसरे रूप से उन्होंने संबंध जोड्ने शुरू किए।
यह सारी की सारी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। अगर विज्ञान की तरह उसे समझा जाए तो उसके अदभुत फायदे हैं; और अंधविश्वास की तरह उसे समझा जाए तो बहुत आत्मघाती है।

 मूर्ति की प्राण—प्रतिष्ठा का रहस्य:

प्रश्न: ओशो प्राण—प्रतिष्ठा का क्या महत्व है?

 हां, बहुत महत्व है। असल में, प्राण—प्रतिष्ठा का मतलब ही यह है। उसका मतलब ही यह है कि हम एक नई मूर्ति तो बना रहे हैं, लेकिन पुराने समझौते के अनुसार बना रहे हैं। और पुराना समझौता पूरा हुआ कि नहीं, इसके इंगित मिलने चाहिए। हम अपनी तरफ से जो पुरानी व्यवस्था थी, वह पूरी दोहराएंगे। हम उस मूर्ति को अब मृत न मानेंगे, अब से हम उसे जीवित मानेंगे। हम अपनी तरफ से पूरी व्यवस्था कर देंगे जो जीवित मूर्ति के लिए की जानी थी। और अब सिंबालिक प्रतीक मिलने चाहिए कि वह प्राण—प्रतिष्ठा स्वीकार हुई कि नहीं। वह दूसरा हिस्सा है, जो कि हमारे खयाल में नहीं रह गया। अगर वह न मिले, तो प्राण—प्रतिष्ठा हमने तो की, लेकिन हुई नहीं। उसके सबूत मिलने चाहिए। तो उसके सबूत के लिए चिह्न खोजे गए थे कि वे सबूत मिल जाएं तो ही समझा जाए कि वह मूर्ति सक्रिय हो गई।

 मूर्ति एक रिसीविंग प्‍वाइंट:

ऐसा ही समझ लें कि आप घर में एक नया रेडियो इंस्टाल करते हैं। तो पहले तो वह रेडियो ठीक होना चाहिए, उसकी सारी यंत्र व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। उसको आप घर लाकर रखते हैं, बिजली से उसका संबंध जोड़ते हैं। फिर भी आप पाते हैं कि वह स्टेशन नहीं पकड़ता, तो प्राण—प्रतिष्ठा नहीं हुई, वह जिंदा नहीं है, अभी मुर्दा ही है। अभी उसको फिर जांच—पड़ताल करवानी पड़े; दूसरा रेडियो लाना पड़े या उसे ठीक करवाना पड़े।
मूर्ति भी एक तरह का रिसीविंग प्याइंट है, जिसके साथ, मरे हुए आदमी ने कुछ वायदा किया है वह पूरा करता है। लेकिन आपने मूर्ति रख ली, वह पूरा करता है कि नहीं करता है, यह अगर आपको पता नहीं है और आपके पास कोई उपाय नहीं है इसको जानने का, तो मूर्ति है भी जिंदा कि मुर्दा है, आप पता नहीं लगा पाते।
तो प्राण—प्रतिष्ठा के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा तो पुरोहित पूरा कर देता है—कि कितना मंत्र पढ़ना है, कितने धागे बांधने हैं, कितना क्या करना है, कितना सामान चढ़ाना है, कितना यज्ञ—हवन, कितनी आग—सब कर देता है। यह अधूरा है और पहला हिस्सा है। दूसरा हिस्सा—जो कि पांचवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति ही कर सकता है, उसके पहले नहीं कर सकता—दूसरा हिस्सा है कि वह कह सके कि हां, मूर्ति जीवित हो गई। वह नहीं हो पाता। इसलिए हमारे अधिक मंदिर मरे हुए मंदिर हैं, जिंदा मंदिर नहीं हैं। और नये मंदिर तो सब मरे हुए ही बनते हैं; नया मंदिर तो जिंदा होता ही नहीं।

 सोमनाथ का मंदिर मृत था:

अगर एक जीवित मंदिर है तो उसका नष्ट होना किसी भी तरह संभव नहीं है, क्योंकि वह साधारण घटना नहीं है। वह साधारण घटना नहीं है। और अगर वह नष्ट होता है, तो उसका कुल मतलब इतना है कि जिसे आपने जीवित समझा था, वह जीवित नहीं था। जैसे सोमनाथ का मंदिर नष्ट हुआ। सोमनाथ के मंदिर के नष्ट होने की कहानी बड़ी अदभुत है और सारे मंदिर के विज्ञान के लिए बहुत सूचक है। मंदिर के पांच सौ पुजारी थे। पुजारियों को भरोसा था कि मंदिर जीवित है। इसलिए मूर्ति नष्ट नहीं की जा सकती। पुजारियों ने अपना काम सदा पूरा किया था। एकतरफा था वह काम, क्योंकि कोई नहीं था जो खबर देता कि जिंदा मूर्ति है कि मृत। तो जब बड़े—बड़े राजाओं और राजपूत सरदारों ने उन्हें खबर भेजी कि हम रक्षा के लिए आ जाएं, गजनवी आता है, तो उन्होंने स्वभावत: उत्तर दिया कि तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो मूर्ति सबकी रक्षा करती है, उसकी रक्षा तुम कैसे करोगे? उन्होंने क्षमा मांगी, सरदारों ने।
लेकिन वह भूल हो गई। भूल यह हो गई कि वह शतइr जिंदा न थी। पुजारी इस आशा में रहे कि मूर्ति जिंदा है और जिंदा मूर्ति की रक्षा की बात ही सोचनी गलत है। उसके पीछे हमसे ज्यादा विराट शक्ति का संबंध है, उसको बचाने का हम क्या सोचेंगे! लेकिन गजनवी आया और उसने एक गदा मारी और वह चार टुकड़े हो गई मूर्ति। फिर भी अब तक यह खयाल नहीं आया कि वह मूर्ति मुर्दा थी। फिर भी अब तक... अब तक यह खयाल नहीं आया कि वह मूर्ति मुर्दा थी, इसलिए टूट सकी।
नहीं, मंदिर की ईंट नहीं गिर सकती है, अगर वह जीवित है। वह जीवित है तो उसका कुछ बिगड़ नहीं सकता।

 मंदिर के जीवित होने का गहन विज्ञान:

लेकिन अक्सर मंदिर जीवित नहीं हैं। और उसके जीवित होने की बड़ी कठिनाइयां हैं। मंदिर का जीवित होना बड़ा भारी चमत्कार है और एक बहुत गहरे विज्ञान का हिस्सा है। जिस विज्ञान को जाननेवाले लोग भी नहीं हैं, पूरा करनेवाले लोग भी नहीं हैं, और जिसमें इतनी कठिनाइयां हो गई हैं खड़ी; क्योंकि पुरोहितों और दुकानदारों का इतना बड़ा वर्ग मंदिरों के पीछे है कि अगर कोई जाननेवाला हो तो उसको मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। उसकी बहुत कठिनाई हो गई है। और वह एक धंधा बन गया है जिसमें कि पुरोहित के लिए हितकर है कि मंदिर मुर्दा हो। जिंदा मंदिर पुरोहित के लिए हितकर नहीं है। वह चाहता है कि एक मरा हुआ भगवान भीतर हो, जिसको वह ताला—चाबी में बंद रखे और काम चला ले। अगर उस मंदिर से कुछ और विराट शक्तियों का संबंध है तो पुरोहित का टिकना वहां मुश्किल हो जाएगा; उसका जीना वहां मुश्किल हो जाएगा। इसलिए पुरोहित ने बहुत मुर्दा मंदिर बना लिए हैं और वह रोज बनाए चला जा रहा है। मंदिर तो रोज बन जाते हैं, उनकी कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन वस्तुत: जो जीवित मंदिर हैं वे बहुत कम होते जाते हैं।
जीवित मंदिरों को बचाने की इतनी चेष्टा की गई, लेकिन पुरोहितों का जाल इतना बड़ा है हर मंदिर के साथ, हर धर्म के साथ कि बहुत मुश्किल है उसको बचाना। और इसलिए सदा फिर आखिर में यही होता है.. .इसलिए इतने मंदिर बने, नहीं तो इतने मंदिर बनने की कोई जरूरत न पड़ती। अगर महावीर के वक्त में उपनिषदों के समय में बनाए गए मंदिर जीवित होते और तीर्थ जीवित होते, तो महावीर को अलग बनाने की कोई जरूरत न पड़ती। लेकिन वे मर गए थे। और उन मरे मंदिरों और पुरोहितों का एक जाल था, जिसको तोड़कर प्रवेश करना असंभव था। इसलिए नये बनाने के सिवाय कोई उपाय नहीं था। आज महावीर का मंदिर भी मर गया है; उसके पास भी उसी तरह का जाल है।

 शर्तें पूरी न करने पर वायदे का टूट जाना:

दुनिया में इतने धर्म न बनते, अगर जो जीवंत तत्व है वह बच सके। लेकिन वह बच नहीं पाता। उसके आसपास सब उपद्रव इकट्ठा हो जाता है। और वह जो उपद्रव है, वह धीरे— धीरे, धीरे— धीरे सारी संभावनाएं तोड देता है। और जब एक तरफ से संभावना टूट जाती है तो दूसरी तरफ से समझौता भी टूट जाता है। वह समझौता किया गया समझौता है। उसे हमें निभाना है। अगर हम निभाते हैं तो दूसरी तरफ से निभता है, नहीं तो विदा हो जाता है, बात खत्म हो जाती है।
जैसे कि मैं कहकर जाऊं कि कभी आप मुझे याद करना तो मैं मौजूद हो जाऊंगा। लेकिन आप कभी याद ही करना बंद कर दो या मेरे चित्र को एक कचरेघर में डाल दो और फिर उसका खयाल ही भूल जाओ, तो यह समझौता कब तक चलेगा! यह समझौता टूट गया आपकी तरफ से, इसे मेरी तरफ से भी रखने की अब कोई जरूरत नहीं रह जाती। ऐसे समझौते टूटते गए हैं।
लेकिन प्राण—प्रतिष्ठा का अर्थ है। और प्राण—प्रतिष्ठा का दूसरा हिस्सा ही महत्वपूर्ण है कि प्राण—प्रतिष्ठा हुई या नहीं, उसकी कसौटी और परख है। वह परख भी पूरी होती है।

 प्रश्न : ओशो कुछ मंदिरों में मूर्ति के ऊपर पानी आप ही आप झरता रहता है। क्या यह उस मंदिर के जीवित होने का सूचक है?

हीं, पानी वगैरह से तो कुछ लेना—देना नहीं है। पानी तो बिना मूर्ति की प्रतिष्ठा किए भी झरता रहता है; मूर्ति भी रखें तो भी झर सकता है। उसकी कोई बड़ी कठिनाई नहीं है; वह कोई बड़ा सवाल नहीं है। ये सब झूठे प्रमाण हैं जिनके आधार पर हम सोच लेते हैं कि प्रतिष्ठा हो गई। ये सब झूठे प्रमाण हैं जिनके आधार पर हम सोच लेते हैं कि प्रतिष्ठा हो गई। पानी—वानी झरने से कोई लेना—देना नहीं है। जहां बिलकुल पानी नहीं गिरता, वहां भी जीवित मंदिर हैं; वहां भी हो सकते हैं।

 दीक्षा दी नहीं जाती—घटित होती है:

प्रश्न: ओशो आध्यात्मिक साधना में दीक्षा का कत ही महत्वपूर्ण स्थान है। उसकी विशेष विधियां विशेष स्थितियों में होती हैं। बुद्ध और महावीर भी दीक्षा देते थे। अत: कृपया बताएं कि दीक्षा का क्या सूक्ष्म अर्थ है? दीक्षा कितने प्रकार की संभव है? उसका महत्व और उसकी उपयोगिता क्या है? और उसकी आवश्यकता क्यों है?

 दीक्षा के संबंध में थोड़ी सी बात उपयोगी है। एक तो यह कि दीक्षा दी नहीं जाती; दीक्षा दी भी नहीं जा सकती। दीक्षा घटित होती है; वह एक हैपनिंग है। कोई व्यक्ति महावीर के पास है। कभी—कभी वर्षों लग जाते हैं दीक्षा होने में। क्योंकि महावीर कहते हैं—रुको, साथ रहो, चलो, उठो, बैठो, इस तरह जीओ, इस तरह ध्यान में प्रवेश करो, इस तरह उठो, इस तरह बैठो, ऐसा जीओ। एक घड़ी है ऐसी जब वह व्यक्ति तैयार हो जाता है, और तब महावीर सिर्फ माध्यम रह जाते हैं। बल्कि माध्यम कहना भी शायद ठीक नहीं, बहुत गहरे में सिर्फ साक्षी, एक विटनेस रह जाते हैं, एक गवाह रह जाते हैं—उनके सामने दीक्षा घटित होती है।

 दीक्षा सदा परमात्मा से घटित होती है:

दीक्षा सदा परमात्मा से है। महावीर के समक्ष घटित होती है। लेकिन निश्चित ही, जिस पर घटित होती है, उसको तो महावीर दिखाई पड़ते हैं, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। उसे तो सामने महावीर दिखाई पड़ते हैं, और महावीर के साथ में ही उस पर घटित होती है। स्वभावत: वह महावीर के प्रति अनुगृहीत होता है। यह उचित है। लेकिन महावीर उसके अनुग्रह को स्वीकार नहीं करते। क्योंकि वे तो तभी स्वीकार कर सकते हैं जब कि वे मानते हों कि मैंने दीक्षा दी है।
इसलिए दो तरह की दीक्षाएं हैं। एक दीक्षा तो वह जो घटित होती है—जिसे मैं दीक्षा कहता हूं—वह इनीशिएशन है, जिसमें तुम परमात्मा से संबंधित हुए, तुम्हारी जीवन—यात्रा बदली। तुम और हो गए। तुम अब वही नहीं हो जो थे। तुम्हारा सब रूपांतरित हो गया, तुम्हें कुछ नया दिखा, तुममें कुछ नया घटित हुआ, तुममें कुछ नई किरण आई, तुम्हारा सब कुछ और हो गया है। एक तो यह दीक्षा है, जिसमें जिसको हम गुरु कहते हैं, वह सिर्फ विटनेस की तरह, गवाह की तरह खडा होता है। और वह सिर्फ इतना ही बता सकेगा कि हां, दीक्षा हो गई; क्योंकि वह पूरा देख रहा है, तुम आधा ही देख रहे हो। तुम्हें, तुम पर जो हो रहा है, वह दिखाई पड़ रहा है। उसे वह भी दिखाई पड़ रहा है, जिससे हो रहा है। इसलिए तुम पक्के गवाह नहीं हो सकते कि हुई घटना कि नहीं हुई; तुम इतना ही कह सकते हो कि बहुत कुछ रूपांतरण हुआ।
 लेकिन दीक्षा हुई कि नहीं? मैं स्वीकृत हुआ या नहीं? दीक्षा का मतलब है हैव आई बीन एक्सेप्टेड? क्या मैं चुन लिया गया? क्या मैं स्वीकृत हो गया उस परमात्मा को? क्या अब मैं मानूं कि मैं उसका हो गया? अपनी तरफ से तो मैंने छोड़ा, उसकी तरफ से भी मैं ले लिया गया हूं या नहीं?
लेकिन इसका तुम्हें एकदम से पता नहीं चल सकता। तुम्हें थोड़े अंतर तो पता चलेंगे, लेकिन पता नहीं ये अंतर काफी हैं या नहीं? तो वह जो दूसरा आदमी है, जिसको हम गुरु कहते रहे हैं, वह इतना जान सकता है, उसे दोनों घटनाएं दिखाई पड़ रही हैं।

 गुरु—मात्र गवाह:

सम्यक दीक्षा दी नहीं जाती, ली भी नहीं जाती, परमात्मा से घटित होती है, तुम सिर्फ ग्राहक होते हो। और जिसे तुम गुरु कहते हो, वह सिर्फ साक्षी और गवाह होता है।
दूसरी दीक्षा, जिसको हम फाल्स इनीशिएशन कहें, झूठी दीक्षा कहें, वह दी जाती है और ली जाती है। उसमें ईश्वर बिलकुल नहीं होता, उसमें गुरु और शिष्य ही होते हैं—गुरु देता है और शिष्य लेता है—लेकिन तीसरा और असली मौजूद नहीं होता। जहां दो मौजूद हैं सिर्फ—गुरु और शिष्य—वहां दीक्षा झूठी होगी, जहां तीन मौजूद हैं—गुरु, शिष्य और वह भी, जिससे दीक्षा घटित होगी, वहां सब बात बदल जाएगी।
तो यह जो दीक्षा देने का उपक्रम है, यह अनुचित है। अनुचित ही नहीं, खतरनाक है, घातक है; क्योंकि इस दीक्षा के भ्रम में वह दीक्षा कभी घटित न हो पाएगी अब। अब तुम तो इस भ्रम में जीओगे कि दीक्षा हो गई।
अब एक साधु मेरे पास आए। अब वे दीक्षित हैं किसी के, कहते हैं, फलां गुरु का दीक्षित हूं और ध्यान सीखने आपके पास आया हूं। तो मैंने कहा, दीक्षा किसलिए ली? और जब दीक्षा में ध्यान भी नहीं आया, तो और क्या मिला है दीक्षा में? वस्त्र मिल गए हैं! नाम मिल गया है! और जब ध्यान अभी खोजना पड़ रहा है, तो दीक्षा कैसे हो गई? क्योंकि सच तो यह है कि ध्यान के बाद ही दीक्षा हो सकती है, दीक्षा के बाद ध्यान का कोई मतलब नहीं है। एक आदमी कहता है, मैं स्वस्थ हो गया हूं; और डाक्टरों के दरवाजों पर घूम रहा है और कहता है कि मुझे दवा चाहिए। दीक्षा तो ध्यान के बाद मिली हुई स्वीकृति है; वह सैंक्शान है कि तुम स्वीकृत कर लिए गए, अंगीकार कर लिए गए, परमात्मा तक तुम्हारी खबर पहुंच गई, उस दुनिया में भी तुम्हारा प्रवेश हो गया है, इस बात की स्वीकृति भर दीक्षा है।

 सम्यक दीक्षा को पुनजार्वित करना पड़ेगा:

लेकिन ऐसी दीक्षा खो गई है। और मैं चाहता हूं कि ऐसी दीक्षा पुनरुज्जीवित हो, जिसमें गुरु देनेवाला न हो, जिसमें शिष्य लेनेवाला न हो, जिसमें गुरु गवाह हो, शिष्य ग्राहक हो, और देनेवाला परमात्मा हो।
और यह हो सकता है। और यह होना चाहिए। उस दिन तुम्हारा मेरे प्रति..... अगर मैं किसी का गवाह हूं दीक्षा में, तो मैं उसका गुरु नहीं हो जाता, गुरु तो उसका परमात्मा ही हुआ फिर। और वह अगर अनुगृहीत है, तो यह उसकी बात है। लेकिन अनुग्रह मांगना बेमानी है, स्वीकार करने का भी कोई अर्थ नहीं है।
गुरुडम पैदा हुई दीक्षा को एक नई शक्ल देने से। कान फूंके जा रहे हैं! मंत्र दिए जा रहे हैं! कोई भी आदमी किसी को भी दीक्षित कर रहा है। वह खुद भी दीक्षित है, यह भी पक्का नहीं है। परमात्मा तक वह भी स्वीकृत हुआ है, इसका भी कोई पक्का नहीं है। वह भी इसी तरह दीक्षित है। किसी ने उसके कान फूंके हैं, वह किसी दूसरे के फूंक रहा है! वह दूसरा कल किसी और के फूंकने लगेगा!

झूठी दीक्षा आध्यात्मिक अपराध:

आदमी हर चीज में झूठ और डिसेप्शन पैदा कर लेता है। और जितनी रहस्यपूर्ण बातें हैं, वहां तो प्रवंचना बहुत संभव है, क्योंकि वहां तो कोई पकड़कर हाथ में दिखानेवाली चीज नहीं है। अब मैं चाहता हूं इस प्रयोग को भी करना चाहता हूं इस प्रयोग को भी करना चाहता हूं दस—बीस लोग तैयार हो रहे हैं, वे दीक्षा लें परमात्मा से। बाकी लोग जो मौजूद हों, वे गवाह हों। बस वे इतना कह सकें, इतना भर बता सकें कि ऊपर तक स्वीकृत बात हो गई कि नहीं हो गई। उतना काम है। अनुभव तो तुम्हें भी होगा, लेकिन तुम एकदम से पहचान न पाओगे। इतना अपरिचित जगत है वह, तुम रिकग्नाइज कैसे करोगे कि हो गया? बस उतनी बात का मूल्य है। इसलिए परम गुरु तो परमात्मा ही है। अगर बीच के गुरु हट जाएं तो आसानी हो जाती है।
लेकिन बीच के गुरु बहुत पैर जमाकर खड़े होते हैं; क्योंकि खुद को परमात्मा बनाने और दिखलाने का मजा अहंकार के लिए बहुत है। इस अहंकार के आसपास बहुत तरह की दीक्षाएं दी जाती हैं। उनका कोई भी मूल्य नहीं है। और आध्यात्मिक अर्थों में वह सब क्रिमिनल एक्ट है। और किसी दिन अगर हम आध्यात्मिक अपराधियों को सजा दें तो उनको सजा मिलनी चाहिए। क्योंकि वह एक आदमी को इस धोखे में रखना है कि उसकी दीक्षा हो गई। और वह आदमी अकडकर चलने लगता है कि मैं दीक्षित हूं—मुझे दीक्षा मिल गई, मंत्र मिल गया, यह हो गया, वह हो गया—वह यह सब मानकर चलता है। और इसलिए वह जो उसका होनेवाला था, जिसकी वह खोज करता, वह खोज बंद कर देता है।

 बौद्ध धर्म के त्रिशरणों का वास्तविक अर्थ:

बुद्ध के पास कोई भी आता, तो कभी एकदम से दीक्षा नहीं होती थी, वर्षों कभी लग जाते। उस आदमी को कहते कि रुको, अभी ठहरो, अभी इतना करो, अभी इतना करो, इतना करो, फिर किसी दिन, फिर किसी दिन—उसको टालते चले जाते। जिस दिन वह घड़ी आ जाती, उस दिन वे खुद कह देते कि अब तुम खड़े हो जाओ और दीक्षित हो जाओ।
लेकिन वह जो दीक्षा थी, उसके तीन हिस्से थे। जिस दिन वह दीक्षा होती—बुद्ध की जो दीक्षा थी उसके तीन हिस्से थे। वह जो दीक्षित होता, वह तीन तरह की शरण जाता; थ्री टाइम्स ऑफ सरेंडर थे वे। वह तीन तरह की शरण करता।

 बुद्धं शरणं गच्छामि:

वह कहता, बुद्ध की शरण जाता हूं। और ध्यान रहे, बुद्ध की शरण जाने का मतलब गौतम बुद्ध की शरण जाना नहीं था; बुद्ध की शरण जाने का मतलब है—जागे हुए की शरण जाता हूं। इसका मतलब गौतम बुद्ध की शरण कभी भी नहीं था।
इसलिए बुद्ध से एक दफा किसी ने पूछा कि आप सामने बैठे हैं और एक आदमी आकर कहता है—बुद्ध शरणं गच्छामि। और आप सुन रहे हैं!
तो बुद्ध ने कहा कि वह मेरी शरण नहीं जा रहा, वह जागे हुए की शरण जा रहा है। मैं तो महज बहाना हूं। मेरी जगह और बुद्ध होते रहेंगे, मेरी जगह और बुद्ध हुए हैं; मैं तो सिर्फ एक बहाना हूं एक खूंटी हूं। वह जागे हुए की शरण जा रहा है, मैं कौन हूं जो बाधा दूं? वह मेरी शरण जाए तो मैं रोक दूं वह कहता है, बुद्ध की शरण।
तो तीन बार वह जागे हुए की शरण जा रहा है। वह जागे हुए के सामने अपने को समर्पित कर रहा है।

 संघ शरणं गच्छामि:
फिर दूसरी शरण और अदभुत है! वह है. संघ शरणं गच्छामि। वह तीन बार संघ की शरण जा रहा है। संघ का मतलब? आमतौर से बुद्ध को माननेवाले भी समझते हैं संघ का मतलब बुद्ध का संघ। नहीं, वह संघ का मतलब नहीं है। संघ का मतलब है जागे हुओं का संघ। एक ही बुद्ध थोड़े ही है जागा हुआ! बहुत बुद्ध हो चुके हैं जो जाग गए, बहुत बुद्ध होंगे जो जागेंगे—उन सबका संघ है एक, उन सबकी एक कम्युनिटी है, एक कलेक्टिविटी है। तो कोई बुद्ध के संघ की शरण जा रहा हूं वह तो बौद्धों की समझ है कि वह कह रहा है कि अब बुद्ध का जो यह संप्रदाय है. इसकी मैं शरण जा रहा हूं।
नहीं, जब पहले सूत्र से ही साफ हो जाता है, जब बुद्ध कहते हैं, वह मेरी शरण नहीं जा रहा है, जागे हुए की शरण जाता है, तो दूसरा सूत्र और भी साफ हो जाता है कि वह जागे हुओं के संघ की शरण जाता है। पहले वह एक व्यक्ति को जो सामने मौजूद है, उस पर अपने को समर्पित कर रहा है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष है; आसान है इससे बात करनी। फिर वह उस बड़ी ब्रदरहुड, उस बड़े संघ के लिए समर्पण कर रहा है, जो जागे हैं कभी, जिनका उसे पता नहीं; जो कभी जागेंगे भविष्य में, उनका भी उसे कोई पता नहीं; जो अभी भी जागे हुए होंगे कहीं, उनका भी उसे कोई पता नहीं; वह उनको भी समर्पण कर रहा है कि मैं तुम्हारी भी शरण जाता हूं। वह एक कदम आगे बढ़ा सूक्ष्म की तरफ।

 धम्म शरणं गच्छामि:

तीसरी शरण है धम्म शरणं गच्छामि। तीसरी बार वह कह रहा है : मैं धर्म की शरण जाता हूं। पहला, जो जागे हुए बुद्ध हैं उनकी। दूसरा, जो बुद्धों का जागा हुआ संघ है, उनकी। और तीसरा, जो जागरण की परम अवस्था है— धर्म, स्वभाव, जहां न व्यक्ति रह जाता है, जहां न संघ रह जाता है, जहां सिर्फ नियम, दि ली, सिर्फ धर्म रह जाता है—मैं उस धर्म की शरण जाता हूं। ये तीन शरण जब वह पूरी कर दे— और यह सिर्फ कहने की बात न थी— यह जब पूरी हो जाए और बुद्ध को दिखाई पड़े कि ये तीन शरण इसकी पूरी हो गई हैं, तब दीक्षित होता वह आदमी; और बुद्ध सिर्फ गवाह होते। इसलिए बुद्ध उसको दीक्षा के बाद भी कहते कि मैं जो कहूं तू उसे इसलिए मत मान लेना कि मैं बुद्ध—पुरुष हूं मैं जो कहूं उसे इसलिए मत मान लेना कि एक महान व्यक्ति ने कहा; मैं जो कहूं उसे इसलिए मत मान लेना कि जिसने कहा उसे बहुत लोग मानते हैं; मैं जो कहूं उसे इसलिए मत मान लेना कि शास्त्रों में वही लिखा है। नहीं, तेरी बुद्धि जो कहे, अब तू उसी को मानना।
वे गुरु बन नहीं रहे हैं। इसलिए मरते वक्त जो आखिरी संदेश है बुद्ध का, वह है. अप्प दीपो भव! आखिरी वक्त जब उनसे कहा है कि कुछ और संदेश दें! तो वे आखिरी संदेश देते हैं कि तुम अपने दीपक खुद ही बनना, तुम किसी के पीछे मत जाना, अनुसरण मत करना। बी ए लाइट अनटू योरसेल्फ! अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बन जाना, बस यह मेरा आखिरी..... .यह आखिरी संदेश है।

 दीक्षा देकर बांधनेवाले गुस्थ्यों से सावधान:

तो ऐसा व्यक्ति गुरु नहीं बनता; ऐसा व्यक्ति साक्षी है, गवाह है। जीसस ने बहुत जगह यह बात कही है कि जिस दिन निर्णय होगा, मैं तुम्हारी गवाही रहूंगा। जीसस बहुत जगह यह बात कहे हैं कि जिस दिन अंतिम निर्णय होगा, मैं तुम्हारी गवाही रहूंगा। अंतिम निर्णय के वक्त मैं कहूंगा कि हां, यह आदमी जागने की आकांक्षा किया था; यह आदमी परमात्मा के लिए समर्पण की आकांक्षा किया था। यह तो प्रतीक में कहना है, लेकिन क्राइस्ट यह कह रहे हैं कि मैं गवाही हूं मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं।
गुरु कोई भी नहीं है। इसलिए जिस दीक्षा में कोई आदमी गुरु बन जाता हो, उस दीक्षा से सावधान होना जरूरी है। और जिस दीक्षा में परमात्मा ही सीधा, इमीजिएट और डायरेक्ट संबंध में आता हो, वह दीक्षा बड़ी अनूठी है।
और ध्यान रहे कि इस दूसरी दीक्षा में न तो किसी को घर छोड्कर भागने की जरूरत है; न इस दूसरी दीक्षा में किसी को हिंदू मुसलमान, ईसाई होने की जरूरत है; न इस दूसरी दीक्षा में किसी से बंधने की कोई जरूरत है। इसमें तुम अपनी परिपूर्ण स्वतंत्रता में जैसे हो, जहां हो, वैसे ही रह सकते हो, सिर्फ भीतर तुम्हारी बदलाहट शुरू हो जाएगी। लेकिन वह जो पहली झूठी दीक्षा है, उसमें तुम किसी धर्म से बंधोगे—हिंदू बनोगे, मुसलमान बनोगे, ईसाई बनोगे; किसी संप्रदाय के हिस्से बनोगे, कोई पंथ, कोई मान्यता, कोई डाग्मेटिज्म तुम्हें पकड़ेगा; कोई आदमी, कोई गुरु, वे सब तुम्हें पकड़ लेंगे, वे तुम्हारी स्वतंत्रता की हत्या कर देंगे। जो दीक्षा स्वतंत्रता न लाती हो, वह दीक्षा नहीं है; जो दीक्षा परम स्वतंत्रता लाती हो, वही दीक्षा है।

 बुद्ध के पुनर्जन्म का रहस्य:

प्रश्न: ओशो आपने कहा कि बुद्ध सातवें शरीर में महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए लेकिन अन्यत्र एक प्रवचन में आपने कहा है कि बुद्ध का एक और जन्म मनुष्य शरीर में मैत्रेय के नाम से होनेवाला है। तो निर्वाण काया में चले जाने के बाद पुन: मनुष्य शरीर लेना कैसे संभव होगा इसे संक्षेप में स्पष्ट करने की कृपा करें।

 हां, यह जरा कठिन बात है, इसलिए मैंने कल छोड़ दी थी, क्योंकि इसकी लंबी ही बात करनी पड़े। लेकिन फिर भी थोड़े में समझ लें।
सातवें शरीर के बाद वापस लौटना संभव नहीं है। सातवें शरीर की उपलब्धि के बाद पुनरागमन नहीं है; वह प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न है। वहां से वापस नहीं आया जा सकता। लेकिन दूसरी बात सही है जो मैंने कही है कि बुद्ध कहते हैं कि मैं एक बार और आऊंगा, मैत्रेय के शरीर में, मैत्रेय नाम से एक बार और वापस लौटूंगा। अब ये दोनों ही बातें तुम्हें विरोधी दिखाई पड़ेगी। क्योंकि मैं कहता हूं सातवें शरीर के बाद कोई वापस नहीं लौट सकता; और बुद्ध का यह वचन है कि वे वापस लौटेंगे और बुद्ध सातवें शरीर को उपलब्ध होकर महानिर्वाण में समाहित हो गए हैं। तब यह कैसे संभव होगा?
इसका दूसरा ही रास्ता है। असल में, सातवें शरीर में प्रवेश के पहले... अब तुम्हें थोड़ी सी बात समझनी पड़े। जब हमारी मृत्यु होती है तो भौतिक शरीर गिर जाता है, लेकिन बाकी कोई शरीर नहीं गिरता। मृत्यु जब हमारी होती है तो भौतिक शरीर गिरता है, बाकी छह शरीर हमारे हमारे साथ रहते हैं। जब कोई पांचवें शरीर को उपलब्ध होता है, तो शेष चार शरीर गिर जाते हैं और तीन शरीर शेष रह जाते हैं—पांचवां, छठवां और सातवां। पांचवें शरीर की हालत में, यदि कोई चाहे..... .यदि कोई चाहे पांचवें शरीर की हालत में, तो ऐसा संकल्प कर सकता है कि उसके बाकी दूसरे और तीसरे और चौथे, तीन शरीर शेष रह जाएं। और अगर यह संकल्प गहरा किया जाए— और बुद्ध जैसे आदमी को यह संकल्प गहरा करने में कोई कठिनाई नहीं है— तो वह अपने दूसरे, तीसरे और चौथे शरीर को सदा के लिए छोड़ जा सकता है। ये शरीर शक्तिपुंज की तरह अंतरिक्ष में भ्रमण करते रहेंगे।
दूसरा ईथरिक, जो भाव शरीर है, तो बुद्ध की भावनाएं, बुद्ध ने अपने अनंत जन्मों में जो भावनाएं अर्जित की हैं, वे इस शरीर की संपत्ति हैं। उसकी सब सूक्ष्म तरंग इस शरीर में समाहित हैं। फिर एस्ट्रल बॉडी, सूक्ष्म शरीर है। इस सूक्ष्म शरीर में बुद्ध के जीवन की जितनी सूक्ष्मतम कर्मों की उपलब्धियां हैं, उन सबके संस्कार इसमें शेष हैं। और चौथा मनस शरीर, मेंटल बॉडी है। बुद्ध के मनस की सारी उपलब्धियां! और बुद्ध ने जो मनस के बाहर उपलब्धियां की हैं, वे भी कही तो मन से ही हैं, उनको अभिव्यक्ति तो मन से ही देनी पड़ती है। कोई आदमी पांचवें शरीर से भी कुछ पाए, सातवें शरीर से भी कुछ पाए, जब भी कहेगा तो उसको चौथे शरीर का ही उपयोग करना पड़ेगा, कहने का वाहन तो चौथा शरीर ही होगा।
तो बुद्ध की जितनी वाणी दूसरे लोगों ने सुनी है, वह तो बहुत कम है, सबसे ज्यादा वाणी तो बुद्ध की बुद्ध के ही चौथे शरीर ने सुनी है। जो बुद्ध ने सोचा भी है, जीया भी है, देखा भी है, समझा भी है, वह सब चौथे शरीर में संगृहीत है।
ये तीनों शरीर सहज तो नष्ट हो जाते हैं—पांचवें शरीर में प्रविष्ट हुए व्यक्ति के तीनों शरीर नष्ट हो जाते हैं; सातवें शरीर में प्रविष्ट हुए व्यक्ति के बाकी छह शरीर नष्ट हो जाते हैं, सभी कुछ नष्ट हो जाता है—लेकिन पांचवें शरीर वाला व्यक्ति यदि चाहे तो इन तीन शरीरों के संघट को, संघात को अंतरिक्ष में छोड़ सकता है। ये ऐसे ही अंतरिक्ष में छूट जाएंगे जैसे अब हम अंतरिक्ष में कुछ स्टेशंस बना रहे हैं, वे अंतरिक्ष में यात्रा करते रहेंगे। और मैत्रेय नाम के व्यक्ति में वे प्रकट होंगे।

 सूक्ष्म शरीरों का परकाया प्रवेश:

तो कभी जो मैत्रेय नाम की स्थिति का कोई व्यक्ति पैदा होगा, उस स्थिति का जिसमें बुद्ध के ये तीन शरीर प्रवेश कर सकें, तो ये तीन शरीर तब तक प्रतीक्षा करेंगे और उस व्यक्ति में प्रवेश कर जाएंगे। और उस व्यक्ति में प्रवेश करते ही उस व्यक्ति की हैसियत ठीक वैसी हो जाएगी जैसी बुद्ध की; क्योंकि बुद्ध के सारे अनुभव, बुद्ध के सारे भाव, बुद्ध की सारी कर्म—व्यवस्था का यह पूरा इंतजाम है।
ऐसा समझ लो कि मेरे शरीर को मैं छोड़ जा सकूं इस घर में, सुरक्षित कर जा सकूं...
जैसे अभी अमेरिका में एक आदमी मरा, कोई तीन साल पहले, चार साल पहले, तो वह कोई करोड़ों डालर का ट्रस्ट कर गया है, और कह गया है कि मेरे शरीर को तब तक बचाया जाए जब तक साइंस इस हालत में न आ जाए कि उसको पुनरुज्जीवित कर सके। तो उसके शरीर पर लाखों रुपया खर्च हो रहा है। उसको बिलकुल वैसे ही सुरक्षित रखना है। उसमें जरा भी खराबी न हो जाए। उस समय तक... आशा है कि इस सदी के पूरे होते—होते तक शरीर को पुनरुज्जीवित करने की संभावना प्रकट हो जाएगी। तो इधर तीस—चालीस साल उसको, उसके शरीर को ऐसा सुरक्षित रखना है जैसा कि वह मरते वक्त था। उसमें जरा भी डिटोरिएशन न हो जाए। तो यह शरीर बचाया जा रहा है। यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है। और अगर इस सदी के पूरे होते—होते तक हम शरीर को पुनरुज्जीवित कर सकें, तो वह शरीर पुनरुज्जीवित हो जाएगा।
निश्चित ही, उस शरीर को दूसरी आत्मा उपलब्ध होगी, वही आत्मा उपलब्ध नहीं हो सकती है। लेकिन शरीर यह रहेगा, उसकी आंखें ये रहेंगी, उसके चलने का ढंग यह रहेगा, उसका रंग यह रहेगा, उसका नाक—नक्शा यह रहेगा, इस शरीर की आदतें उसके साथ रहेंगी। एक अर्थ में वह उस आदमी को रिप्रेजेंट करेगा, इस शरीर से।
और अगर वह आदमी सिर्फ भौतिक शरीर पर ही केंद्रित था—जैसा कि होना चाहिए, नहीं तो भौतिक शरीर को बचाने की इतनी आकांक्षा नहीं हो सकती—तो अगर वह सिर्फ भौतिक शरीर ही था, बाकी शरीरों का उसे कुछ पता भी नहीं था, तो कोई भी दूसरी आत्मा बिलकुल एक्ट कर पाएगी। वह बिलकुल वही हो जाएगी। और वैज्ञानिक दावा भी करेंगे कि यह वही आदमी हो गया है, इसमें कोई फर्क नहीं है। उस आदमी की सारी स्मृतियां, जो इसके भौतिक ब्रेन में संरक्षित होती हैं, वे सब जग जाएंगी। वह फोटो पहचान कर बता सकेगा कि यह मेरी मां की फोटो है, वह बता सकेगा कि यह मेरे बेटे की फोटो है। ये सब मर चुके हैं तब तक, लेकिन वह फोटो पहचान लेगा। वह अपना गांव पहचान कर बता सकेगा कि यह रहा मेरा गांव जहां मैं पैदा हुआ था, और यह रहा मेरा गांव जहां मैं मरा था। और ये—ये लोग थे जब मैं मरा था तो जिंदा थे। लेकिन यह आत्मा दूसरी है। लेकिन ब्रेन के पास जो मेमोरी कंटेंट है वह दूसरा है।

 स्मृति का पुनरारोपण:

अभी वैज्ञानिक कहते हैं कि हम बहुत जल्दी स्मृति को ट्रांसप्लांट कर पाएंगे। यह संभव हो जाएगा। इसमें कठिनाई नहीं मालूम होती। अगर मैं मरूं, तो मेरी अपनी एक स्मृति है। और बड़ी संपत्ति खोती है दुनिया की; क्योंकि मैं मरता हूं तो मेरी सारी स्मृति खो जाती है। अगर मेरी सारी स्मृति की पूरी की पूरी टेप, पूरा मेरा यंत्र मेरे मरने के साथ बचा लिया जाए.. .जैसे हम आंख बचा लेते हैं अब, कल तक आंख ट्रांसप्लांट नहीं होती थी, अब हो जाती है। तो कल मेरी आंख से कोई देख सकेगा; सदा मैं ही देखूं अब यह बात गलत है; अब मेरी आंख से कल कोई दूसरा भी देख सकेगा। और सदा मेरे हृदय से मैं ही प्रेम करूं, यह भी गलत है, कल मेरे हृदय से कोई दूसरा भी प्रेम कर सकेगा। अब हृदय के संबंध में बहुत वायदा नहीं किया जा सकता कि मेरा हृदय सदा तुम्हारा रहेगा। वैसा वायदा करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि यह हृदय किसी और के भीतर से किसी और को वायदा कर सकेगा। इसमें अब कोई कठिनाई नहीं रह गई।
ठीक ऐसे ही, कल स्मृति भी ट्रांसप्लांट हो जाएगी। वह सूक्ष्म है, बहुत डेलिकेट है, इसलिए देर लग रही है, और देर लगेगी। लेकिन कल मैं मरूं, तो जैसे मैं आज अपनी आंख दे जाता हूं आई बैंक को, ऐसे मैं मेमोरी बैंक को अपनी स्मृति दे जाऊं, और कहूं कि मरने के पहले मेरी सारी स्मृति बचा ली जाए और किसी छोटे बच्चे पर ट्रांसप्लांट कर दी जाए। तो जिस छोटे बच्चे को मेरी स्मृति दे दी जाएगी, मुझे जो बहुत कुछ जानना पडा, वह उस बच्चे को जानना नहीं पड़ेगा, वह जानता हुआ बड़ा होगा; वह उसकी स्मृति का हिस्सा हो जाएगा; वह उसको एज्जार्ब कर जाएगा। इतनी बातें वह जानेगा ही। और तब बड़ी मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि मेरी स्मृतियां उसकी स्मृतियां हो जाएंगी। और वह कई मामलों में ठीक मेरे जैसे उत्तर देगा और कई मामलों में ठीक वह मेरी जैसी पहचान दिखलाएगा; क्योंकि उसके पास, ब्रेन के पास मेरा ब्रेन है।
मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम?
तो बुद्ध ने एक दूसरी दिशा में प्रयोग किया है— और भी लोगों ने प्रयोग किए हैं, और वे वैज्ञानिक नहीं हैं, वे आकल्ट हैं—उसमें दूसरे, तीसरे और चौथे शरीर को संरक्षित करने की कोशिश की गई है। बुद्ध तो विलीन हो गए; वह जो आत्मा थी, वह जो चेतना थी, जो इन शरीरों के भीतर जीती थी, वह तो खो गई सातवें शरीर से, लेकिन खोने के पहले वह यह इंतजाम कर गई है कि ये तीन शरीर न मरे, वह इनको संकल्प की एक गति दे गई है।
समझ लो कि मैं एक पत्थर फेंकूं जोर से; इतने जोर से फेंकूं कि वह पत्थर पचास मील जा सके। मैं मर जाऊं, लेकिन इससे पत्थर नहीं गिर जाएगा। जो ताकत मैंने उसको दी है, वह पचास मील तक चलेगी। पत्थर यह नहीं कह सकता कि वह आदमी मर गया जिसने मुझे ताकत दी थी, तो अब मैं कैसे चलूं! पत्थर को जो ताकत दी गई थी पचास मील चलने की, वह पचास मील चलेगा। अब मेरे मरने—जीने से कोई संबंध नहीं, मेरी ताकत उस पत्थर को लग गई, वह अब काम करेगा।
मेरा मतलब समझे न?

 कृष्णमूर्ति में बुद्ध के अवतरण का असफल प्रयोग:

बुद्ध जो ताकत दे गए हैं उन तीन शरीरों को जीवित रहने की, वे तीन शरीर जीएंगे। और, वे समय भी बता गए हैं कि वे कितनी देर तक.....यानी वह वक्त करीब है जब मैत्रेय को जन्म लेना चाहिए। कृष्णमूर्ति पर वही प्रयोग किया गया था कि इनकी तैयारी की जाए, वे तीन शरीर इनको मिल जाएं। कृष्णमूर्ति के एक छोटे भाई थे, नित्यानंद। पहले उन पर भी वह प्रयोग किया गया, लेकिन नित्यानंद की मृत्यु हो गई। वह मृत्यु इसी में हुई। क्योंकि यह बहुत अनूठा प्रयोग था और इस प्रयोग को आत्मसात करना एकदम आसान बात नहीं थी। कोशिश यह की गई कि नित्यानंद के तीन शरीर खुद के तो अलग हो जाएं और मैत्रेय के तीन शरीर उनमें प्रवेश कर जाएं। नित्यानंद तो मर गया। फिर कृष्णमूर्ति पर भी वही कोशिश चली। वह भी कोशिश यही थी कि इनके तीन शरीर हटा दिए जाएं और रिप्लेस कर दिए जाएं। वह भी नहीं हो सका। फिर और एक—दो लोगों पर—जार्ज अरंडेल पर भी वही कोशिश की गई। क्योंकि कुछ लोगों को इस बात का.. .जैसे ब्लावटस्की इस सदी में आकल्ट के संबंध में जानने वाली शायद सबसे गहरी समझदार औरत थी। उसके बाद एनीबीसेंट के पास बहुत समझ थी, और लीडबीटर के पास बहुत समझ थी। इन लोगों के पास कुछ समझ थी जो इस सदी में बहुत कम लोगों के पास है।
इनकी बड़ी चेष्टा यह थी कि वह तीन शरीरों को जो शक्ति दी गई थी उसके क्षीण होने का समय आ रहा है। अगर मैत्रेय जन्म नहीं लेता, तो वे शरीर बिखर सकते हैं अब। उनको जितने जोर से फेंका गया था, वह पूरा हो जाएगा, और किसी को अब तैयार होना चाहिए कि वह उन तीन शरीरों को आत्मसात कर ले। जो व्यक्ति भी उनको तीनों को आत्मसात कर लेगा, वह ठीक एक अर्थ में बुद्ध का पुनर्जन्म होगा—एक अर्थ में! मेरा मतलब समझे? बुद्ध की आत्मा नहीं लौटेगी, इस व्यक्ति की आत्मा बुद्ध के शरीर ग्रहण करके बुद्ध का काम करने लगेगी, एकदम बुद्ध के काम में संलग्न...
इसलिए हर कोई व्यक्ति नहीं हो सकता इस स्थिति में। जो होगा भी, वह भी करीब—करीब बुद्ध के पास पहुंचनेवाली चेतना होनी चाहिए, तभी उन तीन शरीरों को आत्मसात कर पाएगी, नहीं तो मर जाएगी। तो जो असफल हुआ सारा का सारा मामला, वह इसीलिए असफल हुआ कि उसमें बहुत कठिनाई है। लेकिन फिर भी, अभी भी चेष्टा चलती है। अभी भी कुछ छोटे से इसोटेरिक सर्किल इसकी कोशिश में लगे हुए हैं कि किसी बच्चे को वे तीन शरीर मिल जाएं। लेकिन अब उतना व्यापक प्रचार नहीं चलता, प्रचार से नुकसान हुआ।
कृष्णमूर्ति के साथ संभावना थी कि शायद वे तीन शरीर कृष्णमूर्ति में प्रवेश कर जाते। उनके पास उतनी पात्रता थी। लेकिन इतना व्यापक प्रचार किया गया। प्रचार शुभ दृष्टि से ही किया गया था कि जब बुद्ध का आगमन हो तो वे फिर से रिकग्नाइज हो सकें। और यह प्रचार इसलिए भी किया गया था कि बहुत से लोग हैं जो बुद्ध के वक्त में जीवित थे, उनकी स्मृति जगाई जा सके तो वे पहचान सकें कि यह आदमी वही है कि नहीं है। इस ध्यान से प्रचार किया गया। लेकिन वह प्रचार घातक सिद्ध हुआ। और उस प्रचार ने कृष्णमूर्ति के मन में एक रिएक्शन और प्रतिक्रिया को जन्म दे दिया। वे संकोची और छुई—मुई व्यक्तित्व हैं। ऐसा सामने मंच पर होने में उनको कठिनाई पड़ गई। अगर वह चुपचाप और किसी एकांत स्थान में यह प्रयोग किया गया होता और किसी को न बताया गया होता जब तक कि घटना न घट जाती, तो शायद संभव था कि यह घटना घट जाती। वह नहीं घट पाई। वह बात चूक गई। कृष्णमूर्ति ने अपने शरीर छोड़ने से इनकार कर दिया और इसलिए दूसरे के शरीरों के लिए जगह नहीं बन सकी। इसलिए वह घटना नहीं हो सकी। और इसलिए एक बड़ी भारी असफलता इस सदी में आकल्ट साइंस को मिली। इतना बड़ा एक्सपेरिमेंट भी कभी नहीं किया गया था— तिब्बत को छोड्कर कहीं भी नहीं किया गया था। तिब्बत में बहुत दिनों से उस प्रयोग को करते रहे हैं, और बहुत सी आत्माएं वापस दूसरे शरीरों से काम करती रही हैं।
तो मेरी बात तुम्हारे खयाल में आ गई? उसमें विरोध नहीं है। और मेरी बात में कहीं भी विरोध दिखे तो समझना कि विरोध होगा नहीं। हां, कुछ और रास्ते से बात होगी, इसलिए विरोध दिखाई पड़ सकता है।
आज इतना ही।

(पुस्तक समाप्‍त)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें