सदगुरु की महत्ता-छठवां प्रवचन
प्रश्न-सार
1. कबीर के इन दो विरोधाभासी वचनों पर आपका
क्या कहना हैः
राम ही मुक्ति के दाता
हैं, सदगुरु तो केवल प्रभु-स्मरण जगाते हैं।
हरि सुमिरै सो वार है,
गुरु
सुमिरै सो पार।
2. मैं अपने दुखभरे अतीत को क्यों नहीं भूल
पाता हूं?
3. क्या ममता और मेरेपन के भाव के बिना
प्रेम संभव है?
4. संतों ने जीवन को दुखा की भांति क्यों
निरूपित किया है? क्या यह दुखवाद उचित है?
5. आप आश्रम दूसरी जगह ले जा रहे हैं,
तो
पूना छोड़ आपके साथ चलूं या यहीं रुक कर काम करूं?
पहला प्रश्नः कबीर साहब का एक पद इस प्रकार थाः ‘मेरो
संगी दोई जन, एक वैष्णो एक राम। यो है दाता मुक्ति का, वो
सुमिरावै नाम।।’ लेकिन शब्दकोश उलटते हुए मुझे दूसरी
साखी मिली, जो कुछ और बात कहती हैः ‘हरि सुमिरै
सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।’
आप क्या कहते हैं?
स्मरण स्मरण में फर्क है। एक तो स्मरण है, जो
किया जाता है; और एक स्मरण है, जो होता है। उस भेद को समझा तो
इन दोनों सूत्रों का विरोधाभास समाप्त हो जाएगा।
साधक जब शुरू करता है, तो प्रयास से शुरू करता है। जप
करता है। न करे तोे जप नहीं होगा। जप कृत्य होता है। चेष्टा करनी पड़ती है, स्मरण
रखना पड़ता है, तो होता है।
फिर धीरे-धीरे जब भीतर के तार मिल जाते हैं, तो
साधक को जप करना नहीं पड़ता। नानक ने उस अवस्था का अजपा-जाप कहा है। फिर जाप अपने
से होता है। साधक तब साक्षी हो जाता है--सिर्फ देखता है। मस्त होता है, डोलता
है। बीन अब खुद नहीं बजाता है। बीन अब बजती है। इसलिए उस नाद को अनाहत-नाद कहा है।
अपने से होता है। न कोई वीणा है वहां, न कोई मृदंग है वहां, न
कोई बजाने वाला है वहां, लेकिन नाद है। अपरंपार नाद है। जिसका
पारावर नहीं--ऐसा नाद है।
समझोः सदियों की खोज से यह अनुभव में आया है कि वह नाद कुछ-कुछ
ऐसा होता है, जैसा--ओम्। लेकिन यह तो हमारी व्याख्या है कि ऐसा होता है। यह
ऐसे ही है, जैसे कोई सूरज को उगते देखे, और कागज पर
एक तस्वीर बना ले। सूरज उग रहा है कागज पर, और लाकर कागज
तुम्हें दे दे और कहे कि सुबह बड़ी सुंदर थी और मैंने सोचा कि तस्वीर बना दंू,
ताकि
तुम्हें भी समझ में आ जाए--कैसी थी।
वह जो कागज पर तस्वीर है, उसमें न तो
सूरज की गरमी है; न सूरज की किरणें हैं; न सूरज का सौंदर्य है।
प्रतीकमात्र है। या ऐसे समझो कि जैसे तुम्हें कोई हिमालय का नक्शा दे दे। उसमें न
तो हिमालय की शांति है, न हिमालय का सन्नाटा है, न
हिमालय के उत्तुंग शिखर हैं, न उत्तुंग शिखरों पर जमी हुई कुंवारी
बरफ है। कुछ भी नहीं है। नक्शा है। लेकिन नक्शा प्रतीक है।
ऐसे ही ओम प्रतीकमात्र है। कागज पर बनाया गया नक्शा है,
उस
अजपा-जाप का, जो भीतर कभी प्रगट होता है। वह ध्वनि जो भीतर अपने आप फूटती
है। जिसको कबीर ‘शब्द’ कहते हैं।
तुम जब शुरू करोगे, तब तो तुम ओम्, ओम्,
ओम्
के जाप से शुरू करोगे। यह जाप तुम्हारा होगा। इस जाप को अगर करते गए और गहरा होता
गया यह जाप...। गहरे का मतलब हैः पहले होंठ से होगा; फिर वाणी में
होगा, लेेकिन होंठ पर नहीं आएगा; कंठ में ही
रहेगा; मन में ही गूंजेगा। फिर घड़ी आएगी, जब मन में भी
नहीं गूंजेगा, कंठ में भी नहीं होगा। तुम अपने भीतर ही उसे किसी गहन तल से
उठता हुआ पाओगे।
तो एक तो जाप था, जो तुमने किया और एक जाप है,
जिसे
एक दिन तुम साक्षी की तरह देखोगे। ये दो सुमिरण हैं। इन्हीं दो सुमिरणों के कारण
इन दो वचनों में भेद मालूम पड़ता है।
पहला वचन हैः ‘मेरो संगी दोइ जन, एक
वैष्णो एक राम।’ कबीर कहते हैंः मेरे दो साथी हैैं, दो मित्र
हैं। एक तो राम--और एक राम का भक्त। एक तो राम--और एक राम की तरफ ले जाने वाला
सदगुरु। एक तो राम--और एक राम से भरा हुआ--आपूर, आकंठ भरा हुआ
व्यक्ति।
विष्णु से जो भरा है--वह वैष्णव। विष्णु जिसके रोएं-रोएं में
गूंज रहा है--वह वैष्णव। तो एक तो विष्णु; राम यानी विष्णु का एक रूप। और
एक वैष्णवजन--ये दो मेरे मित्र हैं।
‘यो है दाता मुक्ति का...।’ राम तो है
दाता--मुक्ति का, मोक्ष का। उससे तो परम प्रसाद मिलेगा ‘वो सुमिरावै
नाम’--और वह जो वैष्णवजन हैं, जिसके भीतर
सुमिरण आ गया है, उसके संग-साथ बैठ कर, उसकी संगति में उठ-बैठ कर उसके
भीतर उठती हुई तरंगंे धीरे-धीरे तुम्हें भी तरंगित कर देती हैं। उसके भीतर बजती
वीणा धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर की सोई वीणा को भी जगा देती है। उसका स्वर आघात करता
है और तुम्हारे भीतर सोया हुआ आनंद धीरे-धीरे जागने लगता है।
तो राम तो है मुक्ति का दाता, और गुरु है
राम की सुरति दिलाने वाला।
बिना गुरु के राम नहीं मिलेगा। क्योंकि याद ही कोई न दिलाएगा,
कोई
इशारा ही न करेगा--अज्ञात की ओर; कोई तुम्हारा हाथ न पकड़ेगा। अनजान में न
ले चलेगा तो राम नहीं मिलेगा। यद्यपि गुरु मुक्ति नहीं देता है। गुरु तो केवल राम
की याद दिला देता है। फिर राम की याद करते-करते एक दिन राम अवतरित होता है;
तुम्हारे
भीतर जगा है और तुम रोशन हो जाते हो, तुम प्रकाशित हो जाते हो। मुक्ति
फलती है।
तो गुरु तो राम की याद दिलाता है; राम मुक्ति
देता है। यह तो पहले वचन का अर्थ। दूसरे वचन का अर्थ विपरीत मालूम पड़ता है। दूसरे
वचन में कहा है, ‘हरि सुमिरै सो वार है’--वार यानी
यात्रा का प्रारंभ, पहला कदम।
‘हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।’ और
जो गुरु का स्मरण कर ले, वह पार ही हो जाता है। और हरि को याद
करो, तो
वह तो केवल यात्रा का प्रारंभ है। गुरु को याद करने से यात्रा का अंत हो जाता है।
यह बात उलटी लगती है--स्वभावतः।
पहले वचन में गुरु तो केवल राम को याद दिलाता है; राम
मुक्ति देता है। दूसरे वचन में राम की याद तो केवल शुरुआत है, और
गुरु की याद यात्रा का अंत। पहले में लगता हैः गुरु--प्रारंभ; राम--पूर्णता।
दूसरे में लगता हैः राम--प्रारंभ। गुरु--पूर्णता। सह सुमिरण सुमिरण के भेद के कारण
फर्क पड़ रहा है।
जब तुम परमात्मा को याद करना शुरू करोगे--बिना गुरु के ‘हरि
सुमिरै सो वार है’, तो तुमने यात्रा का प्रारंभ किया। तुम गुरु भी कैसे खोजोगे,
अगर
तुम हरि की याद न करो? ऐसे ही जुड़ी हैं ये बातें, जैसे
अंडा मुरगी जुड़े हैं।
कोई पूछे कि अंडा पहले कि मुरगी पहले? तो बड़ी
मुश्किल हो जाती है। तय करना संभव नहीं होता। अंडा कहो पहले, तो
अड़चन आती है--कि बिना मुरगी के अंडा रखा किसने होगा! मुरगी कहो पहले, तो
अड़चन आती है कि मुरगी बिना अंडे के हुई कैसे होगी? मुरगी के
पहले अंडा है; अंडे के पहले मुर्गी। असल में दोनों को दो करके देखने में ही
उपद्रव हो गया है।
मुरगी और अंडा दो नहीं हैं। अंडा मुर्गी की एक स्थिति है। और
मुरगी अंडे की एक स्थिति है। जैसे तुम्हारा बचपन और तुम्हारी जवानी दो चीजें नहीं
हैं। एक की ही दो स्थितियां हंै। ऐसे ही मुर्गी या अंडा, एक ही
जीवन-यात्रा के दो चरण है।
तो पहले तो तुम गुरु ही क्यों खाजोगे, अगर राम का
स्मरण न हो! अगर परमात्मा नहीं खोजना है, तो गुरु किसलिए खोजना है?
आदमी
बीमार होता है, स्वास्थ्य चाहता है, तो डाक्टर के पास जाता है। जब
आदमी को ईश्वर का अभाव खलने लगता है जीवन में, कि उसके बिना
सब अंधेरा है, सब खाली-खाली है--रिक्त; उसके बिना सब
बेस्वाद, तिक्त, कडुवा; उसके बिना
जीवन में कोई रसधार बहती नहीं मालूम पड़ती; कोई गीत नहीं जगता, कोई
नृत्य पैदा नहीं होता; जीवन एक बोझ मालूम पड़ता है, तो
परमात्मा की याद आनी शुरू होती है। तो आदमी पूछता हैः जीवन का अर्थ क्या है?
किसने
बनाया? क्यों बनाया? हम किस तरफ जा रहे हैं? यह
जीवन का कारवां आखिर कहां पूरा होगा? कौन सी मंजिल है? कहां
मुकाम है--ऐसी जिज्ञासा उठती है, तो तुम गुरु की तलाश करते हो।
गुरु की तलाश के पहले तुम परमात्मा का स्मरण करते हो। वह स्मरण
नाममात्र का स्मरण है। क्योंकि अभी तो परमात्मा को जानते नहीं, तो
स्मरण कैसे करोगे? स्मरण तो उसी का हो सकता है, जिसे हमने
जाना हो; जिसे हमने प्यार किया हो; जिससे हमारी
स्मृति जुड़ी हो; जिससे हमारा कोई अनुभव का संबंध बना हो, उसकी ही याद
करोगे। अभी परमात्मा का तो पता ही नहीं, तो याद कैसे करोगे?
तो यह तो नाममात्र की याद है। इतना ही पता चल रहा है कि जो
जीवन है हमारा, व्यर्थ है। सार्थकता की खोज कर रहे हैं।
जैसा जीवन अभी तक जीया है, उसमें सार
नहीं मालूम पड़ता। तो कोई और जीवन की शैली मिल जाए, इसकी खोज में
निकले हैं। है भी ऐसी जीवन की शैली या नहीं, इसका भी कुछ
पक्का नहीं है।
अभी तुम परमात्मा की याद नाममात्र को करोगे। तुम कहोगेः प्रभु
की खोज है। तुम्हारा प्रभु बहुत सार्थक नहीं होगा। सिर्फ अभाव उसकी परिभाषा होगा।
तुम्हें जिन-जिन चीजों की कमी मालूम पड़ती है--आनंद नहीं जीवन में, रस
नहीं जीवन में, ज्योति नहीं जीवन में, तो तुम्हारे प्रभु में ये ही
चीजें होंगी सब। ज्योति होगी, आनंद होगा, रस होगा।
सच्चिदानंद--इसलिए हम परमात्मा को कहते हैं।
इन तीन चीज की कमी आदमी को मालूम पड़ती हैः सत्य की, चित्त
की, आनंद
की, तो
हम इन तीन को परमात्मा में रख कर सोचते हैं कि कहीं जगह होगी, कोई
पड़ाव होगा, मुकाम होगा, जहां यह सब मिल जाएगा--जो मुझे अभी नहीं
मिलता है।
तुम परमात्मा की याद करते हो, मगर अभी याद
क्या होगी? अभी प्यारे को देखा भी नही; अभी उसकी कुछ
शक्ल का भी पता नहीं, सूरत का भी पता नहीं, उसके नाक-नक्श का भी पता नहीं,
उसके
नाम का भी पता नहीं। अभी किस दिशा में उसको खोजने चलें, यह भी पता
नहीं है। अभी है भी या नहीं--यह भी पता नहीं है।
अभी इतना ही पता है कि भीतर एक अनजानी सी प्यास उठ रही है,
जिसका
कोई साफ-साफ रूप नहीं है। एक अराजक प्यास उठ रही है। कुछ हो रहा है भीतर लेकिन अभी
निदान नहीं हुआ है। निदान के लिए ही तो गुरु के पास जाओगे। गुरु के चरण में सिर
रखोगे और कहोगे कि जो मेरा जीवन है, वह व्यर्थ मालूम हो रहा है और
सार्थक कैसा जीवन हो, इसका मुझे पता नहीं है। अगर सार्थक कोई जीवन हो सकता हो तो
मुझे दिशा दें, मार्ग दें, निर्देश दें। मैं तयार हूं चलने को,
खतरे
उठाने को, कीमत चुकाने को, कसौटी पर कसे जाने को--मैं तैयार
हूं।
‘हरि सुमिरै सो वार है...।’ इस दूसरे
सूत्र में हरि के उसी स्मरण को कबीर ने कहा है कि जो प्रभु की खोज में निकलेगा,
याद
करेगा परमात्मा की, यह तो यात्रा का प्रारंभ हुआ। ‘गुरु सुमिरै
सो पार...। फिर यह हरि को ही बैठे-बैठे सुमरते रहे, जिसकी तुमसे
कोई पहचान नहीं है। मुलाकात नहीं है। साक्षात्कार नहीं है; इसी हरि को
बैठे-बैठे गुनगुनाते रहे, तो कहीं न पहुंचोगे। यह तो प्रारंभ ही
था, यहीं
मत रुक जाना। यह तो पहला कदम था। यह तो पहली सीढ़ी थी।
अब उसको खोजो, जो जिसको मिल गया हो। अब उसके पास जाओ,
जिसने
पा लिया हो। अब उसकी आंखांे में झांको, जिसकी आंखों में बसा हो। अब उसके
पास बैठो, जहां फूल खिला है और जहां सुगन्ध फैल रही है। वहीं यात्रा की
पूर्णता होगी। इसलिए कहते हैं कबीरः ‘हरि सुमिरै सो वार है, गुरु
सुमिरै सो पार। ’
और पहला वचन गलत नहीं है। गुरु को सुमरने से पार क्यों हो
जाओगे? क्योंकि जब गुरु का स्मरण करोगे, और गुरु के
पास बैठोगे, गुरु का सत्संग करोगे, साध-संगत होगी, तभी
तुम पाओगेः ‘यो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावे नाम।’ गुरु
के पास बैठ-बैठ कर ही हरि का ठीक स्मरण शुरू होगा। और हरि का ठीक स्मरण हो जाए,
तो
हरि ही एक दिन मुक्ति का दाता है।
गुरु तुम्हें पार कर देगा, क्योंकि गुरु
वहां तक पहंुचा देगा, जहां तक जाना जरूरी है, ताकि प्रभु
का प्रसाद मिल जाए। गुरु तुम्हें पात्र बना देगा। प्रभु की वर्षा होगी, तो
तुम भर जाओगे।
तो हरि के दो तरह के स्मरण हैं। इसलिए ये दो पद हैं। इनमें
विरोध कुछ भी नहीं हैं। अलग-अलग लोगों से कहे होंगे कबीर ने।
पहला पद तो उनसे कहा होगा, जो गुरु के
पास आ गए हैं। जिन्हें गुरु मिल गया है। पहला पद तो कबीर ने अपने साधुओं से कहा
होगा। कहा होगाः ‘मेरो संगी दोउ जन, एक वैष्णो एक राम। यो है दाता
मुक्ति का, वो सुमरावै नाम।’ यह तो साधुओं से कहा होगा। सुनो
भाई साधो...। अपने शिष्यों से कहा होगा, जिनको गुरु तो मिल ही चुका है।
अब उनको यह बात कही जा सकती है कि गुरु तो सिर्फ याद दिलानेवाला है, संकेतमात्र।
असली घटना तो परमात्मा के प्रसाद से घटेगी। मैं तुम्हें वहां तक ले चलूंगा,
जहां
तक मनुष्य का पहुंचना जरूरी है। उसके बाद फिर जाने की जरूरत नहीं है, फिर
परमात्मा ले लेता है।
ऐसा ही समझो कि एक पत से तुम कूदना चाहते हो। जब तक नहीं कूदे
हो, तब
तक पत पर हो। कूद गए एक बार तो कूदने के बाद फिर क्या करना पड़ता है? फिर
कुप नहीं करना पड़ता। फिर तो जमीन की कशिश खींच लेती है। ऐसा थोड़े ही है कि कूदने
के बाद तुम्हें कोशिश करते रहनी पड़ती है कि अब मैं कूद तो गया, अब जमीन
तक कैसे पहुंचंू? इसकी फिर तुम फिकर पोड़ो। फिर जमीन ही फिकर कर लेगी।
ऐसी ही घटना है। गुरु तुम्हें राम की ठीक-ठीक याद दिला देता है;
पलांग
लग जाती है। कूद गए तुम। फिर तो राम ही खींच लेता है। उससे बड़ी कशिश और कहां?
उससे
बड़ा आकर्षण और कहां? उससे बड़ा गुरुत्वाकर्षण और कहां? वही तो
ग्रेविटेशन है, वह तो खींच लेगा। हां, जब तक तुम अटके हो अपने अहंकार
में और पलांग नहीं लगाई, तब तक अटके हो।
एक जहाज पर ऐसा हुआ। एक स्त्री गिर पड़ी। सारे यात्री डैक पर
इकट्ठे हो गए। और स्त्री डूब रही है और चिल्ला रही है, लेकिन किसी
की हिम्मत नहीं पड़ रही कि कोई कूद जाए।
एक बूढ़े धनी ने कहा कि लाख रुपये दूंगा, कोई भी कूद
जाए और बचा ले। तभी लोगों ने
देखा कि एकदम से मुल्ला नसरुद्दीन कूदा; स्त्री को
बचा कर बाहर लाया। जब ऊपर आया, तो लोग फूलमालाएं उसके गले में डाले और
उस बूढ़े ने लाख रुपये का चेक दिया। मुल्ला ने कहा, ‘चेक रख एक
तरफ। पहले यह बताओ, मुझे धक्का किसने दिया?’
वह कुप अपने से नहीं कू दा था। किसी ने धक्का दे दिया था। वह
देख रहा था झुक कर।
एक दफा धक्का लग जाए...। गुरु धक्का ही दे सकता है। एक दफा
धक्का लग जाए, पहंुच जाओगे। फिर तो कशिश अपना काम खुद कर लेगी।
पहला वचन कबीर ने कहा होगा साधुओं सेः ‘मेरो संगी
दोइ जन, एक वैष्णो एक राम। ‘प्यारा वचन है।’ यो
है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम।’ परमात्मा ही है देने वाला मुक्ति
का, लेकिन
वह मुक्ति तभी मिलेगी, जब गुरु ने नाम सुमरा दिया हो।
दूसरा वचन कबीर ने कहा होगा उनसे, जो गुरु के
बिना ही हरि को जप रहे हैं। जो साधक नहीं है, साधु नहीं
हैं; जिन्होंने
जीवन को दांव पर लगाया नहीं है। जिन्होंने किसी गुरु से दोस्ती नहीं की है। जो बड़े
अहंकारी हैं। जो किसी के चरणों में झुकना न चाहेंगे। जो शिष्य बनने में अड़चन पाते
हैं। कहते हैंः हम अपना खुद कर लेंगेः गीता पढ़ लेंगे, गुरु-ग्रंथ
पढ़ लेंगे; बाइबिल पढ़ लेंगे; हम अपना खुद कर लेंगे। शास्त्र
तो रखै हैं, अब और गुरु को क्या खोजना है? हम अपना पढ़
लेंगे शास्त्र। खुद बैठ कर स्मरण कर लेंगे।
कबीर ने इनसे कहा होगा, ‘हरि सुमरै सो
वार है।’ कहा होगा कि हरि याद करना, तो केवल
यात्रा का प्रारंभ है। इसमें भटक मत जाना। ‘गुरु सुमिरै
सो पार’--जो गुरु को सुमरेगा, वही पार होगा।
ये दो विभिन्न तरह के पात्रों से कहे गए वचन हैं, इनमें
विरोधाभास नहीं है।
और सदगुरुओं के वचन जब तुम पढ़ने चलो, कभी विरोधाभास
पाओ, तो
याद रखनाः विरोधाभास हो ही नहीं सकता। अगर दिखता हो, तो तुम्हारी
ही कहीं कुप भूल-चूक होगी। खोज-बीन करोगे, तो तुम पाओगे कि कहीं न कहीं
रास्ता मिल गया--संगति बैठ गई।
गुरुओं ने जो वचन कहे हैं, अलग-अलग
लोगों से कहे हैं, अलग-अलग स्थितियों में कहे हैं। किसी आदमी को एक बीमारी है,
उसके
लिए एक दवा है। किसी आदमी को दूसरी बीमारी है, उसके लिए वही
दवा नहीं है। और जो एक के लिए दवा है,
दूसरे के लिए जहर हो जाएगी। और जो एक के लिए जहर है, दूसरे
के लिए दवा हो जाती है।
तो गुरु तो ऐसा समझो कि जैसे तुम दवा की दुकान पर जाते हो।
तुम्हारा जो प्रिस्क्रिप्शन होता है, केमिस्ट तुम्हें जल्दी से दवा
तैयार करके दे देता है। दूसरे को दूसरी दवा तैयार करके देता है। तो तुम झगड़ा नहीं
करते। तुम यह नहीं कहते कि यह मामला क्या है, मुझे लाल रंग
की दवा दे दी, इसे हरे रंग की दवा दे दी? तुम जानते
होः तुम्हारी बीमारी अलग है, इसकी बीमारी अलग है।
ऐसे ही सदगुरुओं के वचन हैं; वे दवाए हैं,
औषधियां
हैं।
पहली औषधि दी गई है शिष्य को। क्यों शिष्य को दी गई है।
क्योंकि शिष्य के साथ एक खतरा हैः कहीं वह गुरु को जरूरत से ज्यादा न पकड़ ले। कही
ऐसा न हो कि गुरु को ही पकड़ ले और भगवान को भूल ही जाए। शिष्य के साथ यह खतरा है
ही क्योंकि गुरु पकड़ में आता है; भगवान तो पकड़ में आते नहीं। गुरु से मोह
लग जाता है। भगवान तो अदृश्य है, गुरु दृश्य है। गुरु देह में है,
भगवान
तो विराट में है।
गुरु से मोह लग जाता है, ममता लग जाती
है। मेरे-तेरे का भाव जुड़ जाता है। गुरु से अहंकार का संबंध बन जाता है। मेरा
गुरु--तो मेरे ‘मैं’ को मजबूत करने लगता है।
तो शिष्यों को समझाया कबीर नेः ‘यो है दाता
मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम।’ कहा कि गुरु तो सिर्फ स्मरण
करवाता है परमात्मा का। अब इसी में मत रुके रह जाना। गुरु से सीख लो--और चलो। गुरु
की सुनो--और चलो। गुरु का उपयोग कर लो, गुरु का सेतु बना लो और उस पार
जाओ। जाना परमात्मा में है। मुक्ति तो वहीं घटेगी। यह शिष्यों से कहा।
लेकिन कुछ ऐसे हैं, जो शिष्य बने ही नहीं; जो
अपने अहंकार को पकड़े बैठे हैं। जिनके अहंकार के कारण वे किसी गुरु के पास झुक नहीं
सकते हैं। ऐसे लोग मुर्दा गुरुओं के पास बैठे रहते हैं।
मुर्दा गुरु का कोई मतलब नहीं होता। अगर बुद्ध जिंदा हों,
तो
वे न जाएंगे। जब बुद्ध मर जाएंगे, तब उनके धम्मपद को पढ़ेंगे; किताब
को पढ़ेंगे!
मुर्दा गुरु के साथ एक सुविधा है; तुम्हारा जो
मन हो, वैसी व्याख्या कर लो। जो अर्थ निकालना हो, निकाल
लो। मुर्दा गुरु बीच में आकर कह नहीं सकता कि तुम क्या कर रहे हो!
सिगमंड फ्रायड के जीवन में एक उल्लेख है। जब बूढ़ा हो गया
फ्रायड, तो मनोवैज्ञानिकों की, उसके खास-खास शिष्यों की,
उसने
एक बैठक बुलाई! शायद दो-चार महीने और जीएगा--कि साल; अब कुप पक्का
नहीं है। उसे शक होने लगा है कि जाने के दिन करीब आ गए हैं। तो उसने अपने खास
शिष्यों को बुलाया कि उनसे आखिरी बार मिल ले। उसके शिष्य सारी दुनिया में फैले थे।
उसने बड़ा भारी आंदोलन चलाया--मनोविश्लेषण का।
शिष्य आए भी। कोई तीस खास-खास आदमी उसने बुलाए थे, वे
आए। सांझ को उन्होंने फ्रायड के साथ भोजन लिया, और भोजन के
बाद जब वे गपशप कर रहे थे, तो फ्रायड बैठा चुपचाप सुनता रहा। उन सब
में बड़ा विवाद मच गया। विवाद इस बात पर मच गया कि फ्रायड के किसी कथन में ऐसा कहा
है कि वैसा कहा है? यह कहा है कि वह कहा है? अलग-अलग
व्याख्याएं होने लगीं। तीस लोग थे, तो तीस व्याख्याएं! और उनमें बड़ा विवाद
पिड़ गया। और फ्रायड सुनता रहा घंटे भर। और उसने जोर से टेबल बजाई और उसने कहा,
‘मैं
अभी जिंदा हूं, मुझसे नहीं पूछते? (वह जिंदा बैठा है!)। तुम लड़े जा
रहे हो! तुम विवाद कर रहे हो कि फ्रायड का अर्थ क्या है? और फ्रायड
जिंदा है! उसने कहा, ‘मैं अभी जिंदा हूं, इतनी जल्दी तो न करो। जब मैं मर
जाऊं, तब तुम विवाद कर लेना। अभी तो मैं मौजूद था, अभी
तुम्हें किसी को नहीं सूझा कि इस बूढ़े को पूछ लें--कि इसका मतलब क्या है? मेरे
मरने के बाद क्या हालत होगी?’ फ्रायड ने कहा।
बुद्ध के मरने के बाद क्या हालत हुई! बौद्धों के पच्चीसों
संप्रदाय हो गए। महावीर के मरने के बाद क्या हालत हुई? कितने ही
संप्रदाय फैल गए। मोहम्मद के मरने के बाद; जीसस के मरने के बाद...।
संप्रदाय का मतलब क्या होता है? व्याख्या
करने में लोग स्वतंत्र हो गए। जिसको जैसी व्याख्या करनी हो, वैसी
व्याख्या करे। अब महावीर बीच में आकर कह न सकेंगे कि यह गलत है; मैंने
ऐसा कभी कहा नहीं। या मैंने कुप और कहा था।
मुरदा गुरु के तुम मालिक हो जाते हो। जिंदा गुरु तुम्हारा
मालिक होता है। और अहंकार किसी को अपना मालिक नहीं बनाना चाहता।
तो दूसरा वचन उनसे कहा है, जो अपने
अहंकार में अटके हैं। पहला वचन उनसे कहा है, जो गुरु में
अटक सकते हैं। पहला वचन उनसे कहा, जो गुरु में अटक सकते हैं, वे
अटकें नहीं। उनको याद दिलाई--कि गुरु से ही मुक्ति नहीं मिल जाएगी। गुरु तो याद
दिला देगा। इशारा कर देगा। फिर यात्रा करनी होगी। मुक्ति तो परमात्मा से मिलेगी।
दूसरी याद उन्हें दिलाई कि इसका मतलब यह मत समझ लेना कि गुरु
की कोई जरूरत नहीं है। गुरु के बिना इशारा कौन करेगा? इसलिए कहाः ‘हरि
सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार’।
गुरु की सारी चेष्टा यही है कि पहले उसके पास आओ, ताकि
संसार से दूर हो जाओ। और फिर उसकी चेष्टा होती हैः अब मुझसे दूर हो जाओ, ताकि
परमात्मा के पास हो जाओ। इस फर्क को खयाल में ले लेना।
संसार से दूर करने में गुरु अनिवार्य है। और फिर परमात्मा के
पास भेजना हो, तो तुम्हें धक्का देने लगेगा, कि अब तुम
परमात्मा की तरफ जाओ; अब मुझमें उलझ कर मत बैठ जाओ। मैं तो साधन था एक, उसका
तुमने उपयोग कर लिया। अब साधन में अटको मत। मैं तो मार्ग था, मैं
मंजिल नहीं हूं। इसलिए ये दो वचन हैं।
दूसरा प्रश्नः मैं अपने अतीत को क्यों नहीं भूल पाता हूं?
यद्यपि
मेरे अतीत में दुखों के अतिरिक्त और कुप भी नहीं है।
शायद इसीलिए। आदमी दुखों को कुरेद-कुरेद कर याद करता है।
क्योंकि दुख में एक मजा है। तुम चैंकोगे। तुम कहोगेः दुख में और मजा! दुख में कैसा
मजा?
दुख में एक मजा है। दुख अहंकार का भोजन है। आनंद की अवस्था में
अहंकार विलीन हो जाता है। दुख की अवस्था में अहंकार खूब सघन हो जाता है।
लोगों ने दुख ऐसे ही थोड़े चुन लिया है! होशियारी से चुना है!
समझदारी से चुना है। लोग दुखी हैं--ऐसे ही थोड़े! लोग दुखी इसलिए हैं कि दुख में ही
अहंकार बचता है। मैं कुछ हूं--यह दुख में ही बचता है। जैसे ही आनंद की लहर आती है,
तुम
बह जाते हो। अहंकार बचता ही नहीं।
इसलिए लोग आनंद की बात करते हैं, लेकिन आनंदित
होना नहीं चाहते है; डरते है। आनंदित हुए तो यह जो ‘मैं’ का
भाव है, यह नहीं बच सकेगा। इसीलिए सारे संतों ने कहा है कि आनंद पाना
हो, तो
‘मैं’
पोड़
दो। क्योंकि दोनों एक ही बात है। ‘मैं’ पोड़ दो,
तो
आनंद हो जाता है। आनंदित हो जाओ, तो ‘मैं’ पूट
जाता है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
लेकिन तुम दुख को खूब सम्हाल-सम्हाल कर रखते हो, जैसे
वह संपति हो! दुख की ढेरी पर तुम अकड़ कर बैठे रहते हो! लोग अपना दुख भी बड़ा कर-कर
के बताते हैं। यह तुमने खयाल किया! तुमने खुद भी अपने पर देखा हो, तो
खयाल में आ जाएगा। जरा सी बीमारी हो जाती है, तो उसको बड़ा
करके बताते हैं। क्यों?
बड़े दुख के साथ बड़ा अहंकार हो जाता है। तुम्हें अगर कोई बीमारी
हो और दूसरा कह देः अरे यह कोई खास बीमारी नहीं है, तो भी दुख
होता है कि यह आदमी हमारी बीमारी को कह रहा हैः खास बीमारी नहीं हैं! मेरी बीमारी!
और तुम कह रहे हो, कुप खास बीमारी नहीं? तुमने समझा क्या है?
तुम्हें जरा सा फोड़ा फुंसी हो जाए, तो तुम ऐसी
चर्चा करते हो, जैसे कैंसर हो गया। जरा से सिरदर्द को तुम बताते हो कि जैसे
सारी दुनिया के दुख-दर्द तुम पर टूट पड़े। जरा सा कांटा क्या चुभ जाता है, तुम
चिल्लाते हो कि सूली लग गई!
तुम अपने दुखों को खूब बढ़ाते हो! तुम अपने दुखों को खूब फैलाते
हो। तुम अपना ही जीवन जांचोगे, तो पजा चल जाएगा। कल तब तुुम अपने दुख
की चर्चा करो, तो जरा देखनाः कितना बढ़ा रहे हो। तुम हैरान होओगे कि दुख बढ़ाने
की चीज है क्या? दुख तो घटाना है और तुम बढ़ा-बढ़ा कर बता रहे हो।
लोग दुख की ही बात करते हैं; सुख की तो
कोई बात करता नहीं। दो आदमी मिलते हैं, दुख ही चर्चा शुरू कर देते हैं।
दुख में लोग कुप अतिशय रस लेते मालूम पड़ते हैं। दुख उनकी संपदा मालूम होती है।
तुम पूछते होः ‘मैं अपने अतीत को क्यों नहीं भूल पाता
हूं? और
यद्यपि मेरे अतीत में दुखों के अतिरिक्त कुप भी नहीं है।’
तुम अपने अतीत को नहीं भूल पाओगे, जब तक तुम यह
सत्य न समझ लो कि दुख अहंकार का निर्माण करते हैं। जिस दिन तुम अहंकार से मुक्त
होने को तैयार होओगे, उसी दिन अतीत से भी मुक्त हो जाओगे, क्योेंकि
अतीत भी अहंकार का निर्माता है। अतीत के बिना तुम्हारा क्या अहंकार है?
समझ लो कि एक जादू का डंडा मैं घुमा दूं तुम्हारे सिर के पास,
और
तुम्हारा अतीत तुम्हें भूल जाए--सब--जैसे स्लेट पोंप दी। फिर तुम्हारे पास क्या
अहंकार बचेगा? तुम क्या अकड़ कर कह सकोगेः मैं इंजीनियर हूं, डाक्टर
हूं, प्रधानमंत्री
हूं? वे
तो अतीत की बातें थी; वे तो सब पुप गईं। तुम एकदम कोरी स्लेट हो गए। तब क्या तुम कह
सकोगे कि मैं फलाने कुल में पैदा हुआ; बड़े कुलीन घर से आ रहा हूं;
फलाने
महाराजा का बेटा हूं।
वह तो पुप गया; अतीत तो पोंछ दिया। तुम कोरी स्लेट हो
गए। तुम क्या घोषणा कर सकोगे--उस कोरी स्लेट में? तुम्हें कुछ
भी न सूझेगा। तुम कह ही न सकोगे कि मैं कौन हूं। तुम्हारा नाम भी पुछ गया।
तुम्हारी जाति भी पुप गई। तुम्हारा ब्राह्मण होना, तुम्हारा यह
होना, वह होना; तुम्हारी डिग्रियां, पदवियां,
पद्मभूषण,
भारतरत्न
इत्यादि सब पुछ गया। कुप नहीं बचा। तुम खाली कोरे कागज हो। क्या कहोगे?
तुम उस कोरे कागज में अचानक पाओगे कि कुप कहने को नहीं है। मैं
की कोई घोषणा ही नहीं बनती।
‘मैं’ का सारा रूप-रंग अतीत से आता है। ‘मैं’
का
नक्शा अतीत से आता है। ‘मैं’ की रेखा,
परिभाषा
अतीत से आती है। तो आदमी अपने अतीत को सम्हाल कर रखता है। जोड़ता जाता है अतीत की
पूंजी। अनुभव इकट्ठे करता जाता है। कूडा करकट जो भी हो, इकट्ठा करता
जाता है। ढेरी बड़ी होनी चाहिए। तुम्हारी ढेरी सब से बड़ी हो--ऐसी तुम्हारी आकांक्षा
होती है। इस कारण आदमी अतीत को नहीं भूल पाता है। अहंकार है जड़ में। सुनो; इस
पर सोचोः
तल्खी-ए-जहर अभी शामिले-जां रहने दे,
मुझ पे जो गुजरी है कुप उसका निशां रहने दे
ये बुझे जाम, ये रोई हुई शमएं न हटा
चंद घड़ियां खलिशे-ऐशे-गिरां रहने दे
देख उजड़े हुए मंजर अभी दिल-शोज नहीं
और कुप रोज युंही रंगे-खिजां रहने दे
कुप तो रोशन हों मेरे जिस्म की तारीक रगें
मौजा-ए-खूं से कोई शमए-रवां रहने दे
वो तेरे दर्द की गहराई कहीं देख न ले
नोहा-ए-जख्म को महरूमे-जबां रहने दे
चंद गुमनाम सी यादों की महक है दिल में
इस खराबे में ये गुलहाए-खिजां रहने दे
‘तल्खी-ए-जहर अभी शामिले-जां रहने दे।’ यह जो जिंदगी
से कड़वाहट आ जाती है, जहर आ जाता है, आदमी कहता हैः इसे भी रहने दो, पीन
मत लो।
‘तल्खी-ए-जहर अभी शामिले-जां रहने दे।’
मेरी जिंदगी में सम्मिलित रहने दो यह जहर; मुझ
से पीन मत लेना; मैंने बड़ी मेहनत से कमाया है। बड़ी कुरबानियां की हैं, तब
यह जहर कमाया है। यह घाव मुफत नहीं है, बड़ी कीमत से खरीदे हैं।
तल्खी-ए-जहर अभी शामिले-जां रहने दे,
मुझ पे जो गुजरी है कुप उसका निशां रहने दे
तुम पर जो गुजरा है, वह एक दुखस्वप्न था। कांटे ही
कांटे थे वहां; फूल वहां कभी न खिले, वसंत कभी न आया, सदा
पतझड़ रही। रोग ही जाने हैं तुमने। जीवन का स्वाद तो कभी तुम्हें मिला नहीं। मृत्यु
से ही कई बार मुलाकात हुई है। जीवन से कभी साक्षात्कार नहीं हुआ। लेकिन फिर भी मन
कहता हैः ‘मुझ पर जो गुजरी है, कुप उसका निशां रहने दे।’
उसके
निशान रहने दो, क्योंकी वे निशान मिट जाएं, तो ‘मैं’
ही
मिट जाता हंू।
‘ये बुझे जाम, ये रोई हुई शमएं न हटा।’ ये
दीये जो बुझ गए, ये दीये जो अब सिर्फ अतीत में बहे हुए आंसुओं की याद दिलाते
हैं और कुप भी नहीं...।
‘ये बुझे जाम, ये रोई हुई शमएं न हटा।’ चंद
घड़ियां खलिशे-ऐशे-गिरां रहने दे।’ और जो खलिश पुट गई है, जो
जीवन के नाना प्रकार के भोगों के कारण कांटे चुभे रह गए हैं, जो
बोझ छूट गया है--चंद घड़ियां खलिशे-ऐशे-गिरां रहने दे।’ उसे हटा मत
लो। वह बोझ मेरे ऊपर रहने दो। कुप नहीं तो कुप घड़ियां ही रहने दो।
देख उजड़े हुए मंजर अभी दिल-शोज नहीं
और कुप रोज युंही रंगे-खिजां रहने दे
आदमी कहता है पतझड़ ही सही मेरे अतीत में, लेकिन
पतझड़ का रंग अभी रहने दो। अभी मुझे और सुन्दर दृश्यों की आकांक्षा भी नहीं है।
मुझे मेरे पतझड़ में जीने दो।
कुप तो रौशन हों मेरे जिस्म की तारीक रंगें
मौजा-ए-खूं से कोई शमए-रवां रहने दे
वो तेरे दर्द की गहराई कहीं देख न ले
नौहा-ए-जख्म को महरूमे-जबां रहने दे
चंद गुमनाम सी यादों की महक है दिल में
इस खराबे में ये गुलहाए-खिजां रहने दे
सब व्यर्थ हो गया है, सब खंडहर हो गया है। अतीत यानी
खंडहर।’ इस खराबे में, इस खंडहर में ये गुलहाए-खिजां रहने दे।’
तुमने पतझड़ को भी फूल समझ लिया है। तुम कहते होः ये पतझड़ के
फूल, ये
कांटे--मगर चुभे रहने दो; इनकी खलिश बची रहने दो। ये बोझ मुझसे
हटा मत लो; यही तो मेरी संपदा है। यही मेरा जीवन है।
तुमने जो नरक भोगे हैं, वही तो
तुम्हारी आत्म-कथा है। और तुम्हारी आत्म-कथा क्या? सुख की तो
किरण कभी उतरी नहीं। राम की धुन तो कभी उतरी नहीं, अनाहत का तो
नाद कभी सुना नहीं। जो सुना है, बाजार का शोरगुल है। या वेश्यालयों का,
या
शराबघरों का, या गाली-गलौज का, या क्रोध, ईष्र्या-मद-मत्सर--इनके
बीच ही घिरे रहे हो। यही तुम्हारी कुल जमा-पंूजी है। यही तुम्हारा हिसाब किताब है।
यही तुम्हारी खाता-बही है। इसलिए आदमी पोड़ना नहीं चाहता।
तुम्हारी ही ऐसी बात नहीं है, कोई अपने
अतीत को पोड़ना नहीं चाहता। अपने घावों को लोग कुरेदते रहते हैं--कि कहीं भर न
जाएं। भर जाएं, तो फिर क्या होगा? यही तो कुल-जमा है--बात करने की
संपदा। यही मिट गया, तो हमारे पास तो कहने को कुप भी न बचेगा।
समझोगे इसे, तो अतीत को भूलने की जरूरत न रह जाएगी।
समझोगे इसे, तो अतीत का बोझ गिरा दोगे। तुम्हीं सम्हाले हो।
अतीत तुम पर सवार नहीं है। अतीत तो जा चुका। जो जा चुका उसी का
नाम अतीत है, तुम्हारी कल्पना भर में रह गया है। तुम्हारी स्मृति भर में
अटका रह गया है। और वह भी तुम अटकाए हो, इसलिए रह गया है।
तुम समझ लोगे कि यह व्यर्थ है, इस धूल को अब
ढोने की कोई जरूरत नहीं; इन खंडहरों में और रहने की जरूरत नहीं।
नये घर बनाएं, वर्तमान में रहें। वर्तमान में रहोगे, तो भविष्य के
द्वार खुलेंगे। अतीत में रहोगे, तो कब्र में रहोगे। कोई द्वार नहीं
खुलेगा।
अतीत का तो कोई भी उपयोग नहीं है; अतीत में तो
कुछ संभावना बची नहीं; वह तो चली हुई कारतूस है; अब
उसको लिए फिरो! रखे रहो सम्हाल कर पाती में अपनी! चली हुई कारतूस का करोगे क्या?
कुप
नये को जियो। आज जीयो--आज में जीयो, क्योंकि आज से कल पैदा होगा।
उससे द्वार खुलेंगे। उससे संभावनाएं वास्तविक बनेंगी; बीज खिलेंगे।
‘मैं अपने अतीत को क्यों नही भूल पाता हूं?’ क्योंकि
तुमने अभी तक वर्तमान में जीने की कला नहीं सीखी। क्योंकि तुम्हें अभी तक अज्ञात
में जीने की हिम्मत नहीं है।
अतीत में बड़ी सुरक्षा है, सब साफ-सुथरा
है, क्योंकि
सब हो चुका है। भविष्य बिलकुल अराजक है। कुप भी हुआ नहीं है अभी। सब हो सकता है,
मगर
अभी कुप हुआ नहीं है।
कल--आनेवाला कल बिलकुल अराजक है। खाली केनवास है, चित्र
तुम्हें बनाना होगा। तुम जो चाहोगे, बन जाएगा। नरक बनाना चाहोगे--तो
नरक; और
स्वर्ग बनाना चाहोगे--तो स्वर्ग।
अतीत का चित्र बिलकुल साफ-सुथरा है, क्योंकि बात
घट चुकी, तस्वीर उतर गई; उसमें कुप करने को बाकी नहीं है। कुप
मेहनत भी नहीं है। तो आलस्य, काहिली, अकर्मण्यता--अतीत
से चिपटी रहती है। जागरूकता वर्तमान में जीती है।
अभी बहुत चित्र बनाने हैं। अभी असली चित्र तो बना ही नहीं।
क्योंकि अभी परमात्मा का चित्र नहीं बना। जब तक तुम्हारे हृदय में परमात्मा का
चित्र अंकीत न हो जाए, तब तक अभी कुप भी नहीं हुआ; अभी
असली बात तो होने को है। अभी जो हुआ, व्यर्थ ही हुआ है।
परमात्मा के पहले तृप्त मत हो जाना। परमात्मा को पाए बिना राजी
मत हो जाना। अभी परमात्मा होने को है, तो क्या फिकर कर रहे हो कि किस
स्कूल में पढ़े, किस कालेज में पढ़े; कौन सी डिग्री पाई, नहीं
पाई; किस
स्त्री ने धोखा दिया, किस पुरुष ने धोखा दिया; कौन दो पैसे
पीन ले गया; कौन अपमान कर गया--इन व्यर्थ की बातों में समय मत खराब करो,
ऊर्जा
मत खराब करो। क्योंकि यही ऊर्जा परमात्मा की निर्मात्री है। इसी ऊर्जा से तुम्हारा
मोक्ष निर्मित होगा। इस ऊर्जा का बड़ा मूल्य है, इसे कू
ड़ाघरों में मत फेको।
तो वर्तमान को जीना सीखो; भविष्य पर
आंख रखो। नजर आगे रहे, नजर पीपे नहीं।
जिसकी नजर पीपे है, उसके जीवन में दुर्घटनाएं होंगी।
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी कार चला रहा है और पीपे की तरफ देख रहा है। देखता पीपे की
तरफ है, गाड़ी आगे की तरफ जा रही है। खतरा न हो, तो चमत्कार
है। खतरा हो, तो इसमें कौन सी खास बात है! होना ही चाहिए। कितनी देर यह आदमी
बिना खतरे के चल लेगा? यह देखता पीपे है। इसकी गर्दन पीपे की
तरफ देख रही है और यह जा रहा है आगे की तरफ। खतरे आगे हैं, पत्थर-पहाड़
आगे हैं। राहों के मोड़ आगे हैं। पीछे तो सिर्फ धूल उड़ती रह गई है अब। जिन रास्तों
से तुम गुजर गए, उनसे अब कभी न गुजरोगे। जो हो गया, हो गया। अब
तुम
दुबारा बच्चे न होओगे; अब तुम दुबारा जवान न होओगे।
जो हो गया, वह तो धूल है--उड़ती हुई पीछे; कब
तक इस धूल में अपनी आंखों को डूबाए रखोगे? गर्दन को मोड़ो।
और कोई जबरदस्ती यह काम नहीं किया जा सकता। तुम समझोगे,
तो
ही होगा।
मैंने सुना हैः मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते के किनारे बैठा था।
एक मोटर साइकिल पर सवार आदमी और उसके पीपे एक युवक पास ही आकर गिर गए। उसने दौड़ कर
उस पीपे बैठे युवक को, जाकर उठाने की कोशिश की। क्योंकि ड्राइवर
तो ठीक हालत में था। गिर तो गया था, चोट भी आ गई थी, लेकिन
मुल्ला को लगा कि पीपेवाले की हालत बहुत खराब है। और हालत उसे इसलिए खराब लगी
क्योंकि उसका सिर उलटा हो गया था। तो उसने एक जल्दी से पटका देकर उसका सिर सीधा कर
दिया।
तब तक ड्राइवर भी उठ कर पास आ गया। दूर गिर गया था। उसने कहा,
‘उसकी
क्या हालत है?’ मुल्ला ने कहा, ‘जब तक इसका सिर उलटा था, कुछ-कुछ
बोलता था। जब से मैंने इसका सिर सीधा किया, यह बोलता ही
नहीं!’ वह आदमी बोला, तुमने मार डाला उसे। क्योंकि तेज हवा चल
रही थी, ठंडी हवा, तो उसने उलटा कोट पहन लिया था। रास्ते
में तेज हवा थी, पाती में हवा लग रही थी, तो उसने उलटा
कोट पहन लिया था; उसका सिर बिलकुल सीधा था। तुमने मार डाला उसको!
जबरदस्ती किसी का सिर सीधा करना मत। क्या पता उलटा कोट पहने
हो!
जबरदस्ती तुम्हारे साथ कुप भी किया नहीं जा सकता। समझ से ही
हो। समझ से हो, सहजता से हो, तुम्हारे बोध से हो।
देखना शुरू करो कि अतीत को देखते रहने से क्या सार होगा?
सार
आगे है। सार अभी होने को है। अभी हुआ नहीं है। जो जहां सार है, वहां
देखो।
और मैं यह नहीं कर रहा हूं कि तुम आगे इतना देखने लगो कि
वर्तमान को देखना पोड़ दो। क्योंकि यह भी हो जाता है। कुछ लोग ऐसे हैं, जो
पीछे देखते हैं। अगर उनको किसी तरह समझ में आ जाए, तो आगे देखने
लगते हैं। लेकिन पीछे तो है, जो जा चुका और आगे अभी हुआ नहीं है। फिर
भी भ्रांति हो जाएगी।
यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हुआ, वह एक रात
तारों का अध्ययन करता हुआ जा रहा था। ज्योतिषी था, तो तारों का
अध्ययन कर रहा था; आकाश में आंखें अटकाए था। एक कुंए में गिर पड़ा, चोट
खा गया। खयाल ही नहीं रहा; चलता-चलता रास्ते से उतर गया। कुएं में
गिर गया। कुएं में गिर गया, तो चिल्लाया।
पास की एक बूढ़ी औरत ने जो खेत में रहती थी, उसने
आकर किसी तरह उसको निकाला। उस ज्योतिषी ने कहा कि ‘मां, तेरा
बड़ा उपकार। शायद तुझे पता न हो कि किसको तूने बचाया! मैं यूनान का सब से बड़ा
ज्योतिषी हंू। किसी का भविष्य बताने के लिए हजारों रुपये मेरी फीस है। मैं तेरा
भविष्य मुफ्त बता दूंगा।’
उस बूढ़ी ने कहा, ‘चल रहने दे। तुझे अपने सामने आया
हुआ कुआं दिखाई नहीं पड़ता। तू मुझे मेरा भविष्य बताएगा? तुझे जमीन के
कुंए नहीं दिखाई पड़ते; तेरे पैर के सामने आए कुएं नहीं दिखाई
पड़ते?’
यह कहानी मुझे प्रीतिकर लगती है। कुछ लोग हैं, जो
बहुत आगे देखने लगते हैं, तो कुओं में गिरते हैं। कुप लोग हैं,
जो
पीपे देखते रहते हैं, तो भविष्य से टकरा जाते हैं।
सम्यक दृष्टि वर्तमान में होती है। सम्यक दृष्टि होती वर्तमान
में है, भविष्य उन्मुख होती है।
देखना तो अभी है, यहां है। और भविष्य तो प्रतिपल
वर्तमान बन रहा है, तो भविष्योंमुखता है। लेकिन भविष्य पर आंखें नहीं गड़ा देनी
हैं।
अतीत स्मृती है; भविष्य कल्पना है; वर्तमान
यथार्थ है। यथार्थ को देखो, क्योंकि यथार्थ से ही सत्य की तरफ जाने
का द्वार है।
तीसरा प्रश्नः ममता के, मेरेपन के
भाव के बिना क्या संभव है कि कोई मां अपने बच्चों का पालन दुलार के साथ कर सके?
ममता,
मेरेपन
का पर्याय कैसे बन गई? और क्या ममता और प्रेम के बीच कुप
सम्बन्ध नहीं है?
‘ममता’ शब्द बना है मम से। मम यानी मेरा,
ममता
यानी मेरेपन का भाव।
और ध्यान रहे, अधिकतर लोग ममता का अर्थ प्रेम कर लेते
हैं। प्रेम और ममता बड़े विपरीत हैं। प्रेम में मेरेपन का भाव होता ही नहीं।
क्योंकि मेरेपन का भाव वस्तुओं से हो सकता है; व्यक्तियों
से कैसे हो सकता है?
तुम कह सकते हो कि यह मकान मेेरा है। चलो, ठीक,
कबीर
तो इसमें भी कहते हैं कि शरम खाओ, संकोच करो, लाज खाओ।
मकान को मेरा कह रहे हो! यह तो परमात्मा का है। तुम्हारा इसमें क्या है? मेरा-तेरा
क्या है?
लेकिन चलो, माफ कर दें आदमी को--कि मकान को मेरा
कहे। लेकिन पत्नी को मेरा कहे, यह तो ज्यादती हो गई; यह
तो माफ नहीं की जा सकती। क्योंकि पत्नी के पास आत्मा है! पत्नी वस्तु तो नहीं है!
कोई कुर्सी तो नहीं है! कोई मकान तो नहीं है! कोई फर्नीचर तो नहीं है कि तुम कहो
कि मेरा है! कि लेबल लगा दो। पत्नी के पास व्यक्तित्व है। वस्तु तो नहीं है पत्नी।
कैसे मेरा कह सकते हो? मेरे कहने से तो व्यक्तित्व मर जाता है
और वस्तु हो जाती है!
बेटे को भी; बेटी को भी--अपने बच्चे को भी मेरा कैसे
कह सकते हो? क्योंकि इतना जीवंत, इतना परमात्मा के घर से अभी-अभी,
ताजा-ताजा
आया हुआ, इस पर तुम मेारे का क्या दावा करोगे?
खैर, मकान शायद तुमने बनाया अभी हो, ईंट-पत्थर
जोड़ा हो, गारा लाया हो। शायद फर्नीचर तुमने बनाया भी हो। लकड़ी काटी हो,
औजार
उठाया हो। लेकिन बच्चे को तो तुमने बनाया भी नहीं। तुम ज्यादा से ज्यादा परमात्मा
के हाथ में निमित्त मात्र थे। बच्चा अपने से बना है--या परमात्मा ने बनाया है! तुम
बनाने वाले कौन हो?
बच्चे को तो मेरा कह ही नही सकते हैं। यह तो बड़ा अपमानजनक है।
और मनोवैज्ञानिक से पूछो, तो वह भी राजी
होगा इस बात से। बच्चे के प्रति सम्मान चाहिए। ममता का भाव नहीं--सम्मान का भाव।
बच्चा परमात्मा से आया है। यह परमात्मा की भेंट है; इसके प्रति
आदर चाहिए--गहन आदर चाहिए। वही पत्नी के प्रति, वही पति के
प्रति।
व्यक्ति व्यक्ति के बीच आदर का संबंध होना चाहिए। और जहां आदर
है, वहां
प्रेम है। जहां प्रेम है, वहां आदर है। जहां आदर है, वहां
स्वतंत्रता है। और जहां स्वतंत्रता है, वहां प्रेम है। और जहां प्रेम है,
वहां
स्वतंत्रता है।
जहां तुमने मेरेपन की बात उठाई, वहां
स्वतंत्रता मर जाती है। तुमने फांसी लगा दी। तुमने कहा, यह मेरा
बच्चा है...। लोग कहते हैं कि यह मेरा बच्चा है, जो चाहंूगा,
करूंगा।
तुम बच्चे की जान ले रहे हो। तुम बच्चे के चारों तरफ फांसी का फंदा कस रहे हो।
तुम कहते होः मैं हिन्दू हूं, तो इसको
हिंदू बनाऊंगा। मैं मुसलमान हंू, तो इसको मुसलमान बनाऊंगा। यह अपमानजनक
है। तुम कौन हो निर्णायक? तुम्हें किसने हक दिया कि तुम इसे
हिन्दू बनाओ कि मुसलमान बनाओ? तुम्हें किसने हक दिया कि तुम इसे आचरण
दो। तुम ज्यादा से ज्यादा प्रेम दो और स्वतंत्रता दो। आचरण इसका जन्मे।
हां, तुम इसे मस्जिद भी ले जाओ और मंदिर भी
ले जाओ; गुरुद्वारा भी और गिरजा भी। तुम इसे सब तरफ से पहचान करवा दो,
फिर
इसे स्वतंत्रता दो कि यह जो चुनना चाहे। गुरुद्वारा भला लगे, तो
गुरुद्वारा। और गिरीजा भला लगे, तो गिरीजा। और मंदिर भला लगे, तो
मंदिर। मगर इसकी स्वतंत्रता में बाधा न बनो।
तुम हो कौन कि इसका धर्म चुनो? धर्म चुनने
का अर्थ तो यह हुआ कि तुमने इसके ईश्वर का भी निर्णय कर दिया! इसकी पुजा का भी
निर्णय कर दिया।
तुम हो कौन कि इसकी प्रेयसी चुनो? तुम कहते होः
मेरा बेटा है, इसकी पत्नी मैं चुनंूगा! तुम हो कौन! तुम कैसे चुन सकोगे इसके
लिए पत्नी? इसे चुनने दो। तुम इसे प्रेम दो, ताकि यह भी
प्रेम करने में सफल हो जाए और कुशल हो जाए।
फिर इसके प्रेम को मुक्ति दो, ताकि यह
चुने--कि किस स्त्री के साथ जीना चाहेगा, किस पुरुष के साथ जीना
चाहेगी--कौन इसका मित्र होगा, कौन इसका संगी-साथी होगा, इसे
चुनने दो। तुम अपनी कुशलता, अपनी बुद्धिमानी, अपना अनुभव
बीच में न लाओ। क्योंकि यह बच्चा अपनी जिंदगी जीएगा; तुम्हारी
जिंदगी नहीं दोहराएगा। और तुम जिस दुनिया में जीए थे, वह दुनिया अब
नहीं है। यह किसी और दुनिया में रहेगा, जो आगे आनेवाली है। तुम इसे
मुक्त करो।
नहीं, ममता में प्रेम नहीं है; ममता
में मालकियत है। और मालकियत में कहां प्रेम?
मालिक तो--वस्तुओं का--आदमी होता है। व्यक्तियों का कैसे?
हालांकि
कबीर तो कहते हैंः वस्तुओं के भी मालिक मत होना। यह भी परमात्मा के साथ ज्यादती
है। यह अन्याय है, अनैतिक है। कुप तो संकोच करो, वे कहते हैं,
यहां
अपना क्या है? सब उसका है।
ये वृक्ष जो इस बगीचे में उगे हैं, क्या तुम
कहोगेः हमारे हैं? तुमने इनमें क्या किया? एक पत्ता तो
तुम पैदा नहीं कर सकते। जिसके हैं, उसके हैं। परमात्मा के हैं। हां,
तुमने
कुछ थोड़ी सी सेवा की हैः पानी डाला है; खाद जुटाई है। तुम निमित्त के
कारण बने हो। तुम से थोड़ा सहयोग मिला है। परमात्मा ने तुम्हारा उपयोग किया है। उसे
धन्यवाद दो, कि तूने मुझे इन वृक्षों की सेवा में थोड़ा अपनी सेवा का मौका
दिया लेकिन ये वृक्ष तुम्हारे नहीं हैं। न बच्चे तुम्हारे हैं।
जीवन पर हक हो ही नहीं सकता। जीवन पर ममता का भाव घातक है। और
दुनिया इतनी तकलीफ पा रही है--इस ममता के भाव के कारण।
अगर तुम मनोविश्लेषक के पास जाकर पूछो, तो सौ सालों
का अनुभव यह है कि बच्चे जो भी मानसिक रूप से रुग्ण होते हैं, उनका
सब कारण उनकी मां या उनके पिता में होता है। ज्यादातर तो मां में, क्योंकि
पिता तो अक्सर घर होता ही नहीं। उसका संबंध कुप बच्चे से ज्यादा होता नहीं;
लेकिन
मां से चैबीस घंटे होता है।
कल ही रात एक युवती ने मुझे कहा कि मेरा बच्चा बार-बार अस्थमा
से पीड़ित हो जाता है। ऐसा पहले तो नहीं होता था। जब से मैं अपने पति से अलग हो गई
हंू तब से बच्चे को अस्थमा पकड़ने लगा है। तो मुझे शक होता है कि कारण क्या है
अस्थमा का! यह बच्चा कमजोर होता जाता है। यह खाना भी नहीं खाता! और वह रोने लगी।
जाहिर था, वह बहुत चिंता कर रही है बच्चे की।
बच्चा भी सामने बैठा है। पोटा-सा बच्चा! वह भी सुन रहा है। जब मैंने पूरी बात समझी,
तो
मुझे समझ में आया कि वह मां जरूरत से ज्यादा बच्चे के पीपे पड़ी है। अस्थमा उसी के
कारण पैदा हो रहा है।
पति से अलग हो गई है, तो उसको एक अपराध का भाव है,
कि
बच्चे का पिता पिन गया। तो पिता का काम भी पूरा कर रही है, मां का काम
भी पूरा कर रही है। दोहरा दबाव डाल रही है बच्चे पर। चैबीस घंटे बच्चे के पीपे पड़ी
है कि इसको अच्पा कर के, बना कर बता देना है। शायद पति ने यह भी
कहा है कि बच्चा बरबाद हो जाएगा, अलग होने से। तो अब उसके अहंकार को
चुनौती है--कि वह बना कर बता देगी।
तो वह इस बच्चे के बुरी तरह पीपे पड़ गई है। उसी की वजह से
बच्चे को ऐसा लग रहा है, जैसे उसका कोई गला दबा रहा है; तो
अस्थमा पैदा हो रहा है। वह गला दबाना मनोवैज्ञानिक है। मानसिक भाव है बच्चे का--कि
कोई गला दबा रहा है। तो अस्थमा पैदा हो रहा है।
बच्चे ने खाना-पीना बंद कर दिया है। क्योंकी वह मां दिन-रात
चिंतित है। और बच्चे को ऐसा लगने लगा होगा कि मेरे कारण ही मेरी मां इतनी चिंतित
है। तो उसमें मरने की वृत्ती पैदा हो गई है। वह मर जाना चाहता है, क्योंकि
‘मेरे
कारण मेरी मां कितनी चिंतित है’। यह जाहिर नहीं है।
जब मैं यह बात उसकी मां से कर रहा था, तो वह पोटा
बच्चा भी--सुनते-सुनते उसकी आंखों में रोशनी आ गई, उसके चेहरे
में फर्क आ गया। वह पहले जब आया था तो बहुत बेचैन सा मालूम पड़ रहा था। बात मैं
उसकी मां से करता रहा, लेकिन आंख की नजर से मैं बच्चे को भी
देखता रहा--उसमें फर्क क्या पड़ रहे हैं। वह स्वस्थ होकर बैठ गया। उसे यह बात जंची।
हालांकि पोटा है अभी, लेकिन बात उसकी समझ में आ गई, कि कुछ ऐसा
हो रहा है।
मां को भी यह बात दिखाई पड़ गई, कि मैं अतिशय
प्यार कर रही हूं। अतिशय प्यार यानी अतिशय ममता।
यह प्रेम नहीं है। यह अपने अहंकार का ही आरोपण है। ‘यह
मेरा बच्चा है; इस बच्चे को दुनिया में सब से श्रेष्ठ बच्चा होना चाहिए।’
‘यह
भी क्या पागलपन है! तुम्हारा होने से इसने कोई कसूर किया! यह मेरा बच्चा है,
इसको
कक्षा में प्रथम आना चाहिए। क्यों? दूसरों के बच्चे भी तो हैं। तुम्हारे
बच्चे का ही क्या अपराध है कि वह प्रथम आए! और प्रथम आने में तुम सोचते हो कि
बच्चे से तुम्हें प्रेम है, तो तुम गलती में हो। यह सिर्फ तुम्हारा
अहंकार है, शायद तुम प्रथम नहीं आ पाए थे स्कू ल में; अब
तुम बच्चे की पाती पर चढ़ कर प्रथम आना चाहते हो; ताकि तुम
मोहल्ले में जाकर लोगों से कह सको कि ‘देखो, मेरा बच्चा
प्रथम आया है!’ यह बच्चे के पीपे से, बच्चे के कंधे पर बंदूक रख कर
गोली चलाना चाहते हो। देखो, मेरा बच्चा ऐसा--मेरा बच्चा वैसा...!
देखते हैं नः माताएं, पिता, कैसे बच्चों
की चर्चा करते हैं--कि मेरा बच्चा ऐसा, मेरा बच्चा वैसा। इस चर्चा में
गौर से सुनना, तो तुम उनके अहंकार का ही गीत सुनोगे। यह उनका अहंकार है कि
मेरा बच्चा है। यह मैं इसके भीतर पिपा हंू; यह मेरा खून,
मेरा
मांस-मज्जा, यह मेरा प्रतिनिधी है। मैं तो कल चला जाऊंगा, लेकिन
दुनिया को यह दान दे जाऊंगा। यह मेरा बच्चा है। यह मेरी याद्दाश्त कायम रखेगा।
यह अहंकार है। तुम नहीं भर पाए, अब तुम बच्चे
के द्वारा भरना चाहते हो। इस अहंकार के कारण तुम इस बच्चे की गरदन को दबा दोगे।
सौ में निन्यानबे बच्चे मां-बाप मार डालते हैं; जिंदा
ही नहीं रहने देते उनको। इसलिए तो दुनिया इतनी मुरदा दिखाई पड़ती है। यहां रोशनी
नहीं है, जीवन नहीं है, तरंग नहीं है, उत्सव नहीं
है। मार डालते हो; सब तरह से मार डालते हो।
न बच्चे को अपनी अनुभूति से चलने देते, न अपनी
अनुभूति से चुनने देते। और तो और धर्म भी उस पर थोप देते हो। और तो और प्रेम भी उस
पर थोप देते हो। कहते होः ‘मैं अनुभवी हूं, तो मैं यह
पत्नी तेरे लिए खोज लाया हूं।’ अनुभव से प्रेम का क्या संबंध है?
अगर
अनुभव से प्रेम का संबंध हो, तो लोगों को बुढ़ापे में शादी करनी
चाहिए।
प्रेम की तरंग अनुभव से नहीं उठती। प्रेम की तरंग तो युवा मन
में उठती है--अनुभवहीन मन में उठती है। प्रेम का तो विस्तार ही अनुभवहीनता में
होता है। प्रेम तो एक तरह का पागलपन है। जब तुम बहुत अनुभवी हो जाते हो, तो
प्रेम की तरंग उठती नहीं। अनुभव मार डालता है तरंग को।
और जब तुम अनुभव से सोचते हो, तो तुम कुप
और बातें सोचते हो। अनुभवी पिता सोचता है कि लड़.की का परिवार कैसा; लड़के
का परिवार कैसा। धन, दौलत, प्रतिष्ठा, शिक्षा--ये
बातें सोची जाती हैं। इनका प्रेम से क्या लेना-देना?
कभी तुमने सुना कि कोई आदमी किसी की एम.ए. की डिग्री के प्रेम
में पड़ गया हो? या कोई लड़की या कोई लड़का किसी की एम.ए. की डिग्री...। क्योंकि
गोल्ड मेडल मिला है, इसलिए प्रेम में पड़ गया हो। प्रेम से इसका क्या संबंध है?
गोल्ड
मेडल और प्रेम!
प्रेम जब उतरता है, तो बड़ा अनजाना उतरता है। बिना
किसी कारण के उतरता है। प्रेम का कारण भी नहीं बताया जा सकता। लेकिन तुम प्रेम भी
थोप देते हो; ज्ञान भी थोप देते हो; जीवन की सारी चर्या थोप देते हो,
और
फिर तुम चाहते होः लोग प्रफुल्लित हों! फिर तुम चाहते हो--लोग आनंदित हों। और तुम
चाहते हो--कि बच्चें मां-बाप के प्रति सम्मान से भरे रहें। असंभव है। तुमने ऐसा
कुप भी नहीं किया, जिसके कारण बच्चों का सम्मान तुम पाओ।
ममता प्रेम नहीं है। ममता जरूर तुमने दिखाई है। लेकिन प्रेम
तुमने नहीं दिखाया।
मैं तुमसे कहना चाहूंगा...। पूछा तुमनेः ममता के, मेरेपन
के भाव के बिना क्या संभव है कि कोई मां अपने बच्चों का पालन दुलार के साथ कर सके?
तभी संभव है। जब तक ममता है, तब तक प्रेम
कहां, दुलार कहां?
और अगर इसीलिए तुम बच्चे की फिकर कर रहे हो, कि
यह तुम्हारा है, तो तुम बच्चे की फिकर कर ही नहीं रहे हो। तुम अपनी ही फिकर कर
रहे हो।
बच्चा तुम्हारा है, इसलिए फिकर की, तो
बच्चे की क्या फिकर की? बच्चा परमात्मा का है, तुम्हारा
क्या? उसकी भेंट है। उसने तुम पर अनुग्रह किया, प्रसाद
किया। तुम उसके लिए धन्यवाद हो। और बच्चे की फिकर कर रहे हो, क्योंकि
यह सेवा का मौका परमात्मा ने तुम्हें दिया है। तुम्हें इस बच्चे से प्रेम है,
लगाव
है। तुम चाहोगे कि यह बच्चा आनंदित हो।
तुम इस बच्चे का आचरण नहीं दोगे, क्योंकि थोथा,
ऊपर
से थोपा गया आचरण इसे उदास कर देगा। तुम इस बच्चे को साहस दोगे कि तू हिम्मत कर।
खोज। हम भी खोजते रहे हैं, तू भी खोज।
और तुम इस बच्चे को झूठी बातें न दोगे। तुम इस बच्चे से झूठ न
कहोगे कि ईश्वर है। तुम्हें पता नहीं; तो तुम कैसे कहोगे? प्रेम
झूठ नहीं बोलेगा। ममता अक्सर झूठ बोलती है।
तुम्हें पता नहीं है, तुम बच्चे को कहते होः ईश्वर है।
और अगर बच्चा प्रश्न उठाए, तो तुम बच्चे को...जल्दी से उसका मुंह
बंद कर देते हो। तुम कहते होः ये बातें जरा कठिन हैं। तेरी अभी समझ में नही आएंगी।
बड़ा होगा, तब समझ में आ जाएगी। जैसे तुम्हें समझ में आ गई हैं! न तुम्हें
समझ में आई हैं, न तुम्हारे पिता को समझ में आईं। बड़े तुम हो गए हो, समझ
में क्या आ गया है?
जिंदगी का रहस्य बच्चे को जितना समझ में आ सकता है, बड़े
को उतना नहीं आ सकता है। इसलिए जीसस ने कहा हैः जो बच्चों की भांति सरल हैं,
वे
प्रभु को समझ पाएंगे।
सारी दुनिया के संतों ने कहा है कि बच्चों कि भांति सरल हो जाओ,
तो
परमात्मा करीब आ जाता है। अनुभवी के पास परमात्मा नहीं आता है। अनुभवी से परमात्मा
बचता है--कि ये अनुभवी आ रहा है--भागो!
ज्ञानी से परमात्मा डरता है; पंडित से
परमात्मा डरता है। पंडित से परमात्मा भयभीत होता है। शांत निर्दोष चित्तता चाहिए।
बच्चा परमात्मा के ज्यादा करीब है। और अगर उसे स्वतंत्रता दी
जाए और उसके चारों तरफ प्रेम बरसता हो, और ममता मे जाल और फंदे न हों,
और
कोई अहंकार, उसकी पाती पर सवार न होता हो, तो बच्चे एक
दूसरी तरह की दुनिया बनाएंगे। बच्चे एक दूसरी तरह की दुनिया में बड़े होंगे। वही
असली प्रेम होगा।
प्रेम की कसौटी क्या है? कहते हैं;
फल
कसौटी है वृक्ष की। तुम वृक्ष तो खूब लगाओ, और फूल कभी
खिलें ही न, तो कहीं कुछ भूल हो रही है--ऐसा मानोगे या नहीं? तुम
वृक्ष तो खूब लगाओ, आम कभी फले ही नहीं, तो कुप भूल हो रही है ना कहीं!
अगर आम फलें भी, तो भी कड़वे हो जाएं, तो कहीं कुप भूल हो रही है या
नहीं?
दुनिया इतना प्रेम कर रही है, लेकिन दुनिया
में उदासी है। फूल तो लगते ही नहीं! मधुर और मीठे फल तो लगते ही नहीं। जहर ही जहर
है। तो जरूर कहीं प्रेम में भूल हो रही है। प्रेम के नाम पर कोई और धोखा दे रहा
है। ममता प्रेम का धोखा दे रही है। और अहंकार प्रेम की नकाब ओढ़ कर चल रहा है।
ममता से मुक्त हो जाओ, ताकि प्रेम प्रकट हो सके। सम्मान
दो, क्योंकि
इस पृथ्वी पर जो भी है, परमात्मा का है। पौधे भी, बच्चे
भी, चांद-तारे
भी। यह पूरी पृथ्वी उसका मंदिर है।
और निश्चित ही जब तुम किसी का सम्मान करते हो, तो
आरोपण नहीं करते। तुम्हारे मन में प्रतिष्ठा होती है। अगर बच्चा एक प्रश्न पूछेगा,
तुम
जानते हो, तो जवाब दोगे। जितना जानते हो, उतना जवाब
दोगे--अगर सम्मान है बच्चे के प्रति। और ऐसा धोखा कभी न दोगे कि--बड़े होकर तुझे
पता चल जाएगा।
तुम बच्चे से यह कहोगे कि मैं भी खोज रहा हूं। अभी तक मुझे
परमात्मा का पता नहीं चला। तू भी खोज। तू शायद ज्यादा करीब है परमात्मा के घर के।
मेरे और परमात्मा के बीच तो कई साल का फासला हो गया। तू अभी-अभी आया परमात्मा के
घर से। तू भी ध्यान कर, तू भी प्रार्थना कर, तू
भी खोज। अगर तुझे मुझसे पहले पता चल जाए, तो मुझे बताना। क्योंकि तू अभी
ज्यादा ताजा है; तू अभी ज्यादा निर्र्दोेष है। अभी तू ज्यादा कपट से नहीं भरा;
तर्क
से नहीं भरा। अभी तेरी श्रद्धा अखंडित है। अभी तू सरल है। अभी तू संत है ही मुझे
तो संत होना पड़ेगा, तू है। तू भी खोज।
यह होगा सम्मान, यह होगा प्रेम। और अगर ऐसा पिता
कर सके, मां कर सके, तो क्या तुम सोचते हो, इनके
बच्चे कभी इनका अपमान कर सकेंगे? असंभव है।
आज दुनिया में यह पीड़ा बहुत है लोगों को कि उनके बच्चे उनका अपमान
करते हैं। क्यों? तुमने उनका बहुत अपमान किया है, उसका
प्रतिशोध है। हालांकि तुमने अपमान किया, तो तुमने कभी नहीं सोचा कि तुम
अपमान कर रहे हो। तुम्हारा अपमान इतना स्वीकृत है कि तुम सोचते ही नहीं कि यह
अपमान है।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। और मैं बहुत से घरों में मेहमान
हुआ--देश में यात्रा करता था तो। तो अक्सर यह उपद्रव हर घर में था। बाप अपने बेटे
को लेकर आ जाए कि ‘जरा इसको समझाइए। इस बुद्धू को कुप...।’ (उसके
ही सामने उसको बुद्धू कह रहे हैं!)--‘इसको कुछ अकल नहीं है।’
मैं चैंकता। मैं उनसे कहताः‘यह आश्चर्य
की बात है कि यह बुद्धू अभी तक आपकी पिटाई नहीं करता; यह आपका सिर
नहीं खोल देता। यह बुद्धू पूरा नहीं है। आप एक अपरिचित, अजनबी के
सामने उसे खड़ा कर के बुद्धू कह रहे हैं? वह बरदाश्त कर रहा है। सज्जन
मालूम होता है। मेरे लिए तो आप दुर्जन मालूम होते हैं। यह अपमान है। वह घूंट पी
रहा है अपमान के, क्योंकि अभी कम.जोर है; क्योंकि अभी
आप पर निर्भर है रोटी-रोजी के लिए। लेकिन कभी बदला लेगा। यह जहर इकट्ठा होता
रहेगा। एक दिन आप कमजोर हो जाएंगे...।’
एक दिन बाप कमजोर हो जाएगा, बच्चा तब
जवान होगा, नौकरी में होगा, प्रतिष्ठा मैं होगा, और
बाप कमजोर हो गया होगा, तब यह बदला लेगा। इसे भी पता नहीं चलेगा
कि क्यों बदला ले रहा है। लेकिन बदला लेगा। तब जिस तरह आप अपमान कर रहे हैं,
यह
आपका अपमान करने लगेगा। कहने लगेगाः बूढ़ा, खूसट--इस तरह के शब्दों का उपयोग
करेगाः कि तुम अपनी जबान बंद रखो; कि तुम्हें बोलने की बीच में जरूरत नहीं
हैं; कि
तुम जाओ अपने कमरे में बैठो। या भेज दिया किसी वृद्धाश्रम में--कि चले जाओ,
वहां
भरती हो जाओ। यह घर में ज्यादा कलह हमें पसंद नहीं है। और तब तुम कहोगेः बच्चा
मेरा अपमान क्यों कर रहा है! और तुम्हें याद भी नहीं है कि तुमने कितना अपमान किया
था।
फलों से परीक्षा होती है। अगर बच्चे बड़े होकर बाप का, मां
का, अपमान
करते हैं, तो इस बात की खबर देते हैं कि बचपन में मां-बाप ने उनका अपमान
किया था।
प्रेम के नाम पर बड़ा झूठ चल रहा है। और अगर तुमने प्रेम दिया
था, तो
प्रेम का पुरस्कार मिलता है। प्रेम का पुरस्कार सदा प्रेम है। दो प्रेम--मिलता है
प्रेम। तुमने कुप और दिया होगा। ये भी कुप और देंगे।
इसलिए ममता से मुक्त होओ; प्रेम को
जगने दो। प्रेम दो, सम्मान दो। यहां सब में परमात्मा के हस्ताक्षर हैं।
चैथा प्रश्नः संत पुरुषों ने जीवन को सदा दुख की भांति क्यों
निरूपित किया है? क्या यह दुखवाद उचित है?
संतों ने जीवन को दुख की भांति निरूपित नहीं किया है। संतों ने
जीवन को देखा और दुखरूप पाया। यह निरूपण नहीं है। संतों ने चेष्टा नहीं की है इसे
सिद्ध करने की यह दुख है। संतों ने देखाः यह दुख है।
अब तुम्हारे पैर में कांटा गड़े और तुम कहो कि मुझे पीड़ा हो रही
है, तो
क्या कोई कहेगा कि आप ऐसा क्योें निरूपण कर रहे हैं! कि पैर में पीड़ा हो रही है!
यह तो दुखवाद है।
अब किसी के नासूर हो गया है, और जघन्य
पीड़ा हो रही है और वह कहेः मुझे पीड़ा हो रही है। और आप कहोः ‘ऐसा निरूपण
न करो। यह तो दुखवाद है! आदमी को सुखवादी होना चाहिए। कहो कि नासूर से बड़ा आनंद हो
रहा है! कहने से क्या होगा?
संतों ने जीवन को देखा, और जैसा है
वैसा ही निरूपित किया है। ऐसा संत का दर्शन नहीं है कि जीवन दुखरूप है, ऐसा
संत का अनुभव है कि जीवन दुखरूप है।
और संत की पोड़ो, तुम्हारा क्या अनुभव है? तुम
जरा अपने अनुभव की ही परख लो। क्या सुख पाया है? सुख पाने की
आशा है जरूर, मगर पाया क्या है? पाया तो दुख ही है। कितने-कितने
प्रकार से दुख पाया है! सुनोः
पांव के कांटे रूह के नश्तर जीवन-जीवन बिखरे हैं
मेरे अहद के इन्शां हैं या जख्म के खिरमन बिखरे हैं।
हिम्मत हो तो झांक के देखो हस्ती की महराबों से
वक्त है वो दीवार कि जिसमें दर्द के रोजन बिखरे हैं।
नग्मों पर सर धुनने वाले, साज की सीना
चीर के देख
गीत का चंचल रूप बदल कर रूह के शेवन बिखरे हैं।
जब भी तेरी याद का मौसम दिल को पूकर गुजरा है
मेरी प्यासी आंखो से जलते हुए सावन बिखरे हैं।
लुट जाएगी जिस्म की चांदी, सीमबरो
हुशियार रहो
शहर की ख्वाबीदा गलियों में जागते रहजन बिखरे हैं।
लोग तुम्हारे आरिज-ओ-लब से कर लेंगे ताबीर उन्हें
कुप अनदेखे जल्वे हैं जो चिलमन-चिलमन बिखरे हैं।
मोती जैसे जगमग करते, पत्थर जैसे भारी लोग
राहों में कंकर की तरह हालात के कारण बिखरे हैं।
मुझसे मेरे दौरे-जुनूं के नागुफता हालात न पूप
जलते आंसू, भीगे शोले, दामन-दामन
बिखरे हैं।
थोड़ा आंख खोल कर देखो। ‘पांव के
कांटे रूह के नश्तर जीवन-जीवन बिखरे हैं--तुम्हारे पांव कांटों से भरे हैं--और
तुम्हारे हृदय भी। तुम्हारे पांवों पर फफोले हैं--’ और तुम्हारे
हृदयों पर भी। और तुम्हारे पांवों में जख्म हैं--और तुम्हारी आत्माओं में भी।
अपने को ही देखो। जरा अपने को ही खोलो। जरा अपने ही संबंध में
सीधा-सीधा साक्षात्कार करो। तो तुम ऐसा न पाओगे कि संत दुखवादी हैं। तुम इतना ही
पाओगे कि संत यथार्थवादी हैं। जैसा है, उसको वैसा ही कहते हैं। झुठलाते
नही हैं। भ्रम पैदा नहीं करते हैं। दुख को दुख कहते हैं।
तुम? तुम बेईमान हो। तुम दुख को भी सुख कहे
चले जाते हो। तुमने औपचारिकतएं सीख ली हैं। तुमने धीरे-धीरे शिष्टाचार सीख लिए
हैं। किसी से कहोः कैसे हो? वह कहता हैः बड़ा सुखी है। तुम्हें भी
भ्रांति हो जाती है।
तुम से कोई पूपता हैः कहो, आप कैसे हैं?
आप
कहते हैंः बड़े आनंद में हैं, बड़े मस्त हैं। न तुम सच बोल रहे हो,
न
वह सच बोल रहा है। और दोनों एक-दूसरे को धोका खड़ा कर रहे हो।
यह बात सच है--तुम जो कह रहे हो कि सब ठीक है? सब
ठीक हो जाए तो तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ। सब ठीक है, तो फिर बचा
क्या? फिर तो परमात्मा मिल गया। परमात्मा मिलने पर ही सब ठीक होता
है।
और तुम जब कहते होः बड़ा मस्त हूं; सब आनंद चल
रहा है; मजा-मौज है; तब तुम क्या कह रहे हो? तुमने
सच न बोलने की कसम खा ली है? हालांकि मैं समझता हूं कि अब दूसरे के
सामने दुख रोने से भी क्या प्रयोजन हैं? तो कह दिया कि भाई चलो...। अब यह
कोई ऐसा गंभीर प्रश्न था भी नहीं। उसने पूपा भी नहीं था इसलिए। यह मैं जानता हूं।
रास्ते पर कोई मिल गया। जय रामजी की। उसने पूछाः कहिए, कैसे
हैं? तो
वह यह भी नहीं कह रहा था कि अब घंटे भर तुम्हारा दुख का रोना सुनने के लिए पूछा
है। वह यह भी नहीं कह रहा था कि अच्पा बैठो।
तो अब सब अपनी, एक्सरे वगैरह, और अपने सब
ले आता हूं, सब दिखा देता हूं कि हालत कैसी है!
उसने इसलिए पूछा भी नहीं था। वह तो औपचारिक ही था। और तुमने
औपचारिक उत्तर दे
दिया। उसमें भी मुझे एतराज नहीं हैं। लेकिन इस भ्रांति में मत
पड़ जाना, क्योंकि बार-बार दोहराने से ऐसा लगता है कि यही सच है।
रोज-रोज दोहराते हो। जो मिला, वही पूछता
है। तुम कहते होः बड़े मजे में हूं। धीरे-धीरे तुमको खुद ही भ्रांति होने लगती है,
निरंतर
दोहराने से, कि मजे में हूं, मजे में हूं। इस तरह का एक
सम्मोहन बैठ जाता है।
कभी अपने हृदय का घंूघट खोल कर देखो। ‘पांव के
कांटे रूह के नश्तर जीवन-जीवन बिखरे हैं, मेरे अहद के इन्शां हैं या जख्म
के खिरमन बिखरे है।’
यहां तो जख्म ही जख्म के खलिहान हैं। चारों तरफ जख्म के खिरमन
बिखरे हैं। ‘हिम्मत हो तो झांक के देखो हस्ती की महराबों से’ हिम्मत
हो तो, तो ही यह हो सकता है देखना।
हिम्मत हो तो झांक के देखो हस्ती की महराबों से
वक्त है वो दीवार कि जिसमें दर्द के रोजन बिखरे हैं।
यहां समय की दीवार में दर्द ही दर्द के छेद हैं। गौर से देखो।
मगर हिम्मत हो तो ही कोई देख सकता है।
गैर-हिम्मती तो भागा चला जाता है। वह खड़ा ही नहीं होता कि खड़े
हुए तो कहीं कुप दिखाई न पड़ जाए। वह तो कुछ-कुछ काम में उलझा रहता है। उलझे न रहे,
तो
कहीं कुप दिखाई न पड़ जाए!
भीतर सांप-बिच्छू चल रहे हैं। और तुम चांद-तारों की बातें किए
चले जाते हो। भीतर जहर ही जहर है, और तुम अमृत के गीत गाए चले जाते हो।
धीरे-धीरे तुम गीतों में ही सोचने लगते हो कि सब मिल रहा है। प्रेम जाना ही नहीं है
और प्रेम की कहानियां पढ़ते रहते हो। कहानियों में ही खो जाते हो।
नग्मों पर सर धुनने वाले, साज की सीना
चीर के देख
गीत का चंचल रूप बदल कर रूह के शेवन बिखरे हैं।
यहां गीतों के नाम पर जो चल रहा है, अगर उनका
सीना चीर कर देखोगे, तो तुम पाओगे कि हर गीत के भीतर रोना पिपा है। हर गीत के भीतर
आंसू पिपे हैं। यह आसंुओ को पिपाने की तरकीब है तुम्हारे गीत, और
तुम्हारे उत्सव और तुम्हारे साज-समारोह।
मुझसे मेरे दौरे-जुनूं के नागुफ्ता हालात न पूछ
जलते आंसू, भीगे शोले, दामन-दामन
बिखरे हैं।
संत कोई दर्शन प्रस्तावित नहीं कर रह हैं कि जीवन दुख है। ऐसी
उनकी जीवन की व्याख्या नहीं है। ऐसा उनके जीवन का अनुभव है।
तुम पूछते होः ‘संत पुरुषों ने जीवन को सदा दुख की
भांति क्यों निरूपित किया?’ क्योंकि जीवन दुख है।
संत करें भी तो क्या करे?
इसलिए तो संतों की बात तुम सुनते नहीं। तुम कवियों की बात
सुनना पसंद करते हो। कवि उलटा काम करता है। वह जिंदगी में सपने खड़े करता है। संत
सपने तोड़ता है, सत्य का दिग्र्दशन करता है। कवि प्रेम के गीत गाते हैं,
प्रेम
ही कहानियां लिखते हैं।
और तुम कभी इन कवियों से मत मिल जाना, नहीं तो तुम
इनके जीवन में न प्रेम पाओगे और न कोई गीत पाओेगे। अक्सर कवियों से मिल कर बड़ी
निराशा होती है। इनका गीत सुना, उनका गीत पढ़ो, बड़ा प्यारा
लगता है, बड़ी आकाश की ऊंचाइयां हैं। और हो सकता है, कभी
महाराज मिलें, तो किसी नाली में शराब पीए पड़े मिल जाएं। कि बीड़ी पी रहे हों
बैठे कहीं और उनकी शकल पर मक्खियां उड़ रही हों। मरघट पाया हो। और तुम्हें भरोसा ही
न आए कि ये सज्जन इतना ऊंचा गीत कैसे गाए?
असल में वह गीत अपने को भुला रखने का उपाय है। ऐसा हुआ नहीं
है। प्रेम हुआ नहीं है, तो प्रेम का गीत गा-गा कर अपने को समझा
रहे हैं। प्रेम से चूक गए हैं, तो प्रेम का गीत गाकर मन को भुलावा दे
रहे हैं।
यह कोरी बातचीत है।
कवि लोगों को भ्रमजाल में उलझाए रखते हैं; लोगों
की आशाओं का उकसाते रहते हैं। लोगों का खयाल दिलाते रहते हैं कि कुप हो सकता है।
जरा कुप कोशिश करो, तो हो जाए। थोड़ी मेहनत करने से हो जाएगा।
लोगों की आशा का जगाए रखते हैं।
संत तो लोगों को वही दिखा देते हैं, जैसा है,
अगर
मौत आ रही है तो संत कहता हैः मौत आ रही है।
संत तुम्हें ले जाता है मरघट पर। दिखा देता है कि यह असलियत है;
यही
जीवन का अंत है।
हालांकि तुम संत से नाराज होओगे। क्योंकि वह तुम्हारी आशाएं
तोड़ता है। और आशाएं तोड़ कर तुम्हारे बदलने का उपाय करता है।
कवि से तुम नाराज नहीं होते। कवियों का तुम सम्मान करते हो।
तुमने देेखाः एक भी कवि को कभी सूली नहीं दी गई। कवियों का लोग सम्मान करते है,
नोबल
प्राइज देते हैं।
एक भी संत को नोबल प्राइज नहीं मिली। संतों को सूलियां लगती
है--कि जीसस, कि मंसूर, कि सुकरात--कि संतों पर पत्थर फेंके
जाते हैं। कवियों को सम्मान मिलता है! और कवि सिर्फ झूठ का धन्धा करता है। उसका
व्यवसाय झूठ है। वह झूठ को खूब सौंदर्य से प्रकट करता है। वह झूठ को खूब शंृगार
करता है। झूठ को खूब रंग-रोगन लगाता है। वह झूठ को ऐसा जीवित बना देता है कि सच
जैसा मालूम पड़ने लगता है।
संत का सारा ध्येय सत्य को नग्न करके तुम्हें दिखा देना है। और
जब सत्य को नग्न करके दिखाया जाता है, तो अड़चन होती है।
तुमने कभी देखा, कभी अस्पताल गए, वहां
देखा, हड्डियों का अस्थि-पंजर खड़ा हुआ। तो तुम्हें खयाल नहीं आया कि
यही अपने भीतर है? घबड़ाहट नहीं होती? घबड़ाहट होती है। थोड़ा डर भी लगता
है कि यह अपनी हालत हो जानेवाली है कल! और असलियत में यही हालत है। चमड़ी के भीतर
यही पिपा है--यही अस्थिपंजर।
संत तुम्हारी चमड़ी उघाड़ कर तुम्हारे भीतर की सचाई जाहिर कर
देता है। वह कहता हैः यह है। और कवि तुमसे बातें करता है, तुम्हारी
संगमरमरी देह, तुम्हारी सोने की काया...! जंचती है यह बात--कि यह बात ठीक है।
संत की सुनो। वह कहता है कि मल-मूत्र के सिवाय यहां कुप भी
नहीं है। कहां की सोने की बातें कर रहे हो? कौन सी
संगमरमरी देह? कहां की बातें कर रह हो? किन सपनों
में खोए हो? यहां मल-मूत्र भरा हुआ है।
मल-मूत्र की बात तुम्हें जंचती नहीं। हालांकि सच यही है। इसे
झुठला न सकोगे। यही सच है। अगर तुम्हारी देह तुम्हारे सामने खोल कर रख दी जाए,
तो
बड़ी घिनौनी मालूम पड़ेगी। घबड़ा जाओगे। यह तो चमड़ी के पीपे पड़ी है, इसलिए
पता नहीं चलता।
जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, तो
तुम कवि की बातें मानना पसंद करोगे। संत की बातें मान कर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
संत तो तुम्हें एक्सरे वाली आंखें दे देता है। वह तो तुम्हें
ऐसी आंखें दे देता है कि तुम जहां भी देखोगे, वहीं
अस्थि-पंजर दिखाई पड़ेगा। यहीं देखो, अपने पास में जरा गौर से देखना,
अस्थि-पंजर
दिखाई पड़ेगा।
हड्डी-मांस-मज्जा, मल-मूत्र! सचाई तो वही है।
यथार्थ तो वही है। और यथार्थ की सीढ़ियों से चढ़ कर ही कोई आदमी परमात्मा तक पहुंचता
है। कविताओं से सीढ़ियों नहीं बनतीं। कविताएं तो कोरी बातें हैं।
तुम पूछते होः ‘संत पुरुषों ने जीवन को सदा दुख की
भांति क्यों निरूपित किया है?’
क्योंकि सदा उन्होंने दुख की भांति जाना।
फिर तुम यह भी पूछते हो कि ‘क्या यह
दुखवाद उचित है?’
यह दुखवाद है ही नहीं। यह तो यथार्थवाद है।
और जैसा है, उसको जानना पड़ेगा। जैसा है वैसा ही
जानना पड़ेगा। वैसा ही जान कर तो तुम आगे जाओगे।
अगर शरीर तुम्हें व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा, तो
ही तो तुम आत्मा की खोज करोगे। और अगर संसार तुम्हें व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा,
तो
ही तो तुम परमात्मा की याद करोगे।
संत की आकांक्षा यही है कि तुम कूड़े-करकट में न उलझे रहो,
यहां
हीरे-जवाहरात भी छिपे हैं। लेकिन अगर तुम कूड़े-करकट को हीरे-जवाहरात समझते रहे तो
कब खोजोगे? हीरे-जवाहरात कब खोजोगे? कंकड़-पत्थर
ही बीनते रहे सागर तट पर, तो मोती कब खोजोगे? हालांकि
मोती खोजने हों, तो कंकड़-पत्थर पोड़ने पड़ेंगे। ये रंगीन पत्थर काम नहीं आएंगे,
और
सागर में गहरी डुबकी लगानी पड़ेगी।
जो गहरे जाता है, वही पाता है। मगर पहले तो तट से
पूट जाना जरूरी है। व्यर्थ को व्यर्थ की भांति जान लेना, सार्थक की
दिशा में पहला कदम है।
आखिरी प्रश्नः ओशो, जब से सुना
है कि आश्रम दूसरी जगह जा रहा है, तब से मन में प्रश्न बन रहा है
कि मैं पूना छोड़ कर साथ हो लूं? या यहीं रह कर काम करूं? प्रश्न
लिख कर पूछने ही वाला था कि आज सुबह के प्रवचन में उत्तर सुनाई पड़ाः ‘ठिकाने
का सोच रहे हो! अब ठहरना कहां है? सभी जगह तुम्हारी है। किसी एक
जगह घर बसाना नहीं है। अब तो भगवान जहां भेजे, जहां
रखे--वहां जाना है, वहां रहना है। गिरह हमारा सुन्न में,
अनहद
में विश्राम।’ यह सब इतना स्पष्ट रूप से आया कि मैं ठिठक गया। क्या यही सही
उत्तर है? या मेरा मन धोखा दे रहा है? भगवान कृपया
मुझे चेताएं।
पूछा है स्वामी अजित सरस्वती ने।
नहीं, मन धोखा नहीं दे रहा है। अब मन धोखा दे
भी नहीं सकेगा। अब उस जगह आ गए हो, जहां से मन के धोखे साफ
दिखाई पड़ जाएंगे। यह आवाज मन की है भी नहीं। गिरह हमारा सुन्न
में, अनहद
में विश्राम--यह आवाज मन की हो भी नहीं सकती।
मन तो शून्य से बड़ा डरता है और मन तो अनहद से बड़ा भयभीत होता
है। मन तो चाहता हैः हर चीज की हद होनी चाहिए, सीमा होनी
चाहिए, परिभाषा होनी चाहिए। मन क्षुद्र का मालिक हो सकता है--जिसकी
सीमा हो। असीम में तो मन खो जाता है। मन तो नदी-नालों से खेलता है, सागरों
से नहीं जूझना चाहता। वह तो बड़ा मामला है। वहां गए--तो डूबे। वहां गए--तो मिटे।
यह आवाज मन की नहीं है। ठीक ही सुनाई पड़ा है। यही उत्तर है।
मेरे साथ जो हो लिए हैं, उनका अब
शून्य में ही घर है। संन्यासी का अर्थ ही यही है कि उसका घर शून्य है। रहे कहीं,
मगर
उसका असली घर शून्य है। करे कुछ, लेकिन असली बात विश्राम; असली
बात--अकर्ताभाव, साक्षीभाव।
तो अजित से मैं कहूंगाः ठीक सुन लिया है। मेरे साथ जुड़ गए हो,
तो
अब जहां मैं हूं--तुम हो अजित! अब अपने को इतना भी मत बचाओ--कि अलग-अलग सोचो। उतना
फासला भी गिर जाने दो।
अच्छा ही किया जो प्रश्न नहीं पूछा। उत्तर जो अपने से आया;
वह
ज्यादा मूल्यवान है।
जो मुझ से जुड़ गया है, इस लोक में भी जुड़ गया--उस लोक
में भी। यह जोड़ अब टूटने वाला नहीं है। जुड़ जाए एक बार कोई, तो यह जोड़
टूटने वाला नहीं है। इस जोड़ में सब भांति समर्पित हो जाओ। फिर जो परमात्मा की
मरजी। जैसा हो--होने दो।
अब नाव को खेना नहीं है। अब तो पाल खोल देने हैं। जहां उसकी
हवाएं ले जाएं, जो करवाएं, उसी में राजी। उसकी राजी में राजी।
आज इतना ही।
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