सोमवार, 9 अप्रैल 2018

एक ओंकार सतनाम (गुरू नानक) प्रवचन--16

नानक उतमु नीचु  कोइ—(प्रवचन—सोलहवां)

पउड़ी: 32

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।
लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।
एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीए होइ इकीस।
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस।।
'नानक' नदरी पाईए कूड़ी कूड़ै ठीस।।

पउड़ी: 33

आखणि जोरु चुपै नह जोरू। जोरु न मंगणि देणि न जोरू।।
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरू। जोरु न राजि मालि मनि सोरू।।
जोरु न सुरति गिआनु वीचारि। जोरु न जुगती छुटै संसारू।।
जिसु हथि जोरू करि वेखै सोइ। 'नानक' उतमु नीचु  कोइ।।

सूत्र के पूर्व कुछ बातें समझ लें।
परमात्मा की खोज में हजारों हजार उपाय किए गए हैं। लेकिन जब भी किसी ने उसे पाया है, तो साथ में यह भी पाया कि उपाय से वह नहीं मिलता है, मिलता तो प्रसाद से है। उसकी अनुकंपा से मिलता है।
लेकिन बात बहुत जटिल हो जाती है, क्योंकि उसकी अनुकंपा बिना प्रयास के नहीं मिलती। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। कि जिन्हें भी उस मार्ग पर जाना है, इस विवाद, उलझन की स्थिति को बिना समझे वे न जा सकेंगे।
कुछ उदाहरण लें। कोई शब्द भूल गया, किसी का नाम भूल गया है। लाख उपाय करते हैं याद करने का। लगता है जीभ पर रखा है। अब आया, अब आया, फिर भी आता नहीं। सब तरफ से सिर मारते हैं। हजार तरकीबों से खोजने की कोशिश करते हैं। और भीतर बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, क्योंकि यह भी लगता है कि बिलकुल जीभ पर रखा है। 
इतने पास है, और फिर भी इतने दूर मालूम होता है। आखिर थक जाते हैं। क्योंकि आदमी क्या करेगा? उपाय कर लेगा, बेचैन हो लेगा, फिर थक जाएगा। थक कर दूसरे काम में लग जाते हैं। अखबार पढ़ते हैं, बाहर मकान के घूमने निकल जाते हैं, मित्र से गपशप करते हैं, चाय पीते हैं। और अचानक, अनायास, जब कि कोई भी प्रयास नहीं कर रहे थे, वह नाम उठ कर याद में आ जाता है।
जब हम बहुत चेष्टा करते हैं, तब हमारी चेष्टा भी बाधा बन जाती है। क्योंकि बहुत चेष्टा का अर्थ है कि मन में बड़ा तनाव हो जाता है। जब हम अति आग्रह से खोज करते हैं, तब हमारा आग्रह भी अड़चन हो जाता है, क्योंकि उतने आग्रह से हम खुले नहीं रह जाते, बंद हो जाते हैं। और मन जब बहुत एकाग्र होता है, तब एकाग्रता के कारण संकीर्णता पैदा हो जाती है। चित्त का आकाश छोटा हो जाता है। और संकीर्णता इतनी छोटी हो सकती है कि एक छोटा सा शब्द भी उसमें से पार न हो सके।
एकाग्रता का अर्थ ही संकीर्णता है। जब तुम चित्त को एकाग्र करते हो तो उसका अर्थ है, सब जगह से बंद और केवल एक तरफ खुला हुआ। एक छेद भर खुला है, जिससे तुम देखते हो। बाकी सब बंद कर लिया। तभी तो एकाग्रता होगी।
जैसे किसी आदमी के घर में आग लगी है, तो उसका मन घर की आग पर एकाग्र हो जाता है। उस समय पैर में जूता काट रहा है, इसका पता न चलेगा। उस समय किसी ने उसकी जेब में हाथ डाल कर रुपए निकाल लिए, इसका पता न चलेगा। उस समय कुछ भी पता न चलेगा। उस समय वह आग बुझाने में लगा है। हाथ जल जाएगा, तो भी पीछे पता चलेगा। चित्त एकाग्र है। सारी शक्ति आग पर लगी है। सब भूल गया।
एकाग्रता का अर्थ संकीर्णता है। जब तुम प्रयास करते हो किसी एक चीज को पाने का, एक नाम ही याद नहीं आ रहा है, तब तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता है। एकाग्र होते ही संकीर्ण हो जाता है।
और जटिलता यही है। परमात्मा विराट है। संकीर्ण चित्त से उसे पाया नहीं जा सकता। एक छोटा शब्द याद नहीं आता, तो उस परमात्मा का नाम तो कैसे याद आएगा? और जीभ पर ही नहीं रखा है, हृदय पर रखा है; याद नहीं आता। फिर अनायास जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते, चित्त शिथिल हो जाता है। द्वार-दरवाजे खुल जाते हैं। एकाग्रता की संकीर्णता विलीन हो जाती है। फिर तुम खुल गए। उस क्षण में परमात्मा प्रवेश कर जाता है।
लेकिन मजा यही है कि अगर तुमने पहले प्रयास किया हो, तो ही यह दूसरी घटना घटेगी। अगर पहले प्रयास ही न किया हो, तो यह दूसरी घटना न घटेगी। वह तुमने जो पहले जद्दोजहद की नाम को याद करने की, उस जद्दोजहद का ही यह अंतिम हिस्सा है। तुम इतने जोर से कोशिश किए कि हार गए। फिर कोशिश छोड़ दी। लेकिन वह जो जोर की तुमने कोशिश की थी, चित्त से सरक कर अचेतन में चली गयी। वह कोशिश अब भी जारी है भीतर। अब ऊपर से तो कोशिश बंद हो गयी, लेकिन अब भीतर कोशिश जारी है। इसलिए चाय पीते वक्त, अखबार पढ़ते वक्त, वह नाम याद आ गया।
तो कोशिश दो तरह की है। एक तो तुम जो करते हो। तुम्हारी की गयी कोशिश से परमात्मा न मिलेगा। फिर तुम हार गए, थक गए, फिर तुमने कोशिश छोड़ दी। लेकिन तुमने जो कोशिश की, वह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा गयी। तुम्हारी धड़कन-धड़कन में व्याप्त हो गयी। वह कोशिश तुम्हारे होने का ढंग हो गया। अब तुम उसे छोड़ भी नहीं सकते। अब तुम कुछ भी करो, वह भीतर चल रही है। उसकी एक अंतर्धारा बह रही है। उसी अंतर्धारा में परमात्मा का उदय होगा। क्योंकि अब वह कोशिश अचेतन की है, जिसको मनोवैज्ञानिक अनकांशस कहते हैं।
कांशस बहुत छोटा है। चेतन मन एक हिस्सा है। अचेतन मन नौ गुना बड़ा है। तो चेतन मन का एक दरवाजा है, अचेतन के नौ दरवाजे हैं। ऐसा ही जैसे बर्फ का एक टुकड़ा पानी में तैर रहा हो, तो एक हिस्सा ऊपर होता है, नौ हिस्सा नीचे डूबा होता है।
जब तुम चेतन से कोशिश करते हो, तब तुम्हें कुछ लाभ न होगा। लाभ यही होगा, परोक्ष, कि चेतन की कोशिश जब आखिरी सीमा पर आ जाएगी, और तुम थक जाओगे, तब तुम तो कोशिश बंद कर दोगे, लेकिन कोशिश अचेतन में जारी रहेगी। तुम तो छोड़ दोगे, अचेतन अब छोड़ने वाला नहीं है।
इसका अर्थ यह हुआ कि चेतन की कोशिश धीरे-धीरे अचेतन की कोशिश बन जाती है। और जब अचेतन की कोशिश बन जाती है, तब जप अजपा हो गया। अब तुम्हें जप करना नहीं पड़ता। अब हो रहा है। अब भीतर चल रहा है। तुम बाजार जाओ, दूकान पर बैठो, काम-धंधा करो, सोओ, तो भी जप चल रहा है। क्योंकि अब अचेतन में प्रविष्ट हो गया। अब तुम्हारे राई-रत्ती, तुम्हारे कण-कण में वही धुन बज रही है। तुम्हें भी सुनायी न पड़े, लेकिन बज रही है।
चेतन का इतना ही उपाय है कि वह अचेतन तक पहुंचा दे। किसी दिन विस्फोट होगा। और अचानक परमात्मा सामने तुम पाओगे। तब तुम्हें लगेगा, उसकी अनुकंपा से मिला। क्योंकि तुमने तो खोज भी छोड़ दी थी। तुमने तो प्रयास भी न किया था। तुम तो थक कर हार भी चुके थे। तुम तो कभी के रुक गए थे। और मंजिल आ गयी। तो तुम्हारे चलने से तो नहीं आयी। क्योंकि जब तक तुम चलते रहे तब तक तो आयी ही नहीं। फिर तुम तो रुक गए। तुमने तो यात्रा ही बंद कर दी। और अचानक तीर्थ सामने आ गया! यात्रा बंद करते ही सामने आ गया। तो स्वभावतः तुम्हें लगेगा कि उसकी अनुकंपा से हुआ। सभी पहुंचने वालों को लगा है कि उसकी अनुकंपा से हुआ। तो एक तो कारण यह है।
लेकिन पहले चेतन से पूरी कोशिश कर लेनी है। तुम यह मत सोचना कि जब उसकी अनुकंपा से होना है, तो हम क्यों कुछ करें? जब होना ही उसकी कृपा से है, तो जब होना होगा हो जाएगा। हम क्यों झंझट में पड़ें?
तब कभी भी न होगा। और अगर तुमने सोचा कि हमारी ही चेष्टा से होना है, इसलिए हम चेष्टा से कभी भी बंद न होंगे, हम चेष्टा जारी रखेंगे, तब भी न होगा। तुम्हारी चेष्टा और उसकी अनुकंपा का जहां मिलन होता है, वहां तुम्हारी चेष्टा तो शांत हो गयी होती है, उसकी अनुकंपा ही रह जाती है।
तुम तुम्हारे चेतन तक सीमित हो, अचेतन में वही छिपा है। तुम तुम्हारे चेतन मन और विचार की सीमा में बंद हो, उससे गहरे में वही बैठा है। वह मिला ही हुआ है। लेकिन चेतन और अचेतन के बीच का दरवाजा तोड़ना तुम्हारी चेष्टा से होगा। और मिलने की प्रतीति उसकी अनुकंपा से होगी।
जिन्हें खोजना है, उन्हें पूरी खोज करनी पड़ेगी, और खोज छोड़नी भी पड़ेगी। लेकिन पूरी करके ही छोड़ना, बीच में छोड़ा तो व्यर्थ है। क्योंकि जब तुम्हारी खोज पूरी हो जाती है, और तुमने अपने को दांव पर पूरा लगा दिया, कुछ भी बचाया नहीं, उसी क्षण में जो चेतन की खोज थी वह अचेतन में प्रवेश कर जाती है। वही सीमा है। वहां तुम्हारे होश की दुनिया समाप्त हुई। वहां तुम समाप्त हुए, तुम्हारा अहंकार समाप्त हुआ।
नींद में तुम्हारा कोई अहंकार होता है? नींद में तुम्हारी कोई भी तो अकड़ नहीं रह जाती। नींद में कोई यह भी तो कहने वाला नहीं रह जाता कि मैं हूं। सम्राट हूं, धनपति हूं। नींद में मैं बिलकुल खो जाता है। ठीक ऐसे ही, अचेतन में तुम्हारे मैं का कोई स्वर नहीं रह जाता। मैं चेतन मन के बीच बनी हुई घटना है। प्रयास से मैं टूटेगा, क्योंकि जब तुम थकोगे तब अहंकार विसर्जित हो जाएगा। अहंकार विसर्जित होते ही अचेतन के द्वार खुल गए। और अचेतन के द्वार ही परमात्मा के द्वार हैं। वहीं से कोई पहुंचा है। लेकिन तब वहां तुम तो हो ही नहीं कहने को कि मैं। इसलिए जब भी उपलब्धि होगी, तुम कहोगे उसकी कृपा, उसकी अनुकंपा।
इससे एक और भ्रांति पैदा होती है। इससे यह भ्रांति पैदा होती है कि क्या किसी पर उसकी ज्यादा कृपा और किसी पर उसकी कम कृपा है? क्योंकि अगर उसी की कृपा से होता है, तो किसी को हो रहा है और इतनों को नहीं हो रहा है। तब तो बड़ा अन्याय है। ध्यान रखना, तुम्हारे प्रयास से तुम उसकी कृपा के योग्य बनते हो। उसकी कृपा तो बरस ही रही है, लेकिन तुम योग्य नहीं होते। इसलिए जो मिल रहा है उसे भी तुम स्वीकार नहीं कर पाते। उसकी कृपा में कोई अंतर नहीं है।
नानक कहते हैं, उसके सामने न तो कोई ऊंच, न कोई नीच; उसके सामने न तो कोई योग्य, न कोई अयोग्य; वह बांटे जा रहा है। लेकिन अगर तुम लेने को तैयार नहीं हो, तो तुम चूके चले जाओगे। तुम्हारी तैयारी के कारण वह तुम्हें नहीं देता है। वह तो दिए ही चला जाता है। तुम्हारी तैयारी के कारण तुम लेने में समर्थ होते हो।
जैसे एक जौहरी आए, और एक हीरा पड़ा हो और उठा ले। और तुम भी गुजरे थे उसके पास से। हीरा तुम्हारे लिए भी उतना ही उपलब्ध था, हीरे ने जरा भी फासला नहीं किया है कि जौहरी के हाथ जाऊंगा, और तुम्हारे हाथ न जाऊंगा। तुमने उठाया होता तो हीरा मना न करता। हीरा तुम्हारे लिए भी उतना ही प्राप्त था। लेकिन तुम्हारे पास आंख न थी कि तुम पहचान सको कि हीरा है। और तुम्हारे पास वह परख न थी कि तुम हीरे को उठा लो। जौहरी के पास परख थी। जौहरी के पास आंख थी, तैयारी थी।
परमात्मा तो तुम्हारे पास सामने ही पड़ा है। जहां भी तुम नजर उठाते हो, वही है। लेकिन तुम्हारे पास नजर नहीं है। तुम्हारी आंखें उसे देख नहीं पातीं। तुम्हारे हाथ उसे छू नहीं पाते। तुम्हारे कान उसे सुनते नहीं हैं। तुम बधिर हो, अंधे हो, लंगड़े हो। वह बुलाता है तो भी तुम दौड़ नहीं पाते। तुम उसे सुन ही नहीं पा रहे हो। और वह चारों तरफ मौजूद है। उसकी उपलब्धि में किसी को कोई अंतर नहीं है। उसके सामने सब बराबर हैं। होंगे ही। क्योंकि सभी उसी से आते हैं। सभी उसी में लीन हो जाते हैं। भेद कैसे होगा?
तुम क्या अपने दाएं हाथ और बाएं हाथ में भेद करते हो? कि दाएं हाथ में चोट लगे तो ज्यादा दर्द होता है, बाएं में लगे तो कम होता है? दोनों तुम्हारे हैं। बाएं और दाएं का फर्क तो ऊपरी है, भीतर तो तुम एक ही हो।
तो क्या गरीब और अमीर में परमात्मा अंतर करता है? क्या ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर करता है? क्या अच्छे और बुरे में अंतर करता है? पापी और पुण्यात्मा में अंतर करता है? तब तो उसका दान भी सशर्त हो गया, कंडीशनल हो गया। तब तो वह भी कहता है कि तुम ऐसे होओगे तो मैं दूंगा। तब तो वह तुम्हें नहीं देता, अपनी शर्त को ही देता है। यह एक सौदा हो गया।
नहीं, परमात्मा तो दे ही रहा है बेशर्त; अनकंडीशनल उसकी वर्षा है। अगर तुम नहीं ले पा रहे हो तो कहीं तुम ही चूक रहे हो। वह तो द्वार पर दस्तक देता है, लेकिन तुम सोचते हो, शायद हवा का झोंका आया होगा। उसके पद-चिह्न तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, लेकिन तुम व्याख्या करते हो। और व्याख्या में ही तुम चूक जाते हो। तुम व्याख्या ऐसी कर लेते हो, जो कि तुम्हारे अंधेपन को बढ़ाती है।
बहुत तरह से तुम्हारी तरफ परमात्मा आता है। उसके आने में जरा भी कमी नहीं है। जितना वह बुद्ध के पास आया, जितना नानक के पास आया, उतना ही तुम्हारे पास आता है। उसके लिए कोई भी फर्क नहीं है, तुम में और नानक में। लेकिन नानक उसे पहचान लेते हैं, जौहरी हैं। बुद्ध उसका दामन पकड़ लेते हैं। तुम चूकते चले जाते हो।
तुम्हारे प्रयास से तुम योग्य बनोगे, परख के लायक बनोगे और तुम्हारे प्रयास से तुम्हारा अंधापन टूटेगा। तुम्हारे प्रयास से तुम्हारा अहंकार गिरेगा। हारोगे, थकोगे, गिर जाओगे। और जैसे ही तुम न रहोगे, वैसे ही तुम पाओगे कि वह सदा सामने था, नाक के बिलकुल सीध में था, जहां नाक घूमती थी वहीं था। और वह सदा उपलब्ध था। अगर चूक रहे थे, तो तुम चूक रहे थे अपने कारण।
इसे ठीक से हृदय में समा लेना। अगर चूक रहे हो तो तुम चूक रहे हो अपने कारण। अगर पाओगे तो अपने कारण नहीं पाओगे, उसके प्रसाद से पाओगे। यह बात बेबूझ लगती है, जिन्होंने नहीं जाना। क्योंकि तब हमें लगता है कि जब हम अपने कारण चूक रहे हैं, तो हम पाएंगे भी अपने ही कारण। यह ज्यादा साफ तर्क मालूम पड़ता है कि जिस चीज को मैं अपने कारण चूक रहा हूं, अपने ही कारण पाऊंगा। बस, वहीं तर्क की भूल हो जाती है। चूक तुम अपने कारण रहे हो, पाओगे तुम उसकी कृपा से।
इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि तुम जब तक हो, तब तक तो तुम उसे पा ही न सकोगे। इसलिए तुम अपने कारण कैसे पाओगे? तुम ही तो बाधा हो। तुम्हारे कारण ही तो तुम चूक रहे हो। तुम्हारे होने के कारण ही तुम चूक रहे हो। तो जिस कारण से तुम चूक रहे हो, उसी से तुम कैसे पाओगे? वही तो कारण है चूकने का। तुम जितने समझते हो कि मैं हूं, उतनी ही बाधा है। उतनी ही मजबूत दीवाल है। यह दीवाल हट जाए, वह मौजूद है। चेतन प्रयास से दीवाल टूटेगी, द्वार खुलेगा। लेकिन परमात्मा की रोशनी सदा बाहर मौजूद थी।
जब तुम उसे पाओगे तो बहुत बातें साफ हो जाएंगी। एक बात साफ होगी कि अपने कारण चूका और तेरे कारण पाया। दूसरी बात साफ हो जाएगी कि तू पास था लेकिन मैं तुझे दूर खोज रहा था। तू जहां था वहां न खोज कर, मैं वहां खोज रहा था जहां तू था ही नहीं। इसलिए भटक रहा था। मैं एक ऐसी चीज के सहारे खोज रहा था, जिसके सहारे खोज हो ही नहीं सकती थी।
हर जीवन के आयाम में यात्रा के वाहन होते हैं। तुम नाव पर सवार हो कर समुद्र की यात्रा कर सकते हो, लेकिन नाव पर सवार हो कर तुम पृथ्वी की यात्रा न कर सकोगे। और तुम कितने ही कुशल नाविक हो, और तुमने कितने ही दूर के सागर पार किए हों, और तुम्हें कितना ही अनुभव हो सागरों का, अपनी नाव को उठा कर सड़क पर मत रख लेना। क्योंकि उसमें बैठ कर यात्रा नहीं हो सकती पृथ्वी पर। उसके कारण चल भी न सकोगे। उसके कारण, पैदल भी चल सकते थे, वह भी न हो सकेगा। वह नाव तुम्हारे गले से बंध गयी, और तुम्हारे अनुभव के कारण। क्योंकि तुमने बड़े-बड़े सागर पार किए हैं, क्या यह छोटी सी पृथ्वी का टुकड़ा? इतने खतरनाक सागर पार किए! तो क्या इस छोटी सी जमीन को तुम पार न कर सकोगे? लेकिन नाव यहां वाहन नहीं बन सकती।
यही हो रहा है। अहंकार की नाव संसार में तो वाहन है। वहां तो उसके बिना कोई चल ही नहीं सकता। वहां तो जो उसके बिना चलेगा, गिरेगा। वहां तो अहंकार की ही प्रतिस्पर्धा है। वहां तो सारा संघर्ष मैं का है। और जो जितने बड़े अहंकार से चलेगा उतना सफल होगा वहां। भला वह सफलता अंत में असफलता सिद्ध हो, वह दूसरी बात! लेकिन वहां अकड़ जीतती है। वहां अकड़ का पागलपन जीतता है। क्योंकि वह दुनिया पागलों की है।
लेकिन अगर इसी अहंकार को ले कर तुम परमात्मा की तरफ जाने लगे, तब भूल हो जाएगी। तुम चाहे कितने ही सफल हुए हो, सिकंदर रहे हो, नेपोलियन रहे हो, संसार में तुमने कितनी ही सफलता पायी हो, इसी नाव को ले कर तुम परमात्मा की तरफ मत जाना। क्योंकि यही बाधा हो जाएगी। इसी की वजह से तुम जकड़ जाओगे। नाव को रख कर उसी में बैठे रह जाओगे। यात्रा तो असंभव होगी।
जिस दिन कोई उसकी झलक पाता है, उस दिन पाता है, अपने कारण खो रहा था। तेरे प्रसाद से तू मिला। और यह भी समझ में आता है कि हमने जो प्रयास किए वे इतने छोटे थे, जो मिलता है वह इतना बड़ा है कि उन दोनों के बीच कोई संगति नहीं हो सकती। जैसे कोई सुई से तो यात्रा कर रहा हो, सुई को पकड़ कर, और सागरों की उपलब्धि हो जाए। तो तुम भी नहीं सोच पाओगे कि सुई से और सागर की उपलब्धि का क्या लेना-देना?
आदमी के सभी प्रयास सुई के जैसे हैं। छोटे हैं, बहुत छोटे हैं। जब तक तुम्हें मिला नहीं परमात्मा, तब तक तुम तौल नहीं सकते कि तुम जो कर रहे हो उसका मतलब क्या है? कोई आदमी कह रहा है कि मैं मंदिर में पूजा कर रहा हूं। क्या कर रहे हो तुम पूजा में? घंटा बजा रहे हो, फूल चढ़ा रहे हो। माना कि बड़ा अच्छा कृत्य कर रहे हो, लेकिन इसकी क्या संगति है परमात्मा को पाने से? कि तुम कहो कि मैं रोज घंटे भर बैठ कर तेरा जप करता हूं। तुम पागल हो गए हो! तुम बार-बार नाम ले लेते हो परमात्मा का घंटे भर तक, इससे तुम सोचते हो कि परमात्मा के मिलने की कोई संगति है? तुमने किया क्या है? तुम कहते हो, मैं चिल्लाता था, आवाज लगाता था। तुम्हारा कंठ और तुम्हारी आवाज, उनका मूल्य कितना है? तुम्हारे चिल्लाने की पहुंच कितनी है?
और जो तुम पाओगे, पाते ही तुम्हें लगेगा कि मेरे प्रयास तो बिलकुल बचकाने थे। जिनका कोई भी मूल्य नहीं है। चाहे मंदिर जाओ, तीर्थ जाओ, काबा-काशी जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो, जपत्तप करो, शीर्षासन करो, उलटे-सीधे आसनों में लगो, चिल्लाओ, पुकारो, नाम जपो, तुम जो भी कर रहे हो, तुम्हीं कर रहे हो। तुम्हारे करने का मूल्य कितना है? उस निर्मूल्य को पाने के लिए तुम ये क्षुद्र प्रयास कर रहे हो, जिनकी बाजार में कीमत है। तुम अगर एक घंटे बाजार में जा कर काम करो, तो तुम्हें एक रुपया मिल जाता है। तुम एक घंटे पूजा करते हो, परमात्मा पाना चाहते हो? एक रुपया समझ में आता है, कि तुम घंटे भर काम करते हो। अगर घंटे भर श्रम करोगे तो कुछ कमा लोगे, उसकी कुछ संगति है। लेकिन ध्यान से तुम कैसे कमा लोगे, उसकी क्या संगति है?
जो मिलता है वह अपरंपार है। जो हमने किया था वह ना-कुछ है। जैसे ही तुम पाओगे, यह भेद दिखाई पड़ेगा कि हम तो चम्मच ले कर चले थे और यह सागर उतर आया। उस क्षण तुम निश्चित ही कहोगे कि तेरी कृपा है, तेरी अनुकंपा है।
इसलिए सभी संतों ने प्रयास किए हैं और सभी संतों ने अंतिम वक्तव्य प्रयास के विपरीत दिए हैं। और फिर भी अपने भक्तों को कहा कि प्रयास करते रहना। प्रयास मत छोड़ देना। इसलिए संतों की वाणी अतक्र्य मालूम पड़ती है, इल्लॉजिकल मालूम पड़ती है। हमारा सीधा-साफ गणित है कि अगर प्रयास से मिलता हो तो करते रहें।
मैं कभी बोलता हूं कि नहीं, प्रयास से नहीं मिलेगा। उसी सांझ मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, फिर हम प्रयास क्यों करें? तो हम सब छोड़ दें? तो ध्यान इत्यादि का जो हम श्रम कर रहे हैं, क्यों करें अगर वह बिना प्रयास के मिलेगा? और आप ही ने कहा कि प्रयास से नहीं मिलता, तो फिर प्रयास का क्या सार?
इन पागलों को...इनका जो तर्क है, वह जीवन की आत्यंतिक व्यवस्था से भी मेल खाना चाहिए, ऐसी इनकी धारणा है। जीवन का आत्यंतिक रूप तुम्हारे तर्क को मान कर नहीं चलता। तुम्हें अपने तर्क को ही उसके हिसाब से जमाना पड़ता है। वह तुम्हारी फिक्र नहीं करता। सत्य तुम्हारे मन की धारणाओं की चिंता नहीं करता। तुम्हें अपने मन की धारणाएं ही उसके अनुरूप जमानी पड़ती हैं। 
ऐसा हुआ। इस सदी के प्रारंभ में भौतिकशास्त्रियों ने, फिजिसिस्ट ने एक खोज की। और वह खोज बड़ी तर्क के बाहर थी। वह खोज यह थी कि जो पदार्थ का अंतिम कण है इलेक्ट्रान, उसका व्यवहार बड़ा बेबूझ है। वह संतों की वाणी से तो मेल खाता है, विज्ञान की परीक्षण और विज्ञान की प्रयोगशाला में उसकी कोई संगति नहीं है। उससे ज्यादा पहेली की और कोई घटना कभी वैज्ञानिक के समझ में नहीं आयी थी। वह जो इलेक्ट्रान है, वह एक साथ दोहरा व्यवहार करता है; जो कि बिलकुल गणित के बाहर है। एक साथ वह कण की तरह भी व्यवहार करता है और तरंग की तरह भी। यह असंभव है।
अगर ज्यामिति तुम ने पढ़ी है, तो लकीर लकीर है और बिंदु बिंदु है। बिंदु कभी लकीर जैसा नहीं हो सकता और लकीर कभी बिंदु जैसी नहीं हो सकती। क्योंकि बिंदु तो एक बिंदु है। लकीर बहुत से बिंदुओं का जोड़ है। अनंत बिंदुओं का जोड़ है। अगर तुम किसी एक ऐसे बिंदु को बना सको अपनी पुस्तक में, जिसको तुम देखते रहो तो कभी तो वह लकीर हो जाए और कभी बिंदु हो जाए, तो तुम खुद ही घबड़ा जाओगे। कि या तो तुम पागल हो गए हो, या कोई मजाक कर रहा है, कोई जादू कर रहा है। क्योंकि बिंदु या तो बिंदु है, या लकीर। दोनों एक साथ, एक ही चीज के रूप नहीं हो सकते।
और ऐसे ही कण और तरंग हैं। कण एक बात है, बिंदु है; और तरंग है लहर। लेकिन फिजिसिस्ट इस सदी के प्रारंभ में इस नतीजे पर पहुंचे कि इलेक्ट्रान दोनों व्यवहार एक साथ कर रहा है। एक साथ, एक ही समय में वह तरंग भी है और कण भी। बड़ी मुसीबत हो गयी--सारा तर्क!
और विज्ञान तो तर्कनिष्ठ है। वह कोई रहस्यवादियों का खेल तो नहीं है। वह कोई काव्य तो नहीं है। वह तो गणित है। तो क्या करना? जितना खोजा उतनी ही मुसीबत बढ़ती गयी। और आखिर में यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि यह दोनों ही उसका एक साथ व्यवहार हो रहा है।
लोगों ने पूछा खोजियों से कि आपको कहते शर्म नहीं आती? ये दोनों चीजें एक साथ कैसे हो सकती हैं? यह तो बिलकुल गणित के विपरीत है। और इससे यूक्लिड की पूरी ज्यामेट्री गलत हो जाती है। तो वैज्ञानिकों ने जो उत्तर दिए, उन्होंने कहा, हम करें भी क्या? अगर वह कण ज्यामेट्री को नहीं मानता और यूक्लिड को नहीं मानता, तो हम क्या करें? हमने सब तरफ से खोज कर देख लिया। वह जो व्यवहार कर रहा है, हम तो वही कहेंगे। अगर वह तर्क के बाहर है, तो तर्क के बाहर है। तर्क को तुम सुधार लो। लेकिन उस कण को कौन समझाने जाए कि तू तर्क के हिसाब से चल?
इसलिए नयी ज्यामेट्री का जन्म हुआ--नान यूक्लिडियन ज्यामेट्री। बदलनी पड़ी ज्यामेट्री। वह कण तो मानेगा नहीं। इलेक्ट्रान, वह तो किसी की सुनेगा नहीं। वह तो जैसा कर रहा है, कर रहा है। तुम अपना गणित ठीक जमा लो। तुम अपने तर्क में फर्क कर लो।
पहली दफा इलेक्ट्रान के अध्ययन से यूक्लिड व्यर्थ हो गया। यूक्लिड की सब परिभाषाएं खराब हो गयीं। और अरिस्टोटल के सब तर्क के सिद्धांत व्यर्थ हो गए!
यही मुसीबत संतों की है। वे वैज्ञानिकों से पहले उसके दरवाजे पर दस्तक दिए हैं। और वहां उन्होंने पाया कि प्रयास के बिना नहीं मिलता और प्रयास से भी नहीं मिलता। यह स्थिति है। इसमें कुछ किया नहीं जा सकता। प्रयास भी करना पड़ता है और मिलता बिना प्रयास के है। लेकिन अगर तुम समझो, तो भीतर एक गहरी संगति है। वह खयाल में आ जाए।
तो अपनी तरफ से तुम पूरा दांव पर लगा देना। मिलेगा तो वह उसकी अनुकंपा से। लेकिन उसकी अनुकंपा पाने के योग्य तुम तभी बनोगे, जब तुमने अपने को पूरा दांव पर लगा दिया। यही इस सूत्र का सार है। अब इसको समझने की कोशिश करें।
इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।
लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।
यदि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से भी बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा
तब तुम थकोगे, उसके पहले न थकोगे। तुमने अभी जपा ही क्या है? तुमने अभी ध्यान ही कितना किया है? तुमने अभी पुकारा ही क्या है? तुम चिल्लाए ही कहां? तुमने पूरी ताकत ही नहीं लगायी है। अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम जितनी तेजी से बाहर भागते हो, इतनी तेजी से भी तुम परमात्मा की तरफ नहीं भागे हो। कि तुम्हारी पत्नी मर जाए तो जैसे जार-जार हो कर तुम रोते हो, ऐसा तुम उसके वियोग के लिए अभी तक नहीं रोए। कि तुम्हारा बच्चा भटक जाए तो तुम जैसे पागल हो कर बेतहाशा खोजने निकल पड़ते हो, ऐसी तुमने अभी तक उसकी खोज नहीं की। तुम्हारी खोज कुनकुनी है। अभी तुम उबले नहीं।
नानक उस उबलने की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा
रोआं-रोआं उसी के नाम से भर जाए। और रोआं-रोआं उसी की प्यास अनुभव करे। और रोएं-रोएं में एक ही पुकार गूंजने लगे कि तुझे पाना है। और जीवन में सब व्यर्थ हो जाए। बस, एक परमात्मा की सार्थकता बचे। और सब गौण हो जाए। और सब छोड़ने को तुम तैयार हो जाओ। एक उसको पाना ही लक्ष्य बचे, तब तुम एकाग्र होओगे।
स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, लाख जीभ से बीस लाख हो जाएं। और फिर एक-एक जीभ लाखों बार उसका ही नाम जपे। स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं, जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है। अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
इक्कीस शब्द आता है सांख्यों की गणना से। क्योंकि सांख्य कहते हैं, दो तरह से इक्कीस हो सकते हैं। सांख्यों की गणना बड़ी कीमती है। सांख्य शब्द का अर्थ भी होता है, गणना, संख्या। उसी से सांख्य बना है। क्योंकि उन्होंने पहली गणना की है मनुष्य के अस्तित्व की, इसलिए उस दर्शन का नाम ही सांख्य हो गया।
सांख्य कहते हैं कि पांच महाभूत उस एक से पैदा होते हैं। ये जो पृथ्वी, जल, आकाश...ये पांच महाभूत उससे पैदा होते हैं। लेकिन ये महाभूत तो स्थूल हैं। इन महाभूतों को बनाने वाली पांच तन्मात्राएं हैं, जो सूक्ष्म हैं। जो आंख से दिखाई नहीं पड़तीं। वैज्ञानिक भी राजी हैं कि तुम्हें जो दीवाल दिखाई पड़ती है, यह तो तुम्हें दिखाई पड़ती है। यह तो स्थूल रूप है। जैसी दीवाल है--तन्मात्रा--वह तो तुमने कभी देखी नहीं। वह तो वैज्ञानिक को थोड़ी सी उसकी झलक मिलती है। क्योंकि यह दीवाल तुम्हें तो थिर मालूम होती है, यह थिर नहीं है। यहां बड़ी गति है, और बड़ा जीवन है। एक-एक कण प्रकाश की गति से घूम रहा है। लेकिन गति इतनी ज्यादा है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते। वह इतनी सूक्ष्म है और इतनी तीव्र है...।
प्रकाश की किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रकाश की गति है। प्रकाश की गति से दीवाल के अतिसूक्ष्म कण-- इलेक्ट्रान--घूम रहे हैं। उनकी गति इतनी तीव्र है कि तुम देख नहीं पाते। इसलिए दीवाल थिर मालूम पड़ती है। लेकिन दीवाल महान सक्रियता से गुजर रही है। हर चीज, पत्थर भी सक्रिय है और जीवंत है। और बड़ा कारोबार चल रहा है। इसलिए तो यह दीवाल एक दिन गिर जाएगी और खंडहर होगी। क्योंकि अगर यह बिलकुल थिर होती तो खंडहर कैसे होती? अगर कोई चीज बिलकुल थिर हो, तो नष्ट ही नहीं हो सकती। क्योंकि क्रिया न चल रही हो, तो भीतर संघर्षण नहीं होगा। संघर्षण नहीं होगा तो विनाश कैसे होगा?
इसलिए वैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर किसी आदमी को बचाना हो लंबी उम्र तक, तो उसको शून्य डिग्री से नीचे ठंडा कर के बर्फ में रख देना चाहिए। तो फिर उसको अनंतकाल तक बचाया जा सकता है। क्योंकि गति कम हो जाती है। इसलिए तो हम फल को फ्रिज में रखते हैं। वह ठंडा रहता है, तो देर तक सड़ता नहीं। क्योंकि जितनी ठंडक होती है, उतनी गति क्षीण हो जाती है। इसलिए तो ठंडे मुल्कों के लोग ज्यादा उम्र पाते हैं, गर्म मुल्कों के लोगों की बजाय। क्योंकि जितनी गर्मी होती है, उतनी गति होती है। जितनी गति होती है, उतनी जल्दी क्षीणता हो जाती है। इसलिए तो तुम गर्मी में बेचैनी अनुभव करते हो। ठंड में अच्छा लगता है। सर्दी के दिनों में स्वस्थ मालूम पड़ते हो, गर्मी के दिनों में थोड़ा अस्वास्थ्य पकड़ने लगता है।
यह दीवाल परम-गति में लीन है। इसलिए गिरेगी। क्योंकि इसके भीतर संघर्षण हो रहा है। और संघर्षण होते-होते शक्ति क्षीण होगी। यह बिखर जाएगी, खंडहर हो जाएगा।
सांख्य कहते हैं कि पांच तन्मात्राएं हैं। वे सूक्ष्म रूप हैं। और उन पांच तन्मात्राओं के पांच महाभूत हैं, जो उनका स्थूल रूप हैं--दस। फिर पांच ज्ञानेंद्रियां हैं जो सूक्ष्म रूप हैं, और पांच कर्मेंद्रियां हैं जो स्थूल रूप हैं। आंख तुम्हारी कर्मेंद्रिय है, और देखने की क्षमता तुम्हारी सूक्ष्मेंद्रिय है। देखने की क्षमता न हो, तो आंख खो जाएगी, आंख रहे तो भी! कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम आंख होते हुए अंधे हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया। और जब ध्यान कहीं और चला गया तो देखने की क्षमता कहीं और चली गयी। कान है, वह स्थूल इंद्रिय है--कर्मेंद्रिय, सुनने की क्षमता सूक्ष्म इंद्रिय है।
इसलिए तो नानक बार-बार कहते हैं, कि सुनिए। तो वे तुम्हारे इस कान के लिए नहीं कह रहे हैं। क्योंकि यह कान तो सुन ही रहा है। यह कान तो बंद ही नहीं होता। आंख तो कम से कम झपकती है, कान तो झपकता भी नहीं। तो क्या बार-बार कहना, सुनिए! वे भीतर की सूक्ष्म इंद्रिय को इशारा कर रहे हैं। जब वे कहते हैं सुनिए, तो वे यह कह रहे हैं कि कान के पास आ जाओ, इधर-उधर मत भटकना। नहीं तो कान तो सुन लेगा, तुम सुनने से वंचित रह जाओगे।
तो पांच सूक्ष्म इंद्रियां हैं, जिनका नाम ज्ञानेंद्रियां। और पांच स्थूल इंद्रियां हैं, जिनका नाम कर्मेंद्रियां। ऐसे बीस।
नानक कहते हैं कि जो अपना सब कुछ दांव पर लगा देगा, वह इक्कीस हो जाता है। वह इक्कीसवां परमात्मा है। और अगर तुमने दांव पर न लगाया और उसे न खोजा, तो भी तुम इक्कीस हो जाते हो, वह तुम्हारा अहंकार है।
इसलिए इक्कीस होने के दो ढंग हैं। बीस तो स्थिति है; इक्कीस होने के दो ढंग हैं। या तो तुम परमात्मा को पा लो अर्थात असली आत्मा को पा लो, अपने स्वरूप को पा लो, तो इक्कीस हो जाओगे। और या फिर एक झूठे स्वरूप की कल्पना कर लो कि मैं यह हूं। धनी हूं, ज्ञानी हूं, शक्तिशाली हूं, त्यागी हूं, राजा हूं, कुछ अकड़ बना लो। तो भी इक्कीस हो जाओगे। लेकिन यह इक्कीसवां झूठ है।
तो या तो बीस में एक झूठ जोड़ दो; बीस+झूठ। या बीस में सत्य जोड़ दो; बीस+सत्य। तुम इक्कीस हो जाओगे। हम सब भी इक्कीस हैं और नानक भी इक्कीस हैं। इससे ज्यादा तो कोई हो नहीं सकता। मगर हम झूठ को जोड़े हुए हैं। हमने बिना खोजे जोड़ लिया है। यह बड़े मजे की बात है।
तुमने कभी अपने को खोजा नहीं और तुम्हें खयाल है कि तुम अपने को जानते हो। इससे बड़ा झूठ जगत में दूसरा नहीं है। तुमने न कभी अपने को खोजा और न झलक पायी अपनी कभी। फिर भी तुम कहते हो, मैं हूं। और तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि तुम कौन हो? तुम्हें उतना ही पता है कि जितना दर्पण बताता है। दर्पण क्या खाक बताएगा? दर्पण में तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो, तुम्हारी चमड़ी का बाहरी हिस्सा दिखाई पड़ता है। दर्पण में तो तुम्हारे वस्त्र दिखाई पड़ते हैं, देह दिखाई पड़ती है, तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो। तुम्हारी आत्मा दर्पण में थोड़े ही झलकती है। तुम्हारा स्वरूप थोड़े ही दर्र्पण में झलकता है। दर्पण जितना बताता है, उसको तुम समझते हो, मैं हूं।
और इस मैं को तुम इक्कीस माने हुए हो। यही दुख है। यही नर्क है। अगर तुमने इक्कीसवां झूठ जोड़ लिया, तो तुम दुख में पड़ोगे ही। बीस तो वही रहेंगे, यह इक्कीसवां झूठ रहेगा, इसलिए तुम नर्क में पड़ जाओगे। बीस तो जो हैं, तब भी वही रहेंगे। अगर यह इक्कीसवां सच हो जाए, तो सच होते ही तुम परम मुक्ति को अनुभव करोगे। क्योंकि उन बीस के कारण उपद्रव नहीं है। वह तो जीवन की व्यवस्था है। यह इक्कीसवां उपद्रव है। अगर झूठ है तो पीड़ा लाएगा।
इसलिए अहंकार जितना दुख देता है, और कोई चीज दुख नहीं देती। अहंकार के अतिरिक्त दुख का कोई सूत्र ही नहीं है। जितना दुख चाहिए हो उतना अहंकार बढ़ाओ। जितना अहंकार बढ़ाओगे, नर्क तुम्हारी मुट्ठी में होगा। जब चाहो, पैदा कर लो।
जितना आनंद चाहिए हो, उतना अहंकार घटाओ। जिस दिन अहंकार बिलकुल न होगा, स्वर्ग तुम्हारी मुट्ठी में होगा। तुम्हारी छाया बन जाएगा। तुम जहां जाओगे, वहां स्वर्ग होगा। फिर तुम्हें नर्क नहीं भेजा जा सकता। अगर तुम्हें नर्क में भी पटक दिया जाए तो तुम पाओगे कि वहां भी स्वर्ग है। क्योंकि जिसके पास अहंकार नहीं, उसे सब जगह स्वर्ग है। और जिसके पास अहंकार है, उसे कोई जबर्दस्ती स्वर्ग में भी डाल दे, तो वहां भी दुख ही पाएगा। क्योंकि दुख का संबंध या सुख का संबंध स्थितियों से नहीं है। वह भीतर का इक्कीस सच है या झूठ...!
नानक कहते हैं कि जिसने सब दांव पर लगा दिया--स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं--दांव पर लगाना। लगाते जाना। ऐसी घड़ी आ जाए कि कुछ बचे ही न दांव पर लगाने को, सब लगा दिया...।
जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है, अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त करता है। आकाश की, उच्च पद की चर्चा सुन कर, कीट के समान क्षुद्र लोगों को भी स्पर्धा हो जाती है।
यहां एक बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कह रहे हैं, कैसे धर्म विकृत होता है!
नानक कहते हैं, उसकी कृपा-दृष्टि से ही कोई उसको प्राप्त करता है। झूठे लोग तो झूठी डींगें हांकते रहते हैं।
जब किसी के जीवन में उसका प्रकाश आता है, तो वह रुक नहीं सकता उसकी चर्चा करने से। जैसे फूल जब खिलेगा तो कैसे रुकेगा सुगंध देने से! और दीया जब जलेगा तो कैसे रुकेगा प्रकाश देने से? जब किसी के भी जीवन में भगवत्ता का अवतरण होता है, तो वह उसकी चर्चा करेगा। उसकी महिमा के गीत गाएगा। जो उसने पाया है, वह उसके रोएं-रोएं से प्रकट होने लगेगा, सुगंध की तरह, प्रकाश की तरह। वह बोलेगा तो उसे बोलेगा। वह चुप रहेगा तो उसमें ही चुप रहेगा। उसका सब होना उसी की खबर देगा।
नानक कहते हैं, इसे देख कर, आकाश की उच्च पद की चर्चा सुन कर, कीट के समान क्षुद्र लोगों को भी स्पर्धा हो जाती है।
जो बहुत छोटे-छोटे लोग हैं, उनके मन में भी बड़ी प्रतिस्पर्धा और बड़ीर् ईष्या जगती है, कि अच्छा, तुमने पा लिया! तो पहला तो काम यह है कि वे इनकार करेंगे कि पाया नहीं है, सब बातचीत है।
इसलिए जब भी कोई परमात्मा को अनुभव करेगा, तो पहली घटना तो यह घटेगी कि चारों तरफ लोग इनकार करने लगेंगे कि इस आदमी ने पाया-वाया नहीं है। यह सब बातचीत है। अब कहां कलियुग में कोई पा सकता है? वे हो गयीं सतयुग की बातें। वे हजार तरह के छिद्रान्वेषण करेंगे। वे हजार तरह के उपाय निकालेंगे कि सिद्ध कर दें कि इसने कुछ पाया नहीं।
अगर वे असफल हुए--जो कि वे असफल होंगे--अगर पाया है, तो कोई सिद्ध करने का उपाय नहीं। न आचरण से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न व्यवहार से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न कपड़े-लत्तों से, न खाने-पीने से, फिर कोई चीज से तुम सिद्ध नहीं कर सकते कि नहीं पाया। जिसने पा लिया है, उसकी रोशनी सब तरफ से दिखाई पड़ेगी।
तब क्या करोगे? तब दूसरा उपाय है कि तुम्हारे बीच जो सचमुच सर्वाधिक अहंकार और स्पर्धा से भरे लोग हैं, वे घोषणा करेंगे कि हमने भी पा लिया है। अहंकार पहले तो इनकार करेगा, कि तुम कैसे पा सकते हो मुझ से पहले, जब मैं मौजूद हूं? जब देखेगा कि कोई उपाय असिद्ध करने का नहीं है, तो अहंकार दूसरी घोषणा करेगा कि मैंने भी पा लिया है।
तो नानक कहते हैं कि क्षुद्र लोग भी--सब से बड़ी क्षुद्रता अहंकार है, और कोई क्षुद्रता नहीं है--कीड़ों की तरह क्षुद्र लोग भी स्पर्धा से भर जाते हैं। और तब वे झूठी डींगें हांकने लगते हैं।
तो दुनिया में अगर एक सदगुरु होता है, तो कम से कम निन्यान्नबे असदगुरु होते हैं। इसी अनुपात में घटना घटती है। और मजा यह है कि असदगुरु तुम्हें ज्यादा आसानी से आकर्षित कर सकता है, बजाय सदगुरु के। क्योंकि असदगुरु तुम्हारी ही भाषा बोलता है। और असदगुरु तुम्हें भलीभांति पहचानता है। और वही सब करता है जो तुम चाहते हो, जो तुम्हारी भीतरी मनोकांक्षा है। अगर तुम चाहते हो कि हाथ से राख प्रकट हो, तो राख प्रकट करवा देता है। अगर तुम चाहते हो कि ताबीज हाथ में आ जाए आकाश से, तो ताबीज ला देता है।
यही धंधा तुम मदारी का सड़क पर देखते हो, लेकिन जरा भी प्रभावित नहीं होते हो। यही धंधा जब कोई साधु-संत करता है, तब तुम दीवाने हो जाते हो। कि बस, मिल गया सदगुरु! तुम जो चाहते हो; तुम चाहते हो कि बीमारी मिट जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो बेटा पैदा हो जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो मुकदमा जीत जाएं, तो आशीर्वाद देता है। तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए तुम असदगुरु के पास लाखों की संख्या में इकट्ठे हो जाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी ही जिंदगी का हिस्सा है।
सदगुरु को पहचानना तुम्हें मुश्किल है। क्योंकि उसकी पहचान का तो मतलब ही है, जीवन में रूपांतरण! तुम बदलो असदगुरु तुम्हें कुछ देगा। सदगुरु तो तुमसे सब छीन लेगा। असदगुरु तो तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करेगा।
और मजा यह है जिंदगी का--और गणित बड़ा महत्वपूर्ण है--अगर तुम भी बैठ जाओ धूनी रमा कर, और जो भी आएं सब को आशीर्वाद देते जाओ, तो कम से कम पचास प्रतिशत आशीर्वाद तो सही होंगे ही। यह तो सीधा गणित है। इसमें कुछ करने जाने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ आशीर्वाद देते जाओ। जो भी मुकदमे वाला आए, कहो कि जीतोगे। पचास प्रतिशत तो जीतेंगे ही। वे तुम्हारे बिना आशीर्वाद के भी जीतते। लेकिन अब तुम्हारी तरफ ध्यान रखेंगे कि तुम्हारे आशीर्वाद के कारण जीते हैं। जो पचास हार जाएंगे, वे किसी दूसरे बाबा को, किसी दूसरे गुरु को खोजेंगे। क्योंकि यह उनके काम का नहीं है। लेकिन जो पचास जीत जाएंगे, वे तुम्हारे पास आते रहेंगे। और इन पचास की जो भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होगी, जब नया कोई ग्राहक आएगा, तो यह सारी भीड़ उसको प्रभावित करेगी। कि इतने लोगों की घटनाएं घट चुकी हैं--कोई मुकदमा जीत गया, किसी की खोयी पत्नी मिल गयी, किसी का प्रेम सफल हुआ, किसी की बीमारी चली गयी, किसी का बच्चा बच गया, किसी का कुछ हुआ। इनकी भीड़ तुम पाओगे। क्योंकि जो हार गए हैं, वे तो कहीं और जा चुके हैं। वे तो वहां रुकेंगे जहां जीतेंगे। वे भी किसी के पास कभी न कभी रुक जाएंगे। संयोग कहीं न कहीं घटेगा। कहीं न कहीं उनकी भी वासना पूरी होगी, वहां रुकेंगे
तुम वासना से गुरु को पहचानते हो। तब तुम भटकोगे। क्योंकि गुरु का वासना से क्या लेना-देना है? गुरु तुम्हारी वासनाएं पूरी करने को नहीं है, तुम्हें जगाने को है। और जगाने का मतलब है, तुम्हारी वासनाएं जितनी टूट जाएं उतना बेहतर। उसकी उत्सुकता तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी अदालत, तुम्हारी पत्नी और बच्चों में नहीं है। उसकी उत्सुकता तुम में और तुम्हारे परमात्मा में है। और वह रास्ता वासना का नहीं है, वह रास्ता तो निर्वासना का है। वह तुम्हें इसलिए आकर्षित कर भी नहीं पाएगा।
इसलिए अक्सर तुम भीड़ पाओगे। जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना। क्योंकि भीड़ अक्सर गलत जगह होती है। सही जगह तो तुम बहुत थोड़े लोगों को पाओगे। क्योंकि थोड़े लोगों को भी होना वहां मुश्किल है। वहां तुम चुने हुओं को पाओगे कि जिनकी आकांक्षा परमात्मा की है। वहां तुम भीड़ न पाओगे। क्योंकि भीड़ तो वासनाग्रस्त लोगों की है।
नानक कहते हैं, फिर झूठे लोग झूठी डींगें हांकने लगते हैं।
और मजा यह है कि उनकी डींगें भी सिद्ध होती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि जीवन का ढंग ऐसा है। पचास प्रतिशत तो सभी सही हो जाएंगे। और जो गलत सिद्ध होते हैं, वे कहीं और चले जाते हैं। उन्हें तुम पाओगे न। जो साईं बाबा के पास गलत हुआ, वह किसी और साईं बाबा के पास होगा। जो सही हुआ, वह वहां रुकेगा। वही तुम को मिलेगा। वह खबर देगा कि मेरा यह हो गया है। मुझे यह लाभ हुआ, मुझे यह लाभ हुआ। उनकी भीड़ बढ़ती जाएगी। एक भीतरी गणित से चीजें फैलने लगती हैं। और जब तुम देखोगे हजारों लोगों को लाभ हुआ है...और तुम भी वासना के ही प्रेरित वहां तक आए हो। तुम भी श्रद्धा करते हो। और बहुत बार तुम्हारी श्रद्धा के कारण भी परिणाम होते हैं। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ बीमारियों में से सत्तर बीमारियां मानसिक हैं। अगर तुम्हें पूरा भरोसा आ जाए कि ठीक हो जाएंगे, तो ठीक हो जाती हैं।
बहुत से अस्पतालों में प्रयोग किए गए हैं। वैज्ञानिक उस प्रयोग को प्लस्बो कहते हैं, झूठी दवा। तो अगर एक ही बीमारी के दस मरीज हों, तो पांच को असली दवा देते हैं, पांच को सिर्फ पानी देते हैं। और मजा यह है कि तीन दवा वालों में से भी ठीक हो जाते हैं, तीन पानी पीने वालों में से भी ठीक हो जाते हैं। करो क्या? इसलिए तो इतनी पैथी चलती हैं दुनिया में। एलोपैथी है, आयुर्वेदिक है, हकीमी है, नैचरोपैथी है। हजार चीजें चलती हैं। और सभी से लोगों को लाभ होता है; नहीं तो चलेंगी कैसे?
ऐसा लगता है, दवा से आदमी कम ठीक होते हैं, श्रद्धा से ज्यादा ठीक होते हैं। वही दवा छोटा डाक्टर तुम्हें दे, जिस पर तुम्हें भरोसा नहीं, अभी-अभी मेडिकल कालेज से आया है, काम न करेगी। अगर तुम्हारा ही बेटा हो मेडिकल कालेज से लौटा, तो बिलकुल काम न करेगी। क्योंकि बाप बेटे पर कभी भरोसा कर सकता है? वही दवा बड़ा डाक्टर दे, और बड़ा डाक्टर यानी बड़ी फीस ले। जितनी ज्यादा फीस ले, उतना भरोसा आता है, क्योंकि उतना बड़ा डाक्टर है। ठीक होना ही पड़ेगा अब। अब इसके आगे जाने का कोई उपाय नहीं। आधा इलाज तो डाक्टर पर भरोसे से होता है। जिस डाक्टर पर तुम्हें भरोसा है, उस डाक्टर का इलाज काम करता है। जिस पर भरोसा नहीं, काम नहीं करता।
इसलिए डाक्टर अपने आफिस में अपने सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। बीमारों के लिए वह भी दवा है। जितने ज्यादा सर्टिफिकेट--लंदन से कोई सर्टिफिकेट है तो बात ही और! सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। उनको देख कर मरीज की काफी बीमारी तो ठीक हो जाती है।
तुमने कभी खयाल किया है कि जब डाक्टर तुम्हें परीक्षण करता है, तभी तुम्हारी आधी बीमारी ठीक हो जाती है। परीक्षण करते-करते। अभी उसने कोई दवा नहीं दी। नाड़ी देखी, स्टेथोस्कोप लगाया, ब्लडप्रेशर लिया, अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे कि काफी तो तुम ठीक ही हो गए। दर्द कम है, बुखार उतर रहा है।
भीड़ भरोसा दिलाती है। भरोसे से परिणाम होते हैं। और बीच में जो झूठा आदमी बैठा है, वह मुफ्त लाभ ले रहा है। तुम अपने ही मन के खेल में पड़े हो।
नानक कहते हैं, झूठे लोग झूठी डींगें हांकते रहते हैं।
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस।।
उस आकाश की बात सुन कर, कीड़ों को भीर् ईष्या पैदा हो जाती है।
कीड़ा यानी अहंकार। अहंकारी भी रोष से भर जाते हैं। यह कैसे संभव है? यह नानक--नानक शब्द का अर्थ होता है, छोटा, नन्हा। यह छोटा सा आदमी पहुंच गया और हम न पहुंच पाए? हम, जो कि जिंदगी में इससे बहुत आगे हैं, और यह कतार में कहीं भी नहीं, यह पहुंच गया? गैर पढ़ा-लिखा, धन न संपत्ति, पद न प्रतिष्ठा, परिवार नहीं, कुछ भी नहीं। कोई जानता है कि नानक के परिवार में पहले और कौन-कौन महान पुरुष हुए? कोई भी नहीं हुए। कौन सी कुलीनता? कौन सा घर-द्वार? क्या पता-ठिकाना है इस आदमी का? पहुंच गए। और हम न पहुंच पाए! यह नहीं हो सकता। तो नानक कहते हैं--
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस।।
कीड़े को भीर् ईष्या पैदा होती है।
नानक नदरी पाईए कूड़ी कूड़ै ठीस।।
मिलता तो परमात्मा उसकी कृपा से है, तुम्हारी अकड़ से नहीं। तुम कौन हो, इससे नहीं मिलता। तुम क्या हो, इससे नहीं मिलता। परमात्मा तो अनुकंपा से मिलता है। उसकी कृपा से मिलता है। और तुम्हारे पास जितनी अकड़ है कि मैं यह हूं, उतना ही मिलना मुश्किल है।
लेकिन फिर झूठे लोग झूठी डींगें हांकते हैं। और धर्म के जगत में झूठी डींग हांकना सब से आसान है। इसलिए तो धर्म के जगत में जितना पाखंड चलता है, उतना किसी जगत में नहीं चल सकता। कोई दूसरी दिशा में इतना झूठ नहीं चल सकता जितना धर्म में चल सकता है। क्योंकि बात आकाश की है। बात इतनी बड़ी है, इतने दूर की है, इतनी अलौकिक है, इतनी रहस्यपूर्ण है, कि झूठ चल सकता है। अगर बाजार में तुम ऐसा कपड़ा बेचो जो किसी को दिखाई न पड़ता हो, कितनी देर बेच पाओगे? पहला ग्राहक ही मिलना मुश्किल होगा। तुम्हारे पास हो ही न सामान, तो बाजार में कितनी देर दूकान चला पाओगे? आखिर बाजार का सामान दिखाई पड़ने वाला सामान है। कितनों को तुम धोखा दोगे? कैसे धोखा दोगे?
मैंने सुना है कि अमरीका में उन्होंने स्त्रियों के बाल में लगाने की एक आलपिन खोज ली। यह भविष्य की घटना समझो। अदृश्य आलपिन स्त्रियां चाहेंगी कि उनकी आलपिन दिखाई ही न पड़े। अदृश्य आलपिन खोज ली। एक औरत एक दूकान पर गयी और उसने कहा कि अदृश्य आलपिनों का एक डब्बा चाहिए। उसे एक डब्बा दिया गया। उस स्त्री ने पूछा कि इनकी बिक्री भी हो रही है या नहीं? उस दूकानदार ने कहा, बिक्री का तो पूछो ही मत। अदृश्य आलपिन तीन दिन से हमारे स्टाक में नहीं हैं, और हजारों लोग ले जा चुके हैं। अब अदृश्य आलपिन हो, तो बिक्री हो सकती है। हो, या न हो। क्योंकि उसका पहला ही तो मामला है कि वह दिखाई नहीं पड़ती। तुम डब्बा खोल कर देखोगे तो कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं। हो, या न हो।
यह परमात्मा का धंधा अदृश्य आलपिनों का धंधा है। कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं। इसलिए बड़ा पाखंड यहां है। इसलिए तुम हैरान होगे कि जितना धार्मिक मुल्क हो, उतना पाखंडी हो जाता है।
यह हमारा मुल्क इसका सबूत है। इससे ज्यादा पाखंडी मुल्क दुनिया में कहीं भी नहीं। उसका कारण यह है कि इस मुल्क ने धर्म के संबंध में इतना चिंतन किया है, और इस मुल्क ने धर्म के इतने सदगुरु पैदा किए हैं, कि हर गुरु के साथ निन्यान्नबे असदगुरु पैदा होते हैं। सदगुरु तो मर जाते हैं, असदगुरु चलते रहते हैं। उनकी जमात बढ़ती जाती है। और तय करना बिलकुल मुश्किल है। और मनुष्य को नास्तिक बनाने में जितने असदगुरु सहयोगी होते हैं, उतना कोई भी सहयोगी नहीं होता। तुम इतने थक जाते हो, धोखे, बेईमानी, उपद्रव से कि तुम धीरे-धीरे सोच लेते हो कि परमात्मा का धंधा ही धोखाधड़ी है। धीरे-धीरे तुम सोच लेते हो कि इस उपद्रव में पड़ना ही नहीं, इससे बाहर ही रहना बेहतर है।
नानक कहते हैं, झूठे लोग झूठी डींगें मारते रहते हैं।
और तुम्हारा जितना भरोसा बढ़ता जाता है, उतनी उनकी डींग बढ़ती जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने भतीजे को कह रहा था एक संस्मरण कि मैं जंगल से निकल रहा था। दस लकड़बग्घों ने मुझे घेर लिया। पांच मैंने उसी वक्त मार डाले। उस भतीजे ने बीच में टोक कर कहा कि चाचाजी, तीन महीने पहले तो आप कह रहे थे कि पांच लकड़बग्घों ने घेरा, और अब कहने लगे दस ने। मुल्ला नसरुद्दीन ने सहज भाव से कहा, तब तू बहुत छोटा था। इतनी खतरनाक बात सुनने की तेरी योग्यता भी न थी, और तू समझ भी न पाता, और घबड़ा जाता।
तो तुम्हारी जितनी योग्यता बढ़ने लगती है झूठ को सुनने की, वैसे-वैसे झूठ बोलने वाले के दावे बढ़ते जाते हैं। वह देखता रहता है कि कितनी श्रद्धा बढ़ रही है, उतने दावे बढ़ते जाते हैं। तुम्हारी श्रद्धा न मालूम कितने झूठे गुरुओं को पालती-पोसती है। और जब तुम्हें भरोसा आ जाता है, तब तुम बिलकुल अंधे हो जाते हो। कुछ भी मान लेते हो।
कल रात ही मैं एक किताब पढ़ रहा था। एक ईसाई पादरी के वक्तव्य हैं। किताब के पहले ही जो लिखा है, वह ऐसा सरासर झूठ है, कि उसे कोई कैसे मानेगा? लेकिन उसको मानने वाले बहुत लोग हैं। और वह पादरी काफी ख्यातिनाम है। पश्चिम में उसके हजारों भक्त हैं। भूमिका में जो उसने लिखा है, वह बड़ा पढ़ने जैसा है। भूमिका में उसने लिखा है कि शीघ्र ही जीसस का आगमन होने वाला है। तारीख, दिन, सब तय हो गया है। और ज्यादा देर नहीं है। किसी भी दिन, रात, कभी भी जीसस का आगमन हो जाएगा। और जीसस अपने करोड़ों भक्तों को ले कर विलीन हो जाएंगे। तो पृथ्वी से करोड़ों ईसाई एकदम से विलीन हो जाएंगे। और पीछे सारी दुनिया चकित खड़ी रह जाएगी कि क्या हुआ? और जैसे ही ईसा अपने भक्तों को ले जाएंगे, फिर दुनिया पर मुसीबतें आनी शुरू होंगी। फिर महानर्क पैदा होगा। इसलिए देर मत करो। जल्दी से भरोसा लाओ ईसा पर, और ईसा के पीछे सम्मिलित हो जाओ। और भूमिका के अंत में लिखा है कि इस किताब को पढ़ने वाले लोगों के लिए केवल दो विकल्प हैं। एक विकल्प, अगर तुम पापी हो, तो इसमें जो भी कहा है उस पर तुम्हें भरोसा न आएगा। और अगर तुम पुण्यात्मा हो, तो तुम शीघ्र, देर मत करो, और जीसस के अनुयायी हो जाओ।
दो ही विकल्प छोड़े हैं। या तुम महापापी हो, तब तो तुमको किताब जंचेगी ही नहीं। अगर तुममें जरा भी बुद्धि है, पुण्य का भाव है, धार्मिकता है, किताब जंचेगी। जीसस के साथ खड़े हो जाओ।
जीसस के साथ खड़े होने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन यह आदमी जीसस के नाम का शोषण कर रहा है। जीसस प्यारे हैं। लेकिन यह आदमी! और यह जो कह रहा है, सरासर झूठ है। लेकिन इसको सिद्ध कैसे करो? ऐसी हजारों घटनाएं घट चुकी हैं।
उन्नीस सौ तीस में एक ईसाई पादरी ने घोषणा कर दी कि बस, एक जनवरी को जगत का विनाश हो जाएगा। वक्त आ गया, कयामत का दिन आ गया। उसके मानने वाले कोई पचास हजार लोग सब कुछ बेच-बाच डाले। क्योंकि जब आखिरी दिन आ गया तो अब क्या करना है रख कर? मकान बेच दिए, सामान बेच दिए, उत्सव मना लिया, धन-पैसा बांट दिया। क्योंकि आखिरी दिन आ रहा है। जो मानेंगे वे पुण्यात्मा, और जो नहीं मानते हैं वे पापी हैं।
वे सब पहाड़ पर चले गए। क्योंकि आखिरी दिन! एक जनवरी को जब सुबह का सूरज उगेगा, जगत का विनाश होगा, उस वक्त वे सब पहाड़ पर प्रार्थना करते रहेंगे। उन्हें ईश्वर उठा लेगा। एक जनवरी आ गयी, सूरज निकल आया, कुछ भी नहीं हुआ। गांव और आसपास के हजारों लोग पहाड़ की तरफ चले कि अब उनसे पूछें कि क्या हुआ? वे लोग वहां से उतर रहे थे। उन्होंने पूछा कि कहो, अब अक्ल आयी? उन्होंने कहा कि अक्ल? हमारी प्रार्थना के कारण उसने दिन बदल दिया। वह जो हम पहाड़ पर प्रार्थना कर रहे थे परमात्मा से कि दया कर! उसने सुन ली।
वह पंथ अभी भी चलता है। अब यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि अंधापन कैसा हो सकता है! तुम उन्हें गलत भी सिद्ध नहीं कर सकते। लोगों ने सोचा था कि अब तो इनको अक्ल आ जाएगी, नासमझों को। तो पहाड़ पर लोग चढ़ कर गए देखने, कि अब तो वे रो रहे होंगे, कि हमसे भूल हो गयी। बरबाद हो गए। वे लोग प्रसन्न थे। उनके पादरी ने समझा दिया कि देखो हमारी प्रार्थना का परिणाम!
मुल्ला नसरुद्दीन रोज अपने घर के बाहर नमक छिड़कता है। किसी ने पूछा कि यह तुम क्या करते हो रोज-रोज? उसने कहा कि जंगली जानवरों को भगाने के लिए। लोगों ने कहा कि जंगली जानवर यहां कहां बस्ती में? तो उसने कहा, यह नमक का परिणाम है।
अब ऐसे आदमी के साथ करोगे क्या? वह तुम्हें उपाय नहीं छोड़ता। कहता है कि देख लो प्रत्यक्ष प्रमाण है। मेरे घर के पास तो दूर, गांव में भी नहीं आ पा रहे हैं। यह नमक छिड़कने से हो रहा है।
आदमी धोखे में पड़ने को तैयार है, क्योंकि धोखे के भी तर्क हैं। और धोखा भी प्रचार करता है। धोखा ही प्रचार करता है, और धोखा ही तर्क देता है, और धोखा तुम्हारी वासनाओं को रिझाता है। वह तुम्हें परसुएड करता है।
नानक कहते हैं, झूठे लोग झूठी डींगें हांकते रहते हैं।
नानक नदरी पाईए कूड़ी कूड़ै ठीस।।
और वह तो मिलता है उसको, जिसने सब डींग छोड़ दी। वह तो मिलता है उसको, जिसका मैं का भाव भी चला गया। वह तो उसको मिलता है, जिस पर उसकी अनुकंपा हो जाए।
न बोलने में शक्ति है, न मौन में शक्ति है, न मांगने में शक्ति है, न दान में शक्ति है, न जीवन में शक्ति है और न मरण में शक्ति है। न राज्य-संपत्ति में, न मन के संकल्प-विकल्प में, न स्मृति में, न ज्ञान में, न विचार में, न संसार से छुटकारा पाने की युक्ति में शक्ति है। वास्तविक शक्ति तो उस परमात्मा के हाथ में है, जो सृष्टि रचता है और उसे देखता रहता है। नानक कहते हैं, वहां न कोई ऊंच है, न नीच।
ये शब्द बड़े गहरे हैं--
आखणि जोरु चुपै नह जोरू। जोरु न मंगणि देणि न जोरू।।
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरू। जोरु न राजि मालि मनि सोरू।।
जोरु न सुरति गिआनु वीचारि। जोरु न जुगती छुटै संसारू।।
जिसु हथि जोरू करि वेखै सोइ। नानक उतमु नीचु  कोइ।।
बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। क्योंकि नानक पूरे जपुजी में एक ही बात पर जोर दे रहे हैं--उसके नाम का स्मरण, सुरति। और यहां वे कहते हैं, सुरति में भी जोर नहीं। यह आखिरी चरण करीब आ रहा है। नानक यहां पर तुम्हारे हाथ से सब छीन लेना चाहते हैं। क्योंकि तुम्हें अगर जरा भी ऐसा लगे कि किसी चीज में जोर है, तो तुम बचोगे, मजबूत रहोगे। सब जोर अंततः तुम्हारे अहंकार का जोर है।
तो नानक कहते हैं कि न बोलने में शक्ति है, न तुम बोल कर उसे पा सकते हो। तो अनेक लोगों ने सोचा कि जब बोल कर उसे नहीं पा सकते, तो मौन रह कर पा लेंगे। नानक कहते हैं कि न मौन में शक्ति है। वह तुम्हारे हाथ से सब छीन ले रहे हैं। अभी तक तुमने सोचा होगा कि बोलने में नहीं है, तो चलो ठीक, बोलना बकवास है। लेकिन चुप हो गए, ध्यान में बैठ गए। फिर? नानक कहते हैं, उसमें भी शक्ति नहीं है। तुम्हीं तो मौन बैठोगे, जो बोल रहा था। गुणधर्म तो वही रहेगा। बोलने में अगर तुम पापी थे, तो चुप होने में कैसे तुम पुण्यात्मा हो जाओगे? इसे थोड़ा समझो। तुम्हारी क्वालिटी...।
एक शैतान आदमी चुप बैठा है; शैतान ही रहेगा। कैसे फर्क हो जाएगा चुप होने से? चुप बैठने से क्या हो जाएगा? क्या अंतर पड़ेगा? अच्छा आदमी चुप बैठे, अच्छा आदमी रहेगा। बोले, अच्छा आदमी ही रहेगा। बुरा आदमी बोले, बुरा। चुप बैठे, तो बुरा रहेगा। बुरा आदमी चुप में से भी कोई तरकीब निकाल लेगा कि कैसे दूसरों को नुकसान पहुंचाए। बुरा आदमी मौन में से भी शैतानी खोज लेगा। तुम्हारा गुणधर्म कैसे बदल जाएगा?
तुम सोचते हो, सिर्फ तुम चुप हो गए तो सब हो जाएगा, बड़ी शक्ति आ जाएगी। तुम्हीं तो चुप होओगे! क्या फर्क पड़ेगा? चुप्पी तुम्हारी, वचन तुम्हारे। वचन में तुम मौजूद थे, चुप्पी में तुम मौजूद रहोगे। तुम तो रहोगे। तुम कहोगे, अब मैं मौन हो गया। मैं ध्यान में हो गया। मैं ध्यानी हूं। यही अकड़ पहले थी कि मैं वक्ता हूं। बड़ा वक्ता हूं। अकड़ अंधी है। बोलने में भी तुम अंधे हो।
मैंने सुना है कि बहती गंगा देख कर मुल्ला नसरुद्दीन ने भी सोचा कि मैं भी हाथ धो लूं। तो वह एक राज्य में मिनिस्ट्री का बढ़ाव हो रहा था, मिनिस्टर हो गया। खयाल उसे सदा से था कि मैं बड़ा बोलने वाला हूं। इसलिए नेता होने में और तो कोई कमी है नहीं। बड़ा वक्ता हूं। लेकिन उसने इतने लंबे भाषण दिए कि लोग बहुत बोर हुए। पुलिस को रखना पड़ता था चारों तरफ, जैसा कि सभी नेताओं की सभा में रखना पड़ता है। वह लोगों को बाहर जाने से रोकने के लिए। नहीं तो व्याख्यान चले, और लोग बाहर भाग जाएं। तो उसने सख्त पहरा लगा दिया। लेकिन फिर भी लोग बोर तो होते ही हैं। जम्हाई लेते हैं, उसके ही सामने।
तो उसने अपने पी.ए. को कहा कि भाषण थोड़े छोटे लिखा कर। इतने-इतने बड़े भाषण लिखता है कि लोग बोर हो रहे हैं। हमारी प्रतिष्ठा खो रही है। पी.ए. ने छोटा भाषण लिखा। मुल्ला नसरुद्दीन बड़ी खुशी में बोला, लेकिन लोग फिर भी बोर हुए। लौट कर उसने कहा कि मैंने हजार बार तुम्हें कहा कि भाषण छोटा लिख। लोग बोर हो रहे हैं, ऊब रहे हैं। फिर भी तूने बड़ा लिखा? उस पी.ए. ने कहा, महाराज, मैंने तो छोटा ही लिखा। आपने तीनों कापी पढ़ दीं।
बुद्धि तो उधार नहीं मिल सकती। भाषण आप लिखवा सकते हैं। गुण तो उधार नहीं मिल सकता। व्यक्तित्व का जो गुण है, उसे तो पाने के कोई सस्ते उपाय नहीं हैं। कोई दूसरा नहीं दे सकता।
तुम शैतान अगर हो, तो तुम चुप हो कर बैठ जाओगे तो भीतर तो तुम शैतान ही रहोगे। और तुम्हारी अकड़ कल तक बोलने की तरफ से पकड़ती थी, अब शून्य की तरफ से, चुप होने की तरफ से पकड़ लेगी।
झेन फकीर बोकोजू अपने गुरु के पास गया। और उसने कहा कि अब मैं बिलकुल चुप हो गया हूं। शून्य आ गया। अब बोलें। उसके गुरु ने कहा कि पहले तू बाहर जा और यह शून्य फेंक आ। फिर भीतर आ। बोकोजू ने कहा, शून्य फेंक आऊं? और अब तक आप यही समझाते रहे कि शून्य हो जा। बोकोजू के गुरु ने कहा, वह पहली सीढ़ी थी, अब यह दूसरी। पहले मौन हो जाओ, फिर मौन फेंक दो। नहीं तो मौन से भी अकड़ जाओगे। अब यह कौन कह रहा है कि मैं शून्य हो गया? इसी को तो गिराना है।
तो नानक कहते हैं, आखणि जोरु चुपै नह जोरू। न बोलने में ताकत, न चुप होने में ताकत। जोरु न मंगणि देणि न जोरू। न मांगने में शक्ति और न दान में शक्ति।
क्या दोगे तुम? तुम्हारे पास है क्या? एक आदमी मांग रहा है, एक आदमी दे रहा है। मांगने वाला भी वही मांगता है, देने वाला भी वही देता है। क्या दोगे तुम? एक आदमी धन मांग रहा है परमात्मा से। तुम धन बांट रहे हो, धन से मंदिर बना रहे हो, दान कर रहे हो। लेकिन दोनों की नजर तो धन पर है। मांगने वाले की भी और देने वाले की भी। और यह तो हो भी सकता है कि मांगने वाला विनम्र हो, दान देने वाला कैसे विनम्र होगा? वह तो कहेगा, मैं दाता हूं। और दाता केवल एक है। तुम कैसे दाता हो सकते हो? दोगे तुम क्या? जो तुम्हारे पास है वही दोगे न! तुम्हारे पास क्या है? कंकड़-पत्थर, चांदी-सोने के ठीकरे, कागज के नोट, सब आदमी की मान्यताएं हैं। तुम दोगे क्या?
नानक कहते हैं, न मांगने में शक्ति, न दान में शक्ति। न जीवन में शक्ति, न मरण में शक्ति।
तुम जी कर उसे नहीं पा रहे हो, कई लोग सोचते हैं कि मर जाएं। उनको तुम पाओगे जगह-जगह आश्रमों में बैठे हुए। एकदम से मरने की हिम्मत नहीं है, तो वे धीरे-धीरे मरते हैं। धीरे-धीरे मरने का नाम लोगों ने संन्यास बना रखा है। क्रमशः मरते हैं। ग्रेजुअल स्यूसाइड।
पहले संसार से भाग गए, तो नब्बे परसेंट जिंदगी तो खतम ही हो गयी। क्योंकि जिंदगी नब्बे परसेंट वहां थी। फिर आश्रम में बैठ गए। दो दफे खाना न खाया, एक दफा खाया--और पचास परसेंट मरे। ऐसे रोज काटते जाते हैं। ऐसे धीरे-धीरे अपने को काट कर पंगु करते हैं। फिर जीते हैं। वह जीना करीब-करीब मरने के जैसा है।
नानक कहते हैं, न तुम्हारे जीने में शक्ति है, न तुम्हारे मरने में।
तुम जी कर उसे नहीं पा सके, मर कर कैसे पा लोगे? तुम्हीं तो मरोगे न? तुम फिर पैदा हो जाओगे। तुम यहां से हटोगे, वहां हो जाओगे। स्थान बदलेगा, तुम कैसे बदलोगे?
नानक बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह रहे हैं। खयाल रखना। हृदय में उनको गूंजने देना।
न जीवन में शक्ति है, न मरण में।
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरू। जोरु न राजि मालि मनि सोरू।।
न राज्य-संपत्ति में शक्ति है, न मन के संकल्प-विकल्प में शक्ति है।
कुछ लोग धन जोड़ते हैं, कुछ लोग योग जोड़ते हैं। वे बैठ कर संकल्प करते हैं। मन को एकाग्र करते हैं। बड़ी तपश्चर्या करते हैं। लेकिन नानक कहते हैं, न धन-संपत्ति में जोर है, न मन के संकल्प-विकल्प में जोर है। और सब से महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि न स्मृति में, न ज्ञान में, न विचार में।
जोरु न सुरति गिआनु वीचारि
विचार में तो जोर नहीं है, बहुत लोगों ने कहा है। क्योंकि विचार तो सतह की हलचल है। ज्ञान में जोर नहीं है, बहुत लोगों ने कहा है। क्योंकि शास्त्र से पढ़ कर, संसार से सुन कर, गुरु के पास से, तुम जो भी इकट्ठा कर लेते हो, उसमें क्या जोर है? सब उधार और बासा है। लेकिन नानक आखिरी चोट करते हैं। वे कहते हैं, जोरु न सुरति। तुम्हारी स्मृति में, तुम्हारी स्मरण करने की क्षमता में, उसमें भी कोई जोर नहीं है। तुम ही तो स्मरण करोगे न?
अब यह बड़े मजे की बात है। यहीं सारे रहस्य का जो विवादास्पद रूप है, जो पैराडाक्स है, वह प्रकट होता है। पूरे समय नानक कहते हैं, सुरति, उसकी याद। और यहां वे कहते हैं, उसकी याद में भी कोई जोर नहीं।
एक चरण है उसकी याद, और दूसरा चरण है यह अनुभव कि उसकी याद से भी क्या होगा? मैं ही तो याद करूंगा न? वह याद भी तो मेरी ही होगी! मैं ही तो पुकारूंगा? वह पुकार भी मेरी होगी! और मेरा ही गुणधर्म उसमें समाया रहेगा। उसमें भी क्या जोर हो सकता है!
यह दूसरी घड़ी करीब आ रही है, जहां साधक सब छोड़ देता है--सब कर के, ध्यान रखना! जल्दी मत करना छोड़ने की। अगर जरा भी बाकी रह गया, कोई फल न होगा। यह तो आखिरी है। जब करने को कुछ भी नहीं बचता। सच तो यह है कि तुम छोड़ते भी नहीं, छूट जाता है। क्योंकि तुम छोड़ोगे, तो भी कुछ बाकी था। तुम कर लेते हो, कर लेते हो, थक जाते हो, थक जाते हो। आखिरी घड़ी आ जाती है कि तुम गिर पड़ते हो। गिरते भी नहीं अपनी तरफ से। तुम अचानक पाते हो कि गिर गए, अब कोई हिलने का भी उपाय न रहा, कोई जाने का भी उपाय न रहा। इसको वे कह रहे हैं, किसी चीज में जोर नहीं। क्योंकि जोर अगर थोड़ा बचा है, तो और चलोगे। नानक कहते हैं--
जोरु न सुरति गिआनु वीचारि। जोरु न जुगती छुटै संसारू।।
और संसार के छोड़ने की जितनी जुगतियां हैं, युक्तियां हैं, साधन हैं, विधियां हैं, मेथड्स हैं, उनमें भी कोई जोर नहीं।
वास्तविक शक्ति तो उस परमात्मा के हाथ में है, जो सृष्टि रचता और उसे देखता है।
जिसु हथि जोरू करि वेखै सोइ। नानक उतमु नीचु  कोइ।।
उसके हाथ में है। परमात्मा के हाथ में सारा जोर, सारी ताकत। तुम निर्बल हो जाओ, उसका सहारा मिल जाएगा। तुम सबल रहे, सहारे की कोई जरूरत ही नहीं है। निर्बल के बल राम! तुम यहां निर्बल हुए और वहां राम तुम्हें उपलब्ध हो गए।
पर वे निर्बल के हैं, बलशाली के लिए नहीं। क्योंकि बलशाली को कोई जरूरत ही नहीं। वह कहता है, चुप बैठो, तुम अपना काम करो। मैं खुद ही कर लूंगा। वह राम को बाद देता है। वह खुद अपनी अकड़ पर जिंदा है। वह राम का सहारा भी नहीं लेना चाहता। उसकी अकड़ अभी मिटी नहीं। अभी वह यह नहीं सोचता कि मुझे उसकी कोई जरूरत है। मैं खुद ही कर लूंगा।
ऐसा हुआ। एक ईसाई फकीर औरत हुई--सेंट थेरेसा। बड़ी बहुमूल्य स्त्री थी। उसने एक दिन गांव के चर्च में जा कर घोषणा की कि मैं एक बहुत बड़ा परमात्मा का मंदिर बनाना चाहती हूं। गांव छोटा था; चर्च भी बहुत छोटा था। लोगों ने कहा, हम कहां से पैसा इकट्ठा करेंगे? कहां से बड़ा मंदिर बनाएंगे यहां? कौन देगा? कहां से आएगा?
एक आदमी ने उससे पूछा कि थेरेसा, यह तो ठीक है कि तुम बनाना चाहती हो, हम भी चाहेंगे। लेकिन तुम्हारे पास पैसे कितने हैं? थेरेसा ने अपने खीसे में हाथ डाला; दो पैसे थे उसके पास। उसने कहा कि दो मेरे पास हैं, इनसे काम शुरुआत का हो जाएगा।
तो लोग हंसने लगे। लोगों ने कहा कि हमको पहले ही शक था कि तेरा दिमाग खराब है। दो पैसे से महान मंदिर बनाने की योजना बना रही है? करोड़ों रुपयों की जरूरत पड़ेगी!
सेंट थेरेसा ने कहा कि तुम्हें ये दो दिखाई पड़ते हैं, यह तो ठीक है। मेरे पास दो हैं। लेकिन उसके पास? वह भी मेरे साथ है। दो पैसा+परमात्मा, कितना होता है हिसाब? उसने कहा। और दो पैसे तो सिर्फ शुरुआत के लिए हैं, आखिर में तो उसी को करना है। हम कर ही क्या सकते हैं? हमारी शक्ति क्या है? उसने कहा, दो ही पैसे की हमारी शक्ति है, बाकी तो उसी की है। और दो पैसे हमारे पास हैं। उतने तक हम जाएंगे, फिर उससे कहेंगे, अब तेरी मर्जी।
और वह मंदिर बना। वह मंदिर आज भी खड़ा है। विराट मंदिर बना है। वह मंदिर तुम्हारी शक्ति से नहीं बनता। तुम्हारे पास तो दो ही पैसे हैं। उससे तो तुम कल्पना ही नहीं कर सकते बनाने की। क्या बनेगा? तुम हो क्या? तुमसे होगा क्या? तुम क्या पा सकोगे? बड़े मंदिर को बनाने चले हो! लेकिन दो पैसे+परमात्मा, तब अपार संपत्ति तुम्हारे पास है। फिर कोई हर्जा नहीं। फिर तुम जो भी बनाना चाहोगे, बनेगा। लेकिन तुम दो ही पैसा रहना।
जैसे ही तुम निर्बल हुए, परम शक्ति का स्रोत उपलब्ध हो जाता है। जब तक तुम सबल हो, तब दो पैसे से ज्यादा तुम्हारी शक्ति नहीं।
इसलिए नानक दोहरा रहे हैं, न इसमें शक्ति है, न उसमें शक्ति। वे तुमसे शक्ति छीन रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं, सदगुरु तुमसे छीन लेता है, तुम्हें देता नहीं। सदगुरु तुमसे छीन लेता है, तुम्हें निर्बल बना देता है, तुम्हें असहाय कर देता है। तुम्हें उस हालत में छोड़ देता है, जैसे मरुस्थल में कोई पड़ा हो और प्यासा हो, और जल के कोई स्रोत करीब न हों। उस क्षण जो प्यास प्रार्थना की तरह उठेगी, वहीं तुम पाओगे, निर्बल के बल राम! वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा उपलब्ध है। मरुस्थल से उठी प्यास जब तुम्हारे जीवन से उठेगी, उसी क्षण। जब तुम पूर्ण असहाय हो, तभी उस परम का सहारा मिलता है।
इसलिए नानक कहते हैं, और ध्यान रखना, वहां न कोई ऊंच है, न कोई नीच।
नानक उतमु नीचु  कोइ।।
इसलिए तुम यह फिक्र मत करना। वहां सब बराबर हैं। इसलिए डरना मत कि शक्तिशाली पहले पहुंच जाएंगे, कि ज्ञानी पहले पहुंच जाएंगे, कि जिन्होंने अच्छे कृत्य किए हैं वे पहले पहुंच जाएंगे, कि दानी पहले पहुंच जाएंगे, फिक्र मत करना। कि ध्यानी पहले पहुंच जाएंगे, फिक्र मत करना। वहां कोई ऊंच-नीच नहीं है।
अगर ऊंच-नीच हो तो तुम अपने कारण हो, उसके कारण नहीं। उसकी आंखों के कारण नहीं। अगर तुमने अपने को बिलकुल खोया, तुम ऊंच हो जाओगे। अगर तुमने अपने को बचाया, तुम नीच हो जाओगे।
जीसस का वचन है कि जो अपने को खोएगा, वह पा लेगा; और जो अपने को बचाएगा, वह सदा के लिए खो देगा।
तुम अपने को बचाना मत। वही एकमात्र भूल है जो आदमी कर सकता है। तब दो ही पैसे पास रह जाते हैं। तब जीवन दारिद्रय का हो जाता है। तुम अपने को बचाना मत। और तब तुम पाते हो, दो पैसे तो कुछ भी न रहे, पूरे परमात्मा की ऊर्जा तुम्हें मिल गयी। तब जीवन सम्राट का हो जाता है। भिखारी तुम अपने हाथ से हो, सम्राट तुम उसकी कृपा से हो सकते हो।

आज इतना ही।


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