सोमवार, 9 अप्रैल 2018

एक ओंकार सतनाम (गुरू नानक) प्रवचन--17

करमी करमी होइ वीचारु—(प्रवचन—सतरहवां)

पउड़ी: 34

राती रुति थिति वार। पवन पानी अगनी पाताल।।
तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल।
तिसु विचि जीअ जुगुति के रंग। तिनके नाम अनेक अनंत।।
करमी करमी होइ वीचारु। साचा आप साचा दरबारु।।
तिथै सोहनि पंच परवाणु। नदरी करमी पवै नीसाणु।।
कच पकाई ओथै पाइ। 'नानक' गाइआ जापै जाइ।।


नानक के सूत्र के पहले कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात, कि जीवन को जो लक्ष्य मान लेता है, वह भटक जाता है। जीवन केवल एक अवसर है, लक्ष्य नहीं। मार्ग है, गंतव्य नहीं। उससे कहीं पहुंचना है। जीवित होने से ही मत समझ लेना कि पहुंच गए। जीवन कोई सिद्धि नहीं है, केवल एक प्रक्रिया है। उससे ठीक से गुजरे, तो पहुंच जाओगे। ठीक से न गुजरे, तो भटक जाओगे।

जीवन को ही जो सब कुछ मान लेता है, वही नास्तिक है। और जीवन के पार जिसके लिए पहुंचने को कोई मंजिल है, वही आस्तिक है। आस्तिक के लिए जीवन एक पड़ाव है। नानक कहते हैं, धर्मशाला। वहां रुकना है थोड़ी देर, लेकिन सदा के लिए उसे घर नहीं बना लेना। जिसने उसे ही घर बना लिया, वह असली घर से वंचित रह जाएगा। चले थे कुछ पाने, मार्ग में ही घर समझ लिया, तो फिर मंजिल तक कैसे पहुंचेंगे? कौन चलेगा?
संसार घर नहीं है। और जिन्होंने संसार को घर बना लिया है, उन्हीं को हम गृहस्थ कहते हैं। गृहस्थ का अर्थ यह नहीं है कि आप घर में रहते हैं। गृहस्थ का अर्थ है कि संसार को घर बना लिया है।
संन्यासी का अर्थ है कि संसार धर्मशाला है, घर नहीं। रहता तो वह भी वहीं है, जाएगा कहां? रहना तो घर में ही पड़ेगा, लेकिन घर को देखने का ढंग बदल जाता है। तुम घर को समझते हो यही मंजिल है, पहुंच गए। और संन्यासी समझता है धर्मशाला है, सराय है, कहीं और जाना है। और भूलता नहीं मंजिल को। रुके कहीं, हजारों धर्मशालाओं में रुकना पड़े, तो भी मंजिल की याद रखता है।
वही सुरति है। उस याद को जिसने रखा, जिसने उस याद के धागे को न खोया, वह सभी धर्मशालाओं में रुकेगा और पार होता जाएगा। कोई धर्मशाला उसे पकड़ न पाएगी। रहेगा संसार में, लेकिन संसार के बाहर रहेगा। तुम्हारी मंजिल जहां है, वहीं तुम हो। जहां तुम जा रहे हो, वहीं तुम हो। वहां तुम नहीं होते, जहां तुम हो। जहां तुम पहुंचना चाहते हो, जहां तुम्हारा ध्यान होता है, वहीं तुम हो। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।
अधिक लोग, करीब-करीब सभी, करोड़ों में एकाध को छोड़ कर, जो मिला है, समझते हैं यही अंत है। जो मिला है, यह तो प्रारंभ भी नहीं है। यह तो भवन का द्वार भी नहीं है। ये तो भवन की सीढ़ियां भी नहीं हैं। तुम तो मार्ग पर हो, अभी सीढ़ियां आएंगी। जिसके जीवन में सीढ़ियां आ गयीं, धर्म आ गया। जो मार्ग पर है, वह संसारी है। जिसके जीवन में सीढ़ियां आ गयीं, वह साधक। और जो भवन में प्रतिष्ठित हो गया, वह सिद्ध। तुम्हारे जीवन में अभी सीढ़ियां भी नहीं आयी हैं। अभी तुमने साधना भी शुरू नहीं की है।
और इस भ्रांति का गहरे से गहरा कारण यही है कि तुम्हें जो मिल गया है, तुम उससे संतुष्ट हो गए हो। ध्यान रखना, धार्मिक आदमी एक अर्थ में तो बिलकुल संतुष्ट होता है, और एक दूसरे अर्थ में उससे ज्यादा असंतुष्ट आदमी खोजना कठिन है। संतुष्ट होता है इस अर्थ में कि परमात्मा से उसकी कोई शिकायत नहीं। और असंतुष्ट होता है इस अर्थ में कि अपने से उसकी बड़ी शिकायत है।
अधार्मिक आदमी की परमात्मा से तो शिकायत होती है--तूने यह नहीं दिया, तूने यह नहीं दिया, अपने से कोई शिकायत नहीं होती। अपने से अधार्मिक आदमी संतुष्ट होता है। वही संतोष कब्र बन जाती है। क्योंकि अगर तुम अपने से संतुष्ट हो, तो विकसित कैसे होओगे? बढ़ोगे कैसे? आकाश को छूने के लिए पंख कैसे खोलोगे? तुम अपने घोंसले में ही कैद हो जाओगे। तुम अपने पिंजड़े में ही मर जाओगे।
परमात्मा से तो संतोष चाहिए, अपने से असंतोष। हालत उलटी है। अपने से तो हम संतुष्ट हैं, परमात्मा से असंतोष है। सारे जगत के प्रति हमारा असंतोष है। कुछ भी ठीक नहीं मालूम होता, सिर्फ हम ठीक मालूम होते हैं। और वही ठीक नहीं है, शेष सब ठीक है। तुम्हारे अतिरिक्त कहीं कोई भूल-चूक नहीं है। सारा जगत बड़ी शांति और आनंदमग्नता से प्रवाहित है। कहीं कोई बाधा नहीं है। सिर्फ तुम्हारे भीतर कहीं अवरोध है।
तो धार्मिक आदमी एक गहरा असंतोष है अपने प्रति कि मैं जैसा हूं, परमात्मा के योग्य नहीं हूं। मैं जैसा हूं, अभी अर्चना न कर सकूंगा, अभी पूजा न कर सकूंगा। अभी मैं जैसा हूं, कैसे स्वीकार हो सकूंगा? अभी मैं जैसा हूं, वह उसके योग्य नहीं हूं। उसके योग्य बनना है। उसके स्वीकार के योग्य पात्र बनना है। अपने को इस योग्य बनाना है कि वह मेहमान बनने को राजी हो जाए। मेरे हृदय में उसके लायक सिंहासन बनाना है।
तो धार्मिक व्यक्ति अपने से तो असंतुष्ट होता है। इसलिए एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि वह अपने को बढ़ाते-बढ़ाते, निखारते-निखारते, स्वर्ण-सिंहासन बन जाता है। वह परमात्मा के विराजने योग्य हो जाता है। उसके द्वार पर परमात्मा आज नहीं कल दस्तक देता है। एक क्षण की देरी भी न होगी। जिस क्षण तुम तैयार हो, उसी क्षण तुम्हारे द्वार पर दस्तक पड़ जाएगी। देर तभी तक है, जब तक तुम तैयार नहीं हो। रोने से कुछ न होगा। चीखने-पुकारने से कुछ न होगा। तैयारी चाहिए।
और तैयारी का अर्थ है, रूपांतरण, ट्रांसफार्मेशन। तुम्हें अपने को बदलना होगा, बहुत-बहुत रूपों में। अगर तुम गौर से अपने को देखोगे, तो तुम खुद ही पाओगे कि परमात्मा तो दूर, अगर तुमको भी इस घर में रहने के लिए पूछा गया होता, जो तुम हो, तो शायद तुम भी राजी न होते। तुम जैसे हो, अगर ऐसे ही व्यक्ति से तुम्हें प्रेम करना पड़े, तो तुम इनकार कर दोगे।
इसलिए तो कोई अपने को प्रेम नहीं करता। तुम अपने प्रेम के पात्र होने के योग्य भी नहीं हो। इसलिए तो लोग अकेले में परेशान होते हैं। अपने साथ रहने को कोई राजी नहीं है। अगर तुम्हें घड़ी दो घड़ी अकेले बैठना पड़े, तो तुम बेचैन होते हो। कहते हो मित्र चाहिए, क्लब, सिनेमा, बाजार, रेडियो, टेलीविजन, अखबार, कुछ चाहिए। ऐसा अपने साथ कैसे बैठे रहें? बड़ी ऊब पैदा होती है। तुम अपने से ऊबे हुए हो। तुम अपने सत्संग में जरा भी नहीं रह सकते और तुम परमात्मा की आकांक्षा करते हो! जब तुम खुद ही अपने साथ रहने को राजी नहीं, तो इतना तो पक्का समझना कि तुम्हारे साथ कौन रहने को राजी होगा?
और परमात्मा तो फिर बहुत दूर है। परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व का गहनतम शिखर तुम्हारे हृदय में उतरे। लेकिन फिर उसके लिए गहराई बनाओ। वहां उतनी गहराई तो चाहिए। तुम इतने छिछले हो कि जरा सी बात तुम्हारे भीतर तूफान ले आती है। जरा से कंपन से तुम कंप जाते हो। जरा सा अपमान, और तुम आग हो जाते हो। जरा सा दुख, और तुम समझते हो नर्क टूट पड़ा। तुम छोटे-छोटे से इतने व्याकुल हो जाते हो कि तुम्हारी कोई गहराई तो नहीं है। कोई एक छोटा सा पत्थर फेंक दे तो तुम्हारे भीतर तूफान आ जाए, तो जाहिर है कि तुम कोई गहरे सागर नहीं हो।
सागर में तो हिमालय भी डूब जाए तो भी लहरों को कोई खबर न आएगी, कोई फर्क न पड़ेगा। इतनी नदियां गिरती हैं सागर में, इंच भर सागर ऊंचा नहीं उठता। जैसा है वैसा ही बना रहता है।
तुम परमात्मा की आकांक्षा कर रहे हो। कभी तुमने सोचा कि अगर परमात्मा आ जाए, तो तुम्हारी क्या गति होगी? तुम तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम कहां बिठाओगे उसे? तुम कैसे उसका स्वागत करोगे? तुम तो भाग खड़े होओगे अपने घर से।
तुम्हारे पास न सिंहासन है, क्योंकि सिंहासन कोई सोने का बनाना होता तो तुम बना भी लेते। सिंहासन हृदय का बनाना है। सिंहासन प्रेम का बनाना है। सोना तो बाजार में मिल जाएगा, प्रेम कहां पाओगे? महल बनाना होता, तो बहुत महल हैं, बन जाते, मिल जाते। फिर तो सम्राटों के घर परमात्मा उतर आता। लेकिन भीतर महल को बनाना है। शून्य का महल बनाना है, ध्यान का महल बनाना है। बड़ा कठिन है। लंबी यात्रा है।
तुम जहां हो, अगर तुमने समझ लिया कि यही घर है, तो तुम गृहस्थ। और अगर तुमने समझा कि धर्मशाला है, थोड़ी देर टिके हैं, विश्राम करते ही आगे जाना है...।
एक बहुत पुरानी सूफी कहानी है। एक सूफी फकीर से किसी ने पूछा कि परमात्मा को पाने का राज क्या है? तो उसने कहा कि मैं तुझसे एक कहानी कहता हूं। और उसने कहा कि एक लकड़हारा था और वह लकड़ियां काटता रोज, जंगल से शहर लाता। वह रोज यही करता रहा पूरे जीवन। इतना भी न कमा पाता कि दो जून रोटी मिल जाए। एक बार कभी रोटी मिल जाती, तो रात कभी भूखा सोता।
एक फकीर जंगल में रहता था। वह इसे रोज देखता था। उसे दया आ गयी। उसने कहा कि तू बहुत नासमझ है। जरा जंगल में और आगे क्यों नहीं जाता? उस लकड़हारे ने कहा, आगे जाने से क्या होगा? फकीर ने कहा, तू जरा आगे जा। तू यहीं से लकड़ियां काट कर लौट जाता है। नाहक दरिद्र है। जो जरा और आगे गया, समृद्ध हो गया! क्योंकि और आगे तांबे की खदान है।
वह आदमी थोड़ा और आगे गया। तांबे की खदान मिल गयी। वह तांबा बेचने लगा ला कर। फिर कुछ दिन बाद वह फकीर मिला। और उसने कहा कि नासमझ, अब भी तुझे खयाल नहीं आया? अब लकड़ियों से तुझे तांबा मिल गया। तो थोड़ा और आगे क्यों नहीं जाता? चांदी की खदान है।
जरा और आगे गया, चांदी की खदान मिल गयी। वह संपन्न होने लगा।
वह फकीर फिर एक दिन गुजरता था। और उसने कहा कि तुझे अक्ल है या नहीं? तू मंत्र को समझ ही नहीं रहा। और आगे जा! सोने की खदान है।
वह आदमी और आगे गया, लेकिन सोने में उलझ गया। हमारे जैसा ही लकड़हारा होगा! जहां पहुंच जाते हैं, वहीं उलझ जाते हैं। जहां बैठ गए, वहां से उठने का नाम ही नहीं लेते। उस फकीर ने कहा कि नासमझ, तुझे कितनी बार मैंने कहा कि और आगे! आगे सोने की खदान है। वह और आगे गया और सोने की खदान में उलझ गया, जहां कि बहुत लोग उलझ गए हैं।
फकीर ने एक दिन उसके पास से गुजरते हुए कहा, तुझे कभी भी अक्ल न आएगी। तू जड़-बुद्धि का जड़-बुद्धि रहा। तू बाहर से अब संपन्न हो गया, लेकिन भीतर अब भी दरिद्र है। मुझे तुझ पर दया आती है। तुझसे कितनी बार कहा है, और आगे। आगे हीरों की खदान है। वह और आगे गया।
फिर कई वर्षों के बाद फकीर वहां से गुजर रहा था। तब वह हीरों में उलझा था। उसने बड़े महल खड़े कर लिए थे। उसके पास बड़ा धन था, अंबार थे। फकीर ने कहा, तू एक दया का पात्र, दया का पात्र ही बना हुआ है। तू भीतर गरीब का गरीब है। जैसा तू लकड़हारा था, वैसा ही अब है। क्योंकि सोना, संपत्ति, हीरे, जवाहरात सब बाहर हैं। तू और आगे क्यों नहीं जाता?
उस आदमी ने कहा, क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो? तुम मुझे चैन से क्यों नहीं रहने देते? तुम क्यों और आगे, और आगे, लगाए हुए हो? अब क्या और आगे मिल सकता है? अब हीरे मिल गए!
उस फकीर ने कहा, और आगे मेरा आश्रम है। और असली हीरे तुझे मैं दे सकता हूं। वे ध्यान के हीरे हैं। अभी तक तू बाहर की खदानें ही खोजता रहा। और आगे भीतर की खदान शुरू होती है।
उसने तब तक तो सुना था, लेकिन अब उसने कहा कि यह जरा ज्यादा...। मेरी समझ के बाहर है। मुझे तो यहीं रुक जाने दें।
फकीर ने कहा, तेरी मर्जी। लेकिन यह खदान जो और आगे है, सदा नहीं रहेगी। क्योंकि मैं आज हूं, कल नहीं हो जाऊंगा। जो खदानें तूने अब तक पायी हैं, वे सदा रहेंगी। हम रहें या न रहें। हमसे पहले थीं, हमसे बाद भी रहेंगी।
ध्यान की खदान कभी-कभी प्रकट होती है। हजारों वर्षों में कभी-कभी प्रकट होती है। कभी कोई आदमी उस खदान को खोज लेता है और द्वार बन जाता है। उसी को नानक गुरु कहते हैं। और उसी के द्वार को नानक गुरुद्वारा कहते हैं। जिस आदमी के जीवन में ध्यान की खदान आ जाती है, वह द्वार बन जाता है। लेकिन वह सदा नहीं रहता। और तुम ऐसे अंधे हो कि तुम उस द्वार के पास से भी निकल जाओगे, वह तुम्हें दिखायी न पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारी नजर तो दृश्य धन पर लगी है, अदृश्य धन की तो तुम्हें कोई खबर नहीं है।
यह और आगे का सूत्र जिस आदमी को खयाल में बना रहता है...तब तक तुम इस मंत्र को मत भूलना जब तक परमात्मा ही न मिल जाए। उसके पहले जो राजी हो गया, वह भटक गया, वह गृहस्थ हो गया। इसलिए संन्यासी की अतृप्ति का कोई अंत नहीं है। परमात्मा को ही पी लेगा तभी प्यास को बुझाएगा। उससे छोटे पानी उसके काम के नहीं हैं।
नानक इसलिए इस संसार को धर्मशाला कहते हैं। उनका सूत्र समझें।
राती रुति थिति वार। पवन पानी अगनी पाताल।।
तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल।
परमात्मा ने रात, ऋतु, तिथि, वार, हवा, पानी, आग और पाताल रच कर, उस सब के बीच धरती को धर्मशाला के रूप में स्थापित किया। उसके बीच उसने रंग-रंग के जीवों का विधान किया, जिनके नाम अनेक और अनंत हैं। वहां अपने-अपने कर्म के अनुसार उनका विचार होता है।
तो पहली तो बात, यह संसार धर्मशाला है, सराय है। इसे तुम जितने गहरे अपने भीतर ले जा सको, उतना ही उपयोगी है। क्योंकि जितनी यह बात तुम्हारे भीतर उतर जाए कि तुम जहां हो वहीं रुके रहना मौत है--और आगे, और आगे, और आगे--जब तक कि परमात्मा का ही द्वार न आ जाए, तब तक यात्रा जारी रखना। तब तक यात्रा बंद मत करना। तब तक थको तो विश्राम कर लेना, लेकिन विश्रामगृह को घर मत बनाना।
थकान होगी, क्योंकि यात्रा बड़ी है, मंजिल दूर है। हजारों बार तुम भटकोगे। क्योंकि कोई बंधा-बंधाया रास्ता नहीं है। कोई राजपथ नहीं है। कोई हाई-वे नहीं है कि तुम चले जाओ। आदमी चल कर ही अपना रास्ता बनाता है। परमात्मा का मार्ग इसलिए दूर है। जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं और उनके पैरों के कोई चिह्न नहीं छूटते; ऐसे ही परमात्मा के आकाश में सिद्ध-पुरुष चलते हैं, पहुंच जाते हैं, पर उनके पैरों के कोई चिह्न नहीं छूटते। आकाश फिर खाली का खाली होता है।
तुम जब चलोगे, तब तुम किसी के चरण-चिह्नों पर नहीं चल सकते। उधारी सत्य के जगत में संभव नहीं है। सत्य कोई दूसरा तुम्हें दे नहीं सकता। इशारे मिल सकते हैं। प्रेम मिल सकता है। गुरु की कृपा मिल सकती है। लेकिन सत्य तुम्हें ही खोजना पड़ेगा। उसकी कृपा तुम्हारे पैरों को मजबूती दे सकती है, मार्ग नहीं दे सकती है। उसकी कृपा तुम्हें आश्वासन दे सकती है, रास्ता नहीं दे सकती। उसकी कृपा तुम्हें, डगमगाओ न, डरो मत, इसके लिए हिम्मत दे सकती है, लेकिन मार्ग पर तुम्हीं को चलना पड़े। और मार्ग कुछ ऐसा है कि तुम चलो तो बनता है; चलने से ही बनता है। बंधा-बंधाया, तैयार मार्ग नहीं है। रेडी मेड, परमात्मा की तरफ जाने का कोई उपाय नहीं है। हर मनुष्य को अपना मार्ग खोजना पड़ता है। यही कठिनाई है, लेकिन यही गरिमा भी है। क्योंकि अगर बंधा-बंधाया मार्ग होता, बासा मार्ग होता, जिस पर लाखों लोग चल चुके होते, और तुम भी चलते, तो परमात्मा को पाने का कुछ मजा न रह जाता।
परमात्मा जब भी मिलता है किसी व्यक्ति को, तो ताजा और नया, मौलिक। जैसे तुम्हें ही पहली बार मिल रहा है। इसके पहले यह मिलन की घटना कभी घटी ही नहीं। बासा नहीं, कि दूसरे भी उससे मिल गए हैं तुमसे पहले, कि दूसरे भी उसके द्वार पर अपने चरण-चिह्न छोड़ गए हैं, कि दूसरों ने भी उसके दरवाजे पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं।
नहीं, तुम जैसे बिलकुल नए आए हो, पहली दफा आए हो। जैसे वह कुंवारा तुम्हारे लिए प्रतीक्षा कर रहा हो। परमात्मा सदा कुंवारा है। अगर बहुत लोगों से उसका विवाह पहले रच गया होता, तो जानने योग्य भी न रह जाता। उसका कुंवारापन शाश्वत है। जो भी पहुंचेगा, उसे कुंवारा पाएगा, ताजा और नया पाएगा। ऐसे जैसे सुबह की ओस ताजी होती है, जैसे सुबह की पहली किरण ताजी होती है, ठीक ऐसा ही ताजा तुम पाओगे। बंधे-बंधाए रास्ते नहीं हैं।
और न कोई नक्शा है, जो तुम्हें दे दिया जाए, कि इस नक्शे के अनुसार चलना। क्योंकि जीवन सतत परिवर्तन है। वहां सब प्रतिपल बदल रहा है। जिस ढंग से मैं पहुंचा, वह ढंग तुम्हारे काम न आएगा। वह ढंग मेरे काम आया। वह ढंग तुम्हारे काम न आएगा।
क्योंकि नानक कहते हैं, परमात्मा ने अनेक-अनेक जीव, अनेक-अनेक आत्माएं भिन्न-भिन्न रंगों और रूपों में बनायी हैं।
एक-एक व्यक्ति अनूठा है। अगर एक-एक व्यक्ति अनूठा है, तो जो मेरे काम पड़ा, वह तुम्हारे काम न पड़ेगा। मेरी समझ तुम्हारे काम पड़ सकती है, मेरा मार्ग नहीं। मेरी समझ तुम्हें मार्ग खोजने में सहयोगी हो सकती है, लेकिन तुम जो मार्ग खोजोगे वह बिलकुल तुम्हारा होगा। वह तुम्हारा निजी होगा। उस पर तुम्हारी छाप होगी। जैसे तुम्हारे अंगूठे का निशान बस तुम्हारा है। अरबों-खरबों लोग हुए हैं पृथ्वी पर, और अरबों-खरबों लोग आज हैं, और अरबों-खरबों लोग आगे होंगे, लेकिन तुम्हारे अंगूठे का निशान कभी फिर नहीं दोहरेगा। जब तुम्हारे अंगूठे का निशान तक अस्तित्व इतना मौलिक बनाता है, तो तुम्हारी आत्मा को कितनी मौलिक बनाता होगा, तुम सोच सकते हो!
नयी चिकित्सा-शास्त्र की खोजें बड़ी गहरी बातों में उलझ गयी हैं। उनमें एक गहरी बात यह है कि तुम अगर चिकित्सा-शास्त्र की किताबें पढ़ो, तो तुम हृदय का चित्र बना हुआ पाओगे। किडनी का, फुप्फस का, फेफड़ों का चित्र तुम बना पाओगे। वे चित्र केवल औसत हैं। हर आदमी का फेफड़ा अलग रंग, आकार का है। किसी दूसरे आदमी का फेफड़ा वैसा नहीं है। नवीनतम खोजें कहती हैं कि शरीर का हर अंग, हर आदमी का अनूठा है। दो आदमियों के हृदय एक जैसे नहीं हैं। अंगूठे की छाप ही नहीं, शरीर का कण-कण तुम्हारा, बस तुम्हारे जैसा है। और परमात्मा तुम्हें दुबारा पैदा नहीं करता। तुम जैसा फिर वह किसी को नहीं बनाएगा। तुम अनूठे हो। तुम्हारे पहुंचने का मार्ग भी अनूठा होगा। तुम अद्वितीय हो। तुम्हारे पहुंचने का मार्ग भी अद्वितीय होगा। मजबूरी और कठिनाई भी है, गरिमा भी यही है, गौरव भी यही है कि तुम नवीनतम, एकदम नूतन मार्ग से उस तक पहुंचोगे। वह तुम्हारे लिए बासा नहीं होगा।
यह जो बात है, अगर ठीक से समझ में आ जाए, तो इसी का अर्थ आत्मा है। मशीनें हम एक जैसी हजारों बना सकते हैं। फोर्ड की एक कार जैसी लाख कारें हो सकती हैं, दस लाख कारें हो सकती हैं। एक का कल-पुर्जा दूसरे में फिट हो जाएगा। एक कार और दूसरी कार में फर्क करना मुश्किल होगा कि क्या फर्क है? लेकिन दो आत्माएं एक जैसी नहीं होतीं। प्रत्येक आत्मा अद्वितीय होती है।
इसका अर्थ यह है--अगर इसे हम कवि और संत या भक्तों की भाषा में कहें--तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा किन्हीं यंत्रों में ढाल कर नहीं बनायी जा सकती। परमात्मा जैसे एक-एक आत्मा को अपने हाथ से रचता है। यही उसके स्रष्टा होने का अर्थ है। जैसे चित्रकार एक चित्र बनाता है। तुम उससे कहो कि दुबारा इसी को बनाओ, तो वह ठीक वैसा चित्र दुबारा न बना सकेगा। खुद वही चित्रकार भी न बना सकेगा। भेद हो जाएंगे। क्योंकि समय बीत गया। चित्रकार भी भिन्न हो गया। उसकी भावदशाएं भिन्न हो गयीं। जिस भावदशा में पहला चित्र बनाया था, अब वह भावदशा न रही।
पिकासो एक बार चित्र बना रहा था। और एक मित्र उसके पास आया। उसने देखा उसको चित्र बनाते, लेकिन वह इतना तल्लीन था। कि वापस लौट गया। फिर वह चित्र बाजार में बिका तो उस आदमी ने खरीद लिया। क्योंकि पिकासो के झूठे चित्र बाजार में बिक रहे हैं। लेकिन यह चित्र तो वह अपनी आंख से पिकासो को बनाते देख कर आया था। तो उसने खरीद लिया। लाखों रुपए उसमें लगे। चित्रकार से मिलने आया था--पिकासो से--वह मित्र। तो उसने एक बार पूछा--वह चित्र साथ ले आया--और उसने कहा कि यह चित्र प्रामाणिक तो है न? क्योंकि मैंने तुम्हें बनाते देखा था। पिकासो ने कहा कि बनाया तो मैंने ही है, लेकिन प्रामाणिक नहीं है। वह मित्र तो हैरान हुआ! क्योंकि प्रामाणिक का तो एक ही अर्थ होता है कि चित्रकार ने स्वयं बनाया है। किसी ने नकल और कापी नहीं की। आथेंटिक है, पिकासो ने कहा, इस अर्थ में कि मैंने बनाया है। और आथेंटिक नहीं है, क्योंकि मैंने केवल अपने पहले बनाए हुए चित्रों की प्रतिकृति की है। बनाते वक्त मैं रचनाकार नहीं था। बनाते वक्त मैं सिर्फ कापी कर रहा था--अपने ही चित्रों की--लेकिन बनाते वक्त मेरा स्रष्टा मौजूद नहीं था। उस मित्र ने पूछा, स्रष्टा का तुम्हारा क्या अर्थ है? तो पिकासो ने कहा, स्रष्टा मैं तभी होता हूं जब मैं अद्वितीय बनाता हूं, यूनीक, बेजोड़! और जब मैं नकल करता हूं तब कैसा स्रष्टा!
इसलिए कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, जब वस्तुतः कोई मौलिक चीज बनाते हैं, तब परमात्मा के निकटतम होते हैं। उतने ही निकट जितने भक्त, जितने संत। जितना ध्यान में बुद्ध निकट होते हैं परमात्मा के, उतना ही अजंता की मूर्तियों को, एलोरा के चित्रों को खोदता हुआ चित्रकार भी होता है। ये दूसरे मार्ग से।
जब भी तुम किसी चीज का सृजन करते हो, और अगर सृजन मौलिक है, तुम नकल नहीं कर रहे हो, इमिटेशन नहीं है, तो इससे बड़ी कोई प्रार्थना नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा के तुम निकटतम हो। तुम उसके ही जैसे हो उस क्षण में। तुम भी स्रष्टा हो। इसलिए सृजन का इतना आनंद है। तुम छोटी सी भी चीज बना लेते हो तो कितने प्रसन्न होते हो।
एक छोटा सा बच्चा ताश का घर बना लेता है, तो खबर करता है आस-पड़ोस में कि मैंने एक घर बना लिया। एक रेत में घर बना लेता है, जो अभी गिर जाएगा क्षण भर बाद। लेकिन बच्चे की खुशी देखो! वह नाच रहा है।
जीवन में आनंद के क्षण सृजन के क्षण हैं। जब तुम बनाते हो, तब तुम आनंदित होते हो। और जिनके जीवन बिना सृजन के बीत जाते हैं, उनके जीवन में सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं होता।
क्यों ऐसा है? जब तुम कुछ बनाते हो तो क्यों आनंदित होते हो? क्योंकि बनाने के क्षण में एक झलक स्रष्टा की मिलती है। वह स्रष्टा है, तुम भी उस क्षण में छोटे-मोटे स्रष्टा हो जाते हो। तुम एक बगीचे में पौधा लगाओ, और जब पौधे में फूल आए तब तुम्हें एक आनंद होगा। वह आनंद वही है। बड़ी छोटी मात्रा में, निश्चित ही बूंद की तरह है, लेकिन आनंद वही है जो परमात्मा को सारे जगत को खिलता हुआ देख कर होता है। मात्रा का भेद हो, गुण का भेद नहीं है।
नानक कहते हैं, उसने रंग-रंग के जीवों का विधान किया, जिनके नाम अनेक हैं और अनंत हैं।
यह जो परमात्मा का फैलाव है, जो सृजन है, क्रिएटिविटी है, अगर तुम इसे पहचान लो-- परमात्मा को पहचानना तो मुश्किल है, क्योंकि वह तो छिपा हुआ है--लेकिन अगर तुम उसकी दृश्य-कृति को पहचान लो, तो पहली पहचान हो गयी। एक कदम उठ गया। देखो जगत को! एक गहन व्यवस्था से आपूरित है। चांद उगता है, सूरज उगता है, तारे घूमते हैं। ऋतु आती है, फूल खिल जाते हैं। सुबह होती है, पक्षी चहचहाते हैं। झरने बह-बह कर सागर पहुंचते रहते हैं। सागर बादलों में उमड़-घुमड़ कर वापस झरनों में बरसता रहता है। एक व्यवस्था है। जगत एक कासमास है, केयास नहीं। एक अराजकता नहीं है। एक सुसंबद्ध व्यवस्था है। इस महत व्यवस्था को अगर तुम पहचानने लगो...।
जितना तुम इस व्यवस्था को पहचानोगे और जितना तुम्हें जगत में चलते हुए नियम की धारा दिखायी पड़ेगी, उतना ही तुम्हें परमात्मा का हाथ स्मरण आने लगेगा। क्योंकि व्यवस्था बिना हाथों के नहीं हो सकती। और जहां इतनी विराट व्यवस्था है वहां इतने ही विराट हाथ होंगे। इसलिए तो हिंदू कहते हैं कि उसके हजार हाथ हैं। हजार का मतलब अनंत हाथ हैं। क्योंकि दो हाथों से यह कृत्य नहीं हो सकता। यह जो अनंत अस्तित्व है, यह अनंत हाथों से ही संभाला जा सकता है।
नानक कहते हैं, उसी ने बनायी रात, उसी ने बनायी ऋतु, उसी ने बनायी तिथि, उसी ने बनायी हवा, पानी, आग, पाताल, पृथ्वी। सब उसने बनाया है। और इन सब के बीच में उसने बनायी पृथ्वी, कि तुम इस अनंत की यात्रा में विश्राम कर सको।
लेकिन वह धर्मशाला है। वहां तुम घर बना कर मत बैठ जाना। लोग अनेक-अनेक तरह के घर बना-बना कर बैठ गए हैं। भूल ही गए हैं। जैसे कोई आदमी रात धर्मशाला में ठहरे और सुबह भूल ही जाए कि धर्मशाला है। और फिर वहीं रहने लगे। और धर्मशाला की ही उलझन को अपनी उलझन बना ले। धर्मशाला की चिंता को अपनी चिंता समझ ले। फिर परेशान हो, पीड़ित हो, दुखी हो और पूछता फिरे शांति का मार्ग। और जब भी कोई उससे कहे कि धर्मशाला को तुम घर क्यों बनाए हुए हो? तभी वह कहे कि अभी छोड़ना बहुत मुश्किल है। अभी जरा कठिनाई है। समझ में तो मुझे भी आता है। लेकिन जरा वक्त की जरूरत है। धीरे-धीरे छोडूंगा।
सवाल धीरे-धीरे छोड़ने का नहीं है। सवाल छोड़ने का है ही नहीं। सवाल देखने का है। देखने के लिए क्या समय लगाने की जरूरत पड़ती है! एक क्षण में दिखायी पड़ जाता है। देखने के लिए समय बिलकुल ही गैर जरूरी है। अगर तुम देखने को राजी हो, तो तुम्हें बिलकुल साफ दिखायी पड़ सकता है कि जहां तुम हो वह धर्मशाला है। क्योंकि तुम सदा तो वहां न थे।
जन्म के पहले तुम कहां थे? मरने के बाद तुम कहां होओगे? थोड़े से दिन का मेला है। और इन थोड़े से दिन में तुम इतने जड़ हो कर चिपक गए हो! जो है, उसको भी पकड़ लिया है। जो नहीं है, उस तक को तुम पकड़े हुए हो। आदमी के पास जो संपत्ति है, उसको तो वह पकड़ता ही है; भविष्य की जो वासनाएं हैं और सपने हैं, उनको भी पकड़े हुए है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक घर बनाया। वह मुझे दिखाने ले गया। उसने बड़ा बगीचा लगाया था। उसमें स्नान के लिए तालाब बनाए। उसने कहा कि यह गर्म पानी का तालाब है। यह सर्दियों में स्नान के लिए बनाया है। फिर उसने कहा कि यह ठंडे पानी का तालाब है। यह दूसरा तालाब है। यह हमने गर्मियों में स्नान के लिए बनाया है। फिर उसने तीसरा तालाब बताया कि यह बिना पानी का तालाब है। मैंने उससे पूछा कि यह किसलिए बनाया है? उसने कहा कि यह उन समयों के लिए जब न नहाना हो, उस मौके के लिए।
आदमी नहाने का भी इंतजाम करता है और न नहाने का भी इंतजाम करता है। जो तुम्हारे पास है उसका भी तुम इंतजाम करते हो; जो तुम्हारे पास नहीं है उसका भी तुम इंतजाम करते हो। तुम जो है उसकी तो पीड़ा से भरे ही हो, जो कभी होगा वह चिंता भी तुम्हें घेरती है। तुम कभी अपने मन को गौर से देखो, तो तुम पाओगे कि वह अतीत की चिंताओं से भरा है, जो अब हैं ही नहीं। कोई घटना जो बीस साल पहले घटी थी, वह तुम्हारे मन में चलती है। वह बची ही नहीं है। अब कुछ भी नहीं बचा है। और कोई बात जो बीस साल बाद होगी, उसका तुम विचार कर रहे हो। तुम अपनी चिंताओं को हजार गुना कर लेते हो।
और किसके लिए तुम चिंतित हो रहे हो? रास्ते पर बने हुए एक सराय के लिए। और इस सराय में जिनसे तुम्हारा मिलना हो गया है, तुम उनके लिए बड़े परेशान हो रहे हो। पति है, पत्नी है, बेटा है, मां है, पिता है, और सब की मुलाकात सराय में हुई है। रास्ते के किनारे मिलना हो गया है। और तुम भारी परेशान हो। तुम्हें एक भर चिंता नहीं है कि तुम घर को खोजो। और सब चिंताएं तुम्हारे पास हैं।
नानक कहते हैं, इस पृथ्वी को उसने धर्मशाला की तरह बनाया।
इस प्रतीक को ठीक से समझ लेना।
और वहां अपने-अपने कर्म के अनुसार उनका विचार होता है।
और इस जगत में तुम जो भी कर रहे हो, वह बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि अंततः तुम्हारे जीवन की नियति उसी से निर्धारित होगी। जगत है धर्मशाला, जहां रुक कर आगे बढ़ जाने की जरूरत है। लेकिन तुम वहां बहुत से कामों में लगे हो। धर्मशाला तो छीन ली जाएगी, काम का जाल तुम्हारे पास रह जाएगा। मरोगे तुम, धर्मशाला तो छूट जाएगी पीछे, लेकिन तुम ने धर्मशाला में जो किया, वह तुम्हारा अनुगमन करेगा। वह तुम्हारी छाया हो जाएगी। वह तुम्हारा जन्मों-जन्मों तक पीछा करेगा। और अंतिम निर्णय, तुमने क्या किया, क्या तुम्हारे कर्म थे, उन पर निर्धारित होगा।
अब यह थोड़ा सोच लेने जैसा है। अगर तुम्हें याद आ जाए कि तुम धर्मशाला में हो और यह याद बनी रहे, तो बहुत से कर्म तो तत्क्षण विलीन हो जाएंगे। तुम क्या पत्नी पर क्रोध करोगे? क्रोध का प्रयोजन क्या है? दो क्षण का मिलना है, फिर छूट जाना है। इस दो क्षण में तुम पत्नी को अपना मान लेते हो, इसीलिए क्रोध भी करते हो। अपना मान लेते हो, इसलिए झगड़ते भी हो। पत्नी तो छूट जाएगी। क्योंकि मौत के समय तुम पत्नी को अपने साथ न ले जा सकोगे। लेकिन तुमने जो क्रोध किया, तुमने जो नाराजगी की, तुमने जो दुख पहुंचाया, वह सब कृत्य तुम्हारे साथ चले जाएंगे। सपने तो टूट जाएंगे, लेकिन सपनों में तुमने जो किया, वह तुम्हारा पीछा करेगा। यह सौदा महंगा है। यह सौदा बिलकुल ही महंगा है। इससे मिलता तो कुछ नहीं सिवाय खोने के। संसार में आदमी पाता कुछ नहीं, सिर्फ खोता है।
नानक कहते हैं, इस धर्मशाला में अगर तुम स्मरण रख सको कि यह धर्मशाला है, तो तुम्हारे निन्यानबे प्रतिशत कृत्य तो बंद हो जाएंगे। तुम रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठे हुए हो, या विश्रामगृह में बैठे हुए हो, वेटिंग रूम में, वहां तुम कैसा व्यवहार करते हो? वहां किसी आदमी का चलते वक्त अगर तुम्हारे पैर पर जूता भी पड़ जाता है, तो भी तुम कहते हो स्टेशन है, भीड़-भड़क्का है। तुम नाराज नहीं होते।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बहुत जीवन के देरी तक शादी नहीं की। जब वह पचास साल का हो गया तो मित्रों ने उससे पूछा कि तुम रुके क्यों हो? शादी क्यों नहीं कर लेते? उसने कहा कि ऐसा हुआ कि मैं एक सिनेमागृह के बाहर निकल रहा था। और एक स्त्री के पैर पर मेरा पैर पड़ गया। वह झपट कर लौटी! और जैसे रण-चंडिका हो, काली का अवतार हो। और उसकी आंखों से आग! और ऐसा लगा कि वह या तो मुझे मारेगी, या मेरी गर्दन दबा देगी, या झपट पड़ेगी। लेकिन तभी वह एकदम शांत हो गयी मुझे देख कर। और उसने कहा, कोई बात नहीं। मैं समझी कि मेरा पति है। तभी मैंने तय कर लिया कि शादी की झंझट में नहीं पड़ना है।
पराया आदमी है, क्या झंझट लेनी है! हो गयी भूल उससे, पैर पर पैर पड़ गया। हम परायों को माफ कर देते हैं, लेकिन अपनों को माफ नहीं कर पाते। बड़ी हैरानी है, अजनबी को हम क्षमा कर देते हैं। निकट जो है, उसे क्षमा नहीं कर पाते। क्यों? क्या कारण है? अजनबी और निकट में फर्क क्या है? अजनबी अजनबी है, उससे संबंध धर्मशाला का है। निकट जो है, वह अजनबी नहीं रहा है, ऐसी हमारी भ्रांति है। उससे संबंध घर का है।
जो आदमी इस पूरे संसार को धर्मशाला समझ लेगा, उसके लिए सभी अजनबी हैं, स्टें्रजर्स हैं--हैं भी! पत्नी चाहे तीस साल तुम्हारे पास रहे, क्या तुम सोचते हो, अजनबी नहीं रही? क्या तुम सोचते हो, तीस साल साथ रहने से जो पराया है वह अपना हो जाता है? भ्रांति होती है। अपना तो हो ही नहीं सकता कोई इस जगत में। अपना होने का यहां उपाय नहीं है। अपना तो सिर्फ परमात्मा हो सकता है। लेकिन उसकी तुम्हें कोई खोज नहीं है। तुम अजनबियों को अपना मान कर बैठे हो।
एक बेटा तुम्हारे घर पैदा हुआ। तो तुम सोचते हो कि तुमसे पैदा हुआ, इसलिए अजनबी नहीं है। तो जिंदगी तुम्हें गलत सिद्ध करेगी। बाप भी तो बेटे के जीवन के संबंध में कुछ तय नहीं कर पाता। बाप कुछ बनाना चाहता है, बेटा कुछ बनता है। बाप कुछ और चाहता था, बेटा कुछ और होता है। बाप की आकांक्षा कुछ और थी, बेटे की अभीप्सा कुछ और है। कौन बाप अपने बेटे से तृप्त होता है? तुमने कोई बाप देखा जो बेटे से तृप्त हो? तुमसे पैदा हुआ, लेकिन अजनबी है। बाप भी तो प्रेडिक्ट नहीं कर सकता बेटे को कि क्या इसका भविष्य होगा। बाप भी तो तय नहीं कर सकता कि बेटे को वही बना ले जो बनाना चाहता है। बड़े से बड़े बाप हार जाते हैं। कोई उपाय नहीं है। पति लाख चेष्टा करता है पत्नी को सुधारने की। पत्नी कितनी चेष्टाएं करती है पति को सुधारने की। कौन किसको सुधार पाता है? सुधारने में बिगाड़ हो जाता है भला, सुधार तो नहीं हो पाता।
क्योंकि हम सब अजनबी हैं। हम सब अपने-अपने कर्मों से जी रहे हैं। हमें कोई दूसरा न सुधार सकता है, न बदल सकता है। हमारी अपनी-अपनी अलग-अलग यात्रा है। थोड़ी देर को चौराहे पर मिल गए हैं। और इस मिलने को हमने इतना ज्यादा मान लिया है।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम एक स्त्री के साथ सात चक्कर लगा लिए अग्नि के? सात चक्कर लगाने से कोई स्त्री तुम्हारी हो जाएगी? सात क्या, तुम सात हजार चक्कर लगाओ। सात तो शुरुआत है, जिंदगी में कितने लाख चक्कर लगाने पड़ते हैं! कुछ हल नहीं होता। तुम जहां थे वहीं हो।
यहां इस संसार में परायापन मिट ही नहीं सकता। यहां तुम कितने ही निकट आ जाओ तो भी दूरी रहेगी। यही तो पीड़ा है सभी प्रेमियों की। प्रेमी चाहता है कि इतने निकट आ जाए कि दूरी न रहे। लेकिन जितने ही तुम निकट आते हो, उतने ही तुम पाते हो, दूरी है। दूर थे, तो यह भी खयाल था कि शायद पास आएंगे तो दूरी मिट जाएगी। पास आ-आ कर पता चलता है कि दूरी के मिटने का उपाय ही नहीं है। दूरी का मिटना असंभव है। तुम बिलकुल पास-पास बैठ सकते हो। शरीर ही पास-पास होंगे, तुम्हारी भीतरी दूरी तो बनी ही रहेगी। तुम अपने खयाल में, तुम्हारी प्रेयसी अपने खयाल में। तुम्हारे पास तुम्हारा मन है, तुम्हारी प्रेयसी के पास उसका मन है। इन दोनों का कैसे मिलना होगा! इस जगत में मिलन झूठा है। बिछोह सच है। मिलन सपना है। मिलन तो सिर्फ परमात्मा से हो सकता है। एक ही मिलन है।
इसलिए तो कबीर, नानक और दादू गाए चले जाते हैं कि हम राम की दुलहनियां हैं। कबीर कहते हैं कि बस, हम समझ गए कि दुल्हन तो सिर्फ राम की ही हुआ जा सकता है। वहीं मिलना पूरा होगा। जहां सब बाहर-भीतर की दूरी गिर जाएगी। वहीं प्यास तृप्त होगी। वहीं हम उससे मिलेंगे जो हमारा है। वहीं हम बिछोह को समाप्त कर पाएंगे।
उसके पहले तो व्याकुलता रहेगी। कितने ही कुओं से पानी पीयो, प्यास न बुझेगी। कितने ही घाटों पर भटको, भटकाव ही रहेगा। सिर्फ उस एक के घाट पर भटकाव मिटता है। और उसकी हमें चिंता नहीं है। और तुम जो कर रहे हो इस भटकाव की अवस्था में, वे सब कर्म तुम्हारे साथ इकट्ठे हो रहे हैं। वे सब संगृहीत हो रहे हैं। और उन सब संगृहीत कर्मों से तुम्हारा आगे का जीवन तय होगा।
इसे थोड़ा समझो। तुम जो भी करते हो, उससे तुम्हारा भविष्य रोज तय होता है। अगर तुमने आज सुबह उठ कर क्रोध किया, तो तुम एक संस्कार पैदा कर रहे हो। अगर तुमने कल सुबह भी उठ कर क्रोध किया था, तो संस्कार और भी गहरा है। अगर परसों सुबह उठ कर भी तुमने क्रोध किया था, तो संस्कार की मजबूत लकीर बन गयी। अब कल सुबह जब तुम उठोगे, तो बहुत संभावना है कि तुम फिर क्रोध करो। क्योंकि आदमी संस्कार से जीता है, जब तक कि आदमी प्रबुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाए। सिर्फ बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति संस्कार से नहीं जीता। वह आदत से नहीं जीता। वह होश से जीता है। तुम तो आदत से जीते हो। जो कल हुआ था, वही आज हो रहा है। जो आज होता है, वही कल होगा। तो
तुम जो भी कर रहे हो उससे तुम आदतें निर्मित करते हो। कर्म का सिद्धांत बहुत वैज्ञानिक है। उसका फलसफा से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सीधी-साधी बात है। वह मनोविज्ञान का सीधा सा तथ्य है कि तुम जो करते हो उसको करने की वृत्ति बढ़ती जाती है। तो जो तुम नहीं करते हो, उसको न करने की वृत्ति बढ़ती चली जाती है। करना एक आदत हो जाती है। तुम यंत्रवत उसे करते रहते हो। लौट कर अपने जीवन को विचार करो, तो तुम पाओगे कि तुम एक पुनरुक्ति हो, रिपिटीशन। तुम वही-वही रोज करते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि हम क्रोध नहीं करना चाहते, लेकिन हो जाता है। फिर मैं उनसे पूछता हूं कि जब हो जाता है, तब तुम क्या करते हो? तो वे कहते हैं कि जब हो जाता है, तब फिर हम पछताते हैं। फिर हम दुखी होते हैं। तो मैं उनसे कहता हूं कि तुम एक काम करो। क्रोध की तो फिक्र छोड़ो, तुम पछताना छोड़ दो कम से कम। वह तो कर सकते हो! वे कहते हैं, आप कैसी उलटी शिक्षा दे रहे हैं! पछता-पछता कर हम क्रोध छोड़ नहीं पाए! और अगर पछताना छोड़ देंगे, फिर क्रोध कैसे छूटेगा? मैंने कहा कि तुम अपनी ही जिंदगी को देखो। पछता-पछता कर तुम छोड़ नहीं पाए, अब मैं तुमसे कहता हूं कि तुम बिना पछता कर प्रयोग करके देख लो। कम से कम आदत का आधा हिस्सा तो तोड़ो। क्रोध करते हो फिर पछताते हो, यह पूरी आदत है तुम्हारी। क्रोध छोड़-छोड़ कर तुम कोशिश कर लिए, वह नहीं छूटा। दूसरे हिस्से से कोशिश करो। कम से कम पछताना तो छोड़ दो, उसमें तो कुछ महंगा नहीं है। क्रोध में तो समझो कि महंगा है। लगता है कई दफा करना जरूरी है। लेकिन पछताना तो तुम्हारा व्यक्तिगत है। इसमें तो किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
क्रोध में तो दूसरा आदमी भी सम्मिलित है। किसी ने गाली दी, अब कैसे क्रोध न करें! और न करें तो लोग क्या कहेंगे? और इस तरह अगर जाने दिया एक आदमी को गाली देते, और गांव में खबर लग गयी तो हर कोई गाली देगा। तो क्रोध तो सामूहिक है, पछतावा तो अकेला है। उसमें तो किसी का कुछ लेना-देना नहीं है। उसमें तो दूसरे का कोई भी संबंध नहीं है। अकेले में बैठ कर पछताते हो। कृपा कर के उसको छोड़ो। वह आदमी कुछ दिन बाद आता है और कहता है कि जितनी मुसीबत क्रोध छोड़ने में है, उतनी ही मुसीबत पछतावा छोड़ने में है।
एक महिला मेरे पास आती है। उनके पति शराबी हैं। आज बीस साल से वह उनके पीछे पड़ी है। जब से वह ब्याही है तब से वह यही काम कर रही है कि शराब न पीयो। वे शराब पीए जाते हैं, वह पीछे पड़ी है। उसने मुझ से कहा कि इनकी आदत नहीं छूटती, हद हो गयी। इनको किसी तरह समझाएं। मैंने कहा कि तू एक काम कर। तीन महीने तू इनके पीछे मत पड़। इनको तो शराब की आदत है। शराब तो जरा केमिकल मामला है। क्योंकि बीस साल से जो आदमी शराब पी रहा है, उसके शरीर के रोएं-रोएं में शराब चली गयी है। उसके खून में शराब है। और अभी यह उसके एकदम बस की बात नहीं है कि एकदम से शराब छोड़ देना। खैर, इनकी मैं पीछे फिक्र कर लूंगा। पहले तू सबूत दे एक बात का कि तू तीन महीने इनके पीछे न रहेगी।
तीसरे दिन आ कर उसने कहा कि यह मुझ से नहीं हो सकता। मेरी भी आदत पड़ गयी है। तो मैंने उसको कहा कि अब तू समझ कि इस तेरे पति की कितनी मुसीबत है। तू कहना तक नहीं छोड़ सकती। कहने का कौन सा नशा है? कहने का कोई केमिकल! कोई भी तो नहीं है। कहना ही छोड़ देना है। पीने दे। बीस साल कह कर भी शराब बंद नहीं हुई है, सिर्फ तीन महीने की बात है। तू तीन महीने इनसे मत कह। तो तू एक सबूत देगी कि तू आदत छोड़ सकती है। तो फिर मैं इनके भी पीछे पडूं, कि जब तेरी पत्नी आदत छोड़ सकती है...। मगर वह तीन महीने पूरे नहीं कर पाती। मैंने कहा, जब तक तू तीन महीने पूरे न करे, तब तक तेरे पति से मैं कुछ कहने वाला नहीं।
अब तो वह समझ गयी कि मुश्किल है। क्योंकि वह कहती है, दिन भर भी बीतना मुश्किल हो जाता है। दिन में कम से कम आठ-दस दफा की आदत है टोकने की। पति दिन में दो दफे शराब पीते हैं। वह दस दफे टोकती है, वह भी शराब है। सब आदतें शराब हैं। और जब तुम पुनरुक्ति करते हो, तुम उनको मजबूत करते हो।
कर्म का सिद्धांत सिर्फ इतना ही कहता है कि जो तुम करते हो, उसको करने की संभावना बढ़ जाती है। जो तुम नहीं करते, उसको न करने की संभावना बढ़ जाती है। ठहरे हो धर्मशाला में और व्यवहार ऐसा कर रहे हो जैसे घर में हो। यह गलत आदत बना रहे हो। धर्मशाला तो छूटेगी, वह तुम्हारी है ही नहीं। लेकिन जो तुमने धर्मशाला में किया, वह साथ चला जाएगा, वह तुम्हारा है। कर्म के अतिरिक्त तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं जा रहा है। इसलिए सोच-समझ कर करना।
हीरा तुमने उठा लिया किसी का। वह हीरा तो पड़ा रह जाएगा जब तुम मरोगे। लेकिन तुमने उठाया था, यह कृत्य तुम्हारे साथ चला जाएगा। तुम जो कर रहे हो, वही तुम्हारी संपदा बन जाएगी। 
अगर तुम गलत कर रहे हो, तो तुम अपने भविष्य को गलत दिशा में मोड़ने के उपाय कर रहे हो। अगर तुम ठीक कर रहे हो, तो ठीक दिशा में मोड़ने के उपाय कर रहे हो। और अगर तुम सजग हो कर जी रहे हो, तो तुम मुक्त होने का उपाय कर रहे हो। क्योंकि जितना आदमी सजग होता है, उतनी आदत टूटती है। तब वह आदत से नहीं जीता। तब वह होश से जीता है। तब वह प्रत्येक परिस्थिति में होश से निर्णय लेता है, अतीत की आदत से नहीं। किसी ने गाली दी; तुम्हारी पुरानी आदत है कि जब भी कोई गाली दे, बस खड़े हो जाओ झगड़ने को।
एक हवाई जहाज में पाइलट और एक यात्री का झगड़ा हो गया। गाली-गलौज की स्थिति आ गयी। पाइलट बड़े बेहूदे शब्द बोलने लगा। वह यात्री भी बोलने लगा। एक दूसरे यात्री ने कहा कि भाइयो, यह भी तो खयाल रखो कि सभ्य महिलाएं बैठी हैं। उस यात्री ने कहा कि सभ्य महिलाएं भला नीचे उतर जाएं, मगर यह लड़ाई हो कर रहेगी।
उड़ते हवाई जहाज में, आकाश में, वह आदमी कह रहा है कि सभ्य महिलाएं भला ही नीचे उतर जाएं...। वह अपने होश में नहीं है। वह क्या कह रहा है, उसे कुछ पता नहीं है। लेकिन लड़ाई हो कर रहेगी। वह अपने बस में नहीं है। कोई भी अपने बस में नहीं है। जो बेहोश है, वह अपने बस में नहीं है। तुम जो भी कर रहे हो, बेबस कर रहे हो, किए जा रहे हो। तुम्हें साफ नहीं है, तुम क्या कर रहे हो! क्यों कर रहे हो!
थोड़ा जगो। पहला जागरण इस बात का कि यह संसार इतना मूल्यवान ही नहीं है कि इसमें तुम इतने परेशान हो। कोई आदमी तुम्हें गाली देता है; न तो वह आदमी इतना मूल्यवान है, न उसकी गाली इतनी मूल्यवान है कि तुम परेशान होओ। न तुम्हारा अहंकार इतना मूल्यवान है कि उसके लिए तुम उपद्रव खड़ा करो। यह धर्मशाला है। किसी का पैर तुम्हारे पैर पर पड़ गया, परेशान मत हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सिनेमा से बाहर आ रहा था इंटरवल में। एक आदमी के पैर पर उसका पैर पड़ा। वह आदमी तिलमिला गया। लेकिन उसने सोचा कि अंधेरा है, अभी-अभी प्रकाश हुआ है, एकदम से लोगों को दिखायी भी नहीं पड़ता अंधेरे में रहने के बाद, हो गयी होगी भूल। फिर लौट कर नसरुद्दीन आया। उस आदमी के पास आ कर पूछा कि क्या भाई साहब, आपके पैर पर मेरा पैर पड़ गया था? उस आदमी ने सोचा कि यह क्षमा मांगने आया है। उसने कहा कि हां। मुल्ला ने पीछे लौट कर अपनी पत्नी से कहा, आ जाओ, यही अपनी लाइन है। वे लाइन बनाने के लिए पैर पर पैर रख गए थे!
तो जो आदमी तुम्हें गाली दे रहा है, उसके अपने प्रयोजन होंगे। तुम्हें उसमें परेशान हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। भीड़-भड़क्का है यहां। काफी लोग हैं। सब अपना-अपना खोज रहे हैं। किसी से तुम्हें न प्रयोजन है, न तुम्हें किसी से प्रयोजन है। किसी का किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। यहां हर आदमी अपना खेल खेल रहा है। और थोड़े धक्के-मुक्के होंगे ही। क्योंकि इतनी भीड़ है, रास्ता है, इतना ट्रैफिक है।
अगर तुम थोड़ा सा इसे देख पाओ और तुम इस बोध को रख सको, क्रोध गिरेगा, घृणा गिरेगी,र् ईष्या गिरेगी, जलन...और उनसे पैदा होने वाले कृत्य विदा हो जाएंगे। जिस दिन तुम्हारे घृणा से संबंधित कृत्य गिर जाएंगे, उसी दिन तुम्हें लोगों पर दया आने लगेगी। क्योंकि हर आदमी मूर्च्छित है। कल क्रोध आता था, अब दया आएगी। और तुम्हें लगेगा हर आदमी भटका हुआ है। लोग अंधेरे में जी रहे हैं। किसी का कोई कसूर नहीं है। लोग सोए हुए हैं। सोया हुआ आदमी बड़बड़ा रहा हो, गाली बक रहा हो, तो भी तुम कुछ न कहोगे। नींद में है, तुम कहोगे। लेकिन यही हालत सब की है।
एक शराबी गाली दे रहा हो, तो तुम कहते हो शराबी है, पी गया है। लेकिन यही हालत सब की है। जन्मों-जन्मों के कर्मों की शराब है। गहरी नींद है। तुम्हें दया आएगी। अगर तुम थोड़े भी जगोगे, तो तुम्हें दया आएगी कि चारों तरफ इतने लोग कितनी परेशानी उठा रहे हैं। धर्मशाला को घर समझे हुए हैं। अदालतों में मुकदमे लड़ रहे हैं कि धर्मशाला किसकी है।
तुम्हें दया आनी शुरू होगी। और तुम्हारी दया के साथ ही, तुम्हारे कृत्यों का रूप बदलेगा। जहां कृत्य पाप थे, वहां पुण्य होने लगेंगे। जहां तुम दूसरे को नुकसान पहुंचाने को तत्पर हो जाते थे, वहां दूसरे को सहारा देने को तत्पर हो जाओगे। जो तुम्हें गाली देगा, उसको भी सहारा देने की दया तुम्हारे भीतर होगी।
इसलिए तो नानक कहते हैं, ज्ञान और दया। ज्ञान यानी जागरण, और दया यानी तुम्हारे कृत्यों में जागरण के कारण हुआ परिवर्तन। अज्ञान भीतर, हिंसा बाहर। उन दोनों का संग है। ज्ञान भीतर, करुणा बाहर। उन दोनों का संग है।
कर्म के अनुसार विचार होगा।
अब यह बहुत मजे की बात है कि तुम अच्छी-अच्छी बातें सोचते हो और बुरी-बुरी बातें करते हो। करते तुम बुरा हो, सोचते बड़ा अच्छा हो। लेकिन तुम्हारे सोचने का कोई विचार होने वाला नहीं है। तुमने क्या सोचा, इससे कुछ हिसाब नहीं है। तुमने क्या किया, वही तुम्हारा प्रमाण है। कृत्य तुम्हारा प्रमाण है, तुम्हारा विचार नहीं। विचार तो पापी भी बड़े अच्छे-अच्छे करते हैं। कारागृहों में जा कर अपराधियों को देखो, वे भी बड़े ऊंचे विचार करते हैं। ऊंचा विचार करना तो एक तरकीब है। बुरा काम करने की तरकीब है, ऊंचा विचार करना।
इसे थोड़ा समझना। यह थोड़ा बारीक है। जब आदमी बुरा काम करता है तो उसके भीतर पछतावा होता है। जब आदमी किसी पर कठोर हो जाता है, क्रोध करता है, अपमान कर देता है, तो भीतर पछतावा होता है। भीतर लगता है, यह उचित नहीं हुआ। तो भीतर अच्छे-अच्छे विचार करता है, करुणा के, दया के, कि दुबारा मौका आने पर दया करूंगा। पछताता है कि जो किया, वह बुरा किया। इस भांति जो बैलेंस खो गया है भीतर, जो संतुलन खो गया है बुरा कर के, उस पलड़े को वह भारी कर देता है विचार के, शुभ धारणाओं के कारण। तुम अच्छा-अच्छा सोचते हो, ताकि तुम्हारी नजर में जो तुमने बुरा किया है, वह ढंक जाए। बुरे आदमी हमेशा अच्छे विचार करते हैं।
और इससे उलटा भी सही है। अच्छे कृत्य करने वाले लोग अक्सर बुरा विचार करते हैं। और अगर तुम जाग जाओगे तो तुम पाओगे कि ये दोनों स्थितियां ही भ्रांत हैं। चोर अक्सर सोचता है कि दान करूं। इसलिए तुम चोरों को दान करते पाओगे भी। चोर अक्सर सोचता है कि मंदिर बना दूं, कि गरीबों को भोजन करवा दूं, कि सर्दी आ गयी कंबल बंटवा दूं। और तुम चोरों को कंबल बंटवाते पाओगे भी। क्योंकि चोरी का दंश ऊपर होता है। लाख रुपए की चोरी की तो हजार रुपए का दान तो करने का मन होता ही है। उससे आदमी सोचता है कि संतुलन हो जाएगा। पापी गंगा स्नान करने जाता है। वहां थोड़ी दान-दक्षिणा करता है, सोचता है, सब निपट गया। घर हलका हो कर लौटता है। हलके हो कर लेकिन तुम करोगे क्या? करोगे तुम वही, जो तुमने कल किया था। अब तुम हलके मन से करोगे। यह और खतरा है। अब तुम निश्चिंत भाव से करोगे।
एक महिला एक डाक्टर के पास जा रही थी। एक मनस्विद के पास। उसके हाथ से बर्तन छूट जाने की उसे बीमारी थी। बर्तन टूट जाते, गिर जाते। और उससे वह बहुत ज्यादा नर्वस, और बहुत बेचैन, व्याकुल, कंप जाती थी। बड़ी दुखी होती थी। छः महीने की मनसचिकित्सा के बाद उसके मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि अब तो सब ठीक है? अब घबड़ाहट तो नहीं होती? बर्तन तो नहीं गिरते? उस स्त्री ने कहा कि बर्तन तो अभी भी गिरते हैं, लेकिन बाकी सब ठीक है। चिकित्सक ने कहा कि फिर बाकी सब ठीक का क्या अर्थ है? उसने कहा कि अब आपके समझाने से घबड़ाहट बिलकुल नहीं होती।
जो आदमी थोड़ा पुण्य कर लेता है, पुण्य के कारण अब घबड़ाहट बिलकुल नहीं होती। और सोचता है कि पुण्य कर के निपट गए। पाप तो खतम हो गया, अब फिर किया जा सकता है। और एक तरकीब भी हाथ में लग गयी; जब भी पाप करो, पुण्य कर लेना।
इसलिए तो यह मुल्क इतना पापी हुआ है। क्योंकि इस मुल्क को पुण्य की तरकीब हाथ में लग गयी। आज भारत जैसा पापी मुल्क खोजना कठिन है। और उसका कारण यह है कि गंगा यहां बहती है। गए, स्नान कर के आ गए। पाप किया, मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ा आए। पाप किया, हनुमान जी को एक नारियल फोड़ दिया।
हनुमान जी का कोई संबंध भी नहीं है, कोई उनका कसूर भी नहीं है। तुम्हारे पाप में कुछ लेना-देना नहीं है। और तुम उनको भी भागीदार बना रहे हो। इधर भूल की, उधर जा कर सुधार आए। फिर भूल करने को तैयार हो कर वापस आ गए। जब भी तुम बुरा करते हो, तब तुम भले विचार करते हो। ताकि भूल का जो तुम्हारे भीतर दंश, कांटा लग गया, वह निकल जाए। और तुम्हारी जो प्रतिमा भीतर अच्छे आदमी की खंडित हो गयी, वह फिर अखंड हो जाए।
लेकिन तुम्हारे विचारों का कोई हिसाब होने वाला नहीं है। तुम क्या करते हो, वही तुम बनते हो। तुम क्या सोचते हो, इससे कोई संबंध नहीं है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जब भी कोई शुभ कृत्य करना हो तब तुम टालते हो, पोस्टपोन करते हो। तुम कहते हो, कल करेंगे, जल्दी क्या है? और जब भी कोई बुरा कृत्य करना होता है, तो तुम कभी नहीं कहते कि कल करेंगे। तुम कहते हो, अभी हो जाए, इसी वक्त। जब तुम्हें किसी की हत्या करनी है, तब तुम उसी वक्त करते हो। क्यों? क्योंकि तुम भी भलीभांति जानते हो, जो टाला, वह सदा के लिए टल जाएगा, वह कभी नहीं होगा। क्रोध करना हो तो उसी वक्त करते हो। तुमने कोई आदमी देखा जो कहे कि अच्छा भाई, अभी हम जरा काम में हैं, कल आ कर क्रोध करेंगे। तुमने गाली दी, वह हजार काम छोड़ देता है। पत्नी मर रही हो, वह दवा लेने जा रहा था। वह कहता है, मर जाए कल की मरने वाली आज, लेकिन पहले यह निपटारा करना है। क्योंकि तुम भी भलीभांति जानते हो कि तुमने टाला कि सदा के लिए टल जाएगा। फिर कभी न कर पाओगे।
गुरजिएफ का पिता मरा। और उसने उससे कहा कि सिर्फ एक बात तू खयाल रखना कि जब भी क्रोध करना हो चौबीस घंटे रुक कर करना। कोई गाली दे, उससे कह आना कि भई चौबीस घंटे बाद आ कर कहूंगा उत्तर। क्योंकि क्या करूं, बाप मरते वक्त यह वचन ले गया है। नौ साल का था गुरजिएफ। कुछ समझता भी न था। वचन दे दिया।
गुरजिएफ ने लिखा है बाद में कि मेरी पूरी जिंदगी उस वचन के कारण बदल गयी। क्योंकि चौबीस घंटे में कहीं किसी ने क्रोध किया है लौट कर? चौबीस घंटे में तो मूर्खता समझ में आ जाती है कि यह बात ही फिजूल है। चौबीस घंटे में निन्यानबे मौकों पर तो यह भी समझ में आता है कि उस आदमी ने जो कहा था, वह ठीक ही कहा है। वह गाली नहीं है, ठीक मेरा वर्णन है। अगर उसने कहा, चोर! तो चौबीस घंटे में खुद ही समझ में आ जाता है कि बात तो ठीक ही कह रहा है कि मैं चोर हूं। उसने कहा, बेईमान! चौबीस घंटे में खुद ही समझ में आ जाता है कि बात तो ठीक ही है, हूं तो बेईमान। यह तो वर्णन हुआ, गाली कहां हुई!
तो गुरजिएफ बहुत दफा जा कर तो धन्यवाद दे आया कि तुमने जो कहा था बिलकुल ठीक कहा था। क्रोध का तो कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने बताया। जो मुझे नहीं दिखता था, तुमने समझाया। बीमारी जो बता दे वह चिकित्सक है, दुश्मन थोड़े ही है। निदान कर दिया तुमने। डायग्नोसिस हो गयी।
या चौबीस घंटे बाद वह जा कर कह आता कि भाई, मैंने बहुत सोचा, लेकिन तुम्हारी बात बिलकुल ही गलत मालूम पड़ती है। मुझ पर लागू नहीं होती। और जब लागू ही नहीं होती तो हम किसलिए क्रोध करें? हम से उसका कुछ लेना-देना नहीं, तुम किसी और के संबंध में कह रहे होओगे। इसकी कोई संगति ही नहीं है। या तो संगति पायी, तब धन्यवाद दे आता। या जब असंगति पायी तो झूठ के लिए कोई क्रोधित होता है?
तुमने कभी खयाल किया? तुम जब भी क्रोधित होते हो, तो कोई सच बात कह रहा होता है, तभी क्रोधित होते हो। तुम चोर हो, और कोई कह देता है चोर। तुम अगर चोर नहीं हो, तो कोई कितना ही चोर कहे, क्रोध पैदा नहीं होता। क्योंकि क्या क्रोध करना! वह आदमी बात ही झूठ कह रहा है। वह किसी और के संबंध में कह रहा होगा। उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं। उसकी चोट ही नहीं पड़ती।
लेकिन तुम छिपाए थे कि तुम चोर हो। तुम सब तरफ साधु का वेश बनाए थे, मंदिर जाते थे, माला जपते थे। तुम्हारा वेश धोखे का था। और इस आदमी ने असली बात पकड़ ली, इसने कह दिया चोर; चोट लगती है। ध्यान रखना, सत्य से चोट लगती है; झूठ से कैसे चोट लगेगी? झूठ की कोई ताकत है? झूठ में कोई बल है? लेकिन हम बुराई को उसी वक्त करते हैं। और भलाई को हम कहते हैं, कल आना।
एक मारवाड़ी गर्मी के दिनों में अपनी खस की टट्टी के पीछे बैठा हुआ हिसाब-किताब कर रहा है। एक भिखारी मांगने आया। वह कहता है, मिल जाएं चार पैसे। उस मारवाड़ी ने कहा कि जाओ, पैसे-वैसे यहां नहीं हैं। उसने कहा, तो दो रोटी मिल जाएं। उस मारवाड़ी ने कहा, भागो यहां से, यहां कोई रोटी-वोटी नहीं है। उसने कहा, कुछ कपड़ा-लत्ता? जैसे कि भिखारी अड़ियल होते हैं। लेकिन मारवाड़ियों से कोई जीता है? और उस मारवाड़ी ने कहा कि यहां कुछ नहीं है, आगे बढ़ो। उस भिखारी ने कहा, फिर भीतर बैठे क्या कर रहे हो? चलो हमारे साथ ही हो जाओ। जो भी मिलेगा आधा-आधा कर लेंगे।
कोई दो पैसे भी मांगे तो तुम टालते हो। कोई दो रोटी भी मांगने आ जाए तो तुम पूरे प्राणपण से लग जाते हो कि कैसे हटे। अच्छा करने की हिम्मत ही नहीं होती। और बुरा करने को तुम बिलकुल ही कमर बांध कर तैयार खड़े हो। जैसे कि प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि आओ।
बुरे को स्थगित करना और भले को स्थगित मत करना, तुम्हारा जीवन बदल जाएगा। बुरे को कहना, कल करेंगे। भले को अभी कर लेना। क्योंकि कल का क्या भरोसा है? अगर तुम्हारे जीवन का यह सूत्र हो जाए कि बुरे को स्थगित करना, बुरा होगा ही नहीं। भले को तत्क्षण करना, बहुत भला होगा। अभी भी तुम वही कर रहे हो, उलटे ढंग से। अभी तुम बुरा करते हो, भले को टालते हो। भला फिर कभी नहीं होता, बुरा रोज होता है। तुम्हारे सारे कृत्यों की शृंखला कांटों की हो जाती है। उसमें फूल फिर आते नहीं।
नानक कहते हैं, लेकिन विचार होगा कर्म का। वह परमात्मा सच्चा है और उसका दरबार भी सच्चा है।
और ध्यान रखना कि तुम सच्चे हुए तो ही उसके दरबार में प्रवेश पा सकोगे। तुम किसे धोखा दे रहे हो? तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो, लेकिन क्या तुम स्वयं को धोखा दे सकते हो? तुम तो जानते ही हो कि तुम क्या हो! सारी दुनिया तुम्हें पूजे, कहे कि तुम साधु हो, लेकिन तुम तो भीतर जानते ही हो कि तुम कौन हो? उस भीतर छिपे को कैसे धोखा दोगे? वह जो तुम्हारा भीतर छिपा हुआ अस्तित्व है, वही तो परमात्मा है। परमात्मा के सामने तुम कैसे वंचना करोगे? वहां तो तुम नग्न हो। वहां तो सब खुला है। वहां तो कुछ ढंका नहीं हो सकता। उस दरबार में तो सच्चे ही तुम हो सकोगे तो ही प्रवेश पा सकोगे।
लोग पूछते हैं, परमात्मा कैसे पाएं? लोगों को पूछना चाहिए, सच्चे कैसे हों? परमात्मा को पाने की बात ही छोड़ देनी चाहिए। जैसे लोग पूछते हैं, परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। उन्हें पूछना चाहिए, मुझे परमात्मा क्यों दिखायी नहीं पड़ता?
झूठी आंखें उसे नहीं देख सकतीं। सत्य को देखना हो तो सच्ची आंखें चाहिए। सत्य को अनुभव करना हो तो सच्चा हृदय चाहिए। सत्य को पहचानना हो तो तुम्हें भी सच्चा होना पड़े। क्योंकि समान ही समान को पहचान सकता है। तुम अभी जहां खड़े हो, जैसे खड़े हो, बिलकुल झूठ हो।
झूठ का मतलब इतना नहीं है कि तुम जो बोलते हो वह झूठ है। तुम्हारा होना ही झूठ है। तुम्हारे चेहरे झूठ हैं। तुम्हारा व्यवहार झूठ है। तुम कहते कुछ हो, तुम सोचते कुछ हो, तुम करते कुछ हो। तुम्हारी बात का, तुम्हारे होने का कोई भी भरोसा नहीं है। तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। क्या तुम यही करना चाहते हो? तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम यही सोचते हो जो तुम कह रहे हो?
लेकिन तुम डरोगे बहुत। क्योंकि अगर तुम सच्चे होने लगे तो तुमने धर्मशाला में जो घर बनाया है, वह गिरने लगेगा। क्योंकि इस धर्मशाला में--धर्मशाला का अर्थ है, वह पड़ाव है, घर नहीं है--बड़े से बड़ा झूठ तो तुमने यह खड़ा किया है कि तुमने घर बना लिया है। अब तुम कागज की नाव में बैठे हो और यात्रा कर रहे हो। तुम यात्रा करोगे कैसे? किनारे पर ही बैठे रहोगे। नाव को पानी में भी उतारना खतरनाक है। क्योंकि कागज की नाव है, उतरी कि डूबी। उतरी कि गली।
लोग मेरे पास आते हैं। और वे कहते हैं कि अगर हम सच्चे हो जाएं तो जीवन बहुत मुश्किल हो जाएगा। हो ही जाएगा। क्योंकि झूठ से तुमने जीवन को बनाया है, इसलिए। शुरू में तो बहुत मुश्किल होगा। न बदलो तो भी मुश्किल है। कौन सा सुख तुमने जाना है? कौन से आनंद का फूल तुम्हारे जीवन में खिला है? कौन सी सुगंध आयी है? क्या है कि जिसके कारण तुम कह सको कि जीना सार्थक हुआ? कुछ भी तो दिखायी नहीं पड़ता।
कठिन तो अभी भी है। लेकिन इस कठिनाई के तुम आदी हो गए हो। जब तुम सच में बदलने की कोशिश करोगे तो आदतें टूटेंगी। जिस आदमी से तुम्हें कुछ प्रेम नहीं है, उससे तुम कहते हो, आप आए, बड़ा सौभाग्य है। और भीतर सोचते हो कि इस दुष्ट का चेहरा कैसे दिखायी पड़ गया सुबह-सुबह! आज का दिन खराब हो गया।
अगर वह आदमी भी थोड़ा समझदार हो, थोड़ा सजग हो, तो वह तुम्हारे झूठ को देख लेगा। क्योंकि तुम कहो कुछ भी, तुम्हारी आंखें खबर देंगी। तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा हाव-भाव प्रसन्नता प्रकट नहीं करेगा। तुम्हारे शब्द और होंगे, तुम्हारे ओंठ और होंगे। उन दोनों में कोई संगति न होगी।
क्योंकि जब कोई आदमी सच ही प्रसन्न होता है, तो प्रसन्नता की बात कहता थोड़े ही है! उसका रोआं-रोआं गदगद हो उठता है। जब कोई आदमी सच ही प्रसन्न होता है, तो उसको तुम पहचान सकते हो। लेकिन दूसरा भी सोया हुआ है। वह भी सोचता है कि तुम ठीक कह रहे हो। इसलिए तो खुशामद दुनिया में सफल होती है। सब झूठी है। और सुनने वाला भी अगर गौर से सुने तो समझेगा कि तुम बिलकुल गलत बात कह रहे हो। यह है ही नहीं।
इंग्लैंड में कवि हुआ ईट्स। उसे नोबल प्राइज मिली। उसका स्वागत किया गया। वह बहुत सच्चा आदमी था। बहुत सरल आदमी था। उसके काव्य में भी वैसी सच्चाई है। जब उसका स्वागत किया गया तो स्वागत में तो जैसा होता है, लोग स्तुति करते हैं। जो सदा गाली देते थे, वे भी वहां खड़े हो कर स्तुति करते हैं। वह बड़ा हैरान हुआ। और उसे बड़ा संकोच होने लगा कि ये सब झूठी बातें मेरे संबंध में कही जा रही हैं। वह अपनी कुर्सी में सिकुड़ता गया--दो घंटे!
जब स्तुति खतम हुई तो लोगों ने देखा कि वह कुर्सी में बिलकुल ऐसा दबा बैठा है कि जैसे अब उसके बर्दाश्त के बाहर है। उसे हिलाया सभापति ने और उससे कहा, आप सो तो नहीं गए हैं? उसने कहा कि मैं सो नहीं गया हूं, लेकिन अगर मुझे यह पता होता तो मैं न आता। कुछ समझा नहीं सभापति। उसने खड़े हो कर घोषणा की कि पच्चीस हजार पौंड हमने पूरे मित्रों ने इकट्ठे किए हैं तुम्हारी भेंट के लिए। सोचा सभी ने कि वह बड़ा प्रसन्न होगा। उसने खड़े हो कर कहा कि अगर मुझे पता होता कि सिर्फ पच्चीस हजार पौंड के लिए इतना झूठ मुझे सुनना पड़ता तो मैं आता ही नहीं। सिर्फ पच्चीस हजार पौंड के लिए इतना झूठ! महंगा सौदा रहा। दो घंटे!
अगर तुम थोड़े सजग हो तो तुम्हारी कोई खुशामद न कर सकेगा। क्योंकि तुम पाओगे कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। लेकिन तुम सजग नहीं हो, लोग झूठ बोल रहे हैं चारों तरफ, तुम्हारे खयाल में नहीं आता। तुम खुद झूठ बोल रहे हो, वह तक तुम्हारे खयाल में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो? और तब तुम फंसते हो बड़ी झंझटों में। किसी स्त्री से कह बैठते हो कि तू बड़ी सुंदर है। तुझसे मुझे बड़ा प्रेम है। फिर तुम उलझन में पड़े। तुम शायद झूठ ही कह रहे थे। अब यह सिलसिला शुरू हुआ। कल तुम पछताओगे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा उससे एक दिन सुबह चाय पीते वक्त कि तुम ही मेरे पीछे पड़े थे। मैं तुम्हारे पीछे कभी नहीं पड़ी थी। और अब तुम्हारे ये ढंग! अगर यही व्यवहार करना था तो मेरे पीछे क्यों पड़े थे? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तू बिलकुल ठीक कह रही है। कभी किसी चूहादानी को चूहे को पकड़ने के लिए दौड़ते देखा है? चूहा खुद ही फंसता है। यह बात सच है तेरा कहना कि हम खुद ही तेरे पीछे पड़े थे।
स्त्रियां होशियार हैं इस मामले में। इसलिए कोई पति कभी उनको यह नहीं कह सकता कि तू मेरे पीछे पड़ी थी। कोई स्त्री ऐसी भूल नहीं करती। क्योंकि यह झंझट आज नहीं कल तो आने ही वाली है। हमेशा पुरुष ही फंसता है। क्योंकि स्त्री चुपचाप देखती है। वह सुनती है, वह राजी होती है, सिर हिलाती है। बाकी कभी इनिशिएटिव नहीं लेती। पहल नहीं करती। वह नसरुद्दीन ठीक कहता है कि कोई पिंजड़ा चूहे के पीछे नहीं भागता। स्त्रियां ज्यादा होशियार हैं। वे अपने आप ही...।
जब नसरुद्दीन मरने लगा तो उसके बेटे ने पूछा कि कोई सूत्र जीवन के अनुभव के? तो उसने कहा, तीन बातें सीखी हैं पूरे जीवन में। एक यह कि अगर लोग थोड़ा धैर्य रखें तो फल अपने आप ही पक जाते हैं और गिरते हैं। उनको तोड़ने के लिए झाड़ पर चढ़ने की कोई जरूरत नहीं। और दूसरी बात कि लोग अगर धैर्य रखें तो लोग अपने आप ही मर जाते हैं। उनको मारने के लिए युद्ध वगैरह करने की कोई जरूरत नहीं। और तीसरी बात, अगर लोग सच में धैर्य रखें तो स्त्रियां खुद पुरुषों के पीछे भागेंगी। उनके पीछे भागने की कोई जरूरत नहीं है। उसने कहा, ये तीन चीजें मैंने जीवन का सार अनुभव की हैं। लेकिन कोई सार से तो चलता नहीं। न कोई अनुभव से चलता है।
क्या तुम बोलते हो? क्या तुम करते हो? होशपूर्वक करोगे तो तुम पाओगे निन्यानबे तो गिर गया। निन्यानबे प्रतिशत तो गिर गया। एक प्रतिशत बचेगा। वह एक प्रतिशत धर्मशाला के लिए काफी है। वह निन्यानबे प्रतिशत से घर बना रहे थे तुम। वह जो एक प्रतिशत बचेगा, वही संन्यासी का जीवन है। जो अनिवार्य है वही बचेगा। जो अपरिहार्य है वही तुम करोगे। जो अनावश्यक है वह कट जाएगा। अनावश्यक ही तो गृहस्थ का उपद्रव है। कितनी अनावश्यक चीजें तुम घर में खरीद कर ले आए हो।
एक घर में मैं मेहमान हुआ। तो वहां इतनी चीजें थीं कि उस घर में चलना-फिरना तक मुश्किल था। वे अमीर हैं, लेकिन वे इस भांति रह रहे हैं कि गरीब के झोपड़ों में भी ज्यादा जगह होती है। जो मिलता है बाजार से वह खरीद कर चला आता है। जो भी चीज अखबार में एडवरटाइज होती है, वह उनके घर होनी ही चाहिए। घर भर गया है चीजों से। वहां रहना ही मुश्किल है। वहां चलना मुश्किल है। मैंने उनसे कहा कि यह अजायबघर है कि घर? यहां तुम रहते हो कि यह कोई प्रदर्शनी है? इनमें से सभी चीजें करीब-करीब बेकार हैं। इनसे तुम छुटकारा पाओ। घर में थोड़ी जगह होनी चाहिए, जगह का नाम घर है। यहां तो रहना ही मुश्किल है। थोड़े दिन में तुम को बाहर रहना पड़ेगा, अगर यही सिलसिला रहा।
तुम घर में भी कबाड़ इकट्ठा करते हो। चीजें व्यर्थ हो जाती हैं तो भी रखे रहते हैं लोग कि शायद कभी काम पड़ें। खराब हो गयी चीजों को भी रखे रहते हैं कि शायद कभी काम पड़ें।
एस्कीमोज एक नियम मानते हैं। और उनका नियम अगर सारी दुनिया माने तो दुनिया में बड़ी शांति और बड़ा आनंद हो जाए। हर वर्ष, वर्ष के प्रथम दिन वे अपने घर की सब चीजें बांट देते हैं। फिर से अ, , , से शुरू करते हैं। तो एस्कीमो का छोटा सा घर जितना साफ-सुथरा होता है, दुनिया में किसी का नहीं होता। ऐसे भी उसके पास ज्यादा नहीं होता; लेकिन पहली तारीख को हर वर्ष की सब बांट देना है। फिर सब चीजें शुरू करनी हैं। एक ताजगी! और व्यर्थ इकट्ठी ही नहीं करता वह, क्योंकि पता है कि एक तारीख को सब बांट देना है। तुम्हीं सोचो! अगर हर साल की एक तारीख को बांट देना हो, तो कितनी चीजें तुम ले आए हो जो कभी न लाए होते।
तुम व्यर्थ की चीजें ही घर में इकट्ठी नहीं करते, उसी तरह तुम व्यर्थ के विचार भी इकट्ठे करते हो। कोई आदमी तुम्हें सुना रहा है कुछ भी, तुम सुनते जाते हो। अखबार में तुम कुछ भी पढ़ते जाते हो। तुम यह भी नहीं पूछते कि ये विचार इकट्ठे करने हैं? तुमने कभी किसी आदमी से कहा कि भाई इन बातों की मुझे कोई भी जरूरत नहीं? कोई आदमी किसी की निंदा कर रहा है, कोई अफवाह सुना रहा है, तुमने कभी बीच में टोका कि इसकी मुझे कोई भी जरूरत नहीं? क्यों कचरा मेरी खोपड़ी में डाल रहे हो? डाल देना आसान है, निकालना मुश्किल है। ध्यान करने वालों से पूछो! जब वे निकालने बैठते हैं तब वह निकलता नहीं। वह जड़ें जमा ली हैं उसने। और इकट्ठा करते वक्त होश नहीं रखा।
कृत्य भी तुम गलत करते हो, व्यर्थ का सामान इकट्ठा करते हो, व्यर्थ के विचार इकट्ठे कर लेते हो। तुम धीरे-धीरे एक कबाड़खाना हो जाते हो। कबाड़ी की दुकान में और तुम्हारे जीवन में कोई अंतर नहीं है। थोड़ा सजग होओ।
नानक कहते हैं कि तुम्हारे एक-एक कृत्य से तुम्हारा जीवन निर्मित हो रहा है। तो एक-एक कृत्य को बहुत विचार कर करो।
उसके दरबार में सच्चा ही पहुंच पाएगा। उसमें प्रामाणिक पंच शोभा पाते हैं। जो श्रेष्ठ हैं, जो प्रामाणिक हैं, केवल वे ही वहां पहुंच पाते हैं। उसकी कृपा-दृष्टि से उन्हें प्रतीक की प्राप्ति होती है।
और जैसे-जैसे तुम्हारे जीवन में सच्चाई आएगी, तुम्हें उसकी कृपा-दृष्टि के प्रतीक मिलने शुरू हो जाएंगे। तुम जगह-जगह पाओगे उसका इशारा। अभी तुम्हें उसका कोई इशारा दिखायी नहीं पड़ता। अभी तुम्हें उसकी कोई पहचान ही नहीं है। लेकिन तुम इधर सच्चे होने शुरू हुए और तुम पाओगे भीतर तुम्हारे अंतःकरण में उसके आदेश आने शुरू हो गए। इधर तुम सच्चे हुए, तुम पाओगे रत्ती-रत्ती, पत्ती-पत्ती पर तुम्हें उसकी पहचान आने लगी।
वह तुम्हें चलाना चाहता है। वह तुम्हें खबर देना चाहता है कि क्या करो, क्या न करो। लेकिन उस खबर को सुनने योग्य तुम्हारे भीतर खालीपन नहीं है। तुम्हारा अपना शोरगुल इतना ज्यादा है कि उसकी आवाज सुनायी नहीं पड़ती। रोज तुम्हें प्रतीक मिलने लगेंगे उसकी कृपा-दृष्टि के।
अभी तुम्हें कोई प्रतीक नहीं मिलता। अभी तुम अपने ही सहारे जी रहे हो। और अपना सहारा भी कोई सहारा है? जैसे ही तुम सच्चे होने शुरू होओगे, उसके सहारे जीना शुरू हो जाएगा। तब जीवन की एक नयी गति, और एक नया आयाम उपलब्ध होता है।
वहां ही कच्चे और पक्के का निर्णय होता है।
नानक कहते हैं, वहां पहुंचने पर ही लोगों की परख होती है।
राती रुति थिति वार। पवन पानी अगनी पाताल।।
तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल।
तिसु विचि जीअ जुगुति के रंग। तिनके नाम अनेक अनंत।।
करमी करमी होइ वीचारु। साचा आप साचा दरबारु।।
तिथै सोहनि पंच परवाणु। नदरी करमी पवै नीसाणु।।
कच पकाई ओथै पाइ। नानक गाइआ जापै जाइ।।
सिर्फ परमात्मा के सामने ही परख होती है, कौन कच्चा है, कौन पक्का है। क्या अर्थ है कच्चे और पक्के का? परमात्मा के सामने जो गल जाए वह कच्चा। उसके सामने जो बच जाए वह पक्का। तुम इसे कसौटी बना लो कि तुम जो भी करो यह सोच कर करना कि क्या इस कृत्य को मैं परमात्मा के सामने प्रकट कर सकूंगा? या कि डरूंगा? या कि छिपाना चाहूंगा? या कि चाहूंगा कि परमात्मा इसे न देख ले?
अगर तुम डरो, छिपाना चाहो, मत करना। क्योंकि उसके सामने कुछ भी छिपाया न जा सकेगा। वह तुम्हें आर-पार देख लेगा। उस दर्पण से कुछ भी छिप नहीं सकता।
अगर तुम इसे संभाल लो अपने मन में कि जो भी करो, जो भी सोचो, जो भी बोलो, एक कसौटी पर पहले कस लो। जैसे स्वर्णकार, सुनार खरीदता है सोना, तो पत्थर पास रखे रहता है। पहले कसता है। जब पत्थर कह देता है, ठीक! तभी आगे बढ़ता है। तुम इसको पत्थर बना लो कसने का कि क्या इसे मैं परमात्मा के सामने प्रकट कर सकूंगा जो भी मैं कर रहा हूं? फिर निश्चिंत भाव से करो। अगर भीतर मन डरे, कंपे, और कहे कि यह तो कैसे जाहिर कर सकोगे? तो मत करना।
तुम पक्के होने लगोगे। कुम्हार घड़े पकाता है। कच्चे वर्षा में गल जाएंगे। पक्के जल को भर लेंगे। तुम बाजार जाते हो, दो पैसे का घड़ा खरीदते हो तो ठोंक कर देखते हो कि कच्चा है या पक्का। क्योंकि पक्के की ध्वनि और है।
जैसे-जैसे तुम पकने लगोगे, तुम्हारे जीवन की ध्वनि बदलने लगेगी। तुम पाओगे अंतर-नाद अपने भीतर। और उसके इशारे और उसके प्रतीक तुम्हें मिलने लगेंगे। उसके इशारे हैं--तुम ज्यादा शांत होने लगोगे, तुम ज्यादा सुखी होने लगोगे, तुम ज्यादा आनंदित अपने को पाओगे। एक गहन संतोष की छाया तुम्हें सब तरफ से घेरे रहेगी। और तुम पाओगे एक अनुग्रह का भाव, एक अहोभाव--अकारण! कुछ भी कारण न होगा और तुम पाओगे कि भीतर एक आनंद थिरक रहा है।
सहजोबाई ने कहा है, बिन घन परत फुहार! कोई बादल दिखायी नहीं पड़ता और वर्षा हो रही है। कोई कारण दिखायी नहीं पड़ता, अकारण तुम प्रफुल्लित हो। अकारण तुम्हारा रोआं-रोआं मुस्कुरा रहा है, आनंदित हो रहा है। कुछ मिल नहीं गया खजाना, लेकिन फिर भी हृदय धन्यवाद दे रहा है। ये प्रतीक हैं।
जैसे-जैसे तुम पक्के होने लगोगे, वैसे-वैसे तुममें वर्षा का जल भरने लगेगा। उसका आनंद तो बरस रहा है। वह फुहार तो हर वक्त पड़ रही है। लेकिन तुम कच्चे हो। उसी में तो गल जाते हो। तृप्ति तो हो नहीं पाती, उलटे गल जाते हो, उलटे मिट जाते हो। परमात्मा का आशीर्वाद तुम्हारे कच्चे होने के कारण अभिशाप हो जाता है। तुम पक्के हो जाओगे तो जिन्हें तुमने कल तक अभिशाप जाना था, तुम अचानक पाओगे, वे सभी आशीर्वाद हैं।
वहां पहुंचने पर ही लोगों की परख है।
लेकिन उस समय तक प्रतीक्षा मत करो। क्योंकि तुम प्रतिक्षण बन रहे हो, निर्मित हो रहे हो। आज शुरू करो तो ही तुम उसके सामने प्रकट हो सकोगे। आज से तैयारी करो। ऐसे भी बहुत समय गंवाया है। ऐसे भी बहुत देर हो चुकी है। एक क्षण भी मत गंवाओ अब। परमात्मा को ध्यान में रख कर जीयो। क्योंकि वह घर है। और संसार धर्मशाला है।

आज इतना ही।


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