शिक्षा में क्रांति-ओशो
दूसरा- प्रवचन
धर्म ओर विज्ञान
मेरे प्रिय!
एक अमावस की गहरी अंधेरी रात्रि की बात है और एक
छोटे से गांव की घटना। आधी रात्रि बीत गई थी और सारा गांव नींद में डूबा हुआ था।
कुत्ते भी भौंक-भौंक कर सो गए थे कि अचानक एक झोपड़े से उठ रही रोने की और चिल्लाने
की आवाज ने सभी को जगा दिया। अर्धनिद्रित लोग उस झोपड़े की ओर भागने लगे, बूढ़े और बच्चे--सभी।
उस सोए गांव में एक विक्षिप्त सी गति आ गई। किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
फिर भी लोग उस झोपड़े के आस-पास इकट्ठे हो रहे थे। झोपड़े के भीतर से आवाज आ रही थीः
‘आग लगी है, मैं जल रही हूं, मेरा घर जल रहा है।’ कुछ लोग तो पानी भरी बाल्टियां
ले-ले कर भी आ गए थे। लेकिन झोपड़े के आस-पास आग लगे होने का कोई भी चिह्न नहीं था।
आग तो दूर, उस झोपड़े में एक दीया भी नहीं था।
वह एक गरीब बूढ़ी स्त्री की झोपड़ी थी। लोगों ने
दरवाजे धकाए तो पाया कि खुले ही हुए हैं। कोई भाग कर लालटेन ले आया तो भीड़ भीतर
गई। बूढ़ी स्त्री जोर-जोर से रो रही थी और छाती पीट रही थी और साथ ही वह चिल्लाती
भी जाती थीः ‘आग लगी है, मेरे घर में आग लगी है।’
गांव के लोग यह दृश्य देख कर बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहाः क्या तुम पागल
हो गई हो? आग कहां है? हम जरूर उसे
बुझाएंगे, लेकिन वह है कहां? यह सुन वह
बूढ़ी रोना बंद कर जोर-जोर से हंसने लगी और बोलीः मैं पागल नहीं हूं, पागल हो तुम, आग तुम्हारे घरों में लगी है और उसे
बुझाने तुम यहां आए हो? जाओ और अपने घरों में आग को खोजो?
मेरे भीतर भी आग लगी है, लेकिन उसे तुम देख
कैसे सकोगे? और उसे तुम बुझाओगे भी कैसे? उसे तो मुझे ही बुझाना पड़ेगा। भीतर की आग स्वयं ही बुझानी पड़ती है। आग
बाहर होती तो तुम जरूर उसे बुझा देते, लेकिन आग तो भीतर है।
यह कह बूढ़ी फिर रोने लगी और चिल्लाने लगीः ‘मेरे घर में आग
लगी है, मैं जल रही हूं...!’
मैं भी उस रात्रि उस गांव में उपस्थित था। और
क्या आप भी उपस्थित नहीं थे? शायद आप उस घटना को भूल गए हों, लेकिन में नहीं भूला हूं। मैंने आपको देखा था कि आप व्यर्थ ही नींद तोड़े
जाने के कारण उस बूढ़ी स्त्री पर नाराज होते हुए वापस सो गए थे। और सुबह जब आप उठे
थे तो उस घटना को भूल गए थे। वह पूरा गांव ही भूल गया था, पूरी
पृथ्वी ही भूल गई है। उस छोटे से गांव में ही तो सारी मनुष्यता का आवास है।
आप तो सो गए थे, लेकिन मैं फिर नहीं सो सका। उस
बूढ़ी औरत ने सदा के लिए ही मेरी नींद तोड़ दी, क्योंकि मैंने
जब आग खोजने के लिए भीतर झांका तो पाया कि आग तो नहीं थी, नींद
थी और वह नींद ही आग थी। जीवन नींद में ही जल रहा है, वह
निद्रा ही है दुख, वही है पीड़ा, वही है
अग्नि, लेकिन आप उसे नहीं देख पाए, क्योंकि
आप पुनः सो गए और सपने देखने लगे।
सपने नींद के साथी हैं, वे नींद को नहीं
टूटने देते, वे तो अग्नि में घृत की भांति हैं। दुखद सपने
जरूर थोड़ा-सा धुआं पैदा करते हैं और करवट लेने को मजबूर कर देते हैं, लेकिन सुखद सपनों की आशा में उन्हें सह लिया जाता है। और वे न हों तो सुखद
सपने भी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि उन्हीं की काली पृष्ठभूमि में तो सुखद सपनों की
शुभ्र रेखाएं उभर पाती हैं। ऐसे सुख और दुख के सपने दो बैलों की जोड़ी की भांति
नींद की गाड़ी को चलाए जाते हैं। और नींद में जीवन खोता है क्योंकि जो सोया है वह
जीवित ही कहां है?
और जीवन के दुख की यह कथा है बहुत पुरानी। मनुष्य
जितनी ही पुरानी है यह कथा, लेकिन जो कहता है, जीवन जल रहा
है, वह पागल प्रतीत होता है और हम उससे पूछते हैं--कहां है
आग? और हम पानी भरी बाल्टियां लेकर दौड़ते हैं कि आग को बुझा
दें। लेकिन आग बाहर नहीं है, इसलिए बाहर ही देखने वाली आंखें
नहीं देख पाती हैं। और बाहर नहीं है, इसलिए बाहर का पानी भी
उसे कैसे बुझा सकता है?
लेकिन आग चाहे दिखाई पड़ती हो या न पड़ती हो लेकिन
जीवन में उसकी जलन तो सभी को अनुभव होती है।
वह है तो जलाएगी ही! चाहे हम उसे देखें या न
देखें। उसका जलाना हमारे देखने पर निर्भर नहीं है। वस्तुतः तो हम उसे नहीं देखते
हैं इसलिए वह हमें जला पाती है। हमारा न देखना ही उसका होना है। हमारे अंधेपन में
ही तो उसके प्राण हैं। और जब वह जलाती है और मनुष्य उस अदृश्य और अज्ञात अग्नि से
झुलसता और पीड़ित होता है, तो बजाय यह खोजने के कि उस अदृश्य अग्नि का मूलस्रोत
कहां है, वह पानी की खोज में दौड़ता है। यह पानी की खोज ही
संसार है।
हम सब पानी की खोज में दौड़ रहे हैं। वह पानी चाहे
धन का हो, चाहे यश का, चाहे मोक्ष का। पानी की दौड़ का एक
अनिवार्य लक्षण है कि वह सदा बाहर होता है, और दूसरा
अनिवार्य लक्षण है कि उसे पाने के लिए दौड़ना पड़ता है। क्योंकि जो बाहर है वह
अनिवार्यतः दौड़ता है। और सबसे बड़ा मजा यह है कि जो पानी के लिए दौड़ता है उसके भीतर
की आग और जोर पकड़ती जाती है। क्योंकि दौड़ से वह और उत्तप्त होता है, और दौड़ से उसका ज्वर और तीव्र होता है। और फिर जितना वह दौड़ता है उतनी आग
तीव्र होती है। और जितनी आग तीव्र होती है वह उतना ही और दौड़ता है। ऐसे दुष्चक्र
पैदा हो जाता है। क्या इस चक्र का नाम ही संसार नहीं है?
और एक तो पानी मिलता नहीं है, क्योंकि अधिक सरोवर
मृग-मरीचिका सिद्ध होते हैं। और यदि पानी मिल भी जाए तो भी व्यर्थ सिद्ध होता है,
क्योंकि बाहर का पानी भीतर की आग को कैसे मिटा सकता है? अर्थात जिन्हें पानी मिल जाता है वे, और जिन्हें
पानी नहीं मिलता वे, अंततः समान ही असफल सिद्ध होते हैं।
संसार और सफलता का कहीं भी मिलन नहीं है क्योंकि
संसार का दुष्चक्र असफल होने को आबद्ध ही है। संसार की असफलता उसकी आंतरिक
अनिवार्यता है।
महान सिकंदर की मृत्यु हुई। लाखों लोग उसे देखने
आए। उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर थे जो कि रिवाज के एकदम प्रतिकूल था। हाथ सदा
सभी देशों में अर्थी के भीतर ही होते हैं। लोग इसका कारण पूछने लगे तो ज्ञात हुआ
कि सिकंदर ने चाहा था कि उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर रखे जाएं, ताकि लोग भलीभांति
देख सकें कि उसके हाथ भी खाली ही हैं। वह भी संसार से खाली हाथ ही जा रहा है। काश!
सभी मृतकों के हाथ अर्थियों के बाहर ही रखे जा सकें, ताकि यह
सत्य रोज-रोज प्रत्येक को दिखाई पड़ने लगे कि संसार और भरे हाथों का कोई भी संबंध
नहीं है।
मनुष्य के भीतर जो आग है, वह बाहर के किन्हीं
भी उपायों से नहीं बुझ सकती है।
मनुष्य के भीतर जो दुख है, वह बाहर के किन्हीं
भी सुखों से नहीं मिट सकता है।
मनुष्य के भीतर जो अंधकार है, बाहर के कोई भी सूर्य
उसे नष्ट करने में असमर्थ हैं।
लेकिन अब तक यही हुआ है, आग भीतर है और बुझाने
की कोशिश बाहर है।
विज्ञान का जन्म इसी कोशिश से हुआ है।
मैं विज्ञान के विरोध में नहीं हूं, मैं तो विज्ञान का
मित्र हूं। लेकिन यह जरूर कहना चाहूंगा कि, वह अकेला मनुष्य
के जीवन को शांति, आनंद और अर्थ देने में समर्थ नहीं है और न
कभी समर्थ हो ही सकेगा। वह सुविधा दे सकता है और सुविधाएं ज्यादा से ज्यादा दुख के
विस्मरण में क्षणिक रूप से सहयोगी हो सकती हैं। लेकिन थोड़े ही समय में सुविधाएं
स्वीकृत आदतें हो जाती हैं और दुख अपनी जगह वापस लौट आता है। सुविधाओं से दुख
मिटता नहीं, बस केवल छिपता है। इसीलिए सुविधाएं और सुविधाओं
की मांग लाती हैं और एक ऐसी दौड़ पैदा होती है जिसका कि कोई अंत नहीं है। और यह दौड़
ही एक तनाव और अशांति तथा दुख बन जाती है। यह अंतहीन दौड़ ही विक्षिप्तता बन जाती
है।
शरीर के तल पर विज्ञान का अर्थ और प्रयोजन है।
शरीर के तल पर कष्टों के निवारण में उसकी महती उपादेयता है। क्योंकि कष्ट बाहर हैं
इसलिए बाहर का पानी उन्हें बुझा भी सकता है। मनुष्य के संताप का केंद्र कष्ट नहीं
है। निश्चय ही वे संताप की परिधि हैं, किंतु केंद्र तो आंतरिक दुख ही है। और परिधि पर लाए
गए सभी सुख इस दुख की विस्मृति में भले ही सहयोगी होते हों, लेकिन
वे इसे मिटा नहीं पाते हैं। वरन उनके घिराव में इस आंतरिक पीड़ा का बोझ और प्रखर
होकर वापस लौटने लगता है। यही तो कारण है कि बाह्य समृद्धि के उठते शिखरों के नीचे
आंतरिक दरिद्रता और दैन्य की खाइयां अनिवार्यतः और भी मुंह बाकर खड़ी हो जाती हैं।
महावीर और बुद्ध को बाह्य सुखों के मध्य में यह
दुख पूर्ण स्पष्ट होकर दिखा हो तो आश्चर्य नहीं है। लेकिन विज्ञान से आई समृद्धि
के कारण क्रमशः पूरी मनुष्यता ही उस बोध के निकट पहुंच रही है। विज्ञान की प्रगति
के साथ एक बड़ा भ्रम भी भंग हो गया है, कि बाह्य समृद्धि आंतरिक संगीत और शांति को जन्म दे
सकती है। विज्ञान के विकास ने ही विज्ञान की सामथ्र्य और असामथ्र्य को सुस्पष्ट कर
दिया है। विज्ञान की सीमा और शक्ति का बोध अब अस्पष्ट नहीं है। विज्ञान न तो उस
अर्थ में व्यर्थ है जैसा कि अंधे धार्मिक लोग सोचते थे, और न
उस अर्थ में पूर्ण जैसा कि अंधे विज्ञान प्रेमियों की धारणा थी।
असल में अंधापन चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, कभी भी तथ्यों को
वैसा ही नहीं देख पाता है जैसे कि वे होते हैं। अंधापन सदा ही तथ्यों पर
सिद्धांतों को लादता है। वस्तुतः तथ्यों पर सिद्धांतों को लादना ही तथ्यों को न
देखना है। तथ्यों को सीधा देखने से आंखें खुलती हैं और जो ज्ञान उपलब्ध होता है,
वह जीवन को बांधता नहीं बल्कि मुक्त करता है।
जीवन को पूर्व निर्धारित सिद्धांतों के ढांचे में
देखने के कारण ही मनुष्य आज तक खंडित और पंगु रहा है। वह पूरे और समग्र जीवन को
नहीं देख पाता है। उसने जीवन को बिना चुनाव के नहीं देखा है, इसलिए जीवन जैसा
है--अपनी पूर्णता, समग्रता और अखंडता में, वह उसे जानने और जीने से वंचित रहा है।
धर्म के प्रभाव में बाह्य को अस्वीकृत किया गया
था और फिर उसके विरोध और प्रतिक्रिया में आंतरिक को अस्वीकृत कर दिया गया था। यह
दूसरा अस्वीकार विज्ञान के इर्द-गिर्द इकट्ठा हुआ था। धर्म और विज्ञान ऐसे एक
दूसरे के विरोध में खड़े हो गए थे। यह विरोध धर्म और विज्ञान का नहीं, वरन मनुष्य के चित्त
में एक अति के विरोध में पैदा हुई दूसरी अति का विरोध था। मनुष्य का चित्त अतियों
में डोलता है। घड़ी के पेंडुलम की भांति उसकी गति है। एक अति दूसरी अति को जन्म दे
देती है। और अतियों में सत्य कभी नहीं होता है। अति सदा ही अधूरी होती है नहीं तो
वह अति ही नहीं हो सकती है। सत्य तो मध्य में है। सत्य तो है वहां जहां दोनों
अतियां शून्य और शांत हैं। अतियों के अतिक्रमण में ही सत्य है।
जीवन न तो एकांततः बाह्य है और न एकांततः आंतरिक
ही। जीवन तो दोनों ही है या दोनों ही नहीं है। जीवन को मात्र आंतरिक में देखने से
केंद्र ही रह जाता है और परिधि खो जाती है। जब कि बिना परिधि के कोई केंद्र कैसे
हो सकता है? परिधि है तो ही केंद्र है। और जीवन को मात्र बाह्य में देखने से केंद्र खो
जाता है और मात्र परिधि रह जाती है। जब कि बिना केंद्र के परिधि हो ही कैसे सकती
है? जीवन तो दोनों में है और इसलिए जीवन किसी एक में ही नहीं
है।
विज्ञान बाह्य की खोज है--परिधि की। धर्म आंतरिक
की खोज है--केंद्र की। विज्ञान पदार्थ में प्रवेश है, धर्म परमात्मा में।
बाह्य रूप से वे एक आंतरिक विरोध में दिखाई पड़ते हैं। किंतु वस्तुतः वे किसी एक ही
सत्य के पहलू हैं। उनका विरोधाभास मनुष्य के शब्दों में ही है। मनुष्य की खंडित
दृष्टि ने सभी कुछ खंडित कर डाला है, जब कि जीवन तो एक है और
अखंड है।
जीवन आंतरिक और बाह्य की अखंडता है। जो श्वास
भीतर आती है, वही बाहर जाती है। भीतर और बाहर उसकी ही यात्रा के दो बिंदु हैं। स्वयं
श्वास क्या है? वह आंतरिक है या बाह्य? वह दोनों है और वह दोनों नहीं है। अंतर के बिंदु से देखने पर वह आंतरिक है
और बाह्य के बिंदु से देखने पर बाह्य। और श्वास के स्वरूप में ही देखने पर वह
दोनों है और दोनों नहीं है। ऐसा ही जीवन भी है, वह एक बिंदु
से बाह्य है, एक बिंदु से आंतरिक। और स्वरूप से दोनों है और
दोनों नहीं है।
बाह्य बिंदु विज्ञान है, अंतर बिंदु धर्म।
और फिर है जीवन का स्वरूप, उसे तो वही जान पाता
है, जो अंतर बाह्य से शून्य होता है। क्योंकि सब कोणों से,
दृष्टियों से, बिंदुओं से जो शून्य हो जाता है,
वही जीवन की समग्रता में प्रतिष्ठा पाता है। जब तक दृष्टि है,
कोण है, बिंदु है, तब तक
खंड है। क्योंकि तब तक मैं कहीं हूं और इसलिए सब कहीं नहीं हो सकता हूं। जहां
दृष्टि नहीं है, कोण नहीं है, बिंदु
नहीं है, वहां मैं भी नहीं हूं और तब जो है, बस वही है। वही है सत्य।
सत्य कोई दृष्टि नहीं है, वह तो वहां है,
जहां सब दृष्टियां शून्य हो जाती हैं। दृष्टियां जहां नहीं हैं वहीं
उसका दर्शन है, जो कि सत्य है। और सत्य का अनुभव ही वह जल है
जो कि जीवन में लगी अग्नि को बुझा सकता है।
लेकिन मनुष्य जहां स्वयं को सदा पाता है, वह चित्त दशा अंतर और
बाहर में विभाजित है। इस विभाजन पर ही मनुष्य स्वयं को पाता है। उसका अहं बोध ही
इस विभाजन के पीछे है। वह है इसलिए वह विभाजन है। यह विभाजन है इसलिए वह है। इसी
अग्नि में तो हम सब खड़े हैं और जल रहे हैं। फिर बाह्य की ओर जो जाता है, वह पाता है कि विभाजन और तनाव बढ़ता जा रहा है, क्योंकि
उसकी परिधि बढ़ती जाती है और केंद्र दूर से दूर होता जाता है। इसलिए विज्ञान का
आरंभ तो है लेकिन अंत नहीं। इसलिए विज्ञान एक यात्रा भर है, वह
साधन मात्र है, साध्य वह नहीं है। वह चलता है लेकिन कहीं
पहुंचता नहीं है।
धर्म है अंतर की दिशा। वह शायद वह दिशा नहीं, अदिशा है, क्योंकि दिशाएं तो सब बाहर की ओर ही होती हैं। धर्म है अंतर की ओर गति।
लेकिन नहीं, शायद वह गति नहीं, अगति
है। क्योंकि गतियां तो सब स्वयं से दूर ही ले जाती है। धर्म है केंद्र की ओर
दृष्टि। लेकिन नहीं, दृष्टा और दृष्टि और दृश्य का भेद तो है
परिधि पर--केंद्र पर तो ऐसा कोई भेद ही नहीं है!
विज्ञान तो परिभाष्य है, लेकिन फिर धर्म क्या
है?
धर्म परिभाष्य नहीं है। जो बाह्य है उसकी ही
परिभाषा हो सकती है। जो आंतरिक है उसकी परिभाषा नहीं हो सकती है। वस्तुतः जहां से
परिभाषा शुरू होती है वहीं से विज्ञान शुरू हो जाता है, क्योंकि वहीं से
बाह्य शुरू हो जाता है। विज्ञान है शब्द में, धर्म है शून्य
में। क्योंकि परिधि है अभिव्यक्ति और केंद्र है अज्ञात और अदृश्य और अप्रकट। वृक्ष
और बीज की भांति ही वे हैं। विज्ञान वृक्ष है, धर्म बीज है।
विज्ञान को जाना जा सकता है, धर्म को जाना नहीं जा सकता,
लेकिन धर्म में हुआ जा सकता है और धर्म में जीआ जा सकता है। विज्ञान
ज्ञान है, धर्म जीवन है। इसलिए विज्ञान की शिक्षा हो सकती है,
धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है।
विज्ञान है ज्ञात और ज्ञेय की खोज। धर्म है
अज्ञात और अज्ञेय में निमज्जन। विज्ञान है पाना, धर्म है मिटना। इसलिए विज्ञान
बहुत हैं, लेकिन धर्म एक ही है। इसलिए ही विज्ञान है
विकासशील, किंतु धर्म शाश्वत है।
जीवन की परिधि की ओर जाने से तो केंद्र से दूर
निकल जाते हैं। लेकिन एक बड़ा आश्चर्य है कि जो केंद्र की ओर जाता है वह परिधि से
दूर नहीं निकलता है, उलटे परिधि और निकट आती जाती है। और ठीक केंद्र पर पहुंचने पर तो परिधि
विलीन ही हो जाती है, क्योंकि केंद्र भी विलीन हो जाता है।
परिधि पर परिधि भी है और केंद्र भी है। केंद्र पर न केंद्र है, न परिधि है। आंतरिक तो अंततः उसका द्वार बन जाता है जो कि न आंतरिक है,
न बाह्य है।
इसलिए मैं कहता हूं कि विज्ञान का तो धर्म से
विरोध हो भी सकता है, लेकिन धर्म का विज्ञान से विरोध असंभव है। बाह्य का आंतरिक से विरोध हो
सकता है, लेकिन आंतरिक के लिए तो बाह्य है ही नहीं। पुत्र का
मां से विरोध हो सकता है, लेकिन मां के लिए तो पुत्र का होना
उसका स्वयं का होना ही है।
धर्म विज्ञान के विरोध में नहीं हो सकता है, और जो हो वह धर्म
नहीं है। धर्म संसार के विरोध में भी नहीं है। संसार धर्म के विरोध में हो सकता है,
लेकिन धर्म संसार के विरोध में नहीं हो सकता है। धर्म सर्व अविरोध
है और इसलिए तो धर्म मुक्ति है। जहां विरोध है, वहां बंधन
है। और जहां विरोध है, वहां अशांति, वहां
अग्नि है। वह बूढ़ी स्त्री सही तो चिल्लाती थी--‘मेरा घर जल
रहा है, मेरे जीवन में आग लगी है।’
और लोग पहुंचे थे विज्ञान की बाल्टियां लेकर, बाह्य का जल लेकर,
तो वह हंसने लगी थी। वह आज भी हंस रही है, क्योंकि
जीवन में आग आज भी लगी है, रात्रि आज भी अमावस की है। गांव
आज भी सोते से जाग पड़ा है, पड़ोसी आज भी दौड़े चले आए हैं,
लेकिन फिर वे ही बातें पूछ रहे है। वे पूछते हैं, आग कहां है? दिखाई तो नहीं देती, बताओ, हम उसे बुझा दें, हम
पानी की बाल्टियां ले आए हैं। हर रात्रि यही हो रहा है, वही
बात हर रात दुहरती है।
लेकिन आग है भीतर और पानी है बाहर का। अब आग बुझे
कैसे? आग और बढ़ती ही जाती है और आदमी उसमें झुलसता ही जा रहा है। यह भी हो सकता
है कि आग तो न बुझे और आदमी को ही बुझना पड़े। और यह भी हो सकता है कि आग के चरम
उत्ताप में आदमी परिवर्तित हो जाए और उसकी नींद टूट जाए। और इस आग से वह और भी
निखरा हुआ स्वर्ण होकर बाहर निकले। यह स्मरण रहे कि विज्ञान आग को नहीं बुझा सका
है, उल्टे विज्ञान की सभी खोजें आग को और प्रज्वलित करने में
सहयोगी हो गई हैं।
विज्ञान के लिए मनुष्य ने कितना श्रम नहीं किया
है? अथक खोज से विज्ञान खड़ा हुआ है। लेकिन आग जहां थी, वहीं
है, उसकी लपटें जरूर उसी मात्रा में विशाल हो गई हैं जिस
मात्रा में विज्ञान ने मनुष्य के हाथों में शक्ति दे दी है। यह शक्ति उस अग्नि का
ईंधन बन गई है।
अज्ञान के हाथों में शक्ति आत्मघाती हो उठे तो
इसमें आश्चर्य ही क्या है? मुझे तो पिछले दो महायुद्ध मनुष्यता द्वारा
सार्वलौकिक आत्मघात की पूर्ण तैयारियां ही मालूम पड़ते हैं। दो महायुद्धों में शायद
दस करोड़ लोगों की हत्या हुई है और तैयारी आगे भी जारी है। तीसरा महायुद्ध होगा
अंतिम।
इसलिए नहीं कि फिर मनुष्य युद्ध नहीं करेगा, वरन इसलिए कि फिर
मनुष्य युद्ध करने को बचेगा ही नहीं।
स्वयं को नष्ट करने की मनुष्यता की आतुरता अकारण
भी नहीं है। शायद बाह्य की एकांगी खोज से जो विफलता हाथ आई है, उसके विवाद में ही
आत्मघात का यह विराट आयोजन चल रहा है। मनुष्य के हाथ सारी दौड़-धूप के बाद भी खाली
के खाली हैं। जीवन ही रिक्त, अर्थहीन और खाली है। सिकंदर ने
मरते समय ही जाना कि उसके हाथ खाली हैं, इसलिए मरने की
जिम्मेवारी उसने स्वयं अपने ऊपर नहीं ली। शायद अब मनुष्य ने जीते-जी जो यह जान
लिया है, इसलिए वह स्वयं ही अपने को मारने को तैयार है। वह
मृत्यु के लिए परमात्मा को भी कष्ट नहीं देना चाहता है। जब हाथ खाली हैं, और आत्मा ही खाली है तो जीने का प्रयोजन ही क्या है...अर्थ ही क्या
है...अभिप्राय ही क्या है?
जीवन है अर्थहीन, क्योंकि जीवन से मनुष्य परिचित
ही नहीं है। और जिसे उसने जीवन जाना है वह निश्चित ही अर्थहीन है, क्योंकि वह जीवन ही नहीं है। जीवन आंतरिक को खोकर बाह्य की ही दौड़ हो तो
निश्चित ही अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि तब बच जाती है वस्तुएं और वस्तुएं। आत्मा
को बेच कर जो इन वस्तुओं को इकट्ठा कर लेता है, वह अपने ही
हाथों अपनी मृत्यु जुटा लेता है।
और बाह्य के विरोध और शत्रुता में जो आंतरिक की
ओर चलता है, वह पंगु हो जाता है। क्योंकि उसका जीवन भी अंतद्र्वंद्व में शांति और
संगीत को खो देता है।
और आत्मा तो केवल उन्हें ही मिलती है जो संगीत
में और सौंदर्य में जीते हैं। बाह्य की शत्रुता एक भांति की कुरूपता पैदा करती है।
और बाह्य का विरोध एक भांति की जड़ता ले आता है। अंतद्र्वंद्व अहंकार को तो पुष्ट
करता है लेकिन इससे आत्मा उपलब्ध नहीं होती है।
जीवन है, बाह्य और अंतर के मिलने में। जीवन है बाह्य और अंतर
के संगीत में। जीवन है बाह्य और अंतर के मध्य में। विरोध से, तनाव से, द्वंद्व और दमन से वह उपलब्ध नहीं होता है।
वह तो उपलब्ध होता है शांति से, सरलता से, सहजता से। और शांति, सरलता और सहजता आती है सजगता
से--सजगता, जीवन के प्रति सजगता,--जो
है ‘उसके प्रति सजगता’--सजगता यानी
अमूच्र्छा, सजगता यानी जाग्रतचित्तता। सजगता के आलोक में
क्रमशः बाह्य से अंतर की ओर गति होती है। और फिर अंतर से उसकी ओर गति होती है जो न
बाह्य है, न अंतर है, जो कि बस है।
इसलिए मैं कहता हूं कि निद्रा ही, मूच्र्छा ही, तंद्रा ही वह अग्नि है, जिसमें जीवन जलता और पीड़ित
होता है। और सजगता, और अमूच्र्छा, होश
ही वह आलोक है, जिसमें जीवन परम जीवन में परिवर्तित होता है।
वह शक्ति ही जो कि निद्रा में जलाने वाली अग्नि है, जागरण
में जीवनदायी आलोक बन जाती है।
मनुष्य सजग हो तो उसके हाथों में सारी शक्तियां
ही मंगलदायी हैं। क्योंकि मूच्र्छा और बेहोशी के अतिरिक्त और कोई अमंगल नहीं है।
शक्तियां तो सदा ही तटस्थ हैं, और निष्पक्ष हैं। उनसे क्या होगा यह उन पर नहीं,
उनके उपयोग करनेवाले मनुष्य पर ही पूर्णतः निर्भर है।
धर्म में प्रतिष्ठित मानवीय चेतना के लिए विज्ञान
की अग्नि भी आत्मविनाशी नरक नहीं, वरन आत्म-सृजन, स्वर्ग बन सकती
है। धर्म से संयुक्त होकर विज्ञान एक बिलकुल ही अभिनव मनुष्यता का जन्म बन सकता
है।
एक बादशाह ने किसी वृद्ध फकीर से पूछा था, मैं सुनता हूं कि
बहुत सोना बुरा है लेकिन मुझे नींद बहुत आती है। आपकी राय क्या है? वह वृद्ध फकीर बोला था, अच्छे लोगों का सोना बुरा
होता है लेकिन बुरे लोगों का सोना ही अच्छा होता है। क्योंकि वे जितनी देर जागते
हैं, संसार को उतना नरक बनाने के लिए श्रमरत रहते हैं।
शांति के केंद्र पर शक्ति की परिधि शुभ होती है।
किंतु अशांति के केंद्र पर तो अशक्ति ही शुभ है। धर्म के हाथों में विज्ञान शुभ
है। किंतु अधर्म के हाथों में उसे कैसे शुभ माना जा सकता है? ज्ञान के साथ शक्ति
शुभ है। लेकिन अज्ञान और शक्ति का मिलन तो दुर्घटना बनेगी ही! मनुष्य ऐसी ही
दुर्घटना में फंस गया है। विज्ञान ने दी है शक्ति, लेकिन वह
शांति कहां है, जो उसका सम्यक उपयोग कर सके? शांति नहीं होगी तो होगा विनाश। और शांति होगी तो जीवन के और सृजन के
अभूतपूर्व मार्ग प्रशस्त हो सकते हैं? मनुष्य के बाहर है
शक्ति और भीतर है अशांति। गणित बिलकुल सीधा और साफ है? यह
संयोग ही संकट है।
अशांत और दुखी चित्त दूसरों को भी दुखी और अशांत
करने में सुख का अनुभव करता है। दुखी चित्त के लिए इसके अतिरिक्त और कोई सुख होता
ही नहीं है। वस्तुतः जो हमारे पास होता है उसे ही तो हम दूसरों को दे सकते हैं?
जो दुखी है, वह दूसरों को सुख में देख कर और दुख में पड़ जाता है।
उसका सुख तो यही होता है कि कोई सुख में न हो। यही हो रहा है, यही होता रहा है। और दुखी, अशांत और अंधकार से भरे
मनुष्य के हाथों में विज्ञान ने ऐसी शक्ति रख दी है, जो कि
समग्र जीवन का विनाश भी बन सकती है।
मनुष्यता को आत्मघात के लिए पूर्ण उपकरण उपलब्ध
हो गए हैं। और अब जो महामृत्यु के लिए समारोहपूर्वक तैयारी चल रही है, उसे आकस्मिक नहीं कहा
जा सकता है। हम सब किस कार्य में संलग्न हैं? यह विराट श्रम
किस दिशा में हो रहा है? हम किसलिए जी रहे हैं और मर रहे हैं?
मृत्यु को लाने के लिए! महामृत्यु को लाने के लिए!
पहले तथाकथित धार्मिक लोग जीवन से छुटकारे के लिए
व्यक्तिगत रूप से श्रम और साधना करते थे। अब विज्ञान ने सामूहिक और सार्वजनिक रूप
से जीवन से छुटकारे के लिए द्वार खोल दिए हैं। इस बहती गंगा में कौन हाथ न धो लेना
चाहेगा? मृत्यु के इस अदभुत समारोह में हम सभी एक-दूसरे के लिए सहयोगी और साथी
हैं। जीवन के लिए जो साथी और सहयोगी नहीं हैं, वे भी
एक-दूसरे को मृत्यु में भेजने के लिए स्वयं को मिटाने के लिए भी सहर्ष तैयार हैं।
अदभुत है बलिदान की यह भावना, त्याग की यह वृत्ति! जीवन में
जो शत्रु हैं, मृत्यु के महायज्ञ में वे सब संगी-साथी हो गए
हैं।
क्या मैं कहूं कि मनुष्य विक्षिप्त हो गया है? शायद यह कहना ठीक
नहीं है। क्योंकि इससे यह भ्रम पैदा होता है कि जैसे वह पहले स्वस्थ था! मनुष्य तो
वैसा ही है, जैसा सदा से था। सिर्फ वे शक्तियां जो पहले उसके
हाथ में नहीं थीं अब उसके हाथ में आ गई हैं, और उसने ही उसकी
छिपी विक्षिप्तता प्रकट कर दी है। शक्ति और सामथ्र्य पाकर कोई पागल नहीं होता है।
बस शक्ति की सुविधा पाकर जो पागलपन अप्रकट होता है वही प्रकट हो जाता है।
मनुष्य की विक्षिप्तता पूरी तरह प्रकट हो गई है।
ऐसे इस उदघाटन के लिए विज्ञान के प्रति कृतज्ञ होना अत्यंत आवश्यक है। मनुष्य के
सारे वस्त्र छिन गए हैं और वह बिलकुल नग्न खड़ा है। इस नग्नता में वह नष्ट भी हो
सकता है और एक बिलकुल नये रूप में जन्म भी पा सकता है। स्वयं के समक्ष इस भांति
नग्न खड़ा होना चेतना के नये आरोहण के लिए बिलकुल अपरिहार्य जो है! मनुष्य के ऊपर
झूठे वस्त्र खतरनाक थे। झूठे वस्त्रों से तो सच्ची नग्नता बेहतर है। क्योंकि झूठे
वस्त्र दूसरों को धोका देते ही हैं, स्वयं को भी धोका देते हैं।
इस आत्मवंचना के कारण ही तो आज तक मनुष्य में कोई
मौलिक क्रांति नहीं हो पाई है। लेकिन अब वह क्षण आ गया है कि हम मनुष्य की
विक्षिप्तता को उसके प्रकट रूप में देख सकते हैं। और जो रुग्णता प्रकट हो, निश्चय ही उससे मुक्त
होने के लिए कुछ किया जा सकता है।
मनुष्य-जाति के तीन हजार वर्षों के छोटे से
इतिहास में अनुमानतः पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्ध! यह
विक्षिप्तता नहीं है तो और क्या है? और ये सब युद्ध भी हुए है शांति के लिए! यह
विक्षिप्तता नहीं है तो और क्या है? पृथ्वी ने मनुष्य के
आगमन के बाद दो ही प्रकार के कालखंड जाने हैं--युद्ध के कालखंड और युद्ध की तैयारी
के कालखंड। शांति का कालखंड तो आज तक जाना ही नहीं गया है, क्योंकि
दो युद्धों के बीच का जो समय है, वह शांति का नहीं, युद्ध की तैयारी का ही समय होता है। यह विक्षिप्तता नहीं है तो और क्या है?
क्या मनुष्य लड़ने के लिए ही जी रहा है? विज्ञान
ने जरूर इस रोग को उस चरम स्थिति पर पहुंचा दिया है जहां कि या तो रोगी ही नहीं
बचेगा। या, यदि उसे बचना हो तो फिर रोग को छोड़ना ही
होगा--चाहे रोग कितना ही पुराना और प्यारा क्यों न हो। रोग भी पुराने होने से
प्यारे हो जाते हैं और परंपरागत होने से उन्हें भी एक आदृत स्थान प्राप्त हो जाता
है।
किसी भी चीज का पुराना होना उसके बने रहने के लिए
दलील हो जाती है। और यह युद्ध की बीमारी तो सबसे ज्यादा पुरानी धरोहर है। यह तो
मनुष्य की सबसे ज्यादा गहरी संस्कृति है!
एक कहानी कहना चाहता हूं। कहानी बिलकुल ही झूठी है।
लेकिन जो वह कहती है वह एकदम सत्य है, सौ प्रतिशत सत्य है। दूसरे महायुद्ध के बाद की बात
है। परमात्मा ने युद्ध में मनुष्य को मनुष्य के साथ जो करते देखा था उससे वह बहुत
चिंतित था। लेकिन चिंता उस दिन उसकी परम हो गई थी जिस दिन उसके दूतों ने बताया कि
मनुष्य-जाति अब तीसरे महायुद्ध की तैयारी में संलग्न है। परमात्मा की आंखों में
मनुष्य की इस विक्षिप्तता से आंसू आ गए थे और उसने तीन बड़े राष्ट्रों के
प्रतिनिधियों को अपने पास बुलवाया था। इंग्लैंड, रूस और
अमरीका के प्रतिनिधि बुलाए गए थे। परमात्मा ने उनसे कहाः मैं यह सुन रहा हूं कि
तुम अब तीसरे महायुद्ध की तैयारी में लग गए हो? क्या दूसरे
महायुद्ध से तुमने कोई पाठ नहीं सीखा है?
मैं वहां होता तो कहता कि मनुष्य-जाति सदा ही पाठ
सीखती रही है। पहले महायुद्ध से दूसरे महायुद्ध के लिए पाठ सीखा था! अब दूसरे से
तीसरे के लिए ज्ञान पाया है! लेकिन मैं वहां नहीं था और इसलिए जो परमात्मा से नहीं
कह सका, वह आपसे कहे देता हूं।
परमात्मा ने अपनी सदैव की आदत के अनुसार फिर उनसे
कहाः मैं तुम्हें एक-एक मनचाहा वरदान दे सकता हूं, यदि तुम यह आश्वासन दो कि इस
आत्मघाती वृत्ति से बचोगे। दूसरा महायुद्ध ही काफी है। मैं मनुष्य को बना कर बहुत
पछता लिया हूं, अब बुढ़ापे में मुझे और मत सताओ। क्या तुम्हें
पता नहीं है कि मनुष्य को बनाकर मैं इतने कष्टों में पड़ गया कि फिर उसके बाद मैंने
कुछ भी निर्मित नहीं किया है?
मैं वहां होता तो कहता, हे परमात्मा! यह
बिलकुल ही ठीक है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। लेकिन मैं वहां नहीं
था!
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहाः हे परमपिता! हमारी
कोई बड़ी आकांक्षा नहीं है। एक छोटी सी हमारी कामना है। वह पूरी हो जाए तो तीसरे
महायुद्ध की आवश्यकता ही नहीं है।
परमात्मा क्षण भर को प्रसन्न दिखाई पड़ा था। लेकिन
जब अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, पृथ्वी तो हो लेकिन पृथ्वी पर रूस का कोई नामोनिशान न
रह जाए--बस छोटी सी और एकमात्र यही हमारी कामना है। तो वह पुनः ऐसा उदास हो गया था
जैसा कि मनुष्य को बना कर भी उदास न हुआ होगा। निश्चय ही मनुष्य अपने बनाए जाने का
पूरा-पूरा बदला ले रहा था!
फिर परमात्मा ने रूस की तरफ देखा। रूस के
प्रतिनिधि ने कहाः कामरेड! पहली बात तो यह कि हम मानते नहीं कि आप हैं। बरसों हुए
हमने अपने महान देश से आपको सदा के लिए विदा कर दिया है। वह भ्रम हमने तोड़ दिया है
जो कि आप थे। लेकिन नहीं, हम पुनः आपकी पूजा कर सकते हैं, और उजड़े और वीरान पड़े चर्चों और मंदिरों तथा मस्जिदों में फिर आपको रहने
की भी आज्ञा दे सकते हैं। पर एक छोटा सा काम आप भी हमारा कर दो। दुनिया के नक्शे
पर हम अमरीका के लिए कोई रंग नहीं चाहते हैं। ऐसे यदि यह आपसे न हो सके तो चिंतित
होने की भी कोई बात नहीं। देर-अबेर हम स्वयं बिना आपकी सहायता के भी यह कर ही
लेंगे। हम बचें या न बचें लेकिन यह कार्य तो हमें करना ही है। यह तो एक ऐतिहासिक
अनिवार्यता है जिसे कि सर्वहारा के हित में हमें करना ही पड़ेगा। मनुष्य का भविष्य
अमरीका की मृत्यु में ही निहित है।
और फिर आंसुओं में डूबी आंखों से परमात्मा ने
इंग्लैंड की ओर देखा। और इंग्लैंड के प्रतिनिधि ने क्या कहा? क्या आप कल्पना भी कर
सकते हैं? नहीं। नहीं, उसकी कल्पना कोई
नहीं कर सकता है। क्योंकि वह बात ही ऐसी अद्वितीय है।
इंग्लैंड के प्रतिनिधि ने कहाः हे महाप्रभु, हमारी अपनी कोई
आकांक्षा नहीं है। बस दोनों मित्रों की आकांक्षाएं एक ही साथ पूरी कर दी जाएं,
तो हमारी आकांक्षा अपने आप ही पूरी हो जाती है।
ऐसी स्थिति है। क्या यह कहानी झूठी है? लेकिन इससे सच्ची
कहानी और क्या हो सकती है? और यह किसी एक राष्ट्र की बात
नहीं है, सभी राष्ट्रों की बात है। राष्ट्रीयता जहां भी है,
वहां युद्ध है। वह ज्वर ही तो अंततः युद्ध लाता है।
और यह राष्ट्रों की ही बात नहीं है।
व्यक्ति-व्यक्ति की भी यही बात है। क्योंकि जो ज्वर व्यक्ति-व्यक्ति में न हो, वह राष्ट्रों में भी
कैसे हो सकता है? व्यक्ति ही तो है इकाई, उस सबकी, जो कि मनुष्य के जगत में कहीं भी घटित होता
है। गंगा चाहे प्रेम की हो, चाहे घृणा की; गंगोत्री तो सदा व्यक्ति ही है। और चाहे जीवन के विराट आकाश में घृणा के
ऐसे बादल घिरे हों कि सारी पृथ्वी ही उनसे ढंक गई हो, तो भी
व्यक्ति के छोटे से हृदय में ही खोजना होगा उस मूल उत्स को जहां से क्रोध, घृणा, वैमनस्य, महत्वाकांक्षा,
दुख, चिंता और संताप के छोटे-छोटे वाष्प खंड
धीरे-धीरे उठ कर सारे आकाश को घेर लेते हैं। और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की,
घृणा और हिंसा की जब मुठभेड़ होती है तो उनमें जोड़ नहीं, गुणन हो जाता है। यह गुणन फैलता ही जाता है और फिर मृत्यु के जो बादल आकाश
में छा जाते हैं, वे सब व्यक्तियों की हिंसा के जोड़ से बहुत
ज्यादा होते हैं। लेकिन यह गुणन प्रक्रिया कोई चिंता की बात नहीं है, क्योंकि जो घृणा के संबंध में हुआ है, वही प्रेम के
संबंध में भी हो सकता है।
पृथ्वी पर ऐसा प्रेम हो सकता है जो कि सभी
व्यक्तियों के प्रेम के जोड़ से अनंत गुना ज्यादा हो। उस प्रेम का नाम ही परमात्मा
है। लेकिन अभी जो है वह है घृणा का दैत्य--चाहें तो कहें कि यही शैतान है, लेकिन एक बात स्मरण
रहे कि न परमात्मा इससे भिन्न है और न शैतान। वे मनुष्य के ही सृजन हैं।
मनुष्य में जो शुभ है, वह प्रभु है। जो
सुंदर है, वह स्वर्ग है। जो अशुभ है, वह
नरक है। मनुष्य स्वयं को जैसा बनाता है, वैसा ही वह जगत को
भी निर्मित करता है। मैं जो हूं, वही जगत को मेरा दान है। उस
दान से ही मैं जगत को भी निर्मित करता हूं। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति स्रष्टा है।
यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि यह जो कुरूप जगत
है--हिंसा, क्रोध,घृणा और युद्ध का यह जो तांडव चल रहा है,
उसमें प्रत्येक व्यक्ति साझीदार है। इसका उत्तरदायित्व प्रत्येक पर
है। प्रत्येक इसके लिए उत्तरदायी है। बड़े से बड़े युद्ध के लिए छोटे से छोटा
व्यक्ति भी उत्तरदायी है। क्योंकि व्यक्ति ही तो फैलकर समाज बन जाता है। समाज और
कहां है? व्यक्ति ही तो समाज है!
और व्यक्ति है महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रस्त।
प्रत्येक कुछ होना चाहता है! और इस कुछ होने की दौड़ में वह भूल ही जाता है उसे जो
कि वह है! और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक केवल वही हो सकता है जो
वह है। स्वयं के अतिरिक्त और अन्यथा होना असंभव है। क्योंकि जो बीज में नहीं है वह
वृक्ष में कैसे हो सकता है? लेकिन प्रत्येक वही होने की दौड़ में है जो वह नहीं
है। इससे एक ज्वरग्रस्त जीवन पैदा होता है जो कि अनिवार्यतः हिंसा और विध्वंस में
ले जाता है। व्यक्ति जो बीजतः होता है, उसके विकास में न तो
दौड़ होती है और न ज्वर होता है और न विक्षिप्तता होती है। उसमें तो एक शांत और मौन
और अदृश्य विकास होता है। उसमें तो जो गति होती है उसकी पगध्वनियां भी नहीं सुनाई
पड़ती हैं। लेकिन व्यक्ति जो नहीं है उसके होने में शोरगुल तो बहुत होता है और होता
कुछ भी नहीं है। यह शोरगुल, यह संघर्ष, यह तनाव, यह अशांति पैदा होती है प्रतिस्पर्धा से।
व्यक्ति जो है, वही होने में कोई प्रतिस्पर्धा
नहीं होती है। वह होता है बस अपने में, अन्य की तुलना में
नहीं। वैसे विकास में अन्य की कोई प्रतिभा ही नहीं होती है। इसलिए चित्त कलह से
मुक्त शांत गति करता है। शक्ति का संघर्ष में, स्पर्धा में
होने वाला अपव्यय बचता है और व्यक्ति शक्ति का संरक्षित सरोवर बन जाता है। शक्ति
का, ऊर्जा का यह शांत संचय जीवन को एक ऐसा गत्यात्मक रूप
देता है, जिसमें कि गति तो होती है पूर्ण लेकिन घर्षण शून्य
होता है। लेकिन जहां व्यक्ति अन्य की तुलना में जीता है, वहां
तो वह जीता ही नहीं है।
जीवन तो है स्वयं में, वह अन्य में नहीं है।
अन्य की तुलना में है ईष्र्या, क्रोध, हिंसा--और
वे जीवन नहीं हैं, वे तो हैं मृत्युएं। इन मृत्युओं में
व्यक्ति जीता हो तो जगत जैसा कुरूप हो गया है, वैसा होना
अनिवार्य ही है। और फिर जब सब भांति की महत्वाकांक्षाओं और प्रतिस्पर्धाओं में
जीने के बाद भी आनंद के द्वार नहीं खुलते हैं और दुख का नर्क और गहरे से गहरा होता
जाता है तो व्यक्ति इस विफलता और विषाद में सारे जगत से ही प्रतिशोध लेने लगता है।
वह हो जाता है विध्वंसक। वह, जो स्वयं को सृजन नहीं कर पाया
है, उसके प्रतिशोध में अन्यों का विध्वंस करने लगता है।
आत्म-सृजन का अभाव विध्वंस और हिंसा बन जाता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ा जगत कभी भी अहिंसक नहीं हो
सकता है, फिर चाहे यह महत्वाकांक्षा संसार की हो या मोक्ष की। जहां महत्वाकांक्षा
है, वहां हिंसा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है।
और विज्ञान ने महत्वाकांक्षी मनुष्य के हाथों में असीम शक्ति दे दी है। अब यदि
धर्म ने मनुष्य के चित्त से महत्वाकांक्षा न छीनी तो विनाश सुनिश्चित है।
यह महत्वाकांक्षा पैदा ही क्यों होती है और कहां
से होती है? महत्वाकांक्षा पैदा होती है हीनता के भाव से। व्यक्ति है स्वयं के अंतस
में अत्यंत दीन-हीन। वहां है सब रिक्त और शून्य। वहां कुछ भी नहीं है। वहां है सब
अभाव, सब भांति का खालीपन। इस अभाव, इस
रिक्तता से ही वह भागता है। और इस पलायन के लिए ही वह महत्त्वाकांक्षा के लक्ष्य
निर्मित करता है ताकि वे उसे दौड़ने के लिए ज्वर और त्वरा दे सकें। मूलतः वह किसी
स्थान के लिए नहीं भागता है, वरन किसी स्थान से भागता है।
लेकिन मात्र किसी स्थान से भागे जाना बिना किसी
स्थान के लिए एकदम असंभव है, इसलिए वह लक्ष्य और गंतव्य निर्धारित करता है। अभाव
से पलायन है मूल में, लेकिन प्रकटतः दिखाई पड़ता है कि
प्रत्येक व्यक्ति कहीं पहुंचने के लिए दौड़ रहा है। वस्तुतः हम भाग रहे हैं स्वयं
से बचने के लिए। लेकिन इस तथ्य को देखना भी दौड़ की हत्या करना है। इसलिए कहीं
पहुंचने की, किन्हीं मंजिलों की, किन्हीं
आदर्शों की, किन्हीं मोक्षों की हम बातें कर रहे हैं। यह
आत्मवंचना बहुत गहरी है। और जो इस आत्मवंचना को तोड़ने का साहस नहीं करता है वह
महत्वाकांक्षा के ज्वर से कभी स्वस्थ नहीं हो सकता है। उसकी एक महत्वाकांक्षा
व्यर्थ सिद्ध होगी तो वह दूसरी निर्मित कर लेगा।
संसार की महत्वाकांक्षाएं व्यर्थ होंगी तो वह मोक्ष
की, ब्रह्म को पाने की महत्वाकांक्षाओं को बना लेगा। संसारी संसार से छूट भी
नहीं पाता है कि संन्यासी हो जाता है। और ऐसे महत्वाकांक्षा नये वस्त्रों में पुनः
वापस लौट आती है। और क्या महत्वाकांक्षा ही संसार नहीं है?
धर्म का जीवन में अवतरण उसी क्षण से होता है, जब से व्यक्ति अपनी
दौड़ के मूल कारण को देखना और पहचानना शुरू करता है। यह सत्य दिखाई पड़ जाना कि
महत्त्वाकांक्षा का मूल आंतरिक अभाव से पलायन है, जीवन में
एक नई ही दिशा का उदघाटन बन जाता है।
स्वयं की आंतरिक रिक्तता से भागना संसार है। और
स्वयं की आंतरिक रिक्तता और शून्य में जागना धर्म। भागना संसार है, जागना धर्म है। और जो
भागता है वह पाता है कि शून्य बढ़ता ही जाता है। और जो जागता है वह पाता है कि
शून्य है ही नहीं। निद्रा में जो शून्य प्रतीत होता था, जागृति
में वही पूर्ण हो जाता है। मित्र, भागने से शून्य बढ़ता है
क्योंकि हम स्वयं से जितने दूर होते हैं उतने ही रिक्त और शून्य हो जाते हैं।
हमारी स्वयं की सत्ता से जो दूरी होती है, वही दूरी हमारी
रिक्तता का अनुपात भी है। यह स्मरण रहे कि मनुष्य में जितना बड़ा सिकंदर छिपा होता
है, उसके हाथ उतने ही खाली होते हैं।
और स्वयं से भागने से शून्य इसलिए भी बढ़ता है कि
भागने का मूल है भय। भागना भय की स्वीकृति है। पलायन भय को गले लगा लेना है। और
जिसे हम स्वीकार करते हैं और जिसे हम गले लगा लेते हैं, वह बढ़ता ही जाता है।
भय भागने से घटता नहीं, बढ़ता है। और भय जितना बढ़ता है स्वयं
का होना उतना ही घटता है। और ऐसे स्वयं की रिक्तता और भी बढ़ जाती और पीड़ादायी हो
जाती है।
किंतु जो स्वयं से भागता नहीं, वरन स्वयं के प्रति
जागता है, वह जीवन के एक बिलकुल दूसरे ही अनुभव को उपलब्ध
होता है। उसके हाथ खाली नहीं रह जाते हैं। उसके प्राण खाली नहीं रह जाते हैं। उसका
समग्र जीवन ही एक अनूठी संपदा से भर जाता है।
क्योंकि जो स्वयं के प्रति जागता है, वह पाता है कि वहां
तो कोई अभाव ही नहीं है। वहां तो स्वयं परमात्मा है। अभाव स्वयं में नहीं, स्वयं के प्रति मूच्र्छा में है । मैं सोया हूं--यही है अभाव। मैं जाग
जाऊं तो अभाव वैसे ही नहीं पाया जाता है जैसे कि सूर्य के निकलते ही अंधकार नहीं
पाया जाता है।
क्या आपको ज्ञात है कि एक बार अंधकार ने सूर्य को
पत्र लिखा था और शिकायत की थी कि आप अकारण ही मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं। सूर्य
अंधकार के इस पत्र को पाकर बहुत हैरान हुआ था। और उसने खबर भिजवाई थी कि मित्र, मैं तो आपको जानता भी
नहीं हूं। कभी आएं और मेरा आतिथ्य स्वीकार करें। अनजाने में कोई भूल मुझसे हो गई
हो तो मैं प्रत्यक्ष सेवा से क्षमा मांगना चाहता हूं। किंतु इस आमंत्रण को दिए गए
अनगिनत सदियां बीत गई हैं। और अंधकार आज तक भी सूर्य से मिलने नहीं आ सका है। और
अब तो सूर्य को संदेह भी होने लगा है कि अंधकार कहीं है भी या नहीं? वह पत्र जाली भी तो हो सकता था!
मैं जैसे ही जागता हूं, वैसे ही कोई अभाव
नहीं है। मैं जैसे ही सूर्य बनता हूं, वैसे ही कोई अंधकार
नहीं है। और यह मैं जाग कर कह रहा हूं। मैं यह सूर्य बन कर कह रहा हूं। मैं यह सब
भांति भरा हुआ होकर कह रहा हूं, आओ! और मेरे हाथ देखो! क्या
वे भरे हुए नहीं हैं?
और स्मरण रहे कि सूर्य आप भी हो और हाथ आपके भी
भरे हुए हैं। लेकिन आप आंखें बंद किए हो और सो रहे हो, और इस निद्रा के कारण
भरे हुए हाथ दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। और तब उन्हें भरने के लिए हजार-हजार सपने देखे
जा रहे हैं।
लेकिन मित्र, क्या वे हाथ कभी भरे जा सकते हैं
जो कि खाली ही नहीं हैं? और क्या उस आंतरिक अभाव को भरा जा
सकता है जो कि है ही नहीं? इसलिए ही तो मनुष्य की सब दौड़
अनिवार्यतः असफल हो जाती है। और यह अनिवार्य असफलता ही तो मनुष्य का संताप है।
और फिर जो संताप में है वह दूसरों को भी संताप
देता है। जो दुख में है वह दुख बांटता है। मनुष्य जो है, उसे ही बांटने को
आबद्ध है और समर्थ है। क्योंकि स्वयं को बांटे बिना जिया ही नहीं जा सकता है। फूल
सुगंध बांटते हैं क्योंकि वे सुगंध हैं। तारों से प्रकाश बंटता है क्योंकि वे
प्रकाश हैं। मनुष्य दुख बांटता है क्योंकि वह दुख है। लेकिन, मनुष्य आनंद भी बांट सकता है क्योंकि वह आनंद भी हो सकता है।
धर्म आनंद का द्वार है। क्योंकि धर्म स्वयं के
प्रति जागरण है। जो स्वयं के प्रति जागता है वह पाता है कि वहां अभाव नहीं है, और यह साक्षात आनंद
से भर देता है क्योंकि फिर कुछ पाने को नहीं रह जाता है। वह सब जो भी पाने जैसा है,
पाया जाता है, कि पाया ही हुआ है।
अभाव स्वरूप नहीं है, स्वरूप है आनंद। और
इसलिए स्वयं के प्रति सचेत होना ही आनंद को पा लेना है। और आनंद मिलते ही आनंद
वितरित होने लगता है। आनंद की किरणों को बिखेरता चित्त ही धर्म में प्रतिष्ठित
चित्त है। और ऐसे चित्त के हाथों में विज्ञान की शक्ति स्वर्ण में सुगंध है।
विज्ञान और धर्म का ऐसा मिलन चिरप्रतीक्षित है।
मेरे मित्रो, क्या आप वह सेतु बनोगे जो कि इस
सम्मिलन को ला सके? मनुष्य को ही तो सेतु बनना है। प्रत्येक
को ही तो सेतु बनना है। क्योंकि ऐसे सेतु से ही धरा पर प्रतीक्षित स्वर्ण-युग का
अवतरण होगा जो कि अतीत में आकर चला नहीं गया है, वरन भविष्य
में है और अभी आने को है।
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