शिक्षा में क्रांति-ओशो
तीसरा प्रवचन
शिक्षा ओर धर्म
मेरे प्रिय!
एक फकीर बहुत अकेला था। स्वप्न में उसे
परमात्मा के दर्शन हुए तो उसने पाया कि परमात्मा तो उससे भी अकेला है। निश्चय ही
वह बहुत हैरान हुआ और उसने भगवान से पूछा, क्या आप भी इतने अकेले हैं?
लेकिन आपके तो इतने भक्त हैं, वे सब कहां हैं?
यह सुन कर भगवान ने उससे कहा था, मैं तो सदा
से अकेला ही हूं और इसलिए ही जो नितांत अकेले हो जाते हैं वे ही केवल मेरा अनुभव
कर पाते हैं। रही भक्तों और तथाकथित धार्मिकों की बात, सो वे
मेरे साथ कब थे? उनमें से कोई राम के साथ है, कोई कृष्ण के, कोई मोहम्मद के और कोई महावीर के।
उनमें से मेरे साथ तो कोई भी नहीं है। मैं तो सदा का ही अकेला हूं। और इसलिए जो
किसी के भी साथ नहीं है, बस अकेला ही है वही केवल मेरे साथ
है।
वह फकीर आधी रात ही घबड़ाहट में जाग गया था
और भागा हुआ मेरे पास आया था। आते ही उसने मुझे उठाया और कहाः मेरे इस स्वप्न का
क्या अर्थ है?
मैंने कहाः स्वप्न होता तो मैं अर्थ भी करता, लेकिन
यह तो सत्य ही है। और सत्य का भी क्या अर्थ करना होगा? आंखें
खोलो और देखो। धर्म के नाम पर जो हिंदू है, मुसलमान है,
बौद्ध है , या ईसाई, वह
धार्मिक ही नहीं है। क्योंकि धर्म तो एक ही है--या जो एक है, वही धर्म है। धार्मिक चित्त के लिए मनुष्य निर्मित सीमाएं सत्य नहीं हैं।
सत्य के अनुभव में संप्रदाय कहां, शास्त्र कहां, संगठन कहां? उस असीम में सीमा कहा? उस निःशब्द में सिद्धांत कहां? उस शून्य में मंदिर
कहां, मस्जिद कहां? और फिर जो शेष रह
जाता है, वही तो परमात्मा है।
और इसके पहले कि मैं शिक्षा और धर्म पर आपसे
कुछ कहूं, यह कह देना अत्यंत आवश्यक है कि धर्म से मेरा अर्थ धर्मों से नहीं।
धार्मिक होना हिंदू और मुसलमान होने से बहुत अलग बात है। सांप्रदायिक होना धार्मिक
होना तो है ही नहीं, उलटे, वही धार्मिक
होने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक कोई हिंदू है या मुसलमान है, तब तक उसका धार्मिक होना असंभव है। और जितने लोग धर्म और शिक्षा के लिए
विचार करते हैं और जो शिक्षा से धर्म को जोड़ना चाहते हैं, धर्म
से उनका अर्थ या तो हिंदू होता है या मुसलमान होता है या ईसाई। ऐसी धार्मिक शिक्षा
धर्म को नहीं लाएगी, वह मनुष्य को और अधिक अधार्मिक जरूर बना
सकती है। इस तरह की शिक्षा तो कोई चार-पांच हजार वर्ष से मनुष्य को दी जाती रही
है। लेकिन उससे कोई बेहतर मनुष्य पैदा नहीं हुआ, उससे कोई
अच्छा समाज पैदा नहीं हुआ। लेकिन हिंदू, मुसलमान और ईसाई के
नामों पर जितना अधर्म, जितनी हिंसा और जितना रक्तपात हुआ है
उतना किसी और बात से नहीं हुआ है।
यह जान कर बहुत हैरानी होती है कि नास्तिकों
के ऊपर, उनके ऊपर जो धर्म के विश्वासी नहीं हैं, बड़े पापों
का कोई जिम्मा नहीं है। बड़े पाप उन लोगों के नाम पर हैं जो आस्तिक हैं। नास्तिकों
ने न तो कोई मंदिर जलाए हैं और न लोगों की हत्याएं की हैं। हत्याएं की हैं उन
लोगों ने जो आस्तिक हैं। मनुष्य को मनुष्य से विभाजित भी उन लोगों न किया है जो
आस्तिक हैं। जो अपने को धार्मिक समझते हैं उन्होंने ही मनुष्य और मनुष्य के बीच
दीवालें खड़ी की हैं। शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों ने
मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना दिया है। वादों और पक्षों ने अलंघ्य खाइयां खोद दी
हैं और मनुष्य जाति को अपने ही हाथों से निर्मित छोटे-छोटे द्वीपों पर कैद कर दिया
है।
धर्म के नाम पर ऐसी शिक्षा आगे भी दिए चले
जाना अत्यंत खतरनाक है। यह शिक्षा न धार्मिक है, न कभी धार्मिक रही है और न
आगे ही हो सकती है। क्योंकि ये बातें जिन लोगों को सिखाई गईं, वे लोग कोई अच्छे मनुष्य सिद्ध नहीं हुए। और इन बातों के नाम पर जो संघर्ष
खड़े हुए उन्होंने मनुष्य के पूरे चित्त को रक्तपात और हिंसा, क्रोध और घृणा से भर दिया है। इसलिए सबसे पहली बात तो मैं यह कहना चाहता
हूं कि धर्म की शिक्षा से मेरा प्रयोजन किसी संप्रदाय, उसकी
धारणाओं, उसके सिद्धांतों की शिक्षा से नहीं है। यदि हम
चाहते हैं कि शिक्षा और धर्म संबंधित हों तो हमें चाहना होगा कि हिंदू, मुसलमान और ईसाई शब्दों से धर्म का संबंध टूट जाए, तो
ही शिक्षा और धर्म संबंधित हो सकते हैं। लेकिन धर्म के नाम पर संप्रदायों का संबंध
तो शिक्षा से कभी भी न होना चाहिए। उससे तो अधार्मिक होना ही बेहतर है। क्योंकि
अधार्मिक के धार्मिक होने की संभावना तो सदा ही जीवंत होती है। जब कि तथाकथित
धार्मिक व्यक्ति के चित्त के द्वार तो सदा के लिए ही बंद हो जाते हैं। और जिसके
चित्त के द्वार बंद हैं वह तो धार्मिक कभी हो ही नहीं सकता है। सत्य की खोज में
चित्त का मुक्त और खुला हुआ होना तो अत्यंत अनिवार्य है।
यदि एक धार्मिक सभ्यता पैदा करना हो तो वह
सभ्यता हिंदू नहीं होगी, वह सभ्यता मुसलमान भी नहीं हो सकती, वह सभ्यता पूर्व की भी नहीं होगी और वह सभ्यता पश्चिम की भी नहीं होगी। वह
सभ्यता अखंड मनुष्य की होगी, सबकी होगी और समग्र की होगी।
इसलिए एक अंश और एक खंड की वह सभ्यता नहीं हो सकती, क्योंकि
जब तक हम मनुष्यता को खंडित करेंगे, तब तक हम द्वंद्व और
युद्ध से मुक्त नहीं हो सकते। जब तक मैं और आपके बीच की दीवाल होगी तब तक उसके
निर्माण में बहुत कठिनाई है।
मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली भित्तियों
के रहते हम एक ऐसे समाज को कैसे निर्मित कर सकेंगे जो प्रेम और आनंद में जीए? अभी तक
हमने जो समाज निर्मित किया है वह तो प्रेम का समाज नहीं है। तीन हजार वर्षों में
पंद्रह हजार युद्ध जमीन पर हुए हैं। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध! यह
कल्पना ही कितनी अप्रीतिकर है! और केवल तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध
अकारण ही नहीं हो सकते हैं? प्रतिवर्ष पांच युद्ध हो रहे हों
तो इसका क्या अर्थ है? तीन हजार वर्षों के इतिहास में केवल
तीन सौ वर्ष का एक छोटा सा टुकड़ा है, जब युद्ध नहीं हुए हैं।
वह भी तीन सौ वर्ष इकट्ठे नहीं--कभी एक दिन, कभी दो दिन,
कभी दस दिन, जमीन पर युद्ध बंद रहा है। ऐसे सब
मिला कर शांति के तीन सौ वर्ष बीते हैं।
तीन सौ वर्ष शांति और तीन हजार वर्ष युद्ध!
निश्चय ही ऐसी शांति भी सच्ची नहीं हो सकती है। वह भी नाममात्र की ही शांति है।
अभी भी जो शांति चलती है वह भी झूठी है। वस्तुतः जिन्हें हम शांति क्षण कहते हैं
वे शांति के क्षण नहीं हैं बल्कि नये युद्ध की तैयारी के दिन हैं।
मैं तो मनुष्य के आज तक के इतिहास को दो
हिस्सों में बांटता हूं--युद्ध का काल और युद्ध की तैयारी का काल। अभी तक शांति का
कोई काल हमने नहीं जाना है। और ऐसी जो मनुष्य-जाति की स्थिति है, उसमें
उसके खंड-खंड में विभाजित होने का आधारभूत हाथ है। और किसने मनुष्य विभाजित किया
है?...किसने? क्या धर्मों ने नहीं?
क्या आइडियालाॅजी, विचारवाद, सिद्धांत और संप्रदायों ने नहीं? क्या राष्ट्रों,
राष्ट्रीयताओं और सीमित बनाने वाली धारणाओं ने ही नहीं? मनुष्यता को खंड-खंड में तोड़ने वाले धर्म ही हैं।
समस्त द्वंद्व और कलह के पीछे वाद हैं। फिर
चाहे वे वाद धर्म के हों या राजनीति के, वाद-विवाद पैदा करते हैं और विवाद
अंततः युद्धों में ले जाते हैं। आज भी सोवियत साम्यवाद और अमरीकी लोकतंत्र,
दो धर्म बन कर खंड हो गए हैं। उनकी भी लड़ाई दो धर्मों की लड़ाई हो गई
है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या यह नहीं हो सकता कि हम विचार के आधार पर मनुष्य
के विभाजन को समाप्त कर दें? क्या यह उचित है कि विचार जैसी
बहुत हवाई चीज के लिए हम मनुष्य की हत्या करें? क्या यह उचित
है कि मेरा विचार और आपका विचार, मेरे हृदय और आपके हृदय को
शत्रु बना दें?
लेकिन अब तक यही हुआ है। और अब तक धर्मों के
या राष्ट्रों के नाम पर खड़े हुए संगठन हमारे प्रेम के संगठन नहीं हैं। बल्कि वे
हमारी घृणा के संगठन हैं। और इसलिए आपको ज्ञात होगा कि घृणा का जहर जोर से फैला
दिया जाए तो किसी को भी संगठित किया जा सकता है। संभवतः एडोल्फ हिटलर ने कहीं कहा
है कि यदि किसी कौम को संगठित करना हो तो किसी दूसरी कौम के प्रति घृणा पैदा कर
देनी आवश्यक है। उसने यह कहा ही हो सो नहीं, उसने यह किया भी और इसे कारगर भी
पाया।
पृथ्वी को विषाक्त करने वाले सारे उपद्रवी
लोग इसे सदा से ही कारगर पाते रहे हैं। इस्लाम खतरे में है, ऐसा
नारा देकर मुसलमानों को इकट्ठा किया जा सकता है। हिंदू धर्म खतरे में बताया जाए तो
हिंदू इकट्ठे हो जाते हैं। खतरा भय पैदा करता है। और जिससे भय है उसके प्रति घृणा
पैदा हो जाती है। ऐसे सारे संगठन और एकताएं भय और घृणा पर ही खड़ी होती हैं। इसलिए
सारे धर्म प्रेम की बातें तो जरूर करते हैं, लेकिन चूंकि
उन्हें संगठन चाहिए इसलिए अंततः वे घृणा का ही सहारा लेते हैं। और तब प्रेम कोरी
बातचीत रह जाती है और घृणा उनका आधार बन जाती है।
इसीलिए जिस धर्म की मैं बात कर रहा हूं वह
संगठन नहीं है। वह है साधना। वह है व्यक्ति-व्यक्ति की अनुभूति। भीड़ इकट्ठा करने
से उसे प्रयोजन नहीं है। मूलतः धर्मानुभूति तो अत्यंत वैयक्तिक है। और हमारे ये
सारे संगठन जिनको हम धर्म कहते हैं किसी की घृणा पर खड़े हुए हैं। और घृणा का धर्म
से क्या संबंध हो सकता है? मेरे और आपके बीच जो चीज घृणा लाती है वह धर्म नहीं हो
सकती है। मेरे और आपके बीच जो प्रेम लाती है वही धर्म हो सकती है।
यह स्मरण रखें कि जो चीज मनुष्य को मनुष्य
से तोड़ देती है वह मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी? मनुष्य
को मनुष्य से तोड़ देने वाली कोई बात मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने वाली बात कभी भी
नहीं बन सकती है। लेकिन जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे हमें तोड़ देते हैं। यद्यपि वे
सभी प्रेम की बातें करते हैं कि हम सबके बीच एकता, भ्रातृत्व
और ब्रदरहुड हो, लेकिन हैरानी की बात है, उनकी सारी बातें, बातें ही रह जाती हैं। और वे जो भी
काम करते हैं उससे घृणा फैलती है और शत्रुता फैलती है। क्रिश्चिएनिटी बातें करती
है प्रेम की, लेकिन जितनी हत्या ईसाइयों ने की है उतनी हत्या
शायद ही किसी ने की हो। इस्लाम शांति का धर्म है लेकिन अशांति लाने का उससे ज्यादा
सफल प्रयोग किसने किया है?
शायद अच्छी बातें केवल बुरे कामों को छिपाने
का मार्ग बन जाती हैं। यदि लोगों को मारना हो तो प्रेम के नाम पर मारना बहुत आसान
है। अगर हिंसा करनी हो तो अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा करना बहुत आसान है। और अगर
मुझे आपकी जान लेनी हो तो आपके ही हित में ऐसा करना आसान होगा, क्योंकि
तब आप मरेंगे भी और मैं दोषी भी नहीं होऊंगा! तब आप मरेंगे भी, मारे भी जाएंगे और शिकायत भी नहीं कर सकेंगे।
कहते हैं कि मनुष्य बुद्धि वाला प्राणी है, इसलिए
स्वभावतः वह हर कार्य के लिए कोई न कोई बुद्धिमत्ता का मार्ग खोज ही लेता है।
संभवतः शैतान ने मनुष्य को बहुत पहले यह समझा दिया है कि अगर कोई बुरा काम करना हो
तो नारा अच्छा चुनना। जितना बुरा काम हो उतना अच्छा नारा होना चाहिए तो बुरा काम
छिप जाता है। यह जो धर्मों के नाम पर संगठन हैं, न तो उनका
परमात्मा से कोई संबंध है और न प्रेम से, न प्रार्थना से,
न धर्म से। हमारे भीतर वह जो घृणा है, ईष्र्या
है, सब उसी का संगठन है। अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि
मस्जिदें तोड़ी जाएं, मंदिर जलाए जाएं, मूर्तियां
तोड़ी जाएं, और आदमी मारा जाए? यह सब
कैसे हो सकता है? लेकिन यह हुआ है, होता
है और हो रहा है! यह सब धर्म है तो मैं पूछता हूं कि फिर अधर्म क्या है?
सांप्रदायिक चित्तता धर्म नहीं है। वह तो
अधर्म का ही प्रच्छन्न रूप है।
इसलिए धार्मिक शिक्षा के लिए पहली शर्त है
धर्म की संप्रदायों से पूर्ण मुक्ति। लेकिन तथाकथित धार्मिक लोग बच्चों को जो कुछ
पिलाना चाहते हैं, वह धर्म की आड़ में सांप्रदायिक विष ही है। और ऐसा वे
क्यों करना चाहते हैं? धर्म में उनकी इतनी उत्सुकता क्यों है?
क्या वस्तुतः वे धर्म में उत्सुक हैं? नहीं,
बिलकुल नहीं, धर्म में नहीं...उनकी उत्सुकता ‘उनके’ धर्म में है। और यह उत्सुकता ही अधार्मिक है।
क्योंकि धर्म जहां ‘मेरा’ और ‘तेरा’ है वहीं वह धर्म नहीं है। धर्म तो वहां है
जहां न ‘मेरा’ है न ‘तेरा’ है। वहीं वह प्रारंभ है जो कि परमात्मा का है।
धार्मिक कहे जाने वाले लोगों का धर्म की
शिक्षा में,
उत्सुकता में, कुछ और ही स्वार्थ है। उस
स्वार्थ की गहरी और पुरानी जड़ें हैं। उन पर ही बहुत प्रकार का शोषण निर्भर है।
क्योंकि यदि नई पीढ़ियां उन घेरों के बाहर हो गईं जिनमें कि अब तब मनुष्य को कैद
रखा गया है। तो समाज के जीवन में एक आमूल क्रांति संभावित है। उस क्रांति के
चतुर्मुखी परिणाम होंगे। उसमें सभी प्रकार के न्यस्त स्वार्थों को चोट पहुंचेगी और
जो केवल मनुष्य को मनुष्य से लड़ा कर जीते हैं, उनकी तो
आजीविका ही छिन जाएगी। और वे सारे लोग भी बेकार हो जाएंगे जिन्होंने कि धर्मों के
जाल को ही अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। फिर वर्गीय शोषण और स्वार्थ भी असुरक्षित हो
जाएंगे क्योंकि तथाकथित धर्मों ने अनेक रूपों में उन्हें सुरक्षा दी है।
धर्म-शिक्षा की आड़ में पुरानी पीढ़ी अपने
अज्ञान, अपने अंधविश्वास, अपनी जड़ता, अपने
रोग और शत्रुताएं, सभी नई पीढ़ियों को दे जाना चाहती है। ऐसे
उसके अहंकार की तृप्ति होती है। यही अहंकार रुग्ण घेरों से मनुष्य को मुक्त नहीं
होने देता है। विकास के मार्ग में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। क्योंकि विकास तो
वहीं है जहां विद्रोह है। और विद्रोह को पुरानी पीढ़ी का अहंकार स्वीकार नहीं कर
पाता है, वह तो चाहता है--विश्वास, आज्ञानुपालन
और अनुशासन। इसी में वह नई पीढ़ी को दीक्षित करता है। और उसके भीतर से उन सभी
संभावनाओं को नष्ट कर देना चाहता है जो कि उसे, पुराने के
त्याग और नये के अनुसंधान में प्रवृत्त कर सकती है। लेकिन यह भ्रूण हत्या अत्यंत
ही अप्रकट और परोक्ष रूप से की जाती है। शायद करने वाले भी उसकी संपूर्णता से
परिचित नहीं होते हैं। यह एक अचेतन प्रक्रिया ही है, क्योंकि
उनके पिता और गुरु की पीढ़ी ने भी उनके साथ यही किया था। और अनजाने ही वे भी अपने
बेटों और शिष्यों के साथ यही करते रहते हैं। यह दुष्चक्र बहुत पुराना है। लेकिन
इसे तोड़ना है, क्योंकि यही जीवन को धर्म के सत्य से संयुक्त
नहीं होने दे रहा है। इस दुष्चक्र का केंद्र क्या है? केंद्र
है--विचार के जागरण के पूर्व ही विश्वास के बीज नन्हे बच्चों में डाल देना,
क्योंकि विश्वासी चित्त फिर विचार करने में असमर्थ हो जाता है।
विश्वास और विचार की दिशाएं विरोधी हैं।
विश्वास है अंधापन, और विचार है स्वयं की आंखों को पा लेना। बच्चों को
विश्वास के अंधेपन से भर कर उनकी स्वयं की आंखों से उन्हें सदा के लिए वंचित किया
जाता रहा है। और इस अमंगलकारी कृत्य के लिए ही तथाकथित धार्मिक लोग धर्म की शिक्षा
दिलाने के लिए इतने उत्सुक हैं। यह उत्सुकता शुभ नहीं है। वस्तुतः तो विचार की
हत्या से बड़ा कोई पाप नहीं है। लेकिन बच्चों के साथ मां-बाप निरंतर ही यह पाप करते
रहे हैं और यही वह आधारभूत कारण है, जिसके कारण कि धर्म का
जन्म नहीं हो पाया है।
विश्वास नहीं, सिखाना है विचार। श्रद्धा
नहीं, सिखाना है सम्यक तर्क। और तब धर्म एक अंधविश्वास नहीं
वरन बन जाता है परम विज्ञान, और ऐसे विज्ञान से ही शिक्षा का
संबंध शुभ हो सकता है। अंधविश्वासों से नहीं, वरन विचार और
विवेक की कसौटी पर कसे हुए वैज्ञानिक सत्यों से ही मनुष्य का मंगल हो सकता है।
क्या आपको यह ज्ञात नहीं है कि विश्वास के
अंधेरे में जीने वाले लोग धीरे-धीरे विचार के आलोक में आने में असमर्थ ही हो जाते
हैं? फिर उनकी आंखें अंधेरे के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाती हैं। और स्वयं
को कहीं अंधा न मानना पड़े इसलिए वे अपने बच्चों को भी अंधेरे में ही दीक्षित कर
देते हैं। ऐसे स्वयं को ही ठीक मानने की सुविधा उन्हें हो जाती है। और जब कभी कोई
बच्चा किसी भांति उनके सामूहिक षडयंत्र से स्वयं की आंखों को बचाने में समर्थ हो
जाता है तो सर्वविदित ही है कि वे उसके साथ क्या करते हैं?...वही जो वे सुकरात के साथ करते हैं, या क्राइस्ट के
साथ करते हैं!
इसलिए, धर्म की शिक्षा के संबंध में सोचते
हुए यह ध्यान में रखना अति आवश्यक है कि कहीं हम आलोक के नाम पर अंधेरे की ही
दीक्षा तो नहीं दे रहे हैं? स्मरण रहे कि आंखें देने के नाम
पर आज तक आंखें फोड़ी ही जाती रही हैं।
विश्वास-मात्र अज्ञान है। और विश्वास-मात्र
अंधकार है।
इसलिए बच्चों को विश्वासों से बचाना है। और
यह बचाव तभी हो सकता है जब कि उनमें विचार की तीव्र क्षमता हो। इसलिए उनमें विचार
की शक्ति जाग्रत करें, उन्हें विचार करना सिखाएं--विचार न दें, विचार की शक्ति दें। क्योंकि विचार देना तो विश्वास देना ही है। विचार तो
आपके हैं लेकिन विचार की शक्ति उनकी स्वयं की है, वह शक्ति
ही विकसित करनी है। उसका पूर्णतम विकास ही उन्हें जीवन के सत्य के उदघाटन में
समर्थ बनाता है।
विचार मार्ग है। विश्वास भटकाव है।
इसीलिए मैं कहता हूं, जो कहीं
भी विश्वास से बंधा है वह सोच नहीं सकता है। जो हिंदू है, वह
नहीं सोच सकता है। जो जैन है, वह नहीं सोेच सकता है। जो
कम्युनिस्ट है, वह नहीं सोच सकता है। उसका विश्वास ही उसका
बंधन है। चूंकि सोचने में विश्वास टूट भी सकता है इसलिए विश्वासी न सोचने को ही
वरण कर लेता है। वह उसका सुरक्षा-कवच बन जाता है, लेकिन वह
सुरक्षा-कवच वस्तुतः तो आत्महत्या ही है।
क्या विश्वास, विचार की हत्या नहीं है?
लेकिन यह हत्या जाने-अनजाने की जाती रही है।
हिंदू बाप अपने बच्चे को हिंदू बनाना चाहता है, मुसलमान बाप मुसलमान। और यह
भी तब जब कि बच्चा छोटा है और स्वयं सोचने-समझने में असहाय है। यह दुष्कार्य इसी
समय ही किया भी जा सकता है, बाद में फिर यह करना अति कठिन
है। जहां विचार और तर्क का जन्म हो चुका फिर आंखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती है।
तर्क की शक्ति व्यक्ति की आत्मरक्षा बन जाती है। इसलिए तथाकथित धार्मिक व्यक्ति
तर्क के विरोध में हो तो कोई आश्चर्य नहीं है! वस्तुतः तो वे बुद्धि मात्र के
विरोध में हैं।
क्योंकि जहां बुद्धि है, विचार
है, तर्क है, वहां विद्रोह है--विद्रोह
यानी जीवन के नये रास्तों की खोज; विद्रोह यानी ज्ञात से
अज्ञात की यात्रा; विद्रोह यानी उन सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण
जहां कि प्रत्येक पुरानी पीढ़ी नई को छोड़ जाती है।
मेरे देखे तो विद्रोह की क्षमता धार्मिक
चित्त की आत्मा है। क्योंकि धर्म से बड़ी कोई और क्रांति नहीं है। धर्म तो जीवन का
आमूल परिवर्तन है। वह तो जड़-मूल से रूपांतरण है। इसलिए धर्म की शिक्षा अबुद्धि और
अंधेपन की शिक्षा नहीं हो सकती है। वह तो गहरे से गहरी विचारणा की शिक्षा है। वह
तो तीव्रतम तर्क है। वह तो ज्वलंत बुद्धिमत्ता है। और इसलिए अबोध बच्चों को
बुद्धि-विरोधी मान्यताओं और धारणाओं से नहीं बांधना है। बल्कि उनकी बुद्धि को इतनी
तीव्रता और गहराई देनी है कि वे सदा अपने विचार को जाग्रत और स्वतंत्र रख सकें और
किसी भी मूल्य पर कभी उसे बेचने और बांधने को राजी न हों। ऐसी स्वतंत्र चेतनाएं ही
उस द्वार को खोल पाती हैं जो कि सत्य का है।
स्वतंत्रता ही तो वस्तुतः सत्य का द्वार है।
इसलिए बच्चों को स्वतंत्रता दें, स्वतंत्रता
का सम्मान उनके मन में जगाएं और परतंत्रता के प्रति--मन और चेतना की सभी प्रकार की
दासताओं के प्रति उन्हें सचेत और सावधान करें। धर्म की शिक्षा, वास्तविक धर्म की शिक्षा यही हो सकती है।
लेकिन धर्मों की शिक्षा ऐसी नहीं है। वह तो
ठीक इसके विपरीत है। वह तो दासता का ही प्रशिक्षण है। क्योंकि वह विचार की नहीं, विश्वास
की पोषक है। वह आंखों की नहीं, अंधेपन की ही समर्थक है।
क्योंकि वह आत्मचेतना पर नहीं, वरन परानुगमन पर ही आधृत है।
धर्मों को विचार से इतना भय क्यों है? निश्चय
ही वह भय अकारण नहीं है। उसके लिए बहुत ठोस कारण हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण तो
यही है कि यदि विचार जाग्रत और सक्रिय हों तो बहुत दिनों तक बहुत धर्म नहीं रह
सकते हैं। धर्म तो बचेगा लेकिन धर्मों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाना सुनिश्चित है।
क्योंकि विचार भी सहज प्रवृत्ति सार्वलौकिक, यूनिवर्सल सत्य
की ओर है। जैसे नदियां सागर की ओर बहती हैं ऐसे ही विचार भी सार्वलौकिकता की ओर
प्रवाहित होता है। विचार के निष्पक्ष अन्वेषण में जो सत्य है अंततः वही शेष रह
जाता है। और सत्य अनेक नहीं हो सकते हैं, सत्य तो सदा एक है।
विज्ञान ने विचार का अनुसरण किया, इसीलिए
हिंदू का और ईसाई का गणित अलग-अलग नहीं है। नहीं तो विश्वास के आधार पर तो उनके एक
होने की कोई संभावना ही नहीं थी। विश्वास के डबरे बहना बंद कर देते हैं। वे अपने
आप में बंद हो जाते हैं। सागर की ओर उनकी गति न होने से वे कभी एक तक नहीं पहुंच
पाते हैं। स्वयं में बंद होने से ही वे अनेक हो जाते हैं।
विचार है प्रवाह। विश्वास है कुंठा।
विचार निरंतर ही स्वयं का अतिक्रमण है।
विश्वास है स्वयं में बंद होना। इसलिए विचार कहीं से भी प्रारंभ हो अंततः केंद्रीय
और आत्यंतिक सत्य तक ले जाता है। और विश्वास सदा ही वहां तक पहुंचने से रोक लेता
है।
मैंने सुना है कि जैन-भूगोल जैसी चीजों का
भी अस्तित्व रहा है, और धर्मों में ऐसी हास्यापद बातें रही हैं। क्या भूगोल भी
अलग-अलग हो सकते हैं? जी हां, हो सकते
हैं, यदि विश्वास उनका आधार हो। विचार जहां नहीं है, वहां है कल्पना, अनुसरण, अंधविश्वास।
और ये तो प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग हो सकते हैं। सत्य तो एक है लेकिन स्वप्न तो
प्रत्येक के अलग-अलग ही होते हैं। यदि दो व्यक्ति चाहें भी तो भी एक ही स्वप्न को
साथ-साथ नहीं देख सकते हैं।
सत्य सदा ही सार्वजनीन है क्योंकि वह स्वयं
में है। वह किसी की कल्पना, स्वप्न या अनुमान नहीं है। उसे पाने के लिए व्यक्ति के
पास पात्रता चाहिए। उसे देख पाने के लिए खुली और स्वस्थ आंखें चाहिए। और विचार की
पूर्णता पर, विवेक के प्रकाश में ही ऐसी आंखें उपलब्ध होती
हैं।
इसलिए मैं बार-बार कह रहा हूं कि बच्चों को
सत्य देना है,
तो विचार दो। विश्वास से मुक्त करो और विवेक दो। विचार की जाग्रत
ऊर्जा ही बनेगी उनकी पात्रता, वही बनेगी उनका दर्शन। वही
उन्हें ले जाएगी सत्य के उस सागर तक जो कि एक है और अद्वय है।
क्या आपको ज्ञात है कि अरस्तू जैसे व्यक्ति
ने भी लिखा है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं? यह वह
कैसे लिख सका? क्या कोई स्त्री उसे उपलब्ध न थी कि वह उसके
दांत गिन सकता? स्त्रियों की क्या कमी है, लेकिन उसने तो बस प्रचलित धारणा पर विश्वास कर लिया और तब खोज का प्रश्न
ही न रहा। ऐसे उसकी एक नहीं दो-दो पत्नियां थीं। और नंबर एक या नंबर दो श्रीमती
अरस्तू से वह मुंह खोलने को कह सकता था और दांत गिन सकता था। लेकिन नहीं, उसने संदेह ही नहीं किया तो विचार कैसे करता? और
पुरुषों की इस अंधी धारणा को चुपचाप मान लिया कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम
होते हैं। असल में पुरुषों का अहंकार यह बात मानने को कभी राजी ही नहीं रहा है कि
स्त्रियां किसी भी बात में उसके बराबर हो सकती हैं। फिर चाहे यह सवाल दांतों का ही
क्यों न हो! और जब अरस्तू ने ही संदेह न किया तो और कौन संदेह करता? जब कि संदेह समस्त खोज का प्रारंभ है।
सम्यक संदेह सत्य की खोज में सिखाई जाने
वाली पहली सीढ़ी है। धर्म की शिक्षा का शुभारंभ इससे ही होना चाहिए। श्रद्धा नहीं, संदेह
ही धर्म का वास्तविक आधार है। संदेह आरंभ है, श्रद्धा तो अंत
है। संदेह खोज है, श्रद्धा तो प्राप्ति है। इसलिए जो संदेह
से प्रारंभ करता है, वह तो कभी न कभी श्रद्धा पर पहुंच ही
जाता है। लेकिन जो श्रद्धा से प्रारंभ करता है वह तो कभी भी कहीं नहीं पहुंचता है।
उसके पहुंचने का सवाल भी नहीं है क्योंकि उसने तो बैलों के आगे गाड़ी बांध रखी है।
प्रारंभ ही से प्रारंभ संभव है। अंत आरंभ कैसे बन सकता है?
जहां संदेह नहीं है, वहां
विचार नहीं है। जहां विचार नहीं है, वहां विवेक नहीं है। और
जहां विवेक नहीं है, वहां सत्य नहीं है।
धर्मों ने सिखाया है विश्वास करो, संदेह
नहीं। खोजो नहीं, मानो। लेकिन धर्म सिखाएगा संदेह करो,
विचार करो और खोजो। क्योंकि ऐसी स्वयं की खोज से ही जो पाया जाता है,
वही स्वयं को बदलता है और वही सत्य है।
सत्य एक खोज है...सतत खोज! वह अत्यंत जागरूक
अन्वेषण है। सत्य कोई अन्य किसी को नहीं दे सकता है, उसे तो स्वयं ही पाना होता
है। सत्य उधार नहीं मिल सकता है, वह तो स्वयं का साकार हुआ
श्रम ही है। और ऐसे सत्य की खोज की तैयारी ही धर्म की शिक्षा है।
इसलिए, जब तक धर्म का संबंध विश्वास से है
तब तक धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है। और धर्म का नाम भले लिया जाए, वह हिंदू की शिक्षा होगी या मुसलमान की या ईसाई की। ऐसी शिक्षा धार्मिक
नहीं है, क्योंकि इस तरह के शिक्षित व्यक्ति संकीर्ण हो जाते
हैं। इस भांति हृदय विराट नहीं बनते हैं। और इस तरह से शिक्षित व्यक्ति पक्षपातों
से भर जाता है। और विवेक उसका मुक्त नहीं होता बल्कि मृत होता है। वह चित्त से
बूढ़ा हो जाता है, जब कि किसी भी खोज के लिए चित्त युवा और
ताजा चाहिए। और युवा तो वही है जो पक्षपातों से मुक्त है। और युवा तो वही है जो कि
अपनी चेतना को संस्कारों की कारा में बंधने से बचा सका है। संस्कारित चित्त बूढ़ा
हो जाता है, वह जितना संस्कारित होता है, उतना ही जड़ हो जाता है।
संस्कार धर्म नहीं है। संस्कार-मात्र से
मुक्त और अतीत चेतना ही धर्म में प्रवेश करती है। धर्म तो स्वभाव है। धर्म तो
स्वरूप है। और संस्कार आते हैं बाहर से, वे बाह्य हैं। जैसे धूल दर्पण को
ढांक लेती है, ऐसे ही वे भी चेतना को ढांक लेते हैं। चेतना
के दर्पण को धर्म के नाम पर परंपराओं, संस्कारों, रूढ़ियों, मान्यताओं और आदर्शों से ढांक नहीं देना है,
वरन उसे मुक्त होना सिखाना है। धर्म की वास्तविक शिक्षा, साधना और मुक्ति की ऐसी दिशा में ही अग्रसर करती है।
चित्त को समस्त ग्रंथियों से मुक्ति की ओर
ले जाने वाला उपाय धर्म ही है। लेकिन बाजार में जो धर्म बिकता है वह यह नहीं कर
सकता है। और इसलिए इसके पूर्व कि शिक्षा में धर्म आए, धर्म को
पुराने वस्त्र और आवास छोड़ देने होंगे। वह एक नई आत्मा लेकर ही नई पीढ़ियों की
आत्मा बन सकता है। धर्म को जीवन में लाना है, जरूर ही लाना
है। उसके बिना जीवन अत्यंत पंगु, अधूरा और असंतुलित है।
बाह्य के संबंध में ही हम चिंतन करेंगे तो
आंतरिक रिक्त रह ही जाएगा। और केवल पदार्थ पर ही हमारी दृष्टि रही तो परमात्मा से
हम वंचित रह ही जाएंगे और यह सौदा बहुत महंगा है, यह कौड़ियों के लिए हीरों को
खो देना है। बाह्य, आंतरिक के समक्ष क्या है? जगत की संपदा उस संपदा के समक्ष क्या है, जो कि
परमात्मा की है? उसे तो जानना ही है जो कि समस्त का केंद्र
और प्राण है और उसकी खोज को केंद्रीय भी बनाना है। क्योंकि केंद्र की खोज को
केंद्रीय बनाए बिना कभी पूरा नहीं किया जा सकता है।
इसलिए मैं तो धर्म को शिक्षा से मात्र
संबंधित ही नहीं देखना चाहता हूं, क्योंकि वह अपर्याप्त है। मैं तो
धर्म को शिक्षा का केंद्र बना हुआ देखना चाहता हूं। क्योंकि जो जीवन का केंद्र है,
वह शिक्षा का केंद्र भी हो यह अत्यंत आवश्यक है। दृश्य पर ही जीवन
समाप्त नहीं है। वस्तुतः तो, अदृश्य ही आधार है। उससे परिचित
हुए बिना जीवन में न तो अर्थ होता है, न अभिप्राय। और जहां
अर्थ ही नहीं है, वहां आनंद कहां? आनंद
तो अर्थवत्ता की उपलब्धि में ही है।
विज्ञान उपयोगिता की खोज है, धर्म
अर्थ की। विज्ञान अधूरा है और धर्म भी अधूरा है। उन दोनों के संतुलन और समन्वय में
ही मंगल है और पूर्णता है।
एक जगत मनुष्य के बाहर है। लेकिन वही सब कुछ
नहीं है। एक जगत भीतर भी है। और बाहर की खोज भीतर के लिए ही है। बाहर की खोज में
भीतर को नहीं भूल जाना है। क्योंकि तब शक्ति तो आती है, लेकिन
शांति नहीं। और संपदा तो मिलती है लेकिन आत्मा खो जाती है। और आत्मा को खोकर सारे
जगत को पा लेने का भी क्या मूल्य है? वह तो जीत कर भी हार
जाना है।
एक फकीर स्त्री थी, राबिया।
एक दिन सुबह-सुबह ही उसके एक मित्र ने उससे कहाः राबिया बाहर आओ। बहुत सुंदर सूरज
उग रहा है, बड़ी सुंदर सुबह है। आओ...बाहर आओ! राबिया ने
उत्तर में कहाः मेरे मित्र तुम्हें आमंत्रण देती हूं कि तुम्हीं भीतर आ जाओ।
क्योंकि तुम जिस सूरज को देख रहे हो और जिस सुबह को, मैं
उसके बनाने वाले को भीतर देख रही हूं। क्या यह अच्छा न होगा कि तुम्हीं भीतर आ जाओ?
मैंने तो बाहर का सौंदर्य भलीभांति देखा है लेकिन तुम शायद उससे
अपरिचित ही हो, जो कि भीतर है।
एक बाहर की दुनिया है। निश्चित ही बहुत
सुंदर है वह। और वे लोग नासमझ हैं जो बाहर की दुनिया के विरोध में मनुष्य को खड़ा
करना चाहते हैं। बहुत सुंदर है बाहर की दुनिया। और वे लोग मनुष्य के मंगल के विरोध
में हैं जो कि उस दुनिया की निंदा करते हैं। वह सच में ही बहुत सुंदर है। वह तो
सुंदर है, लेकिन एक और बड़ी दुनिया भी भीतर है और उसके सौंदर्य की कोई सीमा ही नहीं
है। और बाहर की दुनिया पर ही जो रुक जाता है वह अधूरे पर ही रुक जाता है। उससे
बहुत जल्दी ही पड़ाव डाल लिया है। वह मार्ग को ही मंजिल समझ गया है। वह द्वार को ही
महल समझ गया है और सीढ़ियों पर रुक गया है। उसे जगाना है, उसे
चेताना है। उसकी आंखें उस ओर उठानी हैं जहां कि मंजिल है। और फिर तो वह स्वयं ही
चल पड़ेगा। बच्चों को मंजिल का यह बोध सदा बना रहे और वे बीच में ही न ठहर जाएं,
यही धर्म-शिक्षा का लक्ष्य है।
यह जानना जरूरी है कि विज्ञान जो बाहर है, केवल
उसकी ही खोज है। और अकेली बाहर की खोज अधूरी है। भीतर की खोज से शिक्षा जरूर ही
संबंधित होनी चाहिए। लेकिन जिन धर्मों को हम जानते हैं उनकी खोज भी भीतर की खोज
नहीं है। वे बातें तो आंतरिक की करते हैं, लेकिन वे बातें
एकदम झूठी मालूम पड़ती हैं। क्योंकि उनके मंदिर भी बाहर ही बनते हैं, और उनकी मस्जिदें भी बाहर ही बनती हैं, और उनकी
मूर्तियां भी बाहर ही खड़ी होती हैं। उनके शास्त्र भी बाहर हैं, और उनके सिद्धांत भी बाहर हैं और इन बाहर की चीजों पर वे लड़ते भी देखे
जाते हैं। उनका आग्रह भी बाहर पर ही है और इसलिए वे भी मनुष्य को भीतर नहीं ले
जाते हैं।
एक नीग्रो एक चर्च के द्वार पर एक दिन
सुबह-सुबह गया और उसने प्रार्थना की उस चर्च के पुरोहित से कि मुझे भीतर जाने दो।
लेकिन नीग्रो,
काली चमड़ी का आदमी, सफेद चमड़ी वाले लोगों के
मंदिर में कैसे जा सकता था? ये जो भीतर की बातें करते हैं वे
भी चमड़ी को देखते हैं कि वह काली है या गोरी। ये जो परमात्मा की बातें करते हैं वे
भी देखते हैं कि आदमी ब्राह्मण है या शूद्र। उस चर्च के पादरी ने कहाः मित्र क्या
करोगे मंदिर में आकर। जब तक मन शांत नहीं, शुद्ध नहीं,
तब तक यहां आकर भी क्या करोगे?
जमाना बदल गया है इसलिए पुरोहित ने अपनी
भाषा बदल ली। पहले भी रोकता था वह। लेकिन पहले वह कहता था कि हट शूद्र! यहां कहां
तुझे प्रवेश?
लेकिन अब जमाना बदल गया है इसलिए उसे अपनी भाषा भी बदलनी पड़ी। लेकिन
हृदय उसका नहीं बदला है। रोकता है वह अब भी। उसने यह नहीं कहा कि तू शूद्र है,
अपवित्र है, यहां से हट। उसने कहा कि मित्र,
क्या करोगे यहां आकर? जब तक मन ही शांत नहीं,
शुद्ध नहीं, तो परमात्मा को कैसे जानेगा?
इसलिए, जा और पहले मन को पवित्र कर! यह बात
उसने नीग्रो से कही।
लेकिन सफेद चमड़ी के लोग जो आते थे उनमें से
किसी को उसने यह कहीं कहा था। जैसे उन सबों के मन शांत ही थे। वह सीधा-सादा नीग्रो
वापस चला गया। पुरोहित हंसा होगा, अपने मन में। सोचा होगा, उससे न होगा मन पवित्र, न आएगा दुबारा यहां। और सच
ही वह दुबारा नहीं आया लेकिन इसलिए नहीं कि उसका मन शांत न हो सका बल्कि इसलिए कि
उसका मन शांत हो गया था।
दिन आए और गए। वर्ष बीतने को आ गया था। तब
एक दिन वह नीग्रो चर्च के पास से पुरोहित को गुजरता हुआ दिखाई पड़ा। वह तो आदमी जैसे
दूसरा ही हो गया था। उसकी आंखों में अलौकिक आलोक आ गया था और उसके आस-पास जैसे
शांति और संगीत का प्रभामंडल बन गया था। पुरोहित ने सोचा कि शायद वह चर्च में आ
रहा है। और वह डरा भी। लेकिन नहीं, उसका भय निराधार था। उसने तो चर्च
की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा था और वह आगे निकल गया था। तब पुरोहित दौड़ा और उसे
रोक कर उसने पूछाः मित्र, फिर तुम दिखाई नहीं पड़े? वह नीग्रो हंसने लगा और बोला, मेरे मित्र और
मार्गदर्शक, तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद! तुम्हारी सलाह मान
मैंने यह पूरा वर्ष बिताया है। मैं प्रतीक्षा में था कि मन शांत हो तो मैं दुबारा
तुम्हारे द्वार पर जाऊं। लेकिन बीती रात्रि स्वप्न में मुझे स्वयं प्रभु दिखाई पड़े
और कहने लगे, पागल! उस चर्च में किसलिए जाना चाहता है?...मुझसे मिलने! तो मैं तुझे बताए देता हूं कि दस साल से मैं स्वयं ही उस
चर्च में प्रवेश की कोशिश कर रहा हूं लेकिन वह पादरी मुझे भीतर घुसने ही नहीं देता
है। और जहां मैं नहीं जा सका हूं वहां तू जा सकेगा, यह असंभव
है!
और मैं आपसे कहता हूं कि उस मंदिर में ही
नहीं, परमात्मा किसी भी मंदिर में कभी प्रवेश नहीं पा सका है। क्योंकि आदमी के
बनाए हुए मंदिर आदमी से बड़े नहीं हो सके हैं। वे मंदिर इतने छोटे हैं कि परमात्मा
के लिए उनमें अवकाश ही नहीं है। वस्तुतः जिनके मन ही मंदिर नहीं है, उनके बनाए सब मंदिर व्यर्थ हैं। वस्तुतः तो जिन्होंने उसे भीतर ही नहीं पा
लिया है, वे उसे बाहर कभी भी नहीं पा सकते हैं।
वह सबसे पहले उदघाटित होता है स्वयं में, और फिर
सर्व में। स्वयं के अतिरिक्त सर्व के लिए न कोई मार्ग है, न
सेतु है। स्वयं ही है स्वयं के सर्वाधिक निकट। इसीलिए दूर खोजने के पूर्व वहीं खोज
लेना आवश्यक है। और जो उसे निकट में ही नहीं पाता है, वह उसे
दूर में कैसे पा सकेगा? इसलिए मंदिरों में नहीं, मन में ही वह जाना गया है और जाना जाता है।
इसलिए मंदिर और मस्जिद तो शिक्षा से नहीं
ज.ुड सकते हैं,
न जुड़ने ही चाहिए। वैसा आग्रह ही बाहर का आग्रह है। और बाहर के
समस्त आग्रह भीतर जाने में बाधा बनते हैं।
मैं सुनता हूं विद्यापीठों में मंदिरों के बनाए
जाने की बातें तो मुझे हंसी आती है। क्या मनुष्य इतिहास से कोई भी सबक नहीं सीखता
है?
मंदिर, मस्जिद वाले धर्मों ने क्या किया
है और क्या नहीं किया है, क्या हमें यह ज्ञात नहीं है?
नहीं, धर्म के बाह्य क्रियाकांडों की जरा
भी जरूरत नहीं है। वे व्यर्थ ही होते तो भी चल सकता था। वे तो अनर्थ भी हैं। धर्म
बाह्य में नहीं है। इसलिए बाह्य की किसी भी भांति की प्रतिष्ठा अधर्म है।
यह सत्य दो और दो चार जैसा बिलकुल स्पष्ट हो
जाना अत्यंत आवश्यक है।
परमात्मा का भी मंदिर है, लेकिन
वह ईंट-पत्थरों से नहीं बनता है। और ईंट-पत्थरों से जो बनता है, वह हिंदू का हो सकता है, या ईसाई का या जैन का,
या बौद्ध का, लेकिन परमात्मा का नहीं। जो ‘किसी का’ है वह इस कारण ही ‘उसका’
नहीं है। उसके मंदिर की कोई सीमा नहीं हो सकती है क्योंकि वह असीम
है। और उसके मंदिर का कोई विशेषण नहीं हो सकता है क्योंकि वह सर्व है।
निश्चय ही ऐसा मंदिर चेतना का ही हो सकता
है। वह मंदिर आकाश में नहीं, आत्मा में है। और उसे बनाना भी नहीं है। वह तो है,
सदा से है। बस, उसे उघाड़ना ही है।
इसलिए, शिक्षा से संबंधित धर्म, मंदिर-मस्जिद बनाने वाला धर्म नहीं हो सकता है। वह तो होगा स्वयं में छिपे
मंदिर के उदघाटन का धर्म। अंतस में जो है उसे ही जानना है। क्योंकि उसका जानना ही
जीवन में एक आमूल क्रांति बन जाती है।
सत्य को जानना ही जीवन का रूपांतरण है।
सत्य का, अंतस के सत्य का या
परमात्मा का उदघाटन न करने वाली शिक्षा एकदम अधूरी और घातक है। आज तक की शिक्षा की
असफलता का कारण भी यही अधूरापन है। जिस युवक को हम अभी विश्वविद्यालयों के बाहर
भेजते हैं वह बिलकुल ही अधूरा होता है। उसे जीवन में जो केंद्रीय है, उसका कोई पता ही नहीं होता है। जीवन में जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, उससे उसकी
कोई भी पहचान नहीं होती है। वह केवल क्षुद्र को ही सीख कर आता है और उसमें ही जीता
है। निश्चय ही ऐसा जीना आनंद नहीं लाता है और क्रमशः एक अर्थहीनता और रिक्तता और
व्यर्थता चित्त को घेरने लगती है। जीवन की धारा इस व्यर्थता के मरुस्थल में खो
जाती है और परिणाम में पीछे एक अंधा क्रोध सबके प्रति छूट जाता है। इस क्रोध को ही
मैं अधार्मिक मन का परिणाम कहता हूं। धार्मिक मन का फल है, धन्यता
और धन्यवाद का भाव। वह समस्त के प्रति कृतज्ञता है। लेकिन वह तो तभी हो सकता है जब
जीवन आनंद को पा सके और पूर्णता को। और यह पूर्णता और यह आनंद स्वयं को जाने और
पाए बिना असंभव है।
इसलिए, सम्यक शिक्षा धर्मविहीन नहीं हो
सकती है। क्योंकि जीवन का आधार जो चेतना है, जो अंतःकरण है,
जो आत्मा है, उसे जानना, उससे परिचित होना, जीवन को उसकी पूर्णता तक ले जाने
के लिए अपरिहार्य है।
धर्म क्या है?
मनुष्य के अंतःकरण की शिक्षा ही तो धर्म है।
फिर हम क्या सिखाएं? क्या हम
धर्मशास्त्र पढ़ाएं? धर्म-सिद्धांत सिखाएं? क्या हम बच्चों को बताएं कि ईश्वर है, आत्मा है,
स्वर्ग है, नरक है, मोक्ष
है?
नहीं, बिलकुल नहीं। ऐसी कोई भी शिक्षा
धर्म की शिक्षा नहीं है। ऐसी शिक्षा भी मनुष्य को भीतर नहीं ले जाती है। ऐसी
शिक्षा भी मनुष्य का पक्षपात ही बन जाती है। ऐसी शिक्षा भी शब्दों-मात्र की सिखावन
है। और इससे उस झूठे ज्ञान का जन्म होता है जो कि अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है।
ज्ञान तो केवल वही है जो कि स्वानुभूति से
आता है। दूसरों से सीखा ज्ञान, ज्ञान नहीं है। सीखा हुआ ज्ञान, ज्ञान
का भ्रम है। और यह भ्रम अज्ञान को छिपा देता है और ज्ञान की खोज बंद हो जाती है।
अज्ञान का स्पष्ट बोध शुभ है क्योंकि वह ज्ञान की खोज में ले जाता है। और सीखे हुए
ज्ञान को ज्ञान जान लेना बहुत खतरनाक है। क्योंकि उससे मिली तृप्ति पैरों को बांध
लेती है और आगे की यात्रा अवरुद्ध हो जाती है।
मैं एक अनाथालय में गया था। वहां कोई सौ
बच्चे थे। व्यवस्थापकों ने मुझसे कहा कि हम यहां धर्म की शिक्षा भी देते हैं। और
फिर उन्होंने बच्चों से प्रश्न भी पूछे। पूछा गया, ईश्वर है?--तो उन छोटे-छोटे बच्चों ने हाथ उठा कर हिलाए और कहाः ईश्वर है!--पूछा गया,
ईश्वर कहां है?--तो उन्होंने आकाश की ओर इशारे
किए! और आत्मा कहां है?--तो उन्होंने अपने हाथ अपने हृदयों
पर रखे और कहाः यहां! मैं यह सब नाटक देखता था। व्यवस्थापक बड़े प्रसन्न थे।
उन्होंने कहाः आप भी कुछ पूछिए! मैंने एक छोटे बच्चे से पूछाः हृदय कहां है?
वह यहां-वहां देखने लगा और फिर बोलाः यह तो हमें बताया ही नहीं गया
है।
धर्म की भी क्या ऐसी कोई शिक्षा हो सकती है? और सीखी
हुई बातें दुहराना भी क्या जानना है? काश! बात इतनी आसान ही
होती तो क्या दुनिया कभी की धार्मिक न हो गई होती?
मैंने उस अनाथालय के व्यवस्थापकों और
शिक्षकों से कहा था कि आप इन बच्चों को जो सिखा रहे हैं, वह धर्म
तो है ही नहीं, उलटे उसके कारण ये जीवन भर के लिए रटे-रटाए
तोते बन जाएंगे। और जो व्यक्ति यांत्रिक रूप से किन्हीं बातों को दुहराना सीख जाता
है, उसकी बुद्धि को सांघातिक नुकसान पहुंचता है। फिर जीवन जब
भी इनके सामने प्रश्न खड़े करेगा--ऐसे प्रश्न जो इन्हें सत्य की खोज में ले
जानेवाले हो सकते थे तो वे सीखे हुए उत्तर दुहरा लेंगे और चुप हो जाएंगे। आपकी
सिखावन इनकी जिज्ञासा की हत्या है। ये न आत्मा को जानते हैं और न परमात्मा को। और
इनके हृदय पर गए हाथ कितने झूठे हैं! और इस झूठ की शिक्षा को आप धर्म की शिक्षा
कहते हैं?
फिर मैंने उनसे यह भी पूछा था कि आपका स्वयं
का जानना भी तो ऐसा ही जानना नहीं है? आप भी तो कहीं सीखी हुई बातें ही
नहीं दोहरा रहे हैं? और वे भी वैसे ही यहां-वहां देखते रह गए
थे, जैसा कि वह छोटा सा बच्चा हृदय के संबंध में पूछने पर रह
गया था। आह! पीढ़ी दर पीढ़ी हम थोथे शब्द सिखाए चले जाते हैं, और
उसे ज्ञान समझते हैं। सत्य भी क्या सिखाया जा सकता है? सत्य
भी क्या दुहराया जा सकता है।
पदार्थ के जगत में तो सिखाई हुई बातों का
कुछ मूल्य है,
क्योंकि जो बाहर है उसके संबंध में सूचनाओं से ज्यादा ज्ञान संभव
नहीं है। लेकिन, परमात्मा के जगत में उनका कोई भी अर्थ और
मूल्य नहीं है, क्योंकि वह जगत सूचनाओं का नहीं, अनुभूतियों का है।
अनुभूति की जा सकती है, उसमें
हुआ और जिया जा सकता है, लेकिन उसे सीखा नहीं जा सकता है।
उसे सीखना तो मात्र अभिनय बन जाता है। प्रेम क्या कोई सीख सकता है? और यदि कोई सीख कर करे तो वह प्रेम नहीं, बस प्रेम
का अभिनय ही तो कर सकेगा। परमात्मा के संबंध में सीखी गई बातें, सिद्धांत, पूजा और प्रार्थना--सब इसलिए अभिनय बन गए
हैं। जब प्रेम ही नहीं सीखा जा सकता है तो प्रार्थना कैसे सीखी जा सकती है?
प्रार्थना तो प्रेम का ही गहनतम रूप है। और जब प्रेम ही नहीं सीखा
जा सकता है तो परमात्मा कैसे सीखा जा सकता है? प्रेम की
पूर्णता ही तो परमात्मा है।
सत्य अज्ञात है और इसलिए जो ज्ञात
है--सिद्धांत,
शास्त्र, शब्द उन सबसे उस तक नहीं पहुंचा जा
सकता है।
अज्ञात में प्रवेश के लिए तो ज्ञात को छोड़
ही देना पड़ता है। ज्ञात से मुक्त होते ही वह सामने आ जाता है जो कि अज्ञात है।
इसलिए धर्म सीखने की बजाय अन-सीखना ही ज्यादा है। वह स्मरण की बजाय विस्मरण ही
ज्यादा है।
चित्त पर कुछ लिखना नहीं है, वरन सब
लिखा हुआ पोंछ देना है। क्योंकि चित्त जहां शब्दों से शून्य होता है, वहीं वह सत्य के लिए दर्पण बन जाता है। चित्त को सिद्धांतों का संग्रह
नहीं, सत्य का दर्पण बनाना है। और तब निश्चय ही धर्म-शिक्षा
का अर्थ शिक्षा कम और साधना ज्यादा हो जाता है।
धर्म-साधना की तैयारी ही धर्म की शिक्षा है।
धर्म की शिक्षा, और विषयों की शिक्षा जैसी नहीं है। इसलिए उसकी परीक्षा भी
नहीं हो सकती है। उसकी परीक्षा तो होगी जीवन में, जीवन ही
उसकी परीक्षा है।
एक गुरुकुल से तीन युवक शिक्षा लेकर वापस
लौटते थे। उनकी सभी विषयों में परीक्षा ले ली गई थी। केवल ‘धर्म’
रह गया था। और वे हैरान थे कि धर्म की परीक्षा क्यों नहीं ली गई?
और अब तो परीक्षा का कोई सवाल ही नहीं था। वे उत्तीर्ण भी घोषित कर
दिए गए थे। वे गुरुकुल से थोड़ी दूर ही गए होंगे कि सूर्य ढलने लगा था और अब रात्रि
उतर रही थी। एक झाड़ी के पास पगडंडी पर बहुत से कांटे पड़े थे। पहला युवक छलांग लगा
कर कांटों को पार कर गया। दूसरा युवक पगडंडी छोड़ किनारे से निकल कर उनके पार हो
गया। लेकिन तीसरा रुक गया। और उसने कांटों को बीन कर झाड़ी में डाला और तब आगे बढ़ा।
शेष दो ने उससे कहा कि यह क्या करते हो, रात बढ़ रही है और
हमें शीघ्र ही वन के पार हो जाना है। वह हंसा और बोला, इसलिए
इन्हें दूर करता हूं कि रात उतरने को है और हमारे बाद जो भी इस राह पर आएगा उसे
कांटे दिखाई नहीं पड़ सकेंगे। वे यह यह बात करते ही थे कि उनके आचार्य झाड़ी के बाहर
आ गए। वे झाड़ी में छिपे थे। और उन्होंने तीसरे को कहाः मेरे बेटे, तू जा! तू धर्म की परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है। और शेष दो युवकों
को लेकर वे गुरुकुल वापस लौट गए। उनकी धर्म की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी।
जीवन की क्या परीक्षा है सिवाय जीवन के? और धर्म
तो जीवन ही है। इसलिए जो मात्र परीक्षाएं पास करके समझते हैं कि वे शिक्षित हो गए,
वे भूल में हैं। वस्तुतः तो जहां परीक्षाएं समाप्त होती हैं,
वहीं असली शिक्षा शुरू होती है क्योंकि वहीं जीवन शुरू होता है।
फिर धर्म की शिक्षा के लिए हम क्या करें?
धर्म का बीज तो प्रत्येक में है, क्योंकि
सत्य प्रत्येक में है, क्योंकि जीवन प्रत्येक में है। इस बीज
के विकास के लिए अवसर जुटाने हैं और उस विकास-पथ की बाधाएं दूर करनी हैं। यह हो
सके तो फिर बीज तो स्वयं अपनी शक्ति से, अपनी जीवंतता से
अंकुर बन जाता है। उसे अंकुर बनाना थोड़े ही पड़ता है। और अंकुर पौधा बन जाता है। और
पौधा पत्तों से, फूलों से, फलों से भर
जाता है। हम सिर्फ अवसर जुटा देते हैं और फिर शेष सब अपने आप हो जाता है।
धर्म की शिक्षा क्या होगी? हां,
धर्म का बीज विकसित हो सके--शिक्षालय इसके लिए अवसर अवश्य ही जुटा
सकते हैं। और उस बीज के विकास-पथ की बाधाएं दूर कर सकते हैं। इस अवसर जुटाने में
तीन तत्व बड़े महत्वपूर्ण हैं।
पहला तत्व तो है, साहस।
व्यक्ति में अदम्य साहस चाहिए। सत्य की खोज में या परमात्मा के आरोहण में साहस
अत्यंत प्राथमिक है। हिमालय चढ़ने में या प्रशांत की गहराइयों में जाने के लिए जो
साहस चाहिए, परमात्मा की खोज में उससे भी बड़े और गहरे साहस
की जरूरत है। क्योंकि न तो उससे ऊंचा कोई शिखर है और न उससे गहरा कोई सागर है।
लेकिन तथाकथित धार्मिक व्यक्ति साहसी नहीं
होते हैं। वस्तुतः उनकी धार्मिकता उनकी भीरुता का ही आवरण होती है। उनके धर्म और
उनके भगवान के पीछे उनका भय ही होता है।
और मैं कहना चाहता हूं कि भयभीत चित्त कभी
धार्मिक हो ही नहीं सकता है क्योंकि अभय तो धर्म का प्राण है।
साहस आता है अभय से। इसलिए पहली बात--भय न
सिखाएं, किसी भी भांति का भय न सिखाएं। और दूसरी बात--अभय में दीक्षा दें। आह! अभय
कैसी शक्ति है, अभय कैसी दीप्ति है, अभय
कैसा तेज है? अभय की चट्टान पर ही तो धर्म का भवन खड़ा होता
है।
लेकिन हमारे तथाकथित धर्म भय का ही शोषण
करते रहे हैं और इसीलिए तो आज तक धर्म का भवन खड़ा नहीं हो पाया है। भय की रेत पर
भी कहीं भवन बने हैं? और बन भी जावें तो वे कितनी देर टिक सकते हैं?
मैं मंदिरों में, मस्जिदों
में, गिरजों में जाकर देखता हूं तो पाता हूं कि वहां भय से
कांपते हुए लोग इकट्ठे हैं। उनकी प्रार्थनाएं उनके भय के ही साकार रूप हैं। और जिस
भगवान के सामने वे घुटने टेके खड़े होते हैं, वह उनके भीतर के
भय का ही प्रक्षेपण है। इसीलिए दुख में आदमी भगवान की तरफ भागता है क्योंकि तब वह
ज्यादा भयभीत होता है। बुढ़ापे में आदमी भगवान की तरफ भागता है क्योंकि तब नजदीक
आती मृत्यु उसे बहुत भयभीत करती है। मंदिरों में जाकर देखिए, चर्चों में जाकर खोजिए, वहां आपको ऐसे व्यक्ति ही
दिखाई पड़ेंगे जो कि या तो मर गए हैं या मरने के करीब हैं।
ऐसा भय हमें नहीं सिखाना है। सिखाना है अभय।
और तभी धर्म जीवितों का धर्म हो सकता है। अभय सिखाने में भय क्या है? एक भय
है कि कहीं युवक ईश्वर को ही इनकार न कर दें। यह भय इसीलिए है कि हमारा ईश्वर भय
पर ही खड़ा है। किंतु ऐसे ईश्वर को अस्वीकार कर देने में बुराई क्या है? वस्तुतः तो उसे स्वीकार करना ही बुरा है।
मैं तो अभय को उस सीमा तक लाने के लिए ही
उत्सुक हूं कि उस परमात्मा को भी अस्वीकार किया जा सके जिसे कि हम नहीं जानते हैं।
असत्य का अस्वीकार जहां नहीं है, वहां अभय ही नहीं है। और जहां
असत्य का अस्वीकार नहीं है, वहां सत्य की खोज भी कैसे हो
सकती है?
अभय से आई नास्तिकता को मैं आस्तिकता का ही
दूसरा पहलू कहता हूं। ऐसी नास्तिकता सच्ची आस्तिकता की अनिवार्य सीढ़ी बनती है। जो
व्यक्ति नास्तिक ही नहीं बन सकता, वह आस्तिक भी कैसे बनेगा? आस्तिकता तो नास्तिकता से बहुत कठिन है। और जो नास्तिक होने से भयभीत है,
उसकी आस्तिकता भी झूठी ही होगी। वह नास्तिक न हो जाए, इसी भय से ही आस्तिक होता है। ऐसी आस्तिकता का मूल्य ही क्या हो सकता है?
मैं भय पर आधारित आस्तिकता से अभय पर
प्रतिष्ठित नास्तिकता का ही आदर करता हूं। क्योंकि जहां भय है, वहां
धर्म कभी भी नहीं हो सकता है और जहां अभय है, वहां धर्म का
द्वार है। अभय से जन्मी नास्तिकता से गुजरना एक आनंद है, एक
अनुभव है। उससे आत्मा निश्चित ही बलवान होती है। और जो नास्तिक होने के पहले ही
आस्तिक हो जाता है, उसकी आस्तिकता इसीलिए झूठी होती है
क्योंकि उसके भीतर का नास्तिक सदा के लिए ही भीतर छिपा रह जाता है। लेकिन जो अपने
नास्तिक को जी लेता है वह उसका अतिक्रमण भी कर जाता है और उससे मुक्त भी हो जाता
है।
नास्तिकता का अर्थ हैः अस्वीकार का काल। यदि
समाज ईश्वर और धर्म विरोधी है, तो इसके अस्वीकार से गुजरना भी नास्तिकता है। स्वीकृत और
माने हुए के अस्वीकार से गुजरना नास्तिकता है। व्यक्तित्व की प्रौढ़ता के लिए यह
काल अत्यंत मूल्यवान और लाभप्रद है। जो इससे नहीं गुजरता है, वह सदा के लिए अप्रौढ़ रह जाता है। यह गुजरना साहस और अभय से ही हो सकता
है।
और सबसे बड़ा साहस क्या है? सबसे
बड़ा साहस है, झूठे ज्ञान को अस्वीकार करने का साहस। यदि आपको
ज्ञात नहीं है कि ईश्वर है तो मानने को राजी मत होना। चाहे कोई कितना ही झुकाए,
स्वर्ग जाने का प्रलोभन दे, या नर्क जाने के
भय से भयभीत करे, तो भी उसे मानने को राजी मत होना जो कि
आपको ज्ञात नहीं है। स्वर्ग खोने या नर्क जाने को राजी होना अच्छा है, लेकिन भयभीत होना अच्छा नहीं। और जिसमें इतना साहस होता है, वही और केवल वही सत्य को खोजने में समर्थ हो पाता है। भयभीत चित्त कर ही
क्या सकता है? वह तो अपने भय के कारण ही कुछ भी मानने को
राजी हो जाता है। आस्तिक समाज में वह आस्तिक हो जाता है। और सोवियत रूस में हो,
तो नास्तिक हो जाता है। वह तो समाज का एक मृत अंग ही होता है। वह
जीवंत व्यक्ति नहीं होता है। क्योंकि व्यक्तित्व में जीवंतता तो केवल अभय से ही
आती है।
एक व्यक्ति कल ही मुझे मिले थे। वे कहने लगे, मैं तो
आत्मा की अमरता में विश्वास करता हूं। और उनके चेहरे पर सब तरह से मृत्यु का भय
लिखा हुआ था! मैंने उनसे कहा, यह विश्वास कहीं मृत्यु के भय
के कारण ही तो नहीं है? क्योंकि जो लोग मृत्यु से भयभीत हैं,
उन्हें यह जान कर बड़ी सांत्वना मिलती है कि आत्मा अमर है। यह सुन वे
कुछ परेशान हो आए और पूछने लगे थे कि क्या आत्मा अमर नहीं है? मैंने कहाः नहीं, यह सवाल नहीं है? आत्मा की अमरता, न अमरता का सवाल नहीं है। सवाल यह
है कि जो मृत्यु से भयभीत है, क्या वह आत्मा को खोज या जान
सकता है? सत्य की खोज के लिए अभय अत्यंत आवश्यक है।
यही में आपसे भी कहना चाहता हूं। जो व्यक्ति
मृत्यु से जितना भयभीत होता है, वह आत्मा की अमरता में उतना ही विश्वास करने लगता है। इस
विश्वास का अनुपात और तीव्रता उतनी ही होती है जितना कि उसका भय होता है। और ऐसा
व्यक्ति क्या जीवन के सत्य के प्रति आंखें खोलने को राजी हो सकता है? सत्य का मार्ग अभय के अतिरिक्त और कहीं से भी नहीं जाता है। आत्मा अमत्र्य
है, यह भयभीत चित्त का विश्वास नहीं, वरन
पूर्ण अभय चेतना का साक्षात्कार है।
भयभीत चित्त सत्य नहीं, सुरक्षा
चाहता है।
भयभीत चित्त सत्य नहीं, संतोष
चाहता है।
और तब जो धारणा भी सुरक्षा और संतोष देती
मालूम पड़ती है,
वह उसे ही पकड़ लेता है।
और धारणाएं, कोरी मान्यताएं, अन-अनुभूत विश्वास भी क्या सुरक्षा दे सकते हैं, संतोष
दे सकते हैं? सत्य के अतिरिक्त और कोई सुरक्षा नहीं है,
संतोष नहीं है, शांति नहीं है। और सत्य को
पाने के लिए जरूरी है कि चित्त झूठी सुरक्षाओं और संतोषों को छोड़ने का साहस कर
सके। इसलिए साहस को मैं सबसे बड़ा धार्मिक गुण कहता हूं।
एक धर्मगुरु कुछ बच्चों को साहस के संबंध
में समझा रहा था। बच्चों ने कहाः कोई उदाहरण दें। वह धर्मगुरु बोलाः मान लो, एक
पहाड़ी सराय के एक ही कमरे में बारह बच्चे ठहरे हुए हैं। रात्रि बहुत सर्द है। और
जब वे दिन भर की यात्रा के बाद थके-मांदे सोने जाते हैं, तो
ग्यारह बच्चे तो कंबल ओढ़ कर अपने-अपने बिस्तर में घुस जाते हैं, लेकिन एक लड़का उस सर्द रात्रि में भी दिवसांत की अपनी प्रार्थना करने को
कमरे के एक कोने में घुटने टेक कर बैठ जाता है। इसे मैं साहस कहता हूं। क्या यह
साहस नहीं है? और तभी एक बच्चा उठा और उसने कहाः मान लें,
एक सराय में बारह पादरी ठहरे हुए हैं। ग्यारह पादरी रात्रि में सोने
के पहले घुटने टेक कर प्रार्थना करने बैठ गए हैं, लेकिन एक
पादरी कंबल ओढ़ कर अपने बिस्तर में सो जाता है! क्या यह भी साहस नहीं है?
मैं नहीं जानता की उस पादरी पर फिर क्या
गुजरी...या उसने क्या कह कर उन बच्चों से अपनी जान छुड़ाई। लेकिन एक बात मैं अवश्य
ही जानता हूं कि स्वयं होने की शक्ति का नाम ही साहस है। भीड़ से मुक्त व्यक्ति
होने की क्षमता का नाम ही साहस है।
व्यक्ति को व्यक्ति बना देना ही, उसे
साहस देना है। साहस स्वयं पर विश्वास है। साहस आत्मविश्वास है। और साहस के साथ
सिखाएं--विवेक, जागरूकता। धर्म-शिक्षा में वह दूसरा
महत्वपूर्ण तत्व है। विवेक न हो तो साहस खतरनाक भी हो सकता है। फिर वह
आत्म-विश्वास न होकर विक्षिप्त अहंकार भी हो सकता है। साहस शक्ति है, विवेक आंख है। साहस चलाता है, विवेक देखता है।
सुनी है न वह अंधे और लंगड़े की कहानी। जंगल
में लग गई थी आग। और एक अंधे और लंगड़े को भाग कर अपना जीवन बचाना था। अंधा भाग
सकता था, लेकिन देख नहीं सकता था। और आग लगे जंगल में बिना आंखों के भागने का
मृत्यु के अतिरिक्त और क्या अर्थ था? लंगड़ा देख सकता था,
लेकिन भाग नहीं सकता था। और बिना पैरों के देखने वाली आंखों का
मूल्य ही क्या था? और तभी उन्हें एक तरकीब सूझी और वे दोनों
मृत्यु से बच सके। क्या थी उनकी तरकीब? बहुत सरल, एकदम सीधी। अंधे ने लंगड़े को अपने कंधे पर बैठा लिया था।
वह कथा अंधे और लंगड़े की नहीं, साहस और
विवेक की ही कथा है। अज्ञान के अग्नि लगे जंगल से जीवन को बचाना है तो साहस के
कंधों पर विवेक को बैठाना जरूरी है।
साधारणतः मनुष्य मूच्र्छित ही जीता है--जैसे
वह एक नींद में हो। यह नींद स्व-विस्मरण की है। स्व-स्मरण से, स्वयं
के प्रति सचेतन और जागरूक होने से वह नींद टूटती है और विवेक का जन्म होता है।
स्व-स्मरण, स्वयं के प्रति सम्यक स्मृति, आत्म-बोध की दिशा में बच्चों को शिक्षित किया जा सकता है।
चेतना का तीर सामान्यतः बाहर की ओर है। वह
जो स्वयं के बाहर है उसके प्रति ही केवल हम जाग्रत हैं, इस तीर
को स्वयं की ओर भी किया जा सकता है। तब जिसका बोध है वही हमारी सत्ता है। और उसके
बोध के साथ ही वह घटना घटित होती है, जो कि अंधेरे के
निद्रित जीवन से चैतन्य के जाग्रत में ले जाती है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो प्रार्थनाएं और भजन, कीर्तिनादि
चलते हैं, वे स्व-स्मरण तो नहीं, उलटे
आत्म-विस्मृति लाते हैं। उनका सुख निद्रा और बेहोशी का सुख है, वे सब मानसिक मादकताएं हैं।
मैं निद्रा, बेहोशी या तंद्रा में नहीं,
वरन परिपूर्ण होश और जागृति को ही धर्म की साधना कहता हूं। इस होश
के लिए विद्यापीठ भूमिका और अवसर बन सकते हैं। शरीर के तल पर, मन के तल पर और आत्मा के तल पर जागरूकता सिखाई जा सकती है। प्रत्येक कार्य
को सतत होश से करने की विधि क्रमशः जीवन को चेतना से भर देती है। और प्रत्येक
मानसिक प्रक्रिया के प्रति सचेत और साक्षी रहने की साधना चित्त को अपूर्व रूप से
जाग्रत करने वाली है। और प्रतिपल उसका भी बोध जो कि मैं हूं, अंत में आत्म-जागरण बन जाता है।
और तीसरा सूत्र हैः मौन!
शब्द, शब्द और शब्द चित्त को बहुत अशांति
और तनाव से भर देते हैं। विचार, विचार और विचार और मन सारा
विश्राम खो देता है।
मौन का अर्थ हैः मन का विश्राम।
मौन को जानने और जीने से ही मन सदा ताजा और
युवा बना रहता है। और मौन में, पूर्ण मौन में ही चित्त एक दर्पण बन जाता है जिसमें कि
सत्य प्रतिफलित होता है।
अशांत चित्त तो जान ही क्या सकता है? वह तो
खोज ही क्या सकता है? वह तो स्वयं में ही इस भांति उलझ जाता
है कि किसी और दिशा में उन्मुख ही नहीं हो सकता है। सत्य के लिए तो चाहिए गहरी
शांति, समग्र मौन, निर्विचार चित्त की
पूर्ण विश्राम स्थिति। ऐसी चित्तदशा का नाम ही ध्यान है।
बच्चों को चित्त-विश्राम की दिशा में अग्रसर
किया जा सकता है।
चित्त-विश्राम का आधारभूत नियम है--चित्त को
समग्ररूप से शिथिल और मुक्त छोड़ देना। जैसे कोई नदी में बहता हो--तैरता नहीं, बहता
हो--ऐसे ही चित्त की लहरों पर बहना, बस बहना! तैरना जरा भी
नहीं, ऐसा प्रयासरहित प्रयास उस शांति में ले जाता है जिससे
कि मनुष्य बिलकुल ही अपरिचित है।
जीवन में जो भी अर्थ और आनंद छिपा है, वह सब
इस शांति में प्रकट हो जाता है। और जीवन में जो भी सत्य है, वह
उपलब्ध हो जाता है। वस्तुतः तो वह उपलब्ध ही था लेकिन अशांति में दिखाई नहीं पड़ता
था और शांति में अनावृत होकर स्वयं के समक्ष आ जाता है।
धर्म की शिक्षा--साहस, विवेक
और शांति की शिक्षा है।
धर्म की शिक्षा--अभय, जागरूकता
और निर्विचार मौन की शिक्षा है।
और ऐसी शिक्षा निश्चय ही एक नई मनुष्यता की
आधारशिला बन सकती है।
मैं आशा करता हूं कि मैंने जो कहा है उस पर
आप सोचेंगे। मेरी बातें मान नहीं लेना है, उन पर चिंतन और मनन करना है। उन पर
निष्पक्ष विचार करना है। और उन्हें प्रयोग की कसौटी पर कस कर देखना है। सत्य तो हर
अग्नि-परीक्षा से और भी स्वर्ण होकर बाहर निकल आता है।
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